धर्म की महायात्रा में स्वयं को दांव पर लगाने का साहस—(प्रवचन—चौहदवां)
(प्रतीक्षा
बना देती है
दर्पण चेतना
को। और जिस
दिन हम दर्पण
बन जाते हैं
उसी दिन सब
मिल जाता है। क्योंकि
सब तो सदा ही
था सिर्फ हम
नहीं थे।
दर्पण होकर हम
हो जाते है।)
भगवान
श्री जाति—
स्मरण अर्थात
पिछले जन्मों
की स्मृतियों
में प्रवेश की
विधि पर आपने
द्वारका
शिविर में
चर्चा की है।
आपने कहा है
कि चित्त को
भविष्य की
दिशा से पूर्णत:
तोड़ कर ध्यान
की शक्ति को
अतीत की ओर
फोकस करके
बहाना चाहिए।
प्रक्रिया का
क्रम आपने
बताया पहले
पांच वर्ष की
उम्र की
स्मृति में
लौटना फिर तीन
वर्ष की फिर
जन्म की स्मृति
में फिर
गर्भाधान की
स्मृति में
फिर पिछले जन्मों
की स्मृति में
प्रवेश होता
है। आपने आगे
कहा है कि मैं
जाति— स्मरण
के प्रयोग के
पूरे सूत्र
नहीं कह रहा हूं।
पूरे सूत्र
क्या हैं? क्या
आगे के सूत्र
का कुछ
स्पष्टीकरण
करने की कृपा
कीजिएगा?
पिछले
जन्म की स्मृतियां
प्रकृति की ओर
से रोकी गई
हैं। प्रयोजन
है उनके रोकने
का। जीवन की
व्यवस्था में
जिसे हम रोज—रोज
जानते हैं, जीते
हैं, उसका
भी अधिकतम
हिस्सा भूल
जाए, यह
जरूरी है।
इसलिए आप इस
जीवन की भी
जितनी
स्मृतियां
बनाते हैं
उतनी
स्मृतियां
याद नहीं रखते।
जो आपको याद
नहीं है, वह
भी आपकी
स्मृति से मिट
नहीं जाता, सिर्फ आपकी
चेतना और उस
स्मृति का
संबंध छूट जाता
है।
जैसे
अगर कोई
व्यक्ति पचास
साल का है —पचास
साल में अरबों
—खरबों
स्मृतियां
बनती हैं। यदि
वे सभी याद
रखनी पड़े, तो
विक्षिप्त हो
जाने के सिवाय
कोई रास्ता न
रहे। जो बहुत
सारभूत है, वह याद रह
जाता है, जो
असार है, वह
धीरे— धीरे
विस्मरण हो
जाता है।
लेकिन
विस्मरण से आप
यह मत अर्थ
लेना कि वह आपके
भीतर से मिट
जाता है।
सिर्फ आपकी
चेतना के
बिंदु से सरक
कर आपके मन के
किसी कोने में
संगृहीत हो
जाता है।
बुद्ध ने उस
संगृहीत
स्थान के लिए
बहुत कीमती
नाम दिया है।
उसे कहा है, आलय—विज्ञान,
द स्टोर
हाउस आफ
कांशसनेस।
जैसे हमारे घर
में, सब
घरों में, कबाड़खाने
के लिए फिजूल
की चीजों को
इकट्ठा करने
का कमरा होता
है। जहां जो
बेकार हो जाता
है, हम
इकट्ठा करते
जाते हैं। वह
हमारी नजर से
हट जाता है, लेकिन घर
में मौजूद
होता है। ऐसे
ही हमारी
स्मृतियां, हमारी नजर
से हट जाती
हैं और हमारे
मन के कोनों
में इकट्ठी हो
जाती हैं। अगर
इस जीवन की भी
सारी
स्मृतियां
याद रहें, तो
आपका जीना
कठिन हो जाएगा।
आगे के लिए
चेतना मुक्त
होनी चाहिए।
इसके लिए पीछे
को भूलना पड़ता
है। आप कल को
भूल जाते हैं,
इसलिए
आनेवाले कल को
जीने में
समर्थ हो जाते
हैं। फिर मन
खाली हो जाता
है और आगे
देखने लगता है।
आगे
देखने के लिए
जरूरी है कि
पीछे का भूल
जाए। अगर पीछे
का न भूले, तो
आगे देखने के
लिए क्षमता न
बचेगी। और रोज
आपके मन का एक
हिस्सा खाली
हो जाना चाहिए
जिसमें नए
संस्कार, नए
इंप्रेसंस
ग्रहण किए जा
सकें, अन्यथा
ग्रहण कौन
करेगा। तो
अतीत रोज
मिटता है, भविष्य
रोज आता है।
और जैसे ही
भविष्य अतीत
बना, वह भी
मिट जाता है
ताकि हम आगे
के लिए फिर
मुक्त हो जाएं।
ऐसी मन की
व्यवस्था है।
एक
जन्म की भी
पूरी स्मृति
हमें नहीं
होती। अगर मैं
आपसे पूछूं कि
उन्नीस सौ साठ
में एक जनवरी
को आपने क्या
किया, तो आप
कुछ भी न बता
सकेंगे।
यद्यपि एक
जनवरी उन्नीस
सौ साठ में आप
थे और एक
जनवरी उन्नीस
सौ साठ में
आपने जरूर
सुबह से सांझ
तक कुछ किया
होगा। लेकिन
आपको कोई
स्मरण नहीं है।
लेकिन
सम्मोहन की
छोटी—सी
प्रक्रिया
उन्नीस सौ साठ
की एक जनवरी
को पुनरुज्जीवित
कर देगी। अगर
आपको
सम्मोहित
किया जाए और
आपकी चेतना का
जो हिस्सा
जागा हुआ है, वह सुला
दिया जाए; और
फिर आपसे कहा
जाए कि एक
जनवरी उन्नीस
सौ साठ को
आपने क्या
किया? तो
आप सुबह से
लेकर सांझ तक
सब बता देंगे।
एक
युवक पर मैं
बहुत दिनों तक
प्रयोग करता
था। लेकिन यह
बड़ी मुश्किल
बात थी कि मैं कैसे
पक्का करूं कि
वह जो कह रहा
है,
वह सच में
ही एक जनवरी
उन्नीस सौ साठ
को हुआ होगा।
सम्मोहित
अवस्था में वह
सब बोल देता
था कि मैंने
यह—यह किया।
जागने पर तो
वह सब भूला
हुआ होता था।
अब मेरे लिए
बड़ी कठिनाई थी
कि यह कैसे तय
किया जाए कि
उसने सच में
ही एक जनवरी
उन्नीस सौ साठ
में सुबह नौ
बजे स्थान
किया था।
तब
फिर एक ही
रास्ता था कि
मैंने एक दिन
सुबह से सांझ
तक उसने जो भी
किया, वह सब
लिखकर रख लिया।
तीन—चार महीने
बीत जाने के
बाद उससे पूछा।
उसने कहा, मुझे
कुछ याद नहीं।
फिर उसे
सम्मोहित
किया और जब वह
गहरी सम्मोहन
की अवस्था में
चला गया, तब
उससे पूछा कि
फलां तारीख को
तुमने क्या
किया। तो जो
मैंने नोट
किया था वह तो
उसने बताया ही,
बहुत—कुछ जो
मैंने नोट
नहीं किया था
वह भी उसने
बताया। पर जो
मैंने नोट
किया था, उसमें
से तो एक भी
बात नहीं छूटी।
और उसने
सैकड़ों बातें
बताईं।
स्वभावत: मैं
पूरी बातें
नोट नहीं कर
सकता था। जो
मेरे खयाल में
था और दिखाई
पड़ा था, उसे
नोट कर लिया
था।
सम्मोहन
की अवस्था में
कितने ही गहरे
में व्यक्ति
को उतारा जा
सकता है।
सम्मोहन की
अवस्था में
लेकिन दूसरा
उतारेगा और आप
बेहोश होंगे।
आपको खुद कुछ
पता नहीं
चलेगा।
सम्मोहन की
अवस्था में
आपको पिछले
जन्मों में भी
ले जाया जा
सकता है।
लेकिन वह आपकी
मूर्च्छा की
ही हालत होगी।
जाति—स्मरण और
सम्मोहन की
प्रक्रिया
में इतना ही फर्क
है कि जाति—स्मरण
में आप
होशपूर्वक
अपने पिछले
जन्मों में
जाते हैं और
सम्मोहन की
प्रक्रिया
में आप बेहोशी
में पिछले
जन्मों में ले
जाए जाते हैं।
लेकिन इन
दोनों
प्रक्रियाओं
का अगर प्रयोग
किया जाए, तो
वैलिडिटी
बहुत बढ़ जाती
है। एक
व्यक्ति को हम
बेहोश करके
सम्मोहन की
अवस्था में
उससे पूछें
उसके पिछले
जन्मों के
संबंध में और
उसे लिख डालें।
फिर
होशपूर्वक
उसे ध्यान में
ले जाएं और
अगर वही वह
ध्यान से भी
कह सके, तो
हमारे पास
ज्यादा
प्रमाण हो
जाता है इकट्ठा।
दो
मार्गों से एक
ही स्मृति को
उठाया जा सकता
है। उठाने की
जो प्रक्रिया
है,
ऐसे सरल है,
लेकिन उसके
अपने खतरे हैं।
इसलिए पूरे
सूत्र मैंने
नहीं कहे थे।
पूरे सूत्र
नहीं कहे जा
सकते हैं। कोई
प्रयोग करना
चाहे, तो
उससे कहे जा
सकते हैं।
सामान्यरूपेण
पूरे सूत्र
नहीं कहे जा
सकते। लेकिन
फिर भी पूरी
प्रक्रिया
कही जा सकती
है, एक सूत्र
बचाकर। तो
उसको किया
नहीं जा सकता।
हमारी
चेतना, जैसा
मैंने कल कहा,
हमारे
संकल्प से
गतिमान होती
है। जब आप
ध्यान में
बैठें और जब
गहरे ध्यान
में जाने लगें,
तब एक
संकल्प करके
बैठ जाएं कि
मैं ध्यान की
अवस्था में
पांच साल का
हो जाऊं और वह
जान सकूं जो
पांच साल में
हुआ था। तो आप
अचानक पाएंगे
गहरे ध्यान
में जाकर कि आपकी
उम्र पांच साल
हो गई है और
पांच साल में
जो हुआ था उसे
आप जान रहे
हैं। अभी पहले
ही जन्म में
इस प्रयोग को
करें। जैसे—जैसे
यह प्रयोग साफ
और गहरा होने
लगे और पीछे लौटना
संभव होता चला
जाए जो कि
कठिन नहीं है,
तो मां के
गर्भ की
स्मृतियां भी
जगाई जा सकती हैं।
अगर आप गर्भ
में थे और मां
गिर पड़ी हो, तो उसकी चोट
की स्मृति भी
आपकी स्मृति
है। आप गर्भ
में थे और मां
दुखी हुई हो, तो उसके दुख
की स्मृति भी
आपकी स्मृति
है। क्योंकि
मां के गर्भ
में आपकी और
मां की दो स्थितियां
नहीं हैं।
संयुक्त
स्थितियां
हैं। तो जो
मां को अनुभव
हुआ है गहरे
में, वह
आपका भी अनुभव
बन गया है। वह
आपको भी
ट्रासफर हो
जाता है।
इसलिए
मां के चित्त
की दशा नौ
महीने के
गर्भकाल में
बच्चे को
निर्माण करने
में बडा भारी
काम करती है।
और ठीक अर्थों
में मां वह
नहीं है जिसने
सिर्फ बच्चे
को पेट में
रखा है, मां
वह भी है
जिसने उसे
चेतना की भी
विशेष दिशा दी
है। सिर्फ पेट
में रखना तो
जानवर की मां
को भी संभव हो
जाता है। वह
तो पशु भी कर
लेते हैं। और
आज नहीं कल
मशीन भी कर
लेगी। कोई
बहुत कठिन बात
नहीं है कि
बच्चे मशीन में
बड़े हो सकें।
आर्टिफीशियल—बूंब
बनाया ही जा
सकता है।
क्योंकि मां
के पेट में जो
इंतजाम है, वह ए_क
बिजली के
यंत्र में भी
दिया जा सकता
है। उतनी
गर्मी, उतना
पानी, वह
सब दिया जा
सकता है। आज
नहीं कल, बच्चे
मां के पेट से
हटाकर मशीन के
पेट में रख ही
दिए जाएंगे। लेकिन
इससे मां होने
का काम पूरा
नहीं होता।
शायद
मां होने का
काम पृथ्वी पर
बहुत कम माताओं
ने किया है।
मां होने का
काम बहुत बड़ा
काम है। वह है
नौ महीने तक
उस बच्चे की
चेतना को एक
विशेष दिशा
देना। अगर मां
क्रोधित है उन
नौ महीनों में
और फिर कल
बच्चा जब
क्रोधी पैदा
हो,
तो दिन—रात
उसको डाटेगी,
डपटेगी कि
किसने बिगाड़
दिया। पता
नहीं किस
कुसंग में पड़
गया है। मेरे
पास कितनी ही
माताएं आती
हैं। सबकी
शिकायत है।
किसी का बेटा
कुसंग में पड़
गया है, किसी
की बेटी कुसंग
में पड़ गई है।
और सारे बीज
उन्होंने ही
बोए हैं। उनकी
सारी चेतना की
व्यवस्था
उन्होंने ही
की है। बच्चे
तो सिर्फ उसको
प्रकट कर रहे
हैं। ही, प्रकट
करने में और
बोने में फर्क
है। इसलिए
हमें पता नहीं
चलता, बीच
का अंतराल
काफी बड़ा है।
इमायल
कुवे ने एक
छोटा—सा
संस्मरण लिखा।
उसने लिखा है
कि एक
मिलिट्री का
मेजर जो उसका परिचित
है वह कुछ
सम्मोहन पर
किताबें पढ़
रहा था। और जो
किताब पढ़ रहा
था उसमें कहीं
लिखा हुआ था कि
मां के मन में
जो सुझाव हों, वे
बच्चे तक
संप्रेषित हो
जाते हैं जब
वह पेट में
होता है। उसकी
पत्नी को
बच्चा था पेट
में। उसने
अपनी पत्नी को
कहा कि मैं इस
किताब को पढ़ रहा
हूं और इस
किताब के
लिखने वाले का
कहना है कि मा
जो सोचती है, जो जीती है, जो भाव करती
है, वह
बच्चे तक
संप्रेषित हो
जाते हैं।
दोनों ने
हंसकर ही बात
ली। कोई उसको
गंभीरता से
खयाल नहीं
किया।
उसी
सांझ को वे एक
पार्टी में गए।
और वह मेजर की
पत्नी, जिस
जनरल के
सम्मान में
पार्टी दी जा
रही थी, उसके
बगल में ही
बैठी। उस जनरल
का अंगूठा
युद्ध में
बिलकुल पिचल
गया था। उसके
अंगूठे को बार—बार
देखकर उसे
खयाल आया कि
मैं इस अंगूठे
को न देखूं।
कहीं मेरे
बच्चे का
अंगूठा खराब न
हो जाए। दोपहर
में उसने बात
पढ़ी थी, इसलिए
उसने अंगूठे
से बचने की
पार्टी में
पूरी कोशिश की।
स्वभावत:
जिससे बचने की
कोशिश की, वह
बार—बार दिखाई
पड़ा। उसको
जनरल भी भूल
गया, उसको
पार्टी भी भूल
गई, वह
अंगूठा ही रह
गया। अब जनरल
खाना खाका, तो अंगूठा
दिखेगा। किसी
से हाथ
मिलाएगा, तो
अंगूठा
दिखेगा। और वह
पड़ोस में बैठी
थी। उसने अपनी
आंखें भी बंद
कर लीं। लेकिन
जितनी आख बंद
की, अंगूठा
उतना साफ
दिखाई पड़ने
लगा। आंखें
बंद करके कोई
चीज साफ देखनी
हो, तो बडी
सुविधा होती
है। वह बहुत
घबड़ा गई, वह
बेचैन हो गई।
उस पार्टी में
दो —तीन घंटे
अनूठा ही उसका
सत्संग रहा।
रात
में वह दों—चार
दफे चौंक कर
उठी। और सुबह
उसने अपने पति
को कहा कि
तुमने वह किताब
कहां से पढ़ी, मैं
बड़ी मुसीबत
में पड़ गई हूं।
मुझे यह भय
सवार हो गया
है कि कहीं
मेरे बच्चे का
अंगूठा वैसा न
हो जाए। उसके
पति ने कहा, पागल हो गई
हो? इन
किताबों में
क्या रखा हुआ है!
ऐसा किसी ने
लिख दिया, तो
हो जाएगा?
छोड़ो इस बात
को। लेकिन वह
पत्नी नहीं
छोड़ पाई। असल
में जिस चीज
को भी हमें
छोड़ने के लिए
कहा जाए, उसको
छोड़ना
मुश्किल हो
जाता है। पति
ने जितना उसको
कहा कि छोडो
इस बात को, भूलो
इस बात को..।
जानते हैं आप,
जिसको
भूलना हो, उसे
कभी नहीं भूल
सकते। असल में
भूलने की
कोशिश में भी
तो बार—बार
याद करना पड़ता
है— भूलने के
लिए। वह याद
होता चला जाता
है। अगर किसी
को भूलना है, तो कम से कम
याद तो करना
ही पड़ेगा भूलने
के लिए। और
जितनी बार भूलने
के लिए याद
करना पड़ेगा, उतना ही
मजबूत होता
चला जाएगा।
जैसे
—जैसे दिन
उसके बढ़ने लगे
और बच्चे का
जन्म करीब आने
लगा,
अंगूठा
भारी पड़ने लगा।
वह उसे भूलने
की कोशिश में
लग गई, लेकिन
भूलना
मुश्किल हो
गया। जब उसे
प्रसव की पीडा
हो रही थी, और
बच्चे का जन्म
हो रहा था, तब
बच्चा उसके
खयाल में नहीं
था, अंगूठा
ही था। और
इतनी अदभुत
घटना घटी कि
बच्चा ठीक
पिचले अंगूठे
का ही पैदा
हुआ। और जब
बच्चे के और
जनरल के
अंगूठे के
फोटो मिलाए गए,
तो वे एक
दूसरे की कापी
थे।
यह
मां ने इस
बच्चे को
अंगूठा दे
दिया। सब
माताएं अपने
बच्चों को
अंगूठा दे रही
हैं। सबके पास
अलग— अलग ढंग
के अंगूठे हैं, वह
उनको मिल जाते
हैं।
तो
पहले तो स्मरण
करना पड़ेगा
जन्म तक, जन्म
के दिन तक।
लेकिन वह असली
जन्म—दिन नहीं
है। असली जन्म—दिन
तो उस दिन है
जिस दिन
गर्भाधान शूरू
होता। जिसको
हम जन्म—दिन
कहते हैं, वह
जन्म के नौ
महीने बाद का
दिन है। वह
ठीक जन्म —दिन
नहीं है। ठीक
जन्म —दिन तो
उस दिन है, जिस
दिन गर्भ में
आत्मा प्रवेश
करती है। उस
समय तक स्मृति
को ले जाना
बहुत कठिन
नहीं है और
बहुत खतरे का
भी नहीं है।
क्योंकि वह
इसी जीवन की
स्मृति है। और
उसे ले जाने
के लिए जैसा
मैंने कहा, भविष्य से
मन को मोड़ लें।
और जो थोड़ा भी
ध्यान कर पाते
हैं, उन्हें
कोई कठिनाई
नहीं कि
भविष्य को भूल
जाएं। भविष्य
में याद करने
को है भी क्या।
भविष्य है ही
नहीं। उन्मूखता
बदलनी है।
भविष्य की तरफ
न देखें, पीछे
की तरफ देखें।
और अपने मन
में धीरे —
धीरे क्रमश:
संकल्प करते
जाएं। एक साल
लौटें, दो
साल लौटें, दस साल
लौटें, बीस
साल लौटें। पीछे
लौटते जाएं।
और यह बड़ा
अजीब अनुभव
होगा।
साधारणत:
अगर होश में
हम पीछे लौटें
बिना ध्यान
किए,
तो जितने हम
पीछे लौटेंगे
उतनी स्मृति
धुंधली होगी।
कोई कहेगा कि
मैं पांच साल
के आगे नहीं
जा सकता। पांच
साल तक मुझे
याद आता है कि
ऐसा हुआ था।
वह भी एकाध
घटना याद आएगी।
जैसे —जैसे हम
करीब आएंगे
अपनी उम्र के,
वैसे—वैसे
स्मृति और साफ
होगी। कल की
स्मृति और साफ
होगी, आज
की और साफ
होगी, परसों
की और कम होगी,
वर्ष भर की
और कम होगी, पच्चीस साल
की और कम होगी।
पचास साल की
और कम होगी।
लेकिन
जब ध्यान में
आप प्रयोग
करेंगे, तो आप बहुत
हैरान हो
जाएंगे।
स्थिति
बिलकुल उलटी
हो जाएगी।
जितनी बचपन की
स्मृति होगी
उतनी साफ होगी।
क्योंकि
बच्चे के पास
जितनी साफ
स्लेट होती है,
उतनी फिर
कभी नहीं होती।
उस पर जितनी
साफ लिखावट
उभरती है उतनी
कभी नहीं
उभरती। जब आप
ध्यान में
स्मृति पर
जाएंगे, तो
आप बहुत हैरान
हो जाएंगे, स्मृति उलटी
हो जाएगी!
जितने पीछे
जाएंगे, जितने
बचपन में
जाएंगे, उतना
साफ मालूम
होगा। जितने
बड़े होने
लगेंगे
स्मृति में, उतना धुंधला
होने लगेगा।
आज का दिन
सबसे ज्यादा
धुंधला होगा
ध्यान में और
आज से पचास
साल पहले का
दिन, जन्म
का पहला दिन, सबसे स्पष्ट
होगा।
क्योंकि
ध्यान में हम
स्मरण नहीं कर
रहे हैं।
अगर पिछली
स्मृतियों को
हम देखें, तो
दो बातें
होंगी। एक तो
यह होगी कि
जिसको हमने
बहुत गंभीरता
से लिया था, वह कुछ
गंभीर सिद्ध
नहीं हुआ। हम
उसे भूल गए।
इतना गंभीर भी
नहीं सिद्ध
हुआ कि उसे
याद रखें।
जिसके लिए हम
जीवन दांव पर
लगा देते हैं,
आज वह कहीं
भी नहीं है।
तो आज आपका
जीवन भिन्न हो
जाएगा।
क्योंकि तब
आपको दिखाई
पड़ेगा कि जिस
चीज पर आज आप
मरने —मारने
को उतारू हैं,
वह कल ऐसे
ही कचरे के
ढेर पर पड़ी रह
जाने वाली है।
एक—दो क्षण
रूक जाओ और सब
बेकार हो जाएगा।
एक—दो क्षण
प्रतीक्षा
करो और सब
स्मृति बन
जाएगी।
इस फर्क
को समझ लेना।
जब हम होश में
स्मरण करते
हैं,
तो स्मरण कर
रहे हैं। होश
के स्मरण में
क्या फर्क है?
अगर मैं याद
कर रहा हूं
अपने बचपन को,
तो मैं हूं
तो पचास साल
का, पचास
साल का हूं, आज हूं,
अभी हूं और आज
खड़े होकर
स्मरण कर रहा
हूं स्मृति को,
पांच साल की,
दो साल की, एक साल की।
यह पचास साल
का मेरा मन
बीच में खड़ा
है। इसलिए वह
धुंधला हो
जाएगा।
क्योंकि पचास
साल की परतें
बीच में हैं
और उनके पार
मैं झांक रहा
हूं।
ध्यान
की प्रक्रिया
में तुम पचास
साल के नहीं हो, पांच
ही साल के हो
गए। जब तुम
ध्यान में
स्मरण कर रहे
हो, तो तुम
पांच साल के
हो गए हो।
पचास साल के
होकर पांच साल
की स्मृति
नहीं कर रहे
हो। तुम पांच
साल की स्मृति
में वापस लौट
गए हो। इसलिए
होश में—उसको
हम रिमेंबरिग
कहें स्मरण; और ध्यान
में उसे री—लिविग
कहें। वह
पुनर्जीवन है,
पुनर्स्म्रण
नहीं। और इन
दोनों में
फर्क है।
पुनर्स्मरण
में बीच में
स्मृतियों की
बड़ी परत होगी
जो धुंधला कर
जाती है।
पुनर्जीवन, तुम वापस
पांच साल के
हो गए हो
ध्यान की
अवस्था में।
अब
आज ही शोभना
बैठी है
तुम्हारे
पीछे। वह कहती
है कि ध्यान
में उसे अचानक
अजीब— अजीब
खयाल आ रहे
हैं। उसे खयाल
आ रहा है कि वह
छोटी हो गई है
और गुड्डे —गुड्डियों
से खेल रही है।
और वह खयाल
इतना मजबूत हो
जाता है कि
एकदम वह डर
जाती है। कि
कहीं कोई आकर
देख न ले, नहीं
तो कहेगा कि
इस उम्र में
और गुड्डे —गुड्डी
से खेल रही है!
वह आख खोल कर
देख लेती है
कि कोई आ तो
नहीं गया।
उसकी उम्र मिट
गई। उसे यही
खयाल है कि यह
स्मृति है, यह री—लिविंग
है। यानी वह
पांच साल की
हो गई है। अब
वह एक युवक है,
जो ध्यान
करेगा तो
अंगूठा मुंह
में चला जाएगा।
वह छह महीने
का हो जा रहा
है। वह जैसे
ही ध्यान में
गया कि उसका
अनूठा मुंह
में गया। वह
जब छह महीने
का रहा होगा, तब की
स्थिति में
पहुंच गया।
तो
स्मरण और
पुनर्जीवन, फिर
से जीना, इनके
फर्क को समझ
लेना जरूरी है।
तो एक जन्म का
पुनर्जीवन तो
बहुत कठिन
नहीं है। थोड़ी
कठिनाई तो
होगी। थोड़ी
कठिनाई होगी,
क्योंकि हम
सबने अपनी
उम्र की एक
आइडेंटिटी
बना रखी है।
जो आदमी पचास
साल का हो गया
है, वह
पांच साल पीछे
हटने को राजी
नहीं होता। वह
पचास साल का
सख्ती से रहना
चाहता है।
इसलिए जिन
लोगों को
पुनर्जीवन
में लौटना है,
थोड़ी याद
करनी है, उन्हें
थोड़े अपने जो
बिलकुल
फिक्स्ड
आइडेंटिटीज
हैं, उन्हें
थोड़ा ढीला
करना चाहिए।
अब
जैसे उदाहरण
के लिए एक
आदमी अपने
बचपन को याद
करना चाहता है।
अच्छा होगा कि
वह बच्चों के
साथ खेले। दिन
में घंटा भर
निकालS ले और
बच्चों के साथ
खेले। उसके
पचास साल होने
का जो
फिक्सेशन है,
वह जो गंभीर
होने की आदत
है, वह थोड़ी
छूट जाए।
अच्छा होगा कि
वह दौड़े, तैरे,
नाचे।
अच्छा होगा कि
घंटे भर के
लिए वह बचपन
में जीए होशपूर्वक,
तो ध्यान
में भी उसका
लौटना आसान हो
जाएगा। और
नहीं तो वह
पचास साल का
सख्ती से..।
और
ध्यान रहे, चेतना
की कोई उम्र
नहीं होती।
चेतना पर
सिर्फ
फिक्सेशन
होते हैं।
चेतना की कोई
उम्र नहीं
होती कि पांच
साल की चेतना
और दस साल की
चेतना और पचास
साल की चेतना।
सिर्फ खयाल
हैं। आख बंद
करके आप बताएं
अपनी चेतना का
पता लगाकर कि
कितनी उम्र है?
तो आख बंद
करके आप कुछ
भी नहीं बता
पाएंगे। आप
कहेंगे कि
मुझे डायरी
देखनी पड़ेगी।
कैलेंडर का
पता लगाना
पड़ेगा। जन्म—पत्री
देखनी पड़ेगी।
असल में जब तक
दुनिया में
जन्म—पत्री
नहीं थी
कैलेंडर नहीं
था, सालों
की गणना नहीं
थी, आंकड़े
कम थे, दुनिया
में किसी को
अपनी उम्र का
कोई पता नहीं
होता था। आज
भी आदिवासी
हैं, जिनसे
आप जाकर पूछें
कि कितनी उम्र
है? तो वे
बडी मुश्किल
में पड़ जाएंगे।
क्योंकि किसी
की संख्या
पंद्रह पर खतम
हो जाती है, किसी की दस
पर खतम हो
जाती है, किसी
की पांच पर
खतम हो जाती
है।
एक
आदमी को मैं
जानता हूं
जिससे किसी ने
पूछा कि कितनी
उम्र है? वह घर
में नौकर का
काम करता है।
उसने कहा, होगी
यही कोई
पच्चीस साल।
उसकी उम्र
होगी कम—से—कम
साठ साल। तो
घर के लोग
हैरान हुए।
उन्होंने
पूछा, तुम्हारे
लड़के की कितनी
उम्र है? तो
उसने कहा, होगी
कोई पच्चीस
साल। क्योंकि
पच्चीस जो था
वह आखिरी आकड़ा
था। उसके आगे
तो कुछ था ही
नहीं।
उन्होंने कहा,
तुम्हारे
लड़के की उम्र
पच्चीस साल है
और तुम्हारी
भी उम्र
पच्चीस साल है,
ऐसा कैसे हो
सकता है? हमें
कठिनाई हो
सकती है, क्योंकि
हमारे लिए
पच्चीस के बाद
भी संख्या है।
उसके लिए
पच्चीस के बाद
कोई संख्या
नहीं है।
पच्चीस के बाद
असंख्य शुरू
हो जाता है।
उसकी कोई
संख्या ही
नहीं होती।
उम्र
तो हमारे बाहर
के कैलेंडर, तारीखें,
दिनों का
हमें हिसाब है।
इसलिए उम्र है।
अगर भीतर हम
झांक कर देखें
तो वहां कोई
उम्र नहीं है।
अगर कोई भीतर
से ही पता
लगाना चाहे कि
मेरी उम्र
कितनी है, तो
नहीं पता लगा
पाएगा।
क्योंकि उम्र
बिलकुल बाहरी
माप—जोख है।
लेकिन बाहरी
माप—जोख भीतर
के चित्त पर
फिक्सेशन बन
जाती है। वहां
जाकर कील की
तरह ठुक जाती
है।
और
हम कीलें
ठोंकते चले
जाते हैं कि
अब मैं पचास
साल का हो गया, अब
इक्यावन साल
का हो गया, अब
बावन साल का
हो गया। यह हम
चेतना पर
ठोंकते चले
जाते हैं। अगर
ये बहुत सख्त
हैं, तो कठिनाई
होगी पीछे
लौटने में।
इसलिए बहुत
गंभीर आदमी
बचपन की
स्मृति में नहीं
लौट सकता।
जिनको हम
सीरियस कहते
हैं, इस
तरह के लोग
रुग्ण होते
हैं। असल में
सीरियसनेस एक
बीमारी है, मानसिक
बीमारी है। जो
बहुत गंभीर
हैं, वे
सदा बीमार
होते हैं।
उनका पीछे लौट
आना बहुत मुश्किल
है। थोड़ा—सा
जिनका चित्त
हलका है, निर्भार
है, जो
बच्चों के साथ
खेल सकते हैं,
जो बच्चों
के साथ हंस
सकते हैं, उनका
लौटना बहुत
आसान हो जाएगा।
तो
बाहर की
जिंदगी में
फिक्सेशन को
तोड्ने की फिक्र
करें। चौबीस
घंटे अपनी
उम्र को याद
मत रखें। और
जब भी अपने
बेटे से कहें, तो
यह मत कहें कि
मैं जानता हूं
क्योंकि मेरी उम्र
इतनी है। उम्र
से जानने का
कोई संबंध
नहीं है। अपने
छोटे बच्चे के
साथ ऐसा
व्यवहार मत
करें कि आपके
और उसके बीच
पचास साल का
फासला है।
दोस्ती का हाथ
आगे बढ़ाए।
एक
स्त्री ने एक
छोटी—सी किताब
लिखी है—एक
छोटे बच्चे के
साथ बच्चा
होकर रहने की।
उस स्त्री की
उम्र तो सत्तर
साल है। सत्तर
साल की स्त्री
ने एक छोटा—सा
प्रयोग किया
है,
एक पांच साल
के बच्चे के
साथ दोस्ती
करने का।
मुश्किल है
बहुत, आसान
मामला नहीं है।
पांच साल के
बच्चे का बाप
होना आसान है,
मां होना
आसान है, भाई
होना आसान है,
गुरु होना
आसान है, दोस्त
होना बहुत
मुश्किल है।
कोई मां, कोई
बाप दोस्त
नहीं हो पाता।
जिस दिन
दुनिया में
मां —बाप
बच्चों के
दोस्त हो
सकेंगे, उस
दिन हम दुनिया
को आमूल बदल
देंगे। यह
दुनिया
बिलकुल दूसरी
हो जाएगी। यह
दुनिया इतनी
कुरूप, इतनी
बदशक्ल नहीं
रह जाएगी।
लेकिन दोस्ती
का हाथ ही
नहीं बढ़ पाता।
उस
स्त्री ने सच
में एक अदभुत
प्रयोग किया।
उसने वर्षों
तक वह प्रयोग
किया। एक तीन
साल के बच्चे
से दोस्ती
करनी शुरू की
और पांच साल
के बच्चे तक, दो
साल की उम्र
तक निरंतर दो
साल उससे सब
तरह की दोस्ती
निभाई। उसकी
दोस्ती का
खयाल थोड़ा समझ
लेना उपयोगी
है। वैसी
स्त्री को
पीछे लौट जाना
बहुत आसान हो
जाएगा।
वह
सत्तर साल की बूढ़ी
स्त्री उस
बच्चे के साथ, जो
उसका दोस्त है,
समुद्र के
तट पर गई है।
तो बच्चा दौड
रहा है, कंकड़—पत्थर
बीन रहा है, तो वह भी दौड़
रही है, कंकड़—पत्थर
बीन रही है।
क्योंकि
बच्चे और उसके
बीच जो एज
बैरियर है, जो आयु का
बड़ा भारी
व्यवधान है, वह टूटेगा
कैसे! फिर वह
कंकड़—पत्थर
ऐसे नहीं बीन
रही है कि
सिर्फ दोस्ती
बढ़ाने के लिए
है। वह सच में
उन कंकड़ों—पत्थरों
को उस आनंद से
देखने की
कोशिश कर रही है,
जिस से
बच्चा देख रहा
है। वह बच्चे
की भी आंखें
देखती है, अपनी
आंखें भी
देखती है, कंकड़
को भी देखती
है, बच्चे
का हाथ भी
देखती है, अपना
हाथ भी देखती
है। बच्चा जिस
पुलक से भरा
है, वह
क्या देख रहा
है उन पत्थरों
में, फिर
वह बच्चा होकर
देखने की
कोशिश कर रही
है। बच्चा
जाकर समुद्र
की झाग को पकड़
रहा है, फेन
को पकड़ रहा है,
तो वह भी
पकड़ रही है।
बच्चा
तितलियों के
पीछे दौड़ रहा
है, तो वह
भी दौड़ रही है।
रात दो बजे
बच्चा उठ आया
और उसने उससे
कहा कि चलें
बाहर, झींगुरों
की आवाज बहुत
अच्छी आ रही
है। तो उसने
यह नहीं कहा
कि सो जाओ। यह
रात उठने की
नहीं है। वह
बच्चे के साथ
हो ली है। और
कहीं
झींगुरों की
आवाज न टूट
जाए, इसलिए
बच्चा संभलकर
चल रहा है एक—एक
कदम, तो वह
भी संभलकर
उसके पीछे चल
रही है।
दो
साल की यह
दोस्ती अनूठे
परिणाम लाई।
और उस स्त्री
ने लिखा है कि
मैं भूल गई कि
मैं सत्तर साल
की हूं। और मैंने
जो पांच साल
का होकर कभी
नहीं जाना था, वह
सत्तर साल में
पांच साल का
होकर जाना।
सारी दुनिया
एक वंडर लैंड
बन गई, सारा
जगत परियों का
जगत हो गया।
मैं सच में
दौडने लगी और
पत्थर बीनने
लगी और तितलियां
पकड़ने लगी। उस
बच्चे और मेरे
बीच सारे आयु
के फासले चले
गए। वह बच्चा
मुझसे ऐसी ही
बातें करने
लगा जैसे कि
एक बच्चे से
करता है। मैं
उस बच्चे से
ऐसी बातें
करने लगी जैसे
एक बच्चा
बच्चे से करता
है।
उसने
पूरी किताब
लिखी है अपने
दो साल के
अनुभवों की, सेंस
आफ वंडर। और
उसमें उसने
लिखा है कि
मैंने फिर से
पा लिया
आश्चर्य का भाव।
अब मैं कह
सकती हूं कि
कहीं भी बड़े
से बड़े संत ने
अगर कुछ भी
पाया होगा, तो इससे
ज्यादा नहीं
हो सकता, जो
मुझे दिखाई पड़
रहा है।
जब
जीसस से किसी
ने पूछा कि
कौन होंगे वे
लोग जो
तुम्हारे
स्वर्ग के
राज्य में
प्रवेश करेंगे।
तो जीसस ने
कहा कि वे जो
बच्चों की भांति
हैं।
बच्चे
शायद किसी एक
बड़े स्वर्ग
में रहते ही
हैं। हम सब
सिखा—पढ़ाकर
उनका स्वर्ग
छीन लेते हैं।
लेकिन जरूरी
है कि यह
स्वर्ग छिने, क्योंकि
छीना गया
स्वर्ग जब
वापस मिलता है,
तो उसका
अनूठापन और है।
लेकिन वापस
बहुत कम लोगों
को मिल पाता
है। पैराडाइज
लास्ट की हालत
तो बहुत लोगों
की जिंदगी में
होती है, पैराडाइज
रिगेंड की
हालत बहुत कम
लोगों की जिंदगी
में आती है।
खोते तो हम सब
हैं स्वर्ग को,
लेकिन उस
स्वर्ग की
वापसी नहीं हो
पाती। अगर
मरते—मरते तक
कोई फिर बच्चा
हो जाए, तो
स्वर्ग वापस
लौट आता है।
और अगर बूढ़ा
आदमी बच्चे की
आंखों से
दुनिया को देख
सके, तो
उसकी जिंदगी
में जैसी शाति
और जैसा आनंद
और जैसे ब्लिस
की वर्षा हो
जाती है, उसका
अनुमान लगाना
मुश्किल है।
तो
बाहर की
जिंदगी में
जिन्हें पीछे
जाति—स्मरण
में लौटना है, उन्हें
अपने एज के
फिक्सेशन को
तोड़ना पड़ेगा।
कभी राह चलते
किसी बच्चे का
हाथ पकड़ कर
उसके साथ
दौड़ने लगें, भूल जाएं कि
आपकी उम्र
कितनी है। और
मजा यह है कि
उम्र सिर्फ
याद है और कुछ
भी नहीं है।
उम्र सिर्फ
याद है, सिर्फ
खयाल है। एक
विचार जो
मजबूती से पकड़
गया है। बाहर
की जिंदगी में
उम्र के
फिक्सेशन को
तोड़े और भीतर
की जिंदगी में
जब ध्यान को
बैठें, तो
एक—एक साल
पीछे खिसकने
लगें। एक—एक
जन्म—दिन वापस
पीछे लौट आने
लगें। धीरे —
धीरे लौटें, तो इस जन्म
के आखिरी तक
लौटने में कोई
कठिनाई नहीं
है। पिछले
जन्म में भी
लौटने की
प्रक्रिया
यही होगी।
सिर्फ इस जन्म
से दूसरे जन्म
में जाने का
जो' सूत्र
है, वह मैं
नहीं कह सकता
हूं। उसको न
कहने का कारण
है। क्योंकि
अगर कोई सिर्फ
कुतूहलवश
उसका प्रयोग
करे, तो
पागल हो सकता
है। क्योंकि
अगर पिछले
जन्म की
स्मृतियां
एकदम से टूट
पड़े, तो
उन्हें
संभालना
मुश्किल है।
मेरे
पास एक लड़की
को लाया गया।
जिसकी उम्र जब
उसे मेरे पास
लाये थे तो
शायद म्यारह
साल की थी।
उसे तीन
जन्मों की
स्मृति है।
किसी कारण से
नहीं, आकस्मिक,
प्रकृति की
किसी भूल से।
उसे तीन जन्म
स्मरण हैं।
प्रकृति बहुत
इंतजाम करती
है कि आपके
पिछले जन्म की
पूरी की पूरी
परत को दबा
देती है और इस
जन्म की स्मृतियां
उस परत के पार
बननी शुरू
होती हैं। वह
परत गहरे रूप
से आपके पिछले
जन्म को आपसे
तोड़े रखती है।
इसलिए
जिन मुल्कों
में यह खयाल
है—जैसे
मुसलमान
मुल्कों में
या ईसाई
मुल्कों में—कि
पिछला जन्म
नहीं होता है, जिन
मुल्कों में
यह खयाल है कि
पिछला जन्म
नहीं होता है,
उन मुल्कों
में पिछले
जन्म की
स्मृति के
बच्चे पैदा
नहीं होते, क्योंकि उस
तरफ ध्यान ही
नहीं जाता।
जैसे हमने
पक्का मान रखा
है कि इस
दीवाल के पार
कुछ भी नहीं
है, तो हम
धीरे — धीरे इस
दीवाल की तरफ
देखना ही बंद
कर देते हैं।
लेकिन इस देश
में जैनों में,
बौद्धों
में, हिंदुओं
में कितना ही
मतभेद हो, एक
बात में मतभेद
नहीं है, वह
है पिछले
जन्मों का
अस्तित्व। वह
पुनर्जन्म की
यात्रा में
कोई भी भेद
नहीं है।
इसलिए इस देश
का चित्त
हजारों साल से
पिछले जन्म के
होने की
संभावना से
भरा हुआ है।
तो
कई बार अचानक
यह संभावना
होती है कि
अगर पिछले
जन्म में मरते
वक्त कोई
व्यक्ति बहुत
गहरा भाव लेकर
मर गया हो कि
मुझे याद रह जाए, तो
याद रह जाएगा।
एक मरता हुआ
व्यक्ति अगर
यह बहुत गहरा
भाव रख ले कि
जो मैं इस
जिंदगी में था
वह मुझे याद
रह जाए, तो
बिना किसी
यौगिक
प्रक्रिया के,
बिना किसी
ध्यान के
प्रयोग के, उसे अगले
जन्म में याद
रह जाएगा।
लेकिन तब वह
दिक्कत में पड़
जाएगा।
उस
लड़की को जब
मेरे पास लाए, उसे
तीन जन्मों की
घटनाएं याद
थीं। पहला
जन्म उसका
आसाम में हुआ
जहां वह सात
साल की लडकी
होकर मर गई।
तो सात साल की
लड़की जितनी
आसामी बोल
सकती है, उतनी
वह बोलती है।
सात साल की
लड़की जितने
आसामी—नाच नाच
सकती है, उतना
वह नाचती है।
हालाकि वह तो
पैदा हुई
मध्यप्रदेश
में अभी, आसाम
कभी गयी नहीं,
आसामी भाषा
से कोई संबंध
नहीं है।
दूसरा जन्म
उसका
मध्यप्रदेश
में ही हुआ, कटनी में।
और वहां वह
कोई साठ साल
की होकर मरी।
सढ़सठ वर्ष।
और अभी उसकी
ग्यारह साल
उम्र है, तो
अट्ठत्तर।
उसकी ग्यारह
साल की उम्र
तब थी जब मेरे
पास लाए थे।
उसकी आंखें आप
देखें तो
अट्ठत्तर साल
की की स्त्री
की जैसी आंखें
हों, चेहरा
जैसा
अट्ठत्तर साल
की बूढ़ी
स्त्री का हो।
है तो वह
ग्यारह साल की
लड़की का, लेकिन
उतना ही पीला,
जर्द, चिंतित,
परेशान, जैसे
मौत करीब हो।
क्योंकि उसकी
स्मृतियों की
श्रृंखला
अट्ठत्तर
वर्ष की है।
उसके भीतर उसे
अट्ठत्तर साल
के स्वीकेंस,
श्रृंखला
का बोध है।
और
उसकी कठिनाई
बहुत बढ गई, क्योंकि
उसके पिछले
जन्म के जो
लोग हैं, उसके
संबंधी, वे
सब जबलपुर में
मेरे पड़ोस में
रहते थे।
इसीलिए वे उसे
मेरे पास ले
आए। उसने अपने
पिछले जन्म के
सारे
संबंधियों को
हजारों की भीड़
में पहचाना।
कोई उसका लड़का
है, कोई
उसकी बहू है, कोई उसकी
लड़की का लड़का
है, कोई
कोई है।
हजारों की भीड़
में छिपा कर
खड़ा किया गया
और उस लड़की ने
उन सबको
पहचाना। जिस
घर में वह थी
अब तो वह घर
उन्होंने छोड़
दिया, वह
तो कोई गांव
में घर है। अब
तो वे जबलपुर
में रहते हैं।
उसने उस घर
में गड़ा हुआ
धन भी बताया
जो खोद लिया
गया और मिल
गया।
जो
पड़ोस में मेरे
सज्जन रहते
हैं जिनकी वह
पिछले जन्म
में बहन थी, बड़ी
बहन थी, उनके
सिर पर एक चोट
है। तो उस
लड़की ने जैसे
ही उनको
पहचाना, पहली
बात यह पूछी
कि अरे यह चोट
अभी तक मिटी
नहीं। तो
उन्होंने कहा
कि यह चोट
मुझे कब लगी
पता नहीं, क्या
तुम बता सकती
हो कि यह चोट
कब लगी? उसने
कहा कि यह चोट
जब तेरी शादी
हुई तू घोड़े पर
बैठा तो गिर
पड़ा, घोडा
बिचक गया और
तू गिर पड़ा।
लेकिन तब उसकी
उम्र कोई आठ
या नौ साल की
थी, जब
उसकी शादी हुई
थी। तो उसे भी
याद नहीं है।
तब इस बात का
पता लगवाया
गया उनके गांव
में कि किसी
को भी क्या इस
बात की याद है!
और एक की औरत ने
इस बात की
गवाही दी कि
ही, यह
लड़का गिरा था।
और इसको चोट
लग गयी थी, और
यह घोड़े से ही
गिरने की इसकी
चोट है।
हालाकि उसको
खुद याद नहीं
है।
इस
लड़की के पिता
को मैंने कहा
कि इसकी
स्मृतियां
भुला देने का
उपाय करें।
मैं इसमें
थोड़ा सहयोगी
हो सकता हूं।
इसे ले आएं तो
इसकी स्मृति
सात दिन में
भुला दी जाए।
अन्यथा यह
लड़की मुश्किल
में पड़ जाएगी।
उसकी कठिनाई
बहुत थी।
क्योंकि न तो
वह स्कूल में
पढ़ सकती थी, क्योंकि
अट्ठत्तर साल
की बूढ़ी
स्त्री को आप
स्कूल में
भरती कर सकते
हैं? वह
कुछ सीख नहीं
सकती, क्योंकि
वह सीखी ही
हुई है। वह
खेल नहीं सकती
लड़की। उसका
बचपन जैसी कोई
चीज ही नहीं
है। क्योंकि
खेले कैसे? अट्ठत्तर
साल की बूढ़ी
औरत कैसे खेल
सकती है! वह
गंभीर है, वह
घर में हर एक
की आलोचना
करती है। वह
उतनी ही कलह
से भरी हुई है
जितना अट्ठत्तर
साल की स्त्री
या पुरुष भर
जाते हैं। वह
घर—घर में
सबकी आलोचना,
निंदा और
सबका कौन क्या
गडबड़ कर रहा
है उस सबका हिसाब
रखती है, अभी
इस उम्र में।
तो मैंने कहा
कि यह लड़की
पागल हो जाएगी,
इसकी
स्मृति भुलवा
दें।
लेकिन
उसके घर के
लोगों को तो
आनंद आ रहा था।
क्योंकि भीड़
लगती थी, लोग
देखने आते थे।
कोई पैसे भी चढ़ाने
लगा,
नारियल, फल
और मिठाई भी
आने लगी। राष्ट्रपति
ने दिल्ली भी
बुलवाया। अमरिका
से भी एक निमंत्रण
आ गया कि उसको अमेरिका
ले आओ। तो वे बड़े
खुश थे। उन्होंने
मेरे पास लाना
बंद कर दिया। उन्होंने
कहा कि नहीं, हम भुलाना नहीं
चाहते। यह तो बड़ी
अच्छी बात है।
आज
इस बात कोई सात
साल हो गये। आज
वह लड़की पागल
है। अब वे मुझसे
कहते है आकर कि
अब आप कुछ करिये।
मैंने कहा कि अब
बहुत मुश्किल
मामला हो गया है।
जब कुछ हो सकता
तब आप आप राजी
नहीं हुए। अब
तो होश ही
नहीं है उसको।
अब तो अनर्गल
हालत में कनफ्यूज
हो गयी है। अब
तो उसको यह भी
पता नहीं चलता
कि कौन सी
स्मृति किस
जन्म की है।
यह भाई इस
जन्म का है कि
पिछले जन्म का
है,
यह पिता इस
जन्म का है कि
पिछले जन्म का,
वह सब कनफ्यूज
हो गया।
प्रकृति
की व्यवस्था
ऐसी है कि आप
जितना झेल सकते
हैं,
उतनी ही
आपको स्मृति
रह जाती है।
इसलिए दूसरे
जन्म की
स्मृतियों के पहले
विशेष साधना
से गुजरना
जरूरी होता है,
जो आपको इस
योग्य बना दे
कि अब आपको
कोई चीज कनक्यूज
नहीं कर सकती।
असल
में दूसरे
जन्म की
स्मृति में
जाने के लिए
सबसे जरूरी जो
शर्त है, वह यह
है कि जब तक
आपको यह जगत
एक सपने की
भांति मालूम न
होने लगे—स्व
लीला, एक
खेल—तब तक
आपको पिछले
जन्म की
स्मृति में ले
जाना उचित
नहीं है।
क्योंकि अगर
आपको यह जगत
एक खेल मालूम
होने लगे, तो
फिर कोई डर
नहीं है। फिर
आपके चित्त पर
कोई चोट पड़ने
वाली नहीं है।
खेल की और
स्मृतियां
हैं, उनसे
कोई हर्जा
होने वाला
नहीं है।
लेकिन
अगर आपको यह
जगत बहुत
वास्तविक
मालूम हो रहा
है,
और आप अगर
अपनी पत्नी को
बहुत
वास्तविक मान
रहे हों, और
कल आपको स्मरण
आ जाए कि
पिछले जन्म
में वह आपकी
मां थी, तो
आप बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएंगे। कि
अब क्या करें!
इसको पत्नी
मानें कि मां
मानें।
एक
महिला ने मेरे
पास प्रयोग
करना शुरू किया।
उसको मैं मना
करता रहा कि
इसमें कोई
कुतूहल की
जरूरत नहीं है।
लेकिन कुतूहल
था,
पर वह नहीं
मानती थी।
मैंने कहा, इस प्रयोग
को करें। और
जब प्रयोग हुआ,
तो भुलाने
में बड़ी मेहनत
लेनी पड़ी।
क्योंकि उनको
स्मरण आया कि
वह पिछले जन्म
में वेश्या थी।
यह उसके आज के
नीतिवान, सती—साध्वी
चित्त को भारी
पड़ा। उसने कहा
मुझे ऐसा याद
ही नहीं करना
है। लेकिन अब
इसे भुलाना
बहुत मुश्किल
है। किसी चीज
को याद करना
तो बहुत आसान
है, किसी
चीज को भुलाना
बहुत मुश्किल
है। क्योंकि
जो तथ्य एक
दफा हमारे
ज्ञान में
हिस्सा बन जाए,
उसको ज्ञान
के बाहर करने
में बड़ा कठिन
मामला हो जाता
है।
तो
इसलिए जान कर
ही मैंने एक
सूत्र उसमें
नहीं कहा है।
वह यह कि इस
जन्म से पिछले
जन्म में कैसे
प्रवेश करें।
लेकिन अगर इस
जन्म की
स्मृतियां
आपको आ जाएं, तो
जिसको भी इस
जन्म की पूरी
स्मृतियां आ
जाएं, उसे
वह सूत्र
बताया जा सकता
है। लेकिन वह
व्यक्तिगत
बात है। उसकी
सामूहिक
चर्चा नहीं हो
सकती है। और न
ही उसकी
सामूहिक
चर्चा करना
उचित है।
क्योंकि
हमारा मन
कुतूहल से न
मालूम कितने
काम करता है।
अधिकतर हम में
से लोग कुतूहल
में ही जीते
हैं, एक
क्यूरिआसिटी
होती है कि
जरा झांक कर
देख लें, क्या
होता है।
लेकिन झांककर
देखना कभी
खतरनाक सिद्ध
हो सकता है, क्योंकि ऐसी
कोई बात उठ
जाए जो कि
पीछे से दबायी
न जा सके।
लेकिन इस जन्म
का जरूर
प्रयोग करें।
इस जन्म का
प्रयोग जब
आपके लिए आनंदपूर्ण
हो जाए, और
इस जन्म की
सारी स्थिति
जब आपको क्यों…..।
जैसे
ही आप अपनी
पिछली
स्मृतियों को
फिर से री—लिबड
कर सकेंगे, वैसे
ही आपको पता
चलेगा कि यह
सब सपने से
ज्यादा नहीं
है। तब आप यह
भी जानते हैं
कि जिसको आज
आप बहुत
गंभीरता से ले
रहे है—कि
दुकान पर
नुकसान है कि
लाभ है, कि
पत्नी आज झगड़ी
है, कि
पिता आज नाराज
हुआ है, कि
बेटा घर
छोड्कर चला
गया है, कि
बेटी ने किसी
अनचाहे आदमी
से शादी कर ली
है —जिसको आज
आप बहुत
गंभीरता से ले
रहे हैं, कल
यह आपकी
स्मृति के
कबाड़खाने में
पड़ जाने वाला
है। जब आपको
पिछली
स्मृतियां
याद आएंगी, तो आप हैरान
हो जाएंगे कि
आपने कितने
क्षणों को
कितना गंभीर
समझा था, आज
वह कहीं भी
नहीं है। एक
क्षण में उन
क्षणों ने
आपको ऐसा पकड़
लिया था कि
जीने और मरने
का सवाल हो
गया था। आज
उनका कोई
मूल्य नहीं है।
राख की तरह
रास्ते पर
कहीं वे पड़े
रह गए हैं, कहीं
कचरे के ढेर
पर इकट्ठे हो
गए हैं। आज
उनका कोई मतलब
नहीं है।
अगर
पिछली
स्मृतियों को
हम देखें, तो
दो बातें
होंगी। एक तो
यह होगी कि
जिसको हमने
बहुत गंभीरता
से लिया था, वह कुछ
गंभीर सिद्ध
नहीं हुआ। हम
उसे भूल गए। इतना
गंभीर भी नहीं
सिद्ध हुआ कि
उसे याद रखें।
जिसके लिए हम
जीवन दाव पर
लगा देते हैं,
आज वह कहीं
भी नहीं है।
तो आज आपका
जीवन भिन्न हो
जाएगा।
क्योंकि तब
आपको दिखाई
पडेगा कि जिस
चीज पर आज आप
मरने —मारने
को उतारू हैं,
वह कल ऐसे
ही कचरे के
ढेर पर पड़ी रह
जाने वाली है।
एक—दो क्षण
रुक जाओ, और
सब बेकार हो
जाएगा। एक—दो
क्षण
प्रतीक्षा
करो और सब
स्मृति बन
जाएगी। और इस
जगत में जहां
हमारे सारे
जीवन का कुल
फल स्मृति का
बनना होता है,
तो हमारी आम
जिंदगी और एक
अभिनेता की
जिंदगी में
फर्क क्या है?
आखिर
अभिनेता जो
जीता है, आखिरी
कुल परिणाम
में एक फिल्म
बनती है, जिसको
पर्दे पर देखा
जा सकता है।
और हम जिसको
जीते हैं, कुल
अर्थों में एक
स्मृति की
फिल्म बनती है,
जिसको फिर
से देखा जा
सकता है।
हम
जिसको जिंदगी
कह रहे हैं, वह
कैमरे की
फोकसिंग से
ज्यादा कहां
है! और जिन
क्षणों को हम
कहते थे, बड़े
महत्वपूर्ण
हैं, वे सब
एक पर्दे पर
टंग गए हैं।
आज उनका मूल्य
एक फिल्म से
ज्यादा क्या
है! ही, फर्क
इतना है कि एक
फिल्म आप अपनी
पेटी में बंद
कर सकते हैं, इस फिल्म को
आपको स्मृति
की पेटी में
बंद करना पड़ा
है। इससे
ज्यादा कुछ
फर्क नहीं है।
और
यह जो हमारी
स्मृति की
पेटी है, यह
उतनी ही फिल्म
है। आज नहीं
कल, बहुत
कठिन नहीं है
कि विज्ञान
ऐसे साधन खोज
लेगा कि यह
स्मृति को
निकाल कर
पर्दे पर दिखा
दे। इसमें कोई
बहुत अड़चन
नहीं है।
क्योंकि आखिर
हम भी जब आख
बंद करके
देखते हैं तो
आख के पर्दे
पर उसी फिल्म
को वापस
प्रोजेक्ट
करते हैं। जब
आप सपना देखते
हैं, तब
आपकी आख ऐसे
ही चलती रहती
है, जैसे
फिल्म को
देखते वक्त
चलती है। अगर
कोई सपना देख
रहा है, तो
उसके दोनों
पलकों पर
उंगली रखकर
पता लगाया जा
सकता है कि वह
सपना देख रहा
है कि नहीं
देख रहा है।
क्योंकि उसकी
पुतली भीतर
अगर चलती है, तो समझो कि
सपना देख रहा
है, अगर
नहीं चलती, तो समझो
सपना नहीं देख
रहा है। पलक
के ऊपर से ही
पता चल जाएगा
कि पुतलियां
अंदर नीचे —ऊपर
हो रही हैं।
वह पूरे वक्त
देख रहा है
कुछ। वह जो
देख रहा है, क्या देख
रहा है? एक
फिल्म देख रहा
है।
जब
ध्यान में आप
पिछले जन्मों
का भी स्मरण
कर सकें और
जाति —स्मरण
का प्रयोग
इसीलिए था।
असल में
महावीर और
बुद्ध तो किसी
व्यक्ति को दीक्षा
ही नहीं देते
थे जब तक उसको
जाति—स्मरण न
करवा लें। और
इसलिए आज का
जो दीक्षित
साधु है, न तो
वह दीक्षित है,
न साधु है।
वह दोनों ही
बातें नहीं
हैं। उसको कुछ
पता ही नहीं
है।
अब
एक जैन मुनि
मेरे पास आए
कुछ दिन हुए
और उन्होंने
मुझे आकर कहा
कि मुझे ध्यान
सिखाइए। मैं
आचार्य तुलसी
का साधु हूं।
उनसे मैंने
दीक्षा ली है।
तो मैंने उनसे
पूछा कि जब
आचार्य तुलसी
से दीक्षा ली
और ध्यान नहीं
सीखा, तो और
क्या सीखा? दीक्षा किस
लिए ली? दीक्षा
का मतलब क्या
होता है? ध्यान
मुझसे पूछने
आए हो, तो
दीक्षा
किसलिए ली? जब ध्यान ही
नहीं सिखाया
जा सका, तो
और क्या
सिखाया गया
वहां? आचार्य
तुलसी कौन—सा
व्यवसाय करते
हैं दूसरा? दीक्षा का
मतलब यह होता
है कि ध्यान
में प्रवेश
करवाया हो, तब दीक्षा
हो सकती है।
महावीर
और बुद्ध तो
दीक्षा तब
देते जब जाति—स्मरण
हो जाए। जाति—स्मरण
अर्थात पिछले
जन्म का स्मरण
हो जाए।
क्योंकि महावीर
का कहना यह था
कि जब तक
तुम्हें
पिछले जन्मों
का स्मरण न आ
जाए,
तब तक तुम
जिंदगी के
प्रति
गंभीरता का
भाव छोड़ ही
नहीं सकते।
एक
दफा एक आदमी
को याद आ जाए
कि मैंने
पिछले वक्त भी
एक स्त्री को
प्रेम किया था
और उससे भी कहा
था कि तेरे
बिना एक क्षण
भी जी नहीं सकता।
उसके पहले भी
एक स्त्री को
प्रेम किया था, उसको
भी यही कहा था।
उसके पहले भी
एक स्त्री को
प्रेम किया था
और उसको भी
यही कहा था।
आदमी होने के
पहले जानवर था,
तब मादाओं
से कहा था कि
तेरे बिना
किसी दिन जी नहीं
सकता। पक्षी
था, तब
किसी और से
यही कहा था।
यही कहता रहा
हूं। यह कोई
आज नहीं कह
रहा हूं। तो
जब आज ऐसा
आदमी किसी
स्त्री से
कहने जाएगा कि
तेरे बिना
नहीं जी सकता हूं, तब उसे हंसी
आ जाएगी।
क्योंकि वह
मजे से जी
सकता है। वह
बहुत जन्मों
से जी रहा है।
एक
आदमी ने पिछले
जन्म में भी
पद पाना चाहा
था और सम्राट
हो गया था। और
सोचा था कि पद
पा लूंगा, तो
सब हो जाएगा।
फिर कुछ भी
नहीं हुआ, मर
गया फिर। उसके
पहले भी पद
पाना चाहा था,
पद पा लिया
था। उसके पहले
भी पद पा लिया
था। आज वह
आदमी फिर पद
की दौड़ में
दिल्ली जा रहा
था। अगर उसको
दिल्ली के बीच
के स्टेशन में
पिछले जन्म का
स्मरण आ जाए, तो वह वापस
लौट आएगा और
कहेगा, यह
तो बेकार है।
अब हम फिर
दिल्ली चले!
हम कई दफे
दिल्ली जा चुके
हैं। और आखिर
मरने के सिवाय
कुछ भी नहीं
होता।
एक
आदमी ने
जन्मों —जन्मों
में जो किया
है,
वही वह फिर
करना चाह रहा
है, लेकिन
उसे स्मरण
नहीं है। उसे
स्मरण आ जाए, तो फिर उसी
को करना असंभव
है। तब तक कोई
आदमी
संन्यासी
नहीं हो सकता,
जब तक यह
जगत उसको
स्वप्न न हो
जाए। और यह
जगत स्वप्न
कैसे होगा? यह जगत
स्वप्न हो सके,
इसके लिए
जाति — स्मरण
है।
इस
जन्म के स्मरण
में जाओ। और
जब इस जन्म के
स्मरण में
जाने लगो और
किसी दिन
कुतूहलवश
नहीं, लेकिन
ऐसा लगे कि अब
मन निर्भार
हुआ है, इस
जन्म को तो
देख ही लिया
है एक सपने की
तरह, अब
पीछे जन्मों
को भी सपने की
तरह देखने की
क्षमता आ गई
है, तो
सूत्र बताया
जा सकता है।
लेकिन वह
व्यक्तिगत है।
जो
भी मैं प्रयोग
सामूहिक करवा
रहा हूं, वे
ऐसे प्रयोग
हैं जिनसे
आपको कोई भी
नुकसान न हो
सके। जो बातें
मैं सामूहिक
रूप से कह रहा हूं, वे ऐसी
बातें हैं
जिनसे आप वहीं
तक जा सकते हैं
जहां तक खतरा
नहीं है। वहां
तक आप चले
जाएं, तो
आगे के सूत्र
तो व्यक्तिगत —होंगे।
इसलिए जो लोग
शीघ्रता से
गति करेंगे, उनसे मैं वे
बातें कहना
शुरू करूंगा
जो सबके सामने
नहीं कही जा
सकतीं। जैसे
ही ऐसे लोग
तैयार हो
जाएंगे, वैसे
ही वे बातें
कही जा सकती
हैं। लेकिन वे
निपट
व्यक्तिगत
हैं, निजी
हैं। उनको
सबके सामने
कहने का कोई
प्रयोजन नहीं
है।
भगवान
श्री क्या—
क्या बिंदु
हैं जो गर्भ
को श्रेष्ठ
जीवात्मा के
आने योग्य या
निकृष्ट
जीवात्मा के
आने योग्य
बनाते हैं? श्रेष्ठ
आत्मा गर्भ
में उतर सके
इसके लिए क्या—
क्या
तैयारियां
करनी पड़ती हैं?
कैसे करनी
पड़ती हैं? और
बुद्ध महावीर
कृष्ण और
क्राइस्ट
जैसे लोग जिस
गर्भ में आए
उसकी क्या—
क्या
विशेषताएं थी
सामान्य
गर्भों की
तुलना में?
बहुत—सी
बातें विचार
करनी पड़े। एक
तो संभोग का
क्षण जितनी
पवित्रता का
क्षण हो, उतनी
पवित्र आत्मा
को आकर्षित कर
सकता है।
लेकिन काम की
इतनी निंदा की
गई है कि
संभोग का क्षण
मुश्किल से ही
पवित्रता का
हो पाता है।
काम को, यौन
को अपवित्र
सिद्ध ही कर
दिया गया है।
वह हमारे
चित्त में
अपवित्र होकर
बैठ ही गया है।
पति—पत्नी का
जो मिलन है, वह एक पाप की
अंधेरी छाया
के बीच घटित
होता है। वह
एक आनंद, एक
पवित्रता, एक
प्रार्थना के
बीच घटित नहीं
होता।
स्वभावत:, इस
छाया के आसपास
पवित्र आत्मा
का प्रवेश
संभव नहीं है।
तो पवित्र
आत्मा के
प्रवेश की
पहली तो शर्त
है कि पवित्र
क्षण हो।
मेरी
दृष्टि में, संभोग
का क्षण
प्रार्थना का
क्षण है। और
प्रार्थना के
बाद ही पति—पत्नी
को संभोग में
जाना चाहिए।
ध्यान के बाद
ही जाना चाहिए।
इसके दोहरे
परिणाम होंगे।
इसका एक
परिणाम तो यह
होगा कि ध्यान
के बाद वर्षों
तक वे संभोग
में जा न
सकेंगे। पहला
तो परिणाम यह
होगा। अगर
ध्यान के बाद
संभोग में
जाने की
चेष्टा की, तो ध्यान के
बाद पहली तो
बात है कि जा न
सकेंगे।
क्योंकि
ध्यान में
जैसे ही
जाएंगे कि
वासना
तिरोहित हो
जाएगी। तो
ध्यान उनके
जीवन में
ब्रह्मचर्य
का मार्ग बन
जाएगा।
वर्षों बीत
जाएंगे।
यह
वर्षों की जो
पवित्रता है, अनसप्रेस्ट,
यह दमन नहीं
है। यह कोई
लिया हुआ व्रत
नहीं है कि
पति और पत्नी ताले
लगाकर अलग—
अलग कमरों में
सो रहे हैं, या पति
मंदिर में गए
हैं सोने कि
वे
ब्रह्मचर्य
का व्रत साध
रहे हैं। यह
कोई
ब्रह्मचर्य
का व्रत नहीं
है, यह सहज
फलित
ब्रह्मचर्य
है। जो ध्यान
के बाद संभव
नहीं होता कि
संभोग में जाया
जा सके।
क्योंकि इतने
रस, इतने
आनंद में
चित्त डूब
जाता है कि
संभोग के लिए
कौन उतरे।
तो
पति—पत्नी अगर
दोनों नियमित
रूप से ध्यान
कर सकें, तो
वर्षों तक
संभोग न कर
सकेंगे। इसके
दोहरे परिणाम
होंगे। एक तो
ऊर्जा बहुत
सक्रिय और सघन
हो जाएगी।
पवित्र
आत्माओं को
जन्म देने के
लिए अत्यंत शक्तिशाली
बिंदु चाहिए।
निर्बल बिंदु
काम नहीं कर
सकते। तो जिस संभोग
के पहले
वर्षों का
ब्रह्मचर्य
है, वही
संभोग
शक्तिशाली
आत्मा के लिए
प्रवेश देने
में समर्थ हो
सकता है।
फिर
जब वर्षों के
ध्यान के बाद
किसी दिन कोई
संभोग में जा
सकेगा, यानी
ध्यान आज्ञा
देगा कि जा
सको, तब
स्वभावत: वह
क्षण
पवित्रता का
क्षण होगा।
क्योंकि अगर
वह अपवित्रता
का थोड़ा भी रह
गया होता, तो
अभी ध्यान ने
आशा न दी होती।
ध्यान जब आशा
देता है कि
ध्यान के बाद
भी संभोग में
जाने की
संभावना बनती
है, तब
उसका अर्थ ही
यही है कि अब
संभोग ने भी
एक पवित्रता
ले ली है।
उसकी अपनी एक
डिवाइननेस, अपनी
भगवत्ता हो गई।
अब इस भगवत्ता
के क्षण में
वे दो व्यक्ति
जब जाते हैं
संभोग में, उचित होगा
कि हम कहें कि
अब वे शारीरिक
तल पर नहीं
मिल रहे हैं, अब यह मिलन
बहुत आत्मिक
है। शरीर भी
बीच में है, लेकिन मिलन शारीरिक
नहीं है। शरीर
भी मिल रहे
हैं, लेकिन
मिलन गहरा है
और आत्मिक है।
तो
पवित्र आत्मा
को अगर जन्म
देना हो, तो वह
सिर्फ
बायोलाजिकल
घटना नहीं है,
सिर्फ
जैविक घटना
नहीं है। दो
शरीर के मिलने
से तो सिर्फ
हम एक शरीर को
जन्मने की
सुविधा देते
हैं। लेकिन जब
दो आत्माएं भी
मिलती हैं, तब हम एक
विराट आत्मा
को उतरने की
सुविधा देते
हैं।
महावीर
या बुद्ध के
जन्म इसी तरह
के जन्म हैं।
जीसस का जन्म
तो और भी
अदभुत है।
इनके संबंध
में थोड़ी बात
समझनी उचित है।
महावीर या
बुद्ध के जन्म
पूर्व घोषित
जन्म हैं, जिनकी
प्रतीक्षा
वर्षों से की
जा रही थी। और
पूर्व
घोषणाओं ने सब
सूचनाएं दी
हैं। यहां तक
सूचना है कि
महावीर के
जन्म के पहले
उनकी मां को
कितने स्वप्न
आएंगे। पहला
स्वप्न क्या
होगा, दूसरा
क्या होगा, तीसरा क्या
होगा, चौथा
क्या होगा। यह
महावीर का
पिछला जन्म
घोषित करके
गया है।
महावीर अपने
पिछले जन्म
में यह घोषणा
करके गए हैं
कि मेरा अगला
जन्म इतने
स्वप्नों के
साथ होगा। जहां
इतने स्वप्न
घटित हों, समझना
कि मैं
प्रविष्ट हुआ
हूं। तो पूरे
प्रतीक दे गए
हैं। सफेद
हाथी दिखाई
पड़ेगा या कमल
दिखाई पड़ेगा
या और कुछ, ये
सारे प्रतीक
हैं। वे सारे
प्रतीक दे दिए
गए हैं। उनकी
प्रतीक्षा की
जा रही थी कि
कौन स्त्री कब
घोषणा करे कि
उसके ये —ये
स्वप्न पूरे
हो गए।
बुद्ध
के लिए भी
प्रतीक दिए गए
हैं। और जब
बुद्ध का जन्म
हुआ,
तो दूर
हिमालय से एक
संन्यासी आया।
जो कि
प्रतीक्षा कर
रहा है और बड़ा
चिंतित है कि
मैं मर न जाऊं।
ऐसा न हो कहीं
कि बुद्ध पैदा
न हो पाएं और
मैं मर जाऊं।
और जब वह
भिक्षा
मांगने आया, तो उसने
बुद्ध के पिता
को कहा कि घर
में नया बच्चा
आया है, मैं
उसके दर्शन
करना चाहता
हूं। तो पिता
तो बहुत हैरान
हुए, क्योंकि
वह संन्यासी
बहुत
ख्यातिनाम था।
उसकी बड़ी
प्रसिद्धि थी,
उसके
हजारों भक्त
थे। उसकी बड़ी
ख्याति थी, उसकी बड़ी
कीर्ति थी, वह बड़ा
दिव्य पुरुष
था। उसने कहा,
मैं दर्शन
करना चाहता
हूं। तो पिता
तो बहुत हैरान
हुए, लेकिन
फिर खुश भी
हुए। क्योंकि
पत्नी ने भी
स्वप्न कहे थे
कि ये स्वप्न
आए हैं और फिर
दूसरे दिन यह
संन्यासी उपस्थिति
हुआ पहले दिन
के बच्चे को
देखने के लिए।
और
पहले दिन का
बच्चा
संन्यासी के
सामने लाया गया, तो
संन्यासी
छाती पीटकर
रोने लगा। तो
बुद्ध के पिता
तो बहुत घबड़ा
गए। उन्होंने
कहा कि क्या
कोई अपशकुन है?
आप रोते हैं?
संन्यासी
ने कहा, तुम्हारे
बेटे के लिए
कोई अपशकुन
नहीँ है। रोता
हूं अपने लिए
कि वह आदमी
पैदा हो गया जिसके
चरणों में
बैठने से
कल्पों—कल्पों
का आनंद मिल
सकता था।
लेकिन मेरे तो
मरने का वक्त
आ गया है और
अभी तो इसे
देर है कि यह
बड़ा हो, प्रकट
हो। इतनी देर
मैं न रुक
सकूंगा। मेरे
जाने का क्षण
आ गया।
जब
जीसस का जन्म
हुआ,
तो सारी
दुनिया में
प्रतीक्षा की
जा रही थी।
विशेषकर सारे
मध्य एशिया
में
प्रतीक्षा की
जा रही थी। और
सूचना थी कि
विशेष रूप से
चार तारे
प्रकट होंगे
जब जीसस का
जन्म होगा। और
जिन लोगों को
भी उस सीक्रेट
का पता था.. न्।
हिंदुस्तान
से भी एक आदमी
जीसस के जन्म
पर बधाई देने
गया था। एक
आदमी इजिप्ट
से गया था। दो
आदमी और दूसरे
देशों से गए
थे। ये चारों
आदमी जब इनको
चार तारे
दिखाई पड़े आकाश
में, जिनको
इसकी सूचना थी
कि इन चार
तारों के साथ
जीसस का जन्म
होने वाला है,
तो ये भागे
उस बच्चे की तलाश
में कि वह
बच्चा कहां है।
और पहले से यह
प्रतीक शइचत
किया गया था
कि जो इन
तारों को
पहचान लेंगे,
तारे मार्ग
दिखाएंगे।
तारे आगे
भागते गए और
यात्री पीछे
गए।
हेरोथ
को,
जो सम्राट
था जीसस के
वक्त में,,. इजिप्ट
से जो ज्ञानी
उन तारों की
खोज में गया था,
वह पहले हेरोथ
के पास गया और
उसने जाकर
सम्राट हेरोथ
को कहा कि
तुम्हें पता
नहीं, सम्राट
पैदा हो गया!
पर हेरोथ तो
समझ ही नहीं सकता
था कि यह
सम्राट का
क्या मतलब है।
उसने तो समझा
कि उसका कोई
दुश्मन पैदा
हो गया, उसे
कोई समाप्त कर
देगा। इसलिए
उसने जेरूशलम
में जितने
बच्चे पैदा
हुए थे सब
कटवा दिए।
लेकिन यह खबर
मरियम तक
पहुंच गई और
वह लेकर भाग
गई बच्चे को।
यह खबर पहले
ही पहुंच गई
थी, वह
पहले ही भाग
गई थी। जीसस
का जन्म एक
अस्तबल में
हुआ, जहां
घोड़े बंधे थे
और गंदगी पड़ी
थी और जहां कोई
रोशनी नहीं थी।
वहां छिपकर एक
अस्तबल में
जीसस का जन्म
हुआ।
जीसस
के जन्म की
कथा बुद्ध और
महावीर के
जन्म की कथा
से भी एक अर्थ
में विशेष है।
और वह विशेषता
यह है, जैसे
तुम पूछ रहे
हो कि ऐसे
महान पुरुषों
को जन्म देना
हो तो क्या
करना पड़े।
जीसस की आत्मा
को जन्म लेना
था। मां तो
उपलब्ध थी, लेकिन बाप
उपलब्ध नहीं
था। और बड़ी
जिच पैदा हो
गई थी। मरियम
तो इस योग्य
थी कि जीसस को
जन्म दे सके, लेकिन मरियम
का पति इस
योग्य नहीं था
कि जीसस को
जन्म दे सके।
इसलिए आज तक
कहा जाता है
कि जीसस
कुंवारी मरियम
से पैदा हुए।
उसे कहने का
कारण है। बाप
बेमानी था, वर्जिन से
पैदा हुए, कुंवारी
से पैदा हुए।
उसे कहने का
कारण है।
इसलिए
एक अशरीरी
आत्मा को जीसस
के पिता में
प्रवेश करना
पड़ा,
जिसको वे
होली घोस्ट
कहते हैं। और
जीसस के पिता
के माध्यम से
एक दूसरी
आत्मा जीसस के
पिता की जगह
मौजूद रही।
जीसस के पिता
मौजूद नहीं थे,
शरीर मौजूद
था। जैसा
मैंने कहा कि
शंकर ने किसी
शरीर में
प्रवेश किया,
ऐसे ही एक
आत्मा ने जीसस
के पिता में
प्रवेश किया
और जीसस का
जन्म हुआ।
इसलिए जीसस का
पिता कह सका
कि मेरा तो
कोई हाथ ही
नहीं। उसे तो
कोई पता भी
नहीं है। कब
क्या हुआ, उसे
कुछ मालूम
नहीं। मरियम
कुंवारी ही है
उसकी दृष्टि
में और
कुंवारी को
बेटा हुआ है।
वह बेहोश था
पूरा। उसके
शरीर का सिर्फ
एक माध्यम की
तरह उपयोग किया
गया है।
लेकिन
क्रिश्चियनिटी
को यह सूत्र
साफ नहीं है।
इसलिए
क्रिश्चियन
पुरोहित
बेचारा किसी
तरह सिद्ध
करता रहता है
कि नहीं, वह
वर्जिन से
पैदा हुए।
लेकिन उसे कुछ
पता नहीं कि
वर्जिन से
पैदा होने का
मतलब क्या है।
वह सिद्ध कर
भी नहीं पाता।
और
जीसस के खिलाफ
पश्चिम में जो
सबसे बड़ी बात कही
जाती रही है
और जिसका
उत्तर
जीसस
को माननेवाला
नहीं दे पाया, वह
यह है कि
कुंवारी लड़की
से बेटा पैदा
कैसे हो सकता
है? यह
अवैज्ञानिक
है। यह बात
ठीक है, कुंवारी
लड़की से बेटा
पैदा नहीं हो
सकता, लेकिन
यह बेटा
कुंवारी लड़की
से इस अर्थ
में पैदा हुआ
था कि इसका
पिता गैर
मौजूद था, सिर्फ
माध्यम था।
इसके पिता का
कांशसली पिता
होना नहीं था
इस घटना में।
उसे कुछ भी
पता नहीं था, उससे सिर्फ
एक
इंन्यूमेंट
का काम लिया
गया है और
घटना को
जुटाना पड़ा है।
बहुत
बार ऐसा हुआ
है कि बहुत—सी
श्रेष्ठ
आत्माएं पैदा
होना चाहती
हैं,
लेकिन
श्रेष्ठ गर्भ
हम नहीं जुटा
पाते। और आज
तो बहुत मुश्किल
हो गया है, श्रेष्ठ
गर्भ जुटाना
करीब—करीब
असंभव हो गया
है। क्योंकि
गर्भ का
विज्ञान ही खो
गया है। आज
जिसको हम
गर्भाधान कह
रहे हैं, वह
बिलकुल ही
पशुओं जैसा है।
उस गर्भाधान
में कोई
विज्ञान नहीं
है। अब
जिन्होंने
इसका सारा
खयाल किया था,
उन्होंने
सारी बात तय
की थी। जैसे, घड़ी और पल—पल
का हिसाब रखा
था। विशेष
घड़ियों में, विशेष
क्षणों में.......
जैसा हमको
अंदाज नहीं
होता साधारणत:।
आपको
शायद पता नहीं
होगा कि
पूर्णिमा के
दिन अधिकतम
लोग पागल होते
हैं। अमावस के
दिन सबसे' कम
लोग पागल होते
हैं। अभी तक
विज्ञान साफ
नहीं कर पाता
कि बात क्या
है। जरूर पूरा
चांद हमारे
भीतर
विक्षिप्तता
को लाता है।
जैसे वह
समुद्र में
उठाव लाता है,
ऐसे ही कुछ
हमारी चित्त
की वृत्तियों
में भी विक्षिप्तता
की तरफ उठाव
लाता है।
अंग्रेजी में
एक शब्द है
लूनाटिक, उसका
मतलब होता है
चांदमारा।
कार यानी चांद,
और लूनाटिक
यानी चांदमारा।
चांद का हमला
हुआ है, जो
आदमी पागल हो
गया है उस पर।
प्रत्येक
चौबीस घंटे की
प्रत्येक घड़ी
और पल का
हिसाब है कि
प्रत्येक घड़ी
और पल के बीच
इस पृथ्वी पर
किस तरह के
प्रभाव
उपलब्ध हैं।
उन विशेष
प्रभावों में
अगर गर्भाधान
होगा, तो
परिणाम बहुत
भिन्न होंगे।
अगर उन विशेष
घड़ियों में
गर्भाधान
नहीं होगा, तो परिणाम
बहुत विपरीत
हो सकते हैं।
सारा ज्योतिष
इसी खयाल से
निकला कि कब
गर्भाधान हुआ
है! वह ठीक घड़ी—पल
क्या है!
क्योंकि उस
घड़ी—पल के
प्रभाव कुछ
खबर दे सकेंगे।
कम से कम मोटी—मोटी
सूचनाएं मिल
सकेंगी कि उस
घड़ी—पल में
क्या हो सकता
है।
तो
घड़ी और पल का
भी,
समय का बोध।
संभोग के पहले
ध्यान की
सामर्थ्य।
संभोग के
पूर्व वर्षों
का
ब्रह्मचर्य—मेरी
ब्रह्मचर्य
की धारणा का
खयाल रखना, दबाया हुआ
नहीं, रोका
हुआ नहीं; आया
हुआ, घटा
हुआ—फिर
प्रार्थनापूर्ण
हृदय से संभोग
में गति और
पवित्र
आत्माओं के
लिए आमंत्रण।
क्योंकि बहुत
आत्माएं
उपलब्ध हैं और
आत्माओं के
बीच भी निरंतर
गर्भ में
प्रवेश के लिए
पूरी होड़ है।
उसमें आप अगर
विशेष
आत्माओं को
निमंत्रण दे सकते
हैं, तो
परिणाम
ज्यादा
सुस्पष्ट हो
जाएंगे। फिर
नौ महीने तक
उस बच्चे को पेट
में एक विशेष
मानसिक और
आध्यात्मिक
वातावरण
चाहिए।
जैसे
महावीर की मां
बहुत विशेष
हालतों में रखी
गयीं। बुद्ध
की मां बहुत
विशेष हालतों
में रखी गयीं।
बुद्ध के जन्म
के पहले तो यह
भी सूचना थी
कि वह खड़ी हुई
स्त्री से ही
पैदा होंगे।
घर के भीतर
पैदा नहीं
होंगे, घर के
बाहर पैदा
होंगे। यह
अजीब—सी बात
थी। तो एक साल
वृक्ष के नीचे
मायके जाती
हुई बुद्ध की
मा वृक्ष के
नीचे खड़ी हैं
और बुद्ध का
जन्म हुआ, खुले
आकाश के नीचे।
आमतौर
से बच्चे
अंधेरे में
पैदा हो रहे
हैं। और आमतौर
से संभोग जो
है वह अंधेरे
कक्षों में चोरी
से,
घबडाए हुए,
अपराधपूर्ण
भाव से घटित
हो रहा है।
उसके परिणाम
दुखद होने
वाले हैं।
यानी वह कुछ
पाप है, कोई
अपराध है, जो
चोरी—छिपे
कहीं घटित हो
रहा है, जिसका
किसी को पता न
चले। उसके लिए
मुक्ति, सरलता,
पवित्रता
अनिवार्य है।
छोटी
—छोटी चीजें
परिणाम
लाएंगी। कमरे
के रंग परिणाम
लाएंगे, कमरे
की आभा परिणाम
लाएगी। कमरे
की गंध परिणाम
लाएगी। उस
सबके लिए पूरा
का पूरा
विज्ञान है।
और गर्भाधान
के पूरे
विज्ञान का
प्रयोग किया
जाए, तो
मनुष्य की
संतति को आमूल
रूप से
रूपांतरित किया
जा सकता है।
छोटी—छोटी
बातें फर्क
लाएंगी।
अभी
एक वैज्ञानिक
छोटा—सा
प्रयोग कर रहा
है जो आमूल
परिवर्तन ला
देगा। उसने एक
छोटा —सा
बेल्ट बनाया
है जो कि
गर्भवती
स्त्री के पेट
पर बांध दिया
जाएगा।
आकस्मिक, कोई
बीमार स्त्री
के लिए बेल्ट
बांधा गया था
किसी कारण से,
लेकिन
बच्चे पर
अभूतपूर्व
परिणाम हुआ।
उस बेल्ट की
वजह से बच्चे
का जहां सिर
था, उस पर
दबाव पड़ा और
बच्चे का जो
बुद्धि— अंक
है, आई.
क्यू. है, बहुत
ज्यादा बढ़ा
हुआ पैदा हुआ।
उसका बुद्धि —
अंक बहुत बढ़
गया। यह
आकस्मिक घटना
हो गई थी, मस्तिष्क
के किसी खास
चक्र पर दबाव
पड़ गया। फिर
तो अब
व्यवस्थित
रूप से उसने
बहुत—से
प्रयोग किए
हैं। क्योंकि
एक तो सहज भी
हो सकता है कि
वह बच्चा उतनी
बुद्धि का
पैदा होने
वाला था।
लेकिन अब उसने
सैकड़ों प्रयोग
करके सिद्ध
किया है कि
मां की गर्भ
की अवस्था में
पेट के विशेष
स्थान पर डाले
गए दबाव बच्चे
की बुद्धि में
परिवर्तन ले
आते हैं।
तो
बहुत—से आसन
हैं जो विशेष
दबाव के लिए
हैं। बहुत—सी
श्वास की
प्रक्रियाएं
हैं जो विशेष
दबाव के लिए
हैं। बहुत —से
शब्दों के
उच्चारण हैं
जो विशेष दबाव
के लिए हैं।
वे सब बच्चे
की प्रतिभा को, स्वास्थ्य
को, उसकी
सामर्थ्य को,
उसकी
संभावनाओं को
पूरा का पूरा
प्रकट होने में
सहयोगी बनते
हैं।
अभी
तक आदमी और न
जाने कितने
उपद्रव की
चीजें खोज रहा
है,
लेकिन जो
बहुत जरूरी है
कि मनुष्य
अपना भविष्य
खोजे, वह
बहुत कम खोज
रहा है। लेकिन
यह सब एकदम
संभव है। और
जैसे ही एक
बच्चा मां के
भीतर प्रवेश
करता है, तो
उस बच्चे की
क्या—क्या
संभावनाएं हो
सकती हैं, उसका
परिदर्शन मां
में भी होना
शुरू हो जाता
है। यह दोहरी
प्रक्रिया है।
अगर मां क्रोध
करती है इन
दिनों में, तो बच्चा
क्रोधी होगा।
और अगर एक
क्रोधी आत्मा
भीतर आई हो, तो मां जो
कभी क्रोध
नहीं करती थी,
क्रोध करती
मालूम पड़ने
लगेगी। यह भी
बहुत सूचक है।
और इस सूचना
को देखकर भी
प्रयोग किए जा
सकते हैं कि
उस बच्चे के
क्रोध को अभी
से बीज से
बदला जाए।
आज
भी पृथ्वी पर
बहुत —सी
आत्माएं जन्म
ले सकती हैं
जो अजन्मी हैं।
बड़ी अजीब हालत
हो गई है। कुछ
ऐसी हालत हो
गई है जैसे
कोई
युनिवर्सिटी हो
और वह कुछ
लोगों को बी. ए.
तक पढ़ा कर छोड़
देती हो और
फिर एम. ए. का
कोई कोर्स न
हो उस
युनिवर्सिटी
में और रिसर्च
करने के लिए
कोई सुविधा न
हो। और बहुत
से बी ए. हो गए
विद्यार्थी
घूमते हों कि
कहां वे एम. ए.
करें, कहां वे
रिसर्च करें।
यह
हमारी पृथ्वी
एक सीमा तक
कुछ लोगों की
प्रतिभा और
आत्मा को
विकसित करके
छोड़ देती है
और उसके बाद
के लिए हमारे
पास कोई
इंतजाम नहीं
है। उसके बाद
के लिए इंतजाम
सुनियोजित
रूप से जुटाया
जा सकता है।
बिलकुल ऐसी
संभावनाएं और
स्थितियां
पैदा की जा
सकती हैं
जिनमें
श्रेष्ठतम
आत्माएं
प्रवेश पा सकें।
दो —चार
बुनियादी
शब्द दोहरा
दूं।
पहली
बात,
यौन के संबंध
में हमारा
दृष्टिकोण
रुग्ण, बीमार
और खतरनाक है।
यौन की
पवित्रता जब
तक स्वीकृत
नहीं होगी पृथ्वी
पर, तब तक
हम बहुत
नुकसान
पहुंचाते
रहेंगे। यौन
के पूर्व जब
तक ध्यान
संयुक्त नहीं
होगा, तब
तक यौन पाशविक
रहेगा, मानवीय
नहीं बन सकता।
और संभोग के
पूर्व जब तक
लंबा
ब्रह्मचर्य न
होगा, तब
तक शक्तिशाली
वीर्याणु
निर्मित नहीं
होता, इसलिए
शक्तिशाली
आत्माओं को
जन्म नहीं
दिया जा सकता।
एक
आखिरी प्रश्न
और पूछ लें।
भगवान
श्री आपने एक
बार कहा है कि
पचास साल के भीतर
पृथ्वी पर यदि
कृष्ण
क्राइस्ट
बुद्ध और महावीर
जैसे लोग न
हुए तो सारी
मनुष्यता मृत
हो सकती है और
विवेकानंद की
तरह यह भी कहा
कि मैं सौ
व्यक्तियों
की खोज में
हूं जो
साहसपूर्वक
प्रयोग कर
आत्मा की उच्चतम
ऊंचाइयों पर
जा सके तो इस
मुल्क को और
पूरी
मनुष्यता को
बचाना संभव हो
सकेगा। और
इसके लिए मैं
गांव— गांव
जाकर खोजता
हूं ऐसी आंखों
को जो ज्योति
बन सकती हैं
मैं तो पूरा
श्रम करने को
तैयार हूं? मेरी
तरफ से पूरी
तैयारी है
भीतर ले जाने
की देखना है
कि मरते वक्त
मैं भी कहीं
यह न कहूं कि सौ
आदमी खोजता था
वे मुझे नहीं
मिले
तुम्हारी तैयारी
है तो आ जाओ
कृपया 'मेरी
तैयारी' और
'तुम्हारी
तैयारी' का
अर्थ स्पष्ट
करें क्या—
क्या
तैयारियां
करनी चाहिए? कैसी करनी
है तैयारी? कृपया इसे
समझाएं।
तुम्हारी
ही तैयारी का
अर्थ समझाऊं, क्योंकि
मेरी तैयारी
मुझे करनी है।
उससे तो
तुम्हें कोई
प्रयोजन नहीं।
और मुझे कोई
तैयारी नहीं
करनी है, तैयारी
है! तुम्हारी
तैयारी क्या
है? तीन
बातें हैं। एक
तो हजारों साल
ने हमें
विश्वासी बना
दिया है, खोजी
नहीं। एक
बिलीविंग
माइंड पैदा हो
गया, एक
इक्वायरिंग
माइंड नहीं।
तो हम विश्वास
कर लेते हैं, लेकिन खोजते
नहीं हैं। और
इस जगत में जो
भी
महत्वपूर्ण
है मिलने को, वह बिना
खोजे कभी भी
नहीं मिलता है।
और सब मिल भी
जाए, कम से
कम स्वयं का
होना तो बिना
खोजे नहीं मिलता।
तो एक तो
जिज्ञासा से
भरा हुआ चित्त
चाहिए।
जिज्ञासा से
भरा हुआ चित्त
पहली तैयारी
है।
शायद
तुम कहोगे कि
जिज्ञासा है।
हम पूछते हैं, सवाल
पूछते हैं।
लेकिन ध्यान
रहे ऐसी जिज्ञासाए
हैं जो सिर्फ
उत्तर की तलाश
में हैं। इनको
मैं जिज्ञासा
नहीं कहता हूं।
जिज्ञासा ऐसी
चाहिए जो
सिर्फ उत्तर
की तलाश में
नहीं है, जो
अनुभव की तलाश
में है। उत्तर
तो कोई दूसरा
दे देगा, अनुभव
तो कोई दूसरा
नहीं दे सकता।
तो लोग हैं, जो पूछते
हुए मालूम
पड़ते हैं —और
ऐसा लगता है
कि उनका पूछना
धार्मिक है—पूछते
हुए मालूम
पड़ते हैं कि
ईश्वर है या
नहीं? मोक्ष
है या नहीं? लेकिन ऐसा
लगता है कि वे
उत्तर खोज रहे
हैं। कोई
उन्हें उत्तर
दे दे। और अगर
उत्तर की कोई
खोज में है, तो आज नहीं
कल विश्वास कर
लेगा।
क्योंकि
उत्तर खोजने
वाला ज्यादा
कठिनाई उठाने
के लिए तैयार
नहीं है। वह
कहता है, कोई
मिल जाए, जिसमें
मैं विश्वास
कर लूं, तो
बस मुझे उत्तर
मिल जाए, मैं
तृप्त हो जाऊं।
मेरे
पास कोई भी
उत्तर नहीं है
किसी को देने
को। और उत्तर
में मेरी
उत्सुकता
नहीं है। और
अगर मैं थोड़े —बहुत
उत्तर की भाषा
में बोलता भी
हूं तो वह
इसीलिए कि
कहीं उत्तर को
खोजने वाले
बिलकुल भाग ही
न जाएं। थोड़ी
देर रुके रहें।
उनको थोड़ी देर
रोक लूं ताकि
शायद उनके
प्रश्न की और
उत्तर पाने की
आकांक्षा को
तोड़कर उनमें
अनुभव पाने की
आकांक्षा का
बीज भी जगाया
जा सके।
लोग
तो हैं जो
पूछते हैं, लेकिन
ऐसे लोग नहीं
हैं जो जानना
चाहते हैं।
उत्तर बड़ी
सस्ती चीज है।
किताबों में
मिल जाता है।
गुरुओं के पास
लिखा हुआ है।
उत्तर बिलकुल
बौद्धिक बात
है। पूरे जीवन
से, टोटल
लिविंग से
उसका कोई
वास्ता नहीं
है। अनुभव की
तलाश, अनुभव
की जिज्ञासा
चाहिए।
उदाहरण के लिए
मैं तुम्हें एक
घटना बताऊं।
तिब्बत
में एक फकीर
हुआ मिलारेपा।
जब मिलारेपा
अपने गुरु के
पास गया, तो
नियम था
तिब्बत में कि
पहले गुरु की
तीन परिक्रमा
करो, फिर
सात बार झुककर
नमस्कार करो,
फिर
शिष्टतापूर्वक
एक कोने में
बैठो और जब समय
आए और गुरु
पूछे कि क्या
पूछना है, तब
पूछो। जब
मिलारेपा
अपने गुरु के
पास गया, तो
जाकर उसने
सीधे गुरु की
गरदन पकड़ ली—न
तो तीन चक्कर
लगाए, न
सात बार झुका,
न
शिष्टतापूर्वक
किसी कोने में
बैठा—उसने
जाकर गुरू की
गरदन पकड़ ली
और कहा कि
जल्दी बोलो, क्या
तुम्हें
बोलना है? क्योंकि
मुझे तो यह भी
पता नहीं है
कि मैं क्या
पूछूं! कहा कि
मुझे तो यह भी
पता नहीं है
कि मैं क्या
पूछूं? लेकिन
इतना मुझे पता
है कि मुझे
कुछ भी पता नहीं
है। तुम्हें
कुछ बोलना हो,
तो बोलो। तो
गुरु ने कहा
कि थोड़ी
शिष्टता का
व्यवहार करो।
तुम्हें
भलीभाति
मालूम होगा कि
तीन परिक्रमाएं
करो, सात
बार सिर झुकाओ,
कोने में
शिष्टतापूर्वक
बैठकर पूछो।
उसने कहा, वह
मैं पीछे
करूंगा। अगर
मैं सात बार
झुकने में और
तीन बार चक्कर
लगाने में और
शिष्टतापूर्वक
बैठने में मर
गया, तो
कौन
जिम्मेवार
होगा? अगर
मैं मर गया, तो तुम
जिम्मेवार
रहोगे कि मैं
जिम्मेवार रहूंगा?
अगर तुम
वायदा करते हो
कि इस बीच मैं
नहीं मरूंगा,
तो मैं सात
नहीं, सात
सौ चक्कर लगा
सकता हूं।
पहले उत्तर दे
दो, फिर
फुर्सत से यह
काम कर लेंगे,
शिष्टता
पीछे भी निभाई
जा सकती है।
उसके गुरु ने
कहा कि बैठो।
तुम ऐसे आदमी
आए जिसको
उत्तर की खोज
नहीं, अनुभव
की खोज है। और
अच्छा हुआ कि
तुमने चक्कर
नहीं लगाए।
क्योंकि वह
चक्कर हमने
उन्हीं के लिए
रखे हैं, जो
लगा सकते हैं।
वह उन्हीं के
लिए इंतजाम है।
जब वे लगाते
हैं तभी हम
समझ जाते हैं
कि बेकार आदमी
आ गया, जिसके
पास चक्कर
लगाने की
फुर्सत है।
तो
पहला तत्व जो
मैं अपेक्षा
करता हूं वह
है जिज्ञासा
अनुभव की—उत्तर
की नहीं, फिलासफी
की नहीं, दर्शन
की नहीं—प्राणों
की। सिर्फ
जानने की नहीं,
पाने की।
सिर्फ पाने की
भी नहीं, होने
की। तो यह तो
पहली बात है।
दूसरी
बात,
जब हम कुछ
पाने चले हैं,
जब भी हम
कुछ पाने को
निकलते हैं, तब हमें कुछ
खोना पड़ता है।
इस जगत में
बिना खोए कुछ
भी नहीं मिलता
है। लेकिन धन
खोने से सत्य
नहीं मिलेगा,
कितना ही धन
खो दो। न तो धन
के होने से
सत्य खरीदा जा
सकता है न धन के
खोने से खरीदा
जा सकता है।
कुछ लोग हैं, जो समझते
हैं, धन
बहुत होगा तो
खरीद लेंगे।
कुछ लोग हैं, जो समझते
हैं, धन का
त्याग कर
देंगे तो मिल
जाएगा। लेकिन
दोनों ही
सोचते हैं कि
धन से खरीद
लेंगे। धन से
सत्य नहीं मिल
सकता। असल में
हमारे पास
क्या है उसे
खोने से सत्य
नहीं मिल सकता,
जब तक कि हम
अपने को खोने
को तैयार न हो—हैविग
को खोने से
नहीं, बीइंग
को खोने से
मिल सकता है।
क्या हमारे
पास है, उसको
खोने से नहीं
मिलेगा। क्या
हम हैं, उसको
खोने की
हिम्मत चाहिए।
तो
दूसरा तत्व है
कि क्या हम
अपने को खोने
को,
देने को
तैयार हैं? और ऐसा नहीं
है कि देना
पड़ता है, क्योंकि
सत्य आपको
किसलिए
मांगेगा!
सिर्फ देने की
तैयारी काफी
होती है। सिर्फ
तैयारी, देना
बन जाती है।
आप तैयार हैं
कि बात खतम हो
जाती है। पर
आपकी तैयारी
पूरी होनी
चाहिए कि हम
अपने को खो
सकें। और जो
अपने को नहीं
खो सकता है, वह इस
महायात्रा पर
नहीं निकल
सकता।
दूसरा
तत्व...... हम और
कुछ खोने को
सदा तैयार हैं।
एक आदमी कहता
है कि मैं घर
छोड़ दूंगा, एक
आदमी कहता है
कि मैं मां —बाप
को छोड़ दूंगा,
पत्नी छोड़
दूंगा, बेटा
छोड़ दूंगा, धन छोड़
दूंगा, लेकिन
कोई आदमी आकर
यह नहीं कहता
कि मैं अपने को
छोड़ दूंगा। और
जब तक कोई
नहीं आकर कहता
है कि मैं
अपने को छोड़
दूंगा, तब
तक सत्य के
जगत में कोई
गति नहीं है।
क्योंकि क्या
पत्नी आपकी है
जिसको आप छोड़
रहे हैं? कोई
पति नहीं कह
सकता कि पत्नी
मेरी है।
चौबीस घंटे
में चौबीस बार
पता चलता है
कि मेरी नहीं
है। जो मेरा
नहीं है, उसे
हम छोड़ रहे
हैं, हम
धोखा दे रहे
हैं। किसको
धोखा दे रहे
हैं? धन
आपका है? जो
आप कहते हैं, हम छोड़
देंगे। आपके
सिवाय आपके
पास और है
क्या? तो
जो है, उसे
तो छोड़ने की
बात नहीं करते,
जो है ही
नहीं, उसे
छोड़ने की बात
करते हैं।
उससे नहीं कुछ
हो सकता।
दूसरी
अपेक्षा है, स्वयं
को छोड़ने का
साहस। और
तीसरी
अपेक्षा, तीसरी
तैयारी है—प्रतीक्षा,
अनंत
प्रतीक्षा और
धैर्य। असल
में यह यात्रा
ऐसी है कि
यहां जो कोई
कहे कि अभी
चाहिए, वह
जरा बचकानी
बात कर रहा है।
ऐसा नहीं है
कि अभी नहीं
मिल सकता। अभी
मिल सकता है, लेकिन वह
उसी को मिलता
है जो अभी
नहीं मांगता,
जो कहता है
कभी मिले, हम
राजी हैं। अभी
भी मिल जाता
है, लेकिन
उसको, जो
कहता है कभी
भी मिला तो हम
प्रतीक्षा के
लिए राजी हैं।
धैर्य चाहिए।
और धैर्य
बिलकुल नहीं
रह गया है।
दुनिया
में धर्म के
कम होने का और
कोई कारण नहीं
है,
धैर्य का कम
हो जाना है।
क्योंकि
धैर्य धर्म की
आधारभूत जड़ है।
सिर्फ
धैर्यवान ही
धार्मिक हो
सकता है।
क्योंकि इस
जगत में और सब
चीजें नगद हैं।
धर्म बिलकुल
ही दिखाई नहीं
पड़ता, हाथ
से स्पर्श में
नहीं आता, तिजोरी
में बंद नहीं
किया जा सकता,
बैंक—बैलेंस
में नहीं रखा
जा सकता, कोई
सेफ डिपाजिट
में बंद करके
ताला लगाकर घर
में आराम से
सोया नहीं जा
सकता। धर्म
एकमात्र ऐसी
चीज है कि
जिसके पास
धैर्य हो, वही
उसकी खोज के
लिए राजी हो
सकता है।
और
धर्म के साथ
बडी कठिनाई यह
है कि वह
टुकड़ों में
नहीं मिलता है
कि अभी एक इंच
मिल गया, कल दो
इंच मिल गया, तो थोड़ी आशा
बंधी रहती है।
अधैर्यवान को
भी बंधी रहती
है कि कोई
फिक्र नहीं, आज एक रुपया
मिला, तो
कल दो भी मिल
सकते हैं। कल
दो मिले, तो
परसों चार भी
मिल सकते हैं।
जब चार मिलते
हैं, तो
अरब भी मिल
सकते हैं।
नहीं, धर्म
या तो मिलता
है तो मिलता
है, नहीं
मिलता है तो
नहीं मिलता है।
दोनों के बीच
कोई बंटवारा
नहीं होता।
जिस दिन मिलता
है, एकदम
मिल जाता है, विस्फोट हो
जाता है उसका।
और जब तक नहीं
मिला, तब
तक कुछ भी
नहीं होता।
घनघोर अंधकार
ही बना रहता
है।
उस
अंधकार के
क्षण में
जिनके पास
धैर्य नहीं है, वे
कुछ और खोजने
लगते हैं जो
अभी मिल सकता
है। वे कंकड़—पत्थर
बीनने लगते
हैं, जो
अभी मिल सकते
हैं, यहीं
पड़े हैं। धन
खोजने लगते
हैं, यश
खोजने लगते
हैं, जो
मिल सकता है, जिसकी
ज्यादा दूरी
नहीं मालूम
पड़ती, यह
रहा....। और एक
सुविधा है जगत
की सब चीजों
में कि आप उनको
फ्रैगमेंट्स
में, इंसटालमेंट्स
में, हिस्सों
में हैं।
पा
सकते हैं।
धर्म को आप
इसटालमेंट्स
में नहीं पा
सकते।
तो
प्रतीक्षा
तीसरा तत्व है
— अनंत
प्रतीक्षा, इनफिनिट
पेसेंस, अवेटिंग।
कठिन है बहुत,
क्योंकि
हमारा मन कहता
है कि पता
नहीं, मिलेगा
कि नहीं
मिलेगा। पता
नहीं, हम
व्यर्थ तो
नहीं बैठे हैं।
पता नहीं, अब
तो काफी देर
हो गई, अब
उठ जाएं। पता
नहीं, इतनी
देर में हम और
क्या कमा लेते,
इतनी देर
में और क्या
कर लेते। वह
चूक गया और
यहां कुछ मिला
नहीं। ऐसा जो
अधैर्य से भरा
हुआ चित्त है,
यह थिर ही
नहीं हो पाता।
असल में
अधैर्य के साथ
शांति का कोई
संबंध नहीं है।
अधैर्य के साथ
संतुलन का कोई
संबंध नहीं है।
अधैर्य का
अर्थ है अशांति,
अधैर्य का
अर्थ है चहल—पहल।
अधैर्य का
अर्थ है
चंचलता, अधैर्य
का अर्थ है
भाग —दौड़। तो
ऐसा चित्त चूक
जाएगा।
धैर्य
का अर्थ है
जैसे सागर ठहर
गया है, एक
लहर भी नहीं
है, दर्पण
बन गया है। और
मजा यह है कि
चांद तो सदा
ऊपर है, अगर
सागर जरा
दर्पण बन जाए
तो अभी पकड़ ले।
लेकिन सागर है
लहरों से भरा,
तो चांद को
नहीं पकड़ पाता।
सत्य तो सदा
मौजूद है, परमात्मा
चारों तरफ
निकट है, अभी
और यहीं।
लेकिन
हमारा वह जो
अधैर्य से भरा
हुआ चित्त है —डावांडोल, डोलता
हुआ, कापता
हुआ वेवरिंग,
उसमें कोई
पकड़ नहीं बैठ
पाती। उसमें
प्रतिफलन
नहीं बन पाता,
वह दर्पण
नहीं बन पाता।
प्रतीक्षा
बना देती है
दर्पण चेतना
को। और जिस
दिन हम दर्पण
बन जाते हैं, उसी दिन सब
मिल जाता है।
क्योंकि सब तो
सदा ही मौजूद
था, सिर्फ
हम मौजूद नहीं
थे। दर्पण
होकर हम मौजूद
हो जाते हैं।
और जैसे ही हम
दर्पण बने, तो जो मौजूद
है वह दिखाई
पड़ जाता है।
ये
तीन शर्तें आप
पूरी करें। ये
तीन शर्तें
पूरी हों तो
बात पूरी हो
गई। बाकी जो
होना है, वह तो
बड़ी सरलता से
हो जाएगा। असल
में कठिनाई
कुछ ऐसी है कि
मैं पानी लिये
आपके सामने
खड़ा हूं और
आपसे कह रहा
हूं कि जरा आप
हाथ दोनों
बांध लें कि
मैं पानी
डालूं तो आपके
हाथ में चुल्ल
बन सके। आप
दोनों हाथ
खोले हुए खड़े
हैं। थोड़े हाथ
बंध जाएं, थोड़े
आप ठहर जाएं, खड़े हो जाएं
बंधकर एक क्षण
को भी, तो
वह डाला जा
सकता है। और
कोई मैं उसे
डाल रहा हूं
ऐसी भ्रांति
में न पड़े।
जैसे ही आपका
हाथ बंध जाता
है, वह उतर
आता है। मैं
भी उसका एक
गवाह ही हो
सकता हूं? इससे
ज्यादा कुछ
नहीं हो सकता।
एक साक्षी हो
सकता हूं,
गवाही दे सकता
हूं कि ही, ठीक
है, इस
आदमी ने हाथ
बांधे और घटना
घट गई।
सच
में इनीसिएशन
का इतना ही
अर्थ है, दीक्षा
का इतना ही
अर्थ है। आदमी
कैसे किसी
दूसरे आदमी को
दीक्षा देगा?
दीक्षा तो
सदा परमात्मा
से ही मिलती
है। ही, इतना
ही हो सकता है
कि जो थोड़ा
आगे गया है, वह गवाह बन
सकता है। वह
कह सकता है कि
ही, ठीक है,
हाथ ठीक से
बंध गए हैं, दीक्षा हो
जाएगी।
मेरी
तरफ किसी खास
तैयारी की
जरूरत नहीं है।
तुम्हारी
तैयारी पूरी
है,
तो मैं गवाह
बन सकता हूं।
और तुम्हारी
तैयारी के तीन
सूत्र मैंने
कहे। इनको
सोचो मत, इनको
जीने की कोशिश
से ये तीनों
सूत्र तत्काल पकड़
लिये जा सकते
हैं। सोचा तो
खोया, सोचा
कि चूके। जरा—सा
विचार और हम
चूक जाते हैं।
सोचो मत। इन
तीन सूत्रों
को समझ लो कि
उत्तर की तलाश
तो नहीं है
भीतर। अनुभव की
तलाश पर ध्यान
दो कि मैं
सिर्फ कोई
बौद्धिक
सिद्धात
खोजने तो नहीं
निकला हूं कि
परमात्मा ने
दुनिया बनाई
या नहीं बनाई!
बनाई भी हो तो
क्या फर्क
पड़ता है, नहीं
भी बनाई हो तो
क्या फर्क पड़ता
है। मैं सच
में कोई अनुभव
खोजने निकला
हूं? इसको
साफ कर लो
अपने भीतर।
अच्छा
होगा, अगर
अनुभव खोजने न
निकले हो, तो
यह भी साफ हो
जाना अच्छा
होगा कि मुझे
सिर्फ उत्तर
की ही खोज है, तब भी एक बात
साफ होगी और
एक आनेस्टी
पैदा होगी। तब
कम से कम
अनुभव की झंझट
में हम नहीं
पड़ेंगे, उत्तरों
को समझ लेंगे,
मामला खतम
करेंगे।
और
ध्यान रहे, जिसको
यह भी पता चल
जाए कि मैं
सिर्फ उत्तर
की खोज में
निकला हूं,
उसको फौरन यह
पता चल जाएगा
कि मैं बेकार
की खोज में
निकला हूं।
शब्दों में
दिए गए उत्तर
का करूंगा
क्या? शब्दों
से न पेट भरता
है, न भूख
मिटती है, न
प्यास बुझती
है। शब्दों से
कुछ भी नहीं
होता। नदी पार
करनी है तो
नाव चाहिए, शब्दकोश की
नाव काम नहीं
करेगी। और अगर
किताब लेकर
नदी के किनारे
पहुंच गए, जिसमें
लिखा है, नाव
और नाव यानी
नदी को पार
करने वाली चीज,
तो किताब भी
डूबेगी, आप
भी डूबेंगे और
नदी हसेगी कि
कैसा पागल
आदमी है। अगर
किताब की नाव
से ही पार
करना था, तो
किताब की नदी
में ही कर
लेना था। असली
नदी में किताब
की नाव लेकर
नहीं आना चाहिए।
तो किताब में
नाव भी बना ली
होती और किताब
में नदी भी बना
ली होती, तो
काम चल जाता।
तो
अगर उत्तर की
ही खोज है, तो
फिर किताब ही
काफी है। फिर
जिंदगी में
कुछ करने की
कोई जरूरत
नहीं है। मगर
यह अगर साफ हो
जाए, तो आज
नहीं कल किताब
से ऊब पैदा हो
जाएगी, आज
नहीं कल शब्द
बेकार मालूम
पड़ने लगेगा, सब सिद्धात
कचरा मालूम
पड़ने लगेंगे,
सब शास्त्र
उतारने जैसे
लगने लगेंगे
कि अब इनको
कंधों से नीचे
उतारो, और
अनुभव की खोज
शुरू हो जाएगी।
लेकिन
ईमानदारी से
अपने भीतर साफ
कर लेना जरूरी
है कि मैं
क्या खोज रहा
हूं। यह कोई
कौतूहल है या
जिज्ञासा है?
यह सिर्फ
जिज्ञासा है
या मुमुक्षा
है? मुमुक्षा
का मतलब, अनुभव
की जिज्ञासा।
दूसरी
बात कि मैं
क्या देने को
तैयार हूं। यह
अपने भीतर
निर्णय करने
की बात है।
अगर परमात्मा
आज सामने खड़ा
हो जाए और
मुझसे मांगे
कि तू क्या—क्या
दे सकता है
मेरे बदले में, मैं
तुझे खुद देने
को तैयार हूं।
परमात्मा कहे
कि मैं तैयार
हूं तेरे पास
आने को, तू
मुझे क्या
देने को तैयार
है? आप
अपने खीसे में
से रुपए
निकालकर
गिनेंगे! अधिक
लोग गिनेगे।
सोचेंगे, पांच
का दें, दस
का दें। या आप
क्या देना
चाहेंगे? क्या
ऐसे क्षण में
आप अपने को दे
सकेंगे और परमात्मा
को कह सकेंगे,
मेरे पास
मेरे सिवाय और
क्या है?
अगर
यह आपको साफ
हो जाए, तौ
दूसरा सूत्र
आपकी जिंदगी
को बदलने वाला
हो जाएगा कि
मैं अपने को
देने को तैयार
हूं। यह सिर्फ
आपकी सफाई
होनी चाहिए, बस काफी है।
आपको यह साफ
हो जाना चाहिए
कि वक्त आए तो
मैं अपने को
दे सकता हूं।
इसमें मैं चूक
न जाऊंगा। यह
न कहूंगा कि
थोड़ी देर ठहरो।
मैं घर पूछ
आऊं, कि
मैं जरा
मित्रों से
बात कर लूं कि
अभी कैसे दे
सकता हूं। अभी
दो —चार दिन और
रुक जाएं।
लडके की? शादी
हो जाने दें।
यह स्पष्ट हो
जाए कि मैं
अपने को दाव
पर लगा सकता
हूं!
धर्म
से बड़ा कोई
जुआ नहीं है।
बाकी सब जुए
बड़े छोटे हैं।
कुछ आप लगाते
हैं और हारते
हैं,
कुछ लगाते
हैं, कुछ
जीतते हैं। आप
सदा बाहर रहते
हैं। धर्म के
दाव पर आप ही
लग जाते हैं।
और हार —जीत
नहीं होती, क्योंकि जब
आप ही लग गए, तो कौन
हारेगा, कौन
जीतेगा! दाव
पर आप हैं। अब
कोई जीत—हार
का उपाय नहीं
है। अब तो गए।
तो यह साफ कर
लें।
और
तीसरा यह साफ
कर लें कि
इतनी अनंत की
खोज पर जब हम
निकले हों, तो
इसमें बच्चों
जैसा अधैर्य
काम नहीं
करेगा। इसमें
अनंत धैर्य
चाहिए। और जो
अनंत धैर्य के
लिए राजी है, उसे
अभी
मिल जाता, यहीं
मिल जाता।
इन
तीन बातों को
थोड़ा मन में
साफ करें, तो
तैयारी होती
चली जाएगी।
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