मेरे
प्रिय आत्मन्,
मुझे
पता नहीं कि
आप किस लिए
यहां आए हैं।
शायद आपको भी
ठीक से पता न
हो,
क्योंकि हम
सारे लोग
जिंदगी में इस
भांति ही जीते
हैं कि हमें
यह भी पता
नहीं होता कि
क्यों जी रहे
हैं, यह भी
पता नहीं होता
कि कहां जा
रहे हैं, और
यह भी पता
नहीं होता कि
क्यों जा रहे
हैं।
मूर्च्छा
और जागरण:
जिंदगी
ही जब बिना पूछे
बीत जाती हो
तो आश्चर्य
नहीं होगा कि
आपमें से बहुत
लोग बिना पूछे
यहां आ गए हों
कि क्यों जा
रहे हैं। शायद
कुछ लोग जानकर
आए हों, संभावना
बहुत कम है।
हम सब ऐसी
मूर्च्छा में
चलते हैं, ऐसी
मूर्च्छा में
सुनते हैं, ऐसी
मूर्च्छा में
देखते हैं कि
न तो हमें वह दिखाई
पड़ता जो है, न वह सुनाई
पड़ता जो कहा
जाता है, और
न उसका स्पर्श
अनुभव हो पाता
जो सब ओर से बाहर
और भीतर हमें
घेरे हुए है।
मूर्च्छा
में ही यहां
भी आ गए होंगे।
शात भी नहीं
है;
हमारे
कदमों का भी
हमें कुछ पता
नहीं है; हमारी
श्वासों का भी
हमें कुछ पता
नहीं है।
लेकिन मैं
क्यों आया हूं
यह मुझे जरूर
पता है; वह
मैं आपसे कहना
चाहूंगा।
बहुत
जन्मों से खोज
चलती है आदमी
की। न मालूम
कितने जन्मों
की खोज के बाद
उसकी झलक मिलती
है— जिसे हम
आनंद कहें, शांति
कहें, सत्य
कहें, परमात्मा
कहें, मोक्ष
कहें, निर्वाण
कहें—जो भी
शब्द ठीक
मालूम पड़े, कहें। ऐसे
कोई भी शब्द
उसे कहने में
ठीक नहीं हैं,
समर्थ नहीं
हैं। जन्मों—जन्मों
के बाद उसका
मिलना होता है।
और
जो लोग भी उसे
खोजते हैं, वे
सोचते हैं, पाकर
विश्राम मिल
जाएगा। लेकिन
जिन्हें भी वह
मिलता है, मिलकर
पता चलता है
कि एक नये
श्रम की शुरुआत
है, विश्राम
नहीं। कल तक
पाने के लिए
दौड़ थी और फिर
बांटने के लिए
दौड़ शुरू हो
जाती है।
अन्यथा बुद्ध
हमारे द्वार
पर आकर खड़े न
हों, और न
महावीर हमारी
सांकल को
खटखटाए, और
न जीसस हमें
पुकारें। उसे
पा लेने के
बाद एक नया
श्रम।
सच
यह है कि जीवन
में जो भी
महत्वपूर्ण
है,
उसे पाने
में जितना
आनंद है, उससे
अनंत गुना
आनंद उसे
बांटने में है।
जो उसे पा
लेता है, फिर
वह उसे बांटने
को वैसे ही
व्याकुल हो
जाता है, जैसे
कोई फूल खिलता
है और सुगंध
लुटती है, कोई
बादल आता है
और बरसता है, या सागर की
कोई लहर आती
है और तटों से
टकराती है।
ठीक ऐसे ही, जब कुछ
मिलता है तो
बंटने के लिए,
बिखरने के
लिए, फैलने
के लिए प्राण
आतुर हो जाते
हैं।
मेरा
मुझे पता है
कि मैं यहां
क्यों आया हूं।
और अगर मेरा
और आपका कहीं
मिलन हो जाए, और
जिस लिए मैं
आया हूं अगर
उस लिए ही
आपका भी आना
हुआ हो, तो
हमारी यह मौजूदगी
सार्थक हो
सकती है।
अन्यथा अक्सर
ऐसा होता है, हम पास से
गुजरते हैं, लेकिन मिल
नहीं पाते। अब
मैं जिस लिए
आया हूं अगर
उसी लिए आप
नहीं आए हैं, तो हम पास
होंगे, निकट
रहेंगे, लेकिन
मिल नहीं
पाएंगे।
सत्य को
देखने की आंख
कुछ
जो मुझे दिखाई
पडता है, चाहता
हूं आपको भी
दिखाई पड़े। और
मजा यह है कि
वह इतने निकट
है कि आश्चर्य
ही होता है कि
वह आपको दिखाई
क्यों नहीं
पड़ता! और कई
बार तो संदेह
होता है कि
जैसे जानकर ही
आप आंख बंद
किए बैठे हैं;
देखना ही
नहीं चाहते
हैं, अन्यथा
इतने जो निकट
है वह आपके
देखने से कैसे
चूक जाता!
जीसस ने बहुत
बार कहा है कि
लोगों के पास आंखें
हैं, लेकिन
वे देखते नहीं;
कान हैं, लेकिन वे
सुनते नहीं।
बहरे ही बहरे
नहीं हैं और
अंधे ही अंधे
नहीं हैं।
जिनके पास आंख
और कान हैं वे
भी अंधे और
बहरे हैं।
इतने निकट है,
दिखाई नहीं
पड़ता! इतने
पास है, सुनाई
नहीं पड़ता!
चारों तरफ
घेरे हुए है, स्पर्श नहीं
होता! क्या
बात है? कहीं
कुछ कोई छोटा
सा अटकाव होगा,
बड़ा अटकाव
नहीं है।
ऐसा
ही है, जैसे आंख
में एक तिनका
पड़ जाए और
पहाड़ दिखाई न
पड़े फिर, आंख
बंद हो जाए।
तर्क तो यही
कहेगा कि पहाड़
को जिसने ढांक
लिया, वह
तिनका बहुत
बड़ा होगा।
तर्क तो ठीक
ही कहता है।
गणित तो यही
कहेगा, इतने
बड़े पहाड़ को
जिसने ढांक
लिया, वह
तिनका पहाड़ से
बड़ा होना
चाहिए। लेकिन
तिनका बहुत
छोटा है, आंख
बड़ी छोटी है।
तिनका आंख को
ढंक लेता है, पहाड़ ढंक
जाता है।
हमारी
भीतर की आंख
पर भी कोई
बहुत बड़े पहाड़
नहीं हैं, छोटे
तिनके हैं।
उनसे जीवन के
सारे सत्य
छिपे रह जाते
हैं। और वह आंख......निश्चित
ही, जिन आंखों
से हम देखते
हैं उस आंख की
मैं बात नहीं
कर रहा हूं।
इससे बड़ी
भ्रांति पैदा
होती है। यह
ठीक से खयाल
में आ जाना
चाहिए कि इस
जगत में हमारे
लिए वही सत्य
सार्थक होता
है, जिसे
पकड़ने की, जिसे
ग्रहण करने की,
जिसे
स्वीकार कर
लेने की, भोग
लेने की
रिसेप्टिविटी,
ग्राहकता
हममें पैदा हो
जाती है।
सागर
का इतना जोर
का गर्जन है, लेकिन
मेरे पास कान
नहीं हैं तो
सागर अनंत—अनंत
काल तक भी
चिल्लाता रहे,
पुकारता
रहे, मुझे
कुछ सुनाई
नहीं पड़ेगा।
जरा से मेरे
कान न हों कि
सागर का इतना
बड़ा गर्जन
व्यर्थ हो गया;
आंखें न हों,
सूर्य
द्वार पर खड़ा
रहे, बेकार
हो गया, हाथ
न हों और मैं
किसी को
स्पर्श करना
चाहूं तो कैसे
करूं?
परमात्मा
की इतनी बात
है,
आनंद की
इतनी चर्चा है,
इतने
शास्त्र हैं,
इतने लोग
प्रार्थनाएं
कर रहे, मंदिरों
में भजन—कीर्तन
कर रहे, लेकिन
लगता नहीं कि
परमात्मा को
हम स्पर्श कर पाते
हैं; लगता
नहीं कि वह
हमें दिखाई
पड़ता है; लगता
नहीं कि हम
उसे सुनते हैं,
लगता नहीं कि
हमारे
प्राणों के
पास उसकी कोई
धड़कन हमें सुनाई
पड़ती है। ऐसा
लगता है, सब
बातचीत है, सब बातचीत
है। ईश्वर की
हम बात किए
चले जाते हैं।
और शायद इतनी
बात हम इसीलिए
करते हैं कि
शायद हम सोचते
हैं बातचीत
करके अनुभव को
झुठला देंगे;
बातचीत
करके ही पा
लेंगे। अब
बहरे जन्मों—जन्मों
तक बातें करें
स्वरों की, संगीत की, और अंधे
बातें करें
प्रकाश की, तो जन्मों
तक करें बातें
तो भी कुछ
होगा नहीं। ही,
एक भ्रांति
हो सकती है कि
अंधे प्रकाश
की बात करते—
करते यह भूल
जाएं कि हम
अंधे हैं, क्योंकि
प्रकाश की
बहुत बात करने
से उन्हें
लगने लगे कि
हम प्रकाश को
जानते हैं।
जमीन
पर बने हुए
परमात्मा के
मंदिर और
मस्जिद इस तरह
का ही धोखा
देने में सफल
हो पाए हैं।
उनके आसपास
उनके भीतर
बैठे हुए
लोगों को भ्रम
के अतिरिक्त
कुछ और पैदा
नहीं होता।
ज्यादा से
ज्यादा हम
परमात्मा को
मान पाते हैं, जान
नहीं पाते। और
मान लेना
बातचीत से
ज्यादा नहीं
है; कनविनसिंग
बातचीत है तो
मान लेते हैं;
कोई जोर से
तर्क करता है
और सिद्ध करता
है तो मान
लेते हैं, हार
जाते हैं, नहीं
सिद्ध कर पाते
हैं कि नहीं
है, तो मान
लेते हैं।
लेकिन मान
लेना जान लेना
नहीं है। अंधे
को हम कितना
ही मना दें कि
प्रकाश है, तो भी
प्रकाश को
जानना नहीं
होता है।
मैं
तो यहां इसी
खयाल से आया
हूं कि जानना
हो सकता है।
निश्चित ही
हमारे भीतर
कुछ और भी
केंद्र है जो
निष्कि्रय
पड़ा है—जिसे
कभी कोई कृष्ण
जान लेता है
और नाचता है, और
कभी कोई जीसस
जान लेता है
और सूली पर
लटक कर भी कह
पाता है लोगों
से कि माफ कर
देना इन्हें,
क्योंकि
इन्हें पता
नहीं कि ये
क्या कर रहे
हैं। निश्चित
ही कोई महावीर
पहचान लेता है,
और किसी
बुद्ध के भीतर
वह फूल खिल
जाता है। कोई
केंद्र है
हमारे भीतर—कोई
आंख, कोई
कान—जो बंद
पड़ा है। मैं
तो इसीलिए आया
हूं कि वह जो
बंद पड़ा हुआ
केंद्र है, कैसे सक्रिय
हो जाए।
यह
बल्व लटका हुआ
है। तो उससे
रोशनी निकल
रही है। तार
काट दें हम, तो
बल्व कुछ भी
नहीं बदला, लेकिन रोशनी
बंद हो जाएगी।
विद्युत की
धारा न मिले, बल्व तक न आए,
तो बल्व
अंधेरा हो
जाएगा और जहां
प्रकाश गिर
रहा है वहां
सिर्फ अंधेरा
गिरेगा। बल्व
वही है, लेकिन
निष्क्रिय
हो गया; वह
जो धारा शक्ति
की दौड़ती थी, अब नहीं
शडुश है। और
शक्ति की धारा
न दौडती हो तो
बल्व क्या करे?
दिव्य—दृष्टि
के जागरण का
केंद्र
हमारे
भीतर भी कोई
केंद्र है
जिससे वह जाना
जाता है, जिसे
हम परमात्मा
कहें। लेकिन
उस तक हमारी
जीवन— धारा
नहीं दौड़ती तो
वह केंद्र निष्क्रिय
पड़ रह जाता है।
आंखें हों ठीक
बिलकुल, और
आंखों तक जीवन
की धारा न
दौड़े, तो आंखें
बेकार हो जाएं।
एक
लड़की को मेरे
पास लाए थे
कुछ मित्र। उस
युवती का किसी
से प्रेम था
और घर के
लोगों को पता
चला और प्रेम
के बीच दीवाल
उन्होंने खड़ी
की। अब तक हम
इतनी अच्छी
दुनिया नहीं
बना पाए जहां
प्रेम के लिए
दीवालें न
बनानी पड़े।
उन्होंने
दीवाल खड़ी कर
दी,
उस युवती को
और उस युवक को
मिलने का
द्वार बंद कर
दिया। बड़े घर
की युवती थी, बीच से छत से
दीवाल उठा दी,
आर—पार
देखना न हो
सके। जिस दिन
वह दीवाल उठी,
उसी दिन वह
लड़की अचानक
अंधी हो गई।
उसे डाक्टरों
के पास ले गए।
उन्होंने कहा,
आंख तो
बिलकुल ठीक है,
लेकिन लड़की
को दिखाई कुछ
भी नहीं पड़ता
है! पहले तो शक
हुआ, मां—बाप
ने डांटा—डपटा,
मारने—पीटने
की धमकी दी।
लेकिन डांटने—डपटने
से अंधेपन तो
ठीक नहीं होते।
डाक्टरों को
दिखाया।
डाक्टरों ने
कहा, आंख
बिलकुल ठीक है।
लेकिन फिर भी
डाक्टरों ने
कहा कि लड़की
झूठ नहीं
बोलती है, उसे
दिखाई नहीं पड़
रहा है।
साइकोलाजिकल
ब्लाइंडनेस, उन्होंने
कहा कि मानसिक
अंधापन आ गया।
तो उन्होंने
कहा, हम
कुछ न कर
सकेंगे। लड़की
की जीवन— धारा आंख
तक जानी बंद
हो गई है; वह
जो ऊर्जा आंख
तक जाती है, वह बंद हो गई
है, वह
धारा अवरुद्ध
हो गई है। आंख
ठीक है, लेकिन
जीवन— धारा आंख
तक नहीं
पहुंचती है।
उस
लड़की को मेरे
पास लाए, मैंने
सारी बात समझी।
मैंने उस लड़की
को पूछा कि
क्या हुआ? तेरे
मन में क्या
हुआ है? उसने
कहा कि मेरे
मन में यह हुआ
है कि जिसे
देखने के लिए
मेरे पास आंखें
हैं, अगर
उसे न देख
सकूं तो आंखों
की क्या जरूरत
है? बेहतर
है कि अंधी हो
जाऊं। कल रात
भर मेरे मन
में एक ही
खयाल चलता रहा।
रात मैंने
सपना भी देखा
कि मैं अंधी
हो गई हूं। और
यह जानकर मेरा
मन प्रसन्न
हुआ कि अंधी
हो गई हूं।
क्योंकि जिसे
देखने के लिए आंख
आनंदित होती,
अब उसे देख
नहीं सकूंगी
तो आंख की
क्या जरूरत है,
अंधा ही हो
जाना अच्छा है।
उसका
मन अंधा होने
के लिए राजी
हो गया, जीवन—
धारा आंख तक
जानी बंद हो
गई है। आंख
ठीक है, आंख
देख सकती है, लेकिन जिस
शक्ति से देख
सकती थी वह आंख
तक नहीं आती
है।
हमारे
व्यक्तित्व
में छिपा हुआ
कोई केंद्र है
जहां से
परमात्मा
पहचाना, जाना
जाता है; जहां
से सत्य की
झलक मिलती है;
जहां से
जीवन की मूल
ऊर्जा से हम
संबंधित होते
हैं; जहां
से पहली बार
संगीत उठता है
वह जो किसी वाद्य
से नहीं उठ
सकता जहां से
पहली बार वे
सुगंधें
उपलब्ध होती
हैं जो
अनिर्वचनीय
हैं; और
जहां से उस
सबका द्वार
खुलता है जिसे
हम मुक्ति
कहें; जहां
कोई बंधन नहीं,
जहां परम
स्वतंत्रता
है; जहां
कोई सीमा नहीं
और असीम का
विस्तार है, जहां कोई
दुख नहीं और
जहां आनंद, और आनंद, और
आनंद, और
आनंद के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। लेकिन उस
केंद्र तक
हमारी जीवन—
धारा नहीं
जाती, एनर्जी
नहीं जाती, ऊर्जा नहीं
जाती, कहीं
नीचे ही अटककर
रह जाती है।
इस
बात को थोड़ा ठीक
से समझ लें।
क्योंकि तीन
दिन जिसे मैं
ध्यान कह रहा
हूं इस ऊर्जा
को,
इस शक्ति को
उस केंद्र तक
पहुंचाने का
ही प्रयास
करना है, जहां
वह फूल खिल
जाए, वह
दीया जल जाए, वह आंख मिल
जाए—वह तीसरी आंख,
वह सुपर
सेंस, वह
अतींद्रिय
इंद्रिय खुल
जाए—जहां से
कुछ लोगों ने
देखा है, और
जहां से सारे
लोग देखने के
अधिकारी हैं।
लेकिन बीज
होने से ही
जरूरी नहीं कि
कोई वृक्ष हो
जाए। हर बीज
अधिकारी है
वृक्ष होने का,
लेकिन सभी
बीज वृक्ष
नहीं हो पाते।
क्योंकि बीज
की संभावना तो
है, पोटेशियलिटी
तो है कि
वृक्ष हो जाए,
लेकिन खाद
भी जुटानी
पड़ती है, जमीन
में बीज को
दबना भी पड़ता,
मरना भी
पड़ता, टूटना
पड़ता, बिखरना
पड़ता। जो बीज
टूटने, बिखरने
को, मिटने
को राजी हो
जाता है वह
वृक्ष हो जाता
है। और अगर
वृक्ष के पास
हम बीज को
रखकर देखें तो
पहचानना बहुत
मुश्किल होगा
कि यह बीज
इतना बड़ा वृक्ष
बन सकता है!
असंभव! असंभव
मालूम पड़ेगा।
इतना सा बीज
इतना बड़ा
वृक्ष कैसे
बनेगा!
ऐसा
ही लगा है सदा।
जब कृष्ण के
पास हम खड़े
हुए हैं, तो
ऐसा ही लगा है
कि हम कहां बन
सकेंगे! तो
हमने कहा तुम
भगवान हो, हम
साधारणजन, हम
कहां बन
सकेंगे। तुम
अवतार हो, हम
साधारणजन, हम
तो जमीन पर ही
रेंगते
रहेंगे; हमारी
यह सामर्थ्य
नहीं। जब कोई
बुद्ध और कोई
महावीर हमारे
पास से गुजरा
है, तो
हमने उसके
चरणों में
नमस्कार कर
लिए हैं— और
कहा कि
तीर्थंकर हो,
अवतार हो, ईश्वर के
पुत्र हो, हम
साधारणजन!
अगर
बीज कह सकता, तो
वृक्ष के पास
वह भी कहता कि
भगवान हो, तीर्थंकर
हो, अवतार
हो; हम
साधारण बीज, हम कहा ऐसे
हो सकेंगे!
बीज को कैसे
भरोसा आएगा कि
इतना बड़ा
वृक्ष उसमें
छिपा हो सकता
है? लेकिन
यह बड़ा वृक्ष
कभी बीज था, और जो आज बीज
है वह कभी बड़ा
वृक्ष हो सकता
है।
अनंत
संभावनाओं का
जागरण
हम
सबके भीतर
अनंत संभावना
छिपी है।
लेकिन उन अनंत
संभावनाओं का
बोध जब तक
हमें भीतर से
न होने लगे तब
तक कोई
शास्त्र
प्रमाण नहीं
बनेगा। और कोई
भी चिल्लाकर
कहे कि पा
लिया, तो भी
प्रमाण नहीं
बनेगा।
क्योंकि जिसे
हम नहीं जान
लेते हैं, उस
पर हम कभी
विश्वास नहीं
कर पाते हैं।
और ठीक भी है, क्योंकि
जिसे हम नहीं
जानते उस पर
विश्वास करना
प्रवंचना है,
डिसेपान है।
अच्छा है कि
हम कहें कि
हमें पता नहीं
कि ईश्वर है।
लेकिन
किन्हीं को
पता हुआ है, और किन्हीं
को केवल पता
ही नहीं हुआ
है, बल्कि
उनकी सारी
जिंदगी बदल गई,
उनके चारों
तरफ हमने फूल
खिलते देखे हैं
अलौकिक।
लेकिन उनकी
पूजा करने से
वह हमारे भीतर
नहीं हो जाएगा।
सारा
धर्म पूजा पर
रुक गया है।
फूल की पूजा
करने से नये
बीज कैसे फूल
बन जाएंगे? और
नदी कितनी ही
सागर की पूजा
करे तो सागर न
हो जाएगी। और
अंडा
पक्षियों की
कितनी ही पूजा
करे तो भी आकाश
में पंख नहीं
फैला सकता।
अंडे को टूटना
पड़ेगा। और
पहली बार जब
कोई पक्षी
अंडे के बाहर
टूटकर निकलता
है तो उसे
भरोसा नहीं
आता; उड़ते
हुए पक्षियों
को देखकर वह
विश्वास भी नहीं
कर सकता कि यह
मैं भी कर
सकूंगा।
वृक्षों के
किनारों पर
बैठकर वह
हिम्मत जुटाता
है। उसकी मां
उड़ती है, उसका
बाप उड़ता है, वे उसे
धक्के भी देते
हैं, फिर
भी उसके हाथ—पैर
कंपते हैं। वह
जो कभी नहीं
उड़ा, कैसे
विश्वास करे
कि ये पंख
उड़ेंगे? आकाश
में खुल
जाएंगे, अनंत
की, दूर की
यात्रा पर
निकल जाएगा।
मैं
जानता हूं कि
इन तीन दिनों
में आप भी
वृक्ष के
किनारे पर
बैठेंगे, मैं
कितना ही
चिल्लाऊंगा
कि छलांग
लगाएं, कूद
जाएं, उड़
जाएं—विश्वास
नहीं पड़ेगा, भरोसा नहीं
होगा। जो पंख
उड़े नहीं, वे
कैसे मानें कि
उड़ना हो सकता
है? लेकिन
कोई उपाय भी
तो नहीं है, एक बार तो
बिना जाने
छलांग लेनी ही
पड़ती है।
कोई
पानी में
तैरना सीखने
जाता है। अगर
वह कहे कि जब
तक मैं तैरना
न सीख लूं तब
तक उतरूंगा
नहीं, तो गलत
नहीं कहता है,
ठीक कहता है,
उचित कहता
है, एकदम
कानूनी बात
कहता है।
क्योंकि जब तक
तैरना न सीखूं
तो पानी में
कैसे उतरूं!
लेकिन
सिखानेवाला
कहेगा कि जब
तक उतरोगे
नहीं, सीख
नहीं पाओगे।
और तब तट पर
खड़े होकर
विवाद अंतहीन
चल सकता है।
हल क्या है? सिखानेवाला
कहेगा, उतरो!
कूदो! क्योंकि
बिना उतरे सीख
न पाओगे।
असल
में,
सीखना उतर
जाने से ही
शुरू होता है।
सब लोग तैरना
जानते हैं, सीखना नहीं
पड़ता है तैरना।
अगर आप तैरना
सीखे हैं तो
आपको पता होगा,
तैरना
सीखना नहीं
पड़ता। सारे
लोग तैरना
जानते हैं, ढंग से नहीं
जानते हैं—गिर
जाते हैं पानी
में तो ढंग आ
जाता है; हाथ—पैर
बेढंगे
फेंकते हैं, फिर ढंग से
फेंकने लगते
हैं। हाथ—पैर
फेंकना सभी को
मालूम है। एक
बार पानी में
उतरे तो ढंग
से फेंकना आ
जाता है।
इसलिए जो
जानते हैं, वे कहेंगे
कि तैरना
सीखना नहीं है,
रिमेंबरिग
है—एक याद है, पुनर्स्मरण
है।
इसलिए
परमात्मा की
जो अनुभूति है, जाननेवाले
कहते हैं, वह
स्मरण है। वह
कोई ऐसी
अनुभूति नहीं
है जिसे हम आज
सीख लेंगे।
जिस दिन हम
जानेंगे, हम
कहेंगे, अरे!
यही था तैरना!
ये हाथ—पैर तो
हम कभी भी
फेंक सकते थे।
लेकिन इन हाथ—
पैर के फेंकने
का इस नदी से, इस सागर से
कभी मिलन नहीं
हुआ। हिम्मत
नहीं जुटाई, किनारे पर
खड़े रहे।
उतरना पड़े, कूदना पड़े।
लेकिन कूदते
ही काम शुरू
हो जाता है।
वह
जिस केंद्र की
मैं बात कर
रहा हूं वह
हमारे मस्तिष्क
में छिपा हुआ पड़ा
है। अगर आप
जाकर
मस्तिष्कविदों
से पूछें, तो
वे कहेंगे, मस्तिष्क का
बहुत थोड़ा सा
हिस्सा काम कर
रहा है; बड़ा
हिस्सा निष्क्रिय
है, इनएक्टिव
है। उस बड़े
हिस्से में
क्या— क्या
छिपा है, कहना
कठिन है। बड़े
से बड़ी
प्रतिभा और
जीनियस का भी
बहुत थोड़ा सा
मस्तिष्क काम
करता है। इसी
मस्तिष्क में
वह केंद्र है
जिसे हम सुपर—सेंस,
अतींद्रिय—इंद्रिय
कहें, जिसे
हम छठवीं
इंद्रिय कहें,
या जिसे हम
तीसरी आंख, थर्ड आई
कहें। वह
केंद्र छिपा
है जो खुल जाए
तो हम जीवन को
बहुत नये
अर्थों में
देखेंगे—पदार्थ
विलीन हो
जाएगा और
परमात्मा प्रकट
होगा; आकार
खो जाएगा और
निराकार
प्रकट होगा; रूप मिट
जाएगा और अरूप
आ जाएगा; मृत्यु
नहीं हो जाएगी
और अमृत के
द्वार खुल जाएंगे।
लेकिन वह
देखने का
केंद्र हमारा निष्क्रिय
है। वह केंद्र
कैसे सक्रिय
हो?
मैंने
कहा,
जैसे बल्व
तक अगर
विद्युत की
धारा न पहुंचे,
तो बल्व निष्क्रिय
पडा रहेगा; धारा
पहुंचाएं और
बल्व जाग
उठेगा। बल्व
सदा
प्रतीक्षा कर
रहा है कि कब
धारा आए।
लेकिन अकेली
धारा भी प्रकट
न हो सकेगी।
बहती रहे, लेकिन
प्रकट न हो
सकेगी; प्रकट
होने के लिए
बल्व चाहिए।
और प्रकट होने
के लिए धारा
भी चाहिए।
हमारे
भीतर जीवन—
धारा है, लेकिन
वह प्रकट नहीं
हो पाती; क्योंकि
जब तक वह वहां
न पहुंच जाए, उस केंद्र
पर जहां से
प्रकट होने की
संभावना है, तब तक
अप्रकट रह
जाती है।
हम
जीवित हैं नाम
मात्र को।
सांस लेने का
नाम जीवन है? भोजन
पचा लेने का
नाम जीवन है? रात सो जाने
का नाम, सुबह
जग जाने का
नाम जीवन है? बच्चे से
जवान, जवान
से के हो जाने
का नाम जीवन
है? जन्मने
और मर जाने का
नाम जीवन है? और अपने
पीछे बच्चे
छोड जाने का
नाम जीवन है?
नहीं, यह
तो यंत्र भी
कर सकता है।
और आज नहीं कल
कर लेगा, बच्चे
टेस्ट—टधूब
में पैदा हो
जाएंगे। और
बचपन, जवानी
और बुढ़ापा बड़ी
मैकेनिकल, बड़ी
यांत्रिक
क्रियाएं हैं।
जब कोई भी
यंत्र थकता है,
तो जवानी भी
आती है यंत्र
की, बुढ़ापा
भी आता है।
सभी यंत्र
बचपन में होते
हैं, जवान
होते हैं, के
होते हैं। घड़ी
भी खरीदते हैं
तो गारंटी
होती है कि दस
साल चलेगी। वह
जवान भी होगी
घड़ी, की भी
होगी, मरेगी
भी। सभी यंत्र
जन्मते हैं, जीते हैं, मरते हैं।
जिसे हम जीवन
कहते हैं, वह
यांत्रिकता, मैकेनिकल
होने से कुछ
और ज्यादा
नहीं है। जीवन
कुछ और है।
उपलब्धि
अनिर्वचनीय
है
अगर
इस बल्व को
पता न चले
विद्युत की
धारा का तो
बल्व जैसा है
उसी को जीवन
समझ लेगा। हवा
के धक्के उसे
धक्के देंगे
तो बल्व कहेगा
मैं जीवित हूं
क्योंकि
धक्के मुझे
लगते हैं।
बल्व उसी को
जीवन समझ लेगा।
और जिस दिन
विद्युत की
धारा पहली दफा
बल्व में आती
होगी, और अगर
बल्व कह सके
तो क्या कहेगा?
कहेगा, अनिर्वचनीय
है! नहीं कह
सकता क्या हो
गया! अब तक
अंधेरे से भरा
था, अब
अचानक— अचानक
सब प्रकाश हो
गया है। और
किरणें बही
जाती हैं, सब
तरफ फैली चली
जाती हैं।
बीज
क्या कहेगा
जिस दिन वृक्ष
हो जाएगा? कहेगा,
पता नहीं यह
क्या हुआ? कहने
जैसा नहीं है!
मैं तो छोटा
सा बीज था, यह
क्या हो गया? यह मुझसे हुआ
है, यह भी
कहना कठिन है।
इसलिए
जिनको भी
परमात्मा
मिलता है, वे
यह नहीं कह
पाते कि हमने
पा लिया है।
वे तो यही
कहते हैं कि
हम.. .हम सोचते
हैं कि जो हम
थे, उससे, जो हमें मिल
गया है कोई भी
संबंध नहीं
दिखाई पड़ता।
कहां हम
अंधकार थे, कहां प्रकाश
हो गया है!
कहां हम कांटे
थे, कहां
फूल हो गए हैं!
कहां हम
मृत्यु थे ठोस,
कहां हम तरल
जीवन हो गए
हैं! नहीं—नहीं,
हमें नहीं
मिल गया है।
वे कहेंगे, हमें नहीं
मिल गया है।
जो जानेंगे, वे कहेंगे, नहीं, उसकी
कृपा से हो
गया है—उसकी
ग्रेस से, उसके
प्रसाद से—प्रयास
से नहीं।
लेकिन
इसका मतलब यह
नहीं है कि
प्रयास नहीं
है। जब उपलब्ध
होता है तो
ऐसा ही लगता
है,
उसके
प्रसाद से
मिला है, ग्रेस
से। लेकिन
उसके प्रसाद
तक पहुंचने के
लिए बड़े प्रयास
की यात्रा है।
और वह प्रयास
क्या है? वह
एक छोटा सा
प्रयास है एक
अर्थों में, बड़ा भी है
दूसरे अर्थों
में। इस
अर्थों में
छोटा है कि वे
केंद्र बहुत
दूर नहीं हैं।
जहां शक्ति की
ऊर्जा, जहां
ऊर्जा
संगृहीत है, वह स्थान, रिजर्वायर,
और वह जगह
जहा से जीवन
को देखने की आंख
खुलेगी, उनमें
फासला बहुत
नहीं है।
मुश्किल से दो
फीट का फासला
है, तीन
फीट का फासला
है, इससे
ज्यादा फासला
नहीं है।
क्योंकि हम
आदमी ही पांच—छह
फीट के हैं, हमारी पूरी
जीवन—व्यवस्था
पांच—छह फीट
की है। उस
पांच—छह फीट
में सारा
इंतजाम है।
जीवन—ऊर्जा
का कुंड
जिस
जगह जीवन की
ऊर्जा इकट्ठी
है,
वह
जननेंद्रिय
के पास कुंड
की भांति है।
इसलिए उस
ऊर्जा का नाम
कुंडलिनी पड़
गया, जैसे
कोई पानी का
छोटा सा कुंड।
और इसलिए भी
उस ऊर्जा का
नाम कुंडलिनी
पड़ गया कि
जैसे कोई सांप
कुंडल मारकर
सो गया हो।
सोए हुए सांप
को कभी देखा
हो, कुंडल
पर कुंडल
मारकर फन को
रखकर सोया हुआ
है। लेकिन सोए
हुए सांप को
जरा छेड़ दो, फन ऊपर उठ
जाता है, कुंडल
टूट जाते हैं।
इसलिए भी उसे
कुंडलिनी नाम
मिल गया कि
हमारे ठीक
सेक्स सेंटर
के पास हमारे
जीवन की ऊर्जा
का कुंड है—बीज,
सीड है, जहां
से सब फैलता
है।
यह
उपयुक्त होगा
खयाल में ले
लेना कि यौन
से,
काम से, सेक्स
से जो थोड़ा सा
सुख मिलता है,
वह सुख भी
यौन का सुख
नहीं है, वह
सुख भी यौन के
साथ वह जो
कुंड है हमारी
जीवन—ऊर्जा का,
उसमें आए
हुए कंपन का
सुख है। थोड़ा
सा वहां सोया
सांप हिल जाता
है। और उसी
सुख को हम
सारे जीवन का
सुख मान लेते
हैं। जब वह
पूरा सांप
जागता है और
उसका फन पूरे
व्यक्तित्व
को पार करके
मस्तिष्क तक
पहुंच जाता है,
तब जो हमें
मिलता है, उसका
हमें कुछ भी
पता नहीं।
हम
जीवन की पहली
ही सीढी पर
जीते हैं। बड़ी
सीढ़ी है जो
परमात्मा तक
जाती है। वह
जो हमारे भीतर
तीन फीट या दो
फीट का फासला
है,
वह फासला एक
अर्थ में बहुत
बड़ा है; वह
प्रकृति से
परमात्मा तक
का फासला है, वह पदार्थ
से आत्मा तक
का फासला है; वह निद्रा
से जागरण तक
का फासला है, वह मृत्यु
से अमृत तक का
फासला है। वह
बडा फासला भी
है। ऐसे छोटा
फासला भी है।
हमारे भीतर हम
यात्रा कर
सकते हैं।
ऊर्जा
जागरण से
आत्मक्रांति
यह
जो ऊर्जा हमारे
भीतर सोई पडी
है,
अगर इसे
जगाना हो, तो
सांप को छेड़ने
से कम खतरनाक
काम नहीं है।
बल्कि सांप को
छेड़ना बहुत
खतरनाक नहीं
है। इसलिए
खतरनाक नहीं
है कि एक तो सौ
में से सत्तानबे
सांपों में
कोई जहर नहीं
होता। तो सौ
में से
सत्तानबे
सांप तो आप
मजे से छेड़ सकते
हैं, उनमें
कुछ होता ही
नहीं। और अगर
कभी उनके
काटने से कोई
मरता है तो
सांप के काटने
से नहीं मरता,
सांप ने
काटा है, इस
खयाल से मरता
है; क्योंकि
उनमें तो जहर
होता नहीं।
सत्तानबे
प्रतिशत सांप
तो किसी को
मारते नहीं।
हालांकि बहुत
लोग मरते हैं,
उनके काटने
से भी मरते
हैं; वे
सिर्फ खयाल से
मरते हैं कि
सांप ने काटा,
अब मरना ही
पड़ेगा। और जब
खयाल पकड़ लेता
है तो घटना घट
जाती है।
फिर
जिन सांपों
में जहर है
उनको छेड़ना भी
बहुत खतरनाक
नहीं है, क्योंकि
ज्यादा से
ज्यादा वे
आपके शरीर को
छीन सकते हैं।
लेकिन जिस
कुंडलिनी
शक्ति की मैं
बात कर रहा
हूं उसको
छेड़ना बहुत
खतरनाक है; उससे ज्यादा
खतरनाक कोई
बात ही नहीं
है, उससे
बड़ा कोई डेंजर
ही नहीं है।
खतरा क्या है?
वह भी एक
तरह की मृत्यु
है। जब आपके
भीतर की ऊर्जा
जगती है तो आप
तो मर जाएंगे
जो आप जगने के
पहले थे और
आपके भीतर एक
बिलकुल नये
व्यक्ति का
जन्म होगा जो
आप कभी भी
नहीं थे। यही
भय लोगों को
धार्मिक बनने
से रोकता है।
वही भय—जो बीज
अगर डर जाए तो
बीज रह जाए।
अब बीज के लिए
सबसे बडा खतरा
है जमीन में
गिरना, खाद
पाना, पानी
पाना। सबसे
बड़ा खतरा है, क्योंकि बीज
मरेगा। अंडे
के लिए सबसे
बड़ा खतरा यही
है कि पक्षी
बड़ा हो भीतर
और उड़े, तोड़
दे अंडे को।
अंडा तो मरेगा।
हम
भी किसी के
जन्म की पूर्व
अवस्था हैं।
हम भी एक अंडे
की तरह हैं, जिससे
किसी का जन्म
हो सकता है।
लेकिन हमने
अंडे को ही सब
कुछ मान रखा
है। अब हम
अंडे को
सम्हाले बैठे
हैं।
यह
शक्ति उठेगी
तो आप तो
जाएंगे, आप के
बचने का कोई
उपाय नहीं। और
अगर आप डरे, तो जैसा
कबीर ने कहा
है, कबीर
के बड़े.. .दो
पंक्तियों
में उन्होंने
बड़ी बढ़िया बात
कही है। कबीर
ने कहा है
जिन खोजा
तिन पाइयां, गहरे
पानी पैठ।
मैं बौरी
खोजन गई, रही
किनारे बैठ।।
कोई
पास बैठा था, उसने
कबीर से कहा, आप किनारे
क्यों बैठे
रहे? कबीर
कहते हैं, मैं
पागल खोजने
गया, किनारे
ही बैठ गया।
किसी ने पूछा,
आप बैठ
क्यों गए
किनारे? तो
कबीर ने कहा
जिन खोजा
तिन पाइया, गहरे
पानी पैठ।
मैं बौरी
डूबन डरी, रही
किनारे बैठ।।
मैं
डर गई डूबने से, इसलिए
किनारे बैठ गई।
और जिन्होंने
खोजा
उन्होंने तो
गहरे जाकर खोजा।
डूबने
की तैयारी
चाहिए, मिटने
की तैयारी
चाहिए। एक
शब्द में कहें—शब्द
बहुत अच्छा
नहीं—मरने की
हयात चाहिए।
और जो डर
जाएगा डूबने
से वह बच तो
जाएगा, लेकिन
अंडा ही बचेगा,
पक्षी नहीं,
जो आकाश में
उड़ सके। जो
डूबने से
डरेगा वह बच
तो जाएगा, लेकिन
बीज ही बचेगा,
वृक्ष नहीं,
जिसके नीचे
हजारों लोग
छाया में
विश्राम कर सकें।
और बीज की तरह
बचना कोई बचना
है? बीज की
तरह बचने से
ज्यादा मरना
और क्या होगा!
इसलिए
बहुत खतरा है।
खतरा यह है कि
हमारा जो
व्यक्तित्व
कल तक था वह अब
नहीं होगा; अगर
ऊर्जा जगेगी
तो हम पूरे
बदल जाएंगे—नये
केंद्र
जाग्रत होंगे,
नया
व्यक्तित्व
उठेगा, नया
अनुभव होगा, नया सब हो
जाएगा। नये
होने की
तैयारी हो तो
पुराने को जरा
छोड़ने की
हिम्मत करना।
और पुराना
हमें इतने जोर
से पकड़े हुए
है, चारों
तरफ से कसे
हुए है, जंजीरों
की तरह बांधे
हुए है कि वह
ऊर्जा नहीं उठ
पाती।
परमात्मा
की यात्रा पर
जाना निश्चित
ही असुरक्षा
की यात्रा है, इनसिक्योरिटी
की। लेकिन
जीवन के, सौंदर्य
के सभी फूल
असुरक्षा में
ही खिलते हैं।
बाजी
पूरी लगानी
होगी
तो
इस यात्रा के
लिए दो—चार
खास बातें
आपसे कह दूं
और दो—चार गैर—खास
बातें भी।
पहली
बात तो यह कि
कल सुबह जब हम
यहां मिलेंगे, और
कल इस ऊर्जा
को जगाने की
दिशा में
चलेंगे, तो
मैं आपसे आशा
रखूं कि आप
अपने भीतर कुछ
भी नहीं छोड़
रखेंगे जो
आपने दांव पर
न लगा दिया हो।
यह कोई छोटा
जुआ नहीं है।
यहां जो
लगाएगा पूरा,
वही पा
सकेगा। इंच भर
भी बचाया तो
चूक सकते हैं।
क्योंकि ऐसा
नहीं हो सकता
कि बीज कहे कि
थोड़ा सा मैं
बच जाऊं और
बाकी वृक्ष हो
जाए। ऐसा नहीं
हो सकता। बीज
मरेगा तो पूरा
मरेगा और
बचेगा तो पूरा
बचेगा।
पार्शियल डेथ
जैसी कोई चीज
नहीं होती, आशिक मृत्यु
नहीं होती। तो
आपने अगर अपने
को थोड़ा भी
बचाया तो
व्यर्थ मेहनत
हो जाएगी।
पूरा ही छोड़
देना। कई बार,
थोड़े से
बचाव से सब खो
जाता है।
मैंने
सुना है कि
कोलरेडो में
जब सबसे पहली
दफा सोने की
खदानें मिलीं, तो
सारा अमेरिका
दौड़ पड़ा
कोलरेडो की
तरफ। खबरें
आईं कि जरा सा
खेत खरीद लो
और सोना मिल जाए।
लोगों ने
जमीनें खरीद
डालीं। एक
करोड़पति ने
अपनी सारी
संपत्ति
लगाकर एक पूरी
पहाड़ी ही खरीद
ली। बड़े यंत्र
लगाए। छोटे—छोटे
लोग छोटे—छोटे
खेतों में
सोना खोद रहे
थे, तो
पहाड़ी खरीदी
थी, बड़े
यंत्र लाया था,
बड़ी खुदाई
की, बड़ी
खुदाई की।
लेकिन सोने का
कोई पता न चला।
फिर घबड़ाहट
फैलनी शुरू हो
गई। सारा दांव
पर लगा दिया
था। फिर वह
बहुत घबड़ा गया।
फिर उसने घर
के लोगों से
कहा कि यह तो
हम मर गए, सारी
संपत्ति दांव
पर लगा दी है
और सोने की कोई
खबर नहीं है!
फिर उसने
इश्तहार
निकाला कि मैं
पूरी पहाड़ी
बेचना चाहता
हूं मय
यंत्रों के, खुदाई का
सारा सामान
साथ है।
घर
के लोगों ने
कहा,
कौन
खरीदेगा? सबमें
खबर हो गई है
कि वह पहाड़
बिलकुल खाली
है, और
उसमें लाखों
रुपए खराब हो
गए हैं, अब
कौन पागल होगा?
लेकिन
उस आदमी ने
कहा कि कोई न
कोई हो भी
सकता है।
एक
खरीददार मिल
गया।
बेचनेवाले को
बेचते वक्त भी
मन में हुआ कि
उससे कह दें
कि पागलपन मत
करो;
क्योंकि
मैं मर गया
हूं। लेकिन
हिम्मत भी न
जुटा पाया
कहने की, क्योंकि
अगर वह चूक
जाए, न
खरीदे, तो
फिर क्या होगा?
बेच दिया।
बेचने के बाद
कहा कि आप भी
अजीब पागल
मालूम होते
हैं; हम
बरबाद होकर
बेच रहे हैं!
पर उस आदमी ने
कहा, जिंदगी
का कोई भरोसा
नहीं; जहां
तक तुमने खोदा
है वहां तक
सोना न हो, लेकिन
आगे हो सकता
है। और जहां
तुमने नहीं
खोदा है, वहां
नहीं होगा, यह तो तुम भी
नहीं कह सकते।
उसने कहा, यह
तो मैं भी
नहीं कह सकता।
और
आश्चर्य—कभी—कभी
ऐसे आश्चर्य
घटते हैं—
पहले दिन ही, सिर्फ
एक फीट की
गहराई पर सोने
की खदान शुरू
हो गई। वह
आदमी जिसने
पहले खरीदी थी
पहाड़ी, छाती
पीटकर पहले भी
रोता रहा और
फिर बाद में तो
और भी ज्यादा
छाती पीटकर
रोया, क्योंकि
पूरे पहाड़ पर
सोना ही सोना
था। वह उस
आदमी से मिलने
भी गया। और
उसने कहा, देखो
भाग्य! उस
आदमी ने कहा, भाग्य नहीं,
तुमने दांव
पूरा न लगाया,
तुम पूरा
खोदने के पहले
ही लौट गए। एक
फीट और खोद
लेते!
हमारी
जिंदगी में
ऐसा रोज होता
है। न मालूम
कितने लोग हैं
जिन्हें मैं
जानता हूं कि
जो खोदते हैं
परमात्मा को, लेकिन
पूरा नहीं
खोदते, अधूरा
खोदते हैं; ऊपर—ऊपर
खोदते हैं और
लौटे जाते हैं।
कई बार तो इंच
भर पहले से
लौट जाते हैं,
बस इंच भर
का फासला रह
जाता है और वे
वापस लौटने
लगते हैं। और
कई बार तो
मुझे साफ
दिखाई पड़ता है
कि यह आदमी
वापस लौट चला,
यह तो अब
करीब पहुंचा
था, अभी
बात घट जाती; यह तो वापस
लौट पड़ा!
तो
अपने भीतर एक
बात खयाल में
ले लें कि आप
कुछ भी बचा न
रखें, अपना
पूरा लगा दें।
और परमात्मा
को खरीदने चले
हों तो हमारे
पास लगाने को
ज्यादा है भी
क्या! उसमें
भी कंजूसी कर
जाते हैं।
कंजूसी नहीं
चलेगी। कम से
कम परमात्मा
के दरवाजे पर
कंजूसों के
लिए कोई जगह
नहीं। वहा
पूरा ही लगाना
पड़ेगा।
नहीं, ऐसा
नहीं है कि
बहुत कुछ है
हमारे पास
लगाने को। यह
सवाल नहीं है
कि क्या है, सवाल यह है
कि पूरा लगाया
या नहीं!
क्योंकि पूरा
लगाते ही हम
उस बिंदु पर
पहुंच जाते
हैं जहां
ऊर्जा का
निवास है, और
जहां से ऊर्जा
उठनी शुरू
होती है। असल
में, क्यों
पूरे का जोर
है? जब हम
अपनी पूरी
ताकत लगा देते
हैं, तभी
उस ताकत को
उठने की जरूरत
पड़ती है, जो
रिजर्वायर है;
तब तक उसकी
जरूरत नहीं
पड़ती। जब तक
हमारे पास
ताकत बची रहती
है तब तक उससे
ही काम चलता
है। तो जो
रिजर्व
फोर्सेज हैं
हमारे भीतर, उनकी जरूरत
तो तब पड़ती है
जब हमारे पास
कोई ताकत नहीं
होती। तब उनकी
जरूरत पड़ती है।
तो जब हम पूरी
ताकत लगा देते
हैं तब वह
केंद्र सक्रिय
होता है। अब
वहां से शक्ति
लेने की जरूरत
आ जाती है।
अन्यथा नहीं
पड़ती जरूरत।
अब
मैं आपसे
दौड़ने को कहूं
आप दौड़े। कहूं
पूरी ताकत से
दौड़े, आप पूरी
ताकत से दौड़े।
आप समझते हैं
कि पूरी ताकत
से दौड़ रहे
हैं, लेकिन
आप पूरी ताकत
से नहीं दौड़
रहे। कल आपको
किसी से
प्रतियोगिता
करनी है, काम्पिटीशन
में दौड़ रहे
हैं, तब आप
पाते हैं कि
आपकी दौड़ बढ़
गई है। क्या
हुआ? यह
शक्ति कहां से
आई? कल तो
आप कहते थे, मैं पूरी
ताकत से दौड़
रहा हूं। आज
प्रतिस्पर्धा
में आप ज्यादा
दौड़ रहे हैं—पूरी
ताकत लगा रहे
हैं।
लेकिन
यह भी पूरी
ताकत नहीं है।
कल एक आदमी
आपके पीछे
बंदूक लेकर लग
गया है। अब आप
जितनी ताकत से
दौड़ रहे हैं
यह ताकत से आप
कभी भी नहीं
दौड़े थे। आपको
भी पता नहीं
था कि इतना
मैं दौड़ सकता
हूं। यह ताकत
कहां से आ गई
है?
यह भी ताकत
आपके भीतर सोई
पड़ी थी। लेकिन
इतने से भी
काम नहीं होगा।
जब कोई आदमी
बंदूक लेकर
आपके पीछे
पड़ता है तब भी
आप जितना
दौड़ते हैं, वह भी पूरा
दौड़ना नहीं है।
ध्यान में तो
उसने भी
ज्यादा दांव
पर लगा देना
पड़ेगा। जहां
तक, जहां
तक आपको हो, पूरा लगा
देना है। और
जिस क्षण आप
उस बिंदु पर
पहुंचेंगे
जहा आपकी पूरी
ताकत लग गई, उसी क्षण आप
पाएंगे कि कोई
दूसरी ताकत से
आपका संबंध हो
गया, कोई
ताकत आपके
भीतर से कानी
शुरू हो गई।
निश्चित
ही उसके जागने
का पूरा अनुभव
होगा। जैसे
कभी बिजली छुई
हो तो अनुभव
हुआ होगा, वैसा
ही अनुभव होगा
कि जैसे भीतर
से, नीचे
से, यौन—केंद्र
से कोई शक्ति
ऊपर की तरफ
दौड़नी शुरू हो
गई। गरम उबलती
हुई आग, लेकिन
शीतल भी। जैसे
कांटे चुभने
लगे चारों तरफ,
लेकिन फूल
जैसी कोमल भी।
और कोई चीज
ऊपर जाने लगी।
और जब कोई चीज
ऊपर जाती है
तो बहुत कुछ
होगा। उस सब
में किसी भी
बिंदु पर आपको
रोकना नहीं है,
अपने को
पूरा छोड़ देना
है, जो भी
हो। जैसे कोई
आदमी नदी में
बहता है, ऐसा
अपने को छोड़
दें।
नये
जन्म के लिए
साहस और धैर्य
तो
दूसरी बात—पहला, अपने
को पूरा दांव
पर लगा देना
है—दूसरी बात,
जब दांव पर
लग कर आपके
भीतर कुछ होना
शुरू हो जाए, तो आपको
पूरी तरह अपने
को छोड़ देना
है—जस्ट
फ्लोटिंग, अब
जहां ले जाए
यह धारा, हम
जाने को राजी
हैं। एक सीमा
तक हमें
पुकारना पड़ता
है; और जब
शक्ति जागती
है तो फिर
हमें अपने को
छोड़ देना पड़ता
है। बड़े हाथों
ने हमें
सम्हाल लिया,
अब हमें
चिंता की
जरूरत नहीं है,
अब हमें बह
जाना पड़ेगा।
और
तीसरी बात यह
जो शक्ति का
उठना होगा
भीतर, इसके
साथ बहुत कुछ
घटनाएं घट
जाएंगी तो
घबडाइएगा
नहीं, क्योंकि
नये अनुभव
घबडानेवाले
होते हैं।
बच्चा जब मां
के पेट से
जन्मता है तो
बहुत घबड़ा
जाता है।
मनोवैज्ञानिक
तो कहते हैं
कि वह
ट्रामैटिक एक्सपीरिएंस
है, उससे
फिर कभी मुक्त
ही नहीं हो
पाता। नये की
घबड़ाहट बच्चे
में मां के
पेट से जन्म के
साथ ही शुरू
हो जाती है।
क्योंकि मां
के पेट में वह
बिलकुल
सुरक्षित
दुनिया में था
नौ महीने तक—न
कोई चिंता, न कोई फिक्र,
न श्वास
लेनी, न
खाना खाना, न रोना, न
गाना, न
दुनिया, न
कुछ— एकदम
विश्राम में
था। मां के
पेट के बाहर
निकल कर एकदम
नई दुनिया आती
है। तो पहला
धक्का जीवन का
और घबड़ाहट
वहीं से पकड़ जाती
है।
इसलिए
सारे लोग नई
चीज से डरे
रहते हैं; पुराने
को पकड़ने का
मन रहता है, नये से डरे
रहते हैं। वह
हमारे बचपन का
पहला अनुभव है
कि नये ने बड़ी मुश्किल
में डाल दिया;
वह अच्छा था
मां का पेट।
इसलिए हमने
बहुत से
इंतजाम ऐसे
किए हैं जो असल
में मां के
पेट जैसे ही
हैं—हमारी गद्दियां,
हमारे सोफे,
हमारी
कारें, हमारे
कमरे, वे
हमने सब मां
के गर्भ की
शक्ल में ढाले
हैं। उतने ही
आरामदायक
बनाने की
कोशिश करते
हैं, लेकिन
वह बन नहीं
पाता।
मां
के पेट से जो
पहला अनुभव
होता है वह
नये की घबड़ाहट
का। उससे भी
बड़ा नया अनुभव
है यह, क्योंकि
मां के पेट से
सिर्फ शरीर के
लिए नया अनुभव
होता है, यहां
तो आत्मा के
तल पर नया
अनुभव होगा।
इसलिए वह
बिलकुल ही नया
जन्म है।
इसलिए उस तरह
के लोगों को
हम ब्राह्मण
कहते थे।
ब्राह्मण उसे
कहते थे जिसका
दूसरा जन्म हो
गया—ट्वाइस
बॉर्न। इसलिए
उसे द्विज
कहते थे—दुबारा
जिसका जन्म हो
गया।
तो
जब वह शक्ति
पूरी तरह
उठेगी तो एक
दूसरा ही जन्म
होगा। उस जन्म
में आप दोनों
हैं—मां भी
हैं और बेटे
भी हैं; आप
अकेले ही
दोनों हैं।
इसलिए प्रसव
की पीडा भी
होगी और नये
की, असुरक्षित
की अनुभूति भी
होगी। इसलिए
बहुत
घबडानेवाला, डरानेवाला
अनुभव हो सकता
है। मां को
जैसे प्रसव की
पीड़ा होती है,
उतनी पीड़ा
भी आपको होगी,
क्योंकि
यहां मां और
बेटे दोनों ही
आप हैं। यहां
कोई दूसरी मां
नहीं है, और
यहां कोई
दूसरा बेटा
नहीं है, आपका
ही जन्म हो
रहा है और
आपसे ही हो
रहा है। इसलिए
प्रसव की बहुत
तीव्र वेदना
भी हो सकती है।
अब
मुझे कितने ही
लोगों ने आकर
कहा कि कोई
दहाड़ मारकर
रोता है, चिल्लाता
है, आप
रोकते क्यों
नहीं?
रोएगा, चिल्लाएगा।
उसे रोने दें,
चिल्लाने
दें। उसके
भीतर जो हो
रहा है, वह
वही जानता है।
अब एक मां रो
रही हो और
उसको बच्चा
पैदा हो रहा हो,
और जिस
स्त्री को कभी
बच्चा पैदा न
हुआ हो, वह
जाकर उसको कहे,
क्यों
फिजूल परेशान
होती हो? क्यों
रोती हो? क्यों
चिल्लाती हो?
बच्चा हो
रहा है तो
होने दो, रोने
की क्या जरूरत
है?
ठीक
है,
जिसको
बच्चा नहीं
हुआ वह कह
सकती है, बिलकुल
कह सकती है।
पुरुषों को
कभी पता नहीं
चल सकता न कि
कैसे, जन्म
में क्या
तकलीफ स्त्री
को झेलनी पड़ती
होगी! सोच भी
नहीं सकते, कोई उपाय भी
नहीं है कि
कैसे उसको
पकड़े, कैसे
उसको सोचें कि
क्या होता
होगा।
साधना
के अनुभवों की
गोपनीयता
लेकिन
ध्यान में तो
स्त्री और
पुरुष सब बराबर
हैं—स्ब मां
बन जाते हैं
एक अर्थ में, क्योंकि
नया उनके भीतर
जन्म होगा। तो
पीड़ा को भी
रोकने की
जरूरत नहीं है,
रोने को
रोकने की
जरूरत नहीं है;
कोई गिर पडे
और लोटने लगे
और चिल्लाने
लगे, तो
रोकने की
जरूरत नहीं है।
जो जिसको हो
रहा हो उसे
पूरा होने
देना है; बह
जाना है, उसे
रोकना नहीं है।
और
भीतर बहुत तरह
के अनुभव हो
सकते हैं—किसी
को लग सकता है
कि जमीन से
ऊपर उठ गए हैं, किसी
को लग सकता है
कि बहुत बड़े
हो गए हैं, किसी
को लग सकता है
कि बहुत छोटे
हो गए हैं।
नये अनुभव
बहुत तरह के
हो सकते हैं, मैं उन सबके
नाम नहीं गिनाऊंगा।
पर बहुत कुछ
हो सकता है।
कुछ भी नया हो—
और हर एक को
अलग हो सकता
है—तो उसमें
कोई चिंता
नहीं लेगा, भयभीत नहीं
होगा। और अगर
किसी को कहना
भी हो तो मुझे
आकर दोपहर में
कह देगा। आपस
में उसकी बात
मत करिएगा। न
करने का कारण
है। कारण यही
है कि जो आपको
हो रहा है, जरूरी
नहीं है कि
दूसरे को भी
हो। और जब
दूसरे को नहीं
हो रहा होगा
तो या तो वह हंसेगा,
वह कहेगा—क्या
पागलपन की बात
है! मुझे तो
ऐसा नहीं हो
रहा है। और हर
आदमी के लिए
खुद ही आदमी
मापदंड होता
है। ठीक यानी
वह, और गलत
यानी दूसरा।
तो वह या तो आप
पर हंसेगा। नहीं
हंसेगा तो
बहुत
अविश्वासपूर्ण
ढंग से कहेगा
कि भई हमें तो
नहीं हो रहा
है।
यह
अनुभूति इतनी
निजी और
वैयक्तिक है
कि इसे दूसरे
से बात न करें
तो अच्छा है।
पति भी पत्नी
से न कहे, क्योंकि
इस मामले में
कोई निकट नहीं
है। और इस
मामले में कोई
एक—दूसरे को
इतनी आसानी से
नहीं समझ सकता।
इस संबंध में
समझ बहुत
मुश्किल है।
इसलिए कोई भी
आपको पागल कह
देगा। लोग
जीसस को भी
पागल कहेंगे
और महावीर को
भी पागल
कहेंगे। जिस
दिन महावीर
नग्न खड़े हो
गए होंगे
रास्तों पर, लोगों ने
पागल कहा होगा।
अब महावीर
जानते हैं कि
नग्न होने का
उनके लिए क्या
मतलब है। वे
पागल हो
जाएंगे। तो आप
किसी और से न
कहें तो अच्छा।
फिर
जैसे ही आप
किसी से कुछ
कहते हैं तो
इतनी समझदारी
तो नहीं है कि
दूसरा चुप रह
जाए,
कुछ न कुछ
तो कहेगा ही।
और वह जो कुछ
भी कहेगा, वह
आपकी अनुभूति
में बाधक हो
सकता है। उसके
सजेशंस काम कर
सकते हैं। वह
आपको कुछ भी
कह दे तो नई
अनुभूति में
बड़ी बाधा पड़
जाती है।
इसलिए
मैं यह चौथी
बात कहना
चाहता हूं कि
जो भी आपको हो, उसकी
आपस में बात
कतई नहीं करनी
है। इसीलिए
मैं यहां हूं
कि आप मुझसे
सीधे आकर बात
कर लेंगे।
ध्यान
में प्रवेश के
पूर्व
सुबह
जब हम ध्यान
के लिए यहां
आएंगे, तो
कुछ भी लिकिड,
कुछ भी तरल
लेकर आना है, ठोस कोई चीज
भोजन में सुबह
न ले लें। कोई
नाश्ता न करें,
चाय—दूध कुछ
भी तरल ले लें।
जो बिना चाय—दूध
के आ सकते हों,
और अच्छा।
क्योंकि उतनी
ही सरलता से, शीघ्रता से
काम हो सकेगा।
साढ़े
सात बजे आने
का मतलब है कि
पांच मिनट पहले
यहां आ जाएं।
तो साढ़े सात
से साढ़े आठ तक
तो आपकी कुछ
भी बात होगी
करने की तो कर
लेंगे। इसलिए
मैंने यह बात
करने का रखा
है,
क्योंकि
प्रवचन बहुत
इम्पर्सनल है,
अवैयक्तिक
है। उसमें
किसी से नहीं
बोलना पड़ता, हवाओं से
बोलना पड़ता है।
तो आप पास
बैठेंगे मेरे,
सुबह; दूर
नहीं बैठेंगे,
पास ही
बैठेंगे। और
कुछ भी, आज
जो मैंने कहा
है, उस
संबंध में, कुछ और
पूछना हो तो
पूछ लेंगे। वह
घंटे भर सुबह
हम बात करेंगे।
फिर साढ़े आठ
से साढे नौ
ध्यान पर
बैठेंगे।
तो
सुबह एक तो
कोई ठोस चीज
लेकर न आएं।
दूसरा, भूखे
आ सकें बिलकुल
तो और अच्छा।
लेकिन
जबरदस्ती
भूखे भी न आएं।
किसी को न आना
अच्छा लगता हो
तो कुछ लेकर
आए। लेकिन चाय
या दूध, ऐसा
कुछ लेकर आए।
वस्त्र
ढीले से ढीले
पहनकर आएं।
स्नान करके तो
आना ही है।
बिना स्नान
किए कोई न आए।
स्नान तो करके
आएं ही। और
वस्त्र ढीले
से ढीले पहनकर
आएं,
जितने ढीले
वस्त्र हों, शरीर पर
कहीं बंधे न
हों। तो जो भी
बांधनेवाले
वस्त्र हों, कम पहनें।
जितना ढीला
वस्त्र पहन
सकें उतना
अच्छा। कमर पर
तो कम से कम
बांधने का
दबाव हो। वह
आप ध्यान रखकर
आएं। और जब
यहां बैठें तो
ढीला करके
बैठें।
शरीर
के भीतर हमारे
वस्त्रों ने
भी बहुत उपद्रव
किया हुआ है, बहुत
तरह की बाधाएं
उन्होंने खड़ी
की हुई हैं।
और अगर कोई
ऊर्जा उठनी
शुरू हो तो
अनेक तलों पर
रुकावट पड़नी
शुरू हो जाती
है।
मौन का
महत्व
यहां
आने के आधा
घंटे पहले से
ही चुप हो
जाएं। कुछ
मित्र जो
तीनों दिन मौन
रख सकें, बहुत
अच्छा है, वे
बिलकुल ही चुप
हो जाएं। और
कोई भी चुप
होता हो, मौन
रखता हो, तो
दूसरे लोग उसे
बाधा न दें, सहयोगी बनें।
जितने लोग मौन
रहें, उतना
अच्छा। कोई
तीन दिन पूरा
मौन रखे, सबसे
बेहतर। उससे
बेहतर कुछ भी
नहीं होगा।
अगर इतना न कर
सकते हों तो
कम से कम
बोलें—इतना कम,
जितना
जरूरी हो—
टेलीग्रैफिक।
जैसे तारघर
में
टेलीग्राम
करने जाते हैं
तो देख लेते
हैं कि अब दस
अक्षर से
ज्यादा नहीं।
अब तो आठ से भी
ज्यादा नहीं।
तो एक दो
अक्षर और काट
देते हैं, आठ
पर बिठा देते
हैं। तो
टेलीग्रैफिक!
खयाल रखें कि
एक—एक शब्द की
कीमत चुकानी
पड़ रही है।
इसलिए एक—एक
शब्द बहुत
महंगा है; सच
में महंगा है।
इसलिए कम से
कम शब्द का
उपयोग करें; जो बिलकुल
मौन न रह सकें
वे कम से कम
शब्द का उपयोग
करें।
और
इंद्रियों का
भी कम से कम
उपयोग करें। जैसे
आंख का कम
उपयोग करें, नीचे
देखें। सागर
को देखें, आकाश
को देखें, लोगों
को कम देखें।
क्योंकि
हमारे मन में
सारे संबंध, एसोसिएशस
लोगों के
चेहरों से
होते हैं—वृक्षों,
बादलों, समुद्रों
से नहीं। वहां
देखें, वहां
से कोई विचार
नहीं उठता।
लोगों के
चेहरे तत्काल विचार
उठाना शुरू कर
देते हैं।
नीचे देखें, चार फीट पर
नजर रखें—
चलते, घूमते,
फिरते। आधी आंख
खुली रहे, नाक
का अगला
हिस्सा दिखाई
पड़े, इतना
देखें। और
दूसरों को भी
सहयोग दें कि
लोग कम देखें,
कम सुनें।
रेडियो, ट्रांजिस्टर
सब बंद करके
रख दें, उनका
कोई उपयोग न करें।
अखबार बिलकुल
कैंपस में मत
आने दें।
जितना
ज्यादा से
ज्यादा
इंद्रियों को
विश्राम दें, उतना
शुभ है, उतनी
शक्ति इकट्ठी
होगी; और
उतनी शक्ति
ध्यान में
लगाई जा सकेगी।
अन्यथा हम
एग्झास्ट हो
जाते हैं। हम
करीब—करीब
एग्झास्ट हुए
लोग हैं, जो
चुक गए हैं
बिलकुल, चली
हुई कारतूस
जैसे हो गए
हैं। कुछ बचता
नहीं, चौबीस
घंटे में सब
खर्च कर डालते
हैं। रात भर
में सोकर थोड़ा—बहुत
बचता है, तो
सुबह उठकर ही
अखबार पढना, रेडियो, और
शुरू हो गया
उसे खर्च करना।
कंजरवेशन ऑफ
एनर्जी का
हमें कोई खयाल
ही नहीं है कि
कितनी शक्ति
बचाई जा सकती
है। और ध्यान
में बड़ी शक्ति
लगानी पड़ेगी।
अगर आप
बचाएंगे नहीं
तो आप थक
जाएंगे।
शक्ति
का संचय ध्यान
में सहयोगी
कुछ
लोग मुझे कहते
हैं कि घंटे
भर ध्यान करने
के बाद हम थक
जाते हैं।
उसके थकने का
कारण ध्यान
नहीं है, उसके
थकने का कारण
यह है कि आप
एग्झास्ट प्याइंट
पर जीते हैं, सब खर्च किए
रहते हैं।
हमें खयाल में
नहीं है कि जब
आप आंख उठाकर
भी देखते हैं,
तब भी शक्ति
खर्च होती है,
जब आप कान
उठाकर सुनते
हैं, तब भी
शक्ति खर्च
होती है; जब
आप भीतर विचार
करते हैं, तब
भी शक्ति खर्च
होती है, जब
बोलते हैं, तब भी शक्ति खर्च
होती है। हम
जो भी कर रहे
हैं उसमें
शक्ति खर्च हो
रही है। रात
में इसीलिए
थोड़ी सी बच
जाती है कि
बाकी काम बंद
हो गए, इसलिए
थोड़ी बच जाती
है। सपने
वगैरह में
जितना खर्च
करते हैं वह
दूसरी बात, वैसे थोड़ी—बहुत
बच जाती है।
इसीलिए सुबह
ताजा लगता है।
तो
शक्ति को तीन
दिन बचाएं, ताकि
पूरी शक्ति
लगाई जा सके।
दोपहर के—ये
सारी सूचनाएं
इसलिए दे दे
रहा हूं ताकि
फिर तीन दिन
मुझे आपको कोई
सूचना न देनी
पड़े—दोपहर जो
घंटे भर का
मौन है, उसमें
कोई बात नहीं
होगी। बातचीत
से आपसे बात
करता हूं उस
घंटे भर मौन से
ही बात करूंगा—तीन
से चार। तो
तीन बजे सारे
लोग यहां
उपस्थित हो
जाएं। तीन के
बाद कोई न आए।
क्योंकि उसका
आना फिर
नुकसान
पहुंचाता है।
यहां मैं बैठा
रहूंगा। तीन
से चार आप
क्या करेंगे?
दो
काम तीन से
चार आप खयाल
में रख लें।
एक तो सारे
लोग ऐसी जगह
बैठें जहां से
मैं दिखाई
पड़ता रहूं।
देखना नहीं है
मुझे, लेकिन
दिखाई पड़ता
रहूं ऐसी जगह
बैठ जाएं। फिर
आंख बंद कर
लेनी है।
खोलना चाहें,
खोल रख सकते
हैं; बंद
करना चाहें, बंद रख सकते
हैं। बंद रखें,
अच्छा।
मौन
संवाद का
रहस्य
और
एक घंटे
चुपचाप किसी
अनजान
प्रतीक्षा
में बैठना है—वेटिंग
फॉर दि अननोन।
कुछ पता नहीं
कि कोई
आनेवाला है, लेकिन
कोई आनेवाला
है; कुछ
पता नहीं कि
कुछ सुनाई
पड़ेगा, लेकिन
कुछ सुनाई
पड़ेगा; कुछ
पता नहीं कि
कोई दिखाई
पड़ेगा, लेकिन
कोई दिखाई
पड़ेगा। ऐसा
चुपचाप जस्ट
अवेटिंग! कोई
अनजान, अपरिचित
अतिथि को, जिससे
कभी मिले नहीं,
देखा नहीं,
सुना नहीं,
उसकी
प्रतीक्षा
में घंटे भर
बैठे रहें।
लेटना हो, लेट
जाएं; बैठना
हो, बैठे
रहें। उस एक
घंटे में
सिर्फ
रिसेप्टिविटी
हो जाएं, आप
एक ग्रहण
करनेवाले, पैसिव
व्यक्ति हैं,
जो कुछ होगा,
आ जाए! बस
लेकिन अलर्ट
होकर
प्रतीक्षा
करते रहें। उस
घंटे भर में
जो मौन से
मुझे आपसे
कहना है वह
मैं कहने की
कोशिश करूं।
शब्दों से समझ
में न आ सके तो
शायद निःशब्द
में समझ आ जाए।
रात्रि
को फिर घंटे
भर कुछ पूछना
होगा वह बात हो
जाएगी। फिर
घंटे भर
रात्रि हम
ध्यान करेंगे।
ऐसा तीन दिन
में नौ बैठक।
और कल सुबह से
ही आपको पूरी
ताकत लगा देनी
है,
ताकि नौवीं
बैठक तक सच
में पूरी ताकत
लग जाए।
बाकी
समय में आप
क्या करेंगे?
मौन
रहना है, बात
नहीं करनी, तो बड़ा
उपद्रव तो कट
जाता है।
समुद्र का तट
है, उसके
पास जाकर लेट
जाएं, लहरों
को सुनें। और
रात भी अच्छा
होगा कि जो
लोग भी सो
सकें, चुपचाप
अपने बिस्तर
को लेकर
समुद्र—तट चले
जाएं; वहां
सो जाएं। सागर
के पास सोए; रेत में सो
जाएं; वृक्षों
में सो जाएं।
अकेले रहें, मित्र और
मंडलियां न
बनाएं। नहीं
तो यहां भी
मंडलियां बन
जाएंगी, दों—चार
लोग इकट्ठे
घूमने लगेंगे,
दो—चार
मित्र बन
जाएंगे। अलग
रहें, अकेले
रहें, आप
अकेले हैं तीन
दिन यहां, क्योंकि
परमात्मा से
मिलना हो तो
कोई साथ नहीं
जा सकता, बिलकुल
अकेले ही, लोनली।
आपको अकेले ही
जाना पड़े। तो
अकेले रहें—ज्यादा
से ज्यादा
अकेले।
स्वीकार
से शांति
और
ध्यान रखें, अंतिम
सूचना. किसी
तरह की शिकायत
न करें। तीन
दिन शिकायत छोड़
दें। खाना ठीक
न मिले, न
मिले; रात
मच्छर काट
जाएं, काट
जाएं। तीन दिन
जो भी हो, उसकी
टोटल
एक्सेप्टबिलिटी।
मच्छरों को तो
थोड़ा—बहुत
फायदा होगा, आपको बहुत
हो सकता है।
भोजन थोड़ा
अच्छा नहीं
मिलेगा तो
थोड़ा—बहुत
नुकसान शरीर
को होगा, लेकिन
आपको उसकी
शिकायत से बहुत
नुकसान हो
सकता है। उसके
कारण हैं।
क्योंकि
शिकायत
करनेवाला मन
शांत नहीं हो
पाता।
शिकायतें
बहुत छोटी
होती हैं, जो
हम गवां देते
हैं वह बहुत
ज्यादा होता
है। शिकायत ही
मत करें, तीन
दिन के लिए मन
में साफ कर
लें कि कोई
शिकायत नहीं—जो
है, वह है; जैसा है, वैसा
है। उसे
बिलकुल
स्वीकार कर
लें।
ये
तीन दिन अदभुत
हो जाएंगे।
अगर तीन दिन
शिकायत के
बाहर रहे आप
और सब स्वीकार
कर लिया जैसा
है,
और उसमें ही
आनंदित हुए, तो आप तीन
दिन के बाद
कभी शिकायत न
कर सकेंगे।
क्योंकि आपको
पता चलेगा कि
बिना शिकायत
के कैसी शांति,
कैसा आनंद!
तीन
दिन सब छोड़
दें! और फिर जो
भी पूछना हो, वह
आप कल सुबह से
पूछेंगे।
ध्यान रखेंगे
पूछते समय कि
सबके काम की
बात हो, ऐसी
कोई बात
पूछेंगे। और
जो भी हृदय
में हो, मन
में हो और
जरूरी लगे, वह पूछ ले
सकते हैं।
खाली
झोली पसार
मैं
किसलिए आया
हूं वह मैंने
आपसे कहा।
मुझे पता नहीं, आप
किसलिए आए हैं।
लेकिन कल सुबह
मैं इसी आशा
से आपको
मिलूंगा कि
जिस लिए मैं
आया हूं उस
लिए आप भी आए
हैं। वैसे
हमारी आदतें
बिगड़ गई हैं, अगर बुद्ध
भी हमारे
द्वार पर खड़े
हों तो हमारा
मन होता है कि
आगे जाओ! हम
सोचते हैं, सभी मांगने
आते हैं। इसलिए
हम भूल जाते
हैं, जब
कोई देने आता
है तो हम उससे
भी कहते हैं, आगे जाओ! और
तब बडी भूल हो
जाती है, बड़ी
भूल हो जाती
है। ऐसी भूल
नहीं होगी, ऐसी आशा
करता हूं।
तीन
दिन में यहां
की पूरी हवा
को ऐसा करें
कि कुछ हो सके।
हो सकता है।
और प्रत्येक
व्यक्ति पर
निर्भर है
यहां की हवा, यहां
के वातावरण को
बनाना। तीन
दिन में यह
पूरा का पूरा
सरू—वन
चार्ब्द हो
सकता है—बहुत
अनजानी
शक्तियों से,
अनजानी
ऊर्जाओं से।
ये सारे वृक्ष,
ये सारे रेत
के कण, ये
हवाएं, यह
सागर—यह सब का
सब एक नई
प्राण—ऊर्जा
से भर सकता है;
हम सब उसे
पैदा करने में
सहयोगी हो
सकते हैं। कोई
उसमें बाधा न
बने, यह
ध्यान रखे।
कोई दर्शक न
रहे यहां। कोई
दर्शक की तरह
बैठा न रहे।
और किसी तरह
का संकोच, भय,
कोई क्या
कहेगा, कोई
क्या सोचेगा,
सब छोड़ दें!
तो ही उस तक
पहुंचना हो
सकता है।
कबीर
की तरह आपको न
कहना पड़े। आप
कह सकें कि
नहीं, हम डरे
नहीं और कूद
गए।
मेरी
बातें इतनी
शांति और
प्रेम से सुनीं, उससे
अनुगृहीत हूं।
और आप सबके
भीतर बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें।
हमारी
रात की बैठक
पूरी हुई।
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