अध्याय—16
सूत्र—
प्रवृत्तिं
च निवृत्ति च
जना न
विदरासरा:।
न शौचं
नापि चाचारो न
सत्यं तेषु
विद्यते।। 7।।
असत्यमप्रितष्ठं
ते
जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्थरसंभूतं
किमन्यत्काकैक्कुम्।।
8।।
एंता
दृष्टिमवष्टथ्य
नष्टमानोऽल्पबुद्धय:।
प्रभवन्ज्युक्कर्माण:
क्षयाय जगतीऽहिता:।।
9।।
और
हे अर्जुन, आसुरी
स्वभाव वाले
मनुष्य
कर्तव्य—कार्य
में प्रवृत्त
होने को और
अकर्तव्य—कार्य
से निवृत्त
होने को भी
नहीं जानते
हैं। इसलिए उनमें
न तो बाहर—भीतर
की शुद्धि है, न श्रेष्ठ
आचरण है और न
सत्य भाषण ही
है।
तथा
वे आसुरी प्रकृति
वाले मनुष्य
कहते हैं कि
जगत
आश्रयरहित है
और सर्वथा
झूठा है एवं
बिना ईश्वर के
अपने आप
स्त्री—पुरुष
के संयोग से
उत्पन्न हुआ
है। इसलिए जगत
केवल भोगों को
भोगने के लिए
ही है। इसके
सिवाय और क्या
है?
हम
प्रकार इस
मिथ्या—ज्ञान
को अवलंबन
करके नष्ट हो
गया है स्वभाव
जिनका तथा मंद
है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सब
का अहित करने
वाले
क्रूरकर्मी
मनुष्य केवल
जगत का नाश
करने के लिए ही
उत्पन्न
होते हैं।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
आश्चर्य की
बात है कि
पशुओं में
पाखंड या मिथ्याचरण
नाममात्र भी
नहीं है और
आदिवासियों में
भी अत्यल्प है, जब कि
तथाकथित
शिक्षित व
सभ्य समाज में
सर्वाधिक है।
तो क्या
बर्बरता से
सभ्यता की ओर
मनुष्य की लंबी
व कठिन यात्रा
व्यर्थ ही गई?
और तब क्या
आदिवासी व्यवस्था
वरेण्य नहीं
है?
पशुओ में
मिथ्याचरण
नहीं है, पाखंड नहीं
है, इसलिए
नहीं कि पशुओं
की कोई
उपलब्धि है, बल्कि इसलिए
कि पशु असमर्थ
हैं, पाखंडी
हो नहीं सकते,
होने का
उपाय नहीं है,
बुरे होने
की कोई सुविधा
नहीं है; पतित
होने की कोई
संभावना नहीं
है। लेकिन
चूंकि पशु
पतित नहीं हो
सकते, पशु
दिव्यता का
आरोहण भी नहीं
कर सकते। जो
गिर नहीं सकता,
वह ऊपर भी
उठ नहीं सकता।
और जिसके जीवन
में पाप की
संभावना नहीं
है, उसके
जीवन में
परमात्मा की
संभावना भी
नहीं है।
पशु
मूर्च्छित है; प्रकृति
उससे जैसा
कराती है, वह
करता है।
यंत्रवत उसकी
यात्रा है।
उसकी कोई
स्वेच्छा
नहीं है।
इसलिए बुरा भी
पशु कर नहीं
सकता, भला
भी नहीं कर
सकता।
प्रकृति जो
कराती है, वही
करता है। पशु
की अपनी कोई
निजता नहीं है।
इसलिए पशु न
तो असाधु हो
सकता है न
साधु, न
महापापी हो
सकता है न महा
संत। पशु पशु
ही रहेगा।
पशु
पूरा का पूरा
पैदा होता है।
उसकी कोई
स्वतंत्रता
नहीं है कि
अपने को बदल ले, रूपांतरित
कर ले।
स्वभावत:, पशु
पाखंडी नहीं
है, लेकिन
पशु को यह भी
स्मरण नहीं हो
सकता कि वह पाखंडी
नहीं है। और
पाखंड को
छोड़ने से जो
जीवन में
गरिमा आती है,
वह भी पशु
को नहीं हो
सकती।
मनुष्य
की गरिमा यही
है कि वह पाप
कर सकता है, चाहे तो
पाप करना छोड़
सकता है।
छोड़ने की खूबी
है, क्योंकि
करने की
सुविधा है।
जहां आप कर ही
न सकते हों, वहा छोड़ने
का कोई अर्थ
नहीं है।
नपुंसक
ब्रह्मचारी
हो, इसकी
कोई सार्थकता
नहीं है।
ब्रह्मचर्य
की सार्थकता
तभी है, जब
काम में उतरने
की क्षमता हो।
तो मनुष्य के
लिए संभावना
है कि गिर सके,
और मनुष्य
के लिए
संभावना है कि
उठ सके; दोनों
द्वार खुले
हैं। मनुष्य
परिपूर्ण
स्वतंत्रता
है। इसीलिए
जिम्मेवारी
आपकी है। अगर
आप गिरते हैं,
तो आप यह
नहीं कह सकते
कि प्रकृति ने
मुझे गिराया।
आप चाहते तो न
गिरते। आप
चाहते तो रुक
जाते। आप
चाहते तो जिस
शक्ति से आपने
पतन की यात्रा
पूरी की, वही
आपके स्वर्ग
का मार्ग भी
बन सकती थी।
इसलिए मनुष्य
स्वतंत्र है,
और साथ ही
जिम्मेवार है।
पश्चिम का
बहुत बड़ा
आधुनिक
विचारक
सार्त्र मनुष्य
के लिए दो
शब्दों का
उपयोग करता है,
एक है
फ्रीडम, और
दूसरा है
रिस्पासिबिलिटी।
एक है
परिपूर्ण
स्वतंत्रता, और दूसरा है
परिपूर्ण गहन
दायित्व। जो
स्वतंत्र है,
उसका
दायित्व भी है।
जो स्वतंत्र
नहीं, उसका
कोई दायित्व
भी नहीं है।
हम
किसी पशु को
अच्छा नहीं कह
सकते, बुरा
नहीं कह सकते।
जो पशु की दशा
है, वही
छोटे बच्चों
की भी दशा है।
जो पशु की दशा
है, उससे
ही मिलती—जुलती
दशा
आदिवासियों
की है। वे
कितने ही भले
हों, उनके
भलेपन में
बहुत गौरव
नहीं है। वे
चोर न हों, तो
भी हम उन्हें
अचोर नहीं कह
सकते।
क्योंकि अचोर
वे तभी हो
सकते हैं, जब
चोरी करने की
उनको क्षमता
हो, सुविधा
हो, चोरी
करने का
खयाल हो!
जीवन
का जो विकास
है, वह आंतरिक
संयम से संभव
होता है। आप
एक सपाट जमीन
पर चलते हैं।
तो कोई भीड़
आपको देखने
इकट्ठी नहीं
होती, न ही
लोग ढोल बजाकर
आपका स्वागत करते
हैं, न
तालियां
पीटते हैं।
लेकिन आप दो
छतों के बीच
में एक रस्सी
बांधें, फिर
उस रस्सी पर
चलें, तो
सारा गांव
इकट्ठा हो
जाएगा। चलने
में कोई भी
फर्क नहीं है।
जैसा आप जमीन
पर चलते थे, उन्हीं
पैरों से, उसी
ढंग से रस्सी
पर भी चलेंगे।
लेकिन यह भीड़
देखने इकट्ठी
किसलिए हो गई?
क्योंकि अब
गिरने की
संभावना है।
आप गिर सकते
हैं। चलना
कठिन है, गिरना
आसान है। और
गिरने की जो
यह संभावना है
कि हड्डी—पसली
टूट जाए, कि
जीवन भी
समाप्त हो जाए,
इस खतरे को
लेकर आप जब
रस्सी पर चलते
हैं, तो इस
चलने में गौरव
और गरिमा आ
जाती है।
मनुष्य
चौबीस घंटे
रस्सी पर है, पशु सदा
समतल भूमि पर
है। सभ्यता की
खूबी यही है
कि वह आपको
मौका देती है,
गिरने का भी,
उठने का भी।
तो आदिवासी
भले हैं, लेकिन
कोई बुद्ध तो
आदिवासी पैदा
नहीं कर पाते।
कोई रावण भी
पैदा नहीं
होता, कोई
राम भी पैदा
नहीं होता।
दोनों का उपाय
नहीं है।
सभ्यता
सुविधा है, नरक और
स्वर्ग दोनों
तरफ जाने की।
जितना सभ्य
समाज हो, उतनी
सुविधा बढ़ती
जाती है। यह
दूसरी बात है
कि आप सुविधा
का उपयोग नरक
जाने के लिए
ही करते हैं।
यह आपका
निर्णय है।
पर
शायद स्वर्ग
जाने के लिए
नरक जाना भी
जरूरी है। नरक
की पीड़ा का
अनुभव न हो, तो
स्वर्ग के
आनंद का भी
स्मरण नहीं
आता। नरक की
अंधेरी
पृष्ठभूमि
में ही स्वर्ग
की शुभ रेखाएं
खिंचती हैं, उभरती हैं
और दिखाई पड़ती
हैं। वह जो
पीड़ा को भोगता
है, उसे
आनंद की खोज
भी पैदा होती
है।
इसलिए
जिनको हम
साधारणत: भले
आदमी कहते हैं, उनके जीवन
में कुछ नमक
नहीं होता; उनके जीवन
में कुछ स्वाद
नहीं होता।
स्वाद तो उस
आदमी के जीवन
में होता है, जिसने बुरा
होना भी जाना
है, और फिर
भला होना भी
जाना है। उसके
जीवन में एक
संगीत होता है,
एक गहराई
होती है, एक
ऊंचाई होती है।
साधारणत:
कोई आदमी भला
है, न
उसने कभी कुछ
बुरा किया है,
न कभी कोई
पाप किया है, न कभी अपराध
में उतरा है, न कभी भटका
है रास्ते से,
उस आदमी के
जीवन में बहुत
संगीत नहीं
होता। उस आदमी
के जीवन में
इकहरा स्वर
होता है।
उसमें न रस
होता है, न
रहस्य होता है,
न गहराई
होती है, न
ऊंचाई होती है।
उपन्यासकार
कहते हैं कि
साधारण अच्छे
आदमी के जीवन
पर कोई कहानी
नहीं लिखी जा
सकती। अच्छे
आदमी की कोई
कहानी होती ही
नहीं। कहानी
के लिए बुरा
आदमी चाहिए।
और कहानी गहरी
हो जाती है, अगर बुरा
आदमी बुराई को
पार करके
अच्छाई में उतर
जाए। तब कहानी
बड़ी
रहस्यपूर्ण
हो जाती है; और कहानी
में एक स्वाद
आ जाता है, एक
चुनौती, एक
उड़ा ऊंचाई, एक पुकार
दूर की।
पापी
के जीवन में
कथा होती है।
और अगर पापी
संत हो जाए, तो उससे
ज्यादा जटिल
और
रहस्यपूर्ण
कथा फिर किसी
के जीवन में
नहीं होती
थामसमन
ने एक अदभुत
किताब लिखी है।
किताब का नाम
है, दि
होली सिनर, पवित्र पापी।
तो जहां
पवित्रता और
पाप दोनों घट
जाते हैं, उस तनाव
में, रस्सी
जैसे दो
खाइयों के बीच
खिंच जाती है,
और उस रस्सी
पर जो संतुलन
को साध पाता
है, वह
गौरव के योग्य
है। सभ्यता
सुविधा देती
है गिरने की, सभ्यता
सुविधा देती
है उठने की।
नहीं, आदिवासीपन
वरेण्य नहीं
है, वरेण्य
तो सभ्यता ही
है। लेकिन
सभ्यता
विकल्प देती
है। सभ्यता
वरेण्य है, और फिर
सभ्यता के
विकल्पों में
स्वर्ग की तरफ
जाने की
यात्रा
वरेण्य है।
अगर आप साधारण
भले आदमी हैं,
तो आप यह मत
समझना कि जीवन
आपकी कोई
उपलब्धि बन
रहा है। आप
कुनकुने— कुनकुने
जी रहे हैं।
जीवन में कोई
अति नहीं है।
और अति न होगी,
तो जीवन में
कोई आनंद की
पुलक, कोई
इक्सटैसी, कोई
समाधि की दशा
भी पैदा नहीं
होगी।
नीत्से
ने एक बहुत
महत्वपूर्ण
वचन लिखा है।
उसने लिखा है, जिस
वृक्ष को आकाश
की ऊंचाई छूनी
हो, उसे
अपनी जड़ें
पाताल की गहराई
तक भेजनी पड़ती
हैं। अगर
वृक्ष डरता हो
कि अंधेरी
जमीन में कहां
जड़ों को भेजूं
तो फिर उसकी
शाखाएं भी
आकाश में न जा
सकेंगी।
जितनी ऊंचाई
वृक्ष की ऊपर
होती है, उतनी
नीचाई वृक्ष
की नीचे होती
है; समान
होता है। जड़ें
उतनी ही गहरी
जानी जरूरी
हैं, जितना
वृक्ष को ऊपर
उठना हो। जो
वृक्ष चार—चार
सौ फीट ऊपर
उठते हैं आकाश
को छूने की
आकांक्षा से,
वे चार सौ
फीट नीचे जमीन
में अपनी जड़ों
को भी भेजते
हैं।
यही
नियम मनुष्य
का भी है।
जितने दूर तक
गिरने का
रास्ता है, उतने ही
दूर तक उठने
का उपाय है।
गिरने के
रास्ता का यह
अर्थ नहीं है
कि आप गिरे ही।
पर वह संभावना
रहनी चाहिए।
गिर सकते हैं।
गिर सकते हैं,
यह संभावना
आपको संतुलन
देगी। आप
प्रतिपल अपने
को
सम्हालेंगे।
उस सम्हालने
में ही आपकी
आत्मा का
जागरण है। गिर
ही न सकते हों,
तो फिर सो
जाएंगे, फिर
न कोई चुनौती
है, न कोई
जागरण है।
दूसरा
प्रश्न : रात
आपने बड़ी
निराशाजनक
बात कही कि
संसार शायद
सदा के लिए
अज्ञान, दुख व संताप
में जीने के
लिए अभिशप्त
है। तो क्या
धर्म विरले
व्यक्तियों
के लिए संसार छोड्कर
परमात्मा या
शून्य में
विलीन होने के
लिए निमंत्रण
मात्र है?
निराशाजनक
मालूम हो सकती
है, निराशाजनक
है नहीं। अगर
कोई कहे कि
अस्पताल सदा
ही बीमारों से
भरा रहेगा, तो इसमें
निराशाजनक
बात क्या है? अस्पताल है
ही इसलिए।
निराशाजनक तो
बात तब होगी, जब अस्पताल
में हम स्वस्थ
आदमियों को
भरने लगें। और
जैसे ही कोई
व्यक्ति
स्वस्थ हो
जाएगा, अस्पताल
से मुक्त होना
पड़ेगा।
अस्पताल का
प्रयोजन यही
है कि बीमार
वहां हो।
इसमें निराशा
की कौन—सी बात
है? इसमें
अस्पताल की
निंदा नहीं है।
अस्पताल
चिकित्सा की
जगह है। वहा
बीमार के लिए
स्थान है, वहां
स्वस्थ का कोई
प्रयोजन नहीं
है। और जैसे
ही कोई स्वस्थ
हुआ कि
अस्पताल से
बाहर हो जाएगा।
संसार
को भारत
अस्पताल से
भिन्न नहीं
मानता, वह अस्वस्थ
चित्त की जगह
है। वहां
आत्मा हमारी
बीमार है, इसलिए
हम हैं। जैसे
ही आत्मा
स्वस्थ होगी,
हमें संसार
से बाहर हो
जाना पड़ेगा।
इसलिए यह कोई
अभिशाप नहीं
है कि संसार
सदा ही विक्षिप्त
रहेगा। जब तक
विक्षिप्त
आत्माएं हैं,
तब तक संसार
रहेगा, यह
बात पक्की है।
जब तक बीमार
हैं, तब तक
अस्पताल
रहेगा। बीमार
नहीं होंगे, अस्पताल खो
जाएगा।
यह
संसार के लिए
कोई अभिशाप
नहीं है, यह संसार का
स्वभाव है; यह संसार की
नियति है। हम
गलत हैं, इसलिए
हम वहां हैं।
वह एक बड़ा
शिक्षण का
स्थल है, एक
बड़ा
विश्वविद्यालय
है। वहां जैसे—जैसे
हम ठीक होंगे,
वैसे—वैसे
हम बाहर फेंक
दिए जाएंगे।
जैसे—जैसे
संतत्व
उभरेगा, आप
संसार में
होकर भी संसार
में नहीं
होंगे। फिर
जैसे—जैसे
संतत्व
पूर्णता को
पहुंचेगा, आप
पाएंगे कि अब
संसार में
होना आपका स्वप्नवत
रह गया। अगर
इस पूर्णता को
उपलब्ध करके
आप मर गए, मरेंगे,
शरीर
छूटेगा, तो
फिर दुबारा
लौटने का उपाय
न रह जाएगा।
इसलिए
बुद्ध पुरुष
बुद्धत्व के
बाद वापस नहीं
लौट सकता। एक
जन्म, जब
वह बुद्धत्व
को प्राप्त
करता है, तब
टिकेगा, लेकिन
नए शरीर को
ग्रहण करने का
उपाय नहीं है।
नए शरीर को
ग्रहण करने का
अर्थ होता है,
संसार में
वापस लौटने का
उपाय। वह वाहन
है, जिससे
हम संसार में
वापस आते हैं।
उसका कोई
प्रयोजन न रहा,
क्योंकि
शरीर से जो
सीखा जा सकता
था, सीख
लिया गया। और
संसार में जो
जाना जा सकता
था, वह जान
लिया गया, और
संसार में कुछ
पाने को न बचा।
इसको
ऐसा समझें कि
विश्वविद्यालय
अशिक्षित लोगों
के लिए है। यह
कोई अभिशाप
नहीं है।
क्योंकि जैसे
ही कोई
शिक्षित होगा, विश्वविद्यालय
के बाहर हो
जाएगा।
अशिक्षित ही
विश्वविद्यालय
में होगा।
जैसे ही
शिक्षा पूरी
हुई कि
विश्वविद्यालय
का अर्थ खो
जाता है। और
अगर किसी
विद्यार्थी
को बार—बार
विश्वविद्यालय
में लौटना
पड़ता है, तो
उसका अर्थ ही
यह है कि वह
उत्तीर्ण
नहीं हो पा
रहा है।
निराशाजनक
बात नहीं, संसार का
तथ्य यही है।
दूसरी
बात, तो
क्या धर्म
संसार छोड्कर
परमात्मा या
शून्य में
विलीन होने के
लिए कुछ विरले
व्यक्तियों के
लिए निमंत्रण
मात्र है? नहीं,
सभी के लिए
निमंत्रण है,
विरले उसको
स्वीकार करते
हैं, यह
दूसरी बात है।
निमंत्रण
सार्वजनिक है।
धर्म सभी के
लिए है।
स्वस्थ होने
की संभावना
सभी के लिए है।
लेकिन जो
स्वस्थ होने
की प्रक्रिया
से गुजरेंगे,
जो साधना का
पथ लेंगे, वे
विरले मुक्त
हो पाएंगे।
तीसरी
बात, धर्म
कोई पलायन
नहीं है और न
संसार को
छोड्कर शून्य
में खो जाना
है। धर्म की
दृष्टि में तो
संसार शून्य
है, स्वप्नवत
है, पानी
का बबूला है।
इस शून्यवत को
छोड्कर सत्य
में प्रवेश कर
जाने का
निमंत्रण है।
लेकिन
अगर हम बीमार
आदमी से कहें
कि जब तक तू सारी
बीमारियां न
छोड़ देगा, तब तक
अस्पताल से
बाहर न जाने
देंगे। तो वह
कहेगा आप मुझे
शून्य होने के
लिए मजबूर कर
रहे हैं! सभी
बीमारियां
छोडनी पडेंगी?
तो फिर मेरे
पास बचेगा
क्या? तो मैं
शून्य हो
जाऊंगा?
बीमार
के पास
बीमारियों के
सिवाय और कोई
संपदा नहीं है; उसने
स्वास्थ्य
कभी जाना नहीं
है। निश्चित
ही, बीमारियां
छूटें, तो
स्वास्थ्य का
जन्म होगा।
धर्म
की भाषा लगती
है शून्यवादी
है। क्योंकि
धर्म कहता है, यह छोड़ो,
यह छोड़ो, यह छोड़ो।
क्योंकि हम
बीमारियां
पकड़े हुए हैं,
इसलिए
छोड़ने पर इतना
जोर है, त्याग
की इतनी
उपादेयता है।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं है
कि हम शून्य
में खो जाएंगे।
बीमारियां
शून्य में खो
जाएंगी; हम
तो पूर्ण को
उपलब्ध हो
जाएंगे। और
जिस दिन आप सब
छोड़ देते हैं
वह जो गलत था, उस दिन जो
सही है, उसका
आपके भीतर उदय
होता है। उस
दिन दीया जलता
है।
उस दिन
आप यह न
कहेंगे कि
अंधेरा छोड़
दिया, अब
शून्य हो गए।
अंधेरा छोड़ा,
प्रकाश जला।
वह जो प्रकाश
का जलना है, वह उपलब्धि
है।
लेकिन
जिसने अंधेरा
ही जाना हो, वह शायद
यही समझेगा कि
सब छूट गया, सब खो गया, सब नष्ट हो
गया, कुछ
भी न बचा। हाथ
में लकड़ी थी, अंधेरे में
टटोलते थे, वह भी छूट गई,
अंधेरा भी
छूट गया।
टकराते थे—उस
टकराने को लोग
जिंदगी समझते
हैं—जगह—जगह
ठोकर खाते थे।
अब कोई ठोकर
नहीं लगती; जगह—जगह
टकराते नहीं।
हाथ की लकड़ी
छूटी, अंधेरा
छूटा, सब
छूट गया।
प्रकाश
की जो उपलब्धि
हुई है, वह धीरे से
समझ में आएगी,
कि जो छूटा,
वह छूटने
योग्य था, छोड़ने
योग्य था, छोड़
ही देना था
कभी का उसे।
इतने दिन
खींचा यही
आश्चर्य है।
लेकिन
प्राथमिक रूप
से लगेगा कि
धर्म शून्य में
ले जाता है।
जो आपके पास
है, उसे
छीनता है, इसलिए
लगता है कि
शून्य में ले
जाता है। और
जिसका आपको
पता नहीं है, उस शून्यता
से उस पूर्ण
का उदय होता
है।
धर्म
आपको खाली
करता है, ताकि आप
परमात्मा से
भर सकें। आपको
मिटाता है, ताकि आपके
भीतर जो नहीं
मिटने वाला
तत्व है, केवल
वही शेष रह
जाए। आपको जलाता
है, ताकि
कचरा जल जाए, केवल स्वर्ण
बचे। आपकी
मृत्यु में ही
आपके परमात्म—स्वरूप
का जन्म है।
और
ध्यान रहे, यह
निमंत्रण
विरले लोगों
के लिए नहीं
है! निमंत्रण
सबके लिए है, लेकिन विरले
इसे स्वीकार
करते हैं। क्योंकि
निमंत्रण बड़ा
कठिन है।
यात्रा दुरूह
है, बड़ी
लंबी है। उतनी
देर तक
सातत्य को
बनाए रखना, धैर्य को
रखना, बहुत
थोड़े लोगों की
क्षमता है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
कितने दिन
ध्यान करें तो
आत्मा उपलब्ध
हो जाएगी?
कितने
दिन! और ऐसा
लगता है उनकी
बात से कि
काफी कृपा कर
रहे हैं!
कितने दिन? और दो —चार
दिन कोई ध्यान
कर लेता है, तो वह मुझे
लौटकर कहता है
कि अभी तक
परमात्मा के
दर्शन नहीं
हुए!
विरले
स्वीकार कर
पाते हैं, क्योंकि
धैर्य की कमी
है। और सातत्य
थोड़े दिन भी
बनाए रखना
मुश्किल है।
आज करते हैं, कल छूट जाता
है। दो—चार
दिन करते हैं,
हजार बहाने
मन खोज लेता
है न करने के।
और दो—चार दिन
में मन कहने
लगता है, इतना
समय नष्ट कर
रहे हो! इतने
में तो न
मालूम कितना
कमाया जा सकता
था। न मालूम
क्या—क्या कर
लेते। यह
प्रार्थना, यह पूजा, यह
ध्यान, यह
समय का अपव्यय
मालूम होता है।
हमारी
दशा उन छोटे
बच्चों जैसी
है, जो
आम की गुठली
को जमीन में
गड़ा देते हैं।
फिर घडीभर बाद
जाकर उघाड़कर
देखते हैं, पौधा आया या
नहीं? फिर
घडीभर बाद
जाकर खोदकर
देखते हैं।
अगर हर घड़ी
गुठली को
खोदकर देखा
गया, तो
पौधा कभी भी न
आएगा।
क्योंकि
गुठली को मौका
ही नहीं मिल
रहा है कि वह
जमीन के साथ
एक हो जाए, टूट
जाए, मिट
जाए, खो
जाए। गुठली
मिटे, तो
पौधे का जन्म
हो।
और जो
उसे हर घड़ी
खोदकर देख रहा
है, वह
मौका ही नहीं
दे रहा है।
गुठली गुठली
ही बनी रहेगी।
और तब उसका
तर्क कहेगा, फिजूल है यह
बात। महीनों
से देख रहा
हूं गुठली गड़ा
रहा हूं उखाड़
रहा हूं? कुछ
पौधा—वौधा आता
नहीं। झूठी
हैं ये बातें।
ये कृष्ण और
बुद्ध और
क्राइस्ट जो
कहते हैं, सब
कपोल—कल्पित
है। यह गुठली
पत्थर है, इसमें
कुछ पौधा है
नहीं, इससे
पौधा कभी आ
नहीं सकता।
और तब
यह तर्क ठीक
भी मालूम पड़ता
है। क्योंकि
महीनों का
अनुभव यह कहता
है कि रोज तो
देख रहे हैं, कहीं से
जरा—सी भी तो
अंकुर के
फूटने की कोई
संभावना नहीं दिखाई
पड़ती। गुठली
वैसी की वैसी
है। यह पत्थर
है। न कोई
आत्मा है भीतर,
न कोई पौधा
है, न कोई
फूल छिपे हैं।
तब हम गुठली
को फेंक देते
हैं। धीरज की
जरूरत है। और
जब आम की
गुठली के लिए
महीनों की
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है,
तो आपकी
गुठली तो
जन्मों—जन्मों
से सख्त है।
वह पथरीली हो
गई है। उसे
पिघलाने में
वक्त लगेगा, श्रम लगेगा,
सतत चोट
करनी पड़ेगी।
और तभी आपको
पता चलेगा कि
कृष्ण और
बुद्ध कल्पना
की बात नहीं
कर रहे हैं, वह उनका
अनुभव है।
उनकी गुठली
टूटी और
उन्होंने
वृक्ष को बढ़ता
हुआ देखा। उस
वृक्ष की
सुगंध
उन्होंने
अनुभव की, उस
वृक्ष के फूल
उन्होंने पाए।
उनका जीवन
कृतकृत्य हुआ
है।
लेकिन
चूंकि बहुत
थोड़े लोग इतनी
दूर तक जाने को
राजी होते हैं, इसलिए
धर्म विरले
लोगों के लिए
रह जाता है।
आमंत्रण सभी
के लिए है।
तिब्बत
में एक बहुत
प्राचीन कथा
है। एक दूर
पहाड़ों में
छिपा हुआ नया
आश्रम निर्मित
हुआ। तो जिस
प्रधान आश्रम
से उस आश्रम
का संबंध था, उस
लामासरी का
संबंध था, उस
लामासरी ने सौ
लोगों का
चुनाव किया जो
जाकर उस आश्रम
को
सम्हालेंगे।
तो एक युवक
शिष्य ने पूछा,
लेकिन सौ की
वहां जरूरत नहीं
है। वहां तो
पांच से काम
चल जाएगा। तो
गुरु ने कहा, सौ को बुलाओ,
तो दस तो
आते हैं। दस
को भेजो, तो
पांच पहुंच
पाते हैं। और
इतने भी पहुंच
जाएं, तो
भी काफी है।
धर्म
तो सभी को
बुलाता है।
लेकिन सौ को
बुलाओ, तो नब्बे को
तो सुनाई ही
नहीं पड़ता
निमंत्रण।
क्योंकि हमें
वही सुनाई
पड़ता है, जिसे
सुनने को हम
आतुर हैं।
हमें सभी
चीजें सुनाई
नहीं पड़ती।
अभी
मैं यहां बोल
रहा हूं। यदि
आप मुझमें
आतुर हैं, तो मैं जो
कह रहा हूं वह
सुनाई पड़ता है।
लेकिन और बहुत—सी
आवाजें चारों
तरफ चल रही
हैं, वे
आपको सुनाई
नहीं पड़ती।
टेप रिकार्डर उनको
भी पकड़ लेगा, क्योंकि टेप
रिकार्डर का
कोई चुनाव
नहीं है। जब
आप टेप
सुनेंगे, तब
आप हैरान
होंगे कि ये
इतनी आवाजें—कोई
पक्षी बोला, कुत्ता
भौंका, हवाई
जहाज गया, ट्रेन
आई—यह सब पकड़
रहा है। उसका
कोई चुनाव
नहीं है। और
अगर आप भी सब
पकड़ रहे हैं, तो उसका
मतलब यह है कि
आप भी चुन
नहीं रहे हैं।
जो हम
चुनते हैं, वह हमें
सुनाई पड़ता है;
जो हम चुनते
हैं, वह
हमें दिखाई
पड़ता है। अगर
आप चोर हैं, तो रास्ते
से गुजरते
वक्त आपको कुछ
और दिखाई पड़ेगा,
जो साहूकार
को दिखाई नहीं
पड़ सकता। अगर
आप चमार हैं, तो रास्ते
से गुजरते
वक्त आपको
लोगों के जूते
दिखाई पड़ेंगे,
उनकी
टोपियां
दिखाई नहीं पड़
सकतीं। अगर आप
दर्जी हैं, तो उनके
कपड़े दिखाई
पड़ेंगे, उनके
चेहरे दिखाई
नहीं पड़ सकते।
आपकी जो रुझान
है, वही
दिखाई पड़ता है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
सौ घटनाएं घट
रही हैं, उनमें से हम
केवल दो को
पकड़ते हैं, अट्ठानबे
छूट जाती हैं।
उनसे हमारा
कुछ लेना—देना
नहीं है।
हमारा कोई
प्रयोजन नहीं
है।
आप एक
रास्ते से
गुजरें; सैकड़ों
वृक्ष लगे हैं।
एक चित्रकार
गुजरे उसी
रास्ते से, तो उसे हर
वृक्ष की
हरियाली अलग
दिखाई पड़ती है।
क्योंकि हर
वृक्ष अलग ढंग
से हरा है।
हरा कोई एक
रंग नहीं है, हरे में
हजार रंग हैं।
पर वह सिर्फ
चित्रकार को
दिखाई पड़ता है,
जिसको
रंगों की सूझ
है, जिसको
रंगों में
झुकाव है, जिसे
रंगों में रस
है। आपको सब
वृक्ष एक जैसे
हरे हैं।
आपको
वही दिखाई
पड़ता है, जो आप देखने
चले हैं। जो
आप खोजने
निकले हैं, उसकी पुकार आपको
सुनाई पड़ जाती
है।
एक
रास्ते से दो
फकीर गुजर रहे
थे। चर्च में
घंटियां बजने
लगीं। तो एक
फकीर ने कहा..।
बाजार था, बड़ा
शोरगुल था।
चीजें ली जा
रही हैं, खरीदी
जा रही हैं, बेची जा रही
हैं, गाड़ियों
से उतारी जा
रही हैं, चढ़ाई
जा रही हैं।
बड़ा शोरगुल था
वहा; चर्च
की घंटी का
सुनाई पड़ना
मुश्किल था।
एक फकीर ने
चर्च की घंटी
सुनते ही कहा,
हम जल्दी
चलें, प्रार्थना
का समय हो गया,
घंटी बज रही
है। उस दूसरे
फकीर ने कहा, तुम भी
अदभुत हो, इस
शोरगुल में, इस उपद्रव
में तुम्हें
चर्च की घंटी
सुनाई पड़ गई! यहां
किसी को सुनाई
नहीं पड़ रही
है। उसने कहा,
यहां भी कुछ
चीजें सुनाई
पड़ती हैं।
उसने एक रुपया
खीसे से
निकाला और सड़क
पर गिरा दिया।
खन्न की आवाज
हुई, पूरा
बाजार देखने
लगा।
वे सब
रुपए को सुनने
को आतुर लोग
हैं। चर्च की
घंटी बज रही
थी, किसी
के कान पर चोट
न पड़ी। सब
चौंक गए; सब
ने आस—पास देखा।
वे सब रुपए की
तलाश में
निकले हुए लोग
हैं। रुपए की
आवाज सुनाई पड़
जाएगी, चर्च
की घंटी खो
जाएगी। चाहे
चर्च की घंटी
जोर से बज रही
हो, तो भी
खो जाएगी।
एक मां
सो रही हो, रात
तूफान हो, बादल
गरज रहे हों, उसे सुनाई
नहीं पड़ेगा।
उसका छोटा—सा
बेटा रात जरा—सा
कुनमुना दे, जरा—सा रो दे,
वह जग जाएगी।
सौ को
बुलाओ, नब्बे को
सुनाई नहीं
पड़ता। जिन दस
को सुनाई पड़ता
है, उनमें
से भी शायद
पाच समझ न
पाएंगे। सुन
भी लेंगे, तो
भी पकड़ न
पाएंगे। सुन
भी लेंगे, तो
भी उनकी आत्मा
के भीतर कोई
झंकार पैदा न
होगी, कोई
प्रतिध्वनि न
होगी। सुनेंगे
कान से, बात
खो जाएगी; कोई
चोट न पड़ेगी
कि जो सुना है,
वह उन्हें
रूपांतरित कर
दे। पांच
सुनेंगे, समझेंगे।
शायद उनमें से
एक, जो
उसने
सुना है और
समझा है, उसे करेगा
भी। चार सुन
लेंगे, समझ
लेंगे, पंडित
हो जाएंगे। सौ
के साथ मेहनत
करो, कभी
कोई एक यात्रा
पर जा पाता।
धर्म
का निमंत्रण
सबके लिए है, लेकिन
विरले उसे सुन
पाते हैं।
तीसरा
प्रश्न : गीता
कहती है कि
दैवी संपदा
मुक्त करती है
और आसुरी
संपदा बांधती
है। इस संदर्भ
में क्या
बताएंगे कि
बंधन क्या है और
मुक्ति क्या
है?
चित्त की ऐसी
दशा, जहां
कोई संताप न
हो, जहां
कोई सीमा का
अनुभव न हो, जहां कोई
सीमांत न आता
हो; चित्त
की ऐसी दशा, जैसे खुला
आकाश हो, कोई
दीवारें
चारों तरफ से
घेरने को नहीं,
कोई पीड़ा की
रेखा नहीं, क्योंकि सब
पीड़ा की
रेखाएं घेरती
हैं, बंद
करती हैं; आनंद
खोलता है, फैलाता
है, जहां
चित्त की दशा
फैलती हो।
हमारा
जो शब्द है, इस देश
में जो हम
उपयोग करते
हैं परम
स्थिति के लिए,
वह ब्रह्म
है। ब्रह्म का
अर्थ होता है,
जो फैलता ही
चला जाता है, एक्सपैंडिंग,
इनफिनिटली
एक्सपैंडिंग,
जो फैलता ही
चला जाता है, विस्तार
जिसका
गुणधर्म है।
एक
कंकड़ को फेंक
दें पानी में, लहर उठती
है, फैलती
चली —जाती है।
अगर पानी असीम
हो, तो वह
लहर फैलती ही
चली जाएगी; किनारा होगा,
तो टूट
जाएगी, किनारे
पर जाकर बिखर
जाएगी। अगर
कोई किनारा न
हो, तो
फैलती ही चली
जाएगी। आनंद
का कोई किनारा
नहीं है, क्योंकि
इस अस्तित्व
का कोई किनारा
नहीं है।
यह जो
आकाश हमें
दिखाई पड़ता है, यह कहीं
है नहीं, यह
सिर्फ हमारी आंखों
की देखने की
क्षमता कम है।
जहां तक आंखें
देख पाती हैं,
वहीं आकाश
हमें बंद होता
मालूम होता है,
अन्यथा
आकाश कहीं भी
नहीं है। आकाश
का अर्थ है, जो है ही
नहीं। अनंत
फैलाव है। इस
फैलाव की कोई
सीमा नहीं है।
जब
चेतना ऐसी
अवस्था में
होती है कि
उसमें उठते
हुए आनंद की
तरंगें फैलती
ही चली जाती
हैं, कहीं
कोई किनारा नहीं
है, तब
मुक्त क्षण है,
तब मुक्ति
है। और जब
चेतना
तड़फड़ाती है, और एक भी लहर
नहीं फैल पाती,
और सब तरफ
दीवारें आ
जाती हैं; जहां
बढ़ते हैं, वहीं
बंधन आ जाता
है, वहीं
लगता है पैर
में जंजीरें हैं,
आगे नहीं जा
सकते, उस
दशा का नाम
बंधन है।
कई प्रकार
से हमें बंधन
का अनुभव होता
है। कितने ही प्रसन्न
होते हों हम, शरीर की
सीमा बंधी है।
शरीर कभी
स्वस्थ है, कभी अस्वस्थ
है, कभी
जवान है, कभी
बूढ़ा है, कभी
प्रफुल्लित
है, कभी
उदास है। उसकी
सीमा आपके ऊपर
बंधी है। अगर
शराब डाल दी
जाए शरीर में,
तो आपकी
चेतना भी उसी
के साथ बेहोश
हो जाती है।
शरीर से रक्त
निकाल लिया
जाए, तो
उसी के साथ
आपकी चेतना भी
दीन—हीन हो
जाती है। शरीर
जीर्ण—जर्जर,
का हो जाए, उसी के साथ
आप भी भीतर
झुक जाते हैं
और टूट जाते हैं।
शरीर की सीमा
खड़ी है।
दूर
जरा आगे देखें, तो मौत की
सीमा खड़ी है।
मरना होगा, मिटना होगा।
और प्रतिपल
हजार तरह की
सीमाएं हैं।
क्रोध की, घृणा
की, मोह की,
लोभ की
सीमाएं हैं।
सब तरफ से
बांधे हुए हैं।
यह जो अवस्था
है, यह
बंधन की
अवस्था है।
कृष्ण
कहते हैं, आसुरी
संपदा का अर्थ
है, इस तरह
की संपत्ति को
बढ़ाना और
इकट्ठा करना,
जिसमें हम
बंधते हैं, जिसमें हम
खुलते नहीं, उलटे उलझते
हैं। दैवी
संपदा का अर्थ
है, ऐसी
संपदा, जो
इन बंधनों को
तोड़ती है।
ध्यान
करें, अगर
आप लोभ से भरे
हैं, तो
आपको हर जगह
सीमा मालूम
पड़ेगी। कितना ही
धन आपके पास
हो, लगेगा
कम है। लोभी
मन को कभी ऐसा
लग ही नहीं
सकता कि मेरे
पास ज्यादा है।
सोचें
इसको आप, लोभी मन को
कभी लग ही
नहीं सकता कि
मेरे पास ज्यादा
है; उसे
सदा लगेगा, मेरे पास कम
है। कितना ही
हो, तो लोभ
सीमा बन जाएगी।
अरब रुपए आपके
पास हों, तो
भी लगेगा कम
हैं, क्योंकि
दस अरब हो
सकते थे।
अलोभ
की कोई सीमा
नहीं है।
क्योंकि
अलोभी
व्यक्ति को
सदा लगेगा कि
जो भी मेरे
पास है, वह भी
ज्यादा है, वह भी न हो, तो भी कुछ
हर्ज न था।
अगर अलोभ पूरा
हो जाए, तो
आपकी सीमा मिट
गई।
तो लोभ
आसुरी संपदा
है, अलोभ
दैवी संपदा है।
क्रोधी
व्यक्ति को
प्रतिपल सीमा
है; जहां
देखेगा, वहीं
से क्रोध
पकड़ता है। जो
करेगा, वहीं
उपद्रव, झगड़ा
और कलह खड़ा हो
जाता है।
अक्रोधी
व्यक्ति के
लिए कोई सीमा
नहीं है। वह
जहां से भी
गुजरता है, वहीं मैत्री
पैदा हो जाती
है। तो क्रोध
आसुरी हो
जाएगा, अक्रोध
दैवी हो जाएगा।
भयभीत
व्यक्ति को हर
पल खतरा है।
मैं एक
गांव में रहता
था। तो मेरे
सामने एक
सुनार रहता था, बहुत
भयभीत आदमी।
मैं अक्सर
अपने दरवाजे
पर बैठा रहता,
तो उसको बड़ी
अड़चन होती।
क्योंकि शाम
को वह घर से
निकलता, अकेला
ही था, तो
ताला लगाएगा;
हिलाकर
ताले को
देखेगा दो—चार
बार। चूंकि
मैं सामने
बैठा रहता, तो उसको बड़ा
संकोच लगता।
तो मैं आंख
बंद कर लेता।
वह हिलाकर
देखेगा। फिर
वह दस कदम
जाएगा, फिर
लौटेगा।
पसीना—पसीना
हो जाएगा :
क्योंकि उसको
लग रहा है कि
मैं देख रहा
हूं। फिर आएगा,
फिर ताले को
खटखटाका।
मैंने
उससे पूछा कि
तू एक दफे
इसको ठीक से
खटखटाकर
देखकर क्यों
नहीं जाता? कभी दो
दफा, कभी
तीन दफा! वह
कहता, शक आ
जाता है। दस
कदम जाता हूं, फिर यह होता
है, पता
नहीं, मैंने
ठीक से हिलाकर
देखा कि नहीं
देखा!
अब यह
भयभीत आदमी है।
यह बाजार भी
चला जाएगा, तो भी
बाजार पहुंच
नहीं पाएगा, इसका मन
इसके ताले में
अटका है। जो
चार दफा लौटकर
देखता है
हिलाकर, वह
कितनी ही बार
देख जाए, क्योंकि
जो संदेह एक
बार हिलाने के
बाद आ गया, वह
दुबारा क्यों
न आएगा? तिबारा
क्यों न आएगा?
यह जो
भयभीत चित्त
है, यह न
रात सो सकता
है, न दिन
ठीक से जग
सकता है। यह
चौबीस घंटे
डरा हुआ है, सारा जगत
दुश्मन है।
तो भय
आसुरी संपदा
है, बांधती
है। अभय मुक्त
करता है, तो
वह दैवी संपदा
है।
मुक्त
करने से केवल
इतना ही अर्थ
है कि जिससे आप
पर सीमा न
पड़ती हो, आप खुले
आकाश में
पक्षी की तरह
उड़ सकते हों।
जिन—जिन
चीजों से आपके
चित्त पर सीमा
पड़ती है, वहीं से
आपका कारागृह
निर्मित होता
है। और हम ऐसे
पागल हैं कि
हम उनकी जड़ों
को सींचते हैं,
हम मजबूत
करते हैं।
क्योंकि जो
जंजीरें हैं,
शायद हम
सोचते हैं कि
वे आभूषण हैं।
हम उन्हें
बचाते हैं।
कोई अगर तोड़ना
चाहे, तो
हम नाराज
होंगे। कोई
हमारी
जंजीरें
हटाना चाहे, तो हम उसे
दुश्मन
समझेंगे।
क्योंकि
उन्हें हमने
जंजीरें कभी
समझा नहीं; वे कीमती
आभूषण हैं, जो हमने बड़ी
कठिनाई से
अर्जित किए
हैं।
जब तक
कोई व्यक्ति
अपनी जंजीरों
को आभूषण समझता
है, तब
तक उसकी
मुक्ति का
द्वार बंद ही
रहेगा। जब आप
अपने आभूषणों
को भी बंधन
समझने लगेंगे,
तभी मुक्ति
के द्वार पर
पहली चोट पड़ती
है।
तो
प्रत्येक
व्यक्ति को
निरीक्षण
करते रहना चाहिए, उठते—बैठते,
सुबह—सांझ,
कौन—सी चीज
मेरी सीमा बन
रही है। सीमा
के अतिरिक्त
और कोई आपका
दुश्मन नहीं
है और असीम के
अतिरिक्त कोई
और आपका मित्र
नहीं है। तो
अपने को असीम
बनाने की
चेष्टा ही
ध्यान है; असीम
बनाने की
चेष्टा ही
प्रार्थना है,
असीम बनाने
की चेष्टा ही
साधना है।
शरीर
बांधता है, तो साधक
अपने को शरीर
से मुक्त करता
है। तो वह
निरंतर अनुभव
करने की कोशिश
करता है, क्या
मैं शरीर हूं?
क्या सच में
ही मैं शरीर
हूं या शरीर
से भिन्न हूं?
धीरे—
धीरे, निरंतर
चोट से यह
अनुभव होना
शुरू हो जाता
है कि मैं
शरीर नहीं हूं।
जिस दिन यह
पता चलता है, मैं शरीर
नहीं हूं फिर
शरीर जवान हो,
का हो; जिंदा
हो, मरे, स्वस्थ हो, अस्वस्थ हो;
तो बंधन
नहीं बांधता।
जो मैं नहीं
हूं उससे मेरे
ऊपर कोई बंधन
नहीं है। और
जैसे ही यह
स्मरण आ गया
कि मैं शरीर
नहीं हूं वैसे
ही आपकी आत्मा
इस खुले आकाश
के साथ एक हो
गई। फिर कोई
परदा न रहा।
मन
बांधता है। तो
साधक खोजता है, क्या मैं
मन हूं? और
निरंतर एक ही
तलाश में लगा
रहता है कि मन
से संबंध कैसे
टूट जाए! वह
संबंध टूट
जाता है।
क्योंकि जो
हमारे भीतर
साक्षी है, वह न तो शरीर
है, न मन है,
न भाव है।
हम इन सब के
साक्षी हो
सकते हैं।
शरीर को भी
देख सकते हैं
अलग अपने से, मन को भी देख
सकते हैं; विचार
को भी देख
सकते हैं। और
जिसको हम देख
सकते हैं, वह
हमसे अलग हो
गया, हम
द्रष्टा हो गए।
जिसको
भी मैं देख
सकता हूं—यह
गणित है—वह
मैं नहीं हूं।
मैं स्वयं को
कभी भी नहीं
देख सकता हूं।
मैं सदा देखने
वाला ही
रहूंगा।
दृश्य बनने का
कोई उपाय नहीं
है, मैं
द्रष्टा ही
रहूंगा।
द्रष्टा होना
मेरा स्वभाव
है। इसलिए मैं
अपने आपको
अपने सामने
रखकर देख नहीं
सकता। सब देख
लूंगा मैं, सिर्फ मेरा
होना पीछे रह
जाएगा। और जब
मैं सब देखी
जाने वाली
चीजों को छोड़
दूंगा, सिर्फ
वही बच रहेगा
जो देखने वाला
है, उस
क्षण मेरी कोई
सीमा न होगी, उस क्षण मैं
मुक्त हो
जाऊंगा।
बंधन
वाला चित्त हर
चीज से अपने
को जोड़ता है।
वह कहता है, यह शरीर
मैं हूं; सीमा
खड़ी कर ली। वह
कहता है, यह
धन मैं हूं; धन की सीमा
खड़ी हो गई।
अमीर ही नहीं
बंधते, भिखमंगे
भी धन से बंधे
होते हैं।
एक
रास्ते से मैं
गुजर रहा था, अचानक एक
भिखमंगे की
आवाज मेरे
कानों में पड़ी।
बात ही कुछ
ऐसी थी कि मैं
रुक गया, और
सुनने जैसी
बात थी। एक
सज्जन गुजर
रहे थे, भिखमंगा
उनसे भीख देने
का आग्रह कर
रहा था कि कुछ
भी दे जाओ, दो
पैसे सही। भले
आदमी थे, खीसे
में हाथ डाला,
लेकिन
घूमने निकले
थे शाम को, कोई
पैसे खीसे में
थे नहीं। तो
कहा, माफ
करना, पैसे
खीसे में हैं
नहीं; दुबारा
जब आऊंगा, तो
खयाल से पैसे
ले आऊंगा। तो
उस भिखमंगे ने
कहा, मार
जा, तू भी
मार जा मेरे
पैसे! इसी तरह
वायदा कर—करके
लोग लाखों
रुपए मार चुके
हैं।
भिखमंगा
है! वह कह रहा
है, लाखों
रुपए लोग मार
चुके हैं इसी
तरह वायदा कर—करके
कि फिर आ
जाएंगे, फुटकर
पैसे नहीं हैं,
अभी छुट्टे
पैसे नहीं हैं,
अभी कुछ
खीसे में नहीं
है। वह जो
लाखों उसके
पास कभी नहीं
रहे हैं, वह
उनका दुख है
उसको कि लोग
मार गए हैं
उससे।
अमीर
धन से बंधा हो, समझ में आ
जाता है। गरीब
भी धन से बंधा
है। और धन से
हम ऐसे चिपट
जाते हैं, जैसे
वह हमारी
आत्मा है। फिर
इसी भाति हम
सब तरह की
चीजों से जुड़
जाते हैं, तादात्म्य,
आइडेंटिटी
बना लेते हैं,
यह मैं हूं।
और जिससे भी
हम जुड़ जाते
हैं, वह
हमारी सीमा बन
गया।
तो
अपने को जितनी
ज्यादा चीजों
से कोई जोड़ेगा, उतने
बंधन में होगा;
और जितना
चीजों से अपने
को तोजो, उतना
मुक्त होगा।
और जिस दिन
सिर्फ यही
अनुभव रह
जाएगा कि मैं
किसी से भी
बंधा नहीं हूं
कुछ भी मेरा
नहीं है, सिर्फ
मैं ही हूं, मेरा
स्वभाव ही बस
मेरा होना है,
उस दिन
मुक्ति है।
दैवी
संपदा उस जगह
ले जाती है, जहां आप
अकेले बचते
हैं। आसुरी
संपदा वहां ले
जाती है, जहां
आपको छोड्कर
और सब कुछ बच
जाता है।
अब हम
सूत्र को लें।
और हे
अर्जुन, आसुरी
स्वभाव वाले
मनुष्य
कर्तव्य—कार्य
में प्रवृत्त
होने को और
अकर्तव्य—कार्य
से निवृत्त
होने को भी
नहीं जानते
हैं। इसलिए
उनमें न तो
बाहर— भीतर की
शुद्धि है, न श्रेष्ठ
आचरण है और न
सत्य भाषण ही
है।
तथा वे
आसुरी
प्रकृति वाले
मनुष्य कहते
हैं कि जगत
आश्चर्यरहित
और सर्वथा
झूठा है एवं
बिना ईश्वर के
अपने आप
स्त्री—पुरुष
के संयोग से
उत्पन्न हुआ
है। इसलिए जगत
केवल भोगों को
भोगने के लिए
ही है। इसके सिवाय
और क्या है?
इस
प्रकार इस
मिथ्या—ज्ञान
को अवलंबन
करके नष्ट हो
गया है स्वभाव
जिनका तथा मंद
है बुद्धि
जिनकी, ऐसे वे सबका
अहित करने
वाले
क्रूरकर्मी
मनुष्य केवल
जगत का नाश
करने के लिए
ही उत्पन्न होते
हैं।
बहुत—सी
बातें इस
सूत्र में
समझने जैसी
हैं और गहरे में
जाने जैसी हैं।
आसुरी
स्वभाव वाले
मनुष्य
कर्तव्य में
प्रवृत्त
होने और
अकर्तव्य से
निवृत्त होने
को नहीं जानते
हैं.......।
क्या
करने जैसा है, क्या
करने जैसा
नहीं है, इसका
उन्हें कुछ
भेद नहीं होता,
वे जो आसुरी
संपदा वाले
लोग हैं। क्या
कर्तव्य है? कर्तव्य की
क्या परिभाषा
है? किसे
हम कहें कि यह
करने जैसा है?
योग
कर्तव्य की
परिभाषा करता
है, जिससे
भी आनंद बढ़ता
हो, वही
कर्तव्य है।
और मजे की बात
यह है कि
जिससे हमारा
आनंद बढ़ता है,
उससे हमारे
आस—पास जो हैं,
उनका भी
आनंद बढ़ता है।
जिससे हमारे
आस—पास जो हैं,
उनका आनंद
बढता है, उससे
हमारा भी आनंद
बढ़ता है। आनंद
एक संयुक्त
घटना है।
दुख भी
संयुक्त घटना
है। जिससे
हमारा दुख
बढता है, उससे हमारे
आस—पास भी दुख
बढ़ता है।
जिससे हमारे
आस—पास दुख
बढ़ता है, उससे
हमारा दुख भी
बढ़ता है। दुख
भी एक संयुक्त
घटना है।
आप
किसी दूसरे को
दुखी करके सुखी
नहीं हो सकते।
चाहे क्षणभर
को आप अपने को
धोखा दें कि
मैं सुखी हो
रहा हूं? लेकिन यह
असंभव है। यह
नियम नहीं है।
यह हो नहीं
सकता। आप
दूसरे को दुखी
करके सिर्फ
दुखी ही हो
सकते हैं।
यह तो
हो भी सकता है
कि आप दूसरे
को दुखी करें
और वह दुखी न
हो; लेकिन
आप तो दुखी
होंगे ही।
क्योंकि अगर
वह आदमी जानी
हो, बोधपूर्ण
हो, बुद्ध
पुरुष हो, तो
आपके दुखी
करने से दुखी
नहीं होगा।
लेकिन आपकी
दुखी करने की
जो चेष्टा है,
वह आपको तो
निश्चित ही
दुखी कर जाएगी।
जगत एक
प्रतिध्वनि
है। हम जो
करते हैं, वह हम ही
पर आकर बरस
जाता है, चाहे
थोड़ी देर—अबेर
हो जाती हो।
उसी देर—अबेर
के कारण ही हम
इस भाति में
पड़ जाते हैं
कि इससे कोई
संबंध नहीं है।
लोग मेरे पास
आते हैं, वे
कहते हैं कि
हम कुछ भी
बुरा नहीं कर
रहे हैं, फिर
भी दुखी हैं।
उनकी
गलती है। यह
असंभव है। वे
जरूर कुछ कर
रहे हैं; वे जरूर कुछ
करते रहे हैं।
शायद वे सोचते
हैं कि वह
बुरा नहीं है,
जो वे कूर
रहे हैं।
एक
पिता मेरे पास
आए। अपने बेटे
से दुखी हैं।
और कहते हैं कि
मैं तो बेटे
के भले के लिए
सब—कुछ कर रहा
हूं पर वह
मुझे दुख दे
रहा है। सारी
कथा मैंने
जानी। तो पिता
ठीक कहते हैं
कि भले के लिए कर
रहे हैं; इसमें कुछ
झूठ नहीं है।
लेकिन करने का
जो ढंग है, वह
ऐसा है कि वे
बंद ही कर दें
यह भला काम
करना, तो
अच्छा है।
करने का ढंग
इतने दंभ से
भरा है, करने
का ढंग ऐसा है
कि खुद को वे
देवता और बेटे
को शैतान
समझते हैं।
करने का ढंग
इतना
अहंकारपूर्ण
है कि बेटे के
अहंकार को चोट
लगती है।
चाहते वे भला
करना हैं, लेकिन
बुरा हो रहा
है।
और
इतने दंभ से
जब कोई दूसरे
व्यक्ति को
बदलने की
कोशिश करता है, तो दूसरे
पर चोट
पहुंचती है।
वह चोट संघातक
हो जाती है; उस चोट से
बदला लेने की
वृत्ति पैदा
होती है। और
करने में उनको
जो मजा आ रहा
है, वह मजा
यह नहीं है कि
वे बेटे का
भला कर रहे
हैं। वह मजा
यह है कि मैं
भला बाप हूं
और बेटे के
लिए सब
कुर्बान कर
रहा हूं। वह
भी अहंकार का
ही मजा है।
मैंने
उनसे कहा कि
कभी आपने यह
सोचा कि अगर
बेटा सच में
ही भला हो जाए, तो आप
दुखी हो
जाएंगे!
उन्होंने कहा,
आप क्या
कहते हैं! कभी
नहीं। तो
मैंने कहा, आप बैठें आंख
बंद करके और
सोचें। आपका
तो सारा जीवन
का अर्थ ही खो
जाएगा। एक ही
अर्थ है, वह
बेटे को ठीक
करना। आप
बिलकुल
अनआकुपाइड हो
एकदम, कोई
काम न बचेगा; मरने के
सिवाय कुछ काम
न बचेगा। वह
बेटा आपको काम
दे रहा है, रस
दे रहा है।
चौबीस घंटे आप
उसी के पीछे
पड़े हैं, उसी
की कथा कह रहे
हैं, और
जगह—जगह
प्रचार कर रहे
हैं कि आप
इतना कर रहे
हैं और बेटा
आपको दुख दे
रहा है। अगर
बेटा सच में
आज भला हो जाए,
तो आपको कल
मरने के सिवाय
कोई काम नहीं
है।
थोड़े
चौंके, धक्का खाया,
लेकिन फिर
सोचा। और कहने
लगे कि शायद
बात ठीक ही हो!
अगर आप
दुख पाते हैं, तो आपको
जान लेना
चाहिए कि आप
दुख दे रहे
हैं। अगर आपको
आनंद की कोई
भी किरण मिलती
है, तो जान
लेना चाहिए कि
जाने या
अनजाने आपने
कुछ आनंद दिया
है, बांटा
है। जो हम
बांटते हैं, वही हमें
मिलता है।
कर्तव्य
क्या है? कर्तव्य
निर्भर होगा
लक्ष्य से।
लक्ष्य तो एक
है सभी का कि
जीवन आनंद से
भरपूर हो जाए।
तो जिससे भी
आनंद बढ़े, वही
कर्तव्य है।
और जिससे आनंद
घटे, वही
अकर्तव्य है।
आनंद को हम
कसौटी बना
सकते हैं।
जैसे सोने को
पत्थर पर कसकर
देख लेते हैं
कि सही या गलत,
शुद्ध या
अशुद्ध, वैसे
आनंद पर आप
कसकर देखते
रहें आपने
कर्मों को।
और जिस
कर्म से आनंद
बढ़ता हो, समझना वह
कर्तव्य है।
फिर उसको
ज्यादा सींचे,
बढ़ाए, जीवन
की सारी ऊर्जा
उसमें लग जाने
दें। जिस कर्म
से दुख मिलता
हो, उसे
छोड़े, उससे
अपने को हटाए,
उसकी तरफ
जीवन की ऊर्जा
को मत बहने
दें।
लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति
जानता ही नहीं
कि क्या करने
योग्य है, न
जानता है कि
क्या करने
योग्य नहीं है।
न कर्तव्य में
उसकी
प्रवृत्ति है,
न अकर्तव्य
से निवृत्ति
है। वह अंधे
आदमी की तरह
कुछ भी किए चला
जाता है। उस
सब कनफ्यूजन,
उस सब
उपद्रव को
जैसे वह अपने
जीवन में खड़ा
कर लेता है।
कभी बाएं, कभी
दाएं भागता है;
कभी सीधा, कभी उलटा।
मैंने
सुना है, दक्षिण में
एक कथा है।
दक्षिण का एक
कवि हुआ, तेनालीराम।
कुछ उलटी
खोपड़ी का आदमी
रहा होगा। कवि
अक्सर होते
हैं। पर भक्ति
का भी भाव था।
तो उसने बड़ी
साधना की।
काली का पूजक
था। बड़ी साधना
की। वर्षों के
बाद काली का
दर्शन हुआ, अनंत हाथों
वाली, अनंत
मुख वाली।
सालों की
मेहनत के बाद
तेनालीराम ने
पूछा क्या!
उसने
पूछा कि बस, मुझे यही
पूछना है; एक
नाक हो, सर्दी
हो जाए, तो
आदमी पोंछ—
पोंछकर थक
जाता है।
तुम्हारी
क्या गति होती
होगी?
काली
भी चौंकी होगी।
कहते हैं, काली ने
कहा कि
तुम्हें, तेनालीराम,
आज से विकट
कवि कहा जाएगा।
यह तुम्हारा
नाम हुआ; और
यही मेरा
उत्तर है।
तेनालीराम ने
सुना तो उसने
कहा कि बिलकुल
ठीक। यह
बिलकुल मुझसे
मेल खाता है।
विकट कवि को
उलटा पढ़ो या
सीधा, एक—सा
है। और मैं
उलटा खड़ा होऊं
या सीधा, बिलकुल
एक —सा है।
यह
वर्षों की
साधना बस, इस चर्चा
पर समाप्त हो
गई!
अगर मन
उलझा हो, क्या करने
योग्य है, क्या
करने योग्य
नहीं है, इसका
बोध भी न हो, तो आपके
सामने
परमात्मा भी
खड़ा हो, तो
भी हल न होगा।
आप स्वर्ग में
भी पहुंच जाएं,
तो कोई न
कोई उपद्रव
खड़ा कर लेंगे।
आप जहां भी
होंगे, वहा
गलती
अनिवार्य है।
सवाल
यह नहीं है कि
आप कहा हैं।
सवाल यह है कि
आपके पास
देखने की
दृष्टि
तीक्ष्ण, स्पष्ट है; विवेकपूर्ण
है, बांट
सकती है या
नहीं कि क्या
सार है, क्या
असार है; क्या
कर्तव्य है, क्या
अकर्तव्य है।
अक्सर
लोग जीवनभर
दौड़ते रहते
हैं, बिना
इसका ठीक से
उनको पक्का
पता हुए कि वे
कहां जा रहे
हैं, क्यों
जा रहे हैं।
अगर लोग थोड़ी
देर रुक जाएं
इसके पहले कि
कदम उठाएं, चलें, सोच
लें कि कहा
जाना है और
सारी जीवन
ऊर्जा को वहां
नियोजित कर
दें, तो
जीवन में फल
लग सकते हैं।
अधिक
लोग बेफल मर
जाते हैं, निष्फल
मर जाते हैं।
ऐसा भी नहीं
कि श्रम कम
करते हैं।
श्रम बहुत
करते हैं।
आसुरी संपदा
वाले लोग दैवी
संपदा वाले
लोगों से
ज्यादा श्रम
करते हैं।
बुद्ध ने क्या
श्रम किया है!
जो श्रम हिटलर
और तैमूरलंग
और चंगेज खां
करते हैं!
बुद्ध का श्रम
क्या है! एक
झाडू के नीचे
बैठे हैं, यही
श्रम है!
तैमूरलंग
को देखें, लंगड़ा है।
वह लंग लंगड़े
का ही हिस्सा
है। तैमूर दि
लेम। लंगड़ा है,
लेकिन सारी
जमीन को जीतने
की कोशिश में
लगा है। और
कोई आधी जमीन
उसने जीत भी
डाली। कितने
लाखों लोग
उसने काट डाले।
श्रम उसका
भारी है, लेकिन
परिणाम क्या
है? हिटलर
के श्रम को
कोई कम नहीं
कह सकता। फल
क्या है?
ठीक
साफ न हो कि
क्या कर्तव्य
है, क्या
मैं करूं, क्यों
करूं, और
इसका क्या अंत
होगा, इसकी
ठीक—ठीक रूप—रेखा
साफ न हो, तो
आदमी करता
बहुत है और
पाता कुछ भी
नहीं।
आसुरी
वृत्ति के लोग
बड़ा श्रम
उठाते हैं, पर उनकी
सब साधना
निष्फल जाती
है।
इसलिए
उनमें न तो
बाहर— भीतर की
शुद्धि है, न
श्रेष्ठ आचरण
है, और न
सत्य भाषण ही।
आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति
शुद्धि का
विचार ही नहीं
करता। वह उसके
चिंतन में ही
कभी नहीं आता, कि
शुद्धि का भी
कोई रस है, कि
शुद्धि का भी
कोई सुख है।
जीवन उसका एक
घोलमेल है, उसमें सभी
कुछ मिला—जुला
है। वह
प्रार्थना भी
करता रहेगा, दुकान की
बात भी सोचता
रहेगा। वह
मंदिर में भी
बैठा रहेगा, और वेश्याघर
उसे पहुंच
जाना है
शीघ्रता से, उसकी योजना
बनाता रहेगा।
उसके जीवन में
शुद्धि नहीं
है। उसके जीवन
में सब मिला
हुआ है, कचरे
की तरह सब
इकट्ठा है।
कोई एक स्वर
नहीं है। बहुत
स्वर हैं, विपरीत
स्वर हैं।
शुद्धि
का अर्थ इतना
ही है कि जीवन
की धारा एक स्वर
से भरी हो, एक
समस्वरता हो।
और जब भी मैं
जो कर रहा हूं, उस करने में
मेरी निष्ठा
इतनी पूरी हो
कि दूसरा स्वर
बीच में
डावाडोल न
करता हो।
अगर
व्यक्ति का
जीवन एक—एक
क्षण भी इस
भांति शुद्ध
होने लगे, तो
परमात्मा का
मंदिर ज्यादा
दूर नहीं है।
लेकिन आप कुछ
भी कर रहे हों,
एक काम कभी
भी नहीं कर
रहे हैं, हजार
काम साथ कर
रहे हैं! कुछ
भी सोच रहे
हों, एक
विचार कभी
नहीं है, हजार
विचार
विक्षिप्त की
तरह भीतर दौड़
रहे हैं। आप
एक बाजार हैं,
एक भीड़। और
भीड़ भी पागल।
इस स्थिति का
नाम अशुद्धि
है।
कृष्ण
कह रहे हैं, उसमें न
तो बाहर की
शुद्धि है, न भीतर की। न
श्रेष्ठ आचरण
है, न सत्य
भाषण है। तथा
वे आसुरी
प्रवृत्ति
वाले मनुष्य
कहते हैं, जगत
आश्चर्यरहित
है।
यह वचन
बड़ा क्रांतिकारी
है।
आसुरी
वृत्ति वाला
व्यक्ति
मानता है कि
जगत में कोई
रहस्य नहीं है; मानता है
कि जगत एक
तथ्य है, जिसमें
न कोई आश्चर्य
है, न कोई
रहस्य है, कोई
मिस्ट्री
नहीं है। अगर
हम विचार करें,
तो बहुत—सी
बातें साफ हो
सकती हैं।
धार्मिक
और अधार्मिक
व्यक्ति में
यही फासला है।
धार्मिक
व्यक्ति जीवन
को एक रहस्य
की भांति अनुभव
करता है। यहां
जो प्रकट है, वह सिर्फ
सतह है, इस
सतह के पीछे
अप्रकट छिपा
है। और वह
अप्रकट ऐसा है
कि कितना ही
प्रकट होता जाए,
तो भी शेष
रहेगा।
रहस्य
का अर्थ होता
है, जिसे
हम पूरा कभी न
जान पाएंगे, जिसका
अंतस्तल सदा
ही अनजाना
रहेगा। हम
कितना ही जान
लें, हमारी
सब जानकारी
बाहर ही बाहर
रहेगी। भीतर
की अंतरात्मा
सदा अनजानी
छूट जाएगी।
अगर
इसे ठीक से
खयाल में लें, तो
विज्ञान
आसुरी मालूम
पड़ेगा।
क्योंकि
विज्ञान
मानता है, जगत
में सभी कुछ
जाना जा सकता
है—कम से कम
मानता था। अभी
नए कुछ
वैज्ञानिक, आइंस्टीन के
बाद, इस
मान्यता को
स्वीकार नहीं
करते। अन्यथा
विज्ञान की
दृष्टि थी, सभी कुछ
जाना जा सकता
है। जो हमने
जान लिया वह, और जो नहीं
जाना है, वह
भी अशेय नहीं
है, अननोएबल
नहीं है।
अज्ञात है, उसको भी हम
कल जान लेंगे,
परसों जान
लेंगे। समय की
बात है। सौ, दो सौ
वर्षों में हम
सब जान लेंगे,
या हजार, दौ हजार
वर्षों में।
लेकिन धारणा
यह थी विज्ञान
की कि जगत
पूरा का पूरा
जाना जा सकता
है।
अगर
पूरा का पूरा
जाना जा सकता
है, तो
परमात्मा की
कोई जगह नहीं
बचती।
क्योंकि जिस
दिन आप
परमात्मा को
भी जान लें प्रयोगशाला
में और
पदार्थों की
भांति, जैसा
आक्सीजन और
हाइड्रोजन को
जानते हैं, ऐसा
परमात्मा को
जान लें; जैसे
आक्सीजन और
हाइड्रोजन को
मिलाकर पानी बनाते
हैं, ऐसा
परमात्मा का
विश्लेषण कर
लें, मेल—जोल
करके टधूब में
उसको तैयार कर
दें, जिस
दिन आप
परमात्मा को
जान लेंगे
पदार्थ की तरह—विज्ञान
की यही धारणा
है कि सभी कुछ
हम जान लेंगे—उस
दिन जानने को
कुछ भी शेष
नहीं बचेगा।
कृष्ण
कहते हैं, आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति जगत
में कोई रहस्य
नहीं मानता।
और दैवी संपदा
वाला व्यक्ति
मानता है कि
जगत एक अनंत
रहस्य है, एक
पहेली, जिसे
हम हल करने की
कितनी ही
कोशिश करें, हम हल न कर
पाएंगे।
और वह
जो सदा हल के
बाहर छूट जाता
है, वही
परमात्मा है।
वह जो हमारी
सब कोशिश के
बाद भी अज्ञेय,
अननोएबल रह
जाता है, जिसके
पास जाकर हम
अवाक हो जाते
हैं, जिसके
पास जाकर
हमारा हृदय ठक
से रुक जाता
है, जिसके
पास जाकर
हमारे विचार
की परंपरा
एकदम टूट जाती
है, जिसके
पास हम अपना
सुध—बुध खो देते
हैं, जिसके
पास हम मस्ती
से तो भर जाते
हैं, लेकिन
जानकारी
बिलकुल खो
जाती है, उस
तत्व का नाम
ही परमात्मा
है। वही है
मिस्टीरियम, रहस्यमय।
तो
कृष्ण कहते
हैं, आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति
मानता है, कोई
रहस्य नहीं है।
जगत तथ्यों का
एक जोड़ है, सब
जाना जा सकता
है।
इसलिए
आसुरी संपदा
वाले व्यक्ति
को न तो जीवन में
कोई काव्य
दिखाई पड़ता, न कोई
सौंदर्य
दिखाई पड़ता, न कोई प्रेम
दिखाई पड़ता; क्योंकि ये
सभी तत्व
रहस्यपूर्ण
हैं। आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति जीवन
को गणित से नापता
है, सभी
चीजों को
नापता—तौलता
है। और सभी
चीजों को पदार्थ
की तरह
व्यवहार करता
है। इस जगत
में उसे कोई
व्यक्तित्व
नहीं दिखाई पड़ता।
यह जगत जैसे
एक मिट्टी का
जोड़ है, पदार्थ
का जोड़ है। और यहां
जो भी घट रहा
है, यह
सांयोगिक है,
एक्सिडेंटल
है।
पश्चिम
के एक बड़े
नास्तिक
दिदरो ने लिखा
है कि जगत का न
तो कोई बनाने
वाला है, न जगत के
भीतर कोई रचना
की प्रक्रिया
है, न इस
जगत का कोई
सृजनक्रम है।
जगत एक संयोग,
एक
एक्सिडेंट है।
घटते—घटते, अनंत घटनाएं
घटते—घटते यह
सब हो गया है।
लेकिन इसके
होने के पीछे
कोई राज नहीं
है।
अगर
दिदरो की बात
सच है, उसका
तो अर्थ यह
हुआ कि अगर हम
कुछ ईंटों को
फेंकते जाएं,
तो कभी रहने
योग्य मकान
दुर्घटना से
बन सकता है।
सिर्फ फेंकते
जाएं! या एक
प्रेस को हम
बिजली से चला
दें और उसके
सारे यंत्र
चलने लगें, तो केवल
संयोग से गीता
जैसी किताब छप
सकती है।
दैवी
संपदा वाला
व्यक्ति
देखता है कि
जगत में एक
रचना—प्रक्रिया
है। जगत के
पीछे चेतना
छिपी है। और
जगत के
प्रत्येक
कृत्य के पीछे
कुछ राज है।
और राज कुछ
ऐसा है कि हम
उसकी तलहटी तक
कभी न पहुंच
पाएंगे, क्योंकि हम
भी उस राज के
हिस्से हैं; हम उसके
स्रोत तक कभी
न पहुंच
पाएंगे, क्योंकि
हम उसकी एक
लहर हैं।
मनुष्य
कुछ अलग नहीं
है इस रहस्य
से। वह इस
विराट चेतना
में जो लहरें
उठ रही हैं, उसका ही
एक हिस्सा है।
इसलिए न तो वह
इसके प्रथम को
देख पाएगा, न इसके
अंतिम को देख
पाएगा। दूर
खड़े होकर
देखने की कोई
सुविधा नहीं
है। हम इसमें
डूबे हुए हैं।
जैसे मछली को
कोई पता नहीं
चलता कि सागर
है। और मछली
सागर में रहती
है, फिर भी
सागर का क्या
रहस्य जानती
है! वैसी ही अवस्था
मनुष्य की है।
जितना
ही ज्यादा
दैवी संपदा की
तरफ झुका हुआ
व्यक्ति होगा, उतना ही
तर्क पर उसका
भरोसा कम होने
लगेगा, उतना
ही काव्य पर
उसकी निष्ठा
बढ़ने लगेगी, उतना ही वह
जगत में सब तरफ
उसे रहस्य की
पगध्वनि
सुनाई पड़ने
लगेगी। फूल
खिलेगा, तो
उसे परमात्मा
का इंगित
दिखाई पड़ेगा।
वैज्ञानिक
के सामने भी
फूल खिलता है, तो
वैज्ञानिक
उसमें कुछ
तथ्यों की खोज
करता है। वह
देखता है कि
फूल में जरूर
कोई कारण है!
क्यों खिला है?
तो फूल की
केमिकल
परीक्षा करता
है, जांच—पड़ताल
करता है, उसके
रसों की जांच—पड़ताल
करता है, और
एक नियम तय
करता है कि
इसलिए खिला है।
धार्मिक
व्यक्ति, दैवी संपदा
का व्यक्ति
फूल का
विश्लेषण
नहीं करता, लेकिन फूल
का जो संकेत
है, जो
सौंदर्य है, फूल का जो
खिलना है, वह
जो जीवन का
प्रकट होना है,
उस इशारे को
पकड़ता है। और
तब एक फूल
उसके लिए
परमात्मा का
प्रतीक हो जाता
है। तब एक
छोटी—सी हिलती
हवा में पत्ती
भी उसके लिए
परमात्मा का
कंपन हो जाती
है। तब यह
सारा जगत
परमात्मा का
नृत्य हो जाता
है।
परमात्मा
से अर्थ है, रहस्य।
परमात्मा से
आप यह मत
सोचना कि कहीं
आकाश में कोई
बैठा हुआ
व्यक्ति।
परमात्मा का
अर्थ है, यह
जगत
रहस्यपूर्ण
है। और जैसे
ही यह जगत
रहस्यपूर्ण
होता है, वैसे
ही हमारे हृदय
में एक नया
स्पंदन शुरू
होता है।
आज अगर
दुनिया में
इतनी ऊब, इतनी उदासी,
इतनी
बोर्डम है, तो उसका
कारण आसुरी
संपदा वाली
विचार—धारा का
प्रभाव है।
क्योंकि जीवन
में जब कोई
रहस्य न हो, तो रस भी न
होगा। और जब
सब चीजें
मिट्टी—पत्थर
का जोड़ हों..।
अगर दो
व्यक्तियों
में प्रेम हो
जाए, वैज्ञानिक
से पूछें, बायोलाजिस्ट
से पूछें, तो
वह कहता है कि
कुछ खास बात
नहीं, सिर्फ
हार्मोन्स की
ही बात है। इन
दोनों
व्यक्तियों
में जो भीतर
शरीर में हार्मोन्स
बन रहे हैं, वह जो
रासायनिक
प्रक्रिया हो
रही है, उसमें
आकर्षण है। उस
आकर्षण की वजह
से इनको प्रेम
वगैरह का खयाल
पैदा हो रहा
है। प्रेम
सिर्फ खयाल है,
असली चीज
हार्मोनल
आकर्षण है।
विज्ञान
सभी चीजों को
समझा देता है।
यह जानकर आपको
आश्चर्य होगा
कि हम इस
मुल्क में
विज्ञान को
अविद्या कहते
थे। पुराने
दिनों में
ऋषियों ने ज्ञान
के दो हिस्से
किए हैं, विद्या और
अविद्या।
विद्या उस जान
को कहा है, जो
दैवी संपदा की
तरफ ले जाता
है। और अविद्या
उस ज्ञान को
कहा है, जो
आसुरी संपदा
की तरफ ले
जाता है।
विज्ञान
अविद्या है।
जानना तो वहा
बहुत होता है, लेकिन
फिर भी जानने
का जो परम
लक्ष्य है, वह चूक जाता
है।
अगर हम
वैज्ञानिक को
कहें, भीतर
आदमी के आत्मा
है। तो वह
शरीर को काटने
को तैयार है, वह काटकर शरीर
को देखने को
तैयार है।
काटने पर
आत्मा मिलती
नहीं। यह वैसे
ही है, जैसे
कि पिकासो का
एक सुंदर
चित्र हो, और
हम कहें, बहुत
सुंदर है। और
वैज्ञानिक
उसको काटकर, प्रयोगशाला
में ले जाकर, सब रंगों को
अलग करके, विश्लिष्ट
करके और कह दे
कि ये सब रंग
अलग—अलग रखे
हुए हैं, सौंदर्य
कहीं भी नहीं
है।
चित्र
को काटकर
सौंदर्य नहीं
खोजा जा सकता।
क्योंकि
चित्र का
सौंदर्य
चित्र की
परिपूर्णता
में है, वह उसकी
होलनेस में था,
वह रंगों के
जोड़ में था।
जैसे ही तोड़
लिया, जोड़
समाप्त हो गए,
सौंदर्य खो
गया।
आदमी
की आत्मा उसके
अंग—अंग को काटकर
नहीं पकड़ी जा
सकती। वह उसकी
समग्रता में
है, वह
सौंदर्य की
तरह उसकी
समग्रता में
छिपी है। उसकी
समग्रता
अखंडित रहे, तो ही आत्मा
को पहचाना जा
सकता है। उसकी
खंडित स्थिति
हो, आत्मा
खो गई। यह जगत
अखंडता है। इस
अखंडता के
भीतर जो छिपा
हुआ रहस्य है,
उसका नाम परमात्मा
है।
आसुरी
प्रकृति वाले
मनुष्य कहते
हैं, जगत
आश्चर्यरहित
और सर्वथा
झूठा है और
बिना ईश्वर के
अपने आप
स्त्री—पुरुष
के संयोग से
उत्पन्न हुआ
है। इसलिए जगत
केवल भोगों को
भोगने के लिए
है। इसके
सिवाय और क्या
है!
अगर
कोई रहस्य
नहीं, तो
फिर कोई
गंतव्य नहीं। अगर
कोई छिपी हुई
नियति नहीं, तो पहुंचने
का कोई अर्थ
नहीं, कहीं
जाने को नहीं।
फिर आप यहां
हैं, और इस
क्षण जिस बात
में भी सुख
मिलता हुआ
मालूम पड़े, उसको कर
लेना उचित है।
चार्वाकों
ने कहा है कि
उधार लेकर भी
अगर घी पीना
पड़े, तो
चिंता मत करना,
उधार लेना।
क्योंकि मरने
के बाद न लेने
वाला बचता है,
न देने वाला।
तब चोरी में
कोई बुराई
नहीं, अगर
सुख मिलता हो।
तब किसी से
छीनकर कोई चीज
भोग लेने में
कुछ हर्ज नहीं,
अगर सुख
मिलता हो।
क्योंकि जीवन
की कोई परम
गति नहीं है
और न कोई परम
नियंत्रण है,
और न जीवन
का कोई अर्थ
है, जो आपको
आगे की तरफ
खींचना है। इस
क्षण जो भोगने
योग्य लगता हो,
उसे पागल की
तरह भोग लेना
ही आसुरी
संपदा वाले
व्यक्ति के
जीवन का ढंग
और शैली होगी।
इस
सारी दौड़ के
पीछे दौड़ता
हुआ कोई सूत्र
नहीं है। जैसे
एक माला हम
बनाते हैं, उसमें
मनके हैं और
भीतर हर मनके
के दौड़ता हुआ
एक धागा है।
वह धागा दिखाई
नहीं पड़ता, मनके दिखाई
पड़ते हैं। वह
धागा सब मनकों
को बांधे है, पर अदृश्य
है।
दैवी
संपदा वाले
व्यक्ति के
जीवन का
प्रत्येक
कृत्य एक मनका
है। और
प्रत्येक
मनके को वह
भीतर के एक
प्रयोजन से
बांधे हुए है, एक
लक्ष्य, एक
जीवन की दिशा,
एक जीवन की
परिपूर्ण
कृतकृत्यता
का भाव। जीवन
कहीं जा रहा
है, एक
नियति, वह
उसका धागा है।
तो वह जो भी कर
रहा है, हर
मनके को उस
धागे में
बांधता जा रहा
है। कृत्य
मनकों की तरह
अलग—अलग हैं
और उसका जीवन
.एक धागे की
तरह सारे मनकों
को सम्हाले
हुए है, एक
इंटीग्रेशन।
आसुरी
संपदा वाले
व्यक्ति के
जीवन में कोई
धागा नहीं है।
हर कृत्य टूटा
हुआ मनका है।
दो मनकों में
कोई जोड़ नहीं
है। इसलिए
आसुरी संपदा
वाला व्यक्ति
करीब—करीब
विक्षिप्त की
तरह जीता है।
उसकी न कोई
दिशा है, न कोई
गंतव्य है। बस,
हर क्षण जहां
हवाएं ले जाएं,
जो सूझ जाए
वासना को, जो
भीतर का धक्का
आ जाए, या
परिस्थिति
जिस तरफ झुका
दे, या लोभ
जिस तरफ
आकर्षित कर ले,
बस वह वैसा
दौड़ता चला
जाता है।
जैसे
आपके सामने एक
सितार रखा हो
और आप उसको ठोंकते
जाएं, तार
खींचते जाएं;
और आपको
सितार के
शास्त्र का
कोई भी ज्ञान
न हो, संगीत
की कोई
प्रतीति न हो,
दो स्वरों
के बीच जोड़ का
कोई अनुभव न
हो, स्वरों
का एक प्रवाह
बनाने की कोई
कला न हो, स्वरों
की सरिता
निर्मित न कर
सकते हों, तो
आप सिर्फ एक
उपद्रव
मचाएंगे।
शोरगुल होगा
बहुत, संगीत
नहीं हो सकता।
क्योंकि
संगीत तो सभी
सुरों को मनके
की तरह जब आप
धागे में
बांधते हैं, तब पैदा
होता है।
दैवी
संपदा वाला
व्यक्ति जीवन
में संगीत निर्मित
करने की
चेष्टा में
लगा रहता है।
वह जो काम भी
करता है, सोचता है कि
यह मेरे पूरे
जीवन में कहां
बैठेगा, यह
मेरे पूरे
जीवन को क्या
रंग देगा, इससे
मेरा आज तक का
जीवन किस मोड़
पर मुड़ जाएगा,
यह मेरे
पूरे जीवन को
मिलकर कौन—सा
नया अर्थ, अभिव्यक्ति
देगा। इसलिए
प्रत्येक
कृत्य एक अर्थ,
एक
अभिप्राय, एक
प्रयोजन और एक
नियति के साथ
मेल बनाता है।
आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति इस
क्षण में उसे
जो सूझता है, कर लेता
है। उसका
कृत्य टूटा हुआ
है, आणविक
है। और उसका
लक्ष्य सिर्फ
इतना है, आज
भोग लूं,
कल का क्या
भरोसा है!
उमर खय्याम
की रुबाइयात, अगर उसके
गहरे सूफी
अर्थ आपको पता
न हों, तो
आसुरी संपदा
वाले व्यक्ति
का वक्तव्य
मालूम पड़ेगा।
उमर खय्याम की
रुबाइयात में
बड़ी मधुर
कल्पना है।
अगर आपको उसका
सूफी रहस्य
पता हो, तब
तो वह एक
अदभुत ग्रंथ
है। सूफी
रहस्य का पता
न हो, तो
आपको लगेगा, भोग का एक
आमंत्रण है।
उमर खय्याम
सुबह—सुबह ही
पहुंच गया
मधुशाला के
द्वार पर। अभी
कोई जागे भी
नहीं; रात
थके—मांदे
नौकर सो गए
हैं। सुबह
ब्रह्ममुहूर्त
में, अभी
सूरज भी नहीं
निकला, वह
दरवाजा खटखटा
रहा है। भीतर
से कोई आवाज
देता है कि
अभी मधुशाला
के खुलने में
देर है।
तो वह
कहता है, लेकिन देर
तक प्रतीक्षा
करना संभव
नहीं। एक क्षण
के बाद का
भरोसा नहीं।
और यह क्षण
चूक जाए पीने
का, तो कौन
आश्वासन देता
है कि अगले
क्षण मैं बर्न
और पीने की
मुझे सुविधा
रहेगी! इसलिए
द्वार खोलो।
देर मत करो।
सूरज निकलने
के करीब हो
गया। और सूरज
ने अपनी
किरणों का जाल
फेंक दिया जगत
पर। और जब
किरणों का जाल
जगत पर सूरज
फेंक देता है,
तो संध्या
होने में
ज्यादा देर
नहीं।
वह जो
आसुरी संपदा
वाला व्यक्ति है, उसे
मृत्यु लगती
है, बस आ
रही है।
क्षणभर हाथ
में है, इसे
भोग लूं? निचोड़
लूं? पी
लूं। भोग ही
लक्ष्य हो
जाता है; योग
बिलकुल खो
जाता है।
ध्यान
रहे, योग
का अर्थ ही है,
दो मनकों को
जोड़ देना। जब
जीवन के सारे
मनके जुड़ जाएं,
तो आप योगी
हैं। और जीवन
के मनकों का ढेर
लगा हो, कोई
धागा न हो
जोड्ने वाला,
तो आप भोगी
हैं।
भोगी
और योगी दोनों
के पास मनके
तो बराबर होते
हैं। लेकिन
योगी ने एक
संगति बना ली, योगी ने
सब मनकों को
जोड़ डाला।
उसके सब अक्षर
जीवन के एक
संयुक्त
काव्य बन गए
एक कविता बन
गए। भोगी
अक्षरों का
ढेर लगाए बैठा
है। उसके पास
भाषाकोश है।
सब अक्षरों का
ढेर लगा हुआ
है। लेकिन दो
अक्षरों को
उसने जोड़ा
नहीं, इसलिए
कोई कविता का
जन्म नहीं हुआ
है। और जीवन
के अंत में, वह जो हमने
धागा निर्मित
किया है, वही
हमारे साथ
जाएगा, मनके
छूट जाते हैं।
मनके सब यहीं
रह जाते हैं।
इस प्रकार इस
मिथ्या—ज्ञान
को अवलंबन
करके नष्ट हो
गया है स्वभाव
जिनका तथा मंद
है बुद्धि
जिनकी, ऐसे
वे सबका अहित
करने वाले
क्रूरकर्मी
मनुष्य केवल
जगत का नाश
करने के लिए
ही उत्पन्न होते
हैं।
इस
मिथ्या—ज्ञान
का अवलंबन
करके—कि भोग
ही सब कुछ है, योग जैसा
कुछ भी नहीं, साधना कुछ
भी नहीं है, पहुंचना
कहीं भी नहीं
है, जीवन
का कोई गंतव्य,
लक्ष्य
नहीं है, जीवन
एक संयोग है, एक दुर्घटना
है, जिसके
पीछे कोई अर्थ
पिरोया हुआ
नहीं है, शब्दों
की एक भीड़ है, कोई सुसंगत
काव्य नहीं—ऐसा
जिसका मिथ्या—ज्ञान
है और इसका
अवलंबन करके
नष्ट हो गया स्वभाव
जिसका......।
इस तरह
की धारणाओं
में जो जीएगा, वह अपने
स्वभाव को
अपने हाथ से
तोड़ रहा है, क्योंकि
स्वभाव तो परम
संगीत को
उपलब्ध करने में
ही छिपा है।
स्वभाव तो परम
नियति को
प्रकट कर लेने
में छिपा है।
स्वभाव तो इस
जगत का जो
आत्यंतिक
रहस्य है, उसके
साथ एक हो जाने
में छिपा है।
मैं अपने
स्वभाव को तभी
उपलब्ध
होऊंगा, जब
मैं बिलकुल
शून्य होकर, शांत होकर
इस जगत के
पूरे
अस्तित्व के
साथ अपने को एक
कर लूं।
स्वभाव
यानी
परमात्मा।
स्वभाव
मिथ्या
धारणाओं में
नष्ट हो जाएगा, खो जाएगा।
और मंद
हो गई है
बुद्धि जिसकी…….।
और इस
तरह की बातें
जिस पर बहुत
प्रभाव
करेंगी, उसकी बुद्धि
धीरे— धीरे
मंद हो जाएगी।
मंद होने का
यह मतलब नहीं
है कि उसका
तर्क क्षीण हो
जाएगा। अक्सर
तो आसुरी
संपदा वाला
व्यक्ति बड़ा
तार्किक होता
है, बड़ी
प्रखर उसके
पास तर्क की
व्यवस्था
होती है।
लेकिन
फिर भी कृष्ण
कहते हैं, मंद हो गई
है बुद्धि
जिसकी..।
क्योंकि तर्क
को हमने इस
देश में कभी
बुद्धि नहीं
माना। तर्क को
हमने बच्चों
का खेल माना
है। बुद्धि से
तो हमारा
प्रयोजन उस
क्षमता से है,
जो जीवन को
आर—पार देख
लेती है; जो
जीवन के छिपे
हुए रहस्य—परतों
में उतर जाती
है; जो
जीवन के
अंतःस्तल को
स्पर्श कर
लेती है, उसे
हम बुद्धि
कहते हैं।
आधुनिक
युग में जिसे
हम बुद्धि
कहते हैं, वह केवल
तर्क की
व्यवस्था है।
अगर कोई
व्यक्ति काफी
तर्क कर सकता
है, आर्ग्यू
कर सकता है, विवाद कर? सकता है, तो
हम कहते हैं, बड़ा
बुद्धिमान है।
तुर्गनेव
ने एक छोटी
कहानी लिखी है।
उसने लिखा है, एक गांव
में एक मूढ़
आदमी था, निपट
गंवार था, और
सारा गांव उस
पर हंसता था।
उस गांव में
एक फकीर का
आगमन हुआ। तो
उस मूढ़ आदमी
ने फकीर से
कहा कि मुझ पर
सारा गांव
हंसता है, लोग
मुझे मूर्ख
समझते हैं।
मुझे कुछ
रास्ता बताओ।
थोड़ी बुद्धि मुझे
दो। फकीर ने
कहा, यह तो
जरा कठिन काम
है तुझे
बुद्धि देना,
लेकिन तुझे
एक तरकीब बता
देता हूं
जिससे तू बुद्धिमान
हो जाएगा।
उसने कहा, वही
दे दो बस, और
मुझे कुछ
चाहिए नहीं।
तो उस फकीर ने
उसके कान में
कुछ मंत्र
दिया, और
कहा, बस, तू इसका
उपयोग कर।
एक
सप्ताह के
भीतर गांव में
ही नहीं, गांव के आस—पास,
दूर—दूर तक,
राजधानी तक
खबर पहुंच गई
कि वह आदमी
बड़ा बुद्धिमान
है। फकीर ने
उससे क्या कहा?
फकीर ने
उससे कहा कि
एक छोटा—सा
सूत्र याद रख!
अगर कहीं कोई
कह रहा हो कि
बाइबिल महान
पुस्तक है, तो तू कहना, कौन कहता है,
बाइबिल महान
पुस्तक है! दो
कौड़ी की है, उसमें कुछ
भी नहीं है।
अगर कोई कहे, यह चित्र
बड़ा सुंदर है;
तो तू कहना,
क्या है
इसमें, रंगों
का पोतना, सौंदर्य
कहीं भी नहीं
है। कहां है? दिखाओ मुझे
सौंदर्य!
जोर से
कहना और इनकार
करना, कोई
कुछ भी कह रहा
हो। वह हर चीज
का खंडन करने
लगा। और बड़ा
मुश्किल है।
आप कहें, यह
चांद सुंदर है।
मूढ़ आदमी भी
खड़ा होकर कह
दे कि सिद्ध
करो! कैसे सिद्ध
करिएगा कि
चांद सुंदर है?
क्या उपाय
है? कोई
उपाय नहीं है।
अब तक दुनिया
में कोई सिद्ध
नहीं कर सका
कि चांद सुंदर
है। वह तो हम
सुन लेते हैं
चुपचाप, लोग
कहते हैं। अगर
आप न सुनें, बस कठिन हो
गया काम।
उस
आदमी ने सबको
गलत सिद्ध
करना शुरू कर
दिया।
क्योंकि जो भी
कुछ कहे, ज्यादा कुछ
कहने की जरूरत
नहीं थी, मंत्र
सीधा था।
सिर्फ इनकार
करना है तुझे,
और तू कुछ
सिद्ध करने की
फिक्र ही मत
करना। जो
दूसरा कह रहा
हो, उसको
भर कहना कि
सिद्ध करो।
न
सौंदर्य
सिद्ध होता है, न सत्य
सिद्ध होता है,
न परमात्मा
सिद्ध होता है,
सिद्ध तो
कुछ किया नहीं
जा सकता।
लेकिन लोग
समझे कि यह
आदमी महान
विद्वान हो गया
है। इसकी
बुद्धि बड़ी
प्रखर है। हम
इस युग में
इसी तरह के
बुद्धओं को
बुद्धिमान
कहते हैं।
कृष्ण उनको
बुद्धिमान
नहीं कहते।
कृष्ण उसको
बुद्धिमान
कहते हैं, जिसने
अपनी चेतना—ऊर्जा
में, जीवन
के परम रहस्य
में प्रवेश का
मार्ग खोज लिया
है। जिसने
अपनी चेतना को
मार्ग बना
लिया है, वही
बुद्धिमान है।
मिथ्या
धारणाओं का
अवलंबन करके
नष्ट हो गया स्वभाव
जिनका, मंद है
बुद्धि जिनकी,
ऐसे
व्यक्तियों
को कृष्ण ने
कहा कि वे
आसुरी संपदा
वाले हैं।
इसकी
अपने भीतर
तलाश करना। और
जहां भी आसुरी
संपदा का थोड़ा—सा
भी झुकाव मिले, उसे
उखाड़कर फेंक
देना।
मजे की
बात यह है कि
जैसे कोई लान
लगाए दूब लगाए
घर में, तो उसमें व्यर्थ
का कूड़ा—कचरा
भी पैदा होना
शुरू होता है।
उसे उखाड़—उखाड़कर
फेंकना पड़ता
है। मजे की
बात यह है कि
दूब लगाते हैं
आप, कूड़ा—कचरा
अपने आप आता
है। और अगर
दूब को आप न
बचाएं तो वह
मर जाएगी। और
अगर कूड़े—कचरे
को न फेंकें, तो वह बिना
मेहनत किए
बढ़ता जाएगा।
धीरे—धीरे वह
सारी दूब पर
छा जाएगा, दूब
को खा जाएगा।
कूड़ा—कचरा ही
रह जाएगा।
आसुरी संपदा
बड़ी सरलता से
बढ़ती है। बढ़ने
का कारण है।
जैसे पानी
नीचे की तरफ
बहता है। ऊपर
चढ़ाना हो, तो
पंप करने की
व्यवस्था
बिठानी पड़ती
है, मेहनत
करनी पड़ती है।
नीचे अपने आप
जाता है।
वह जो
आसुरी संपदा
है, नीचे
की तरफ उतरना
है। उसमें
चढ़ाव नहीं है,
इसलिए श्रम
नहीं पड़ता। हम
सब उसमें
ढलकते हैं
अपने आप। और
जब तक हम सचेत
न हों, तब
तक रुकना बहुत
मुश्किल है।
सचेत हों।
तो
ध्यान रखना, जब भी
नीचे उतरने का
मन हो, तब
अपने को रोकना।
चाहे श्रम भी
पड़े, तो भी
दैवी संपदा की
तरफ कदम रखना।
वह पहाड़ की
चढ़ाई है।
पसीना उसमें
आएगा, थकान
भी होगी।
लेकिन उसके
मधुर फल हैं।
और उसका अंतिम
फल मोक्ष की
मधुरता है।
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