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शनिवार, 2 मई 2015

गीता दर्शन-(भाग--7) प्रवचन--182

आसुरी संपदा(प्रवचनतीसरा)

अध्‍याय—16
सूत्र:

दम्भो दयोंऽभिमानश्च क्रोध: पारूष्‍यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्म पार्थ संपदमासुशँम्।। 4।।
दैवी संयद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः संपदं दैवीमीभजातोऽसि पाण्डव।। 5।।
द्वौ भूतसगौं लस्कैऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे मृणु।। 6।।

और है पार्थ, पाखंड, घमंड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।
उन दोनों कार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्‍ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के  मानी गई है। इसलिए है अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।
और हे अर्जुन, हम लोक में भूतों के स्वभाव दो कार के बताए गए हैं। एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा। उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया, इसलिए अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सून।


 पहले कुछ प्रश्न।
पहला प्रश्न :

कल आपने कहा, पूरा अशांत होने पर शांति की साधना कठिन हो जाती है। लेकिन आप यह भी कहते रहे हैं कि विपरीत ध्रुवीयता के नियम के अनुसार अति पर पहुंचकर ही बदलाहट संभव होती है। इसे समझाएं।

 त्म—रूपांतरण, आत्यंतिक क्रांति तो अति पर ही संभव होती है। जब तक हम जीवन की एक शैली के आखिरी छोर पर न पहुंच जाएं, जब तक हम उसकी पीड़ा को पूरा न भोग लें, उसके संताप को पूरा न सह लें, तब तक रूपांतरण नहीं होता।
अशांत अगर कोई पूरा हो जाए, तो छलांग लग सकती है शांति में। लेकिन पूरा अशांत हो जाए, यह शर्त खयाल रहे। आधी अशांति से नहीं चलेगा। और हममें से कोई भी पूरा अशांत नहीं होता; हम थोड़े अशांत होते हैं। जब हम समझते हैं कि हम बहुत अशांत हैं, तब भी हम थोड़े ही अशांत होते हैं। जब हम सोचते हैं कि असहनीय हो गई है दशा, तब भी सहनीय ही होती है, असहनीय नहीं होती। क्योंकि असहनीय का तो अर्थ है कि आप बचेंगे ही नहीं।
जिसको आप असहनीय अशांति कहते हैं, उसे भी आप सह तो लेते ही हैं। प्रियजन मर जाता है, बेटा मर जाता है, मां मर जाती है, पत्नी मर जाती है, पति मर जाता है, असहनीय दुख हम कहते हैं, लेकिन उसे भी हम सह लेते हैं; और हम बच जाते हैं उसके पार भी। दो—चार महीने में घाव भर जाता है, हम फिर पुराने हो जाते हैं; फिर जिंदगी वैसी ही चलने लगती है। हमने कहा था असहनीय, लेकिन वह सहनीय था। अशांति पूरी न थी।
अशांति पूरी होती, तो दो घटनाएं संभव थीं। या तो आप मिट जाते, बचते न, और अगर बचते, तो पूरी तरह रूपांतरित होकर बचते। हर हालत में आप जैसे हैं, वैसे नहीं बच सकते थे। या तो आत्मघात हो जाता, या आत्मा—रूपांतरण हो जाता; पर आप जैसे हैं, वैसे ही बच नहीं सकते थे।
लेकिन देखा जाता है कि सब दुख आते हैं और चले जाते हैं, और आपको वैसा ही छोड़ जाते हैं जैसे आप थे, उसमें रत्तीभर भी भेद नहीं होता। आप वही करते हैं फिर, जो पहले करते थे—वही जीवन, वही चर्या, वही ढंग, वही व्यवहार। थोड़ा—सा धक्का लगता है, फिर आप सम्हल जाते हैं। फिर गाड़ी पुरानी लीक पर चलने लगती है।
आत्महत्या हो जाएगी और या आत्म क्रांति हो जाएगी, दोनों ही स्थिति में आप मिट जाएंगे। अति पर क्रांति घटित होती है। यदि कोई पूरा अशांत हो जाए, तो उसका अर्थ हुआ कि अब और अशांत होने की जगह न बची। अब इसके आगे अशांति में जाने का कोई मार्ग न रहा। आखिरी पड़ाव आ गया। अब गति का कोई उपाय नहीं। इस क्षण क्रांति घट सकती है; इस क्षण आप इस व्यर्थता को समझ सकते हैं। यह अशांत होने का सारा रोग व्यर्थ मालूम पड़ सकता है।
और ध्यान रहे, कोई और तो आपको अशांत करता नहीं, आप ही अशांत होते हैं। यह आपका ही अर्जन है, यह आपका ही लगाया हुआ पौधा है, आपने ही सींचा और बड़ा किया है। ये जो अशांति के फल और फूल लगे हैं, ये आपके ही श्रम के फल हैं। और अगर आप पूरे अशांत हो गए, तो आपको दिखाई पड़ जाएगा कि सब व्यर्थ था, यह पूरा श्रम आत्मघाती था। आप इसे छोड़ दे सकते हैं। कोई और आपको पकड़े हुए नहीं है, और कोई आपको अशांत नहीं कर रहा है।
एक क्षण में जीवन अशांति के मोड़ से शांति की दिशा में गति करता है। एक तो उपाय यह है। लेकिन जब मैंने कल कहा कि जब आप अशांत हैं तब शांत होना मुश्किल होगा, उसका प्रयोजन दूसरा है।
पहली तो बात यह कि जब आप अशांत हैं, तो मेरा अर्थ पूरी अशांति से नहीं है। आप आधे—आधे हैं। जैसे पानी को हम गरम करें; वह पचास डिग्री पर गरम हो, तो न तो वह भाप बन पाता है और न बर्फ बन पाता है। पानी ही रहता है। सिर्फ गरम होता है। या तो सौ डिग्री तक गरम हो जाए, तो रूपांतरण हो सकता है, पानी छलांग लगा ले, भाप बन जाए। और या शून्य डिग्री के नीचे गिर जाए, तो भी रूपांतरण हो सकता है, पानी समाप्त हो जाए, बर्फ बन जाए। दोनों हालत में पानी खो सकता है, लेकिन अतियों से।
तो जब मैंने कल कहा कि जब आप अशांत हैं तब शांत होना मुश्किल होगा, उसका मतलब इतना ही है कि जब पानी गरम है, तो बर्फ बनानी मुश्किल होगी। पानी को ठंडा करना होगा, तो बर्फ बन सकती है।
लेकिन दो उपाय हैं। या तो पानी को पूरा गरम कर लें, तो भी पानी खो जाएगा, आप एक नए जगत में प्रवेश कर जाएंगे। या फिर पानी को पूरा ठंडा हो जाने दें, तो भी पानी खो जाएगा और नई यात्रा शुरू हो जाएगी।
अशांति से कूदने के दो उपाय हैं। या तो बिलकुल शांत क्षण आ जाए और या बिलकुल अशांत क्षण आ जाए। आप जहां हैं, वहा से छलांग नहीं लग सकती। या तो पीछे लौटें और अपने को शांत करें या आगे बढ़े और पूरे अशांत हो जाएं।
दोनों की सुविधाएं और दोनों के खतरे हैं। शांत होने की सुविधा तो यह है कि कोई विक्षिप्तता का डर नहीं है। इसलिए अधिक धर्मों ने शांत होने के छोर से ही छलांग लगाने की कोशिश की है। संन्यासियों को कहा गया है, घर—द्वार छोड़ दें, गृहस्थी छोड़ दें, काम—काज छोड़ दें।
यह सब शांत होने की व्यवस्था है। उन परिस्थितियों से हट जाएं, जहां पानी गरम होता है। चले जाएं दूर हिमालय में, जहां कोई गरम करने को न होगा, धीरे— धीरे आप ठंडे हो जाएंगे। हट जाएं उन—उन स्थितियों से, जहां आप उबलने लगते हैं। बार—बार उबलने लगते हैं, उबलने की आदत बन जाती है। हट जाएं उन व्यक्तियों से, जिनके संपर्क में आपको ठंडा होना मुश्किल हो रहा है।
अधिक धर्मों ने, जहां आप हैं—मध्य में, अशांति में खड़े, अधूरी अशांति में—वहां से पीछे लौटने की सलाह दी है। खतरा उसमें कम है। लेकिन कठिनाई भी है उसकी। क्योंकि आप परिस्थितियों से हट सकते हैं, लोगों से हट सकते हैं, दुकान—बाजार छोड़ सकते हैं, लेकिन आपका मन आपके साथ हिमालय चला जाएगा। और जो मन यहां अशांत हो रहा था, वह मन तो आपके साथ होगा, सिर्फ अशांत करने वाली परिस्थितियां साथ न होंगी।
तो हो सकता है कि आप थोड़े शांत होने लगें, लेकिन वह शांति धोखा भी सिद्ध हो सकती है। बीस साल हिमालय पर रहकर वापस लौटें, और जैसे ही नगर में आएं, अशांति वापस पकड़ सकती है। क्योंकि परिस्थिति से हट गए थे, आप शांत नहीं हुए थे, जहां अशांति होती थी, उस जगह से हट गए थे। तो खतरा भी है, सुविधा भी है।
दूसरा उपाय कुछ धर्मों की विशेष शाखाओं ने किया है। जैसे बुद्ध—धर्म की झेन शाखा ने अशांत करने का पूरा प्रयोग किया है। इस्लाम की सूफी शाखा ने अशांत करने का पूरा प्रयोग किया है। वे कहते हैं, भागने से कुछ भी न होगा। चित्त को उसकी पूरी दौड़ में चले जाने दें, उसको हो लेने दें जितना पागल होना है। उसको उसके पूरे पागलपन को छू लेने दें और वहीं से छलांग लें।
इसके खतरे हैं, इसके लाभ हैं। खतरा तो यह है कि आप क्रमश: पाएंगे कि आप और भी पागल होते जा रहे हैं। खतरा यह है कि अगर आप पूरे छोर तक न पहुंचे, नब्बे डिग्री पर कहीं रुक गए, तो आप विक्षिप्त हालत में रह जाएंगे। बहुत—से संन्यासी विक्षिप्त अवस्था में रह जाते हैं।
सौ डिग्री तक पहुंचें, तो पानी भाप बन जाएगा, लेकिन जरूरी नहीं है कि आप पहुंच पाएं। अगर निन्यानबे डिग्री पर भी रह गए, तो आप सिर्फ पागल होंगे, उन्मत्त हो जाएंगे। उस उन्मत्तता की अवस्था में न तो पीछे लौटना आसान होगा, न आगे जाना आसान होगा।
वह दुर्घटना घटती है। अगर बीच में अटके, तो कठिनाई बढ़ जाएगी। और आप इस हालत में होंगे उबलने की कि फिर आप कुछ भी न कर पाएंगे। इसलिए यह जो दूसरा मार्ग है, अनिवार्यरूपेण किसी गुरु के पास ही साधा जा सकता है।
पहला मार्ग अकेला भी साधा जा सकता है, क्योंकि शांत होने की प्रक्रिया है, कोई खतरा नहीं है। दूसरे मार्ग में खतरा है। कोई चाहिए, जो आपको सौ डिग्री तक पहुंचा दे। क्योंकि पचास—साठ डिग्री के बाद आपका होश आपके काम नहीं आएगा। आप इतनी उबलती हालत में होंगे कि फिर आप अपने नियंत्रण में नहीं होंगे। कोई और चाहिए, जो आपको आगे ले जाए। और आखिरी क्षणों में, जब सौ डिग्री पर आप पहुंचते हैं, तब तो गुरु भी चाहिए ऐसा स्थान चाहिए, जहां और भी साधक आस—पास हों, जहां का पूरा वातावरण आपको सौ डिग्री तक पहुंचा दे और टूटने न दे।
इसलिए ग्रुप, एक समूह, स्कूल, संप्रदाय, आश्रम, इसका उपयोग है। जहां बहुत—से लोग उस शांत अवस्था को पहुंच गए हैं, जहां बहुत—से लोग इस उबलती हुई अवस्था को पार कर गए हैं, जहां बहुत—से लोगों ने सौ डिग्री का ताप और पागलपन जाना है, उनकी मौजूदगी आपको सम्हालेगी। और कई बार महीनों तक, वर्षों तक यह विक्षिप्त अवस्था बनी रह सकती है। उस वक्त कोई चाहिए, जो आपको देखे और सम्हाले।
पश्चिम के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पश्चिम के पागलखानों में बहुत—से ऐसे पागल बंद हैं, जो पागल नहीं हैं, जो सिर्फ उन्माद की अवस्था में हैं। लेकिन पश्चिम में उनको सम्हालने वाला कोई नहीं है।
ईसाइयों ने, मुसलमानों ने, हिंदुओं ने, बौद्धों ने मोनेस्ट्रीज खड़ी की थीं। आज भी ईसाइयों की कुछ मोनेस्ट्रीज पश्चिम में हैं, जहां व्यक्ति प्रवेश करता है एक बार, तो फिर मरने के पहले वापस नहीं निकलता है। बीस वर्ष, तीस वर्ष, चालीस वर्ष। जो व्यक्ति एक बार द्वार के भीतर गया, वह फिर आश्रम के बाहर नहीं आता, जब तक कि वह अतिक्रमण न कर जाए। जब तक गुरु आज्ञा न दे, तब तक दुनिया से उसका कोई वास्ता नहीं है। और पूरा समूह सहयोगी होता है। इन मोनेस्ट्रीज में अनेक लोग विक्षिप्त अवस्था में वर्षों तक रहते हैं।
तो दूसरे मार्ग का खतरा है, सुविधा भी है। सुविधा यह है कि धोखे का कोई उपाय नहीं है। एक बार पार कर गए, तो पार कर गए; फिर लौटकर गिरना नहीं होगा। फिर यह सारी दुनिया भी आपको अशांत नहीं कर सकती। फिर आप कहीं भी हों, आपको नरक में भी डाल दिया जाए, तो भी आप स्वर्ग में ही होंगे। आपके स्वर्ग को छीना नहीं जा सकता। यह तो सुविधा है।
खतरा यह है कि बड़ी व्यवस्था चाहिए, योग्य निरीक्षण चाहिए, समर्पण का पूरा भाव चाहिए। क्योंकि अपने को पागल करने देना और किसी को शक्ति देना कि वह आपको पागलपन की तरफ ले जाए, पूरा उद्विग्न कर दे, बड़े समर्पण के बिना नहीं हो सकेगा। पूरा समर्पण चाहिए और अंधा अनुकरण चाहिए, तभी आप पागल हो सकेंगे। और एक बार आप पूरी तरह जल जाएं भीतर, तो छलांग लग जाएगी। अति से ही रूपांतरण होता है।
कृष्ण पहले मार्ग की बात कर रहे हैं, जो व्यक्ति अकेला भी साध सकता है। इसलिए मैंने कहा कि जब आप अशांत हैं, तब शांत होना बहुत मुश्किल होगा। इसलिए जब आप शांत हैं, तभी शांति को साधें, ताकि अशांत होने का मौका न आए। और शांति आपके जीवन का आधार बन जाए। धीरे— धीरे वह इतना सुदृढ़ हो जाए कि आप पानी को भाप बनाकर क्रांति में न जाएं, वरन पानी को बर्फ बनाकर क्रांति में जाएं।
पानी से तो हटना है। जहां आप हैं, वहां से तो चलना है। ये चलने के दो उपाय हैं। ज्यादा सुगम—अकेले भी चला जा सके, विक्षिप्तता का भय न हो—पहला मार्ग है। ज्यादा तीव्र, ज्यादा प्रामाणिक, जिससे लौटकर गिरने का कोई डर नहीं है, लेकिन ज्यादा खतरनाक, दुस्साहस का, दूसरा मार्ग है। और प्रत्येक व्यक्ति को तय करना होता है कि उसका कितना साहस है, कितनी क्षमता है, कितना दाव पर लगाने की हिम्मत है।
अगर दुकानदार का मन हो, तो पहला मार्ग ठीक है; अगर जुआरी का मन हो, तो दूसरा मार्ग ठीक है। अगर का चित्त हो, तो पहला मार्ग ठीक है, अगर युवा चित्त हो, तो दूसरा मार्ग ठीक है। अगर स्त्री का चित्त हो, तो पहला मार्ग ठीक है; अगर पुरुष का चित्त हो, तो दूसरा मार्ग ठीक है।
पर प्रत्येक को समझना होता है कि उसकी अपनी जीवन—दशा कैसी है। जहां वह खड़ा है, जैसा वह है, क्या उसके लिए सुगम होगा। क्योंकि आप अगर कुछ अपने से विपरीत मार्ग चुन लें, तो आपका समय, शक्ति अपव्यय होगी। और इसीलिए गुरु की उपादेयता हो जाती है। क्योंकि न केवल वह मार्ग दे सकता है, बल्कि वह यह भी परख दे सकता है कि आपके लिए क्या उचित होगा।
इसलिए पुराने दिनों में एक—एक साधक को गुरु उसके कान में ही उसकी साधना का सूत्र देता रहा है; उसके कान में ही मंत्र देता रहा है। वह उसके लिए निजी था। वह उस व्यक्ति के लिए विशेष था। वह उसका मार्ग, पथ था। उस मंत्र को किसी को कहना भी नहीं है.। क्योंकि आप नहीं जानते, वह किसी और के काम आ सकता है कि नहीं आ सकता है। और आपको पता नहीं है कि वह किसी को नुकसान भी पहुंचा सकता है; किसी के लिए कल्याणकारी हो सकता है।
तो वह जो अतिक्रमण कर गया है जीवन की सारी स्थितियों को, जो लौटकर देख सकता है सारे विस्तार को, जो आपके अंतःकरण में प्रवेश कर सकता है, जो आपके मन की आज की दशा जान सकता है, जो आपके अतीत संस्कारों को ठीक से पहचान सकता है और जो निर्णय ले सकता है कि भविष्य आपके लिए कौन—सा सुगम होगा, उसके बिना मार्ग पर बढ़ जाना सदा ही जोखम का काम है।

 दूसरा प्रश्न :

कृष्ण ने गीता में लोक और शास्त्र के विरूद्ध आचरण का निषेध किया है। लेकिन इस नियम से तो समाज लकीर का फकीर होकर रह जाएगा। शायद यही कारण है कि हिंदू समाज सदियों —सदियों से यथास्थिति में पड़कर सड रहा है। इस प्रवृत्ति से तो दकियानूसीपन ही बढ़ेगा तथा सुधार, परिवर्तन और क्रांति असंभव हो जाएंगे! इस पर प्रकाश डालें।

 से समझना जरूरी है।
पहली बात, कृष्ण जो भी कह रहे हैं गीता में, वह कोई समाज—सुधार का आयोजन नहीं है, वह कोई समाज—सुधार की रूप—रेखा नहीं है। वह प्रस्तावना व्यक्ति की आत्मक्रांति के लिए है। और ये दोनों बातें बड़ी भिन्न हैं।
अगर व्यक्ति को आत्मक्रांति की तरफ जाना हो, तो यही उचित है कि वह व्यर्थ के उपद्रवों में न पड़े। क्योंकि शक्ति सीमित है, समय सीमित है, और जीवन और समाज के प्रश्न तो अनंत हैं। उनकी कभी कोई समाप्ति होने वाली नहीं है।
हजारों वर्षों से समाज है, हजारों रूपांतरण किए गए हैं, हजारों सामाजिक क्रांतिया हो चुकी हैं, लेकिन समाज फिर भी सड़ रहा है। एक चीज बदल जाती है, तो दूसरी खड़ी हो जाती है। दूसरी बदल जाती है, तो तीसरा सवाल खड़ा हो जाता है। एक समस्या का हम समाधान करते हैं, तो समाधान से ही दस समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। समस्याओं का समाज के लिए कभी कोई अंत आने वाला नहीं है।
हिंदू इस बात को बड़े गहरे से समझ गए कि समाज बहता रहेगा, समस्याएं बनी रहेंगी। क्यों? क्योंकि समाज बनता है करोड़ों—करोड़ों, अरबों—अरबों लोगों से। और वे अरब— अरब लोग अज्ञान से भरे हैं, वे अरब— अरब लोग पागलपन से भरे हैं, वे अरब—अरब लोग विक्षिप्त हैं। उन अरबों लोगों का जो समाज है, वह कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता। बीमार होना उसका लक्षण ही रहेगा, जब तक कि ये सारे लोग प्रबुद्ध पुरुष न हो जाएं।
बुद्धों का कोई समाज हो, तो समस्याओं के पार होगा। हमारा समाज समस्याओं के पार कभी हो नहीं सकता। और हम जो भी करेंगे। एक तरफ हम सुधारेंगे, तो दस तरफ हम बिगाड़ कर लेते हैं।
आज से दो सौ साल पहले दुनियाभर के विचारकों का खयाल था, अगर शिक्षा बढ़ जाए जगत में, तो स्वर्ग आ जाएगा। अब शिक्षा बढ़ गई है। अब सारा जगत शिक्षा के मार्ग पर गतिमान हुआ है। अधिकतम लोग शिक्षित हैं। लेकिन अब शिक्षा के कारण जो परेशानियां आ रही हैं, वह दो सौ साल पहले के समाज—सुधारकों को उनका कोई पता भी नहीं था।
अब शिक्षा के कारण ही उपद्रव है। और बड़े विचारक, डी एच लारेंस जैसा विचारक, यह सुझाव दिया कि सौ साल तक हमें सारे विश्वविद्यालय बंद कर देने चाहिए, सौ साल तक सारी शिक्षा बंद कर देनी चाहिए, तो ही हमारी समस्याओं का हल होगा, नहीं तो हल नहीं हो सकता।
आज हमारे सारे पागलपन और उपद्रव का गढ़ विश्वविद्यालय बन गया है। सब उपद्रव वहां से पैदा हो रहे हैं। सोचा था, शिक्षा स्वर्ग ले आएगी। लेकिन जिनको हमने शिक्षित किया है, वे समाज को और नरक बनाए दे रहे हैं! सोचा था कि शिक्षा से लोग सत्य, धर्म, नीति की तरफ बढ़ेंगे। लेकिन शिक्षा सिर्फ लोगों को बेईमान और चालाक बना रही है।
शिक्षित आदमी के ईमानदार होने में कठिनाई हो जाती है, क्योंकि वह गणित बिठालने लगता है, चालाक हो जाता है। बुद्धि बढ़ेगी, तो चालाकी भी बढ़ेगी। चालाकी बढ़ेगी, तो दूसरे का शोषण करने में ज्यादा कुशल हो जाएगा। शिक्षा बढ़ेगी, तो महत्वाकांक्षा बढ़ेगी, एंबीशन बढ़ेगी। महत्वाकांक्षा बढ़ेगी, तो वह संघर्ष करेगा। तृप्ति कम हो जाएगी, असंतोष घना हो जाएगा।
वह देखता है कि दूसरा आदमी अगर एम ए. पास है और चीफ मिनिस्टर हो गया है और मैं भी एम ऐं. पास हूं तो मैं क्यों क्लर्क रहूं! और यह भी हो सकता है कि थर्ड क्लास एम .ए. मिनिस्टर हो गया है और फर्स्ट क्लास एम ए. क्लर्क है, तो वह कैसे बरदाश्त करे! तो उपद्रव खड़ा होगा।
लोग सोचते थे, गरीबी कम हो जाएगी, तो समाज में सुख आ जाएगा। अमेरिका से गरीबी काफी मात्रा में तिरोहित हो गई। कम से कम आधे वर्ग की तो तिरोहित हो गई। लेकिन वह जो आधा वर्ग आज गरीबी के बिलकुल पार है, वह बड़े महान दुख में पड़ा हुआ है।
अब तक हम सोचते थे कि धन होगा, तो सुख होगा। अब जिनके पास धन है, उनका सुख इस बुरी तरह खो गया है, जितना किसी गरीब का कभी नहीं खोया था। गरीब को एक आशा थी कि कभी धन होगा, तो सुख मिल जाएगा। जिनके पास आज धन है, उनकी यह आशा भी खो गई है। धन है, और सुख नहीं मिला। अब भविष्य बिलकुल अंधकार है। कुछ पाने योग्य भी नहीं है। और फिर जीने की कोई आशा भी नहीं रह गई है।
तो अमेरिका सर्वाधिक आत्मघात कर रहा है। अधिकतम लोग अपने को मिटाने की हालत में हैं। जीकर भी क्या करें? गरीबी मिट जाए, अशिक्षा मिट जाए हम सोचते हैं, बीमारी मिट जाए, सभी लोग स्वस्थ हो जाएं। पर स्वस्थ होकर भी आदमी क्या करेगा?
मैंने सुना है, तैमूरलंग ने एक ज्योतिषी को बुलाया। तैमूरलंग को काफी नींद आती थी। तो उसने ज्योतिषी से पूछा कि बात क्या है? क्या मेरे तारों में, क्या मेरे भाग्य में, क्या मेरी जन्मकुंडली में कुछ ऐसी बात है कि मुझे बहुत नींद आती है? रातभर भी सोता हूं तो भी दिनभर मुझे नींद आती है। और यह तो बुरा लक्षण है। क्योंकि शास्त्रों में कहा है, इतना आलस्य तामसी प्रवृत्ति का सूचक है। उस ज्योतिषी ने कहा कि महाराज, इससे ज्यादा स्वागत—योग्य कुछ भी नहीं है। आप चौबीस घंटे सोए। यह बिलकुल शुभ लक्षण है। शास्त्र गलती पर हैं।
तैमूरलंग को भरोसा नहीं आया। उसने कहा कि शास्त्र गलत नहीं हो सकते, तुम यह क्या कह रहे हो! उसने कहा कि शास्त्रों ने आपके संबंध में लिखा ही नहीं है। आप जैसा आदमी चौबीस घंटे सोए, यही सुखद है। आप जितनी देर जगते हैं, उतना ही उपद्रव होता है। आपसे उपद्रव के सिवाय कुछ हो ही नहीं सकता। तो परमात्मा की बड़ी कृपा है कि आप सोए रहें। आपका जीवित होना खतरनाक है। आपका मर जाना शुभ है।
आदमी पर निर्भर है। अगर आप, जिसको आप कह रहे हैं कि सारा जगत स्वस्थ हो जाए, ये सारे उपद्रवी लोग अगर स्वस्थ हो जाएं, तो आप यह मत सोचना कि शांति आएगी दुनिया में। वह जो बीमार था, एक पत्नी से राजी था, वह जब स्वस्थ हो जाएगा, दस पत्नियों से भी राजी होने वाला नहीं। वह बीमार था, तो वह कभी बरदाश्त भी कर लेता था, सह भी लेता था, समझा लेता था अपने को। वह स्वस्थ हो जाएगा, तो वह तलवार लेकर कूद पड़ेगा, वह सह भी नहीं सकेगा, बरदाश्त भी नहीं करेगा।
आदमी अगर गलत है, तो उसका स्वस्थ होना खतरनाक है। आदमी अगर गलत है, तो उसका शिक्षित होना खतरनाक है। आदमी अगर गलत है, तो उसका धनी होना खतरनाक है। और आदमी गलत हैं, समाज गलत आदमियों का जोड़ है। हमारे हिसाब से समाज सदा ही गलत आदमियों का जोड़ रहेगा। क्योंकि जो भी आदमी ठीक हो जाता है, हिंदुओं के गणित से, वह वापस नहीं लौटता।
कृष्ण या बुद्ध या महावीर, जैसे ही शुभ हो जाते हैं, यह उनका आखिरी जीवन है। फिर इस जीवन में वे वापस नहीं आते। तो शुभ आदमी तो जीवन से तिरोहित हो जाता है, अशुभ आदमी लौटता आता है।
यह कारागृह, जिसको हम संसार कहते हैं, वह बुरे आदमी की जगह है। उसमें से भला तो अपने आप छिटककर बाहर हो जाता है। बुरा उसमें वापस लौट आता है, और भी निष्णात होता जाता है, और भी कुशल होता जाता है बुराई में। जितनी बार लौटता है, उतना निष्णात होता जाता है।
इसलिए समाज कभी शुभ हो नहीं सकेगा। यह बात निराशाजनक लग सकती है, लेकिन तथ्य यही है।
और कृष्ण या बुद्ध या महावीर या जीसस की उत्सुकता समाज में नहीं है, उत्सुकता व्यक्ति में है। क्योंकि वही बदला जा सकता है। और व्यक्ति को अगर जीवन—क्रांति करनी है, तो उचित है कि वह व्यर्थ की बातों में न पड़े। कि दहेज की प्रथा मिटानी है, इसमें लग जाए; आदिवासियों को शिक्षित करना है, इसमें लग जाए; हरिजनों का सुधार करना है, इसमें लग जाए; कोढ़ी की सेवा करना है, इसमें लग जाए। कुछ भी बुरे नहीं हैं ये काम, सब अच्छे हैं। लेकिन आपके पास जिंदगी कितनी है? और आप इसमें लग जाएं, तो आप समाप्त हो जाएंगे। न हरिजन मिटता है, न कोढ़ी मिटता है, न बीमार मिटता है, आप मिट जाएंगे। नए तरह के हरिजन पैदा हो जाएंगे।
रूस ने लाख उपाय किए क्रांति कर डाली। पुराना मजदूर मिट गया, नया मजदूर पैदा हो गया। पहले अमीर आदमी था, गरीब आदमी था; अब सरकारी आदमी है और गैर—सरकारी आदमी है। फर्क उतना ही है। तब भी कोई छाती पर बैठा था और कोई जमीन पर पड़ा था; अब भी कोई जमीन पर पड़ा है और कोई छाती पर बैठा है। नाम बदल जाते हैं, बीमारी कायम रहती है।
जिस व्यक्ति को आत्म—क्रांति में लगना है, उसे व्यर्थ के उपद्रव से अपने को बचाना चाहिए, यह कृष्ण का अर्थ है। तो वे कहते हैं, शास्त्र और समाज का जो नियम है, उसमें वह जो दैवी संपदा का व्यक्ति है, वह व्यर्थ की अड़चन नहीं डालता। उसे खेल का नियम मानकर पूरा कर देता है। वह कहता है, बाएं चलना है तो हम बाएं चल लेते हैं। वह इस पर झगड़ा खड़ा नहीं करता कि नहीं, दाएं चलेंगे। इस पर जीवन नहीं लगा देता। इसका कोई मूल्य भी नहीं है। और ऐसा व्यक्ति अपने जीवन का, अपनी ऊर्जा का सम्यक उपयोग कर पाता है।
और बड़े मजे की बात, विरोधाभासी दिखे तो भी बड़े मजे की बात यह है कि ऐसे व्यक्ति के जीवन के द्वारा समाज में कुछ घटित भी होता है। लेकिन वह प्रत्यक्ष नहीं होता घटित। वह सीधा समाज को बदलने नहीं जाता, वह अपने को बदल लेता है। लेकिन उसकी बदलाहट के परिणाम समाज में भी प्रतिध्वनित होते हैं।
हजारों क्रांतिकारी जो फर्क समाज में नहीं कर पाते, वह एक आत्मा को उपलब्ध व्यक्ति कर पाता है। लेकिन वह उसकी इच्छा नहीं है, वह उसके लिए कोशिश में भी नहीं लगा है। उसकी मौजूदगी, उसके जीवन का प्रकाश अनेकों को बदलता है। लेकिन वह बदलाहट बड़ी सौम्य है। वह कोई क्रांति नहीं है। वह बहुत सौम्य विकास है। उसका कोई शोरगुल भी नहीं है। वह चुपचाप घटित होता है। वह मौन ही घट जाता है।
बुद्ध कोई क्रांति नहीं करते हैं समाज में, लेकिन बुद्ध के बाद दुनिया दूसरी हो जाती है। बुद्धों की मौजूदगी, उनके ज्ञान की घटना, मनुष्य की चेतना को कहीं गहरे में रूपांतरित कर जाती है, किसी को पता भी नहीं चलता। यह ऐसे हो जाता है, जैसे चुपचाप कोई फूल खिलता है और उसकी सुगंध हवाओं में फैल जाती है। न कोई बैड बजता, न कोई नगाड़े बजते; कोई शोरगुल नहीं होता, चुपचाप सुगंध हवाओं में भर जाती है। फूल खो भी जाता है, तो सुगंध तिरती रहती है। सदियों—सदियों तक उस सुगंध से लोग आप्लावित होते हैं, रूपांतरित होते हैं।
लेकिन ये रुख यात्रा के बिलकुल अलग—अलग हैं। जो व्यक्ति समाज की तरफ उत्सुक हो जाएगा कि समाज को बदलना है, वह व्यक्ति अपने को बदलने में उत्सुक नहीं होता। अगर गहरे से समझना चाहें, तो असल में हम दूसरे को बदलने में इसलिए उत्सुक होते हैं, क्योंकि हम अपने को बदलना नहीं चाहते। यह एक तरह का पलायन है, यह एक तरकीब है।
तो हम देखते हैं, कहां—कहां दुनिया में भूल—चूक है, उसको बदलना है। सिर्फ अपने में कोई भूल—चूक नहीं देखते। और अपने में भूल—चूक दिखाई भी नहीं पड़ेगी, क्योंकि दुनिया में काफी भूल—चूके हैं।
और अगर मैंने यह तय कर लिया कि जब तक दुनिया न बदल जाए, तब तक मैं अपनी तरफ ध्यान न दूंगा, तो मैं अनंत जन्मों तक लगा रहूं तो भी मुझे अपने पर ध्यान देने का समय नहीं मिलेगा। यह दुनिया कभी पूरी बदल जाने वाली नहीं है।
इसलिए समाज को चुपचाप स्वीकार कर लेना दकियानूसीपन नहीं है, एक बहुत बुद्धिमत्ता का कृत्य है। और इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि ऐसे व्यक्ति से क्रांति घटित नहीं होती। ऐसे ही व्यक्ति से क्रांति घटित होती है। लेकिन वह क्रांति परोक्ष है। वह क्रांति लेनिन और मार्क्स और माओ जैसी क्रांति नहीं है। वह क्रांति महावीर, कृष्ण और बुद्ध की क्रांति है। वह बड़ी चुपचाप घटित होती है।
और इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, वह चुपचाप घटित होता है। और जो भी व्यर्थ है, कचरा—कूड़ा है, वह काफी शोरगुल करता है। इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, इतिहास उसको अंकित ही नहीं कर पाता। इस जगत में जो भी उपद्रव, उत्पात है, इतिहास उसको अंकित करता है।
एक यहूदी फकीर के संबंध में मैं पढ़ता था। वह अक्सर लोगों से कहता था कि मैं सिर्फ दो किताबें पढ़ता हूं, एक भगवान की और एक शैतान की। अनेक बार लोग उससे पूछते कि भगवान की किताब तो हम समझते हैं कि तालमुद यहूदियों का धर्मग्रंथ है, वह आप पढ़ते होंगे। लेकिन शैतान की किताब? यह इसका नाम क्या है? तो वह हंसता और टाल जाता।
जब उसकी मृत्यु हुई, तो पहला काम उसके शिष्यों ने यह किया कि उसकी कोठरी खोलकर देखा कि वह शैतान की किताब! उसके वहां दो तख्तियां लगी थीं : एक तरफ भगवान की किताब—वहा तालमुद रखी थी, और शैतान की किताब—वहां रोज का अखबार। वहा कोई किताब नहीं थी, वह जो रोज का अखबार है! बस, दो ही किताबें वह पढ़ता था।
अखबार इतिहास बन जाएगा। अगर जीसस के समय कोई अखबार होता, तो उसने जीसस की खबर छापी भी नहीं होती। किसी किताब में जीसस का कोई उल्लेख नहीं है। सिवाय जीसस के शिष्यों ने जो थोड़ा—सा लिखा है, बस वही बाइबिल, अन्यथा कोई उल्लेख नहीं है।
महावीर का इतिहास की किताबों में कोई उल्लेख नहीं है। वह जो महान घटना है, इतिहास के जैसे बाहर घटती है! इतिहास उसकी चिंता ही नहीं लेता। क्योंकि वह इतनी सौम्य है, उसकी कोई चोट नहीं पड़ती। न किसी की हत्या होती है, न गोली चलती है, न हड़ताल होती है, न घेराव होता है। कोई उपद्रव होता ही नहीं उसके आस—पास, इसलिए वह घटना चुपचाप घट जाती है। लेकिन उसके परिणाम सदियों तक गूंजते रहते हैं।
इतिहास कचरा है।
अमेरिकी अरबपति हेनरी फोर्ड कभी—कभी बड़ी कीमत की बातें कहता था। कभी—कभी छोटे—छोटे वचन, लेकिन बड़ी कीमत की बातें कहता था। उसका एक बहुत प्रसिद्ध छोटा—सा वचन है। उसने कहा है, हिस्ट्री इज बैक—बिलकुल कूड़ा—कर्कट है। और जो भी महत्वपूर्ण है, वह इतिहास के बाहर है, वह समय के बाहर घट रहा है, वह चुपचाप घटित हो रहा है।
तो ऐसा नहीं है कि ऐसे व्यक्ति से क्रांति घटित नहीं होती, ऐसे ही व्यक्ति से घटित होती है, लेकिन वह मौन क्रांति है।

 तीसरा प्रश्न :

गीता में दैवी संपदा को प्राप्त व्यक्ति के लक्षण या गुण बताए गए हैं। क्या उन्हें अलग— अलग साधने से दिव्यता उपलब्ध होती है? या दिव्यता की उपलब्धि पर उसके फूल की तरह ये गुण चले आते हैं?

 दोनों ही बातें एक साथ सच हैं। दोनों बातें एक साथ घटती हैं, युगपत।
प्रश्न ऐसा ही है, जैसे कोई पूछे कि मुर्गी पहले होती है कि अंडा। और सदियों से दार्शनिक विवाद करते रहे हैं। सवाल बचकाना लगता है, लेकिन जटिल है, और अब तक कुछ तय नहीं हो पाया कि पहले अंडा या पहले मुर्गी। क्योंकि कुछ भी तय करें, तो गलत मालूम होता है। कहें कि मुर्गी पहले होती है, तो गलत मालूम पड़ता है, क्योंकि मुर्गी बिना अंडे के कैसे हो जाएगी! कहें कि अंडा पहले होता है, तो गलत मालूम होता है, क्योंकि अंडा हो कैसे जाएगा जब तक मुर्गी उसे रखेगी नहीं! तो क्या करें? प्रश्न में कहीं कोई भूल है, इसलिए उत्तर नहीं मिल पाता है। और जब प्रश्न गलत हो, तो सही उत्तर खोजना बिलकुल असंभव है। कहां गलती है?
मुर्गी और अंडा को दो मानने में गलती है। अंडा मुर्गी की एक अवस्था है, मुर्गी अंडे की दूसरी अवस्था है। दोनों दो चीजें नहीं हैं। अंडा ही फैलकर मुर्गी होता है, मुर्गी फिर सिकुड़कर अंडा होती है।
बीज से वृक्ष होता है, वृक्ष में फिर बीज लग जाते हैं; तो बीज और वृक्ष दो चीजें हैं नहीं। बीज का फैलाव वृक्ष है, वृक्ष का फिर से सिकुडाव बीज है। एक रिदम है। चीजें फैलती हैं और सिकुड़ती हैं। बीज सिकुड़ा हुआ वृक्ष है, वृक्ष फैला हुआ बीज है। और जैसे दिन के बाद रात है और रात के बाद दिन है, ऐसा फैलाव के बाद सिकुडाव है, सिकुडाव के बाद फैलाव है। जन्म के बाद मृत्यु है, मृत्यु के बाद जन्म है। ये दो घटनाएं नहीं हैं; एक वर्तुल है।
तो मुर्गी अंडा दो चीज नहीं है, अंडा छिपी हुई मुर्गी है और मुर्गी प्रकट हो गया अंडा है। और दोनों एक साथ हैं। इसलिए इस प्रश्न को अगर किसी ने सोचना शुरू किया कि कौन पहले, तो वह पागल भला हो जाए सोचते—सोचते, वह इसका उत्तर नहीं पा सकेगा।
और ऐसे बहुत—से प्रश्न हैं। यह प्रश्न भी वैसा ही है कि ये जो लक्षण हैं, इनके साधने से दिव्यता सधती है; या दिव्यता सध जाए, तो ये लक्षण फूल की भांति खिल जाते हैं।
ये दो बातें अलग नहीं हैं। लक्षण सध जाएं, तो दिव्यता सध गई, क्योंकि उन लक्षणों में दिव्यता छिपी है। दिव्यता सध जाए, तो लक्षण आ गए, क्योंकि दिव्यता बिना उन लक्षणों के आ नहीं सकती। लक्षण और दिव्यता दो बातें नहीं हैं। लक्षण दिव्यता के अनिवार्य अंग हैं।
तो आप कहीं से भी यात्रा करें। आप मुर्गी खरीद लाएं, तो घर में अंडे आ जाएंगे। आप अंडा ले आएं, तो मुर्गी बन जाएगी। पर बैठकर सोचते ही मत रहें कि क्या लाएं। कुछ भी ले आएं। दो में से कुछ भी लाएं। कहीं ऐसा न हो कि आप सोचते ही रहें, मुर्गी भी खो जाए, अंडा भी खो जाए। आप लक्षण साध लें, आप पाएंगे, उनके साथ ही साथ दिव्यता खिलने लगी। आप छोडे लक्षणों की चिंता। आप दिव्यता को साधने में लग जाएं।
दोनों संभावनाएं हैं। जो लोग लक्षणों को साधने चलते हैं, उन्हें आचरण से अपने को बदलना शुरू करना पड़ता है। आचरण आपकी बहिर परिधि है। आप क्या करते हैं, उसमें बदलाहट करेंगे, तो लक्षण सध जाएंगे। जो लोग दिव्यता साधना चाहते हैं, उन्हें अंतःकरण बदलने से शुरू करना पड़ता है। अंतःकरण आपका केंद्र है। आप बदल जाएंगे, आपका आचरण बदल जाएगा।
जहां से आपको सुगमता लगती हो, अगर आप बहिर्मुखी व्यक्ति हैं......।
मनसविद दो विभाजन करते हैं व्यक्तियों के बहिर्मुखी, एक्सट्रोवर्ट, और अंतर्मुखी, इंट्रोवर्ट। अगर आप बहिर्मुखी व्यक्ति हैं, कि आपको बाहर की चीजें ज्यादा दिखाई पड़ती हैं, तो आपके लिए उचित होगा कि आप लक्षण साधें। क्योंकि भीतर का आपको कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। अगर आपसे कोई कह भी दे कि आख बंद करो और भीतर देखो, तो आप कहेंगे, भीतर क्या है देखने को? देखने को तो सब बाहर है। अगर भीतर आख भी बंद कर लें, तो भी बाहर की ही याद आएगी। मित्र दिखाई पड़ेंगे, मकान दिखाई पड़ेंगे, घटनाएं दिखाई पड़ेंगी, वह सब बाहर है।
वैज्ञानिक है, वह बहिर्मुखी है। क्षत्रिय है, वह बहिर्मुखी है। कवि है, चित्रकार है, वह अंतर्मुखी है। उसे सब भीतर है।
प्रसिद्ध डच चित्रकार हुआ, वानगाग। उसके चित्र बिक नहीं सके, क्योंकि उसके चित्र बिलकुल समझ के बाहर थे। वह वृक्ष बनाएगा, तो इतने बड़े, कि आकाश तक चले जाएं। चांद वगैरह बनाएगा, तो छोटे—छोटे लटका देगा, और वृक्ष चांद के ऊपर चले जा रहे हैं! वृक्षों को ऐसे रंग देगा, जैसे वृक्षों में होते ही नहीं रंग। वृक्ष हरे हैं, उसके वृक्ष लाल भी हो सकते हैं।
तो लोग कहते, यह तुम क्या करते हो! वह कहता, जब मैं आख बंद करता हूं तो जो मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैं.। क्योंकि जब भी मैं देखता हूं तो मुझे वृक्ष पृथ्वी की आका्ंक्षाएं मालूम पड़ते हैं, आकाश को छूने की आका्ंक्षाए। जब भी मैं आख बंद करता हूं तो मैं देखता हूं पृथ्वी कोशिश कर रही है वृक्षों के द्वारा आकाश को छूने की, इसलिए मेरे वृक्ष आकाश तक चले जाते हैं। जो काम पृथ्वी नहीं कर पाती, वह मैं करता हूं। पर वृक्षों को मैं ऐसे ही देखता हूं। यह एक अंतर्मुखी व्यक्ति की, जिसका जगत भीतर है......। यह अंतर्मुखी व्यक्ति अगर कोई हो, तो उसे दिव्यता से शुरू करना
पडेगा। बहिर्मुखी व्यक्ति कोई हो तो उसे आचरण से शुरू करना पड़ेगा।
तो आप लक्षण से शुरू करें या दिव्यता से; शुरू करें! दूसरी घटना अपने आप घट जाएगी। आचरण को बदलते—बदलते आप भीतर आने लगेंगे। क्योंकि आचरण की जड़ें तो भीतर हैं, सिर्फ शाखाएं बाहर हैं। अगर आप आचरण को बदलने लगे, तो आज शाखाएं बदलेंगे, कल आप जड़ों को पकड़ लेंगे, जड़ें भीतर हैं। अगर आप अंतःकरण को बदलते हैं, तो अंतःकरण में जड़ें तो भीतर हैं, लेकिन शाखाएं बाहर हैं। आप जड़ों से शुरू करेंगे, यात्रा करते—करते आज नहीं कल बाहर पहुंच जाएंगे।
बाहर और भीतर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न तो बाहर अलग है भीतर से, न भीतर अलग है बाहर से। बाहर और भीतर एक का ही विस्तार है। कहीं से भी शुरू करें, दूसरा छोर प्रकट हो जाएगा। लेकिन शुरू करें। जो शुरू नहीं करता...... बहुत लोग हैं, जो सोचते ही रहते हैं।
आज ही एक युवक मेरे पास आया। उसने कहा, मैं सोचता हूं सोचता हूं और सोचने में इतना खो जाता हूं कि निर्णय तो कुछ कर ही नहीं पाता। और जो भी निर्णय करता हूं उससे विपरीत भी मेरी समझ में आता है कि ठीक है। और जब तक तय न हो जाए, तब तक निर्णय कैसे करूं! और तय कुछ होता नहीं। और जितना सोचता हूं उतना ही तय होना मुश्किल होता जाता है।
अगर आप ज्यादा सोचेंगे, तो कठिनाई खड़ी होगी। अगर आप सोचते ही रहेंगे, तो धीरे— धीरे सारी ऊर्जा सोचने में ही व्यतीत हो जाएगी। उसका कोई कृत्य नहीं बन पाएगा। और ध्यान रहे, जीवन की संपदा कृत्य से उपलब्ध होती है, सिर्फ विचार से नहीं!
विचार सपनों की भांति हैं। जैसे समुद्र पर झाग और फेन उठती है, ऐसे चेतना की झाग और फेन की भांति विचार है। उनका कोई मूल्य नहीं है। समुद्र की लहर पर लगता है, जैसे शिखर आ रहा है फेन का; लगता है, हाथ में ले लेंगे। लेकिन हाथ में पकड़ते हैं, तो पानी के बबूले फूट जाते हैं, कुछ हाथ आता नहीं। ऐसा ही फेन और झाग है विचार आपकी चेतना का। वह लहर पर दूर से बड़ा कीमती दिखाई पड़ता है। सूरज की किरणों में बड़ी चमक मालूम होती है। घर में तिजोरी में सम्हालकर रखने जैसा लगता है। लेकिन हाथ में लेते ही पता चलता है, वहा कुछ भी नहीं है, पानी के बबूले हैं।
इस झाग से थोड़ा नीचे उतरना जरूरी है। उस लहर को पकड़ना जरूरी है जिस पर यह झाग है। और लहर के नीचे छिपे सागर को पकड़ना जरूरी है, जिसकी यह लहर है। और तभी जीवन में कोई रूपांतरण, कोई क्रांति संभव है।
अब हम सूत्र को लें।
और हे पार्थ, पाखंड, घमंड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं। उन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।
और हे अर्जुन, इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के माने गए हैं, एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा। उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया, इसलिए अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सुन।
पाखंड, हिपोक्रेसी.......।
पाखंड का अर्थ है, जो आप नहीं हैं, वैसा स्वयं को दिखाना। जो आपका वास्तविक चेहरा नहीं है, उस चेहरे को प्रकट करना। हम सबके पास मुखौटे हैं। जरूरत पर हम उन्हें बदल लेते हैं। सुबह से सांझ तक बहुत बार हमें नए—नए चेहरों का उपयोग करना पड़ता है। जैसी जरूरत हो, वैसा हम चेहरा लगा लेते हैं। धीरे— धीरे यह भी हो सकता है कि इस पाखंड में चलते—चलते आपको भूल ही जाए कि आप कौन हैं।
यही हो गया है। अगर आप अपने से पूछें कि मैं कौन हूं तो कोई उत्तर नहीं आता। क्योंकि आपने इतने चेहरे प्रकट किए हैं, आपने इतने रूप धरे हैं, आपने इतनी भांति अपने को प्रचारित किया है, कि अब आप खुद भी दिग्भ्रम में पड़ गए हैं कि मैं हूं कौन! क्या है सच मेरा! मेरी कोई सचाई है, या बस मेरा सब धोखा ही धोखा है! सुबह से सांझ तक, हम जो नहीं हैं, वह हम अपने को प्रचारित कर रहे हैं।
कृष्ण ने दैवी संपदा में गिनाया, सत्य, प्रामाणिकता, आथेंटिसिटी, व्यक्ति जैसा है, बस वही उसका होने का ढंग है, चाहे कोई भी परिणाम हो। आसुरी संपदा में उसके अनेक चेहरे हैं।
हम रावण की कथा पढ़ते हैं, लेकिन शायद आपको अर्थ पकड़ में नहीं आया होगा। कि रावण दशानन है, उसके दस चेहरे हैं। राम का एक ही चेहरा है। राम आथेंटिक हैं, प्रामाणिक हैं। उन्हें आप पहचान सकते हैं, क्योंकि कोई धोखा नहीं है। रावण को पहचानना मुश्किल है। उसके बहुत चेहरे हैं। दस का मतलब, बहुत। क्योंकि दस आखिरी संख्या है। दस से बडी फिर कोई संख्या नहीं है। फिर
सब संख्याएं दस के ऊपर जोड़ हैं।
दस चेहरे का मतलब है, बस आखिरी। उसका असली चेहरा कौन है, यह पहचानना मुश्किल है। रावण असुर है। और हमारे चित्त की दशा जब तक आसुरी रहती है, तब तक हमारे भी बहुत चेहरे होते हैं। हम भी दशानन होते हैं। इससे हम दूसरे को धोखा देते हैं, वह तो ठीक है, इससे हम खुद भी धोखा खाते हैं। क्योंकि हमें खुद ही भूल जाता है कि हमारा स्वरूप क्या है।
पाखंड का अर्थ है, दूसरे को धोखा देना और अंततः उस धोखे से खुद को भी धोखे में डाल लेना।
झूठ का स्वभाव है, एक झूठ को बचाना हो, तो फिर हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। फिर इतनी अनंत श्रृंखला है झूठों की कि हमें याद भी नहीं रहता कि पहला झूठ क्या था, जो हमने बोला था।
झूठ का एक दूसरा स्वभाव है, अगर बार—बार उसे पुनरुक्त किया जाए, तो निरंतर पुनरुक्ति के कारण हम आटो—हिप्‍नोटाइज्‍ड हो जाते हैं, हम सम्मोहित हो जाते हैं। और हमें खुद ही लगने लगता है कि यह ठीक है। आप एक झूठ बार—बार दोहराते रहें, फिर आपको खुद ही शक होने लगेगा कि यह सच है या झूठ है! क्योंकि आपने इतनी बार दोहराया है कि उसकी छाप आपके ऊपर पड़ गई। मैं पढ़ रहा था, एक आदमी ने हत्या की थी, और उस पर मुकदमा चल रहा था। वर्षों तक कार्यवाही चली। बड़ा जटिल उलझा हुआ मामला था। वकीलों के बयान हुए, गवाहों के बयान हुए, अदालत चलती रही। अंत में मजिस्ट्रेट भी थक गया, क्योंकि सब स्थिति बिलकुल कनफ्यूज्‍ड थी। कुछ साफ नहीं होता था। कोई दो वक्तव्यों में मेल नहीं होता था। कोई दो गवाहों का बयान मिलता नहीं था। कुछ निर्णय होना मुश्किल था। आखिर जज ने थककर उस हत्यारे को पूछा कि तू कृपा कर और तू स्वयं कह दे कि बात क्या है?
तो उसने कहा कि जब शुरू—शुरू में मैं आया था, तब मुझे भी साफ था। अब मुश्किल है। मैं भी कनफ्यूज्‍ड हो गया हूं। अब मैं साफ—साफ कह नहीं सकता कि मैंने की हत्या या नहीं की। क्योंकि जब मैं अपने वकील की दलीलें सुनता हूं तो मुझ को भी भरोसा आता है कि मैंने की नहीं। यह कुछ गलती हो गई। या मैंने कोई सपना देखा। इसलिए अब मेरी बात का कोई मूल्य नहीं है। अब तो आप ही तय कर लें।
यह स्थिति है। आप भी अगर एक झूठ कई वर्ष तक बोलते रहें, तो आपको पीछे पक्का होना मुश्किल हो जाता है कि आप झूठ बोले थे कि यह सच है। झूठ का यह दूसरा स्वभाव है कि उसको आप पुनरुक्त करें, तो वह सच जैसा मालूम होने लगता है। और हर झूठ को और झूठों की जरूरत है।
मैंने काशी में एक दुकान पर एक तख्ती लगी हुई देखी। घी की दुकान थी। उस पर तख्ती लगी है, असली घी की दुकान। नीचे लिखा है, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब का शुद्ध देशी घी यहां मिलता है। नकली सिद्ध करने वाले को पांच सौ रुपया नकद इनाम। और उसके नीचे लिखा है लाल अक्षरों कि इस तरह के इनाम यहां कई बार बांटे जा चुके हैं।
ऐसी हमारे चित्त की दशा हो जाती है।
पाखंड का अर्थ है, आप कुछ हैं, कुछ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जो आप हैं, वह आपकी सब कोशिश के भीतर से भी झांकता रहेगा। आप उसे बिलकुल छिपा भी नहीं सकते। उसे बिलकुल मिटाया नहीं जा सकता, वह आपके भीतर छिपा है। इसलिए भला आपको न दिखाई पड़े, दूसरों को दिखाई पड़ता है। अक्सर यह होता है कि आपके संबंध में दूसरे लोग जो कहते हैं, वह ज्यादा सही होता है, बजाय उसके, जो आप अपने संबंध में कहते हैं। नब्बे प्रतिशत मौका इस बात का है कि दूसरे जो आप में देख पाते हैं, वह आप नहीं देख पाते। क्योंकि आप अपने धोखे में इस भांति लीन हो गए हैं। लेकिन दूसरा आपको देखता है, तो आपकी जो झीनी पर्त है धोखे की, उसके पीछे से आपका असली हिस्सा भी दिखाई पड़ता है।
पाखंडी व्यक्ति की कई परतें हो जाएंगी। जितना पाखंडी होगा, उतनी परतें हो जाएंगी। और इन सारी परतों का कष्ट है। और हर पर्त को बचाने के लिए नई परतें खडी करनी पड़ेगी।
सत्य की एक सुविधा है, उसे याद रखने की जरूरत नहीं, उसको स्मरण रखने की जरूरत नहीं। झूठ को याद रखना पड़ता है। झूठ के लिए काफी कुशलता चाहिए। सत्य तो सीधा आदमी भी चला लेता है, क्योंकि याद रखने की कोई जरूरत नहीं। सत्य सत्य है। उससे दस साल बाद पूछेंगे, वह कह देगा। लेकिन झूठ आदमी को दस साल तक याद रखना पड़ेगा कि उसने एक झूठ बोला, फिर उसको सम्हालने के लिए कितने झूठ बोले।
तो झूठ के लिए बड़ी स्मृति चाहिए। इसलिए छोटी—मोटी बुद्धि के आदमी से झूठ नहीं चलता। झूठ चलाने के लिए काफी फैलाव चाहिए। इसलिए जितना आदमी शिक्षित हो, तार्किक हो, गणित का जानकार हो, उतना ज्यादा झूठ बोलने में कुशल हो सकता है।
दुनिया में जितनी शिक्षा बढ़ती है, उतना झूठ बढ़ता है इसीलिए, क्योंकि लोगों की स्मृति की कुशलता बढ़ती है। वे याद रख सकते हैं, वे मैनिपुलेट कर सकते हैं, वे नए झूठ गढ़ सकते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे से कह रहा है, तेरे झूठ को अब हम बरदाश्त ज्यादा नहीं कर सकते। तू गजब के झूठ बोल रहा है! उस लड़के ने कहा, मैं और झूठ! नसरुद्दीन ने सिर्फ उसको दिखाने के लिए, मित्र एक साथ खड़ा था, तो उसको कहा कि अच्छा तू एक झूठ अभी बोलकर बता, यह एक रुपया तुझे इनाम दूंगा। उसके लड़के ने कहा, पांच रुपए कहा था!
वह कह रहा है, एक रुपया तुझे दूंगा, तू झूठ बोलकर बता। वह लड़का कह रहा है, पांच रुपया कहा है आपने! झूठ बोलने की आगे कोई जरूरत नहीं है।
यह जो हमारी चित्त की स्थिति है, इस स्थिति में अगर आप परमात्मा को खोजने निकले, तो खोज असंभव है। अगर परमात्मा भी आपको खोजने निकले, तो भी खोज असंभव है। क्योंकि आपको खोजेगा कहां? आप जहां—जहां दिखाई पड़ते हैं, वहां—वहां नहीं हैं। जहां आप हैं, उस जगह का आपको भी पता नहीं है। और किसी को आपने पता बताया नहीं।
यहूदियों में एक सिद्धात है कि आदमी तो परमात्मा को खोजेगा कैसे? कमजोर, अज्ञानी! यहूदी मानते हैं, परमात्मा ही आदमी को खोजता है। यहूदी फकीर बालशेम से किसी ने पूछा कि यह सिद्धात बड़ा अजीब है। अगर परमात्मा आदमी को खोजता है, तो अभी तक हमें खोज क्यों नहीं पाया? हम खोजते हैं, नहीं खोज पाते, यह तो समझ में आता है। परमात्मा खोजता है, तो हम अभी तक क्यों भटक रहे हैं?
बालशेम ने कहा कि तुम्हें खोजे कहा? तुम जहां भी बताते हो कि तुम हो। वहां पाए नहीं जाते। वहा जब तक वह पहुंचता है, तुम कहीं और! वह तुम्हारा पीछा कर रहा है। लेकिन तुम पारे की तरह हो, तुम छिटक—छिटक जाते हो। तुम्हारा कोई पता—ठिकाना नहीं है, कोई आइडेंटिटी नहीं है। तुम्हारी कोई पहचान नहीं है। तुम्हें कैसे पहचाना जाए?
मैंने सुना है, एक बैंक में बड़े कैशियर की जगह खाली थी। बहुत—से लोगों ने इंटरव्यू दिए। बड़ी पोस्ट थी, बड़ी तनख्वाह थी पोस्ट की। और बड़े दायित्व का काम था, बहुत बड़ी बैंक थी। फिर जब डायरेक्टर्स की बैठक हुई और उन्होंने मैनेजिंग डायरेक्टर को पूछा कि किस आदमी को चुना है? तो जिस आदमी को खड़ा किया, सारे डायरेक्टर परेशान हुए। उसकी दोनों आंखें दो तरफ जा रही थीं, दात बाहर निकले हुए थे, नाक तिरछी थी, चेहरा भयानक था, लंगड़ाकर वह आदमी चलता था।
उन्होंने पूछा, तुम्हें कोई और आदमी नहीं मिला? उसने कहा कि यही बिलकुल ठीक है। क्योंकि कभी भी यह भागे, तो इसको पकड़ने में दिक्कत नहीं होगी। चीफ कैशियर! यह बिलकुल ठीक है। इसकी आइडेंटिटी कहीं भी, दुनिया के किसी कोने में भी जाए, इसे हम पकड़ लेंगे।
आपकी कोई आइडेंटिटी नहीं है। परमात्मा भी पकड़ना चाहे, तो आपको कहां पकड़े!
पाखंड का जो सबसे बड़ा उपद्रव है, वह यह है कि आपकी पहचान खो जाती है, प्रत्यभिज्ञा मुश्किल हो जाती है। और आसुरी व्यक्ति का वह पहला लक्षण है।
घमंड और अभिमान......।
यह थोड़ा सोचकर मुश्किल होगी, क्योंकि हम तो घमंड और अभिमान का एक—सा ही उपयोग करते हैं। घमंड और अभिमान का एक ही अर्थ लिखा है शब्दकोशों में। पर कृष्ण उनका दो उपयोग करते हैं।
घमंड उस अभिमान का नाम है, जो वास्तविक नहीं है। और अभिमान उस घमंड का नाम है, जो वास्तविक है। लेकिन दोनों पाप हैं और दोनों आसुरी हैं। मतलब यह कि एक आदमी, जो सुंदर नहीं है और अपने को सुंदर समझता है और अकड़ा रहता है। सुंदर है नहीं, सुंदर समझता है, अकड़ा रहता है। यह घमंड है। दूसरा आदमी सुंदर है, सुंदर समझता है और अकड़ा रहता है। वह अभिमान है। पर दोनों ही आसुरी हैं।
पहला तो हमें समझ में आ जाता है, क्योंकि वह गलत है ही; लेकिन दूसरा हमें समझ में नहीं आता, वह सही होकर भी गलत है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि आप सुंदर हैं या नहीं! असली फर्क इससे पड़ता है कि आप अपने को सुंदर समझते हैं। जो आदमी बुद्धिमान है, वह अगर अकड़े कि मैं बुद्धिमान हूं तो उतना ही पाप हो रहा है, जितना बुद्ध अकड़े और सोचे कि मैं बुद्धिमान हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि असली बात अकड़ की है।
और एक और खतरा है कि वह जो गलत ढंग से, जो है नहीं बुद्धिमान, अपने को बुद्धिमान समझ रहा है, वह तो शायद किसी दिन चेत भी जाए; लेकिन वह जो बुद्धिमान है और अपने को बुद्धिमान समझ रहा है, उसका चेतना बहुत मुश्किल है। क्योंकि आप उसको गलत भी सिद्ध नहीं कर सकते। उसका खतरा भारी है। और खतरा तो यही है कि मैं अपने को कुछ समझूं और उसमें अकड़ जाऊं।
आसुरी वृत्ति का व्यक्ति सदा अपने को कुछ समझता है, समबडी। वह हो या न हो। रावण का घमंड घमंड नहीं है, अभिमान है। क्योंकि वह आदमी कीमती है, इसमें कोई शक नहीं है। उस जैसा पंडित खोजना मुश्किल है। उसकी अकड़ झूठ नहीं है। उसकी अकड़ में सचाई है। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है! अकड़ में सचाई है, तो अकड़ और मजबूत हो गई। और अकड़ के कारण ही आदमी परमात्मा से मिलने में असमर्थ हो जाता है।
रावण का संघर्ष हो गया राम से। ये तो प्रतीक हैं, क्योंकि अकड़ का संघर्ष हो ही जाएगा परमात्मा से। जहां भी अकड़ है, वहा आप राम से संघर्ष में पड़ जाएंगे।
जहां अकड़ गई, वहां आप तरल हो जाते हैं। फिर आपकी लहर पिघल जाती है, उस पिघलेपन में आपका सागर से मिलन हो जाता है।
तो यह आप मत सोचना कभी कि मेरी अकड़ सही है या गलत है। अकड़ गलत है। उस अकड़ के दो नाम हैं। अगर वह गलत हो तो घमंड, अगर सही हो तो अभिमान। पर कृष्ण कहते हैं, दोनों ही आसुरी संपदा के लक्षण हैं।
क्रोध और कठोर वाणी......।
संयुक्त हैं, क्योंकि कठोर वाणी क्रोध का ही रूप है। भीतर क्रोध हो, तो आपकी वाणी में एक कठोरता, एक सूखापन प्रवेश हो जाता है। भीतर प्रेम हो, तो आपकी वाणी में एक माधुर्य, एक मिठास फैल जाती है।
वाणी आपसे निकलती है और आपके भीतर की खबरें ले आती है। वाणी आपके भीतर से आती है, तो आपके भीतर की हवाएं और गंध वाणी के साथ बाहर आ जाती हैं।
कठोर वाणी का केवल इतना ही अर्थ है कि भीतर पथरीला हृदय है, भीतर आप कठोर हैं। मधुर वाणी का इतना ही अर्थ है कि जहां से हवाएं आ रही हैं, वहां शीतलता है, वहां माधुर्य है।
क्रोध लक्षण होगा आसुरी व्यक्ति का, वह हमेशा क्रुद्ध है, हर चीज पर क्रुद्ध है। नाराज होना उसका स्वभाव है। उठेगा, बैठेगा, तो वह क्रोध से उठ—बैठ रहा है। जहां भी देखेगा, वह क्रोध से देख रहा है। वह सिर्फ भूल की तलाश में है कि कहीं भूल मिल जाए, कोई बहाना मिल जाए, कोई खूंटी मिल जाए, तो अपने क्रोध को टांग दे। अगर उसे कोई बहाना न मिले, तो वह बहाना निर्मित कर लेगा। अगर उसे कोई भी क्रोध करने को न मिले, तो वह अपने पर भी क्रोध करेगा। लेकिन क्रोध करेगा और उसकी वाणी में उसके क्रोध की लपटें बहती रहेंगी। वह जो भी बोलेगा, वह तीर की तरह हो जाएगा, किसी को चुभेगा और चोट पहुंचाएगा।
क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।
अज्ञान का अर्थ ठीक से समझ लेना। अज्ञान का अर्थ यह नहीं है कि वह कम पढ़ा—लिखा होगा। वह खूब पढ़ा—लिखा हो सकता है। अज्ञान का यह मतलब नहीं है कि वह पंडित नहीं होगा। वह पंडित हो सकता है। रावण पंडित है, महापंडित है। जानकारी उसकी बहुत हो सकती है। लेकिन बस, वह जानकारी होगी, ज्ञान न होगा। ज्ञान का अर्थ है, जो स्वयं अनुभूत हुआ हो। जानकारी का अर्थ है, जो दूसरों ने अनुभव की हो और आपने केवल संगृहीत कर ली हो।
ज्ञान अगर उधार हो, तो पांडित्य बन जाता है। ज्ञान अगर अपना, निजी हो, तो प्रज्ञा बनती है।
अज्ञान का यहां अर्थ है कि वह चाहे जानता हो ज्यादा या न जानता हो, लेकिन स्वयं को नहीं जानेगा। सब जानता हो, सारे जगत के शास्त्रों का उसे पता हो, लेकिन स्वयं की उसे कोई पहचान न होगी, आत्म—ज्ञान न होगा।
और जो भी वह जानता है, वह सब उधार होगा। उसने कहीं से सीखा है, वह उसकी स्मृति में पड़ा है। लेकिन उसके माध्यम से उसका जीवन नहीं बदला है। वह उस ज्ञान में जला और निखरा नहीं है। उस ज्ञान ने उसको तोड़ा और नया नहीं किया। वह ज्ञान उसकी मृत्यु भी नहीं बना और उसका जन्म भी नहीं बना। वह ज्ञान धूल की तरह उस पर इकट्ठा हो गया है। उस ज्ञान की पर्त होगी उसके पास, लेकिन वह ज्ञान उसके हृदय तक नहीं पहुंचा है। वह ज्ञान को ढोएगा, लेकिन ज्ञान उसका पंख नहीं बनेगा कि उसको मुक्त कर दे। उसका ज्ञान वजन होगा, उसका ज्ञान निर्भार नहीं है।
अज्ञान का यहां अर्थ है, अपने को न जानना, अपने स्वभाव से अपरिचित होना।
उन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए है और आसुरी संपदा बंधन के लिए मानी गई है।
आसुरी संपदा बांधेगी, आपको बंद करेगी। जैसे कोई कारागृह में पड़ा हो। और यह कारागृह ऐसा नहीं कि किसी दूसरे ने आपके लिए निर्मित किया है। कारागृह ऐसा, जो आपने ही अपने लिए बनाया है।
दैवी संपदा मुक्त करेगी; दीवारें गिरेंगी, खुला आकाश प्रकट होगा। पंख आपके पास हैं, लेकिन पंखों पर अगर आपने बंधन बांध रखे हैं, तो उड़ना असंभव है। और अगर बहुत समय से आप उड़े नहीं हैं, तो आपको खयाल भी मिट जाएगा कि आपके पास पंख हैं।
चील बड़े ऊंचे वृक्षों पर अपने अंडे देती है। फिर अंडों से बच्चे आते हैं। वृक्ष बड़े ऊंचे होते हैं। बच्चे अपने नीड़ के किनारे पर बैठकर नीचे की तरफ देखते हैं, और डरते हैं, और कंपते हैं। पंख उनके पास हैं। उन्हें कुछ पता नहीं कि वे उड़ सकते हैं। और इतनी नीचाई है कि अगर गिरे, तो प्राणों का अंत हुआ। उनकी मां, उनके पिता को वे आकाश में उड़ते भी देखते हैं, लेकिन फिर भी भरोसा नहीं आता कि हम उड़ सकते हैं।
तो चील को एक काम करना पड़ता है.। इन बच्चों को आकाश में उड़ाने के लिए कैसे राजी किया जाए! कितना ही समझाओ—बुझाओ, पकड़कर बाहर लाओ, वे भीतर घोंसले में जाते हैं। कितना ही उनके सामने उड़ो, उनको दिखाओ कि उडने का आनंद है, लेकिन उनका साहस नहीं पड़ता। वे ज्यादा से ज्यादा घोंसले के किनारे पर आ जाते हैं और पकड़कर बैठ जाते हैं।
तो आप जानकर हैरान होंगे कि चील को अपना घोंसला तोड़ना पड़ता है। एक—एक दाना जो उसने घोंसले में लगाया था, एक—एक कूड़ा—कर्कट जो बीन—बीनकर लाई थी, उसको एक—एक को गिराना पड़ता है। बच्चे सरकते जाते हैं भीतर, जैसे घोंसला टूटता है। फिर आखिरी टुकड़ा रह जाता है घोंसले का। चील उसको भी छीन लेती है। बच्चे एकदम से खुले आकाश में हो जाते हैं। एक क्षण भी नहीं लगता, उनके पंख फैल जाते हैं और आकाश में वे चक्कर मारने लगते हैं। दिन, दो दिन में वे निष्णात हो जाते हैं। दिन, दो दिन में वे जान जाते हैं कि खुला आकाश हमारा है, पंख हमारे पास हैं।
हमारी हालत करीब—करीब ऐसी ही है। कोई चाहिए, जो आपके घोंसले को गिराए। कोई चाहिए, जो आपको धक्का दे दे। गुरु का वही अर्थ है।'
कृष्ण वही कोशिश अर्जुन के लिए कर रहे हैं। सारी गीता अर्जुन का घर, घोंसला तोड्ने के लिए है। सारी गीता अर्जुन को स्मरण दिलाने के लिए है कि तेरे पास पंख हैं, तू उड़ सकता है। यह सारी कोशिश यह है कि किसी तरह अर्जुन को धक्का लग जाए और वह खुले आकाश में पंख फैला दे।
इन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।
अर्जुन को भरोसा दिला रहे हैं कि तू घबडा मत, तू दुख मत कर, तू चिंता मत कर। तू दैवी संपदा को उपलब्ध हुआ है। बस, पंख खोलने की बात है, खुला आकाश तेरा है।
क्यों अर्जुन को वे कह रहे हैं कि तू दैवी संपदा को उपलब्ध हुआ है?
अर्जुन की जिज्ञासा दैवी है। यह भाव भी अर्जुन के मन में आना कि क्यों मारूं लोगों को, क्यों हत्या करूं, क्यों इस बड़े हिंसा के उत्पात में उतरूं! यह खयाल मन में आना कि इससे राज्य मिलेगा, साम्राज्य मिलेगा, बडी पृथ्वी मेरी हो जाएगी, पर उसका सार क्या है! लोभ के प्रति यह विरक्ति, साम्राज्य के प्रति यह उपेक्षा, हिंसा और हत्या के प्रति मन में ग्लानि!
अर्जुन कहता है, मैं यह सब छोड्कर जंगल चला जाऊं, संन्यस्त हो जाऊं, वही बेहतर है। अर्जुन कहता है, ये सब मेरे अपने जन हैं इस तरफ, उस तरफ। इन सबको मारकर, मिटाकर अगर मैंने राज्य भी पा लिया, तो वह खुशी इतनी अकेले की होगी कि खुशी न रह जाएगी, क्योंकि खुशी तो बांटने के लिए होती है। जिनके लिए मैं राज्य पाने की कोशिश कर रहा हूं जो मुझे राज्य पाया हुआ देखकर आनंदित और प्रफुल्लित होंगे, उनकी लाशें पड़ी होंगी। तो जिस सुख को मैं बांट न पाऊंगा, जो सुख मेरे अपने जो प्रियजन हैं उनके साथ साझेदारी में नहीं भोगा जा सकेगा, उसके भोगने का अर्थ ही क्या है?
यह भाव दैवी है। लेकिन इन दैवी भावों के पीछे जो कारण वह दे रहा है, वे अज्ञान से भरे हैं। स्वाभाविक है, क्योंकि पहली बार जब दैवी आकांक्षा जगती है, तो उसकी जड़ें तो हमारे अज्ञान में ही होती हैं। हम अज्ञानी हैं। इसलिए हममें अगर दैवी आका्ंक्षा भी जगती है, तो उस दैवी आकांक्षा में हमारे अज्ञान का हाथ होता है। उस दैवी आका्ंक्षा में हमारे अज्ञान की छाया होती है।
लेकिन कृष्ण पूरी कोशिश कर रहे हैं कि वह भरोसे से भर जाए; वह अज्ञान को भी छोड़ दे। वह जिन कारणों को बता रहा है, उनको भी गिरा दे। क्योंकि वे कारण अगर सही हैं, तो अर्जुन कठिनाई में पड़ जाएगा। क्योंकि वह यह कह रहा है कि मेरे प्रियजन हैं, इसलिए इनको मारने से मैं डरता हूं। यह आधी बात तो दैवी है और आधी अज्ञान और आसुरी से भरी है।
दैवी तो इतनी बात है कि हिंसा के प्रति उनके मन में उपेक्षा पैदा हुई है, हिंसा में रस नहीं रहा। लेकिन कारण है, क्योंकि ये मेरे हैं। अगर ये पराए होते, तो अर्जुन उनको, जैसे किसान खेत काट रहा हो, ऐसे काट देता। वह कोई नया नहीं था काटने में। जीवन में कई बार उसने हत्याएं की थीं और लोगों को काटा था। काटना उसे सहज काम था। कभी उसने सोचा भी नहीं था कि आत्मा का क्या होगा, स्वर्ग, मोक्ष—कुछ सवाल न उठे थे। लेकिन वे अपने नहीं थे, ये सब अपने लोग हैं। उस तरफ गुरु खड़े हैं, भीष्म खड़े हैं, सब चचेरे भाई—बंधु हैं। ये मेरे हैं!
यह ममत्व अज्ञान है। न काटू? यह तो बड़ी दैवी भावना है। हिंसा न करूं, यह तो बड़ा शुभ भाव है। लेकिन मेरे हैं, इसलिए न करूं, यह अशुभ से जुड़ा हुआ भाव है। वह अशुभ मिट जाए, फिर भी अर्जुन दिव्यता की तरफ बढ़े, यह कृष्ण की पूरी चेष्टा है।
वह भाव मेरे का पाप है। तो कौन मेरा है, कौन मेरा नहीं है? या तो सब मेरे हैं, या कोई भी मेरा नहीं है! फिर अर्जुन कहता है, इनको मारूं, यह उचित नहीं है, यह बात तो दैवी है। लेकिन मैं इनको मार सकता हूं यह बात अज्ञान से भरी है। यह थोड़ा जटिल है।
मैं किसी को न मारूं, यह भाव तो अच्छा है, लेकिन मैं किसी को मार सकता हूं, आत्मा की हत्या हो सकती है, यह भाव अज्ञान से भरा है। मैं चाहूं तो भी मार नहीं सकता, ज्यादा से ज्यादा आपकी देह को नुकसान पहुंचा सकता हूं। और देह को क्या नुकसान पहुंचाया जा सकता है! देह तो मुरदा है। उसको मारने का कोई उपाय नहीं। वह तो मिट्टी है। उसको काटने से कुछ कटता नहीं। देह के भीतर जो छिपा है, उस चिन्मय को तो काटा नहीं जा सकता। वह तो कोई मिट्टी नहीं है। उस अमृत को तो मारने का कोई उपाय नहीं है।
अर्जुन कहता है कि हिंसा बुरी है। लेकिन क्या हिंसा हो सकती है? यह भाव अज्ञान से भरा है। हिंसा तो हो ही नहीं सकती, हिंसा का कोई उपाय नहीं है। हिंसा का भाव किया जा सकता है, हिंसा नहीं की जा सकती। हिंसा का भाव पापपूर्ण है। हिंसा की जा सकती है, यह भाव अज्ञान से भरा है।
अर्जुन में दिव्यता का जागरण हुआ है, लेकिन वह दिव्यता अभी आसुरी बिस्तर पर ही लेटी है। आख खुली है, करवट बदली है, लेकिन बिस्तर अभी उसने छोडा नहीं है। वह बिस्तर भी छूट जाए,
यह घोंसला भी हट जाए और अर्जुन खुले आकाश में मुक्‍त होकर उड़ सके.......।
हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है। और हे अर्जुन इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के माने गए हैं, एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा। उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया है, इसलिए अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सुन।
दो स्वभाव, एक ही चेतना के। एक आदमी बंधन में पड़ा है, हाथ में जंजीरें हैं, पैर में बेड़ियां हैं। फिर हम इसके बंधन काट देते हैं; हाथ की बेड़ियां छूट जाती हैं, पैर की जंजीरें गिर जाती हैं, अब यह मुक्त खड़ा है। क्या यह आदमी दूसरा है या वही? क्षणभर पहले बेडिया थीं, जंजीरें थीं; अब जंजीरें नहीं, बेड़ियां नहीं। क्षणभर पहले एक कदम भी उठाना इसे संभव न था। अब यह हजार कदम उठाने के लिए मुक्त है। क्या यह आदमी वही है या दूसरा है?
एक अर्थ में यह आदमी वही है, कुछ भी बदला नहीं। क्योंकि बेडियां इस आदमी का स्वभाव न थीं, इसके ऊपर से पड़ी थीं। हाथ से बेड़ियां हट जाने से इसका हाथ तो नहीं बदला। इसकी पैर से जंजीरें टूट जाने से इसका व्यक्तित्व नहीं बदला। यह आदमी तो वही है।
एक अर्थ में आदमी वही है, दूसरे अर्थ में आदमी वही नहीं है। क्योंकि जंजीरों के गिर जाने से अब यह मुक्त है। यह चल सकता है, यह दौड़ सकता है, यह अपनी मरजी का मालिक है। अब इसकी दिशा कोई तय न करेगा। अब इसे कोई रोकने वाला नहीं है। अब एक स्वतंत्रता का जन्म हुआ है।
ये दोनों स्थितियां एक ही आदमी की हैं। ठीक वैसे ही स्वभाव की दो स्थितियां हैं। आसुरी, कृष्ण उसे कह रहे हैं, जो बांधती है; दैवी उसे कह रहे हैं, जो मुक्त करती है। ये दोनों ही एक ही चेतना की अवस्थाएं हैं। और हम पर निर्भर है कि हम किस अवस्था में रहेंगे।
यह बात सदा ही समझने में कठिन रही है कि हम अपने ही हाथ से बंधन में पड़े हैं। यह कठिन इसलिए रही है कि हम में से कोई भी चाहता नहीं कि बंधन में रहे। हम सब स्वतंत्र होना चाहते हैं। तो यह बात समझना मन को मुश्किल जाती है कि हमने बंधन अपने निर्मित खुद ही किए हैं। लेकिन थोड़ा समझना जरूरी है।
हम चाहते तो स्वतंत्र होना हैं, लेकिन हमने कभी गहराई से खोजा नहीं कि स्वतंत्रता का क्या अर्थ होता है। एक तरफ हम चाहते हैं, स्वतंत्र हों; और एक तरफ भीतर से हम चाहते हैं कि परतंत्र बनें। क्योंकि परतंत्रता के कुछ सुख हैं; उन सुखों को हम छोड़ नहीं पाते हैं। परतंत्रता की कोई सुरक्षा है।
कारागृह में जितना आदमी सुरक्षित है, कहीं भी सुरक्षित नहीं है। बाहर दंगा भी हो रहा है, बलवा भी हो रहा है, हिंदू—मुसलमान लड़ रहे हैं, गोली चल रही है, पुलिस है, सरकार है—सब उपद्रव बाहर चल रहा है। कारागृह में कोई उपद्रव नहीं है। वहां जो आदमी हथकड़ी में बैठा है, वहा न कोई दुर्घटना होती है, न मोटर एक्सिडेंट होता है, न हवाई जहाज गिरता है, न ट्रेन उलटती है, कुछ नहीं होता। वहां वह बिलकुल सुरक्षित है। कारागृह की एक सुरक्षा है, जो बाहर संभव नहीं है।
सुरक्षा हम सब चाहते हैं। सुरक्षा के कारण हम कारागृह बनाते हैं। स्वतंत्रता का खतरा है, क्योंकि खुला जगत जोखम से भरा है। स्वतंत्रता हम चाहते हैं, लेकिन खतरा उठाने की हमारी हिम्मत नहीं है।
एक बहुत बड़े पश्चिम के विचारक इरिक फोम ने एक किताब लिखी है, फिअर आफ फ्रीडम। बड़ी कीमती किताब है।
एक भय है स्वतंत्रता का। हम सबके भीतर है; हम सब डरते हैं। हम कहते हैं कि स्वतंत्रता हम चाहते हैं, लेकिन हम डरते हैं, हम कंपते हैं। हम भी अपने घोंसले को वैसे ही पकड़ते हैं, जैसे चील का बच्चा पकड़ता है। उसको लगता है कि मर जाएंगे, इतना लंबा खड्ड है, इतना बड़ा आकाश, हम इतने छोटे हैं; अपने पर भरोसा नहीं आता।
इसलिए हम सब तरह की परतंत्रताएं खोजते हैं। परिवार की, देश की, जाति की, समाज की परतंत्रताएं खोजते हैं। हम किसी पर निर्भर होना चाहते हैं। कोई हमें सहारा दे दे। हम किसी के कंधे पर हाथ रख लें। कोई हमारे कंधे पर हाथ रख दे। हो सकता है, हम दोनों ही कमजोर हों और एक—दूसरे का सहारा खोज रहे हों। लेकिन दोनों को भरोसा आ जाता है कि कोई साथ है; हम अकेले नहीं हैं।
स्वतंत्रता को हम अपने ही हाथ से खोते हैं, परतंत्रता को हम अपने ही हाथ से खोजते हैं।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी में एक दिन विवाद चल रहा था। और पत्नी बहुत नाराज हो गई, तो उसने कहा कि तुमसे कहा किसने था कि तुम मुझसे विवाह करो! मैं तुम्हारे पीछे नहीं दौड़ रही थी। नसरुद्दीन ने कहा, वह तो जाहिर है, क्योंकि चूहे को पकड़ने वाला पिंजड़ा कभी चूहे के पीछे नहीं दौड़ता। चूहा खुद ही उसमें आता है, वह तो साफ है। पिंजड़े को कभी किसी ने चूहे के पीछे भागते तो देखा नहीं!
जिंदगी में जितने पिंजड़े हैं आपके, वे कोई आपके पीछे नहीं भागे। आप खुद ही उनकी तलाश किए हैं। और कोई कारण है, जिसकी वजह से पिंजड़ा अच्छा लगता है। कुछ सुरक्षा है उसमें। भय वहा कम है, सहारा वहा ज्यादा है, खतरा वहां कम है, जोखम वहां बिलकुल नहीं है। एक बंधा हुआ जीवन है। एक परिधि है, उस परिधि के भीतर प्रकाश है, परिधि के बाहर अंधकार है। उस अंधकार में जाने में भय लगता है। फिर अपने ही पैरों पर खड़ा होना होगा। स्वतंत्रता का अर्थ है, अपने ही पैरों पर खड़ा होना। और स्वतंत्रता का अर्थ है, अपने निर्णय खुद ही लेना।
दुनिया में जो इतने उपद्रव चलते हैं, उन उपद्रवों के पीछे भी कारण यही है कि बहुत—से लोग गुलामी खोजते हैं। सौ में निन्यानबे लोग ऐसे होते हैं कि बिना नेता के नहीं रह सकते। कोई नेता चाहिए। इस मुल्क में, सारी जमीन पर सब जगह नेता की बड़ी जरूरत है! नेता की जरूरत क्या है?
नेता की जरूरत यह है कि कुछ लोग खुद अपने पैरों से नहीं चल सकते। कोई आगे चल रहा हो, तो फिर उन्हें फिक्र नहीं है। फिर वह कहीं गड्डे में ले जाए, और हमेशा नेता गड्डों में ले जाते रहे हैं। लेकिन पीछे चलने वाले को यह भरोसा रहता है कि आगे चलने वाला जानता है। वह जहां भी जा रहा है, ठीक है। और कम से कम इतना तो पक्का है कि जिम्मेवारी हमारी नहीं है। हम सिर्फ पीछे चल रहे हैं।
दूसरे महायुद्ध के बाद जर्मनी के जो नेता बच गए, हिटलर के साथी, उन पर मुकदमे चले। तो जिस आदमी ने लाखों लोगों को जलाया था, आकमंड, जिसने वहा भट्टियां बनाईं, जिसमें हजारों लोग जलाए गए। कोई तीन करोड़ लोगों की हत्या का जिम्मा उसके ऊपर था, आकमंड के ऊपर।
पर आकमंड बहुत भला आदमी था। अपनी पत्नी को छोड्कर कभी किसी दूसरी स्त्री की तरफ देखा नहीं। रविवार को नियमित चर्च जाता था, बाइबिल का अध्ययन करता था। शराब की आदत नहीं, सिगरेट पीता नहीं था। रोज ब्रह्ममुहूर्त में उठता था। कोई बुराई नहीं थी। मांसाहारी नहीं था। हिटलर में भी यही खूबियां थीं, मांसाहार नहीं करता था, शराब नहीं पीता था, सिगरेट नहीं पीता था। भले आदमी के सब लक्षण उसमें थे।
आकमंड पर जब मुकदमा चला, तो लोग चकित थे कि इस आदमी ने कैसे तीन करोड़ लोगों की हत्या का इंतजाम किया! जब उससे पूछा गया, तो उसने कहा कि मैं सिर्फ अनुयायी हूं और आज्ञा का पालन करना मेरा कर्तव्य है। जिम्मेवारी मुझ पर है ही नहीं। ऊपर से आज्ञा दी गई, मैंने पूरी की। मैं सिर्फ एक अनुयायी हूं एक सिपाही हूं।
दुनिया में लोगों की कमजोरी है कि उनको नेता चाहिए। फिर नेता कहां ले जाता है, इसका भी कोई सवाल नहीं है। नेता को भी कुछ पता नहीं कि वह कहा जा रहा है। अंधे अंधों का नेतृत्व करते रहते हैं। बस, नेता और अनुयायी में इतना ही फर्क है कि अनुयायी को कोई चाहिए जो उसके आगे चले, और नेता को कोई चाहिए जो उसके पीछे चले।
नेता भी निर्भर है पीछे चलने वाले पर। अगर पीछे कोई न चले, तो नेता को लगता है कि भटक गया। जब तक लोग पीछे चलते रहते हैं, उसे लगता है, सब ठीक चल रहा है। अगर मैं ठीक न होता, तो इतने लोग पीछे कैसे होते? जैसे ही पीछे से लोग हटते हैं, नेता का विश्वास चला जाता है। जैसे ही अनुयायी हट जाते हैं, नेता की आत्म— आस्था खो जाती है। उसे लगता है, बस, कहीं भूल हो रही है। अन्यथा लोग मेरे पीछे चलते। इसलिए जो बहुत बुद्धिमान नेता हैं, उनकी तरकीब अलग है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने गधे पर भागा जा रहा है। कुछ मित्रों ने उसे रोका और पूछा कि कहां जा रहे हो इतनी तेजी से? उसने कहा, मुझसे मत पूछो, गधे से पूछो। क्योंकि मैं इसको चलाने की कोशिश करता हूं तो यह अड़चन डालता है, और चार आदमियों के सामने बाजार में भद्द होती है। मैं इसको कहता हूं बाएं चलो। तो यह चलेगा नहीं; दाएं जाएगा। तो लोग समझते हैं, इसका गधा भी इसकी नहीं मानता! तो मैंने एक तरकीब निकाली, गधा जहां जाता है, मैं उसके साथ ही जाता हूं। इससे इज्जत भी बनी रहती है और गधे को भी यह खयाल नहीं आता कि मालिक का विरोध कर सकता है।
सभी नेताओं की कुशलता यही है। वे हमेशा देखते रहते हैं, अनुयायी कहा को जा रहा है, अनुयायी कहां जाना चाहता है, इसके पहले नेता मुड़ जाता है। तो ही नेता अनुयायी को बचा सकता है, नहीं तो अनुयायी भटक जाएगा, अलग हो जाएगा।
सब नेता अपने अनुयायियों के अनुयायी होते हैं, एक विसियस सर्किल है। तो नेता तापमान देखता रहता है कि अनुयायी क्या चाहते हैं। अनुयायी समाजवाद चाहते हैं, तो समाजवाद। अनुयायी चाहते हैं गरीबी मिटे, तो गरीबी मिटे। अनुयायी जो चाहते हैं, वह कहता है। और अनुयायी सुनते हैं अपनी ही आवाज को उसके मुंह से, सोचते हैं कि ठीक है। अनुयायी पीछे चलते हैं।
कुछ लोग हैं, जब तक उनके आगे कोई न चले, तब तक वे चल नहीं सकते। कुछ लोग हैं, जब तक कोई उनके पीछे न चले, तब तक वे नहीं चल सकते। दोनों निर्भर हैं।
स्वतंत्र व्यक्ति वह है, जो न आगे देखता है और न पीछे देखता है, जो अपने पैर से चलता है। पर बड़ी कठिन है बात, क्योंकि तब किसी दूसरे पर भरोसा नहीं खोजा जा सकता, किसी दूसरे पर जिम्मेवारी नहीं डाली जा सकती। सब जिम्मेवारी अपनी है।
इतना जिसका साहस हो, वही केवल स्वतंत्र हो पाता है। नै नेता स्वतंत्र होते हैं, न अनुयायी स्वतंत्र होते हैं। स्वतंत्रता इस जगत में सबसे बड़ा जोखम है।
कृष्ण कहते हैं, जो आसुरी संपदा है वह बंधन के लिए और जो दैवी संपदा है वह मुक्ति के लिए मानी गई है। और हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।

आज इतना ही।




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