चौथी
प्रश्नोत्तर
चर्चा
प्रश्न
: ओशो कल की
चर्चा में
आपने कहा कि
शक्ति का कुंड
प्रत्येक
व्यक्ति का
अलग— अलग नहीं
है लेकिन
कुंडलिनी
जागरण में तो
साधक के शरीर
में स्थित
कुंड से ही
शक्ति ऊपर उठती
है। तो क्या
कुंड अलग— अलग
हैं या कुंड
एक ही है इस इस
स्थिति को
कृपया समझाएं।
ऐसा है, जैसे
एक कुएं से
तुम पानी भरो।
तो तुम्हारे
घर का कुआं
अलग है, मेरे
घर का कुआं
अलग है, लेकिन
फिर भी कुएं
के भीतर के जो
झरने हैं वे सब
एक ही सागर से
जुड़े हैं। तो
अगर तुम अपने
कुएं के ही
झरने की धारा
को पकड़कर
खोदते ही चले
जाओ, तो उस
मार्ग में
मेरे घर का
कुआं भी पड़ेगा,
औरों के घर
के कुएं भी
पड़ेंगे, और
एक दिन तुम
वहां पहुंच
जाओगे जहां
कुआं नहीं, सागर ही
होगा। जहां से
शुरू होती है
यात्रा वहां
तो व्यक्ति है,
और जहां
समाप्त होती
है यात्रा
वहां व्यक्ति बिलकुल
नहीं है, वहां
समष्टि है; इंडिविजुअल से शुरू
होती है और एकोल्युट
पर खतम होती
है।
तो
अगर यात्रा का
प्रारंभिक
बिंदु पकड़ोगे, तब
तो तुम अलग हो,
मैं अलग हूं;
और अगर इस
यात्रा का चरम
बिंदु पकड़ोगे,
तो न तुम हो,
न मैं हूं।
और जो है, हम
दोनों उसके ही
हिस्से और
टुकड़े हैं। तो
जब तुम्हारे
भीतर
कुंडलिनी का
आविर्भाव
होगा तो वह
पहले तो
तुम्हें
व्यक्ति की ही
मालूम पड़ेगी,
तुम्हारी
अपनी मालूम
पड़ेगी।
स्वभावत:, कुएं
पर तुम खड़े हो
गए हो। लेकिन
जब कुंडलिनी
का आविर्भाव
बढ़ता चला जाएगा,
तब तुम धीरे—
धीरे पाओगे कि
तुम्हारा कुआं
तुम्हारा ही
नहीं है, वह
औरों से भी
जुड़ा है। और
जितनी
तुम्हारी यह
गहराई बढ़ती
जाएगी उतना ही
तुम्हारा कुआं
मिटता जाएगा
और सागर होता
जाएगा। अंतिम
अनुभव में तुम
कह सकोगे कि
यह कुंड सबका
था। तो इसी
अर्थ में
मैंने कहा कि......
.इसी भांति हम
व्यक्ति की
तरह अलग—अलग
मालूम हो रहे
हैं।
आत्मा
से परमात्मा
में छलांग:
ऐसा
समझो कि एक
वृक्ष का एक
पत्ता होश में
आ जाए, तो उसे
पडोस का जो
पत्ता लटका
हुआ दिखाई पड़
रहा है, वह
दूसरा मालूम
पड़ेगा। उसी
वृक्ष की
दूसरी शाखा पर
लटका हुआ
पत्ता उसे
स्वयं कैसे
मालूम पड़ सकता
है कि यह मैं
ही हूं! दूसरी
शाखा भी छोड़
दें, उसी
शाखा पर लगा
हुआ दूसरा
पत्ता भी उस
वृक्ष के
पत्ते को कैसे
लग सकता है कि
मैं ही हूं!
उतनी दूरी भी
छोड़ दें, उसी
के बगल में, पड़ोस में
लटका हुआ जो
पता है, वह
भी दूसरा ही
मालूम पड़ेगा;
क्योंकि
पत्ते का भी
जो होश है, वह
व्यक्ति का है।
फिर
पत्ता अपने
भीतर प्रवेश
करे,
तो बहुत
शीघ्र वह
पाएगा कि मैं
जिस डंठल से
लगा हूं उसी
डंठल से मेरे
पड़ोस का पत्ता
भी लगा है, और
हम दोनों की प्राणधारा
एक ही डंठल से
आ रही है। वह
और थोड़ा
प्रवेश करे, तो वह पाएगा
कि मेरी शाखा
ही नहीं, पड़ोस
की शाखा भी एक
ही वृक्ष के
दो हिस्से हैं
और हमारी जीवनधारा
एक है। वह और
थोड़ा नीचे
प्रवेश करे और
वृक्ष की रूट्स
पर पहुंच जाए,
तो उसे
लगेगा कि सारी
शाखाएं और
सारे पत्ते और
मैं, एक ही
के हिस्से हैं।
वह और वृक्ष
के नीचे
प्रवेश करे और
उस भूमि में
पहुंच जाए जिस
भूमि से पड़ोस
का वृक्ष भी
निकला हुआ है,
तो वह अनुभव
करेगा कि मैं,
मेरा यह
वृक्ष, मेरे
ये पत्ते, और
यह पडोस का
वृक्ष, ये
हम एक ही भूमि
के पुत्र हैं,
और एक ही
भूमि की
शाखाएं हैं।
और अगर वह
प्रवेश करता
ही जाए, तो
यह पूरा जगत
अंततः उस छोटे
से पत्ते के
अस्तित्व का
अंतिम छोर
होगा। वह
पत्ता इस बड़े
अस्तित्व का
एक छोर था!
लेकिन छोर की
तरह होश में आ
गया था तो
व्यक्ति था, और समग्र की
तरह होश में आ
जाए तो
व्यक्ति नहीं
है।
तो
कुंडलिनी के
पहले जागरण का
अनुभव
तुम्हें आत्मा
की तरह होगा
और अंतिम
अनुभव
तुम्हें परमात्मा
की तरह होगा।
अगर तुम पहले
जागरण पर ही
रुक गए, और
तुमने
घेराबंदी कर
ली अपने कुएं
की, और
तुमने भीतर
खोज न की, तो
तुम आत्मा पर
ही रुक जाओगे।
इसलिए
बहुत से धर्म
आत्मा पर ही
रुक गए हैं।
वह परम अनुभव
नहीं है; वह
अनुभव की आधी
ही यात्रा है।
और थोड़ा आगे
जाएंगे तो
आत्मा भी
विलीन हो जाएगी
और तब
परमात्मा ही
शेष रह जाएगा।
और जैसा मैंने
तुमसे कहा कि
और अगर आगे गए
तो परमात्मा
भी विलीन हो
जाएगा, और
तब निर्वाण और
शून्य ही शेष
रह जाएगा—या
कहना चाहिए, कुछ भी शेष
नहीं रह जाएगा।
तो
परमात्मा से
भी जो एक कदम
आगे जाने की
जिनकी
संभावना थी, वे
निर्वाण पर
पहुंच गए हैं;
वे परम
शून्य की बात
कहेंगे। वे
कहेंगे वहां
जहां कुछ भी
नहीं रह जाता।
असल में, सब
कुछ का अनुभव
जब तुम्हें
होगा, तो
साथ ही कुछ
नहीं का अनुभव
भी होगा। जो एबसोल्युट
है, वह नथिंगनेस
भी है।
शून्य
और पूर्ण : एक
के ही दो नाम:
इसे
ऐसा हम समझें.......
.शून्य और
पूर्ण एक ही
चीज के दो नाम
हैं,
इसलिए
दोनों कनवटेंबल
हैं। शून्य
पूर्ण है।
तुमने अधूरा
शून्य न देखा
होगा। आधा
शून्य तुम
नहीं कर सकते
हो। अगर तुमसे
हम कहें कि
शून्य को आधा
कर दो, दो
टुकड़े कर दो!
तो तुम कहोगे,
यह कैसे हो
सकता है? एक
के दो टुकड़े
हो सकते हैं, दो के दो
टुकड़े हो सकते
हैं, शून्य
के दो टुकड़े
नहीं हो सकते।
शून्य के
टुकड़े ही नहीं
हो सकते। और
जब तुम कागज
पर एक शून्य
बनाते हो तो
वह सिर्फ
प्रतीक है; वह तुम्हारे
बनाते ही
शून्य नहीं रह
जाता, क्योंकि
तुम रेखा बांध
देते हो।
इसलिए
यूक्लिड से
पूछोगे तो वह
कहेगा कि शून्य
हम उसे कहते
हैं,
जिसमें न
लंबाई है, न
चौड़ाई है।
लेकिन तुम तो
कितना ही छोटा
सा बिंदु भी
बनाओगे, तो
उसमें भी
लंबाई—चौड़ाई
होगी। इसलिए
वह सिर्फ सिबालिक
है, वह
असली बिंदु
नहीं है, क्योंकि
असली बिंदु
में तो लंबाई—चौड़ाई
नहीं हो सकती।
लंबाई—चौड़ाई
होगी तो फिर
बिंदु नहीं रह
जाएगा।
इसलिए
उपनिषद कह सके
कि शून्य से
तुम निकाल लो
शून्य भी, तो
भी पीछे शून्य
ही शेष रह
जाता है। उसका
मतलब यह है कि
तुम निकाल
नहीं सकते
उसमें से कुछ।
तुम अगर पूरे
शून्य को भी
लेकर भाग जाओ
तब भी पीछे
पूरा शून्य ही
शेष रह जाएगा।
तुम आखिर में पाओगे,
चोरी बेकार
गई; तुम
उसे लेकर भाग
नहीं सके, वह
वहीं शेष रह
गया। लेकिन जो
शून्य के
संबंध में सही
है, वही
पूर्ण के
संबंध में भी
सही है। असल
में, पूर्ण
की कोई कल्पना
सिवाय शून्य
के और नहीं हो
सकती।
पूर्ण
का मतलब है
जिसमें अब और
आगे विकास
नहीं हो सकता।
शून्य का मतलब
है जिसमें अब
और नीचे पतन
नहीं हो सकता।
शून्य के और
नीचे उतरने का
उपाय नहीं, पूर्ण
के और आगे
जाने का उपाय
नहीं। तुम
पूर्ण के भी
खंड नहीं कर
सकते; तुम
शून्य के भी
खंड नहीं कर
सकते। पूर्ण
की भी कोई
सीमा नहीं हो
सकती; क्योंकि
जब भी किसी
चीज की सीमा
होगी तब वह
पूर्ण नहीं हो
सकेगा।
क्योंकि उसका
मतलब हुआ कि
सीमा के बाहर
फिर कुछ शेष
रह जाएगा। और
अगर कुछ बाहर
शेष रह गया तो
पूर्णता कैसी?
फिर यह
अपूर्णता हो
जाएगी।
जहां
मेरा घर खतम
होता है, तुम्हारा
घर शुरू हो
जाता है। मेरे
घर की सीमा पर
मेरा घर
समाप्त होता
है और
तुम्हारा
शुरू होता है।
अगर मेरा घर
पूर्ण है, तो
तुम्हारा घर
मेरे घर के
बाहर नहीं हो
सकता। तो
पूर्ण की कोई
सीमा नहीं हो
सकती, क्योंकि
कौन उसकी सीमा
बनाएगा? सीमा
बनाने के लिए
हमेशा नेबर
चाहिए; सीमा
बनाने के लिए
कोई पड़ोसी
चाहिए। और
पूर्ण है
अकेला, उसका
कोई पड़ोसी
नहीं है, जिससे
उसकी सीमा
इंगित हो सके।
सीमा
दो बनाते हैं, एक
नहीं—यह खयाल
रखना; सीमा
बनाने के लिए
दो चाहिए।
जहां मैं
समाप्त होऊं
और कोई शुरू
हो, वहां
सीमा बनेगी।
अगर कोई शुरू
ही न हो तो मैं
समाप्त भी न
हो सकूंगा। और
अगर मैं
समाप्त ही न
हो सकूं, हो
ही न सकूं
समाप्त, तो
फिर मेरी कोई
सीमा न बनेगी।
पूर्ण की कोई
सीमा नहीं है,
क्योंकि
कौन उसकी सीमा
बनाए? शून्य
की कोई सीमा
नहीं है, क्योंकि
जिसकी सीमा हो
जाती है, वह
कुछ हो गया, वह शून्य
कैसे रहा? तो
अगर इसे बहुत
ठीक से समझोगे
तो शून्य और
पूर्ण जो हैं,
वे एक ही
चीज को कहने
के दो ढंग हैं।
ब्रह्म
और शून्य : दो
ओर से यात्रा:
तो
धर्म भी दो
तरफ से यात्रा
कर सकता है या
तो तुम पूर्ण
हो जाओ, या
तुम शून्य हो
जाओ। दोनों
स्थितियों
में तुम वही
हो जाओगे जो
होने की बात
है। तो जो
पूर्ण की
यात्रा
करनेवाला है,
या पूर्ण शब्द
को प्रेम करता
है, पाजिटिव को प्रेम
करता है, वह
कहेगा—अहं
ब्रह्मास्मि!
मैं ब्रह्म
हूं! वह यह कह
रहा है कि मैं
ही ब्रह्म हूं।
यह सब जो है, यह मैं ही
हूं। और मेरे
अतिरिक्त कोई
तू नहीं है; सब तू मैंने
अपने मैं में
घेर लिए हैं।
अगर यह हो सके
तो यह बात हो जाएगी।
लेकिन
अंतिम चरण में
मैं को भी
खोना पड़ेगा, क्योंकि
जब कोई तू
नहीं है तो
तुम कैसे
कहोगे कि मैं
ही ब्रह्म हूं?
क्योंकि
मैं की उदघोषणा
तू की मौजूदगी
पर ही सार्थक
है। और जब तुम
ही ब्रह्म हो,
तो यह कहना
भी बहुत अर्थ
का नहीं रह
जाएगा कि मैं
ब्रह्म हूं।
क्योंकि
इसमें भी दो
की स्वीकृति
है—ब्रह्म की
और मेरी। तो
अंत में मैं
भी व्यर्थ हो
जाएगा, ब्रह्म
भी व्यर्थ हो
जाएगा और चुप
हो जाना पड़ेगा।
दूसरा
एक मार्ग है
कि तुम कहो......
.इतने मिट जाओ
तुम कि तुम कह
सको,
मैं हूं ही
नहीं। एक जगह
तुम कह सके, मैं ब्रह्म
हूं अर्थात
मैं सब हूं।
दूसरी यात्रा
है जिसमें तुम
कह सको कि मैं
हूं ही नहीं, कुछ भी नहीं
है; सब परम
शून्य है।
लेकिन इससे भी
तुम वहीं
पहुंच जाओगे।
और पहुंचकर
तुम यह भी न कह
सकोगे कि मैं
नहीं हूं।
क्योंकि मैं
नहीं हूं यह
कहने के लिए
भी मैं का
होना जरूरी है।
तो मैं खो
जाएगा। तुम यह
भी न कह सकोगे
कि सब शून्य
है; क्योंकि
यह कहने के
लिए भी सब भी
होना चाहिए और
शून्य भी होना
चाहिए। तब तुम
फिर चुप हो
जाओगे।
तो
यात्रा चाहे
कहीं से हो—चाहे
वह पूर्णता की
तरफ से हो, चाहे
शून्यता की
तरफ से हों—लेकिन
वह परम मौन
में ले जाएगी,
जहां बोलने
को कुछ भी
नहीं बचेगा।
इसलिए कहां से
कोई जाता है, यह बड़ा सवाल
नहीं है; कहां
पहुंचता है, यह जांचने
की बात है।
उसकी अंतिम
मंजिल पकड़ी
जा सकती है, पहचानी जा
सकती है। अगर
वह यहां पहुंच
गया तो वह
जहां से भी
गया हो, ठीक
ही रास्ते से
गया है। कोई
रास्ता गलत नहीं
है, कोई
रास्ता ठीक
नहीं है—इस
अर्थ में कि
जो पहुंचा दे
वह ठीक है। और
पहुंचना यहां
है। लेकिन
प्राथमिक
अनुभव कहीं से
भी मैं से ही शुरू
होगा, क्योंकि
हमारी वह
स्थिति है; वह गिवेन
सिचुएशन है, जहां से
हमको चलना है।
तो
चाहे हम
कुंडलिनी को
जगाए, तो भी वह
व्यक्तिगत
मालूम पड़ेगी;
चाहे ध्यान
में जाएं, तो
भी वह व्यक्ति—गत
मालूम पड़ेगा;
चाहे शांत
हों तो
व्यक्तिगत
होगा, जो
कुछ भी होगा
वह व्यक्तिगत
होगा, क्योंकि
अभी हम
व्यक्ति हैं।
लेकिन जैसे—जैसे
इसमें प्रवेश
करोगे, भीतर
जितने गहरे
उतरोगे, व्यक्ति
मिटता जाएगा।
और अगर बाहर
गए, तो
व्यक्ति बढ़ता
चला जाएगा।
व्यक्ति
का अंतिम छोर:
जैसे
समझ लो कि एक
आदमी कुएं पर
खड़ा है। अगर
वह कुएं में
भीतर जाए, तो
एक दिन सागर
में पहुंच
जाएगा। और
अनुभव करे कि कुआं
तो नहीं था...
असल में कुआं
है क्या? जस्ट ए
होल सागर को
झांकने के लिए।
और क्या है? कुएं का और
अर्थ क्या है?
एक छेद है
जिससे तुम
सागर को झांक
लेते हो। अगर
तुम पानी को कुआं
समझते हो तो
गलती समझते हो,
पानी तो
सागर ही है।
हां, वह
छेद जिससे
तुमने झांका
है, वह है कुआं।
तो वह जो छेद
है, वह
जितना बड़ा
होता जाए, सागर
उतना बड़ा
दिखाई पड़ने
लगेगा।
लेकिन
अगर तुम कुएं
के भीतर
प्रवेश न किए
और कुएं से
दूर हटते चले
गए,
तो तुम्हें
कुएं का पानी
भी दिखाई पड़ना
थोड़ी देर में
बंद हो जाएगा।
फिर तो वह जो
कुएं का छेद
है और पाट है, वही दिखाई
पड़ेगा। और
उसका सागर से
कभी तुम
तालमेल न कर
पाओगे। एकदम
तुम सागर के
किनारे भी
पहुंच जाओ, तो भी तुम यह
तालमेल न बिठा
पाओगे कि वह
जो कुएं में झांका था
वह और यह सागर
एक हो सकता है।
अंतर्यात्रा
तो तुम्हें
एकता पर ले
जाएगी, बहिर्यात्रा
तुम्हें
अनेकता पर ले
जाएगी। लेकिन
सभी अनुभव का
प्रारंभिक
छोर व्यक्ति होगा,
कुआं होगा;
अंतिम छोर
अव्यक्ति
होगा—या
परमेश्वर कहो—
सागर होगा। इस
अर्थ में
मैंने कहा अगर
तुम गहरे
जाओगे तो कुंड
जो है
तुम्हारा
नहीं रह जाएगा;
कुछ भी
तुम्हारा
नहीं रह जाएगा।
कुछ भी नहीं
रह जा सकता है।
पीड़ा
कुएं की, आनंद
सागर का:
प्रश्न:
ओशो अगर शून्य
को ही उपलब्ध
होना है तो कड़ंलिनी
जगाने की
जरूरत क्या है? और
साधना की
जरूरत क्या है?
यह जो
बात है न, क्योंकि
तुम्हें समझ
में आ रहा है
कि शून्य यानी
कुछ भी नहीं, इसलिए साधना
की क्या जरूरत?
कुछ हो तो
जरूरत है।
तुम्हें खयाल
में आ रहा है
कि शून्य यानी
ना—कुछ हो गए।
तो साधना की
क्या जरूरत? साधना की
जरूरत तो तब
लगती है, जब
कुछ हम हो
जाएं। लेकिन
तुम्हें यह
पता नहीं कि
शून्य का मतलब
है पूर्ण; शून्य
का मतलब है सब
कुछ। शून्य का
मतलब कुछ नहीं
नहीं, सब
कुछ।
लेकिन
अभी तुम्हारे
खयाल में नहीं
आ सकता कि शून्य
यानी सब कुछ
का क्या मतलब
होता है। एक कुआं
भी कह सकता है
कि अगर सागर
की तरफ जाने
का मतलब इसी
बात का पता
चलना है कि
मैं हूं ही
नहीं, तो मैं
जाऊं ही क्यों?
यह ठीक कह
रहा है कुआं।
यह कहे कि अगर
मैं सागर की
तरफ जाऊं और
आखिर में यही
पता चलना है
कि मैं हूं ही
नहीं, तो
मैं जाऊं
क्यों? लेकिन
तुम्हारे न
जाने से फर्क
नहीं पड़ता है।
तुम नहीं हो, एक बात; तुम्हारे
जाने, न
जाने का सवाल
नहीं। न जाओ, कुएं पर ही
रुके रहो, कुएं
ही बने रहो, लेकिन तुम
हो नहीं कुआं।
यह झूठ है
सरासर। यह झूठ
तुम्हें दुख
देता रहेगा।
यह झूठ
तुम्हें पीड़ा
देता रहेगा।
यह झूठ
तुम्हें
बांधे रहेगा।
इस झूठ में
आनंद की कोई
संभावना नहीं
है।
कुआं
मिटेगा जरूर
सागर तक जाकर, लेकिन
मिटते ही उसकी
सारी चिंता, दुख, सब
मिट जाएगा; क्योंकि वह
उसके कुएं और
व्यक्ति होने
से बंधा था, उसकी ईगो और
अहंकार से
बंधा था। और
हमें तो ऐसा लगेगा
कि कुआं जाकर
सागर में मिट
गया, कुछ
भी नहीं हुआ।
लेकिन कुएं को
थोड़े ही ऐसा
लगेगा। कुआं
तो कहेगा कि
मैं सागर हो
गया। कौन कहता
है, मैं
मिट गया! यह तो
जो नहीं गया कुआं,
पड़ोस का जो कुआं
नहीं गया वह
उससे कहेगा, पागल! कहां
जाता है? वहां
तो मिट ही
जाना है, तो
जाना क्यों? लेकिन जो
गया है, वह
कहेगा : कौन
कहता है, मिट
जाना है! मैं
तो मिटूगा
एक अर्थ में—कुएं
के अर्थ में, लेकिन सागर
के अर्थ में
हो भी जाऊंगा।
इसलिए
चुनाव कुआं
बने रहने का
या सागर होने
का है सदा, क्षुद्र
से बंधे रहने
का या विराट
के साथ एक हो
जाने का है।
लेकिन वह
अनुभव की बात
है। और अगर
कुएं ने कहा
कि मैं मिटने
से डरता हूं तो
फिर तो उसको
सागर से सब
संबंध छोड़
लेने पड़ेंगे;
क्योंकि उन
संबंधों में
सदा भय है कि
कभी भी पता न
चल जाए कि मैं
सागर हूं। तो
उसको सब अपने
झरने तोड़ लेने
पड़ेंगे, क्योंकि
वे झरने सब
सागर तक जाते
हैं। या उसे
झरने की तरफ
से आख मोड़
लेनी पड़ेगी।
वह सदा बाहर
देखता रहे, भीतर न देखे
भूलकर; क्योंकि
भीतर देखने से
कभी भी
संभावना है कि
उसे पता चल
जाए कि अरे, मैं नहीं
हूं सागर ही
है। तो फिर वह
बाहर देखे। और
झरने जितने
छोटे हों, उतने
अच्छे; क्योंकि
उनसे भीतर
जाना कम आसान
रह जाएगा।
जितने सूखे
हों, उतने
अच्छे; बिलकुल
सूख जाएं तो
और भी अच्छे।
लेकिन
तब कुआं मरेगा।
समझेगा कि मैं
बचा रहा हूं
अपने को, लेकिन
मरेगा।
मिटना
बहुत आनदपूर्ण
है:
जीसस
का वचन है कि
जो अपने को बचाएगा, वह
मिटेगा, और
जो मिटाएगा,
वही केवल बच
सकता है।
तो
यह तो हमारे
मन में सवाल
उठता ही है कि
मिट जाएंगे, वहां
जाएं क्यों? वहां जाएं
क्यों, मिट
जाएंगे! तो
अगर यह... अगर
मिटना ही
हमारा सत्य है,
तो ठीक है।
और बचाने से
कैसे बचेंगे?
अगर सागर
में पहुंचकर
मिटना होता है
तो कुएं बने
रहकर कितने
दिन बच सकोगे?
इतना बड़ा
सागर होकर भी
मिटना हो जाता
है तो इतने से
कुएं को कैसे बचाओगे? कितने दिन बचाओगे? जल्दी इसकी ईटं गिर
जाएंगी, जल्दी
इस पर मिट्टी
गिरेगी, जल्दी
इसका पानी सूख
जाएगा। जब
सागर में भी न
बच सकोगे, तो
कुएं में कैसे
बचोगे? और
कितनी देर
बचोगे?
इसी
से मृत्यु का
भय पैदा होता
है। वह कुएं
का भय है।
सागर से मिलना
नहीं चाहता, क्योंकि
उसमें डर है
मिटने का, इसलिए
सागर से अपने
को दूर कर
लेता है और कुआं
बन जाता है।
और फिर मौत का
भय सताने
लगता है, क्योंकि
सागर से जैसे
ही टूटा कि
मरने की स्थिति
करीब आने लगी,
क्योंकि सागर
से जुड़कर
जीवन है।
तो
इसलिए हम सब
मृत्यु से
भयभीत हैं, डरे
हुए हैं कि
कहीं मर न
जाएं। मरना
पड़ेगा। और दो
ही तरह के
मरने हैं या
तो तुम सागर
में कूदकर मर
जाओ। वह मरना
बहुत आनंदपूर्ण
है; क्योंकि
मरोगे नहीं, सागर हो
जाओगे। और एक
यह कि तुम
कुएं को जोर
से पकड़े
बैठे रहो—सूखोगे,
सडोगे,
मिट जाओगे।
हमारा मन कहता
है कोई
प्रलोभन
चाहिए—क्या, मिलेगा क्या
जिसकी वजह से
हम सागर में
जाएं? क्या
मिलेगा जिससे
हम समाधि को
खोजें, शून्य
को खोजें? मिलेगा
क्या? हम
पहले पूछते
हैं, मिलेगा
क्या? हम
इसको पूछते ही
नहीं कि इस
मिलने की दौड़
में हमने अपने
को खो दिया है।
सब तो मिल गया
है—मकान मिल
गया है, धन
मिल गया है—वह
सब मिल गया है
और हम खो गए
हैं; हम
बिलकुल नहीं
हैं वहां।
तो
अगर मिलने की
भाषा में
पूछते हो तो
मैं कहूंगा कि
अगर खोने को
तैयार हो जाओ
तो तुम तुमको मिल
जाओगे। अगर
खोने को तैयार
नहीं हो, बचाने
की कोशिश की, तो तुम खो
जाओगे और सब
बच जाएगा; और
बहुत सी चीजें
बच जाएंगी, बस तुम खो
जाओगे।
तीव्र
श्वास से
प्राण—ऊर्जा
में वृद्धि:
प्रश्न:
ओशो आपने कहा
था कि डीप
ब्रीदिंग
लेने से आक्सीजन
और कार्बन डाइआक्साइड
का अनुपात बदल
जाता है तो इस
अनुपात के
बदलने का
कुंडलिनी जागरण
के साथ कैसे
संबंध है?
बहुत
संबंध है। एक
तो हमारे भीतर
जीवन और
मृत्यु दोनों
की संभावनाएं
हैं। उसमें जो
आक्सीजन है वह
हमारे जीवन की
संभावना है, और
जो कार्बन है
वह हमारी
मृत्यु की
संभावना है।
जब आक्सीजन
क्षीण होते—होते—होते—होते
समाप्त हो
जाएगी और
सिर्फ कार्बन
रह जाएगी
तुम्हारे
भीतर, तो
तुम लाश हो
जाओगे। ऐसे ही,
जैसे कि हम
एक लकड़ी को
जलाते हैं। जब
तक आक्सीजन
मिलती है, जलती
चली जाती है।
आग होती है, जीवन होता
है। फिर
आक्सीजन चुक
गई, आग चुक
गई, फिर
कोयला, कार्बन
पड़ा रह जाता
है पीछे। वह
मरी हुई आग है।
वह जो कोयला
पड़ा है पीछे, वह मरी हुई
आग है।
तो
हमारे भीतर
दोनों का काम
चल रहा है
पूरे समय।
भीतर हमारे
जितनी ज्यादा
कार्बन होगी, उतनी
ही लिथार्जी
होगी, उतनी
सुस्ती होगी।
इसलिए दिन में
नींद लेना
मुश्किल पड़ता
है, रात
में आसान पड़ता
है; क्योंकि
रात में
आक्सीजन की
मात्रा कम हो
गई है और
कार्बन की
मात्रा बढ़ गई
है। इसलिए रात
में हम सरलता
से सो जाते
हैं और दिन में
सोना इतना सरल
नहीं पड़ता, क्योंकि
आक्सीजन बहुत
मात्रा में है।
आक्सीजन हवा
में बहुत
मात्रा में है।
सूरज के आ
जाने के बाद
आक्सीजन का
अनुपात पूरी
हवा में बदल
जाता है। सूरज
के हटते ही से
आक्सीजन का
अनुपात नीचे गिर
जाता है।
इसलिए
अंधेरा जो है, रात्रि
जो है, वह
प्रतीक बन गया
है सुस्ती का,
आलस्य का, तमस का।
सूर्य जो है
वह तेजस का
प्रतीक बन गया
है, क्योंकि
उसके साथ ही
जीवन आता है।
रात सब
कुम्हला जाता
है—फूल बंद हो
जाते, पत्ते
झुक जाते, आदमी
सो जाता—सारी
पृथ्वी एक
अर्थों में टेम्प्रेरी
डेथ में चली
जाती है, एक
अस्थायी
मृत्यु में
समा जाती है।
सुबह होते ही
से फिर फूल खिलने
लगते, फिर
पत्ते जीवित
हो जाते, फिर
वृक्ष हिलने
लगते, फिर
आदमी जगता, पक्षी गीत
गाते— सब तरफ
फिर पृथ्वी
जागती है, वह
जो टेम्प्रेरी
डेथ थी, वह
जो अस्थायी
मृत्यु थी रात
के आठ—दस घंटे
की, वह गई; अब जीवन फिर
लौट आया है।
तो
तुम्हारे
भीतर भी ऐसी
घटना घटती है
कि जब तुम्हारे
भीतर आक्सीजन
की मात्रा
तीव्रता से बढ़ती
है,
तो तुम्हारे
भीतर जो सोई
हुई शक्तियां
हैं वे जगती
हैं, क्योंकि
सोई हुई
शक्तियां को
जगने के लिए
सदा ही
आक्सीजन
चाहिए—किसी भी
तरह की सोई
हुई शक्तियों
को जगने के लिए।
अब एक आदमी मर
रहा है, मरने
के बिलकुल
करीब है, हम
उसकी नाक में
आक्सीजन का
सिलिंडर लगाए
हुए हैं। उसे
हम दस—बीस
घंटे जिंदा रख
लेंगे। उसकी
मृत्यु घट गई
होती दस—बीस
घंटे पहले, लेकिन हम
उसे दस—बीस
घंटे खींच
लेंगे। वर्ष,
दो वर्ष भी
खींच सकते हैं,
क्योंकि
उसकी बिलकुल
क्षीण होती
शक्तियों को
भी हम आक्सीजन
दे रहे हैं तो
वे सो नहीं पा
रहीं। उसकी सब
शक्तियां मौत
के करीब जा
रही हैं, डूब
रही हैं, डूब
रही हैं, लेकिन
हम फिर भी
आक्सीजन दिए
जा रहे हैं।
तो
आज यूरोप और
अमेरिका में
तो हजारों
आदमी आक्सीजन
पर अटके हुए
हैं। और सारे
अमेरिका और
यूरोप में एक
बड़े से बड़ा सवाल
है अथनासिया
का—कि आदमी को
स्वेच्छा—मरण
का हक होना
चाहिए। क्योंकि
डाक्टर अब
उसको लटका
सकता है बहुत
दिन तक। बड़ा
भारी सवाल है, क्योंकि
अब डाक्टर
चाहे तो कितने
ही दिन तक एक
आदमी को न
मरने दे।
अच्छा, डाक्टर
की तकलीफ यह
है कि अगर वह
उसे जानकर मरने
दे तो वह
हत्या का
आरोपण उस पर
हो सकता है; वह मर्डर हो
गया। यानी वह
अभी आक्सीजन
देकर इस अस्सी
साल के मरते
हुए बूढ़े को बचा
सकता है। अगर
न दे, तो यह
हत्या के
बराबर जुर्म
है। तो वह तो
इसे देगा; वह
इसे आक्सीजन
देकर लटका
देगा। अब उसकी
जो सोती हुई
शक्तियां हैं
वे कार्बन की
कमी के कारण
नहीं सो
पाएंगी। समझ
रहे हो न मेरा
मतलब?
अधिक
प्राण से अधिक
जागृति:
ठीक
इससे उलटा
प्राणायाम और भस्त्रिका
और जिसे मैं
श्वास की
तीव्र
प्रक्रिया कह
रहा हूं उसमें
होता है।
तुम्हारे
भीतर तुम इतनी
ज्यादा जीवनवायु
ले जाते हो, प्राणवायु
ले जाते हो कि
तुम्हारे
भीतर जो सोए
हुए तत्व हैं
वह तो जगने की
क्षमता उनकी
बढ़ जाती है, तत्काल वे
जगने शुरू हो
जाते हैं; और
तुम्हारे
भीतर जो सोने
की प्रवृत्ति
है, भीतर
वह भी टूटती
है।
तुम
तो हैरान
होओगे, अभी
मेरे पास कोई
चार वर्ष पहले
सीलोन से एक बौद्ध
भिक्षु आया।
वह तीन साल से
सो नहीं सका।
सब तरह के इलाज
किए, वे
काम नहीं किए।
वे काम कर
नहीं सकते थे,
क्योंकि वह
एक अनापानसती
योग का प्रयोग
कर रहा था
श्वास का—चौबीस
घंटे गहरी
श्वास पर
ध्यान रख रहा
था। अब जिसने
उसे बता दिया
था उसे कुछ
पता नहीं होगा
कि चौबीस घंटे
गहरी श्वास पर
अगर ध्यान रखा
जाएगा तो नींद
बिलकुल विदा
हो जाएगी; नींद
को लाया ही
नहीं जा सकता।
तो
इधर तो वह
चौबीस घंटे
श्वास पर
ध्यान रख रहा
है और उधर
उसको दवाइयां दिलवाए जा
रहे हैं। तो
उसकी बड़ी
तकलीफ खड़ी हो
गई;
क्योंकि
उसके शरीर में
कांफ्लिक्ट
पैदा हो गई।
दवाइयां उसको
सुला रही हैं,
और वह गहरी
श्वास का जो
प्रयोग चौबीस
घंटे जारी रखे
हुए है, वह
उसकी
शक्तियों को
जगा रहा है।
तो उसके भीतर
ऐसी जिच पैदा
हो गई, जैसे
कि कोई कार
में एक्सीलरेटर
और ब्रेक
दोनों एक साथ
दबाता हो।
समझे न? तो
वह तो बहुत
परेशानी में
था। किसी ने
मेरा उसको कहा
तो वह मेरे
पास आया।
मैं
उसको देखकर
समझा कि वह तो
पागलपन में
पड़ा है, यह तो
कभी हो ही
नहीं सकता। तो
मैंने उससे
कहा कि अनापानसती
योग बंद करो।
तो उसने कहा, इससे क्या
संबंध है? तो
उसे खयाल ही
नहीं है कि
अगर श्वास का
इतना ज्यादा
प्रयोग करोगे
कि आक्सीजन
इतनी मात्रा में
हो जाए कि
शरीर सो ही न सके,
तो फिर कैसे
सोओगे! और या
फिर, मैंने
उससे कहा कि
सोने का खयाल
छोड़ दो और ये दवाइयां
लेना बंद कर
दो। और
तुम्हें कोई
जरूरत नहीं है
नींद की। नींद
नहीं आएगी तो
हर्ज नहीं है।
अगर यह प्रयोग
जारी रखते हो
तो नींद नहीं
आने से कोई
हर्ज नहीं
होगा।
एक
आठ दिन उसने
प्रयोग बंद
किया है कि
उसे नींद आनी
शुरू हो गई, कोई
दवा की जरूरत
न रही।
अधिक
कार्बन से
अधिक
मूर्च्छा:
तो
हमारे भीतर
सोने की
संभावना बढ़ती
है कार्बन के
बढ़ने से।
इसलिए जिन—जिन
चीजों से
हमारे भीतर
कार्बन बढ़ती
है,
वे सभी
चीजें हमारे
भीतर सोई हुई
शक्तियों को और
सुलाती हैं।
उतनी हमारी
मूर्च्छा
बढ़ती चली जाती
है।
जैसे
दुनिया में
जितनी संख्या
आदमी की बढ़
रही है उतनी
मूर्च्छा का
तत्व ज्यादा
होता चला जाएगा; क्योंकि
जमीन पर
आक्सीजन कम और
आदमी ज्यादा होते
चले जाएंगे।
कल एक ऐसी
हालत हो सकती
है कि हमारे
भीतर जागने की
क्षमता कम से
कम रह जाए।
इसलिए तुम
सुबह ताजा
अनुभव करते हो;
एक जंगल में
जाते हो, ताजा
अनुभव करते हो,
समुद्र के
तट पर तुम
ताजा अनुभव
करते हो।
बाजार की भीड़
में सुस्ती छा
जाती है, सब
तमस हो जाता
है; वहां
बहुत कार्बन
है।
प्रश्न:
क्या नया
आक्सीजन नहीं
बनता है?
निरंतर
बन रहा है।
लेकिन हमारी
भीड़,
हमारी भीड़
में रहने की
आदतें, वे
सारी आक्सीजन
को पीए चली
जाती हैं। तो
इसलिए जहां भी
आक्सीजन
ज्यादा है
वहां तुम
प्रफुल्ल
अनुभव करोगे—वह
चाहे बगीचा हो,
चाहे नदी का
किनारा हो, चाहे पहाड़
हो—जहां भी
आक्सीजन
ज्यादा है, वहां तुम
एकदम प्रफुल्लित
हो जाओगे, स्वस्थ
हो जाओगे।
जहां भीड़ है, भड़क्का है, सिनेमागृह हैं—चाहे
मंदिर हो—
वहां तुम एकदम
से सुस्त हो
जाओगे; वहां
मूर्च्छा पकड़ेगी।
तीव्र
परिवर्तन से
देखना सुगम:
तो
तुम्हारे
भीतर आक्सीजन
को बढाने
का प्रयोजन है।
उससे तुम्हारे
भीतर का
संतुलन बदलता
है—तुम सोने
की तरफ उन्मुख
न रहकर जागने
की तरफ उन्मुख
होते हो। और
अगर यह मात्रा
तेजी से और
एकदम बढ़ाई जा
सके,
तो
तुम्हारे
भीतर संतुलन
में एकदम से
इतना फर्क
होता है जैसे
तराजू का एक
पल्ला जो नीचे
लगा था, एकदम
ऊपर चला गया; ऊपर का
तराजू का
पल्ला बिलकुल
नीचे आ गया।
अगर झटके के
साथ तुम्हारे
भीतर का
संतुलन बदला
जा सके, तो
उसका तुम्हें
अनुभव भी
जल्दी होगा।
अगर पल्ला
बहुत धीरे—
धीरे— धीरे—
धीरे आए, तुम्हें
पता नहीं
चलेगा कि कब
बदलाहट हो गई।
इसलिए मैं
तीव्र श्वास
के प्रयोग के
लिए कह रहा
हूं—कि इतने
जोर से
परिवर्तन करो
कि दस मिनट
में तुम एक
स्थिति से ठीक
दूसरी स्थिति
में प्रवेश कर
जाओ, और
तुम साफ देख
सको। क्योंकि
जितने जल्दी
चीज बदलती है,
तभी देखी जा
सकती है।
जैसे
कि हम सब जवान
से के होते
हैं,
बच्चे से
जवान होते हैं,
लेकिन हम
कभी पता नहीं
लगा पाते कि
कब हम बच्चे
थे और कब जवान
हो गए; और
कब हम जवान थे
और कब हम बूढ़े
हो गए। अगर
कोई तारीख
हमसे पूछे कि
किस तारीख को
आप जवानी से
के हुए हैं, तो हम तारीख
न बता सकेंगे।
बल्कि बड़ी
भ्रांति चलती
रहती है : का मन
में समझ ही
नहीं पाता कि
बूढ़ा हो गया; क्योंकि
उसकी जवानी और
उसके बुढ़ापे
के बीच कोई
गैप नहीं है, कोई तीव्रता
नहीं है।
बच्चा
कभी नहीं समझ
पाता कि अब वह
जवान हो गया, वह
अपने बचपन के
ही ढंग
अख्तियार किए
चला जाता है।
दूसरों को वह
जवान दिखने
लगता है, उसको
पता नहीं चला
कि वह जवान हो
गया है। मां—बाप
समझते हैं
जिम्मेवार
होना चाहिए, यह होना
चाहिए, वह
होना चाहिए।
वह अपने को
बच्चा समझे जा
रहा है!
क्योंकि कभी ऐसी
तीव्रता से
कोई घटना नहीं
घटी जिसमें
उसको पता चले
कि अब वह
बच्चा नहीं
रहा, अब
जवान हो गया
है।
का
आदमी जवान की
तरह व्यवहार
किए चला जाता
है। उसे पता
नहीं चल पा रहा
है कि वह का हो
गया। पता कैसे
चले?
क्योंकि
पता चलने के
लिए तीव्र
संक्रमण चाहिए।
अगर
ऐसा हो कि एक
आदमी फलां
तारीख को घंटे
भर में जवान
से बूढ़ा हो
जाए,
तो किसी को
कहने की जरूरत
न होगी कि तुम
बूढ़े हो गए हो।
एक बच्चा एक
घंटे में फलां
तारीख को बीस
साल का पूरा हो
और एकदम जवान
हो जाए, तो
किसी को, बाप
को कहना न
पड़ेगा कि अब
तुम्हारी
उम्र बड़ी हो
गई है, अब
जरा यह बचपना छोड़ो। यह
किसी को कहने
की जरूरत नहीं,
वह खुद ही
जान लेगा कि
बात घट गई है; अब मैं
दूसरा आदमी
हूं।
तो
मैं इतना ही
तीव्र
संक्रमण
चाहता हूं कि
तुम पहचान सको
इन दो
स्थितियों का
फर्क कि
तुम्हारा
सोया हुआ
चित्त, तुम्हारा
सोया हुआ
व्यक्तित्व, वह तुम्हारी
स्लीपिंग
कांशसनेस; और
यह तुम्हारी अवेकंड, जागी हुई, प्रबुद्ध
चेतना। यह
इतनी तीव्रता
से, झटके
से होना चाहिए—जंप
की तरह, छलांग
की तरह—कि तुम
पहचान पाओ कि
फर्क हो गया।
यह पहचान काम
पड़ेगी। यह
पहचान बहुत
कीमत की है।
इसलिए
मैं ऐसे
प्रयोगों का
पक्षपाती हूं
जो तुम्हें
तीव्रता से
रूपांतरित
करते हों। अगर
बहुत वक्त ले
लें,
तो तुम कभी
समझ न पाओगे
कि क्या हो
रहा है। और
खतरा क्या है
कि अगर तुम
समझ न पाओ, तो
हो सकता है
थोड़ा—बहुत
रूपांतरण भी
हो जाए, लेकिन
उससे
तुम्हारी समझ
गहरी न हो पाए।
कई बार ऐसा हो
जाता है; कई
मौकों पर
ऐसा होता है
कि एक आदमी
बहुत बार ऐसा
होता है कि
आत्मिक अनुभव
के बहुत निकट
पहुंच जाता है
अनायास, चलते—चलते
कहीं से, लेकिन
झटके से नहीं,
तीव्रता से
नहीं, तो
वह पकड़ नहीं
पाता कि क्या
हुआ। और उसकी
वह जो
व्याख्या
करता है वह
कभी भी ठीक नहीं
होती; क्योंकि
उसकी
व्याख्या के
लिए उतना
फासला नहीं
होता। बहुत मौकों पर
ऐसी घटना घटती
है जब कि तुम
करीब होते हो
एक नये अनुभव
के, लेकिन
तुम उसको टाल
जाओगे; तुम
उसकी
व्याख्या
अपने पुराने
हिसाब में ही
कर लोगे, क्योंकि
वह इतने धीरे—
धीरे हुआ है
कि उसका कभी
पता नहीं
चलेगा।
एक
आदमी को मैं
जानता हूं कि
वह भैंस को
उठा लेता है।
उसके घर
भैंसें हैं।
और वह बचपन से, जब
भैंस उसके घर
में पैदा हुई
होगी तब से
उसे उठाता रहा
है रोज; उसे
उठाकर घूमता
रहा है। भैंस
रोज धीरे—
धीरे बड़ी होती
गई है और रोज
उसका भी उठाने
का बल थोड़ा—
थोड़ा बढ़ता चला
गया। अब वह
पूरी भैंस को
उठा लेता है।
अब वह चमत्कार
मालूम होता है।
हालांकि उसको
भी नहीं लगता
कि यह कोई
चमत्कार है।
दूसरों को
लगता है कि
बड़ा मुश्किल
का मामला है, भैंस को उठा
ले एक आदमी!
मगर वह इतना
क्रमिक हुआ है
कि उसे भी पता
नहीं है। और
हमें यह
चमत्कार
दिखता है, क्योंकि
हमारे लिए बड़ा
फासला मालूम
हो रहा है दोनों
में, उसमें
कहीं तालमेल
नहीं दिखता है—हम
उठा नहीं सकते,
वह उठा रहा
है!
कुंडलिनी
का ईंधन है
प्राण—ऊर्जा:
तो
तीव्रता का
प्रयोग इसलिए
कहता हूं। और
प्राणवायु का
तो बहुत मूल्य
है। उसका तो
बहुत मूल्य है।
असल में, जितनी
मात्रा में
तुम अपने शरीर
को प्राणवायु
से, आक्सीजन
से भर लोगे, उतनी ही
त्वरा से, स्पीड
से तुम शरीर
के अनुभव से
आत्म— अनुभव
की तरफ झुक
जाओगे।
क्योंकि अगर
बहुत ठीक से
समझो तो शरीर
तुम्हारा डेड
एंड हैं—यानी
तुम्हारा वह
हिस्सा, जो
मर चुका है।
इसलिए वह
दिखाई पड़ रहा
है। तुम्हारा
वह हिस्सा जो
सख्त हो चुका
है। इसलिए
दिखाई पड रहा
है। तुम्हारा
वह हिस्सा जो
अब तरल नहीं
है, ठोस हो
गया है। और आत्मा
तुम्हारा वह
हिस्सा है जो
तरल है, ठोस
नहीं है; हवाई
है, पकड़
में नहीं आता
है।
तो
जितनी ज्यादा
तुम्हारे
भीतर ऊर्जा
होगी प्राण की, और
जागरण और जीवन
होगा, उतना
ही तुम इन
दोनों के बीच
साफ फासला कर
पाओगे। ये दो
बहुत भिन्नतम
तुम्हें
मालूम पड़ेंगे,
तुम्हारे
ही—एक हिस्सा
यह, एक
हिस्सा वह—
बिलकुल अलग
मालूम पड़ेंगे।
इसलिए बहुत
गहरा उपयोग है।
प्रश्न:
कुंडलिनी
जागरण के लिए?
हां, कुंडलिनी
जागरण के लिए।
इसलिए कि
कुंडलिनी जो
है, वह
तुम्हारी सोई
हुई शक्ति है।
उसको तुम
कार्बन के साथ
न जगा सकोगे; कार्बन उसे
और सुला देगी।
उसको जगाने के
लिए आक्सीजन
बहुत सहयोगी
है। इसलिए जिस
तरह से भी हो
सके. .इसलिए
सुबह का ध्यान
निरंतर समझा
गया है कि
सुबह का ध्यान
उपयोगी है।
उसका कोई और
ज्यादा मूल्य
नहीं है। उसका
मूल्य इतना ही
है कि सुबह
तुम थोड़ी भी
श्वास लो तो
भी ज्यादा
आक्सीजन
तुम्हारे भीतर
पहुंच जाती है।
तो उधर सूर्य
उगने के साथ
घंटे भर
पृथ्वी बहुत
ही अनोखी
स्थिति में
होती है। तो
उस स्थिति का
उपयोग करने के
लिए सुबह सारी
दुनिया में
ध्यान का वक्त
चुन लिया गया।
तुम्हारे
भीतर जो सोई
हुई शक्ति है
उस पर जितने
जोर से
प्राणवायु की
चोट होगी, उतनी
ही शीघ्रता से
हमें
दिखाई नहीं
पड़ता न! एक
दीया जल रहा
है,
तो हमें तो
तेल दिखाई
पड़ता है, बाती
दिखाई पड़ती है,
माचिस से आग
लगाई, वह
दिखाई पड़ती है;
लेकिन जो जल
रही है
आक्सीजन, वह
भर नहीं दिखाई
पड़ती। न तेल
मूल्य का है
उतना, न
बाती उतने
मूल्य की है, न माचिस उतने
मूल्य की है।
लेकिन यह
दृश्य हिस्सा
है; यह
शरीर है उसका;
यह दिखाई
पड़ता है। और
आक्सीजन जो जल
रही है, वह
दिखाई नहीं
पड़ती।
मैंने
सुना है कि एक
घर में बच्चे
को छोड़ गए हैं, और
भगवान का
मंदिर है उस
घर में, और
दीया जलाकर रख
गए हैं, और
जोर की तूफान
की हवा आई है, तो उस बच्चे
ने सोचा बाप
कह गया है, दीया
बुझ न जाए।
उसे चौबीस
घंटे घर में
वे जलाते हैं।
अब जोर की हवा
है, बच्चा
क्या करे? तो
उसने लाकर एक
कांच का बड़ा
बर्तन उस दीये
पर ढांक
दिया। जोर की हवा
से तो सुरक्षा
हो गई, लेकिन
थोड़ी देर में
दीया बुझ गया।
अब वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। शायद
उतनी तेज हवा
को भी दीया
झेल जाता, लेकिन
हवा के न होने
को कैसे झेलेगा?
वह मर ही
गया। पर वह
दिखाई नहीं
पड़ता न!
हमारे
भीतर भी जिसको
हम जीवन कह
रहे हैं, वह आक्सीडाइजेशन
ही है—उसी तरह,
जैसे दीये
के। असल में, अगर जीवन को
हम वैज्ञानिक
अर्थों में
लें, तो वह
प्राणवायु के
जलने का नाम
है। चाहे वह
वृक्ष में हो,
चाहे आदमी
में, चाहे
दीये में, चाहे
सूरज में—कहीं
भी हो— जहां भी
प्राणवायु जल
रही है, वहां
जीवन है। तो
जितना तुम
प्राणवायु को
जला सको, उतनी
तुम्हारी
जीवन की
ज्योति प्रगाढ़
हो जाएगी। और
तुम्हारी
जीवन की
ज्योति ही है
कुंडलिनी। वह
उतनी ही प्रगाढ़
होकर बहने
लगेगी, उतनी
ही तीव्र हो
जाएगी। तो उस
पर प्राणवायु
का तीव्र आघात
परिणामकारी
है।
गुफा
में साधना
करने के
सूक्ष्म कारण:
प्रश्न
: ओशो समाधि के
प्रयोग के लिए
गुफाओं का
उपयोग किया
जाता था। वहां
तो प्राणवायु
कम रहती है।
असल में, बहुत
सी बातों का
आधार है समाधि
में—बहुत सी
बातों का। और
जो लोग भी
गुफाओं का
प्रयोग करते
हैं समाधि के
लिए, उसमें
अगर और बातें
नहीं हैं, तो
समाधि में न
जाकर वे
मूर्च्छा में
चले जाएंगे।
और जिसे वे
समाधि समझेंगे,
वह केवल प्रगाढ़
तंद्रा होगी
और मूर्च्छा
की अवस्था
होगी।
गुफा
का उपयोग
सिर्फ वही कर
सकता है, जिसने
बहुत
प्राणायाम के
द्वारा अपने
को आक्सीडाइज
किया हुआ है
कि गुफा उसके
लिए बेमानी है।
इसलिए एक आदमी
अगर बहुत गहरा
प्राणायाम
किया है, और
उसके खून का
कण—कण, रोआं—रोआं,
रेशा—रेशा आक्सीडाइज
हो गया है, तो
वह आठ दिन
जमीन के नीचे
भी दब जाए तो
मर नहीं जाएगा।
और कोई कारण
नहीं है। उसके
शरीर को जितनी
आक्सीजन की
जरूरत है, उसके
पास उतना
अतिरिक्त
संचय है।
हमारे पास कोई
अतिरिक्त
संचय नहीं है।
तो अगर तुम
बिना
प्राणायाम को
समझे और उस
आदमी की बगल
में सो गए, तो
तुम मरे हुए
निकलोगे, वह
आदमी आठ दिन
के बाद जिंदा
निकल आएगा।
असल में, आठ
दिन के लिए जो
न्यूनतम, मिनिमम
आक्सीजन की
जरूरत है, उतना
उसके पास संचय
है, उतना
वह पी गया है।
तो
गुफा में जा
सकता है एक
आदमी, और तब
गुफा में उसको
फायदे हो
जाएंगे।
आक्सीजन को तो
इस तरह पूरा
कर लेगा, उसका
उसे डर नहीं
है ज्यादा। और
गुफा जो
सुरक्षा देती
है और बहुत सी
चीजों से, वह
उसके लिए गुफा
का उपयोग कर
रहा है। गुफा
बहुत तरह की
सुरक्षा देती
है। बाहर के
शोरगुल से ही
नहीं, बाहर
की बहुत सी
तरंगों से, बाहर की
बहुत सी वेब्स
से। और पत्थर
की, और खास
तरह के पत्थर
की गुफा के
खास अर्थ हैं।
कुछ
पत्थर, कुछ
विशेष पत्थर,
जैसे
संगमरमर, कुछ
तरंगों को
भीतर
प्रविष्ट
नहीं होने
देता। इसलिए
संगमरमर का
मंदिरों में
विशेष प्रयोग किया
गया। कुछ
तरंगें उस
मंदिर के भीतर
प्रवेश नहीं
कर सकतीं उस
पत्थर की वजह
से। वह
कारीगरी का
उतना नहीं है
मामला, उसके
पीछे बहुत
गहरे अनुभव
हैं कि कुछ
पत्थर किसी
खास तरह की
तरंगों को पी
जाते हैं, भीतर
नहीं जाने
देते हैं। कुछ
पत्थरों पर से
कुछ खास तरह
की तरंगें वापस
लौट जाती हैं;
कुछ पत्थर
कुछ खास तरह
की तरंगों को
आकर्षित करते
हैं। तो विशेष
तरह की गुफाएं
विशेष आकार
में काटी गईं;
क्योंकि
आकार का भी
बड़ा मूल्य है।
और वह आकार भी
विशेष तरंगों
को हटाने में
सहयोगी होता
है।
पर
हमें खयाल में
नहीं होता है।
जब एक साइंस
खो जाती है तो
बड़ी मुश्किल
हो जाती है।
हम
एक कार बनाते
हैं। कार को
हम एक खास
आकार में
बनाते हैं।
अगर खास आकार
में न बनाएं
तो उसकी गति
कम हो जाएगी।
कार का आकार
ऐसा होना
चाहिए कि वह
हवा को चीर सके, हवा
से लड़ने न लगे।
अगर आकार उसका
चपटा हो सामने
से और हवा से
लड़ने लगे तो वह
गति को तोड़ेगा।
अगर हवा को
चीर सके— लड़े न,
सिर्फ तीर
की तरह चीरे, तो वह हवा के रेसिस्टेंस
से जो उसकी
गति को बाधा
पड़ती है, वह
तो पड़ेगी नहीं,
बल्कि
चीरने की वजह
से पीछे जो
वैक्यूम पैदा
होगा, वह
भी उसकी गति
को बढ़ाने में
सहयोगी हो
जाएगा।
तुम
इलाहाबाद का
ब्रिज अगर कभी
देखोगे, तो
इलाहाबाद का
ब्रिज बहुत
मुश्किल से
बना। क्योंकि
वह गंगा उसके पिलर्स को
खड़ा न होने दे;
वे पिलर्स
गिरते ही चले
गए। और एक
पिलर तो बनाना
असंभव ही हो
गया! सारे पिलर्स
बन गए, लेकिन
एक पिलर नहीं
बना। तो तुम
वहां देखोगे
कि एक जूते के
आकार का पिलर
है। लेकिन
जिसने बनाया,
उसे बड़ी
मुश्किल हुई।
उसने जूते के
आकार का पिलर
बनाया। तो वह
गंगा का जो
धक्का है, पी
जाता है। जूते
का आकार भी
तुम्हें चलने
में सहयोगी है;
वह हवा को
काटता है, रोकता
नहीं। तो उस
खयाल से जूते
के आकार का
पिलर है। वह
गंगा का जो
धक्का था जो
दुश्मनी का, वह उसको एज्जार्ब
कर गया।
गुफाओं
के विशेष आकार, आयतन
व पत्थरों का
रहस्य:
तो
गुफाओं के
विशेष आकार
हैं,
विशेष आयतन
हैं। तो विशेष
आकार, विशेष
पत्थर और
विशेष आयतन।
एक व्यक्ति एक
खास सीमा तक
अपने
व्यक्तित्व को
आरोपित कर
सकता है। और
वे अनुभव में आ
जाते हैं; उसके
सारे रास्ते
हैं कि वे
खयाल में आ
जाते हैं; कि
अगर मैं आठ
फीट चौड़े
और आठ फीट
लंबे चौकोर
कमरे को अपने
से आपूरित कर
सकता हूं यानी
मैं तो एक ही
जगह बैठा
रहूंगा लेकिन
मेरे
व्यक्तित्व
से निकलनेवाली
सारी किरणें
इतने हिस्से
को घेरा
बांधकर भर सकती
हैं, तो यह
जगह बड़ी
सुरक्षित हो
जाती है।
इसलिए इसमें
कम से कम
रंध्र होने
चाहिए, कम
से कम द्वार—प्ल ही
द्वार होगा।
और इसके अपने
आकार होंगे, और उन
आकारों की
अपनी विशेषता
होगी। तो बाहर
के संवेदनों
को भीतर न आने
देंगे, और
भीतर जो पैदा
हो रहा है
उसको बाहर न
जाने देंगे।
फिर अगर एक ही
गुफा पर बहुत
साधकों ने
प्रयोग किया
हो तब तो
अदभुत फायदा
होता है; उसका
मूल्य ही बहुत
बढ़ जाता है।
वह विशेष तरह
की सारी की
सारी तरंगें
वह गुफा पी
जाती है और
नये साधक के
लिए सहयोगी हो
जाती है।
इसलिए हजारों—हजार
साल तक एक—एक
गुफा का
प्रयोग चला है।
अब
अजंता जब
पहली दफा खोजा
गया,
तो वे सब
मिट्टी से बंद
कर दी गई थीं गुफाएं।
उसके मिट्टी
से बंद करने
के लिए कारण
था। खयाल में
नहीं है कि
क्यों बंद कर
दी गईं। पर सब गुफाएं
मिट्टी में
ढंकी हुई
मिलीं। सब
मिट्टी से बंद
थीं पूरी की
पूरी। सैकड़ों
साल तक उनका
कोई पता नहीं
रहा था, वह
पहाड़ ही रह
गया था, क्योंकि
मिट्टी भर दी
गई थी और उस
मिट्टी पर वृक्ष
पैदा हो गए थे।
और वे इसलिए
भर दी गई थीं
कि जब साधक
उपलब्ध नहीं
हो सके, तो
उन गुफाओं में
जो विशेषता थी,
उसको बचाने
के लिए और कोई
रास्ता नहीं
रहा, तो
उसे बंद कर दिया
गया। कभी भी
कोई साधक
खोजेगा तो फिर
काम में लाई
जा सकती हैं।
लेकिन वे विजिटर्स
के लिए नहीं
थीं; वे
दर्शकों के
लिए नहीं हैं।
दर्शकों ने सब
नष्ट कर दिया,
अब वहां कुछ
भी नहीं है, दर्शकों ने
सब नष्ट कर
दिया।
तो
इन गुफाओं में
आक्सीजन का तो
फायदा नहीं मिलेगा
तुम्हें।
फायदे दूसरे
हैं। लेकिन
साधना तो बहुत
जटिल मामला है।
उसके बहुत
हिस्से हैं।
पर उनके लिए
गुफा फायदे की
हो सकती है, जिन्होंने
काफी प्रयोग
किया है।
फिर
जो गुफा में
बैठता था, वह
गुफा में ही
नहीं बैठा
रहता था। समय—समय
पर गुफा में
था, समय—समय
गुफा के बाहर था।
जो बाहर करने
योग्य था वह
बाहर कर रहा
था, जो
भीतर करने
योग्य था वह
भीतर कर रहा
था।
मंदिर
हैं,
मस्जिद हैं,
वे कभी इसी
अर्थ में खोजे
गए थे कि वहां
एक विशेष तरह
की तरंगों और
कंपनों का
संग्रह है; और उन
तरंगों और
कंपनों का
उपयोग किया जा
सकता है। कहीं
अचानक किसी
स्थान पर तुम
पाओगे कि
तुम्हारे
विचार एकदम से
बदल गए।
हालांकि तुम
पहचान न पाओगे;
तुम यही
समझोगे कि
अपने भीतर ही
कोई फर्क हो गया।
तुम अचानक
किसी आदमी के
पास जाकर
पाओगे कि तुम
दूसरे आदमी हो
गए हो थोड़ी
देर के लिए; तुम्हारा
कोई दूसरा
पहलू ही ऊपर आ
गया। तुम यही
समझोगे कि
अपने भीतर ही
कुछ हो गया है,
मूड की बात
है। ऐसा नहीं
है; इतना
आसान नहीं है।
महापुरुषों
के मृत शरीर
भी मूल्यवान:
और
उसके लिए बड़ी
अदभुत....... अब
जैसे कि पिरामिड्स
हैं। अब कितनी
खोजबीन चलती
है! उससे कोई
संबंध नहीं है।
अभी खोजबीन
चलती है कि पिरामिड्स
किसलिए
बनाए गए? क्या
है? इतने—इतने
बड़े पिरामिड्स
उस रेगिस्तान
में बनाने का
क्या प्रयोजन
है? कितना
श्रम व्यय हुआ
है! कितनी
शक्ति लगी है!
और सिर्फ
आदमियों की
लाशें गड़ाने
के लिए इतनी
बड़ी कब्रें
बनाना बिलकुल
बेकार है।
वे
सब के सब साधना
के लिए विशेष
अर्थ में बनाए
गए स्थान हैं।
और साधना के
उपयोग के लिए
ही विशेष
लोगों की लाशें
भी वहां रखी
गईं।
अभी
तिब्बत में
हजार—हजार, दो—दो
हजार साल
पुराने
साधकों की ममीज़
हैं, जिनको
बहुत गहरे में
सुरक्षित रखा
हुआ है। जो
शरीर बुद्ध के
पास रहा हो, वह शरीर साधारण
नहीं रह जाता।
जिस शरीर के
साथ अस्सी साल
तक बुद्ध जैसी
आत्मा
संबंधित रही
हो, वह
शरीर भी
साधारण नहीं
रह जाता; वह
काया भी कुछ
ऐसी चीजें पी
जाती है और
ऐसी तरंगें
पकड़ लेती है
जो कि अनूठी
हैं—जिनका कि
अब दोबारा
शायद जगत में
वैसा होगा कि
नहीं होगा, कहना कठिन
हो जाता है।
जीसस
के मरने के
बाद उनकी लाश
को एक गुफा
में रख दिया
गया था कि
सुबह दफना
दिया जाएगा।
लेकिन वह लाश
फिर मिली नहीं।
और यह बड़ी मिस्ट्री
है ईसाई के
लिए कि वह
क्या हुआ? वह
कहां गई? फिर
कहानी है कि
वे कहीं देखे
गए, दिखाई
पड़े। तो रिसरेक्यान
हुआ; वे पुनरुज्जीवित
हो गए। लेकिन
फिर कब मरे? पुनरुज्जीवित
होकर फिर उनका
जीवन क्या है?
ईसाइयों के
पास उनकी कोई
कथा नहीं है।
असल में, जीसस
की लाश इतनी
कीमती है कि
उसे तत्काल उन
जगहों में
पहुंचा दिया
गया जहां वह
सुरक्षित की
जा सके बहुत
लंबे समय के
लिए। और इसकी
कोई खबर
सामान्य नहीं
बनाई जा सकती
थी। क्योंकि
इस लाश को
बचाना बहुत
जरूरी था। ऐसा
आदमी मुश्किल
से कभी होता
है।
तो
जो ममीज़
हैं पिरामिड्स
में,
और ये जो पिरामिड्स
हैं, इनका
जो आकार है, इनके जो कोण
हैं...
प्रश्न.
वह लाश कौन ले
गया?
वह
अलग बात करनी
पड़े। वह तो
अलग बात है न!
जब जीसस पर
पूरी बात कभी
करेंगे, तब
पूरी बात होगी
तो खयाल में
आएगा।
गहरे
ध्यान में कम
श्वास की
जरूरत
प्रश्न:
ओशो जब हमारा
गहरे ध्यान
में प्रवेश
होता है तब
शरीर क्रमश:
जड़ होता जाता
है और श्वास
बिलकुल क्षीण
होने लगती है
मिटने लगती है
श्वास के इस
धीमे होने के
कारण शरीर में
आक्सीजन तो
घटता है। तो
आक्सीजन की इस
कमी का और
शरीर के जड़
होने का ध्यान
व समाधि से
क्या संबंध है?
हां, हां।
असल में... असल
में, जब
श्वास पूरी
तीव्रता से जग
जाएगी, और
तुम्हारे और
तुम्हारे
शरीर के बीच
एक गैप पैदा
हो जाएगा उसकी
तीव्रता के
कारण, तुम्हारा
सोया हिस्सा
और तुम्हारा
जागा हिस्सा
भिन्न मालूम
होने लगेगा, तो जैसे ही
तुम इस जागे
हुए हिस्से की
तरफ यात्रा
शुरू करोगे, शरीर को फिर
आक्सीजन की
कोई जरूरत
नहीं है—शरीर
को। अब तो
उचित है कि
बिलकुल सो जाए
वह, अब तो
उचित है कि वह
बिलकुल जड़ हो
जाए, मुर्दे
की तरह पड़ा रह
जाए। क्योंकि
तुम्हारी
जीवन— ऊर्जा
अब शरीर की
तरफ नहीं बह
रही है, अब
तुम्हारी
जीवन—ऊर्जा तो
आत्मा की तरफ
बहनी शुरू हो
गई है।
आक्सीजन
की जो जरूरत
है वह है शरीर
की;
वह जरूरत
आत्मा की नहीं
है। समझ रहे
हो न तुम? वह
है जरूरत शरीर
की। इसलिए जब
तुम्हारी
आत्मा की तरफ
तुम्हारी जीवन—ऊर्जा
बहने लगी, तो
अब शरीर के
लिए बहुत मिनिमम
आक्सीजन की
जरूरत है, जितने
से कि वह
सिर्फ जीवित
रह पाए बस।
इससे ज्यादा
की कोई जरूरत
नहीं है। इससे
ज्यादा अगर
उसको मिलेगी,
तो वह बाधा
बनेगा। इसलिए
क्षीण होती
जाएगी श्वास
पीछे तुम्हारी।
उसका जगाने के
लिए उपयोग है
कि तुम्हारे
भीतर कोई चीज
जग गई; जब
वह जग गई, तब
उसका कोई
उपयोग नहीं है।
अब तुम्हारे
शरीर को बहुत
कम से कम
श्वास की जरूरत
है। कुछ क्षण
तो ऐसे आ
जाएंगे जब
श्वास बिलकुल
बंद हो जाएगी।
होगी ही नहीं।
समाधि
में श्वास का
खो जाना:
असल
में,
जब तुम ठीक
संतुलन पर
पहुंचोगे, बैलेंस
पर पहुंचोगे—जिसको
हम समाधि कहें,
उस पर पहुचोगे—तो
श्वास बंद हो
जाएगी। लेकिन
हमें श्वास
बंद होने का
कोई खयाल नहीं
है कि उसका
मतलब क्या
होता है? अगर
अभी हम अनुभव
भी करें तो हम
बंद करेंगे।
वह अनुभव वह
नहीं है।
श्वास चल रही
है, हमने
रोक ली, यह
एक बात है।
श्वास बाहर जा
रही है, श्वास
भीतर आ रही है,
ये दो अनुभव
हमारे हैं—बाहर
जाना, भीतर
आना; बाहर
जाना, भीतर
आना। लेकिन एक
बिंदु ऐसा आता
है कि श्वास
आधी बाहर है
और आधी भीतर है
और सब ठहर गया
है।
तो
कुछ क्षण ऐसे
आएंगे ध्यान
में जब कि
तुम्हें
लगेगा कि
श्वास ठहर तो
नहीं गई! कहीं
बंद तो नहीं
हो गई! कहीं मर
तो नहीं जाऊंगा!
बिलकुल ऐसे
क्षण आएंगे।
जितना तुम
गहरे जाओगे, उतना
इधर श्वास के
कंपन कम होते
चले जाएंगे; क्योंकि उस
गहराई पर तुम्हें
आक्सीजन की
कोई जरूरत
नहीं है, उसकी
जरूरत थी
बिलकुल पहली
चोट पर।
यह
ऐसा ही है, जैसे
कि मैंने चाबी
लगाई ताले में।
लेकिन ताला
खुल गया; अब
मैं चाबी लगाए
ही थोड़ा चला जाऊंगा।
चाबी बेकार हो
गई; वह
ताले में अटकी
रह गई, मैं
भीतर चला गया।
तुम कहोगे कि
आपने पहले
चाबी लगाई थी,
अब आप भीतर
चाबी क्यों
नहीं लगा रहे
हैं? वह
चाबी लगाई ही
इसलिए थी कि
वह द्वार पर
ही उसकी जरूरत
थी।
जब
तक तुम्हारे
भीतर जगी नहीं
है कुंडलिनी, तब
तक तो तुम्हें
श्वास की चाबी
का जोर से प्रयोग
करना पड़ेगा।
लेकिन जैसे ही
वह जग गई, यह
बात बेकार हो
गई, अब तुम
भीतर की
यात्रा पर चल
पड़े हो। और अब
तुम्हारा
शरीर बहुत कम
श्वास मांगेगा।
यह तुम्हें
बंद नहीं करनी
है, यह
अपने से होने
लगेगी धीमी, धीमी, धीमी,
धीमी... और
ऐसे क्षण
आएंगे बीच—बीच
में, झलक
आएगी ऐसी कि
जैसे सब बंद
हो गया, सब
ठहर गया।
समाधि
जीवन का नहीं, अस्तित्व
का अनुभव:
असल
में,
वह जो क्षण
है जब श्वास
बिलकुल ठहरी
हुई है—न बाहर
जाती; न
भीतर जाती—वह
परम संतुलन के
जो क्षण हैं, वही समाधि
का क्षण है।
उस क्षण में
तुम अस्तित्व
को जानोगे,
जीवन को
नहीं। इस फर्क
को ठीक से समझ
लेना! लाइफ को
नहीं, एब्सिस्टेंस को। जीवन की
जानकारी तो
श्वास से ही
बंधी है; जीवन
तो आक्सीडाइजेशन
ही है; वह
तो श्वास का
ही हिस्सा है।
लेकिन उस क्षण
तुम उस
अस्तित्व को जानोगे
जहां श्वास भी
अनावश्यक है,
जहां सिर्फ
होना है; जहां
पत्थर हैं, पहाड़ हैं, चांद हैं, तारे हैं—जहां
सब ठहरा हुआ
है, जहां
कोई कंपन भी
नहीं है। उस
क्षण
तुम्हारे
श्वास का कंपन
भी रुक जाएगा।
वहां श्वास का
भी प्रवेश
नहीं है, क्योंकि
वहां जीवन का
भी प्रवेश
नहीं है। वह
जो है—बियांड!
जीवन के भी
पार!
और
ध्यान रहे, जो
चीज मृत्यु के
पार है वह
जीवन के भी पार
होगी।
इसलिए
परमात्मा को
हम जीवित नहीं
कह सकते; क्योंकि
जिसके मरने की
कोई संभावना
नहीं है उसे
जीवित कहना
फिजूल है; कोई
अर्थ नहीं है।
परमात्मा का
कोई जीवन नहीं
है, अस्तित्व
है। हमारा
जीवन है, अस्तित्व
के बाहर जब हम
आते हैं तो
हमारा जीवन है;
जब हम
अस्तित्व में
वापस लौटते
हैं तो हमारी
मौत है। जैसे
एक लहर उठी
सागर में, यह
इसका जीवन है—
लहर का। इसके
पहले लहर तो
नहीं थी, सागर
था। उसमें कोई
कंपन न था, उसमें
लहर थी नहीं।
लहर उठी, यह
जीवन शुरू हुआ;
फिर लहर
गिरी, यह
लहर की मौत
हुई। उठना लहर
का जीवन है; गिरना मर
जाना है।
लेकिन सागर का
जो अस्तित्व
है, लहरहीन;
जब लहर नहीं
उठी थी जो तब
भी था, और
जब लहर गिर
जाएगी तब भी
होगा, उस
अस्तित्व का,
उस ट्रैकिलिटी
का जो अनुभव
है वह समाधि
है।
तो
समाधि जीवन का
अनुभव नहीं है, अस्तित्व
का अनुभव है; एक्सिस्टेंशियल है वह। वहां
श्वास की कोई
जरूरत नहीं है।
वहां श्वास का
कोई अर्थ नहीं
है। वहां नहीं
श्वास का कोई
सवाल नहीं है,
श्वास का
कोई सवाल नहीं
है। वहां कभी—कभी
सब ठहर जाएगा।
समाधिस्थ
व्यक्ति के
वापस लौटने की
समस्या:
इसलिए
जब गहरी साधक
की स्थिति हो, तो
अनेक बार उसे
जीवित रखने के
लिए और लोगों
की जरूरत पड़ती
है, अन्यथा
वह खो जा सकता
है। अन्यथा वह
खो जा सकता है;
वह
अस्तित्व से
वापस ही न
लौटे।
रामकृष्ण
बहुत बार ऐसी
हालत में
पहुंच जाते।
तो छह—छह दिन
लग जाते, वे
नहीं लौटने की
हालत में हो
जाते। रामकृष्ण
को इतना
सम्मान है, लेकिन जिस
आदमी ने
रामकृष्ण को
दुनिया को
दिया, उसका
हमें पता भी
नहीं है। उनका
एक भतीजा उनके
पास था। उसने
उनको बचाया
निरंतर। वह
रात—रात भर
जागता, जबरदस्ती
मुंह में पानी
डालता, जबरदस्ती
दूध पिलाता; श्वास घुटने
लगती तो वह
मालिश करता।
वह उनको वापस
लाता रहा।
रामकृष्ण को,
विवेकानंद
ने तो उनकी
चर्चा की
दुनिया से, लेकिन जिस
आदमी ने बचाया,
उसका तो
हमें पता भी
नहीं चलता। उस
आदमी ने सारी
मेहनत की।
वर्षों की
मेहनत थी उसकी।
और रामकृष्ण
तो कभी भी जा
सकते थे, क्योंकि
वह इतना आनंदपूर्ण
है कि लौटना
कहां?
तो
अस्तित्व के
उस क्षण में
खोना संभव है
बिलकुल। वह
बहुत बारीक
रेखा है जहां
से तुम उस पार
चले जा सकते
हो। तो उसके
बचाने के लिए
स्कूल पैदा
हुए,
उसको बचाने
के लिए आश्रम
पैदा हुए।
इसलिए जिन
संन्यासियों
ने आश्रम नहीं
बनाए, वे
संन्यासी
समाधि में
बहुत गहरे
नहीं जा सके।
जिनका
संन्यास
परिव्राजक का
है, सिर्फ
घूमते रहने का,
वे ज्यादा
गहरे नहीं जा
सके, क्योंकि
उस गहरे जाने
के लिए ग्रुप
चाहिए, स्कूल
चाहिए; उस
गहरे जाने के
लिए और बचाव
के लिए और लोग
भी चाहिए जो
जानते हों, नहीं तो
आदमी कभी भी
खो जा सकता है।
तो
उन्होंने
छोटी सी
व्यवस्था कर
ली कि भई, कहीं
ज्यादा देर रुकेंगे
तो मोह हो
जाएगा। लेकिन
जिसको ज्यादा
देर रुकने से
मोह पैदा हो
जाता है, उसको
कम देर से भी
होता होगा—
थोड़ा कम होता
होगा, और
क्या फर्क
पड़ेगा! तीन
महीने से
ज्यादा होता
होगा, तीन
दिन में जरा
कम होता होगा।
मात्रा का ही
फर्क पड़ेगा, और तो कोई
फर्क पड़नेवाला
नहीं है।
तो
जिन—जिन लोगों
के संन्यासी
सिर्फ घूम रहे
हैं,
उनमें योग
खो जाएगा, उनमें
समाधि खो
जाएगी, उनमें
समाधि नहीं बच
सकती, क्योंकि
समाधि के लिए
ग्रुप चाहिए।
व्यक्ति तो
समाधि में जा
सकता है, लेकिन
उसका लौटना
बहुत मामला और
है। तो ध्यान
तक तो व्यक्ति
को कोई कठिनाई
नहीं है, समाधि
के क्षणों के
बाद बहुत
सुरक्षा की
जरूरत है। और
वही क्षण है
जब वह बचाया
जा सके तो उस
लोक की खबरें
ला सकता है—जहां
उसने पीप किया,
जहां उसने
झांक लिया जरा
सा। उसको अगर
हम लौटा सकें
तो वहां की
थोड़ी खबरें ला
सकता है।
जितनी खबरें
हमें मिली हैं,
वे उन थोड़े
से लोगों की
वजह से मिली
हैं जो वहां
से थोड़ा सा
लौट आए। नहीं
तो उस लोक की
हमें कोई खबर
नहीं मिल सकती।
उसके बाबत
सोचा तो जा ही
नहीं सकता; उसके सोचने
का तो कोई
उपाय नहीं है।
और अक्सर यह
है कि वहां जो
जाए उसके
लौटने की कठिनाई
हो जाती है, वह वहां से
खो सकता है।
वह प्याइंट
ऑफ नो रिटर्न
है। वह वह जगह
है जहां से
छलांग हो जाती
है और खड्ड मिल
जाता है, जहां
से रास्ता टूट
जाता है और
पीछे लौटने के
लिए रास्ता
नहीं दिखाई
पड़ता। उस वक्त
बड़े काम की
जरूरत है।
इधर
मैं निरंतर
चाहता हूं कि
जिस दिन भी
तुम्हें मैं
समाधि की तरफ
उन्मुख करूं, उस
दिन व्यक्ति
कीमती नहीं रह
जाता उस दिन
फौरन स्कूल
चाहिए जो
तुम्हारी
फिकर ले सके—
अन्यथा तुम तो
गए— और
तुम्हें लौटा
सके, और
तुम्हें जो
अनुभव मिला है
वह सुरक्षित
करवा सके।
नहीं तो वह
अनुभव खो
जाएगा।
सहज समाधिस्थ
व्यक्ति की
लयबद्ध श्वास:
प्रश्न:
ओशो सहज समाधि
की अवस्था में
जो व्यक्ति
जीता है? उसकी
श्वास की
अवस्था कैसी
होती है?
बहुत ही रिदमिक हो
जाती है, बहुत
लयबद्ध हो
जाती है, संगीतपूर्ण हो जाती है।
और बहुत सी
बातें होती
हैं। जो आदमी
चौबीस घंटे ही
सहज समाधि में
है, वह
जिसका मन
डोलता नहीं, इधर—उधर
नहीं होता, जैसा है
वैसा ही बना
रहता है, जो
जीता नहीं
अस्तित्व में
होता है, ऐसा
जो आदमी है, उसकी श्वास
एक बहुत ही
अपने तरह की
लयबद्धता ले
लेती है। और
जब वह कुछ भी
नहीं कर रहा
है— बोल नहीं
रहा है, खाना
नहीं खा रहा
है, चल
नहीं रहा है—
तब श्वास उसके
लिए बड़ी आनदपूर्ण
स्थिति हो
जाती है; तब
सिर्फ होना, सिर्फ श्वास
का चलना इतना
रस देता है
जितनी और कोई
चीज नहीं देती।
और बहुत संगीतपूर्ण
हो जाती है, बहुत
नादपूर्ण हो
जाती है।
उस
अनुभव को थोड़ा—बहुत
श्वास की
व्यवस्था से
भी अनुभव किया
जा सकता है।
इसलिए श्वास
की
व्यवस्थाएं
पैदा हुईं कि
जैसा सहज
समाधिस्थ
व्यक्ति की
श्वास होती है, जिस
रिदम, जिस
छंद में चलती
है, उसी
छंद में दूसरा
आदमी भी अपनी
श्वास चलाए, तो उसे
शांति का
अनुभव होगा।
इसलिए सब
प्राणायाम
इत्यादि की
अनेक व्यवस्थाएं
पैदा हुईं। ये
अनेक
समाधिस्थ
लोगों के पास
उनकी श्वास की
लयबद्धता को
देखकर पैदा की
गई हैं। थोड़ा
परिणाम होगा,
और सहायता
मिलेगी। और यह
जो श्वास है, सहज
समाधिस्थ
व्यक्ति की, यह अत्यंत मिनिमम हो
जाती है, न्यूनतम
हो जाती है।
क्योंकि जीवन
अब जो है उतना
अर्थपूर्ण
नहीं रह जाता,
जितना
अस्तित्व
अर्थपूर्ण हो
जाता है। यानी
इस व्यक्ति के
भीतर एक और
दिशा खुल गई
है जो
अस्तित्व की
है, जहां
श्वास वगैरह
की कोई जरूरत
नहीं है। वह
जीता तो वहीं
है, वह
रहता तो वहीं
है, वह
हमसे जब
संबंधित होता
है तभी वह
शरीर का उपयोग
कर रहा है, अन्यथा
वह शरीर का
उपयोग नहीं कर
रहा है। और
हमसे संबंधित
होने के लिए
उसे जो—जो
करना पड़ता है—
वह खाना खा
रहा है, कपड़े
पहन रहा है, सो रहा है, स्थान कर
रहा है, वह
हमसे संबंधित
होने की
व्यवस्था है;
अब उसके लिए
कोई अर्थ नहीं
है। और इस
सबके लिए
जितनी जीवन—ऊर्जा
चाहिए, उतनी
उसकी श्वास चल
रही है। वह
बहुत न्यून हो
जाती है।
इसलिए
वह बहुत कम
आक्सीजन की
जगह में भी जी
सकता है। बहुत
कम आक्सीजन की
जगह में जी
सकता है।
निर्वात
स्थानों में
साधकों का
रहना:
इसलिए
पुराने
मंदिरों या
पुरानी
गुफाओं में द्वार—दरवाजे
नहीं हैं।
जिसको हम आज
की दुनिया में
कहें तो बहुत
हैरानी की बात
है। क्योंकि
वे सब के सब
हमें बिलकुल
ही स्वास्थ्य
वितान के
विपरीत मालूम
पड़ेंगे—सारे
पुराने मंदिर।
न खिड़की है, न
दरवाजा है, न कुछ है। गुफाएं
हैं, कुछ
उपाय नहीं है,
वायु के आने—जाने
का कोई खास
उपाय नहीं
दिखाई पड़ता।
जो
उनके भीतर रह
रहा था, उसे
बहुत उपयोग
नहीं था। और
वायु को, वह
चाहता नहीं था
कि वह ज्यादा
भीतर आए— जाए।
क्योंकि वायु
के जो कंपन
भीतर आते हैं,
वह भीतर के
जो और एस्ट्रल
कंपन हैं, जो
सूक्ष्म कंपन
हैं, उनको
सबको नष्ट कर
डालते हैं, उनके धक्के
से उनको जला
जाते हैं।
इसलिए वह उनकी
सुरक्षा कर
रहा था। वह
आने देने के
लिए उत्सुक
नहीं था उनको
बहुत। लेकिन
आज नहीं हो
सकता, क्योंकि
आज.. .उसके लिए
पहले पूरी
श्वास की लंबी
साधना चाहिए,
तब! या
समाधिस्थ
स्थिति चाहिए,
तब।
अनापानसती
: कीमती
प्रयोग है:
प्रश्न:
ओशो बुद्धिस्ट
साधना में जो अनापानसती
है उसमें
श्वास पर
ध्यान करने से
आक्सीजन की मात्रा
पर क्या असर पड़ता
है?
बहुत
असर पड़ता है।
असल में—यह
बहुत मजे की
बात है और
समझने जैसी है—जीवन
की जो भी
क्रियाएं हैं, इन
में किसी पर
भी अगर तुम
ध्यान ले जाओ,
तो उनकी गति
बढ़ जाती है।
जीवन की जो
क्रियाएं हैं
वे ध्यान के
बाहर चल रही
हैं। जैसे
तुम्हारी
नाड़ी चल रही
है। तो जब
तुम्हारा
डाक्टर
तुम्हारी
नाड़ी जांचता
है, तो वह
उतनी ही नहीं
होती जितनी जांचने के
पहले थी, थोड़ी
सी बढ़ जाती है,
क्योंकि
तुम्हारा
ध्यान और
डाक्टर—दोनों
का ध्यान उस
पर चला जाता है।
और अगर लेडी
डाक्टर जांच
रही है तो और
ज्यादा बढ़
जाएगी; क्योंकि
ध्यान और
ज्यादा चला
जाएगा। समझ
रहे हैं न? उतनी
ही नहीं होती,
जितनी थी; थोड़ा सा
अंतर पड़ जाता
है। इसको तुम
ऐसा भी प्रयोग
करो अपनी नाड़ी
ही जांचो
पहले; और
फिर दस मिनट
नाड़ी पर ध्यान
रखो कि वह ख्वा
चल रही है, और
इसके बाद जांचो;
तो तुम
पाओगे उसके
कंपन बढ़ गए।
असल
में,
शरीर के
भीतर जो भी
क्रियाएं चल
रही हैं, वे
हमारे ध्यान
के बाहर चल
रही हैं।
ध्यान के जाते
ही उनकी गति
बढ़ जाएगी।
ध्यान की
मौजूदगी उनकी
गति को बढ़ाने
के लिए कैटेलिटिक
एजेंट का काम
करती है।
तो
अनापानसती
जो है, वह जो
प्रयोग है, वह बहुत
कीमती प्रयोग
है। वह श्वास
पर ध्यान देने
का प्रयोग है।
श्वास को
घटाना—बढ़ाना
नहीं है, श्वास
जैसी चल रही
है, उसे
तुम्हें
देखना है।
लेकिन
तुम्हारे
देखते से ही
वह बढ़ जाती है।
तुमने देखा, तुम
आब्जर्वर हुए
कि श्वास की गति
बढ़ी। वह
अनिवार्य है
उसका बढ़ना। तो
उसके बढ़ जाने
से परिणाम
होंगे। और
उसको देखने के
भी परिणाम
होंगे। लेकिन अनापानसती
का मूल लक्ष्य
उसको बढ़ाना
नहीं है, उसका
मूल लक्ष्य तो
उसे देखना है।
क्योंकि जब
तुम अपनी
श्वास को देख
पाते हो, धीरे—
धीरे— धीरे, निरंतर—निरंतर
देखने से
श्वास तुमसे
अलग होती जाती
है। क्योंकि
जिस चीज को भी
तुम दृश्य बना
लेते हो, तुम
बहुत गहरे में
उससे भिन्न हो
जाते हो।
असल
में,
दृश्य से
द्रष्टा एक हो
ही नहीं सकता;
उससे वह
तत्काल भिन्न
होने लगता है।
जिस चीज को भी
तुम दृश्य बना
लोगे, उससे
तुम भिन्न
होने लगोगे।
तो श्वास को
अगर तुमने
दृश्य बना
लिया अपना, और चौबीस
घंटे, चलते,
उठते, बैठते,
तुम उसको
देखने लगे—जा
रही, आ रही;
जा रही, आ
रही— तो तुम
देखते रहे, देखते रहे, तुम्हारा
फासला अलग
होता जाएगा।
एक दिन तुम
अचानक पाओगे
कि तुम अलग
खड़े हो और श्वास
वह चल रही है; बहुत दूर
तुमसे उसका
आना—जाना हो
रहा है। तो
इससे वह घटना
घट जाएगी, तुम्हारे
शरीर से पृथक
होने का अनुभव
उससे हो जाएगा।
इसलिए
किसी भी चीज
को...... अगर तुम
शरीर की
गतियों को
देखने लगो—रास्ते
पर चलते वक्त
खयाल रखो कि
बायां पैर उठा, दायां
पैर उठा। बस
तुम अपने
दोनों पैर ही
देखते रहो एक
पंद्रह दिन, तुम अचानक
पाओगे कि तुम
पैर से अलग हो
गए; अब
तुम्हें पैर
अलग से उठते
हुए मालूम
पड़ने लगेंगे
और तुम बिलकुल
देखनेवाले रह
जाओगे।
तुम्हारे ही
पैर तुम्हें
बिलकुल ही
मैकेनिकल
मालूम होने
लगेंगे कि उठ
रहे हैं, चल
रहे हैं, और
तुम बिलकुल
अलग हो गए।
इसलिए
ऐसा आदमी कह
सकता है कि
चलता हुआ चलता
नहीं, बोलता
हुआ बोलता
नहीं, सोता
हुआ सोता नहीं,
खाता हुआ
खाता नहीं, ऐसा आदमी कह
सकता है। उसका
दावा गलत नहीं
है, मगर
उसका दावा
समझना बहुत
मुश्किल है।
अगर वह खाने
में साक्षी है
तो वह खाते
हुए खाता नहीं,
ऐसा उसे पता
चलता है; अगर
वह चलने में
साक्षी है तो
वह चलते हुए
चलता नहीं, क्योंकि वह
उसका साक्षी
है।
तो
अनापानसती
का तो उपयोग
है,
पर दूसरी
दिशा से वह
यात्रा है।
पूर्ण
श्वास से
पूर्ण जीवन:
प्रश्न
: ओशो तीव्र व
गहरी श्वास से
क्या
आवश्यकता से
अधिक आक्सीजन
फेफड़े में
नहीं चली
जाएगी और उससे
क्या कोई हानि
नहीं होगी?
असल में, कोई
भी आदमी ऐसा
नहीं है जिसके
पूरे फेफड़े
में आक्सीजन
जाती हो। कोई
छह हजार छिद्र
अगर हैं फेफड़े
में, तो
हजार, डेढ़ हजार
छिद्रों तक
स्वस्थ आदमी
की जाती है, जिसको पूर्ण
स्वस्थ कहें।
प्रश्न:
बाकी में क्या
होता है?
बाकी
में कार्बन डाइआक्साइड
भरी रहती है।
वे सब गंदी
हवा से भरे
रहते हैं। तो
इसलिए ऐसा तो
आदमी मिलना
मुश्किल है जो
जरूरत से
ज्यादा ले ले।
जरूरत में ही
लेनेवाला
आदमी मिलना
मुश्किल है।
बहुत बड़ा हिस्सा
बेकार पड़ा
रहता है। उस
तक,
पूरे तक आप
पहुंचा दें तो
बड़े परिणाम
होंगे। बड़े
अदभुत परिणाम
होंगे। आप की
कांशसनेस का एक्सपैंशन
एकदम से हो
जाएगा।
क्योंकि
जितनी मात्रा
में आपके
फेफड़े में आक्सीजन
पहुंचती है, उतना ही
जीवन का आपको
विस्तार
मालूम पड़ता है,
उतनी ही आपके
जीवन की सीमा
होती है। जैसे—जैसे
फेफड़े में
ज्यादा
पहुंचती है, आपके जीवन
का विस्तार
बड़ा होता है।
तो अगर हम
पूरे फेफडे
तक आक्सीजन
पहुंचा सकें,
तो मैक्जमम
जिंदगी का
हमें अनुभव
होगा।
और
स्वस्थ और
बीमार आदमी
में वही फर्क
है कि बीमार
आदमी और भी कम
पहुंचा पाता
है,
और भी कम
पहुंचा पाता
है। बहुत
बीमार को हमें
आक्सीजन ऊपर
से देनी पड़ती
है, वह
पहुंचा ही
नहीं पाता। उस
पर ही छोड़
देंगे तो वह
मर जाएगा।
बीमार और
स्वस्थ को भी
हम अगर चाहें
तो आक्सीजन की
मात्रा से भी
नाप सकते हैं
कि उसके भीतर कितनी
आक्सीजन जा
रही है। इसलिए
आप दौड़ेंगे
तो स्वस्थ हो
जाएंगे, क्योंकि
आक्सीजन की
मात्रा बढ़
जाएगी; व्यायाम
करेंगे तो
स्वस्थ हो
जाएंगे, क्योंकि
आक्सीजन की
मात्रा बढ़
जाएगी। आप कुछ
भी ऐसा करेंगे
जिससे
आक्सीजन की
मात्रा बढ़ती
हो, वह
आपके
स्वास्थ्य
में वर्द्धक
हो जाएगी। और
आप कुछ भी ऐसा
करेंगे जिससे
आक्सीजन की
मात्रा कम
होती है, वह
आपकी बीमारी
के लाने में
सहयोगी हो
जाएगी।
लेकिन
जितनी आप ले
सकते हैं उतनी
ही कभी नहीं ले
रहे हैं; और
जितनी आप पूरी
ले सकते हैं
उससे ज्यादा
लेने का सवाल
ही नहीं उठता,
आप ले नहीं
सकते। आपका
पूरा फेफड़ा भर
जाए, उससे
ज्यादा आप ले
नहीं सकते।
उतनी भी नहीं
ले पाएंगे, उतना भी
बहुत मुश्किल
मामला है।
उतनी भी नहीं
ले पाएंगे।
प्रश्न.
ओशो हम श्वास
में जो वायु
लेते हैं
उसमें केवल
आक्सीजन ही
नहीं होती
उसमें नाइट्रोजन
हाइड्रोजन
आदि अनेक
प्रकार की हवाएं
भी हैं। क्या
उन सब का
ध्यान के लिए
सहयोग हैं?
बिलकुल
ही ध्यान के
लिए सहयोगी
होगी।
क्योंकि हवा
में जो कुछ भी
है— और बहुत
कुछ है, आक्सीजन
ही नहीं है, और बहुत कुछ
है—वह सब का सब
आपके लिए, जीवन
के लिए सार्थक
है, इसीलिए
आप जिंदा हैं।
जिस ग्रह पर, जिस उपग्रह
पर हवा में
उतनी मात्रा
में वे सब
चीजें नहीं
हैं, वहां
जीवन नहीं हो
सकेगा। वह
जीवन की पासिबिलिटी
है सब का सब।
इसलिए उसमें
चिंता लेने की
जरूरत नहीं है।
उसमें चिंता
लेने की जरूरत
नहीं है। और
जितनी
तीव्रता से आप
लेंगे उतना
हितकर है, क्योंकि
उतनी तीव्रता
में आक्सीजन ही
ज्यादा से
ज्यादा
प्रवेश कर
पाएगी और आपका
हिस्सा बन
पाएगी। बाकी
चीजें फेंक दी
जाएंगी। और वह
जिस अनुपात
में जो चीजें
हैं, वे सब
की सब आपके
जीवन के लिए
उपयोगी हैं; उससे कोई
हानि नहीं है।
उससे कोई हानि
नहीं है।
हलकेपन
का अनुभव और
उसकी
अभिव्यक्ति:
प्रश्न.
इससे शरीर
हलका सा महसूस
होता है!
हां, हलका
महसूस होगा।
हलका महसूस
होगा, क्योंकि
हमारे शरीर का
जो बोध है, शरीर
का बोध ही
हमारा भारीपन
है। जिसको हम
भारीपन कहते
हैं, वह
हमारे शरीर का
बोध है। इसलिए
बीमार दुबला—पतला
हो तो भी उसको
बोझ मालूम
पड़ता है और
स्वस्थ आदमी
कितना ही वजनी
हो तो भी उसे
हलका मालूम
पड़ेगा। शरीर
की जो
कांशसनेस है
हमारी, वही
हमारा बोझ है।
और शरीर की
कांशसनेस, शरीर
का जो बोध है
उसी मात्रा
में होता है
जिस मात्रा
में शरीर में
तकलीफ हो। अगर
पैर में दर्द
है तो पैर का
पता चलता है, सिर में
दर्द है तो सिर
का पता चलता
है; अगर
कहीं कोई
तकलीफ नहीं है,
तो शरीर का
पता ही नहीं
चलता।
इसलिए
स्वस्थ आदमी
की परिभाषा ही
है जो विदेह अनुभव
करे,
जिसको ऐसा न
लगे कि मैं
शरीर हूं। तो
समझना चाहिए
वह आदमी
स्वस्थ है।
अगर उसको कोई
भी हिस्सा
लगता हो कि यह
मैं हूं तो
समझ लेना चाहिए
वह हिस्सा
बीमार है। तो
जिस मात्रा
में आक्सीजन बढ़ेगी और
कुंडलिनी
जगेगी, तो
कुंडलिनी के
गाते ही आपको
आत्मिक
प्रतीतियां
शुरू हो
जाएंगी जो कि
शरीर की नहीं
हैं। और सब
बोझ शरीर का
है। तो उनकी
वजह से तत्काल
हलकापन लगना
शुरू हो जाएगा।
बहुत हलकापन
लगेगा। यानी
बहुत लोगों को
लगेगा कि जैसे
हम जमीन से
ऊपर उठ गए हैं।
सभी उठ नहीं
जाते, कभी
ऐसी घटती है
सौ में एकाध
दफे घटना कि
कभी शरीर थोड़ा
ऊपर उठता है, आमतौर से
उठता नहीं है,
लेकिन
अनुभव बहुत
लोगों को होगा।
जब आख खोलकर
देखेंगे तो
पाएंगे, बैठे
तो वहीं हैं।
लेकिन
यह क्यों अनुभव
हुआ था कि उठ
गए?
असल
में,
इतनी वेटलेसनेस
मालूम हुई, इतना हलकापन
मालूम हुआ कि हलकेपन को
जब हम चित्रों
की भाषा में
कहेंगे तो
कैसे कहेंगे?
और हमारा जो
गहरा मन है वह
भाषा नहीं
जानता, वह
चित्र जानता
है। तो वह यह
नहीं कह सकता
कि हलके हो गए,
वह चित्र
बना लेता है
कि जमीन से उठ
गए।
अचेतन
मन की चित्रमय
भाषा:
हमारा
जो गहरा मन है
अचेतन, वह
चित्र ही
जानता है।
इसलिए रात
सपने में भाषा
नहीं होती
आपके, चित्र
ही चित्र होते
हैं। और सपने
को सारी बातों
को चित्रों
में बदलना पड़ता
है। इसलिए
हमारे सपने
समझ में नहीं
आते सुबह; क्योंकि
हम जो सुबह जागकर
भाषा बोलते
हैं, वह
सपने में नहीं
होती; और
जो भाषा हम
सपने में
अनुभव करते
हैं, वह
सुबह नहीं
होती। तो इतना
बड़ा
ट्रांसलेशन
है सपने से
जिंदगी में कि
उसके लिए बड़े
भारी
व्याख्याकार
चाहिए, नहीं
तो वह ट्रांसलेट
नहीं होता।
अब
एक आदमी बहुत
महत्वाकांक्षी
है,
बहुत एंबीशस
है, तो
सपने में अब
वह एंबीशन
को कैसे अनुभव
करे? वह
पक्षी हो
जाएगा। वह
आकाश में ऊपर
से ऊपर उड़ता
जाएगा; सब
उसके नीचे आ
जाएंगे। अब
महत्वाकांक्षा
सपने में जब
प्रकट होगी तो
उड़ान की
तरह प्रकट
होगी—उड़ रहा
है एक आदमी।
कुछ आदमी उड़ने—उड़ने के ही
सपने देखेंगे।
वह
महत्वाकांक्षा
का सपना है।
लेकिन
महत्वाकांक्षा
शब्द वहां
होगा ही नहीं।
सुबह वह आदमी
कहेगा, क्या
बात है कि
मुझे उडने—उड़ने
के सपने आते
हैं! पर उसकी
जो
महत्वाकांक्षा
है वह सपने
में उड़ना
बन जाती है।
ऐसे
ही ध्यान की
गहराई में पिक्टोरिअल
लैंग्वेज
होगी। हलकापन
अनुभव होगा तो
ऐसा लगेगा
शरीर उठ गया।
क्योंकि शरीर
उठ गया है, यही
हलकेपन
का पिक्चर बन
सकता है, और
तो कोई पिक्चर
बन नहीं सकता।
और कभी बहुत
ही हलकेपन
की हालत में
शरीर उठ भी
जाता है।
शारीरिक
रूपांतरण की प्रक्रिया:
प्रश्न:
कभी— कभी
टूटने का डर
लगता है कि
जैसे कुछ भी
टूट जाएगा।
हां, लग
सकता है, बिलकुल
लग सकता है।.....
.बिलकुल लग
सकता है।
प्रश्न:
वह डर नहीं
रखना चाहिए
बिलकुल?
रखने की
तो कोई जरूरत
नहीं है, लेकिन
वह लगता है; वह
स्वाभाविक
है।
प्रश्न:
गरमी भी बहुत
पैदा होती है!
वह भी हो
सकता है; क्योंकि
हमारे भीतर
सारी की सारी
व्यवस्था बदलती
है। यानी जो—जो
हमारा इंतजाम
है, वह सब
बदलता है; जहां—जहां
से हम शरीर से
जुड़े हैं वहां—वहां
ढिलाई होनी
शुरू होती है;
जहां हम
नहीं जुड़े हैं
वहां नये जोड़
बनने शुरू
होते हैं; पुराने
ब्रिज गिरते
हैं, नये
ब्रिज बनते
हैं, पुराने
दरवाजे बंद
होते हैं, नये
दरवाजे खुलते
हैं। वह पूरा
मकान आलट्रेशन
में होता है, तो इसलिए
बहुत सी चीजें
टूटती मालूम
पड़ती हैं, बहुत
से डर मालूम
पड़ते हैं, सब
व्यवस्था
अव्यवस्था हो
जाती है। तो ट्रांजीशन
के वक्त में
यह चलेगा।
लेकिन जैसे ही
नई व्यवस्था आ
जाएगी, वह
पुरानी
व्यवस्था से
अदभुत है, उसका
फिर कोई
मुकाबला नहीं।
फिर कभी खयाल
भी नहीं आएगा
कि पुरानी
व्यवस्था टूट
गई, या थी!
बल्कि ऐसा
लगेगा कि इतने
दिनों उसको कैसे
खींचा? तो
वह होगा।
अंत तक
प्रयत्न जारी
रखो:
प्रश्न:
ओशो शक्तिपात
के बाद भी
क्या तीव्र
श्वास और ' मैं
कौन हूं ' पूछने
का प्रयत्न
करना पड़ेगा या
वह सहज ही होने
लगता है?
जब सहज
होने लगे तब
तो सवाल नहीं
है। तब तो
सवाल नहीं है; तब
कोई सवाल नहीं
है। तब तो
सवाल भी असहज
है। होने लगे
वह, तब तो
कोई बात ही
नहीं है।
लेकिन
जब तक नहीं
हुआ है, तब तक
कई बार मन
मानने का होता
है कि अब छोड़ो,
अब तो हो
गया! अब क्या
बार— बार
पूछते चले जा
रहे हैं! अब
कितने दिन से
तो पूछ रहे
हैं! जब तक मन
तुमसे कहे कि छोड़ो, अब
क्या फायदा है,
तब तक तो
करते ही चले
जाना; क्योंकि
मन अभी है।
जिस दिन अचानक
तुम पाओ कि अब
तो करने का
कोई सवाल ही
नहीं, करना
भी चाहो तो
नहीं कर सकते;
क्योंकि 'मैं कौन हूं
तुम तभी तक
पूछ सकते हो
जब तक पता नहीं
है; जिस
दिन पता चल
जाएगा उस दिन
तुम पूछोगे
कैसे? वह
तो एकर्डिटी
है, उसको
तुम पूछ ही
कैसे सकते हो
जब तुम्हें
पता ही चल गया?
मैं
पूछता हूं कि
दरवाजा कहां
है?
दरवाजा
कहां है? अब
मुझे पता चल
गया कि यह रहा
दरवाजा। अब
मैं पूछूंगा
दरवाजा कहां
है? यह भी
नहीं पूछूंगा
कि क्या मैं पूछूं अब
कि दरवाजा
कहां है। इसका
कोई मतलब नहीं
है। जो हमें
पता नहीं है, वहीं तक हम
पूछ सकते हैं;
जैसे ही
हमें पता हुआ
वैसे ही बात
खत्म हो गई।
तो
जैसे ही 'मैं
कौन हूं' इसकी
अनुभूति तुम
पर बरस जाए, वैसे ही
तुम्हारे
प्रश्न की
दुनिया गई। और
जैसे ही तुम
छलांग लगा जाओ
उस लोक में, फिर करने का
कोई सवाल नहीं
है; फिर तो
तुम जो करोगे,
वह सभी वही
होगा। तुम
चलोगे तो
ध्यान होगा, तुम बैठोगे
तो ध्यान होगा,
तुम चुप
रहोगे तो
ध्यान होगा, तुम बोलोगे
तो ध्यान
रहेगा। ऐसा भी
कि तुम लड़ने
भी चले जाओगे
तो भी ध्यान होगा।
यानी, तुम्हारा
क्या करना है,
इससे फिर
कोई फर्क नहीं
पड़ता। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
दांव
पूरा ही लगाना:
प्रश्न:
ओशो शक्तिपात
का प्रभाव जब
क्रियाशील
होता है तो
श्वास तो तेज
होती है आप ही
आप लेकिन बीच—
बीच में श्वास
की गति बिलकुल
रुक जाती है।
तो क्या उस
स्थिति में
प्रयास करना
चाहिए श्वास
का?
करोगे
तो फायदा होगा।
सवाल यह नहीं
है कि श्वास
चले कि नहीं; वह
न चले तो कोई
हर्जा नहीं।
तुमने प्रयास
किया कि नहीं!
यह सवाल नहीं
है; वह
नहीं चलेगी तो
नहीं चलेगी, तुम क्या
करोगे? लेकिन
तुम मत छोड़
देना प्रयास।
तुम्हारा
प्रयास ही
सार्थक है।
बड़ा सवाल इतना
नहीं है कि वह
हुआ कि नहीं
हुआ। तुमने
किया! तुमने
अपने को पूरा
दांव पर लगाया;
तुमने कहीं
बचा नहीं लिया
अपने को। नहीं
तो मन बहुत
बचाव करता है।
वह कहता है : अब
तो हो ही नहीं
रहा, अब छोड़ो।
हमारे मन के
साथ कठिनाई
ऐसी है कि वह
रोज हजार रास्ते
खोजता है कि
अब तो यह हो ही
नहीं रहा, अब
बिलकुल दम
घुटी जा रही
है अब बिलकुल
मर ही जाओगे, अब छोड़ो।
तो
तुम यह मत
सुनना। तुम
कहना, घुट जाए
तो बड़ा आनंद!
नहीं आ सकेगी
तो वह दूसरी बात
है, उसमें
तुम्हारा कोई
वश नहीं है।
लेकिन अपनी
तरफ से तुम
पूरी कोशिश
करना; तुम
अपने को पूरा
दांव पर लगाना।
उसमें रत्ती
भर अपने को
बचाना मत।
क्योंकि कभी—कभी
रत्ती भर
बचाना ही सब
रोक देता है—रत्ती
भर बचाना! कोई
नहीं जानता कि
ऊंट आखिरी तिनके
से बैठ जाए।
तुमने बहुत
वजन लादा है
ऊंट पर, लेकिन
अभी इतना वजन
नहीं हुआ है
कि ऊंट बैठे।
और हो सकता है
सिर्फ आखिरी
तिनका—घास का
एक छोटा सा
टुकड़ा— और ऊंट
बैठ जाए।
क्योंकि
संतुलन तो एक
छोटे से तिनके
से ही आखिर
में तय होता
है।
प्रश्न:
पहले नहीं
होता।
पहले
नहीं होता तय।
पहले तुमने दो
मन लादा और
उससे कुछ नहीं
हुआ,
ऊंट चलता ही
चला गया।
तुमने एक हथौड़े
से ताला तोड़ा।
तुम पचास हथौड़े
मार चुके पूरी
ताकत से— और इक्यावनवां
तुमने बहुत
धीमी ताकत से
मारा और टूट
गया।
संतुलन
तो अंत में
बड़ी छोटी बात
से तय होता है, कभी—कभी
इंच भर से तय
होता है, तिनके
से तय होता है।
इसलिए ऐसा न
हो कि तुम
सारी मेहनत
करो और एक तिनके
से चूक जाओ।
और चूक गए तो
तुम पूरे चूक
गए।
अभी
ऐसा हुआ एक
मित्र अमृतसर
में तीन दिन
से ध्यान कर रहे
थे। पढ़े—लिखे
डाक्टर हैं।
पर नहीं कुछ
हो रहा था।
आखिरी दिन—मुझे
तो पता ही
नहीं था कि वे
क्या कर रहे
हैं,
क्या नहीं
कर रहे हैं, जानता भी
नहीं था उनको—
आखिरी दिन
मैंने यह कहा
कि हम पानी को
गरम करते हैं,
तो वह सौ डिग्री
पर भाप बनता
है। और अगर
निन्यानबे
डिग्री से भी
वापस लौट गए, तो यह मत
सोचना कि हमने
निन्यानबे तक
बनाया था तो
एक डिग्री की
क्या बात थी!
वह पानी रह
जाएगा। साढ़े
निन्यानबे तक
भी पानी रह
जाएगा; रत्ती
भर फासला रह
जाएगा तो भी
पानी रह जाएगा।
वह तो आखिरी
रत्ती भी, जब
सौ को पार
करेगा, क्रास
करेगा, तभी
भाप बनेगा। और
इसमें कोई
शिकायत नहीं
की जा सकती है।
तो
वे उसी दिन
सांझ को मेरे
पास आए कि
आपने यह अच्छा
कहा,
मैं तो कर
रहा था कि भई, चलो धीरे—
धीरे कर रहे
हैं, बहुत
नहीं होगा तो
थोड़ा तो होगा!
हमारे क्या खयाल
में होते हैं!
तो आपने जब
कहा तब मुझे
खयाल में आया
कि यह बात तो
ठीक है। अट्ठानबे
डिग्री पर
गर्म किया तो
ऐसा नहीं कि
थोड़ा पानी भाप
बनेगा और थोड़ा
नहीं बनेगा; बनेगा ही
नहीं। बनना तो
शुरू होगा, एक भी बिंदु
अगर बना हो तो
वह सौ डिग्री
पर ही उड़ेगा;
उसकी उड़ान
तो सौ डिग्री पर
ही होगी। उसके
पहले वह पानी
होना नहीं छोड़
सकता। पानी
होना छोड़ने के
लिए उतनी
यात्रा उसे
करनी ही पड़ेगी,
आखिरी इंच
तक।
तो
उन्होंने
मुझसे कहा कि
आपने अच्छा कह
दिया यह; आज
मैंने पूरी
ताकत लगाई। तो
मैं तो हैरान
हूं कि मैं
तीन दिन से
मेहनत फिजूल
कर रहा था; थक
भी जाता था, कुछ होता भी
नहीं था, आज
थका भी नहीं
हूं और कुछ हो
भी गया। पर
उन्होंने कहा
कि मुझे सौ
डिग्री की बात
खयाल रही पूरे
वक्त, और
मैंने इंच भर
भी नहीं छोड़ा,
मैंने कहा
कि अपनी तरफ
से नहीं छोड़ना
है, पूरी
ताकत लगा देनी
है।
जिनको
नहीं हो रहा
है और जिनको
हो रहा है, उनमें
और कोई फर्क
नहीं है, सिर्फ
इतना ही फर्क
है। सिर्फ
इतना ही फर्क
है। और एक बात
और ध्यान रखना
कि कई दफे ऐसा
लगता है कि
तुम्हारा
पड़ोसी तुमसे
ज्यादा ताकत
लगा रहा है और
उसको नहीं हो
रहा। लेकिन
उसकी सौ
डिग्री और
तुम्हारी सौ
डिग्री में
फर्क है। अगर
उसके पास ताकत
ज्यादा है.......
एक
आदमी के पास
पांच सौ रुपए
हैं और वह तीन
सौ रुपए लगा
रहा है दांव
पर,
और
तुम्हारे पास
पांच रुपए हैं
और तुम चार
रुपए दांव पर
लगा रहे हो—तुम
आगे निकल
जाओगे। यह तीन
सौ और चार से
तय नहीं होगा,
पूरे
अनुपात से तय
होगा। तुमने
अपना पूरा लगाया
तो सौ डिग्री
पर हो। और
सबकी सौ
डिग्री अलग
होंगी। उसका
कितना पूरा
लगाने का सवाल
है। अगर तुमने
पांच रुपए लगा
दिए तो तुम
जीत जाओगे, और वह तीन सौ
और चार सौ भी
लगा दे तो
नहीं जीतेगा।
उसके पास पांच
सौ थे; जब
तक वह पांच सौ
न लगा दे, तब
तक वह जीतनेवाला
नहीं है।
चरम—बिंदु
पर ही सावधानी:
इसलिए
अंतिम अर्थों
में एक बात
ध्यान रखना सदा
जरूरी है कि
तुम अपने को
बचाना मत; कहीं
भी यह मत
सोचना कि अब
ठीक है, इतने
से हो जाएगा।
ऐसा तुमने
सोचा कि तुम
लौटना शुरू हो
जाओगे।
और
अक्सर ऐसा
होगा कि जिस
बिंदु से घटना
घटती है उसी
बिंदु से ऐसा
होगा; क्योंकि
मन उसी बिंदु
पर घबडाना
शुरू होता है
कि अब तो भाप
बनी, अब
भाप बनी। अब
वह कहता है कि
अब बस काफी हो
गया, उबल
चुके, पानी
आग हुआ जा रहा
है, अब
क्या फायदा; अब लौट आओ।
वही
क्षण बहुत
कीमती है जब
तुम्हारा मन
कहे कि अब लौट
चलो। अब मन को
लगने लगा कि
अब मामला खतरे
का है, अब
टूटने का वक्त
करीब आता है, अब मिटे, अब
मरे। तो जैसे ही
उसको लगा कि
अब खतरा आता
है.......जब तक खतरा
नहीं है, तब
तक वह कहेगा
कि खूब मजे से
करो, जैसे
ही खतरे के
करीब
पहुंचोगे, ब्बाइलिंग प्वाइंट के
पहले ही वह
तुमसे कहेगा
कि अब बस, अब
तो सारी ताकत
लगा दी, अब
तो होता ही
नहीं है। उसी
वक्त सावधान
रहना। वही
क्षण है जब
तुम्हें पूरा
लगा देना है।
उस एक क्षण
में चूकने से
कभी वर्ष
चूकना हो जाता
है। और
निन्यानबे
डिग्री तक
पहुंचने में
भी वर्षों लग
जाते हैं कभी
तो। और कभी
पहुंच पाते
हैं और तत्काल
चूक जाते हैं।
जरा सी बात और
चुका सकती है।
इसलिए तुम मत
बचाव करना। वह
नहीं होगा, नहीं होगा।
प्रश्न :
जोर से करने
से नाडियों
पर कुछ असर
नहीं हो सकता?
ये
सारी की सारी
जो बातें हैं, सारी
की सारी जो
बातें हैं, हमारे सारे
भय जो हैं... असर
तो होगा ही, असर क्यों
नहीं होगा? असर तो होगा
ही। असर होने
के लिए ही तो
सारी बात है।
प्रश्न:
टूट जाएं नाड़ी
तो?
हां, तो
देखो भी न! टूट
जाने दो, बचाकर
भी क्या करना
है! टूट ही
जाएगी, बचाकर
भी क्या करोगी।
प्रश्न :
इग्नोरेंस
में तो मरना
नहीं चाहते।
तो मरोगी
इग्नोरेंस
में अगर नाड़ी बचाओगी।
करोगी क्या? हमारी
तकलीफ यह है
कि हम जिन
चीजों को
बचाने के लिए
चिंतित रहते
हैं उनको
बचाने से होना
क्या है?
प्रश्न
: हमारे पास
इतना ही अल्प
सा तो है; उसे
भी खो दें?
हां, अगर
वह भी होता तब
भी कुछ था; तब
तुम्हें डर न
होता उसके
खोने का। वह
भी नहीं है।
अक्सर नंगे
आदमी कपड़े
चोरी जाने के
डर से भयभीत
रहते हैं, क्योंकि
इससे एक मजा
आता है कि
अपने पास भी
कपड़े हैं।
उसका जो रस है
भीतर वह यह
रहता है कि
अरे, अपन
कोई नंगे थोड़े
ही हैं, कपड़े
चोरी न चले
जाएं। कपड़े
हैं तो चोरी
जाने की इतनी
फिकर नहीं
रहती है। कपड़े
ही हैं न, चोरी
चले जाएंगे तो
चले जाएंगे।
यह भय छोड़ना।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि
तुम्हारी
नाडिया टूट जाएंगी।
भय से टूट
सकती हैं, ध्यान
से नहीं टूट
सकतीं। भय से
टूट ही जाती
हैं। लेकिन भय
से हम भयभीत
नहीं होते। भय
से टूट जाएंगी,
चिंता से
टूट जाएंगी, उससे हम
भयभीत नहीं
हैं। तनाव से
टूट जाएंगी, उससे हम
भयभीत नहीं
हैं। ध्यान से
हम भयभीत हैं,
जहां कि
टूटने का कोई
सवाल नहीं है,
जहां टूटी
भी होंगी तो
जुड़ सकती हैं।
लेकिन
हम अपने भय
पालते हैं। और
वे भय हमें
सुविधा बना
देते हैं कि
ऐसा न हो जाए, ऐसा
न हो जाए, ऐसा
न हो जाए। लौट
आने का हम
सारा इंतजाम
कर लेते हैं।
तो
मैं यह कहता
हूं जाओ ही
क्यों? यह
दुविधा
खतरनाक है।
मैं कहता हूं
जाओ ही मत; बात
ही छोड़ो; उसकी चिंता
ही मत लो।
दुविधा
साधक की
एकमात्र
शत्रु:
लेकिन
हम दोनों काम
करना चाहते
हैं। हम जाना
भी चाहते हैं
और नहीं भी
जाना चाहते हैं।
तब दुविधा
हमारे प्राण
ले लेती है।
और तब हम
अकारण परेशान
होते हैं। सैकड़ों—लाखों
लोग अकारण
परेशान होते
हैं। उनको
परमात्मा को
खोजना भी है
और बचना भी है
कि कहीं मिल न
जाए।
अब
ये दोहरी दिक्कतें
हैं। हमारी
सारी तकलीफ जो
है न वह ऐसी है
कि हम जो करना
चाहते हैं
उसको किसी
दूसरे तल पर
मन के नहीं भी
करना चाहते।
दुविधा हमारा
प्राण है। हम
ऐसा कर ही
नहीं पाते कि
कुछ हम करना
चाहते हैं तो
करना चाहते
हैं। जिस दिन
ऐसा हो उस दिन
तुम्हें कोई
रुकावट नहीं होगी।
उस दिन जिंदगी
गति बन जाती
है। लेकिन
हमारी हालतें
ऐसी हैं कि एक
पैर उठाते हैं
और एक वापस
लौटा लेते हैं; एक
ईंट मकान की
रखते हैं और
दूसरी उतार
लेते हैं।
रखने का भी
मजा लेते रहते
हैं और रोने
का भी मजा
लेते रहते हैं
कि मकान बन
नहीं रहा। दिन
भर मकान जमाते
हैं, रात
भर उतार देते
हैं। दूसरे
दिन फिर
दीवालें वहीं
की वहीं हो
जाती हैं, फिर
हम रोने लगते
हैं कि बड़ी
मुश्किल है कि
मकान बन नहीं
रहा।
यह
जो कठिनाई है, यह
समझनी चाहिए
अपने भीतर। और
इसको ऐसे ही
समझ सकोगी
जब तुम यह
समझो कि ठीक
है, टूटेंगी न, तो टूट
ही जाएंगी।
तीस—चालीस साल
नहीं भी टूटी
तो करोगी क्या?
एक दफ्तर
में नौकरी
करोगी, रोज
खाना खाओगी,
दों—चार
बच्चे पैदा
करोगी, नहीं
पैदा करोगी, पति होगा; यह होगा, वह
होगा; यही
सब होगा। और
इनको छोड़
जाओगी तो ये
बेचारे अपनी
नाडिया न टूट
जाएं उसके लिए
डरते रहेंगे।
यही करती रहोगी।
करोगी क्या?
अगर
हमको थोड़ा सा
भी यह खयाल
में आ जाए कि
जिंदगी जिसको
हम बचाने की
कोशिश में हैं, इसमें
बचाने योग्य
भी क्या है! तो
दांव पर लगा सकते
हैं, नहीं
तो नहीं लगा
सकते। और यह
बहुत ही जिसको
कहना चाहिए
स्पष्ट, हमारे
मन में साफ हो
जाना चाहिए कि
जिस—जिस चीज
को हम बचाना
चाहते हैं, उसमें बचाने
जैसा भी क्या
है? क्या
है बचाने जैसा?
और बचाकर भी
कहां बचता है?
यह स्पष्ट
हो तो फिर
तुम्हें
कठिनाई नहीं
होगी। टूटेगी
तो टूट जाएगी।
टूटती नहीं है,
अभी तक टूटी
नहीं है। अगर
तोड़ दो तो
तुम एक नई
घटना होगी।
प्रश्न.
रिकॉर्ड टूट
जाएगा?
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