दूसरी
प्रश्नोत्तर
चर्चा:
प्रश्न
: ओशो आपने नारगोल
शिविर में कहा
है कि कुंडलिनी
साधना शरीर की
तैयारी है।
कृपया इसका अर्थ
स्पष्ट
समझाएं।
पहली
बात तो यह
शरीर और आत्मा
बहुत गहरे में
दो नहीं हैं; उनका
भेद भी बहुत
ऊपर है। और
जिस दिन दिखाई
पड़ता है पूरा
सत्य, उस
दिन ऐसा दिखाई
नहीं पड़ता कि
शरीर और आत्मा
अलग—अलग हैं, उस दिन ऐसा
ही दिखाई पड़ता
है कि शरीर
आत्मा का वह
हिस्सा है जो
इंद्रियों की
पकड़ में आ
जाता है और
आत्मा शरीर का
वह हिस्सा है
जो इंद्रियों
की पकड़ के
बाहर रह जाता
है।
शरीर और
आत्मा—एक ही
सत्य के दो
छोर:
शरीर
का ही अदृश्य
छोर आत्मा है
और आत्मा का ही
दृश्य छोर
शरीर है, यह तो
बहुत आखिरी
अनुभव में शात
होगा। अब यह
बड़े मजे की
बात है.
साधारणत: हम
सब यही मानकर
चलते हैं कि
शरीर और आत्मा
एक ही हैं।
लेकिन यह भ्रांति है, हमें आत्मा का कोई पता ही नहीं है; हम शरीर को ही आत्मा मानकर चलते हैं। लेकिन इस भ्रांति के पीछे भी वही सत्य काम कर रहा है। इस भ्रांति के पीछे भी कहीं अदृश्य हमारे प्राणों के कोने में वही प्रतीति है कि एक है।
लेकिन यह भ्रांति है, हमें आत्मा का कोई पता ही नहीं है; हम शरीर को ही आत्मा मानकर चलते हैं। लेकिन इस भ्रांति के पीछे भी वही सत्य काम कर रहा है। इस भ्रांति के पीछे भी कहीं अदृश्य हमारे प्राणों के कोने में वही प्रतीति है कि एक है।
उस
एक की प्रतीति
ने दो तरह की
भूलें पैदा की
हैं। एक अध्यात्मवादी
है,
वह कहता है :
शरीर है ही
नहीं, आत्मा
ही है। एक
भौतिकवादी है,
चार्वाक है,
एपीकुरस है, वह
कहता है कि शरीर
ही है, आत्मा
है ही नहीं।
यह उसी गहरी
प्रतीति की
भ्रांतियां
हैं; और
प्रत्येक
साधारणजन भी,
जिसको हम
अज्ञानी कहते
हैं, वह भी
यह एहसास करता
है कि शरीर ही
मैं हूं।
लेकिन जैसे ही
भीतर की
यात्रा शुरू
होगी, पहले
तो यह टूटेगी
बात और पता
चलेगा कि शरीर
अलग है और आत्मा
अलग है।
क्योंकि जैसे
ही पता चलेगा
आत्मा है, वैसे
ही पता चलेगा
कि शरीर अलग
है और आत्मा
अलग है। लेकिन
यह मध्य की
बात है। और
गहरे जब
उतरोगे, और
गहरे जब
उतरोगे, और
चरम अनुभूति
जब होगी, तब
पता चलेगा कि
कहां! दूसरा
तो कोई है
नहीं! फिर
आत्मा और शरीर
दो नहीं हैं; फिर एक ही है;
उसके ही दो
रूप हैं।
जैसे
मैं एक हूं और
मेरा बायां
हाथ है और
दायां हाथ है।
बाहर से जो
देखने आएगा, अगर
वह कहे कि
बायां और
दायां हाथ एक
ही हैं, तो
गलत कहता है; क्योंकि
बायां बिलकुल
अलग है, दायां
बिलकुल अलग है।
जब मेरे करीब
आकर समझेगा तो
पाएगा बायां
अलग है, दायां
अलग है; दायां
दुखता है, बायां
नहीं दुखता; दायां कट
जाए तो बायां
बच जाता है; एक तो नहीं
हैं। लेकिन
मेरे भीतर और
प्रवेश करे तो
पाएगा कि मैं
तो एक ही हूं
जिसका बायां
है और जिसका
दायां है। और
जब बायां
टूटता है तब
भी मैं ही
दुखता हूं और
जब दायां टूटता
है तब भी मैं
ही दुखता हूं;
और जब बायां
उठता है तब
मैं ही उठता
हूं और जब दायां
उठता है तब
मैं ही उठता
हूं।
तो
बहुत अंतिम
अनुभूति में
तो शरीर और
आत्मा दो नहीं
हैं,
वे एक ही
सत्य के दो
पहलू हैं, दो
हाथ हैं। इसका
यह मतलब है
इसलिए मैंने
यह बात कही कि
इससे यह
तुम्हें समझ
में आ सके कि
तब यात्रा
कहीं से भी
शुरू हो सकती
है।
अगर
कोई शरीर से
यात्रा शुरू
करे,
और गहरा, और गहरा, और
गहरा उतरता
चला जाए, तो
आत्मा पर
पहुंच जाएगा।
अगर कोई मेरा
बायां हाथ पकड़ना
शुरू करे, और
पकड़ता
जाए, पकड़ता जाए, और
बढ़ता जाए, बढ़ता
जाए, तो आज
नहीं कल मेरा
दायां हाथ
उसकी पकड़ में
आ जाएगा। या
कोई चाहे तो
दूसरी तरफ से
भी यात्रा
शुरू कर सकता
है कि सीधी
आत्मा से
यात्रा शुरू
करे, तो
शरीर पकड़ में
आ जाएगा।
लेकिन
आत्मा से
यात्रा शुरू
करनी बहुत
कठिन है। कठिन
इसलिए है कि
उसका हमें पता
ही नहीं है।
हम खड़े हैं
शरीर पर, तो
हमारी यात्रा
तो शरीर से
शुरू होगी।
ऐसी विधियां
भी हैं जिनमें
यात्रा सीधी
आत्मा से ही
शुरू होती है।
लेकिन
साधारणत: वैसी
विधियां बहुत
थोड़े से लोगों
के काम की हैं।
कभी लाख में
एक आदमी
मिलेगा जो उस
यात्रा को कर
सके। अधिकतम
लोगों को तो यात्रा
शरीर से ही
शुरू करनी
पड़ेगी, क्योंकि
वहां हम खड़े
हैं। जहां हम
खड़े हैं, वहीं
से यात्रा
शुरू होगी। और
शरीर की जो
यात्रा है
उसकी तैयारी
कुंडलिनी है।
शरीर के भीतर
में जो गहरे
से गहरे अनुभव
हैं, उन
गहरे अनुभवों
का जो मूल
केंद्र है वह
कुंडलिनी है।
असल में, जैसा
हम शरीर को
जानते हैं और
जैसा शरीर—शास्त्री
जानता है, शरीर
उतना ही नहीं
है, शरीर
उससे बहुत
ज्यादा है।
यह
पंखा चल रहा
है। इस पंखे
को हम उतार
लें और तोड़कर
सारा जांच कर
डालें, तो भी
बिजली हमें
कहीं भी नहीं
मिलेगी। और यह
हो सकता है कि
एक बहुत
बुद्धिमान आदमी
भी यह कहे कि
पंखे में
बिजली जैसी
कोई भी चीज
नहीं है। एक—
एक अंग को काट
डाले, कभी
बिजली नहीं
मिले। फिर भी
पंखा बिजली से
चल रहा था। और
पंखा उसी क्षण
बंद हो जाएगा
जिस क्षण बिजली
की धारा बंद
होगी।
तो
शरीर—शास्त्री
ने एक तरह
शरीर का
अध्ययन किया
है,
काट—काट कर,
तो उसे
कुंडलिनी
कहीं भी नहीं
मिलती।
मिलेगी भी
नहीं। फिर भी
कुंडलिनी की
ही विद्युत
शक्ति से सारा
शरीर चल रहा
है। यह जो
कुंडलिनी की
विद्युत
शक्ति है, इसको
बाहर से शरीर
के विश्लेषण
से कभी नहीं
जाना जा सकता।
क्योंकि
विश्लेषण में
वह तत्काल
छिन्न—भिन्न
होकर विदा हो
जाती है, विलीन
हो जाती है।
उसे तो जानना
हो तो भीतरी
अनुभव से जाना
जा सकता है।
यानी शरीर को
भी जानने के
दो ढंग हैं।
बाहर से शरीर
को जानना, जैसा
कि एक
फिजियोलाजिस्ट,
शरीर—शास्त्री,
डाक्टर
टेबल पर आदमी
के शरीर को
रखकर काट रहा है,
पीट रहा है,
जांच रहा है।
और एक शरीर को
भीतर से जानना
है। जो
व्यक्ति शरीर
के भीतर बैठा
है, वह
अपने शरीर को
भीतर से जान
रहा है।
तो
स्वयं के शरीर
को जब कोई
भीतर से जानना
शुरू करता है.......
और यह खयाल
रखना कि हम
अपने शरीर को
भी बाहर से ही
जानते हैं—
अपने शरीर को
भी! अगर मुझे
मेरे बाएं हाथ
का पता है, तो
वह भी मेरी आंखें
जो मेरे हाथ
को देख रही
हैं उसका पता
है। यह बाएं
हाथ का जो
अनुभव है, यह
शरीर—शास्त्री
का अनुभव है।
लेकिन आख बंद
करके इस बाएं
हाथ की आंतरिक
जो प्रतीति है,
भीतर से जो
इसका अनुभव है,
वह मेरा
अनुभव है।
तो
अपने ही शरीर
को भीतर से
जानने अगर कोई
जाएगा, तो
बहुत शीघ्र वह
उस कुंड पर
पहुंच जाएगा
जहां से शरीर
की सारी
शक्तियां उठ
रही हैं। उस
कुंड में सोई
हुई शक्ति का
नाम ही
कुंडलिनी है।
और तब वह
अनुभव करेगा
कि सब कुछ
वहीं से फैल
रहा है पूरे
शरीर में।
जैसे कि एक
दीया जल रहा
हो, पूरे
कमरे में
प्रकाश हो, लेकिन हम
खोजबीन करते,
करते, करते
दीये पर पहुंच
जाएं और पाएं
कि इस ज्योति
से ही सारी
प्रकाश की
किरणें फैल
रही हैं। वे
दूर तक फैल गई
हैं, लेकिन
वे जा रही हैं
यहां से।
जीवन—ऊर्जा
का कुंड:
तो
कुंड से मतलब
है शरीर के
भीतर उस बिंदु
की खोज, जहां
से जीवन की
ऊर्जा पूरे
शरीर में फैल
रही है।
निश्चित ही, उसका कोई
सेंटर होगा।
असल में, ऐसी
कोई ऊर्जा
नहीं होती
जिसका कोई
केंद्र न हो।
चाहे दस करोड़
मील दूर हो
सूरज, लेकिन
किरण है हमारे
हाथ में तो हम
कह सकते हैं
कि कहीं
केंद्र होगा,
जहां से वह
यात्रा कर रही
है और जहां से
वह चल रही है।
असल में, कोई
भी शक्ति
केंद्र—शून्य
नहीं हो सकती।
शक्ति होगी तो
केंद्र होगा।
ऐसे ही, जैसे
परिधि होगी तो
केंद्र होगा;
कोई परिधि
बिना केंद्र
के नहीं हो
सकती।
तो
तुम्हारा
शरीर एक शक्ति
का पुंज है, इसे
तो सिद्ध करने
की कोई जरूरत
नहीं। वह
शक्ति का पुंज
है—उठ रहा है, बैठ रहा है, चल रहा है, सो रहा है।
फिर ऐसा भी
नहीं है कि
उसकी शक्ति
हमेशा एक सी ही
काम करती हो!
कभी ज्यादा भी
शक्ति उसमें
होती है, कभी
कम भी होती है।
जब तुम क्रोध
में होते हो
तो इतना बड़ा
पत्थर उठाकर
फेंक देते हो,
जो तुम
क्रोध में
नहीं हो तो
हिला भी न
सकोगे। जब तुम
भय में होते
हो तो इतनी
तेजी से दौड़
लेते हो, जितना
कि तुम किसी
ओलंपिक के खेल
में भी दौड़ रहे
हो तो भी नहीं
दौड़ सकोगे।
तो
ऐसा भी नहीं
है कि शक्ति
तुम्हारे
भीतर एक सी है, उसमें
तारतम्यताएं
है—वह कभी
ज्यादा हो रही
है, कभी कम
हो रही है।
इससे यह भी
साफ होता है
कि तुम्हारे
पास कुछ रिजर्वायर
भी है, जिसमें
से कभी शक्ति
आ जाती है, कभी
नहीं आती, जरूरत
होती है तो आ
जाती है, नहीं
जरूरत होती तो
छिपी रहती है।
तुम्हारे पास
एक केंद्र है,
जिससे
शक्ति
तुम्हें
मिलती हैं—सामान्यतया
भी, असामान्यतया भी; रोजमर्रा
के काम के लिए
भी तुम्हें
शक्ति मिलती
है और असाधारण
काम के लिए भी
शक्ति मिलती है।
फिर भी उस
केंद्र को कभी
तुम रिक्त
नहीं कर पाते
हो। वह केंद्र
कभी रिक्त
नहीं होता। और
कभी तुम उस
केंद्र का
पूरा उपयोग भी
नहीं कर पाते
हो।
यानी
इस संबंध में
जिन्होंने
खोज की है
उनका खयाल है
कि पंद्रह
प्रतिशत से
ज्यादा अपनी
ऊर्जा का असाधारण
से असाधारण
आदमी भी उपयोग
नहीं करता है।
यानी हमारा
महापुरुष भी
जिसको हम कहते
हैं,
वह भी
पंद्रह
प्रतिशत से
ऊपर नहीं जाता
है। और जिसको
हम साधारणजन
कहते हैं वह
तो दो—ढाई
प्रतिशत से
काम चलाता है।
उसकी अट्ठानबे
प्रतिशत
शक्ति यों ही
पड़ी—पड़ी विदा
हो जाती है।
और इसलिए बड़े
आदमी में और
छोटे आदमी में
कोई पोटेंशियल
भेद नहीं होता,
बीज शक्ति
का कोई भेद
नहीं होता; उपयोग का ही
भेद होता है।
महान से महान
प्रतिभा का
व्यक्ति भी
जिस शक्ति का
उपयोग कर रहा
है, वह
साधारण से
साधारण
बुद्धि के
आदमी के पास
भी है—बस
अनुपयोग में
है, उसे
कभी पुकारा
नहीं गया, उसे
कभी चुनौती
नहीं दी गई; उसे कभी
जगाया नहीं
गया, वह
पड़ी रह गई है; और वह राजी
हो गया है
जितना है उससे
ही, और
उसको अपना
उसने मैक्विमम
समझ लिया है
जो उसका मिनिमम
है।
हमारी
जो न्यूनतम
सीमा रेखा है
उसको हम अपनी
परम सीमा रेखा
मानकर जी रहे
हैं। और इसलिए
कई क्षणों में, जब
कि संकट का
क्षण हो, साधारण
से साधारण
आदमी भी
असाधारण
क्षमता प्रकट
कर पाता है।
तो कई बार क्राइसिस
और संकट में
अचानक हमें ही
पता चलता है
कि हमारे भीतर
क्या था।
एक
केंद्र है, जिस
पर यह सारी
शक्ति ठहरी
हुई है, छिपी
हुई है, सोई
हुई है—कहना
चाहिए एक बीज
की तरह, जिसमें
सब कुछ अभी
बंद है; मेनिफेस्ट हो सकती है, प्रकट हो
सकती है। इसको
कुंड........
अचेतन
में सोई शक्ति:
कुंड
शब्द बहुत
महत्वपूर्ण
है,
उसके कई
अर्थ हैं।
उसके कई अर्थ
हैं। पहला तो
अर्थ यह है कि
जहां जरा सी
लहर भी नहीं उठ
रही; क्योंकि
जरा सी भी लहर
उठे तो सक्रिय
हो गई शक्ति।
कुंड का मतलब
है जहां जरा
सी भी लहर
नहीं उठ रही—सब
सोया हुआ, जरा
सा कंपन नहीं,
सब
प्रसुप्त है।
दूसरा
अर्थ यह है कि
प्रसुप्त तो
है,
लेकिन किसी
भी क्षण
सक्रिय हो
सकता है; मृत
नहीं है। सूखा
नहीं है कुंड,
भरा है।
किसी भी क्षण
सक्रिय हो
सकता है, लेकिन
सब सोया हुआ
है।
और
इसलिए हो सकता
है कि हमें
पता भी न चले
कि हमारे भीतर
क्या सोया हुआ
था। क्योंकि
हमें उतना ही
पता चलेगा
जितना हम जगाएंगे।
इसे समझ लेना!
क्योंकि
जगाने के पहले
हमें पता ही
नहीं चल सकता
कि हमारे भीतर
क्या सोया हुआ
है। उतना ही
पता चलेगा
जितना जगेगा।
जितना जगेगा
उतना ही पता
चलेगा। यानी
तुम्हारे
भीतर जितनी
शक्ति सक्रिय
होगी उतनी ही
तुम्हारे
चेतन में आएगी।
और जो निष्कि्रय
शक्ति है वह
तुम्हारे
अचेतन और अनकांशस
में सोई रहेगी।
इसलिए
महान से महान
व्यक्ति को भी, जब
तक वह महान हो
नहीं जाता, पता नहीं
चलता। न
महावीर को पता
है, न
बुद्ध को पता
है, न जीसस
को, न
कृष्ण को; वे
जिस दिन हो
जाते हैं उसी
दिन पता चलता
है। और इसलिए
अनायास जिस
दिन यह घटना
घटती है उनके
भीतर, उस
दिन उनको
अनुकंपा
मालूम पड़ती है
कि पता नहीं
कहां से यह
दान मिला! पता
नहीं कहां से
यह आया! कौन दे
गया!
तो
जो भी निकटतम
होता है— अगर
गुरु हो, तो वे
सोचेंगे कि
गुरु से मिल
गया; अगर
गुरु न हो, मूर्ति
हो भगवान की
तो वे सोचेंगे
उससे मिल गया।
जो भी
पूर्वगामी
होगा। आया
उनके ही भीतर
से है सदा—तीर्थंकर
होगा, आसमान
में बैठा हुआ
भगवान होगा—
कुछ भी होगा; जो
पूर्वगामी
होगा, उसे
वे कारण समझ
लेंगे।
असल
में,
हम तो उसी
को कारण समझ
लेते हैं जो
पहले गया।
अभी
मैं एक कहानी
पढ़ रहा था कि
दो किसान पहली
दफा ट्रेन में
सवार हुए। उन
दोनों का
जन्मदिन था और
पहाड़ी गांव
में वे रहते
थे। और दोनों
का एक ही
जन्मदिन था, और
गांव के लोगों
ने उनको कुछ
भेंट करना
चाही, नई—नई
ट्रेन चली थी,
तो
उन्होंने कहा
कि हम तुम्हें
टिकट भेंट करते
हैं, तुम
ट्रेन में घूम
आओ दोनों। और
इससे बढ़िया
क्या हो सकता
था उनको!
तो
वे दोनों
ट्रेन में गए।
अब वे हर चीज
के लिए उत्सुक
थे कि क्या हो
रहा है, क्या
नहीं हो रहा
है। तो कोई
शर्बत की बोतल
बेचता हुआ
आदमी आया, तो
उन्होंने
सोचा कि हमें
भी चखनी
चाहिए। तो
उन्होंने कहा,
एक बोतल ले
लें और आधी—
आधी चख लें। और
फिर अच्छी लगे
तो दूसरी भी
ले सकते हैं।
तो पहले आदमी
ने आधी बोतल
चखी, जब वह
आधी बोतल चख
रहा था तभी एक
टनल में, एक
बोगदे
में गाड़ी
प्रवेश कर गई।
दूसरे आदमी ने
उसके हाथ से
बोतल छीनी
कि भई, तुम
पूरी मत पी
जाना, आधी
मुझे भी दो।
उसने कहा, छूना
ही मत! आई हैव
बीन स्ट्रक
ब्लाइंड! इसको
तुम छूना ही
मत; क्योंकि
इसने मुझे
अंधा कर दिया
है। टनल में
गाड़ी चली गई
थी। जो
पूर्वगामी था,
तो उसने उस
बोतल को पीया
था, तो
उसने उसको कहा
छूना ही मत; भूल के मत
छूना, मैं
अंधा हो गया
हूं।
स्वाभाविक
है,
जो
पूर्वगामी है
वह हमें कारण
मालूम पड़ता है।
लेकिन शक्ति
जहां से आ रही
है, उसका
हमें पता ही
नहीं; और
जब तक न आ जाए
तब तक पता
नहीं। और भी आ
सकती है वहां
से, उसका
भी हमें पता
नहीं; और
कितनी आ सकती
है, इसका
भी हमें पता
नहीं।
कुंड
में उठी एक
लहर:
यह
जो सोया हुआ
कुंड है, अचेतन,
इसमें से
जितनी शक्ति
जग जाती है, वह कुंडलिनी
है। कुंड तो
अचेतन है, कुंडलिनी
चेतन है। कुंड
तो सोई हुई
शक्ति का नाम
है, कुंडलिनी
जागी हुई
शक्ति का नाम
है। उसमें से
जितना हिस्सा जागकर ऊपर
आ गया, उस
कुंड से जितना
बाहर आ गया, उतनी
कुंडलिनी है।
कुंडलिनी
पूरा कुंड
नहीं है, कुंडलिनी
उसमें से बहुत
छोटी सी एक
लहर है जो उठ
गई है। इसकी
दोहरी खोज है
इस यात्रा में।
तुम्हारे
भीतर जो
कुंडलिनी जगी
है वह तो सिर्फ
खबर है
तुम्हारे
भीतर एक स्रोत
की, जहां
और भी बहुत
कुछ सोया होगा।
जब एक किरण आई
है, तो
अनंत किरणों
की वहां
संभावना है।
तो
एक रास्ता तो
कुंडलिनी को
जगाने का है, जिसमें
से तुम्हारी
शक्ति.. .शरीर
की शक्ति का तुम्हें
पूरा बोध हो
सकेगा। और इस
शक्ति को जगाकर
तुम शरीर के
उन बिंदुओं पर
पहुंच जाओगे,
जहां से
शरीर के
अदृश्य रूपों
में— आत्मा
में—प्रवेश
आसान है; उन
द्वारों पर
पहुंच जाओगे
इस शक्ति को जगाकर, जहां
से अदृश्य
द्वार पर तुम
जा सकते हो।
और
इसको भी समझ
लेना जरूरी है, क्योंकि
हम जो कुछ भी
कर रहे हैं, वह हमारी
शक्ति
किन्हीं
द्वारों के
द्वारा कर रही
है। अगर
तुम्हारे कान
खराब हो जाएं,
तो शक्ति
वहां तक आकर
लौट जाएगी, लेकिन तुम
सुन न सकोगे।
फिर धीरे—
धीरे शक्ति
वहां आनी बंद
हो जाएगी; क्योंकि
शक्ति वहीं
आती है जहां
उसको सक्रिय होने
का कोई मौका
हो। वह वहां
नहीं आएगी।
इससे उलटा भी
हो सकता है।
इससे उलटा भी
हो सकता है कि
कोई आदमी बहरा
है, और अगर
वह अपनी
अंगुली से
बहुत ज्यादा
संकल्प करे
सुनने का, तो
अंगुली भी सुन
सकती है। ऐसे
लोग हैं जमीन
पर आज भी जो
शरीर के दूसरे
हिस्सों से
सुनने लगे हैं,
ऐसे लोग भी
हैं जो शरीर
के दूसरे
हिस्सों से देखने
लगे हैं।
असल
में,
जिसको तुम
आख कहते हो, वह है क्या? तुम्हारी
चमड़ी का ही
हिस्सा है।
लेकिन अनंत
काल से मनुष्य
उस हिस्से से
देखता रहा है,
इतना ही।
लेकिन पहले
दिन जिस दिन
मनुष्य के
पहले प्राणी
ने उस अंग से
देखा होगा, वह बिलकुल
ही संयोग की
बात थी, वह
कहीं और से भी
देख सकता था।
दूसरे
प्राणियों ने
और हिस्सों से
देखा है। तो
दूसरी तरफ
उनकी आंखें आ
गई हैं। ऐसे
भी पशु—पक्षी
हैं, कीड़े—मकोड़े हैं,
जिनके पास
असली आख भी है
और फाल्स आख
भी है। असली
आख, जिससे
वे देखते हैं;
और झूठी आख,
जिससे वे
दूसरों को
धोखा देते हैं,
कि अगर कोई
हमला करे तो
झूठी आख पर
हमला करे, असली
आख पर हमला न
करे। साधारण
सी मक्खी तुम्हारे
घर में जो है, उसकी हजार
आख हैं; उसकी
एक आख हजार आंखों
का जोड़ है।
उसकी देखने की
क्षमता बहुत
ज्यादा है
उसके पास। मछलियां
हैं जो पूंछ
से देखती हैं,
क्योंकि
उनको पीछे से
दुश्मन का डर
होता है।
अगर
हम सारी
दुनिया के
प्राणियों की आंखों
का अध्ययन
करें तो हमको
पता चलेगा कि
आख का कोई इसी
जगह होना कोई
मतलब नहीं है।
कान का इसी
जगह होना कोई
मतलब नहीं है।
ये कहीं भी हो
सकते हैं। इस
जगह हैं, क्योंकि
अनंत बार
मनुष्य—जाति
ने वहीं—वहीं
उन्हें
पुनरुक्त
किया है, वे
वहां स्थिर हो
गए हैं। और
हमारे भीतर
उनकी जो
स्मृति है, वह गहरी हो
गई है हमारी
चेतना में, इसलिए वहां
पुनरुक्त हो
जाते हैं।
यहां
जो—जो अंग
हमारे पास हैं, उन
अंगों में से
एक अंग भी खो
जाए, तो उस
दुनिया का
दरवाजा बंद हो
जाएगा। जैसे
आख खो जाए, तो
फिर हमें
प्रकाश का कोई
अनुभव न हो
सकेगा। फिर
कितने ही
अच्छे कान हों
हमारे पास, और कितने ही
अच्छे हाथ हों,
प्रकाश का
अनुभव नहीं हो
सकेगा।
नये द्वारों
पर दस्तक:
तो
जब कुंडलिनी
तुम्हारी
जागनी शुरू
होती है तो वह
कुछ ऐसे नये
द्वारों पर भी
चोट करती है जो
सामान्य नहीं
हैं;
जिनसे
तुम्हें कुछ
और चीजों का
पता चलना शुरू
होता है—जो कि
इन आंखों से
पता नहीं चलता
था; इन
हाथों से पता
नहीं चलता था।
अगर ठीक से
कहें तो ऐसा
कह सकते हैं
कि तुम्हारी
अंतर—इंद्रियों
पर चोट होनी
शुरू हो जाती
है। अभी भी
तुम्हारी
कुंडलिनी की
शक्ति ही इन आंखों
को और कानों
को चला रही है,
लेकिन ये
बहिर—इंद्रिया
हैं। और बहुत
छोटी सी
मात्रा
कुंडलिनी की
इनको चला लेती
है। अगर तुम
उस मात्रा में
थोड़ी सी भी
बढ़ती कर दो, तो तुम्हारे
पास अतिरिक्त
शक्ति होगी जो
नये द्वारों
पर चोट कर सके।
जैसे
कि हम यहां से
पानी बहा दें।
अगर पानी की
एक छोटी सी
मात्रा हो, तो
पानी की एक
लीक बन जाएगी
और फिर पानी
उसी में से
बहता हुआ चला
जाएगा। लेकिन
पानी की
मात्रा एकदम
से बढ़ जाए तो
तत्काल नई
धाराएं शुरू
हो जाएंगी; क्योंकि
उतने पानी को
पुरानी धारा न
ले जा सकेगी।
तो
कुंडलिनी को
जगाने का जो
गहरा शारीरिक
अर्थ है, वह यह
है कि इतनी
ऊर्जा तुम्हारे
पास हो कि
तुम्हारे
पुराने द्वार
उसको बहाने
में समर्थ न
रह जाएं। तब अनिवार्यरूपेण
उस ऊर्जा को
नये द्वारों
पर चोट करनी
पड़ेगी और
तुम्हारी नई
इंद्रियां
कानी शुरू हो
जाएंगी। उन
इंद्रियों
में बहुत तरह
की इंद्रियां
हैं—उनसे
टेलीपैथी
होगी, क्लेअरवायन्स होगा। तुम्हें
कुछ चीजें
दिखाई पड़ने
लगेंगी, कुछ
सुनाई पड़ने
लगेंगी, जो
कि कान की
नहीं हैं, आख
की नहीं हैं।
तुम कुछ चीजें
अनुभव करने
लगोगे जिनमें
तुम्हारी
किसी इंद्रिय
का कोई योगदान
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर नई
इंद्रियां
सक्रिय हो
जाएंगी। और
इन्हीं
इंद्रियों की
सक्रियता का
जो गहरे से
गहरा फल होगा,
वह
तुम्हारे
शरीर के भीतर
जो अदृश्य लोक
है—जिसको
आत्मा हम कह
रहे हैं—तुम्हारे
शरीर का जो
सूक्ष्मतम
अदृश्य छोर है,
उसकी
प्रतीति उसे पकड़नी
शुरू हो जाएगी।
तो यह
कुंडलिनी के
जागने से
तुम्हारे
भीतर संभावनाएं
बढ़ेगी।
शरीर से काम
शुरू होगा।
चेतना
को कुंड में
डुबोने का
अनूठा प्रयोग:
दूसरी
बात मैंने छोड़
दी। यह
साधारणत:
प्रयोग हुआ है—कुंडलिनी
को जगाने का।
पर फिर भी
कुंडलिनी
पूरा कुंड
नहीं है। एक
दूसरा प्रयोग
भी है जिस पर
मैं फिर कभी
तुमसे उसकी
अलग ही पूरी
बात करनी पड़े।
बहुत थोड़े से
लोगों ने
पृथ्वी पर उस
पर काम किया
है। वह
कुंडलिनी
जगाने का नहीं
है,
बल्कि कुंड
में डूब जाने
का है। उसमें
से कोई एक
छोटी—मोटी
शक्ति को
उठाकर काम कर
लेना नहीं, बल्कि समग्र
चेतना को अपने
उस कुंड में डुबा देना।
तब कोई
इंद्रिय नहीं जागेगी नई,
कोई
अतींद्रिय
अनुभव नहीं
होंगे, और
आत्मा का
अनुभव एकदम खो
जाएगा, और
सीधा
परमात्मा का
अनुभव होगा।
कुंडलिनी
की शक्ति जगाकर
जो अनुभव
होंगे, वह
तुम्हें पहले
आत्मा का
अनुभव होगा; और उसके साथ
एक प्रतीति
होगी कि दूसरे
की आत्मा अलग
है, मेरी
आत्मा अलग है।
जिन लोगों ने
कुंडलिनी की
शक्ति जगाकर
अनुभव किए हैं,
वे अनेक—
आत्मवादी हैं;
वे कहेंगे
कि अनेक
आत्माएं हैं,
हर एक के
भीतर अलग
आत्मा है।
लेकिन जिन
लोगों ने कुंड
में डुबकी
लगाई है, वे
कहेंगे आत्मा
है ही नहीं, परमात्मा ही
है; अनेक
नहीं हैं, एक
ही है।
क्योंकि उस
कुंड में
डुबकी लगाते
से ही तुम अपने
ही कुंड में
डुबकी नहीं
लगाते—तुम, सबका जो
सम्मिलित
कुंड है, उसमें
प्रवेश कर
जाते हो
तत्काल।
तुम्हारा
कुंड और मेरा
कुंड और उनका
कुंड अलग—अलग
नहीं हैं।
इसीलिए तो
कुंड अनंत
शक्तिवान है।
तुम उसमें से
कितना ही उठाओ, तो
भी कुछ नहीं
उठता। तुम
उसमें से
कितनी बालटी
पानी भर लाए
हो अपने घर के
काम के लिए, उससे कुछ
वहां फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन तुम
अपना मटका भर
लाए हो, मैं
अपना मटका भर
लाया हूं; मेरे
मटके का पानी
अलग है, तुम्हारे
मटके का पानी
अलग है। हम
सागर से कुछ
ले आए हैं।
लेकिन एक आदमी
सागर में डूब
गया! तब वह
कहता है कि
मटके— वटके
की कोई बात
नहीं है, और
किसी का पानी
अलग नहीं है, सागर एक है, वह जिसे तुम
घर ले गए हो, वह भी इसी का
हिस्सा है, और कुछ दूर
नहीं हो गया
है, और तुम
दूर रख न
पाओगे, वह
लौट आएगा। अभी
धूप पड़ेगी और
भाप बनेगी और
बादल बनेंगे,
वह सब लौट
आएगा। वह कहीं
दूर नहीं गया
है, वह दूर
जा नहीं सकता,
वह सब यहीं
लौट आएगा।
तो जिन
लोगों ने
कुंडलिनी को
जगाने के प्रयोग
किए,
उन लोगों को
अतींद्रिय
अनुभव हुए। जो
कि साइकिक, जो कि मनस की
बड़ी अदभुत
अनुभूतियां
हैं। और
उन्हें आत्म—अनुभव
हुआ। जो कि
परमात्मा का
सिर्फ एक अंश
है; जहां
से तुम
परमात्मा को
पकड़ रहे हो।
जैसे
एक सागर के
किनारे से मैं
सागर को छू
रहा हूं। मैं
उसी सागर को
छू रहा हूं जो
कि करोड़ों मील
दूर तुम भी छू
रहे होओगे।
लेकिन मैं
कैसे मानूं कि
तुम भी उसी
सागर को छू
रहे हो? तुम
अपने किनारे
छू रहे हो, मैं
अपने किनारे
छू रहा हूं।
तो मेरा सागर
अलग होगा।
मेरा सागर
हिंद महासागर
होगा, तुम्हारा
सागर
अटलांटिक
महासागर होगा,
उनका सागर
पैसिफिक
महासागर होगा।
महासागर नहीं छुने हम, अपने—अपने
सागर भी हो
जाएंगे, अपना—अपना
तट भी हो
जाएगा, हम
कहीं विभाजन
रेखा खींच
लेंगे— जो
मैंने छुआ।
तो
आत्मा जो है
वह परमात्मा
को एक कोने से
छूना है। और
कोने से छूने
का रास्ता है
कि एक छोटी सी
शक्ति जग जाए
तो तुम छू
लोगे। और
इसलिए इस
मार्ग से चलने
पर एक दिन
आत्मा को भी
खोना पड़ता है, नहीं
तो रुकावट हो
जाती है, वह
पूरा नहीं है
मामला। फिर
आत्मा को भी
खोना पड़ता है,
फिर छलांग
लगानी पड़ती है
कुंड में।
लेकिन यह आसान
है। यह आसान
है। कई बार
ऐसा होता है
कि लंबा
रास्ता आसान
रास्ता होता
है, और
निकटतम
रास्ता कठिन
रास्ता होता
है। उसके कारण
हैं। उसके
कारण हैं।
लंबा रास्ता
सदा आसान
रास्ता होता
है।
अब
जैसे, मुझे
अगर मेरे ही
पास आना हो, तो भी मुझे
दूसरे के
माध्यम से आना
पड़े। और अगर
मुझे अपनी ही
शक्ल देखनी हो,
तो भी मुझे
एक आईना रखना
पड़े। अब यह
फिजूल की लंबी
यात्रा है कि
आईने में मेरी
शक्ल जाएगी और
आईने से वापस
लौटेगी, तब
मैं देख
पाऊंगा। यह इतनी
यात्रा करनी
पड़ेगी। लेकिन
अपनी शक्ल को
सीधा देखना, निकटतम तो
है, लेकिन
कठिनतम भी है।
मेरा मतलब
समझे न तुम?
स्वयं
को जानने व
खोने का आनंद:
तो
यह जो
कुंडलिनी की
छोटी सी शक्ति
को उठाकर थोड़ी
लंबी यात्रा
तो होती है, क्योंकि
इंद्रियों का
सारा का सारा,
अंतर—इंद्रियों
का जगत खुलता
है और आत्मा
पर पहुंचते
हैं, और
फिर वहां से
छलांग तो लेनी
ही है, लेकिन
बड़ी सरल हो
जाती है।
क्योंकि
जिसको आत्म—अनुभव
हुआ, जिसने
अपने को जाना
और आनंद पाया,
वह आनंद उसे
पुकारने लगता
है कि अब अपने
को भी खो दो तो
और परम आनंद
पा लोगे।
अपने
को जानने का
एक आनंद है, अपने
को पाने का एक
आनंद है, और
अपने को खोने
का एक परम
आनंद है।
क्योंकि जब
तुम अपने को
जान लोगे तब
तुम्हें सिर्फ
एक ही पीड़ा रह
जाएगी कि मैं
हूं; बस
इतनी पीड़ा और
रह जाएगी; सब
पीड़ाएं
मिट जाएंगी, एक ही पीड़ा
रह जाएगी कि
मेरा होना भी
क्यों है। यह
भी अनावश्यक
है। यह मेरा
होना भी
व्यर्थ, अनावश्यक
है। इसलिए
इससे भी तुम
छलांग लगाओगे
ही। एक दिन
तुम कहोगे कि
अब मैंने होना
जान लिया, अब
मैं न होना भी
जानना चाहता
हूं; मैंने
बीइंग भी जान
लिया, अब
मैं नॉन—बीइंग
भी जानना
चाहता हूं; मैंने जान
लिया प्रकाश,
अब मैं
अंधकार भी
जानना चाहता
हूं। और
प्रकाश कितना
ही बड़ा हो, उसकी
सीमा है; और
अंधकार असीम
है। और बीइंग
कितना ही
महत्वपूर्ण
हो, फिर भी
सीमा है।
अस्तित्व की
सीमा होगी, अनस्तित्व
की कोई सीमा
नहीं।
इसलिए
बुद्ध को लोग
नहीं समझ पाए।
क्योंकि
बुद्ध से जब
लोगों ने जाकर
पूछा कि हम
बचेंगे कि
नहीं वहां? तो
उन्होंने कहा
कि तुम कैसे
बचोगे? तुमसे
ही तो छूटना
है! तो
उन्होंने
पूछा कि मोक्ष
में फिर कम से
कम हम तो
होंगे? और
सब मिट जाए—
वासना मिटे, दुख मिटे, पाप मिटे—हम
तो बचेंगे? बुद्ध ने
कहा कि तुम
कैसे बचोगे? जब वासना मिट
जाएगी, पाप
मिट जाएगा, दुख मिट
जाएगा, तो
एक दुख बचेगा
तुम्हारा—होने
का दुख। होना
भी खलने
लगेगा।
यह
बड़े मजे की
बात है।
क्योंकि जब तक
वासना है तब
तक होना नहीं
खलता तुम्हें, क्योंकि
तुम होने को
काम में लगाए
रखते हो। धन
कमाना है, तो
होने को तुमने
धन कमाने में
लगाया है; यश
कमाना है, तो
यश कमाने में
लगाया है। जब
यश की कामना न
होगी, धन
की कामना न
होगी, काम
की वासना न
होगी, जब
कुछ भी न होगा
करने को, जब
डूइंग
बिलकुल न
बचेगी, तो
बीइंग का
करोगे क्या? तब बीइंग
सीधा गड़ने
लगेगा, होना
ही घबराने
लगेगा कि अब
यह होना भी
नहीं चाहिए।
तो
बुद्ध कहते
हैं कि नहीं, वहां
कुछ भी नहीं
होगा। जैसे
दीया बुझ जाता
है, फिर
तुम पूछते हो
कहां गया?
मरते
समय तक बुद्ध
से लोग पूछ
रहे हैं कि
तथागत का मरने
के बाद क्या
होता है? जब आप
मर जाएंगे तो
फिर क्या होगा?
तो बुद्ध
कहते हैं, जब
मर ही गए तो
फिर होने को
बचा क्या? फिर
कुछ बचेगा ही
नहीं, जैसे
दीया बुझ गया
ऐसे सब बुझ
जाएगा। तुम कब
पूछते हो कि
दीया बुझ गया,
अब क्या हुआ?
बुझ गया, बुझ गया।
तो
आत्मा की
उपलब्धि चरण
ही है एक
आत्मा को खोने
की तैयारी का।
लेकिन ऐसे ही
आसान है।
क्योंकि जो
अभी वासना ही
नहीं खो सका, उससे
अगर सीधा कहो
कि कुंड में
डूब जाओ, अपने
को ही खो दो।
असंभव है!
क्योंकि वह
कहेगा, अभी
मुझे बहुत काम
हैं।
आखिर
हम अपने को
खोने से डरते
क्यों हैं? हम
अपने को खोने
से इसलिए डरते
हैं कि काम तो
बहुत करने को
हैं, मैं
खो दूंगा तो फिर
ये काम कौन
करेगा? एक
मकान बनाया, वह अधूरा है।
तो उसे मैं
पूरा बना लूं
फिर तैयार हो जाऊंगा।
लेकिन तब तक
दूसरे काम
अधूरे रह
जाएंगे।
असल
में,
काम की
वासना, कुछ
पूरा करना है,
उसकी वजह से
ही तो मैं
अपने को चला
रहा हूं। तो
जब तक वासना
है तब तक अगर
कोई कहे कि
आत्मा को खो
दो, तो तब
तक बिलकुल
संभव नहीं है।
यह निकट का तो
है, लेकिन
संभव नहीं है।
क्योंकि वह
आदमी जिसकी
अभी वासना
नहीं खोई, वह
आत्मा को कैसे
खोएगा? हां, वासना
खो जाए तो फिर
एक दिन वह
आत्मा को खोने
को राजी हो
सकता है, क्योंकि
अब आत्मा का
भी करना क्या
है!
मेरा
मतलब समझ रहे
हो?
मेरा मतलब
यह है कि
जिसने अभी दुख
नहीं खोया, उससे कहो कि
आनंद को खो दो!
वह कहेगा, पागल
हैं आप? लेकिन
जिस दिन दुख
खो जाए, आनंद
ही रह जाए, फिर
आनंद का भी
क्या करोगे? फिर आनंद को
भी खोने के
लिए तुम तैयार
हो जाओगे। और
जिस दिन कोई
आनंद को भी
खोने को तैयार
है, उसी
दिन कोई घटना
घटती है। दुख
खोने को तो
कोई भी तैयार
हो जाता है, लेकिन एक
घड़ी आती है जब
हम आनंद को भी
खोने को तैयार
हो जाते हैं।
वह परम
अस्तित्व में
लीनता उपलब्ध
उससे होती है।
यह
सीधा भी हो
सकता है; सीधा
कुंड में जाया
जा सकता है।
लेकिन राजी
होना मुश्किल
होता है। धीरे—
धीरे राजी
होना आसान हो
जाता है।
वासना खोती है,
वृत्तियां
खोती हैं, क्रिया
खोती है, वह
सब खो जाता है
जिनके सहारे
तुम हो; फिर
आखिर में
तुम्हीं बचते
हो जिसमें न
नींव बची, न
सहारे बचे। अब
तुम कहते हो, इसको भी
क्या बचाना!
अब इसको भी
जाने दे सकते
हैं। तब तुम
कुंड में डूब
जाते हो। कुंड
में डूबना
निर्वाण है।
अगर
सीधा कोई
डूबना चाहे तो
कुंडलिनी
नहीं मार्ग
में आती।
इसलिए कुछ
मार्गों ने
उसकी बात नहीं
की,
जिन्होंने
सीधे ही डूबने
की बात की, उन्होंने
उसकी बात नहीं
की; उसकी
कोई जरूरत नहीं
थी। लेकिन
मेरा अपना
अनुभव यह है
कि वह नहीं
संभव हो सका।
वह कभी एकाध—दों
लोगों के लिए
संभव हो सकता
है, लेकिन
एकाध—दों
लोगों से कुछ
हल नहीं होता।
लंबे रास्ते
ही जाना पड़ेगा।
बहुत बार अपने
घर पहुंचने के
लिए दूसरों के
घर के द्वार
खटखटाने ही
पड़ते हैं—
अपने ही घर
पहुंचने के
लिए! और अपनी
ही शक्ल
पहचानने के
लिए न मालूम
कितनी शक्लों
को पहचानना
पड़ता है। और
खुद को प्रेम
करने के लिए न
मालूम कितने
लोगों को
प्रेम करना
पड़ता है। सीधा
तो यही था कि
अपने को प्रेम
कर लेते।
इसमें कौन
कठिनाई थी? इसमें कौन
बाधा डालता था?
उचित तो यही
था कि अपने घर
में सीधे आ
जाते। लेकिन
ऐसा नहीं है।
असल
में,
जब तक हम
दूसरों के
घरों में न
भटक लें, तब
तक अपने घर को
पहचानना ही
मुश्किल होता
है। और जब तक
हम दूसरों से
प्रेम न मांग
लें और दूसरों
को प्रेम न कर
लें, तब तक
यह पता ही
नहीं चलता कि
असली सवाल
अपने को प्रेम
करने का है।
यह पता ही
नहीं चलता।
इसका पता चलता
है तभी।
तो
यह कुंडलिनी
को मैंने जो
कहा कि शरीर
की तैयारी है; तैयारी
है अशरीर में
प्रवेश की, आत्मा में
प्रवेश की। और
तुम्हारी
जितनी ऊर्जा
अभी जगी है
उससे तुम आत्मा
में प्रवेश न
कर सकोगे।
क्योंकि
तुम्हारी वह
ऊर्जा
तुम्हारे
रोजमर्रा के
काम में पूरी
चुक जाती है।
बल्कि करीब—करीब
उसमें भी पूरी
नहीं पड़ती, उसमें भी हम
थक जाते हैं।
वह उसमें भी
पूरी नहीं पड़
रही है। बहुत
मंदी—मंदी जल
रही है लौ।
इतने से इसको
नहीं ले जाया
जा सकता।
ऊर्जा
अनंत है, उसे
जगाओ:
और
इसीलिए
संन्यास की
वृत्ति पैदा
हुई,
ताकि
रोजमर्रा का
काम बंद कर
दिया जाए।
क्योंकि
शक्ति तो इतनी
सी ही है
हमारे पास, अब इसको
लगाना है किसी
और यात्रा पर,
तो फिर यह
काम बंद कर दो,
दुकान मत
करो, बाजार
मत जाओ, नौकरी
मत करो।
लेकिन
मेरा मानना है
कि वे भांति
में हैं।
क्योंकि यह जो
दो पैसे की
शक्ति उसकी इस
काम में लग
रही है, यह
अगर वह किसी
तरह बचा भी ले,
तो बचाने
में यह उतनी
व्यय हो जाएगी।
क्योंकि
बचाने में भी
बड़ी ताकत लग
जाती है।
बचाने में बड़ी
ताकत लगती है;
बहुत बार तो
क्रोध करने
में उतनी ताकत
व्यय नहीं
होती जितना
क्रोध रोकने
में व्यय हो
जाती है; बहुत
बार लड़ने में
उतनी व्यय
नहीं होती
जितना लड़ने से
बचने में व्यय
हो जाती है।
तो
मैं इसको उचित
नहीं मानता, यह
कंजूस का
रास्ता है। यह
जो संन्यास है,
यह कंजूस का
रास्ता है। वह
यह कह रहा है कि
इतने में ही
हम उधर से बचा
लेते हैं, इधर
से बचा लेते
हैं। मेरा
मानना है कि
कंजूस के
रास्ते से
नहीं चलेगा।
और जगा लो!
बहुत है, अनंत
है; बचाते
क्यों हो, और
जगा लो! और
खर्च करनी है?
और जगा लो!
और तुम खर्च
कर नहीं सकते
इतनी तुम्हारे
पास है, तो
तुम उसे बचाने
की फिक्र
क्यों करते
हो!
अब
वह आदमी डर
रहा है कि अगर
मैंने अपनी
पत्नी को
प्रेम किया तो
मैं परमात्मा
को कैसे प्रेम
करूंगा? क्योंकि
उसके पास
प्रेम की इतनी
छोटी सी तो ऊर्जा
है कि इसी में
चुक जाएगी। तो
वह कह रहा है, इससे बचा
लें। लेकिन
अगर इसको बचा
भी लिया, तो
इस बचाने में
उसको लड़ना
पड़ेगा; लड़ने
में व्यय होगी।
और इतनी छोटी
सी ऊर्जा से, जिससे तुमने
पत्नी को
प्रेम किया था,
उससे तुम
परमात्मा को
प्रेम कर
पाओगे? उतनी
सी ऊर्जा से
पत्नी तक नहीं
पहुंच पाए पूरी
तरह, परमात्मा
तक कैसे पहुंच
पाओगे? यानी
उतना छोटा सा
जो ब्रिज
तुमने बनाया
था, वह
पत्नी तक भी
तो पूरा नहीं
पहुंचता था।
उसमें भी बीच
में ही सीढ़ियां
चुक जाती थीं।
वह वहां तक भी
सेतु पूरा
नहीं बनता था
कि तुम उसके
हृदय तक भी
पहुंच गए होओ
ठीक; वह भी
नहीं हो पाता
था। उतनी सी
ऊर्जा बचाकर
तुम अनंत तक
सेतु बनाने की
सोचने बैठे हो,
तो पागलपन
में पड़ गए हो।
उसे
बचाने का सवाल
नहीं है; और
ऊर्जा है, उसे
जगाने का सवाल
है। और इतनी
अनंत ऊर्जा है
कि जिसका कोई
हिसाब नहीं।
और एक बार वह
कानी शुरू हो
जाए, तो वह
जितनी जगती है,
उतनी ही और
जगने की
संभावना
प्रकट होने
लगती है। उसका
झरना फूटना
शुरू हो जाए
तो अनंत है।
उसे तुम चुकता
नहीं कर सकते
कभी। यानी ऐसा
कोई क्षण नहीं
आ सकता जब तुम
कह दो कि अब
मेरे भीतर
जगने को और
कुछ भी शेष
नहीं रहा।
जगने
की,
अवेकनिंग
की अनंत
संभावना है, कितना भी
तुम जगा सकते
हो। और जितना
तुम जगाते हो,
उतना और
जगाने के लिए
तुम शक्तिशाली
होते चले जाते
हो। और जब
तुम्हारे पास
अतिरिक्त
होती है, एफ्लुएंस होता है
तुम्हारे पास
अंतर— ऊर्जा
का, तभी
तुम उसे उन
रास्तों पर
खर्च कर सकते
हो जो अनजान
हैं। समझ रहे
हो न मेरा
मतलब?
बाहर
की दुनिया में
भी एफ्लुएंस
होता है। एक
आदमी के पास
अतिरिक्त धन
है,
अब वह सोचता
है कि चलो, चांद
की यात्रा कर
आएं। हालांकि
बेमानी है, और चांद पर
कुछ मिलने को
नहीं है।
लेकिन हर्ज भी
कुछ नहीं है, क्योंकि
उसका खोने को
भी क्या है!
उसके पास अतिरिक्त
है, वह खो
सकता है। जब
तक तुम्हारे
पास अतिरिक्त
नहीं है, उतना
ही है जितनी
तुम्हें
जरूरत है—
उससे भी कम है—तब
तक तुम इंच—इंच
जांच—पड़ताल
करके खर्च
करोगे। इसलिए
तुम ज्ञात की
दुनिया से कभी
बाहर न हटोगे।
अज्ञात में
जाने के लिए
तुम्हारे पास
अतिरेक चाहिए।
तो
कुंडलिनी की
शक्ति
तुम्हें
अतिरेक से भर
देती है। और
तुम्हारे पास
इतनी शक्ति
होती है कि
तुम्हारे सामने
सवाल होता है
कि इसको कहां
खर्च करें? और
ध्यान रहे, जिनके पास
अतिरिक्त
शक्ति होती है,
अचानक वे
पाते हैं कि
उनके जो
पुराने द्वार
थे, वे
एकदम बंद हो
गए; क्योंकि
उस अतिरिक्त
शक्ति को
बहाने में वे
समर्थ नहीं
होते। जैसे एक
छोटी नदी हो
और उसमें पूरा
सागर आ गया है।
वह नदी मिट
जाएगी फौरन।
उसका कहीं पता
ही नहीं चलेगा
कि वह कहां गई।
तो
तुम्हारा
क्रोध का एक
मार्ग था, तुम्हारे
सेक्स का एक
मार्ग था, वे
अचानक खो
जाएंगे। जिस
दिन अतिरिक्त
ऊर्जा आएगी, वह सब घाट, तट, सब
तोड़—फोड़ कर
उनको खतम कर
देगी। तुम
अचानक पाओगे
कि कुछ और ही
हो गया! वह सब
कहां गया जो
कल मैं छोटा—छोटा
बचा—बचा कर
कंजूस की तरह
चल रहा था, और
ब्रह्मचर्य
साध रहा था, और क्रोध
दबा रहा था, और यह कर रहा
था, और वह
कर रहा था; वह
सब अब कहां है?
क्योंकि वे नदियां न
रहीं, वे नहरें
न रहीं; अब
तो यह पूरा
सागर आ गया है!
अब इसको खर्च
करने का
तुम्हारे पास
जब उपाय नहीं
है, तब
अनायास तुम
पाते हो कि
इसकी दूसरी
यात्रा शुरू
हो गई। यात्रा
तो होगी ही, वह तो रुक
सकती नहीं।
ऊर्जा बहेगी
ही, वह रुक
सकती नहीं।
होनी चाहिए।
तो
एक बार जगा
लेने की बात
है। और तब
तुम्हारे
दैनंदिन के
द्वार बेमानी
हो जाते हैं, और
अनजान—अपरिचित
द्वार, जो
बंद पड़े हैं, उनमें पहली
दफे दरारें
पड़ती हैं और
उनसे ऊर्जा
धक्के देकर
बहने लगती है।
तो वहां
तुम्हें
अतींद्रिय
अनुभव शुरू हो
जाते हैं। और
जैसे ही
अतींद्रिय
द्वार खुलते
हैं वैसे ही
तुम्हें अपने
शरीर का
अशरीरी छोर, जिसको आत्मा
कहें, उसकी
तुम्हें
प्रतीति शुरू
हो जाती है।
तो
कुंडलिनी
तुम्हारे
शरीर की
तैयारी है अशरीर
में प्रवेश के
लिए। उस अर्थ
में मैंने वह
बात कही।
कुंडलिनी
का आरोहण—
अवरोहण:
प्रश्न:
ओशो कुंडलिनी
साधना में
कुंडलिनी के एसेडं और डिसेडं की
बात आती है—
आरोहण और उसके
बाद अवरोहण।
तो यह जो डिसेडं
है?
वह क्या
कुंड में
डूबना है या
और कोई दूसरी
बात है?
असल में, कुंड
में डूबना जो
है, वह न तो
उतरना है, न
वह चढ़ना
है। कुंड में
डूबने में तो
ये दोनों
बातें ही नहीं
हैं। वह उतरना—चढ़ना नहीं
है, मिट
जाना है, समाप्त
हो जाना है।
बूंद जब सागर
में गिरती है,
न तो उतरती,
न चढ़ती।
हां, बूंद
जब सूरज की
किरणों में
सूखती है, तब
चढ़ती है
आकाश की तरफ; और जब बादल
में ठंडक पाकर
गिरती है जमीन
की तरफ, तब
उतरती है।
लेकिन जब सागर
में जाती है
तो फिर उतरना—चढ़ना नहीं
है—डूबना है, मिटना है, मरना है।
तो
यह जो उतरने—चढ़ने की जो
बात है, अवरोहण
की, अवतरण
की, यह
बहुत दूसरे
अर्थों में है।
यह इस अर्थ
में है कि
कुंड से जिस
शक्ति को हम उठाते
हैं, इसे
बहुत बार वापस
कुंड में भी
भेज देना पड़ता
है। इस शक्ति
को हम उठाते
भी हैं, इसे
हमें वापस भी
भेज देना पड़ता
है बहुत बार।
कई कारण हो
सकते हैं।
सबसे बड़ा कारण
तो यह होता है
कि बहुत बार
ऐसा होता है
कि जितनी
शक्ति के लिए
तुम तैयार
नहीं होते, उतनी शक्ति
जग जाती है; उसे वापस
लौटाना पड़ता
है, अन्यथा
खतरे हो सकते
हैं। तो कुछ
शक्ति जितनी
तुम झेल सको.
हमारे झेलने
की भी
क्षमताएं हैं
न! हमारे
झेलने की भी
क्षमताएं हैं—सुख
झेलने की भी
क्षमता है, दुख झेलने
की भी क्षमता
है, शक्ति
झेलने की भी
क्षमता है।
अगर हमारी
क्षमता से
बहुत बड़ा आघात
हमारे ऊपर हो
जाए, तो हमारा
जो संस्थान है
व्यक्तित्व
का वह टूट सकता
है। वह हितकर
नहीं होगा।
इसलिए बहुत
बार ऐसी शक्ति
उठ आती है
जिसको वापस
भेज देना पड़ता
है।
लेकिन
जिस प्रयोग की
मैं बात कर
रहा हूं उस प्रयोग
में इसकी कोई
जरूरत कभी
नहीं पड़ेगी।
यह प्रयोग पर
निर्भर बात है।
ऐसे प्रयोग
हैं जो
तुम्हारे
भीतर आकस्मिक
रूप से, जिनको
सडन
एनलाइटेनमेंट
के प्रयोग
कहते हैं, जो
तात्कालिक, इंस्टैंट शक्ति को
जगा सकते हैं।
ऐसे प्रयोग
में सदा खतरा
है, क्योंकि
शक्ति इतनी आ
सकती है जितनी
कि तुम तैयार
न थे। वोल्टेज
इतना हो सकता
है कि
तुम्हारा बल्व
बुझ जाए, फ्यूज
उड़ जाए, तुम्हारा
पंखा जल जाए, तुम्हारी
मोटर में आग
लग जाए। जिस
प्रयोग की मैं
बात कर रहा
हूं वह प्रयोग
तुम्हारे
भीतर पहले
पात्रता पैदा
करता है, पहले
शक्ति को नहीं
जगाता। पहले
पात्रता पैदा
करता है।
साधना
में दूसरों की
सहायता:
इसे
ऐसे भी समझें
कि यदि एक बड़ा
बांध अचानक
टूट जाए तो
उसके पानी से
बड़ा भारी
नुकसान हो
जाएगा, लेकिन
उससे नहरें
निकालकर उसी
पानी को सुविधानुसार
नियंत्रित
रूप से
प्रवाहित
किया जा सकता
है।
एक
अदभुत घटना है
कि
किशोरावस्था
में कृष्णमूर्ति
को थियोसाफी
के कुछ विशेष
लोगों द्वारा
कुंडलिनी की
सारी साधनाओं
से गुजारा गया।
उन पर अनेक
प्रयोग किए गए, जिनकी
स्पष्ट
स्मृति
उन्हें न रही;
उन्हें बोध
नहीं है कि
क्या हुआ।
उनको तो बोध
तभी आया जब उस
नहर में सागर
उतर आया।
इसलिए उन्हें
तैयारी का कोई
भी पता नहीं
है। इसलिए
किसी प्रिप्रेशन
को वे स्वीकार
नहीं करेंगे
कि किसी
तैयारी की
जरूरत है।
लेकिन उन पर
बड़ी तैयारी की
गई, जैसा
कि संभवत:
पृथ्वी पर
पहले किसी
आदमी के साथ
नहीं की गई। तैयारियां
तो बहुत लोगों
ने की, लेकिन
अपने साथ की।
यह पहली दफा
कुछ दूसरे
लोगों ने उनके
साथ तैयारी की।
प्रश्न:
दूसरे भी कर
सकते हैं?
बिलकुल
कर सकते हैं।
क्योंकि
दूसरे बहुत
गहरे में
दूसरे नहीं
हैं। इधर से
जो हमें दूसरे
दिखाई पड़ रहे
हैं वे इतने
दूसरे नहीं
हैं।
तो
वह तैयारी
दूसरों ने की
और किसी एक
बहुत बड़ी घटना
के लिए की थी।
वह घटना भी
चूक गई। वह
घटना थी किसी
और बड़ी आत्मा
को प्रवेश
कराने के लिए।
कृष्णमूर्ति
को तो सिर्फ
एक वीहिकल
की तरह उपयोग
करना था, इसलिए
उन्हें तैयार
किया था; इसलिए
नहर खोदी थी, इसलिए शक्ति
को, ऊर्जा
को जगाया था।
लेकिन यह
प्रारंभिक
काम था।
कृष्णमूर्ति
जो थे वे खुद
लक्ष्य नहीं
थे उसमें। एक
बड़े लक्ष्य के
लिए साधन की
तरह प्रयोग
करना था उनका।
किसी और आत्मा
को उनके भीतर
जगह देने की
बात थी। वह
नहीं हो सका।
वह नहीं हो
सका इसलिए कि
जब पानी आ गया
तो कृष्णमूर्ति
ने साधन बनने
से इनकार कर
दिया; वह
किसी और के
लिए साधन बनने
से इनकार कर
दिया।
इसका
डर था, इसका डर
सदा है। इसलिए
इसका प्रयोग
नहीं किया गया
था। इसका डर
सदा है।
क्योंकि जब
व्यक्ति उस
हालत में आ
जाए जब कि वह
खुद ही साध्य
बन सके तो वह
दूसरे के लिए
क्यों साधन
बनेगा? वह
इनकार कर दे
ऐन वक्त पर।
यानी मैं
तुम्हें अपने
मकान की चाबी
दूं इसलिए कि
कल कोई मेहमान
आ रहा है, उसके
लिए तुम मकान तैयार
करके रखना।
लेकिन जब मैं
चाबी तुम्हें
देकर जाऊं और
तुम मालिक हो
जाओ, तो कल
जब मेहमान आने
की बात हो तो
तुम इनकार ही कर
दो, कि
मालिक तो मैं
हूं चाबी मेरे
पास है। और यह
चाबी किन्हीं
और ने तैयार
की थी और यह मकान
भी किन्हीं और
ने बनाया था।
इसलिए न
तुम्हें
बनाने का पता
है, न
तुम्हें यह
चाबी कब ढाली
गई, कैसे
ढाली गई, इसका
पता है। लेकिन
इस चाबी के
तुम मालिक हो
और मकान तुम
खोलना जानते
हो, बात
खत्म हो गई।
पहले
तैयारी, पीछे
उपलब्धि:
ऐसी
घटना घटी है।
कुछ लोगों को
तैयार किया जा
सकता है। कुछ
लोग पिछले
जन्मों में
तैयार होकर
आते हैं।
लेकिन यह
साधारण मामला
नहीं है।
साधारणत: तो
प्रत्येक को
अपने को तैयार
करना होता है।
और उचित यही
है कि ऐसा
प्रयोग हो, जिसमें
तैयारी पहले
चलती हो और
घटना पीछे घटती
हो। तुम्हारी
जितनी क्षमता
बनती जाती हो
उतना जल आता
जाता हो।
तुम्हारी
क्षमता से
ज्यादा शक्ति
कभी न जग पाए।
ऐसे बहुत से
प्रयोग थे
जिनमें ऐसा
हुआ। इसलिए
बहुत से लोग
उन्मादग्रस्त
होंगे, पागल
हो जाएंगे।
धर्म से बहुत
बड़ा भय पैदा
हो गया था। इस
तरह के
प्रयोगों की
वजह से पैदा
हुआ था।
तो
प्रयोग दो तरह
के हो सकते हैं, इसमें
कोई बहुत
कठिनाई नहीं
है।
अमेरिका
में उन्होंने
बिजली की जो
व्यवस्था की
है,
उसमें
उन्होंने एक
जो काम किया
है, उसके
कई दफे क्या
परिणाम हो
सकते हैं, वह
मैं कहता हूं।
इस तरह की
स्थिति भीतर
भी हो सकती है।
उन्होंने जो
व्यवस्था की
है वह यह
व्यवस्था की
है कि इस गांव
को जितनी
बिजली की
जरूरत है उससे
अगर ज्यादा
कोटा इसके पास
है आज, और
आज रात गांव
में कम बिजली
का उपयोग किया
जा रहा है, तो
जितनी बिजली
बचे वह दूसरे
गांवों की तरफ
आटोमेटिकली
प्रवाहित हो
जाए; यानी
इस गांव के
पास कुछ भी
अतिरिक्त
बिजली न पड़ी
रह जाए व्यर्थ,
वह दूसरे
गांव के काम आ
जाए। आज एक
फैक्टरी बंद
है जो कल शाम
तक चल रही थी, आज बंद है, उसकी हड़ताल
हो गई। तो
जितनी बिजली
उसको चाहिए थी
वह आज इस गांव
में बेकार पड़ी
रहेगी, जब
कि दूसरे गांव
में हो सकता
है बिजली की
जरूरत हो और
एक फैक्टरी को
बिजली न दी जा
सके। तो पूरा आटोमेटिक
इंतजाम किया
है कि सारे जोन
की बिजली पूरे
वक्त
प्रवाहित
होती रहेगी
दूसरी तरफ—जहां
भी अतिरिक्त
है वह तत्काल
दूसरी तरफ बह
जाएगी।
पीछे
तीन—चार वर्ष
पहले कोई आठ—दस—बारह
घंटे के लिए
पूरी बिजली
चली गई
अमेरिका की।
वह इस इंतजाम
में चली गई।
एक गांव की
बिजली गई तो
उलटा प्रवाह
शुरू हो गया।
वह जो प्रवाह
अतिरिक्त
बिजली को ले
जाता था, जब एक
गांव की बिजली
चली गई तो
सारी बिजली उस
तरफ दौड़ी,
वहां
वैक्यूम हो
गया। उसकी कैपेसिटी
थी उस गांव की,
उतनी बिजली
उसको मिलनी
चाहिए थी; और
वे सारे के
सारे गांव
संबंधित थे, वह सारी
बिजली उस तरफ दौडी। वह
इतने जोर से दौड़ी कि उस
गांव के सारे फ्यूज
चले गए और
दूसरे गांव की
मुसीबत हो गई।
और पूरा का
पूरा जितना जोन का
इंतजाम था, वह सब का सब
एकदम से खत्म
हो गया। एक
बारह घंटे के
लिए अमेरिका
बिलकुल कोई दो
हजार साल पहले
लौट गया; एकदम
अंधेरा हो गया।
जो जहां था
वहां अंधकार
में हो गया और
सब काम ठप्प
हो गया। और उस
वक्त पहली दफा
उनको पता चला
कि हम जिस लिए
इंतजाम करते
हैं, उससे
उलटा भी हो
सकता है।
हमारा इंतजाम
जो हम करते
हैं, उससे
उलटा हुआ। अगर
एक—एक गांव का
अलग—अलग
इंतजाम था तो
ऐसा कभी नहीं
हो सकता था।
हिंदुस्तान
में ऐसा कभी
नहीं हो सकता
कि पूरे
हिंदुस्तान
की बिजली चली
जाए। अमेरिका
में हो सकता
है, क्योंकि
वह सब इंटरकनेक्टेड
है पूरा का
पूरा। और पूरे
वक्त धाराएं
एक गांव से
दूसरे गांव शिफ्ट
होती रहेंगी।
और कभी भी
खतरा हो सकता
है।
मनुष्य
के भीतर भी ठीक
विद्युतधारा
की तरह इंतजाम
हैं। और ये विद्युतधाराएं
जो हैं, ये
अगर तुम्हारी
क्षमता से
ज्यादा
तुम्हारी तरफ
प्रवाहित हो
जाएं....... और ऐसे
इंतजाम हैं
जिनसे
प्रवाहित हो
सकती हैं।
यानी तुम यहां
बैठे हुए हो, और यहां
पचास लोग बैठे
हुए हैं, तो
ऐसे मेथड्स
हैं कि तुम
चाहो तो इन
पचास लोगों की
सारी
विद्युतधारा
तुम्हारी तरफ
प्रवाहित हो
जाए; ये सब पचास
लोग यहां
बिलकुल ही
फेंट हालत में
हो जाएं और
तुम एकदम
ऊर्जा के
केंद्र बन जाओ।
लेकिन खतरे भी
हैं उसमें।
उसमें खतरे
हैं; क्योंकि
वह इतनी ज्यादा
भी हो सकती है
कि तुम उसे न
झेल पाओ। और
इससे उलटा भी
हो सकता है कि
जिस मार्ग से
विद्युतधारा
तुम तक आई, उसी
मार्ग से
तुम्हारी भी
सारी विद्युत
को लेकर दूसरी
तरफ बह जाए।
इन सबके
प्रयोग हुए
हैं।
तो
वह जो उतरना
है,
वह
तुम्हारे
भीतर अगर कभी
कोई अतिरिक्त
मात्रा में
शक्ति—तुम्हारी
ही शक्ति—ऊपर
चली जाए, तो
उसे वापस
लौटाने की
विधियां हैं।
लेकिन जिस
विधि की मैं
बात कर रहा
हूं उसमें उनकी
भी कोई जरूरत
नहीं है; उसमें
कोई प्रयोजन
ही नहीं है।
तुम्हारे
भीतर जितनी
पात्रता बनती
जाएगी उतनी ही
तुम्हारे
भीतर शक्ति
जगती जाएगी।
पहले जगह
बनेगी, फिर
शक्ति आएगी।
और इसलिए कभी
तुम्हारे पास
ऐसा नहीं होगा
कि तुम्हें
कुछ भी वापस
लौटाना पड़े।
हां, एक
दिन तुम खुद
ही वापस
लौटोगे, वह
दूसरी बात है।
एक दिन तुम
खुद ही सब
जानकर छलांग
लगा जाओगे कुंड
में, वह
दूसरी बात है।
और
इन शब्दों का
और अर्थों में
भी प्रयोग हुआ
है। जैसे कि
श्री अरविंद
जिस अर्थ में
प्रयोग करते
हैं,
वह बहुत
दूसरा है। दो
तरह से हम
परमात्म
शक्ति को सोच
सकते हैं. या
तो अपने से
ऊपर, या तो
अपने से ऊपर
कहीं आकाश में—किसी
भी ऊपर के भाव
में; या
अपने से गहरे,
पाताल के
भाव में। और
जहां तक जगत
की व्यवस्था
का संबंध है, ऊपर और नीचे
शब्द बेमानी
हैं, इनका
कोई अर्थ नहीं
है; ये
सिर्फ हमारे
सोचने की
धारणाएं हैं
कि हम कैसा
सोचते हैं। इस
छत को तुम ऊपर
कह रहे हो, कुछ
ऊपर नहीं है, क्योंकि हम
यहां एक छेद
करें और वह
जाकर अमेरिका
में निकल
जाएगा छेद जमीन
में। और वहां
से अगर कोई झांककर
देखे तो यह छत
हमारे नीचे
मालूम पड़ेगी—हमारे
सिर के नीचे—उस
छेद से झांकने
पर। हम उलटे
मालूम पड़ेंगे,
सब
शीर्षासन
करते हुए, और
यह छत हमारे
सिर के नीचे
मालूम पड़ेगी।
अभी भी वहीं
है वह—हम कहां
से देखते हैं,
इस पर सब
निर्भर करता
है।
जैसे
हमारा पूरब—पश्चिम
सब झूठा है।
क्या पूरब? क्या
पश्चिम? और
पूरब चलते जाओ,
चलते जाओ, तो पश्चिम
पहुंच जाओगे।
और पश्चिम
चलते जाओ, चलते
जाओ, तो
पूरब पहुंच
जाओगे। जिस
पश्चिम में
चलते—चलते
पूरब पहुंच
जाते हैं उसको
पश्चिम कहने का
क्या मतलब है?
कोई मतलब
नहीं है; रिलेटिव
है। रिलेटिव
का मतलब यह कि
बेमानी है।
इसका मतलब यह
है कि कोई
मतलब नहीं है
उसका; हमारी
कामचलाऊ सीमा—रेखा
है कि यह रहा
पूरब, यह
रहा पश्चिम, नहीं तो हम
कैसे हिसाब
बांटेंगे!
लेकिन कहां पूरब
है? किस
जगह से शुरू
होता है? कलकत्ते
से? रंगून
से? टोकियो से? कहां
से पूरब शुरू
होता है? पश्चिम
कहां से शुरू
होता है और
कहां खतम होता
है? न कहीं
शुरू होता है,
न कहीं खत्म
होता है। वे
कामचलाऊ खयाल
हैं जिनसे
हमें सुविधा
बनती है कि हम
एक—दूसरे को
बांट लेते हैं।
ठीक
ऐसे ही, ऊपर—नीचे
दूसरे
डायमेंशन में
कामचलाऊ हैं।
पूरब—पश्चिम हॉरिजेंटल
कामचलाऊ
बातें हैं और
ऊपर— नीचे
वर्टिकल
कामचलाऊ
बातें हैं। न
कुछ ऊपर है, न कुछ नीचे
है; क्योंकि
इस जगत की कोई
छत नहीं है और
इस जगत का कोई बाटम नहीं
है। इसलिए ऊपर—नीचे
की सब बातें
बेमानी हैं।
लेकिन हमारी
ये कामचलाऊ
धारणाएं
हमारे धर्म की
धारणाओं में
भी घुस जाती
हैं।
तो
कुछ लोग ईश्वर
को अनुभव करते
हैं अबव, ऊपर।
तो जब शक्ति
उतरेगी तो
उतरेगी, डिसेंड
करेगी, हम
तक आएगी। कुछ
लोग अनुभव
करते हैं
ईश्वर को नीचे,
रूट्स में। तो जब
शक्ति आएगी तो
चढेगी, उठेगी, हम
तक आएगी।
लेकिन कोई
मतलब नहीं है।
कहां हम रखते
हैं ईश्वर को,
यह सिर्फ
कामचलाऊ बात
है। लेकिन इस
कामचलाऊ बात
में भी अगर
चुनाव करना हो,
तो मैं
मानता हूं
बजाय उतरने के,
उठना ही
ज्यादा
सहयोगी होगा;
बजाय उतरने
के, शक्ति
का तुम्हारे
भीतर से उठना
ही ज्यादा सहयोगी
होगा। उसके
कारण हैं।
क्योंकि जब
शक्ति के उठने
की धारणा तुम पकड़ोगे, तो उठाने का
सवाल उठेगा।
तब तुम्हें
कुछ करना
पड़ेगा। और जब
उतरने की बात
है तो सिर्फ
प्रार्थना रह जाएगी,
और तुम कुछ
भी न कर सकोगे।
जब ऊपर से
नीचे आना है
तो हम हाथ जोडकर
प्रार्थना कर
सकते हैं।
धर्म
के दो आयाम—
ध्यान और
प्रार्थना:
इसलिए
दो तरह के
धर्म दुनिया
में बने—
ध्यान
करनेवाले और
प्रार्थना
करनेवाले।
प्रार्थना
करनेवाले वे
धर्म हैं
जिन्होंने ईश्वर
को ऊपर अनुभव
किया कहीं। अब
हम कर भी क्या
सकते हैं? उसको
ला तो सकते
नहीं! क्योंकि
अगर लाएं तो
उतने ऊपर हमको
जाना पड़े! और
उतने ऊपर हम
जाएंगे कैसे?
उतने ऊपर
जाएंगे तो
परमात्मा ही
हो जाएंगे हम।
वहां हम जा
नहीं सकते, जहां हम खड़े
हैं वहां हम
खड़े रहेंगे।
हम चिल्लाकर
प्रार्थना कर
सकते हैं कि
हे परमात्मा,
उतर!
लेकिन
जिन धर्मों ने
और जिन
धारणाओं ने इस
तरह सोचा कि
उठाना है नीचे
से,
कहीं हमारी
ही जड़ों में
सोया हुआ है
कुछ और हम ही
कुछ करेंगे तो
वह उठेगा, तो
वे प्रार्थना
के धर्म न
बनकर फिर
ध्यान के धर्म
बने। तो
मेडिटेशन और
प्रेयर में इस
ऊपर—नीचे की
धारणा का फर्क
है।
प्रार्थना
करनेवाला
धर्म ईश्वर को
ऊपर मानता है,
ध्यान
करनेवाला धर्म
ईश्वर को जड़ों
में मानता है,
और वहां से
उसको उठा लेता
है।
और
ध्यान रहे, प्रार्थना
करनेवाले
धर्म धीरे—
धीरे हारते जा
रहे हैं, खत्म
होते जा रहे
हैं; उनका
कोई भविष्य
नहीं है। उनका
कोई भविष्य
नहीं है।
ध्यान
करनेवाले
धर्म की
संभावना रोज प्रगाढ़
होती जा रही
है। उसका बहुत
भविष्य है।
तो
मैं पसंद
करूंगा कि हम
समझें कि नीचे
से ऊपर...। इसके
और भी अर्थ
होंगे। धारणा
तो सापेक्ष है, इसलिए
मुझे कोई
दिक्कत नहीं
है, किसी
को ऊपर मानना
हो तो मुझे
कोई अड़चन नहीं
आती। लेकिन
मैं मानता हूं
कि आपको अड़चन
आएगी काम करने
में। जैसे
मैंने कहा कि
अगर हम पूरब
चलते जाएं तो
पश्चिम पहुंच
जाते हैं। फिर
भी हमें
पश्चिम जाना
हो तो हम पूरब
की तरफ नहीं
चलते, हम
पश्चिम की तरफ
ही चलते हैं।
धारणा बेमानी
है, लेकिन
फिर भी हमें
पश्चिम जाना
हो तो हम
पश्चिम की तरफ
चलना शुरू
करते हैं।
हालांकि पूरब
की तरफ चलें
तो चलते—चलते
पश्चिम पहुंच
जाएंगे, लेकिन
वह नाहक लंबा
रास्ता हो
जाएगा। मेरा
मतलब समझ रहे
हो न तुम?
तो
साधक के लिए
और भक्त के
लिए फर्क
पड़ेगा। भक्त
ऊपर मानेगा, इसलिए
हाथ जोड़कर
प्रतीक्षा
करेगा, साधक
नीचे मानेगा,
इसलिए कमर
कसकर जगाने की
कोशिश करेगा।
और
भी अर्थ हैं, जो
खयाल में आ
जाने चाहिए।
असल में, जब
हम नीचे मानते
हैं परमात्मा
को, तो
हमारी जिनको
हम निम्न
वृत्तियां
कहते हैं, उनमें
भी वह मौजूद
हो जाता है।
इसलिए हमारे
चित्त में कुछ
निम्न नहीं रह
जाता।
क्योंकि जब
परमात्मा ही
नीचे है, तो
जिसको हम
निम्नतम कहते
हैं, वहां
भी वह मौजूद
है। और वहां
से भी जगेगा; अगर सेक्स
है, तो
वहां से भी
जगेगा। यानी
ऐसी कोई जगह
ही नहीं हो
सकती जहां वह
न हो। नीचे से
नीचे, नीचे
से नीचे नरक
में भी कहीं
अगर कुछ है
कोई, तो
वहां भी वह
मौजूद है।
लेकिन
जैसे ही हम
उसे ऊपर मानते
हैं,
तो कडेमनेशन
शुरू हो जाता
है, कि जो
नीचे है वह कंडेम्ड
हो जाता है, उसकी निंदा
शुरू हो जाती
है, क्योंकि
वहां
परमात्मा
नहीं है। वहां
परमात्मा
नहीं है। और
अनजाने स्वयं
की भी हीनता
शुरू हो जाती
है कि हम नीचे
हैं और वह ऊपर
है। तो उसके
घातक परिणाम
हैं, मनोवैज्ञानिक
घातक परिणाम
हैं।
ध्यान—केंद्रित
धर्म अधिक
प्रभावकारी:
और
फिर जितनी
शक्ति से खड़े
होना हो, उतना
उचित है कि
शक्ति नीचे से
आए। क्योंकि
तुम्हारे
पैरों को
मजबूत करेगी।
शक्ति ऊपर से
आए तो
तुम्हारे सिर
को स्पर्श करेगी।
और तुम्हारी
जड़ों तक जाना
चाहिए मामला।
और जब ऊपर से
आएगी तो
तुम्हें
हमेशा
विजातीय और फारेन
मालूम पड़ेगी।
इसलिए
जिन लोगों ने
प्रार्थना की, वे
कभी नहीं मान
पाते कि भगवान
और हम एक हैं।
वे कभी नहीं
मान पाते।
इसलिए
मुसलमानों का
निरंतर सख्त
विरोध रहा कि
कोई कहे कि
मैं भगवान हूं।
क्योंकि कहां
वह ऊपर और
कहां हम नीचे!
इसलिए वे मंसूर
का गला काट
देंगे, सरमद
को मार
डालेंगे।
क्योंकि यह
सबसे बड़ा
कुफ्र एक ही
है उनकी नजर में
न कि तुम कह
रहे हो कि हम
भगवान! इससे
बड़ा कुफ्र
नहीं हो सकता।
क्योंकि कहां
वह ऊपर और
कहां तुम नीचे
जमीन पर सरकते
कीड़े—मकोड़े!
और कहां वह
परम, तुम
उसके साथ अपनी
आइडेंटिटी
नहीं जोड़ सकते।
तो
उसका कारण था; क्योंकि
जब हम उसे ऊपर
मानेंगे और
अपने को नीचे
मानेंगे, तो
हम दो हो
जाएंगे
तत्काल।
इसलिए सूफी
कभी पसंद नहीं
पड़ सके इस्लाम
को, क्योंकि
सूफी दावा कर
रहे हैं इस
बात का कि हम
और वह एक हैं।
लेकिन
हम और वह एक
तभी हो सकते
हैं जब वह
नीचे से आता
हो,
क्योंकि हम
नीचे हैं। जब
वह जमीन से ही
आता हो, आकाश
से नहीं, तभी
हम और वह एक हो
सकते हैं।
जैसे ही हम
परमात्मा को
ऊपर रखेंगे, पृथ्वी का
जीवन निंदित
हो जाएगा, पाप
हो जाएगा; और
जन्म लेना पाप
का फल हो
जाएगा। जैसे
ही हम उसे
नीचे रखेंगे,
वैसे ही
पृथ्वी का
जीवन एक आनंद
हो जाएगा; वह
पाप का फल
नहीं, वह
परमात्मा की
अनुकंपा हो
जाएगा। और
प्रत्येक चीज,
चाहे वह
कितनी ही
अंधेरी हो, उसमें भी
उसकी प्रकाश
की किरण मौजूद
अनुभव होगी।
और कैसा ही
बुरा से बुरा
आदमी हो, कितना
ही शैतान हो, फिर भी उसके
अंतरतम कोर पर
वह मौजूद
रहेगा।
इसलिए
मैं पसंद
करूंगा कि हम
उसे नीचे से
ऊपर की तरफ
उठना मानें।
फर्क नहीं है, फर्क
नहीं है
धारणाओं में।
जो जानता है
उसके लिए कोई
फर्क नहीं है,
वह कहेगा, ऊपर—नीचे
दोनों बेकार
की बातें हैं।
लेकिन जब हम
नहीं जानते
हैं और यात्रा
करनी है, तो
उचित होगा कि
हम वही मानें
जिससे यात्रा
आसान हो सके।
तो
इसलिए मेरे मन
में तो साधक
के लिए उचित
यही है कि वह
समझे कि नीचे
से शक्ति
उठेगी और ऊपर
की तरफ जाएगी; ऊपर
की तरफ यात्रा
है। इसलिए
जिन्होंने
ऊपर की तरफ की
यात्रा को
स्वीकार किया
उन्होंने
अग्नि को
प्रतीक माना,
क्योंकि वह
निरंतर ऊपर की
तरफ जा रही है।
दीया है, आग
है, वे
निरंतर ऊपर की
तरफ जा रहे
हैं, तो
उन्होंने
इसको प्रतीक
माना
परमात्मा का।
इसलिए अग्नि
जो है वह बहुत गहनतम मन
में हमारे
परमात्मा का
प्रतीक बन गई।
उसका कुल कारण
इतना था कि
कुछ भी करो, वह ऊपर की
तरफ ही जाती
है। और जितना
ऊपर बढ़ती है, उतनी ही
थोड़ी देर में
खो जाती है, थोड़ी दूर तक
दिखाई पड़ती है,
फिर अदृश्य
हो जाती है।
ऐसा ही साधक
भी ऊपर की तरफ
जाएगा, थोड़ी
देर तक दिखाई
पड़ेगा और
अदृश्य हो
जाएगा। इसलिए
मैं आरोहण—
अवतरण नहीं—उस
पर जोर देना
पसंद करूंगा।
बस
एक और पूछ लो, बस
फिर उठेंगे।
शक्ति
का जागरण:
प्रश्न
: ओशो नारगोल
शिविर में
आपने कहा है
कि तीव्र
श्वास—प्रश्वास
और 'मैं कौन हूं'
पूछने के
प्रयत्न से
अपने को पूरी
तरह से थका डालना
है ताकि गहरे
ध्यान में
प्रवेश संभव
हो सके लेकिन
ध्यान में
प्रवेश के लिए
अतिरिक्त
ऊर्जा चाहिए तो
थकान की ऊर्जा—
क्षीणता से
ध्यान में
प्रवेश कैसे
संभव होगा?
नहीं—नहीं, थकान
का मतलब ऊर्जाहीनता
नहीं है। असल
में, जब
तुम अपने को
थका डालते हो...'अपने' से
मतलब क्या? 'अपने ' से
मतलब
तुम्हारे वे
द्वार—दरवाजे,
तुम्हारी
वे इंद्रियां,
जिनसे
तुम्हारी
ऊर्जा के बहने
का दैनिक क्रम
है—तुम्हारा
जो संस्थान है,
तुम अभी जो
हो। उस तुम की
बात नहीं कर
रहा जो तुम हो
सकते हो। जो
तुम हो।
तो
जब तुम अपने
को थका डालते
हो,
तो दोहरी
घटनाएं घटती
हैं। इधर तुम
अपने को थका
डालते हो, तो
तुम्हारी
सारी
इंद्रियां, तुम्हारा मन,
तुम्हारा
शरीर थक जाता
है। और किसी
तरह की ऊर्जा
को वहन करने
के लिए तैयार
नहीं होता, इनकार कर
देता है। थकान
में तुम किसी
तरह की ऊर्जा
को वहन करने की
तैयारी नहीं
दिखलाते, तुम
कहते हो, अभी
मैं थका हूं।
तो
एक तरफ तो यह
प्रयोग
तुम्हारे
शरीर को, तुम्हारे
मन को, तुम्हारी
इंद्रियों को
थकाता है, और
दूसरी तरफ
तुम्हारी
कुंडलिनी पर
चोट करता है; वहां से
ऊर्जा जगती है
और यहां से
तुम थकते हो—यह
दोनों एक साथ
चलता है। समझे
न! यह एक साथ
चलता है—इधर
तुम थकते हो, उधर से
शक्ति जगती है।
और उस शक्ति
को वहन करने
के योग्य भी
तुम नहीं रहते,
कि
तुम्हारी आख
देखना चाहे तो
कहती है— थकी
हूं देखने का
मन नहीं, तुम्हारा
मन सोचना चाहे
तो मन कहता है—
थका हूं सोचने
का मेरा मन
नहीं, तुम्हारे
पैर चलना
चाहें तो पैर
कहते हैं—हम
थके हैं, हम
चल नहीं सकते।
तो अब अगर
चलना है तो
बिना पैरों की
कोई यात्रा
तुम्हारे
भीतर करनी
पड़ेगी; और
अगर देखना है
तो बिना आंखों
के देखना
पड़ेगा; क्योंकि
आख थकी है।
समझ रहे हैं
मेरा मतलब?
तो
तुम्हारा
संस्थान, तुम्हारा
व्यक्तित्व थक
जाता है, तो
वह इनकार करता
है कि हमें
अभी कुछ करना
नहीं है। और
शक्ति जग गई
है, जो कुछ
करना चाहती है।
तो तत्काल वह
उन दरवाजों
पर चोट करेगी
जो अनथके
पड़े हैं, जो
थके हुए नहीं
हैं, जो
तुम्हारे
भीतर सदा वहन
करने के लिए
तैयार हैं, लेकिन कभी
उनको मौका ही
नहीं मिला था
कि तुम उनको
भी मौका देते,
तुम ही खुद
इतने सशक्त थे
कि तुम सारी
शक्ति को लगा
डालते थे। वह
इधर से शक्ति
तुम्हारी...
ये
दरवाजे इनकार
करेंगे कि
क्षमा करो, इधर
नहीं। वह जो
शक्ति जग रही
है, ये
दरवाजे
कहेंगे कि
नहीं, हमारी
कोई इच्छा
देखने की नहीं
है। तो जब
देखने के लिए
आख इनकार कर
दे और मन
देखने की इच्छा
से इनकार कर
दे, तब भी
जो शक्ति जग
गई है देखने
की, उसका
क्या होगा? तो तुम किसी
और आयाम में
देखना शुरू कर
दोगे, वह
तुम्हारा
बिलकुल नया
हिस्सा होगा।
वही साइकिक
सेंटर
तुम्हारे
देखने के
खुलने शुरू हो
जाएंगे। तुम
कुछ ऐसी चीजें
देखने लगोगे
जो तुमने कभी
नहीं देखीं, और ऐसी जगह
से देखने
लगोगे जहां से
तुमने कभी नहीं
देखीं। लेकिन
उसको तो कभी
मौका नहीं
मिला था। उसको
कभी मौका ही
नहीं मिला था
तुम्हारे
भीतर से। तो
उसके लिए मौका
बनेगा।
अतींद्रिय
केंद्रों का
सक्रिय होना:
तो
थकाने का मेरा
जोर है। इधर
शरीर को थका
डालना है, मन
को थका डालना
है—तुम जो हो, उसको थका
डालना है—ताकि
तुम जो अभी हो,
लेकिन
तुम्हें पता
नहीं, वह
सक्रिय हो सके
तुम्हारे
भीतर। और
ऊर्जा जगेंगी,
वह तो फौरन
कहेगी हमें......
.ऊर्जा जगेंगी
तो वह कहेगी
काम चाहिए। और
काम तुम्हारे
अस्तित्व को
देना पड़ेगा
उसे। वह खुद
काम खोज लेगी।
तुम्हारे कान
थके हैं, तो
भी वह ऊर्जा
जग गई है, तो
वह सुनना
चाहेगी तो नाद
सुनेगी।
उन नादों
के लिए
तुम्हारे कान
की कोई जरूरत
नहीं है।
तुम्हारी आंखों
की कोई जरूरत
नहीं है, ऐसा
प्रकाश
देखेगी। ऐसी
सुगंध आने
लगेगी जिसके
लिए तुम्हारी
नाक की कोई
जरूरत नहीं है।
तो
तुम्हारे
भीतर
सूक्ष्मतर
इंद्रियां, या
अतींद्रिया,
जो भी हम
नाम देना पसंद
करें, वे
सक्रिय हो
जाएंगी। और
हमारी सब
इंद्रियों के
साथ एक—एक
अतींद्रिय का
जोड़ है। यानी
एक कान तो वह
है जो बाहर से
सुनता है, और
एक कान और है
तुम्हारे
भीतर जो भीतर
सुनता है।
लेकिन उसको तो
कभी मौका नहीं
मिला। तो जब
तुम्हारा
बाहर का कान
थका है और
ऊर्जा जगकर
कान के पास आ
गई है, और
कान कहता है, मुझे सुनना
नहीं, सुनने
की कोई इच्छा
ही नहीं, तब
वह ऊर्जा क्या
करेगी? वह
तुम्हारे उस
दूसरे कान को
सक्रिय कर
देगी जो सुन
सकेगा, जिसने
कभी नहीं सुना।
इसलिए
ऐसी चीजें तुम
सुनोगे, ऐसी
चीजें देखोगे,
कि तुम किसी
से कहोगे तो
वह कहेगा, पागल
हो! ऐसा कहीं
होता है! किसी
वहम में पड़ गए
होओगे, कोई
सपना देख लिया
होगा! लेकिन
तुम्हें तो वह
इतना स्पष्ट
मालूम पडेगा
जितना कि बाहर
की वीणा कभी
मालूम नहीं
पड़ी। वह भीतर
की वीणा इतनी
स्पष्ट होगी
कि तुम कहोगे,
हम कैसे
मानें? अगर
यह झूठ है तो
फिर बाहर की
वीणा का क्या
होगा, वह
तो बिलकुल ही
झूठ हो जाएगी!
तो
तुम्हारी
इंद्रियों का
थकना तुम्हारे
अस्तित्व के
नये द्वारों
के खुलने के
लिए प्रारंभिक
रूप से जरूरी
है। एक दफा
खुल जाए, फिर
तो कोई बात
नहीं।
क्योंकि फिर
तो तुम्हारे
पास तुलना भी
होती है कि
अगर देखना ही
है तो फिर
भीतर ही देखो,
क्योंकि
इतना आनदपूर्ण
है कि क्यों
फिजूल बाहर
देखता रहूं!
लेकिन अभी
तुलना नहीं है
तुम्हारे पास;
अभी तो
देखना है तो
बाहर ही देखना
है। एक ही
विकल्प है। एक
बार तुम्हारी
भीतर की आख भी
देखने लगे, तब तुम्हारे
सामने विकल्प
साफ है। तो जब
भी देखने का
मन होगा, तुम
भीतर देखना
चाहोगे।
क्यों मौका
चूकना! बाहर
देखने से क्या
मतलब है!
राबिया के
जीवन में
उल्लेख है कि
सांझ को सूरज
ढल रहा है और
वह अंदर अपने झोपड़े में
बैठी है। हसन
नाम का फकीर
उससे मिलने
आया है। सूरज
ढल रहा है और
बड़ी सुंदर
सांझ है। तो
हसन उससे
चिल्लाकर
कहता है कि राबिया, तू
क्या कर रही
है भीतर? बहुत
सुंदर सांझ है,
इतना सुंदर
सूर्यास्त
मैंने कभी
देखा नहीं, ऐसा सूर्य
दोबारा देखने
नहीं मिलेगा,
बाहर आ! तो राबिया
उससे कहती है
कि पागल, कब
तक बाहर के
सूर्य को
देखता रहेगा!
मैं तुझसे
कहती हूं तू
भीतर आ!
क्योंकि हम
उसे देख रहे हैं
जिसने सूर्य
को बनाया; और
हम ऐसे सूर्य
देख रहे हैं
जो अभी अनबने
हैं और कभी
बनेंगे। तो
अच्छा हो कि
तू भीतर आ!
अब
वह हसन नहीं
समझ पाया कि
वह क्या कह
रही है। पर यह
औरत बहुत
अदभुत हुई।
दुनिया में
जिन
स्त्रियों ने
कुछ किया है, उन
दों—चार
स्त्रियों
में एक है वह राबिया।
पर वह हसन
नहीं समझ पाया।
वह उससे फिर
कह रहा है कि
देख, सांझ चूकी जा
रही है! और वह राबिया कह
रही है कि
पागल, तू
सांझ में ही
चूक जाएगा; इधर भीतर
बहुत कुछ चूका
जा रहा है। वह
बिलकुल दो तल
पर बात हो रही
है, क्योंकि
वह दो अलग
इंद्रियों की
बात हो रही है।
लेकिन अगर
दूसरी
इंद्रिय का
तुम्हें पता
नहीं, तो
भीतर का कोई
मतलब ही नहीं
होता, बाहर
का ही सब मतलब
होता है। इस
अर्थ में
मैंने कहा कि
वे थक जाएं तो
शुभ है।
थकाने
का अर्थ ऊर्जाहीनता
नहीं है:
प्रश्न:
ओशो तो इस
प्रयोग में
थकाने का अर्थ
ऊर्जाहीनता
नहीं है।
नहीं, बिलकुल
नहीं। ऊर्जा
तो जग रही है, ऊर्जा तो जग
रही है; ऊर्जा
को जगाने के
लिए ही सारा
काम चल रहा है।
हां, इंद्रियां
थक रही हैं।
इंद्रियां
ऊर्जा नहीं
हैं, सिर्फ
ऊर्जा के बहने
के द्वार हैं।
यह दरवाजा मैं
नहीं हूं मैं
तो और हूं। इस
दरवाजे से
बाहर— भीतर
आता—जाता हूं।
दरवाजा थक रहा
है, और
दरवाजा कह रहा
है—कृपा करके हमसे
बाहर मत जाओ, बहुत थके
हुए हैं।
लेकिन कहां
जाओगे, फिर
रहना तो भीतर
पड़ेगा।
दरवाजा कह रहा
है— हम बहुत
थके हुए हैं, अब कृपा करो
कि मत जाओ
बाहर; क्योंकि
जाओगे तो हमें
फिर काम में
लगना पड़ेगा।
आख कह रही है
कि हम थक गए
हैं, अब
इधर से यात्रा
मत करो।
इंद्रियां थक
रही हैं। और
इनका थकना
प्राथमिक रूप
से बडा सहयोगी
है। उस अर्थ
में।
तादास्थ्य
के कारण थकान:
प्रश्न:
ओशो यह ऊर्जा
यदि अधिक है
तो टायर्डनेस
नहीं लगनी
चाहिए फ्रेशनेस
लगनी चाहिए।
नहीं, शुरू
में लगेगी।
धीरे— धीरे तो
तुम्हें बहुत
ताजगी लगेगी,
जैसी ताजगी
तुमने कभी
नहीं जानी।
लेकिन शुरू
में थकान
लगेगी। शुरू
में थकान
इसलिए लगेगी
कि तुम्हारी
आइडेंटिटी इन
इंद्रियों से
है। इन्हीं को
तुम समझते हो '
मैं'। तो
जब इंद्रियां
थकती हैं, तुम
कहते हो, मैं
थक गया। इससे
तुम्हारी
आइडेंटिटी टूटनी
चाहिए न! जिस
दिन.......
ऐसा
मामला है कि
तुम्हारा
घोड़ा थक गया, तुम
घोड़े पर बैठे
हो। लेकिन तुम
सदा से समझते
थे कि मैं
घोड़ा हूं। अब
घोड़ा थक गया, अब तुमने
कहा, हम
मरे, हम थक
गए। वह हमारे थकने का जो
मतलब है, हमारी
आइडेंटिटी
जिससे है, वही
हम कहते हैं।
मैं घोड़ा हूं
तो मैं थक गया।
जिस
दिन तुम जानोगे
कि मैं घोड़ा
नहीं हूं उस
दिन तुम्हारी फ्रेशनेस
बहुत और तरह
से आनी शुरू
होगी। और तब
तुम जानोगे
कि इंद्रियां
थक गई हैं, लेकिन
मैं कहां थका!
बल्कि
इंद्रियां
चूंकि थक गई
हैं और काम
नहीं कर रही
हैं, इसलिए
बहुत सी ऊर्जा
जो उनसे
विकीर्ण होकर
व्यर्थ हो
जाती थी, वह
तुम्हारे
भीतर
संरक्षित हो
गई है और पुंज
बन गई है। और
तुम ज्यादा, जिसको कहना
चाहिए कंजर्वेशन
ऑफ एनर्जी
अनुभव करोगे
कि तुमने बहुत
ऊर्जा बचाई जो
तुम्हारी
संपत्ति बन गई
है। और चूंकि
बाहर नहीं गई,
इसलिए
तुम्हारे रोएं—रोएं पोर—पोर
में भीतर फैल
गई है। लेकिन
इससे तुम एक
हो, यह
तुम्हें जब
खयाल आना शुरू
होगा, तभी
तुम्हें फर्क
लगेगा।
ध्यान
से ताजगी:
तो
धीरे— धीरे तो
ध्यान के बाद
बहुत ही ताजगी
मालूम होगी।
ताजगी कहना ही
गलत है, तुम
ताजगी हो
जाओगे। यानी
ऐसा नहीं कि
ऐसा लगेगा कि
ताजगी मालूम हो
रही है। तुम
ताजगी हो
जाओगे—यू विल
बी दि फ्रेशनेस।
लेकिन वह तो
आइडेंटिटी
बदलेगी तब।
अभी तो घोड़े
पर बैठे हो, बहुत
मुश्किल से, जिंदगी भर
यही समझा है
कि मैं घोड़ा
हूं। सवार हूं
इसको समझने
में वक्त
लगेगा। और
शायद घोड़ा थककर
गिर पड़े, तो
आसानी हो जाए
तुम्हें।
अपने पैर से
चलना पड़े थोड़ा,
तो पता चले
कि मैं तो अलग
हूं।
लेकिन
घोड़े पर ही
चलते—चलते यह
खयाल ही भूल
गया है कि मैं
भी चल सकता हूं।
ऐसा
है! इसलिए थकेगा
घोडा तो अच्छा
होगा।
आज
इतना ही।
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