अध्याय—16
सूत्र:
अत्मसंभाविता:
स्तब्धा
धनमानमदान्विता:।
यजन्ते
नामयज्ञैस्ते
दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।
17।।
अहंकारं
बलं दर्प कामं
क्रोध च संश्रता:।
मामत्मपरहेहेषु
प्रद्धईषन्तोऽभ्यसूक्का:।।
18।।
तानहं
द्विषत:
क्रूरान्संसारेषु
नराधमान्।
क्षियाम्यजस्रमशुभानासुरीष्येव
योनिषु।। 19।।
आसुरी
योनिमापन्ना
मूढा जन्मनि
जन्मनि।
मामाप्राप्यैव
कौन्तेय ततो
यान्त्यधमां
गतिम्।। 29।।
वे
अपने आपको ही
श्रेष्ठ
मानने वाले
घमंडी पुरुष
बन और मान के
मद से युक्त
हुए, शास्त्र—
विधि से रहित
केबल
नाममात्र के
यज्ञों
द्वारा पाखंड
से यजन करते
हैं।
तथा वे
अहंकार, बल,
धमंड,
कामना और
क्रोधादि के परायण
हुए एंव
दूसरों की
निंदा करने
वाले पुरुष अपने
और दूसरों के
शरीर में
स्थित मुझ
अंतर्यामी से
द्वेष करने
वाले हैं। ऐसे
उन द्वेष करने
वाले पापाचारी
और
क्रूरकर्मी
नराधमों को
मैं संसार में
बारंबार
आसुरी
योनियों में
ही गिरता हूं।
इसलिए
हे अर्जुन, वे मूढ
पूरूष जन्म—
जन्म में
आसुरी योनि को
प्राप्त हुए, मेरे को न
प्राप्त होकर, उससे भी अति
नीच गति को ही
प्राप्त होते
हैं।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : कल
कहा गया कि
दुनिया में
अच्छाई और
बुराई का
संतुलन है। ये
दोनों सदा ही
सम परिमाण हैं।
एक बुरा मिटता
है, तो
अच्छा भी कम
होता है। अगर
इस संतुलन में
कभी बदल होने
वाला नहीं है,
तो साधना का
प्रयोजन क्या
है?
प्रश्न
महत्वपूर्ण
है। साधकों को
गहराई से
सोचने जैसा है।
साधना
के संबंध में
हमारे मन में
यह भांति होती
है कि साधना
भलाई को बढ़ाने
लिए है। साधना
का कोई संबंध
भलाई को बढ़ाने
से नहीं है; न साधना
का कोई संबंध
बुराई को कम
करने से है।
साधना का
संबंध तो
दोनों का
अतिक्रमण, दोनों
के पार हो
जाने से है।
साधना न तो
अंधेरे को
मिटाना चाहती
है, न
प्रकाश को
बढ़ाना चाहती
है। साधना तो
आपको दोनों का
साक्षी बनाना
चाहती है।
इस जगत
में तीन दशाएं
हैं। एक बुरे
मन की दशा है, एक अच्छे
मन की दशा है
और एक दोनों
के पार अमन की,
नो—माइंड की
दशा है। साधना
का प्रयोजन है
कि अच्छे—बुरे
दोनों से आप
मुक्त हो जाएं।
और जब तक
दोनों से
मुक्त न होंगे,
तब तक
मुक्ति की कोई
गुंजाइश नहीं।
अगर आप
अच्छे को पकड़
लेंगे, तो अच्छे से
बंध जाएंगे।
बुरे को छोड़ेंगे,
बुरे से
लड़ेंगे, तो
बुरे के जो
विपरीत है, उससे बंध
जाएंगे।
चुनाव है; कुएं
से बचेंगे, तो खाई में
गिर जाएंगे।
लेकिन अगर
दोनों को न
चुनें, तो
वही परम साधक
की खोज है कि
कैसे वह घड़ी आ
जाए, जब
मैं कुछ भी न
चुनूं,
अकेला मैं ही
बधू; मेरे
ऊपर कुछ भी
आरोपित न हो।
न मैं बुरे
बादलों को
अपने ऊपर ओढु
न भले बादलों
को ओढूं। मेरी
सब ओढ़नी
समाप्त हो जाए।
मैं वही बचूं
जो मैं निपट
अपने स्वभाव
में हूं।
यह जो
स्वभाव की सहज
दशा है, इसे न तो आप
अच्छा कह सकते
और न बुरा। यह
दोनों के पार
है, यह
दोनों से
भिन्न है, यह
दोनों के अतीत
है।
लेकिन
साधारणत:
साधना से हम
सोचते हैं, अच्छा
होने की कोशिश।
उसके कारण हैं,
उस भ्रांति
के पीछे लंबा
इतिहास है।
समाज की आकांशा
आपको अच्छा
बनाने की है।
क्योंकि समाज
बुरे से पीड़ित
होता है, समाज
बुरे से परेशान
है। इसलिए
अच्छा बनाने
की कोशिश चलती
है। समाज आपको
साधना में ले
जाना नहीं
चाहता। समाज
आपको बुरे
बंधन से हटाकर
अच्छे बंधन
में डालना
चाहता है।
समाज
चाहता भी नहीं
कि आप परम
स्वतंत्र हो
जाएं, क्योंकि
परम स्वतंत्र
व्यक्ति तो
समाज का शत्रु
जैसा मालूम
पड़ेगा। समाज
चाहता है, रहें
तो आप परतंत्र
ही; पर
समाज जैसा
चाहता है, उस
ढंग के
परतंत्र हों।
समाज आपको
अच्छा बनाना
चाहता है, ताकि
समाज को कोई
उच्छृंखलता, कोई
अनुशासनहीनता,
आपके
द्वारा कोई
उपद्रव, बगावत,
विद्रोह न
झेलना पड़े।
समाज
आपको धार्मिक
नहीं बनाना
चाहता, ज्यादा से
ज्यादा नैतिक
बनाना चाहता
है। और नीति
और धर्म बड़ी
अलग बातें हैं।
नास्तिक भी
नैतिक हो सकता
है, और
अक्सर
जिन्हें हम
आस्तिक कहते
हैं, उनसे
ज्यादा नैतिक
होता है।
ईश्वर के होने
की कोई जरूरत
नहीं है आपके
अच्छे होने के
लिए; न
मोक्ष की कोई
जरूरत है।
आपके अच्छे
होने के लिए
तो केवल एक
विवेक की जरूरत है।
तो नास्तिक भी
अच्छा हो सकता
है,
नैतिक हो
सकता है।
धर्म
कुछ अलग ही
बात है। धर्म
का इतने से
प्रयोजन नहीं
है कि आप चोरी
नहीं करते।
नहीं करते, बड़ी
अच्छी बात है।
लेकिन चोरी न
करने से कोई
मोक्ष नहीं
पहुंच जाता है।
जब चोरी करने
वाले को कुछ
नहीं मिलता, तो चोरी से
बचने वाले को
क्या मिल
जाएगा! जब धन
इकट्ठा करने
वाले को कुछ
नहीं मिलता, जब धन
इकट्ठा कर—करके
कुछ नहीं
मिलता, तो
धन छोड्कर
क्या मिल
जाएगा! अगर धन
इकट्ठा करने
से कुछ मिलता
होता, तो
शायद धन छोड़ने
से भी कुछ मिल
जाता। जब काम—
भोग में डूब—डूबकर
कुछ नहीं
मिलता, तो
उनको छोड़ने से
क्या मिल
जाएगा! वह
कचरा है, उसको
छोड्कर मोक्ष
नहीं मिल जाने
वाला है। यह
थोड़ा कठिन है
समझना।
एक
बात ध्यान
रखें, जिस चीज
से लाभ हो
सकता है, उससे
हानि हो सकती
है। जिससे
हानि हो सकती
है, उससे
लाभ हो सकता
है। लेकिन जिस
चीज से कोई
लाभ ही न होता
हो, उससे
कोई हानि भी
नहीं हो सकती।
अगर धन के
इकट्ठा करने
से कोई भी लाभ
नहीं होता, तो धन के
इकट्ठा करने
से कोई हानि
भी नहीं हो सकती।
धार्मिक
व्यक्ति धन के
इकट्ठा करने
को मूढ़ता मानता
है,
बुराई नहीं।
वह बाल—बुद्धि
है। धर्म
कामवासना में
डूबे व्यक्ति
को पापी नहीं
कहता, सिर्फ
अज्ञानी कहता
है। उसे पता
नहीं कि वह
क्या कर रहा
है। तो धर्म
की कोई इच्छा
नहीं 'है
कि आप, जिन—जिन
चीजों को समाज
बुरा कहता है,
उन्हें छोड़
देंगे, तो
आप मुक्त हो
जाएंगे।
सज्जन पुरुष
हमारे बीच हैं,
फिर भी
मोक्ष उनसे
उतना ही दूर
है, जितना
दुर्जन से, उस दूरी में
कोई फर्क नहीं
पड़ता। मोक्ष
की दूरी में
तो तभी कमी
होनी शुरू
होती है, जब
आप न दुर्जन
रह जाते, न
सज्जन, न
साधु, न
असाधु; क्योंकि
इन दोनों का
द्वंद्व है।
और जब तक
द्वंद्व नहीं
टूटता, तब
तक परमहंस
अवस्था नहीं
आती।
साधना
का प्रयोजन है, परमहंस
अवस्था आ जाए।
इससे हमें डर
भी लगता है।
क्योंकि अगर
कोई व्यक्ति
बुराई— भलाई
दोनों छोड़ दे,
जैसे ही हम
यह सोचते हैं,
तो हमें डर
लगता है कि वह
आदमी बुरा हो
जाएगा।
अगर
आपसे कहा जाए
कि बुराई—
भलाई दोनों
छोड़ दो, तो
आपके मन में
तत्क्षण बुरे
करने के विचार
आएंगे। भलाई
तो छोड़ना
बिलकुल आसान
है। उसको तो
कभी पकड़ा ही
नहीं है, इसलिए
छोड़ने का कोई
प्रश्न नहीं
है। आपको अगर
पता चले कि
दोनों बेकार
हैं, तो आप
तत्क्षण
बुराई करने
में लग जाएंगे।
उस खुद की मनोदशा
के कारण, धर्म
की यह जो परम
आत्यंतिक
धारणा है, दोनों
के पार हो
जाना, उससे
हमें भय लगता
है।
लेकिन
अगर आप
समझेंगे
साधना का अर्थ, साधना
का अर्थ है, धीरे—धीरे
बाहर से भीतर
की तरफ जाना।
अच्छाई
भी बाहर है, बुराई
भी बाहर है।
अगर आप चोरी
करते हैं, तो
भी आपके
अतिरिक्त
किसी और का
होना जरूरी है।
अकेले आप कैसे
चोरी करिएगा?
अगर इस
पृथ्वी पर आप
अकेले रह जाएं,
सारा समाज
नष्ट हो जाए; युद्ध हो
जाए तीसरा, सब नष्ट हो
जाएं, आप
भर अकेले बचें;
आप चोरी कर
सकिएगा फिर? किसकी चोरी
करिएगा? चोरी
का अर्थ ही
क्या होगा?
अगर
आप अकेले हैं, तो
चोरी नहीं कर
सकते। अगर
अकेले हैं, तो दान कर
सकिएगा? दान
के लिए भी
दूसरे की जरूरत
है। तो चोरी
हो या दान, नीति
हो या अनीति, पुण्य हो या
पाप, ये सब
बाहर की
घटनाएं हैं।
लेकिन सारी
दुनिया नष्ट
हो जाए और आप
अकेले बचें, तो भी ध्यान
कर सकते हैं।
ध्यान का
दूसरे से कुछ
संबंध नहीं है।
ध्यान आंतरिक
घटना है।
इसलिए ध्यान
भीतर ले जाता
है।
पुण्य
भी बाहर
भटकाता है, पाप
भी बाहर
भटकाता है।
अच्छाई भी
बाहर, बुराई
भी बाहर।
अच्छाई भी
समाज में, बुराई
भी समाज में।
उन दोनों का
कोई अंतस्तल
से संबंध नहीं
है।
साधना
का अर्थ है, ध्यान।
साधना का अर्थ
है, अंतर्मुखता।
साधना का अर्थ
है, उसे
मैं जानूं जो
मैं अपनी
निजता में हूं;
जिसका
दूसरे से
संबंधित होने
का कोई संबंध
नहीं है।
साधना का
संबंध
रिलेशनशिप, संबंधों से
जरा भी नहीं
है। साधना का
संबंध है
स्वयं से; मैं
उसे जान लूं
जो मैं हूं।
तो
न तो चोरी
करके कोई उसे
जान पाता है, न
चोरी छोड्कर
कोई उसे जान
पाता है। चोर
भी भटकते हैं,
जो चोरी
नहीं .करते, वे भी भटकते
हैं। न तो
बुरा करके उसे
कोई कभी जाना
है, न भला
करके कभी कोई
उसे जाना है।
उसे जानने
वाले को तो
सभी करना छोड़
देना पड़ता है,
बुरा भी, भला भी। उसे
तो भीतर
अक्रिया में
डूब जाना पड़ता
है। उसे तो
बाहर से आख ही
बंद कर लेनी
पड़ती है।
उसके
लिए कामवासना
भी व्यर्थ है, उसके
लिए
ब्रह्मचर्य
भी दो कौड़ी का
है। क्योंकि
ब्रह्मचर्य
और कामवासना
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। वे
अलग—अलग बातें
नहीं हैं।
आपको
ब्रह्मचर्य
मूल्यवान
दिखाई पड़ता है,
क्योंकि
कामवासना में
आपको रस है।
जिस दिन
कामवासना में
कोई रस न रह
जाएगा, उस
दिन
ब्रह्मचर्य भी
दो कौड़ी का है,
उसका भी कोई
मूल्य नहीं है।
द्वंद्व
से कोई संबंध
नहीं है। और
जगत एक संतुलन
है। जगत में
बुराई और भलाई
सदा संतुलित
है। साधना तो
जगत के पार
उठने की
प्रक्रिया है।
लेकिन यह खयाल
में तभी आएगा, जब
थोड़ा—सा अनुभव
करेंगे।
अभी
तो हम कामों
में ही चुनते
हैं। यह काम
बुरा है, छोड़
दें। यह काम
भला है, कर
लें। अभी
एक्शंन पर, कर्म पर ही
हमारा जोर है।
वह जो कर्मों
के पीछे छिपा
हुआ हमारा
स्वभाव है, उस पर हमारा
कोई जोर नहीं
है।
उसे
जान लें, जो
बुरा भी करता
है और भला भी करता
है। उसे जान
लें, जो
दोनों के पीछे
छिपा है। उसे
जान लें, जो
सब करके भी
अकर्ता है।
उसे जान लें, जो सबका
द्रष्टा है।
उससे कोई लेना—देना
नहीं है आपके
कर्म का। आप
सुबह पूजा
करते हैं, प्रार्थना
करते हैं, स्नान
करते हैं कि
नहीं करते हैं,
मंदिर में
जाते हैं कि
मस्जिद में—इससे
कोई संबंध
नहीं है।
मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि आप
मंदिर मत जाएं।
और मैं यह भी
नहीं कह रहा
हूं कि आप
अच्छाई मत करें।
मैं सिर्फ
इतना ही कह
रहा हूं कि
करने के पार जाना
पड़ेगा, तभी
धर्म से संबंध
जुड़ेगा। वह
अर्जुन भी इसी
द्वंद्व से
ग्रस्त है।
उसका भी सवाल
क्या है? उसकी
भी चिंता क्या
है? उसकी
उलझन क्या है?
यही
उलझन है। वह
देखता है कि
यह जो युद्ध
है,
बुराई है।
इसमें सिर्फ
लोग मरेंगे, सिर्फ हत्या
होगी, खून
बहेगा। न
मालूम कितनी
स्त्रियां
विधवा हो
जाएंगी। न
मालूम कितने
बच्चे अनाथ हो
जाएंगे। घर—घर
में दुख और
हाहाकार छा
जाएगा। यह
बुरा है।
तो
वह कृष्ण से
यही कह रहा है
कि इस बुराई
को मैं छोड़
दूं। यह बुराई
करने जैसी
नहीं लगती।
इससे तो अच्छा
है कि मैं
जंगल चला जाऊं, संन्यास
ले लूं विरक्त
हो जाऊं, छोड़
दूं सब। बुराई
को छोड़ दूं
अच्छाई को पकड़
लूं। और कृष्ण
उसे क्या समझा
रहे हैं? इसलिए
कृष्ण का
संदेश सरल
होते हुए भी
अति कठिन है।
कृष्ण
उसे यह समझा
रहे हैं कि तू
जब तक यह सोचता
है कि यह बुरा
है,
इसे छोड़ यह
भला है, इसे
करूं; तब
तक तू उलझन
में रहेगा। तू
कर्म की धारणा
छोड़ दे। तू यह
भाव छोड़ दे कि
मैं कर्ता हूं।
अगर
तू युद्ध
छोड्कर चला
जाएगा, तो तू
सोचेगा, मैंने
संन्यास किया,
मैंने
त्याग किया, मैंने
वैराग्य किया;
पर कर्म का
भाव तुझे बना
रहेगा। युद्ध
करेगा, तो
तू समझेगा, मैंने युद्ध
किया, मैंने
लोगों को मारा,
या मैंने
लोगों को
बचाया।
दोनों
ही धारणाएं
भ्रांत हैं।
तू करने वाला
नहीं है। करने
की बात तू
विराट पर छोड़
दे। तू सिर्फ
निमित्त हो जा।
तू सिर्फ
विराट को मौका
दे कि तेरे
भीतर से कुछ
कर सके। तू
सिर्फ देखने
वाला बन जा।
तू इस युद्ध
में एक
द्रष्टा हो।
कृष्ण
की पूरी
चेष्टा यही है
कि अर्जुन
बुरे और भले
के द्वंद्व से
छूट जाए, निर्द्वंद्व
हो जाए; दो
के बीच चुने
नहीं, तीसरा
हो जाए; दोनों
से अलग हो जाए।
साधना
का यही
प्रयोजन है।
दूसरा
प्रश्न :
कल
के सूत्र में
आपने कहा कि
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
किसी भी
इंद्रिय का
यदि तीन साल
तक उपयोग न
किया जाए, तो
वह इंद्रिय
क्रियाशील
नहीं रह जाती।
और हम
कामेंद्रिय
का उपयोग बीस—पच्चीस
वर्षो तक भी
नहीं करते, फिर भी हम
खुद को
कामवासना से
मुक्त नहीं
पाते। हम— तो
क्या, तथाकथित
साधु—संन्यासी
कई वर्षो की
साधना के बाद
भी कामवासना
से पीड़ित
दिखाई पड़ते
हैं। क्या यह
सिद्धांत काम—इंद्रिय
पर लागू नहीं
होता?
इस संबंध
में दो—तीन
बातें समझनी
पड़ें।
पहली
बात,
काम—इंद्रिय
आपकी और
इंद्रियों
जैसी ही
इंद्रिय नहीं
है। सच तो यह
है कि काम—इंद्रिय
आपकी सुरभी
इंद्रियों का
केंद्र है, आधार—स्रोत
है। तो और
इंद्रियां
ऊपर—ऊपर हैं, परिधि पर
हैं।
कामेंद्रिय
गहन अंतर में
है, गहरे
में है, जड़
में है।
वृक्ष
की शाखाओं को
हम काट दें, तो
वृक्ष नहीं
मरता; नई
शाखाएं निकल
आती हैं।
वृक्ष की जड़ों
को हम काट दें,
वृक्ष मर
जाता है।
पुरानी
शाखाएं भी जो
हरी थीं, वे
भी सूखकर
समाप्त हो
जाती हैं।
आख
ऊपर है, हाथ
ऊपर है, कान
ऊपर हैं, कामेंद्रिय
बहुत गहरे मैं
है। इसलिए अगर
आप आख का
उपयोग तीन
वर्ष तक न
करें, तो आंखें
क्षीण हो
जाएंगी। कान
का उपयोग न
करें, तो
आप बहरे हो
जाएंगे। हाथ
को न चलाएं, तो हाथ पंगु
हो जाएगा। पैर
का उपयोग न
करें, पैर
पक्षाघात से
भर जाएंगे।
लेकिन
कामेंद्रिय
भिन्न है।
उसके कारण समझ
लें।
आपके
शरीर का
प्रत्येक कण
कामवासना से
निर्मित है।
आख तो छोटा—सा
हिस्सा है, कान
तो छोटी—सी
हड्डियों का
जोड़ है। लेकिन
काम—इंद्रिय
आपके पूरे
शरीर को घेरे
हुए है। वह जो
मां के गर्भ
में पहला अणु
निर्मित हुआ था,
वह
कामवासना से
निर्मित हुआ।
फिर उसी अणु
के विस्तार से
आपका पूरा
शरीर निर्मित
हुआ है। आपका
प्रत्येक अणु
कामवासना से
भरा है।
इसलिए
आख फोड़ लें, कान
तोड़ डालें, हाथ काट
डालें, कामवासना
में अंतर नहीं
पड़ेगा।
जननेंद्रिय
को लोग
कामेंद्रिय
समझ लेते हैं,
उससे भूल हो
जाती है।
जननेंद्रिय
कामेंद्रिय
का शरीर के
ऊपर सिर्फ अभिव्यक्ति
है।
जननेंद्रिय
सिर्फ
कामेंद्रिय
के उपयोग का द्वार
है। लेकिन
आपका पूरा
शरीर
कामवासना है।
इसलिए
जननेंद्रिय
भी काट डालें,
तो भी
कामवासना
नहीं मिटेगी।
कामवासना
तो तभी मिटेगी, जब
आप अपनी आत्मा
को शरीर से
बिलकुल पृथक
अनुभव कर लें।
उसके पहले
नहीं मिटेगी।
अगर शरीर से
रंचमात्र भी
तादात्मय है,
अगर जरा—सा
भी जोड़ है कि
मैं शरीर हूं
तो उतनी
कामवासना
कायम रहेगी।
आख नष्ट हो
जाएगी बड़ी
आसानी से, कामवासना
इतनी आसानी से
नष्ट नहीं
होगी। दूसरी
बात, आप
कामवासना से
पैदा हुए हैं।
आपके पैदा
होने में
कामवासना का
प्रगाढ़ हाथ है।
तो जब तक आप
में जीवन की
आकांक्षा
रहेगी, तब
तक कामवासना
से छुटकारा न
होगा। जब तक
आप चाहते हैं
कि मैं बचूं
जीऊं, रहूं
तब तक आप
कामवासना से
मुक्त न होंगे।
क्योंकि जीवन
पैदा ही
कामवासना से
हुआ है; और
आप जीना चाहते
हैं, तो
कामवासना को
बल मिलता है।
जिस
दिन आपकी
जीवेषणा
छूटेगी, और आप
कहेंगे कि मैं
मिटूं खो जाऊं,
समाप्त हो
जाऊं, वही
मेरा आनंद है;
अब मैं बचना
नहीं चाहता, अब मैं रहना
नहीं चाहता, अब इस देह को
घर नहीं
बनाऊंगा, अब
मैं मुक्त हो
जाना चाहता
हूं सब सीमाओं
से; जिस
दिन जीवन की
जगह मृत्यु
आपका लक्ष्य
हो जाएगी, उस
दिन कामवासना
मिटेगी। उसके
पहले
कामवासना
नहीं मिटेगी।
इसलिए
पच्चीस वर्ष, पच्चीस
जन्म भी
कामवासना को
दबाए रखने से
उसका अंत नहीं
होता। फिर
जितना आप उसे
दबाते हैं, उतनी ही वह
बढ़ती है।
क्योंकि भला
आप कमेंद्रिय
का उपयोग न
करें, जननेंद्रिय
का उपयोग न
करें, लेकिन
चित्त
कामवासना में
लगा ही रहता
है। तो आपका
शरीर तो
संलग्न है।
आप
पच्चीस वर्ष
तक अपने को सब
तरह की कामवासना
से बचा लें, तो
भी ऊपर—ऊपर ही
बचाव हो रहा
है, भीतर
तो मन
कामवासना में
ही चल रहा है।
और वह जो भीतर
कामवासना बह
रही है, चित्त
में जो विचार
चल रहे हैं, वे
कामेंद्रिय
को सजग रखेंगे,
जीवित
रखेंगे।
हालत
तो उलटी है।
अगर आपको
कामवासना का
अतिशय उपयोग
करने दिया जाए, तो
कामवासना मर
भी जाए; उपयोग
न करने दिया
जाए, तो
नहीं मरेगी।
मैं
एक फ्रेंच
चिकित्सक
मोरिस मैक्यू
के संस्मरणों
का एक संकलन
पढ़ रहा हूं आफ
मेन एंड
प्लांट्स।
उसने अपने
संस्मरणों की
एक किताब लिखी
है। वह जड़ी—बूटियों
के संबंध में
बड़े से बड़ा
ज्ञाता है। और
जड़ी—बूटियों
के द्वारा
उसने हजारों
मरीजों को ठीक
किया है। और
दुनिया के बड़े—बड़े
लोग उसे
निमंत्रण
देते रहे हैं।
चर्चिल, बड़े
अभिनेता, बड़े
लेखक, बड़े
कवि, राजा—महाराजा
उससे इलाज
करवाते रहे
हैं। तो उसने
सारे संस्मरण
लिखे हैं।
उसने प्रिंस
अली खां का भी
संस्मरण लिखा
है, आगा
खां के लड़के
का।
प्रिंस
अली खां ने
उसे फोन किया
और कहा कि कुछ निजी
बीमारी है, कुछ
गुप्त बीमारी
है, उसके
लिए तुम्हें
आना पड़े।
प्रिंस अली खां
का निमंत्रण
बड़ी बात है।
चिकित्सक
भागा हुआ उनके
महल पर पहुंचा।
सबको विदा
करके प्रिंस
अली ने अपनी
बीमारी बतानी
शुरू की।
चिकित्सक को
भी लग तो रहा
था कि बीमारी
कामवासना से
संबंधित होगी,
यौन की होगी,
इसलिए इतनी
गुप्तता रखी
जा रही है।
प्रिंस अली
खां ने कहा कि
मेरी
कामवासना
बिलकुल खो गई
है, सुधा
मेरी मर गई है,
मुझे इच्छा
ही नहीं होती।
कुछ करो!
तो
चिकित्सक ने
पूछा कि आप
महीने में
कितनी बार
संभोग करते
हैं?
प्रिंस अली
खां
खिलखिलाकर
हंसने लगा, और उसने कहा,
महीने में!
हर रोज दिन
में तीन बार
करता हूं।
लेकिन इच्छा
बिलकुल मर गई
है। कोई वासना
नहीं पैदा
होती। बस, एक
यांत्रिक
कृत्य की तरह
कर रहा हूं।
अब
यह कोई बीमारी
न हुई। अगर
दिन में कोई
तीन बार संभोग
कर रहा है, तो
इच्छा मर ही
जाएगी। इच्छा
क्या, वह
खुद भी मर
जाएगा जल्दी।
कामवासना
का अगर ज्यादा
उपयोग किया
जाए,
तो मर जाती है।
अगर बिलकुल
उपयोग न किया
जाए, दबाकर
रखा जाए, तो
सजीव रहती है,
जीवित रहती
है। लेकिन न
तो बहुत उपयोग
करने
से
उससे छुटकारा
होता है......।
क्षुधा
मर गई है, लेकिन
और भी गहरी
वासना है कि न
मरे। वासना
क्षीण हो गई
है, लेकिन
भीतर से मन कह
रहा है, इसे
जिलाए रखो, कुछ उपाय
करो।
अक्सर
ऐसा हो जाता
है कि
व्यभिचारियों
की कामवासना
शिथिल हो जाती
है और
ब्रह्मचारियों
की नहीं शिथिल
हो पाती।
क्योंकि
व्यभिचारी तो
अति कर देते
हैं,
थक जाते हैं।
गुरजिएफ
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि काकेशस में
पैदा होने
वाला एक खास
फल उसे बचपन में
बहुत प्रिय था।
इतना ज्यादा
प्रिय था कि
उसकी वजह से
वह अक्सर
बीमार पड़ जाता
था। इतना
ज्यादा खा
लेता था। और
वह
नुकसानदायक
भी था, और बहुत
भारी और वजनी
था।
उसने
लिखा है कि
मेरे दादा ने
मुझे कहा कि
इससे छूटने का
एक ही उपाय है :
एक दिन तू
जितना खा सके
आखिरी दम तक, मौत
करीब मालूम
होने लगे, तब
तक तू इसको
खाता जा।
गुरजिएफ ने
कहा, इससे
कैसे छुटकारा
होगा! बल्कि
उसे रस भी आया कि
बात तो बड़ी
गजब की है।
क्योंकि घर
में सभी उसे
रोकते थे अब
तक कि इसे मत
खाओ, इसे
मत खाओ, यह
ठीक नहीं है, इससे नुकसान
है।
लेकिन
दादा ने जब
कहा,
तो फिर वह
बड़ी मात्रा
में फल जाकर
बाजार से ले आया।
दादा उसके
सामने बैठ गए
और कहा कि तू
खा जितना तुझे
खाना है। वह
खाता गया। वह
थक गया और एक
कौर भी भीतर
ले जाने का
उपाय न रहा।
लेकिन दादा ने
कहा, अभी
भी तू थोड़ा खा
सकता है। तू
और खा ले।
फिर
उसे उल्टियां
होनी शुरू
हुईं, दस्त
लगने शुरू हुए।
वह कोई तीन
महीने बीमार
रहा। लेकिन वह
कहता है, उसके
बाद उस फल में
मेरा कोई रस
नहीं रह गया।
कामवासना
से मुक्त होने
के लिए दमन तो
कतई मार्ग
नहीं है; लेकिन
कामवासना इस
भांति हो जाए
कि आप उससे पीडित
हो उठें, वह
दुख बन जाए
विषाद .हो जाए
तो शायद जागरण
आए। लेकिन
उतने से भी
कुछ न होगा।
क्योंकि फल का
छूट जाना एक
बात है, कामवासना
का छूटना बड़ी
अलग बात है।
फिर थोड़े दिन
में वापस लौट
आएगी। दबाएं
तो बनी रहेगी,
भोगें तो
थोड़े दिन
शिथिल हो
जाएंगे, फिर
वापस लौट आएगी।
कामवासना
से मुक्त होना
हो,
तो दो बातें
मैंने कहीं।
एक तो मैं
शरीर नहीं हूं
यह दृष्टि थिर
हो। दूसरा, जीवन की
मेरी कामना
नहीं।
मृत्यु
कामवासना का
विरोध है।
जन्म
कामवासना से
होता है, मृत्यु
कामवासना का
विरोध है। जिन
साधना—प्रक्रियाओं
ने—जैसे बुद्ध
की साधना—प्रक्रिया
ने—कामवासना
पर अनूठे
प्रयोग किए
हैं, तो
मृत्यु को
उन्होंने
साधना का आधार
बनाया।
बुद्ध
जब किसी
व्यक्ति को
ब्रह्मचर्य
में दीक्षा
देते थे, तो
उससे कहते थे,
तीन महीने
पहले मरघट पर
तू मृत्यु का
ध्यान कर।
एकदम से तो
सुनकर हमें
हैरानी होगी
कि ब्रह्मचर्य
से और मरघट और
मृत्यु का
क्या लेना—देना?
लेकिन
बुद्ध कहते कि
तीन महीने तू
मरघट पर सुबह
से सांझ, रात, जब भी मुरदे
जलते हों, बैठा
रह। तेरा वही
ध्यान—स्थल है।
लाशें आएंगी—बच्चे
आएंगे, जवान—बूढ़े,
सुंदर—कुरूप,
स्वस्थ—
अस्वस्थ—सब
तरह के लोग
आएंगे। बस, तू उनको
देखता रह।
उनकी जलती चिताएं,
उनकी टूटती
हड्डियां, उनके
गिरते सिर, उनका शरीर
हो गया राख, सब खो गया
धुएं में, उसे
तू देखता रह।
तीन महीने
जलती हुई
चिताओं पर
ध्यान कर।
और
मुझे लगता है, यह
बड़ा
मनोवैज्ञानिक
प्रयोग है।
क्योंकि
मृत्यु अगर
बहुत साफ हो
जाए तो कामवासना
तत्क्षण खो
जाएगी। इसे आप
ऐसा समझें कि
एक सुंदरतम
स्त्री खड़ी हो
और आप वासना
से भरे खड़े
हों, उसी
वक्त एक तार
आए कि राज्य
ने तय किया है
कि आज सांझ
आपको फासी लगा
देंगे। सुंदर
स्त्री तत्क्षण
आंखों से खो
जाएगी। शरीर
से वासना का
प्रवाह बंद हो
जाएगा। फिर
कोई कितना ही
समझाए, आपका
रस अब वासना
में नहीं रह
जाएगा। सांझ
मौत आ रही है!
तो
जिस साधक को
कामवासना से
मुक्त होना हो
1 उसे समझना
चाहिए कि यह
क्षण आखिरी है, मौत
दूसरे क्षण हो
सकती है। और
सच भी यही है, मौत दूसरे
क्षण हो सकती
है। जो क्षण
मैं जी रहा
हूं यह आखिरी
है, मौत
आने वाली है, इस शरीर से मैं
टूट जाने वाला
हूं।
जितनी
मौत की धारणा
गहरी हो जाए
और जितना यह शरीर
मैं नहीं हूं
यह प्रतीति
स्पष्ट हो जाए, उतने
ही आप
कामवासना से
मुक्त होंगे।
यह मुक्ति न
तो दमन से
फलित होती है,
न भोग से।
यह मुक्ति समझ
से, अंडरस्टैंडिंग
से फलित होती
है।
पर
यह स्मरण रखें
कि कामवासना
साधारण
इंद्रिय नहीं
है। यह कहना
उचित होगा कि
सभी
इंद्रियों का
केंद्र
कामेंद्रिय
है। आंखें भी
इसीलिए देखती
हैं कि
कामवासना आंखों
के द्वारा रूप
को खोज रही है।
कान इसीलिए
सुनते हैं कि
कामवासना
कानों के द्वारा
ध्वनि को खोज
रही है। संगीत
में इतना रस
आता है, क्योंकि
संगीत कानों
के द्वारा
कामवासना की तृप्ति
है। सौंदर्य
को देखकर—सुंदर
चित्र, सुबह
का उगता सूरज,
पक्षियों
का आकाश में
उड़ना, वृक्षों
पर खिले फूल, एक सुंदर
चेहरा, सुंदर
आंखें, सुंदर
रंग आनंदित
करते मालूम
पड़ते हैं, क्योंकि
आंखों के
द्वारा यह जगत
के साथ संभोग
है। आख रूप को
खोज रही है।
इसलिए
कुरूप
व्यक्ति दिख
जाए,
तो आपकी
वासना
सिकुड़ती है।
कुरूप
व्यक्ति
सामने आ जाए, तो आप आख
फेरकर चल पड़ते
हैं। सुंदर
व्यक्ति
सामने आ जाए, तो आप अपना
होश खो देते
हैं।
तो
आप यह मत
सोचना कि
जननेंद्रिय
से ही कामवासना
प्रकट होती है; सभी
इंद्रियों से
प्रकट होती है।
हाथ से जब आप
कुछ छूना
चाहते हैं, तो हाथ के
माध्यम से
कामवासना
स्पर्श खोज
रही है। यह
पूरा शरीर
कामेंद्रिय
है। इसका रोआं—रोआं
कामवासना से
भरा है।
इसलिए
जब तक शरीर से
तादात्म न छूट
जाए तब तक कामवासना
से छुटकारा
नहीं है। और
कुछ भी आप
करते रहें, तो
उससे सिर्फ
समय व्यय होगा,
शक्ति व्यय
होगी और चित्त
आत्मग्लानि
से भरेगा।
क्योंकि आप
बार—बार तय
करेंगे छोड़ने
का, और
छूटेगा नहीं।
और जब बार—बार
आप असफल होंगे,
छोड़ न
पाएंगे वासना
को, तो
धीरे—धीरे
आपको
आत्मग्लानि
आएगी, आत्म—अविश्वास
आएगा, और
ऐसा लगेगा कि
मैं किसी भी
योग्य नहीं
हूं। मैं
बिलकुल पात्र
नहीं हूं। मैं
पापी हूं
अपराधी हूं।
और
किसी भी
व्यक्ति को, मैं
पापी हूं
अपराधी हूं
ऐसी धारणा
गहरी हो जाए
तो उसके जीवन
में साधना—पथ
अति कठिन हो
जाता है। तो
इस तरह के
छोटे—मोटे
प्रयोग करने
में मत पड़
जाना।
कामवासना से
छूटा जा सकता
है। लेकिन
कामवासना
जीवन—वासना का
पर्यायवाची
है। जब आप
जीवन की वासना
से छूटेंगे......।
इसलिए
बुद्ध ने जगह—जगह
कहा है, जीवेषणा
जब तक है, तब
तक मुक्ति
नहीं है। जब
तक तुम चाहते
हो, मैं
जीऊं!
बुद्ध
के पास लोग
पहुंचते हैं। वे
कहते हैं कि
मान लिया कि
सब इच्छाएं
छोड़ देंगे, शरीर
छूट जाएगा, तो फिर हम
मोक्ष में
बचेंगे या
नहीं? मैं
रहूंगा न? आत्मा
तो बचेगी, शरीर
छूट जाएगा।
और
बुद्ध कहते
हैं कि यह फिर
वही की वही
बात है। तुम
मिटना नहीं
चाहते, तुम
बचना ही चाहते
हो। शरीर मिट
जाए, तो भी
तुम राजी हो।
क्योंकि तुम
देखते हो, शरीर
तो मिटेगा, उसे बचाने
का कोई उपाय
नहीं है। तो
फिर आत्मा ही
बच जाए।
इसलिए
बुद्ध ने एक
अनूठी बात कही
कि कोई आत्मा
नहीं है। इसका
यह अर्थ नहीं
कि आत्मा नहीं
है। यह बात
सिर्फ इसलिए
कही कि वे जो
आत्मा के नाम से
अपने को बचाना
चाहते हैं, वे
उस बचाने की
बात को भी छोड़
दें।
जीवेषणा
वासना है। मैं
जीऊं, यही
हमारा पागलपन
है। और मजा यह
है कि जीकर हम
कुछ पाते भी
नहीं, लेकिन
फिर भी जीना
चाहते हैं।
जीकर कुछ हाथ
में भी नहीं
आता, फिर
भी कैसी ही
कठिनाई हो, तो भी जीना
चाहते हैं।
जीवन को छोड़ने
को हम राजी
नहीं होते।
इस
सूत्र को याद
रख लें, जो
जीवन को छोड़ने
को स्वेच्छा
से राजी है, महाजीवन
उसका हो जाता
है। और जो
जीवन को
दरिद्र की तरह
पकड़ता है, भिखारी
की तरह, उसके
हाथ में कुछ
भी आता नहीं।
सिर्फ
जंजीरें ही
उसके हाथ में
आती हैं।
तीसरा
प्रश्न :
आपने
कहा कि
सृजनात्मकता
दैवी स्वभाव
है और विध्वंस
व विनाश आसुरी
हैं। लेकिन
अस्तित्व में
तो दोनों
प्रक्रियाएं
साथ—साथ चलती
हैं। और सिर्फ
युद्ध में ही
विध्वंस होता
हो,
ऐसा नहीं है।
दैवी विपदाएं
कम विध्वंस
नहीं करती हैं।
दैवी
संपदा
सृजनात्मक है, इसका
यह अर्थ नहीं
कि जो सृजन
करता है वह
मिटाता नहीं।
बनाना हो, तो
मिटाना पड़ता
है। अगर
मूर्ति बनानी
हो, तो
पत्थर को
मिटाना पड़ता
है। अगर वृक्ष
निर्मित करना
हो, तो बीज
को मिटाना
पड़ता है। अगर
परमात्मा को
खोजना हो, तो
अपने को
मिटाना पड़ता
है।
सृजनात्मकता
भी बिना मिटाए
तो नहीं होती।
कुछ मिटता है,
तो कुछ बनता
है। मिटना
बनने का ही
प्रयोग है।
फिर
फर्क क्या हुआ? क्योंकि
दैवी संपदा भी
मिटाती है, आसुरी संपदा
भी मिटाती है।
दोनों में
फर्क क्या है?
फर्क
लक्ष्य का है।
दैवी संपदा
सदा ही बनाने
को मिटाती है।
आसुरी संपदा
सदा ही मिटाने
को मिटाती है।
आसुरी संपदा
बनाती भी है, तो
सिर्फ मिटाने
को।
फर्क
यह है, आसुरी
संपदा अगर
बनाती भी
दिखाई पड़ती हो, तो भी समझना
कि वह मिटाने
को ही बना रही
है। वह बनाना
वैसे ही है, जैसे आप घर
में एक बकरा
पाल लें। और
उसे खूब
खिलाएं, उसकी
सेवा करें, क्योंकि
उसको बलि के
दिन काटना है।
उसकी सेवा भी
चले, धुलाई
भी चले, भोजन
भी चले। ऐसे
बकरे की कोई
इतनी पूजा
नहीं करता, जैसी आप
करें। लेकिन
बलि के दिन
उसको काटकर
फिर भोजन कर
लेना है, वह
तैयारी चल रही
है। आप बना
रहे हैं
मिटाने के लिए।
लक्ष्य
मिटाना होगा, आसुरी
संपदा में।
लेकिन जिसको
मिटाना है, उसे भी
बनाना पड़ता है।
क्योंकि बिना
बनाए
मिटाइएगा
कैसे? दैवी
संपदा में
लक्ष्य होगा
बनाना। अगर
मिटाना भी
पड़ता है, तो
यही नजर होती
है कि बनाएंगे।
अगर नया मकान
बनाना हो, तो
पुराना मकान
गिरा देना
पड़ता है।
पुराने मकान
से जमीन साफ
हो जाए तो नया
बन सके।
सभी
सृजन में
विध्वंस छिपा
है;
सभी
विध्वंस में
सृजन छिपा है।
लक्ष्य का
फर्क है। दैवी
संपदा हमेशा
सोचती है, निर्मित
करने को। अगर
मिटाना भी
पड़ता है, तो
सिर्फ इसीलिए
ताकि कुछ और
श्रेष्ठतर बन
सके। आसुरी
संपदा सदा
सोचती है मिटाने
को। अगर बनाना
भी पड़ता है, तो सिर्फ
इसीलिए कि
बनाएंगे, ताकि
मिटा सकें।
उस
लक्ष्य को
खयाल में रखें, तो
बात आसान हो
जाएगी और ठीक
से समझ में आ
जाएगी। रस
कहां है आपका?
तोड्ने में
रस है कि
निर्माण करने
में रस है?
वही
रस ध्यान में
रहे,
तो फिर आप
कितना ही तोड़े,
हर्ज नहीं।
लेकिन हर
तोड़ना एक कदम
हो बनाने के
लिए। फिर आपके
विध्वंस में
भी सृजन आ गया;
फिर आपके
युद्ध में भी
शाति आ गई; फिर
आप कुछ भी
करें, अगर
यह लक्ष्य सदा
ध्यान में बना
रहे, तो आप
जो भी करेंगे,
वह शुभ होगा।
जगत
द्वंद्व है।
वहां विध्वंस
भी है, निर्माण
भी है। उन
दोनों में
किसको आप ऊपर
रखते हैं, उससे
आपकी संपदा
निर्णीत होगी।
चौथा
प्रश्न :
आपने
कहा कि
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
आप में साध्य
है,
परम मूल्य
है। दैवी
संपदा का यह
सिद्धात अपने
प्रति तो आसानी
से लागू किया
जा सकता है, लेकिन
दूसरों के
प्रति उसे
लागू करना
बहुत कठिन है।
ऐसा क्यों है?
साफ ही
है। अपने
प्रति लागू
करना आसान है, क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति
सोचता है, मैं
साध्य हूं और
सभी मेरे साधन
हैं। लक्ष्य
मैं हूं,
यह पूरा जगत
मेरे लिए है।
आकाश मेरे लिए
चांद—तारे
मेरे लिए
वृक्ष—पौधे, पशु—पक्षी
मेरे लिए। मैं
केंद्र हूं।
यह
तो कोई भी
सोचता है।
इसमें दैवी
संपदा का सवाल
ही नहीं है।
यही तो आसुरी
संपदा का
केंद्र है कि
मैं जगत का
केंद्र हूं सब
कुछ मेरे लिए
घूम रहा है।
मेरे लिए सब
भी मिट जाए तो
भी कुछ हर्ज
नहीं है। मैं
बचूं। सब कुछ
मेरा साधन है, यही
तो आसुरी
संपदा का
केंद्र है।
दैवी
संपदा का
केंद्र यह है
कि दूसरा
लक्ष्य है, दूसरा
साध्य है, उसका
मैं साधन की
तरह उपयोग न
करूं। वह परम
मूल्य है।
उसकी सेवा तो
मैं कर सकता
हूं लेकिन
शोषण नहीं।
अगर जरूरत पड़े
मिटने की, तो
उसके लिए मैं
तो मिट सकता
हूं लेकिन
उसको नहीं
मिटाऊंगा।
कभी—कभी
जीवन के कुछ
क्षणों में
ऐसा आपको लगता
है किसी
व्यक्ति के
संबंध में, उसको
हम प्रेम कहते
हैं। जब आपको
ऐसा सारे जगत
के संबंध में
लगने लगे, तो
उसको हम
प्रार्थना
कहेंगे। कभी
एक व्यक्ति के
संबंध में ऐसा
लगता है कि चाहे
मैं मिट जाऊं,
लेकिन यह
व्यक्ति बचे;
तो वह साध्य
हो गया। मां
मर सकती है
बच्चे के लिए
या पत्नी मर
सकती है पति
के लिए या पति
अपने को खो
सकता है पत्नी
के लिए। कभी
एक व्यक्ति के
साथ आपको
क्षणभर को भी
ऐसा लग जाता
हो कि मैं ना—कुछ, वह सब कुछ; मैं परिधि, वह केंद्र; तो प्रेम
घटा।
इसलिए
प्रेम एक आध्यात्मिक
घटना है। छोटी—सी
घटना है, पर
बड़ी मूल्यवान।
चिनगारी है, सूरज नहीं; लेकिन अग्नि
वही है, जो
सूरज में होती
है। और यह
चिनगारी अगर
फैलने लगे, तो किसी दिन
सूर्य भी बन
सकती है। जिस
दिन ऐसा सारे
जगत के प्रति
लगने लगे, उस
दिन समझना कि
प्रार्थना है।
महावीर
जमीन पर पांव
फूंककर रखते
हैं। चींटी भी
न मर जाए
क्योंकि उसका
भी परम मूल्य है।
चींटी भी
साध्य है, वह
हमारा साधन
नहीं है कि हम
उससे इस तरह
व्यवहार कर
सकें।
कणाद
वृक्षों से फल
तोड़कर नहीं
खाते। जो कण
खेत में अपने
आप गिर जाते
हैं सूखकर, पककर,
उनको बीन
लेते हैं।
इसीलिए उनका
नाम कणाद है; कण—कण बीनकर
जीते हैं।
कच्चे फल को
भी तोड़ते नहीं,
क्योंकि
वृक्ष हमारा
साधन नहीं है।
वृक्ष का अपना
जीवन है।
वृक्ष अपने आप
में मूल्यवान
है। हम उसका
शोषण नहीं कर
सकते। अहिंसा
की धारणा इसी
बात से
निर्मित है।
जीवन में जो
भी परम है, श्रेयस्कर
है, वह सब
इसी विचार से
निकलता हैं।
लेकिन
पहली बात तो
बिलकुल आसान
है। हम सभी को
लगता है कि
मैं ही केंद्र
हूं;
मेरा हित, मेरा
स्वार्थ, मेरा
अहंकार! शेष
सब.......।
मैंने
सुना है, यूनान
में एक सम्राट
ने उन दिनों
यूनान के एक महा
मनीषी सोलन को
अपने राजमहल
बुलाया। सोलन
एक सुकरात
जैसा मनीषी था।
सम्राट ने
बुलाया सिर्फ
इसलिए कि सोलन
की बड़ी ख्याति
थी। उसके एक—एक
शब्द का मूल्य
अकूत था। तो
कुछ उससे
ज्ञान लेने
नहीं बुलाया
था। कुछ उससे
सीखने नहीं
बुलाया था।
सिर्फ सोलन को
बुलाया था कि
देख मेरे महल
को! मेरे
साम्राज्य को!
मेरी धन—संपदा
को! और सम्राट
चाहता था कि
सोलन प्रशंसा
करे कि आप
जैसा सुखी और
कोई भी नहीं
है, तो इस
वचन का मूल्य
होगा। सारा
यूनान, यूनान
के बाहर भी
लोग समझेंगे
कि सोलन ने
कहा है।
सोलन
आया,
महल घुमाकर
दिखाया गया।
अकूत संपदा थी
सम्राट के पास,
न मालूम
कितना उसने
लूटा था।
बहुमूल्य
पत्थरों के
ढेर थे, स्वर्ण
के खजाने थे, महल ऐसा सजा
था, जैसे
दुल्हन हो।
फिर सम्राट
उसे दिखा—दिखाकर
प्रतीक्षा
करने लगा कि
वह कुछ कहे।
लेकिन सोलन
चुप ही रहा। न
केवल चुप रहा,
बल्कि
गंभीर होता
गया। न केवल
गंभीर हुआ, बल्कि ऐसे
उदास हो गया, जैसे सम्राट
मरने को पड़ा
हो और वह
सम्राट को देखने
आया हो। आखिर
सम्राट ने कहा
कि तुम्हारी
समझ में आ रहा
है कि नहीं? मैंने तो
सुना है कि
तुम बड़े
बुद्धिमान हो!
मुझ जैसा सुखी
तुमने कहीं
कोई और मनुष्य
देखा है? मैं
परम सुख को
उपलब्ध हुआ
हूं। सोलन, कुछ बोलो इस
पर!
सोलन
ने कहा कि मैं
चुप ही रहूं
वही अच्छा है, क्योंकि
क्षणभंगुर को
मैं सुख नहीं
कह सकता। और
जो शाश्वत
नहीं है, उसमें
सुख हो भी
नहीं सकता।
सम्राट, यह
सब दुख है।
बड़ा चमकदार है,
लेकिन दुख
है। तुम इसे
सुख समझे हो, तो तुम मूढ़
हो।
सम्राट
को धक्का लगा।
जो होना था, वह
हुआ। सोलन चुप
ही रहता, तो
अच्छा था।
सोलन को उसी
वक्त गोली मार
दी गई। सामने
महल के एक
खंभे से
लटकाकर, बंधवाकर
सम्राट ने कहा,
अभी भी माफी
मांग लो। तुम
गलती पर हो।
अभी भी कह दो
कि सम्राट, तुम सुखी हो।
सोलन
ने कहा, झूठ
मैं न कह
सकूंगा।
मृत्यु में
कुछ हर्जा
नहीं है, क्योंकि
मरना मुझे
होगा ही; किस
निमित्त मरता
हूं यह गौण है।
तुमने मारा, कि बीमारी
ने मारा, कि
अपने आप मरा, यह सब गौण है।
मौत निश्चित
है। झूठ मैं न
कहूंगा।
शाश्वत सुख ही
सुख है।
क्षणभंगुर
सुख दिखाई
पड़ता है, लेकिन
दुख है।
सम्राट! तुम
भूल में हो।
गोली
मार दी गई।
फिर
दस वर्षों बाद, यह
सम्राट
पराजित हुआ।
विजेता ने इसे
अपने महल के
सामने एक खंभे
पर बांधा। जब
वह खंभे पर
लटका था और
गोली मारे
जाने को थी, तब उसे
अचानक सोलन की
याद आई। ठीक
दस वर्ष पहले
ऐसा ही सोलन
खंभे पर लटका
था! तब उसे उसके
शब्द भी सुनाई
पड़े, कि जो
शाश्वत नहीं,
वह सुख नहीं।
जो क्षणभंगुर
है, उसका
कोई मूल्य
नहीं। यह
चमकदार दुख है
सम्राट! उसी
चमकदार दुख को
सुख मानकर यह
सम्राट इस
खंभे पर लटक
गया।
सम्राट
की आंखें बंद
हो गईं। वह
अपने को भूल
ही गया, सोलन
को देखने लगा।
और जब उसे गोली
मारी जा रही
थी, तब
उसके होंठों
पर
मुस्कुराहट
थी। और आखिरी
शब्द जो उसके
मुंह से निकले,
वे यह थे :
सोलन, सोलन,
मुझे क्षमा
कर दो। तुम ही
सही थे।
विजेता
सम्राट सुनकर
चकित हुआ; कौन
सोलन? किसके
वचन सही? और
इस मरते
सम्राट के
होंठों पर
मुस्कुराहट कैसी?
उसने सारी
खोज—बीन करवाई,
तब यह पूरी
कथा पता चली।
वह
जो हमें सुख
जैसा मालूम
होता है, वह
सुख नहीं है।
और वह जो हमें
सुख जैसा
मालूम होता है,
उसके लिए हम
सबको दुख देते
हैं, सब का
साधन की तरह
उपयोग करते
हैं, सब को
चूसते हैं, शोषण करते
हैं।
हमारा
जीवन हमें
इतना मूल्यवान
होता है मालूम
कि अगर सबकी
मृत्यु भी
उसके लिए घट
जाए तो भी कोई
हर्ज नहीं।
अगर हमें
दूसरों के
सिरों पर पैर
रखकर, सीढ़ियां
बनाकर राजमहल
तक पहुंचने का
उपाय हो, तो
हम लोगों के
सिरों का
उपयोग
सीढ़ियों की
तरह करेंगे।
सभी
महत्वाकांक्षी
करते हैं। लोग
उनके लिए
सीढियों से
ज्यादा नहीं
हैं। धन की
यात्रा करता
हो कोई, पद
की यात्रा
करता हो, लोगों
का उपयोग करता
है सीढ़ियों की
तरह। सभी
राजनीतिज्ञ
जानते हैं।
राजनीतिज्ञों
के सबसे बड़े
दार्शनिक
मेक्यावेली
ने लिखा है कि
तुम जिस आदमी
का सीढ़ी की तरह
उपयोग करो, उपयोग
करने के बाद
उसे जिंदा मत
छोड़ना। उसको
काट—पीट डालना।
क्योंकि तुम
उसका सीढ़ी की
तरह उपयोग कर
सके हो, दूसरे
भी उसका सीढ़ी
की तरह उपयोग
कर सकते हैं।
इसलिए
सभी
राजनीतिज्ञ
यही करते हैं।
जिनके कंधे पर
पैर रखकर
राजनीतिज्ञ
पहुंचता है
राष्ट्रपति
या प्रधानमंत्री
के पद पर, पहुंचते
ही उस आदमी को
गिराने में
लगता है।
क्योंकि वह
आदमी खतरनाक
है, उसके
कंधे पर दूसरा
भी कल कोई आ
सकता है। इसके
पहले कि दूसरा
उसके कंधे पर
सवार हो, उसका
विनाश कर देना
जरूरी है। या
उसे उस जगह
पहुंचा देना
जरूरी है, जहां
वह सीढ़ी का
काम न दे सके।
इसलिए
सब
राजनीतिज्ञ, जिन
सीढ़ियों से
चढ़ते हैं, उनको
जला देते हैं।
जिन रास्तों
से गुजरते हैं,
उनको तोड़
देते हैं। जिन
सेतुओं को पार
करते हैं, उनको
गिरा देते हैं,
ताकि दूसरा
पीछे से उन पर
न आ सके। धन की
यात्रा करने
वाला भी वही
करेगा।
महत्वाकांक्षी
अपने को साध्य
मानता है, दूसरे
को साधन।
महत्वाकांक्षी
कभी भी
धार्मिक नहीं
हो सकता।
एंबीशन, महत्वाकांक्षा
इस जगत में
सबसे
अधार्मिक
घटना है।
धर्म
का सूत्र तो
कृष्ण कह रहे
हैं;
वह यह है कि
दूसरा साधन
नहीं है, साध्य
है। दैवी
संपदा का
व्यक्ति
दूसरे को
साध्य मानता है।
कभी जरूरत पड़े,
तो वह सीढ़ी
बन सकता है, लेकिन दूसरे
को सीढ़ी नहीं
बनाएगा। अपने
सुख के लिए
दूसरे के दुख
का सवाल नहीं
है। अगर अपना
सुख दूसरे के
सुख से ही मिल
सकता हो, तो
ही दैवी संपदा
का व्यक्ति उस
सुख को स्वीकार
करेगा।
और
यह समझ लेने
जैसा है कि
अगर आपके सुख
से दूसरा भी
सुखी होता हो, तो
वह सुख आनंद
है। यह आनंद
का फर्क है।
जिस आपके सुख
से दूसरा दुखी
होता हो, वह
आनंद नहीं है।
और वह सिर्फ
दिखाई पड़ता है
सुख है, वह
सुख भी नहीं
है। और एक दिन
आप अनुभव
करेंगे, तब
आपके भीतर से
भी आवाज आएगी
कि सोलन, सोलन,
तू ठीक था।
मुझे क्षमा करना।
मैं गलती पर
हूं। मेरा सुख
अगर आस—पास
सभी का सुख
बनता हो, तो
ही आनंद है।
उसे फिर कोई
भी छीन न
सकेगा।
दैवी
और आसुरी
संपदा, दूसरों
का हम उपयोग
करते हैं, कैसा
उपयोग करते
हैं, इससे
विभाजित होती
है। दैवी
संपदा का
व्यक्ति
दूसरे का
उपयोग ही नहीं
करता, दूसरे
के उपयोग आ
सकता है।
इसलिए
जीसस या उन
जैसे
महाप्रज्ञावान
पुरुषों ने
सेवा को, दूसरे
की सेवा को
धर्म की
आधारशिला
बनाया। उसमें
मूल्य है। उस
बात का इतना
ही मूल्य है
कि दूसरे के
लिए जरूरत पड़े,
तो तुम मिट
जाना, लेकिन
किसी को भी
अपने लिए मत
मिटाना। पूछा
है, यह कैसे
संभव होगा कि
हम दूसरे को
साध्य समझ लें? समझने का
सवाल नहीं है,
यह तथ्य है।
यह वास्तविक
स्थिति है कि
आप केंद्र
नहीं हैं इस
जगत के। आप एक
छोटी—सी लहर
हैं। इस विराट
अस्तित्व में
आप एक छोटा—सा
कण हैं। यह
विराट
अस्तित्व
आपके लिए नहीं
है, आप इस
विराट अस्तित्व
के लिए हैं।
जैसे ही यह
खयाल में आ
जाएगा.....।
और
इसे खयाल में
लाने के लिए
कुछ सोचने की
जरूरत नहीं है, सिर्फ
आख खोलने की
जरूरत है, और
यह दिखाई पड़
जाएगा।
आप
कल नहीं थे, आज
हैं, कल
नहीं हो
जाएंगे। यह
अस्तित्व
आपके पहले भी
था, अब भी
है, आपके
बाद भी होगा।
आप इस
अस्तित्व में
से उठते हैं, इसी
अस्तित्व में
डूब जाते हैं।
यह अस्तित्व
आपसे बड़ा है, विराट है।
आप एक छोटे—से
अंश हैं। अंश
केंद्र नहीं
हो सकता, अंशी
ही केंद्र
होगा। अंश सब
को मिटाकर
अपने को बचाने
की बात सोचे, तो पागलपन
है। यह होने
वाला नहीं है।
वह
खुद ही मिटेगा।
लेकिन यह अंश
अगर अपने को
मिटाकर सारे
को बचाने की
सोचे, तो कभी
भी नहीं
मिटेगा।
क्योंकि
समग्र उसे
स्वीकार कर
लेगा। समग्र
के साथ
आत्मसात और एक
हो जाएगा।
जिनको
हमने भगवत्ता
को उपलब्ध
व्यक्ति कहा है—कृष्ण
को,
बुद्ध को, महावीर कों—उनको
भगवत्ता को
उपलब्ध व्यक्ति
इसीलिए कहा है
कि उन्होंने
अपने अंश को अंशी
में छोड दिया।
अब वे लड़ नहीं
रहे; अब
उनका कोई
विरोध इस जगत
से नहीं है।
इस अस्तित्व
से उनका
रत्तीमात्र
फासला नहीं है।
उन्होंने
अपने को पूरा
इसमें
समर्पित कर
दिया, लीन
कर दिया।
जो
व्यक्ति
स्वयं को
साध्य मानता है, वह
लीन कैसे करे?
समर्पण
कैसे करे? जो
अपने को
निमित्त और
साधन मान लेता
है, वह तत्क्षण
लीन हो जाता
है।
कृष्ण
की पूरी
शिक्षा
अर्जुन को यही
है कि तू निमित्त
बन जा। यह
खयाल ही छोड़
दे कि तू है।
तू यही समझ कि
परमात्मा है
और तू केवल
उसका एक मार्ग
है,
कि जैसे
परमात्मा की
बांसुरी है
दूर परमात्मा
बोल रहा है, उसकी वाणी
है और तू
सिर्फ बांस की
पोली नली है।
तू सिर्फ
मार्ग दे, स्वरों
को बहने दे, अवरोध मत कर।
इसे हम कैसे
उपलब्ध करें?
कैसे
उपलब्ध करने
का सवाल नहीं
है। यह स्थिति
है। थोड़ा—सा
सजग और आख खोलकर
देखने की
जरूरत है। ऐसा
है। जैसे आपकी
दो आंखें हैं, दो
हाथ हैं; आप
आख बंद किए
बैठे हैं और
कहते हैं, मैं
कैसे मानूं कि
मेरे दो हाथ
हैं! तो मैं यह
कहूं आख खोलें
और देखें, दो
हाथ हैं। इसको
मानने की
जरूरत नहीं है,
सिर्फ आख
खोलने की
जरूरत है।
जब
भी आप थोड़ा—सा
देखेंगे
चारों तरफ, तो
यह आपको समझने
में कठिनाई
नहीं होगी कि
आप केंद्र
नहीं हो सकते।
विक्षिप्तता
है यह मानना
कि मैं केंद्र
हूं।
अब
हम सूत्र को
लें।
वे
अपने आपको ही
श्रेष्ठ
मानने वाले
घमंडी पुरुष
धन और मान के
मद से युक्त
हुए,
शास्त्र—विधि
से रहित केवल
नाममात्र
यज्ञों
द्वारा पाखंड
से यजन करते
हैं।
तथा
वे अहंकार, बल,
घमंड, कामना
और क्रोधादि
के पारायण हुए
एवं दूसरों की
निंदा करने
वाले पुरुष
अपने और
दूसरों के शरीर
में स्थित मुझ
अंतर्यामी से
द्वेष करने वाले
हैं।
ऐसे
उन द्वेष करने
वाले
पापाचारी और
क्रूरकर्मी
नराधमों को
मैं संसार में
बारंबार
आसुरी योनियों
में ही गिराता
हूं। इसलिए हे
अर्जुन, वे
मूढ़ पुरुष
जन्म—जन्म में
आसुरी योनि को
प्राप्त हुए,
मेरे को न
प्राप्त होकर,
उससे भी अति
नीच गति को ही
प्राप्त होते
हैं। आसुरी
संपदा के जो
व्यक्ति हैं,
वे अपने
आपको ही
श्रेष्ठ
मानने वाले
हैं। उनके लिए
श्रेष्ठता का
एक ही अर्थ है
कि जो भी मैं हूं, वही
श्रेष्ठता है।
अपना होना
उनकी
श्रेष्ठता की
परिभाषा है।
श्रेष्ठता और
अहंकार में
उन्हें कोई
भेद नहीं है।
नेपोलियन
बोनापार्ट ने
कहा है..। उसने
कुछ कानून
बनाए फिर उनको
बदल दिया, फिर
बदल दिया। तो
उसके
राजमत्रियों
ने कहा कि आप
यह क्या कर रहे
हैं! कानून
थिर होना
चाहिए। और इस
तरह तो
अराजकता हो
जाएगी। तो
नेपोलियन
बोनापार्ट ने
कहा, आइ एम
दि लॉ—और कोई
कानून नहीं है,
मैं कानून
हूं। जो मुझसे
निकलता है, वह कानून है।
कोई कानून
मेरे ऊपर नहीं
है, मैं ही
कानून हूं।
यही
आसुरी संपदा
वाले का
प्राथमिक
लक्षण है, मैं
श्रेष्ठ हूं।
और धन और मान
के मद से
युक्त हुए..।
ऐसे
व्यक्ति अगर
धर्म भी करते
हैं,
तो उनका
धर्म भी धन और
मद का ही मान
होता है। वे
बड़ा मंदिर खड़ा
कर सकते हैं, जो आकाश को
छुए। वे यज्ञ
करवा सकते हैं,
करोड़ों
रुपए उसमें
खर्च कर सकते
हैं। लेकिन यह
भी उनके
अहंकार की ही
यात्रा है।
उनके मंदिर का
अर्थ है, उनसे
बड़ा मंदिर और
कोई खड़ा नहीं
कर सकता। उनके
यश का अर्थ है
कि ऐसा यज्ञ
पृथ्वी पर कभी
हुआ नहीं।
उनका धर्म भी
उनकी
श्रेष्ठता को
ही सिद्धश्करे,
इतना ही उनके
धर्म का
प्रयोजन है।
शास्त्र—विधि
से रहित केवल
नाममात्र
यज्ञों
द्वारा पाखंड
से यजन करते
हैं.......।
वे
अगर शुभ भी
करेंगे, तो
सिर्फ इसलिए
ताकि वे पूजे
जाएं। वे अगर
कुछ भला भी
करेंगे, दान
भी देंगे, तो
सिर्फ इसलिए
ताकि वे जाने
जाएं। उनके
प्रत्येक
कृत्य का
लक्ष्य वे
स्वयं हैं।
तथा
वे अहंकार, बल,
घमंड, कामना
और क्रोधादि
के परायण हुए
एवं दूसरों की
निंदा करने
वाले पुरुष
अपने और
दूसरों के शरीर
में स्थित मुझ
अंतर्यामी से
द्वेष करने वाले
हैं।
परमात्मा
कहीं भी हो, उससे
उन्हें द्वेष
होगा। क्यों?
क्योंकि
परमात्मा की
स्वीकृति, अपने
अहंकार का
खंडन है।
नीत्से
ने अपने एक
वचन में लिखा
है—जब वह पागल
हो गया, तब
उसने अपनी
डायरी में
लिखा है—कि
मैं परमात्मा
को स्वीकार
नहीं कर सकता
क्योंकि अगर
परमात्मा है,
तो फिर मैं
नंबर दो हूं
इसलिए मैं
परमात्मा को
स्वीकार नहीं
कर सकता। नंबर
एक तो मैं ही
हो सकता हूं
और या यह हो
सकता है कि
नंबर एक कोई
भी नहीं है।
लेकिन
परमात्मा
कहीं भी है, तो फिर मैं
पीछे पड़ता हूं।
फिर मेरी
स्थिति नीची
हो जाती है।
इसलिए
परमात्मा को
स्वीकार करना
आसुरी वृत्ति
वाले व्यक्ति
को अति कठिन
है। इसलिए
नहीं कि उसको
पता है कि परमात्मा
नहीं है।
इसलिए भी नहीं
कि तर्कों से
सिद्ध होता है
कि परमात्मा
नहीं है। वह
तर्क भी देगा, वह
सिद्ध भी
करेगा। लेकिन
न तो तर्कों
से सिद्ध होता
है कि परमात्मा
है और न सिद्ध
होता है कि
परमात्मा
नहीं है। इसे
थोड़ा समझ लें।
मनुष्य
की बुद्धि न
तो पक्ष में
कुछ तय कर
सकती है, न
विपक्ष में।
अब तक हजारों—हजारों
तर्क दिए गए
हैं। जितने
पक्ष में हैं,
उतने ही
विपक्ष में।
बराबर संतुलन
है। कोई
आस्तिक किसी
नास्तिक को
राजी नहीं कर
सकता कि ईश्वर
है, और कोई
नास्तिक किसी
आस्तिक को
राजी नहीं करवा
सकता कि ईश्वर
नहीं है।
दोनों बातें
समतुल हैं।
तर्कों से कुछ
सिद्ध नहीं
हुआ है।
.
लेकिन फिर
भी कुछ लोग
मानते हैं कि
ईश्वर है। कुछ
लोग मानते हैं,
नहीं है। तो
किस आधार पर
मानते होंगे,
क्योंकि तर्क
से कुछ भी
सिद्ध नहीं
होता। तब आधार
दूसरे हैं; तब आधार का
कारण आसुरी
संपदा और दैवी
संपदा है।
वे
जो समझते हैं
कि मैं ही
श्रेष्ठ हूं,
मुझसे ऊपर कोई
भी नहीं, वे
परमात्मा को
नहीं मान सकते।
फिर वे तर्क
खोज लेते हैं।
लेकिन वे तर्क
पीछे आते हैं,
वे तर्क
रेशनलाइजेशस
हैं। वह अपनी
ही मानी हुई
बात को सिद्ध
करने का उपाय
है।
और
दूसरे वे लोग
हैं,
जो जानते
हैं कि मैं
कैसे केंद्र
हो सकता हूं! मैं
केवल एक लहर
हूं। वे
परमात्मा को
स्वीकार कर
लेते हैं।
उनकी
स्वीकृति भी
तर्क से नहीं
आती, उनकी
दैवी संपदा से
आती है।
और
इन दोनों के
बीच में अधिक
लोग हैं, जिन्होंने
कुछ तय ही
नहीं किया।
जिनको हम
अधिकतर आस्तिक
कहते हैं, वे
बीच के लोग
हैं; आस्तिक
नहीं हैं।
उन्होंने कभी
ध्यान ही नहीं
दिया कि
परमात्मा है
या नहीं। आप
में से अधिक
लोग उस तीसरे
हिस्से में ही
हैं।
अगर
आप कहते हैं
कि होगा, तो
उसका मतलब यह
नहीं कि आप
मानते हैं कि
ईश्वर है। आप
मानते हैं, सोचने योग्य
भी नहीं है।
लोग कहते हैं;
होगा। और
क्या हर्जा है,
हो तो हो।
और कभी वर्ष
में एकाध बार
अगर मंदिर भी
हो आए तो क्या
बनता—बिगड़ता
है! और
होशियार आदमी
दोनों तरफ कदम
रखकर चलता है।
अगर हो ही, तो
मरने के बाद
कोई झंझट भी
नहीं होगी। न
हो, तो
हमने कुछ उसके
लिए खोया नहीं।
हमने संसार
अच्छी तरह
भोगा। और
मानते रहे कि
परमात्मा है।
हम दोनों नाव
पर सवार हैं।
बहुत
थोड़े—से लोग
हैं,
जो मानते
हैं कि
परमात्मा है।
वे वे ही लोग
हैं, जो
अपने अहंकार
को तोड़ते हैं,
घमंड को
छोड़ते हैं, गर्व को
गिराते हैं।
बहुत लोग हैं,
जो मानते
हैं परमात्मा
नहीं है। उनका
कुल कारण इतना
है कि वे खुद
अपने को साध्य
समझे हैं।
इसलिए अपने से
परम को
स्वीकार करना
उनके लिए आसान
नहीं है। और
अधिक लोग हैं,
जिनको कोई
चिंता ही नहीं
है, जिनको
कोई प्रयोजन
नहीं है, जो
उपेक्षा से
भरे हैं।
इसमें
आप कहा हैं? और
आप जहां भी
होंगे, मजे
की बात यह है
कि वहीं के
लिए आप तर्क
खोज लेंगे।
फ्रायड
ने एक बहुत
बड़ी खोज इस
सदी में की।
और उसने यह
खोज की कि लोग
तय पहले कर
लेते हैं, तर्क
बाद में खोजते
हैं। आप एक
स्त्री के
प्रेम में पड़
जाते हैं। कोई
आपसे पूछे कि
आप प्रेम में
क्यों पड़े हैं
इसके? तो
आप कहते हैं, वह इतनी
सुंदर है।
लेकिन फ्रायड
कहता है, मामला
बिलकुल उलटा
है। वह स्त्री
दूसरों को
सुंदर नहीं
दिखाई पड़ती।
आप कहते हैं, सुंदर है, इसलिए प्रेम
में पड़े।
फ्रायड कहता
है, आप
प्रेम में पड़
गए, इसलिए
सुंदर दिखाई
पड़ती है।
यह
बात ज्यादा
सही मालूम
होती है, क्योंकि
और किसी को
सुंदर नहीं
दिखाई पड़ती।
और दूसरों को
शायद कुरूप
दिखाई पड़ती हो।
शायद दूसरे
चकित होते हों
कि आपका दिमाग
खराब हो गया
है कि आप इस
स्त्री के
चक्कर में पड़े
हैं! और आप
अपने मन में
सोचते हैं कि
दुनिया भी कैसी
मूढ़ है; अज्ञानीजन
हैं। इनको इस
स्त्री का
असली रूप
दिखाई ही नहीं
पड़ रहा है।
प्रेम
में हम पहले
पड़ते हैं, फिर
तर्क हम बाद
में इकट्ठा
करते हैं।
किसी
व्यक्ति को आप
देखते ही घृणा
करने लगते हैं, फिर
आप तर्क खोजते
हैं, फिर
आप कारण खोजते
हैं। क्योंकि
बिना कारण
हमें अड़चन
होती है। अगर
कोई हमसे पूछे
कि क्यों घृणा
करते हो, और
हम कहें कि
बिना कारण
करते हैं, तो
हम मूढ़ मालूम
पड़ेंगे। तो हम
कारण खोजते
हैं कि यह
आदमी मुसलमान
है; मुसलमान
बुरे होते हैं।
यह आदमी हिंदू
है; हिंदू
भले नहीं होते।
कि यह आदमी
मांसाहारी है,
कि इस आदमी
का चरित्र
खराब है। आप
फिर हजार कारण
खोजते हैं। वे
कारण आपने
पीछे से खोजे
हैं। भाव आपका
पहले निर्मित
हो गया। और
भाव अचेतन है
और कारण चेतन
है।
फ्रायड
की खोज बड़ी
बहुमूल्य है
कि प्रत्येक व्यक्ति
अंधे की तरह
जीता है और
सिद्ध करने को
कि मैं अंधा
नहीं हूं
कारणों की
तजवीज करता है।
उनको उसने
रेशनलाइजेशस
कहा है। फिर
उनको वह
बुद्धि—युक्त
ठहराता है।
ईश्वर
के साथ भी यही
होता है, गुरु
के साथ भी यही
होता है।
मैंने सुना है,
एक सूफी
फकीर के पास
दो युवक गए।
वे साधना में
उत्सुक थे और
सत्य की खोज
करना चाहते थे।
उस फकीर ने
कहा, सत्य
और साधना थोड़े
दिन बाद, अभी
मुझे कुछ और
दूसरा काम
तुमसे लेना है।
लकड़ी चुक गई
हैं आश्रम की,
तो तुम
दोनों जंगल
चले जाओ और
लकड़ियां
इकट्ठी कर लो।
और अलग— अलग
ढेर लगाना।
क्योंकि
तुम्हारी
लकड़ी का ढेर
केवल लकड़ी का
ढेर नहीं है, उससे मुझे
कुछ और
परीक्षा भी
करनी है। तो
दोनों युवक गए;
उन्होंने
लकड़ी के दो
ढेर लगाए। फिर
गुरु सात दिन
बाद आया, तो
उसने पहले
युवक के लकड़ी
के ढेर में आग
लगाने की
कोशिश की।
सांझ तक
परेशान हो गया।
आंखों से आंसू
बहने लगे। धुआं
ही धुआं निकला,
आग न लगी।
सब लकड़िया
गीली थीं।
शिष्य ने क्या
कहा गुरु को? कि मैं चला।
जब तुमसे लकड़ी
में आग लगाना
नहीं आता, तो
तुम मुझे क्या
बदलोगे!
दूसरे
युवक की
लकड़ियों में
गुरु ने आग
लगाई; लकड़िया
भभककर जल गईं।
सूखी लकड़ियां
थीं। दूसरा
युवक भी पहली
घटना देख रहा
था।
और
पहला युवक
छोड्कर जा
चुका था, और
जाकर उसने
गांव में
प्रचार करना
शुरू कर दिया था
कि यह आदमी
बिलकुल बेकार
है। एक तो
हमारे सात दिन
खराब किए लकड़ी
इकट्ठी करवाईं।
हम गए थे सत्य
को खोजने!
इसमें कोई तुक
नहीं है, संगति
नहीं है। फिर
हमने पसीना
बहा—बहाकर, खून—पसीना
करके लकड़ियां
इकट्ठी कीं।
और इस आदमी को
आग लगाना नहीं
आता। तो उसने
लकड़ियां भी खराब
कीं, धुआं
पैदा किया, हमारी तक आंखें
खराब हुईं। और
यह आदमी किसी
योग्य नहीं है।
भूलकर कोई
दुबारा इसकी
तरफ न जाए।
दूसरा
युवक भी यह
देख रहा था कि
पहला युवक जा
चुका है।
दूसरे युवक की
लकड़ियां जब
भभककर जलने
लगीं, तो उसने
कहा कि बस, ठहरो।
यह मत समझ
लेना कि बड़े अकलमंद
हो तुम।
लकड़ियां सूखी
थीं, इसलिए
जल रही हैं, इसमें
तुम्हारी कोई
कुशलता नहीं
है। और मैं
चला। अगर तुम
इसको अपना
ज्ञान समझ रहे
हो कि सूखी लकड़ियों
को जला दिया
तो कोई बहुत
बड़ी बात कर ली,
तो तुम से
अब सीखने को
क्या है!
दोनों
युवक चले गए।
गुरु
मुस्कुराता
हुआ वापस लौट
आया। आश्रम
में लोगों ने
उससे पूछा, क्या
हुआ? तो
उसने कहा, जो
होना था ठीक
उससे उलटा हुआ।
पहला युवक अगर
कहता कि
लकड़ियां गीली
हैं, मैं
गीला हूं
इसलिए
तुम्हें
जलाने में
इतनी कठिनाई
हो रही है, तो
उसका रास्ता
खुल जाता।
दूसरा युवक
अगर कहता कि
तुम्हारी कृपा
है कि मेरी
लकड़ियों में
आग लग गई, तो
उसका रास्ता
खुल जाता।
लेकिन दोनों
ने रास्ते बंद
कर लिए। और अब
दोनों जाकर
प्रचार कर रहे
हैं; दोनों
ने धारणा बना
ली, अब
दोनों उसके
लिए तर्क जुटा
रहे हैं।
मुझसे
उन्होंने
पूछा नहीं।
मेरी तरफ देखा
नहीं। मैं
क्या कर रहा था,
मेरा क्या
प्रयोजन था, इसकी
उन्होंने कोई
खोज न की। सतह
से कुछ बातें
लेकर वे जा
चुके हैं।
आप
भी,
जहां भी
आपको दूसरे को
श्रेष्ठ
मानना पड़ता है,
वहा बड़ी
अड़चन आती है।
दूसरे को अपने
से नीचा मानना
बिलकुल सुगम
है। हम हमेशा
तैयार ही हैं।
हम पहले से
माने ही बैठे
हैं कि दूसरा
नीचा है।
सिर्फ अवसर की
जरूरत है और
सिद्ध हो
जाएगा। और अगर
कोई दूसरा
हमसे आगे भी
निकल जाए कभी,
तो हम जानते
हैं कि चालाकी,
शरारत, कोई
धोखाधड़ी, कोई
भाई— भतीजा
वाद, कुछ न
कुछ मामला
होगा, तभी
दूसरा आगे गया,
नहीं तो
हमसे आगे कोई
जा कैसे सकता
था! अगर दूसरा
हमसे पीछे रह
जाए, तो हम
समझते हैं, रहेगा ही
पीछे; क्योंकि
हमसे आगे जाने
की कोई
योग्यता भी तो
होनी चाहिए।
हम
जो भी होते
हैं,
जहां भी
होते हैं, उसके
अनुसार तर्क
खोज लेते हैं।
ईश्वर
है या नहीं है, यह
बडा सवाल नहीं।
जो व्यक्ति
ईश्वर को मान
सकता है कि है,
उसने अपने
को झुकाया, यह बड़ी भारी
बात है। ईश्वर
न भी हो, तो
भी जिसने
स्वीकार किया
कि ईश्वर है
और अपने को
झुकाया, इसके
लिए ईश्वर हो
जाएगा। और जो
कहता है, ईश्वर
नहीं है—चाहे
ईश्वर हो ही—इसने
अपने को
अकड़ाया।
ईश्वर हो, तो
भी इसके लिए
नहीं है, तो
भी इसके लिए
नहीं हो सकेगा,
तो भी
क्योंकि इसके
द्वार बंद हैं।
वह
जो आसुरी
संपदा का
व्यक्ति है, अहंकार,
बल, घमंड,
कामना और
क्रोधादि के
परायण हुआ, दूसरों की
निंदा करने
वाला, दूसरों
के शरीर में
मुझ
अंतर्यामी से
द्वेष करने
वाला है। ऐसे
उन द्वेष करने
वाले
पापाचारी और
क्रूरकर्मी
नराधमों को
मैं संसार में
बार—बार आसुरी
योनियों में
ही गिराता हूं।
यह
वचन थोड़ा
कठिनाई पैदा
करेगा, क्योंकि
हमें लगेगा कि
क्यों
परमात्मा
गिराएगा! होना
तो यह चाहिए
कि कोई आसुरी
वृत्ति में
गिर रहा हो, तो परमात्मा
उसे रोके, बचाए,
दया करे।
क्योंकि हम
निरंतर
प्रार्थना
करते हैं कि
हे पतितपावन! हे
करुणा के
सागर! दया करो,
बचाओ, मैं
पापी हूं। और
ये कृष्ण कह
रहे हैं कि
ऐसे नराधम, क्रूरकर्मी
को मैं संसार
में बार—बार
आसुरी
योनियों में
ही गिराता
हूं!
जब
ईसाई या
इस्लाम धर्म
को मानने वाले
लोग इस तरह के
वचन पढ़ते हैं, तो
उनको बड़ी
कठिनाई होती
है। क्योंकि
इस्लाम में तो
परमात्मा के
सभी नाम—रहीम,
रहमान, करीम—स्ब
नाम दया के
हैं कि वह
दयालु है। यह
कैसी दया! और
जीसस ने कहा
है कि तुम
प्रार्थना
करो, तो सब
तरह की क्षमा
संभव है। तुम
पुकारो, तो
क्षमा कर दिए
जाओगे।
लेकिन
कृष्ण का यह
वचन! इसका तो
अर्थ यह हुआ, और
यही भारतीय
प्रज्ञा की
खोज है, कि
परमात्मा कोई
व्यक्ति नहीं
है कि तुम
पुकारों और वह
क्षमा कर दे।
परमात्मा कोई
व्यक्ति नहीं
है कि तुम उसे
फुसला लो, राजी
कर लो—प्रशंसा
से, खुशामद
से, स्तुति
से—और वह बदल
दो परमात्मा
एक नियम है, व्यक्ति
नहीं। पहुंच
जाता है।
इसको
थोड़ा समझ लें।
परमात्मा
एक व्यवस्था
है,
व्यक्ति
नहीं। तो आग
में कोई आदमी
हाथ डाले, तो
आग जलाकी। आग
जलाने को
उत्सुक नहीं
है। आग इस
आदमी को जलाने
के लिए पीछे
नहीं दौड़ती।
लेकिन यह आदमी
आग में हाथ डालता
है, तो आग
जलाती है।
क्योंकि आग का
स्वभाव जलाना
है, वह
उसका नियम है।
अगर हम आग से
पूछें, तो
वह कहेगी, जो
मुझमें हाथ
डालेगा, उसे
मैं जलाऊंगी।
आग चूंकि
बोलती नहीं, इसलिए हमें
खयाल में नहीं
है।
कृष्ण
परमात्मा की
तरफ से बोल
रहे हैं। वह
जो जागतिक
नियम है, युनिवर्सल
ली है, वह
जो जीवन का
आधार—स्तंभ है,
उसकी तरफ से
बोल रहे हैं।
वह कहते हैं, जो व्यक्ति
ऐसा कर्म
करेगा, इस
तरह की दृष्टि
और धारणा
रखेगा, ऐसा
पाप में
डूबेगा, उसे
मैं गिराता
हूं। गिराने
का कुल मतलब
इतना ही है, ऐसा करने से
वह अपने आप
गिरता है, कोई
परमात्मा
उसको धक्का
नहीं देता।
धक्का देने की
कोई जरूरत
नहीं है। वह
ऐसा करता है, इसलिए गिरता
है।
इसलिए
भारत की जो
गहरी से गहरी
खोज है, वह
कर्म का
सिद्धात है।
यह खोज इतनी
गहरी है कि
जैनों और
बौद्धों ने परमात्मा
को विदा ही कर
दिया।
उन्होंने कहा,
यह सिद्धात
ही काफी है।
परमात्मा को
बीच में लाने
की कोई जरूरत
भी नहीं है।
जैनों और
बौद्धों ने
परमात्मा को
इनकार ही कर
दिया कि कोई
जरूरत ही नहीं
है परमात्मा
को बीच में
लाने की। कर्म
से मामला साफ
हो जाता है।
और सच में ही
साफ हो जाता
है।
लेकिन
परमात्मा को
इनकार करने की
कोई भी जरूरत
नहीं, क्योंकि
परमात्मा का
अर्थ ही वह
महानियम है जो
इस जीवन को
चला रहा है।
उसे हम कर्म
का नियम कहें,
या
परमात्मा
कहें, एक
ही बात है।
वह
जो गिरता है
अपने हाथ से, नियम
उसे गिराता है।
आप जमीन पर
चलते हैं, सम्हलकर
चलते हैं, तो
ठीक। उलटे—सीधे
चलते हैं, तो
गिर जाते हैं,
हाथ—पैर टूट
जाते हैं। कोई
जमीन आपको
गिराती नहीं
है। लेकिन
उलटा—सीधा जो
चलता है, नियम
के विपरीत, उसके हाथ—पैर
टूट जाते हैं।
जमीन
स्वेच्छा से, आकांक्षा
से आपका हाथ—पैर
नहीं तोड़ती।
लेकिन जमीन का
नियम है, उसके
विपरीत जो
जाता है, वह
टूट जाता है।
उसके अनुकूल
जो जाता है, वह सहजता से
मंजिल पर पहुंच
जाता है।
जगत
के नियम को
समझकर उसके
अनुकूल चलने
का नाम धर्म
है।
बुद्ध
ने धर्म शब्द
का अर्थ ही
नियम किया है, दि
ली। जब बुद्ध
कहते हैं, धम्म
शरणं गच्छामि,
तो वह कहते
हैं, धर्म
की शरण जाओ, तो उसका यही
अर्थ है कि
नियम की शरण जाओ।
और नियम के
अनुकूल चलोगे,
तो तुम
मुक्त हो
जाओगे। नियम
के प्रतिकूल
चलोगे, तो
अपने हाथ से
बंधते चले
जाओगे। नियम
के विपरीत जो
जाएगा, वह
दुख पाएगा।
नियम के
अनुकूल जो
जाएगा, वह
आनंद को
उपलब्ध हो
जाता है।
इसलिए
हे अर्जुन, वे
मूढ़ पुरुष
जन्म—जन्म में
आसुरी योनि को
प्राप्त हुए
मेरे को न
प्राप्त होकर
उससे भी अति
नीची गति को
ही प्राप्त
होते हैं।
जब
कोई व्यक्ति
गिरना शुरू हो
जाता है, तो वह
मोमेंटम
पकड़ता है, गिरने
में भी गति आ
जाती है। आप
कभी सोचें, अगर आप एक
झूठ बोलें, तो फिर
दूसरा और
तीसरा और चौथा।
और दूसरा पहले
से बड़ा, और
तीसरा दूसरे
से बडा, क्योंकि
फिर और बड़ा
झूठ बोलना
जरूरी है
पिछले झूठ को
सम्हालने के
लिए। फिर एक
गति आ जाती है।
फिर उस गति का
कोई अंत नहीं
है।
एक
पाप करें, फिर
दूसरा, फिर
तीसरा, और
बड़ा, और
बड़ा; तब आप
अपने ही हाथ
से गिरते चले
जाते हैं। और
अगर आप गिरना
चाहते हैं, तो नियम
सहयोग देता है।
अगर आप उठना
चाहते हैं, तो नियम
सीढ़ी बन जाता
है। गहरे में
समझने पर, आप
जो करते हैं, उससे आपकी
दिशा निर्मित
होती है।
सुबह
आप उठे और
आपने क्रोध
किया। आपने
दिन के लिए
चुनाव कर लिया।
अब दूसरा
क्रोध पहले से
ज्यादा आसान
होगा, तीसरा
दूसरे से
ज्यादा आसान
होगा। सांझ तक
आप अनेक बार
क्रोध करेंगे
और सोचेंगे, न मालूम किस
दुष्ट का
चेहरा देखा!
आईने
में अपना ही
देखा होगा।
क्योंकि किसी
दूसरे के
चेहरे से आपके
जीवन की गति
का कोई संबंध
नहीं है, आपसे
ही संबंध है।
इसलिए सारे
धर्मों ने
फिक्र की है
कि सुबह उठकर
पहला काम
परमात्मा की
प्रार्थना का
करें। उससे
मोमेंटम
बदलेगा, उससे
गति बदलेगी।
प्रार्थना के
बाद एकदम से
क्रोध करना
मुश्किल होगा।
और प्रार्थना
के बाद और
प्रार्थनापूर्ण
होना आसान हो
जाएगा।
जो
बात गलत के
संबंध में सही
है,
वही सही के
संबंध में भी
सही है। जो आप
करते हैं, उसी
दिशा में करने
की और गति आती है।
जिस तरफ आप
चलते हैं, उस
तरफ आप दौड़ने
लगते हैं।
दिशा चुनना
बड़ा जरूरी है।
सुबह उठते ही
प्रेम और
प्रार्थना और
करुणा का भाव
हृदय में भर
जाए, तो
आपके दिन की
यात्रा
बिलकुल दूसरी
होगी। लेकिन
सुबह अगर आप
चूक गए, तो
बड़ी कठिनाई हो
जाती है।
यही
बात पूरे जीवन
के संबंध में
भी लागू है।
अगर बचपन में
दिशा
प्रार्थना और
परमात्मा की हो
जाए,
तो पूरे
जीवन की
यात्रा आसान
हो जाएगी।
इसलिए हम अपने
बच्चों को इस
मुल्क में
पुराने दिनों
में, पहले
चरण में
गुरुकुल भेज
देते थे कि
पच्चीस वर्ष
तक वे प्रार्थनापूर्ण
जीवन व्यतीत
करें।
क्योंकि उससे
गति बनेगी, एक यात्रा
का पथ निर्मित
होगा। फिर
बहुत आसानी से
आगे सब हो
जाएगा।
एक
बार बचपन खो
गया,
गति बिगड़ गई,
पैर
डावाडोल हो गए,
उलटी दिशा
पकड़ गई, फिर
उसी दिशा में
दौड़ शुरू हो
जाती है।
जवानी दौड़ का
नाम है। बचपन
में जो दिशा
पकड़ ली, जवानी
उसी दिशा में
दौड़ती चली
जाएगी। फिर
बुढ़ापा ढलान
है। जिस दिशा
में आप जवानी
में दौड़े हैं,
उसी दिशा
में आप बुढ़ापे
में ढलेंगे।
क्योंकि
शक्ति फिर
क्षीण होती
चली जाती है।
अब
तो
मनोवैज्ञानिक
भी स्वीकार
करते हैं कि
सात वर्ष की
उम्र के बच्चे
को हम जो दिशा
दे देंगे, सौ
में
निन्यानबे
मौके पर वह
उसी दिशा में
जीवनभर
यात्रा करेगा।
बहुत शक्ति की
जरूरत है फिर
बाद में दिशा
बदलने के लिए।
शुरू में दिशा
बदलना बिलकुल
आसान है। कोमल
पौधा है, झुक
जाता है। फिर
रास्ता पकड़
लेता है, फिर
उस झुकाव को
तोड़ना बहुत
कठिन हो जाता
है।
बचपन
में जाने का
तो अब कोई
उपाय नहीं, लेकिन
रोज सुबह आप
फिर से थोड़ा—सा
बचपन उपलब्ध
करते 'हैं।
कम से कम दिन
को दिशा दें।
दिन जुड़ते
जाएं। और अनेक
दिन जुड़कर
जीवन बन जाते
हैं। गलत कदम
उठाने से
रोकें। उठ जाए,
तो बीच से
वापस लौटा लें।
सही कदम उठाने
की पूरी ताकत
लगाएं; आधा
भी जा सकें, तो न जाने से
बेहतर है।
थोड़े ही दिन
में आपकी जीवन—ऊर्जा
दिशा बदल लेगी।
आसुरी
दिशा, हम जो कर
रहे हैं, क्रोध,
मान, अहंकार,
उसमें हमें
बढ़ाती जाती है।
उससे रुकेंगे
नहीं, बदलेंगे
नहीं, हाथ
हटाएंगे नहीं,
कुछ
छोड़ेंगे नहीं
गलत, खाली
न होंगे हाथ, तो दैवी
संपदा की तरफ
बढ़ना बहुत
मुश्किल है।
और जिस तरफ आप
जाते हैं, उस
तरफ.....।
कृष्ण
कहते हैं, और
भी मैं अति
नीची योनियों
में गिराता
हूं। वे
गिराते नहीं।
कोई गिराने
वाला नहीं है,
कोई उठाने
वाला नहीं है।
आप ही गिरते
हैं। नियम न
पक्षपात करता
है, न
चुनाव करता है।
नियम
निष्पक्ष है।
इसलिए जो भी
आप हैं, अपनी
ऊर्जा, दिशा
और नियम, तीन
का जोड़ हैं।
नियम
शाश्वत है, सनातन
है; आपकी
ऊर्जा शाश्वत
है, सनातन
है; ये
दोनों
समानांतर हैं।
इन दोनों के
बीच में एक और
तत्व है, आपका
चुनाव, इस
ऊर्जा को नियम
के अनुकूल
बहाना या नियम
के प्रतिकूल
बहाना।
नदी
बह रही है, नाव
आपके पास है, वह आपका
जीवन है, नदी
नियम है। अब
इस नदी के साथ
नाव को बहाना
है या नदी के
विपरीत नदी से
लड़ने में नाव
को लगाना है?
जो
नदी के विपरीत
बहेगा, वह
आसुरी चित्त—दशा
को उपलब्ध
होता जाएगा।
जो नदी के साथ
बह जाएगा—उस
साथ बहने का
नाम ही समर्पण
है—वह दिव्यता
को उपलब्ध हो
जाता है।
आज
इतना ही।
Excellent pravachan.
जवाब देंहटाएंLife changing.
A best definaton1 for dharm.
To leaves bad and do good is has no value