मृत्यु
से न तो मुक्त
होना है और न
मृत्यु को
जीतना है।
मृत्यु
को जानना है।
जानना ही मुक्ति
बन जाता है।
जानना ही जीत
जाता है।
मरने
से हम इतने
डरे हुए लोग
हैं कि मरते
वक्त हम
स्वेच्छा से
ही बेहोश हो
जाते हैं।
मरने के थोड़ी
देर पहले ही
बेहोश हो जाते
हैं। बेहोशी
में ही मरते
हैं, फिर बेहोशी
में ही नया
जन्म हो जाता
है। न हम
मृत्यु को देख
पाते हैं, न
जन्म को देख
पाते हैं। और
इसलिए हम कभी
भी नहीं समझ
पाते हैं कि
जीवन शाश्वत
है। मृत्यु और
जन्म बीच में
आए हुए पड़ाव
से ज्यादा
नहीं हैं, जहां
हम वस्त्र बदल
लेते हैं।
मेरे
प्रिय आत्मन्!
जिसे हम जान
लेते हैं, उससे हम
मुक्त हो जाते
हैं। और जिसे
हम जान लेते
हैं, उसे
हम जीत भी
लेते हैं।
हमारी हार और
पराजय हमारे
अज्ञान के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। अंधकार है,
इसलिए
पराजय है।
प्रकाश हो तो
पराजय असंभव
है। प्रकाश
विजय बन जाएगा।
मृत्यु
के संबंध में
पहली बात आपसे
यह कहना
चाहूंगा कि
मृत्यु से
अधिक असत्य और
कुछ भी नहीं
है। लेकिन
मृत्यु ही
सत्य मालूम
होती है। न
केवल सत्य
मालूम होती है, बल्कि
जीवन का
केंद्रीय
सत्य भी वही
मालूम होती है।
और ऐसा प्रतीत
होता है कि
सारा जीवन
मृत्यु से
घिरा हुआ है।
और चाहे हम
भूल जाते हों,
भुला देते
हों, लेकिन
फिर भी मृत्यु
चारों तरफ
निकट ही खड़ी
रहती है। अपनी
छाया से भी
ज्यादा अपने
पास मृत्यु है।
जीवन
का जो रूप
हमने दिया है, वह भी
मृत्यु के भय
के कारण ही
दिया है।
मृत्यु के भय
ने समाज बनाया
है, राष्ट्र
बनाए हैं, परिवार
बनाए हैं, मित्र
इकट्ठे किये
हैं। मृत्यु
के भय ने धन
इकट्ठे करने
की दौड़ दी है, मृत्यु के
भय ने पदों की
आकांक्षा दी
है, और
सबसे बड़ा
आश्चर्य यह है
कि मृत्यु के
भय ने ही हमारे
भगवान और
हमारे मंदिर
भी खड़े कर दिए
हैं। मृत्यु
से भयभीत
घुटने टेक कर
प्रार्थना
करते हुए लोग
हैं। मृत्यु
से भयभीत आकाश
की तरफ, परमात्मा
की तरफ हाथ
जोड़े हुए लोग
हैं। और
मृत्यु से
ज्यादा असत्य
कुछ भी नहीं
है। इसीलिए
मृत्यु को
सत्य मानकर
हमने जो भी
जीवन की
व्यवस्था की
है, वह सब
भी असत्य हो
गई है।
लेकिन
मृत्यु का
असत्य हमें
कैसे पता चले? यह हम
कैसे जान पाएं
कि मृत्यु
नहीं है? और
जब तक हम यह न
जान पाएं, तब
तक हमारा भय
भी विलीन नहीं
होगा। और जब
तक हम यह न जान
पाएं कि
मृत्यु असत्य
है, तब तक
जीवन हमारा
सत्य नहीं हो
सकता है। जब
तक मृत्यु का
भय है, तब
तक जीवन सत्य
नहीं हो सकता
है। और जब तक
मृत्यु से हम
डरे हुए कैप
रहे हैं, तब
तक जीवन को
जीने की
क्षमता भी हम
नहीं जुटा सकते।
जीवन
को केवल वही
जी सकता है, जिसके
सामने से
मृत्यु की
छाया विदा और
विलीन हो गई
है। कंपता हुआ
मन कैसे जीएगा?
डरा हुआ मन
कैसे जीएगा? और मौत जब
प्रतिपल आती
हुई मालूम
पड़ती हो तो हम
कैसे जीएं? हम कैसे जी
सकते हैं?
और हम
कितना ही
भुलाए रखें
मृत्यु को, वह भूली
नहीं रहती।
मरघट हम गांव
के बाहर बनाएं
तो भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता, वह
दिखाई पड़ ही
जाता है। रोज
कोई न कोई
मरता है, रोज
कहीं न कहीं
मृत्यु घटित
होती है और
हमारे जीवन की
सारी की सारी
नींव हिल जाती
है। और
प्रत्येक बार
जब भी मृत्यु
घटती हुई
दिखाई पडती है,
तभी हम
जानते हैं कि
मैं भी मरूंगा।
जब हम किसी की
मृत्यु पर
रोते है, तब
हम सिर्फ उसकी
मृत्यु पर ही
नहीं रोते, अपनी मृत्यु
की खबर पर भी
रोते हैं। और
जब हम दुखी और
पीड़ित होते
हैं दूसरे की
मृत्यु देखकर,
तब हम दूसरे
की मृत्यु को
देखकर ही दुखी
और पीड़ित नहीं
होते, उसमें
हमारे मरने की
संभावना भी
प्रकट हो गई होती
है।
हर
मृत्यु हमारी
मृत्यु भी है।
और ऐसे जब तक
हम घिरे रहें, तब तक हम
कैसे जी
सकेंगे? तब
तक जीना असंभव
है। तब तक
हमें जीवन का
पता भी नहीं
चल सकता, न
उसके आनंद का,
न उसके
सौंदर्य का, न उसके रस का।
तब तक जीवन का
जो परम सत्य
है—परमात्मा,
उसके मंदिर
के द्वार पर
भी हम नहीं
पहुंच सकते।
मृत्यु
के भय ने एक
तरह के मंदिर
निर्मित किए हैं, वे
परमात्मा के
मंदिर नहीं
हैं। और
मृत्यु के भय
से एक तरह की
प्रार्थनाएं
निर्मित हुई
हैं, वे भी
परमात्मा की
प्रार्थनाएं
नहीं हैं।
परमात्मा के
मंदिर पर तो
वह पहुंचता है,
जो जीवन के
आनंद से
परिपूरित हो
जाता है। और
परमात्मा की
सीढ़ियां जीवन
के सौंदर्य और
जीवन के रस से
भरी हुई हैं।
और परमात्मा
के द्वार की
घंटियां
सिर्फ उनके लिए
बजती हैं, जो
सब तरह के भय
से मुक्त होकर
अभय हो जाते
हैं।
तब तो
बडी कठिनाई
मालूम पड़ती है।
हम मृत्यु से
भरे हुए जीना
चाहते हैं।
ऐसा कभी भी
नहीं हो सकता
है। दो में से
एक ही बात
सत्य हो सकती
है। ध्यान रहे, यदि जीवन
सत्य है, तो
मृत्यु सत्य
नहीं हो सकती,
और अगर
मृत्यु सत्य
है, तो जीवन
सिर्फ एक सपना
होगा—एक झूठ।
वह सत्य नहीं
हो सकता है।
ये दोनों
बातें एक साथ
होनी असंभव
हैं।
लेकिन
हमने इन दोनों
बातों को एक
साथ पकड़ रखा है।
ऐसा भी लगता
है कि हम जीते
हैं, और
ऐसा भी लगता
है कि हम
मरेंगे।
मैंने
सुना है कि
किसी दूर पहाड़
की तलहटी के पास
एक फकीर का
निवास था।
बहुत लोग उसके
पास बहुत—सी
बातें पूछने
चले जाते थे।
एक बार एक
आदमी उससे
पूछने गया कि
हमें जीवन और
मृत्यु के
संबंध में कुछ
बताएं। उस
फकीर ने कहा, अगर जीवन
के संबंध में
जानना हो तो
स्वागत है तुम्हारा,
आओ द्वार
खुले हैं।
लेकिन अगर
मृत्यु के
संबंध में
जानना हो तो
कहीं और जाओ, क्योंकि मैं
न तो कभी मरा
हूं और न कभी
मर सकता हूं।
मृत्यु का
मुझे कोई
अनुभव नहीं है।
अगर मृत्यु के
संबंध में
जानना है तो
उनसे पूछो जो
मर चुके हैं, उनसे पूछो
जो मर गए हैं।
लेकिन तब वह
फकीर हंसने
लगा और उसने
कहा कि उनसे
तुम पूछोगे
कैसे जो मर ही
चुके हैं!
उनसे पूछने का
भी तो कोई
उपाय नहीं है।
और उस फकीर ने
यह भी कहा कि
अगर तुम मुझसे
यह पूछो कि
किसी मरे हुए
का पता—ठिकाना
दे दूं र तो भी
मैं नहीं दे
सकता।
क्योंकि जब से
मुझे यह पता
चला है कि मैं
नहीं मर सकता हूं, तब से मुझे
यह भी पता चल
गया है कि कोई
कभी नहीं मरता
है। कोई मरा
ही नहीं है, उस फकीर ने
कहा।
कैसे
हम मानें उसकी
बात? हम
तो रोज किसी
को मरते देखते
हैं। रोज
मृत्यु घटित
होती है।
मृत्यु बड़ा
सत्य है, प्राणों
को छेद कर
दिखाई पड़ता है।
आंखें बंद
करें कितनी ही,
तो भी दिखाई
पड़ता है! कितना
ही भागें और
बचें, वह
तो हमें घेर
ही लेती है।
इस सत्य को
कैसे झुठला
दें?
कुछ
लोग झुठलाने
की कोशिश भी
करते हैं। कुछ
लोग मृत्यु से
भय के कारण ही
यह मान लेते हैं
कि आत्मा अमर
है—सिर्फ भय
के कारण।
जानते नहीं
हैं, सिर्फ
मान लेते हैं।
कुछ लोग रोज
सुबह उठकर यह
दोहरा रहे हैं—मंदिरों
में बैठकर, मस्जिदों
में बैठकर—कि
आत्मा अमर है,
आत्मा कभी
नहीं मरती, आत्मा अमर
है। और वे इस
भ्रम में हैं
कि शायद बार—बार
दोहराने से
आत्मा अमर हो
जाएगी। और
शायद वे इस
खयाल में हैं
कि बार—बार
दोहराने से
मौत को झूठा
किया जा सकता
है। मौत झूठी
नहीं होती है
दोहराने से।
मौत तो सिर्फ
जानने से झूठी
हो सकती है।
ध्यान
रहे, यह
बहुत आश्चर्य
की बात है कि
हम जिस बात को
दोहराते हैं,
उससे
विपरीत को हम
सदा स्वीकार
करते हैं। जब
एक आदमी कहता
है कि मैं अमर हूं, आत्मा अमर
है, और
इसको दोहराता
है, तब वह
इस बात का पता
देता है कि
भीतर वह जानता
है कि मैं मरूंगा,
मुझे मरना
पड़ेगा। अगर वह
यह जानता 'है
कि मैं मरूंगा
नहीं, तो
अब इस बात को
दोहराने की
कोई भी जरूरत
नहीं है। इसे
सिर्फ
दोहराता वही
है, जो डरा
हुआ है।
और
इसलिए यह
दिखाई पड़ेगा
कि जो देश, जो समाज,
आत्मा की
अमरता की
बातें करते
हैं, उनसे
ज्यादा मौत से
डरनेवाले लोग
खोजने कठिन हैं।
यह हमारा ही
देश है जो
आत्मा की
अमरता की बात
करते थकता
नहीं है, लेकिन
फिर भी हमसे
ज्यादा मौत से
कोई डरता है इस
पृथ्वी पर? हमसे ज्यादा
मौत से कोई भी
नहीं डरता है।
इन
दोनों बातों
में कैसे तालमेल
बैठेगा? आत्मा को जो
अमर मानते हैं,
उनके गुलाम
होने की कभी
संभावना है? वे मर
सकेंगे। मरने
के लिए तैयार
रहेंगे।
क्योंकि वे
जानते हैं कि
मृत्यु है ही
नहीं। जो
जानते हैं कि
जीवन अमर है, आत्मा अमर
है, वे
पहले चांद पर
उतरेंगे। वे
पहले एवरेस्ट
पर चढ़ेंगे। वे
पहले प्रशांत
महासागर की
गहराइयों में
उतरेंगे।
नहीं, हम उनमें
से नहीं हैं।
न हम एवरेस्ट
की चोटी पर
चढ़ते हैं, न
हम चांद पर
उतरते हैं, न हम
पैसेफिक
महासागर की
गहराइयों में
जाते हैं, और
हम आत्मा को
अमर
माननेवाले
लोग हैं। हम
असल में इतना
डरते हैं
मृत्यु से कि
उसी डर के
कारण हम आत्मा
अमर है, इसको
भी दोहराते
रहते हैं। और
हमें यह भ्रम
है कि शायद
बार—बार दोहरा
लेने से, जो
हम दोहरा रहे
हैं वह सच हो
जाएगा।
दोहराने से
कोई भी बात सच
नहीं हो सकती
है। मृत्यु
नहीं है, ऐसा
दोहराने से
मृत्यु नहीं
नहीं हो जाएगी।
मृत्यु को जानना
पड़ेगा कि क्या
है, मृत्यु
का
साक्षात्कार
करना पड़ेगा कि
मृत्यु क्या
है। मृत्यु को
आंखों के
सामने खड़ा
करना पड़ेगा, देखना पड़ेगा,
जीना पड़ेगा,
मृत्यु से
पहचान करनी
पड़ेगी।
और हम
सब तो मृत्यु
की तरफ पीठ
करके भागते
रहते हैं, तो
मृत्यु को देख
कैसे सकेंगे।
हम तो सब
मृत्यु की तरफ
आख बंद कर
लेते हैं।
बाहर कोई मरता
हो, रास्ते
पर किसी की
लाश निकलती हो,
तो मां अपने
बेटे को घर के
भीतर बंद कर
लेती है और
कहती है कि
बाहर मत जाओ, कोई मर गया
है। मरघट
इसीलिए गांव
के बाहर बनाते
हैं ताकि वह बार—बार
दिखाई न पड़े।
मौत आमने —
सामने न आ जाए।
अगर किसी से
मरने की बात
करो तो वह
कहेगा, ये
बातें मत करिए।
एक
संन्यासी के
साथ मैं कुछ
दिन तक ठहरा
हुआ था। वे
संन्यासी रोज—रोज
आत्मा की
अमरता की बात
चलाते थे।
मैंने उनसे
कहा, कभी
आप यह भी
सोचते हैं कि
आपके मरने का
दिन करीब आ
रहा है? उन्होंने
कहा कि ऐसी
अपशकुन की
बातें मत करिए।
यह बात ही मत
करिए। यह बात
करनी ठीक नहीं
है। मैंने
उनसे कहा, जो
आदमी कहता है,
आत्मा अमर
है, उसे
मृत्यु की बात
में अपशकुन
दिखाई पड़े, तब तो बडी
गड़बड़ हो गई।
मृत्यु की बात
में तो उसे
कोई भी भय, और
कोई भी अपशकुन
और कोई भी
बुराई नहीं दिखाई
पड़नी चाहिए।
क्योंकि
मृत्यु तो
उसके लिए है
ही नहीं।
उन्होंने कहा
कि ही, आत्मा
अमर है। और
फिर भी मैं
मृत्यु के
बाबत कुछ बात
करने की इच्छा
नहीं रखता हूं।
ऐसी बेकार की
बातें नहीं
करनी चाहिए, ऐसी खतरनाक
बातें नहीं
करनी चाहिए।
हम सब
भी यही कर रहे
हैं। और मृत्यु
की तरफ पीठ
करके भागे हुए
हैं।
मैंने
सुना है कि एक
गांव में एक
बार एक आदमी को
एक बड़ा पागलपन
सवार हो गया।
वह एक रास्ते
से गुजर रहा
था। भरी
दोपहरी थी, अकेला
रास्ता था, निर्जन था।
तेजी से चल
रहा था कि
निर्जन में
कोई डर न हो जाए।
हालाकि
डर वहां हो भी
सकता है, जहां कोई और
हो, जहां
कोई भी नहीं
है, वहां
डर का क्या
उपाय हो सकता
है! लेकिन हम
वहां बहुत
डरते हैं, जहां
कोई भी नहीं
होता है। असल
में हम अपने
से ही डरते
हैं। और जब हम
अकेले रह जाते
हैं, तो
बहुत डर लगने
लगता है। हम
अपने से जितना
डरते हैं, उतना
किसी से भी
नहीं डरते।
इसलिए कोई साथ
हों—कोई भी
साथ हो —तो भी
डर कम लगता है।
और बिलकुल
अकेले रह जाएं,
तो बहुत डर
लगने लगता है।
वह
आदमी अकेला था
और डर गया और
भागने लगा। और
सन्नाटा था, सुनसान
था, दोपहर
थी, कोई भी
न था। जब वह
तेजी से भागा,
तो उसे अपने
ही पैरों की
आवाज पीछे से
आती हुई मालूम
पड़ी। और वह
डरा कि शायद
कोई पीछे है।
फिर उसने डरे
हुए, चोरी
की आख से पीछे
झांककर देखा,
तो एक लंबी
छाया उसका
पीछा कर रही
थी। वह उसकी
अपनी ही छाया
थी। लेकिन यह
देखकर कि कोई
लंबी छाया
पीछे पड़ी हुई
है, वह और
भी तेजी से
भागा। फिर वह
आदमी कभी रुक
नहीं सका मरने
के पहले।
क्योंकि वह
जितनी तेजी से
भागा, छाया
उतनी ही तेजी
से उसके पीछे
भागी। फिर वह
आदमी पागल हो
गया।
लेकिन
पागलों को
पूजनेवाले भी
मिल जाते हैं।
जब वह गांव से
भागता हुआ
निकलता और लोग
देखते कि वह
भागा जा रहा
है, तो
लोग समझते कि
वह बड़ी तपश्चर्या
में रत है। वह
कभी रुकता
नहीं था। वह
सिर्फ रात के
अंधेरे में
रुकता था, जब
छाया खो जाती
थी। तब वह
सोचता था कि
अब कोई पीछे
नहीं है। सुबह
हुई और वह
भागना शुरू कर
देता था। फिर
तो बाद में
उसने रात में
भी रुकना बंद
कर दिया। उसे
ऐसा समझ में
आया कि जब तक
मैं विश्राम
करता हूं? मालूम
होता है, जितना
दूर भागकर दिन
भर में मैं
दूर निकलता हूं, उतनी देर
में छाया फिर
वापस आ जाती
है, सुबह
फिर मेरे पीछे
हो जाती है।
तब
उसने रात में
भी रुकना बंद
कर दिया। फिर
वह पूरा पागल
हो गया। फिर
वह खाता भी
नहीं, पीता
भी नहीं।
भागते हुए
लाखों की भीड़
उसको देखती, फूल फेंकती।
कोई राह चलते
उसके हाथ में
रोटी पकड़ा
देता, कोई
पानी पकड़ा
देता। उसकी
पूजा बढ़ती चली
गई। लाखों लोग
उसका आदर करने
लगे।
लेकिन
वह आदमी पागल
होता चला गया।
और अंततः वह
आदमी एक दिन
गिरा और मर
गया। गांव के
लोगों ने, जिस गांव
में वह मरा था,
उसकी कब्र
बना दी एक
वृक्ष के नीचे
छाया में। और
उस गांव के एक
बूढ़े फकीर से
उन्होंने
पूछा कि हम
इसकी कब्र पर
क्या लिखें? तो उस फकीर
ने एक लाइन
उसकी कब पर
लिख दी।
किसी
गांव में, किसी जगह,
वह कब्र अब
भी है। हो
सकता है, कभी
आपका उस जगह
से निकलना हो,
तो पढ़ लेना।
उस कब्र पर उस
फकीर ने लिख
दिया है कि
यहां एक ऐसा
आदमी सोता है,
जो जिंदगी
भर अपनी छाया
से भागता रहा
है, जिसने
जिंदगी छाया
से भागने में
गंवा दी। और
उस आदमी को
इतना भी पता
नहीं था, जितना
उसकी कब को
पता है।
क्यौंकि कब्र
छाया में है
और भागती नहीं,
इसलिए कब्र
की कोई छाया
ही नहीं बनती
है। इसके भीतर
जो सोया है
उसे इतना भी
पता नहीं था, जितना उसकी
कब को पता है।
हम भी
भागते हैं।
हमें आश्चर्य
होगा कि कोई
आदमी छाया से
भागता था। हम
सब भी छायाओं
से ही भागते
रहते हैं। और
जिससे हम
भागते हैं, वही
हमारे पीछे पड़
जाता है। और
जितनी तेजी से
हम भागते हैं,
उसकी दौड़ भी
उतनी ही तेज
हो जाती है, क्योंकि वह
हमारी ही छाया
है।
मृत्यु
हमारी ही छाया
है। और अगर हम
उससे भागते
रहे तो हम
उसके सामने कभी
खड़े होकर
पहचान न
पाएंगे कि वह
क्या है। काश, वह आदमी
रुक जाता और
पीछे लौटकर
देख लेता, तो
शायद अपने पर
हंसता और कहता,
कैसा पागल हूं, छाया से
भागता हूं।
अब
छाया से कोई
भागे, तो
कभी भी भाग
नहीं सकता। और
छाया से कोई
लड़े, तो
कभी भी जीत
नहीं सकता।
इसका यह मतलब
नहीं है कि
छाया बहुत
ताकतवर है, उससे हम जीत
नहीं सकते।
इसका केवल
इतना ही मतलब
है कि छाया है
ही नहीं, उससे
जीतने की कोई
बात ही नहीं
उठती। जो नहीं
है, उससे
जीता नहीं जा
सकता है।
इसीलिए
लोग मृत्यु से
हारते चले
जाते हैं, क्योंकि
मृत्यु केवल
जीवन की छाया
है। जब जीवन
चलता है, तो
छाया भी चलती
है उसके पीछे।
वह जीवन के
पीछे
बननेवाली
शैडो है, और
हम कभी लौटकर
नहीं देखना
चाहते कि वह
क्या है। तो
हम कई बार दौड़—दौड़
कर, थक— थक
कर गिर चुके
हैं बहुत बार।
इस तट पर आप
पहली ही बार
आए होंगे, ऐसा
नहीं है। और
बहुत बार भी आ
चुके होंगे।
यह तट न रहा
होगा, कोई
और तट रहा
होगा। यह शरीर
न रहा होगा, कोई और शरीर
रहा होगा।
लेकिन दौड़ यही
रही होगी, पैर
यही रहे होंगे,
भाग यही रही
होगी।
वही
मृत्यु से
डरते हुए हम
अनेक जीवन जी
लेते हैं, और फिर भी
पहचान नहीं
पाते और देख
नहीं पाते। और
हम इतने भयभीत
और इतने डरे
हुए लोग हैं
कि जब मौत
सामने आती है,
जब वह पूरी
छाया हमें
घेरती है, तब
हम डर के कारण
बेहोश हो जाते
हैं।
कोई भी
आदमी साधारणत:
मरते क्षण होश
में नहीं रहता।
अगर होश में
एक बार रह जाए, तो फिर
मृत्यु का भय
उसके लिए सदा
के लिए विलीन
हो जाए। अगर
वह एक दफा देख
ले कि मरना
यानी क्या, मरने में
होता क्या है,
तो फिर
दुबारा उसे
मृत्यु का भय
न रहे, क्योंकि
मृत्यु ही न
रहे। और ऐसा
नहीं है कि वह
मृत्यु पर
विजय पा ले।
विजय तो हम उस
पर पाते हैं
जो हो। सिर्फ
जानने से ही
मृत्यु मिट
जाती है। विजय
पाने को कुछ
शेष नहीं रह
जाता है।
लेकिन
हम भी बहुत
बार मरे हैं।
लेकिन जब भी
मरे हैं, तब बेहोश हो
गए हैं। जैसा
कि डाक्टर या
सर्जन आपरेशन
करता है, तो
आपरेशन के
पहले बेहोशी
की दवा दे
देता है, ताकि
आपको पता न
चले कि तकलीफ
हो रही है, पीड़ा
हो रही है।
मरने से हम
इतने डरे हुए
लोग हैं कि
मरते वक्त हम
स्वेच्छा से
ही बेहोश हो
जाते हैं।
मरने के थोड़ी
देर पहले ही
बेहोश हो जाते
हैं। बेहोशी
में ही मरते
हैं, फिर
बेहोशी में ही
नया जन्म हो
जाता है। न हम
मृत्यु को देख
पाते हैं, न
जन्म को देख
पाते हैं। और
इसलिए हम कभी
भी नहीं समझ
पाते हैं कि
जीवन शाश्वत
है। मृत्यु और
जन्म बीच में
आए हुए पड़ाव
से ज्यादा
नहीं हैं, जहां
हम वस्त्र बदल
लेते हैं या
घोड़े बदल लेते
हैं।
पुराने
जमाने में
रेलगाड़ियां न
थीं, लोग
घोड़ों की
गाडियों से
यात्रा करते
थे। तो एक
गांव से दूसरे
गांव जाते थे,
फिर वहां
घोड़े बदल लेते
थे, क्योंकि
घोड़े थक जाते
थे। घोड़े बदल
कर वापस कर
देते, दूसरे
घोड़े उस सराय
से ले लेते थे।
फिर आगे के
गांव में घोड़े
बदल लेते थे।
लेकिन उन घोड़े
बदलनेवालों
को ऐसा नहीं
लगता था कि हम
मर गए, हमारा
फिर जन्म हुआ
है। क्योंकि
वे होश में
बदलते थे।
लेकिन
कभी—कभी ऐसा
भी होता था कि
कोई घोड़ेवाला
शराब पीकर
यात्रा करता
था। तो जब
घोड़े तो बदल
जाते थे, जैसे ही
घोड़ा बदलता था,
जब वह फिर
गौर से देखता
था तो वह कहता
था, अरे! यह
सब बदल गया, यह सब दूसरा
हो गया।
मैंने
सुना है कि
कभी कोई शराब
पीने वाले
घुड़सवार ने यह
भी कहा था कि
कहीं मैं भी
तो नहीं बदल गया!
यह वह घोड़ा
नहीं है, यह वह घोड़ा
नहीं मालूम
होता है जिस
पर मैं था, तो
मैं कहीं
दूसरा आदमी तो
नहीं हो गया
हूं।
जन्म
और मृत्यु
सिर्फ वाहन
बदलने के
स्थान हैं, जहां
पुराना वाहन
छोड़ दिया जाता
है। थके घोड़े
छोड़ दिए जाते
हैं और ताजे
घोड़े ले लिये
जाते हैं।
लेकिन ये
दोनों कृत्य
हमारी बेहोशी
में हो जाते
हैं। और जिसका
जन्म और
मृत्यु बेहोशी
में है, उसका
जीवन भी होश
में नहीं हो
सकता है। उसका
जीवन भी करीब—करीब
अर्द्ध —बेहोशी
में, अर्द्ध
—मूर्च्छित ही
रह जाता है।
तो मैं
क्या कहना
चाहता हूं? मैं यह
कहना चाहता
हूं कि मृत्यु
को देखना जरूरी
है, जानना
जरूरी है, उसे
पहचानना
जरूरी है।
लेकिन यह तो
जब मरेंगे, तब हो सकता
है। मैं जब
मरूंगा, तब
देख सकूंगा।
फिर अभी क्या
उपाय है? और
जब कोई मरेगा,
तब अगर देख
सकेगा तो फिर
समझना कि उपाय
ही नहीं है।
क्योंकि वह
बेहोश ही हो
जाएगा मरते
वक्त।
हौ, अभी एक
उपाय है। अभी
हम स्वेच्छा
से मृत्यु में
प्रवेश का प्रयोग
कर सकते हैं।
और मैं आपसे
कहना चाहता
हूं कि ध्यान
या समाधि और
कुछ भी नहीं
है। ध्यान और
समाधि
स्वेच्छा से
मृत्यु के
अनुभव में
प्रवेश है। जो
शरीर के छूटने
पर एक दिन
अपने आप घटित
होगी घटना, वह हम अभी भी
अपनी
स्वेच्छा से
शरीर को भीतर
छोड्कर हट जा
सकते हैं और
जान सकते हैं
कि मृत्यु हो
गई, मृत्यु
गुजर गई। हम
मृत्यु का आज
भी, इस रात
भी
साक्षात्कार
कर सकते हैं।
क्योंकि
मृत्यु की
घटना का कुल
इतना मतलब है कि
हमारा शरीर और
हमारी आत्मा
एक उस यात्रा
पर भेद को
अनुभव कर लें,
जहां
बैलगाड़ी छूट
जाती है और
यात्री आगे
निकल जाता है।
मैंने
सुना है, शेख फरीद के
पास कभी एक
आदमी गया। और
उस आदमी ने
पूछा कि सुनते
हैं हम कि जब
मसूर के हाथ
काटे गये, पैर
काटे गये, तो
मंसूर को कोई
तकलीफ न हुई, लेकिन
विश्वास नहीं
आता। पैर में
काटा गड़ जाता
है, तो
तकलीफ होती है।
हाथ —पैर
काटने से
तकलीफ न हुई
होगी? यह
सब कपोल—कल्पित
कहानियां
मालूम होती
हैं। और उस
आदमी ने कहा, यह भी हम
सुनते हैं कि
जब जीसस को
सूली पर लटकाया
गया, तो वे
जरा भी दुखी न
हुए। और जब
उनसे कहा गया
कि अंतिम कुछ
प्रार्थना करनी
हो तो कर सकते
हो। तो सूली
पर लटके हुए, काटो से
छिदे हुए, हाथों
में खीलों से
बिंधे हुए, लहू बहते
हुए उस नंगे
जीसस ने अंतिम
क्षण में जो
कहा वह
विश्वास के
योग्य नहीं है,
उस आदमी ने
कहा। जीसस ने
यह कहा कि
क्षमा कर देना
इन लोगों को, क्योंकि ये
नहीं जानते कि
ये क्या कर
रहे हैं।
यह
वाक्य आपने भी
सुना होगा। और
सारी दुनिया
में जीसस को
मानने वाले
लोग निरंतर
इसको दोहराते
हैं। यह वाक्य
बड़ा सरल है।
जीसस ने कहा
कि इन लोगों
को क्षमा कर
देना परमात्मा, क्योंकि
ये नहीं जानते
कि ये क्या कर
रहे हैं।
आमतौर से इस
वाक्य को
पढनेवाले ऐसा
समझते हैं कि
जीसस ने यह
कहा कि ये
बेचारे नहीं
जानते कि मुझ
अच्छे आदमी को
मार रहे हैं, इनको पता
नहीं है।
नहीं, यह मतलब
जीसस का न था।
जीसस का मतलब
यह था कि इन
पागलों को यह
पता नहीं है
कि जिसको ये
मार रहे हैं, वह मर ही
नहीं सकता है।
इनको माफ कर
देना, क्योंकि
इन्हें पता
नहीं है कि ये
क्या कर रहे
हैं। ये एक
ऐसा काम कर
रहे हैं, जो
असंभव है। ये
मारने का काम
कर रहे हैं, जो असंभव है।
उस
आदमी ने कहा
कि विश्वास
नहीं आता कि
कोई मारा जाता
हुआ आदमी इतनी
करुणा दिखा
सकता हो। उस
वक्त तो वह
क्रोध से भर
जाएगा।
फरीद
खूब हंसने लगा।
और उसने कहा
कि तुमने
अच्छा सवाल
उठाया। लेकिन
सवाल का जवाब
मैं बाद में
दूंगा, एक छोटा—सा
मेरा काम कर
लाओ। पास में
पड़ा हुआ एक
नारियल उठाकर
दे दिया उस आदमी
को, और कहा
कि इसे फोड़
लाओ। लेकिन
ध्यान रहे, इसकी गिरी
को पूरा बचा
लाना, गिरी
टूट न जाये।
लेकिन वह
नारियल था
कच्चा। उस
आदमी ने कहा, माफ करिए, यह काम
मुझसे न हो सकेगा।
नारियल
बिलकुल कच्चा
है। और अगर
मैंने इसकी
खोल तोड़ी, तो
गिरी भी टूट
जाएगी। तो उस
फकीर ने कहा, उसे रख दो।
दूसरा नारियल
उसने दिया जो
कि सूखा था और
कहा कि अब इसे
तोड़ लाओ। इसकी
गिरी तो तुम
बचा सकोगे? उस आदमी ने
कहा, इसकी
गिरी बच सकती
है।
तो उस
फकीर ने कहा
कि मैंने
तुम्हें जवाब
दिया, कुछ
समझ में आया? उस आदमी ने
कहा, मेरी
कुछ समझ में
नहीं आया।
नारियल से और
मेरे जवाब का
क्या संबंध है?
मेरे सवाल
का क्या संबंध
है? उस
फकीर ने कहा, यह नारियल
भी रख दो, कुछ
फोड़ना—फाड़ना
नहीं है। मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं कि एक
कच्चा नारियल
है, जिसकी
गिरी और खोल
अभी आपस में
जुड़ी हुई है।
अगर तुम उसकी
खोल को चोट
पहुचाओगे तो
उसकी गिरी भी
टूट जाएगी।
फिर एक सूखा
नारियल है।
सूखे नारियल
और कच्चे
नारियल में
फर्क ही क्या
है? एक
छोटा—सा फर्क
है कि सूखे
नारियल की
गिरी सिकुड़ गई
है भीतर और
खोल से अलग हो
गई है। गिरी
और खोल के बीच
में एक फासला,
एक
डिस्टेंस हो
गया है, एक
दूरी हो गई है।
अब तुम कहते
हो कि इसकी हम
खोल तोड़ देंगे
तो गिरी बच
सकती है। तो
मैंने
तुम्हारे
सवाल का जवाब
दे दिया।
उस
आदमी ने कहा, मैं फिर
भी नहीं समझा।
तो उस फकीर ने
कहा, जाओ, मरो और समझो।
इसके बिना तुम
समझ नहीं सकते।
लेकिन तब भी
तुम समझ नहीं
पाओगे, क्योंकि
तब तुम बेहोश
हो जाओगे। खोल
और गिरी एक
दिन अलग होंगे,
लेकिन तब
तुम बेहोश हो
जाओगे। और अगर
समझना है, तो
अभी खोल और
गिरी को अलग
करना सीखो।
अभी, जिंदा
में। और अगर
अभी खोल और
गिरी अलग हो जाएं,
तो मौत खतम
हो गई। वह
फासला पैदा
होते से ही हम
जानते हैं कि
खोल अलग, गिरी
अलग। अब खोल
टूट जाएगी तो
भी मैं बचूंगा,
तो भी मेरे
टूटने का कोई
सवाल नहीं है,
तो भी मेरे
मिटने का कोई
सवाल नहीं है।
मृत्यु घटित
होगी, तो
भी मेरे भीतर
प्रवेश नहीं
कर सकती है, मेरे बाहर
ही घटित होगी।
यानी वही
मरेगा, जो
मैं नहीं हूं।
जो मैं हूं, वह बच जाएगा।
ध्यान
या समाधि का
यही अर्थ है
कि हम अपनी
खोल और गिरी
को अलग करना
सीख जाएं। वे
अलग हो सकते
हैं, क्योंकि
वे अलग हैं।
वे अलग—अलग
जाने जा सकते
हैं, क्योंकि
वे अलग हैं।
इसलिए ध्यान को
मैं कहता हूं
स्वेच्छा से
मृत्यु में
प्रवेश, वालेंटरी
एन्ट्रेस
इनटू डेथ, अपनी
ही इच्छा से
मौत में
प्रवेश। और जो
आदमी अपनी
इच्छा से मौत
में प्रवेश कर
जाता है, वह
मौत का साक्षात्कार
कर लेता है कि
यह रही मौत और
मैं अभी भी
हूं।
सुकरात
मर रहा है, आखिरी
क्षण है। जहर
पीसा जा रहा
है उसे मारने
के लिए। और वह
बार—बार पूछता
है कि बड़ी देर
हो गई, जहर
कब तक पिस
पाएगा! उसके
मित्र रो रहे
हैं और कह रहे
हैं कि आप
पागल हो गए
हैं। हम तो
चाहते हैं कि
थोड़ी देर और
जी लें। तो
हमने जहर
पीसने वाले को
रिश्वत दी है,
समझाया—बुझाया
है कि थोड़े
धीरे — धीरे
पीसना। वह
सुकरात बाहर
उठकर पहुंच
जाता है और
जहर पीसनेवाले
से पूछता है
कि बड़ी देर
लगा रहे हो, बड़े अकुशल
मालूम होते हो,
नए —नए पीस
रहे हो? पहले
कभी नहीं पीसा?
पहले किसी
फांसी की सजा
दिए हुए आदमी
को तुमने जहर
नहीं दिया है?
वह
आदमी कहता है, जिंदगी
भर से दे रहा
हूं। लेकिन
तुम जैसा पागल
आदमी मैंने
नहीं देखा।
तुम्हें इतनी
जल्दी क्या
पड़ी है? और
थोड़ी देर सांस
ले लो, और
थोड़ी देर जी
लो, और
थोड़ी देर
जिंदगी में रह
लो। तो मैं
धीरे पीस रहा
हूं। और तुम
खुद ही पागल
की तरह बार —बार
पूछते हो कि
बड़ी देर हुई
जा रही है।
इतनी जल्दी
क्या है मरने
की?
सुकरात
कहता है कि
बड़ी जल्दी है, क्योंकि
मैं मौत को
देखना चाहता
हूं। मैं
देखना चाहता
हूं कि मौत
क्या है। और
मैं यह भी
देखना चाहता
हूं कि मौत भी
हो जाए और फिर
भी मैं बचता
हूं या नहीं
बचता हूं। अगर
नहीं बचता हूं, तब तो सारी
बात ही समाप्त
हो जाती है।
और अगर बचता
हूं तो मौत
समाप्त हो
जाती है। असल
में मैं यह
देखना चाहता
हूं कि मौत की
घटना में कौन
मरेगा, मौत
मरेगी कि मैं
मरूंगा। मैं
बचूंगा या मौत
बचेगी, यह
मैं देखना
चाहता हूं। तो
बिना जाए कैसे
देखूं।
फिर
सुकरात को जहर
दे दिया गया।
सारे मित्र
छाती पीटकर रो
रहे हैं, वे होश में
नहीं हैं, और
सुकरात क्या
कर रहा है? सुकरात
उनसे कह रहा
है कि मेरे
पैर मर गए, लेकिन
अभी मैं जिंदा
हूं। सुकरात
कह रहा है, मेरे
घुटने तक जहर
चढ़ गया है, मेरे
घुटने तक के
पैर बिलकुल मर
चुके हैं। अब
अगर तुम
इन्हें काटो,
तो भी मुझे
पता नहीं
चलेगा। लेकिन
मित्रो, मैं
तुमसे कहता
हूं कि मेरे
पैर तो मर गए
हैं, लेकिन
मैं जिंदा हूं।
यानी एक बात
पक्की पता चल
गई कि मैं पैर
नहीं था। मैं
अभी हूं मैं
पूरा का पूरा
हूं। मेरे
भीतर अभी कुछ
भी कम नहीं हो
गया है। फिर
सुकरात कहता
है कि अब मेरे
पूरे पैर ही
जा चुके, जांघों
तक सब समाप्त
हो चुका है।
अब अगर तुम
मेरी जांघों
तक मुझे काट
डालो, तो
मुझे कुछ भी
पता नहीं
चलेगा, लेकिन
मैं हूं! और वे
मित्र हैं कि
रोए चले जा रहे
हैं।
और
सुकरात कह रहा
है कि तुम रोओ
मत, एक
मौका तुम्हें
मिला है, देखो।
एक आदमी मर
रहा है और
तुम्हें खबर
दे रहा है कि फिर
भी वह जिंदा
है। मेरे पैर
तुम पूरे काट
डालो तो भी
मैं नहीं मरा
हूं? मैं
अभी हूं। और
फिर वह कहता
है कि मेरे
हाथ भी ढीले
पड़े जा रहे
हैं, हाथ
भी मर जाएंगे।
आह, मैंने
कितनी बार
अपने हाथों को
स्वयं समझा था,
वे हाथ भी
चले जा रहे
हैं, लेकिन
मैं हूं। और
वह आदमी, वह
सुकरात मरता
हुआ कहता चला
जाता है। वह
कहता है, धीरे
— धीरे धीरे —
धीरे सब शात
हुआ जा रहा है,
सब डूबा जा
रहा है, लेकिन
मैं उतना का
ही उतना हूं।
और सुकरात
कहता है, हो
सकता है थोड़ी
देर बाद मैं
तुमको खबर
देने को न रह जाऊं,
लेकिन तुम
यह मत समझना
कि मैं मिट
गया। क्योंकि
जब इतना शरीर
मिट गया और
मैं नहीं मिटा,
तो थोड़ा
शरीर और मिट
जाएगा, तब
भी मैं क्यों
मिटूगा! हो
सकता है, मैं
तुम्हें खबर न
दे सकूं, क्योंकि
खबर शरीर के
द्वारा ही दी
जा सकती है।
लेकिन मैं
रहूंगा। और
फिर वह आखिरी
क्षण कहता है
कि शायद आखिरी
बात तुमसे कह रहा
हूं। जीभ मेरी
लड़खड़ा गई है।
और अब इसके
आगे मैं एक
शब्द नहीं बोल
सकूंगा, लेकिन
मैं अभी भी कह
रहा हूं कि
मैं हूं। वह
आखिरी वक्त तक
यह कहता हुआ
मर गया है कि
मैं हूं।
ध्यान
में भी धीरे—
धीरे ऐसे ही
भीतर प्रवेश
करना पड़ता है।
और धीरे— धीरे
एक —एक चीज
छूटती चली
जाती है, एक—एक चीज से
फासला पैदा
होता चला जाता
है। और फिर वह
घड़ी आ जाती है
कि लगता है कि
सब दूर पड़ा है—जैसे
तट पर किसी और
की लाश पड़ी
होगी, ऐसा
लगेगा—और मैं
हूं। और शरीर
वह पड़ा है और
फिर भी मैं
हूं —अलग और
भिन्न और
बिलकुल दूसरा।
जैसे
ही यह अनुभव
हो जाता है, हमने
मृत्यु का
साक्षात्कार
कर लिया जीते
हुए। फिर अब
मृत्यु से
हमारा कोई
संबंध कभी
नहीं होगा।
मृत्यु आती
रहेगी, लेकिन
तब वह पड़ाव
होगी, वस्त्र
का बदलना होगा,
जहां हम नए
घोड़े ले लेंगे
और नए शरीरों
पर सवार हो
जाएंगे और नई
यात्रा पर
निकलेंगे, नए
मार्गों पर, नए लोकों
में। लेकिन
मृत्यु हमें
मिटा नहीं
जाएगी।
इस बात
का पता
साक्षात्कार
से ही हो सकता
है, एनकाउंटर
से ही हो सकता
है। हमें
जानना ही
पड़ेगा, हमें
गुजरना ही
पडेगा। और
मरने से हम
इतना डरते हैं,
इसीलिए हम
ध्यान भी नहीं
कर पाते। मेरे
पास कितने लोग
आते हैं, वे
कहते हैं कि
हम ध्यान नहीं
कर पाते हैं।
अब मैं उनसे
क्या कहूं कि
उनकी असली
तकलीफ और है।
असली तकलीफ, उनके मरने
का डर है। और
ध्यान मरने की
एक प्रक्रिया
है। ध्यान में
हम वहीं पहुंच
जाते हैं, पूरे
ध्यान में, जहां मरा
हुआ आदमी
पहुंचता है।
फर्क सिर्फ एक
होता है कि
मरा हुआ आदमी
बेहोश
पहुंचता है, हम होश में
पहुंच जाते
हैं। बस इतना
ही फर्क होता
है। मरे हुए
आदमी को पता
नहीं होता है
कि क्या हो गया,
खोल कैसे
टूट गई और
गिरी बच गई।
और हमें पता
होता है कि
गिरी अलग हो
गई है और खोल
अलग हो गई।
जो लोग
भी ध्यान में
नहीं जा पाते
हैं, उनके
न जाने का
बुनियादी
कारण मृत्यु
का भय है, और
कोई भी कारण
नहीं है। और
जो व्यक्ति भी
मृत्यु से डरे
हुए हैं, वे
कभी समाधि में
प्रवेश नहीं
कर सकते हैं।
समाधि अपने
हाथ से मृत्यु
को निमंत्रण
है। मृत्यु को
आमंत्रण है कि
आओ, मैं
मरने को तैयार
हूं मैं जानना
चाहता हूं कि
मौत हो जाएगी,
मैं बचूंगा
कि नहीं
बचूंगा? और
अच्छा है कि
मैं
होशपूर्वक
जान लूं
क्योंकि
बेहोशी में यह
घटना घटेगी तो
मैं कुछ भी न
जान पाऊंगा।
इसलिए
पहली बात आज
की रात आपसे
यह कहता हूं
कि मृत्यु से
जब तक आप
भागेंगे, तब तक आप
मृत्यु से
हारते रहेंगे।
और जिस दिन
खड़े होकर
मृत्यु के
आमने—सामने
खड़े हो जाएंगे,
उसी दिन मौत
विदा हो जाएगी,
आप शेष रह
जाएंगे।
इधर इन
आने वाले तीन
दिनों में
मृत्यु के
आमने —सामने
आप कैसे खड़े
हो सकते हैं, उसकी ही
प्रक्रिया पर
मैं सारी बात
करूंगा। इन
तीन दिनों में
आशा करूंगा कि
बहुत—से लोग
मरना जान
लेंगे मर
सकेंगे। और
अगर यहां मर
सकें—इस तट पर—और
यह तट बहुत
अदभुत है, इस
तट पर उस आदमी
के पैर पड़े
हैं जिसने
किसी युद्ध
में यह कहा था..
अर्जुन को कहा
था कृष्ण ने कि
तू फिक्र मत
कर और डर मत।
तू मरने—मारने
से मत डर, क्योंकि
मैं तुझसे
कहता हूं कि न
कोई मरता है, न कोई मारता
है। न कोई कभी
मरा है, न
कोई कभी मर
सकता है। और
जो मरता है और
जो मर सकता है,
वह मरा ही
हुआ है। और जो
नहीं मरता है
और नहीं मर
सकता है, उसके
मारने का कोई
उपाय नहीं है,
वही जीवन है।
इस तट
पर उस कृष्ण
के पैर पड़े हैं, इस पर हम
अचानक आज
इकट्ठे हो गए
हैं। इस रेत
ने उस कृष्ण
को आते और
जाते देखा।
लोगों ने समझा
होगा, कृष्ण
मर गये हैं, मर ही गए। हम
सब जो मरने को
ही सत्य मानते
हैं, उनके
लिए सब मर
जाते हैं। इस
सागर ने, इस
रेत ने नहीं
जाना कि वे मर
गए। इस आकाश
ने, चांद—तारों
ने नहीं जाना
कि वे मर गए।
जीवन में कहीं
भी मृत्यु की
कोई लहर ही
नहीं है, लेकिन
हम सब ने यही
जाना कि वे मर
गए। और हम सब
इसीलिए ऐसा
जान लेते हैं
क्योंकि हमको
अपने ही मरने
का खयाल सवार
है।
और
हमें अपने
मरने का इतना
खयाल क्यों
सवार है? हम अभी तो जी
रहे हैं, लेकिन
हम मरने से
इतने भयभीत
क्यों हैं? हम मरने से
इतने डरे हुए
क्यों हैं? असल में
इसके पीछे एक
राज है। वह
हमें समझ लेना
चाहिए।
एक
गणित है और वह
गणित बड़े मजे
का है। हमने
अपने को तो
मरते कभी नहीं
देखा है, लेकिन हम
दूसरों को
मरते देखते
हैं। और
दूसरों को
मरते देखकर
हमको धीरे —
धीरे यह धारणा
मजबूत हो जाती
है कि मुझे भी
मरना पड़ेगा।
अब एक
बूंद है, और हजार
बूंदों के बीच
में पड़ी है।
सूरज की किरण
आई और उस एक
बूंद पर जोर
से पड़ी और वह
बूंद भाप बनकर
उड़ गई। आसपास की
बूंदों ने
समझा कि वह मर
गई, वह खतम
हो गई। और ठीक
ही सोचा उन
बूंदों ने, क्योंकि
उन्हें दिखाई
पqा कि अब
तक थी, अब
नहीं है।
लेकिन वह बूंद
अब भी बादलों
में है। यह वे
बूंदें कैसे
जानें जो खुद
भी बादल न हो जाएं।
या बूंद अब
सागर में जाकर
फिर बूंद बन
गई होगी, यह
भी बूंदें
कैसे जानें, जब तक कि वे
खुद उस यात्रा
पर न निकल
जाएं।
हम सब
आसपास जब किसी
को मरते देखते
हैं तो हम समझते
हैं कि गया, एक आदमी
मरा। हमें पता
नहीं कि वह
इवोपरेट हुआ,
वह
वाष्पीभूत
हुआ। वह फिर
सूक्ष्म में
गया और फिर नई
यात्रा पर निकल
गया। वह बूंद
भाप बनी और
फिर बूंद बनने
के लिए भाप बन
गई। यह हमें
कैसे दिखाई
पड़े? हम
सबको लगता है
कि एक व्यक्ति
और खो गया, एक
व्यक्ति और मर
गया। और ऐसे
रोज कोई मरता
जाता है, और
रोज कोई बूंद
खोती चली जाती
है, और
धीरे— धीरे
हमें भी पक्का
हो जाता है कि
मुझे भी मर जाना
पड़ेगा। मैं भी
मर जाऊंगा। और
तब एक भय पकड़
लेता है कि
मैं मर
जाऊंगा! दूसरों
को देखकर यह
भय पकड़ लेता
है। दूसरों को
देखकर ही हम
जीते हैं, इसलिए
हमारी बड़ी
कठिनाई है।
कल रात
ही मैं कुछ
मित्रों को कह
रहा था। एक
यहूदी फकीर
हुआ। वह फकीर
अपने दुखों से
बहुत परेशान
हो गया है।
कौन परेशान
नहीं हो जाता
है? हम
सब अपने दुखों
से परेशान हैं।
और हमारे दुख
की परेशानी
में सबसे बड़ी
परेशानी
दूसरों के सुख
हैं। दूसरे
सुखी दिखाई
पड़ते हैं और
हम दुखी होते
चले जाते हैं।
और इसमें बड़ा
गणित है, वही
गणित, जिसकी
मैंने आपसे
मौत के संबंध
में बात की। हमें
अपना दुख
दिखाई पड़ता है
और दूसरों के
चेहरे दिखाई
पड़ते हैं।
उनके भीतर का
दुख तो दिखाई
पड़ता नहीं, उनकी आंखों
की, उनके
होंठों की
मुस्कुराहटें
दिखाई पड़ती हैं।
और कभी अगर हम
अपने बाबत भी
समझें तो हम
समझ लेंगे कि
हम भी भीतर
दुखी होते हैं,
तब भी हम
बाहर मुस्कुराए
चले जाते हैं।
असल में दुख
को छिपाने की
मुस्कुराहट
एक तरकीब है।
कोई
अपने को दुखी
नहीं दिखाना
चाहता है। अगर
सुखी न हो सके, तो भी कम
से कम सुखी हो
गया है, ऐसा
तो दिखाना ही
चाहता है।
क्योंकि अपने
को दुखी
दिखाना बड़ी
दीनता और हार
की और पराजय
की बात है।
इसलिए हम बाहर
एक
मुस्कुराता
हुआ चेहरा बना
लेते हैं —नाटक,
अभिनय। और
भीतर हम जो
हैं, वह
रहते हैं।
भीतर आसू
इकट्ठे होते
चले जाते हैं,
बाहर
मुस्कुराहट
का अभ्यास कर
लेते हैं। फिर
जब बाहर से
कोई हमें
देखता है तो
हमारी मुस्कुराहट
दिखाई पड़ती है,
और अपने
भीतर देखता है
तो दुख दिखायी
पड़ता है, तब
वह मुश्किल
में पड़ जाता
है। वह सोचता
है, सारी
दुनिया सुखी
है, एक मैं
ही दुखी हूं।
उस
फकीर को भी
ऐसा ही हुआ।
उसने एक दिन
रात परमात्मा
को कहा कि मैं
तुझसे यह नहीं
कहता कि मुझे
दुख न दे, क्योंकि अगर
मैं दुख देने
योग्य हूं तो
मुझे दुख
मिलेगा ही, लेकिन इतनी
प्रार्थना तो
कर सकता हूं
कि इतना ज्यादा
मत दे। दुनिया
में सब लोग
हंसते दिखाई
पड़ते हैं, लेकिन
मैं भर एक
रोता हुआ आदमी
हूं। सब खुश
नजर आते हैं, मैं भर दुखी
हूं। सब
प्रसन्न
दिखाई पड़ रहे
हैं, एक
मैं ही उदास, अंधेरे में
खो गया हूं।
आखिर मैंने
तेरा क्या
बिगाड़ा है? एक कृपा कर, मुझे किसी
भी दूसरे आदमी
का दुख दे दे
और मेरा दुख
उसे दे दे, बदल
दे किसी से भी,
तो भी मैं
राजी हो
जाऊंगा।
रात वह
सोया और उसने
एक सपना देखा।
सपने में उसने
देखा, एक
बहुत बड़ा भवन
है और उस भवन
में लाखों
खूंटियां लगी
हैं। और लाखों
लोग चले आ रहे
हैं। और
प्रत्येक
आदमी अपनी—
अपनी पीठ पर
दुखों की एक
गठरी बांधे
हुए है। दुखों
की गठरी देखकर
वह बहुत डर
गया, क्योंकि
उसे बड़ी
हैरानी मालूम
पड़ी। जितनी
उसकी गठरी है
दुखों की—वह
भी अपनी दुखों
की गठरी टागे
हुए है—सबके
दुखों की
गठरियों का जो
आकार है, जो
साइज है, वह
बिलकुल बराबर
है।
मगर वह
बड़ा हैरान हुआ।
यह पड़ोसी तो
उसका रोज
मुस्कुराता
दिखता था! और सुबह
जब उससे पूछता
था कि कहो
कैसे हाल हैं, तो वह
कहता था कि
बड़ा आनंद है, ओं के, सब
ठीक है। यह
आदमी भी इतने
ही दुखों का
बोझ लिये चला
आ रहा है।
उसमें नेता भी
उतना ही बोझ
लिये हुए हैं।
अनुयायी भी
उतना ही बोझ
लिये हुए हैं।
उसमें गुरु भी
उतना ही बोझ
लिये हुए हैं।
शिष्य भी उतना
ही बोझ लिये
हुए हैं।
उसमें सभी
उतना बोझ लिये
हुए चले आ रहे
हैं। ज्ञानी
और अज्ञानी, और अमीर और
गरीब, और
बीमार और
स्वस्थ, सबके
बोझ की गठरी
बराबर है।
वह
बहुत हैरान हो
गया। आज पहली
दफा गठरियां
दिखाई पड़ी। अब
तक तो चेहरे
दिखाई पड़ते थे।
फिर उस भवन में
एक जोर की
आवाज गंजी कि
सब लोग अपने —
अपने दुखों को
खूंटियों पर टांग
दें। इसने भी
जल्दी से अपना
दुख खूंटी पर
टल दिया। सारे
लोगों ने
जल्दी की है
अपना दुख टांगने
की। कोई एक
क्षण अपने दुख
को अपने ऊपर
रखना नहीं चाहता।
टांगने का
मौका मिले, तो हम
जल्दी से टांग
ही देंगे। और
तभी एक दूसरी
आवाज गंजी कि
अब जिसको
जिसकी गठरी
चुनना हो, वह
चुन ले।
तो हम
सोचेंगे कि उस
फकीर ने जल्दी
से किसी और की
गठरी चुन ली
होगी। नहीं, ऐसी भूल
उसने नहीं की।
वह भागा घबरा
कर अपनी ही
गठरी को उठाने
के लिए कि
कहीं और कोई
पहले न उठा ले,
अन्यथा मुश्किल
में पड़ जाये, क्योंकि
गठरियां सब
बराबर थीं। अब
उसने सोचा कि
अपनी गठरी ही
ठीक है, कम
से कम परिचित
दुख तो हैं
उसके भीतर।
दूसरे की
गठरियों के
भीतर पता नहीं
कौन से अपरिचित
दुख हैं।
परिचित दुख
फिर भी कम दुख
है—जाना—माना,
पहचाना।
घबराहट में
दौड़कर अपनी
गठरी उठा ली
कि कोई और
दूसरा मेरी न
उठा ले।
लेकिन
जब उसने
घबराहट में
उठाकर चारों
तरफ देखा तो
उसने देखा कि
सारे लोगों ने
दौड़कर अपनी ही
उठा ली है, किसी ने
भी किसी की
नहीं उठाई।
उसने पूछा कि
इतनी जल्दी
क्यों कर रहे
हो अपनी उठाने
की? तो
उन्होंने कहा
कि हम डर गए।
अब तक हम यही
सोचते थे कि
सारे लोग सुखी
हैं, हम ही
दुखी हैं।
उसने जिससे
पूछा उस भवन
में, उसने
यही कहा कि हम
यही सोचते थे
कि सारे लोग सुखी
हैं। हम तो
तुम्हें भी
सुखी समझते थे,
तुम भी तो
रास्ते पर
मुस्कुराते
हुए निकलते थे।
हमने कभी सोचा
न था कि
तुम्हारे
भीतर भी इतनी
गठरियों के
दुख हैं। उस
फकीर ने पूछा,
अपने — अपने
क्यों उठा लिए,
बदल क्यों न
लिए? उन्होंने
कहा, हम
सबने
प्रार्थना की
थी भगवान से
आज रात कि हम
अपनी गठरियां
बदलना चाहते
हैं दुखों की।
मगर हम डर गए।
हमें खयाल भी
न था कि सब के
दुख बराबर हो
सकते हैं। फिर
हमने सोचा
अपना ही उठा
लेना अच्छा है।
पहचान का है, परिचित है।
और नए दुखों
में कौन पड़े।
पुराने दुख, धीरे — धीरे
हम आदी भी तो
हो जाते हैं
उनके।
उस रात
किसी ने भी
किसी की गठरी
न .चुनी। फकीर
की नींद टूट
गई। उसने
भगवान को
धन्यवाद दिया
कि तेरी बड़ी
कृपा है कि
मेरा ही दुख
मुझे वापस मिल
गया। अब मैं
कभी ऐसी
प्रार्थना न
करूंगा।
असल
में एक गणित
है —दूसरों के
चेहरे हमें
दिखाई पड़ते
हैं और अपनी असलियत
दिखाई पड़ती है।
और तब बड़ी भूल
हो जाती है।
जिंदगी और
मृत्यु के
संबंध में भी
वही भूल का गणित
काम कर रहा है।
दूसरे मरते
दिखाई पड़ते
हैं, आपने
अपने को तो
मरते कभी नहीं
जाना। दूसरों
की मृत्यु
दिखाई पड़ती है
और भीतर उनके
कुछ बचता है
या नहीं बचता,
हमें कुछ
पता नहीं चलता।
और जब हम मरते
हैं, तब हम
बेहोश हो जाते
हैं, इसलिए
मृत्यु
अपरिचित रह
जाती है।
इसलिए
जरूरी है कि
हम अपनी
स्वेच्छा से
मृत्यु में उतरें।
और एक बार जो
मृत्यु के
दर्शन कर लेता
है, वह
मृत्यु से
मुक्त हो जाता
है, मृत्यु
का विजेता हो
जाता है।
विजेता कहना
बेकार है, क्योंकि
कुछ बचता ही
नहीं है जीतने
को, मृत्यु
असत्य हो जाती
है। मृत्यु
रहती ही नहीं।
जैसे
कोई आदमी दो
और दो जोड़कर
पांच लिख दे
और फिर कल
उसको समझ में
आ जाए कि दो और
दो चार हैं, तो वह
क्या यह कहेगा
कि मैंने पांच
को जीतकर चार
बना दिया है? वह कहेगा कि
जीत का सवाल
ही न था, पांच
थे ही नहीं, पांच मेरी
भूल थी, मेरा
भ्रम था। गलत
था मेरा हिसाब।
हिसाब तो चार
ही था, मैं
पांच समझ रहा
था, वह
मेरी भूल थी।
भूल दिख गई, बात खतम हो
गई। फिर क्या
वह आदमी यह
कहेगा कि मैं
पांच से कैसे
छुटकारा पाऊं?
क्योंकि अब
दो और दो चार
हो रहे हैं, लेकिन पांच
मैंने जोड़े थे,
अब मैं उससे
कैसे मुक्त
होऊं? वह
आदमी पूछने
नहीं आएगा
मुक्ति के लिए,
क्योंकि
जैसे ही यह
दिख गया कि दो
और दो चार हैं,
बात खतम हो
गई। पाच रहे
ही न, मुक्त
किससे होना है?
मृत्यु
से न तो मुक्त
होना है और न
मृत्यु को जीतना
है। मृत्यु को
जानना है।
जानना ही
मुक्ति बन
जाता है, जानना ही
जीत बन' जाता
है। इसलिए
मैंने पहले
कहा कि शान
शक्ति है, ज्ञान
मुक्ति है, ज्ञान विजय
है। मृत्यु का
शान मृत्यु को
विलीन कर देता
है, तब
अनायास ही हम
पहली बार जीवन
से संबंधित हो
पाते हैं।
इसलिए
ध्यान के
संबंध में एक
बात मैंने यह
कही कि ध्यान
स्वेच्छा से
मृत्यु में
प्रवेश है। और
दूसरी बात यह कहना
चाहता हूं कि
जो स्वेच्छा
से मृत्यु में
प्रवेश करता
है, वह
अनायास ही
जीवन में प्रविष्ट
हो जाता है।
वह जाता तो है
मृत्यु को
खोजने, लेकिन
मृत्यु को तो
नहीं पाता है,
वहां परम
जीवन को पा
लेता है। वह
जाता तो है
मृत्यु के भवन
में खोज करने,
लेकिन
पहुंच जाता है
जीवन के मंदिर
में। और जो
मृत्यु के भवन
से भागता है, वह जीवन के
मंदिर में
नहीं पहुंच
पाता है।
क्या
मैं आपसे कहूं
कि जीवन का जो
मंदिर है, उसकी
दीवालों पर
मृत्यु की
छायाओं के
चित्र खुदे
हैं! क्या मैं
आपसे कहूं कि
जीवन का जो
मंदिर है, उसकी
दीवालों पर
मौत के नक्यो
बने हैं! और हम
मौत से भागने
की वजह से
जीवन के मंदिर
से भी भागते
रहते हैं।
क्योंकि जब हम
मौत के लिए
राजी हो जाएं
तो हम दीवालों
के लिए राजी
हों, भीतर
प्रवेश करें
तो हम जीवन के
मंदिर में पहुंच
जाएं। जीवन का
तो देवता है
और मृत्यु की
दीवालें हैं।
जीवन का तो
मंदिर है और
मृत्यु के
द्वार—दरवाजों
पर सब तरफ
चित्र खुदे
हैं। हम
उन्हीं को
देखते और
भागते रहे हैं।
अगर आप
कभी खजुराहो
गए हैं, तो एक अदभुत
बात आपको
दिखाई पड़ेगी।
दिखाई पड़ेगा
कि खजुराहो के
मंदिरों में,
चारों तरफ
मंदिर के
सेक्स की, मैथुन
की प्रतिमाएं
खुदी हैं।
नग्न और
अश्लील दिखाई
पड़ती हैं। अगर
कोई आदमी उनको
देखकर ही भाग
जाए, तो
भीतर के मंदिर
के परमात्मा
तक नहीं पहुंच
पाएगा। भीतर
परमात्मा की
प्रतिमा है और
बाहर काम की, वासना की, मैथुन की
सारी प्रतिमाएं
खुदी हैं।
वे बड़े
अदभुत लोग थे, जिन्होंने
खजुराहो के
मंदिर बनाए
होंगे।
उन्होंने
जीवन की एक
गहरी बात खोद
दी। उन्होंने
कहा कि बाहर
दीवाल पर तो
सेक्स है और
अगर दीवाल से
ही भाग गए तो
ब्रह्मचर्य
को कभी उपलब्ध
न होओगे, क्योंकि
ब्रह्मचर्य
भीतर है। और
अगर दीवालों
के भीतर
प्रवेश कर गए
तो
ब्रह्मचर्य को
भी उपलब्ध हो
जाओगे। और
बाहर की
दीवालों पर तो
संसार है। और
अगर संसार से
ही भागते रहे,
तो
परमात्मा तक
कभी न पहुंच
पाओगे, क्योंकि
संसार की
दीवालों के
भीतर जो बैठा
है, वह
परमात्मा है।
ठीक
वही मैँ आपसे
कहता हूं।
कहीं न कहीं
हमें किसी
गांव में एक
मंदिर बनाना
चाहिए, जिसकी
दीवालों पर तो
मौत हो और
भीतर जीवन का
देवता बैठा हो।
ऐसा ही सत्य
है। लेकिन हम
मौत से भागते
हैं, तो
जीवन के देवता
से भी वंचित
रह जाते हैं।
तो मैं
ये दोनों
बातें एक साथ
कहता हूं.
स्वेच्छा से
मृत्यु में प्रवेश
ध्यान है, और जो
स्वेच्छा से
मृत्यु में
प्रवेश करता
है, वह
जीवन को
उपलब्ध हो
जाता है। यानी
जो मृत्यु का
साक्षात्कार
करने जाता है,
अंततः पाता
है कि मृत्यु
तो विलीन हो
गई है और जीवन
से आलिंगन हो
गया है। बडी
उलटी बातें
हैं, बड़ा
उलटा मालूम
पड़ता है—मृत्यु
को खोजने जाएं
और जीवन मिल
जाए। लेकिन
उलटा नहीं है।
मैं
वस्त्र पहने
हुए हूं। अगर
मुझे खोजने
आएंगे, तो पहले तो
मेरे वस्त्र
ही मिलेंगे।
वस्त्र मैं
नहीं हूं। और
अगर मेरे
वस्त्रों से
ही डर गए और
भाग गए, तो
मेरा कभी भी
पता नहीं चल
पाएगा। लेकिन
अगर मेरे
वस्त्रों से न
डरे और निकट
आए, और
निकट आए, तो
मेरे
वस्त्रों के
भीतर मेरा
शरीर है, वह
मिल जाएगा।
लेकिन शरीर भी
और गहरे
अर्थों में
वस्त्र है। और
अगर मेरे शरीर
से ही दूर भाग
गए, तो फिर
मेरे शरीर के
भीतर जो बैठा
है, वह न
मिल सकेगा। और
अगर शरीर से
भी न डरे और
शरीर को भी वस्त्र
मानकर और भीतर
यात्रा की, तो भीतर वह
बैठा हुआ है, जिससे मिलन
की सबको
आकांक्षा है।
कैसा
मजा है! शरीर
की दीवाल है
और आत्मा का
देवता भीतर
विराजमान है।
मैटर, पदार्थ
की दीवाल है
और भीतर
परमात्मा, चेतना
विराजमान है।
ये उलटी बातें
हैं—दीवाल
पदार्थ की और
देवता जीवन
का! अगर इसे ठीक
से समझ लें, तो मृत्यु
की दीवाल है
और जीवन का
देवता है।
ऐसे ही
जैसे कई बार
चित्रकार
चित्र बनाता
है। अगर सफेद
रंग उभारना हो, तो काले
रंग की चारों
तरफ
पृष्ठभूमि दे
देता है। काले
रंग की
पृष्ठभूमि
में सफेद
रेखाएं उभरकर
दिखाई पड़ने
लगती हैं। अगर
कोई काले से
डर जाए, तो
वह सफेद तक
पहुंच ही न
पाए। लेकिन
उसे पता नहीं
कि काला सफेद
को उभार जाता
है।
जैसे
कि गुलाब में
काटे लगे हुए
हैं और फूल खिला
हुआ है। अगर
कोई कीटों से
डर जाए, तो फूल तक
कभी भी न
पहुंच पाएगा।
भागता रहे
काटो से, तो
फिर फूल से भी
वंचित रह
जाएगा। लेकिन
जो काटो के
लिए राजी हो
जाए और पास
पहुंच जाए और
डर छोड़ दे, वह
हैरान हो जाता
है कि कांटे
सिर्फ फूल की
रक्षा हैं, सिर्फ उसके
बाहर की दीवाल
बना रहे हैं —रक्षा
की दीवाल। बीच
में फूल खिला
है, और
काटे —फूल में
दुश्मनी नहीं
है। फूल भी
काटे के अंग
हैं। काटे भी
फूल के अंग
हैं। एक ही
पौधे की रस—
धार से दोनों
का आना हुआ है।
जिसे
हम जीवन कह
रहे हैं, वह जीवन; और
जिसे हम
मृत्यु कह रहे
हैं, वह
मृत्यु; दोनों
एक ही महाजीवन
के अंग हैं।
दोनों एक ही
महाजीवन के
अंग हैं। मैं
श्वास ले रहा
हूं। एक श्वास
बाहर जाती है,
एक श्वास
भीतर आती है।
जो श्वास बाहर
आती है, वही
फिर थोड़ी देर
में भीतर जाती
है; जो
भीतर जाती है,
वही थोड़ी
देर में बाहर
हो जाती है।
श्वास का आना जीवन
हैं, श्वास
का जाना
मृत्यु है।
लेकिन दोनों
एक ही महाजीवन
के कदम हैं—दायां
और बायां, और
दोनों साथ —साथ
चलते रहते हैं।
जन्म एक कदम
है, मृत्यु
दूसरा कदम है।
लेकिन अगर हम
देख पाएं, उतर
पाएं भीतर, तो महाजीवन
का दर्शन हो
जाता है।
इधर इन
तीन दिनों में
ध्यान का जो
प्रयोग हम
करने जा रहे
हैं, वह
मृत्यु में
प्रवेश का
प्रयोग है।
उसके बहुत से
पहलुओं के
संबंध में मैं
आपसे बात
करूंगा। अभी
आज रात, पहले
दिन के जो हम
प्रयोग में
बैठेंगे, उस
संबंध में
थोड़ी—सी बातें
समझा दूं।
मेरी
दृष्टि आपके
खयाल में आ गई
है कि हमें उस जगह
जाना है, जहां मरने
का कोई उपाय
नहीं रह जाता
है — भीतर, भीतर
और भीतर। और
बाहर की वह
सारी परिधि
छोड़ देनी है, जो मृत्यु
में छूट जाती
है।
मृत्यु
में शरीर छूट
जाता है, भाव छूट
जाते हैं, विचार
छूट जाते हैं,
मित्रता
छूट जाती है, शत्रुता छूट
जाती है। सब
छूट जाता है।
बाहर की
दुनिया का सब
छूट जाता है।
रह जाते हैं
सिर्फ अकेले
हम, सिर्फ
मैं रह जीता हू, सिर्फ
चेतना रह जाती
है ऊपर।
तो
ध्यान में भी
हमें सब
छोड्कर मर
जाना है। और
सिर्फ उतना ही
रह जाए—मैं
जानता हुआ, द्रष्टा
मात्र रह जाऊं
भीतर—तो
मृत्यु, घटित
हो जाएगी। और
इन तीन दिनों
के निरंतर
प्रयोग में
अगर अपने को
छोड़ा और मरने
की हिम्मत
दिखाई, तो
वह घटना घट
जाएगी, जिसको
समाधि कहते
हैं।
यह
ध्यान रहे, समाधि
शब्द बड़ा
अदभुत है।
ध्यान की
परिपूर्णता
को भी समाधि
कहते हैं और
कोई आदमी मर
जाता है, तो
उसकी कब को भी
समाधि कहते
हैं। यह कभी
खयाल किया? इन दोनों को
समाधि कहते
हैं! असल में
इन दोनों में
राज है, रहस्य
है, मिला
हुआ अर्थ है।
असल
में जो आदमी
समाधि को
उपलब्ध होता
है, उसका
शरीर कब्र ही
रह जाता है और
कुछ नहीं रह जाता
है। फिर वह
जानता है कि
भीतर कोई और
ही है, बाहर
तो सिर्फ घेरा
है। जैसे कोई
आदमी मर जाता
है, हम
उसकी कब्र बना
देते हैं और
कहते हैं, समाधि
है। लेकिन वह
समाधि दूसरे
बनाएंगे। और
इसके पहले कि
दूसरे हमारी
समाधि बनाएं,
अगर हम ही
अपनी समाधि
बना सकें, तो
जीवन में वह
घटना घट जाती
है, जिसके
लिए हम प्यासे
हैं। दूसरों
को समाधि
बनाने का मौका
तो मिलेगा ही,
लेकिन यह हो
सकता है, हम
अपनी समाधि न
बना पाएं।
अगर हम
अपनी समाधि
बना लें, तो फिर सिर्फ
शरीर ही मरेगा,
मेरे मरने
का कोई सवाल
ही नहीं है।
मैं कभी भी न
मरा हूं, न
मर सकता हूं।
कोई भी कभी
नहीं मरा है, न मर सकता है।
लेकिन इसे
जानने को
मृत्यु की
सारी सीढ़ियां
उतरनी पड़ेगी।
तो तीन
सीढ़ियां मैं
आपको बताना
चाहता हूं।
अभी हम प्रयोग
भी करेंगे।
कौन जाने इस
तट पर वह घटना
घट जाए कि
आपकी समाधि बन
जाए! वह समाधि
नहीं, जो
दूसरे बनाते
हैं, वह
समाधि, जो
आप स्वेच्छा
से अपनी
निर्मित कर
लेते हैं।
तीन
चरण हैं। पहला
चरण तो है
शरीर की
शिथिलता, शरीर का
रिलेक्योसन।
शरीर को इतना
शिथिल छोड़
देना है कि
ऐसा लगने लगे
कि वह दूर ही
पड़ा रह गया है,
हमारा उससे
कुछ लेना—देना
नहीं है। शरीर
से सारी ताकत
को भीतर खींच
लेना है। हमने
शरीर में ताकत
डाली हुई है।
जितनी ताकत हम
शरीर में
डालते हैं, उतनी पड़ती
है; जितनी
हम खींच लेते
हैं, उतनी
खिंच जाती है।
आपने
कभी खयाल किया
है कि किसी से
झगडा हो जाए, तो आपके
शरीर में
ज्यादा ताकत
कहौ से आ जाती
है! और आप इतना
बड़ा पत्थर
उठाकर फेंक
सकते हैं क्रोध
की हालत में, जितना बड़ा
पत्थर आप
शांति की हालत
में हिला भी न
सकते थे। कभी
आपने सोचा, यह ताकत
कहां से आ गई
है? शरीर
आपका है, यह
ताकत कहां से
आ गई? यह
ताकत आप डाल
रहे हैं।
जरूरत पड़ गई
है, खतरा
है, मुसीबत
है, दुश्मन
सामने खड़ा है।
पत्थर को
हटाना है नहीं
तो जिंदगी
खतरे में पड़
जाएगी। तो आप
अपनी सारी
ताकत डाल देते
हैं शरीर में।
एक बार
ऐसा हुआ कि एक
आदमी दो
वर्षों से
पैरेलाइब्द
था, लकवा
लग गया था। और
पड़ा था अपनी खाट
पर, उठ
नहीं सकता, हिल नहीं
सकता। डाक्टर
इलाज करके
परेशान हो गए।
आखिर
उन्होंने कह
दिया कि अब
जिंदगी भर
पक्षाघात ही
रहेगा। फिर
अचानक एक रात
उस आदमी के घर
में आग लग गई।
सारे लोग घर
के बाहर भागे।
बाहर जाकर
उन्हें खयाल
आया कि अपने
परिवार के
प्रमुख को तो
भीतर छोड़ आए
हैं—बूढ़े को।
वह तो भाग भी
नहीं सकता, उसका क्या
होगा? लेकिन
तब उन्होंने
देखा कि—अंधेरे
में कुछ लोग
मशालें लेकर
आए—तो देखा कि
बूढ़ा उनके
पहले बाहर
निकल आया है।
उन सब ने उससे
पूछा, आप
चल कर आए क्या?
उसने कहा, अरे! वह वहीं
पक्षाघात
खाकर फिर गिर
पड़ा। उसने कहा
कि मैं तो चल
ही कैसे सकता
हूं? यह
कैसे हुआ? लेकिन
चल चुका था वह,
हुआ का सवाल
ही न था।
आग लग
गई थी घर में, सारा घर
भाग रहा था।
एक क्षण को वह
भूल गया कि
मैं लकवा का
बीमार हूं।
सारी शक्ति
वापस शरीर में
उसने डाल दी।
लेकिन बाहर
आकर जब मशाल
जली और लोगों
ने देखा कि आप!
आप बाहर कैसे
आए? उसने
कहा, अरे!
मैं तो लकवे
का बीमार हूं।
वह वापस गिर
पड़ा, उसकी
शक्ति फिर
पीछे लौट गई।
अब
उसकी ही समझ
के बाहर है कि
यह कैसे घटना
घटी। अब उसे
सब समझा रहे
हैं कि
तुम्हें लकवा
नहीं है, क्योंकि तुम
इतना तो चल
सके और अब तुम
जिंदगी भर चल
सकते हो।
लेकिन वह कहता
है कि मेरा तो
हाथ भी नहीं
उठता है, मेरा
तो पैर भी
नहीं उठता है।
यह कैसे हुआ, मैं भी नहीं
कह सकता। पता
नहीं कौन मुझे
बाहर ले आया!
कोई
उसे बाहर नहीं
ले आया। वह खुद
ही बाहर आया।
लेकिन उसे पता
नहीं कि उसने
खतरे की हालत
में उसकी
आत्मा ने सारी
शक्ति उसके
शरीर में डाल
दी। और यह भी
उसका भाव है
कि उसने शक्ति
फिर वापिस अपने
भीतर खींच ली, और अब वह
फिर लकवे का
मरीज हो गया।
और ऐसा लकवे
के एकाध मरीज
के साथ हुआ हो,
ऐसा नहीं है।
ऐसी सैकड़ों
घटनाएं
पृथ्वी पर घटी
हैं, जब कि
लकवे का आदमी
बाहर आ गया है।
आग लगने की
हालत में या
किसी खतरे की
हालत में और
भूल गया है, खतरे में
भूल गया है कि
मैं किस हालत
में हूं।
मैं
आपसे यह कह
रहा हूं कि
शरीर में
हमारी शक्ति
हमारी डाली
हुई है, लेकिन निकालने
का हमें कोई
पता नहीं कि
हम वापस कैसे
निकालें। रात
इसीलिए हमें
आराम मिल जाता
है कि अपने आप शक्ति
वापस चली जाती
है भीतर और
शरीर शिथिल होकर
पड़ जाता है।
सुबह हम ?? ताजे
हो जाते हैं।
लेकिन कुछ लोग
रात को भी
अपनी शक्ति
बाहर नहीं
निकाल पाते
हैं, शरीर
में शक्ति रह
ही जाती है।
तब नींद
मुश्किल हो
जाती है।
इनसोमेनिया
या नींद का न
आना सिर्फ एक
ही बात का
लक्षण है कि
शरीर में डाली
गई ताकत पीछे
लौटने का
रास्ता नहीं
जानती है।
पहला
तो ध्यान के
लिये, मृत्यु
में प्रवेश का
जो पहला चरण
है, वह
शरीर से सारी
शक्ति को
निकाल लेना है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि
सिर्फ भाव
करने से शक्ति
अंदर वापस लौट
जाती है। अगर
थोड़ी देर तक
कोई मन में यह
भाव करता रहे
कि मेरी शक्ति
अंदर वापस लौट
रही है और
शरीर शिथिल
होता जा रहा
है, तो
वह पाएगा कि
शरीर शिथिल हो
गया है, शिथिल
हो गया है, शिथिल
हो गया है। और
शरीर उस जगह
पहुंच जाएगा
कि खुद ही
अपना हाथ
उठाना चाहे तो
नहीं उठा
सकेगा, सब
शिथिल हो
जाएगा। यह
हमारा भाव है,
जो हम शरीर
से वापस खींच
सकते हैं।
तो
पहली तो बात
है, शरीर
से सारे प्राण
का भीतर वापस
पहुंच जाना।
तो शरीर खोल
की तरह पड़ा रह
जाएगा और
बराबर ऐसा दिखाई
पड़ेगा कि
नारियल में
फासला पड़ गया
है। हम अलग हो
गए हैं और
शरीर की खोल
बाहर पड़ी है, वस्त्रों की
भांति।
फिर
दूसरी बात है, श्वास को
शिथिल छोड़ना।
श्वास और गहरे
में हमारे
प्राणों को
पकड़े हुए है।
इसलिए श्वास
के टूटते ही
आदमी मर जाता
है। श्वास और
गहरे में हमें
शरीर से जोड़े
हुए है। श्वास
शरीर और आत्मा
के बीच सेतु
है, वहीं
से हम बंधे
हैं। इसलिए
श्वास को हम
प्राण कहते
हैं। वह गई कि
प्राण गया।
लेकिन बहुत
प्रयोग इस
संबंध में
होते हैं। और
अगर कोई
व्यक्ति अपनी
श्वास को पूरा
शिथिल छोड़ दे,
पूरा शिथिल
छोड़ दे, शात
छोड दे, तो
धीरे — धीरे, धीरे— धीरे
श्वास उस जगह
आ जाती है कि
भीतर पता ही
नहीं चलता है
कि श्वास चल
रही है कि
नहीं चल रही है।
कई बार शक हो
जाता है कि
कहीं मैं मर
तो नहीं गया।
यह श्वास चल
नहीं रही, हुआ
क्या है!
श्वास इतनी
शात हो जाती
है कि पता ही
नहीं चलता कि
चल रही है कि
नहीं चल रही
है।
और अगर
एक क्षण के
लिए भी श्वास
ठहर जाती है? ठहराना
नहीं है।
क्योंकि
जिसने ठहराया, उसकी श्वास
कभी नहीं
ठहरेगी। यदि
ठहराया, तो
श्वास बाहर
निकलने की
कोशिश करेगी।
अगर बाहर रोका,
तो भीतर
जाने की कोशिश
करेगी।
इसलिए
मैं कह रहा हूं, अपनी तरफ
से कुछ भी
नहीं करना है,
सिर्फ
शिथिल छोड़ते
जाना है, शात,
शात, शांत।
धीरे— धीरे
श्वास एक
बिंदु पर जाकर
ठहर जाती है।
और एक क्षण को
भी ठहर जाए, तो उसी क्षण
में आत्मा और
शरीर के बीच
अनंत फासला
दिखाई पड़ जाता
है। उसी
मोमेंट में वह
फासला दिखाई
पड़ जाता है।
जैसे बिजली
चमक जाए अभी
और मुझे आप
सबके चेहरे
दिखाई पड़ जाएं
एक क्षण में।
फिर बिजली खो
जाए, लेकिन
फिर मैंने
आपके चेहरे
देख लिये। ठीक
एक क्षण को जब
श्वास बिलकुल
मध्य में ठहर जाती
है, तो एक
क्षण के लिए
बिजली कौंध
जाती है पूरे
व्यक्तित्व
में और दिखाई
पड जाता है कि
शरीर अलग, मैं
अलग। मृत्यु
घटित हो गई।
तो दूसरे तल
पर श्वास को
शिथिल छोड़ना
है।
और
तीसरे तल पर
मन को शिथिल
छोडना है।
क्योंकि अगर
श्वास भी
शिथिल हो जाए
और मन शिथिल न
हो पाए, तो बिजली भी
कौंध जाएगी, लेकिन आपको
दिखाई नहीं पड़
पायेगा कि
क्या हुआ।
क्योंकि मन तो
अपने विचारों
में उलझा
रहेगा। अगर
यहां बिजली
चमक जाए और
मैं अपने
खयालों में
खोया रहूं? तो बिजली
चमक जाएगी, तब मुझे पता
चलेगा कि अरे!
कुछ हो गया।
लेकिन तब तक
बिजली चमक
चुकी है और
मैं अपने विचारों
में खोया रह
गया हूं।
बिजली तो चमक
जाएगी श्वास
के ठहरते ही, लेकिन उस पर
ध्यान तभी
जाएगा जब
विचार भी बंद हो
गए हों। नहीं
तो ध्यान नहीं
जाएगा और मौका
चूक जाएगा।
इसलिए तीसरी
चीज है विचार
को शिथिल छोड़
देना।
ये तीन
चरण हम प्रयोग
करेंगे और
चौथे चरण में हम
दस मिनट के
लिए चुपचाप
बैठे रहेंगे।
कोई चाहे तो
लेट जा सकता
है, कोई
चाहे तो बैठा
रह सकता है।
लेटना ही सरल
पड़ेगा। और
इतना अच्छा तट
है, इसका
ठीक उपयोग
किया जा सकता
है।
तो
सारे लोग जगह
बना लें और
लेट सकें..
किसी को बैठना
ठीक लगे, वह बैठा रह
सकता है।
लेकिन बैठा
हुआ व्यक्ति
अगर बाद में
गिरने लगे, तो अपने को
रोकेगा नहीं।
क्योंकि जब
शरीर बिलकुल
शिथिल होगा तो
आप गिर सकते
हैं, और
अगर उसे रोकने
में लग गए तो
शरीर पूरा
शिथिल नहीं हो
पाएगा।
तो ये
तीन चरण में
हम ध्यान
करेंगे और फिर
दस मिनट के
लिए मौन में
पड़े रहेंगे।
उस मौन में, इन तीन
दिनों में
मृत्यु
अवतरित हो जाए,
मृत्यु का
दर्शन हो जाए,
उसकी
चेष्टा रहेगी।
तो मैं
आपको सुझाव
दूंगा कि आप
भाव करें कि
शरीर शिथिल हो
रहा है, श्वास शिथिल
हो रही है, मन
शिथिल हो रहा
है। फिर मैं
चुप हो जाऊंगा,
यहां
अंधेरा कर
दिया जाएगा, फिर आप अपनी
जगह दस मिनट
चुपचाप पड़े रह
जाएंगे। जो भी
भीतर हो रहा
हो, उसे
देखते हुए मौन
में ठहर
जाएंगे।
तो
इतनी जगह बना
लें कि कोई
अगर गिरे बाद
में तो किसी
के ऊपर न गिरे।
और जिनको लेट
जाना हो, वे अपनी जगह
बनाकर लेट
जाएं।
उचित
यही होगा कि
चुपचाप रेत पर
लेट जाएं कोई बात
नहीं करेगा, कोई बीच
में उठकर नहीं
जाएगा. ही, बैठ
जाएं..... जो जहां
हैं वहीं बैठ जाएं
या लेट जाएं..
आख बंद कर लें।
आख बंद कर लें.....
आख बंद कर लें
और शरीर को
शिथिल छोड़ दें,
ढीला छोड़
दें। फिर मैं
सुझाव देता हूं, मेरे साथ
अनुभव करें।
जैसे —जैसे
अनुभव करेंगे,
शरीर और
शिथिल होता
जाएगा, और
शिथिल होता
जाएगा। फिर
शरीर बिलकुल
शिथिल होकर पड़
जाएगा, जैसे
उसमें कोई
प्राण न रहे।
अनुभव
करें, शरीर
शिथिल हो रहा
है. और ढीला
छोड़ते जाएं.....
ढीला छोड़ते
जाएं। शरीर को
ढीला छोड़ते
जाएं और अनुभव
करें कि शरीर
शिथिल हो रहा
है...... शरीर
शिथिल हो रहा
है..... अनुभव
करें...... पूरा
अंग— अंग ढीला
छोड़ दें.. और
भीतर अनुभव
करें शरीर शिथिल
हो रहा है।
मेरी शक्ति
भीतर वापस लौट
रही है. शरीर
से शक्ति भीतर
वापस लौट रही
है...... शक्ति
वापस लौट रही
है। शरीर
शिथिल होता जा
रहा है.... शरीर
शिथिल हो रहा
है. शरीर
शिथिल हो रहा
है. शरीर
शिथिल हो रहा
है. शरीर
शिथिल हो रहा
है..... शरीर
शिथिल हो रहा
है.....। छोड दें बिलकुल,
जैसे कोई
प्राण न रह गए
हों। गिरता हो,
गिर जाए।
बिलकुल ढीला
छोड़ दें शरीर
शिथिल हो गया
है... शरीर
शिथिल हो गया
है... शरीर
शिथिल हो गया
है..... शरीर
शिथिल हो गया
है. छोड़ दें......
छोड़ दें। शरीर
शिथिल हो गया
है। शरीर
बिलकुल शिथिल
हो गया है, जैसे
उसमें प्राण
ही न हों।
शरीर की सारी
शक्ति भीतर
पहुंच गई है..
शरीर शिथिल हो
गया है..... शरीर
शिथिल हो गया
है...... शरीर
शिथिल हो गया
है.. शरीर
शिथिल हो गया
है.. शरीर
शिथिल हो गया
है.....। छोड़ दें, बिलकुल छोड़
दें, जैसे
शरीर रहा ही
नहीं, हम
भीतर सरक गए
हैं। शरीर
शिथिल हो गया
है...... शरीर
शिथिल हो गया
है. शरीर
शिथिल हो गया
है.....।
तो
ध्यान में भी
हमें सब
छोड्कर मर जाना
है। और सिर्फ
उतना ही रह
जाए—मैं जानता
हुआ, द्रष्टा
मात्र रह जाऊं
भीतर—तो मृत्य
घटित हो जाएगी।
औंर इन तीन
दिनों के
निरंतर
प्रयोग में
अगर अपने को
छोड़ा और मरने
की हिम्मत
दिखाई, तो
वह घटना घट
जाएगी, जिसको
समाधि कहते
हैं।
श्वास
शात होती जा
रही है...... श्वास
को भी ढीला
छोड़ दें.......
बिलकुल ढीला
छोड़ दें....... अपने
आप आए—जाए......
ढीला छोड़ दें.
रोकना नहीं है, धीमी
नहीं करनी है।
सिर्फ शिथिल
छोड़ दें।
जितनी आए, आए......
जितनी जाए, जाए...... श्वास
शिथिल हो रही
है...... श्वास शात
हो रही है...... ऐसा
भाव करें.
श्वास शात
होती जा रही
है..... श्वास शात
और शिथिल होती
जा रही है.
श्वास शांत और
शिथिल होती जा
रही है श्वास
शिथिल होती जा
रही है?....... श्वास
शांत होती जा
रही है...... श्वास
शांत हो गई है.......
श्वास शांत हो
गई है. श्वास
शांत हो गई है......
श्वास शात हो
गई है?..।
अब मन
को भी शिथिल
छोड़ दें और
भाव करें कि
विचार शांत
होते जा रहे
हैं..... .विचार
शांत होते जा
रहे हैं.
विचार शात
होते जा रहे
हैं...... विचार
शांत हो गये
हैं।
(साधक
बिना हिले —डुले
लेटे हैं, बैठे
हैं. वृक्षों
से टिके हैं
रात्रि का गहन
सन्नाटा है.......
सागर के तट से
टकराती लहरों
का गर्जन है।.
सारी प्रकृति
शात और मौन है।
जैसे आसपास
कोई भी प्राणी
या मनुष्य न
हो।. साधक
बिलकुल मरे
हुए से पड़े
हैं।...... श्वास
उनकी बिलकुल
धीमी हो गई है.
चेहरे पर शांति
का भाव गहन हो
उठा है.. और
उनके प्राण
किसी गहन
अंतर्यात्रा
के लिए मानों भीतर
सिकुड़ गए हैं।
शरीर, श्वास और
विचार
शून्यवत हो गए
हैं...... मानों वे
हैं ही नहीं, अस्तित्व
मात्र शेष रह
गया है...... होश
मात्र रह गया
है. व्यक्ति
विसर्जित हो
गया है, चेतना
मात्र रह गई
है।
दस—पंद्रह
मिनट साधक इस
स्थिति में
डूबे रहे फिर धीरे
— धीरे उन्हें
ध्यान से वापस
लौटने का
सुझाव दिया
गया. आंखें
धीरे से खोलने
को कहा गया...... और
रात्रि की इस
ध्यान की बैठक
की समाप्ति की
घोषणा की गई।
साधक धीरे —
धीरे अपने
निवास की ओर
लौटने लगे
हैं....... अनेक
साधक अभी
ध्यान में
डूबे ही हुए
हैं।)
आज इतना
ही।
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