भक्ति और भगवान—(प्रवचन—दूसरा)
सूत्र—
सत्वानुरूपा
सर्वस्य
श्रद्धा भवति
भारत।
श्रद्धामयोऽयं
पुरुषो वो
यव्छुद्ध: स
एव सः।। 3।।
यजन्ते
सात्विका
देवान्यक्षरक्षांति
राजसाः।
प्रेतान्धूतगणांश्चान्ये
यजन्ते तामसा
जना: ।। 4।।
है भारत
सभी मनुष्यों
की श्रद्धा
उनके अंतःकरण के
अनुरूप होती
है तथा यह
पुरुष
श्रद्धामय है,
इसलिए जो
पुरूष जैसी
श्रद्धा वाला
है, वह
स्वयं भी वही
है।
उनमें
सात्विक
पुरूष तो
देवों को पूजते
हैं और राजस
परुष यक्ष और
राक्षसों को
पूजते हैं तथा
अन्य जो तामस
मनुष्य है,
वे ने और
भूतगणों को पूजते
हैं।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : भक्त
जब भगवान को
मिलता है, तब
उसे पुलक और
आनंद का अनुभव
होता है। क्या
भगवान को भी
उस क्षण वैसी
ही पुलक और
आनंद का अनुभव
होता है?
भगवान
कोई व्यक्ति
नहीं जिसको
भक्त जैसी
पुलक और आनंद
का अनुभव हो
सके। भगवान तो
पूरा ही
अस्तित्व है।
इसलिए पुलक और
आनंद की घटना
तो घटती है, लेकिन
वहां कोई
अनुभव करने
वाला नहीं है।
जैसे भक्त के
छोटे—से हृदय
में आनंद गज
जाता है, वैसा
कोई हृदय
परमात्मा का
नहीं है, जहां
आनंद गंज जाए।
परमात्मा तो
पूरा
अस्तित्व है,
इसलिए पूरा
अस्तित्व ही
पुलक से भर
जाता है। इतना
फर्क है। पुलक
तो घटेगी ही, क्योंकि
भटका हुआ घर
लौट आया। दूर
गया पास आ गया।
खो गया था, वापस
मिल गया।
अस्तित्व की
तरफ जिसकी पीठ
थी, उसने
मुंह कर लिया।
तो आनंद की
घटना तो घटेगी
ही। लेकिन
भगवान कोई
व्यक्ति नहीं
है, वहां
कोई व्यक्ति
के भीतर छिपा
हुआ हृदय नहीं
है। इसलिए
जैसा अनुभव
भक्त को होगा,
वैसा कोई
अनुभव करने
वाला भगवान
में नहीं है।
वह तो परम
शून्यता है।
पुलक
होगी; वह पुलक
बादलों में
सुनी जाएगी; वह पुलक
नदियों में
गूंजेगी; वह
पुलक फूलों से
खिलेगी; वह
पुलक चांद—तारों
में ज्योति
देगी। लेकिन
कोई हृदय नहीं
है, जो
अनुभव करेगा।
या तुम ऐसा
कहो—वह भी
कहना ठीक है—कि
ह्रदय ही हृदय
है; सारा
अस्तित्व
उसका हृदय है।
सारा
अस्तित्व एक
सिहरन से, एक
आनंद की मधुर
घड़ी से भर
जाएगा।
इसे
भक्त ही जान
पाएगा; तुम न
पहचान पाओगे।
तुम्हें भक्त
का आनंद तो
दिखाई पड़ेगा,
क्योंकि
भक्त
तुम्हारे
जैसा ही
व्यक्ति है।
उससे
तुम्हारा 'थोड़ा
तालमेल है। वह
कितना ही
भिन्न हो गया
हो, उसकी
यात्रा बदल गई
हो, उसने
परमात्मा की
तरफ मुंह कर
लिया हो, तुमने
पीठ कर रखी है,
तो भी वह
तुम्हारे
जैसा है, व्यक्ति
है। उसके हृदय
में कुछ घटेगा;
आंसू
बहेंगे, तो
तुम आंसुओ को
पहचान सकते हो।
वह नाचने
लगेगा, तो
तुम नाच को
समझ सकते हो।
उसके चेहरे पर
अहोभाव की
छाया पड़ेगी, तो पूरा न
समझ सको, तो
भी थोड़ा तो
समझ ही लोगे।
वह भाषा तुमसे
परिचित है। लेकिन
परमात्मा में
जो पुलक घट
रही है, वह
तुम न देख
पाओगे; वह
तुम न समझ
पाओगे।
इसलिए
तो बहुत—सी
कथाएं हैं, जो
कथाएं जैसी
मालूम होने लगी
है; वे
सत्य घटनाएं
है। कि बुद्ध
को परम ज्ञान
हुआ और वृक्षों
में फूल खिल
गए, बिना
ऋतु के। ये
फूल दूसरों ने
देखे हों, यह
संदिग्ध है।
ये फूल बुद्ध
ने ही देखे
होंगे। ये फूल
साधारण फूल न
थे, जो रोज
ऋतु में खिलते
हैं और गिरते
हैं। ये तो
वृक्ष के
अंतर्भाव के
फूल थे।
इन्हें तुम
बाजार में न
बेच सकते थे, इन्हें तुम
तोड़ भी न सकते
थे, इन्हें
तुम देख भी न
सकते थे। ये
तो अदृश्य के
फूल थे, जो
बुद्ध को
दिखाई पड़े
होंगे।
कहते
हैं,
मोहम्मद को
जब ज्ञान हुआ,
तो
रेगिस्तान की
तपती
दुपहरियों
में बादल उन्हें
छाया देने लगे।
मगर ये बादल
किसी और को
दिखाई न पड़े
होंगे। ये
बादल जो
छतरियां बन गए
और मोहम्मद के
ऊपर मंडराने
लगे, यह
मोहम्मद ने ही
खबर की होगी
औरों को।
तुम्हारी आंखें
इतनी सूक्ष्म
घटना को न देख
पाएंगी।
वस्तुत: कोई
बादल बने भी, यह भी जरूरी
नहीं है।
लेकिन छाया
मोहम्मद को
मिलने लगी, यह पक्का है।
तपती दुपहरी
में भी सूरज
जलाता नहीं, भयंकर
रेगिस्तान
में भी कंठ
में प्यास
नहीं जगती, ऐसी शीतलता
मोहम्मद को
मिलने लगी। एक
संवाद शुरू हो
गया अस्तित्व
के साथ।
निश्चित
ही,
जब तुम
प्यार से
भरोगे
अस्तित्व के
प्रति, तो
अस्तित्व भी
अपने प्यार को
तुम्हारी तरफ
लुटाका।
अस्तित्व जड़
नहीं है, यही
तो मतलब है
कहने का कि
अस्तित्व
परमात्मा है।
अगर जड़ होता, तो तुम रोओ, तो पत्थर
रोएगा नहीं; उसमें कोई संवेदना
नहीं है। तुम
हंसो, तो
पत्थर हंसेगा
नहीं। पत्थर
से कोई
प्रत्युत्तर
न मिलेगा। यही
तो मतलब है
पत्थर होने का।
तो
हम कभी कहते
हैं कि उस
आदमी का हृदय
पाषाण है।
उसका क्या
मतलब होता है? इतना
ही मतलब होता
है। कहीं
पाषाण के हृदय
होते हैं! इतना
ही मतलब होता
है कि उसमें
से
प्रतिसवेदन नहीं
उठता। वह
तुम्हें दुखी
देखकर दुखी न
होगा।
तुम्हारी
गीली आंखें
उसके हृदय को
गीला न करेंगी।
तुम्हारा नाच
उसे छुएगा
नहीं।
तुम्हारे भाव
तुम्हारे ही
रहेंगे; वह
कोई
प्रत्युत्तर
न देगा। उसका
हृदय पाषाण है।
इस
अस्तित्व को
परमात्मा
कहने का अर्थ
है कि यहां
पाषाण कुछ भी
नहीं है।
पाषाण झूठा
शब्द है। यहां
पत्थर भी आंदोलित
होते हैं।
क्योंकि सभी
तरफ सचेतन, सभी
तरफ चैतन्य का
विस्तार है।
तो
प्रतिसवेदना
होगी। लेकिन
इतनी सूक्ष्म
है वह घटना कि
भक्त ही जान
पाएगा कि
भगवान को क्या
हो रहा है, साधारणजन
न पहचान
पाएंगे।
क्योंकि वे
करीब—करीब
अंधे हैं, बहरे
हैं। न तो
उनके पास कान
हैं उस अमृत—नाद
को सुनने के, न उनके पास आंखें
हैं उस अरूप
को देखने की।
इसलिए
तुम्हें मीरा
नाचती हुई
दिखाई पड़ेगी और
तुम्हें मीरा
थोड़ी पागल भी
मालूम पड़ेगी।
क्योंकि जिसके
साथ वह नाच
रही है, वह
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता। मीरा तो
अपने कृष्ण के
साथ नाच रही
है। वह कृष्ण
कोई व्यक्ति
नहीं है।
हवाओं के
झोंके में भी
वही कृष्ण हैं;
हवा छूती है
मीरा को, तो
कृष्ण के हाथ
ही छूते हैं।
और मैं तुमसे
कहता हूं कि
निश्चित जब
तुम्हारे पास मीरा
का हृदय होगा,
तो हवा
तुम्हें और
ढंग से छुएगी।
छूने—छूने में
कितना फर्क
है!
राह
से तुम चलते
हो और एक आदमी
से शरीर छू
जाता है; फिर
तुम्हारी
प्रेयसी
तुम्हें छूती
है या तुम्हारी
मां तुम्हारे
सिर को छूती
है या तुम अपने
बेटे को छूते
हो। दोनों
छूना एक—से
हैं। अगर हम
शरीरशास्त्री
से पूछें कि
जांच करके बताओ
कि दोनों तरह
के स्पर्श में
कोई फर्क है?
वह
कोई फर्क न
बता पाएगा। वह
कहेगा, दोनों
स्थितियों
में चमड़ी चमड़ी
को छूती है।
थोड़े—से ताप
का आदान—प्रदान
होता है। गरमी
एक शरीर से
दूसरे शरीर
में थोड़ी—सी
जाती है। बस, इतना ही।
मां छुएगी, तो भी यही
होता है। राह
पर चलता
राहगीर छू
लेगा, तो
भी इतना ही
होता है। कोई
प्रेम से
थपथपाएगा, तो
भी यही होता
है। कोई क्रोध
से मारेगा, तो भी यही
होता है। जहां
तक
शरीरशास्त्री
की पकड़ है, दोनों
एक—सी घटनाएं
हैं।
हवा
का झोंका
तुम्हें भी
छूता है, मुझे
भी छूता है, मगर तुम्हें
ऐसे ही छूता
है जैसे राह
पर कोई अजनबी
से धक्का लग
गया। मीरा को
भी छूता है, लेकिन वह
प्रेमी का हाथ
है। उस झोंके
में कुछ आया
है। उस झोंके
में सिर्फ
स्पर्श नहीं
है, स्पर्श
के पीछे छिपा
हुआ राज है, एक भाव—दशा
है।
वृक्षों
में फूल तुम्हें
भी खिलते हैं, तुम
भी देख लेते
हो उनके रंग—रूप
को। मीरा भी
देखती है, लेकिन
वहां वृक्षों
में उसका
प्रेमी ही खिल
रहा है। आषाढ़
आता है, मोर
नाचते हैं।
तुम भी देख
लेते हो, पर
मीरा के लिए
उसका कृष्ण ही
नाचता है। असल
में मीरा के
लिए सारा
अस्तित्व
कृष्ण—रूप हो
गया.। इसलिए
अब जो भी होता
है, वह
कृष्ण में ही
हो रहा है। और
पूरी भाषा बदल
जाती है, पूरे
अर्थ बदल जाते
हैं।
अगर
मनोवैज्ञानिकों
को कहो कि
मीरा के पदों
का विश्लेषण
करो,
तो तुम बहुत
धक्का खाओगे।
क्योंकि मनोवैज्ञानिक
जो बातें
कहेंगे, उनका
तुम्हें
भरोसा भी न
आएगा। चाहे
भरोसा न आए, लेकिन
तुम्हारा भी
भीतर भरोसा
वही है।
जब
मीरा कृष्ण की
बात कहती है
और कहती है, सेज
सजा ली है, फूल
बिछा दिए हैं,
अब तुम आओ।
तो
मनोवैज्ञानिक
कहेगा, यह
तो कुछ काम—दमन
मालूम पड़ता है;
यह तो सेक्स
सप्रेशन है।
यह तो कृष्ण
में पति को ही
खोज रही है।
ऐसा लगता है, राणा से मन
नहीं भर पाया।
ऐसा लगता है, कुछ बात चूक
गई; काम
अतृप्त रह गया।
वह जो शरीर की
वासना थी, वह
प्रकट नहीं हो
पाई, वह दब
गई। और अब वही
शरीर की वासना
नए भ्रम बन
रही है। तो
कृष्ण को पति
मान रही है, सेज सजा रही
है।
यह
सेज का सजाना
और बुलाना, यह
कामवासना
मालूम पड़ेगी
मनसविद को। वह
तो
मनोवैज्ञानिकों
ने अभी मीरा
पर कृपा नहीं
की है। उनको
मीरा का
ज्यादा पता
नहीं है, क्योंकि
मनोविज्ञान
का जन्म
पश्चिम में हो
रहा है। यहां
भी
मनोवैज्ञानिक
हैं, लेकिन
वे अधकचरे हैं
और वे, पश्चिम
में जो होता
है, उनके
पीछे चलते हैं।
वे सीधे कुछ
करते नहीं।
लेकिन
उन्होंने
जीसस की काफी
खोज—खबर ली है।
और मीरा जैसी
स्त्रियां
पश्चिम में
हुई हैं, उनकी
उन्होंने
काफी खोज—खबर
ली है। संत
थेरेसा हुई है
पश्चिम में।
मनोवैज्ञानिकों
ने उसका
विश्लेषण
किया है। वह
ठीक मीरा है
पश्चिम की। और
उसके प्रतीक
तो सब
कामवासना के
हैं। करोगे भी
क्या! मनुष्य
के पास जितने
भी मधुर शब्द
हैं, सभी
कामवासना के
हैं। जब वह
परम मधुरिमा
घटती है, तो
कौन से शब्दों
का उपयोग
करोगे?
दो
ही तरह की
भाषाएं हैं
तुम्हारे पास।
या तो बाजार
की भाषा है, वह
बहुत ही
क्षुद्र है।
उस भाषा में
तो परमात्मा
को पकड़ा नहीं
जा सकता। और
या फिर दो
प्रेमियों की
स्वात की भाषा
है। वह जरा कम
क्षुद्र है, लेकिन है तो
क्षुद्र ही, क्योंकि वे
प्रेमी भी
बाजार के ही
रहने वाले लोग
हैं।
और
जब मीरा जैसी
घटना घटती है
या थेरेसा
जैसी, तो वह
क्या करे? भाषा
कहां से लाए? तुम्हारे
बाजार की भाषा
का उपयोग करे,
तो बिलकुल
ही व्यर्थ
मालूम होती है।
क्या कहे कि
परमात्मा के
झोंके में
लाखों रुपये आ
गए! क्या कहे
कि पूरा
रिजर्व बैंक
उलटा दिया
परमात्मा के
झोंके में!
वह
भी भद्दा
लगेगा; वह भी
कुछ सार्थक न
मालूम पड़ेगा।
तुम उसे भी न
पकड़ पाओगे।
ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही होगा कि
इनकम टैक्स
आफिसर मीरा के
पीछे पड़
जाएंगे कि कहां
हैं? वे
करोड़ों रुपये
कहां हैं?
दूसरी
भाषा प्रेम की
है,
जो प्रेमी
एक—दूसरे से
बोलते हैं। वह
बड़ी निजी है।
लेकिन उसमें
कामवासना की
धुन पकड़ में
आती है। तड़पते
हैं प्रेमी, राह देखते
हैं, मिलन
होता है, अहोभाव
से भरते हैं।
वही भाषा समझ
में आती है।
मीरा उसका
उपयोग करती है,
थेरेसा ने
भी उसका उपयोग
किया है।
पश्चिम
के
मनोवैज्ञानिकों
ने बड़ी
छीछालेदर की
है थेरेसा की।
वही वे मीरा
के साथ करेंगे।
उनको मीरा का
पता नहीं है।
वे कहते हैं, यह
तो कामवासना
है। वे तो हर
चीज में
कामवासना खोज
लेते हैं, क्योंकि
दूसरी तो किसी
चीज का पता ही
नहीं है।
यह
सेज सजी है, पिया
घर नहीं आए।
ये फूल बिछा
रखे हैं, मैं
तुम्हारी राह
देखती हूं।
तुम आओ, सुहागरात
के लिए तैयारी
है। अब यह
सारी भाषा तो
प्रेम की है।
या तो हम
कहेंगे कि
मीरा का मन
कामवासना से
ग्रस्त है, इसलिए
परमात्मा के
नाम पर वही
वासना निकल
रही है। या हम
समझेंगे, मीरा
पागल है।
क्योंकि हम
मीरा की बिछी
हुई सेज देख
सकते हैं, पड़े
हुए फूल देख
सकते हैं, मीरा
बैठकर रोती है,
किसी की
प्रतीक्षा
करती है, यह
भी देख सकते
हैं। लेकिन वह
कभी आता है? कभी आया है? कभी आएगा? उसकी हम
द्वार पर
दस्तक भी नहीं
सुनते।
मीरा
को फिर हम कभी
रोते भी देखते
हैं कि उसका विरह
हो गया है और
कभी नाचते भी
देखते हैं कि
मिलन हो गया।
न तो हमें
विरह के क्षण
में कोई उसके
घर से जाता
दिखाई पड़ता, और
न मिलन के
क्षण में कोई
घर आता दिखाई
पड़ता।
मीरा
पागल है। लोग
खूब हंसे
होंगे मीरा पर।
इसलिए तो मीरा
कहती है, सब
लोक—लाज खोई।
इज्जत सब चली
गई। राणा ने
जो बार—बार
मीरा को जहर
के प्याले
भेजे, वह
इसीलिए कि
उसकी भी इज्जत
इसके पीछे
डूबती थी।
यह
किस प्रेमी की
बात कर रही है? यह
किस कृष्ण के
पीछे दीवानी
है? लोग
इसको तो पागल
समझते या
रुग्ण समझते
या मनोविकार
से ग्रस्त
समझते। पति भी
मुश्किल में
पड़ा हुआ था।
हमने जहर तो
आते देखा, हमने
मीरा को जहर
पीते भी देखा,
लेकिन मीरा
पर हमने उस
जहर का असर
होते नहीं देखा।
तब जरा हम
बेचैन हुए। यह
तो अनूठी बात
है। यह कैसे
असर न हुआ? अगर
तुम मनसविद से
पूछोगे, उसके
पास इसके लिए
भी व्याख्या
है। वह कहता
है, यह भी
आत्म—सम्मोहन
है। अगर मीरा
को पक्का
भरोसा है कि
यह जहर नहीं
है या
परमात्मा की
कृपा से यह
अमृत हो जाएगा,
तो इस भरोसे
के कारण ही
जहर शरीर में
प्रवेश नहीं
कर पाता।
मनोवैज्ञानिक
उसके लिए भी
कुछ न कुछ तो
व्याख्या
खोजेगा!
हम
परमात्मा से
बचने को इस
तरह आतुर हैं
कि हम सब मान
सकते हैं, व्यर्थ
से व्यर्थ बात
मान सकते हैं,
परमात्मा
को नहीं मान
सकते।
मनोवैज्ञानिक
कहता है कि यह
तो मन का इतना प्रगाढ़
रूप से भाव है
कि यह जहर
नहीं है, इसलिए
शरीर में जहर
प्रवेश नहीं
करता, मन
के कारण ही।
कोई कृष्ण
थोड़े ही जहर
को अमृत में
बदल रहे हैं!
जहर
भी अमृत में
बदल जाए, तो भी
हम अंधे हैं; तो भी हम कोई
व्याख्या
अपनी ही खोज
लेंगे। इतनी
बड़ी घटना भी
हमें तृप्त
नहीं कर पाएगी।
उसका कारण है,
हमें वह
कृष्ण दिखाई
नहीं पड़ता। और
अनदेखे को हम
कैसे मान लें?
इतने मूढ़ हम
कैसे हो जाएं?
घटना
तो घटती है।
जब भक्त भगवान
को मिलता है, तो
जितनी पुलक
भक्त में घटती
है, अगर
तुम मुझ से
ठीक पूछो, तो
उससे अनंत
गुना पुलक
भगवान में
घटती है। घटनी
ही चाहिए; क्योंकि
अनंत गुना है
भगवान भक्त से।
भक्त तो एक
बूंद है, भगवान
तो एक सागर है।
अगर बूंद इतनी
नाचती है, तो
तुम सोचो, सागर
कितना नाचता
होगा!
लेकिन
वह कोई
व्यक्ति नहीं
है। यह सारी
समष्टि वही है।
इसलिए वह सब
रूपों में
नाचता है, सब
रूपों में
हंसता है, सब
रूपों में
पुलकित होता
है। हरियाली
में और हरा हो
जाता है। रंग
में और रंगीन
हो जाता है।
इंद्रधनुष
में और गहरा
हो जाता है।
लेकिन वह
दिखाई पड़ता है
उसी को, जिसके
हृदय में
अहोभाव भरा है,
जो नाच रहा
है आज। उसे
परमात्मा साथ
ही नाचता हुआ
दिखाई पड़ता है।
यही
तो अर्थ है कि
सोलह हजार
गोपियां
नाचती हैं और
प्रत्येक
गोपी को लगता
है कृष्ण उसके
साथ नाच रहे
हैं। कृष्ण
अगर व्यक्ति
हों,
तो एक ही
गोपी के साथ
नाच सकते।
कृष्ण कोई
व्यक्ति नहीं
हैं। कृष्ण तो
एक तत्व का
नाम है। वह
तत्व
सर्वव्यापी
है। जब तुम
नाचते हो और
तुम नाचने की
क्षमता जुटा
लेते हो, तब
तुम अचानक
पाते हो कि
सारा
अस्तित्व
तुम्हारे साथ
नाच रहा है।
फिर
अस्तित्व
बहुत बड़ा है, वह
दूसरों के साथ
भी नाच रहा है।
इसलिए भक्त को
कोई ईर्ष्या
पैदा नहीं
होती। अन्यथा
तुम सोच सकते
हो कि सोलह
हजार स्त्रियों
ने क्या गति
कर दी होती
कृष्ण की! अगर
यह बात साधारण
संसार की बात
हो, जैसा
कि इतिहासविद
मानते हैं.।
और
यह कठिन नहीं
है,
सोलह हजार
स्त्रियां हो
सकती हैं; उस
जमाने में हुआ
करती थीं। अभी
निजाम
हैदराबाद मरा,
तब उसकी
पांच सौ
स्त्रियां
थीं। बीसवीं
सदी में अगर
पांच सौ हो
सकती हैं, तो
सोलह हजार कोई
ज्यादा तो
नहीं हैं।
सिर्फ बत्तीस
गुनी। कोई
बहुत बड़ा गणित
नहीं है। आज
से पाच हजार
साल पहले सोलह
हजार
स्त्रियां हो
सकती थीं।
सम्राटों के
पास होती थीं।
जितनी सुंदर
स्त्रियां
होतीं, वे
सब इकट्ठी कर
लेते पूरे
राज्य से। यह
कठिन नहीं है।
लेकिन
सोलह हजार
स्त्रियां!
अगर तुम्हें
एक भी स्त्री
का अनुभव है, तो
तुम समझ सकते
हो। कृष्ण की
हत्या कर दी
होती, अगर
कृष्ण कोई
व्यक्ति हैं।
सोलह हजार
स्त्रियां
कितनी भयंकर
ईर्ष्या से न
भर गई होतीं।
और कृष्ण एक
के साथ नाच
सकते, कोई
एक राधा हो
जाती और बाकी
पिछड़ जातीं।
उपद्रव खड़ा
होता। लेकिन
कोई ईर्ष्या
पैदा न हुई।
यह
बड़ी मीठी कथा
है कि गोपियों
में कोई
ईर्ष्या पैदा
न हुई। उनका
विरह भी साथ—साथ
था,
उनका मिलन
भी साथ—साथ था।
क्योंकि
कृष्ण कोई
व्यक्ति नहीं
हैं, तत्व
की बात है।
सारा
अस्तित्व है,
जहां भी तुम
नाचो, अस्तित्व
तुम्हें घेरे
हुए है। कृष्ण
के हाथ
तुम्हारे गले
में पड़े हैं।
आलिंगन है—हवा
में, धूप
में।
सब
तरफ से कृष्ण
तुम्हें घेरे
हुए हैं। वे
तुम्हारे साथ
नाचने को
तैयार हैं। बस, तुम्हारे
पैरों के उठने
की कमी है।
तुम जरा नाच
सीख लो, परमात्मा
नाचने को राजी
है। तुम जरा
हंसना सीख लो,
परमात्मा
हंसने को राजी
है। तुम रोओगे,
तो अकेले
रोओगे; तुम
हंसोगे, तो
सारा
अस्तित्व
तुम्हारे साथ
हंसेगा।
क्योंकि
परमात्मा रो
नहीं सकता।
इसे थोड़ा समझ
लो।
परमात्मा
दुखी नहीं हो
सकता। इसलिए
जब मैं कहता
हूं कि जब
भक्त आनंदित
होता है, तो
पूरा
अस्तित्व आनंदित
होता है।
लेकिन तुम यह
मत सोचना कि
जब भक्त रोता
है, तो
पूरा
अस्तित्व
रोता है।
पूर्ण रोना
जानता ही नहीं।
पूर्ण की कोई
पहचान ही रोने
से, रुदन
से, उदासी
से नहीं है।
पूर्ण का कोई
संबंध ही दुख—पीड़ा
से नहीं है।
कहावत है कि
जब तुम हंसते
हो, तब
सारा
अस्तित्व तुम्हारे
साथ हंसता है।
जब तुम रोते
हो, तब तुम
अकेले रोते हो।
रोना निजी है,
व्यक्तिगत
है।
इसलिए
तो जब तुम
रोना चाहते हो, तो
तुम अकेले
होना चाहते।
हो। द्वार—दरवाजा
बंद कर लेते
हो। तुम नहीं
चाहते कोई आए।
तुम। नहीं
चाहते कि
पत्नी भी भीतर
आए। तुम चाहते
हो, अकेला छोड़
दो, बिलकुल
अकेला छोड़ दो।
क्योंकि रोना
निजी घटना है।
लेकिन
जब तुम हंसते
हो,
तब तुम पास—पड़ोस
के लोगों को
बुला लेते हो।
जब तुम हंसते
हो, तब तुम
निमंत्रण भेज
देते हो। जब
तुम आनंद में
होते हो, तब
तुम भोज का
आयोजन कर लेते
हो, कि आएं
मित्र, पड़ोसी,
संबंधी, हम
सब साथ ही
नाचे, हम
सब साथ ही
प्रसन्न हों।
प्रसन्नता
निजी नहीं है, फैलती
है, विस्तीर्ण
होती है। दुख
निजी है, सिकुड़ता
है, सड्ता
है। तुम अकेले
ही दुखी रह
जाते हो। और
अचानक तुम
पाते हो कि
सारे जगत से
तुम्हारा
तालमेल टूट
गया। जितने
तुम ज्यादा
दुखी हो, उतना
ही परमात्मा
से दूर। या
उलटा चाहो तो
उलटा कहो, जितने
तुम परमात्मा
से दूर, उतने
ज्यादा दुखी।
वे दोनों एक
ही बातें हैं।
जितने तुम
परमात्मा के
पास, उतने
तुम सुखी।
दूसरी बात भी
सही है, जितने
तुम सुखी, उतने
तुम परमात्मा
के पास।
इसलिए
मेरी शिक्षा
आनंद की है।
मैं तुम्हें
उदास नहीं
बनाना चाहता
कि तुम आंखें
बंद करके
ध्यान लगाकर
उदास होकर, मुरदा
होकर बैठ जाना
लंबे चेहरे
करके; कि
तुम कोई बहुत
बड़ा काम कर
रहे हो, कि
तुम जैसे
परमात्मा पर
कोई अनुग्रह
कर रहे हो, कि
तुम्हारी बड़ी
कृपा है कि
घंटे भर तुम
चेहरा बनाकर,
हाथ में
माला लेकर और
पत्थर की तरह
बैठे रहते हो।
नहीं, पत्थर
बहुत हैं।
तुम्हारे और
पत्थर होने की
जरूरत नहीं है।
तुम नाचो।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं,
ये आपके
ध्यान कैसे
हैं? क्योंकि
हम तो यही
सोचते थे कि
आख बंद करके
पद्यासन
जमाकर और शांत
होकर बैठ जाना
है। नाचना! संगीत!
यह ध्यान कैसा?
मैं
उनसे कहता हूं
कि तुमने कभी
परमात्मा को ऐसा
बैठा देखा है
उदास? चारों
तरफ देखो, पक्षी
गीत गा रहे
हैं, हवा
नाच रही है, वृक्षों की
पुलक का क्या
कहना! समारंभ
चल रहा है, उत्सव
चल रहा है।
तुम इसके
भागीदार होना
चाहते हो? नाचो!
नाचो कि मोर
फीके पड़ जाएं।
गाओ कि पक्षी
चुप होकर
सुनने लगें।
पुलकित हो उठो
कि हवाएं झेंप
जाएं। तभी तुम
परमात्मा के
निकट आओगे। जो
आनंदित है, वह निकट आ
जाता है; जो
निकट आ जाता, वह महा आनंद
से भर जाता।
जैसे—जैसे तुम
निकट आते हो, वैसे—वैसे
तुम पाते हो
कि यह उत्सव
तुम्हारा
नहीं है, यह
उत्सव तो सब
का है।
धर्म
उत्सव है। और
मंदिर
दुष्टों के
हाथ में पड़ गए
हैं;
वे उदास
लोगों के हाथ
में पड़ गए हैं।
कुछ कारण हैं।
उदास
लोग आक्रामक
हो जाते हैं।
और आक्रामक
लोग बकवासी हो
जाते हैं।
आक्रामक लोग
दूसरों पर
कब्जा करने
लगते हैं।
आक्रामक लोग दूसरों
को रास्ता
बताने लगते
हैं। जो उदास
हैं,
वे दूसरों
को उदास करने
में रस लेने
लगते हैं।
लेकिन
महावीर उदास
नहीं हैं, न
बुद्ध उदास
हैं। कृष्ण तो
बिलकुल ही
नहीं; उनके
होंठों पर
बांसुरी रखी
है। लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं बुद्ध के
होंठों पर भी
बांसुरी रखी
है। अदृश्य है,
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ती। मैंने
देखी है, इसलिए
कहता हूं।
जब
भी कोई बुद्ध
हुआ है, होंठ
पर बांसुरी
जरूर रही है, दिखाई पड़े, न दिखाई पड़े।
कृष्ण की
बांसुरी
दिखाई पड़ती है;
बुद्ध की
बांसुरी
दिखाई नहीं
पड़ती। लेकिन
उस बोधि—वृक्ष
के नीचे भी
वेणु बज रही
है, गीत उठ
रहा है। बुद्ध
को तुमने शांत
बैठे देखा है।
वह तुम्हारी
भांति है। तुम
अगर गौर से
देखते, तो
तुम उस भीतर
के नाच को देख
लेते। जब भी
कोई परमात्मा
को पाया है, नाचा है। और
जब भी कोई
नाचा है, तो
परमात्मा तो
नाच ही रहा है,
वह तत्क्षण
तुम्हारे साथ
हो जाता है; उसकी
गलबहियां
तुम्हारे
कंधों पर पड़
जाती हैं।
लेकिन
परमात्मा कोई
व्यक्ति नहीं
है,
इसे खयाल
रखना।
परमात्मा
यानी समष्टि।
दूसरा
प्रश्न :
गुरु
शिष्य की
निरंतर
सहायता करता रहता
है,
पर वह कई
मौकों पर बार —बार
पूछने पर भी
चुप रह जाता
है। ऐसा क्यों
कर घटित होता
है?
कभी
जरूरी होता है
कि चुप होने
से ही सहायता
की जा सकती है।
कभी बोलकर
सहायता की जा
सकती है। कभी
बोलकर नुकसान
होगा। कभी चुप
रहने में ही
सहायता
पहुंचेगी।
कभी संदेश
शब्दों में
दिया जा सकता
है,
और कभी
संदेश शब्दों
में दिया नहीं
जा सकता।
फिर
कभी तुम तैयार
होते हो, जो
तुमने पूछा है,
उसके लिए।
और कभी तुम
तैयार नहीं
होते, और
तुमने असमय
में पूछ लिया
होता है। और
असमय में कुछ
भी नहीं दिया
जा सकता।
तुम्हें
पता न हो, गुरु
को पता होता
है कि तुम जो
मांग रहे हो, अभी उसके
लेने के हकदार
नहीं हो। अभी
देना व्यर्थ
होगा। अभी
हीरे—मोती
तुम्हें दे
दिए जाएंगे, तुम कंकड़—पत्थरों
में मिला लोगे।
अभी तुम्हें
हीरे—मोती का
बोध नहीं है, अभी पारखी
पैदा नहीं हुआ।
कभी
इसलिए गुरु
चुप रह जाता
है कि अभी तुम
तैयार नहीं हो।
तुमने असमय
में प्रश्न
पूछा। और
तुम्हारी
जिद्द हो जाती
है कि तुम उस प्रश्न
में अटक जाते
हो,
तुम बार—बार
पूछते हो। तुम
लाख बार पूछो,
तो भी असमय
में उत्तर
नहीं दिया जा
सकता।
तुम्हें पता न
हो समय का, तुम्हें
पता न हो
परिपक्वता का,
गुरु को तो
पता है। वह
उसी दिन उत्तर
देगा, जिस
दिन तुम तैयार
हो जाओगे।
तुम्हारे लाख
पूछने का सवाल
नहीं है। तुम
न भी पूछो, जिस
दिन तुम तैयार
होगे, उत्तर
दिया जाएगा।
तुमने कभी न
भी पूछा हो, तो भी।
तुम्हारी
तैयारी पर
उत्तर निर्भर
करेगा, तुम्हारी
जिज्ञासा पर
निर्भर नहीं
है बात। और
तुम्हारी
जिज्ञासा और
तुम्हारी
तैयारी में
अक्सर तालमेल
नहीं होता।
तुम पूछते आकाश
की हो, तुम
खड़े होते जमीन
पर हो। तुम
पूछते प्रेम
की हो, चित्त
कामवासना से
भरा होता है।
अगर कुछ भी
कहा जाएगा, तो तुम
कामवासना के
अर्थों में ही
समझोगे। तुम
पूछते
परमात्मा की
हो, आकांक्षा
पद—प्रतिष्ठा
की बनी होती
है। परमात्मा
भी तुम्हारे
लिए एक तरह की
पद—प्रतिष्ठा
है। परम पद
होगा, लेकिन
है पद ही। परम
संपदा होगी, लेकिन है
संपदा ही।
जरूरी
नहीं है कि
तुम जब पूछो, तब
तुम तैयार हो।
गुरु उत्तर
देता है
तुम्हारी
तैयारी से।
इसलिए बहुत
बार चुप रह
जाएगा। चुप रह
जाने में उसकी
अनुकंपा है।
क्योंकि गैर—समय
में दिया गया उत्तर
घातक हो जाता
है। तुम
समझोगे कि
तुमने उत्तर
पा लिया। और
उत्तर
तुम्हें मिला
नहीं, क्योंकि
अभी तो प्रश्न
ही पैदा न हुआ
था। तुम इस
उत्तर को
कंठस्थ कर
लोगे। तुम इस
उत्तर को
दूसरों को भी
देने लगोगे।
तुम्हें
खुद भी कुछ
पता नहीं है।
तुम्हारी
प्यास ही अभी
न थी और पानी
दे दिया गया।
तुम उसे पीओगे
कैसे? प्यास
होगी, तो
पीओगे, कंठ
सूखेगा, तो
पीओगे। और यह
पानी तुम्हें
मिल गया, तुम
करोगे क्या? तुम दूसरों
के गले में
जबरदस्ती
उतारोगे।
तुम्हें ज्ञान
मिल जाए असमय
में, तो
तुम पंडित हो
जाओगे, ज्ञानी
नहीं।
तो
गुरु बहुत बार
चुप रह जाता
है। वह तुम से
यह कह रहा है
कि रुको, जल्दी
मत करो। तुम
लाख बार पूछो,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
क्योंकि सवाल
तुम्हारा है,
तुम्हारे
पूछने का नहीं
है। गुरु
तुम्हें
देखता है, तुम
क्या पूछते हो,
यह गौण है।
तुम न भी पूछो,
तो भी वह
तुम्हें
देखता रहता है।
तुम्हें जब
जिस चीज की
जरूरत है, वह
कहेगा।। फिर
बहुत बार तुम
तैयार भी होते
हो, लेकिन
तुम्हारा
प्रश्न ही!
ऐसा होता है, जिसका उत्तर
शब्दों में
नहीं हो सकता,
तब वह चुप
रह जाता है।
चुप रह जाने
का मतलब यह
नहीं है कि
उसने उत्तर नहीं
दिया; चुप
रह जाने का
मतलब है कि
उसने चुप रहकर
उत्तर दिया।
चुप रहना एक
उत्तर है।
एक
नए नाटककार ने
बर्नार्ड शा
को अपना नाटक
देखने
आमंत्रित
किया।
बर्नार्ड शा
गया। पर शुरू
से उसने कोई
एक—दो मिनट तो
देखा और आख
बंद करके वह
घर्राटे लेने
लगा। वह
नाटककार बगल
में बैठा बड़ा
पीड़ित हुआ कि
यह आदमी आया न
आया बराबर। और
इससे तो बेहतर
न आता। यह भी
कोई बात हुई!
यह कोई
शिष्टाचार
हुआ! लेकिन के
बर्नार्ड शा
को उठाना भी
ठीक नहीं। और
वह आदमी जरा
तेज और नाराज
प्रकृति का था।
इसलिए वह
नाटककार नया—नया
था,
कुछ बोला भी
नहीं कि ठीक
है, अब जो
हुआ; आया
यही बहुत।
पूरा
नाटक हो जाने
पर बर्नार्ड
शा ने आख खोली, उठकर
चलने लगा। उस
नाटककार ने
पूछा, और
आपका मंतव्य?
आपने कुछ
कहा नहीं!
बर्नार्ड शा
को चुप देखकर उस
नाटककार ने
कहा, मंतव्य
आप देंगे भी
कैसे? आप
पूरे वक्त सोए
रहे।
बर्नार्ड शा
ने कहा, सोए
रहना मंतव्य
है। कूड़ा—कर्कट
है, सब
बेकार है। सोए
रहना मंतव्य
है। मैंने कह
दिया, जो
कहना था। जान
होती, तो
मैं जागा रहता।
जान ही न थी।
मुरदा नाटक।
घर्राटे ही
ज्यादा बेहतर थे।
मंतव्य मैंने
दे दिया।
कभी
सोना भी
मंतव्य होता
है,
कभी चुप
रहना उत्तर
होता है। गुरु
जो भी करे!
बोले, तो
गौर से सुनना।
न बोले, तो
और भी गौर से
सुनना।
क्योंकि
बोलने को तो
तुम कम गौर से
सुनोगे, तो
भी सुन लोगे, न बोलने को
तो बहुत गौर
से सुनोगे, तो ही सुन
पाओगे। और जब
तुम एक ही
प्रश्न बहुत
बार पूछते चले
जाओ और गुरु
हर बार चुप रह
जाता हो, तब
तो बात बहुत
साफ है कि वह
एक ही उत्तर
बार—बार दोहरा
रहा है और तुम
बार—बार चूकते
जा रहे हो।
गुरु
के पास होना
एक कला है, जो
खोती गई है।
बड़ी बारीक कला
है। पूरब के
मुल्कों ने
उसे विकसित की
थी, वह
धीरे—धीरे क्षीण
हो गई और खो गई।
वह सूक्ष्मतम
संवाद है दो
व्यक्तियों
के बीच। और
शिष्य को
जिद्द नहीं होनी
चाहिए के मेरे
प्रश्न का
उत्तर मिले।
उसे तो जो
मिले उसमें
अनुकंपा
माननी चाहिए,
तो ही उसकी
पात्रता
बढ़ेगी।
पश्चिम
से लोग आते
हैं,
उनको गुरु—शिष्य
के संबंध का
कोई भी बोध
नहीं है, इसलिए
बड़ी अड़चन खड़ी
होती है। एक
लेखिका
पश्चिम से आई।
बड़ी लेखिका है,
कई किताबें
लिखी हैं, सो
उपद्रव भी
बहुत है उसके
मन में, विचारों
का बड़ा जाल है।
उसने कुछ पूछा।
मैं टाल गया।
वह बड़ी नाराज
वापस लौटी। वह
कहकर गई
संन्यासियों
को कि मेरे
प्रश्न का
उत्तर नहीं
मिला। मैं
नाराज जा रही
हूं। मैं बड़ी
आतुरता से
प्रश्न का
उत्तर पाने आई
थी।
थोड़ा
समझने की
कोशिश करो। जब
तुम्हारे
प्रश्न का
उत्तर नहीं
मिलता, तो
तुम्हें चोट
किस कारण लगती
है? उत्तर
नहीं मिला, इसलिए; या
तुम्हारे
प्रश्न का
उत्तर नहीं
मिला, इसलिए।
और
बड़े मजे की
बात है कि दस
दिन वह यहां
थी;
दस दिन एक
भी दिन ऐसा
नहीं था, जिस
दिन मैंने
उसके प्रश्न
का उत्तर न
दिया हो। एक
भी दिन ऐसा
नहीं था, जिस
दिन उसके
प्रश्न का
उत्तर न दिया
हो। सीधा नहीं
दिया। वह
चाहती थी कि
मैं उसके
प्रश्न का
उत्तर सीधा
दूं ताकि वह
पकड़ पाए कि
उसके प्रश्न
का उत्तर मिला।
प्रश्न
मूल्यवान
नहीं है, अहंकार
मूल्यवान है।
दस दिन मैंने
निरंतर उसके
प्रश्न का
उत्तर दिया है,
बहुत
बहानों से
दिया है।
लेकिन वह उसकी
पकड़ में न आया।
प्रश्न उसका
था ही नहीं
मूल्यवान।
प्रश्न अगर
मूल्यवान
होता, अगर
प्यास लगी
होती, तो
रोज जो मैं
पानी बहाए जा
रहा था, उसने
पी लिया होता।
लेकिन
नहीं, प्रश्न
तो मूल्यवान था
ही नहीं।
प्यास तो लगी
ही न थी।
प्रश्न तो एक
बौद्धिक
खुजलाहट की
तरह था; कोई
प्यास नहीं थी।
एक खुजलाहट थी
दिमाग में। और
चाहती थी कि
सीधा, जब
वह पूछे, जिस
भाषा में पूछे,
उसको मैं
उत्तर दूं।
गहरे में आकांक्षा
थी, उसको
उत्तर दूं र
उसके अहंकार
को ध्यान दूं
र उसका अहंकार
तृप्त हो।
वह
भूल मैं नहीं
कर सकता। यहां
मैं अहंकार
तोड्ने को
बैठा हूं।
यहां अहंकार
सजाने और
संवारने का
काम नहीं चल
रहा है। यहां
तो जो मिटने
को राजी हैं, उनके
ही टिकने की
सुविधा है।
यहां जो किसी
तरह अपने को
बचा रहे हैं, वर्षा होती
रहेगी और वे
प्यासे लौट
जाएंगे।
शिष्य
का अर्थ ही है, जिसने
गुरु के हाथों
में छोड दिया।
वह जवाब दे, तो ठीक, वह
न दे, तो और
भी ठीक। वह
बुलाए, उसकी
कृपा; वह
हटाए, और
बड़ी कृपा।
गुरु तभी गुरु
है, जब
शिष्य ने इतना
छोड दिया हो
कि उसकी आज्ञा
सब हो जाए। वह
कह दे, चुप
रहो जिंदगीभर,
तो वह चुप
रह जाए; फिर
पूछे ही न।
इसलिए
श्रद्धा
मूल्यवान है।
लेकिन
जैसा कि कृष्ण
ने कहा, श्रद्धा
तीन तरह की
होगी। इस संबध
में भी समझ
लेना जरूरी है।
जब
तुम पूछते हो, तब
भी तुम्हारी
श्रद्धा तीन
तरह की होती
है। एक तरह का
पूछने वाला
आता है, उसकी
श्रद्धा
तामसी है।
तामसी
श्रद्धा का
अर्थ है कि वह
चाहता है, गुरु
सब करके दे दे;
उसे कुछ
करना न पड़े।
वह सोया रहे, घर्राटे ले,
और गुरु
ध्यान करे, समाधि लगाए।
और जब भोजन पक
जाए, तो वह
चबाने तक को
राजी नहीं है।
वह चाहता है
कि तुम्हीं
चबाकर भी दे
दो। कोई तरकीब
अगर हो कि
ध्यान—समाधि
को
इंट्रावेनस इंजेक्शन
की तरह दिया
जा सके, तो
वह कहेगा, बस,
तुम लगा दो इंजेक्शन,
लटका दो
बोतल समाधि की,
भर दो मुझे
समाधि से। अब
मुझसे तो हाथ—पैर
भी नहीं
हिलाया जाता!
एक
तामसी
व्यक्ति की
श्रद्धा है, जो
गुरु के पास
आता है कि
गुरु सब करे।
और वह समर्पण भी
करता है, तो
इसीलिए करता
है कि लो, अब
सम्हालो। और
वह सोचता है
कि बड़ी
अनुकंपा कर
रहा है गुरु पर
कि समर्पण कर
दिया।
तुम्हारे
पास था क्या
समर्पण करने
को?
तुम्हारा
अंधकार!
तुम्हारी
नींद!
तुम्हारा अज्ञान!
तुम समर्पण
क्या कर रहे
हो?
मेरे
पास लोग आते
हैं उस वर्ग
के। वे कहते
हैं कि सब आप
पर समर्पित, अब
आप ही जानो, अब आप जो करो।
और अगर मैं उनको
कहूं कि उठकर
जरा इधर बैठ
जाओ, तो वे
नाराज हो जाते
हैं। अगर मैं
उनको कहूं कि
जरा जाओ, मकान
के चार चक्कर
लगा आओ, तो
वे नाराज होते
हैं। वे कहते
हैं, सब आप
पर ही छोड़
दिया, अब आप
हमसे यह क्यों
करवा रहे हैं?
जब आप पर ही
छोड़ दिया, तो
आप ही चक्कर
लगाओ। जब सभी
छोड़ दिया, हम
बचे ही नहीं......!
मगर यह छोड़ने
का अर्थ होता
है? यह
तामसी की
श्रद्धा है।
वह छोड़ता है
इसलिए, ताकि
करने की झंझट
से बचे।
फिर
राजसी की
श्रद्धा है।
वह भी कहता है, छोड़
दिया, लेकिन
छोड़ नहीं पाता।
वह जारी रखता
है, वह
अपना करना
जारी रखता है।
वह कहता है, सब छोड़
दिया। छोड़
नहीं पाता।
क्योंकि वह
छोड्कर खाली
नहीं बैठ सकता।
वह कहता है, कुछ बताओ।
वह हमेशा
चाहता है, कुछ
करने को बताओ।
अगर तुम उससे
कहो कि कुछ
करने का नहीं
है, बस, वहीं
संबंध छूट
जाता है।
ध्यान
अक्रिया है, संबंध छूट
गया।
तामसी
मानने को राजी
है कि ध्यान
अक्रिया है।
अक्रिया का
मतलब है
अकर्मण्यता, उसकी
भाषा में।
अक्रिया
अकर्मण्यता
नहीं है।
अक्रिया तो
क्रिया का
सूक्ष्मतम
रूप है, श्रेष्ठतम
रूप है। वह तो नवनीत
है किया का। वह
तो सूक्ष्मतम
क्रिया है।
अक्रिया का
मतलब न करना
नहीं है।
अक्रिया का
मतलब है इस
भांति करना कि
करने और न
करने में फर्क
न रह जाए। इस
भांति उठना कि
उठने वाला
भीतर न हो, कर्ता
न रहे। इस
भांति चलना, जैसे कि
शून्य चल रहा
हो। कहीं भनक
न पड़े, आवाज
न हो, पगध्वनि
न आए।
अक्रिया
का अर्थ है, करना
तो सब, लेकिन
कर्ता न रह
जाए। तो फिर
कौन क्रिया कर
रहा है? फिर
परमात्मा ही
कर रहा है।
जिस दिन
तुम्हारा
कर्ता मिट
जाता है और
परमात्मा ही
तुम्हारे
भीतर कर्ता बन
जाता है। करते
तुम बहुत हो, लेकिन अब
क्रिया नहीं
होती।
क्योंकि तुम
ही नहीं, तो
क्रिया कैसी
होगी! अब तुम
बांस की पोगरी
हो; अब तुम
नहीं गाते, गीत उसके
हैं, तुम
सिर्फ मार्ग
देते हो, बस
इतना। लेकिन
आलसी, तमस
श्रद्धा से
भरा आदमी
बिलकुल राजी
है अक्रिया के
लिए। लेकिन
अक्रिया का
उसका अर्थ है,
अकर्मण्यता।
वह कहता है, बिलकुल ठीक।
यह जमती है
बात। हम लेटे
जाते हैं। वह
ध्यान का अर्थ
समझता है, नींद।
वह ध्यान का
अर्थ समझता है,
कुछ न करना।
अगर
राजसी
श्रद्धा वाले
व्यक्ति को
कहो,
अक्रिया, तो वह उसे
जमती नहीं।
अगर समझ में
भी आ जाए थोड़ी,
तो वह कहता
है, अक्रिया
करने के लिए
क्या करें? अक्रिया
करने के लिए
क्या करें?
कुछ करना बताओ,
ताकि
अक्रिया सध
जाए! अक्रिया
का मतलब ही है
न करना, कर्ता
को छोड़ देना।
वह कर्ता को
नहीं छोड़ पाता।
मेरे
पास उस तरह के
लोग आते हैं।
उनको अगर मैं
कहता हूं तुम शांत
बैठो। और
राजसी
व्यक्ति को
मैं निरंतर
कहता हूं कि तुम
शांत बैठो, क्योंकि
वही उसको रजस
के बाहर ले
जाएगा। तामसी
को कहता हूं
नाचो, कूदो,
उछलो, कुछ
क्रिया करो, ताकि तुम
तमस के बाहर
आओ। तुम जहां
हो; वहां
से बाहर ले
आना है।
राजसी
को मैं कहता
हूं कुछ मत
करो,
शांत बैठ
जाओ। वह कहता
है, यह न
चलेगा। थोडा
आलंबन, मंत्र
कर सकते हैं? वह कह रहा है
कि शांत हम
बैठ नहीं सकते।
राम—राम, राम—राम,
अगर इतना भी
सहारा हो, तो
चलेगा। हम इसी
को पगलापन बना
देंगे, भीतर
राम—राम, राम—राम
इतने जोर से
करेंगे कि
सारा राजस
इसमें लग जाए।
कुछ करने को
बता दो, माला
फेरे? गीता
का पाठ करें? योगासन करें?
उपवास करें?
करने की
भाषा उसको समझ
में आती है। न
करने की बात
उसको समझ में
नहीं आती।
सत्य
की श्रद्धा
वाला ही ठीक
से समझ पाता
है कि अक्रिया
क्या है।
अक्रिया
अकर्मण्यता
नहीं है।
अक्रिया
अकर्म भी नहीं
है। अक्रिया
अकर्ता भाव है।
अक्रिया बड़ी
सूक्ष्म
क्रिया है, शुद्धतम
किया है। इतनी
शुद्ध है कि
वहां कर्ता की
मौजूदगी से अशुद्धि
पैदा होती है,
इसलिए
कर्ता शून्य
है।
जैसे
हवाएं बहती, आकाश
में बादल
तिरते, ऐसा
ही सत्व को
उपलब्ध या
सत्य की
श्रद्धा का व्यक्ति
तिरता है, बहता
है, नदी
बहती है, ऐसा
बहता है।
लेकिन कोई भाव
नहीं होता कि
मैं बह रहा
हूं। सागर
पहुंच जाता है,
लेकिन कोई
यात्रा नहीं
होती। यह नहीं
सोचता कि सागर
जा रहा हूं।
तुमने
गंगा को देखा, टाइम—टेबल
हाथ में लिए, नक्शा फैलाए,
कि सागर जा
रही हूं! न कोई
टाइम—टेबल है,
न कोई नक्शा
है। इसीलिए तो
ठीक समय पर
पहुंच जाती है।
अगर टाइम—टेबल
हो, उसी
में वक्त लग
जाएगा। और सब
गड़बड़ हो जाएगा।
एक
स्टेशन पर मैं
बैठा था कोई
आठ घंटे से, ट्रेन
लेट होती गई, लेट होती गई।
पहले दो घंटा
लेट थी, फिर
चार घंटा, फिर
छ: घंटा।
मैंने जाकर
स्टेशन
मास्टर को
पूछा कि समझ
में आता है, दो घंटा लेट
थी। लेकिन
क्या ट्रेन
पीछे की तरफ
जा रही है! चार
घंटा हो गई, अब छ: घंटा, अब आठ घंटा—मामला
क्या है? अगर
ऐसे ही चला, तो आएगी
कैसे? फिर
मैंने उसको
कहा कि फिर यह
टाइम—टेबल
छापने की
जरूरत क्या है?
उसने
कहा,
साहब, अगर
टाइम—टेबल न
हो, तो
कैसे पता
चलेगा कि
कितनी लेट है?
यह बात मुझको
भी जंची। टाइम—टेबल
का एक ही
उपयोग है, उससे
पता चलता है
कि गाड़ी कितनी
लेट है।
गंगा
पहुंच जाती है
,समय पर। न
कोई नक्शा है,
कहां से
जाना है। कोई
लिए जाता है।
अनंत
तुम्हें लिए
ही जा रहा है।
तुम नाहक ही
शोरगुल मचाते
हो। उस शोरगुल
में तुम्हें
देर हो जाती
है,
उससे
तुम्हारा
अनंत से संबंध
टूट जाता है।
अक्रिया
का अर्थ है, मैं
जाने वाला
नहीं हूं; मैं
तेरे हाथ में
हूं तू ले
जाने वाला है।
इसका यह मतलब नहीं
है कि मैं कुछ
न करूंगा।
इसका मतलब है,
तू जो
करवाएगा
करूंगा। इसका
यह अर्थ नहीं
कि अब तू कर, हम आराम
करेंगे। इसका अर्थ
है कि अब जो तू
करवाएगा, हम
करेंगे। न
हमारा अब कोई
आराम है और न
हमारा अब कोई
कर्म है। जब
तू आराम
करवाएगा, तब
आराम करेंगे।
जब तू कर्म
करवाएगा, तब
कर्म करेंगे।
लेकिन हर घड़ी
तू ही होगा, हम न होंगे।
यह
हमारे न हो
जाने की कला
ही शिष्य होने
की कला है। और
तब बिना कुछ
किए बहुत होता
है। तब बिना
मांगे बहुत
मिलता है। तब
बिना भटके
यात्रा पूरी
हो जाती है।
बिना चले
मंजिल भी
मिलती है। तुम
नाहक ही चल
रहे हो, उस
श्रम से तुम
व्यर्थ ही दबे
जा रहे हो।
शिष्य
का अर्थ है, छोड़ा
जिसने गुरु के
हाथों में कि
अब वह जो करवाएगा,
करेंगे। और
यह श्रद्धा
तीन तरह की
होगी। अगर यह सत्व
की श्रद्धा हो,
तो ही
क्रांति
घटेगी। आलस्य
की हो, चूक
जाओगे। रजस की
हो, चूक
जाओगे।
पूरब
से जो लोग आते
हैं...... भारत से
जो लोग मेरे
पास आते हैं, उनकी
श्रद्धा
अक्सर तमस की
होती है।
पश्चिम से जो
लोग आते हैं, उनकी
श्रद्धा
अक्सर रजस की
होती है।
क्योंकि पूरब
में शिक्षा
बड़ी प्राचीन
है आलस्य की, भाग्य की।
उसको हमने
अपना तमस बना
लिया है। बड़े
अच्छे शब्दों
के जाल में
हमने अपने
आलस्य को, अकर्मण्यता
को छिपा लिया
है।
पश्चिम
की सारी
शिक्षा है रजस
की,
दौड़ो, पाओ;
घर बैठे कुछ
न मिलेगा; करना
पड़ेगा। वे
दौड़ने में
इतने कुशल हो
गए हैं कि जब
उन्हें मंजिल
भी मिल जाती
है, तो रुक
नहीं पाते; तब वे आगे की
मंजिल बना
लेते हैं। वे
दौडते ही रहते
हैं।
पूरब
सो रहा है, पश्चिम
भाग रहा है।
तामसी सोता है,
राजसी भागता
है। दोनों चूक
जाते हैं।
सोया हुआ इसलिए
चूक जाता है
कि वह मंजिल
तक चलता ही
नहीं है। और
भागने वाला
इसलिए चूक
जाता है कि कई
बार मंजिल पास
आती है, लेकिन
वह रुक नहीं
सकता। वह
जानता ही नहीं
कि रुके कैसे।
एक जानता नहीं
कि चले कैसे, एक जानता
नहीं कि रुके
कैसे।
सत्य
का अर्थ है, संतुलन।
सत्य का अर्थ
है, जानना
कब चलें, जानना
कब रुके।
जानना कि कब
जीवन में गति
हो, और
जानना कि कब
जीवन में
विश्राम हो।
जिसने ठीक—ठीक
विश्राम जाना
और ठीक—ठीक
कर्म जाना, वह सत्व को
उपलब्ध हो
जाता है, सम्यकत्व
को उपलब्ध हो
जाता है।
सम्यक गति और
सम्यक
विश्राम, ठीक—ठीक
जितना जरूरी
है, बस
उतना, उससे
रत्तीभर
ज्यादा नहीं।
इस ठीक की
पहचान का नाम
ही विवेक है।
और
तुम अपने भीतर
जांच करना, अक्सर
तुम पाओगे, अति है। या
तो एक अति
होती है, नहीं
तो दूसरी अति
होती है।
निरति चाहिए
अति से मुक्ति
चाहिए। श्रम
भी करो, विश्राम
भी करो। दिन
श्रम के लिए
है, रात्रि
विश्राम के
लिए है। और
दोनों के बीच
अगर एक
सामंजस्य सध
गया, तो
तुम पाओगे, तुम न दिन हो
और न तुम रात
हो; तुम तो
दोनों का
चैतन्य हो, दोनों का
साक्षी— भाव
हो। वही सत्य
में अनुभव
होगा।
तीसरा
प्रश्न :
कृष्ण
ने गोपियों को
समझाने के लिए
उद्धव को वृंदावन
भेजा था, पर
वे सफल क्यों
न हो पाए?
हो ही न
सकते थे, बात
ही संभव न थी।
उद्धव थे
ज्ञानी, और
ज्ञान कब
प्रेमियों को
समझा पाया है?
कृष्ण ने
मजाक किया
होगा। ज्ञानी
को भेजकर मजाक
किया। ज्ञानी
कभी प्रेमी को
नहीं समझा
सकता, क्योंकि
ज्ञानी के पास
होते हैं शब्द
कोरे। पंडित
थे उद्धव; बड़े
पंडित होगे, कुशल होंगे
समझाने में।
लेकिन
उन्होंने
जिनको समझाया
होगा तब तक, वे गोपियां
नहीं थीं, जिनको
प्रेम का रस
लग गया था।
पंडित
तभी तक
तुम्हें
सार्थक मालूम
होगा, जब तक
तुम्हें
प्रेम का रस
नहीं लगा।
प्रेम के काटे
को पंडित नहीं
झाडू सकता।
पंडित उन्हीं
को झाड़ सकता
है, जो
प्रेम के काटे
नहीं हैं।
पंडित उनके
काम का है, जिनकी
प्यास ही नहीं
जगी। पंडित
उनको बडा
महापंडित
मालूम होता है,
कितनी
जानकारी लाता
है! लेकिन
जिसको प्यास
जग गई, और
प्रेम की भनक
पड़ गई, और
जिसके हृदय
में कोई धुन
बजने लगी अशांत
की, पंडित
कूड़ा—कर्कट है।
उद्धव व्यर्थ
थे।
मेरी
जो समझ है, वह
यह है कि
उन्होंने
उद्धव को
गोपियों को
समझाने भेजा
ही नहीं था; उद्धव को
समझने भेजा था
गोपियों को।
ऐसा किसी ने
कभी कहा नहीं,
लेकिन मेरी
यही समझ है।
वह उद्धव को
मूर्ख बनाया,
उसको अकल दी,
कि तू जरा
जा! यहां तू
बड़ा पंडित हुआ
जा रहा है।
क्योंकि
जिनको तू समझा
रहा है, उनको
प्रेम का रस
ही नहीं लगा
है, उनकी
प्यास ही नहीं
जगी है। तो तू
ज्ञान की
बातें कर, वे
सिर हिलाते
हैं। जब
प्रेमी
मिलेगा, तब
तुझे अड़चन
आएगी, तब
तेरी ज्ञान की
बातें जरा भी
काम न आएंगी।
जिसको प्यास
लगी है, तुम
पानी का
शास्त्र
समझाओगे, क्या
फल होगा? वे
कहेंगे, पानी
चाहिए।
गोपियों
ने कहा, कृष्ण
चाहिए, तुम
किसलिए आए हो?
उद्धव बड़े
बुद्ध बने।
जाना ही नहीं
था, अगर
थोड़ी अकल होती।
लेकिन पंडित
में अकल होती
ही नहीं।
पंडित से
ज्यादा बेअकल
आदमी नहीं
होता। जाना ही
नहीं था, पहले
ही हाथ जोड़
लेना था, कि
गोपियों के? मैं जाने
वाला नहीं।
क्योंकि वहां
हम व्यर्थ ही
सिद्ध होंगे।
वे
कृष्ण को
मांगती थीं, उद्धव
को नहीं।
संदेशवाहक
नहीं चाहिए; चिट्ठी—पत्री
लाने से क्या
होगा! बुलाया
था प्रेमी को,
आ गया
पोस्टमैन!
इनसे क्या
लेना—देना है?
उन्होंने
उद्धव को
बैरंग भेज
दिया वापस।
वह
उद्धव को
समझाने के लिए
ही कृष्ण ने
खेल किया होगा।
इतना तो पक्का
था कि गोपियां
नहीं समझाई जा
सकतीं, कृष्ण
तो समझते हैं
कि नहीं समझाई
जा सकतीं।
कृष्ण से कम
पर वे राजी न
होंगी।
प्रेमी
का अर्थ है, परमात्मा
से कम पर जो
राजी न होगा।
तुम परमात्मा
के संबंध में
समझाओ, प्रेमी
कहेगा, क्यों
व्यर्थ की
बातें कर रहे
हो? परमात्मा
के संबंध में
नहीं जानना है
उसे। उसे
परमात्मा को
जानना है।
परमात्मा
के संबंध में
वेद क्या कहते
हैं,
उपनिषद
क्या कहते हैं,
शास्त्रों
में क्या लिखा
है, क्या
नहीं लिखा है!
वह कहेगा, बंद
करो यह बकवास।
मुझे
परमात्मा
चाहिए।
परमात्मा मिल
गया, तो
मुझे वेद मिल
गए। परमात्मा
ही मेरा वेद
है।
लेकिन
पंडित कहता है, वेद
भगवान! पंडित
वेद को भगवान!
बतलाता है।
प्रेमी को
भगवान ही वेद
है। और बड़ा
फर्क है; जमीन—आसमान
का फर्क है।
तुम मांगते हो
भगवान को, वह
ले आता है वेद
की पोथियों को।
वह कहता है, सब इसमें
लिखा है।
यह
ऐसे ही है, जैसे
कोई भूखा मर
रहा हो और तुम
जाकर पाक—शास्त्र
का ग्रंथ
सामने रख दो
और कहो कि सब
तरह के भोज—मिष्ठान्न,
सब इसमें
लिखे हैं। वह
तुम्हारे पाक—शास्त्र
को उठाकर फेंक
देगा भूखा
आदमी। ही, भरा
पेट होगा, तो
विश्राम से
बैठकर पाक—शास्त्र
को पड़ेगा।
लेकिन भूखे को
पाक—शास्त्र
का क्या अर्थ
है?
जिसको
परमात्मा की
भूख लग गई है, वेद
व्यर्थ है, उपनिषद
बकवास है, गीता
असार है। वह
परमात्मा को
चाहता है; उससे
कम पर वह राजी
नहीं है। और
गोपियां न
केवल
परमात्मा को चाहती
थीं, बल्कि
उनको
परमात्मा का
स्वाद भी लग
गया था, वे
परमात्मा को
जान भी चुकी
थीं।
हां, जिसने
न जाना हो
परमात्मा को,
उसको प्यास
भी लगी हो, तो
शायद थोड़ी—बहुत
देर पंडित
उसको भरमा ले।
क्योंकि उसके
पास कोई कसौटी
तो नहीं है
अनुभव की।
इसलिए
अज्ञानी को
पंडित भरमा
लेता है।
लेकिन जिसको
ध्यान की जरा—सी
भी भनक आ गई, फिर पंडित
उसको नहीं
भरमा सकता।
ये
गोपिया कृष्ण
के साथ नाच
चुकी थीं; वह
उनकी स्मृति
में संजोया
हुआ मंदिर था।
वह स्मृति
भूलती नहीं थी,
बिसरती
नहीं थी। वह
तो निशि—वासर,
दिन—रात
भीतर कौंधती
रहती थी। एक
दफा जिसने चख
लिया कृष्ण का
साथ, नाच
लिया कृष्ण के
साथ वृक्षों
के तले पूर्णिमा
की रातों में,
अब इसे
पंडित धोखा
नहीं दे सकता,
भरमा नहीं
सकता।
उद्धव
खूब समझाए
होंगे, ज्ञान
की बातें की
होंगी।
गोपियों ने
उनकी जरा भी न
सुनी। बल्कि
गोपिया नाराज
हुईं कि कृष्ण
ने यह कैसा
मजाक किया! यह
बरदाश्त के
बाहर है। और
प्रेमी
परमात्मा से
नाराज हो सकता
है, सिर्फ
प्रेमी! पंडित
कभी नहीं
नाराज हो सकता।
पंडित तो डरता
है। प्रेमी
थोड़े ही डरता
है, प्रेम
तो अभय है।
गोपियां
नाराज हुईं। यह
मजाक बरदाश्त
के बाहर है।
इस उद्धव को
किसलिए भेजा?
इससे क्या
लेना—देना है?
आना हो, कृष्ण
आ जाएं; कम
से कम पंडितों
को तो न भेजें।
परमात्मा
चाहिए, शास्त्र
नहीं; ज्ञान
नहीं, अनुभव
चाहिए।
गोपिया बहुत
नाराज हुईं।
प्रेमी नाराज
हो सकते हैं।
मैंने
यहूदी फकीर झुसिया
का जीवन पढ़ा
है। वह
प्रार्थना
करने जाता—बड़ा
फकीर था; बड़े
उसके भक्त थे,
अनूठा आदमी
था—वह जब
यहूदी मंदिर
में
प्रार्थना
करता, तो
कभी—कभी लोगों
से कह देता, अब तुम बाहर
हो जाओ, सुनने
वालों से। इस
परमात्मा के
बच्चे को ठीक
करना ही पड़ेगा।
तुम बाहर हो
जाओ। एक सीमा
है बरदाश्त की।
लोग
बाहर हो जाते, तब
उसका झगड़ा
शुरू होता। वह
परमात्मा से
सीधी—सीधी
बातें करता।
झगड़ा ऐसा होता
कि मौका आ जाए,
तो मार—पीट
हो जाए। अगर
गॉव में कोई
भूखा मर रहा
है, तो वह
गुस्से में आ
जाता। वह कहता
कि तेरे रहते
यह कैसे हो
रहा है? तेरा
प्रेमी भूखा
मर रहा है, यह
हम बरदाश्त
नहीं कर सकते।
हम तेरी सब
पूजा—पत्री
बंद कर देंगे।
कहते
हैं,
झुसिया
जैसा आदमी
यहूदी परंपरा
में नहीं हुआ।
कैसा उसका गहन
प्रेम रहा
होगा कि
परमात्मा से
लड़ने को राजी
है। कलह हो
जाए; कई
दिन तक मंदिर
ही न जाए फिर
वह। कि पड़ा
रहने दो उसको
वहीं; कोई
पूजा मत करो, कोई
प्रार्थना मत
करो। जब हमारी
नहीं सुनी जा
रही है, हम
भी क्यों उसकी
सुनें!
झुसिया
ने कहा है
अपनी
प्रार्थनाओं
में कि देख, तू
एक बात ठीक से
समझ ले; हमें
तेरी जरूरत है,
वह पक्का; तुझे भी
हमारी जरूरत
है! इसलिए तू
यह मत समझ कि तू
हम पर कोई
अनुग्रह कर
रहा है। हमारे
बिना तू भगवान
न होगा। भक्त
के बिना भगवान
कैसे होगा? माना कि हम
भक्त न होंगे,
वह भी ठीक।
लेकिन तू भी
भगवान न होगा।
जितनी हमें
तेरी जरूरत है,
उतनी तुझे
हमारी जरूरत
है। इसका सदा
खयाल रख; इसको
भूल मत जा।
प्रेमी
लड़ सकता है, प्रेमी
ही लड़ सकता है,
भय नहीं है।
पंडित तो डरता
है, कंपता
है। पंडित तो
देखता है, कहीं
क्रियाकांड
में कोई भूल न
हो जाए; कि
शास्त्र में
जैसी विधि
लिखी है, वैसी
पूरी होनी
चाहिए। उसमें
कहीं भूल—चूक
न हो जाए। पता
नहीं
परमात्मा
नाराज हो जाए।
इसने
परमात्मा को
जाना नहीं।
परमात्मा
कहीं नाराज
होता है? यह
पहचाना ही
नहीं। यह मूढ़
है। इसे पता
ही नहीं कि
परमात्मा
नाराज होता ही
नहीं। नाराज
होने जैसी
घटना
परमात्मा में
घटती ही नहीं।
और उस घड़ी में,
जब कोई
झुसिया जैसा
भक्त
परमात्मा को
कहता होगा कि
बंद कर देंगे
तेरी
प्रार्थना, तो परमात्मा
नाचता होगा कि
जरूर कोई
प्रेमी मौजूद
है।
गोपियां
बहुत नाराज
हुईं उद्धव पर।
और उन्होंने
उनको बैरंग ही
भेज दिया कि
तुम जाओ, तुम्हें
किसने बुलाया?
और वे खूब
हंसी उद्धव पर,
उनकी ज्ञान
की बातों पर।
पंडित खूब
बुद्ध बना
होगा। पंडित
सदा ही प्रेमी
के पास आकर मुश्किल
में पड़ जाएगा।
यह कथा बड़ी
प्रतीकात्मक
है।
पंडित
कभी भी सफल
नहीं हो सकता
प्रेमी के
सामने। अगर वह
सफल होता
दिखाई पड़ता है, तो
उसका कुल कारण
इतना है कि
प्रेमी मौजूद
नहीं है; परमात्मा
को कोई खोज
नहीं रहा है।
इसलिए पंडित
तुम्हें सब
तरफ
सिंहासनों पर
बैठे दिखाई
पड़ते हैं।
तुम
जिस दिन
परमात्मा को
खोजोगे, उसी
दिन पंडित
सिंहासनों से
नीचे उतर
जाएंगे; उनकी
कोई जगह नहीं
है। तब तो तुम
उसे सिंहासन
पर विराजमान
करोगे, जो
ज्ञान नहीं, अनुभव दे
सकता है; जो
तुम्हें
परमात्मा के
संबंध में
नहीं बताता, जो तुम्हें
परमात्मा बता
सकता है। उसको
ही हमने गुरु
कहा है।
इसलिए
कबीर कहते हैं, गुरु
गोविंद दोई
खड़े, काके
लागू पाय।
दोनों सामने
खड़े हैं। बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए हैं
कबीर, किसके
पैर लगै? क्योंकि
अगर परमात्मा
के पैर लगै, उचित न होगा।
अगर गुरु के
पैर लग, तो
भी अड़चन मालूम
पड़ती है।
परमात्मा
सामने खड़े थे,
पहले मैं
गुरु के पैर
लगा! पद बड़ा
मधुर है और उसके
दो अर्थ हो
सकते हैं।
गुरु
गोविंद दोई
खड़े, काके
लागू पाय।
बलिहारी
गुरु आपकी, जो
गोविंद दियो
बताय।।
इसके
दो अर्थ संभव
हैं। एक अर्थ
तो यह है कि
शिष्य को अड़चन
में पड़ा देखकर
गुरु ने
गोविंद की तरफ
इशारा कर दिया
कि तू गोविंद
के पैर लग।
यह
अर्थ से मैं
राजी नहीं। यह
मुझे जंचता
नहीं। मुझे तो
दूसरा अर्थ
जंचता है। वह
दूसरा अर्थ
कभी किया नहीं
गया। वह दूसरा
अर्थ मुझे यह
लगता है कि—
गुरु
गोविंद दोई
खड़े,
काके लागू
पाय।
मुश्किल
में पड़ गए हैं
कबीर। किसके
पैर पडूं? दोनों
सामने खड़े हैं।
तब वे गुरु के
पैर पर गिर
पड़े, क्योंकि
उन्होंने
जाना, सोचा—
बलिहारी
गुरु आपकी, जो
गोविंद दियो
बताय।।।
तुमने ही
गोविंद बताया,
नहीं तो
गोविंद को हम
देख ही कैसे
पाते! इसलिए तुम्हारे
पैर पहले छू
लेते हैं।
गुरु
का अर्थ है, जिसने
जाना हो और जो
तुम्हें जना
दे। जिसने
देखा हो और जो
तुम्हें दिखा
दे। जिसने चखा
हो और जो
तुम्हें चखा दे।
शब्द यह न कर
पाएंगे।
गुरु भी
शब्दों का
उपयोग करता है, लेकिन
निशब्द की तरफ
ले जाने के
लिए; शास्त्र
का सहारा लेता
है, तुम्हें
कभी बेसहारा
कर देने के
लिए; समझाता
है, तुम्हारे
मन को उस घड़ी
में ले जाने
के लिए, जहां
सब समझ—नासमझ
छूट जाती है।
इसलिए गुरु के
लिए शब्द अंत
नहीं है, केवल
साधन है।
पंडित के लिए
शब्द सब कुछ
है, साधन
भी, साध्य
भी, उसके
पार कुछ भी
नहीं है।
उद्धव
हारे। पंडित
सदा हारता रहा
है। और कृष्ण
ने बिलकुल ठीक
ही किया उद्धव
को भेजकर, जो
फजीहत करवाई।
उससे उद्धव को
कुछ समझ आ गई
हो तो अच्छा, नहीं तो अभी
तक भटक रहे
होंगे।
अब
सूत्र:
हे भारत, कृष्ण
ने कहा, सभी
मनुष्यों की
श्रद्धा उनके
अंतःकरण के अनुरूप
होती है तथा
यह पुरुष
श्रद्धामय है,
इसलिए जो
पुरुष जैसी
श्रद्धा वाला
है, वह
स्वयं भी वही
है। उसमें
सात्विक
पुरुष देवों
को पूजते हैं
और राजस पुरुष
यक्ष और
राक्षस को तथा
अन्य जो तामस
पुरुष हैं, वे प्रेत और
भूतगणों को
पूजते हैं।
मनुष्यों
की श्रद्धा
उनके अंतःकरण
के अनुरूप होती
है.......।
तुम्हारा
अंतःकरण तमस
से भरा हो, तो
तुम्हारी
श्रद्धा
सात्विक नहीं
हो सकती।
क्योंकि
श्रद्धा तो
तुममें उगती
है, तुम्हारे
अंतःकरण की
भूमि में ही
वह बीज टूटता
है, तुम्हारी
भूमि ही उसे
रसदान देती है,
पुष्टि
देती है, वह
पौधा
तुम्हारा है।
तो तुम्हारा
अंतःकरण कैसा
है, वैसी
ही तुम्हारी
श्रद्धा होगी।
अपने अंतःकरण
की ठीक—ठीक
पहचान
तुम्हारी
श्रद्धा की
पहचान बन जाएगी।
इस
सूत्र में
कृष्ण साधक के
लिए बड़ी
महत्वपूर्ण
बातें कह रहे
हैं। एक तो यह
जानना जरूरी
है कि
तुम्हारा
अंतःकरण कैसी
दशा में है।
ऐसा मत सोचना
कि जो लोग
तामसिक हैं, वे
बिलकुल।
तामसिक हैं।
शुद्ध तामसिक
व्यक्ति हो ही
नहीं सकता।
शुद्ध।
तामसिक
वृत्ति का
व्यक्ति हो ही
नहीं सकता।
क्योंकि इन
तीन के जोड़ के
बिना कोई भी
नहीं हो सकता।
इसलिए
जब हम कहते
हैं तामसी, तो
हमारा मतलब
सापेक्ष होता
है, रिलेटिव
होता है।
हमारा मतलब
होता है कि
तामसी ज्यादा,
राजसी कम, सात्विक कम।
तमस का अनुपात
ज्यादा है, इतना ही
अर्थ होता है।
कोई व्यक्ति
पूर्ण तामसी
नहीं हो सकता,
क्योंकि वह
तो टूट जाएगा।
होने के लिए
तीन ही आवश्यक
हैं। इसलिए
कोई व्यक्ति
अगर तामसी
होता है, तो
समझो सत्तर
परसेंट
तामसी है, उनतीस
परसेंट राजसी,
एक परसेंट
सात्विक। पर
एक परसेंट
सात्विक भी
होना जरूरी है।
नहीं तो, जैसे
तीन पैर की
तिपाई में से
एक पैर निकाल
लो, तिपाई
फौरन गिर जाए;
ऐसा
व्यक्ति जी
नहीं सकता, जिसका एक
पैर गिर गया
हो।
तुम
तिपाई हो, वे
तीनों गुण
चाहिए; मात्रा
कम—ज्यादा हो
सकती है। यह
हो सकता है कि
एक टल बिलकुल
पतली हो तिपाई
की, धागे
जैसी हो, मगर
उतनी जरूरी है।
एक टांग बहुत
मोटी हो, हाथी—पांव
की बीमारी हो
गई हो, यह
हो सकता है।
लेकिन टांगें
तीन ही होंगी।
तुम्हारी
मुर्गी तीन टांग
से ही चलती है,
उससे कम में
न चलेगा।
तामसिक
वृत्ति का
व्यक्ति गहन
तमस से भरा
होता है, लेकिन
दूसरे तत्व भी
मौजूद होते
हैं।
यह
पहली बात समझ
लेना कि कोई
पूर्ण तामसी
नहीं है, कोई
पूर्ण राजसी
नहीं है, कोई
पूर्ण
सात्विक नहीं
है। शुद्धतम
व्यक्ति में
भी, बुद्ध
में भी, जब
तक उनकी देह
नहीं छूट जाती,
तमस की टांग
रहेगी। पतली
होती जाएगी; उलटा हो जाएगा
अनुपात, तुम्हारी
तमस की टांग
हाथी—पांव है,
बुद्ध की
तमस की टल, समझो
मच्छड़ की टांग
है। पर रहेगी;
उतना
अनुपात रहेगा।
जब तक शरीर है,
तब तक तीनों
रहेंगे।
इसलिए
बुद्ध ने
निर्वाण की दो
अवस्थाएं कही
हैं। पहला
निर्वाण, जब
समाधि उपलब्ध
होती है, लेकिन
शरीर बचता है।
वह पूर्ण
निर्वाण नहीं
है।
जीवनमुक्त हो
गया व्यक्ति,
जंजीरें
टूट गईं, लेकिन
कारागृह
मौजूद है।
कैदी न रहा, जंजीरें
नहीं हैं हाथ—पैर
पर, यह भी
हो सकता है कि
जेलर प्रसन्न
हो गया हो इस व्यक्ति
से और इसने
उसको कैदियों
के ऊपर सुपरिनटेंडेंट
या सुपरवाइजर
बना दिया हो।
बाकी है
कारागृह के
भीतर; अभी
दीवालें
मौजूद हैं।
इतना प्रसन्न
हो गया हो
जेलर इसकी
सात्विकता से
कि इसको बाहर—
भीतर आने की
भी सुविधा हो
गई हो; सब्जी
खरीदने बाहर
चला जाता हो, इसके भागने
का डर न रहा हो।
लेकिन इसे भी
लौट आना पड़ता
है। कभी—कभी
घर के लोगों से
भी मिल आता हो,
गपशप भी कर
आता हो, लेकिन
फिर भी लौट
आना पड़ता है।
अभी
इसकी नाव भी
शरीर के
किनारे से' ही
बंधी रहेगी।
इसकी
स्वतंत्रता
बढ़ गई, बहुत
बढ़ गई। यह
करीब—करीब ऐसा
स्वतंत्र हो
गया है, जैसा
कि कारागृह के
बाहर के लोग
हैं; लेकिन
करीब—करीब, एप्रॉक्सिमेट।
जरा—सी बात तो
अभी अटकी है, अभी शरीर से
बंधा है। इसको
हम जीवनमुक्त
कहते हैं, क्योंकि
यह निन्यानबे
प्रतिशत
मुक्त है। कुछ
बचा नहीं, सब
हो गया है।
सिर्फ शरीर के
गिरने की बात
है।
इसलिए
बुद्ध ने कहा, जब
शरीर गिर जाता
है, तब
महापरिनिर्वाण,
तब
महासमाधि
लगती है। जीवनमुक्त
तब मोक्ष को
उपलब्ध हो
जाता, तब
मुक्तत्व
उसका स्वभाव
हो जाता। अब
दीवाल भी गिर
गई, अब
कारागृह न रहा;
जंजीरें भी
टूट गईं।
रजस
से भरे
व्यक्ति में
भी तमस होता
है,
सत्य होता
है। तीनों सभी
में होते हैं।
और तीनों सभी
में होते हैं,
इससे ही क्रांति
की संभावना है।
नहीं तो
मुश्किल हो
जाए। अगर कोई
व्यक्ति पूरा
ही तामसी हो, सौ प्रतिशत,
चौबीस
कैरेट तामसी
हो, तो फिर
कुछ नहीं किया
जा सकता, कोई
उपाय न रहा।
यह तो करीब—करीब
लाश की तरह
पड़ा रहेगा, कोमा में
रहेगा, बेहोश
रहेगा, क्योंकि
होश के लिए भी
थोड़ा रजस
चाहिए। यह तो हाथ—पैर
भी न हिलाएगा;
यह तो आख भी
न खोलेगा; इसका
तो जीना भी
जीना न होगा, यह तो मुरदे
की भांति होगा,
जीते जी
मुरदा होगा।
नहीं, इसकी
फिर कोई
संभावना क्रांति
की न रह जाएगी।
दूसरे
तत्व मौजूद
हैं,
उनसे ही क्रांति
का द्वार खुला
है, उन्हीं
के सहारे एक
से दूसरे में
जाया जा सकता
है। जैसे तुम
अंधेरे कमरे
में बैठे हो, लेकिन छपरैल
से, खपड़ों
की संध से एक
छोटी—सी सूरज
की किरण भीतर
आ रही है। सब
घना अंधकार है,
पर एक छोटी
किरण अंधकार
में उतर रही
है। वही द्वार
है। तुम उसी
किरण के सहारे
चाहो तो सूरज
तक पहुंच जाओगे,
चाहे वह दस
करोड़ मील दूर
हो। तुम उसी
का किरण का
अगर मार्ग पकड़
लो, तो तुम
सूरज के स्रोत
तक पहुंच
जाओगे। वह गहन
अंधकार पीछे
छूट सकता है, यात्रा संभव
है। इसलिए
तीनों तत्व
सभी में हैं, पहली बात
समझ लेनी
जरूरी है।
दूसरी
बात समझ लेनी' जरूरी
है कि तीनों
तत्वों का
अनुपात भी सदा
थिर नहीं रहता।
रात तमस बढ़
जाता है, दिन
में रजस बढ़
जाता, संध्याकाल
में सत्य बढ़
जाता है।
इसलिए
हिंदुओं ने
संध्याकाल को
प्रार्थना का
क्षण समझा।
सुबह, जब
रात जा चुकी
और सूरज अभी
नहीं उगा, वही
ब्रह्ममुहूर्त
है। उसको
ब्रह्ममुहूर्त
कहने का कारण
है भीतर की गुण—व्यवस्था
से। रात जा
चुकी, पृथ्वी
जाग गई, पक्षी
बोलने लगे, वृक्ष उठ आए,
लोग नींद के
बाहर आने लगे,
सारी
पृथ्वी पर तमस
का जाल
सिकुड़ने लगा।
सूरज करीब है
क्षितिज के, जल्दी ही
उसका किरण—जाल
फैल जाएगा, जल्दी ही सब
उठ बैठेगा, रजस पैदा
होगा। सूरज के
उगते ही काम—
धाम की दुनिया
शुरू होगी।
अभी सूरज नहीं
उगा, अभी
रजस उगने को
है। अभी रात
गई, तमस जा
चुका, मध्य
की छोटी—सी
घड़ी है, वह
संध्या है।
संध्या
का अर्थ है, बीच
का काल, मध्य
की घड़ी। उस
मध्य की घड़ी
में सत्व का
प्रमाण
ज्यादा होता
है। वह दोनों
के बीच की घड़ी
है। इसलिए उस
क्षण को ध्यान
में लगाना
चाहिए।
क्योंकि अगर
ध्यान सत्व से
निर्मित हो, तो दूरगामी
होगा। उस सत्व
को अगर तुम
ध्यान बनाओ, तो धीरे—
धीरे तुममें
सत्व बढ़ता
जाएगा।
ऐसे
ही सांझ को
सूरज डूब गया, रजस
का व्यापार
बंद होने लगा,
सूर्य ने समेट
ली अपनी दुकान,
द्वार—दरवाजे
बंद करने लगा।
रात आने को है,
आती ही है, उसकी पहली
पगध्वनिया
सुनाई पड़ने
लगीं। मध्य का
छोटा—सा काल
है, वह
संध्या है।
दुनिया के सभी
धर्मों ने
मध्य के काल
चुने हैं।
क्योंकि उस
मध्य के काल
में, जब दो
तत्वों के बीच
की थोड़ी—सी
संधि होती है,
तो सत्य का
क्षण
महत्वपूर्ण
होता है।
तुम्हारे
भीतर हो सकता
है पचास
प्रतिशत या साठ
प्रतिशत तमस
हो,
तीस या
चालीस
प्रतिशत रजस
हो, एक
प्रतिशत सत्व
हो, तो उस
मध्यकाल में
वह एक प्रतिशत
प्रमुख होता है।
और उसका अगर
तुम उपयोग कर
लो, तो
ब्रह्ममुहूर्त
का तुमने
उपयोग कर लिया।
इसलिए
हिंदुओं के
लिए तो
प्रार्थना
शब्द संध्या
का
पर्यायवाची
हो गया। वे जब
प्रार्थना
करते हैं, तो
वे कहते हैं, संध्या कर
रहे हैं। वे
भूल गए हैं कि
उसका अर्थ
क्या था!
इस्लाम
में भी नियम
है,
सूरज उगने
के समय, सूरज
डूबने के समय,
सूरज जब
मध्य आकाश में
हो, तब—ऐसी
सूरज की पांच
घड़ियां
उन्होंने
चुनी हैं।
लेकिन दो
घड़ियां वह। भी
मौजूद हैं, सुबह
और सांझ।
उन घड़ियों में
सत्व तेज होता
है। रात्रि
तमस तेज हो
जाता है, दिन
रजस तेज हो
जाता है।
तो
तुम्हारे
भीतर चौबीस
घंटे अनुपात
एक—सा नहीं
रहता। इसलिए
तो भिखारी
सुबह—सुबह
तुमसे भीख
मांगने आते
हैं। उस वक्त
सत्व की थोड़ी—सी
छाया होती है; तुम
शायद दे सको।
भिखारी दिनभर
के बाद भीख
मांगने नहीं
आते। क्योंकि
वे जानते हैं,
रजस से थका
आदमी चिड़चिड़ा
हो जाता है, नाराज होता
है। भिखारी को
देखकर ही
गुस्से में भर
जाएगा; देने
की जगह छीनने
का मन होगा।
सुबह—सुबह
तुम उठे हो और
एक भिखारी
द्वार पर आ
गया है, इनकार
करना जरा
मुश्किल होता
है। तुम्हीं
हो, सांझ
को भी तुम्हीं
रहोगे, दोपहर
भी तुम्हीं
रहोगे। लेकिन
सुबह जरा
इनकार अटकता
है, एकदम
से कह देना
नहीं, संभव
नहीं मालूम
होता। भीतर से
कोई कहता है, कुछ दे दो।
सत्व प्रगाढ़
है।
जो
आदमी समझदार
है,
वह अपनी
जीवन—विधि को
इस तरह से
बनाएगा कि वह
इन गुणों का
ठीक—ठीक उपयोग
कर ले। अगर
तुम्हें कोई
शुभ कार्य
करना हो, तो
संध्याकाल
चुनना; तो
तुम्हारी गति
ज्यादा हो
सकेगी। अगर
कोई अशुभ
कार्य चुनना
हो, तो मध्य—रात्रि
चुनना, तो
तुम्हारी गति
ज्यादा हो
सकेगी।
हत्यारे, चोर,
सब मध्य—रात्रि
चुनते हैं।
सुबह
भोर के क्षण
में तो चोर को
भी चोरी करना
मुश्किल हो
जाएगा, हत्यारे
को भी हत्या
करना मुश्किल
हो जाएगा, उसकी
जीवन— धारा
भिन्न होगी।
भरी दोपहर में
सब दफ्तर और
दुकानें
खुलती हैं
दुनिया की; ग्यारह बजे,
वह रजस का
व्यापार है।
बाजार धूम में
होता है, जब
सूरज आकाश में
होता है। फिर
सब क्षीण हो
जाता है।
रात्रि लोग
क्लबघरों में
इकट्ठे होते
हैं, शराब
पीने, नाचने।
वेश्याओं के
घर—द्वार पर
दस्तक देते
हैं। तमस
प्रगाढ़ है।
तुम
कभी—कभी हैरान
होओगे, सुबह
जिसको तुमने
भोर में
प्रार्थना
करते देखा, दोपहर में
बाजार में तुम
लोगों को
लूटते देखोगे
उसी आदमी को, उसी आदमी को
रात तुम
वेश्याघर में
शराब पीते पाओगे।
तुम बड़े हैरान
होओगे कि बात
क्या है! यह
आदमी वही है?
तुम
सोचोगे, इसकी
प्रार्थना
झूठी है।
जरूरी नहीं।
प्रार्थना
सही रही हो।
तुम सोचोगे, यह दुकान पर
जो तिलक—चंदन
लगाकर बैठता
है, वह सब
बकवास है। जब
इसने तिलक—चंदन
लगाया था, तब
तिलक—चंदन का
भाव रहा हो, झूठ मत
समझना। तिलक—चंदन
हटा नहीं, क्योंकि
तिलक—चंदन तो
चमड़ी पर लगा
है। भीतर के
तमस, रजस, सत्य का
रूपांतरण हो
गया।
तो
दुकान पर यह
आदमी बैठकर
हरि बोल, हरि
बोल भी करता
रहता है और
जेब भी काटता
रहता है।
जरूरी नहीं कि
इसका हरि बोल
सदा ही झूठ
होता हो; कभी—कभी
किन्हीं
क्षणों में
बिलकुल सच
होता है। और
यही आदमी रात
वेश्याघर चला
जाता है।
तुम
भरोसा नहीं कर
पाते, क्योंकि
तुम्हें पता
नहीं है, आदमी
एक नहीं है, तीन है। हर
आदमी के भीतर
कम से कम तीन
आदमी हैं।
तेरह होंगे, वह दूसरी
बात है। मगर
तीन तो हैं ही।
कहावत है, जब
कोई आदमी
बिलकुल
भ्रष्ट हो
जाता है, तो
लोग कहते हैं,
तीन तेरह हो
गए। तीन तो
हैं ही, लेकिन
अब तेरह हो गए;
अब मामला ही
खराब हो गया, अब सब खंड—खंड
हो गया।
ठीक
से अगर तुम
अपने जीवन का
निरीक्षण करो, तो
तुम बहुत—सी
बातें समझ
पाओगे।
प्रत्येक
समझपूर्वक
जीने वाले
आदमी को अपने जीवन
की निरंतर
निरीक्षणा
करते रहनी
चाहिए और
देखना चाहिए,
किन क्षणों
में शुभ
प्रगाढ़ होता
है। उन क्षणों
का शुभ के लिए
उपयोग करो। और
उन क्षणों को
जितना बढ़ा सको,
बढ़ाओ।
तुम्हारी भोर
जितनी बड़ी हो
जाए, उतना
अच्छा।
तुम्हारी
संध्या जितनी
लंबी हो जाए
उतना अच्छा।
और जो तुमने
शुभ क्षण में
पाया है, उसकी
सुवास को
दूसरे क्षणों
में भी खींचने
की कोशिश करो।
तो ही
रूपांतरण
होगा; नहीं
तो रूपांतरण न
होगा।
फिर
दिन के चौबीस
घंटे में ही
यह बदलाहट
होती हैं, ऐसा
नहीं; जीवन
की हर घड़ी में!
बच्चे में
सत्व का
अनुपात ज्यादा
होता है, क्योंकि
वह जीवन की
भोर है। जवान
में रज का
अनुपात
ज्यादा होता
है, क्योंकि
वह जीवन की
आपा— धापी, बाजार
है। बूढ़े में
रजस और सत्य
दोनों क्षीण
हो जाते हैं, तमस बढ़ जाता
है; क्योंकि
वह मौत का
आगमन है। मौत
यानी पूर्ण
तमस में गिर
जाना।
अब
यह बड़े मजे की
बात है, लेकिन
सभी बूढ़े
दूसरों को
शिक्षा देते
हैं। वे
बच्चों को भी
चलाने की
कोशिश करते
हैं। होना
उलटा चाहिए कि
के बच्चों के
पीछे चलें।
सांझ भोर का
पीछा करे।
इसलिए तो
दुनिया उलटी
है। यहां नाव
नदी पर नहीं
है, यहां
नदी नाव पर है।
के बच्चों को
चला रहे हैं; गलत हो रहा
है। सांझ सुबह
को चलाए, गलत
हो जाएगा। बुढो
को बच्चों का
अनुसरण करना
चाहिए, क्योंकि
बच्चे
निर्दोष हैं।
जीसस
ने कहा है, जो
बच्चों की तरह
भोले— भाले
होंगे, वे
ही मेरे प्रभु
के राज्य में
प्रवेश कर
सकेंगे।
का
आदमी तो चालाक
हो जाता है।
हो ही जाएगा, जीवनभर
का अनुभव, जीवनभर
की दाव—पेंच, कलाएं, राजनीति,
चालबाजियां—धोखे
जो दिए, धोखे
जो खाए—सब का
अनुभव। का
आदमी निर्दोष
हो, बड़ा
मुश्किल है, हो जाए, तो
संत।
बच्चा
निर्दोष होता
है,
लेकिन संत
नहीं। सभी
बच्चे निर्दोष
होते हैं, वह
स्वाभाविक है।
वह कोई गुण
नहीं है।
क्योंकि
बच्चों का
संतत्व सब खो
जाएगा। चौदह
वर्ष के होंगे,
कामवासना
जगेगी, रजस
पैदा होगा। सब
भूल जाएंगे, सब
निर्दोषता
बच्चों की खो
जाएगी।
तुमने
कभी सोचा, सभी
बच्चे जब पैदा
होते हैं, तो
सुंदर मालूम
होते हैं। कोई
बच्चा कुरूप
नहीं होता। और
सभी लोग बड़े
होते—होते
कुरूप हो जाते
हैं। शायद ही
कोई आदमी
सुंदर बचता है।
क्या मामला है?
बच्चे
सत्व को
उपलब्ध होते
हैं। अभी आ
रहे हैं सीधे
परमात्मा के
घर से। अभी वह
सुवास उनके
शरीर को घेरे
है। अभी—अभी
पैदा हुए भोर
का क्षण है, ब्रह्ममुहूर्त।
बच्चे यानी
ब्रह्ममुहूर्त।
अभी
प्रार्थना
गंज रही है; अभी मंदिर
की घंटियां बज
रही हैं; अभी
तिलक ताजा है,
अभी हाथों
में लगे चंदन
में गंध है; अभी—अभी आते
हैं मूल स्रोत
से, उत्स
से। खो जाएंगे
कल।
अगर
दुनिया कभी
समझदार होगी, तो
बूढ़े बच्चों
का अनुसरण
करेंगे, उनसे
सीखेंगे।
उनका बालपन
संतत्व की
कीमिया है। और
जब कोई का
आदमी बच्चे
जैसा हो जाता
है, तो इस
जगत में अनूठी
घटना घटती है।
जब कोई का
आदमी बच्चे
जैसा हो जाता
है, तो इस
जगत में
अपूर्व
सौंदर्य घटता
है।
ऐसे
के आदमी के
सौंदर्य की
तुम कोई तुलना
नहीं कर सकते, कोई
जवान आदमी
इतना सुंदर
नहीं हो सकता।
क्योंकि
जवानी में बड़ा
तनाव है, बेचैनी
है, दौड़ है,
उपद्रव है,
आपा— धापी
है। कैसे कोई
जवान इतना सुंदर
हो सकता है? तूफान है, आधी है।
बुढ़ापे में सब
शांत हो गया।
आधी जा चुकी; तूफान विदा
हो गया। तूफान
के पीछे के
क्षण हैं, जब
सब शांत हो
जाता है और एक
सन्नाटा घेर
लेता है।
अगर
बूढ़े आदमी ने
बचपन को फिर
से
पुनरुज्जीवित
कर लिया, तो वह
संत हो जाता
है। नहीं तो वह
महान तामसी हो
जाता है।
इसलिए के आदमी
बहुत तामसी हो
जाते हैं।
उनका जीवन
करीब—करीब
मुरदे जैसा हो
जाता है।
चिड़चिड़े, नाराज,
हर चीज उनके
लिए की जाए, कुछ करने को
तैयार नहीं!
हर चीज की
अपेक्षा और हर
चीज से शिकायत।
कोई चीज तृप्त
नहीं करती।
सारा जगत असार
मालूम पड़ता है;
व्यर्थ
मालूम पड़ता है।
और आकांक्षा
मरती नहीं, महत्वाकांक्षा
जगी रहती है।
मल कायम रहती
है। करना कुछ
नहीं है, मल
भारी है।
तो
जीवन में भी
घड़ियां बदलती
हैं,
जब अनुपात
बदल जाता है।
और जीवन का ही
सवाल नहीं है।
अनुपात रोज भी
बदल जाता है। परिस्थिति
भी अनुपात को
बदल देती है।
तुम
दोपहर बड़ी दौड़
में थे। अचानक
एक शुभ—संवाद
किसी ने दे
दिया, तत्क्षण
भीतर की
मात्रा में
भेद हो जाता
है। किसी ने
शुभ—संवाद दे
दिया, तुम्हारी
दौड़ ठिठक गई; किसी ने
खुशी की एक
खबर दे दी, तुम
प्रसन्न हो गए,
तुम्हारे
भीतर की
मात्रा बदल गई।
तुम भोर में
बड़े सात्विक
थे और किसी ने
खबर दी कि कोई
मर गया, उदासी
छा गई, तमस
ने घेर लिया।
तो
प्रति क्षण
परिस्थिति भी
बदलती है।
लेकिन ये सारी
बातें
तुम्हें अपने
भीतर ठीक से
स्वाध्याय
करनी चाहिए, ताकि
तुम इनका ठीक—ठीक
उपयोग कर सको।
और जो व्यक्ति
अपने अनुपात
को न तो
परिस्थिति से
प्रभावित
होने देता है,
न समय की
धारा से
प्रभावित
होने देता है,
न जीवन की
अवस्थाओं से
प्रभावित
होने देता है,
वही
व्यक्ति साधक
है।
इसलिए
साधना बड़ी
कठिन मालूम
पड़ती है। जो
भरी दोपहरी
में ऐसा होता
है,
जैसे ब्रह्ममुहूर्त
में कोई हो, जो बुढ़ापे
में ऐसा होता
है, जैसे
बचपन में कोई
हो, तब
साधना का
सूत्र शुरू
होता है। पहले
ठीक से
निरीक्षण करो।
फिर निरीक्षण
को ठीक से
सोचकर अपने
जीवन की गति
को बदलो। और
गति बदलनी है
इस भांति कि
अति न हो जाए।
तीनों की
मात्रा समान
हो जाए।
एक
तिहाई हो तमस, वह
जरूरी है।
इसलिए चौबीस
घंटे में आठ
घंटे सोना
जरूरी है, वह
एक तिहाई तमस
है। उससे कम
सोओगे, नुकसान
होगा, उससे
ज्यादा सोओगे,
नुकसान
होगा। आठ घंटा
सोना जरूरी है।
आठ घंटा जीवन
की दौड़—धूप
जरूरी है। रजस,
भागो—दौड़ो;
महत्वाकांक्षा
का विस्तार है।
उसको भी अनुभव
करो। क्योंकि
गैर अनुभव के
गुजर गए, तो
पकोगे नहीं, पार न होओगे,
अतिक्रमण न
होगा। आठ घंटा
व्यापार, व्यवसाय,
दौड़— धूप।
आठ घंटा सत्व—प्रार्थना,
पूजा, ध्यान।
ऐसा एक तिहाई,
एक तिहाई
जीवन को बांट
दो।
अगर
तुम्हारा
सारा समय एक
तिहाई, एक
तिहाई की मात्रा
में बंट जाए, तुम धीरे—
धीरे पाओगे, यह अनुपात
घिर हो जाता
है। तब न तो
रात में यह
बदलता, न
दिन में बदलता,
न जवानी में,
न बुढ़ापे
में। यह
अनुपात धीरे—
धीरे, धीरे—
धीरे घिर हो
जाता है। इस
थिरता का नाम
ही सत्व की
उपलब्धि है।
क्योंकि जब
तीनों समान
होते हैं, तब
तुम्हारे
भीतर एक संगीत
बजने लगता है
अनजाना, जिसे
तुमने पहले
कभी नहीं सुना।
इसलिए
मैं कहता हूं
हिमालय मत
भागना, क्योंकि
वह कोशिश है
चौबीस घंटे
सत्व में जीने
की। वह भी
अतिशय है।
इसलिए मैं
संन्यासी को
भी कहता हूं, घर में रहना।
आठ घंटा
संन्यासी, आठ
घंटा दुकानदार।
आठ घंटा
निद्रा में
पडे हैं, न
संन्यासी, न
दुकानदार।
विश्राम भी तो
चाहिए, संन्यास
से भी, दुकान
से भी! चौबीस
घंटे
संन्यासी
बनने की कोशिश
में भारत ने
बहुत गंवाया।
कि न तो वे
संन्यासी
संन्यासी हो
पाए, क्योंकि
वे हो नहीं
सकते।
उन्होंने
कोशिश की कि
तिपाई के दो
पैर तोड़ दें
और एक ही पैर
पर खड़े हो
जाएं; लंगड़ा
गए। तो भारत
का संन्यास
बुरी तरह
लंगड़ा गया और
बुरी तरह धूल—
धूसरित होकर
गिरा। गरिमा
पैदा नहीं हुई।
संन्यासी
संतुलित न रहा।
और
तुम तोड़ नहीं
सकते दूसरे दो
पैर,
क्योंकि
जिंदा रहने के
लिए जरूरी हैं।
पीछे के द्वार
से वे प्रवेश
कर गए। तो
संन्यासी
बाहर से
दिखाएगा, उसकी
कोई धन में
उत्सुकता
नहीं है, और
भीतर से धन
जोड़ेगा। बाहर
से दिखाएगा, उसकी कोई
महत्वाकांक्षा
नहीं है, लेकिन
विस्तार में
मन लगा रहेगा।
बाहर से
दिखाएगा कि
मेरे जीवन में
कोई तमस नहीं
है, लेकिन
भीतर भयंकर
तमस घिरा
रहेगा।
भाग
नहीं सकते, जीवन
के नियम के
विपरीत नहीं
चल सकते। जीवन
के नियम का
उपयोग करो।
समझदार वह है,
जो जीवन के
नियम का उपयोग
करके जीवन के
पार उठ जाता
है। नासमझ वह
है, जो
जीवन के नियम
को तोड़ने की
कोशिश करके
बाहर होना
चाहता है। वह
और उलझ जाता है।
संन्यास
एक कला है
संतुलन की।
हे भारत, सभी
मनुष्यों की
श्रद्धा उनके
अंतःकरण के अनुरूप
होती है। यह
पुरुष
श्रद्धामय है,
इसलिए जो
पुरुष जैसी
श्रद्धा वाला
है, वह
स्वयं भी वही
है।
तुम्हारी
श्रद्धा ही
तुम हो। अगर
तुम्हारी
श्रद्धा
आलस्य की है, तो
तुम्हारा
जीवन आलस्य की
कहानी होगा।
अगर तुम्हारी
श्रद्धा रजस
की है, महत्वाकांक्षा
की है, दौड़
की है, तुम्हारा
जीवन एक दौड़—
भाग होगा। अगर
तुम्हारी
श्रद्धा सत्व
की है, शांति
की है, शून्य
की है, शुभ
की है, तो
तुम्हारे
जीवन में एक
सुवास होगी, जो स्वर्ग
की है, जो
इस पृथ्वी की
नहीं है।
तुम्हारी
श्रद्धा ही
तुम हो।
अपनी
श्रद्धा को
ठीक से पहचान
लो,
क्योंकि न
पहचानने से
बड़ी जटिलता
बढ़ती है। आदमी
तो होता है
आलसी, अंतःकरण
आलसी। और
आकांक्षा
करता है उन
सुखों को पाने
की, जो
राजसी को
मिलते हैं।
तुम मुश्किल
में पड़ोगे।
तुम्हारी
श्रद्धा तुम हो।
आदमी तो होता
है राजसी, दौड़—
धूप में पड़ा।
और चाहता है, वह शांति
मिल जाए, जो
सात्विक को
मिलती है। यह
हो नहीं सकता।
मेरे
पास,
एक
राजनीतिज्ञ
हैं, वे
कभी—कभी आते
हैं। वे कहते
हैं, शांति
चाहिए।
तुम्हें शांति
मिल नहीं सकती।
इसमें किसी का
कसूर नहीं है।
राजनीति की
दौड़— धूप, तुम
शांत हो कैसे
सकते हो! और
तुम अगर शांत
हो गए, तो
जिस दौड़— धूप
में तुम लगे
हो कि किस तरह
मंत्री, किस
तरह
मुख्यमंत्री,
किस तरह यह
हो जाएं, वह
हो जाएं—यह
फिर कौन करेगा?
तुम अगर शांत
हो गए, तो
यह भी शांत हो
जाएगी।
तो
मैंने उनसे
कहा,
तुम दो में
चुन लो। मैं
तुम्हें शांत
कर सकता हूं, लेकिन तब
राजनीति
जाएगी; यह
दौड़— धूप न रह
जाएगी; यह
पागलपन न रह
जाएगा। और अगर
तुम्हें यह
पागलपन पूरा
करना है, तो
शांति की बात
मत करो। मेरे
पास आओ ही मत।
तो उन्होंने
कहा, ऐसा
करता हूं एक
दो साल का समय
दें। दो साल
और कोशिश कर
लूं।
मंत्री
वे हो गए हैं
एक राज्य में, अब
मुख्यमंत्री
होने की
चेष्टा है। एक
दो साल! फिर तो शांत
होना ही है!
यह
आदमी शायद ही शांत
हो पाए
क्योंकि दो
साल में कुछ
पक्का है कि
मुख्यमंत्री
हो जाओ? और
मुख्यमंत्री
होकर
केंद्रीय
मंत्रिमंडल में
जाने की आकांक्षा
न उठे, इसका
कुछ पक्का है?
दौड़ के लिए
तो सदा दौड़
कायम रहती है।
और की
आकांक्षा तो
सदा और की बनी
रहती है।
वे
कभी नहीं
आएंगे।
क्योंकि जिसे
आना है, वह
अभी आता है।
जिसको समझ आ
गई, वह अभी
आता है। जो
कहता है, कल
आएंगे, उसको
समझ नहीं है, तभी तो कल के
लिए टाल रहा
है। कल का
किसको भरोसा
है? और जो
आज कल के लिए
टाल रहा है, वह कल भी कल
के लिए टालेगा।
उसकी कल पर
टालने की आदत
हो जाएगी।
अपनी
श्रद्धा को
ठीक से पहचानो
और अपनी श्रद्धा
से भिन्न मत मांगो।
अगर भिन्न मांगना
है,
तो अपनी
श्रद्धा को
रूपांतरित
करो। अन्यथा
तुम बड़ी बिगचन
में पड़ जाओगे,
भीतर बड़ा
बेबूझ हो
जाएगा; एक
पहेली हो
जाओगे।
सभी
लोग पहेली हो
गए हैं। लोग
ऐसा सुख चाहते
हैं,
जो राजसी को
मिलता है; और
ऐसी शांति
चाहते हैं, जो सात्विक
को मिलती है; और ऐसा
विश्राम
चाहते हैं, जिसको आलसी
भोगता है। बड़ी
मुश्किल है; वे सभी एक
साथ चाहते हैं।
कुछ भी उपलब्ध
नहीं होता।
भीतर
को ठीक से
पहचानो, क्योंकि
तुम्हारी
श्रद्धा ही
तुम्हारा जीवन
है।
जो
पुरुष जैसी
श्रद्धा वाला
है,
वह स्वयं भी
वही है। और
अगर तुमने ठीक
से भीतर को
पहचाना, तो
तुम जल्दी ही
यह समझ जाओगे
कि तृप्ति
किसी एक से
नहीं हो सकती।
उन तीनों का
संयोग चाहिए।
और तीनों के
संयोग में ही
तृप्ति फलती
है, परितोष
झरता है। और
तीनों के
संयोग से ही
एक की प्रतीति
शुरू होती है।
और तीनों का
संयोग धीरे—
धीरे— धीरे
तुम्हें उस एक
की तरफ ले
जाता है, जो
गुणातीत है।
पाना
तो उसे ही है, जो
त्रिगुण के
बाहर है। उस
एक की ही खोज
करनी है।
तीनों पैरों
को तुम एक ही
अनुपात का बना
लो, एक ही
बल का, और
तुम पाओगे कि
तिपाई सध गई।
तिपाई सध गई, कि सब सध गया।
अब तुम तिपाई
पर पैर रख
सकते हो और एक
की तरफ यात्रा
शुरू हो सकती
है।
जो
सात्विक हैं, वे
देवों को
पूजते हैं......।
ये
प्रतीक हैं।
इन्हें भी
खयाल में ले
लो। जो
सात्विक है, उसके
मन की पूजा
सत्व की तरफ
होती है, स्वभावत:।
क्योंकि तुम
जो हो, और
तुम जो होना
चाहते हो, उसी
का तुम्हारे
मन में आदर
होता है। अगर
तुम राजनेता
आता है और
उसके स्वागत
के लिए स्टेशन
पर पहुंच जाते
हो, तो भला
तुम राजनीति
में न हो, लेकिन
उसके स्वागत
की खबर बताती
है कि तुम राजसी
हो। मौका न
मिला होगा
तुम्हें
उपद्रव में
पड़ने का, जिंदगी
में उलझन होगी,
पत्नी है, बच्चे हैं, काम—धंधा है
और तुम नहीं
पड़ पाते, लेकिन
दर्शन करने
तुम
राजनीतिज्ञ
का पहुंच जाते
हो। तुम्हारी
श्रद्धा! कि
फिल्म
अभिनेता आया
है, उसके
पास भीड़ लगा
लेते हो—तुम्हारी
श्रद्धा। कि
संन्यासी आया,
और तुम उसके
दर्शन को
पहुंच जाते हो—तुम्हारी
श्रद्धा।
तुम्हारी
श्रद्धा ही
तुम्हें
संचारित करती है।
सात्विक
पुरुष देवों
को पूजते हैं, दिव्यता
को पूजते हैं।
दिव्यता
का अर्थ है, जिनके
जीवन में
संगीत बजने
लगा तीनों की
एकता का। अभी
वे एक को
उपलब्ध नहीं
हुए हैं; अभी
यात्रा बाकी
है, लेकिन
बड़ा पड़ाव आ
गया, तिपाई
सध गई। उनके
जीवन में
स्वर्ग का
संगीत बजने
लगा। बाकी तो
प्रतीक हैं कि
स्वर्ग में
देवता रहते
हैं। ऐसा
स्वर्ग कहीं
नहीं है। यहीं
जमीन पर
तुम्हारे आस—पास
रहते हैं।
लेकिन
तुम्हारी
सत्य की
श्रद्धा होगी,
तो दिखाई
पड़ेंगे। सत्व
की श्रद्धा न
होगी, तो
दिखाई न
पड़ेंगे।
क्योंकि
श्रद्धा आख है।
तुम्हारे
पास ही, हो
सकता है कि
तुम्हारे
पड़ोस में कोई
रहता हो; हो
सकता है, तुम्हारे
घर में रहता
हो, हो
सकता है, तुम्हारी
पत्नी में हो;
हो सकता है,
तुम्हारे
पति में हो।
लेकिन सत्व की
आख होगी, तो
दिखाई पड़ेगा।
नहीं होगी, तो नहीं
दिखाई पड़ेगा।
अगर पति
सात्विक हो
जाए और पत्नी
की आख सत्व की
न हो, तो
उसे कुछ और
दिखाई पड़ेगा।
मेरे
पास कई
स्त्रियां
शिकायत लेकर
आती हैं कि आप
बरबाद मत करो, हमारे
पति को मत
उलझाओ इस
ध्यान में।
अभी तो बाल—बच्चे
बड़े हो रहे
हैं। और अभी
तो काम— धंधा
शुरू ही हुआ
है। और अगर वे
ध्यान में उलझ
गए, तो
क्या होगा?
पति
में अगर सत्व
पैदा हो रहा
है,
तो पत्नी को
दिखाई नहीं
पड़ता।
क्योंकि उसकी
श्रद्धा अभी
रजस की है; वह
कहती है, अभी
थोड़े और गहने
चाहिए। वह पति
के ध्यान की
कुर्बानी के
लिए राजी है, अपने और
थोडे गहनों की
कुर्बानी के
लिए राजी नहीं
है। वह कहती
है, अभी तो
मकान बहुत
छोटा है, थोड़ा
मकान तो बड़ा
हो जाने दो।
अभी बैंक में
बैलेंस है ही
क्या! बुढ़ापे
में क्या होगा?
अगर कल पति
को कुछ हो जाए,
तो हम क्या
करेंगे?
न
तो पति की
आत्मा से कोई
मतलब है, न पति
के जीवन से
कोई मतलब है।
अगर पति को
कुछ हो जाए, इसकी चिंता
है। तो बैंक
में बैलेंस
होना चाहिए, चाहे पति रहे,
चाहे जाए।
श्रद्धा रजस
की है।
तो
पति ध्यान
करने बैठे, तो
पत्नियां
बाधा डालती
हैं। अगर
पत्नी में
श्रद्धा पैदा
हो जाए सत्व
की, तो पति
बेचैन हो जाता
है। पति मेरे
पास आते हैं, वे कहते हैं,
यह आपने
क्या कर दिया!
एक उपद्रव खड़ा
कर दिया। अब
पत्नी को
ज्यादा रस नहीं
है कामवासना
में। वह ध्यान
में लगी रहती
है! हम कहां
जाएं? हमारी
कामवासना तो
मर नहीं गई! तो
कृपा करें।
अभी तो मैं
जवान हूं वे
कहते हैं। ये
तो बुढ़ापे की
बातें हैं।
पचास साल के
बाद आप इसको
सिखाते ध्यान,
तो ठीक था।
जो
श्रद्धा होती
है,
वह दिखाई
पड़ता है। ध्यान
जैसी घटना घट
रही हो, उसमें
भी सौभाग्य
नहीं मालूम
पड़ता। पत्नी शांत
हो रही है, इसमें
भी पीड़ा लगती
है।
तुम
चकित होओगे, लोगों
ने मुझसे आकर
कहा है, पत्नियों
ने कहा है कि
पति अब क्रोध
नहीं करते, इससे हमें
हैरानी होती
है। वे पहले
क्रोध करते थे,
तो ठीक था।
अब ऐसा लगता
है कि उन्हें
उपेक्षा हो गई
है। अक्रोध
में उपेक्षा
दिखती है।
अक्रोध में एक
घटना नहीं
दिखती कि इस
आदमी के जीवन
में एक फूल
खिला है, हम
आनंदित हों।
अक्रोध में
दिखता है कि
इस आदमी को अब
रस नहीं रहा; इसलिए हम
गाली भी दें, तो यह सुन
लेता है।
क्योंकि इसको
कोई मतलब ही
नहीं है।
उपेक्षा से भर
गया है यह
आदमी।
और
ध्यान रखना, लोग
उपेक्षा पसंद
नहीं करते, चाहे गाली
दो, वे
उसके लिए भी
राजी हैं, कम
से कम इतना रस
तो रखते हो कि
गाली देते हो।
उपेक्षा बहुत
काटती है।
तटस्थ हो गए!
उदासीन हो गए!
पत्नी घबडाती
है कि यह तो हाथ
के बाहर चला
आदमी। ऐसे
उदास होते—होते
एक दिन घर से
भाग जाएगा; फिर हम क्या
करेंगे? वह
चाहती है कि
पति नाराज हो,
लड़े, मारे—पीटे,
तो भी चलेगा,
ध्यान न करे।
सत्य
की श्रद्धा हो, तो
ही सत्व दिखाई
पड़ता है।
देवता
का अर्थ है, जिनके
जीवन में
संतुलन आ गया,
जिनके जीवन
में सत्व ने
ऐसी संतुलन की
सुगंध दे दी
कि जो अब करीब—करीब
मुक्ति के
किनारे खड़े
हैं। स्वर्ग
वह सीमा है, जहां से
आदमी मोक्ष
में छलांग मार
ले। थोड़े अटके
हैं, अटकाव
यह है कि उनको
अभी संगीत से
ही रस पैदा हो
गया है; इसको
भी बड्वे की
हिम्मत करनी
पड़ेगी। यह
सोने की जंजीर
है, बड़ी
प्यारी लगती
है।
इसलिए
हम देवताओं को
मुक्त पुरुष
नहीं कहते। और
जब कोई बुद्ध
पुरुष पैदा
होते हैं, तो
हमारे' पास
कथाएं हैं कि
देवता उन्हें
सुनने आते हैं
कि हमें
मुक्ति का
मार्ग दें।
उनको आना
पड़ेगा, क्योंकि
अब वे सत्व के
सुख से बंध गए
हैं। स्वर्ग
भी बंधन है।
बड़ा प्यारा
बंधन है, बड़ी
मिठास है
उसमें, लेकिन
है काटा।
कितनी ही मीठी
पीड़ा देता हो,
उसे भी
निकाल देना
होगा।
जिनकी
सत्य की
श्रद्धा है, वे
देवों को
पूजते हैं। वे
जहां भी
दिव्यता को
पाएंगे, वहा
उनका सिर झुक
जाएगा।
जिनकी
राजस श्रद्धा
है,
वे यक्ष और
राक्षसों को
पूजते हैं.।
राक्षस का
अर्थ है, जिसके
जीवन में रजस
प्रगाढ़ हो गया।
सत्व और तम
दोनों दब गए, बस रजस
प्रगाढ़ हो गया।
बड़े
राजनेता यानी
राक्षस। तुम
उस तरह सोचते
नहीं अब, क्योंकि
तुम इन
प्रतीकों का
अर्थ भूल गए।
तुम सोचते हो,
रावण
राक्षस था।
किसलिए? सफल
से सफल
राजनीतिज्ञ
था! स्वर्ण की
लंका बसा दी
थी। और क्या
चाहिए सफल
राजनीतिज्ञ
के लिए? तुम्हारे
सफल
राजनीतिज्ञ
मिट्टी के घर
भी तो नहीं
बसा पाते हैं
लोगों के लिए;
भूखा मरता
है समाज।
लेकिन लंका
में स्वर्ण का
बसा दिया था
नगर। और कैसा
सफल
राजनीतिज्ञ
चाहिए?
रावण
सफल से सफल
राजनीतिज्ञ
था,
कुशल से
कुशल
कूटनीतिज्ञ
था; प्रगाढ़
शक्तिशाली था।
दौड़ उसकी महान
थी। कथा तो यह
है कि अगर उसे
न हटाया गया
होता स्वयंवर
से, तो
उसने सीता को
जीत लिया होता;
राम खाली
हाथ घर वापस
लौटे होते।
उसे हटाया गया।
डर था।
क्योंकि वह
इतना कुशल राजनीतिज्ञ
था और इतना
शक्तिशाली था
कि एक सिर
नहीं था उसके;
उसके दस सिर
थे। सभी
राजनीतिज्ञों
के होते हैं।
एक चेहरा नहीं,
दस!
सभी
राजनीतिज्ञ
दशानन हैं।
उनका कुछ
पक्का नहीं है
कि वे कौन—सा
चेहरा
तुम्हें दिखा
रहे हैं। जब
जैसी जरूरत हो, वे
वैसा चेहरा
दिखाते हैं।
जब वोट मांगनी
हो, तो
मुस्कुराते
हैं—एक चेहरा।
जब वोट मिल गई,
तब वे ऐसा
देखते हैं, जैसे
तुम्हें
पहचानते ही
नहीं—दूसरा
चेहरा। जब वे
ताकत में हैं,
तब एक चेहरा;
जब वे ताकत
में नहीं, तब
उनके कैसे हाथ
जुड़े हैं और
सिर झुका है, कि आपके
चरणों के सेवक
हैं। दशानन!
उनके दस चेहरे
हैं। और एक
काटो, तत्क्षण
दूसरा पैदा हो
जाता है।
इसलिए
राजनीतिज्ञ
को मारना
मुश्किल है।
स्वयंवर
भरा था, तो
कथा यह है कि
यह देखकर
देवताओं ने कि
रावण बाजी मार
ले सकता है..।
कई कारण थे, एक तो वह शिव
का भक्त था।
तुम
राजनीतिज्ञों
को सदा पाओगे
किसी न किसी
का भक्त। कोई
जा रहा है
सत्य
सांईबाबा।
कोई नहीं तो
दिल्ली में
बहुत
ज्योतिषी
बैठे हैं, उनकी
ही भक्ति में
लगा है।
हनुमान
चालीसा पढ़ रहा
है, इलेक्शन
जीतना है!
इस
रावण ने अपने
सिर चढ़ा—चढ़ाकर, कहते
हैं, शिव
को भी राजी कर
लिया था। शिव
का भक्त था और
वह धनुष भी
शिव का था। यह
तोड़ देता; और
यह आदमी
बलशाली था।
तो
कथा यह है कि
देवताओं ने यह
देखकर कि यह
तो खतरा हो
जाएगा। और राम
तो विनम्र
व्यक्ति हैं, वे
आगे आकर खड़े
भी न होंगे, यह रावण तो
उछलकर खड़ा हो
जाएगा और धनुष
तोड़ देगा। राम
को शायद मौका
ही न मिले; शायद
कोई पूछे ही न
कि राम भी आए
थे। और राम तो
पीछे खड़े
रहेंगे। राम
के होने का
अर्थ ही है कि
जो पीछे खड़ा
रहे, जिसको
आगे आने की
दौड़ न हो; जो
महत्वाकांक्षी
न हो।
लक्ष्मण
भी ज्यादा महत्वाकांक्षी
था राम से। वह
दो—चार दफा उठ
आया बीच—बीच
में। और उसने
कहा कि भाई, अगर
मुझे आज्ञा
दें, तो
अभी इस धनुष—बाण
को तोड़ दूं।
उसको रोकना
पड़ा, कि तू
बैठ, तू
थोड़ा तो ठहर।
वह भी तोड्ने
को बहुत तत्पर
था। वह भी महत्वाकांक्षी
था; वह भी
राजनीतिज्ञ
था।
रावण
को हटाया।
देवताओं ने
जोर से शोरगुल
किया आकर
स्वयंवर के आस—पास, कि
रावण तू यहां
क्या कर रहा
है? लंका में
आग लग गई है! और
जब लंका में
आग लगी हो.।
यह
भी बड़ा सोचने
जैसा है।
राजनीतिज्ञ
प्रेम की
कुर्बानी दे
सकता है; राजधानी
में आग लगी हो,
इसकी
कुर्बानी
नहीं दे सकता।
भागा लंका की
तरफ, भूल
गया सीता और
सब और यह
प्रेम और यह
सब उपद्रव।
क्योंकि
राजनीतिज्ञ
प्रेम की कुर्बानी
दे सकता है, पद की
कुर्बानी
नहीं दे सकता।
इसलिए तुम
राजनीतिज्ञों
को हमेशा
पाओगे कि अगर
उनको पत्नी का
त्याग करना
पड़े, वे
तैयार हैं।
अगर विवाह न
कर पाएं, तो
तैयार। लेकिन
उनका स्वयंवर
पद से है।
अन्यथा
रावण ने कहा
होता, हो जाए; जल जाए लंका।
अगर सच में ही
प्रेम होता
सीता के प्रति।
लेकिन हृदय
होता ही नहीं
राजनीतिज्ञ
के पास, प्रेम
कहां से होगा!
वह तो जीतने
आया था। इसको
भी एक जीत
बनाने आया था।
इसको भी, अपने
जीत के जो
हजार चांद थे,
उसमें एक
चांद और जोड़
देना था, कि
सीता को भी
जीत लाया।
जैसे— लोग
ट्राफी जीत
लाते हैं।
सीता एक
ट्राफी थी, जिसको वह
बैंड—बाजे
बजाकर लंका
में ले जाता
और कहता कि
देखो, इसको
भी जीत लाया।
रानियां उसके
पास और भी
बहुत थीं। कुछ
रानियों की
कमी न थी। कोई
सीता से सुंदर
कम थीं, ऐसा
भी न था। भरा—पूरा
रनिवास था।
कोई सीता से
लेना—देना न
था। अन्यथा वह
कहता कि ठीक।
भाग
गया। वह
देवताओं की
साजिश थी, सत्व
का षड्यंत्र
था कि इस
राजसी
व्यक्ति को हटा
लिया जाए।
सीता राम के
योग्य थी, राम
के लिए थी।
सत्व का सत्व
से मिलन हो
सके, इसलिए
देवताओं ने
व्यवस्था की।
यह
रावण राक्षस
है। इससे तुम
यह मत समझना
कि राक्षस कोई
जाति है
मनुष्यों की।
राक्षस गुण है, वह
राजनीतिज्ञ
का नाम है; पद—लोलुप
का नाम है।
राजस
पुरुष यक्ष और
राक्षसों को
पूजते हैं.......।
वे
उनको पूजते
हैं,
जिनके पास
शक्ति है, या
जिनके पास पद
है, या
जिनके पास धन
है। कुबेर
यक्ष है।
कुबेर का अर्थ
है, जिसके
पास सब से बड़ा
धन है सारे
जगत में। जो
खजांची है
स्वर्ग के
देवताओं का, ट्रेजरर, कुबेर, वह
यक्ष है। तो
या तो धन की
पूजा है या पद
की पूजा है।
लेकिन दोनों
ही पूजा के
पीछे शक्ति की
पूजा है।
अगर
ऐसा व्यक्ति
देवी—देवताओं
की भी पूजा
करता है, तो भी
शक्ति के लिए
ही करता है।
वह मलता है, और दो शक्ति!
ऐसी शक्ति दो
कि सब को
पराजित कर दूं!
मैं पराजित न
हो पाऊं, अपराजेय
हो जाऊं! राजस
शक्ति की मांग
करता है।
और
अन्य जो तामस
पुरुष हैं, वे
प्रेत और
भूतगणों को
पूजते हैं।
फिर तीसरा
वर्ग है तमस
से भरे लोगों
का। उनकी आकांक्षा
इतनी ही है कि
उनका आलस्य
अखंडित रहे।
कोई उन्हें
जगाए न; उनकी
आकांक्षाएं
कोई और पूरा
कर दे; वे
पड़े रहें। वे
अपनी
मूर्च्छा में
सोए रहें, वे
शराब पीए रहें,
वे नींद में
डूबे रहें, वे प्रमाद
में रहें; कोई
और पूरा कर दे
उनकी जरूरतों
को। तो भूत और
प्रेत।
भूत—प्रेत
से अर्थ है, ऐसे
लोग जो खुद भी
तमस—प्रधान
हैं. ऐसी
आत्माएं जो
खुद भी तमस—प्रधान
हैं। वे इनकी
पूर्ति करती
रहती हैं। इस
तरह के लोग
हैं। तुम्हें
वेश्या के घर
ले जाने वाला
एक एजेंट भी
होता है, वह
भूत—प्रेत है।
तुम्हें धन की
ओर लगाने वाला,
जुआ खिलाने
वाला भी होता है।
तुम्हें
लाटरी में दाव
लगाने की
उत्सुकता पैदा
करवाने वाला,
टिकट बेचने
वाला भी होता
है। वे
तुम्हारे
आलस्य को' बढ़ाते
हैं। वे कहते
हैं, हम कर
देंगे; तुम
मजे से सोए
रहो, तुम
जरा—सा इतना
सहारा दे दो, सब ठीक हो
जाएगा।
ठीक
वैसी ही
व्यवस्था
आत्माओं की भी
है। जैसे ही
शरीर छोड़ती
हैं आत्माएं...।
तीन तरह की
आत्माएं हैं, क्योंकि
तीन तरह के
गुण हैं।
प्रेत को तुम
राजी कर सकते
हो।
तुममें
से बहुत—से
प्रेत को ही
राजी करने को
उत्सुक हैं।
कोई तुम्हें
ताबीज दे दे, जिससे
बीमारी ठीक हो
जाए; कोई
तुम्हें भभूत
दे दे, जिससे
खजाना मिल जाए।
तुम्हारी आकांक्षा
ऐसी है, तुम्हें
कुछ न करना
पड़े, तुम
ऐसे आलस्य में
पड़े रहो, खजाने
तुम्हारी तरफ
आते जाएं।
प्रेत उत्सुक
कर लेते हैं
ऐसे लोगों को।
वे जीवित भी
हैं, शरीर
में भी हैं, और शरीर के
बाहर भी हैं।
तुम्हारी
श्रद्धा
तुम्हें ले
जाती है। तुम
जाते हो साधु—संतों
के पास, लेकिन
हो सकता है, तुम साधु—संतों
के पास जा ही न
रहे हो।
तुम्हारी
श्रद्धा पर
निर्भर है। हो
सकता है, तुम
साधु के पास
जा रहे हो कि
उसके पास जाने
से धन की
वर्षा हो
जाएगी।
एक
आदमी, मैं
दिल्ली से
बंबई आ रहा था,
हवाई जहाज
पर मुझे मिल
गए। मेरे पास
ही बैठे थे।
उन्होंने कहा
कि बड़ी कृपा
हो गई, यह
मौका मिल गया,
संयोग। बस,
आपका
आशीर्वाद
चाहिए। मैंने
कहा कि ठीक; इसमें भी
क्या कोई नहीं
करता है, आशीर्वाद
देने में।
पंद्रह
दिन बाद वे
जबलपुर
पहुंचे मुझसे
मिलने। पैर पर
गिर पड़े, और
कहने लगे, गजब
हो गया आपके
आशीर्वाद से।
मैंने कहा, क्या हुआ? मुझको मत
फंसाना। वह
आशीर्वाद
मैंने
तुम्हें दिया, यह भी पक्का
नहीं है।
सिर्फ न कहना
भद्दा लगेगा,
इसलिए मैं
चुप रहा। हुआ
क्या?
उसने
कहा,
अब आप कुछ
भी कहो। मैं
मुकदमा जीत
गया। दस लाख
रुपए मुकदमे
में जीतने से
मिल रहे हैं।
और सच बात यह
है कि जीतना
मुझे था नहीं;
नियमानुसार
मुझे हारना
चाहिए था। वह
दावा मेरा गलत
था, लेकिन
आपकी कृपा!
मैंने कहा कि
तुम मुझे मत
फंसाओ!
अब
यह आदमी
आशीर्वाद
मांग रहा है; एक
गलत मुकदमा है,
वह जीतने की
आकांक्षा है।
यह आदमी संत
के पास पहुंच
ही नहीं सकता।
यह जहां भी
जाएगा, इसकी
श्रद्धा ही
इसको खराब
करती रहेगी।
लोग
मुझसे
आशीर्वाद तब
से मलते हैं, तो
मैं पूछता हूं
पहले बता दो, तुम्हारा
इरादा क्या है?
तुम किसी
भूत—प्रेत की
तलाश में तो
नहीं हो? नहीं
तो पीछे तुम
मुझे फसाओगे।
क्या
है तुम्हारी आकांक्षा? किसलिए
आशीर्वाद
चाहते हो? तुम
क्या मांगते
हो, वह
तुम्हारे
अंतःकरण की
श्रद्धा से
उपजता है।
कृष्ण
कहते हैं, ऐसे
तीन तरह के
लोग हैं। तुम
जरा अपनी खोज
करना, तुम
किस तरह के हो।
तुम्हें
भीड़ दिखाई
पड़ेगी
साईंबाबा के
पास। वह भीड़
उनकी है, जो
भूत—प्रेत की
तलाश कर रहे
हैं। क्योंकि
ऐसे ही लोग
चमत्कृत हो
सकते हैं इस
बात से कि हाथ
से घड़ी निकल
आई। तुम किसी
जादूगर को खोज
रहे हो, मदारी
को खोज रहे हो
कि संत को खोज
रहे हो? कि
हाथ से राख
गिर गई और हाथ
बिलकुल खाली
था; कि हाथ
से शंकरजी की
पिंडी निकल आई।
तुम पागल हो
गए हो! और
कितनी ही पिंडी
निकल आएं
शंकरजी की, क्या होगा?
और
कितनी घड़िया
निकालते हैं!
और बड़े मजे की
बात है, स्विस
मेड घड़ियां
निकलती हैं।
दो ही उपाय
हैं। या तो
बाजार से
खरीदी जाती
हैं। नहीं तो
स्वर्ग मेड
होतीं! स्विस
मेड! और या फिर
भूत—प्रेत लगा
रखे हैं, जो
चोरी करके ले
आते हैं। दोनों
हालत में
नाजायज बात है।
सब
घड़िया बाजार
से खरीदी जा
रही हैं।
साईंबाबा
एक घर में
बंबई मेहमान
होते थे, पारसी
घर में। वह
महिला मेरे
पास आई। और
उसने कहा, मेरी
आंखें खुल गईं।
लेकिन अब मैं
दूसरों को
समझाती हूं वे
मेरी सुनते
नहीं। मेरे ही
घर में रुकते
थे और मैंने
ही दूसरे
पारसियों में
उनका नाम
प्रचारित
किया। और
जिनमें मैंने
नाम प्रचारित
किया, वे
भी मेरी अब
नहीं सुनते
हैं।
मैंने
पूछा, हुआ
क्या? उसने
कहा, बड़ी
उलझन की बात
हो गई। पिछली
बार जब वे
जाने लगे, तो
एक बैग भूल से
छूट गया, उसमें
सात सौ घड़ियां
थीं। तब मेरी
आख खुली कि
घड़ियां कहां
से निकलती हैं!
अब मैं लोगों
को समड़ाती हूं
तो साईंबाबा
ने उन लोगों
को कह दिया है
कि मेरे
विपरीत अशुभ शक्तियां
काम कर रही
हैं।
उन्होंने
उसका मन
भ्रष्ट कर
दिया है। अशुभ
शक्तियां, शैतान
काम कर रहा है।
और उसी शैतान
ने वह बैग और
घड़ियां घर में
रख दीं, ताकि
उसकी श्रद्धा
उठ जाए। और
लोग मानते हैं
कि साईंबाबा
ठीक कह रहे
हैं और यह
बुढ़िया गलत कह
रही है।
लोगों
की श्रद्धा, लोग
मानना चाहते
हैं, इसलिए
मानते हैं।
लोग चमत्कार
चाहते हैं, क्योंकि
उनकी वासना
चमत्कार से ही
तृप्त हो सकती
है। आलसी हैं।
घड़ी पानी हो
सौ रुपये की, तो कौन—सी
मुश्किल है!
थोड़ी—सी मेहनत
करो और सौ
रुपये की घड़ी
मिल जाती है।
उसके लिए सत्य
साईंबाबा के
होने की कोई
आवश्यकता ही
नहीं है।
लेकिन आलसी
उतनी मेहनत भी
नहीं करना
चाहता। वह
चाहता है, कोई
पैदा कर दे
घड़ी।
फिर
भरोसा भी आता
है कि जो घड़ी
पैदा करता है, अगर
चाहे तो
घड़ियाल भी
पैदा कर सकता
है। जो इतनी
सी चीज पैदा
कर देता है, वह बड़ी भी
चीज पैदा कर
सकता है। है
तो चमत्कारी,
अब कृपा की
जरूरत है। तो
आज घड़ी पैदा
की, कल
घड़ियाल पैदा
करेगा; आज
जरा—सी राख दी,
कल देखना
अमृत दे देगा।
आकांक्षा
बढ़ती चली जाती
है।
तुम
जब तक मांगते
हो,
तब तक तुम
संत के पास न आ
सकोगे।
देवों
की पूजा वे
लोग करते हैं, जो
धन्यवाद देने
आते हैं; जो
अहोभाव प्रकट
करने आते हैं;
जो कहते हैं,
इतना मिला
है वैसे ही कि
उसका धन्यवाद
देने आए हैं।
संतों के निकट
वे ही लोग
पहुंच पाते
हैं, जो
सिर्फ अहोभाव
प्रकट करने
आते हैं। नहीं
तो तुम राजसी
पुरुषों के
पास पहुंचोगे
या तुम तामसी
पुरुषों के
पास पहुंचोगे।
कहां
तुम जाते हो, ठीक
से पहचानना।
अगर तुम्हें
हिंदुस्तान
भर के तामसी
इकट्ठे देखने
हों, तो
सत्य
साईंबाबा के
पास मिल
जाएंगे। अलग—
अलग खोजने की
जरूरत नहीं है।
तुम अकारण
कहीं नहीं
जाते हो।
तुम्हारी
श्रद्धा ही
तुम्हें कहीं
ले जाती है।
आज
इतना ही।
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