अध्याय—17
सूत्र:
अशास्त्रविहितं
धीरं
तप्यन्ते ये
तपो जना:।
दम्भाहंकारसंयुक्ता:
कामरागबलान्त्तिता:।।
5।।
कर्शयन्त:
शरीरस्थं
भूतग्राममचेतस:।
मां
चैवान्त:शरीरस्थं
तान्विद्धय्यासुरीनश्चयान्।।
6।।
और है
अर्जुन,
जो मनुष्य
शास्त्र— विधि
से रहित केवल
मनोकल्पित
घोर तप को तपते
हैं तथा दंभ
और अहंकार से
युक्त एवं
कामना, आसक्ति
और बल के
अभिमान से भी
युक्त हैं
तथा जो शरीररूप
से स्थित भूत—
समुदाय को और
अंत:करण में
स्थित मुझे
अंतर्यामी को
भी कृश: करने
वाले है,
उन अज्ञानियों
को तू आसुरी
स्वभाव वाला
जान।
पहले
कुछ प्रश्न।
जैसे—जैसे
भगवान की
प्रतीति होती
है,
विरह बढ़ता
है। जैसे—जैसे
निकट आते हैं,
वैसे—वैसे
दूरी खलती है।
जितने पास आते
हैं, उतनी
ही पीड़ा होती
है। क्योंकि
पास आने पर ही
पहली दफा पता
चलता है कि अब
तक सारा जीवन
व्यर्थ ही
गंवाया। और
पास आने पर ही
पता चलता है
कि इतनी थोड़ी—सी
दूरी भी अब
बहुत दूरी है।
जिसे
स्वाद लग गया, उसे
ही तो पीड़ा
होती है। जिसे
स्वाद ही न
लगा, उसे
पीड़ा भी कैसे
होगी? तुमने
जिसे थोड़ा जान
लिया, उसी
को तो जानने
की प्यास पैदा
होती है। जिसे
तुमने बिलकुल
नहीं जाना, उसकी खोज भी
कैसे पैदा
होगी?
जब
तुम्हें
परमात्मा
बिलकुल सामने
दिखाई पड़ने
लगे,
तभी
तुम्हारी
विरह की अग्नि
अपनी
प्रगाढ़ता में
जलेगी। इसलिए
तो भक्त रोते
हैं, अभक्त
थोड़े ही रोते
हैं! अभक्त तो
प्रफुल्लित दिखाई
पड़ते हैं। संसार
में, बाजार
में, दुकान
पर, तुमने
अभक्तों को
रोते देखा? वे तो
तुम्हें
हंसते हुए
मुस्कुराते
हुए मिल जाएंगे।
उन्हें तो उस
पीड़ा का कोई
पता ही नहीं, जो परमात्मा
के द्वार पर
अनुभव होती है।
प्रेमियों
को रोते देखा
जाता है, अप्रेमियों
को नहीं।
प्रेम रुलाता
है, क्योंकि
प्रेम
निखारता है।
और आंसुओ को
दुर्भाग्य मत
समझना, वे
सौभाग्य के
लक्षण हैं। और
परमात्मा की
पीड़ा जब
तुम्हें
जलाने लगे, मंथने लगे, मारने लगे, तब समझना कि
सौभाग्य की
आखिरी घड़ी
करीब आ गई।
क्योंकि
परमात्मा जब
तुम्हें मार
ही डालेगा तुम्हारे
विरह में, तभी
तुम्हारे
भीतर उसका
प्रवेश हो
सकेगा। जब तुम
अपनी ही विरह
की अग्नि में
पूरे जलकर भस्मीभूत
हो जाओगे, तभी
उस भस्म से नए
का आविर्भाव
होगा। वह फिर
तुम्हारे
भीतर भी भगवान
का रूप है।
भक्त
मिटता है, तो
भगवान पूरी
तरह उपलब्ध
होता है।
तुम्हारे
मिटने में ही
संभावना है।
लेकिन
स्वभावत:
प्रश्न उठता
है कि भगवान
सामने हो, तो
विरह समाप्त
हो जाना चाहिए।
लेकिन विरह
भगवान के
सामने होने से
समाप्त नहीं
होता। जब तुम
भगवान को पी
ही जाओगे, जब
वह सामने न
होगा, तुम्हारे
भीतर हो जाएगा।
जैसे कोई
प्यासा नदी के
किनारे आ गया।
किनारे पर खड़े
होने से थोड़े
ही प्यास
बुझती है, नदी
में उतरना
पड़ेगा। नदी
में उतरने से
भी प्यास नहीं
बुझती, नदी
को अपने भीतर
उतारना पड़ेगा।
तो
जैसे—जैसे नदी
दिखाई पड़ने
लगेगी, वैसे—वैसे
प्यास प्रगाढ़
होने लगेगी।
अब तक तो किसी
तरह सम्हाला,
अब सम्हाले
भी न सम्हलेगी।
जैसे—जैसे नदी
पास आने लगेगी,
वैसे—वैसे
तुम्हारा कंठ
और भी जोर से
आकुल होने लगेगा।
पानी को पास
देखकर दबी हुई
प्यास उभरकर
उठ आएगी। पानी
को पास देखकर
अब तक किसी
तरह मन को
समझाया था, अब समझाया न
जा सकेगा। अब
तक किसी तरह
बांध—बूंधकर
चल लिए थे, अब
सब व्यवस्था
टूट जाएगी। अब
तो पागल की
तरह दौड़ शुरू
होगी।
लेकिन
ठीक किनारे पर
भी आकर तो
प्यास नहीं
बुझती। नदी
में खड़े होकर
भी तो प्यास
नहीं बुझती।
जब तक कि
परमात्मा और
तुम एक ही न हो
जाओ,
कि पानी
तुम्हारे खून
में न बहने
लगे; कंठ
में नहीं, तुम्हारे
हृदय में न
उतर जाए, तब
तक प्यास नहीं
बुझती।
परमात्मा और
तुम्हारे बीच
जब तक इंचभर
का भी फासला
है, तब तक
तुम जलोगे।
उतना फासला भी
अनंत फासला है।
और पास आकर ही
दूरी पता चलती
है। तुम इसे
विरोधाभास मत
समझना। दूरी
जब रहती है, तब तो पता ही
नहीं चलती।
क्योंकि
तुम्हें यही
पता नहीं कि
कोई परमात्मा
है, किसी
की खोज करनी
है। रोओगे
किसके लिए?
रोने
के पहले थोड़ा
स्वाद लग जाना
जरूरी है, थोड़ी
भनक पड़ जानी
जरूरी है।
रोने के पहले
उसकी याद आ
जानी जरूरी है।
लेकिन
याद कैसे आएगी
अगर उसे
बिलकुल न जाना
हो?
दूर से ही
देखी हो उसकी
छवि, लेकिन
तुम्हारे
सपनों में समा
जानी चाहिए।
फिर तुम सो न
सकोगे; फिर
तुम जाग न
सकोगे, फिर
दिन और रात
बेचैनी से भर
जाएंगी।
कबीर
ने कहा है कि
वह परमात्मा
का प्यासा
निशि—बासर
जागे। वह न सो
सकता है, न जाग
सकता है। उसकी
बेचैनी का
हिसाब नहीं है।
विरह की अग्नि
भयंकर हो जाती
है। एक ही
पुकार उठने
लगती है। सारा
प्राण एक ही
पुकार से भर
जाता है।
प्यास कंठ में
ही नहीं होती,
रोएं—रोएं
में समा गई
होती है।
इसलिए
भक्तों को ही
रोते देखा गया
है,
परम भक्तों
को ही विरह से
जार—जार देखा
गया है। लेकिन
वह सौभाग्य का
क्षण है। उन आंसुओ
को तुम
दुर्भाग्य
समझ लोगे, तो
भूल हो जाएगी।
उन आंसुओ की
गलत व्याख्या
मत कर लेना, क्योंकि
बहुत गलत
व्याख्या
करके वापस भी
लौट जाते हैं।
क्योंकि ऐसी
नदी से क्या
लेना—देना, जिसके पास
जाकर प्यास
बढ़ती हो। हम
तो इसी खयाल
से नदी के पास
आए थे कि
प्यास बुझ
जाएगी। ऐसे जल
को क्या करना;
जिसके पास
आने से आग
बढ़ती हो। भय
पकड़ ले सकता
है। और भय यह
भी कह सकता है
कि जिस जल के
पास आने से प्यास
बढ़ रही है, उसे
भूलकर पी मत
लेना। नहीं तो
लपटें ही
लपटें हो
जाएंगी। भाग
जाओ।
बहुत
लोग परमात्मा
के द्वार से
लौट गए हैं।
उन्होंने आंखें
बंद कर लीं।
उन्होंने
अपने को किसी
तरह सम्हाल
लिया। गिरने
को ही थे, मिलने
को ही थे, जरा—सा
ही फासला था, एक कदम काफी
हुआ होता, लेकिन
वे लौट गए।
फिर जन्मों—जन्मों
तक भटकते हैं।
इसलिए ठीक—ठीक
व्याख्या बड़ी
अर्थपूर्ण है,
जब कोई घटना
घटे। और गुरु
का मूल्य
इन्हीं सब
आयामों में है
कि वह तुम्हें
ठीक व्याख्या
दे सकेगा। जब
तुम्हारे पैर
उखड़ रहे होंगे,
तब वह
उन्हें जमा
सकेगा। जब तुम
भागने की
तैयारी कर
लोगे, वह
तुमसे कहेगा,
जरा और, और
सुबह होने के
करीब है।
मंजिल पास है,
और तू भागा
जा रहा है!
उस
वक्त जरा—सा
सहारा चाहिए
कि कोई
तुम्हें पकड़
ले,
कोई
तुम्हारे
पैरों को रोक
दे। लौट न पड़ो
तुम कहीं।
कहीं तुम गलत
व्याख्या न कर
लो।
और
तुमसे गलत
व्याख्या की
ही संभावना है।
सही व्याख्या
तुम कर कैसे
सकोगे? तुम्हारा
तर्क तो यही
कहेगा कि हट
जाओ ऐसी जगह
से। जहां पास
जाने से आग
बढ़ती हो, यहां
से दूर ही हो
जाओ।
मेरे
पास बहुत लोग
आते हैं, वे
कहते हैं, इतनी
अशांति ध्यान
के पहले न थी!
अशांति
का भी पता तभी
चलता है, जब
तुम थोड़े शांत
होने लगते हो।
अशांति को
जानेगा कौन? सारी दीवाल
काली हो, तो
जरा—सी भी
सफेद रेखा
खींच दो, तो
सफेद रेखा भी
उभरकर दिखाई
पड़ती है और
दीवाल भी
उभरकर दिखाई
पड़ती है।
क्योंकि
विपरीत में
प्रतीति होती
है।
तुम
अशांत ही रहे
हो,
अशांति
तुम्हारा
स्वभाव हो गई
है, अशांति
के अतिरिक्त
तुमने कभी कुछ
जाना नहीं, इसलिए अशांति
को भी कैसे
जानोगे? विपरीत
चाहिए।
कंट्रास्ट
चाहिए। कुछ और
तुम जानी, तो
तुलना हो सके।
इसलिए ध्यान
करते ही अशांति
बढ़ती है।
लोग
चकित होते हैं, क्योंकि
वे ध्यान की
खोज में आए थे
सोचकर कि शांति
बढ़ेगी। शांति
नहीं बढ़ती, शुरू में तो
अशांति बढ़ती
है। कहना ठीक
नहीं है कि अशांति
बढ़ती है। अशांति
तो थी, पहले
उसका पता न
चलता था, अब
पता चलता है।
और जैसे—जैसे
शांति बढ़ेगी,
वैसे—वैसे
पता चलेगा।
जैसे—जैसे तुम
जागोगे, वैसे—वैसे
पता चलेगा कि
कितने सोए
रहे!
सोए
आदमी को पता
ही नहीं चलता
कि वह सो रहा
है,
जागे को पता
चलता है। सुबह
जिसकी नींद
टूटने लगी, जो करवट
बदलने लगा, और जिसे भनक
पड़ने लगी आस—पास
की जागती
दुनिया की—बरतन
बजने लगे, दूध
वाले दूध
बेचने लगे, सड़क चलने
लगी—जिसे थोड़ी
भनक भी पड़ने
लगी, अब जो
सोया भी नहीं
है, जागा
भी नहीं है, जो बीच में
खड़ा है, संध्याकाल
आ गया, उसे
पता चलता है
कि रातभर सोए
रहे।
जागते
क्षण में पता
चलता है नींद
का,
शांत होने
पर पता चलता
है अशांति का।
आनंद जब उतरने
के करीब होगा,
तब तुम
जानोगे कि
कैसे महादुख
से तुम आए हो।
स्वर्ग के
द्वार पर
तुम्हें पता
चलेगा कि अब तक
की यात्रा नरक
में हुई।
स्वर्ग के
द्वार पर ही
पता चलेगा।
उसके पहले पता
न चलेगा; क्योंकि
विपरीत जरूरी
है।
परमात्मा
के करीब
पहुंचकर
तुम्हें अपने
सारे
अस्तित्व का
सारा संताप
सघनीभूत होकर
पता चलता है; इसलिए
विरह बढ़ता है।
उस विरह में
गलत व्याख्या
मत करना। वह
सौभाग्य है।
उस सौभाग्य के
क्षण को, उन
आंसुओ को, विरह
को आंनदभाव से,
अहोभाव से
स्वीकार करना।
रोना, लेकिन
नाचना बंद मत
करना।
आंसू
टपके, लेकिन
पैर नाचे। आंखें
विरह से भरी
हों, लेकिन
हृदय मिलन की
आकांक्षा से,
मिलन की आशा
से। कंठ में
प्यास हो, लेकिन
हृदय में
भरोसा हो कि
नदी करीब आ गई।
क्षणभर की देर
और है।
और
जब इतनी
प्रतीक्षा कर
ली,
तो यह क्षण
भी बीत जाएगा।
अनंत कल्प बीत
गए, सृष्टियां
बनीं और उजड़ी
और तुम प्यासे
बने रहे, उतना
सह लिया, जन्मों—जन्मों
इतनी यात्रा
की, मंजिल
कभी करीब न आई;
भटकते ही
रहे, वह सब
हो गया, अब
क्षणभर के लिए
क्या घबड़ाहट
है! हृदय
आश्वासन से
भरा रहे। वहीं
तुम्हारी
आस्था काम
आएगी; वहीं
तुम्हारी
श्रद्धा का
पता चलेगा।
क्योंकि उस
क्षण में बहुत
लोग भाग गए
हैं।
गुरु
के बिना
इसीलिए
कठिनाई है।
गुरु के बिना
भी कभी—कभी
कोई उपलब्ध हो
जाता है, पर
कभी—कभी। उसको
हम अपवाद मान
ले सकते हैं।
अन्यथा गुरु
के बिना कोई
उपलब्ध नहीं
होता।
क्योंकि ऐसे
पड़ाव आते हैं,
जहां कौन
तुम्हें
भरोसा दे? ऐसे
पड़ाव आते हैं,
जहां कौन
तुम्हारा हाथ
पकड़कर
तुम्हें रोक
ले? ऐसे
पड़ाव आते हैं,
जहां कि
क्षणभर भी अगर
ठीक व्याख्या
न मिले, तो
अनंत काल के
लिए भटकाव
पुन: शुरू हो
जाएगा। और जो
व्यक्ति एक
बार परमात्मा
के मंदिर से वापस
लौट आता है, वह सदा—सदा
के लिए उस
मंदिर की
यात्रा को बंद
कर देता है।
उस तरफ जाने
से भय लगता है।
मेरी
अपनी प्रतीति
यही है कि इस
संसार में जिनको
तुम नास्तिक
मानते हो, वे
वे ही लोग हैं,
जो कभी
परमात्मा के
मंदिर के पास
से वापस लौट गए
हैं। अब वे
नास्तिक हो गए
हैं। अब वे
कहते हैं, परमात्मा
है ही नहीं।
वे किसी और को
नहीं समझा रहे
हैं; वे
अपने को ही
समझा रहे हैं।
वह जो उपद्रव
उन्होंने
परमात्मा के
पास अनंत काल
की यात्रा में
कभी जाना होगा,
वह जो विरह,
उसने
उन्हें इतना
घबड़ा दिया है
कि उस घबड़ाहट
में अब सिर्फ
एक ही बचाव है
कि वे अपने को
समझा लें कि
परमात्मा है
ही नहीं, इसलिए
खोज किसकी
करनी है? उसका
मंदिर है कहां?
यही संसार
सब कुछ है।
कहीं जाना
नहीं है।
वे
दूसरों को
नहीं समझा रहे
हैं। जब
नास्तिक तर्क
देता है और
कहता है कि
ईश्वर नहीं है, तो
वह तुम्हें
नहीं समझा रहा
है, वह
अपने को समझा
रहा है कि
कहीं पैर फिर
से उस रास्ते
पर न मुड़ जाएं।
वह डरा हुआ है
अपने से कि
कहीं फिर कोई
वह आग न जला दे,
कहीं फिर
कोई छू न दे उस
घाव को पुन:, फिर कहीं वह
विरह न पैदा
हो जाए; और
फिर कहीं मैं
उस तरफ न चल
पडुं जहां से
भाग आया हूं।
रवींद्रनाथ
की एक छोटी—सी
कविता है, कि
मैं खोजते —खोजते
एक दिन
परमात्मा के
द्वार पर
पहुंच गया।
अनंत काल तक
खोजा। जब तक
नहीं पाया था,
तब तक बड़ी
खोज थी। कितना
भटका, कितने
श्रम किए, कितने
साधन किए! और
फिर आज जब
द्वार पर खड़ा
हो गया, तो
मन एकदम उदास
हो गया। हाथ
में सांकल उठा
ली थी, बजाने
को था, दस्तक
देने को ही था
कि तत्क्षण
खयाल आया, फिर
क्या करोगे? जब परमात्मा
मिल जाएगा, फिर क्या
करोगे?
भय
पकड़ गया, रोआं—रोआं
कैप गया। फिर
क्या करेंगे?
अपना अब तक
जो भी करने का
जाल था, वह
सब व्यर्थ हो
जाएगा। अपनी
यात्रा
समाप्त हो गई।
फिर करोगे
क्या? फिर
कुछ करने को
बचता नहीं।
परमात्मा का
अर्थ है वैसी
दशा, जिसके
पार पाने को
कुछ नहीं, करने
को कुछ नहीं, होने को कुछ
नहीं।
परमात्मा का
अर्थ है, पूर्ण
विराम।
मन
घबड़ा गया। वही
मन,
जो खोजता था,
खोजने के
लिए राजी था।
क्योंकि काम—धंधा
था, व्यस्तता
थी और अहंकार
को एक तृप्ति
भी थी कि खोज
रहा हूं
परमात्मा को।
और दूसरे तो
मूढ़ हैं, धन
को खोज रहे
हैं। दूसरे
नासमझ हैं, पद को खोज
रहे हैं।
दूसरे
अज्ञानी हैं,
व्यर्थ को
खोज रहे हैं, असार को खोज
रहे हैं। मैं
सार की खोज पर
निकला हूं; मैं परम
गुह्य की खोज
पर निकला हूं;
मैं
रहस्यों के
लोक में जा
रहा हूं।
अहंकार बड़ा
तृप्त था, संतुष्ट
था।
द्वार
पर खड़े होकर
परमात्मा के
घबड़ाहट आ गई, पैर
कंप गए कि यह
तो खतरा है!
खोज समाप्त हो
जाएगी! करने
को कुछ बचेगा
नहीं! अहंकार
के लिए कोई जमीन
न रह जाएगी
खड़े होने को!
रवींद्रनाथ
ने बड़ा अदभुत
गीत लिखा है, किसी ने कभी
नहीं लिखा।
इसलिए
रवींद्रनाथ
में बड़ी
अनुभूतियां
थीं, बड़ी
सूझें थीं। यह
आदमी असाधारण
था। यह आदमी
सिर्फ कवि
नहीं था; यह
आदमी ऋषि था।
जैसे उपनिषद
के ऋषि हैं।
रवींद्रनाथ
के वचन वैसे
ही समझे जाने
चाहिए, जैसे
उपनिषद के वचन।
रवींद्रनाथ
नया उपनिषद है।
उनको साधारण
कवि मत समझ
लेना, जो
कवि
सम्मेलनों
में कविता कर
रहा है और
तालियां सुन
रहा है। उनको
तुम कोई काका
हाथरसी मत समझ
लेना। वे ऋषि
हैं। बड़े गहरे
प्रगाढ़ अनुभव
से उनकी
प्रतीति निकली
है।
रवींद्रनाथ
ने कहा है कि
यह देखकर मैं
भाग खड़ा हुआ।
मैं इतना डर
गया कि मैंने
सांकल भी धीरे
से छोड़ी कि
कहीं अनजान
में बज न जाए।
और मैं इतना
डर गया कि
मैंने जूते, जिनको
पहने हुए मैं
मंदिर की
सीढ़िया चढ़ गया
था, हाथ
में ले लिए; कि कहीं
पदचाप भीतर
सुनाई न पड़
जाए; कहीं
वह द्वार खोल
ही न दे और कहे,
आओ। कहीं वह
आलिंगन कर ही
ले, तो
मिटे। फिर कोई
बचाव न रहेगा।
और फिर उसको
सामने खड़ा
देखकर भागना
भी अशोभन
मालूम होगा।
गीत
का आखिरी पद
कहता है कि उस
दिन से जो
भागा हूं,
तो बस उस
मंदिर की राह
को छोड्कर सब
राहों पर घूमता
हूं। फिर मेरी
खोज जारी है।
लोगों को कहता
हूं परमात्मा
खोज रहा हूं
योग कर रहा
हूं ध्यान कर
रहा हूं। और
मुझे पक्का
पता है कि वह
कहां है। उस
जगह को भर
छोड्कर सब जगह
खोजता हूं।
नास्तिक
मेरे लिए वही
आदमी है, जिसको
कोई बहुत गहन
पीड़ा का अनुभव
किसी जन्म में
हो गया। वह
पीड़ा इतनी
भयंकर थी कि
वह दोबारा
उसको पुनरुक्त
नहीं करना
चाहता। वह
अपने को
समझाता है, परमात्मा है
ही नहीं। वह
अपने को तर्क
देता है। वह
अपने चारों
तरफ तर्क का
एक जाल
निर्मित करता
है। वह अपने
ही खिलाफ
षड्यंत्र
रचता है। वह
किसी दूसरे का
धर्म बिगाड़ने
को नहीं है, न तुमसे उसे
कुछ मतलब है।
अन्यथा
तुम सोचो, ऐसे
नास्तिक हैं
जो जीवनभर, ईश्वर नहीं
है, यह
सिद्ध करने
में समय
व्यतीत करते
हैं। है ही
नहीं जो, उसके
लिए तुम अपना
जीवन क्यों
खराब कर रहे
हो? तुम
कुछ और कर लो।
ईश्वर तो है
ही नहीं, बात
खतम हो गई।
लेकिन जीवनभर
व्यतीत करते
हैं!
मेरी
अपनी प्रतीति
यह है कि कभी—कभी
भक्तों को भी
वे मात कर
देते हैं।
भक्त भी इतनी
संलग्नता से
जीवन व्यतीत
नहीं करता
परमात्मा के
लिए,
जितना
नास्तिक करते
हैं। लिखते
हैं, सोचते
हैं, तर्क
जुटाते हैं, समझाते हैं,
शास्त्र
लिखते हैं बड़े—बड़े
कि ईश्वर नहीं
है।
इस
सब के पीछे
कुछ
मनोविज्ञान
होना चाहिए।
जो है ही नहीं, उसकी
कौन फिक्र
करता है? कोई
तो सिद्ध नहीं
करता कि आकाश—कुसुम
नहीं होते। कोई
तो सिद्ध नहीं
करता कि गधे
को सींग नहीं
होते। इसको
क्या सिद्ध
करना है! और जो
सिद्ध करे, वह गधा।
क्योंकि इसको
क्या प्रयोजन
है? गधे को
सींग नहीं
होते, यह
जाहिर बात है,
खतम हो गई।
इसको कोई भी
सिद्ध करने की
जरूरत नहीं है।
लेकिन
ईश्वर नहीं है, अगर
ईश्वर भी ऐसा
है जैसे कि
गधे के सींग
नहीं हैं, तो
क्या पागलपन
कर रहे हो!
किसको सिद्ध
कर रहे हो? किसके
लिए लड़ रहे हो?
क्या
प्रयोजन है? सिद्ध भी कर
लोगे, तो
क्या सार है? जो था ही
नहीं, उसको
तुमने सिद्ध
कर लिया कि वह
नहीं है, क्या
पाया? कहीं
और जीवन ऊर्जा
को लगाते, कहीं
और खोजते।
लेकिन
नास्तिक के
पीछे एक
ग्रंथि है। वह
ग्रंथि यह है
कि अगर वह
सिद्ध न करे
कि ईश्वर नहीं
है,
तो डर है कि
कहीं फिर कदम
उसी तरफ न
उठने लगें। यह
बड़ी अचेतन
प्रक्रिया है।
यह उसके अनकांशस
में है। उसे
भी पता नहीं
है।
इसलिए
जब भी कोई
नास्तिक मेरे
पास आ जाता है, तो
मैं उसमें रस
लेता हूं।
क्योंकि मैं
जानता हूं यह
कभी करीब तक
पहुंचा हुआ
आदमी है। इसकी
यात्रा बस
पूरे होने के
करीब थी। यह
दया के योग्य
है। इस पर
नाराज मत होना।
यह करुणा के
योग्य है। और
यह वहां
पहुंचा है, जहां बहुत—से
आस्तिक कभी
नहीं पहुंचे
हैं। एक छलांग,
एक क्षण और,
और सुबह हो
गई होती। इस
पर श्रम करने
जैसा है। यह
लड़ने जैसा
नहीं है। इसका
विरोध करने
जैसा नहीं है।
इसकी आलोचना
करने जैसी
नहीं है। इसे
तो पूरे प्रेम
में ले लेने
जैसा है। किसी
भांति इसे फिर
से याद आ जाए, तो एक क्षण
में यह फिर
वहीं खड़ा हो
सकता है, जहां
से भागा था।
क्योंकि
जो भी हमने
अनंत जन्मों
में पाया है, उसे
हम भूल जाएं, खो नहीं
सकते। वह जीवन
का नियम ही
नहीं है। जो
तुमने जान
लिया है, उसे
तुम भूल सकते
हो, खो
नहीं सकते।
उसकी
विस्मृति कर
सकते हो, उसे
छिपा सकते हो
भीतर गहन में,
गहन अचेतन
में दबा सकते
हो कि तुम्हें
भी दिखाई न
पड़े, तुम
ऐसा छिपा सकते
हो कि भीतर
रोशनी भी लेकर
जाओ, तो
उसका पता न
चले। लेकिन
तुम उसे मिटा
नहीं सकते। जो
जान लिया गया,
वह जान लिया
गया। वह चेतना
का अमिट अंग
हो जाता है।
इसलिए
नास्तिक
क्षणभर में
आस्तिक हो
सकता है।
आस्तिक को आस्तिक
होने में बहुत
समय लगता है।
अभी इसे ईश्वर
का भय तो
समाया ही नहीं।
अभी यह कुतूहल
में ही है। एक
जिज्ञासा उठी
है कि शायद
ईश्वर हो; शायद
ईश्वर से आनंद
मिलता हो।
नास्तिक ऐसा
आदमी है, जिसके
बाबत गांव में
प्रचलित
कहावत सही है
कि दूध का जला
छाछ भी फूंक—फूंककर
पीता है। वह
दूध का जला है,
अब वह छाछ
भी फूंक—फूंककर
पी रहा है।
आस्तिक ऐसा
आदमी है, जो
छाछ ही पीता
रहा है। वह
गर्म दूध को
भी, जलते—उबलते
दूध को भी छाछ
की तरह पी
जाएगा। जलेगा,
तभी उसे पता
चलेगा। फिर
शायद वह भी
छाछ को भी
फूंक—फूंककर
पीने लगे।
इसलिए
भगवान के जैसे—जैसे
तुम करीब आओगे, जैसे—जैसे
तुम भक्त
बनोगे।
भक्त
का अर्थ मेरे
लिए यही है, जो
भगवान के करीब
आने लगा, जिसे
विरह की पीड़ा
सताने लगी, जिसका रोआं—रोआं
जलने लगा। जो
अब
ज्वरग्रस्त
है, जिसे
प्रेम का
बुखार है। जो
अब विक्षिप्त
है, जिसे
प्रेम की
विक्षिप्तता
ने पकड़ लिया।
इसलिए
तो कबीर अपने
को कहते हैं, कहे
कबीर दीवाना।
पागल! सारी
दुनिया के लिए
पागल। कोई
उसकी बात
सुनने को राजी
नहीं। लोग
समझते हैं
मतवाला। और
लोग उसकी पीड़ा
भी नहीं समझ
सकते। लोग
उसके आंसू भी
नहीं समझ सकते।
लोग तो दूर, वह खुद ही
नहीं समझ पाता
कि क्या हो
रहा है।। अघट
घटता है, अनहोना
होता है, अनजान
से संबंध बनते
हैं। सारा
जाना—माना जाल
टूट जाता है।
नहीं, इसमें
कुछ विरोध
नहीं है। भक्त
के सामने जब
साक्षात
भगवान होते
हैं, तभी
विरह पहली दफा
जगता है। उस
समय चाहिए
गुरु, कि
रोक ले, हाथ
पकड़ ले, सहारा
दे, भरोसा दे।
कहीं तुम भाग
न जाओ मंदिर
से। थोड़ी ही
देर की बात है।
और एक बार तुम
कूद गए नदी
में और नदी को
ले लिया तुमने
अपने में, यात्रा
पूरी हो गई।
और तभी मिलन
के आनंद की
वर्षा होती है।
पहले तो विरह
की पीड़ा है, विरह का
रेगिस्तान है,
फिर मिलन की
वर्षा है। और
यह भी तुमसे
मैं कह दूं कि
जितनी बड़ी
होगी
तुम्हारी विरह
की जलन, उतनी
ही गहन होगी
तुम्हारी
मिलन की शांति
और मिलन का
आनंद। इसलिए
अगर तुम्हें
कोई शार्टकट
बताता हो, कि
कहता हो कि हम
ऐसा रास्ता
बताते हैं कि
बिना विरह के
तुम पहुंच
जाओगे। कोई
तुम्हें कहता
हो कि नदी
जाने की क्या
जरूरत! हम
पाइप लाइन
बिछाए देते
हैं, तुम्हारे
घर में ही
टोंटी से पानी
टपकने लगेगा
परमात्मा का।
तुम उसकी मत
सुनना।
क्योंकि बिना
विरह के अगर
परमात्मा मिल
जाए. मिल नहीं
सकता, यह
आदमी धोखा दे
रहा है।
लेकिन
इसका धोखा
धंधा बन सकता
है। पंडित, पुरोहित,
पुजारी वही
कर रहे हैं।
वे कहते हैं, हम सस्ता
रास्ता बताए
देते हैं। तुम
क्यों विरह
में मरते हो? तुम घर बैठो।
हम तुम्हारे
लिए पूजा करते
हैं। वे कहते
हैं, तुम्हें
कोई यज्ञ करने
की जरूरत नहीं
है। हम कर
देंगे; तुम
सिर्फ पैसा
चुका दो। तुम
चिंता मत करो;
हम जो कहते
हैं, वैसा
करो। बाकी सब
फिक्र हम कर
लेंगे। ये
मध्यस्थ जो
हैं, वे यह
कह रहे हैं कि
हम तुम्हें
पीड़ा से बचा
देंगे विरह की।
हम तुम्हारे
लिए रो लेंगे,
हम
तुम्हारे लिए
हंस लेंगे, तुम घर बैठे
रहो; तुम
अपना धंधा
करते रहो।
भूलकर
भी इस भांति
में मत पड़ना।
क्योंकि वह
अगर ऐसा हो भी
जाए—जो हो
नहीं सकता, मान
लें हो जाए—तो
वह ऐसा ही
होगा, जैसे
बिना भूख लगे
किसी आदमी के
पेट में हम भोजन
डाल दें। कोई
तृप्ति न होगी।
तृप्ति तो
नहीं, उलटे
वमन हो जाएगा,
उलटी हो
जाएगी। जिसे
प्यास न लगी
हो, उसके
कंठ में हम
पानी उंडेल
दें। उससे पेट
की भले सफाई
हो जाए, लेकिन
तृप्ति न होगी।
यह
तो ऐसे ही है
कि जिसने कभी
विरह नहीं
जाना, उसके
द्वार पर अगर
प्रेम भी आकर
खड़ा हो जाए, तो वह कैसे
पहचानेगा? विरह
की आंखें
चाहिए। जितनी
पीड़ा भूख की, उतनी ही
तृप्ति, उतना
ही स्वाद का
रस। अगर
तुम्हारी भूख
की पीड़ा इतनी
गहन हो कि
उससे आगे पीड़ा
में जाना संभव
न हो, तो
रूखी रोटी तुम
खाओगे और
उपनिषद के वचन
तुम्हारे
हृदय में गंज
जाएंगे, अन्न
ब्रह्म! अन्न
ब्रह्म है!
अगर भूख इतनी
गहरी हो, तो
भोजन
परमात्मा हो
जाएगा। प्यास
गहरी हो, तो
जल के कणों
में, साधारण
से जल में, अमृत
की छाया पड़ने
लगेगी।
जो
साधारण जीवन
में घटता है, वही
उस असाधारण
जीवन में भी
घटता है। नियम
तो वही है।
परमात्मा
के लिए रोओ, ताकि
कभी तुम उसके
आनंद से हंस
भी सकी। उसके
लिए आंसुओ को
गिरने दो, तभी
तुम्हारे पैर
शर बांधकर
किसी दिन नाच
भी सकेंगे।
विरह का जितना
गहन तीर तुम्हारे
हृदय में
छिदेगा, उतना
ही अमृत का
झरना फूटेगा।
विरह का
अनुपात ही
मिलन के आनंद
का अनुपात है।
इसलिए
तुम घाटे में
न रहोगे। रोने
से डरना मत। आंसुओ
को रोकना मत।
पीड़ा को झेलना, पीड़ा
से बचने के
उपाय मत करना।
पीड़ा से बचने
के बहुत उपाय
हैं। लेकिन जो
पीड़ा से बच गया,
वह फिर
परमात्मा से
भी बच जाएगा।
वह फिर आनंद
से भी बच
जाएगा।
अगर
तुम इस सूत्र
को ठीक से
खयाल में रख
सकोगे, तो जब
विरह आएगा, तब तुम
सौभाग्य
समझोगे। तुम
समझोगे कि
परमात्मा
निकट है, इसलिए
विरह आया।
उसकी छाया
कहीं मेरे ऊपर
पड़ने लगी। वह
कहीं आस—पास
है। अन्यथा ये
आंसू कैसे
बहते? यह
हृदय कैसे
रोता? यह
मेरा रोआं—रोआं
कैसे तड़फता?
यह आग कैसे
जलती?
दूसरा
प्रश्न :
अहंकार
के पूर्ण
विसर्जन के
लिए आपने
शरणागति को
अत्यंत
आवश्यक बताया
और स्वयं
अहंकार इस यात्रा
के लिए राजी
नहीं हो सकता, क्योंकि
इसमें उसकी
मृत्यु निहित
है। फिर बताएं
कि शरणागति की
यात्रा किसके
द्वारा होती
है?
शरणागति
कोई यात्रा
नहीं है।
अहंकार नहीं
रह जाता, शरणागति
फलित होती है।
दीया जलाते हो
तुम घर में, घर में जो
घिरा हुआ
अंधकार था, क्या वह
द्वार—दरवाजों
से बाहर जाता
है? उसकी
कोई यात्रा
होती है? तुमने
कभी अंधेरे को
बाहर निकलते
देखा? कि
घर में दीया
जल गया, अंधेरा
बाहर जा रहा
है! खड़े रहो
द्वार पर, अंधेरा
बाहर जाता न
दिखाई पड़ेगा।
अंधेरा
कुछ है थोड़े
ही,
जो बाहर
जाता है।
अंधेरा तो
अभाव है, दीए
के न होने की
अवस्था है, अनुपस्थिति
है। अंधेरा
कुछ है थोड़े
ही। अंधेरा है
ही नहीं; उसका
कोई अस्तित्व
नहीं है।
अहंकार
अंधेरा है।
उसे कहीं जाना
थोड़े ही है।
वह जा नहीं
सकता। उसका
कोई अस्तित्व
नहीं है। वह
कोई तत्व थोड़े
ही है! इसलिए
तो हम उसे झूठ
कहते हैं, सपना
कहते हैं।
असली सवाल है,
दीए का जल
जाना।
शरणागति
कोई यात्रा
नहीं है।
क्योंकि
यात्रा अगर
होगी, तो
अहंकार मौजूद
रहेगा।
शरणागति छलांग
है, यात्रा
नहीं; एक
क्षण में घटी
घटना है।
शरणागति सडेन,
तल्ला घटी
घटना है! जैसे
दीया जला, प्रकाश
हुआ, अंधेरा
मिटा। एक क्षण
की देरी नहीं
होती।
शरणागति की
यात्रा कौन
करता है?
यात्रा
तो है ही नहीं, पहली
बात। जैसे ही
अहंकार गिरता
है, वैसे
ही शरणागति हो
जाती है, उसी
क्षण।
अहंकार
के भीतर छिपे
तुम जो हो, तुम
अहंकार ही अगर
होते, तो
परमात्मा से
मिलने का कोई
उपाय न था।
परमात्मा से
तुम मिल सकते
हो, क्योंकि
तुम परमात्मा
से ही हो।
समान ही समान
से मिल सकता
है। तुम
परमात्मा से
मिल सकते हो, क्योंकि
किसी अर्थ में
तुम अभी भी
परमात्मा हो।
पता न हो।
विपरीत का तो
मिलन कैसे
होगा! अहंकार
के गिरते ही तत्क्षण
तुम पाते हो, मिल गए।
यात्रा नहीं
होती, मंजिल
आ जाती है।
तो
असली सवाल है, अहंकार
कैसे गिरे?
तुम्हारी
चेष्टा से न
गिरेगा, क्योंकि
सभी चेष्टाएं
अहंकार की हैं।
यही जटिल जाल
है। तुम अगर
कोशिश करोगे,
तो अहंकार
ही कोशिश
करेगा, गिरेगा
नहीं। यह भी
हो सकता है कि
तुम ठोंक—ठाककर
अपने को
विनम्र बना लो।
तो भीतर से
अहंकार नई
घोषणा करेगा
कि मुझसे ज्यादा
विनम्र कोई भी
नहीं। देखो, मेरी
विनम्रता।
कैसे फूल लगे
हैं विनम्रता
के! दुनिया
में हैं और
लोग, लेकिन
मुझसे ज्यादा
विनम्र कोई भी
नहीं। बस, मैं
आखिरी हूं
विनम्रता में,
चोटी पर हूं।
यही
तो अहंकार है, जो
चोटी पर होने
की घोषणा करता
है। पहले धन
के आधार पर
करता था, पद
के आधार पर
करता था, बल
के आधार पर
करता था। अब
त्याग के आधार
पर करता है, विनम्रता के
आधार पर करता
है, साधुता
के आधार पर
करता है, संतत्व
के आधार पर
करता है।
घोषणा वही है।
चेष्टा
से अहंकार न
जाएगा।
अहंकार जाता
है अहंकार को
देखने से।
चेष्टा नहीं, सिर्फ
जांचने से, परखने से, पहचानने से,
साक्षी— भाव
से।
साक्षी—
भाव का परिणाम
है शरणागति।
तुम सिर्फ
देखते रहो
अहंकार का खेल, कुछ
करो मत। करने
की कोई जरूरत
नहीं है।
क्योंकि भीतर
जो तुम्हारे
छिपा है, वह
कर्ता है ही
नहीं, वह
साक्षी है।
तुम सिर्फ
देखो। तुम जरा
अहंकार के खेल
देखो; लीला
देखो। कैसी
लीला रचता है!
और कैसी
सूक्ष्म लीला
रचता है!
रास्ते
पर तुम जा रहे
हो अकेले, और
देखा कि पास
के मकान से दो
आदमी निकल आए।
भीतर कुछ बदल
गया। परखो इसे,
जांचो दूर
खड़े, क्या
हुआ?
अभी
ये दो आदमी
रास्ते पर
नहीं थे, तो
तुम और ढंग से
चल रहे थे।
कोई देखने
वाला न था, तो
तुम्हारा
चेहरा और था, तुम एक गीत
गुनगुना रहे
थे; एक
मस्ती थी, सरल
थे, छोटे
बच्चे की तरह
थे। अचानक दो
आदमी पास के
मकान से निकल
आए, कोई
चीज भीतर बदल
गई। अकड़ गए, बचपना चला
गया, सरलता
खो गई, चाल
बदल गई, अहंकार
आ गया।
तुम
घर में अकेले
बैठे हो, कोई
नहीं है, तब
तुम और हो।
नौकर कमरे से
गुजर गया। पता
भी नहीं चलता,
शरीर हिलता
भी नहीं, और
भीतर सब हिल
जाता है।
जांचो, परखो।
कोई
आदमी आया, कहने
लगा, आप
जैसा
बुद्धिमान
आदमी कभी नहीं
देखा। भीतर एक
छलांग लग गई।
तुम एक पहाड़
की चोटी पर चढ़
गए। जरा भीतर
देखते रहो, क्या हो रहा
है! इस आदमी ने
चार शब्द कहे।
शब्दों में
क्या है? हवा
में उठे बबूले
हैं। इसने कहा
कि तुम बड़े
सुंदर, कि
तुम बड़े
बुद्धिमान, कि आप जैसा
त्यागी नहीं
देखा। भीतर एक
छलांग लग गई।
अभी खड़े थे
जमीन पर, अचानक
एवरेस्ट पर
पहुंच गए।
गौरीशंकर
विजय कर लिया!
एक आदमी आया, आलोचना करने
लगा, निंदा
करने लगा; कहने
लगा, तुमसे
ज्यादा निम्न
और बेईमान कोई
भी नहीं है।
भयंकर चोट लग
गई, घाव हो
गया। अहंकार
तड़फने लगा
बदला लेने को।
क्रोध में आ
गए। इस आदमी
को अब तक
मित्र समझा था,
यह दुश्मन
हो गया। कहा
कि बाहर निकल
जाओ, अन्यथा
उठवाकर
फिंकवा दूंगा।
धक्का देकर इस
आदमी को बाहर
कर दिया।
जांचते
रहो! अनेक—अनेक
रूपों में, अनेक—अनेक
परिस्थितियों
में, अनेक—अनेक
घटनाओं में
सिर्फ देखते
रहो, क्या
हो रहा है खेल!
कब अहंकार
बनता, कब
चोट खाता, कब
गिर पड़ता, कब
उठकर खड़ा हो
जाता; किस—किस
ढंग से यह खेल
चलता है। तुम
सिर्फ देखो।
बस, द्रष्टा
होना काफी है।
अगर
तुम्हारी
दृष्टि किसी
दिन सध जाएगी.।
और सधते— सधते
ही सधेगी। कोई
अचानक तुम न
देख पाओगे।
क्योंकि
देखना बड़ी से
बड़ी कला है।
इसलिए
तो जिन्होंने
जान लिया, उनको
हमने द्रष्टा
कहा है, देखने
वाले कहा है।
जिन्होंने
जान लिया, उनके
वचनों को हमने
दर्शन कहा है
कि उन्होंने देख
लिया, जान
लिया। क्या
देख लिया? देख
लिया, अहंकार
का खेल।
जिस
दिन देखना
पूरा हो जाता
है,
अहंकार
तल्ला गिर
जाता है। उसी
क्षण शरणागति
हो जाती है।
उसी क्षण तुम
बचे ही नहीं।
समर्पण करना
नहीं होता, होता है।
समर्पण करोगे,
तो झूठा
रहेगा। वह
करने वाला
हमेशा अहंकार
रहेगा।
जो
समर्पण किया
गया है, उसे
तुम वापस भी
ले सकते हो।
उसका मूल्य ही
क्या है? लेकिन
जो समर्पण
होता है, उसे
तुम वापस न ले
सकोगे। लेने
वाला नहीं बचा,
करने वाला
नहीं बचा, सिर्फ
देखने वाला
बचा है। तुम
सिर्फ देखोगे
कि ऐसा हो रहा
है। शरणागति
देखी जाती है
कि हो गई।
अहंकार
को देखते—देखते—देखते
अचानक एक दिन
तुम पाते हो कि
उस दर्शन के
प्रवाह में ही, उस
दर्शन की
ज्योति में ही
अहंकार का
अंधकार खो गया।
तुम अपने को
पाते हो, मिट
गए शून्य हो
गए। समर्पण हो
गया, शरणागति
हो गई। उतर गए
तुम नदी की
धार में, उतर
गई नदी की धार
तुममें। अब
तुममें और
परमात्मा में
कोई फासला न
रहा। उतने ही
अहंकार का
फासला था।
कर्ता है
परमात्मा और
जान लिया था
तुमने अपने को
कर्ता, वही
दूरी थी। एक
मात्र कर्ता
है परमात्मा,
वही कर रहा
है, सब
करना उसका है।
तुमने अपने को
कर्ता मान
लिया था, यही
आति थी। वह
भांति छूट गई।
जैसे—जैसे
तुम जांचोगे, भीतर
भांति छूटती
जाएगी। तुम
पाओगे, तुम
कुछ भी तो
नहीं कर रहे
हो, सब हो
रहा है। भूख
लगती है, प्यास
लगती है, तो
पानी की खोज
शुरू हो जाती
है। नींद आती
है, तो
बिस्तर तैयार
होने लगता है।
जवानी आती है,
तो
कामवासना घेर
लेती है।
बुढ़ापा आता है,
कामवासना
धुएं की तरह
दूर निकल जाती
है।
छोटे
बच्चे थे, पता
न था काम का।
तितलियों के
पीछे दौड़ते थे,
फूलों को
पकड़ते थे, कंकड़—पत्थर
बीन लाते थे
घर में। घर के
लोग कहते थे, फेंको। तुम
बड़ा मूल्यवान
समझते थे। वह
भी हो रहा था।
फिर जवानी आई,
नया पागलपन
आया। अब तुम
साधारण
तितलियों के
पीछे नहीं
भागते। अब भी
तितलियों के
पीछे भागते हो,
लेकिन अब उन
तितलियों का
नाम स्त्री है,
धन है, पद
है। अभी भी
कंकड़—पत्थर
इकट्ठा करते
हो, पुराने
नहीं। अब उनका
नाम कोहिनूर
है, हीरे—जवाहरात
हैं, उनको
इकट्ठे करते
हो। खेल जारी
है। कोई करवा
रहा है। और
तुम पूरे वक्त
सोच रहे हो कि
मैं कर रहा
हूं।
क्रोध
होता है।
तुमने कभी
किया? प्रेम
होता है।
तुमने कभी
किया? तुम
पैदा हुए हो
या कि तुमने
अपने को पैदा
कर लिया है? तुम मरोगे
या कि तुम अपने
को मारोगे? जो
आत्महत्या
करते हैं, वे
भी अपने को
नहीं मारते; वह भी घटती
है। वे भी बच
नहीं सकते। वह
भी होता है।
क्या करोगे? आत्महत्या
का विचार पकड़
लेता है। वह
तुमने थोड़े ही
पैदा किया है।
अगर
तुम ठीक से
विश्लेषण
करोगे, तो
तुम पाओगे, सब हो रहा है।
और अकारण ही
तुमने कर्ता
को बना लिया
कि मैं कर्ता
हूं। बस, देखने
की क्षमता आ
जाए, कर्ता—
भाव खो जाता
है। करने वाला
एक है।
साक्षी
शरणागति है।
साक्षी
समर्पण है।
साक्षी
तुम्हारा
विसर्जन है।
और जहां तुम
नहीं हो, वहां
परमात्मा है।
आखिरी
प्रश्न :
आपको
देखकर बहुत
खुशी होती है, आपकी
आलोचना सुनकर
बहुत दुख। फिर
महीने में चार—पांच
बार आपकी
तस्वीर के
सामने कहता
हूं? मुझे
आनंद नहीं दे
सकता, तो
मुझे मार ही
डाल। इतना दुख
क्यों देता है?
थोड़ी देर
मैं पछताता
हूं! झुसिया
भगवान से लड़ता
था। पर उसकी
भाव—दशा
पवित्र रही
होगी। मुझमें
तमस बहुत है।
ध्यान कछ समय
चलता है, फिर
रूक जाता है, फिर चलता है।
मेरी तमस, मेरी
विक्षिप्तता
कैसे दूर हो?
अगर
मुझे देखकर
खुशी होगी, तो
मुझे न देख
पाओगे, तो
दुख होगा। अगर
मेरी कोई
स्तुति करेगा,
प्रसन्नता
होगी, तो
फिर जब कोई
मेरी निंदा
करेगा, आलोचना
करेगा, तो
दुख होगा। सुख
और दुख साथ—साथ
हैं। अगर एक
को चुना, तो
दूसरे से बच न
सकोगे। अगर
दूसरे से बचना
हो, तो
दोनों को छोड़
देना पड़ेगा।
उ
तो मुझे देखकर
खुश मत होओ, शांत
होओ। मुझे
देखकर खुश
होओगे, तो
जब मुझे न देख
पाओगे, तो
दुख होगा। सुख
अपने साथ दुख
ले आता है।
इसलिए मुझे
देखकर शांत
बनो। क्योंकि
सुख एक
उत्तेजना है।
सुख कोई बहुत
अच्छी अवस्था
नहीं है। एक
तनाव है।
इसलिए सुख से
भी आदमी ऊब
जाता है।
तुमने
कभी खयाल किया
कि ज्यादा देर
तुम सुखी नहीं
रह सकते।
क्योंकि थक
जाता है आदमी।
ज्यादा देर
सुखी रहना
मुश्किल है।
दुख विश्राम
है। अगर सुखी
होओगे, थक
जाओगे, तब
दुख में
विश्राम लेना
पड़ेगा। सुख
दिन जैसा है, दुख रात
जैसा है।
अगर
दुख से बचना
हो,
तो ध्यान
रखना, सुख
से बचना होगा।
सुख की
उत्तेजना
तुमने पाल ली,
तो फिर दुख
की उत्तेजना
कौन सहेगा? वह भी
तुम्हीं को
सहनी पड़ेगी।
वह विपरीत है,
पर इसी का
दूसरा अति छोर
है।
दुख
से तो हम बचना
चाहते हैं, बच
कहा पाते हैं?
सुख हम पाना
चाहते हैं, मिल कहं।
पाता है? इस
बोध को जो
उपलब्ध हो
जाता है कि
सुख के साथ दुख
जुड़ा है, एक
ही सिक्के दो
पहलू हैं, वह
पूरे सिक्के
को फेंक देता
है। उस सिक्के
को फेंकने में
शांति है। तुम
जब मेरे पास
आओ, तो सुख
की भाव—दशा को
मत बनाओ। कोई
उत्तेजना मत
पालो। आओ, शांत
बनो। अगर तुम मेरे
पास शांत
रहोगे, तो
तुम मुझसे दूर
भी शांत रहोगे।
क्योंकि शांति
कोई उत्तेजना
नहीं है। शांति
एक स्वाभाविक
दशा है। शांति
में कोई तनाव
नहीं है।
इसलिए कोई व्यक्ति
शांत रह सकता
है अनंत काल
तक।
इसलिए
बुद्ध ने
मोक्ष में
सिर्फ शांति
को ही जगह दी
है,
सुख को कोई
जगह नहीं दी।
आनंद शब्द का
भी प्रयोग
नहीं किया।
क्योंकि आनंद
में भी
तुम्हें सुख
की छाया पड़ती
है, तुम्हें
लगता है, आनंद
महासुख है, ऐसा सुख जो
कभी अंत न
होगा। लेकिन
ऐसा कोई सुख
होता ही नहीं,
जो कभी अंत
न हो।
तो
बुद्ध ने
निर्वाण को शांति
कहा है। इतनी
गहरी शांति कि
उसमें तुम भी
नहीं हो, बस शांति
है। वह अनंत
काल तक रह
सकती है, उसका
कोई अंत नहीं
आता है।
सुख
तो है संगीत
जैसा, कि कोई
रविशंकर वीणा
बजा रहा है।
प्रीतिकर है,
लेकिन
कितनी देर तुम
रविशंकर की
वीणा सुन सकते
हो? घड़ी दो
घड़ी बहुत, अगर
रातभर
रविशंकर तार
ठोंकता रहे, तुम पुलिस
में खबर करोगे
कि यह आदमी तो
जान ले लेगा।
अगर वह माने
ही न और
तुम्हारे
पीछे—पीछे ही
सितार बजाता
घूमे, तो
तुम पगला
जाओगे दो—चार
दिन में। इससे
ज्यादा नहीं
लगेगी देर।
बड़ा
सुख था वीणा
में घड़ी दो
घड़ी,
फिर पीड़ा हो
गई, फिर
पागलपन आने
लगा। क्योंकि
उत्तेजना है
संगीत भी, चोट
है, आघात
है। कितना ही
मधुर हो, है
तो चोट ही।
तार पर पड़ी
चोट, शब्द
की पड़ी चोट, कान पर
झनकार है, हृदय
पर भी झनकार
है। कितनी ही
प्रीतिकर हो,
चोट करती है।
बाजार का
शोरगुल कितना ही
अप्रीतिकर हो,
रेलवे
स्टेशन पर
चलती खटर—पटर
कितनी ही
अप्रीतिकर हो,
वह भी चोट
करती है। उसे
तुम क्षणभर भी
नहीं सुनना
चाहते।
रविशंकर की
वीणा को तुम
थोड़ी देर
सुनना चाहोगे।
लेकिन
एक ऐसा संगीत
भी है, जो
अनाहत है, जो
आघात से पैदा
नहीं होता। उस
संगीत में कोई
स्वर नहीं है।
उसी को हमने
ओंकार कहा है।
इसलिए ओंकार
को अनाहत नाद
कहा है। न तो
अंगुलियां
हैं, न तार
हैं, न कोई
चोट है। वह
संगीत कैसा है?
वह संगीत
शून्य का है, मौन का है।
उसमें तुम
अनंत काल तक
रह सकते हो, तुम कभी न
थकोगे।
सुख
से आदमी थकता
है,
दुख से भी
थकता है। और
इसलिए बदलाहट
चलती रहती है,
सुख से दुख
में, दुख
से सुख में; रात से दिन, दिन से रात।
श्रम करता है,
विश्राम; विश्राम
करता है, श्रम।
द्वंद्व जारी
रहता है। अशांति
जारी रहेगी
द्वंद्व के
साथ। शांति
निर्द्वंद्व
हो जाना है।
जब
तुम मेरे पास
आओ,
तो सुख को
मत जन्मने दो।
क्या करोगे? सिर्फ देखते
रहो। अगर तुम
जागकर मेरे
पास रहे, सुख
जन्मेगा ही
नहीं। वह नींद
में ही जन्मता
है। तुम शांत
रहो। तुम बैठो
मेरे पास
ध्यानस्थ। तब
तुम पाओगे कि
मेरे पास या
मुझसे दूर, सब बराबर है।
बुद्ध
का मरण दिन
आया,
तो आनंद
छाती पीट—पीटकर
रोने लगा। और
भी भिक्षु थे,
उसमें एक
भिक्षु था
महाकाश्यप।
वह अपने वृक्ष
के नीचे बैठा
था। खबर
पहुंची, किसी
ने कहा कि
बुद्ध का
अंतिम दिन आ
गया।
उन्होंने कहा
है आज मैं
विसर्जित हो
जाऊंगा। उसने
सुना या नहीं
सुना, वैसा
ही बैठा रहा।
आनंद रोने लगा।
बुद्ध
ने कहा, आनंद
तू क्यों रोता
है? तू
महाकाश्यप की
तरफ क्यों
नहीं देखता? उसको भी खबर
मिली है, लेकिन
वह चुप बैठा
है। जैसे कुछ
नहीं हुआ है।
जैसे लहर ही
नहीं आई। कोई
बात ही नहीं
हुई। जैसे
किसी ने कहा
ही नहीं कि
बुद्ध मरने को
हैं।
आनंद
ने महाकाश्यप
की तरफ देखा।
उसने कहा, बेबूझ
है बात। मेरी
समझ नहीं पड़ती।
आपके रहते
इतना सुख था, आपके जाते
महादुख होगा।
बुद्ध
ने कहा, तू
महाकाश्यप को
पूछ।
महाकाश्यप से
पूछा।
महाकाश्यप ने
कहा, उनके
रहते बड़ी शांति
थी, उनके न
रहते भी बड़ी शांति
होगी।
क्योंकि शांति
भीतर की बात
है। उसका उनके
रहने न रहने
से संबंध नहीं।
उनके सहारे
भीतर को साध
लिया, सध
गया। बुद्ध न
होंगे, तो
भी शांति होगी।
बुद्ध थे, तो
भी शांति थी।
आनंद, तू
सुख के पीछे
पड़ा है। इसलिए
मुश्किल में
उलझा है। सुख
को छोड़। शांत!
शांत
रस को पकड़ने
की कोशिश करो।
अन्यथा मैं
कितने दिन
तुम्हारे पास
रहूंगा! फिर तुम
दुखी होओगे।
तो मैंने
तुम्हें
जितना सुख
दिया, उससे
ज्यादा दुख
तुम्हें दे
दूंगा।
क्योंकि रहना
तो थोड़ी देर
है, न रहना
बहुत लंबा
होगा।
बुद्ध
अस्सी साल रहे।
फिर अब ढाई
हजार साल बीत
गए। और
जिन्होंने
बुद्ध के साथ
सुख पाया होगा, वे
अभी भी दुख पा
रहे होंगे, ढाई हजार
साल! अब वे जनम—जनम
तक दुख पाएंगे।
वह पीड़ा बनी
ही रहेगी।
जिसने बुद्ध
के साथ सुख
पाया, अब
बिना बुद्ध के
कैसे सुख
पाएगा!
नहीं, तुम
वह भूल करना
ही मत। यह जो
आनंद की भूल
है, इससे
बचना।
महाकाश्यप
गुणी है। वह
राज समझ गया
है कि क्या साधना
है। जब तक
बुद्ध मौजूद
हैं, शांति
को साध लो।
और
अगर तुमने शांति
साधी, तो तुम
हैरान होओगे,
कोई मेरी
स्तुति करे तो
और कोई मेरी
निंदा करे तो,
बराबर हो
जाएगी।
तुम्हें चोट
क्यों लगती है
जब कोई मेरी
निंदा करता है?
तुम्हें
अच्छा क्यों
लगता है जब
कोई मेरी
स्तुति करता
है?
तुम्हें
समझ नहीं है।
जब कोई मेरी
स्तुति करता
है,
तुम्हारे
अहंकार को
बढ़ावा मिलता
है, तुम
ठीक आदमी के
साथ हो। जब
मेरी कोई
निंदा करता है,
तुम्हारे
अहंकार को घाव
लगता है, चोट
लगती है, कि
तुम गलत आदमी
के साथ हो।
इससे
मेरा कुछ लेना—देना
नहीं है। न तो
स्तुति करने
वाला मेरी
स्तुति कर
सकता है, न
निंदा करने
वाला निंदा कर
सकता है। वे
दोनों ही
नासमझ हैं।
दोनों को मेरा
कोई पता नहीं
है। स्तुति
करने वाले को
एक हिस्सा पता
है, निंदा
करने वाले को
दूसरा हिस्सा
पता है; पूरे
का उन दोनों
को पता नहीं
है, अन्यथा
वे चुप हो
जाते।
क्योंकि जो भी
मुझे पूरा
समझेगा, वह
मेरे संबंध
में चुप हो
जाएगा।
क्योंकि पूरे
को जब भी तुम
समझोगे, तब
तुम पाओगे, न तो वह
स्तुति में
समा सकता है
और न निंदा
में समा सकता
है।
जो
नहीं समझते, उनमें
से कुछ निंदा
करते हैं; जो
नहीं समझते, उनमें से
कुछ स्तुति
क्तते हैं।
जैसे मित्र
स्तुति करता
है, क्योंकि
वह प्रेम करता
है। शत्रु
निंदा करता है,
क्योंकि वह
घृणा करता है।
लेकिन मित्र
कल शत्रु हो
सकते हैं, शत्रु
कल मित्र हो
सकते हैं।
इसमें कुछ
अड़चन नहीं है।
तुम्हें
चोट लगती है
निंदा से, क्योंकि
तुम्हारा
अहंकार अड़चन
में पड़ जाता
है। तुम्हें
प्रसन्नता
होती है, कोई
स्तुति करता
है, क्योंकि
तुम्हारा
अहंकार फूल
जाता है। इसे
गौर से देखो।
इसे तुम मुझ
से बांधो ही
मत। इससे मेरा
कुछ लेना—देना
नहीं है। अपने
भीतर पहचानो।
और
अगर तुम मेरे
पास शांति को
साधोगे, तो
तुम्हारी
दृष्टि
निर्मल होती
जाएगी। सिर्फ
शांति में ही
दृष्टि
निर्मल और
निर्दोष होती
है। तब तुम
हंस पाओगे।
स्तुति करने
वाले को भी
देखकर तुम शांत
रहोगे; निंदा
करने वाले को
देखकर भी तुम
शांत रहोगे।
और तब मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम उन
दोनों को बदलने
में भी समर्थ
हो जाओगे।
अगर
कोई मुझे
गालियां देता
है और तुम
चुपचाप सुन लो, और
तुम वैसे ही
बने रहो, जैसे
पानी पर किसी
ने लकीर खींची,
खींच भी न
पाया और मिट
गई, लौटकर
देखे, वहां
कोई लकीर नहीं
है; ऐसे
तुम बने रहो, तो शायद
निंदा करने
वाले को पुन:
सोचना पड़े कि जिसकी
वह निंदा कर
रहा है, उस
आदमी के पास
रहकर अगर इस
आदमी को ऐसा
कुछ हो गया है,
तो एक बार
फिर सोच लेना
जरूरी है।
लेकिन
किसी ने निंदा
की और तुम
दुखी और
परेशान हो गए, बेचैन
हो गए, क्रोधित
हो गए या तुम
मेरी रक्षा
करने लगे।
कैसे तुम मेरी
रक्षा करोगे?
या तुम तर्क
देने लगे, विवाद
में पड़ गए, तो
तुम दूसरे
आदमी को जो एक
मौका दे सकते
थे बदलने का, उसे चूक गए।
कोई
किसी को विवाद
से थोड़े ही
कभी राजी कर
पाता है। तर्क
ने कभी किसी
को बदला है? उस
भ्रांति में
पड़ो ही मत।
तुम लाख तर्क
दो, ज्यादा
से ज्यादा यह
हो सकता है कि
तुम्हारे तर्क
उस आदमी का
मुंह बंद कर
दें। लेकिन
उसके हृदय को
न बदल पाएंगे।
वह खोज में
रहेगा कि और
मजबूत तर्कों
को लाकर, सिद्ध
करके तुम्हें
दिखा दे कि
तुम गलत हो।
क्योंकि
तुमने उसे एक
चुनौती दे दी,
उसके
अहंकार को चोट
पहुंचा दी। वह
बदला लेकर
रहेगा।
तर्क
से कुछ सार
नहीं है।
विवाद में कुछ
रस नहीं है।
तुम्हें
देखकर कुछ
घटना घट सकती
है। कोई मुझे
गाली देता आए
और तुम चुपचाप
सुन लो, ऐसे
कि कुछ भी न
हुआ। वह आदमी
गंभीर होकर
लौटेगा।
तुम्हारी
शांति उसका
पीछा करेगी।
तुम उसकी नींद
में उतरोगे।
तुम उसके
सपनों में छा
जाओगे। वह
बेचैन होगा। उसका
आने का मन बार—बार
होगा कि फिर
तुम्हारे पास
आए। मामला
क्या है? गाली
दी थी, उत्तर
आना चाहिए था!
इस आदमी को
कुछ हो गया है!
और
कौन नहीं
चाहता कि ऐसी
दशा उसकी भी
हो जाए कि कोई
गाली दे और
चोट न पड़े!
तुमने इस आदमी
को जकड़ लिया, पकड़
लिया। यह आदमी
भाग न सकेगा। और
यह घटना मेरे
पास आने से
घटी है; तुमने
मेरी तरफ इस
आदमी को
पहुंचने के
लिए पहला उपाय
बता दिया। इस
आदमी के लिए
तुमने दरवाजा
खोल दिया।
धक्का
मत दो, सिर्फ
दरवाजा खोलो।
धक्का देकर
तुम उसे भीतर
न ला पाओगे।
धक्का देकर
कहीं कोई भीतर
आया है? सिर्फ
चुपचाप द्वार
खोल दो कि उसे
पता भी न चले।
यह आज नहीं कल
आएगा; इसे
आना ही पड़ेगा।
तुम्हारी शांत
मूर्ति इसका
पीछा करेगी।
शांत हो जाओ।
सुख को मत
पकड़ो।
और
तुम कहते हो
मेरी तस्वीर
के सामने कि
मुझे आनंद
नहीं दे सकता, तो
मुझे मार ही
डाल।
वह
भी सुख की ही
तलाश है। तुम
मरने को राजी
हो,
लेकिन खुद
को छोड़ने को
राजी नहीं हो।
मैं तुमसे
कहता हूं मरने
की कोई जरूरत
नहीं, सिर्फ
अहंकार को
मरने दो। तुम
काफी मजे से
जीयो।
तुम्हारे
जीने से कहीं
कोई अड़चन नहीं
है। लेकिन तुम
कहते हो, मैं
मरने को राज़ी
हूं,लेकिन
वह जो कहा रहा
है कि मैं
मरने को राज़ी
हूं वह मैं
छूटने को राजी
नहीं है।
आत्महत्या
करते वक्त भी
तुम मैं ही
बने रहोगे कि
मैं
आत्महत्या कर
रहा हूं मैं
कुर्बानी दे रहा
हूं। जैसे तुम
शिकायत कर रहे
हो पूरे
परमात्मा से, पूरे
अस्तित्व से
कि लो, अगर
आनंद नहीं, तो मैं जीवन
छोड़ता हूं।
लेकिन यह
छोड़ने वाला
अहंकार है।
पकड़ने
वाला, छोड़ने
वाला, दोनों
अहंकार हैं।
तुम जागो।
पकड़ने—छोड़ने
से कुछ न होगा।
आनंद
क्यों मांगते
हो खर आनंद को
तो तुमने सदा
से मांगा है
और इसीलिए तुम
इतने दुखी हो।
जागो! शांति, शून्य
तुम्हारा
स्वर बने। और
तब आनंद
तुम्हें
मिलेगा। आनंद
मांगने से नहीं
मिलता, शून्य
होने से बरसता
है। आनंद कोई
भिखारी को
नहीं मिलता, सिर्फ
सम्राटों को
मिलता है। और
सम्राट मैं
उसे कहता हूं, जिसकी मांग
बंद हो गई। जो
मांगता है, वह भिखारी
है।
तुमने
अगर कहा, आनंद,
तुम्हें
कभी न मिलेगा।
तुम सिर्फ शांत
हो जाओ। और शांत
होते ही तुम
पाओगे, चारों
तरफ से स्रोत
आनंद के बहे आ
रहे थे, अपनी
अशांति के
कारण तुम देख
न पाए। खजाना
सामने पड़ा था,
तुम्हारी
आख अंधी थी।
द्वार खुले थे,
तुमने आख
उठाकर देखा ही
नहीं। तुम चूक
रहे थे अपने
कारण।
अस्तित्व
क्षणभर को भी
तुम्हें
चुकाने को उत्सुक
नहीं है।
पूरा
अस्तित्व
सहारा दे रहा
है कि आ जाओ, द्वार
खुले हैं, खजाना
तुम्हारा है।
लेकिन तुम
भिक्षा—पात्र
लिए खड़े हो।
और भिक्षा—पात्र
में यह खजाना
नहीं समा सकता।
यह खजाना
भिक्षा—पात्रों
से बहुत बड़ा
है। भिक्षा—पात्र
छोड़ना पडेगा।
अहंकार
भिक्षा—पात्र
है। मत मांगो
आनंद। सिर्फ शांत
हो जाओ और
आनंद मिलेगा।
आनंद सदा
मिलता है उनको, जो
शांत हो गए।
जो मांगते हैं,
उन्हें दुख
मिलता है। फिर
दुख और पीड़ा
में तुम कहते
हो, आत्महत्या
तक कर लूंगा; मार डालो, मर जाऊं।
इससे
कुछ हल नहीं
है। तुम मर भी
जाओगे, तो
तुम तुम ही
रहोगे। फिर
पैदा हो जाओगे।
फिर आनंद
मांगने लगोगे।
यही तो तुम
करते रहे हो।
यह गोरखधंधा
बहुत पुराना
है। तुम कोई
नए थोड़े ही हो।
तुम बड़े
प्राचीन
पुरुष हो।
कितनी ही बार
तुमने यही
किया, मांगा,
नहीं मिला।
मरे, फिर
मांगा। लेकिन
मांग को न
मरने दिया।
तुम
मत मरो, माग
को मरने दो, तुम जीओ।
तुम तो शाश्वत
हो, तुम मर
भी नहीं सकते।
तुम मारोगे
कैसे? कैसे
मिटाओगे अपने
को? तुम
बनाए नहीं
अपने को, मिटाने
वाले तुम कैसे
हो सकते हो? जिसने बनाया,
वही मिटा
सकता है। और
बनाया किसी ने
भी तुम्हें
नहीं है। तुम
ही हो सार इस
सारे
अस्तित्व के।
तुम सदा से हो,
सदा रहोगे,
अनादि, अनंत।
ऐसा कभी न था
कि तुम न थे और
ऐसा कभी न
होगा कि तुम न
रहोगे।
मिटाने
से क्या होगा? मिट—मिटकर
तुम होते
रहोगे। उस बात
को ही छोड़ो।
आनंद मत मांगो,
शांति। और
मजा यह है कि
आनंद मांगना
पड़ता है, शांति
को मांगने की
जरूरत नहीं। शांत
तुम ही हो
सकते हो।
आनंदित तुम
कैसे होओगे? मुझे कहो, आनंदित होने
का तुम्हारे
हाथ में क्या
उपाय है? लेकिन
शांत तुम हो
सकते हो। जो
तुम हो सकते
हो, वही
करो; शेष
अपने से होगा।
जैसे
वर्षा होती है; पहाड़
खाली रह जाते
हैं, क्योंकि
पहले से भरे
हैं; गड्डे
झीलें बन जाते
हैं, क्योंकि
खाली थे। तुम
खाली हो जाओ। शांति
यानी खाली हो
जाना, गड्डा
हो जाना। आनंद
बरस रहा है, भर देगा
तुम्हें। तुम
झील हो जाओगे
आनंद की।
झुसिया
भगवान से लड़ता
था,
पूछा है, पर उसकी भाव—दशा
पवित्र रही
होगी। मुझमें
तमस बहुत है।
किसको
यह समझ है? कौन
कह रहा है कि
मुझमें तमस
बहुत है? निश्चित
ही, सत्व
बोल रहा होगा।
क्योंकि तमस
कभी स्वयं को
स्वीकार नहीं
करता। तमस का
तो लक्षण है, वह अस्वीकार
करता है कि
मैं और आलसी? तो आलसी भी
तलवार लेकर
लड़ने खड़ा हो
जाता है कि किसने
कहा? मैं
और आलसी? मैं
और तामसी? तो
तामसी भी तमस
छोड्कर लड़ने को
खड़ा हो जाता
है। तुम आलसी
को भी आलसी
नहीं कह सकते।
वह भी लकड़ी
उठा लेगा। तमस
तो स्वीकार ही
नहीं करता
अपने को।
कौन
सोच रहा है? कौन
देख रहा है कि
मैं तामसी हूं?
यही तो सत्व
का स्वर है।
तुम इस स्वर
को ठीक से
पहचानो। और
तुम इस स्वर
की तरफ थोडे
ज्यादा झुको।
संतुलन भर
बदलना है, कुछ
बदलना नहीं है।
ऊर्जा एक ही
है। एक ही
ऊर्जा है जो
सत्व में, रज
में, तम
में प्रवाहित
होती है।
जो
आदमी सो रहा
है,
यही आदमी तो
जागेगा; जो
ऊर्जा सो रही
है, वही
जाग जाएगी, कोई दूसरी
ऊर्जा थोड़े ही
जागेगी। जो
तमस है, वही
तो रज बनेगा।
जो रज है, वही
तो सत्य बनेगा।
धारा तो एक ही
है, ऊर्जा
तो एक ही है, शक्ति एक ही
है। ये तीन तो
उसके
निष्कासन के उपाय
हैं।
अभी
पूरी की पूरी
धारा या
ज्यादा ज्यादा
धारा सत्व नहीं
बह रही है, तमस
से बह रही है, रजस से बह
रही है। लेकिन
थोड़ी—सी
बूंदें सत्व
से भी बह रही
हैं। उन
बूंदों का
मार्ग पकड़ो।
शेष धारा को
भी उसी तरफ
झुकाओ। थोड़ा
संतुलन बदलना
है। बस, तीनों
पाए बराबर हो
जाएं; सत्व,
रज, तम, तीनों में
बराबर ऊर्जा
बहने लगे एक
तिहाई, एक
तिहाई, एक
तिहाई, अचानक
तुम पाओगे, संगीत बजने
लगा, अनाहत
नाद शुरू हो
गया। जहां
तीनों बराबर
हो जाते हैं, तीनों एक—दूसरे
को काट देते
हैं और वहीं
से गुणातीत
आयाम का
प्रारंभ होता
है।
यह
कृष्ण अर्जुन
को समझा रहे
हैं सारा
गुणत्रय—विभाग, ताकि
वह गुणातीत हो
जाए।
तुम्हारा
स्वभाव
गुणातीत है।
तुम तीन में
बंटे हो, क्योंकि
तुम सोए हो, तुम्हें पता
नहीं। और सोई
दशा में अधिक
ऊर्जा तमस से
बहेगी, क्योंकि
सोई दशा तमस
की दशा है। जब
तुम महत्वाकांक्षा
से भरकर
दौड़ोगे पद— धन
की तलाश में, तब अधिक
ऊर्जा रजस से
बहेगी।
क्योंकि गति,
महत्वाकांक्षा,
दौड़ रजस का
धर्म है। जब
तुम शांत
बनोगे, ध्यान
और समाधि
खोजोगे, मौन,
निर्विकल्प,
निर्विचार
दशा को खोजोगे,
तब सत्य से
बहने लगेगी
यही ऊर्जा।
क्योंकि
ध्यान, निर्विकल्पता,
निर्विचार
दशा, सत्व
के गुण हैं।
और
जब तीनों किसी
एक दिन, किसी
क्षण संयोग
में बैठ जाते
हैं, तीनों
का स्वर
लयबद्ध हो
जाता है, उसी
त्रिवेणी में
एक का जन्म
होता है।
इसीलिए तो लोग
त्रिवेणी
जाते हैं
तीर्थयात्रा
करने। वह
तीर्थ
तुम्हारे
भीतर है। जहां
इन तीनों का
मिलन होगा, वहीं
त्रिवेणी बन
जाएगी, वहीं
प्रयागराज बन
गया, वहीं
हो गया तीर्थ,
वहीं से एक
का अनुभव होगा।
घबड़ाओ
मत,
चिंतित मत
होओ। सब साज—सामान
मौजूद है, थोड़ी—सी
व्यवस्था
जमानी है।
सूफी कहते हैं,
आटा मौजूद
है, पानी
मौजूद है, नमक
मौजूद है, शाक—सब्जी
मौजूद है, लकड़ियां
पड़ी हैं, माचिस
तैयार है, मगर
भोजन तैयार
नहीं है।
सब
तैयार है। जरा—
सा इंतजाम
बिठाना है कि
लकड़ियों में
आग लगा दो, कि
चूल्हा तैयार
कर लो, कि
आटे में थोड़ा
पानी मिलाओ, कि थोड़ा नमक;
कि आटा गूंथ
लो, कि
रोटियां पका
लो; कि भूख
मिट जाएगी, तृप्ति हो
जाएगी।
परमात्मा
मौजूद है, सिर्फ
थोड़ा—सा संयोग
बिठाना है। वह
तुम्हारे तीन
गुणों में
मौजूद है, उनको
थोड़ा—सा
संयोजित करना
है। धर्म
संयोजन की कला
है, उससे
ज्यादा कुछ भी
नहीं। फिर
तुम्हारे
भीतर एक का
जन्म हो जाता
है। जहां तीन
मिलते हैं, वहा एक का
जन्म हो जाता
है। इसलिए
त्रिवेणी
तीर्थ है।
अब
सूत्र :
और हे
अर्जुन, जो
मनुष्य
शास्त्र—विधि
से रहित केवल
मनोकल्पित
घोर तप को
तपते हैं तथा
जो दंभ और
अहंकार से
युक्त हैं, कामना, आसक्ति
और बल के अभिमान
से भी युक्त
हैं तथा जो
शरीररूप से
स्थित भूत—समुदाय
को और अंतःकरण
में स्थित मुझ
अंतर्यामी को
भी कृश करने
वाले हैं, उन
अज्ञानियों
को आंसुरी
स्वभाव वाला
जान।
कौन
है आंसुरी
स्वभाव वाला? कौन
है तामसी?
कृष्ण
कहते हैं, जो
मनुष्य
शास्त्र—विधि
से रहित केवल
मनोकल्पित
घोर तप करते
हैं...।
मैं
वर्षों तक
लोगों से कहता
रहा कि न तो
गुरु की कोई
जरूरत है, न
शास्त्र की
कोई जरूरत है।
उस बात में
जरा भी भूल न
थी। लेकिन
मुझे लगा, बात
में बिलकुल
भूल नहीं है, लेकिन सुनने
वाले पर
परिणाम बड़ी
भूल का हो रहा
है।
बात
बिलकुल सही है।
क्योंकि
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
शास्त्र क्या
समझाएंगे
तुम्हें? सिर्फ
आख भीतर खोलनी
है। वेद
कंठस्थ करके
क्या होगा? अपनी तरफ आख
खोलनी है, स्वाध्याय
करना है।
शास्त्र—अध्याय
से क्या होगा?
और गुरु की
क्या जरूरत है?
क्योंकि
जिसे खोजना है,
वह तुम्हें
मिला ही हुआ
है। जब जरा
गरदन झुकाई..!
गरदन झुकाने
के लिए भी गुरु
की जरूरत है? उतनी सी समझ
भी तुममें
नहीं है? और
अगर उतनी ही
समझ नहीं है, तो गुरु भी
क्या करेगा? शास्त्र भी
क्या करेंगे?
बात
बिलकुल सही है।
लेकिन धीरे—धीरे
मुझे अनुभव
होना शुरू हुआ, मेरी
तरफ से सही है,
सुनने वाले
की तरफ से
बिलकुल गलत है।
मैंने पाया कि
सौ लोग अगर
सुनते हों, तो उसमें से
एक को बात सही
वैसी ही
पहुंचती है, जैसी मैंने
कही है। वह
सत्वगुणी है।
और सत्वगुणी
पर क्या
परिणाम होते
थे, जब मैं
यह कह रहा था?
उस
पर परिणाम ये
नहीं होते थे
कि वह शास्त्र
को छोड़ देता
था,
नहीं। या
गुरु को छोड़
देता था, नहीं।
न तो वह
शास्त्र
छोड़ता था, न
वह गुरु छोड़ता
था। सिर्फ
पकड़ता नहीं था।
यह सत्वगुणी
पर परिणाम
होता था, पकड़ता
नहीं था, सिर्फ
पकड़ छोड़ता था।
न तो शास्त्र
छोड़ता था; न
गुरु छोड़ता था;
सिर्फ पकड़
छोड़ता था। वह समझ
लेता था कि
बात क्या है, पकड़ छोड़
देनी है। और
जब वह पकड़ छोड़
देता था, तो
शास्त्र भी
सहयोगी हो
जाता था, गुरु
भी सहयोगी हो
जाता था।
पकड़
के कारण
शास्त्र भी
बाधा बन जाता
है,
गुरु भी
बाधा बन जाता
है। क्योंकि
तुम एक आग्रह
से भर जाते हो,
एक आसक्ति
से, एक मोह
से। मेरा शास्त्र—वेद
हिंदू का, कुरान
मुसलमान का।
मेरा गुरु—महावीर
जैन का, मोहम्मद
मुसलमान का।
वह मेरा—पन
छोड़ देता था, वह जो एक
प्रतिशत
सत्वगुणी
मनुष्य था।
और
बड़े मजे की
बात यह है कि
जैसे ही वह
मेरा—पन छोड़ता
था,
वह वेद का
तो लाभ ले ही
लेता था, कुरान
का भी ले लेता
था। वह महावीर
के पीछे चलकर
तो शांति का
मजा ले ही
लेता था, वह
बुद्ध के पीछे
चलकर भी ले
लेता था। जब
पकड़ ही न रही, तो सभी गुरु
हो जाते थे।
सत्वगुणी
की व्याख्या
यह थी कि जब
पकड़ ही नहीं, कोई
गुरु नहीं, तो सभी गुरु
हो गए। और जब
कोई पकड़ ही
नहीं, कोई
शास्त्र ही
नहीं, तो
सभी शास्त्र
अपने हो गए।
बंधन छूट जाता
था। वह
निर्मुक्त
भाव से जीने
लगता था। सबसे
सीखता था।
सत्वगुणी
यह सुनकर कि न
गुरु की जरूरत
है,
न शास्त्र
की, गुरु
को नहीं पकड़ता
था, शास्त्र
को नहीं पकड़ता
था, लेकिन
शिष्यत्व
उसका गहरा हो
जाता था। पर
वह घटता था एक
प्रतिशत
लोगों में।
फिर
मैंने देखा कि
नौ प्रतिशत
रजोगुणी लोग
हैं। उन पर
क्या परिणाम
होता था? वर्षों
उनका अध्ययन
करके मुझे समझ
में आया कि यह
सुनकर कि न
शास्त्र को
पकड़ना है, न
गुरु को पकड़ना
है, वे
शास्त्र को
छोड़ने में लग
जाते थे, गुरु
को छोड़ने में
लग जाते थे।
समझ पैदा नहीं
होती थी, छोड़ने
की दौड़ पैदा
होती थी।
रजोगुण का वह
लक्षण है कि
हर चीज में से
दौड़ निकाल
लेता है।
तो
एक रजोगुणी
मेरे पास आया, उसने
मेरी बात समझी,
वह घर गया; कुछ छोटी—मोटी
मूर्तियां घर
में थीं, शास्त्र
थे, सब
बांधकर कुएं
में फेंक आया।
फिर पछताया
रात में। फिर
डरा कि यह तो
बड़ी गड़बड़ हो
गई; कहीं
नाराज न हो
जाएं देवी—देवता!
उनकी पूजा
करता रहा था।
मेरी बात सुन
ली; तब तक
पूजा में लगा
था वह, और
गहन पूजा करने
वाला था।
घंटों, छ: —छ:,
आठ—आठ घंटे
वर्षों से यह
कर रहा था।
मेरी बात सुनी;
रजोगुण ने
नई दौड़ पकड़ी।
पुरानी से थक
चुका होगा, कुछ परिणाम
भी नहीं हो
रहा था। बात
समझ में आ गई, तो फिर एक
क्षण रुका
नहीं।
अब
देवी—देवता
क्या बिगाड़ते
थे?
घर में रहे
आते। कोई
हर्जा न था।
और कभी सुबह—सांझ
एक फूल भी उन
पर रख देते, तो भी कोई
हर्जा न था।
सजावट थे, घर
की रौनक थे, रहने देते।
शास्त्र घर
में रखे थे, कोई अड़चन न
थी। पकड़ना
नहीं था, छोड़ने
का सवाल नहीं
था। मगर
रजोगुणी
छोड़ने को
उत्सुक हो
जाता है। वह
गया, उसने
सब बांधकर
देवी—देवताओं
का बोरिया—बिस्तर
और शास्त्र, सब कुएं में
फेंक आया। अब
रात सो न सका।
रजोगुणी
वैसे ही
कठिनाई पाता
है रात सोने
में। क्योंकि
दिनभर जो
दौड़ता है, भागता
है, चिंता
करता है, यह
पाना है, वह
पाना है, सपने
रात भी दौड़ते
रहते हैं।
रात
घबड़ाया; आधी
रात वह मेरे
घर आया। अब
उनको फेंक
चुका कुएं में,
वहां जा भी
नहीं सकता। और
शास्त्र तो गल
गए होंगे और
अब मुहल्ले
वालों से कहे
कि निकालना है,
लोगों को
पता चले, तो
और बदनामी
होगी कि तुम
क्या नास्तिक
हो गए!
वह
आधी रात मेरे
पास आया। कंप
रहा था। मैंने
पूछा, क्या
हुआ? उसने
कहा कि मैं
बड़ी झंझट में
पड़ गया। आपने
ही डाला। किस
दुर्भाग्य के
क्षण में आपको
सुनने आ गया! और
बात जंच गई।
और मैं तो धुनी
आदमी हूं। जब
जंच गई, तो
क्षणभर रुका
नहीं कि थोड़ा
सोच तो लेता।
और अब सो नहीं
सकता और
घबड़ाहट लगती
है, कि
वर्षों के
देवी—देवता
थे! कुल—देवता
थे! बाप ने
पूजे, बाप
के बाप ने
पूजे। इतनी
पुरानी
परंपरा थी घर
में, और
मैंने सब खंडन
कर दिया, पता
नहीं नाराज हो
जाएं!
रजोगुणी
सदा डरता है
कि कहीं देवी—देवता
नाराज न हो
जाएं, नहीं तो
महत्वाकांक्षा
में बाधा डाल
देंगे।
रजोगुणी पूजा
ही इसलिए करता
है कि और धन
मिल जाए, और
पद मिल जाए।
उसने कहा, कहीं
नाराज हो गए!
और शास्त्र भी
फेंक आया, अब
मैं क्या करूं?
मैंने
देखा कि मुल्क
में ऐसे बहुत—से
लोग थे, जो
समझे नहीं, जिन्होंने
शास्त्र पर
पकड़ तो न छोड़ी,
शास्त्र को
छोड़ने की दौड़
में पड़ गए; शास्त्र
को छोड़ने की
दौड़ पकड़ ली।
पकड़ना जारी
रहा, मुट्ठी
न खुली; सिर्फ
जरा एक कदम
पीछे हट गई
पकड़, और
गहरी हो गई।
फिर
नब्बे
प्रतिशत लोग
हैं,
जो तमोगुणी हैं,
जो कि विराट
मनुष्य जाति
का समुदाय है।
वे वैसे ही
किसी गुरु और
शास्त्र में
उलझे न थे।
क्योंकि इतना
भी उपद्रव वे
लेने को राजी
नहीं। वे अपने
आलस्य में पडे
थे। वे तो
शास्त्रों से
वैसे ही थके
थे, क्योंकि
शास्त्र कहते
हैं, उठो!
जागो!
शास्त्रों से
वैसे ही नाराज
थे, कि
नींद हराम करते
हैं! गुरुओं
के पीछे वे
कभी गए नहीं
थे, क्योंकि
उतना चलने की
भी उनमें
इच्छा नहीं जगी
थी, उतना
आलस्य भी
छोड़ने की
हिम्मत न थी।
उन्होंने
अपनी नींद में
ही मुझे सुना।
उन्होंने
कहा,
बड़ा
धन्यवाद! तो
हम बिलकुल ठीक
थे कि हम तो
पहले ही से न पकड़े
थे। न किसी
शास्त्र को
पकड़ा, न
किसी गुरु को
पकड़ा, न
किसी की झंझट
में पड़े। हम
तो पहले ही से
विश्राम कर
रहे थे। आपने
हमें निश्चित
कर दिया।
उन्होंने
करवट ली, वे
सो गए।
ऐसा
पंद्रह वर्ष
निरंतर मुल्क
में लाखों लोगों
के साथ देखकर
मुझे लगा कि
कुछ करना
पड़ेगा। मैं
भला सच कह रहा
हूं इससे कुछ
हल नहीं है।
मुझे सोचना
पड़ेगा कि
सुनने वाले पर
क्या हो रहा
है।
कृष्णमूर्ति
ने अब तक नहीं
सोचा कि सुनने
वाले पर क्या
हो रहा है। वे
कहते ही चले
गए हैं, जो
ठीक है। इसलिए
कृष्णमूर्ति
के पास सिर्फ
एक प्रतिशत सत्वगुणी
को तो कुछ लाभ
होता है, बाकी
निन्यानबे
प्रतिशत
लोगों को
भयंकर हानि
होती है। और
नब्बे
प्रतिशत जो
आलसी हैं, उनका
तो कहना ही
क्या। वे
बिलकुल अपनी
नींद में ही
अपने को मुक्त
मान लेते हैं
कि बात खतम हो
गई। हम तो कुछ
पकड़े ही नहीं
हैं; पहले
ही से नहीं
पकड़ा था। यह
कृष्णमूर्ति
ने तो बाद में
बताया, हम
तो पहले ही से
इसी ज्ञान में
जी रहे हैं।
तो हम बिलकुल
ठीक हैं, जैसे
हैं। वे अपनी
तंद्रा में
गहन हो जाते
हैं।
तो
कृष्णमूर्ति
ने नब्बे
प्रतिशत
लोगों के लिए
नींद की
सुविधा बना दी।
नौ प्रतिशत
लोगों के लिए
दौड़ की सुविधा
बना दी, शास्त्र
छोड़ना है, गुरु
छोड़ना है; वे
उस दौड़ में
लगे हैं। वह
छूटता नहीं।
क्योंकि कहीं
छोड़ने से कुछ
छूटा है? यह
जानने से कि
पकड़ व्यर्थ है,
छूटना अपने
आप हो जाता है।
जब तुम छोड़ने
की कोशिश करते
हो, तो
उसका मतलब है
कि तुम पकड़े
तो हो ही।
अब
जैसे मैंने
मुट्ठी बांध
ली,
और कोई मुझे
समझाए कि
मुट्ठी खोलो,
तो मुट्ठी
खोलने के लिए
कुछ करना
पड़ेगा! मुट्ठी
खोलने के लिए
कुछ करना ही
नहीं पड़ता; सिर्फ बांधो
मत, मुट्ठी
अपने आप खुल
जाती है।
मुट्ठी खुलती
है जब तुम
नहीं बाधते।
क्योंकि खुला
होना मुट्ठी
का स्वभाव है।
लेकिन ऐसे लोग
हैं, जो
मुट्ठी को
बांधे हुए हैं
और अब खोलने
की भयंकर
चेष्टा कर रहे
हैं। उनकी
खोलने की
चेष्टा से
मुट्ठी और
जकड़ती है, क्योंकि
खोलने से कोई
मुट्ठी नहीं
खुलती।
तुमने
कभी किसी
सम्मोहन करने
वाले, हिप्नोटिस्ट
को देखा है? वह लोगों को
एक छोटा—सा
खेल दिखाता
रहता है। तुम
खुद भी करोगे,
तो चकित हो
जाओगे। वह कह
देता है, दोनों
मुट्ठियां
बांध लो। एक
हाथ में दूसरे
हाथ की
अंगुलियों को
गूंथ लो। और
वह तुमसे कहता
है कि आख बंद
कर लो। और मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम
लाख उपाय करो,
यह मुट्ठी
खुल न सकेगी।
और वह कहता है,
यह मुट्ठी
जकड़ती जा रही
है।
जैसे
ही वह कहता है, मुट्ठी
जकड़ती जा रही
है, तुम
अपने मन में
सोचते हो, यह
हो ही कैसे
सकता है।
मुट्ठी मेरी
कैसे जकड़
जाएगी? मैं
खोल लूंगा।
तुम भीतर
खिंचने लगे।
तुम खोलने की
तैयारी करने
लगे। और वह
कहता जा रहा
है, मुट्ठी
जकड़ती जा रही
है, तुम
लाख उपाय करो,
खुलेगी नहीं।
पांच
मिनट बाद वह
तुमसे कहेगा, अब
करो उपाय, लगा
दो पूरी ताकत।
और तुम पूरी
ताकत लगाओगे
और तुम चकित
हो जाओगे कि
तुम्हारी
मुट्ठी, तुम्हारे
हाथ, जकड़
गए, खुलते
नहीं हैं।
मनसविद
इसको कहते हैं, ली
आफ दि रिवर्स
इफेक्ट। इसको
वे कहते हैं, विपरीत
परिणाम का
नियम। अगर तुम
बहुत खोलने
में उत्सुक हो
गए, तो तुम
यह बात ही भूल
गए कि बांधी
तुमने थी,. खोलने
का सवाल ही न
था। जब तुम
खोलने में उलझ
गए, तो
तुमने पहली
बात तो
स्वीकार ही कर
ली कि बंधी है।
बस, वहीं
भूल हो गई। अब
बंधी है, यह
स्वीकार हो
गया। और
तुम्हारे
शरीर ने
स्वीकार कर
लिया कि यह
बंधी है, और
तुम उसके
विपरीत लड़ने
लगे। तुम खोल
न पाओगे। तुम
खोल नहीं सकते।
तुम
जिससे बचना
चाहोगे, उसी
में उलझ जाओगे।
कभी तुमने
साइकिल चलानी
सीखी शुरू—शुरू
में! साठ फीट
चौड़ा सुपर—हाईवे
हो, कोई न
हो रास्ते पर।
तुम अकेले
साइकिल चलाने
वाले हो, सिखाने
वाले ने
तुम्हें बिठा
दिया। थोड़ी
दूर साथ चला
और फिर
तुम्हें छोड़
दिया। दिखाई
लाल पत्थर
पड़ता है
तुम्हें
किनारे पर।
साठ फीट चौड़ा
रास्ता है। और
वह लाल पत्थर
वहा गणेश जी
जैसा शांत
बैठा है; कुछ
बीच में आएगा
नहीं। मील का
पत्थर है। तुम
घबडाए कि कहीं
पत्थर से न टकरा
जाएं! बस
शुरुआत हो गई।
अब
कहीं पत्थर से
न टकरा जाएं, यह
कोई सवाल था
साठ फीट चौड़े
रास्ते पर!
निशाना लगाने
वाला भी अगर
निशाना लगाकर
जाए, तो ही
टकरा सकता है;
उसके भी चूक
जाने का डर है।
मगर यह नया
सिक्सडू नहीं
चूकने वाला है।
जैसे ही इसको
खयाल आया कि
कहीं टकरा न
जाएं, अब
इसको रास्ता
नहीं दिखाई पड़ता।
अब इसकी आख
लाल पत्थर पर
जमी है, और
इसने बचना
शुरू कर दिया,
इसका हैंडल
घूमने लगा, कि टकराए!
मरे! अब इसने
बचना शुरू
किया कि यह गया।
यह
उस चीज से बच
रहा है, जिससे
बचने का कोई
सवाल न था। यह
टकराएगा! वह
लाल पत्थर हिप्नोटिक
हो जाएगा। वह
खींच लेगा। यह
जाकर भड़ाम से
उस पर गिरेगा।
और यह कहेगा, हम पहले से
ही जानते थे
कि यह होगा।
मगर
यह साठ फीट
चौड़ा रास्ता
खाली पड़ा था।
तुम इसमें से
निकल न सके!
कुछ कारण है
भीतर। तुम
जिससे बचना
चाहते हो, तुमने
स्वीकार कर
लिया कि बचना
असंभव है। तुम
जिससे बचना
चाहते हो, तुमने
मान लिया कि
फंस गए।
तुम्हारी
मान्यता में
ही सारा
सम्मोहन है।
तो
जिनको
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, छोड
दो, छोड़ दो।
चालीस साल से
वह कहते आ रहे
हैं; वे कह
रहे हैं, बचो
पत्थर से, लाल
पत्थर है। वे
सिक्खड जो
साइकिल पर
सवार हैं, जितना
तुम उनसे
कहो कि
बची,
लाल पत्थर
है, लाल
पत्थर से बचना,
अब वे
मुश्किल
में पड़े। अब
वह लाल पत्थर
ही दिखाई पड़ता
है जागते, सोते,
सपने में, बच नहीं
सकते। वे उसी
पत्थर पर
गिरेंगे।
और
जब गिरेंगे, तो
कहेंगे कि
कृष्णमूर्ति
ठीक ही कह रहे
थे। पहले ही
से बेचारे
समझा रहे थे
कि इससे बचो, नहीं तो उलझ
जाओगे। अब उलझ
गए। अब उनकी
हिम्मत टूट
जाएगी साइकिल
पर चढ़ने की।
क्योंकि जब भी
वे चढ़ेंगे, सब जगह लाल
पत्थर हैं
सरकार की कृपा
से। जहां जाओ,
लाल पत्थर
हैं। सब जगह
मंदिर हैं, मस्जिद हैं,
शास्त्र
हैं, गुरु
हैं, सब
तरफ लाल पत्थर
हैं। कहीं भी
गए, फंसे।
और
वे जो नब्बे
प्रतिशत हैं, वे
कहते हैं कि
बिलकुल ठीक, तुम्हें बाद
में पता चला
कृष्णमूर्ति,
हमें पहले
ही मालूम है।
इसलिए हम झंझट
में पड़े ही
नहीं; हम
पहले ही से सो
रहे हैं! जो
ज्ञानी हैं, वे पहले ही
से विश्राम कर
रहे हैं।
कृष्ण
कहते हैं, हे
अर्जुन, जो
मनुष्य
शास्त्र—विधि
से रहित.......।
शास्त्र
क्या है? शास्त्र
की परिभाषा
क्या है? शास्त्र
किसे कहते हैं?
शास्त्र
कहते हैं
शास्ताओं के
वचन को।
शास्ता कहते
हैं जिसने
शासन दिया, अनुशासन
दिया, डिसिप्लिन
दी; जिसने
चलने का मार्ग,
व्यवस्था
दी। जो चला, जो पहुंचा
और जिसने
पहुंचकर खबर
दी कि थोड़े—से
सूचक हैं, तुम्हारे
रास्ते पर
उपयोगी हो
जाएंगे।
बुद्ध को हम
शास्ता कहते
हैं, महावीर
को शास्ता
कहते हैं। उनके
वचनों को हम
शास्त्र कहते
हैं। और उनके
वचनों में जो
कहा गया है, उसको हम
शासन या
अनुशासन कहते
हैं।
जिन्होंने
जाना, उनके
वचनों का
संग्रह है
शास्त्र। अगर
तुम समझदार हो,
तो खूब लाभ
ले सकते हो।
नासमझ हो, तो
तुम किसी भी
चीज से लाभ
नहीं ले सकते,
नुकसान ही
लोगे।
शास्त्र का
कसूर नहीं है।
कसूर होगा तो
तुम्हारा
होगा।
शास्त्र कोई
सिर पर रखकर
ढोने की चीज
नहीं है; न
चंदन—तिलक
लगाकर पूजा
करने की चीज
है। शास्त्र
उपयोग करने की
चीज है; उसकी
उपयोगिता है।
शास्त्र
में संगृहीत
हैं वचन, जानने
वालों के। तुम
जरा
होशपूर्वक
समझने की
कोशिश करोगे,
तो शास्त्र
से तुम्हें
बड़े रहस्य
उपलब्ध हो जाएंगे।
पकड़ना मत उनको।
उनको तरल रहने
देना, उनको
ठोस नियम मत
बना लेना।
क्योंकि समय
बदलता, परिस्थिति
बदलती, चेतना
भिन्न होती।
तो तुम बिलकुल
रूढ़ की तरह मत
चलने लगना, लकीर के
फकीर मत हो
जाना, कि
शास्त्र में
ऐसा लिखा है, तो ऐसा ही
करेंगे।
शास्त्र
संकेत देते
हैं,
उपदेश नहीं।
और वह रहस्य
ऐसा है कि उसे
ठीक—ठीक पूरा
का पूरा बांधा
नहीं जा सकता।
सिर्फ इशारे
किए जा सकते
हैं। इशारे का
मतलब होता है,
समझने की
कोशिश करना
इशारे को, उसका
उपयोग करने की
कोशिश करना।
लेकिन उसके
लकीर के फकीर
होकर अंधे
अनुयायी मत हो
जाना।
कृष्ण
कहते हैं कि
शास्त्र—विधि
से जो रहित
हैं.।
और
बहुत—से लोग
शास्त्र का
उपयोग न करना
चाहेंगे, क्योंकि
वह भी उनके
अहंकार के
विरोध में है।
उनके रहते कोई
दूसरा ज्ञानी
कैसे हो गया
पहले? उनके
रहते वेद लिख
लिए गए? यह
हो ही नहीं
सकता। वेद तो
वे ही लिख
सकते हैं। और
अभी वे ज्ञान
को उपलब्ध
नहीं हुए!
अज्ञानी
शास्त्रों को
मानने को राजी
नहीं होता; इशारे
भी लेने को
राजी नहीं
होता। वह यह
ही नहीं मान
सकता कि मेरे
सिवाय कोई और
भी मुझसे पहले
ज्ञान को
उपलब्ध हो
सकता है। वही
तो अहंकार की
पकड़ है, प्रमाद
है। तो वह
मनोकल्पित
साधनाएं करता
है, शास्त्रों
की नहीं सुनता।
उनमें
संकेत हैं, सावधानियां
हैं, हिफाजतें
हैं; जो
चले हैं, उन्होंने
रास्ते के
कंटकों के
संबंध में बताया
है। जंगली
जानवरों के
हमले का डर है,
बीहड़
रास्ते हैं, भटक जाने की
संभावना है।
स्वात
पगडंडियां
हैं, जिन
पर कोई यात्री
भी न मिलेगा, जो तुम्हें
बताए कि तुम
भूल गए, या
ठीक हो, या
गलत हो। उस
अनजान के
संबंध में कुछ
सूचनाएं
शास्त्रों
में संगृहीत
हैं। वे
बहुमूल्य हैं।
उनको समझकर—शास्त्र
को पकड़कर नहीं—उनको
समझकर
तुम्हें अपनी
यात्रा पर
जाना है।
बुद्ध
ने कहा है, हम
मार्ग बता
सकते हैं, लेकिन
तुम्हारे लिए
चल तो नहीं
सकते। चलना
तुम्हें ही
होगा; पहुंचना
भी तुम्हें
होगा। तुम
हमारी बात को
सुन लेना, पकड़
मत लेना। बात
को समझ लेना, फिर अपने ही
बोध और अपनी
ही साक्षी—चेतना
और अपने ही
ध्यान से गति
करना। अंतिम
रूप में तो
तुम्हीं
निर्णायक
रहोगे। लेकिन
अगर तुमने
हमें सुना है,
तो कम से कम
तुम उन भूलों
से बच जाओगे, जो हमने कीं।
इस
बात को ठीक से
समझ लो।
शास्त्र
तुम्हें सत्य
तक नहीं
पहुंचा सकते, लेकिन
बहुत—से
असत्यों से
बचा सकते हैं।
उनका उपयोग
नकारात्मक है।
वे तुम्हें
सत्य तक नहीं
पहुंचा सकते,
लेकिन सत्य
के मार्ग पर
बहुत—सी भ्रांतिया
जो हो सकती
हैं, उनसे
तुम्हें बचा
सकते हैं।
तुम्हारा
बहुत—सा भटकाव
बच सकता है, अगर तुम
उनका उपयोग
करना जान लो।
लेकिन
तुम्हारी
हालत ऐसी है, जैसे
मैं देखता हूं
कई लोगों को, कार में रखे
हुए हैं नक्शा,
लेकिन बस वह
रखा रहता है।
उस नक्शो का
न तो उन्हें
उपयोग पता है
कि कैसे? क्योंकि
नक्शो को
देखना आना
चाहिए। नक्शो
की भाषा आनी
चाहिए।
नक्शा
तो संकेत है, संकेत
लिपि है, उसका
कोड है।
रास्ता तो
मीलों का है, नक्शो पर
इंचभर का है। नक्शो
को समझना आना
चाहिए, नक्शो
को सीधा रखकर
पढ़ना आना
चाहिए, नक्शो
की संकेत लिपि
मालूम होनी
चाहिए। और नक्शा
तो केवल सूचक
है, वह कोई
फोटोग्राफ
थोड़े ही है।
उसमें कोई
सारी चीजें
थोड़े ही आ गई
हैं। सारी आ
भी नहीं सकतीं।
और सारी आ
जाएं, तो
तुम कार में
लेकर कैसे
चलोगे! वह तो
सिर्फ प्रतीक
है। जरा से
चिह्न हैं।
अगर नक्शो का
तुम ठीक उपयोग
करो, तो एक
बात पक्की है कि
तुम कम भटकोगे।
कई मार्ग, जिन
पर तुम जा
सकते थे, न
जाओगे।
शास्त्र
का उपयोग
नकारात्मक है, गुरु
का उपयोग
विधायक है।
क्योंकि
शास्त्र
मुरदा है वह
विधायक नहीं
हो सकता, वह
नकारात्मक है।
पर उसका मूल्य
है। इतना ही
क्या कम है कि
सौ भूलें होती
हों, निन्यानबे
हुईं। उतना
समय बचा; उतना
जीवन बचा। और
कौन जानता है,
निन्यानबे
भूलें करके
तुम इतने थक
जाते, हताश
हो जाते, कि
यात्रा ही छोड़
देते।
शास्त्र
बचाता है भूल
करने से, गुरु
संभालता है
सही करने की
तरफ। शास्त्र
और गुरु का
उपयोग ऐसा है,
जैसे कभी
तुमने
कुम्हार को
घड़ा बनाते
देखा हो। चाक
पर चढ़ा देता
है घड़े को, एक
हाथ भीतर कर
लेता है, और
एक हाथ घड़े के
बाहर कर लेता
है। बाहर के
हाथ से थपकी
देता है, घड़े
की दीवार
बनाता है।
भीतर के हाथ
से सम्हालता
है भीतर के
शून्य को।
दोनों हाथ घड़े
को बनाने में
समर्थ हो जाते
हैं। बाहर के
हाथ से चोट
करता जाता है,
भीतर के हाथ
से सम्हालता
रहता है।
शास्त्र
बाहर से
सम्हालते हैं, गुरु
भीतर से। एक
दिन तुम्हारा
घड़ा पककर
तैयार हो जाता
है। जब तक तुम
कच्चे हो, तब
तक सम्हालने
वाले की जरूरत
है। जब तक तुम
आग से नहीं
गुजर गए, तब
तक तुम अपने
ही बल से चलने
की कोशिश
करोगे, तो
पहुंचना करीब—करीब
असंभव है।
मनोकल्पित
तप करते हैं।
क्योंकि
उनका अहंकार
यह नहीं मान
सकता कि वे किसी
का सहारा लें।
दंभ
और अहंकार से
युक्त हैं, कामना,
आसक्ति, बल
और अभिमान से
युक्त हैं।
अहंकार
लक्षण है
तामसी
व्यक्ति का।
अहंकार लक्षण
है राजसी
व्यक्ति का भी।
अहंकार शेष
रहता है
सात्विक
व्यक्ति में
भी। लेकिन
तीनों में
अहंकार की
प्रक्रियाएं
अलग हो जाती
हैं।
तामसी
व्यक्ति में
अहंकार होता
है सोया हुआ।
राजसी
व्यक्ति में
अहंकार होता
है दौड़ता हुआ, गतिमान,
गत्यात्मक,
डायनैमिक।
सात्विक
व्यक्ति में
अहंकार होता है
जागा हुआ, लेकिन
होता है। साधु
में भी अहंकार
होता है, जागा
हुआ। अभी मिट
नहीं गया है।
बड़ा विनम्र हो
गया है, सूक्ष्म
हो गया है, पारदर्शी
हो गया है, आर—पार
देख सकते हो, लेकिन अभी
परदा मौजूद है।
अहंकार
मिटता तो है
जब तीनों ही
शून्य हो जाते
हैं। एक एक को
जब उपलब्ध
होता है, तभी
पूरा जाता है।
तामसी
वृत्ति का
व्यक्ति अपने
ही ढंग सोचता
रहता है, उलटे—सीधे
काम करता रहता
है। न शास्त्र
की सुनता, न
गुरु की, सिर्फ
अहंकार की
सुनता है।
तथा
जो शरीररूप से
स्थित भूत—समुदाय
को और अंतःकरण
में स्थित मुझ
अंतर्यामी को
भी कृश करने वाले
हैं,
उन
अज्ञानियों
को आंसुरी
स्वभाव वाला
जान।
ऐसे
लोग कई उलटे—सीधे
काम करते हैं।
कृष्ण बड़ी
अनूठी बात कह
रहे हैं। कहते
हैं कि न केवल
वे शरीर को
सताते हैं—उपवास
करेंगे, भूखे
मरेंगे, शरीर
को कसेंगे, जलाएंगे, काटेंगे।
क्योंकि
अहंकार सदा
लड़ना चाहता है,
या तो दूसरे
से लड़े या खुद
से लड़े। बिना
लड़े अहंकार बच
नहीं सकता।
तो
जो लोग दूसरों
से नहीं लड़ते।
दुनिया में दो
तरह के लड़ने
वाले लोग हैं।
एक,
जो बाजार
में लड़ रहे
हैं दूसरों से,
प्रतियोगिता,
प्रतिस्पर्धा।
और एक वे हैं, जो जंगलों
में चले गए
हैं, आश्रमों
में बैठ गए
हैं, और लड़
रहे हैं अपने
से। मगर लड़ाई
जारी है।
कृष्ण
कहते हैं कि न
केवल ऐसे
अहंकारी
तामसी व्यक्ति
अपने शरीर से
लड़ने लगते हैं, अपने
शरीर को काटने
और मारने लगते
हैं, बल्कि
मुझ
अंतर्यामी को,
जो उनके
भीतर छिपा हूं
मुझको भी कृश
करते हैं, मुझे
भी सताते हैं।
एक
बात ध्यान
रखना, सताने
से कुछ होगा
नहीं, वह
हिंसा है।
शरीर की
सुरक्षा करना
और भीतर के
अंतर्यामी की
भी। सुरक्षा
का अर्थ यह
नहीं है कि
तुम सुख और
भोग में डूबे
रहना।
क्योंकि सुख
और भोग में
डूबा हुआ भी
शरीर को नष्ट
करता है और
भीतर के
अंतर्यामी को
सताता है।
भोगी भी सताते
हैं, एक
ढंग से, त्यागी
भी सताते हैं,
दूसरे ढंग
से।
तुम
मध्य में रहना, निरति।
तुम संतुलन
साधना। न तो
बहुत भोजन
देना, क्योंकि
बहुत भोजन से
भी शरीर को
कष्ट होता है।
न भूखा रखना, क्योंकि
भूखा रखने से
भी कष्ट होता
है। न तो अति
श्रम करना, क्योंकि अति
श्रम से कष्ट
होता है। न
बिस्तर पर ही
पड़े रहना, क्योंकि
अति विश्राम
भी शरीर को
गलाता और नष्ट
करता है। तुम
सदा मध्य में
होना, अति
मत करना। तो
तुम अपने शरीर
और अपने भीतर
छिपे
अंतर्यामी, दोनों को एक शांत
समरसता का
मार्ग बता
सकोगे।
मुझ
अंतर्यामी को
भी कृश करने
वाले हैं, उन
अज्ञानियों
को आंसुरी
स्वभाव वाला
जान।
वे
असुर हैं। तमस
से घिरे हैं।
अहंकार
तमस का गहनतम
रूप है, वह
अमावस है
अंधेरी रातों
में। रजस से
भरा हुआ
व्यक्ति
सप्तमी—अष्टमी
का चांद है, आधा अंधेरा,
आधा ज्योति।
सत्व से भरा
व्यक्ति
पूर्णिमा की
रात है, पूरे
प्रकाश से भरा।
लेकिन रात है।
तीनों के जो
बाहर आ गया, उसका
सूर्योदय
होता है; उसके
जीवन में सुबह
होती है।
अमावस
को बदलो धीरे—धीरे
आधी रोशनी, आधी
अंधेरी रात
में। आधी
अंधेरी, आधी
रोशनी से भरी
रात को धीरे—
धीरे बदलो पूर्णिमा
की रात में।
तब तुम्हें वह
मार्ग मिल जाएगा,
जो सुबह तक ले
आता है।
सुबह
बहुत दूर नहीं
है,
थोड़ी—सी समझ
और भीतर का थोड़ा—सा
नया समायोजन,
बस इतना ही
चाहिए।
आज इतना
ही।
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