आने वाले
भविष्य में
अगर मनुष्य को
विक्षिप्त
होने से पागल
होने से बचाना
हो तो पूरी
जिंदगी को
स्वीकार करना
पड़ेगा। को के
को। उसमें कोई
खंड काटकर
विरोध में खड़े
नहीं करने
पड़ेगे।
मेरे
प्रिय
आत्मन्।
आज
बहुत से सवाल
जो बाकी रह गए हैं
उन पर बात
करनी है। एक
मित्र ने पूछा
है कि क्या
मैं लोगों को
मरने की बात
सिखा रहा हूं? मृत्यु
लिखा रहा हूं, सिखाना तो
चाहिए जीवन।
उन्होंने
ठीक ही पूछा
है। मैं
मृत्यु की बात
ही सिखा रहा
हूं। मैं मरने
की कला है।
सिखा रहा हूं।
क्योंकि जो
मरने की कला
सीख लेता है, वह
जीवन की कला
में भी
निष्णात हो
जाता है। जो
मरने के लिए
राजी हो जाता
है, वह परम जीवन
का अधिकारी भी
हो जाता है।
सिर्फ वे ही जो
मिटना जान
लेते हैं, वे
ही होना भी
जान पाते है।
ये
बातें उलटी
दिखाई पड़ सकती
हैं,
क्योंकि
हमने जीवन और
मृत्यु को उलटा
और विरोधी मान
रखा है। वे
विरोधी नहीं
हैं और न ही
उलटे हैं।
लेकिन हमने
उन्हें उलटा मान
रखा है। हमने
एक झूठा
कंट्राडिक्यान,
एक झूठा
विरोध उनके
बीच खड़ा कर
रखा है। इसके
बहुत घातक
परिणाम हुए
हैं।
मनुष्य—जाति
को जितनी हानि
इस विरोध की
वजह से हुई है,
उतनी शायद
और किसी बात
से नहीं हुई।
यह विरोध फिर
बहुत तलों पर
फैल गया है।
जो चीजें
इकट्ठी हैं, उन्हें अगर
हम खंड—खंड, टुकड़े
—टुकड़े में
बांट दें और न
केवल खंड में
बांटे बल्कि
विरोधी खंडों
में बांट दें,
तो इसका
अंतिम परिणाम
मनुष्य को
सीजोफ्रेनिक,
विक्षिप्त
बनाने के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं हो
सकता।
समझ
लें,
अगर कोई ऐसी
पागलों की
बस्ती हो जहां
वे ठंडे और
गर्म को
विरोधी और
अलग— अलग
चीजें मानते
हों, तो उस
बस्ती में बड़ी
मुश्किल और
परेशानी शुरू
हो जाएगी। इसलिए
परेशानी शुरू
हो जाएगी कि
ठंडा और गर्म
दो चीजें नहीं
हैं, एक ही
चीज की
मात्राएं
हैं। ठंडक और
गर्मी दो विरोधी
चीजें नहीं
हैं, एक ही
चीज की
मात्राएं
हैं। और जो
हमें ठंडे और
गरम का अनुभव
होता है, वह
निरपेक्ष अनुभव
नहीं है, बहुत
सापेक्ष, बहुत
रिलेटिव
अनुभव है।
एक
छोटा—सा
प्रयोग करके
देखें तो समझ
में आ जाएगा।
चूंकि कभी
वैसा प्रयोग
नहीं किया
होगा, इसलिए
यह पता नहीं
चला होगा।
हमेशा हम
देखते हैं कि
कोई चीज गर्म
है, कोई
चीज ठंडी है।
और हम यह भी
देखते हैं कि
जो गरम है वह
गरम है, जो
ठंडी है वह
ठंडी है। ठंडी
और गरम दोनों
एक कैसे हो
सकती हैं!
घर
लौटकर एक
छोटा—सा
प्रयोग करें।
एक बर्तन में
गरम पानी रख
लें,
एक बर्तन
में बर्फ का
ठंडा पानी रख
लें, और एक
बर्तन में
साधारण पानी
रख लें, न
गरम न ठंडा।
एक हाथ को आग
से उबलते पानी
में डाल दें
और एक हाथ को
बर्फीले ठंडे
पानी में डाल
दें। फिर
दोनों हाथों
को निकाल कर
साधारण पानी
में डाल दें।
और तब दोनों
हाथ अलग— अलग
खबर देंगे। एक
हाथ कहेगा कि
यह पानी ठंडा
है और एक हाथ
कहेगा कि यह
पानी गरम है।
वह पानी ठंडा
है या गरम? एक
हाथ कहेगा कि
पानी गरम है, एक हाथ
कहेगा कि पानी
ठंडा है। फिर
वह पानी क्या
है? और अगर
एक ही साथ एक
हाथ को पानी
ठंडा और एक
हाथ को गरम
मालूम पड़ता है,
तो हमें
समझना पड़ेगा
कि पानी न तो
ठंडा है और न गरम
है। हमारे हाथ
के सापेक्ष, रिलेटीविटी
में वह ठंडा
और गरम मालूम
होता है।
ठंडा
और गरम एक ही
चीज के अनुपात
हैं। वे
भिन्न—भिन्न
चीजें नहीं
हैं। उनमें जो
भेद है, वह
मात्रा का है।
उनमें गुण का
भेद नहीं है।
बचपन में और
बुढ़ापे में
कैसा भेद है, आपने कभी
सोचा है? आमतौर
से हम समझते
हैं कि बड़ी
उलटी चीजें
हैं। कहां
बचपन और कहां
बुढापा।
लेकिन बचपन और
बुढ़ापे में
फर्क क्या है?
सिर्फ
वर्षों का, दिनों का ही
फर्क है न! गुण
का क्या फर्क
है? सिर्फ
मात्रा का ही
फर्क है, क्वांटिटी
का ही फर्क
है। एक बच्चा
पांच साल का
है, चाहें
तो हम कह सकते
हैं कि यह
पांच साल का
बूढ़ा है।
इसमें क्या
कठिनाई है।
सिर्फ हमारी
भाषा की आदत
है कि हम कहते
हैं कि पांच
साल का बच्चा
है। हम चाहें
तो कह सकते
हैं कि पांच
साल का बुढ़ा
है। और
अंग्रेजी में
तो उसे कहते
ही हैं, फाइव
इयर्स ओल्ड।
उसका मतलब यह
है कि पांच
साल का बूढ़ा
है। फिर एक
सत्तर साल का
बूढ़ा है, एक
पांच साल का
बुढ़ा है, दोनों
में फर्क क्या
है? और
चाहें तो
सत्तर साल के
बूढ़े को कह
सकते हैं कि
सत्तर साल का
बच्चा है।
क्या फर्क है?
बच्चा ही तो
बढ़ते —बढ़ते
बूढ़ा हो जाता
है। लेकिन हम
देखते हैं जब
दोनों को अलग—
अलग रखकर तो
लगता है कि दो
विरोधी चीजें
हैं। बचपन और
बुढ़ापा उलटी
चीजें हैं।
अगर
बचपन और
बुढ़ापा उलटी
चीजें हैं, तो
कोई बच्चा कभी
बूढ़ा नहीं हो
सकता है। कैसे
होगा? उलटी
चीजें कैसे हो
जाएंगी? और
कभी आपने पता
लगाया है कि
कोई बच्चा
बूढ़ा किस दिन
हो जाता है? किस रात? कैलेंडर
पर कहीं लिख
सकते हैं कि
फलां दिन यह आदमी
बच्चा था और
फलां दिन यह
आदमी का हो
गया? कैलेंडर
पर कहीं नहीं
लिख सकते।
असल
में कुछ
कठिनाई ऐसी है
कि जैसे
सीढ़ियां हैं
ऊपर छत पर
चढ़ने की। नीचे
की सीडी दिखाई
पड़े,
ऊपर की सीडी
दिखाई पड़े और
बीच की
सीढ़ियां दिखाई
न पड़े, तो
हमें ऐसा
लगेगा कि नीचे
की सीडी और
ऊपर की सीडी
बड़ी दूर, बड़े
फासले पर, अलग—
अलग चीजें
हैं। लेकिन
जिसे पूरी
सीढ़ियां दिखाई
पड़े, वह
कहेगा कि कोई
फर्क नहीं है।
नीचे की सीढ़ी
और ऊपर की
सीडी के बीच
सिर्फ
सीढ़ियों का ही
फर्क है। जो
नीचे की सीडी
है, वही
ऊपर की सीढ़ी
से जुड़ी है।
नरक और स्वर्ग
में गुण का
फर्क नहीं है,
मात्रा का
ही फर्क है।
ऐसा मत सोच
लेना कि नरक
उलटा है और
स्वर्ग उलटा
है। नरक और
स्वर्ग में
वही फर्क है
जो ठंडे और
गर्म में, जो
नीचे की सीडी
में और ऊपर की
सीडी में, जो
बच्चे में और
बूढ़े में है।
और
जन्म में और
मृत्यु में भी
उतना ही फर्क
है। नहीं तो
कोई जन्मा हुआ
व्यक्ति कभी
नहीं मर
पाएगा। अगर
विरोध हो, तो
जन्म मृत्यु
पर पहुंच कैसे
सकता है? हम
पहुंच तो वहीं
सकते हैं जो
हमारा सहज
विकास हो।
जन्म
बढ़ते—बढ़ते, बढ़ते —बढ़ते
मृत्यु बन
जाती है। इसका
मतलब यह है कि
जन्म और
मृत्यु एक ही
चीज के दो
बिंदु हैं।
एक
बीज को हम
बोते हैं, वह
बढ़ते —बढ़ते, बढ़ते —बढ़ते
पौधा बन जाता
है, फिर
फूल बन जाता
है। बीज में
और फूल में
विरोध माना है
कभी? बीज
से ही तो फूल
निकलता है और
फूल बन जाता
है। बीज में
विकास है, बीज
में ग्रोथ है।
जन्म
ही मृत्यु बन
जाता है।
लेकिन न मालूम
कैसी नासमझी
में,
न मालूम किस
दुर्दिन में
आदमी को यह
खयाल बैठ गया
है कि जन्म और
मृत्यु में विरोध
है, जीवन
और मौत अलग—
अलग बातें
हैं। हम जीना
चाहते हैं, हम मरना
नहीं चाहते।
और हमें यह
पता नहीं है कि
जीने में मरना
छिपा ही है।
और जब हमने एक
बार तय कर
लिया कि हम
मरना नहीं
चाहते, तो
उसी वक्त तय
हो गया कि हमारा
जीना कठिन और
मुश्किल में
पड़ जाएगा।
यह
सारी
मनुष्य—जाति
सीजोफ्रेनिक
हो गई है। उसका
मस्तिष्क
खंड—खंड में, डिसइटीग्रेटेड,
टुकड़े
—टुकड़े में
टूट गया है।
उसके टूटने का
कारण है। हमने
सारे जीवन को'
खंड —खंड
में लिया है, और खंडों को
विरोध में खड़ा
कर दिया है।
एक ही आदमी है,
उस आदमी में
हमने टुकड़े
—टुकड़े कर दिए
हैं, और
टुकड़े —टुकड़े
में विरोध तय
कर दिया है कि
ये विरोधी
टुकड़े हैं। और
हमने सब तरफ ऐसा
किया है, सब
तरफ ऐसा किया
है। आदमी से
कहते हैं, क्रोध
मत करना, क्षमा
करना। और खयाल
भी नहीं है
हमें कि क्षमा
और क्रोध के बीच
सिर्फ मात्रा
का भेद है, क्रोध
और क्षमा के
बीच विरोध
नहीं है, सिर्फ
मात्रा का भेद
है। वही
डिग्री का भेद
है जो ठंड और
गरमी के बीच
है, वही जो
बचपन और
बुढ़ापे के बीच
है। ऐसा कह
सकते हैं कि
बहुत कम हो गई
क्षमा का नाम
क्रोध है, ऐसा
कह सकते हैं
कि बहुत कम हो
गए क्रोध का
नाम क्षमा है।
उनमें विरोध
नहीं है।
लेकिन
मनुष्य की
पुरानी सारी
शिक्षाएं ऐसा
सिखाती हैं कि
क्रोध छोडो और
क्षमा वरण करो, जैसे
कि क्रोध और
क्षमा विरोधी
चीजें हैं। कि
तुम क्रोध को
काट डालो और
क्षमा को बचा
लो। इसका एक
ही परिणाम हो
सकता है कि
आदमी खंड—खंड
में टूट जाए
और परेशानी
में पड़ जाए, मुश्किल में
पड़ जाए।
पुराना सारा
आधार कहता है
कि काम, सेक्स
और
ब्रह्मचर्य
उलटी चीजें
हैं। इससे ज्यादा
गलत कोई बात
नहीं हो सकती।
ब्रह्मचर्य कम
से कम हो गया
सेक्स है।
सेक्स ज्यादा
से ज्यादा
उतरता —उतरता,
कम —कम होता
हुआ
ब्रह्मचर्य
है। उन दोनों
के बीच जो
फासला है, वह
दुश्मनी का और
विरोध का नहीं
है।
ध्यान
रहे,
जगत में
विरोध जैसी
कोई चीज ही
नहीं है। असल
में विरोध
जैसी चीज जगत
में हो ही
नहीं सकती, नहीं तो दो
विरोध को
मिलाने का
उपाय ही न रह
जाएगा, मार्ग
ही न रह
जाएगा। अगर
मृत्यु अलग हो
और जन्म अलग
हो, तो
जन्म अपने
रास्ते पर
चलेगा, मृत्यु
अपने रास्ते
पर चलेगी, पैरलल,
लेकिन
मिलेंगे कहीं
भी नहीं। जैसे
दो समानांतर
रेखाएं कहीं
भी नहीं मिलती,
ऐसे ही जन्म
और मृत्यु की
कहीं भी
मुलाकात न हो
पाएगी। यह
कैसे संभव है!
जन्म
और मृत्यु
घुले—मिले हैं, एक
ही चीज के दो
छोर हैं। जब
मैं यह कह रहा
हूं तो मैं
असल में यह कह
रहा हूं कि
आने वाले
भविष्य में
अगर मनुष्य को
विक्षिप्त
होने से, पागल
होने से बचाना
हो, तो
पूरी जिंदगी
को स्वीकार
करना पड़ेगा।
पूरे को, पूरे
के पूरे को।
उसमें कोई खंड
काटकर विरोध में
खड़े नहीं करने
पड़ेंगे।
और
यह बड़े
आश्चर्य की
बात है कि जो
कहेगा कि काम, सेक्स
ब्रह्मचर्य
से उलटा है तो
सेक्स को काट डालो,
तो वह सेक्स
को काट डालने
की चेष्टा में
ही नष्ट हो
जाएगा, ब्रह्मचर्य
को कभी भी
उपलब्ध नहीं
हो सकता। सेक्स
को काट डालने
की चेष्टा में
चित्त सेक्स
पर ही अटका रह
जाएगा, ब्रह्मचर्य
कभी उपलब्ध
होने वाला
नहीं है। और
उस व्यक्ति का
चित्त अत्यंत
तनाव में, परेशानी
में पड़ जाएगा।
उसकी मौत हो
गई। उसकी जिंदगी
दूभर हो जाएगी,
वह बोझिल हो
जाएगा, वह
जी ही नहीं
पाएगा। एक
क्षण नहीं जी
पायेगा। वह
बड़ी कठिनाई में
पड़ गया।
और
अगर ऐसा समझा
जाए जैसा मैं
कह रहा हूं—और
वैसा ही तथ्य
है—कि सेक्स
और
ब्रह्मचर्य में
नीचे की सीढ़ी
और ऊपर की
सीढ़ी का संबंध
है। सेक्स पर
ही कदम
रखते—रखते, रखते
—रखते, रखते
—रखते, आदमी
ब्रह्मचर्य
में प्रविष्ट
हो जाता है। वह
सेक्स की ही
कम से कम होती
गई मात्रा है,
कम से कम
होती गयी
मात्रा है। उस
जगह जहां कि करीब—करीब
ऐसा लगता है
कि सब शून्य
हो गया है, वह
आखिरी छोर आ
गया। तो फिर
जीवन में
विरोध नहीं
होता, तनाव
नहीं होता।
फिर जीवन में
अशांति नहीं
होती, फिर
हम जीवन को
सहज जी सकते
हैं।
मैं
जो विचार आपसे
कह रहा हूं,
वह सहज जीवन
को जीने का है,
सब पहलुओं
पर अत्यंत
सहजता से।
लेकिन हम कहीं
भी उसको सहजता
से नहीं जी
पाते, क्योंकि
हम उसे असहज
बनाने की तरकीबें
सीख गए हैं।
अगर हम किसी
आदमी को कह दें
कि तू सिर्फ
बाएं पैर से
चलना, क्योंकि
बायां पैर
धर्म है और
दायां पैर
अधर्म है, दाएं
से मत चलना।
और अगर वह
आदमी यह समझ
ले और समझने
वाले मिल सकते
हैं, क्योंकि
हर तरह की
नासमझियों को
समझने वाले सदा
मिल गए हैं।
ऐसे आदमी मिल
जाएंगे, जो
इस बात के लिए
राजी हो
जाएंगे कि
बाएं पैर से
चलना धर्म है
और दाएं पैर
से चलना अधर्म
है, तब वे
दाएं पैर को
काटने लगेंगे
और बाएं से
चलने की कोशिश
करने लगेंगे।
वे कभी भी न चल
पाएंगे।
दाएं
और बाएं दोनों
पैरों का मेल
चलाता है, कोई
एक पैर नहीं
चलाता है।
यद्यपि प्रति
बार जब उठता
है, तब एक
ही पैर उठता
है। यह भूल हो
सकती है। क्योंकि
जब भी आप
उठाते हैं तो
एक ही पैर
उठाते हैं।
इसलिए भूल हो
सकती है इस बात
की कि चलते
हैं एक पैर से,
क्योंकि जब
उठाते हैं तो
एक पैर उठाते
हैं। लेकिन
पता रहे, कि
जब एक उठता है,
तब उसके
उठने में वह
जो दूसरा खड़ा
है, वह
उतना ही
सहयोगी है
जितना उसका
उठना। जो रुक
गया है, जो
ठहर गया है, वह उतना ही
आधार है।
जिस
दिन कोई
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होता है, उस
दिन ठहर गया
सेक्स उतना ही
आधार होता है,
जितना
बायां पैर जब
उठता है और
दायां खड़ा
होकर उसका
आधार होता है।
अगर दायां न
हो तो बायां उठ
न पाएगा। ठहर
गया सेक्स
ब्रह्मचर्य
के लिए कदम
बनता है। और
ब्रह्मचर्य
का कदम उठ
इसलिए सकता है
कि सेक्स का
कदम ठहरा हुआ
है। लेकिन
सेक्स के कदम
को काट डालो
जड से, तोड़
डालो, तो
सेक्स कट
जाएगा, पर
ब्रह्मचर्य
उपलब्ध नहीं
होगा और
मनुष्य अधर
में लटका हुआ
रह जाएगा।
जैसा कि सारी
पुरानी
शिक्षाओं ने
मनुष्यता को
अधर में लटका
दिया है।
जिंदगी
में जो हमें
दिखायी पड़ रहा
है,
वे सब दाएं
और बाएं कदम
हैं, वे सब
दाएं और बाएं
पैर हैं। यहां
जिंदगी में सब
इकट्ठा है। एक
ही बड़े संगीत
के स्वर हैं।
इसमें कुछ भी
कांटा, तो
कठिनाई हो
जाएगी। कोई
आदमी कह सकता
है कि काला
रंग बुरा है।
लोग हैं कहने
वाले कि काला
रंग बुरा है, तो शादी में
काली साड़ी न
पहनने देंगे।
और कोई मर
जाएगा तो काला
कपडा
पहनेंगे।
काले रंग को बुरा
कहने वाले लोग
हैं और सफेद
रंग को पवित्र
कहने वाले लोग
हैं। ठीक है, प्रतीक की
तरह बात हो भी
सकती है।
लेकिन अगर कोई
कहे कि काले
रंग को काट
डालेंगे, मिटा
डालेंगे
दुनिया से, तो ध्यान
रहे, काले
रंग के मिटते
ही सफेद रंग
बहुत कम सफेद
रह जाएगा।
क्योंकि सफेद
की बहुत सफेदी
उसके चारों
तरफ फैले हुए
काले से ही
आती है।
स्कूल
में बोर्ड पर
शिक्षक लिखता
है,
तो काले
बोर्ड पर
लिखता है सफेद
खड़िया से। पागल
है? सफेद
दीवाल पर
क्यों नहीं
लिखता? लिखा
जा सकता है।
सफेद दीवाल पर
लिखा जा सकता है,
लेकिन पढ़ा
नहीं जा सकता
है। क्योंकि
वह जो सफेदी
उभरती है, वह
पीछे के काले
से उभरती है।
असल में सफेदी
के उभार में
काले का हाथ
है। और जिसने
काले की दुश्मनी
की, उसका
सफेद फीका हो
जाएगा, यह
ध्यान रखना।
जिसने
क्रोध का
विरोध किया, उसकी
क्षमा एकदम
नपुंसक, इंपोटेंट
हो जाएगी, फीकी
हो जाएगी।
क्योंकि
क्षमा में जो
बल है, वह
क्रोध का है।
वह जो क्रोध
कर सकता है, उसमें ही
क्षमा का बल
है। जितना बड़ा
क्रोध उसके
भीतर जग सकता
है, उतनी
ही बडी क्षमा
की यात्रा हो
सकती है। और
उसकी क्षमा
में जो रौनक
आएगी, वह
रौनक आएगी
क्रोध के तेज
से। अगर क्रोध
नहीं है, तो
क्षमा बिलकुल
बेरौनक हो
जाएगी, एकदम
मुर्दा और मरी
हुई होगी। और
अगर किसी व्यक्ति
का सेक्स कट
जाए—उसके
काटने के उपाय
हैं—लेकिन
ध्यान रहे, तब वह
ब्रह्मचारी
नहीं हो सकेगा
सिर्फ नपुंसक
हो जाएगा। और
इन दोनों बातों
में बुनियादी
फर्क है।
सेक्स को काट
डालने के उपाय
हैं, लेकिन
सेक्स को
मिटाकर कोई
ब्रह्मचारी
नहीं हो सकता,
सिर्फ
इंपोटेंट
होगा, सिर्फ
नपुंसक होगा।
ही, सेक्स
को रूपांतरित
करके, सेक्स
को स्वीकार
करके, उसकी
ऊर्जा को आगे
की यात्रा पर
ले जाकर कोई
ब्रह्मचर्य को
उपलब्ध हो
सकता है।
लेकिन ध्यान
रहे, ब्रह्मचारी
की आंखों में
जो तेज है वह
सेक्स की
शक्ति का ही
तेज है, है
शक्ति वही, वही शक्ति
रूपांतरित हो
गई है।
तो
मैं आपसे यह
कह रहा हूं कि
जीवन में
जिनको हम
विरोध कहते
हैं,
वे विरोध
नहीं हैं।
जीवन एक बहुत
रहस्यपूर्ण व्यवस्था
है। उस
रहस्यपूर्ण
व्यवस्था में
विरोध खडे किए
गए हैं ताकि
चीजें हो
सकें। कभी आपने
देखा है, एक
मकान बन रहा
हो, उसके
घर के सामने
ईंटों का ढेर
लगा हो। सब
ईंटें एक जैसी
हैं। फिर
आर्किटेक्ट
है, मकान
बनाने वाला वह
वास्तुशिल्पी
है, इंजीनियर
है, वह
मकान पर एक
आर्च बना रहा
है, एक
द्वार बना रहा
है, एक गोल
दरवाजा बना
रहा है। वह
ईंटों को
विरोध में रख
देता है।
एक—सी ईंटें
थीं। वह ईंटों
को एक दूसरे
के खिलाफ रख
देता है
दरवाजे पर और
खिलाफ में रखी
गई ईंटें एक
दूसरे को
संभाल लेती
हैं। वे सब
ईंटें एक जैसी
थीं, उनमें
कोई फर्क न
था। और अगर
उनको वह एक
जैसा रख दे, तो आर्च न
बनेगा, दरवाजा
फौरन गिर
जाएगा।
क्योंकि एक
जैसी ईंटों
में कोई बल
नहीं होता, क्योंकि
रेसिस्टेंस
नहीं होता।
जहां विरोध हो
जाता है, वहां
बल आ जाता है।
सब बल विरोध से
पैदा होता है,
सब ऊर्जा
विरोध से पैदा
होती है। जीवन
में जो ऊर्जा
पैदा हुई है, जो शक्ति
पैदा हुई है, जो इनर्जी
पैदा हुई है, उस का सूत्र
है विरोध।
लेकिन जो
ईंटें हैं, वे बिलकुल
एक जैसी हैं।
उनको विरोध
में रखा गया
है।
वह
जो परमात्मा
है,
वह जो
आर्किटेक्ट
है जीवन का, वह बहुत
होशियार है।
वह जानता है
कि जीवन एकदम
ठंडा हो जाएगा,
एकदम विलीन
हो जाएगा, अगर
ईंटें विरोध
में न रखी जा
सकें। तो उसने
ईंटें विरोध
में रख दी
हैं। क्रोध की
ईंटें हैं, क्षमा की
ईटं हैं, सेक्स
की ईंटें हैं,
ब्रह्मचर्य
की ईंटें हैं,
वे विरोध
में रख दी गई
हैं। और इन
दोनों के
विरोध से, रेसिस्टेंस
से शक्ति और
ऊर्जा पैदा हो
गई है। वह
ऊर्जा जीवन
है। उसने जन्म
और मृत्यु की
ईंटों को जमा
कर रख दिया
है। और उन
दोनों से
मिलकर जीवन का
द्वार बन गया
है।
अब
कुछ लोग हैं
जो कहते हैं, हम
जीवन की ईंट
ही स्वीकार
करेंगे, हम
मृत्यु की ईंट
स्वीकार नहीं
करते। मत करो! न
करोगे तो उसी
वक्त मर
जाओगे।
क्योंकि तब
एक—सी ईंटें
रह जाएंगी
जीवन—जीवन की
ईंटें रह जाएंगी।
वे उसी वक्त
गिर जाएंगी।
यह
भूल बहुत
दोहराई जा
चुकी है। इससे
कोई दस हजार
साल से आदमी
बुरी तरह
पीड़ित और
परेशान है। वह
कहता है, हम एक
सी ईंटें
रखेंगे।
विरोधी ईंट
नहीं चाहिए, विरोध को
हटा दो। वह
कहता है, या
तो हम
परमात्मा को
मानेंगे तो
परमात्मा को ही
मानेंगे, फिर
हम संसार को न
मानेंगे। वह
कहता है, परमात्मा
है तो संसार
है ही नहीं, हम संसार को
मान ही नहीं
सकते। वह कहता
है, हम
जंगल चले
जाएंगे, हम
बाजार में खड़े
नहीं हो सकते,
हम दुकान पर
नहीं बैठ सकते,
हम
संन्यासी हो
जाएंगे, क्योंकि
हम परमात्मा
को मानते हैं।
और वह परमात्मा
की ही ईंटों
से संसार को
बना ले......।
तो
खयाल करें, अगर
भूल—चूक से
कभी दुनिया का
दिमाग बिगड़
जाए और सारे
लोग संन्यासी हो
जाएं, तो
क्या परिणाम
होंगे? ठीक
उसी दिन—ठीक
उसी दिन, एक
दिन भी आगे
नहीं चलेगा
मामला —उसी
दिन पृथ्वी
राख हो जाएगी।
असल
में वह जो
संन्यासी है, उसको
पता नहीं है
कि वह
संन्यासी भी
जिंदा है, उसका
बायां कदम उठ
रहा है, क्योंकि
कोई दुकान पर
बैठा हुआ
संसारी काम
चला रहा है।
उधर एक पैर
रुका हुआ है, इसलिए यह
पैर उठ रहा
है। संन्यासी
के प्राण आ रहे
हैं संसारी
से। वह भ्रम
में है कि वह
अपने में जी
रहा है। उसके
सारे प्राण आ
रहे हैं संसारी
से। और वह
संसारी को
गाली दिए जा
रहा है। और वह
कह रहा है कि
सब संसारी संसार
छोड़ दो और
संन्यासी हो
जाओ। उसे पता
नहीं कि वह
आत्महत्या का
उपाय करवा रहा
है। उसमें वह
भी मरेगा, उसमें
वह भी नहीं बच
सकता। उसमें
वह भी मिट जाएगा।
क्योंकि वह एक
—सी ईंटें
रखने के खयाल
में है।
इससे
उलटे लोग भी
हैं। वे कहते
हैं,
कोई
परमात्मा
नहीं है, संसार
ही संसार है।
हम तो सिर्फ
पदार्थ को
मानते हैं।
उन्होंने भी
एक दुनिया
बनाने की
कोशिश की, सिर्फ
पदार्थ को
मानकर बनाने
की। उनकी भी
बड़ी मुश्किल
हो गई है। वे
भी बड़े उपद्रव
में पहुंच गए
हैं। वे वहा
पहुंच गए हैं,
जहां
आत्महत्या
वहां भी हो
जाएगी।
क्योंकि अगर
पदार्थ ही
पदार्थ है और
कोई परमात्मा
नहीं है, तो
जीवन से वह
बात गई जो रस
लाती है, जो
खिंचाव लाती
है, जो गति
लाती है, जो
उठने की
अभीप्सा लाती
है। वह बात
गई। अगर कोई
परमात्मा
नहीं है और
पदार्थ ही
पदार्थ है, तो जीवन में
अर्थ कहां है
फिर? जीवन
बिलकुल
व्यर्थ हो
गया।
इसलिए
पश्चिम में
मीनिगलेसनेस
की बात चलती है
—सार्त्र हैं, कामू
हैं, काफ्का
हैं, और
सारे लोग हैं,
मासेंल्स
हैं—आज पश्चिम
के सारे
विचारकों का एक
स्वर है कि
जीवन जो है वह
अर्थहीन है।
शेक्सपीयर का
एक वचन एकदम
सार्थक हो गया
है। अब वह सारे
पश्चिम के
विचारक यह दोहराते
हैं जिंदगी के
बाबत, ए
टेल टोल्ड बाई
एन ईडियट, फुल
आफ क्यूरी ऐंड
न्वायज
सिग्नीफाइंग
नथिंग। एक
मूर्ख के
द्वारा कही गई
कहानी है यह
जिंदगी, जिसमें
शोर—गुल बहुत
है, मतलब
बिलकुल नहीं।
मलतब हो भी
नहीं सकता, अर्थ हो भी
नहीं सकता।
क्योंकि
पदार्थ ही पदार्थ
की ईंटें रख
लीं तुमने, तो मतलब
बिलकुल खो
जाएगा। जैसे
अकेले संन्यासी
संसार से मतलब
हटा देंगे, वैसे अकेले
संसारी भी
मतलब हटा
देंगे।
यह
बड़े मजे की
बात है कि
संसारी के ऊपर
संन्यासी का
पैर चलता है।
और यह भी मजे
की बात है कि
संन्यासी के
पैर के ऊपर
संसारी का भी
पैर चलता है।
असल में बाएं
पर दायां
निर्भर है, दाएं
पर बायां
निर्भर है। और
यह निर्भर
विरोध मालूम
पड़ता है, लेकिन
गहरे में
विरोध नहीं
है। यह एक ही
व्यक्तित्व
के दोनों पैर
हैं, जिन
पर एक
व्यक्तित्व
सधता है और एक
व्यक्तित्व
चलता है। जीवन
के इस विरोध
को ठीक से
समझे बिना कोई
भी व्यक्ति
जीवन के
पूर्ण. सत्य
को कभी अनुभव
नहीं कर सकता
है। और जो
विरोध में
कहेगा कि आधे
को हम काट
देंगे, वह
अभी बहुत
बुद्धिमानी
को उपलब्ध
नहीं हुआ है।
आधे को कांटा
जा सकता है, लेकिन आधे
के कटते ही
शेष आधा भी मर
जाएगा। क्योंकि
उस आधे का
जीवन और प्राण
इस आधे से
अनिवार्य रूप
से मिलता
था—इसी से
मिलता था।
मैंने
सुना है, दो
फकीर थे और उन
दोनों फकीरों
में एक विवाद
था, बड़ा
लंबा विवाद
था। उनमें एक
फकीर था, जो
इस बात को
मानता था कि
कुछ पैसे
वक्त—बेवक्त
के लिए अपने
पास रखना जरूरी
है, उचित
है। वह निरंतर,
दूसरे
मित्र से उसका
निरंतर विवाद
होता था। दूसरा
मित्र कहता था,
पैसे की
क्या जरूरत है?
पैसे रखने
की क्या जरूरत
है? हम
संन्यासी हैं,
हमें पैसे
की क्या जरूरत
है? पैसे
तो वे रखते
हैं, जो
संसारी हैं।
वे दोनों
दलीलें देते
थे और वे
दोनों ठीक ही
दलीलें देते
थे, ऐसा
मालूम पड़ता
था।
इस
जगत का बड़ा
रहस्य यह है
कि इस जगत के
बड़े रहस्य में
जो विरोध की
ईंटें रखी गई
हैं,
उनमें से
किसी भी एक
ईंट के संबंध
में पूरी दलीलें
दी जा सकती
हैं। और दूसरी
ईंट के संबंध में
भी उतनी ही
दलीलें दी जा
सकती हैं। और
यह विवाद कभी
अंत नहीं हो
सकता, क्योंकि
वे दोनों
ईंटें लगी हुई
हैं। कोई भी इशारा
करके बता सकता
है कि देखो, मेरी ईंटों
से बना हुआ है
यह। और दूसरा
भी बता सकता
है कि मेरी
ईंटों से बना
हुआ है। और
जिंदगी इतनी
बड़ी है कि बहुत
कम लोग इतना
विकास कर पाते
हैं कि पूरे
द्वार को देख
पाएं। वह जो
ईंटें उनको
दिखाई पड़ती हैं,
उतनी ही देख
पाते हैं। वे
कहते हैं, ठीक
ही तो कहते हो,
संन्यास से
ही तो बना हुआ
है; ठीक ही
तो कहते हो, ब्रह्म से
बना हुआ है, ठीक ही तो
कहते हो, आत्मा
से बना है। वह दूसरा
कहता है, पदार्थ
से बना है, मिट्टी
से बना है।
डस्ट अनटू
डस्ट, सब
मिट्टी का
मिट्टी में
गिर जाएगा—उसी
से बना हुआ है,
और कुछ भी
नहीं है। वह
भी ईंटें बता
सकता है। इसलिए
न आस्तिक
जीतता है, न
नास्तिक
जीतता है। न
पदार्थवादी
जीतता है, न
अध्यात्मवादी
जीतता है। जीत
भी नहीं सकते
हैं, क्योंकि
वे जिंदगी को
आधा— आधा
तोड़कर कह रहे
हैं।
तो
उन दोनों में
बड़ा विवाद था।
वह जो कहता था
कि पैसे पास
होना जरूरी है, एक
जो कहता था कि
पैसे की क्या
जरूरत है। वे
दोनों एक दिन
सांझ एक नदी
के किनारे
भागे हुए पहुंचे
हैं। रात
उतरने के करीब
है। माझी नाव
बांध रहा है।
नाव बांधते उस
मांझी से
उन्होंने कहा,
नाव मत
बांधो, हमें
उस पार पहुंचा
दो, रात
उतरने को है, हमें उस पार
जाना जरूरी
है। उस मांझी
ने कहा, अब
तो मैं दिन भर
का काम निपटा
चुका और अपने
गांव वापस लौट
रहा हूं। अब
सुबह उतार
दूंगा। उन्होंने
कहा, नहीं,
सुबह तक हम
प्रतीक्षा
नहीं कर सकते।
हमारा गुरु—उनका
गुरु, उनका
फकीर जिसके
पास उन्होंने
जीया, जाना,
पहचाना
जीवन को—वह
मृत्यु के
निकट है और
खबर आई है कि
सुबह तक उसके
प्राण निकल
जाएंगे। उसने
हमें बुलावा
भेजा है। हम
रात नहीं रुक
सकते। तो माझी
ने कहा कि मैं
पांच रुपए
लूंगा, तो
उतार दूंगा।
तो जो फकीर
कहता था कि
रुपए पास रखना
चाहिए, वह
हंसा और उसने
कहा, कहो
दोस्त, अब
क्या खयाल है?
उस फकीर से
कहा जो कहता
था कि पैसे
रखना बिलकुल
व्यर्थ है।
उससे उसने कहा,
कहो मित्र,
क्या खयाल
है? पैसा
रखना व्यर्थ
है या सार्थक
है? वह
दूसरा आदमी
सिर्फ हंसता
रहा। फिर उसने
पांच रुपए
निकाले, मांझी
को दिए। वह
जीत गया है।
फिर वे नाव पर
सवार हुए और
उस पार पहुंच
गए। फिर उतर
कर उसने कहा, कहो मित्र, आज नदी के
पार न उतर
पाते, अगर
पैसे पास न
होते। वह
दूसरा खूब
हंसने लगा।
उसने कहा, हम
पैसे पास होने
की वजह से नदी
पार नहीं उतरे
हैं। तुम पैसे
छोड़ सके, इसलिए
नदी के पार
उतरे हैं।
पैसा होने से
नहीं, पैसा
छोड़ने से उतरे
हैं नदी के
पार। दलील फिर
अपनी जगह खड़ी
हो गई। उसने
कहा, मैं
सदा कहता हूं, पैसे छोड़ने
की हिम्मत
होनी चाहिए
संन्यासी को।
हम पैसे छोड
सके, इसलिए
पार आ गए। अगर
तुम पकड लेते,
न छोड़ते, तो कैसे पार
आते?
अब
बड़ी मुश्किल
हो गई। वह
दूसरा भी
हंसा। वे दोनों
अपने गुरु के
पास गए और
मरते हुए गुरु
से उन्होंने
पूछा कि क्या
करें? बड़ी
मुश्किल है!
और आज तो घटना
ऐसी घट गई है
साफ—साफ। पहले
वाले ने कहा
कि पैसे थे, इसलिए हम
उतरे हैं और
दूसरा कहता है,
पैसे छोड़े,
इसलिए हम
उतरे हैं। और
हम अपने
सिद्धातों पर
अडिग हैं। और
हमारे दोनों
के सिद्धात
ठीक मालूम
पड़ते हैं। वह
गुरु खूब
हंसा। उसने
कहा कि तुम
दोनों पागल
हो। तुम वही
पागलपन कर रहे
हो, जो
आदमी बहुत
जमाने से कर
रहा है। क्या
पागलपन है? उन्होंने
पूछा। गुरु ने
कहा, तुम
एक सत्य के
आधे हिस्से को
देख रहे हो।
यह सच है कि
पैसे छोड़ने से
ही तुम नाव से
उतर सके, लेकिन
दूसरी बात भी
उतनी ही सच है
कि तुम पैसे इसलिए
छोड़ सके कि
पैसे
तुम्हारे पास
थे। और यह भी
सच है कि पैसे पास
होने से ही
तुम नदी पार
उतरे, लेकिन
दूसरी बात भी
उतनी ही सच है
कि अगर पास ही
होते तो तुम
नदी उतर न
सकते थे। तुम
पास से दूर कर
सके, इसलिए
तुम नदी उतरे।
ये दोनों ही
बातें सच हैं।
और ये दोनों
बातें ही
इकट्ठा जीवन
है और इनमें
विरोध नहीं
है।
जीवन
के सारे तलों
पर ऐसा ही
विरोध हमने
बांट कर रखा
है। और हर विरोध
का मानने वाला
अपनी दलील दे
सकता है। कठिनाई
नहीं है।
क्योंकि उसके
पास भी आधी
जिंदगी तो है
ही। और आधी
जिंदगी कोई कम
बात है? बहुत
है, दलील
के लिए काफी
है। इसलिए
दलील से कुछ
हल नहीं होता,
खोजना
पड़ेगा पूरी
जिंदगी को।
मैं
जरूर मृत्यु
सिखाता हूं,
लेकिन इसका
मतलब यह नहीं
है कि मैं
जीवन का विरोधी
हूं। इसका
मतलब ही यह है
कि जीवन को
जानने का, जीवन
को पहचानने का
द्वार ही
मृत्यु है।
इसका मतलब यह
है कि मैं
जीवन और
मृत्यु को
उलटा नहीं
मानता। चाहे
मैं उसको
मृत्यु की कला
कहूं, चाहे
जीवन की कला
कहूं दोनों
बातों का एक
ही मतलब होता
है। यह किस
तरफ से हम
देखते हैं। तो
आप पूछेंगे कि
मैं उसे जीवन
की कला क्यों
नहीं कहता हूं?
कुछ कारण
हैं, इसलिए
नहीं कहता
हूं।
पहली
तो बात यह है
कि हम सब जीवन
के प्रति अति
मोह से भरे
हुए हैं। वह
अनबैलेंस्ट
हो गया है
मोह। अति मोह
से भरे हुए
हैं जीवन के
प्रति। मैं
जीवन की कला
भी कह सकता
हूं, लेकिन नहीं
कहूंगा आपसे,
क्योंकि आप
जीवन के अति
मोह से भरे
हुए हैं। और
जब मैं कहूंगा
कि जीवन सीखने
आयें, तो
आप जरूर भागे
हुए चले आएंगे,
क्योंकि आप
अपने जीवन के
मोह को और
परिपुष्ट
करना
चाहेंगे।
इसलिए
मैं कहता हूं
मृत्यु की
कला। और इसलिए
कहता हूं ताकि
आप बैलेंस, संतुलन
पर आ जाएं। आप
मरना सीख लें,
तो जन्म और
मृत्यु बराबर
खड़े हो जाएं, दाएं और
बाएं पैर बन
जाएं। तो आप
परम जीवन को उपलब्ध
हो जाएंगे।
परम जीवन में
न जन्म है, न
मृत्यु है; लेकिन परम
जीवन के दोनों
पैर हैं, जिनको
हम जन्म कहते
हैं और मृत्यु
कहते हैं।
ही, अगर
कोई गांव ऐसा
हो, जो
सुसाइडल हो, ऐसा कोई गाव
हो जहां सारे
लोग मरने के
मोही हों, जहां
कोई आदमी जीना
न चाहता हो, तो वहां मैं
जाकर मृत्यु
की कला की बात
नहीं कहूंगा।
वहां जाकर मैं
कहूंगा कि
जीवन की कला
सीखें, आयें
हम जीवन की
कला सीखें। और
उनसे मैं
कहूंगा कि
ध्यान जीवन का
द्वार है, जैसा
मैं आपसे कहता
हूं कि ध्यान
मृत्यु का द्वार
है। उनसे मैं
कहूंगा, आओ,
जीना सीखो,
क्योंकि
अगर तुम जीना
न सीख पाओगे
तो मर भी न पाओगे।
अगर तुम मरना
चाहते हो, तो
मैं तुम्हें
जीवन की कला
सिखाता हूं।
क्योंकि तुम
जीना सीख
जाओगे तो मरना
भी सीख जाओगे।
तभी वे आयेंगे
उस गांव के
लोग।
आपका
गांव उलटा है।
आप दूसरे उलटे
गांव के
निवासी हैं, जहां
कोई मरना नहीं
चाहता, जहां
सब जीना चाहते
हैं और जीने
को इतने जोर से
पकड़ना चाहते
हैं कि मृत्यु
आए ही नहीं।
तो इसलिए
मजबूरी में
आपसे मरने की
बात करनी पड़ती
है। यह सवाल
मेरा नहीं है,
आपकी वजह से
मृत्यु की कला
मैं कह रहा
हूं। मैं
निरंतर एक बात
कहता रहा हूं।
बुद्ध
ने एक दिन एक
गांव में
प्रवेश किया।
सुबह ही सुबह
है,
अभी सूरज
निकल ही रहा
है। और एक
आदमी उनसे मिलने
आया और उसने
कहा, सुनिए,
मैं
नास्तिक हूं, मैं ईश्वर
को नहीं मानता
हूं। आपका
क्या खयाल है,
ईश्वर है? बुद्ध ने कहा,
ईश्वर है!
ईश्वर है ही
नहीं, सिर्फ
ईश्वर ही है, और कुछ भी
नहीं। उस आदमी
ने कहा, मैंने
तो सुना था कि
आप नास्तिक
हैं। बुद्ध ने
कहा, तुमने
गलत सुना
होगा। अब तो
तुमने मुझसे
सुन लिया न!
मैं महा
आस्तिक हूं।
ईश्वर है, उसके
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं है।
वह आदमी बेचैन—सा
वृक्ष के नीचे
खडा रह गया।
बुद्ध आगे बढ़े।
दोपहर
को एक आदमी और
आया और उस
आदमी ने कहा
कि मैं आस्तिक
हूं, मैं परम
आस्तिक हूं
मैं
नास्तिकों का
दुश्मन हूं।
मैं आपसे
पूछने आया हूं
कि ईश्वर के
संबंध में
आपका क्या
खयाल है? बुद्ध
ने कहा, ईश्वर?
न है, न
हो सकता है।
ईश्वर है ही
नहीं। उसने
कहा, क्या
कह रहे हैं आप?
मैंने तो
सुना था कि एक
धार्मिक आदमी
गांव में आया
है, तो मैं
पूछने आया था
कि ईश्वर है, और आप यह
क्या कह रहे
हैं? बुद्ध
ने कहा, धार्मिक?
आस्तिक? मैं
महा नास्तिक
हूं। वह आदमी
बेचैन—सा खड़ा
रह गया।
लेकिन
इनकी बेचैनी
तो ठीक थी।
बुद्ध के साथ
एक भिक्षु था आनंद।
उसके तो प्राण
संकट में पड़
गए। उसने दोनों
बातें सुन ली
थीं। अब वह
बेचैन हुआ कि
यह तो बड़ी
मुश्किल हो गई, मामला
क्या है? सुबह
तक बात ठीक थी,
दोपहर में
बात मुश्किल
हो गई। यह
बुद्ध को हो क्या
गया है? सुबह
कहते हैं महा
आस्तिक, दोपहर
कहते हैं महा
नास्तिक।
सोचा, सांझ
जब सब लोग चले
जाएंगे, तो
पूछ लूंगा।
लेकिन सांझ को
और मुश्किल हो
गई।
एक
आदमी और सांझ
होते —होते
आया और उसने
बुद्ध से पूछा
कि मुझे कुछ
समझ में नहीं
आता कि ईश्वर
है या नहीं।
वह आदमी
एगनॉस्टिक
रहा होगा, अज्ञेयवादी
रहा होगा, जो
कहते हैं हमें
पता नहीं, ईश्वर
है या नहीं।
और किसी को
पता नहीं, और
कभी पता नहीं
हो सकता। उसने
कहा, कुछ
पता ही नहीं
है, है या
नहीं। आप क्या
कहते हैं? आपका
क्या खयाल है?
बुद्ध ने
कहा, जब
तुम्हें भी
पता नहीं है
तो मुझे भी
पता नहीं है।
और अच्छा हो
कि इस संबंध
में हम चुप रह
जाएं। वह आदमी
भी हैरान रह
गया। उसने कहा,
मैंने तो
सुना था कि
आपको ज्ञान हो
गया है, आपको
पता हो गया।
बुद्ध ने कहा,
वह गलत सुना
होगा। मैं तो
परम अज्ञानी,
मुझे कैसा
ज्ञान?
आनंद
की मुसीबत
समझें आप, अपने
को रख लें
आनंद की जगह।
कैसी मुश्किल
में पड़ गया!
रात हो गई, सब
लोग चले गए।
आनंद ने बुद्ध
के पैर पकड़
लिये। उसने
कहा, मेरी
जान लेंगे आप?
क्या करते
हैं? मेरी फांसी
लग गई। आज दिन
भर से मैं
इतना बेचैन
हूं जितना जिंदगी
में कभी भी
नहीं था। आप
कहते क्या हैं?
आप कर क्या
रहे हैं? आप
होश में हैं? आप बोल क्या
रहे हैं? सुबह
कुछ, दोपहर
कुछ, सांझ
कुछ। आपने तीन
उत्तर दे दिए।
बुद्ध ने कहा,
तुझे तो
मैंने कोई
उत्तर नहीं
दिया था।
जिन्हें दिया
था, उन्हें
दिया था। तूने
सुना क्यों? दूसरे की
बात सुननी
उचित है? मेरी
उनसे बात हो
रही थी, तूने
सुना क्यों? उसने कहा, और मुश्किल
देखिए! मैं
मौजूद था, कान
तो बंद नहीं किए
हुए था, सुनाई
पड़ गया। और आप
बोलें और
सुनने का मन न
हो? होगा
पाप, लेकिन
आप बोलें तो
सुनने का मन
होता है, किसी
से भी बोलें।
बुद्ध ने कहा,
तुझे मैंने
कोई उत्तर न
दिया था। आनंद
ने कहा, न
दिया होगा, लेकिन मैं
मुश्किल में
पड़ गया हूं।
मुझे उत्तर
दें, अब दे
दें। सच क्या
है? और
आपने ऐसी तीन
बातें क्यों
कहीं?
बुद्ध
ने कहा, तीनों
को संतुलन पर
लाना था, बैलेंस
पर। सुबह जो
आदमी आया था, वह नास्तिक
था और अकेला
नास्तिक
अधूरा है। क्योंकि
जिंदगी विरोध
से मिलकर बनी
है।
यह
समझ लेना आप
कि जो सच में
धार्मिक आदमी
है,
उसमें
दोनों ही
बातें होती
हैं। वह एक
तरफ से नास्तिक
भी होता है, दूसरी तरफ
से आस्तिक भी
होता है। उसके
दोनों ही पहलू
होते हैं। और
उन दोनों के
विरोध के बीच वह
सामंजस्य बना
लेता है। उसी
सामंजस्य में
धर्म है। और
जो सिर्फ आस्तिक
है, वह अभी
अधूरा
धार्मिक है।
अभी वह
धार्मिक हुआ नहीं,
अभी जिंदगी
का संतुलन आया
नहीं, अभी
बैलेंस आया
नहीं।
तो
बुद्ध ने कहा, उसे
बैलेंस में
लाना था। उसका
एक पलड़ा बहुत
भारी हो गया
था, इसलिए
दूसरे पलड़े पर
मुझे पत्थर रख
देने पड़े। और
फिर मैं उसे
बेचैन भी कर
देना चाहता था,
क्योंकि वह
कहीं निश्चित
हो गया था कि
बस नहीं है।
उसके निश्चय
को डिगा देना
जरूरी था।
क्योंकि जो
निश्चित हो
जाता है, वह
मर जाता है।
यात्रा जारी
रहनी चाहिए
जिज्ञासा की।
दोपहर जो आदमी
आया था, वह
आस्तिक था। तो
उससे मुझे
कहना पड़ा कि
मैं नास्तिक
हूं। क्योंकि
उसका पलड़ा भी
बहुत भारी हो
गया था, वह
भी असंतुलित
हो गया था।
जिंदगी है
संतुलन। बुद्ध
ने कहा, संतुलन
को जो पा लेता
है, वह
सत्य को पा
लेता है।
आपसे
जो मैं कह रहा
हूं कि मृत्यु
की कला सीखनी
चाहिए, वह
इसलिए कह रहा
हूं कि जीवन
का पलड़ा बहुत
भारी हो गया है।
जीवन के पलड़े
पर आप बहुत
जोर से बैठ गए
हैं। उसकी वजह
से सब पत्थर
हो गया है, जड़
हो गया है, संतुलन
खो गया है।
इधर मृत्यु को
भी निमंत्रित
करें, उसे
भी बुलाएं कि
तू भी आ और
मेहमान हो जा।
हम साथ—साथ ही
रहेंगे। और जिस
दिन जीवन
मृत्यु के साथ
रहने को राजी
हो जाता है, उस दिन जीवन
परम जीवन बन
जाता है। जिस
दिन कोई मृत्यु
को गले लगा
लेता है, भेंट
कर लेता है, आलिंगन कर
लेता है
मृत्यु को, उस दिन बात
खतम हो गई।
मृत्यु का दंश
गया, क्योंकि
मृत्यु का जो
दंश था वह था
मृत्यु से भागने
में, भयभीत
होने में था।
और जब कोई आकर
मृत्यु को गले
लगा लेता है, तो मृत्यु
हार जाती है, पराजित हो
जाती है।
क्योंकि
मृत्यु को गले
लगाने वाला
मृत्युंजय हो
जाता है।
मृत्यु अब उसका
कुछ भी नहीं
कर सकती। अब
क्या करेगी
मृत्यु, वह
खुद ही मिटने
को तैयार हो
गया है।
दो
तरह के लोग
हैं। एक वे
जिन्हें
मृत्यु खोजती
है और एक वे जो
मृत्यु को
खोजते हैं।
मृत्यु उन्हें
खोजती है, जो
मृत्यु से
भागते हैं।
उन्हें खोजती
फिरती है, पकडती
फिरती है। और
एक वे हैं जो
मृत्यु को खोजते
हैं, मृत्यु
उनसे भागती
फिरती है। और
वे अनंतकाल में
खोज —फिरकर आ
जाते हैं और
मृत्यु को
नहीं पाते।
किस
तरह का आदमी
बनना है आपको? मृत्यु
से भागे हुए
या मृत्यु को
आलिंगन कर लेने
वाले? मृत्यु
से भागने वाला
हारता ही
जाएगा, हारता
ही जाएगा।
उसका सारा 'जीवन पराजय
का जीवन होगा।
मृत्यु को
भेंट लेने
वाला जीत
जाएगा उसी
क्षण, ऊसके
जीवन में
पराजय मिट
जाएगी। उसका जीवन
विजय की
यात्रा बन
जाता है।
तो
मैंने कहा, निश्चित
ही ठीक पूछा
है, मैं
मृत्यु की कला
ही सिखा रहा
हूं। मैं मरना
ही सिखा रहा
हूं, ताकि
जीवन उप्लब्ध
हो सके। अंधेरे
में जो जीना
सीख लेता है
और पूरे
अंधेरे को जो
स्वीकार कर
लेता है, क्या
आपको यह रहस्य
पता है कि
उसके लिए उसी
दिन अंधेरा
प्रकाश हो
जाता है? जो
जहर को पी
लेता है प्रेम
से, आनंद
से, अमृत
की भांति, क्या
आपको पता है
कि उसके लिए
जहर अमृत हो
जाता है?
अगर
नहीं पता है, तो
खोज करनी
चाहिए। लेकिन
जीवन के गहरे
से गहरे
सत्यों में एक
सत्य यह है कि
जिसने जहर को
वरण कर लिया
प्रेम से, उसके
लिए जहर अमृत
हो जाता है।
और जिसने
अंधकार को ही
प्रेम से छाती
से लगा लिया, वह अचानक
पाता है कि
अंधकार आलोक
हो गया। और जिसने
दुख को भेंट
कर ली, उसने
पाया कि दुख
है ही नहीं, सुख ही शेष
रह जाता है।
और जो अशांति
में भी राजी
हो गया, उसके
लिए शांति के
द्वार खुल
जाते हैं।
अब
हमें यह उलटा
लगता है।
लेकिन ध्यान
रहे,
जो आदमी
कहता है कि
मुझे शांत
होना है, वह
आदमी कभी शांत
नहीं हो
सकेगा।
क्योंकि मुझे
शांत होना है,
यह भी अशांति
की तलाश है।
इसलिए आदमी
वैसे ही अशांत
है और कुछ
अशांत ऐसे भी
हैं कि वे एक
नई अशांति भी
पाल लेते हैं।
वे कहते हैं, हमें शांत
होना है।
एक
आदमी मेरे पास
आया और उसने
मुझे कहा कि
मैं पांडिचेरी
हो आया, रमण
आश्रम गया, रामकृष्ण
आश्रम गया, सब पाखंड है,
कहीं भी कुछ
भी नहीं है।
मुझे शांति
चाहिए, कहीं
नहीं मिलती
है। मैं दो
साल से भटक
रहा हूं।
पाडिचेरी में
मुझे किसी ने
आपका नाम दे
दिया, तो
मैं सीधा वहीं
से चला आ रहा
हूं। मुझे शांति
चाहिए। मैंने
कहा, तुम
सीधे उठो और
दरवाजे के
बाहर हो जाओ, नहीं तो मैं
भी पाखंडी
सिद्ध हो
जाऊंगा। उसने
कहा, क्या
मतलब आपका? मैंने कहा, बस अब तुम
बाहर जाओ। तुम
अब लौटकर इस
तरफ देखना ही
मत। इसके पहले
कि मैं पाखंडी
सिद्ध हो जाऊं,
मुझे अपने
को बचा लेना
उचित है। उसने
कहा, लेकिन
मैं शांत होने
आया हूं।
मैंने कहा, तुम बिलकुल
ही चले जाओ, क्योंकि
तुमसे मैं यह
पूछता हूं कि
तुम अशांत होने
के लिए किसके
पास पूछने गए
थे? किस
गुरु से तुमने
अशांति की
दीक्षा ली है?
किस आश्रम
में गए थे, जहां
तुमने अशांति
का पाठ सीखा? तब उसने कहा,
मैं कहीं
नहीं गया। तो
मैंने कहा, तुम तो इतने
होशियार आदमी
हो कि अशांति
तक पैदा कर
लेते हो, तो
मैं तुम्हें
और क्या
बताऊंगा! जिस
ढंग से तुमने
अशांति पैदा
की है, उससे
उलटे लौट जाओ,
शांत हो
जाओगे। मुझसे
क्या
लेना—देना है।
भूल कर किसी
से मत कहना कि
तुम मेरे पास
भी गए थे, क्योंकि
मुझसे संबंध
ही क्या है इस
बात का। वह
आदमी बोला, आप कुछ भी
करके मुझे
शांत होने का
रास्ता बतलाइए।
मैंने कहा, तुम और
अशांत होने का
रास्ता खोज
रहे हो। शांत
होने का सिर्फ
एक ही रास्ता
रहा है दुनिया
में और वह यह
है कि जो अपनी
अशांति को भी
शांति से
स्वीकार क्ल
लेता है, अशांति
को भी जो उसकी
परिपूर्णता
में स्वीकार
लेता है, और
कहता है, आ
जाओ, रही, तुम भी
मेहमान बन जाओ
इसी घर में, उसी दिन
अचानक वह पाता
है कि अशांति
विदा हो गई।
क्योंकि अशांति
पैदा होती है
वृत्ति से। जो
अशांति को
स्वीकार करता
है, उसकी
वृत्ति शांत
हो गई, क्योंकि
वह अशांति तक
को स्वीकार कर
लेता है। यह
जो वृत्ति की शांति
हो गई, तो अशांति
वहां कैसे
टिकेगी!
अशांति
पैदा होती है
अस्वीकार की
वृत्ति से।
फिर चाहे वह
अस्वीकार अशांति
का ही क्यों न
हो। जो कहता
है,
अशांति को
स्वीकार नहीं
करेंगे, वह
अशांत होता
चला जाएगा।
क्योंकि
स्वीकार न करना
ही तो अशांति
की जड़ है। वह कहता
है, हम
अशांति
स्वीकार न
करेंगे, हम
दुख स्वीकार
नहीं कर सकते,
हम मौत
स्वीकार नहीं
कर सकते, हम
अंधेरा
स्वीकार नहीं
कर सकते। तो
मत करो स्वीकार।
जिसको तुम
स्वीकार नहीं
करोगे, उससे
ही घिरते चले
जाओगे। देखो
उसको स्वीकार करके,
जिसे कोई
स्वीकार नहीं
करता। और अचानक
तुम पाओगे कि
जिसे शत्रु
जाना था, वह
मित्र हो गया।
शत्रु को कोई
घर में मेहमान
की तरह ठहरा
ले, तो
मित्र हो जाने
के अतिरिक्त
उपाय भी क्या
है।
इसलिए
मैंने इन
दिनों में ये
बातें कहीं
—कि मृत्यु पर
विजय की आकांक्षा
से आप आए थे और
आपने सोचा
होगा कि शायद
मैं कोई तरकीब
बताऊंगा कि आप
कभी न मर सको।
एक
मित्र ने तो
पत्र भी लिखा
है पुष्कर जी
के पास कि
क्या वहां
कायाकल्प
किया जाएगा? कोई
पारस—प्रयोग
बताया जाएगा?
तो फिर हम
खर्च करके आएं
भी।
हो
सकता है, आप भी
उसी खयाल में
आए हों। लेकिन
आप बड़े डिसअप्याइंट,
बड़े निराश
हुए होंगे, क्योंकि मैं
इधर मृत्यु की
कला सिखा रहा
हूं। मैं कह
रहा हूं,
मर जाओ। मैं
कहता हूं,
मरना सीखो, भागते कहां
हो मृत्यु से!
अंगीकार कर
लो। और ध्यान
रहे, मैं
मृत्यु की
विजय का सूत्र
ही आपको दे
रहा हूं।
मृत्यु की
विजय का सूत्र
कायाकल्प
नहीं है।
कितनी ही कायाकल्प
करो, मरना
ही पड़ेगा।
काया मरेगी
ही।
ही, कायाकल्प
से इतना ही हो
सकता है कि
मौत लंबाई जा
सकती है, यानी
परेशानी और
लंबी हो
जाएगी। सत्तर
साल में मर
जाते, तो
सात सौ साल
में मर पाओगे।
सत्तर साल में
जो दुख विदा
हो जाता, वह
सात सौ साल तक
चलेगा। और
क्या होगा? सत्तर साल
की परेशानी
सात सौ साल तक
चलेगी। और
क्या होगा? सत्तर साल
के झगड़े सात
सौ साल तक
चलेंगे। सत्तर
साल की
मुसीबतें सात
सौ साल तक फैल
जाएंगी, लंबा
जाएंगी, अगणित
हो जाएंगी। और
क्या होगा?
आपको
पता नहीं है
इस बात का कि
अगर सच में ही
आपको कोई मिल
जाए सात सौ
साल करने वाला
और कहे कि लो, यह
दवा दिए देता
हूं, हो
जाओगे सात सौ
साल तक जीने
वाले, तो
आप कहेंगे कि
जरा ठहर जाओ, मैं विचार
करूंगा। तो
मैं नहीं
समझता कि आपमें
से कोई भी सात
सौ साल वाली
दवा लेने को
राजी होगा।
क्योंकि इसका
मतलब क्या
होता है? इसका
मतलब यही होता
है कि जो मैं
था, वह तो
मैं ही रहूंगा
और इसी 'मैं'
को सात सौ
साल जीना
पड़ेगा। तो
बहुत महंगा पड़
जाएगा, यह
तो बहुत भारी
पड़ जाएगा।
अगर
किसी दिन
वैज्ञानिकों
ने ऐसी कोई
खोज कर ली कि
आदमी अनंत काल
तक जी सके—और
ऐसी खोज शायद
हो सकेगी, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है—तो ध्यान
रहे, जिस
दिन अनंतकाल
तक जीने की
व्यवस्था हो
जाएगी, उस
दिन आदमी उन
गुरुओं की
तलाश करेगा, जो ऐसी
तरकीबें बता
दें, जिनसे
जल्दी आदमी मर
जाए। जैसे अभी
कायाकल्प करनेवाले
गुरुओं की
तलाश चलती है,
वैसे ही तब
तलाश चलेगी कि
कोई गुप्त
रहस्य बता दे
कि हम किस
तरकीब से मर
जाएं और
वैज्ञानिक
हमें बचा न
पाएं। सरकार
को किस तरह
धोखा दे दें
और खिसक जाएं।
क्योंकि हमको
खयाल ही नहीं
है कि लंबाई
हुई जिंदगी का
कोई मतलब नहीं
होता। जिंदगी
का मतलब होता
है जीने से।
और कोई आदमी
एक क्षण में
इतना जी सकता
है कि कोई
आदमी अनंत
जन्मों में न
जी सके। वह
जीने की बात
है। और जी वही
सकता है जिसका
मृत्यु का भय
चला गया है, नहीं तो
जीएगा कैसे!
भय की वजह से
कंपता रहता है।
खडा ही नहीं
हो पाता, भागता
ही रहता है।
क्या
आपको खयाल में
है यह बात कि
दुनिया में
निरंतर स्पीड
बढ़ती चली जाती
है। हर चीज
में गति है।
बैलगाड़ी से
राकेट बड़ा
अच्छा है एक
लिहाज से।
क्योंकि उससे
कहीं भी हम जल्दी
से पहुंच सकते
हैं,
वह ठीक है।
लेकिन स्पीड
का इतना आग्रह
क्यों है?
यह
आपको खयाल में
भी न होगा कि
सारी गति की
चेष्टा मनुष्य
की वह जहां है
वहां से भागने
की चेष्टा है।
वह जहां है, इतना
डरा हुआ है, इतना घबराया
हुआ है कि वह
कहता है, कहीं
भी हों इससे
अच्छे होंगे।
भागों, जाओ
कहीं। सारे
यूरोप और—
अमरीका में
छुट्टी का दिन
बहुत उपद्रव
का दिन हो गया
है। और छुट्टी
के दिन जितने
लोग थक जाते
हैं, उतना
कभी भी नहीं
थकते हैं।
क्योंकि भागो,
अपनी— अपनी
गाड़ियां लेकर
भागो—पचास मील,
सौ मील, दो
सौ मील
दूर—किसी
पिकनिक स्पॉट
पर, किसी
पहाड़ पर, किसी
हिल—स्टेशन पर,
किसी
समुद्र के तट
पर भागो। जोर
से भागों, क्योंकि
और लोग जोर से
भागे जा रहे
हैं, पता
नहीं वे कहीं
पहले पहुंच
जाएं, जहां
हमें पहुंचना
चाहिए। लेकिन
पूछो, पहुंचना
कहां है? तो
इसका पक्का
नहीं है कि
पहुंचना कहां
है। एक बात
पक्की है कि
जहां हैं, वहां
से निकल
जाएं—घर से
निकल जाएं, पत्नी से
भाग जाएं, दफ्तर
से भाग जाएं, दुकान से
भाग जाएं—जहां
हैं, वहां
से भाग जाएं।
आदमी
नहीं जी पा
रहा है, इसलिए
इतनी भाग, इतनी
दौड़ पैदा हुई
है। और तेज
करते जाओ वाहन
को, ताकि
भागने में गति
आ जाए। लेकिन
पूछें कि जा कहां
रहे हैं? कहां
पहुंचने का
इरादा है? तो
वह कहेगा, अभी
फुर्सत नहीं
है बताने की, मुझे जल्दी
पहुंचना है।
कि आप पहुंच
कहा रहे हैं? जाना कहां
है? इरादे
क्या हैं? हमें
चांद पर
पहुंचना है, मंगल पर
पहुंचना है।
हम
भी जिंदगी भर
भाग रहे हैं
हर वक्त।
किससे भाग रहे
हैं?
किस चीज से
भाग रहे हैं? डर क्या है? एक डर है, जीवन
को जी नहीं
पाते और मौत
का डर है कि
मौत न आ जाए।
और ये दोनों
बातें जुड़ी
हुई हैं। जो
मौत से डरा है,
वह जीवन को
नहीं जी पाएगा,
क्योंकि
मौत कंपा देती
है। क्या
रास्ता है?
आप
मुझसे पूछते
हैं,
रास्ता
क्या है? मैं
कहता हूं,
इस मौत को
स्वीकार कर
लो। मौत से
कहो, आ जाओ,
जीएंगे
पीछे, तुम
पहले आ जाओ, तुमसे पहले
निपट लें, यह
बात खतम हो
गई। तो फिर
फुर्सत से जी
लें। तुम आ जाओ,
तुम्हें
पहले ले लें, फिर सुविधा
से, फुर्सत
से बैठकर
जीएंगे। और जो
आदमी मौत को
इस भांति ले
लेता है
—ध्यान उसी के
लिए आमंत्रण है—जो
मौत को इस
भांति ले लेता
है, वह
तत्काल खड़ा हो
जाता है। उसकी
स्पीड, वह
तेजी भागने की
विलीन हो जाती
है। कभी आपने
देखा है! अगर
आप साइकिल
चलाते हैं, तो जिस दिन
आप क्रोध में
हों, पैडल
जोर से चलता
है। कार चलाते
हैं, तो
जिस दिन क्रोध
में हों, उस
दिन
एक्सीलेटर
जोर से दबता
है। कभी खयाल
किया है आपने?
मनोवैज्ञानिक
तो कहते हैं
कि जो
ऐक्सीडेंट
होते हैं, वे
कार की खराबी
की वजह से
नहीं, रास्ते
की खराबी की
वजह से नहीं, वह जो कार का
एक्सीलेटर
दबा रहा है, उस आदमी के
भीतर कुछ गड़बड़
है, वह
तेजी से दबा
रहा है। दात
भींचे हुए है।
किसी न किसी
तरह वह चाह
रहा है कि
ऐक्सीडेंट हो
जाए। वह इच्छा
से भरा हुआ है
कि हो जाए, कहीं
टकरा जाए जोर
से। क्योंकि
जिंदगी बिलकुल
बेकार मालूम
पड रही है, इतना
ही रस आ जाएगा
कम से कम, टकराने
का।
उतनी
देर कम से कम
थिल,
थोड़ा कंपन
होगा, थोड़ा
अच्छा लगेगा।
कुछ तो हुआ, अपनी जिंदगी
बिलकुल बेकार
न गई, कुछ
हुआ तो।
आज
अमरीका और
यूरोप में
अनेक
हत्यारों ने
अदालतों में
यह बयान दिए
हैं कि उस
आदमी से हमारा
कोई झगड़ा न था, हम
सिर्फ अखबार
में अपना नाम
देखना चाहते
थे। और कोई
रास्ता नहीं
था नाम छपने
का। साधु का तो
नाम अब छपता
नहीं, अब
तो सिर्फ
हत्यारों का
छपता है। हत्यारे
दो तरह के
हैं। एक तो
प्राइवेट
हत्या करने
वाले लोग, निजी,
अपनी— अपनी
व्यक्तिगत
हत्या करने
वाले उनके छपते
हैं। और एक
सामूहिक
हत्या करने
वाले राजनीतिज्ञ,
पोलीटिशियस,
उनके छपते
हैं। बाकी तो
किसी का छपता
नहीं। तो साधु
होने का कोई
उपाय नहीं।
साधु हो भी जाओ,
तब भी कोई
नाम छपने वाला
नहीं है, उससे
कोई मतलब नहीं
है। एक आदमी
को छुरा भोंक दो,
तो अखबार
में कम से कम
पहली हेडिंग
में ऊपर छपता
तो है कि फलां
आदमी ने फलां
आदमी को छुरा
भोंक दिया। और
वह कहता है
अदालत में कि
मेरी कोई दुश्मनी
न थी, कोई
मतलब भी न था, इस आदमी को
मैंने कभी
देखा भी न था।
सिर्फ इसकी
पीठ देखी और
छुरा भोंक
दिया। और पीठ
अच्छी लगी और
जब छुरा भोंका
और खून का
फव्वारा बहा,
तो मुझको भी
लगा कि मैंने
भी जिंदगी
बेकार नहीं
गंवा दी, कुछ
तो किया है, जिसकी चर्चा
होगी। चर्चा
हो रही
है—अखबार चर्चा
कर रहे हैं, अदालतें
चर्चा कर रही
हैं, बड़े
—बड़े
मजिस्ट्रेट
काले चोगे
पहनकर, और
बड़े —बडे वकील
काले चोगे
पहनकर बड़ी
गंभीरता से
कार्य कर रहे
हैं। मैंने भी
कुछ किया है, कोई साधारण
आदमी नहीं
हूं।
मौत
से भागा हुआ, डरा
हुआ आदमी इतना
निराश, उदास,
इतना ऊब गया
है कि वह कुछ
भी कर रहा है, लेकिन एक
काम नहीं कर
रहा है कि वह
मौत को स्वीकार
कर ले कि आओ।
और जैसे ही
कोई उसे
स्वीकार कर
लेता है, उसके
जीवन में नया
द्वार खुल
जाता है, .जहां
प्रभु का
निवास है।
परमात्मा के
मंदिर पर लिखा
है, मरो! और
परमात्मा के
मंदिर में
जीवन की रसधार
बह रही है। मरो!
इस साइनबोर्ड
को देखकर लोग
लौट जाते हैं।
भीतर कोई जाता
ही नहीं। बड़ी
कुशलता की है,
बड़ी
होशियारी की
है, नहीं
तो बहुत भीतर
भीड़ हो जाए और
जीना मुश्किल
हो जाए। तो
जीवन का जहां
मंदिर है, वहां
लिखा है बाहर,
मरो! वे जो
डर गए, वे
भाग जाते हैं।
इसलिए मैंने
कहा कि मरना
सीखना पड़ता
है।
और
जीवन का सबसे
बड़ा रहस्य यही
है कि कैसे हम
मरने को सीख
लें और
स्वीकार कर
लें। रोज—रोज
जो अतीत है? वह
मर जाए, हम
रोज ही मर
जाएं। कल का
मर जाए. हम
नहीं मरने
देते उसको।
सत्तर साल का बुढ़ा
आदमी हो गया, उसका बचपन
अभी तक नहीं
मरा। वह बैठकर
कहता है कि वे
दिन ही और थे, वह बात ही और
थी, बड़े
आनंद का था।
अभी बचपन मरा
नहीं उनका।
अभी वह इरादे
वही कर रहे
हैं कि वही हो
जाए सब जो था।
के हो गए हैं, बिस्तर पर
लगे हुए हैं
लेकिन उनकी
जवानी नहीं मरी
है, वह
विचार वही कर
रहे हैं।
जवानी में जो
अभिनेत्रियां
उन्हें दिखाई
पड़ी
होंगी—हालांकि
अब वे कोई न
रहीं—वह उनको
देख रहे हैं।
वे ही चित्र
चल रहे हैं।
मरा नहीं कुछ।
कल मरता ही
नहीं हमारा।
हम मरने की
हिम्मत ही
नहीं जुटाते
हैं। हम किसी
चीज को मरने
ही नहीं देते।
बस वह सब
इकट्ठा हो
जाता है। सब
मरा हुआ, जो
मर चुका है, हम उसे मरने
नहीं देते, बोझ की तरह
इकट्ठा कर
लेते हैं।
उसके बोझ में हम
जी नहीं पाते।
तो
मरने की कला
का एक सूत्र
यह भी है कि वह
जो मर गया है, उसे
मर जाने दें।
जीसस
एक झील के पास
से गुजर रहे
थे। एक बहुत
मजेदार घटना
घटी। सुबह है, सूरज
निकलने को है,
अभी— अभी
लाली फैली है।
एक मछुवे ने
जाल फेंका है
मछलियां
पकड़ने को।
मछिलयां
पकड़कर वह जाल
खींचता है।
जीसस ने उसके
कंधे पर हाथ
रखा और कहा, मेरे दोस्त,
क्या पूरी
जिंदगी
मछलियां ही
पकड़ते रहोगे?
सवाल
तो उसके मन
में भी कई बार
यह उठा था कि
क्या पूरी
जिंदगी
मछलियां ही
पकड़ता रहूं!
किसके मन में
नहीं उठता? हां,
मछलियां
अलग— अलग हैं, जाल अलग — अलग
हैं, तालाब
अलग— अलग हैं, लेकिन सवाल
तो उठता ही है
कि क्या
जिंदगी भर मछिलयां
ही पकड़ते
रहें!
उसने
लौटकर देखा कि
कौन आदमी है, जो
मेरा ही सवाल
उठाता है।
पीछे जीसस को
देखा, उनकी
हंसती हुई
शांत आंखें
देखीं, उनका
व्यक्तित्व
देखा। उसने
कहा, और
कोई उपाय भी
तो नहीं है, और कोई
सरोवर कहां
है! और
मछलियां कहां
हैं! और जाल
कहां फेंकूं!
पूछता तो मैं
भी हूं कि
क्या जिंदगी
भर मछिलयां ही
पकड़ता
रहूंगा। तो
जीसस ने कहा
कि मैं भी एक
मछुवा हूं,
लेकिन किसी और
सागर पर
फेंकता हूं
जाल। इरादा हो
तो आओ मेरे
पीछे आ जाओ।
लेकिन ध्यान
रहे, नया
जाल वही फेंक
सकता है, जो
पुराना जाल
फेंकने की
हिम्मत रखता
हो। छोड़ दो
पुराने जाल को
वहीं।
मछुवा
सच में
हिम्मतवर रहा
होगा। कम लोग
इतने हिम्मतवर
होते हैं। उसने
जाल को वहीं
फेंक दिया
जिसमें
मछलियां भरी
थीं। मन तो
किया होगा कि
खींच ले, कम से
कम इस जाल को
तो खींच ही
ले। लेकिन
जीसस ने कही, वे ही नए जाल
को फेंक सकते
हैं नए सागर
में, जो
पुराने जाल को
छोड़ने की
हिम्मत रखते
हैं। छोड़ दे
उसे वहीं।
उसने वहीं छोड़
दिया। उसने
कहा, बोलो,
कहां चलूं?
जीसस
ने कहा, आदमी
हिम्मत के
मालूम होते हो,
कहीं जा
सकते हो। आओ।
वे गांव के
बाहर निकल रहे
थे, तब एक
आदमी भागता
हुआ आया और उस
मछुवे को पकड़कर
कहा, पागल!
तू कहां जा
रहा है? तेरे
बाप की मौत हो
गई है जो
बीमार थे। रात
ज्यादा तबीयत
खराब हो गयी
थी। तू सुबह
उठकर जल्दी
चला आया था, उनकी मृत्यु
हो गयी, तू
गया कहां था? हम गए थे
तालाब पर, पड़ा
हुआ जाल देखा
है वहां। तू
कहां चला जा
रहा है? उसने
जीसस से कहा, क्षमा करें।
दो—चार दिन की
मुझे छुट्टी
दे दें। मैं
अपने पिता की
अंत्येष्टि
कर आऊं, अंतिम
संस्कार कर
आऊं। फिर मैं
लौट आऊंगा।
जीसस ने जो
वचन कहा, वह
बड़ा अदभुत है।
उन्होंने कहा,
पागल! लेट द
डेड बरी द
डेड। वह जो
गांव में मुर्दे
हैं, वे
मुर्दे को
दफना लेंगे।
तुझे क्या
जाने की जरूरत
है, तू चल।
अब जो मर गया
है, वह मर
ही गया, अब
दफनाने की भी
क्या जरूरत है?
यानी
दफनाना भी और
तरकीबें हैं
उसको और जिलाए
रखने की। अब
जो मर गया, वह
मर ही गया। और
फिर गांव में
काफी मुर्दे
हैं, वे
दफना लेंगे, तू चल। एक
क्षण वह रुका,
जीसस ने कहा
कि फिर मैंने
गलत समझा कि
तू पुराने जाल
छोड़ सकता है।
एक क्षण वह
रुका, और
फिर जीसस के
पीछे चल पड़ा।
जीसस ने कहा, तू आदमी
हिम्मत का है।
तू मुर्दों को
छोड़ सकता है, तो तू जीवंत
को पा भी सकता
है।
असल
में वह जो
पीछे मर गया
है,
उसे छोड़े।
ध्यान में आप
निरंतर बैठते
हैं, लेकिन
मुझसे आप आकर
कहते हैं कि
होता नहीं है,
विचार आ
जाते हैं। वह
आ नहीं जाते।
आपने उनको
छोड़ा है कभी? उनको निरंतर
पकड़े रहे हैं,
उन विचारों
का क्या कसूर
है?
अगर
कोई आदमी एक
कुत्ते को रोज
अपने घर में
बांधे रहे और
रोज खाना
खिलाए और फिर
एक दिन अचानक
उसको घर के
बाहर निकालने
लगे,
और कुत्ता
चारों तरफ से
घूमकर वापस
आने लगे, तो
कुत्ते का
क्या कसूर है?
अचानक आप
ध्यान करने
लगें और
कुत्ते से
कहें, हटो
यहां से। और
कल तक उसको
रोटी दी, आज
सुबह तक रोटी
दी, आज
सुबह तक चूमा,
पुचकारा, उसकी पूंछ
हिलाने से
आनंदित हुए, घंटी बांधी
गले में, पट्टा
बांधा, घर
में रखा—अचानक
आपका दिमाग हो
गया कि ध्यान करें।
उस कुत्ते को
क्या पता? वह
बेचारा घूमकर
लौट आता है
वापिस। वह
कहता है, कोई
खेल हो रहा
होगा। और जब
आप उसको और
भगाते हैं तो
वह और खेल में
आ जाता है। वह
और रस लेने लगता
है कि कोई
मामला जरूर
है। मालिक आज
कुछ बड़े आनंद
में मालूम
पड़ते हैं। तब
मुझसे आप आकर
कहते हैं कि
विचार नहीं
जाते हैं।
वे
जाएंगे कैसे? उन्हीं
विचारों को
पोसा है आपने,
खून पिलाया
है अपना। उनको
बांधे फिरते
हैं, उनके
गले पर पट्टे
बांधे हुए हैं
अपने — अपने नाम
के। आदमी से
जरा कह दो कि
यह जो तुम कह
रहे हो, गलत
है। वह कहता
है, मेरा
विचार और गलत
रम मेरा विचार
कभी गलत नहीं
हो सकता। अब
जिस पर आप
पट्टा बांधे
हुए हैं अपना,
वह बिचारा
लौटकर आ जाता
है। उसे क्या
पता है कि आप
ध्यान कर रहे
हैं। अब आप
कहते हैं, हटो,
भागो। ऐसे
वह नहीं
भागेगा।
विचार
को हम पोस रहे
हैं। अतीत के
विचार को
पालते चले जा
रहे हैं, बांधते
चले जा रहे
हैं। अचानक एक
दिन आप कहते हैं,
हटो। एक दिन
में नहीं हट
जाएगा। उसका
पोषण बंद करना
पड़ेगा, उसको
पालना बंद
करना पड़ेगा।
ध्यान
रहे,
अगर विचार
छोड़ने हों, तो मेरा
विचार कहना
छोड़ देना।
क्योंकि जहां
मेरा है, वहा
कैसे छूटेगा।
अगर विचार
छोड़ने हों, तो विचार
में रस लेना
बंद कर देना।
अगर रस लेंगे,
तो वे कैसे
छूटेंगे।
उन्हें कैसे
पता चलेगा कि
आप बदल गए हैं
और रस नहीं
लेते हैं।
विचार
अतीत की हमारी
सारी
स्मृतियां
हैं। उनका जाल
है,
उनको हम
पकड़े हुए हैं,
उनको हम
मरने नहीं
देते हैं।
उनको मरने दें,
लेट द डेड
बी द डेड। वह
जो मर गया है, उसको मरा
हुआ हो जाने
दें, उसको
अब जिंदा रखने
की कोशिश मत
करें।
लेकिन
हम उसको जिंदा
रखे हुए हैं।
कल की दोस्ती
भी जिंदा है, कल
की दुश्मनी भी
जिंदा है।
बल्कि न केवल
जिंदा है, अगर
कल का दोस्त
आज रास्ते पर
नमस्कार न करे,
तो हम कहते
हैं रुको, क्या
बात है? कल
तो तुमने
नमस्कार किया
था! अगर पति आज
सुबह पत्नी को
प्रेम से न
देखे तो वह
कहती है, क्या
मामला है? तीस
साल तक तुमने
मुझे प्रेम से
देखा है! वह अतीत
को इतने जोर
से हम पकड़े
हुए हैं कि हम कहते
हैं, वैसे
ही रहो, जैसे
कल थे। दूसरे
से भी यही
मांग करते हैं
कि जैसे कल थे,
वैसे ही
रहो। खुद से
भी यही मांग
करते हैं कि जैसे
कल थे, वैसे
ही रहेंगे। और
सबको भरोसा
दिलाए रखते हैं
कि घबड़ाना मत।
मैं वही का
वही रहूंगा, कसिस्टेंस।
जो मैं कल था
वहीं रहूंगा।
तो फिर मुर्दा
कैसे मरेगा? और मुर्दा
बोझिल होता
चला जाता है।
मरने
की कला का यह
भी हिस्सा है।
यह सूत्र भी ध्यान
में रख लेंगे
कि अगर मरने
की कला सीखनी
है,
तो जो मर
जाता है उसे
मर जाने दें।
जो अतीत हो गया
है, उसे
अतीत हो जाने
दें। अब वह
कहीं भी नहीं
है, अब उसे जाने
—पे। अब
स्मृति में भी
उसे संभालकर
रखने की कोई
जरूरत नहीं
है। विदा कर
दें, विदा
हो जाने दें।
कल कल हो —चुका,
कल अब नहीं
है, लेकिन
वही पकड़े रहता
है।
एक और छोटा
सा प्रश्न है
एक मित्र ने
पूछा है कि
कनक्फ्जन और
क्लैरिटी वह
भ्रम से भरा
हुआ चित्त
बहुत उलझा हुआ
कनक्फूजन
माइंड क्या है? क्लैरिटी
आफ माइंड क्या
है? और मन
की सफाई ताजगी
और स्वच्छ हो
जाना क्या है?
इसे
थोड़ा समझना
जरूरी है।
क्योंकि यह
ध्यान के लिए
उपयोगी होगा
और यह मरने की
कला में भी
उपयोगी होगा।
उनका पूछना
कीमती है। वह
यह पूछते हैं
कि यह उलझा हुआ
मन क्या है? लेकिन
इसमें एक भूल
हो जाती है।
हम कहते हैं, उलझा हुआ मन,
अशांत मन, कनफ्जड़
माइंड। यहां
भूल हो जाती
है। भूल क्या
हो जाती है? भूल यह हो
जाती है कि हम
दो शब्दों का
उपयोग कर रहे
हैं, उलझा
हुआ मन। सच
बात ऐसी है कि
उलझा हुआ मन
नहीं होता।
उलझे हुए होने
की जो स्थिति
है, उसका
नाम मन है।
कनक्यूज्ड
माइंड नहीं
होता, माईड
इज कनफ्यूजन।
ऐसा नहीं होता
कि अशांत मन होता
है, अशांति
का नाम ही मन
है। और जब अशांति
नहीं रह जाती,
तो ऐसा नहीं
कि मन शांत हो
जाता है। ऐसा
है कि मन रह ही
नहीं जाता।
समझ
लें,
तूफान आया
हुआ है समुद्र
पर, अशांत
है सागर, तो
आप कहते हैं
कि अशांत
तूफान। तो कोई
आदमी कहेगा कि
अशांत तूफान?
आप कृपा
करके इतना ही
कहें कि तूफान
है, क्योंकि
अशांति का नाम
ही तो तूफान
है। फिर तूफान
चला गया, तो
क्या आप यह
कहते हैं कि अब
शांत तूफान चल
रहा है? आप
कहते हैं कि
अब तूफान नहीं
है।
मन
को समझने में
भी ध्यान रख
लें कि मन अशांति
का ही नाम है।
और जब शांति आ
जाती है, तो
ऐसा नहीं है
कि शांत मन रह
जाता है, मन
रह ही नहीं
जाता। नो
माइंड, अ—मन
की स्थिति आ
जाती है। और
जब मन नहीं रह
जाता है, तब
जो रह जाता है,
उसका नाम
आत्मा है। जब
तूफान नहीं रह
जाता है, तब
भी सागर रह
जाता है। जब
तूफान मिट
जाता है, तब
सागर रह जाता
है। जब अशांति,
मन, कनक्यूजन
मिट जाता है, तो जो शेष रह
जाता है, वह
आत्मा है।
मन
कोई चीज नहीं
है। मन केवल
अव्यवस्था का
नाम है, अराजकता
का नाम है। मन
कोई फैकल्टी
नहीं है, मन
कोई वस्तु
नहीं है। शरीर
एक वस्तु है
और आत्मा एक
वस्तु है। और
मन इन दोनों
के बीच में अशांति
का जो संबंध
है उसका नाम
है। और जब शांति
हो जाती है, तो शरीर रह
जाता है, आत्मा
रह जाती है, लेकिन मन
नहीं रह जाता।
शांत
मन जैसी कोई
चीज नहीं
होती। लेकिन
यह गलती इसलिए
हो गई है कि
हमने जो भाषा
बनाई है, उसमें
हम कहते हैं.
अस्वस्थ शरीर,
स्वस्थ
शरीर। वह ठीक
है। अस्वस्थ
शरीर भी होता है,
स्वस्थ
शरीर भी होता
है।
अस्वास्थ्य
मिट जाता है
तो स्वस्थ
शरीर शेष रह
जाता है।
लेकिन मन के
संबंध में यह
बात सच नहीं
है। स्वस्थ मन,
अस्वस्थ मन
ऐसी बात नहीं
होती। मन
मात्र
अस्वस्थ होता
है। मन का
होना ही
कनफ्यूजन है।
मन का होना ही
अस्वास्थ्य
है, बीमारी
है।
इसलिए
यह मत पूछें
कि कनफ्यूज्ड
माइंड को, उलझे
हुए मन को हम
शांत कैसे
बनाएं। यह
पूछें कि इस
मन से हम
मुक्त कैसे हो
जाएं, यह
मन मर कैसे
जाए, इस मन
को हम समाप्त
कैसे कर दें, विदा कैसे
कर दें, यह
मन न रह जाए, ऐसा कैसे हो
जाए।
ध्यान
मन को समाप्त
कर देने का, विदा
कर देने का
उपाय है।
ध्यान का मतलब
है, मन के
बाहर चले
जाना। ध्यान
का मतलब है, मन से हट
जाना। ध्यान
का मतलब है, मन का न रह
जाना। ध्यान
का मतलब है, जहां हम
उलझे हैं, उस
उलझाव से हट
जाना। उस
उलझाव से हटने
से वह उलझाव
शांत हो जाता
है। क्योंकि
वह हमारी मौजूदगी
से ही उलझाव
बनता है। अगर
हम वहां से हट
जाते हैं, तो
वह विदा हो
जाता है।
अब
समझ लें कि दो
आदमी लड़ रहे
हैं। आप मुझसे
लड़ने आए हैं
और लड़ाई चल
रही है। अगर
मैं उस लड़ाई से
हट जाऊं तो
लड़ाई कैसे
चलती रहेगी? वह
विदा हो जाएगी,
क्योंकि वह
मेरी मौजूदगी
से ही चल सकती
थी। मन के तल
पर हम खड़े हुए
है —जहां मन का
सारा उपद्रव
चल रहा है, हम
वहीं खड़े हुए
हैं। और वहां
से हम जाना भी
नहीं चाहते और
हम कहते हैं
कि इसको शांत
करेंगे। यह
शांत नहीं
होने वाला है।
आप कृपा करके
हट जाएं, बस।
आपके हटते ही
शांत हो
जाएगा। तो
ध्यान जो है, वह मन को
शांत करने की
विधि नहीं है;
मन से हट
जाने की, जहां
अशांति की
लहरें बह रही
हैं, वहा
से सरक जाने
की, वहा से
पीछे लौट जाने
की व्यवस्था
है।
एक प्रश्न
और एक मित्र
ने पूछा है वह
भी इससे संबंधित
है। उसे भी
समझ लेना उचित
है उन्होंने पूछा
है कि किया
हुआ ध्यान
ध्यान करना और
ध्यान में
होना इसमें
क्या फर्क है? — टू
बी इन
मेडिटेशन एंड
टु डू
मेडिटेशन
ध्यान करना और
ध्यान में
होना।
वही
फर्क है जो
मैं समझा रहा
हूं। अगर कोई
आदमी ध्यान कर
रहा है तो वह
अशांत मन को
शांत करने की
कोशिश कर रहा
है। वह क्या
करेगा? वह यह
करेगा कि मन
को शांत करने
की कोशिश करेगा।
और कोई आदमी
अगर ध्यान में
हो रहा है, तो
वह मन को शांत
करने की कोशिश
नहीं कर रहा
है, वह मन
से सरका ही जा
रहा है। बाहर
धूप लग रही है,
तो एक आदमी
धूप में छाता
वगैरह तानने
का उपाय कर
रहा है। और
बाहर धूप में
छाते ताने जा
सकते हैं, उनमें
कोई खड़ा भी हो
सकता है और
छाया में हो
सकता है,।
लेकिन मन में
छाते ताने ही
नहीं जा सकते,
क्योंकि मन
में सिर्फ
विचार के ही
छाते तन सकते
हैं। उनसे कोई
और फर्क नहीं
पड़ सकता। यानी
वह ऐसा है
जैसे कि एक
आदमी धूप में
खड़ा है और आंख बंद
करके सोच रहा
है कि ऊपर एक
छाता है और
धूप अब नहीं
लग रही है।
लेकिन धूप
लगती रहेगी।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता। यह
आदमी धूप को
शांत करने की
कोशिश कर रहा
है। यह ध्यान
करने की कोशिश
कर रहा है। एक
दूसरा आदमी है,
बाहर धूप आ
गई है, उठकर
घर के भीतर
चला गया है।
जाकर घर में
विश्राम करने
लगा। यह आदमी
धूप को शांत
करने की कोशिश
नहीं कर रहा
है। धूप से
हटा जा रहा
है।
ध्यान
करने का मतलब
है,
एफर्ट, प्रयास—मन
को बदलने का।
और ध्यान में
होने का मतलब
है, मन को
बदलने का
प्रयास नहीं,
चुपचाप
अपने में सरक
जाना।
इन
दोनों के फर्क
को खयाल में
ले लेना
चाहिए। क्योंकि
अगर आपने
ध्यान करने की
कोशिश की, तो
ध्यान में आप
कभी न जा
पाएंगे।
कोशिश अगर की,
चेष्टा अगर
की, अगर आप
बैठ गए अकड़ कर
और आपने कहा
कि ध्यान बिलकुल
करना ही है।
और आपने कहा, आज कुछ भी हो
जाए, मन को
शांत करके
रहेंगे। कौन
कह रहा है, यह
कौन करेगा, आप ही? आप
अशांत हैं और
अब आप शांत
करेंगे! अब और
एक मुसीबत
आपने बांधी
अपने चारों
तरफ। अब आप
अकड़े हुए बैठे
हैं। आप कहते
हैं, कुछ
भी हो जाए। अब
जितना आप
अकड़ते जाते
हैं, उतनी
परेशानी में
पड़ते जाते हैं,
उतने
स्ट्रेड, उतने
टेंस होतै चले
जाते हैं।
नहीं, ध्यान
करने को......
इसलिए मैं
कहता हूं,
ध्यान है रिलेक्सेशन,
कुछ न करें,
शिथिल हो
जाएं। समझ लें,
एक छोटे से
सूत्र से मैं
समझा दूं र
उसे अंतिम रूप
से आप ध्यान
में रखना।
एक
आदमी नदी में
तैरता है। तैर
रहा है। वह
कहता है, मुझे
वहा पहुंचना
है। नदी की
तेज धार है, हाथ — पैर मार
रहा है, तैर
रहा है, थका
जा रहा है, टूटा
जा रहा है, लेकिन
तैरता चला जा
रहा है। यह
आदमी प्रयास
कर रहा है, एफर्ट
कर रहा है
तैरने का।
तैरना एक
प्रयास है।
ध्यान करना भी
एक प्रयास है।
फिर एक दूसरा
आदमी है, वह
कहता है कि
तैरते नहीं, जस्ट
फ्लोटिंग, बह
रहे हैं। उसने
नदी में अपने
को छोड़ दिया
है। हाथ—पैर
भी नहीं
तड़फड़ाता है, नदी में पड़ा
हुआ है। नदी
बही चली जा
रही है, वह
भी बहा चला जा
रहा है। वह
तैर ही नहीं
रहा है, वह
सिर्फ बह रहा
है। बहना
प्रयास नहीं
है, बहना
एफर्ट नहीं
है।
फ्लोटिंग—सिर्फ
बहना—अप्रयास,
नो एफर्ट
है।
मैं
जिस ध्यान की
बात कर रहा
हूं वह
फ्लोटिंग
जैसा है, स्विमिंग
जैसा
नहीं—तैरने
जैसा नहीं, बहने जैसा
है। ध्यान रख
लें कि एक
आदमी तैरता है
और एक पत्ता
बह रहा है नदी
में। देखें
जरा एक तैरते
हुए आदमी को
और एक बहते
हुए पत्ते को।
पत्ते की मौज
ही और है। न
कोई तकलीफ, न कोई अड़चन।
न कोई झगड़ा, न कोई झंझट।
पत्ता बड़ा
होशियार है।
पत्ते की होशियारी
क्या है? पत्ते
की होशियारी
यह है कि वह
नाव पर सवार
हो गया है, नदी
को नाव बना
लिया है उसने।
वह कहता है, जहां चलो, हम वहीं
चलने को राजी
हैं, ले
चलो। उसने नदी
की सब ताकत
तोड़ दी, क्योंकि
नदी उसका कुछ
नहीं बिगाड़
सकती, वह
नदी के खिलाफ
लड़ता भी नहीं
है। वह विरोध
में खड़ा ही
नहीं होता, वह कहता है, हम बहते
हैं। तो पत्ता
बिलकुल राजा
है। राजा क्यों
है? क्योंकि
राजा बनने की
कोशिश ही नहीं
कर रहा है, बस
बहा चला जा
रहा है। नदी
जहां ले जा
रही है, चला
जा रहा है।
इसको खयाल में
ले लेना, एक
पत्ते का
बहना। क्या आप
भी नदी में
ऐसे बह सकते
हैं? तैरने
का खयाल भी न
रह जाए, मन
भी न रह जाए, भाव भी न रह
जाए। क्या आप
बह सकते हैं!
क्या
आपने कभी देखा
है कि जिंदा
आदमी डूब सकता
है,
मुर्दा
आदमी नदी के
ऊपर आ जाता है!
आपने कभी खयाल
किया है कि
मामला क्या है?
जिंदा आदमी
डूब जाता है
और मुर्दा कभी
नहीं डूबता है,
फौरन नदी के
ऊपर आ जाता
है। फर्क क्या
है? मुर्दा
नो —एफर्ट में
पहुंच जाता
है। मुर्दा कहता
है, अब हम
कुछ नहीं
करते। कर ही
नहीं सकता।
करना भी चाहे
तो क्या
करेगा! तो नदी
के ऊपर आ जाता
है, बहने
लगता है।
जिंदा आदमी
डूब सकता है, क्योंकि
जिंदा आदमी
कोशिश करता
है। कोशिश में
थक जाता है, थकने में
डूब जाता है।
नदी नहीं
डुबाती है, लड़ना डुबाता
है। वह मुर्दे
को बिलकुल
नहीं डुबा
सकती, क्योंकि
वह लड़ता ही
नहीं। वह
लड़ेगा ही नहीं
तो उसकी ताकत
नष्ट होने का
सवाल ही नहीं।
नदी उसका कुछ
बिगाड़ ही नहीं
सकती। वह नदी
में तैरने
लगता है।
तो
मैं जिस ध्यान
की बात कर रहा
हूं वह तैरने
जैसा नहीं, बहने
जैसा है। बह
जाना है। तो
इसलिए जब मैं
यह कहता हूं
कि शरीर को
शिथिल छोड़ दें,
तो उसका
मतलब यह है कि
शरीर से बहे
हम। अब हम
शरीर में कोई
पकड़ नहीं रखते,
शरीर के
किनारे को
नहीं पकड़ते।
छोड दिया, बहने
लगे। मैं कहता
हूं कि श्वास
को भी छोड़ दें।
तो अब हम
श्वास के
किनारे को भी
नहीं पकड़ते हैं,
उसको भी छोड
देते हैं।
उससे भी बहने
लगे। जाएंगे
कहां? जब
शरीर को
छोड़ेंगे तो
भीतर जाएंगे।
और जब शरीर को
पकड़ेंगे तो
बाहर आएंगे।
जब कोई किनारे
को पकड़ेगा तो
नदी में कैसे
जाएगा? किनारे
पर आ सकता है
बाहर नदी के।
जब कोई किनारे
को छोड़ेगा, तो किनारे
के बाहर तो आ
ही नहीं सकता,
नदी में ही
जाएगा।
तो
जीवन की एक
धारा बह रही
है भीतर, परमात्मा
की धारा बह
रही है भीतर, चेतना की।
वह जो स्ट्रीम
ऑफ काशसनेस है,
वह भीतर बह
रही है। हम
पकड़े हुए हैं
किनारे को—शरीर
के किनारे को।
छोड़ दो इसे, श्वास को भी
छोड़ दो, विचार
को भी छोड़ दो।
सब किनारा छूट
गया। अब आप कहां
जाओगे? अब
धारा में बहने
लगोगे। और अगर
कोई आदमी छोड़
दे धारा में
अपने को, तो
सागर में
पहुंच जाता
है।
इधर
भीतर जो
धाराएं बह रही
हैं,
वे नदियों
की तरह हैं।
और जब कोई
उसमें बहने लगता
है, तो वह
सागर में
पहुंच जाता
है। ध्यान एक
बहना है। और
जो बहना सीख
जाता है, वह
परमात्मा में
पहुंच जाता
है। तैरना मत।
जो तैरेगा, वह भटक
जाएगा। जो
तैरेगा, वह
ज्यादा से
ज्यादा इस
किनारे को
छोड़ेगा उस किनारे
पहुंच जाएगा।
और क्या करेगा?
तैरने वाला
कर क्या सकता
है? इस
किनारे से उस
किनारे पहुंच
जाएगा। यह
किनारा भी नदी
के बाहर ले
जाता है, वह
किनारा भी नदी
के बाहर ले
जाता है। गरीब
आदमी बहुत
तैरेगा तो
अमीर आदमी हो
जाएगा। इतना
ही हो सकता है
न। और क्या
होगा! छोटी
कुर्सीवाला
बहुत तैरेगा
तो दिल्ली की किसी
कुर्सी पर बैठ
जाएगा। और
क्या होगा? लेकिन यह
किनारा भी
बाहर ले जाता
है और वह किनारा
भी बाहर ले
जाता है।
द्वारका का
किनारा भी
उतना बाहर और
दिल्ली का
किनारा भी
उतना ही बाहर।
उससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
नहीं, तैरनेवाला
किनारों पर ही
पहुंच सकता
है। लेकिन
बहने वाला? बहने वाले
को कोई किनारा
नहीं रोक सकता,
क्योंकि
उसने धार में
अपने को छोड़
दिया है। धार
उसे ले जाएगी,
ले जाएगी, ले जाएगी, सागर में
पहुंचा देगी।
सागर
में पहुंच
जाना ही
लक्ष्य है।
नदी सागर हो
जाए और
व्यक्ति की
चेतना
परमात्मा हो
जाए;
बूंद, एक
—एक बूंद खो
जाए उस में, तो जीवन का
परम अर्थ और
जीवन का परम
आनंद और जीवन
का परम
सौंदर्य
उपलब्ध हो
जाता है।
मरने
की कला बहने
की कला है। यह
अंतिम बात
मरने की कला
बहने की कला
है। क्योंकि
जो मरने को
राजी है, वह
तैरता ही नहीं;
वह कहता है,
ले जाओ जहां
ले जाना है।
हम तो राजी
हैं। इन चार
दिनों में इसी
संबंध में
मैंने सारी
बात की है।
कुछ मित्रों
को ऐसा लगता
रहा है कि मैं
सिर्फ
प्रश्नों के
जवाब दे रहा
हूं। तो
उन्होंने बार
—बार लिख कर
भेजा है कि आप
तो कुछ बोलिए,
प्रश्नों
का जबाब मत
दीजिए। जैसे
कि प्रश्नों
का जवाब कोई
और दे रहा है।
लेकिन
खूंटियां महत्वपूर्ण
हो जाती हैं, कपड़े कम
महत्वपूर्ण
हो जाते हैं।
वे कहते हैं, आप तो कपड़े
बताइए, आप
खूंटियों पर
क्यों टांग
रहे हैं? लेकिन
मैं खूंटियों
पर क्या टांग
रहा हूं? आपके
प्रश्नों पर
टागंगा भी
क्या? वही,
जो मैं
बोलता! लेकिन
हमारा मन ऐसा
है।
मैंने
सुना है, एक
सर्कस था।
उसमें एक
बंदरों का
मालिक था। वह
रोज सुबह
बंदरों को चार
केले देता था।
सांझ तीन केले
देता था। एक
दफा बाजार में
सुबह केले कम
मिले। तो उसने
कहा, आज
बंदरों तीन
केले सुबह ले
लो, चार
केले सांझ को
दे देंगे। तो
बंदरों ने
हड़ताल कर दी।
उन्होंने कहा
कि यह कभी भी
नहीं हो सकता।
चार केले सुबह
चाहिए। उसने
कहा, भाई
चार शाम को दे
देंगे, अभी
तीन ले लो।
उन्होंने कहा,
यह कभी हुआ
ही नहीं। सुबह
हमेशा चार
केले मिलते रहे
हैं। वह चार
केले अभी
चाहिए। उसने
कहा, तुम
पागल हो गए हो
क्या? कुल
मिलाकर सात
केले हो
जाएंगे।
उन्होंने कहा,
इतना हिसाब
हम नहीं
जानते। हम तो
चार केले अभी
लेंगे। सुबह
हमेशा चार
केले मिलते
रहे।
तो
मुझे मित्र
लिखते हैं
बार—बार कि आप
तो बोलिए, आप
प्रश्नों का
जवाब मत
दीजिए। मैं
बोलूंगा, क्या
बोलूंगा? वह
प्रश्न तो
खूंटियां
हैं। वह तो
मुझे जो बोलना
है, वह टांग
दिया। मैं
बोलूंगा या
प्रश्नों के
उत्तर दूंगा,
इससे क्या
फर्क पड़ता है!
कौन देगा
उत्तर? कौन
बोलेगा? लेकिन
हमें यह लगता
है कि नहीं, आप बोलिए।
क्योंकि हमको
चार केले सुबह
रोज मिलते रहे
हैं। हर शिविर
में चार
प्रवचन होते
थे और चार
प्रश्नोत्तर
होते थे और इस
बार ऐसा हुआ
कि आपने सभी
प्रश्नोत्तर
कर डाले। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। सात
केले का हिसाब
रखें। इकट्ठा जोड़
कर लें। ऐसा
एक —एक गिनती
मत करें कि
चार सुबह कि
तीन शाम, कि
तीन सुबह कि
चार शाम। सात!
और सात केले
मैंने दे दिए
हैं। और गिनती
की गड़बड़ में
आप पड़ जाएंगे,
तो कहीं
निराश न चले
जाएं। इसलिए
मैंने अंत में
यह कह दिया कि
सात केले
मैंने दे दिए
हैं। जो मुझे
बोलना था, वह
मैंने बोल
दिया है।
अब
हम रात के
ध्यान के लिए
बैठें।
थोड़े
फासले पर हो
जाएं। बातचीत
नहीं करेंगे।
जिनको जाना हो
वे चले जाएंगे, जिनको
ध्यान करना हो
वे बैठ
जाएंगे।
बातचीत न
करें। जिन
मित्रों को जाना
है वे चुपचाप
चले जाएं, और
जिनको बैठना
है वे चुपचाप
बैठ जाएं।
जिनको लेटना
हो वे लेट
जाएं। हां, जो लोग चले
गए हैं तो अब
बाकी जो लोग
खड़े हैं, वे
या तो बैठ
जाएं या चले
जाएं। दर्शक
की तरह कोई भी
न खड़ा रहे।
आंख
बंद कर लें।
देखिये, बहने
की तैयारी
करनी है, मरने
की तैयारी
करनी है। आंख
बंद कर लें
शरीर को ढीला
छोड़ दें....... शरीर
को ढीला छोड
दें..... शरीर को
ढीला छोड़े......
शकि्त को भीतर
बहने दें..... और
ऐसा समझें कि
शरीर के
किनारे को छोड़
दिया है। शरीर
को बिलकुल
ढीला छोड़ते
जाएं। फिर मैं
सुझाव देता
हूं, मेरे
साथ अनुभव
करें।
शरीर
शिथिल हो रहा
है....... शरीर
शिथिल हो रहा
है....... शरीर
शिथिल हो रहा
है...... शरीर
शिथिल हो रहा
है.......। भाव करें, शरीर
बिलकुल शिथिल
होता जा रहा
है, जैसे
कोई प्राण ही
न हों। शरीर
के किनारे को
बिलकुल ही छोड़
देना है और
भीतर चले जाना
है। जैसे कोई
नदी का किनारा
छोड़ दे और फिर
भीतर बह जाए
धार में, ऐसे
ही शरीर के
किनारे को
छोड़े। भाव
करें, शरीर
शिथिल हो रहा
है....... शरीर बिलकुल
शिथिल होता जा
रहा है.......शरीर
शिथिल हो रहा
है....... शरीर
शिथिल हो रहा
है....... शरीर
शिथिल हो रहा
है....... छोड़ दें
बिलकुल, चाहे
गिरे तो गिर
जाए शरीर को
बिलकुल ढीला
छोड़ दें.......।
शरीर शिथिल हो
गया..... शरीर
शिथिल हो गया
है...... शरीर
शिथिल हो गया
है।
श्वास
शांत हो रही
है....... भाव करें, श्वास
शांत हो रही
है...... श्वास
शांत हो रही
है..... श्वास
शांत हो रही
है..... श्वास
शांत होती जा
रही है.....।
श्वास को भी
छोड़ दें......, उससे
भी पीछे हट
जाएं। श्वास
शांत हो गयी
है....... श्वास
शांत हो गयी
है....... श्वास
शांत हो गयी
है..... श्वास
शांत होती जा
रही है.....। छोड़ दें,
और भीतर हट
जाएं।
विचार
भी शांत हो
रहे हैं...... उन पर
भी पकड़ छोड
दें...... विचार
शांत होते जा
रहे हैं.....
विचार शांत हो
रहे हैं....
विचार शांत हो
रहे हैं.....
विचार शांत हो
रहे हैं....., विचार
शांत होते जा
रहे हैं......
विचार शांत
होते जा रहे
हैं......। और भीतर
और भीतर
बिलकुल छोड़
दें, सारी
पकड़ छोड़ दें
शरीर पर श्वास
पर, विचार
पर। बिलकुल
डूब जाएं और
अपने को छोड़
दें..... जैसे कोई
सूखा पत्ता
नदी में बहने
लगे। छोड़े...... छोड़े........
शरीर शिथिल, श्वास शिथिल,
विचार शांत
हो गए हैं।
और
अब दस मिनट के
लिए भीतर
जागते हुए
देखते रहें, भीतर
जागकर देखते
रहें। जैसे
कोई दीये की
ज्योति भीतर
जल रही हो और
आप देख रहे
हैं। सिर्फ ज्ञान
मात्र रह जाए,
देखना
मात्र रह जाए।
शरीर दूर पड़ा
हुआ मालूम पड़ेगा।
श्वास शांत हो
गई है, वह
भी दूर मालूम
पड़ेगी। विचार
भी अगर कोई
अग़रगा तो बहुत
दूर चक्कर
लगाता हुआ
मालूम पड़ेगा।
फिर धीरे —
धीरे चला
जाएगा। देखते
रहें, भीतर
द्रष्टा हो
जाएं। दस मिनट
के लिए सिर्फ
द्रष्टा होकर
रह जाएं।
(भगवान श्री
कुछ मिनट मौन
रहकर फिर
सुझाव देना
शुरू करते
हैं।)
मन
शांत हो गया
है...... मन शांत हो
गया है..... मन
एकदम शांत हो
गया है। और
गहरे में अपने
को छोड़ दें...... और
भीतर. और भीतर.......
जैसे कोई गहरे
कुएं में
उतरता जाए, ऐसा
छोड दें। सारी
पकड छोड़ दें।
बस देखने वाले
मात्र रह
जाएं। भीतर हम
देख रहे हैं।
मन शांत और शून्य
होता जा रहा
है।
(मौन, निर्जन,
सन्नाटा......)
मन
शांत और शून्य
होता जा रहा
है...... मन शांत
होता जा रहा
है...... मन शांत हो
गया?
मन शून्य हो
गया। भीतर एक
जानने की
ज्योति भर
जलती रहे—हम
जान रहे हैं, देख रहे
हैं।
ध्यान मन
को समाप्त कर
देने का, विदा
कर देने का
उपाय है।
ध्यान का मतलब
है, मन के
बाहर चले
जाना। ध्यान
का मतलब है, मन से हट
जाना। ध्यान
का मतलब है, मन का न रह
जाना। ध्यान
का मतलब है, जहां हम
उलझे हैं, उस
उलझाव से हट
जाना। उस
उलझाव से हटने
से वह उलझाव
शांत हो जाता
है। क्योंकि
वह हमारी मौजूदगी
से ही उलझाव
बनता है। अगर
हम वहां से हट
जाते हैं, तो
वह विदा हो जाता
है।
(मौन, निर्जन,
सन्नाटा..)
मन
शांत हो गया......
और छोड़ दें, बिलकुल
पकड़ छोड दें।
भीतर देखें, शरीर दूर
दिखाई पड़ेगा
जैसे लाश पड़ी
हो। बाहर जैसे
सब मर गया है, भीतर जीवन
रह गया है।
जीवन की
ज्योति भर
भीतर रह गई है।
उसे देखें, उस शून्य को,
उस शांति को,
उस ज्योति
को देखें। उसे
देखते —देखते
एक आनंद की
धार जैसे भीतर
बहने लगी और
कण —कण में, रोएं
—रोएं में, श्वास—श्वास
में आनंद
प्रवाहित
होने लगा। देखें
जैसे कोई झरना
फूट जाए आनंद
का। भीतर देखते
रहें, द्रष्टा
बने रहें।
(मौन, निर्जन, सन्नाटा....)
धीरे
— धीरे, दो —चार
गहरी श्वास
लें......, धीरे
— धीरे, दो
—चार गहरी
श्वास लें।
श्वास बिलकुल
दूर मालूम
पड़ेगी, शरीर
दूर मालूम
पड़ेगा, और
मन और शांत हो
जाएगा। धीरे —
धीरे, दो
—चार गहरी
श्वास लें।
फिर धीरे —
धीरे आंख खोलें।
जो लोग लेटे
हैं या गिर गए
हैं, वे
थोड़ी गहरी
श्वास लेंगे,
फिर आंख
खोलेंगे, फिर
आहिस्ता
उठेंगे।
बहुत
धीरे आहिस्ता
उठें।
Very nice 👍👍
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