अध्याय—16
सूत्र—
इदमद्य
मया लब्धमिमं
प्राप्स्ये
मनोरथम् ।
इदमस्तीदमपि
मे भविष्यति
पुनर्धनम्।।
13।।
असौ मया हत:
शत्रुर्हनिष्ये
चापरानपि।
ईश्वरोऽहम्हं
भोगी सिद्धोsहं बलवान्तुखी।।
14।।
आढ्योऽभिजनवानस्मि
कीऽन्योऽस्ति
सदृशो मया।
यक्ष्ये
दास्यामि
मौदिष्य इत्याज्ञानविमीहिता:।।
15।।
अनेकचित्तविभ्रान्ता
मोहजालसमावृता:।
प्रसक्ता: कामभोगेषु
पतन्ति नरकेsशुचौ।। 16।।
और
उन आसुरी पुरूषों
के विचार इस प्रकार
के होते है, कि मैने
आज यह तो पाया
है और हस मनोरथ
को प्राप्त
होऊंगा तथा
मेरे पास यह
हतना धन है और
फिर भी यह
भविष्य में और
अधिक होवेगा।
तथा
वह शत्रु मेरे
द्वारा मारा
गया और दूसरे
शत्रुओं को भी
मैं मारूंगा।
मैं ईश्वर
अर्थात ऐश्वर्यवान
हूं और ऐश्वर्य
को भोगने वाला
हूं और मैं सब
सिद्धियों से
युक्त एवं
बलवान और सुखी
हूं।
मैं
का धनवान और
के कुटुंब
वाला हूं; मेरे
समान दूसरा
कौन है! मैं यज्ञ
करूंगा,
दान देऊंगा, हर्ष को
प्राप्त होऊंगा—इस
प्रकार के अज्ञान
से आसुरी
मनुष्य मोहित
हैं। वे अनेक प्रकार
से भ्रमित हुए
चित्त वाले
अज्ञानीजन
मोहरूप जाल
में फंसे हुए एवं
विषय—भोगों
में अत्यंत
आसक्त हुए
महान अपवित्र
नरक में गिरते
हैं।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : गीता
के इस अध्याय
में देवों और असुरों
के गुण बताए
गए। हम असुरों
से तो धरती
पटी पड़ी है, किंतु
देव तो करोड़ों
में कोई एक
होता है। ऐसा
क्यों है?
जीवन में एक
अनिवार्य
संतुलन है।
जितनी यहां
बुराई है, उतनी ही
यहां भलाई है।
जितना यहां
अंधेरा है, उतना ही
यहां प्रकाश
है। जितना यहां
जीवन है, उतनी
ही यहां
मृत्यु है।
दोनों में से
कोई भी कम—ज्यादा
नहीं हो सकते।
दोनों की
बराबर मात्रा
चाहिए, तो
ही जीवन चल पाता
है। वे गाड़ी
के दो चाक हैं
संसार
चल रहा है, चलता रहा
है, चलता
रहेगा। उसके
दोनों चाक
बराबर हैं, इसीलिए।
लेकिन फिर भी
प्रश्न
सार्थक है।
क्योंकि
साधारणत:
देखने पर हमें
यही दिखाई पड़ता
है कि असुरों
से तो पृथ्वी
भरी है; देव
कहां हैं?
समझने
की कोशिश करें।
हमें
वही दिखाई
पड़ता है, जो हम हैं।
पृथ्वी
असुरों से भरी
दिखाई पड़ती है,
वह हमारी
अपनी आसुरी
वृत्ति का
दर्शन है। देव
को तो हम
पहचान भी नहीं
सकते। वह
दिखाई भी पड़े,
मौजूद भी हो,
तो भी हम
उसे पहचान
नहीं सकते।
क्योंकि जब तक
दिव्यता की
थोड़ी झलक
हमारे भीतर न
जगी हो, तब
तक दूसरे के
भीतर जागे हुए
देव से हमारा
कोई संबंध
निर्मित नहीं
होता।
जो
हमें दिखाई
पड़ता है, वह हमारी ही आंखों
का फैलाव है, वह हमारी
दृष्टि का ही
फैलाव है।
हमें वह नहीं
दिखाई पड़ता जो
है, बल्कि
वही दिखाई
पड़ता है जो हम
हैं।
दैवी
संपदा से भरे
व्यक्ति को इस
जगत में असुर
कम और देवता
ज्यादा दिखाई
पड़ने लगते हैं।
संत को बुरा
आदमी दिखाई
पड़ना बंद हो
जाता है। हमें
जो बुरा दिखाई
पड़ता है, संत को वही
.उसकी
व्याख्या बदल
जाती है। और
व्याख्या के
अनुसार जो
हमें दिखाई
पड़ता है, उसका
रूप बदल जाता
है।
लेकिन
संत को दिखाई
पड़ने लगता है, सभी भले
हैं। असंत को
दिखाई पड़ता है,
सभी बुरे
हैं। दोनों ही
बातें अधूरी
हैं। और जब आप
परिपूर्ण
साक्षी— भाव
को उपलब्ध
होते हैं, जहां
न तो आप अपने
को जोड़ते हैं
साधुता से, न जोड़ते हैं
असाधुता से, जहां बुरे
और भले दोनों
से आप पृथक हो
जाते हैं, उस
दिन आपको
दिखाई पड़ता है
कि जगत में
दोनों बराबर
हैं। और बराबर
हुए बिना जगत
चल नहीं सकता,
क्षणभर भी
नहीं जी सकता।
तो यदि
हमें दिखाई
पड़ती है
पृथ्वी
असुरों से भरी, तो इसका
केवल एक ही
अर्थ लेना कि
हम आसुरी संपदा
में जी रहे
हैं। इसका
दूसरा कोई और
अर्थ नहीं है।
पृथ्वी से
इसका कोई
संबंध नहीं है।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
एक रात भांग
पी ली। भाग के
नशे में जमीन
घूमती हुई
दिखाई पड़ने लगी।
तो सुबह उठकर
जब वह होश में
आ गया, उसने
कहा, मैं
समझ गया। जिस
आदमी ने यह
सिद्ध किया कि
पृथ्वी घूमती
है, वह
भंगेड़ी रहा
होगा!
हमारा
अनुभव ही हम
फैलाते हैं, दूसरा
कोई उपाय भी
नहीं है। जो
हमारे भीतर है,
उसके
माध्यम से ही
हम दूसरे को
देखते हैं। तो
दूसरे की
वास्तविक
स्थिति हमें
दिखाई नहीं पड़ती,
हमारा ही मन
उस पर छा जाता
है, हमारी
छाया ही उसे
आच्छादित कर
लेती है। फिर
जो हम देखते
हैं, वह
अपने ही मन का
फैलाव है।
दूसरा
व्यक्ति जैसे
परदा बन जाता
है। हमारा ही
चित्त उस परदे
पर हमें दिखाई
पड़ता है।
दूसरे में हम
स्वयं को ही
देखते हैं।
दूसरा जैसे
दर्पण है।
तो अगर
लगता हो कि
सारी पृथ्वी
असुरों से भरी
है, तो
जानना कि आपका
चित्त आसुरी
संपदा से भरा
है। इसके
अतिरिक्त यह
बात किसी और
चीज का लक्षण
नहीं है। इससे
पृथ्वी के
संबंध में कोई
खबर नहीं
मिलती, सिर्फ
आपके संबंध
में खबर मिलती
है; आपकी आंखों
के संबंध में
खबर मिलती है,
आंखों के
पीछे छिपे मन
के संबंध में
खबर मिलती है।
और अगर
आपको कभी—कभी
कोई एकाध देव
भी दिखाई पड़
जाता है, तो उसका
केवल इतना ही
अर्थ है कि
आपके भीतर की दैवी
संपदा भी थोड़ी—बहुत
सक्रिय है। वह
बिलकुल मर
नहीं गई है, जीवंत है।
उसकी भी कोई
एक किरण इस
अंधेरे में
मौजूद है, इसलिए
कभी—कभी आप
झलक दूसरे में
उसकी भी देख
लेते हैं।
जैसे—जैसे आप
दैवी संपदा
में लीन होंगे,
वैसे—वैसे
जगत आपको
दिव्य मालूम
पड़ने लगेगा।
लेकिन
ध्यान रहे, योग की जो
परम दशा है, वह दोनों ही
भावनाओं से
मुक्त हो जाना
है। जिस दिन
जगत आपको उसकी
वस्तुस्थिति
में दिखाई पड़े,
जिस दिन
आपके भीतर से
कोई भाव जगत
पर न फैले, उस
दिन आपको
अनूठा अनुभव
होगा कि जगत
में सभी चीजें
संतुलित हैं।
यहां बुरा और
भला बराबर है।
यहां पापी और
पुण्यात्मा
बराबर हैं। यहां
ज्ञानी और
अज्ञानी
बराबर हैं।
उनकी मात्रा
सदा ही बराबर
है। उस मात्रा
में जरा भी
विचलन हुआ कि
जगत नष्ट हो
जाता है। वह
संतुलन बना
रहता है।
जिस
दिन आपको ऐसा
दिखाई पड़
जाएगा, यह संतुलन
की अवस्था
अनुभव में आ
जाएगी, उस
दिन न तो आप
जगत को बुरा
कहेंगे, न
भला कहेंगे।
उस दिन बुरे
आदमी को भी
बुरा नहीं
कहेंगे, भले
आदमी को भी
भला नहीं
कहेंगे। उस
दिन आप कहेंगे,
बुरा और भला
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। उस दिन
आप बुरे को
मिटाना नहीं
चाहेंगे, भले
को बचाना नहीं
चाहेंगे।
क्योंकि उस
दिन आप
जानेंगे कि
बुरा मिटे, तो भला भी
मिटता है; भला
बचे, तो
बुरा भी बचता
है।
लाओत्से
ने कहा है, जब
दुनिया
धार्मिक थी, तो न कोई भला
आदमी था, न
कोई बुरा आदमी
था।
जब आप
भी परम
धार्मिक
होंगे, तो न कोई
बुरा रह जाएगा,
न कोई भला
रह जाएगा। तब
बुरा और भला
एक जागतिक
संयोग होगा।
जैसे
हाइड्रोजन और
आक्सीजन से
मिलकर पानी बनता
है, वैसे
बुरे और भले
से मिलकर
संसार बनता है।
और वह मात्रा
सदा बराबर है।
जगत एक
संतुलन है। पर
हमें संतुलन
दिखाई नहीं
पड़ता, क्योंकि
हम संतुलित नहीं
हैं। हम
साक्षी होंगे,
तो संतुलित
होंगे। तो
जीवन में तीन
दिशाएं हैं।
एक दिशा है कि
अपने भीतर जो
आसुरी संपदा
है, उसको
हम अपना
स्वभाव समझ
लें, तो
फिर सारा जगत
बुरा है।
दूसरी
संभावना है कि
हमारे भीतर जो
दैवी संपदा है,
हम उसके साथ
अपने को एक
समझ लें, तो
सारा संसार
भला है। और एक
तीसरी परम
संभावना है कि
हम इन दोनों
गुणों से, इस
द्वैत से अपने
को मुक्त कर
लें और साक्षी
हो जाएं, तो
फिर जगत बुरे
और भले का
संयोग है, रात
और दिन का जोड़
है, अंधेरे
और प्रकाश का
मेल है, ठंडे
और गरम का
संतुलन है। और
जिस दिन आप इस
तरह चुनावरहित,
विकल्परहित
भीतर दोनों
संपदाओं में
से किसी को भी
न चुनेंगे, उसी दिन
आपकी परम
मुक्ति है।
हमारे पास तीन
शब्द हैं। एक
शब्द नरक है।
नरक का अर्थ
है, जिसने
अपने को आसुरी
संपदा से एक
कर लिया।
दूसरा शब्द
स्वर्ग है।
स्वर्ग का
अर्थ है, जिसने
अपने को दैवी
संपदा से एक
कर लिया। और
तीसरा शब्द
मोक्ष है।
मोक्ष का अर्थ
है, जिसने
अपने को दोनों
संपदाओं से
मुक्त कर लिया।
देव भी
मुक्त नहीं है, वह भी
बंधा है। उसके
बंधन
प्रीतिकर हैं।
उसकी जंजीरें
सोने की हैं।
उसका कारागृह
बहुमूल्य है,
उसका
कारागृह बहुत
सजा है। उसका
जीवन आभूषणों
से लदा है।
लेकिन लदा है,
वह निर्भार
नहीं है। बुरा
आदमी लोहे की
जंजीरों से
बंधा है; अच्छा
आदमी सोने की
जंजीरों से
बंधा है।
लेकिन बंधन
में जरा भी
कमी नहीं है।
सिर्फ
भारत ने एक
अनूठे शब्द का
प्रयोग किया है, मोक्ष।
दुनिया के
किसी दूसरे
धर्म ने, दुनिया
की किसी जाति
ने मोक्ष की
कल्पना नहीं
की है। स्वर्ग
और नरक सारी
दुनिया को पता
हैं। इस्लाम
या ईसाइयत या
यहूदी, स्वर्ग
और नरक से
परिचित हैं।
मोक्ष की
धारणा एकांतिक
रूप से भारतीय
है।
मोक्ष
का अर्थ है, ऐसा
व्यक्ति, जो
नरक से तो
मुक्त हुआ ही,
स्वर्ग से
भी मुक्त है। जिसने
बुरे को तो
छोड़ा ही, भले
को भी छोड़ा।
इसे समझना
बहुत कठिन है,
क्योंकि
भला हमें लगता
है, छोड़ने का
सवाल ही नहीं
है। लेकिन तब
हमें जीवन की
गहरी
व्यवस्था का
कोई अनुभव
नहीं है। भले
के पीछे बुरा
तो छिपा ही
रहेगा।
अगर आप
कहते हैं कि
मैं सत्य ही
बोलता हूं सदा
सत्य ही बोलूंगा, और सदा
सत्य को पकड़े
रहूंगा! तो एक
बात पक्की है,
आपके भीतर
झूठ भी उठता
है। नहीं तो
आपको सत्य का
पता कैसे
चलेगा! सत्य
को आप बचाएंगे
कैसे! सत्य को
सम्हालेंगे
कैसे! झूठ
भीतर मौजूद है,
उसके विरोध
में ही सत्य
उठता है।
अगर आप
कहते हैं, मैं
ब्रह्मचर्य
का साधक हूं
मैं
ब्रह्मचर्य को
पकड़े रहूंगा,
मैं कभी
ब्रह्मचर्य
को छोडूंगा
नहीं! तो उसका अर्थ
है, कामवासना
आपके भीतर
लहरें लेती है।
जिसके भीतर
कामवासना
समाप्त हो गई,
उसको
ब्रह्मचर्य
का पता भी
नहीं चलेगा।
जिसकी
बीमारी बिलकुल
मिट गई, उसे
स्वास्थ्य का
भी पता नहीं
चलेगा। इसलिए
जब आप बीमार
पड़ते हैं और
स्वस्थ होते हैं,
तब आपको
स्वास्थ्य की
थोड़ी—सी झलक
मिलती है।
बीमारी में
गिरने के बाद
जब आप पहली
दफे स्वस्थ
होना शुरू
होते हैं, तब
आपको पता चलता
है, स्वास्थ्य
क्या है। अगर
आप सदा ही
स्वस्थ रहें,
आपको
स्वास्थ्य
भूल जाएगा; उसका आपको
कोई स्मरण ही
नहीं रहेगा।
दुख के
कारण सुख का
पता चलता है, बुरे के
कारण भले का
पता चलता है।
मोक्ष
का अर्थ है, अब मेरे
दोनों ही बंधन
न रहे; अब
मैं मुक्त हूं;
मेरा कोई
चुनाव नहीं। न
यह संपदा मेरी
है, न वह
संपदा मेरी है।
संपदाएं ही
मैंने छोड़ दी
हैं। यह परम
दशा है। यह
परमहंस की
अवस्था है।
अभी
जहां आप खड़े
हैं, अगर
जगत आपको बुरा
लगे, तो
समझना कि
आसुरी संपदा
आपकी आंखों पर
छाई है। अगर
जगत अच्छा लगे,
तो समझना कि
दैवी संपदा ने
आपको घेरा है।
जगत दोनों लगे
और दोनों में संतुलन
दिखाई पड़े, तो समझना कि
साक्षी के
स्वर का जन्म
हुआ है।
उस
तीसरे की खोज
जारी रखनी है।
जब तक वह न हो
जाए, तब
तक समझना कि
अभी हम धर्म
के मंदिर के
बाहर ही भटकते
हैं, अभी
हमारा भीतर
प्रवेश नहीं
हुआ है।
दूसरा प्रश्न:
आपने कहा
किं मनुष्य दैवी
और आसुरी संपदा
बराबर मात्रा
में लेकर पैदा
होता है। तब
ऐसा क्यों है
कि इस जगत में
आसुरी संपदा
ही अधिक फूलती—फलती
नजर आती है? दैवी
संपदा की फसल
इतनी दुर्लभ
क्यों है?
असुरी संपदा
फूलती—फलती
नजर आती है, क्योंकि
वही हमारी
कामना है। एक
चोर सफल होता
हमें दिखाई
पड़ता है। एक
चोर धन को
इकट्ठा कर
लेता है, प्रतिष्ठा
बना लेता है।
हमारे मन में
काटा चुभता है
इससे। चाहते
तो हम भी इसी
तरह का महल, इसी तरह का
धन, इसी
तरह की पद—प्रतिष्ठा
हैं। चोरी
करने की भी
हिम्मत नहीं
जुटा पाते हैं
और चोर ने जो
जुटा लिया है,
उसकी भी आका्ंक्षा
मन में है; उससे
मन को चोट
लगती है। उससे
मन कहता है कि
चोर फल—फूल
रहा है। हम
साधु हैं और
फल—फूल नहीं
रहे हैं।
अगर आप
साधु हैं, तो आपको
दिखाई पड़ेगा
कि चोर दुख पा
रहा है। अगर
आप असाधु हैं,
तो दिखाई
पड़ेगा कि चोर
सफल हो रहा है।
दुनिया
में दो तरह के
चोर हैं बड़ी
मात्रा में।
एक वे, जो
चोरी की
हिम्मत कर
लेते हैं; और
एक वे, जो
चोरी की
हिम्मत नहीं
करते, सिर्फ
विचार करते
हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, हम
अपना जीवन
संतोष से
बिताते हैं, बुरा काम
नहीं करते, किसी को चोट
नहीं
पहुंचाते, फिर
भी असफलता हाथ
लगती है। और
देखें, फलां
आदमी ब्लैक
मार्केटिंग
कर रहा है, कि
स्मगलिंग कर
रहा है, कि
चोर है, बेईमान
है, धोखाधड़ी
कर रहा है, और
सफल हो रहा है!
उसकी
सफलता आपको
सफलता दिखाई
पड़ती है, क्योंकि आप
भी वैसी ही
सफलता चाहते
हैं। अगर सच
में ही आपका
साधु—चित्त
होता, तो
आपको उस आदमी
की पीड़ा भी
दिखाई पड़ती।
भला उसने महल
खड़ा कर लिया
हो, लेकिन
महल के भीतर
वह जिस संताप
से गुजर रहा है,
वह आपको
दिखाई पड़ता।
उस
संताप से आपको
कोई प्रयोजन
नहीं है। उसकी
भीतरी पीड़ा से
आपको कोई
प्रयोजन नहीं
है। उसका बाहर
जो ठाठ है, वह आपको
दिखाई पड़ रहा
है, क्योंकि
बाहर का ठाठ
आप भी चाहते
हैं! जो उसने
पा लिया है, वह आप नहीं
पा सके, इससे
मन में काटा
चुभता है।
इसलिए वह सफल
लगता है और
स्वयं आप असफल
लगते हैं।
सिर्फ
बुरा आदमी ही
बुरे आदमी की
सफलता को सफलता
मान सकता है।
भले आदमी को
तो दया आएगी; भले आदमी
को बुरे आदमी
पर दया आएगी।
क्योंकि वह
उसके भीतर
देखेगा, झांकेगा,
और पाएगा कि
उसने धन तो
इकट्ठा कर
लिया, स्वयं
को खो दिया।
वह पाएगा कि
उसने संपदा तो
इकट्ठी कर ली,
लेकिन शांति
नष्ट हो गई।
वह पाएगा कि
उसके पास साधन
तो काफी
इकट्ठे हो गए,
लेकिन वह
खुद भटक गया
है। उसके जीवन
की सफलता साधु—चित्त
व्यक्ति को
आत्मघात जैसी
मालूम पड़ेगी।
उसने अपने को
सड़ा डाला, उसने
अपने को बेच
लिया।
लेकिन
हमें हो सकता
है दिखाई पड़े
कि आदमी सफल हो
रहा है, बुरा आदमी
सफल हो रहा है।
रोज चारों तरफ
लोगों को
दिखाई पड़ता है,
बुरे आदमी
सफल हो रहे
हैं।
बुरा
आदमी सफल हो
ही नहीं सकता।
और अगर सफल
होता दिखाई
पड़े, तो
समझना कि आपकी
सफलता की
व्याख्या में
कहीं कोई
भांति है।
बुरा आदमी तो
असफल होगा ही।
मैंने
सुना है, सिकंदर अपने
साम्राज्य को
बढ़ाता हुआ नील
नदी के किनारे
पहुंचा।
रास्ते में
उसने न मालूम
कितनी सीमाएं
तोड़ी, कितने
राज्य नष्ट
किए, कितनी
सेनाओं को
पराजित किया,
लेकिन नील
नदी के किनारे
पहुंचकर उसको
बड़े अचंभे का
अनुभव हुआ।
जगह—जगह उसे
प्रतिरोध
मिला, टक्कर
मिली। लोग
हारे, तो
भी आखिरी दम
तक लड़े। लेकिन
नील नदी के
किनारे जब वह
आया, तो
उसे स्वागत
मिला—वंदनवार,
फूलों की
वर्षा, निमंत्रण,
उत्सव—लड़ने
का कोई सवाल
ही नहीं! वह
चकित भी हुआ, हैरान भी
हुआ।
जिस
पहले नगर में
उसने प्रवेश
किया, नगर
के लोगों ने
पूरी सिकंदर
की फौजों को
निमंत्रण
दिया, रात्रि—
भोज का आयोजन
किया।
सुंदरतम भोजन,
शराब, नृत्य—संगीत
की व्यवस्था
की। सिकंदर
चकित भी था, हैरान भी था।
यह कौन—सा ढंग
है दुश्मन के
प्रवेश पर
स्वागत करने
का! थोड़ा
लज्जित भी था।
क्योंकि वे
तलवार लेकर
खड़े होते, तो
सिकंदर
उन्हें जीत
लेता। लेकिन
वे प्रेम लेकर
खड़े हुए, तो
जीतना
मुश्किल
मालूम पड़ेगा।
जब
उसके सामने
भोजन की थाली
लाई गई, तो वह एकदम
नाराज हो गया;
उसने जोर से
घूंसा मारा
टेबल पर और
कहा कि यह क्या
है? मेरा
मजाक किया जा
रहा है? क्योंकि
थाली में सोने
की रोटी थी, हीरे—जवाहरातों
की सब्जियां
थीं। सिकंदर
ने कहा कि तुम
मूढ़ तो नहीं
हो? शक तो
मुझे तभी हुआ।
जब मैं गांव
में प्रवेश किया
कि यह पागलों
का गांव है, क्योंकि तुम
लड़े नहीं, उलटे
तुमने स्वागत
किया। हम
जीतने आए हैं,
तुमने हमें
फूलमालाएं
पहनाई। शक तो
मुझे तभी हुआ;
लेकिन अब
बिलकुल पक्का
हो गया कि
तुम्हारे दिमाग
खराब हैं।
सोने की रोटी
खाई नहीं
जाती! तो एक के
आदमी ने, जो
गांव का
सर्वाधिक का
था, उसने
कहा, अगर
गेहूं की रोटी
ही खानी थी, तो वह तो
आपको अपने घर
ही मिल जाती।
हम सोचे कि
इतनी तकलीफ
उठाकर आ रहे
हैं, तो
सोने की रोटी
की तलाश होगी!
वह जो
चोर है, लुटेरा है, बदमाश है, आपको उसकी
सोने की रोटी
दिखाई पड़ती है।
लेकिन सोने की
रोटी कोई खा
तो पा नहीं
सकता, भीतर
भूखा मरता है।
और आपको सोने
की रोटी में
सफलता दिखाई
पड़ती है, क्योंकि
आका्ंक्षा
वही आपकी भी
है, आप वही
खुद भी चाहते
हैं।
जो हम
चाहते हैं, उससे ही
हमारी संपदा
का पता चलता
है। अगर चोर
आपको सफल होता
दिखाई पड़ता है,
तो आप चोर
हैं। भला आपने
कभी चोरी न की
हो। अगर आपको
चोर सफल होता
हुआ मालूम
होगा, तो
साधु आपको
असफल होता हुआ
मालूम होगा।
तो आप दया कर
सकते हैं साधु
पर। ईर्ष्या
आपकी चोर से
है। साधु को
आप कह सकते
हैं कि भोला—
भाला है, जाने
भी दो। समझ
इसकी कुछ है
नहीं। लेकिन
ईर्ष्या आपकी
चोर से है, प्रतियोगिता
चोर से है।
पहली
बात तो यह समझ
लें कि बुराई
कभी भी सफल
नहीं होती, सफल होती
दिखाई पड़ सकती
है। देखने में
भूल है, भांति
है। भलाई सदा
सफल होती है, असफल होती
दिखाई पड़ सकती
है। क्योंकि
बुराई की
सफलता बाहर—बाहर
है, भलाई
की सफलता आंतरिक
है।
इस जगत
में
जिन्होंने
थोड़ा भी आनंद
जाना है, उन्होंने
भलाई के कारण
जाना है।
जिन्होंने
महा दुख झेला
है, उन्होंने
बुराई के कारण
झेला है।
अगर हम
हिटलर और
चंगेज और
तैमूर के हृदय
उघाड़कर देख
सकें, तो
हमें महानरक
का दर्शन होगा।
लेकिन इतिहास
में नाम उनके
हैं; सदा
रहेंगे। आप भी
सोच सकते हैं
कि सफल हुए; बड़े
साम्राज्य
उन्होंने खड़े
किए हैं, तो
आप भी सोच
सकते हैं, सफल
हुए।
वस्तुत:
जो सफल हुए
हैं इस जमीन
पर, शायद
उनका नाम भी
इतिहास में
नहीं है, उनके
नाम का आपको
पता भी नहीं
है। कौन सफल
होता है जीवन
में? जिसे शांति
का अनुभव हो
जाए, जिसे
आनंद की प्रतीति
हो जाए, जिसे
समाधि की झलक
मिल जाए।
अगर
मुझसे पूछें
सफलता की
परिभाषा, तो समाधि
सफलता की
परिभाषा है।
जिन्हें
समाधि का थोड़ा
रस आ जाए, जो
नाच उठें
समाधि में, जिनका हृदय
पुलकित हो उठे
समाधि में, वे ही केवल
सफल हैं।
और
बुरा कभी
समाधिस्थ
नहीं हो सकता।
बुरा तो
संतप्त ही होगा, चिंतित
होगा। उसका मन
धीरे— धीरे और
नारकीय, और
नारकीय होता
चला जाएगा।
तो
पहली बात तो
यह, आसुरी
संपदा फूलती—फलती
दिखाई पड़ती है,
क्योंकि
उसी संपदा की
चाह हमारे
भीतर है।
आसुरी संपदा
कभी फली—फूली
नहीं है।
जिनके मन में
दैवी संपदा की
चाह है, वे
हमेशा
देखेंगे कि
आसुरी संपदा
सदा भटकी है, दुखी हुई है,
कभी फली—फूली
नहीं, सदा
नष्ट हुई है।
और
दूसरी बात, दैवी
संपदा की फसल
इतनी दुर्लभ
क्यों है? दुर्लभ
इसलिए है कि
जीवन के कुछ
नियम समझ लें,
तो खयाल में
आ जाए।
एक, कि बुरा
करने के लिए
आपको कुछ भी
करना नहीं
पड़ता, वह
ढाल है। पानी
को बहा दिया, पानी अपने
आप गड्डों में
चला जाता है।
गड्डों में
जाने के लिए
पानी को कुछ
करना नहीं
पड़ता। पहाड़ पर
चढ़ना हो, तो
बड़ी कठिनाई है।
फिर पानी को
चढ़ाने का
आयोजन करना
पड़ता है।
आयोजन में
श्रम होगा।
आयोजन में
असफलता भी हो
सकती है।
बुरा
ढलान है। बुरे
का मतलब यह है
कि जो हमसे
नीचे है। भले
का अर्थ है कि
जो हमसे ऊपर
है। बुरे का
अर्थ है, जहां से हम
गुजर चुके। हम
पशु थे, पौधे
थे। वहां से
हम गुजर चुके।
अगर आप वापस
लौटना चाहते
हैं, तो
बिलकुल आसान
है।
ऐसा
समझें कि एक
व्यक्ति
स्कूल में
परीक्षाएं
पार कर—करके
मैट्रिक में
पहुंच गया है।
अगर वह पहली
की परीक्षा
फिर से देना
चाहे, तो
क्या कठिनाई
होगी! कोई
कठिनाई न होगी।
अगर वह पहली
कक्षा में
प्रवेश पाना
चाहे, तो
कोई अड़चन नहीं
है, कोई
उसे रोकेगा भी
नहीं। और वह
बड़ा सफल भी
होगा पहली
कक्षा में!
जहां
से हम गुजर
चुके हैं, विकास की
जिन सीढ़ियों
को हम पार कर
चुके हैं, उनमें
वापस उतरना
हमेशा आसान है।
बूढ़े से के
आदमी को अगर
आप क्रोध में
ला दें, तो
वह बच्चे के
जैसा व्यवहार
करने लगता है।
वह बिलकुल
आसान है।
बच्चे का मतलब
है, वापस
लौट जाना।
होशियार से
होशियार आदमी
भी क्रोध में
आ जाए, तो
नासमझी का
व्यवहार करता
है, जो
बचकाना है।
बच्चों की तरह
पैर पटक सकता
है, सामान
तोड़ सकता है, चीख—पुकार
मचा सकता है।
यह रिग्रेशन
है, पीछे
लौटना है।
पीछे
लौटना हमेशा
आसान है।
क्योंकि पीछे
लौटने का मतलब
है, वहां
से हम गुजर
चुके हैं, वह
रास्ता
परिचित है, उसे पाने के
लिए कोई खोज
नहीं करनी है।
दैवी
संपदा का अर्थ
है कि हमें
आगे बढ़ना है, ऊंचाई
छूनी है।
जितनी ऊंचाई
छूनी है, उतना
श्रम होगा। और
जितनी ऊंचाई
छूने की हम
कोशिश करेंगे,
उतनी भूल—चूक
भी होगी, हम
गिरेंगे भी।
याद रखें, केवल
वही गिरता है,
जो ऊंचा
उठना चाहता है।
नीचे गिरने
वाले को तो
गिरने का कोई
कारण ही नहीं
है।
दैवी
संपदा हमसे
ऊपर है, उसके लिए
हाथ बढ़ाने पड़े,
यात्रा
करनी पड़े, हिमालय
के शिखर की
तरह हमें
गौरीशंकर की
तरफ बढ़ना पड़े।
उसमें अड़चन
होगी ही, असफलता
भी हो सकती है;
गिरेंगे भी,
कभी रास्ता
भी खो जाएगा।
नीचे उतरने के
लिए न गिरने
का कोई डर है, न रास्ता
खोने का कोई
डर है, रास्ता
परिचित है, जाना—माना
है, उससे
हम गुजर चुके
हैं। और फिर
नीचे उतरने
में कोई
प्रतिरोध न
होने से
सुगमता है।
ऊपर चढ़ने में
सारे शरीर पर
जोर पड़ेगा।
अमेरिका
का बहुत बड़ा
वैज्ञानिक
हुआ, थामस
अल्वा एडिसन।
उसने कोई एक
हजार
आविष्कार किए।
दूसरे किसी
मनुष्य ने
इतने
आविष्कार
नहीं किए।
छोटे से लेकर
बड़े तक, बिजली,
रेडियो, टेलीफोन,
अनेक
आविष्कार
उसने किए हैं।
उसका घर
आविष्कारों
से भरा था।
लोग उसके घर
आते थे, तो
चकित होते थे,
क्योंकि सब
चीजों में
उसने कुछ न
कुछ किया था।
उसके पूरे घर
में नए—नए
आविष्कार थे।
पानी की टोंटी
के नीचे हाथ
रखिए और पानी
गिरने लगे, खोलने की
जरूरत नहीं, हाथ अलग
करिए और पानी
बंद हो जाए!
एक दिन
अमेरिका का
प्रेसिडेंट
उसके घर उसके
आविष्कार
देखने गया था।
हर चीज देखकर
चकित हुआ।
उसने अनूठे—अनूठे
यंत्र खोजे थे।
चलते वक्त
अमेरिकी
प्रेसिडेंट
ने कहा, और सब तो ठीक
है, एक बात
मेरी समझ में
नहीं आई। तुम
जैसा
आविष्कारक
बुद्धि का
आदमी, जिसने
घर को
आविष्कारों
से भर रखा है, जिसकी हर
चीज अनूठी और
तिलिस्मी है,
लेकिन
तुम्हारे
मकान का जो
बगीचे का
दरवाजा है, वह इतना
भारी है कि
खोलने में बड़ी
ताकत लगती है।
तुम्हें इसका
खयाल नहीं आया?
उसने
कहा, आप
समझे नहीं।
खयाल मुझे है।
जो आदमी भी
मेरा दरवाजा
एक बार खोलता
है, पांच
गैलन पानी
मेरी टंकी में
पहुंच जाता है।
तो मैं नौकर
नहीं रखे हुए
हूं। जो देखने
आने वाले हैं—दिनभर
आते हैं—वे
खोलते, बंद
करते हैं। बस,
हर बार खोलो,
बंद करो, तो पांच
गैलन पानी
दरवाजा ऊपर
फेंक रहा है।
जब भी कुछ ऊपर
भेजना हो, तो
थोड़ा श्रम तो
होगा, थोड़ा
भारी भी लगेगा,
क्योंकि हम
नियम जीवन के
तोड़ रहे हैं।
जमीन
चीजों को नीचे
की तरफ खींचती
है, ग्रेविटेशन
है। पत्थर को
आप ऊपर की तरफ
फेंकते हैं, तो आपका हाथ
थकता है, चोट
लगती है।
जितनी जोर से
ऊंचा
फेंकेंगे, उतनी
ज्यादा शक्ति
खोएगी। लेकिन
पत्थर फिर
नीचे चला आता
है। जैसे ही
आपकी भेजी हुई
ऊर्जा पत्थर
में चुक जाती
है, जमीन
उसे नीचे खींच
लेती है। नीचे
खींचते वक्त
किसी ताकत की
जरूरत नहीं पड़ती,
जमीन
स्वभावत:
चीजों को नीचे
खींच रही है।
आसुरी
संपदा
ग्रेविटेशन
है, वह
जमीन की कशिश
है।
छोटा
बच्चा एकदम
खड़ा नहीं हो
सकता मां के
पेट से पैदा
होकर।
क्योंकि खड़े
होने का मतलब
है, ग्रेविटेशन
से लड़ना, वह
जो जमीन की
कशिश है।
इसलिए बच्चा
पहले जमीन पर
लेटकर सरकता
है। वह जमीन
खींच रही है, अभी बच्चा
खड़ा होगा, तो
फौरन गिरेगा।
तो सरकेगा, फिर घुटनों
के बल अपने को
सम्हालेगा।
वह जमीन की
कशिश से ऊपर
उठने की कोशिश
कर रहा है।
फिर किसी का
सहारा लेकर
खड़ा होगा। फिर
अपने भरोसे पर
दो कदम चलेगा;
लेकिन
गिरेगा, घुटने
टूटेंगे, चोट
लगेगी। फिर
धीरे—धीरे, धीरे— धीरे.।
और पैर उसके
समर्थ हैं, वह खड़ा हो
सकता है, शरीर
उसका पूरा का
पूरा तैयार है,
लेकिन
ग्रेविटेशन
से संघर्ष
करना होगा।
फिर एक दिन
आएगा कि वह
अपने को
संतुलित कर
लेगा, खड़ा
हो जाएगा।
फिर
आपको खड़ा होना
आसान मालूम
पड़ता है।
लेकिन अभी भी
जब भी आप थक
जाते हैं, तो लेटना
ही पड़ता है।
क्योंकि खड़े
होने में, चाहे
आपको कितना ही
आसान हो गया
हो, जमीन
आपको खींच रही
है और थका रही
है। इसलिए खड़े—खड़े
हम थक जाते
हैं। जब भी थक
जाते हैं, तब
हमें जमीन पर
लेटना पड़ता है।
रात
सोकर हमें जो
सुख मिलता है, वह जमीन
की कशिश से
लड़ाई छोड़ देने
के कारण! तो हम
समतल जमीन पर
सो जाते हैं; फिर छोटे
बच्चे हो गए, फिर जमीन से
हमारी कोई
लड़ाई नहीं है।
हमने स्वीकार
कर लिया।
रातभर हमको
विश्राम मिल जाता
है। सुबह हम
फिर खड़े होने
में समर्थ हो
जाते हैं।
खड़े
होने का मतलब
संघर्ष है। और
अगर आदमी उड़ना
चाहे, तो
और बड़ा संघर्ष
है, क्योंकि
फिर जमीन से
बिलकुल उसको
अपनी मुक्ति
चाहिए।
आसुरी
संपदा जमीन की
कशिश जैसी है।
सुगम है। बुरा
होने के लिए
कोई बड़ी चितना
नहीं करनी
पड़ती। बुरा
होने के लिए
कोई बहुत बड़ी
बुद्धिमत्ता
की जरूरत नहीं
है।
अपराधियों
के अध्ययन किए
गए हैं। और
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अपराधियों
में नब्बे
प्रतिशत
जड़बुद्धि
होते हैं, ईडिआटिक
होते हैं, उनके
पास कोई
बुद्धिमत्ता
नहीं है। पर
बड़ी हैरानी की
बात है कि वे
बुद्धिहीन जो
हैं, वे
बुराई करके कई
दफा हमें सफल
होते भी दिखाई
पड़ते हैं।
बुद्धिमान
हारता दिखाई
पड़ जाए, बुद्धिहीन
सफल होते
दिखाई पड़ते
हैं। क्योंकि
बुद्धिहीन
में एक क्षमता
तो है, वह
क्षमता है
नीचे गिरने की।
अगर नीचे
गिरने में ही
प्रतियोगिता
हो, तो वह
आपसे जीत
जाएगा। और हम
सभी उसके साथ
प्रतियोगिता
कर रहे हैं।
इसलिए वह हमें
जीतता मालूम
पड़ता है।
जो
जितना नीचे
गिर सकता है, उतने
जल्दी सफल हो
जाएगा। चाहे
धन की दौड़ हो, चाहे
राजनीति की
दौड़ हो, वह
जो बुरा आदमी
है, सफल हो
जाता है, क्योंकि
वह ज्यादा
नीचे गिर सकता
है। दो
राजनीतिज्ञों
में वह
राजनीतिज्ञ
जीत जाएगा, जो ज्यादा
नीचे गिर सकता
है, उसको
कम श्रम पड़ेगा।
मैंने
सुना है कि
विंसटन
चर्चिल एक
चुनाव में जिस
क्षेत्र से लड़
रहे थे, एक बूढ़े
आदमी के पास
वोट मांगने गए
थे। उनके
विरोध में कोई
खड़ा था। उस के
आदमी ने कहा
कि मैं सोचूंगा।
चर्चिल ने उस
पर दबाव डाला
और कहा, कुछ
तो कहो; कुछ
तो धारणा बना
ही लो, अब
चुनाव करीब आ
रहा है।
तो उस
आदमी ने कहा, तुम
मानते नहीं तो
मैं कहूं कि
मैं यही
प्रार्थना
करता हूं
भगवान से कि
तेरी बड़ी कृपा
है कि दो में
से एक ही जीत
पाएगा।
क्योंकि
दोनों
उपद्रवी हैं,
और इतना ही
अच्छा है कि
दोनों नहीं
जीतेंगे, एक
ही जीतेगा। कम
से कम एक ही
बुराई जीतेगी।
मैंने
सुना है, एक किसान एक
बार स्वर्ग के
द्वार पर
पहुंचा। उसे
बड़ी उदासी हुई
वहां, जो
हाल उसने देखा।
बड़ी देर तक
दरवाजा
खटखटाता रहा,
किसी ने
फिक्र ही न की।
तब उसने देखा
कि उसके पीछे
एक
राजनीतिज्ञ
है, जो
उसके बाद में
मरा और उसके
बाद स्वर्ग के
द्वार पर
पहुंचा। उसने
जाकर दस्तक दी।
दस्तक दी नहीं
कि द्वार खुल
गए। द्वारपाल
ने उसे भीतर
ले लिया।
वह
किसान तो खड़ा
ही रहा। सोचने
लगा मन में कि
शायद यहां भी
मेरी कोई
चिंता होने
वाली नहीं है।
राजनीतिज्ञ
यहां भी जीत
जाएगा। और
भीतर बैंड—बाजों
की आवाज आने
लगी।
राजनीतिज्ञ
का स्वागत हो
रहा है।
फिर
थोडी देर बाद
जब बैंड—बाजे
बंद हो गए, द्वार
खुला; किसान
को भीतर ले
जाया गया।
उसने सोचा कि
शायद अब बैड—बाजे
मेरे लिए भी बजेंगे।
वे नहीं बजे!
तो उसने
द्वारपाल से
पूछा कि यह पक्षपात
यहां भी है? द्वारपाल ने
कहा, पक्षपात
जरा भी नहीं
है। तुम्हारे
जैसे लोग तो
रोज यहां आते
हैं। यह कोई
हजारों साल के
बाद
राजनीतिज्ञ
स्वर्ग में
आया है। इसका
विशेष स्वागत
होना ही चाहिए।
राजनीति
में भला होना
मुश्किल है, भला होने
वाला हारेगा।
क्योंकि वहां
गिरने की
प्रतियोगिता
है, कौन
कितना गहरा
गिर सकता है!
धर्म
राजनीति से
उलटी यात्रा
है। वहां ऊपर
आकाश में उड़ने
की
प्रतियोगिता
है, कौन
कितना पृथ्वी
के आकर्षण से
दूर जा सकता
है! वहां
कठिनाई पड़नी
शुरू हो जाएगी।
जितने आप दूर
जाएंगे, उतनी
ही पृथ्वी
खींचेगी और
संघर्ष बढ़ेगा।
लेकिन उसी
संघर्ष से
आत्मा का जन्म
होता है। उसी
तनाव से, उसी
प्रतिरोध से,
उसी संयम से
आपके भीतर
व्यक्तित्व
निर्मित होता
है, इंटीग्रेशन
घटता है, आप
केंद्रित
होते हैं।
तो यह
ठीक है। दैवी
संपदा की फसल
इतनी दुर्लभ
इसलिए है। और
इसलिए भी कि
हमारे चारों
ओर सभी लोग
आसुरी संपदा
को पैदा करने
में लगे हैं।
और आदमी जीता
है भीड़ से, भीड़ का
अनुगमन करता
है। भीड़ जहां
जाती है, आप
भी चल पड़ते
हैं। आपके मां—बाप,
आपका
परिवार, आपका
समाज जो कर
रहा है, बच्चा
पैदा होता है,
वही बच्चा
सीख लेता है, वह भी करना
शुरू कर देता
है।
आसुरी
संपदा के लिए
शिक्षण की
काफी सुविधा
है। दैवी
संपदा के लिए
शिक्षण की कोई
सुविधा नहीं
मालूम पड़ती।
और जिस चीज की
सुविधा हो उस
तरफ आसानी हो
जाती है, हम उसमें
कुशल हो जाते
हैं। जिस तरफ
कोई सुविधा न
हो, उस तरफ
हमारे अंग
पंगु हो जाते
हैं।
आप
चलते हैं, इसलिए
पैरों में गति
है, जान है।
आप मत चलें, पैर सिकुड़
जाएंगे, पैरालाइब्द
हो जाएंगे, लकवा लग
जाएगा। आप
देखते हैं, तो आंखें
सजग हैं। मत
देखें, अंधेरे
में रहे आएं, थोड़े दिन
में आंखें
अंधी हो
जाएंगी। आप
सुनते हैं, तो कान तेज
हैं।
संगीतज्ञ के
कान सबसे
ज्यादा तेज हो
जाते हैं।
क्योंकि
सुनने के लिए
वह इतना आतुर
होता है, एक
छोटी से छोटी
ध्वनि के
परिवर्तन को
वह पकड़ना
चाहता है।
चित्रकार की आंखें
सतेज हो जाती
हैं।
दार्शनिक की
बुद्धि
तीक्ष्ण हो
जाती है।
आप जो
करते हैं, वह कुशल
हो जाता है।
आप जो नहीं
करते हैं, उसमें
आप अकुशल हो
जाते हैं। अगर
जन्म से ही
हमारी आंखों
पर पट्टियां
बांध दी जाएं,
और फिर जब
हम जवान हो
जाएं तब
पट्टियां
खोली जाएं, तो हम सब
अंधे ही
पट्टियों के
बाहर आएंगे।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
तीन साल तक
कोई भी इंद्रिय
काम न करे, तो
जड़ हो जाएगी।
और
आसुरी संपदा
का तो हम
उपयोग कर रहे
हैं जन्मों—जन्मों
से, दैवी
संपदा का हमने
उपयोग नहीं
किया जन्मों—जन्मों
से, इसलिए
कठिन मालूम
पड़ती है। वहा
भूमि सख्त हो
गई है। उस पर
हमने कभी न हल
चलाया, न
कुछ खेती की, न बीज डाले।
सब सूख गया है।
पठार हो गया
है, पत्थर
जैसा मालूम
होता है। जिस
तरफ हम खेती
करते रहे हैं,
वहा आसानी
मालूम होती है,
वहां जमीन
तैयार है, वहां
जमीन फुसफुसी
है, वहां
बीज पकड़ना
आसान है।
लेकिन
कितनी ही कठिन
हो दैवी संपदा
की फसल, एक बार जो
करना शुरू कर
देगा, वह
पाएगा कि वह
कठिनाई भी
कठिन नहीं है।
और एक बार
स्वाद आ जाए, तो आपको पता
चलेगा कि
आसुरी संपदा
बड़ी कठिन थी, पुरानी आदत
की वजह से सरल
मालूम पडती थी।
कठिनाइयां
उसमें बहुत
थीं, दुख
बहुत था, दुख
ही दुख था।
जहां
फसल सरलता से
हो जाती हो, लेकिन फल
सदा दुख के ही
हाथ लगते हों,
उस सरलता का
मूल्य भी क्या
है? भला
फसल कठिनाई की
हो, लेकिन
फल आनंद के
लगते हों, तो
उसे सरल और
सहज ही मानना
होगा।
जिन्होंने
भी जाना है, उन सबने
कहा है कि वह
समाधि बड़ी सहज
है, बड़ी
सरल है; वह
अंतिम
उपलब्धि कठिन
नहीं है।
लेकिन हमें तो
कठिन लगती है।
क्योंकि हमने
उस तरफ कोई
कदम नहीं
उठाया। हमने
उस तरफ कोई
ध्यान नहीं
दिया। उस दिशा
में हमने कोई
कदम ही नहीं
उठाया है, कोई
यात्रा ही
नहीं की है, हमारे पैर
उस तरफ पंगु
हैं।
तो
बैठकर सोचते
मत रहें कि वह
कठिन है, कुछ करें और
उसे सरल बनाएं।
करने से चीजें
सरल होती हैं।
आप कभी
पानी में नहीं
तैरे हैं, तो बहुत
कठिन लगेगा।
और आप यह
भरोसा ही नहीं
कर सकते कि
आपको पानी में
छोड़ दिया जाए,
तो आप बच
सकेंगे।
लेकिन जो लोग
तैरने की कला
सिखाते हैं, वे कुछ भी
नहीं करते, वे सिर्फ
आपको पानी में
छोड़ते हैं।
पानी में
छोड़ते से ही
आप हाथ—पैर
तड़फड़ाने
लगते हैं
बचाने के लिए
खुद को। तैरना
तो आपको आता
नहीं, तैरने
का तो आपको
कोई पता नहीं,
अपने को
बचाने के लिए
हाथ—पैर तड़फड़ाते
हैं।
यह हाथ—पैर
तड़फड़ाना ही
तैरने की
शुरुआत है।
फिर इसको ही
थोड़ी
व्यवस्था से
फेंकने
लगेंगे, तैरना हो
जाएगा। थोड़ी
व्यवस्था ही
सीखनी है। अभी
थोड़ा
अस्तव्यस्त
फेंकते हैं, अराजक। फिर
सिस्टम हो
जाएगी, फिर
आप ढंग से
फेंकने
लगेंगे। एक
दफा ढंग से
फेंकना आ गया,
तो आप
पाएंगे कि
तैरने से सरल
और कुछ भी
नहीं हो सकता।
अभी तो तैरने
में लगेगा कि
जान जाने का
खतरा है, अगर
नहीं जानते तो।
शुरू
करें! यह ऊपर
की तरफ जो
उड़ान है, यह भी एक
तैरना है।
शुरू में
कठिनाई होगी;
स्वाभाविक
है। जैसे—जैसे
अभ्यास गहन
होगा, वैसे—वैसे
कठिनाई बदलती
जाएगी। और एक
ऐसा क्षण आता
है, जब
समाधि ही
एकमात्र
सरलता रह जाती
है। तब बुरे
होने से
ज्यादा कठिन
कुछ भी नहीं
होता।
अब हम
सूत्र को लें।
और
उन आसुरी
पुरुषों के
विचार इस
प्रकार के होते
हैं, कि मैंने आज
यह तो पाया है
और इस मनोरथ
को प्राप्त
होऊंगा तथा
मेरे पास यह
इतना धन है और
फिर भी यह
भविष्य में और
अधिक होवेगा।
आसुरी संपदा
के व्यक्ति को
और की दौड़
होती है। उसके
पास जो भी हो, उसे वह और
बढ़ा लेना
चाहता है। जो
भी उसके पास
हो, उतनी
मात्रा उसे
कभी काफी नहीं
मालूम पड़ती।
आसुरी
संपदा का
व्यक्ति
मात्रा में
बड़ा उत्सुक
होता है, क्वांटिटी
में उत्सुक
होता है। दस
रुपए हों, तो
हजार हो जाएं;
हजार हों, तो दस हजार
हो जाएं; दस
हजार हों, तो
दस करोड़ हो
जाएं; उसकी
मात्रा बढ़ती
जाती है।
आकड़ों में
जीता है, कितने
बड़े आकड़ों का
फैलाव हो जाए!
और उसकी पकड़ है।
उसके पास जो
भी है, वह
कम है।
दूसरी
बात, उसके
पास जो भी है, उसमें उसे
कोई सुख नहीं
है। सुख सदा
वहां है, जो
उसके पास नहीं
है।
आसुरी
संपदा वाले
व्यक्ति को
सुख सदा आकाश
में कहीं दूर
है। आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति आशा
में जीता है।
जो उसके पास
है, उसमें
तो कुछ खास रस
नहीं है। ठीक
है। जो नहीं
है, आनंद
वहां छिपा है।
और जब तक वह
उसे न पा ले, तब तक
आनंदित न हो
सकेगा। वह
दौड़ता रहता है।
आज नष्ट करता
है कल के लिए।
कल को फिर
नष्ट करेगा और
आगे आने वाले
कल के लिए।
ऐसे पूरे जीवन
को वह नष्ट
करता जाएगा और
जीने को
पोस्टपोन
करता रहेगा।
वह कहेगा कि
कल जब सब मेरे
पास होगा, तब
मैं जीऊंगा।
जर्मनी
का एक विचारक
हुआ। उसके पास
बहुत धन था, और
अध्ययन की बड़ी
रुचि थी, और
बड़ी आकांक्षा
थी कि जितना
ज्यादा से
ज्यादा जान
सकूं? जान
लूं। तो उसने
दुनियाभर से
जो भी अनूठी
से अनूठी पुस्तकें
हों, दुर्लभ
शास्त्र हों,
अनेक
भाषाओं के
शास्त्र
इकट्ठे करने
शुरू कर दिए।
उसके
पास विशाल
पुस्तकालय
खड़ा हो गया।
पचासों
भाषाओं की
पुस्तकें
उसके पास
इकट्ठी हो गईं।
ऐसा कोई ग्रंथ
नहीं था
दुनिया में, जो उसने
खोजकर इकट्ठा
न कर लिया हो।
लेकिन यह
इकट्ठा करते—करते
उसने पाया कि
वह नब्बे वर्ष
का हो गया है।
जब उसे होश
आया कि इकट्ठा
तो मैंने कर
लिया, लेकिन
इसको मैं
पढूंगा कब!
और
कहते हैं, यह धक्का
उस पर इतना
भारी पड़ा कि
यह धक्का ही
उसकी मृत्यु
का कारण हुआ।
और यह नब्बे
वर्ष वह रोज
सोच रहा था, कल! कल! और
इकट्ठा हो
जाए! और
इकट्ठा हो
जाए! पहले इकट्ठा
कर लूं र फिर
अध्ययन कर
लूंगा, फिर
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाऊंगा।
आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति भी
ऐसे ही दौड़ता
रहता है। धन
इकट्ठा करता
है। पद इकट्ठा
करता है। उसे
सुविधा तो कभी
मिल ही नहीं
पाती कि वह
उसका उपयोग कर
ले। आगे की
दौड़ उसे पकड़े
रहती है। और
रोज को वह
कुर्बान करता
है। भविष्य के
लिए, वर्तमान
को वह बलि
चढ़ाता है
भविष्य के लिए।
और
ध्यान रहे, वर्तमान
के अतिरिक्त
किसी चीज की
कोई सत्ता नहीं
है। भविष्य तो
बिलकुल सपना
है। जो आज को
खो रहा है कल
के लिए, वह
आज को व्यर्थ
ही खो रहा है।
और एक बार यह
आदत बन गई आज
को खोने की, तो मैं सदा
आज को खोता
रहूंगा। और जब
भी समय आता है,
वह आज की
तरह आता है; कल तो कभी
आता नहीं।
और यह
जो और की दौड़
है, इसका
कोई भी अंत
नहीं हो सकता,
क्योंकि यह
हर चीज पर जुड़
जाएगी। जो भी
आप पा लेंगे, आपका आसुरी
संपदा वाला मन
कहेगा, और!
आप सोच भी
नहीं सकते कोई
ऐसी स्थिति, जब आपका मन
कहे कि बस, काफी!
आप सोचें, कभी
एकांत में
बैठकर यही
सोचें कि
कितना धन आपको
मिल जाए, तो
आपका मन और
नहीं कहेगा।
तो आप अपने
साथ ही खेल
में पड़ जाएंगे।
पहले सोचेंगे,
दस करोड़।
लेकिन भीतर—अभी
कोई दस करोड़
दे भी नहीं
रहा है, मिल
भी नहीं गए
हैं—लेकिन
भीतर कोई
कहेगा, इतने
कम पर राजी
क्यों होते हो
जब दस अरब हो
सकते हैं!
तो जो
आपको आखिरी संख्या
मालूम है, वहां तक
तो आपका मन
दौड़ाएगा। और
आखिरी संख्या
पर भी आपको
बेचैनी अनुभव
होगी कि और
गणित क्यों न
सीख लिया! और
गणित जानते, तो आज यह
मुसीबत तो न
होती। आज अटक
गए यहां आकर, दस महाशंख
या एक करोड़
महाशंख, कहा
अब जो संख्या
आती है, वह
भी छोटी मालूम
पड़ेगी। सारी
दुनिया आपको
मिल जाए, तो
भी छोटी मालूम
पड़ेगी।
सिकंदर
को किसी ने
कहा कि तू जीत
तो रहा है दुनिया
को, लेकिन
अगर तूने
दुनिया जीत ली
तो मुश्किल
में पड़ेगा।
सिकंदर ने कहा,
कौन—सी
मुसीबत होगी?
जिसने कहा
था, वह था
डायोजनीज, एक
फकीर। उसने
कहा, तब
तुझे पता
चलेगा कि
दूसरी दुनिया
नहीं है, मुसीबत
में पड़ जाएगा।
एक दफे पूरी
दुनिया जीत ली,
तब तुझे पता
चलेगा कि
दूसरी दुनिया
नहीं है।
और
कहते हैं कि
सिकंदर उसी
क्षण उदास हो
गया। और उसने
कहा कि ऐसी
उदासी की
बातें मत करो।
पहले मुझे एक
तो जीतने दो।
लेकिन चित्त
उसका उदास हो गया
यह बात सोचकर
ही कि एक
जीतने के बाद
फिर दूसरी कोई
दुनिया नहीं
है। और कहीं
भी थकेगा नहीं, और की
मांग चलती ही
जाएगी।
दैवी
संपदा वाला
व्यक्ति आज, यहीं जो
उसके पास है, जो वह है, उसको
परिपूर्णता
से जीता है।
इसका यह अर्थ
नहीं कि उसका
विकास नहीं
होता। उसका ही
विकास होता है।
और भी निकलता
है आज से, लेकिन
वह उसकी माग
नहीं करता। वह
आज को जीने से
उसका और
निकलता है। और
उसकी मांग
नहीं है, उसके
जीवन का फल है।
आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति आज तो
जीता नहीं, और को
सोचता रहता है।
उसका और केवल
मन पर दौड़ रहा
है; वह
जीवन का फल नहीं
है।
तो यह
विरोधाभासी
बात: आप समझ
लें। आसुरी
संपदा वाला
सोचता है, और! और! और!
और जितना
सोचता है उतना
कम होता जाता है,
क्योंकि
जीवन क्षीण हो
रहा है। दैवी
संपदा वाला और
का विचार नहीं
करता, जो
है, उसको
पूरे के पूरे
समस्त भाव से
स्वीकार करके डूबता
है। इस डूबने
से और निकलता
है, और
बहुत कुछ उसे
मिलता है।
जीसस
से किसी ने
पूछा कि क्या
यह भी हो सकता
है कि हम
परमात्मा को
भी खोजें और
संसार के सुख
भी हमें मिल
जाएं? तो
जीसस ने कहा, तुम संसार
के सुखों की
बात सोचो ही
मत। फर्स्ट यी
सीक दि किंगडम
आफ गॉड, देन
आल एल्स शैल बी
एडेड अनटु यू।
पहले तुम
परमात्मा को
खोज लो, फिर
सब उसके पीछे
चला आएगा।
वह जो
परमात्मा का
तलाशी है, दैवी
संपदा का जो
व्यक्ति है, वह इसी क्षण
में परमात्मा
की तलाश कर
रहा है। शेष
सब भी आता है, लेकिन उस
शेष सबकी उसकी
कोई मांग नहीं
है।
जितनी
हो मांग कम, उतना ज्यादा
मिलता है। जो
मांगते हैं, भिखारी रह
जाते हैं। जो
नहीं मांगते,
सम्राट हो
जाते हैं।
जीवन बड़ा
पहेली से भरा
हुआ है! जो
मांगते हैं, भिखारी रह
जाते हैं।
उनके पास जो
है, वह भी
छिन जाता है।
जो नहीं मांगते,
सम्राट हो
जाते हैं; जो
उनके पास नहीं
था, वह भी
मिल जाता है।
जीसस
का एक बहुत
विरोधाभासी
वचन है। जीसस
ने कहा है, अगर तुम
मांगोगे, तो
जो तुम्हारे
पास है, वह
भी छीन लिया
जाएगा। और अगर
तुम बांटोगे,
तो जो
तुम्हारे पास
नहीं है, वह
भी दे दिया
जाएगा।
ऐसा ही
है और ऐसा ही
प्रतिपल हो
रहा है। जो—जो
आपने जीवन में
मांगा है, वह कुछ भी
आपके पास है
नहीं। जो—जो
आपने जीवन में
दिया है, छोड़
दिया है, वह
सब आपके पास
है। जिसे हम
छोड़ देते हैं,
वह सदा के
लिए हमारा हो
जाता है। और
जिसे हम पकड़
लेते हैं, वह
सदा के लिए
बोझ हो जाता
है, और
छूटने की
तैयारी करता
रहता है।
मैंने
आज यह तो पाया
है और इस
मनोरथ को
प्राप्त
होऊंगा तथा
मेरे पास यह
इतना धन है
फिर भी यह
भविष्य में और
अधिक होएगा।
तथा वह शत्रु
मेरे द्वारा
मारा गया और
दूसरे शत्रुओं
को भी मैं
मारूंगा। मैं
ऐश्वर्यवान
हूं ऐश्वर्य
को भोगने वाला
हूं और मैं सब
सिद्धियों से
युक्त बलवान
एवं सुखी हूं।
यह बड़ा
समझने जैसा है।
हमेशा
आसुरी संपदा
वाला व्यक्ति
दूसरों को नष्ट
करने की कामना
से भरा रहता
है, कैसे
दूसरों को
मिटा दूं!
क्योंकि वह
सोचता है, जब
कोई भी न होगा,
तब मैं
परिपूर्ण हो
जाऊंगा। अगर
इस पृथ्वी पर
कोई न हो, तो
मैं ही सम्राट
होऊंगा। तो जो
भी मेरे
विपरीत है, उसको मिटा
दूं; जो भी
मुझसे अन्यथा
है, उसको
नष्ट कर दूर
ताकि मेरा
साम्राज्य
अबाध हो।
दैवी
संपदा का
व्यक्ति
दूसरे को
मिटाने का विचार
नहीं करता।
दैवी संपदा का
व्यक्ति अपने
को मिटाने का
विचार करता है।
इस फर्क को
ठीक से समझ
लें। क्योंकि
वह कहता है, जब तक मैं
हूं तभी तक
कष्ट रहेगा।
जब मैं नहीं
रहूंगा, शून्य
हो जाऊंगा, तब आनंद हो
जाएगा।
दैवी
संपदा के
व्यक्ति का
साम्राज्य
उसके अहंकार
के खो जाने पर
उपलब्ध होता
है। आसुरी
संपदा के
व्यक्ति के
साम्राज्य की आका्ंक्षा
दूसरों को मिटाने
में है, कितना मैं
दूसरों को
मिटा दूं।
आसुरी संपदा
का व्यक्ति
आपको जिंदा
छोड़ सकता है, अगर आप उसके
सामने मुरदे
की भांति हो
जाएं।
आसुरी
संपदा का
व्यक्ति
विवाह करे, तो पत्नी
को वस्तु बना
देगा, वह
मार डालेगा
बिलकुल। उसको
इस हालत में
कर देगा कि
उसमें कोई जीवन
न बचे। वह कहे
रात, तो
रात। वह कहे
दिन, तो
दिन। आसुरी
संपदा की
स्त्री हो, तो पति को
बिलकुल
मिट्टी कर
देगी। उसको
छाया की भांति
चलाना चाहेगी।
आसुरी संपदा
का पिता हो, तो बेटों को
पोंछ देगा।
उनको बड़ा
करेगा, लेकिन
ऐसे, जैसे
वे मुरदे हैं।
उनकी कोई
स्वतंत्रता, उसकी कोई
गरिमा नहीं
बचने देगा।
आसुरी
संपदा का
व्यक्ति
दुश्मनों को
मार डालता है।
मित्रों को
मरे हुए कर
देता है। उससे
मित्रता रखनी
हो तो मुरदा
होना जरूरी है।
मैं आज
ही इजिप्त के
शाह फारूख के
जीवन के संबंध
में कुछ पढ
रहा था। एक
व्यक्ति ने
संस्मरण लिखा
है। वह व्यक्ति
जड़ी—बूटियों
के द्वारा
चिकित्सा
करता है। तो
शाह फारूख ने
उसे अपने इलाज
के लिए बुलाया
था। जब वह
पहुंचा, तो शाह
फारूख अपने
मंत्रियों के
साथ ताश खेल रहा
था, जुआ
खेल रहा था।
उसका
प्रधानमंत्री,
उसके और
मंत्री। यह
व्यक्ति भी
बैठकर चुपचाप
देखता रहा।
क्योंकि जब
फारूख निपट ले,
तब बात हो!
यह देखकर
हैरान हुआ कि
चाहे पत्ते मंत्रियों
के पास अच्छे
हों, तो भी
शाह फारूख ही
जीतता है।
चाहे उसके
पत्तों में
कोई जान न हो, तो भी वही
जीतता है।
शाह
फारूख को भी
लगा कि यह
आदमी देखकर
चकित हो रहा
है, हैरान
हो रहा है। तो
उसने कहा, चकित
होने की कोई
बात नहीं है; ये सब मेरे
नौकर हैं और
मेरी आशा
मानना उनका फर्ज
है। और शाह
फारूख ने अपने
प्रधानमंत्री
से, जो
उसके साथ ताश
खेल रहा था, उससे कहा कि
धोखा देने की
कोई जरूरत
नहीं, बस
हार जाओ। उसी
वक्त उसने
पत्ते डाल दिए
और हार गया।
यह जो
आसुरी संपदा
वाला व्यक्ति
है, दुश्मनों
को मिटा डालता
है, क्योंकि
वे झुकने को
तैयार नहीं
होते।
मित्रों को
पोंछ डालता है,
उनके जीवन
में कुछ सत्व
नहीं बचने
देता। आसुरी
संपदा वाले
व्यक्ति के
पास बैठकर
आपको लगेगा कि
वह आपको चूस
रहा है, नष्ट
कर रहा है।
दैवी
संपदा वाले
व्यक्ति के
पास बैठकर
आपको लगेगा कि
वह आपको जीवन
दे रहा है।
आपकी
कुम्हलाई हुई
जिंदगी फिर से
ताजी हो रही
है। दैवी
संपदा वाले
व्यक्ति के
पास बैठकर
आपको लगेगा, आपका भी
मूल्य है; आप
भी स्वीकार
किए गए हैं, स्वागत है।
आप भी एक
धन्यता हैं।
छोटे से छोटे
व्यक्ति को भी
दैवी संपदा
वाले व्यक्ति
के पास बैठकर
लगेगा, उसका
कोई मूल्य है,
जगत में
उसका भी कोई
अर्थ है। वह
व्यर्थ नहीं
है, बोझ
नहीं है।
आसुरी
संपदा वाले
व्यक्ति के
पास श्रेष्ठ
से श्रेष्ठ
व्यक्ति को भी
बैठकर लगेगा, उसका
जीवन तुच्छ है।
जिसके पास
पहुंचकर आपको
ऐसा लगे कि
आपको तुच्छ
किया जा रहा
है, तो
समझना कि
आसुरी संपदा
काम कर रही है।
अगर आप दूसरों
को तुच्छ करने
की वृत्ति से
भरे हों, तो
समझना कि आप
आसुरी संपदा
से भरे हैं।
दूसरे
की गरिमा और
गौरव को
स्वीकार करने
का आपका मन हो, दूसरे का
निजी मूल्य है।
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
आप में साध्य
है, वह कोई
साधन नहीं है।
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
आप में परम
मूल्य है, अल्टिमेट
वैज्यू है।
अगर दूसरे
व्यक्ति के
प्रति आपका
ऐसा सदभाव हो,
तो आप में
दैवी संपदा का
जन्म होगा।
जर्मनी
के बहुत बड़े
विचारक
इमेनुएल काट
ने अपने नीति—शास्त्र
का एक आधार—स्तंभ
रखा है। और वह
आधार—स्तंभ है
कि दूसरे
व्यक्ति को
साधन की तरह
मत देखो, साध्य की
तरह देखो।
दूसरा
व्यक्ति आपका
साधन नहीं है
कि आप उसका उपयोग
कर लो। दूसरा
व्यक्ति अपने
आप में साध्य
है, उसका
उपयोग करना
गलत है। उसका
उपयोग करने का
अर्थ यह हुआ
कि आप उससे वस्तु
की तरह
व्यवहार कर
रहे हैं।
लेकिन हमारी
हालत यह है कि हमें
अपनी वस्तु, मुरदा वस्तु
भी एक जीवित
व्यक्ति से
ज्यादा मालूम
पड़ती है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
ट्रेन में सफर
कर रहा था।
बड़ी खचाखच भीड़
थी उस डिब्बे
में और वह अपना
लोहे का बड़ा
वजनी संदूक
ऊपर की सीट पर
चढ़ाने की
कोशिश कर रहा
था। नीचे बैठी
एक स्त्री ने
कहा कि
महानुभाव, वहां मत
रखिए, ऊपर
गिर पड़ेगा।
वजनी बहुत है,
और बहुत
भारी और लोहे
का है।
नसरुद्दीन ने
कहा, देवी
जी, आप
बिलकुल
बेफिक्र रहिए;
उसमें टूट
जाने वाली कोई
भी चीज नहीं।
वह जो
महिला बैठी है, उसका सिर
टूट जाने का
सवाल ही नहीं
है। उनके
संदूक में
टूटने वाली
कोई चीज नहीं
है।
हम
सबकी जीवन—दशा
ऐसी है। दूसरे
का सिर भी कम
कीमत का है, हमारा
संदूक भी
ज्यादा कीमती
है। व्यक्ति
का हमारे लिए
कोई मूल्य
नहीं है।
आसुरी
संपदा वाले व्यक्ति
के लिए
व्यक्ति है ही
नहीं, व्यक्तित्व
की कोई गरिमा
नहीं है।
शत्रुओं को वह
नष्ट करना
चाहता है। और
निरंतर सोचता
है, आज
शत्रु को मारा;
वह शत्रु
मेरे द्वारा
मारा गया, दूसरों
को भी मैं कल
मारूंगा! वह
सदा मारने की तैयारी
में लगा है।
उसकी चितना
विध्वंस की है।
वह मृत्यु का
आराधक है। वह
यमदूत है।
ठीक
उससे विपरीत
सृजन की जो
आराधना है, क्रिएटिविटी,
कि मैं कुछ
निर्मित करूं,
कुछ बनाऊं,
जहां कुछ भी
नहीं था, वहां
कुछ निर्मित
हो, जहां
जमीन खाली पड़ी
थी, वहां
एक पौधा उगे, कुछ बने—वह
जो सृजन की
आराधना है, वही ईश्वर
की तरफ जाने
का मार्ग है।
इधर
मैं आपको कहना
चाहूं कि
दुनिया के सभी
धर्मों ने
ईश्वर को
स्रष्टा कहा
है। ईश्वर को
स्रष्टा
सिद्ध करना
आसान नहीं।
दुनिया की कभी
सृष्टि हुई है, इसके लिए
प्रमाण
जुटाना आसान
नहीं। और एक
बात तो
निश्चित है कि
उस सृष्टि के
क्षण में
हममें से कोई
भी नहीं था, इसलिए कोई
गवाही नहीं दे
सकता। और जो
भी हम कहेंगे,
वह सिर्फ
कल्पना होगी।
क्योंकि अगर
हम मौजूद थे, तो सृष्टि
उसके पहले ही
हो चुकी थी।
तो
सृष्टि के
प्राथमिक
क्षण का तो
हमें कोई पता
नहीं है। हम
कल्पना कर
सकते हैं कि
परमात्मा ने
बनाई, कि
नहीं बनाई, कि क्या हुआ।
लेकिन वह
सिर्फ मानसिक
विलास होगा।
लेकिन
फिर भी दुनिया
के अधिक धर्म
परमात्मा के
स्रष्टा होने पर
जोर क्यों
देते हैं? कुछ कारण
है। और वह
कारण यह है कि
जिस व्यक्ति
को भी सृजन पकड़
लेता है, जो
व्यक्ति भी
अपने जीवन में
स्रष्टा हो
जाता है, उसे
परमात्मा का
अनुभव शुरू
होता है। इस
अनुभव से यह
प्रमाण मिलता
है कि इस जगत
की गहनतम
स्थिति
सृजनात्मक है।
परमात्मा
स्रष्टा है, यह स्रष्टा
अगर हम हों, तो हमें पता
चलता है।
अगर आप
एक गीत भी
जन्म दे सकें, तो उस गीत
को जन्म देने
के क्षण में
आप में परमात्म—
भाव प्रकट
होता है। आप
एक चित्र भी
बना सकें, एक
मूर्ति खोद
सकें, एक
बच्चे को
निर्मित कर
सकें, बड़ा
कर सकें—कुछ
भी—एक पौधे को
भी आप सम्हाल
लें, और
उसमें फूल आ
जाएं, तो
उन क्षणों में
जो आपको
प्रतीति होती
है, वह
परमात्मा की
छोटी—सी झलक
है।
विध्वंस
परमात्म—विरोध
है; सृजन
परमात्मा की
तरफ
प्रार्थना है।
और जो
प्रार्थना
सृजनात्मक न
हो, वह
प्रार्थना
बांझ है, उस
प्रार्थना का
कोई भी मूल्य
नहीं। मंदिर
में बैठकर आप
चीख—पुकार
करते रहें, उससे कुछ
बहुत हल होने
वाला नहीं है।
उतनी शक्ति
सृजन में लग
जाए, तो
प्रार्थना
सजीव हो उठेगी।
जब आप स्रष्टा
होते हैं, तभी
आप परमात्मा
के निकट होते
हैं।
आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति, मैं
ऐश्वर्यवान
हूं ऐश्वर्य
को भोगने वाला
हूं और मैं सब
सिद्धियों से
युक्त एवं
बलवान हूं और
सुखी हूं ऐसी
मान्यता रखता
है।
सुखी
तो होता नहीं, लेकिन
मान्यता ऐसी
रखता है कि मैं
सुखी हूं; ऐसा
अपने को
समझाता है। यह
बहुत
मनोवैज्ञानिक
सत्य है। हम
जो नहीं होते,
अपने को
समझाने की
कोशिश करते
हैं। कमजोर
आदमी अपने को
शक्तिशाली
समझता है।
कमजोर आदमी
अपने को
समझाता है कि
मैं महाशक्तिशाली
हूं।
मैं एक
स्कूल में
पढ़ता था। मेरे
जो हिंदी के
शिक्षक थे, वे कक्षा
में हमेशा, पहले दिन से
ही आना शुरू
हुए, तो
अपनी बहादुरी
की बातें करते
थे, कि मैं
इतना
हिम्मतवर हूं
कि चाहे अमावस
की रात हो तो
भी मरघट पर
चला जाता हूं।
दों—चार
बार मैंने
उनसे सुना, तो मैंने
एक बार उनसे
पूछा कि मुझे
शक होता है।
इसमें कोई बहादुरी
की बात भी
नहीं है। और
कहने की तो
कोई जरूरत भी
नहीं। आपके
भीतर डर है।
मरघट आप जा
नहीं सकते।
उनके
चेहरे पर
पसीना आ गया।
उन्होंने कहा, तुम्हें
कैसे पता चला?
मैंने कहा,
पता चलने की
बात ही नहीं।
आप इतनी दफा दोहराते
हैं। यह
दोहराना
बताता है कि
आप अपने को समझा
रहे हैं।
कुरूप
आदमी दोहराता
रहता है कि
मैं सुंदर हूं।
मूढ़ समझाता
रहता है कि
मैं
बुद्धिमान
हूं। कमजोर
समझाता रहता
है कि मैं
ताकतवर हूं, और इसको
सिद्ध करने की
जगह—जगह कोशिश
भी करता है।
क्योंकि अपने
से कमजोर आदमी
तो खोज लेना
हमेशा आसान है।
अपने से मूढ़
भी खोज लेना
आसान है। जगत
इतना बड़ा है; आप अकेले
नहीं हैं।
काफी जगह है।
तो वह
जो कमजोर आदमी
है, अपने
से कमजोर खोज
लेता है। उनकी
छाती पर चढ़कर
वह सिद्ध कर
लेता है कि
मैं निश्चित
ही बलवान हूं।
आप अपने से
मूढ़ को खोज
लेते हैं!
और
ध्यान रहे, हम सदा
यही कोशिश
करते हैं कि
हमसे कमजोर, हमसे मूढ़
हमें मिल जाए।
क्योंकि उसके
पास हम बड़े
मालूम होते
हैं। लगता है,
हम कुछ हैं।
इससे प्रतीति
हम अपने भीतर
कर लेते हैं
कि सब ठीक है।
पश्चिम
का एक बहुत
बड़ा विचारक
हुआ, एडलर।
उसने एक मनोविज्ञान
को जन्म दिया,
इंडिविजुअल
साइकोलाजी।
और उस मनोविज्ञान
का आधार—स्तंभ
उसने हीनता की
ग्रंथि बनाया।
उसका कहना है
कि जिस
व्यक्ति में
जो चीज हीन होती
है, वह
उसके विपरीत
रूप अपने आस—पास
खड़ा करता है, ताकि खुद भी
भूल जाए, दूसरे
भी भूल जाएं।
उसने बड़ा गहरा
अध्ययन किया
और उसने कहा
कि जितने लोग
दुनिया में
जिन—जिन चीजों
के पीछे पागल
होते हैं, वह
पागलपन बताता
है कि वही
उनकी कमजोरी
है।
हिटलर
जैसा व्यक्ति, यह किसी
हीनता की
ग्रंथि से
पीड़ित है। और
जब तक वह अपने
को नहीं समझा
लेगा कि मैं
सारी दुनिया
का मालिक हो
गया, तब तक
उसको शांति न
मिलेगी। जो
लोग पैर से
कमजोर हैं, वे दौड़ने की
कोशिश करते
हैं।
विपरीत
की कोशिश चलती
है, ताकि
हम अपने को भी
दिखा दें, दुनिया
को भी दिखा
दें कि नहीं, यह बात नहीं
है। कौन कहता
है कि हम
कमजोर हैं!
कौन कहता है
हमारे पैर
कमजोर हैं!
कौन कहता है
हमारी आंख
कमजोर है!
वह एक
जगह बोल रहा
था, तो
एक बड़ी मजेदार
घटना घटी। वह
समझा रहा था
कि जिन लोगों
में जो—जो चीज
की हीनता होती
है, उस—उस
की वे तलाश
में जाते हैं।
जैसे जिस आदमी
को गरीबी की
बड़ी ग्लानि
होती है, वह
धन की कोशिश
करता है। जिस
आदमी को अपने
पद में हीनता
दिखाई पड़ती है,
वह पद—प्रतिष्ठा,
राष्ट्रपति
होने की दौड़
में लग जाता
है। जो कुरूप
होता है, वह
सौंदर्य
की तलाश करने
लगता है।
एक
आदमी खड़ा हो
गया और उसने
कहा कि क्या
यह बात आप पर
भी लागू है? एडलर कुछ
समझा नहीं। वह
आदमी बड़ी गहरी
मजाक कर रहा
था। उसने कहा
कि क्या इसका
मतलब है कि
जिसका मन कमजोर
होता है, वह
मनोवैज्ञानिक
हो जाता है!
लेकिन
एडलर की बात
में सचाई है।
कृष्ण
भी वही बात कह
रहे हैं; कह रहे हैं
कि ऐसा आदमी
सुखी होता
नहीं, हो
नहीं सकता, लेकिन मानता
है कि मैं
सुखी हूं। और
गौरव से इसका
प्रचार करता
है कि मैं
सुखी हूं।
उसके प्रचार
के कारण आप भी
धोखे में आ
जाते हैं।
आपके राजनीतिज्ञ
हैं, बड़े
पदों पर हैं।
उनको देखकर
बाहर से आपको
ऐसा लगेगा कि
बड़े प्रसन्न
हैं, फूलमालाएं
डाली जा रही
हैं, और
बड़ा आनंद ही
आनंद है। काश,
उनके जीवन
में आपको
झांकने का
मौका मिल जाए,
तो वे बड़े
दुखी हैं और
बड़े परेशान
हैं। और किसी
तरह अपनी
फजीहत न हो जाए
बिलकुल, इसको
बचाने में लगे
हुए हैं। और
फजीहत पूरे
क्षण हो रही
है। लेकिन वे
जब बाहर
निकलते हैं, तो
मुस्कुराते
निकलते हैं।
उनकी
मुस्कुराहट
बिलकुल ऊपर से
पोती गई है, पेंटेड
है, क्योंकि
भीतर वे रो
रहे हैं और परेशान
हैं। और एक
क्षण की उनको
सुविधा नहीं
है, सुख
नहीं है, शांति
नहीं है।
लेकिन बाहर वे
दिखलाने की
कोशिश करते
हैं कि बड़े
प्रसन्न हैं,
बड़े आनंदित
हैं। उससे
आपको भी भ्रम
पैदा होता है।
आप भी
जब घर से बाहर
निकलते हैं, तो
दूसरों को
भ्रम पैदा
करवाते हैं कि
बड़े प्रसन्न
हैं। घर में
कोई मेहमान आ
जाए, तो
पति—पत्नी ऐसी
प्रेमपूर्ण
बातें करने
लगते हैं, जैसी
उन्होंने कभी
नहीं कीं। घर
में कोई न हो, तब उनका
असली रूप
दिखाई पड़ता है।
शिष्टाचार है,
सभ्यता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी एक दिन
अपने पति से
बोली कि
पच्चीस साल हो
गए विवाहित
हुए—कोई
मेहमान घर आया
था, उसके
सामने ही उसने
यह बात उठानी
ठीक समझी, नसरुद्दीन
शायद लज्जित
हो जाए—पच्चीस
साल हो गए, मैं
इस घर में
बंदिनी होकर
रह रही हूं।
कभी हम एक बार
भी एक साथ
घूमने भी घर
के बाहर नहीं
निकले!
नसरुद्दीन
ने कहा, फजलू की मां,
बात का इतना
बतंगड़ मत बनाओ।
इतनी बात बढ़ा—चढ़ाकर
मत कहो। अतिशयोक्ति
की तुम्हें
आदत हो गई है।
जब एक बार घर
में स्टोव फट
गया था, तो
हम
दोनों साथ—साथ
बाहर निकले थे
कि नहीं?
घर—घर
में वैसा है।
लेकिन बाहर
पति—पत्नी को
देखें, सिनेमा की
तरफ जाते, बाजार
की तरफ जाते, तो ऐसा
लगेगा कि परम
सुख भोग रहे
हैं।
हर
कहानी कहती है, जहां
शादी हो जाती
है राजकुमारी
और राजकुमार
की, फिर वे
दोनों सुख से
रहने लगे।
यहीं खतम हो
जाती है। और
इससे बड़ा कोई
झूठ नहीं हो
सकता। यहीं से
दुख की शुरुआत
होती है। उसके
पहले थोड़ा—बहुत
सुख रहा भी हो
कल्पना में, आशा में।
लेकिन सब
कहानियां
यहीं बंद हो
जाती हैं। यह
उचित भी है, क्योंकि
इसके बाद आगे
बात उठानी
अशिष्टाचार की
होगी। यहीं
बंद कर देना
ठीक है।
हम सब
बाहर एक रूप
बनाए हुए हैं।
सुखी नहीं हैं, लेकिन
दिखा रहे हैं
कि सुखी हैं।
दीन हैं, लेकिन
दिखा रहे हैं
कि दीन नहीं
हैं। चाहे
हमें उधार
चीजें लेकर भी
प्रभाव पैदा
करना पड़े, घर
में कोई
मेहमान आ जाए,
तो पड़ोस से
सोफा उठा लाना
पड़े, तो भी
कोई बात नहीं,
लेकिन हम
दिखा रहे हैं।
आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति अपनी
दीनता को छिपाकर
उसका विपरीत
रूप प्रकट
करता रहता है।
तो वह कहता है, मैं
ऐश्वर्यवान
हूं। वह कहता
है कि मैं
ऐश्वर्यों का
भोगने वाला
हूं। वह कहता
है कि मैं सब
सिद्धियों से
युक्त हूं; कि मैं
बलवान हूं? मैं सुखी
हूं।
ये कोई
भी बातें सच
नहीं हैं। ये
बातें तो सच
होती हैं दैवी
संपदा वाले को, कि वह
ऐश्वर्यवान
हो जाता है, ईश्वर हो
जाता है, कि
सारी
सिद्धियां
उसे सिद्ध हो
जाती हैं; कि
सारे सुख, सारी
शक्तियां
उसके ऊपर बरस
जाती हैं। यह
घटना तो घटती
है दैवी संपदा
वाले को।
लेकिन आसुरी
संपदा वाला
मानकर चलता है
कि ऐसा है; और
इसका प्रचार
भी करता है।
और प्रचार अगर
ठीक से किया
जाए तो दूसरों
को भी भरोसा आ
जाता है। और
अगर दूसरों को
भरोसा आ जाए, तो हो सकता
है, जिसने
प्रचार किया
है, उसको
भी भरोसा आ
जाए; कि
इतने लोग
मानते हैं, तो ठीक ही
मानते होंगे।
मैं
बड़ा धनवान, बड़े
कुटुंब वाला
हूं मेरे समान
दूसरा कौन है! मैं
यज्ञ करूंगा,
दान देऊंगा,
हर्ष को
प्राप्त
होऊंगा—इस
प्रकार के
अज्ञान से
आसुरी मनुष्य
मोहित है।
यह कुछ
करने वाला
नहीं है; न वह यश करने
वाला है, न
वह दान देने
वाला है; लेकिन
सोचता है कि
मैं दूंगा।
अच्छी बातें
वह सदा सोचता
है कि मैं
करूंगा, करता
तो सब बुरी
बातें है, लेकिन
सोचता हमेशा
अच्छी बातें
है। इस सोचने
से एक बड़ी
सुविधा हो जाती
है। वह सुविधा
यह है कि उसको
लगता है कि
मैं कोई बुरा आदमी
नहीं हूं।
आप भी
सब यह करते
हैं। अच्छी—अच्छी
बातें सोचते
हैं, करेंगे!
ऐसा सोचने से
खुद को भी
लगने लगता है
कि जब करने की
सोच रहे हैं, तो कर ही रहे
हैं। और देरी
क्या है, आज
नहीं तो कल
करेंगे, लेकिन
करना तो निश्चित
है!
कभी आप
करने वाले
नहीं।
क्योंकि पचास
साल जी चुके, इस पचास
साल में कभी
नहीं किए। आगे
कैसे करेंगे?
कौन करेगा?
आप ही करने
वाले हैं, और
आप रोज टालते
जाते हैं।
बुरे
को आप आज कर
लेते हैं, अच्छे को
सोचते हैं, करेंगे।
उससे मन में
खयाल बना रहता
है कि मैं कोई
बुरा आदमी
नहीं हूं। अगर
मजबूरी की वजह
से थोड़ा बुरा
करना भी पड़ रहा
है, तो यह
तो केवल
अस्थायी है, यह तो
परिस्थितिवश
है। लेकिन भाव
तो मेरा अच्छा
करने का है।
उस भाव के
कारण बुरा
आदमी अपनी
बुराई को झेलने
में समर्थ हो
जाता है। उस
भाव के कारण
बुरा आदमी
बुराई के काटे
को चुभने नहीं
देता। वह भाव
सुरक्षा बन
जाता है।
मैं
यज्ञ करूंगा, दान
करूंगा, हर्ष
को प्राप्त
होऊंगा—इस
प्रकार के
अज्ञान से
आसुरी मनुष्य
मोहित है। यह
उसकी आटो—हिम्मोसिस
है, यह
उसका मोह है।
यह
मोहित शब्द
समझ लेने जैसा
है। मोहित का
अर्थ है कि
ऐसे भाव से वह
अपने को समझा
लेता है। और
जो समझा लेता
है, वैसा
ही हो जाता है।
वह मानने ही
लगता है, धीरे—
धीरे, धीरे—
धीरे, बिना
दान किए मानने
लगता है कि
मैं दानी हूं;
क्योंकि
दान करने का
विचार करता है।
बिना दिए दाता
बन जाता है!
क्योंकि इतनी
बार सोचा है, सोचते—सोचते
हमारे मन में
लकीरें पड़
जाती हैं।
पश्चिम
में एक विचारक
हुआ एमाइल कुए।
वह लोगों को
कहता था, कुछ और करने
की जरूरत नहीं;
जो भी तुम
होना चाहते हो,
उसको सोचो।
अगर तुम
स्वस्थ होना
चाहते हो, तो
निरंतर सोचते
रहो कि मैं
स्वस्थ हो रहा
हूं स्वस्थ हो
रहा हूं? स्वस्थ
हो गया हूं।
इसका
परिणाम होगा।
इसके परिणाम
होते हैं। भला
आप स्वस्थ हों
या न हों, लेकिन आपको
प्रतीति होने
लगती है कि आप
स्वस्थ हो गए।
एक
घटना है, एमाइल कुए
का एक मित्र
एक दिन रास्ते
पर उसे मिला।
तो कुए ने
पूछा कि
तुम्हारी मां
की तबियत अब कैसी
है? तो
उसके मित्र ने
कहा कि अब तो
तबियत बड़ी
खराब है।
बीमारी बढ़ती
जा रही है, बुरी
तरह बीमार है
मेरी मां।
बचने की कोई
उम्मीद नहीं
है। एमाइल कुए
ने कहा, गलत।
यह सिर्फ उसका
खयाल है। यह
खयाल है उसका
कि वह बीमार
है। यह खयाल
मिट जाए, वह
ठीक हो जाएगी।
फिर
कुछ दिन बाद
दुबारा
रास्ते पर
मिलना हुआ, तो एमाइल
कुए ने पूछा
कि अब
तुम्हारी मां
की कैसी हालत
है? तो
उसने कहा, अब
उसका खयाल है
कि वह मर गई है।
पहले खयाल था,
आपने बताया
था, कि
बीमार है। अब
मर गई है, तब
यही समझना
चाहिए कि उसका
खयाल है कि मर
गई है!
अगर आप
एक विचार को
बहुत बार
दोहराते रहे
हैं, तो
उसकी एक
तंद्रा आपके
आस—पास
निर्मित हो
जाती है, वह
सम्मोहन है।
और बुरा आदमी
अपने को
सम्मोहित किए
रहता है भले
विचारों से, हर्ष को
उपलब्ध
होऊंगा, दान
करूंगा......।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला
नसरुद्दीन जब
मरा, तो
उसने वसीयत लिखी।
जब वह वसीयत
लिखवा रहा था,
उसने कहा कि
इतना मेरी
पत्नी को, इतना
मेरे बेटे को,
इतना मेरी
बेटी को।
संपत्ति का विभाजन
किया कि आधा
मेरी पत्नी को,
फिर आधे का
आधा मेरे बेटे
को, फिर
उसके आधे का
आधा लड़की को.....।
यह सब बांटकर
और उसने कहा
कि अब जो भी
बचे, वह
गरीबों को।
वह जो
वकील लिख रहा
था, उसने
कहा कि बचता
तो अब इसमें
कुछ भी नहीं
है! मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा कि बचने
का सवाल ही नहीं
है, वह तो
मुझे पता है।
है तो मेरे
पास कुछ भी
नहीं, इसीलिए
तो कह रहा हूं
आधा मेरी
पत्नी को, संख्या
नहीं लिखवा
रहा हूं। है
तो कुछ भी
नहीं। मिलनो
तो पत्नी को
भी कुछ नहीं
है, बेटे
को भी, लेकिन
मरते वक्त
अच्छे खयाल...।
और फिर जो बच
जाए वह गरीबों
को! और कहा है
धर्मशास्त्रों
में कि अच्छे
खयालों से जो
मरता है, वह
अच्छे लोक को
उपलब्ध होता
है। यह तो
अच्छे खयाल की
बात है।
बुरा
आदमी निरंतर
अच्छे खयाल
सोचता रहता है।
और एक तंद्रा
निर्मित करता
है अपने आस—पास।
बार—बार
पुनरुक्त
करने से सुझाव
भीतर बैठ जाते
हैं। वह सोचता
है, हर्ष
को प्राप्त
होऊंगा, दान
दूंगा, यज्ञ
करूंगा।
लेकिन यह सब
भविष्य, करूंगा।
करता नहीं।
करता इनके
विपरीत है, छीनता है।
अगर आप
चोरी करने जा
रहे हों, और चोरी
करते वक्त आप
सोचें कि हर्ज
क्या है, अमीर
से छीन रहा
हूं गरीब को
बांट दूंगा, दान करूंगा।
तो चोरी का पाप
और जो दंश है, वह मिट जाता
है। फिर आपको
लगता है कि आप
एक काम, एक
धार्मिक काम
ही कर रहे हैं।
अमीर से छीन
रहे हैं, गरीब
को देंगे।
छीन आप
अभी रहे हैं, देने की
बात कल्पना
में है। वह
देना कभी होने
वाला नहीं है।
क्योंकि
छीनने वाला
चित्त देगा
कैसे? वह
मौका लगेगा तो
गरीब से भी
छीन लेगा।
सोचेगा, और
भी गरीब हैं
इससे ज्यादा,
उनको दूंगा।
और आखिर में
वह पाएगा, अपने
से ज्यादा
गरीब कोई भी
नहीं है।
इसलिए जितना
छीन लिया, उसे
अपने काम में
ले आना चाहिए।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन अपने
पड़ोसी के घर
में गया, और उसने कहा
कि क्या आप
कुछ विचार
करेंगे! एक की
विधवा, जो
दस साल से
मकान में रह
रही है और दस
साल से किराया
नहीं चुका पाई
है। और किराया
चुकाने का कोई
उपाय भी नहीं
है। आज उसे
उसका मकान
मालिक मकान के
बाहर निकाल
रहा है। कुछ
सहायता करें।
तो जिससे उसने
सहायता मागी
थी, सोचकर
कि यह बूढ़ा
आदमी बेचारा
उस वृद्धा की
सहायता के लिए
आया है, उसने
कहा, जो भी
आप कहें, मैं
सहायता
करूंगा। कुछ
रुपए उसने दिए।
और उसने कहा, मित्रों को
भी कहूंगा।
लेकिन आप कौन हैं
उस वृद्धा के?
बड़े दयालु
मालूम पड़ते
हैं।
नसरुद्दीन
ने कहा, मैं! मैं
मकान मालिक
हूं। दस साल
से वृद्धा
बिना किराया
दिए रह रही है।
वह सोच
रहा है कि
वृद्धा की
सहायता करने
चला है!
यह जो
हमारा चित्त
है, यह
बड़े प्रवंचक
नुस्खे जानता
है और उनके
उपयोग करता है।
और बहुत दिन
उपयोग करने पर
आपको उनका पता
भी चलना बंद
हो जाता है।
वे
अनेक प्रकार
से अमित हुए
चित्त वाले
अज्ञानीजन
मोहरूप जाल
में फंसे हुए
एवं विषय—
भोगों में
अत्यंत आसक्त
हुए अपवित्र
नरक में गिरते
हैं।
नरक से
कुछ अर्थ नहीं
है कि कहीं
कोई पाताल में
छिपा हुआ कोई
पीड़ागृह है, जहां
उनको गिरा
दिया जाता है।
ये केवल
प्रतीक हैं।
ऐसी भावनाओं
में जीने वाला
व्यक्ति नरक
में गिर ही
गया। वह नरक
में जीता ही
है। उसके भीतर
प्रतिपल आग
जलती रहती है
विषाद की, दुख
की, पीड़ा
की। उसका
संताप गहन है।
क्योंकि
जिसने कभी सुख
न बांटा हो, उसे सुख
नहीं मिल सकता।
और जिसने सदा
दुख ही बांटा
हो, उसे
दुख ही घनीभूत
होकर मिलता है।
वह दुख उस पर
बरसता रहता है।
उस दुख की
वर्षा ही नरक
है।
जो हम
देते हैं, वह हमारे
पास अनतगुना
होकर लौट आता
है। फिर हम
सुख दें तो, हम दुख दें
तो। हम वही
अर्जित कर लेते
हैं, जो हम
बांटते हैं।
ऐसा
व्यक्ति, जो दुख देता
है और सुख
देने की केवल
कल्पना करता
है, वह दुख
पाता है और
सुख की केवल
आशा कर सकता
है। उसे सुख
मिल नहीं सकता।
हमारे
वास्तविक
कृत्य ही
हमारे जीवन
में परिणाम
लाते हैं, वे
हमारी
निष्पत्तिया
हैं। जो हम
करते हैं, वही
हमारी
निष्पत्ति
बनता है।
अगर आप
दुख पा रहे
हैं, तो
आप निरंतर ऐसा
ही सोचते हैं
कि लोग बहुत
बुरे हैं, इसलिए
दुख दे रहे
हैं। आप दुख
इसलिए पा रहे
हैं कि दुख
आपने बांटा है
आज, पीछे, कल और पीछे
कल। आप वही पा
रहे हैं, जो
आपने बांटा है।
बुद्ध
को किसी पागल
आदमी ने मारने
की, हत्या
करने की कोशिश
की, एक
पागल हाथी
उनके ऊपर छोड़ा।
एक पहाड़ के
नीचे बैठकर
ध्यान करते थे,
तो चट्टान
ऊपर से सरकाई।
बुद्ध
के शिष्यों ने
बुद्ध को कहा
कि यह आदमी महान
दुष्ट है।
बुद्ध ने कहा, ऐसा मत
कहो। मैंने
उसे कभी कोई
दुख दिया होगा,
वही दुख मुझ
पर वापस लौट
रहा है। और
मैं इस खाते
को बंद कर
देना चाहता
हूं। इसलिए
उसे चट्टान
गिराने दो; उसे पागल
हाथी छोड़ने दो,
और मैं कोई
प्रतिक्रिया
न करूं, मैं
कुछ भी न कहूं
इस संबंध में
अब, अब इस
चीज को आगे
बढ़ाना नहीं है।
क्योंकि इतना
भी मैं कहूं
कि वह दुष्ट
है, तो फिर
मैं उसे दुख
देने का उपाय
कर रहा हूं।
यह बात भी
उसको चोट
पहुंचाएगी कि
दुष्ट है, ऐसा
मैंने कहा। यह
बात भी उसको
काटा बनेगी, फिर इसका
प्रतिफल होगा।
तो वह जो कर
रहा है, वह
मैंने कुछ
किया होगा, उसका
प्रतिफल है।
और इस खाते को
मैं यहीं
समाप्त कर
देना चाहता हूं।
यह किताब अब
बंद कर देनी
है। उसे कर
लेने दो। और
मैं अब कुछ भी
न करूंगा, कोई
भी
प्रतिक्रिया,
ताकि आगे के
लिए कोई भी
लेन—देन
निर्मित न हो।
जब भी
हमें दुख
मिलता है, हम्
सोचते हैं, लोग हमें
दुख दे रहे
हैं। वह हमारी
भ्रांति है।
कोई आपको
क्यों दुख
देने चला? किसी
को क्या
प्रयोजन है? किसको फुरसत
है? लोगों
को अपना जीवन
जीना है कि
आपको दुख देने
का उपाय करना
है?
नहीं, कहीं कोई
आपने
निर्मिति की
है; कहीं
कोई
प्रतिध्वनि
आपने फेंकी थी,
वह आज वापस
लौट रही है।
उसे इस भाति
जो चुपचाप
स्वीकार कर
लेता है, उसके
दुखों के जो
अतीत के बोझ हैं,
वे कट जाते
हैं और नए बोझ
निर्मित नहीं
होते।
और अगर
कभी आपको कोई
सुख मिलता है, तो भी आप
जानना कि आपने
कोई सुख बांटा
होगा, जाने
या अनजाने, उसका
प्रतिफल है।
अगर हम
अपने सुखों और
दुखों को अपने
ही कर्मों का
प्रतिफल समझ
लें, तो
कर्म का
सिद्धात
हमारी समझ में
आ गया। कर्म
का सिद्धांत
बस सार में
इतना ही है कि
मुझे वही
मिलता है, जो
मैंने किया है।
मैं वही फसल
काटता हूं जो
मैंने बोई है;
अन्यथा कुछ
भी हो नहीं
सकता।
ऐसी
चित्त की दशा
बनती चली जाए, तो आप
धीरे— धीरे
आसुरी संपदा
से मुक्त होकर
दैवी संपदा
में प्रवेश कर
जाएंगे। इससे
विपरीत अपने
को आप आदत
बनाते रहें, तो आसुरी
संपदा में
धीरे— धीरे
थिर हो जाएंगे।
ऐसे थिर हो गए
लोग, कृष्ण
कहते हैं, महानरक
में गिर जाते
हैं।
आज
इतना ही।
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