(कुंडलिनी—योग
साधना शिविर)
नारगोल
मेरे
प्रिय आत्मन्!
ऊर्जा
का विस्तार है
जगत और ऊर्जा
का सघन हो जाना
ही जीवन है।
जो हमें
पदार्थ की
भांति दिखाई
पड़ता है, जो
पत्थर की
भांति भी
दिखाई पड़ता है,
वह भी ऊर्जा,
शक्ति है।
जो हमें जीवन
की भांति
दिखाई पड़ता है,
जो विचार की
भांति अनुभव
होता है, जो
चेतना की
भांति प्रतीत
होता है, वह
भी उसी ऊर्जा,
उसी शक्ति
का रूपांतरण
है। सारा जगत—चाहे
सागर की लहरें,
और चाहे सरू
के वृक्ष, और
चाहे रेत के
कण, और
चाहे आकाश के
तारे, और
चाहे हमारे
भीतर जो है वह,
वह सब एक ही
शक्ति का अनंत—अनंत
रूपों में प्रगटन
है।
ऊर्जामय
विराट जीवन:
हम
कहां शुरू
होते हैं और
कहां समाप्त
होते हैं, कहना
मुश्किल है।
हमारा
शरीर भी कहां
समाप्त होता
है,
यह भी कहना
मुश्किल है।
जिस शरीर को
हम अपनी सीमा
मान लेते हैं,
वह भी हमारे
शरीर की सीमा
नहीं है।
दस करोड़ मील
दूर सूरज है, अगर ठंडा हो
जाए, तो हम
यहां अभी ठंडे
हो जाएंगे।
इसका मतलब यह
हुआ कि हमारे
होने में सूरज
पूरे समय
मौजूद है, और
हमारे शरीर का
हिस्सा है; सूरज ठंडा
हुआ कि हम
ठंडे हुए; सूरज
की गर्मी
हमारे शरीर की
गर्मी है।
चारों
तरफ फैली हुई
हवाओं का सागर
है,
वहां से
प्राण हमें
उपलब्ध होता
है। वह न
उपलब्ध हो, हम अभी मृत
हो जाएं। तो
जो श्वास हम
ले रहे हैं, वह श्वास
हमें भीतर से
भी जोड़े है, हमें बाहर
से भी जोड़े है।
कहां
हमारे शरीर का
अंत है?
यदि
पूरी खोज करें
तो पूरा जगत
ही हमारा शरीर
है। अनंत, असीम
हमारा शरीर है।
और ठीक से खोज
करें तो सब
जगह हमारे
जीवन का केंद्र
है, और सब
जगह विस्तार
है। लेकिन
इसकी प्रतीति
और इसके अनुभव
के लिए हमें
स्वयं भी
अत्यंत जीवंत
ऊर्जा, लिविंग
एनर्जी बन
जाना जरूरी है।
बुंद समानी
समुंद में:
जिसे
मैं ध्यान कह
रहा हूं वह
हमारे भीतर
ठहर गई, अवरुद्ध
हो गई धाराओं
को सब भांति
मुक्त कर देने
का नाम है। जब
आप ध्यान में
प्रविष्ट
होंगे, तो
आपके भीतर जो
ऊर्जा छिपी है,
जो एनर्जी
छिपी है, वह
इतने जोर से
जागे कि बाहर
की ऊर्जा से
उसका संबंध
स्थापित हो
जाए। और जैसे
ही बाहर की
शक्तियों से
उसका संबंध
स्थापित होता
है, वैसे
ही हम एक छोटे
से पत्ते रह
जाते हैं अनंत
हवाओं में
कंपते हुए; हमारा अपना
होना खो जाता
है; हम
विराट के साथ
एक हो जाते
हैं।
उस
विराट के साथ
एक होने पर
क्या जाना
जाता है, अब तक
मनुष्य ने
कहने की बहुत
कोशिश की है, लेकिन नहीं
कहा जा सका।
कबीर कहते हैं,
मैं खोजने
गया था। खोजा
बहुत, खोजते—खोजते
मैं खुद ही खो
गया। और मिला
वह जरूर, लेकिन
तब मिला जब
मैं खो गया।
और इसलिए अब
कौन बताए कि
क्या मिला? कैसे बताए?
पहली
बार जब कबीर
को अनुभूति
हुई तो
उन्होंने जो
कहा था, फिर
पीछे उसे बदल
दिया। पहली
बार जब उन्हें
अनुभव हुआ तो
उन्होंने कहा,
ऐसा लगा कि
जैसे बूंद
सागर में गिर
गई है। उनके
वचन हैं
हेरत—हेरत हे
सखी, रह्या कबीर हिराई।
बुंद समानी
समुंद में, सो
कत हेरी
जाई।।
खोजते—खोजते
कबीर खो गया, बूंद
सागर में गिर
गई, अब उसे
कैसे वापस लौटाएं?
समुंद
समाना बुंद
में:
लेकिन
फिर बाद में
उन्होंने बदल
दिया। और
बदलाहट बड़ी
मूल्यवान है।
बाद में
उन्होंने कहा
कि नहीं—नहीं, कुछ
गलती हो गई; बूंद समुद्र
में नहीं गिरी,
समुद्र ही
बूंद में गिर
गया। और बूंद
समुद्र में
गिरी हो तो
वापस भी लौटा
ले कोई, लेकिन
अगर समुद्र ही
बूंद में गिरा
हो तब तो बड़ी
कठिनाई है। और
बूंद अगर
समुद्र में
गिरे तो बूंद
कुछ बता भी
सके, लेकिन
अगर बूंद में
ही समुद्र
गिरे तब तो
बहुत कठिनाई
है। तो बाद
में उन्होंने
कहा
हेरत—हेरत हे
सखी, रह्या कबीर हिराई।
समुंद
समाना बुंद
में, सो कत हेरी जाई।।
भूल
हो गई थी पहली
दफा कि कहा कि
बूंद गिर गई
सागर में।
ऊर्जा
के सागर से
मिलन:
और
जब हम ऊर्जा
के स्पंदन
मात्र रह जाते
हैं,
तब ऐसा नहीं
होता कि हम
सागर में
गिरते हैं, जब हम कंपते
हुए जीवंत
स्पंदन मात्र
रह जाते हैं, तो अनंत
ऊर्जा का सागर
हममें गिर
पड़ता है।
निश्चित ही, फिर कहना
मुश्किल है कि
क्या होता है।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं कि
जो होता है वह
हमें पता नहीं
चलता। ध्यान
रहे, कहने
और पता चलने
में सदा
सामंजस्य
नहीं है। जो
हम जान पाते
हैं, वह कह
नहीं पाते।
जानने की
क्षमता असीम
है और शब्दों
की क्षमता
बहुत सीमित है।
बड़े अनुभव दूर,
छोटे अनुभव
भी हम नहीं कह
पाते। अगर
मेरे सिर में
दर्द है, तो
वह भी मैं
नहीं कह पाता।
और अगर मेरे
हृदय में
प्रेम की पीड़ा
है, तो वह
भी नहीं कह
पाता हूं। पर
ये तो बड़े
छोटे अनुभव
हैं। और जब
परमात्मा हम
पर गिर पड़ता
है, तब जो
होता है उसे
तो कहना बिलकुल
ही कठिन है।
लेकिन जान हम
जरूर पाते हैं।
पर
उस जानने के
लिए हमें सब
भांति शक्ति
का एक स्पंदन
मात्र रह जाना
जरूरी है।
जैसे एक आधी, एक
तूफान, ऐसा
शक्ति का एक
उबलता हुआ
झरना भर हम हो
जाएं। हम इतने
जोर से
स्पंदित हों—
हमारा रोआं—रोआं,
हृदय की
धड़कन— धड़कन, श्वास—श्वास
उसकी प्यास, उसकी
प्रार्थना, उसकी
प्रतीक्षा से
इस भांति भर
जाए कि हम
प्यास ही रह
जाएं, प्रतीक्षा
ही रह जाएं; हमारा होना
ही मिट जाए।
उस क्षण में
ही उससे मिलन
है। और वह
मिलन कहीं
बाहर घटित
नहीं होता।
जैसा मैंने
रात कहा, वह
मिलन हमारे
भीतर ही घटित
होता है।
हमारे भीतर ही
सोए हुए
केंद्र हैं।
हमारे सोए
केंद्र से ही
शक्ति उठेगी
और ऊपर फैल
जाएगी।
एक
बीज पड़ा है।
फिर एक फूल
खिलता है। फूल
और बीज को जोड्ने
के लिए वृक्ष
को तना बनाना
पड़ता है, शाखाएं
फैलानी
पड़ती हैं। फूल
छिपा था बीज
में ही, कहीं
बाहर से नहीं
आता। लेकिन
प्रकट होने के
लिए बीज और
फूल तक के बीच में
जोड़नेवाला
एक तना चाहिए।
वह तना भी बीज
से निकलेगा, वह फूल भी
बीज से
निकलेगा।
हमारे
भीतर भी बीज—ऊर्जा, सीड—फोर्स
पड़ी हुई है।
उठेगी। तने की
जरूरत है। वह
तना भी हमारे
भीतर उपलब्ध
है। जिसे हम
रीढ़ की तरह
जानते हैं
बाहर से, ठीक
उसके निकट ही
वह यात्रा—पथ
है जहां से
बीज—ऊर्जा
उठेगी और फूल
तक पहुंच
जाएगी। वह फूल
बहुत नामों से
पुकारा गया है।
हजार पंखुड़ियों
वाले कमल की
तरह जिन्हें
उसका अनुभव
हुआ है, उन्होंने
कहा है, हजार
पंखुड़ियों
वाले कमल की
तरह। जैसे
हजार पंखुड़ियों
वाला कमल खिल
जाए, ऐसा
हमारे
मस्तिष्क में
कुछ खिलता है,
कुछ फ्लावर
होता है।
लेकिन उसके खिलने के
लिए नीचे से
शक्ति का ऊपर
तक पहुंच जाना
जरूरी है।
शक्ति
जागरण का
साहसपूर्वक
स्वीकार:
और
जब यह शक्ति
ऊपर की तरफ
उठना शुरू
होगी, तो जैसे
भूकंप आ जाएगा,
जैसे अर्थकेक्क
हो गया हो, ऐसा
पूरा
व्यक्तित्व
कैप उठेगा। उस
कंपन को रोकना
नहीं है, उस
कंपन में
सहयोगी होना
है, कोआपरेट करना है।
साधारणत: हम
रोकना
चाहेंगे। अब
मुझे कई लोग
आकर कहते हैं
कि डर लगता है
कि पता नहीं
क्या हो जाए!
अगर
डरेंगे
तो गति न हो
पाएगी। भय से
ज्यादा अधार्मिक
और कोई वृत्ति
नहीं है। भय
से बड़ा और कोई
पाप नहीं है। फियर जो है, शायद
वह सबसे गहरा
है। नीचे रखने
में हमें, सबसे
बड़ा पत्थर वही
है। और भय बड़े
अजीब हैं, और
बड़े क्षुद्र
हैं। कोई मुझे
आकर कहता है
कि ऐसा लगता
है पास—पड़ोस
के बैठे लोग
क्या कहेंगे
कि यह मुझे क्या
हो रहा है!
पास—पड़ोस
के लोगों का
भय हमें
परमात्मा से
रोक ले सकता
है। शिष्ट और
सभ्य मनुष्य
ने पूरी तरह
हंसना बंद कर
दिया, पूरी
तरह रोना बंद
कर दिया; ऐसी
कोई वृत्ति, ऐसा कोई भाव
नहीं जिसमें
वह पूरा डूबे।
वह हर चीज के
बाहर खड़ा रह
जाता है।
त्रिशंकु की
तरह लटका रह
जाता है।
हंसते हैं तो
हम डरे हुए, रोते हैं तो
हम डरे हुए।
पुरुषों ने तो
जैसे रोना छोड़
ही दिया। उनको
खयाल ही नहीं
है कि रोना भी
कुछ आयाम है, वह भी कोई
दिशा है।
हमारे
खयाल में नहीं
है कि जो नहीं
रो सकता, उस
व्यक्तित्व
में कुछ
बुनियादी कमी
हो गई; उस व्यक्तित्व
का कोई एक
हिस्सा सदा के
लिए कुंठित हो
गया; और वह
हिस्सा सदा
पत्थर के बोझ
की तरह उसके
ऊपर अटका
रहेगा।
जिन्हें
ऊर्जा के जगत
में प्रवेश
करना है, उस
सुप्रीम
एनर्जी की
यात्रा करनी
है, उन्हें
सब भय छोड़
देने पड़ेंगे।
और सरल होकर, अगर शरीर
कंपता हो, कंपित
होता हो, गिरता
हो, नाचने
लगता हो........
आंतरिक
रूपांतरण की
ध्यान—प्रक्रिया
: योगविद्या
का स्रोत:
यह
जानकर आपको
आश्चर्य होगा, लेकिन
जान लेना
जरूरी है कि
जितने भी
योगासन हैं, वे सब ध्यान
की स्थितियों
में आकस्मिक
रूप से ही
उपलब्ध हुए
हैं। उन्हें
किसी ने बैठकर,
सोचकर
निर्मित नहीं
किया। उन्हें
किसी ने बैठकर
तैयार नहीं
किया है। वह
तो ध्यान की
स्थिति में
शरीर ने वैसी स्थितियां
ले ली हैं और
तब पता चला कि
ये स्थितियां
हैं। और तब
धीरे— धीरे
एसोसिएशन भी
पता चला कि जब
मन एक दशा में जाता
है तो शरीर इस
दशा में चला जाता
है। तब फिर यह
खयाल में आ
गया कि अगर
शरीर को इस
दशा में ले
जाया जाए तो
मन उस दशा में
चला जाएगा।
जैसे
हमें पता है
कि अगर भीतर
रोना भर जाए
तो आंख से आंसू
आ जाते हैं।
अगर आंख से आंसू
आ जाएं तो
भीतर रोना भर
जाएगा। ये एक
ही चीज के दो
छोर हो गए।
जैसे हमें क्रोध
आता है तो
किसी के सिर
के ऊपर हमारा
हाथ उसे मारने
को उठ जाता है।
जैसे हमें
क्रोध आता है
तो मुट्ठियां
बंध जाती हैं; जैसे
हमें क्रोध
आता है तो
दांत भिंच
जाते हैं; जैसे
हमें क्रोध
आता है तो आंखें
लाल हो जाती
हैं। और जब
प्रेम आता है
तब तो मुट्ठियां
नहीं भिचतीं,
तब तो दांत
नहीं भिंचते,
तब तो आंखें
लाल नहीं हो
जातीं। जब
प्रेम आता है
तो कुछ और
होता है— अगर मुट्ठियां
भिंची भी
हों तो खुल
जाती हैं, अगर
दांत भिंचे
भी हों तो खुल
जाते हैं, अगर
आंख लाल भी हो
तो शांत हो
जाती है।
प्रेम की अपनी
व्यवस्था है।
ऐसे ही ध्यान
की प्रत्येक
स्थिति में भी
शरीर की अपनी
व्यवस्था है।
इसको
ऐसा समझें कि
अगर शरीर की
उस व्यवस्था
में आपने बाधा
डाली तो भीतर
चित्त की
व्यवस्था में
बाधा पड़ जाएगी।
जैसे अगर कोई
आपसे कहे कि
क्रोध करिए, लेकिन
आंखें लाल न
हों; क्रोध
करिए, लेकिन
मुट्ठी न भिंचे;
क्रोध करिए,
लेकिन दांत
न भिंचे।
तो आप क्रोध न
कर पाएंगे; क्योंकि
शरीर का यह जो
आनुषांगिक
हिस्सा है, इसके बिना
आप कैसे क्रोध
कर पाएंगे? अगर कोई कहे
कि सिर्फ
क्रोध करिए, और शरीर पर
कोई परिणाम न
हो, तो आप
क्रोध न कर
पाएंगे। अगर
कोई कहे कि
सिर्फ प्रेम
करिए, लेकिन
आपकी आंखों से
अमृत न बरसे, और आपके
हाथों में
प्रेम की
लहरें न दौड़े,
और आपका
हृदय न धड़कने
लगे, और
आपकी श्वास और
तरह से न चलने
लगे— आप सिर्फ
प्रेम करिए, शरीर पर कुछ
प्रकट मत होने
दीजिए; तो
आप कहेंगे, बहुत
मुश्किल है, यह नहीं हो
सकता।
योगासनों
का जन्म:
तो
जब ध्यान की
स्थितियों
में शरीर
विशेष—विशेष
रूप से मुड़ने
लगे,
घूमने लगे,
तब अगर आप
उसे रोकते हों,
तो भीतर की
स्थिति को भी उगप पंगु
कर देंगे। वह
स्थिति फिर
आगे नहीं बढ़ेगी।
जितने
योगासन हैं वे
सब ध्यान की
स्थितियों में
ही उपलब्ध हुए; मुद्राओं
का बहुत
विस्तार हुआ।
अनेक प्रकार
की... आपने
बुद्ध की
मूर्तियां देखी
होंगी बहुत
मुद्राओं में।
वे मुद्राएं
भी मन की
किन्हीं
विशेष
अवस्थाओं में
पैदा हुईं।
फिर तो
मुद्राओं का
एक शास्त्र बन
गया। फिर तो
बाहर से देखकर
कहा जा सकता
है, अगर आप
झूठ न कर रहे
हों और ध्यान
में सीधे बह जाएं,
तो आपकी जो
मुद्रा बनेगी
उसे देखकर भी
बाहर से कहा
जा सकता है कि
भीतर आपके
क्या हो रहा
है।
उसको
भी रोक नहीं
लेना है।
नृत्य
का जन्म ध्यान
में:
मेरी
अपनी समझ में
तो नृत्य भी
पहली बार
ध्यान में ही
जन्मा है।
मेरी समझ में
तो जीवन में
जो भी
महत्वपूर्ण है
उसके कहीं मूल
स्रोत ध्यान
से संबंधित
हैं। मीरा
कहीं नाचना
सीखने नहीं गई।
और लोग सोचते
होंगे कि मीरा
ने नाच—नाचकर
भगवान को पा
लिया, तो गलत
सोचते हैं।
मीरा ने भगवान
को पा लिया
इसलिए नाच उठी।
बात बिलकुल
दूसरी है। नाच—नाचकर
कोई भगवान को
नहीं पाता।
लेकिन कोई भगवान
को पा ले तो
नाच सकता है।
और जब समुद्र
गिरे बूंद में,
और बूंद
नाचने न लगे
तो क्या करे? और जब किसी
भिखारी के
द्वार पर अनंत
खजाना टूट पडे,
और भिखारी न
नाचे तो क्या
करे?
ध्यान
से दमित
व्यक्तित्व
का विसर्जन:
लेकिन
सभ्यता ने
मनुष्य को ऐसा
जकड़ा है
कि वह नाच भी
नहीं सकता।
मेरी समझ में, दुनिया
को अगर वापस
धार्मिक
बनाना हो तो
हमें जीवन की
सहजता को वापस
लौटाना पडे।
तो
यह हो सकता है
कि जब ध्यान
की ऊर्जा जगे
आपके भीतर तो
सारे प्राण
नाचने लगें, उस
वक्त आप शरीर
को मत रोक
लेना। अन्यथा
बात वहीं ठहर
जाएगी, रुक
जाएगी; और
कुछ होनेवाला
था, वह
नहीं हो पाएगा।
लेकिन हम बड़े
डरे हुए लोग
हैं। हम
कहेंगे कि अगर
मैं नाचने लगू
मेरी पत्नी पास
बैठी है, मेरा
बेटा पास बैठा
है, वे
क्या सोचेंगे,
कि पिता जी
और नाचते हैं!
अगर मैं नाचने
लगै तो पति
पास बैठे हैं,
वे क्या
सोचेंगे, कि
मेरी पत्नी
पागल तो नहीं
हो गई।
अगर
ये भय रहे तो
उस भीतर की
यात्रा पर गति
नहीं हो पाएगी।
और
शरीर की
मुद्राओं, आसनों
के साथ—साथ और
बहुत कुछ भी
प्रकट होता है।
एक
बड़े विचारक
हैं। न मालूम
कितने
संन्यासी, साधुओं,
आश्रमों, न मालूम
कहां—कहां गए।
इधर कोई छह
महीने पहले
मेरे पास आए।
तो उन्होंने
कहा, सब
समझ में आता
है, लेकिन
मुझे कुछ होता
नहीं।
फिर, मैंने
उनसे कहा, आप
होने न देते
होंगे।
वे
कुछ विचार में
पड़ गए।
उन्होंने कहा, यह
मेरे खयाल में
नहीं आया।
शायद आप ठीक
कहते हैं।
लेकिन, एक
बार आपके
ध्यान में आया
था, वहां
मैंने किसी को
रोते देखा, तो मैं तो
बहुत सम्हलकर
बैठ गया कि
कहीं भूल—चूक
से ऐसा मुझे न
हो जाए, अन्यथा
लोग क्या
कहेंगे!
लोगों
से प्रयोजन
क्या है? ये
लोग कौन हैं
जो सबके पीछे
पड़े हुए हैं? और लोग, जब
मरेंगे तो
बचाने न आएंगे;
और लोग, जब
आप दुख में
होंगे तो दुख
छीनने न आएंगे;
और लोग, जब
आप भटकेंगे
अंधेरे में तो
दीया न
जलाएंगे।
लेकिन जब आपका
दीया जलने को
हो, तब
अचानक लोग
आपको रोक
लेंगे। ये लोग
कौन हैं? कौन
आपको रोकने
आता है? आप
ही अपने भय को
लोग बना लेते
हैं, आप ही
अपने भय को
फैला लेते हैं
चारों तरफ।
वे
मुझसे कहने
लगे,
हो सकता है;
मैं तो डर
गया जब मैंने
किसी को रोते
देखा और मैं
सम्हलकर बैठ
गया कि कहीं
कुछ ऐसा मुझसे
न हो जाए।
मैंने उनसे
कहा, आप एक
महीने एकांत
में चले जाएं;
और जो होता
हो होने दें।
उन्होंने कहा,
क्या मतलब?
मैंने कहा
कि अगर
गालियां बकने
का मन होता हो तो
बके, चिल्लाने
का मन होता हो
तो चिल्लाएं;
रोने का
होता हो, रोएं; नाचने
का होता हो, नाचे, दौड़ने
का होता हो, दौड़े; पागल
होने का मन
होता हो तो
महीने भर के
लिए पागल हो
जाएं।
उन्होंने कहा,
मैं न जा
सकूंगा।
मैंने कहा, क्यों? उन्होंने
कहा कि आप
जैसा कहते हैं,
मुझे कई बार
डर लगता है कि
अगर मैं अपने
को बिलकुल छोड़
दूं जैसा सहज
आप कहते हैं, तो ठीक है कि
मुझमें
पागलपन प्रकट
हो जाएगा।
तो
मैंने उनसे
कहा,
आप दबाए
रहेंगे, इससे
कुछ फर्क तो
नहीं पड़ता।
प्रकट होगा तो
निकल जाएगा, दबा रहेगा
तो सदा आपके
साथ रह जाएगा।
हम
सबने बहुत कुछ
सप्रेस किया
है,
दबाया है। न
हम रोए
हैं, न हम
हंसे हैं, न
हम नाचे हैं, न हम खेले
हैं, न हम
दौड़े हैं।
हमने सब दबा
लिया है, हमने
अपने भीतर सब
तरफ से द्वार
बंद कर लिए हैं।
और हर द्वार
पर हम पहरेदार
होकर बैठ गए
हैं।
अब
अगर हमें
परमात्मा से
मिलने जाना हो
तो ये दरवाजे
खोलने पड़ेंगे।
तो डर लगेगा, क्योंकि
जो—जो हमने
रोका है वह
प्रकट हो सकता
है। अगर आपने
रोना रोका है
तो रोना बहेगा;
हंसना रोका
है, हंसना
बहेगा।
उस
सबको बह जाने
दें,
उस सबको
निकल जाने दें।
यहां
तो हम आए ही
इसलिए इस
एकांत में हैं
कि यहां लोगों
का भय न हो। और सरू के
वृक्ष, बिलकुल
ही उनका संकोच
न करें, वे
आपसे कुछ भी न
कहेंगे, बल्कि
वे बडे
प्रसन्न
होंगे। और
सागर की लहरें
भी आपसे कुछ न
कहेंगी। वे
किसी से भयभीत
नहीं हैं। जब
उन्हें शोर
करना होता है,
वे शोर करती
हैं; जब
उन्हें सो
जाना होता है,
वे सो जाती
हैं। और आपके
नीचे पड़े हुए
रेत के कण भी
कुछ न कहेंगे।
यहां कोई कुछ
न कहेगा।
ऊर्जा
के साथ सहयोग
करो:
आप
अपने को पूरी
तरह छोड़ दें
और जो आपके
भीतर होता है
उसे होने दें—नाचना
हो नाचे, चिल्लाना
हो चिल्लाएं,
दौड़ना हो
दौड़े, गिरना
हो गिरे—छोड़
दें सब भांति।
और जब आप सब
भांति छोड़ेंगे
तब आप अचानक
पाएंगे कि
आपके भीतर
वर्तुल बनाती
हुई कोई ऊर्जा
उठने लगी; कोई
शक्ति आपके
भीतर जगने लगी,
सब तरफ
द्वार टूटने
लगे। उस वक्त
भय मत करना।
उस वक्त समग्र
रूप से उस आंदोलन
में, उस
मूवमेंट में,
जो आपके
भीतर पैदा होगा,
वह जो शक्ति
आपके भीतर
वर्तुल बनाकर
घूमने लगेगी,
उसके साथ एक
हो जाना, अपने
को उसमें छोड़
देना। तो घटना
घट सकती है।
घटना
घटना बहुत
आसान है।
लेकिन हम अपने
को छोड़ने को
तैयार नहीं
होते। और कैसी
छोटी चीजें
हमें रोकती
हैं,
जिस दिन आप
कहीं
पहुंचेंगे उस
दिन पीछे
लौटकर बहुत
हंसेंगे कि
कैसी चीजों ने
मुझे रोका था! रोकनेवाली
बड़ी चीजें
होतीं तो ठीक
था, रोकनेवाली बहुत छोटी
चीजें हैं।
कुछ
पूछना हो, कुछ
बात करनी हो, तो थोड़ी देर
हम बात कर लें,
और फिर
ध्यान के लिए बैठें।
कुछ भी पूछना
हो तो पूछें।
जीना ही
जीवन का
उद्देश्य है:
प्रश्न:
ओशो आपने
कल बताया था कि
जीवन में
उद्देश्य
होना चाहिए।
प्रकृति में
सब कुछ
निष्प्रयोजन
है? निरुद्देश्य
है। तो फिर हम
ही क्यों
उद्देश्य या
प्रयोजन लेकर
चलें?
निश्चित
ही! वे मित्र
पूछते हैं कि
प्रकृति में सभी
निरुद्देश्य
है,
तो हम ही
क्यों
उद्देश्य
लेकर चलें?
अगर
सब उद्देश्य
छोड़ सको तो
इससे बड़ा कोई
उद्देश्य
नहीं हो सकता।
अगर प्रकृति
जैसे हो सको
तो सब हो गया।
लेकिन आदमी
अप्राकृतिक
हो गया है, इसलिए
वापस लौटने के
लिए, उसे
प्रकृति तक
जाने के लिए
भी उद्देश्य
बनाना पड़ता है।
यह दुर्भाग्य
है। वही तो
मैं कह रहा
हूं कि सब छोड़
दो। लेकिन अभी
तो हमने इतना
पकड़ लिया है
कि छोड़ना भी
हमें एक उद्देश्य
ही होगा। वह
भी हमें छोड़ना
पड़ेगा। हमने
इतने जोर से
पकड़ा है कि
हमें छोड़ने
में भी मेहनत
करनी पड़ेगी।
हालांकि
छोड़ने में कोई
मेहनत की
जरूरत नहीं है।
छोड़ने में
क्या मेहनत
करनी होगी!
यह
ठीक है कि
कहीं कोई
उद्देश्य
नहीं है।
क्यों नहीं है
लेकिन? नहीं
होने का कारण
यह नहीं है कि
निरुद्देश्य है
प्रकृति; नहीं
होने का कारण
यह है कि जो है,
उसके बाहर
कोई उद्देश्य
नहीं है।
एक
फूल खिला। वह
किसी के लिए
नहीं खिला है; और
किसी बाजार
में बिकने के
लिए भी नहीं
खिला है; राह
से कोई गुजरे
और उसकी सुगंध
ले, इसलिए
भी नहीं खिला
है, कोई
गोल्ड मेडल
उसे मिले, कोई
महावीर चक्र
मिले, कोई पद्यश्री
मिले, इसलिए
भी नहीं खिला
है। फूल बस
खिला है, क्योंकि
खिलना आनंद है;
खिलना ही खिलने का
उद्देश्य है।
इसलिए ऐसा भी
कह सकते हैं
कि फूल
निरुद्देश्य
खिला है। और
जब कोई
निरुद्देश्य
खिलेगा तभी
पूरा खिल सकता
है, क्योंकि
जहां
उद्देश्य है
भीतर वहां
थोड़ा अटकाव हो
जाएगा। अगर
फूल इसलिए
खिला है कि
कोई निकले, उसके लिए
खिला है, तो
अगर वह आदमी
अभी रास्ते से
नहीं निकल रहा
तो फूल अभी
बंद रहेगा; जब वह आदमी
आएगा तब
खिलेगा।
लेकिन जो फूल
बहुत देर बंद
रहेगा, हो
सकता है उस
आदमी के पास आ
जाने पर भी
खिल न पाए, क्योंकि
न खिलने
की आदत मजबूत
हो जाएगी।
नहीं, फूल
इसीलिए पूरा
खिल पाता है
कि कोई
उद्देश्य नहीं
है।
ठीक
ऐसा ही आदमी
भी होना चाहिए।
लेकिन आदमी के
साथ कठिनाई यह
है कि वह सहज
नहीं रहा है, वह
असहज हो गया
है। उसे सहज
तक वापस लौटना
है। और यह
लौटना फिर एक
उद्देश्य ही
होगा।
तो
मैं जब
उद्देश्य की
बात करता हूं
तो वह उसी अर्थों
में जैसे पैर
में कांटा लग
गया हो, और
दूसरे कांटे
से उसे
निकालना पड़े।
अब कोई आकर
कहे कि मुझे
कांटा लगा ही
नहीं है तो
मैं क्यों
कांटे को निकालूं?
उससे मैं
कहूंगा, निकालने
का सवाल ही
नहीं है, तुम
पूछने ही
क्यों आए हो? कांटा नहीं
लगा है, तब
बात ही नहीं
है। लेकिन
कांटा लगा है,
तो फिर
दूसरे कांटे
से निकालना
पड़ेगा।
वह
मित्र यह भी
कह सकता है कि
एक कांटा तो
वैसे ही मुझे
परेशान कर रहा
है,
अब आप दूसरा
कांटा और पैर
में डालने को
कहते हो!
पहला
कांटा परेशान
कर रहा है, लेकिन
एक कांटे को
दूसरे कांटे
से ही निकालना
पड़ेगा। हां, एक बात
ध्यान रखनी
जरूरी है कि
दूसरे कांटे
को घाव में
वापस मत रख
लेना—कि इस
कांटे ने बड़ी
कृपा की, एक
कांटे को निकाला;
तो अब इस
कांटे को हम
अपने पैर में
रख लें। तब
नुकसान हो
जाएगा। जब
कांटा निकल
जाए तो दोनों
कांटे फेंक
देना।
जब
हमारा जो हमने
अप्राकृतिक
जीवन बना लिया
है,
जब वह सहज
हो जाए, तो
अप्राकृतिक
को भी फेंक
देना और सहज
को भी फेंक
देना; क्योंकि
जब सहज पूरा
होना हो, तो
सहज होने का
खयाल भी बाधा
देता है। फिर
तो जो होगा, होगा। नहीं,
मैं नहीं
कहता हूं कि
उद्देश्य
चाहिए। इसलिए
कहना पड़ता है
उद्देश्य कि
आपने उद्देश्य
पकड़ रखे हैं, कांटे लगा
रखे हैं, अब
उन कांटों को
कीटों से ही
निकालना
पड़ेगा।
जड
और चेतन:
प्रश्न:
ओशो मन
बुद्धि चित्त
और अहंकार ये
पृथक— पृथक
वस्तुएं हैं, एन्टाइटीज
है, या एक
चीज है? और
आत्मा इनसे भित्र है
या इनके समूह
को ही आत्मा
कहा जाता है? और इनमें से
जड़ कौन सी चीज
है और चेतन
कौन सी चीज है?
और उनका
विशिष्ट
स्थान कौन सा
है शरीर में?
मित्र
पूछते हैं कि
मन,
बुद्धि, चित्त
और अहंकार, ये अलग—अलग
हैं, अलग—अलग
एन्टाइटीज
हैं, अलग—अलग
वस्तुएं हैं
या एक ही हैं? और वे यह भी
पूछते हैं कि
ये आत्मा से
अलग हैं या
आत्मा के साथ
ही एक हैं? और
वे यह भी
पूछते हैं कि
ये जड़ हैं या
चेतन हैं, या
क्या जड़ है और
क्या चेतन है?
और उनका
विशिष्ट
स्थान कौन सा
है शरीर में?
पहली
बात तो यह, इस
जगत में जड़ और
चेतन जैसी दो
वस्तुएं नहीं
हैं। जिसे हम
जड़ कहते हैं, वह सोया हुआ
चेतन है; और
जिसे हम चेतन
कहते हैं, वह
जागा हुआ जड़
है। असल में
जड़ और चेतन
जैसे दो पृथक
अस्तित्व नहीं
हैं, अस्तित्व
तो एक का ही है।
उस एक का नाम
ही परमात्मा
है, ब्रह्म
है—कोई और नाम
दें— और वह एक
ही, जब
सोया हुआ है
तब जड़ मालूम
होता है, और
जब जागा हुआ
है तब चेतन
मालूम होता है।
इसलिए
जड़ और चेतन के
ऐसे दो भेद
करके न चलें, कामचलाऊ
शब्द हैं, लेकिन
ऐसी कोई दो
चीजें नहीं
हैं। विज्ञान
भी इस नतीजे
पर पहुंच गया
है कि जड़ जैसी
कोई चीज नहीं
है, मैटर
जैसी कोई चीज
नहीं है।
पदार्थ
और परमात्मा:
यह
बड़े मजे की
बात है कि आज
से पचास—साठ
साल पहले
नीत्शे ने यह
घोषणा की कि
ईश्वर मर गया
है। और पचास
साल बाद
विज्ञान को यह
घोषणा करनी पड़ी
कि ईश्वर मरा
हो या न मरा हो, लेकिन
मैटर जरूर मर
गया है, पदार्थ
अब नहीं है।
क्योंकि जैसे—जैसे
पदार्थ के
भीतर विज्ञान
उतरा तो पाया
कि पदार्थ के
गहरे उतरो, गहरे उतरो—
पदार्थ खो
जाता है और
सिर्फ एनर्जी,
ऊर्जा रह
जाती है।
अणु
के विस्फोट पर
जो बचता है—परमाणु, वह
सिर्फ ऊर्जा—क्या
है। परमाणु के
विस्फोट पर जो
इलेक्ट्रांस,
पाजिट्रांस और न्यूट्रांन
बचते हैं, वे
केवल विद्युत—कण
हैं। उन्हें
कण कहना भी
ठीक नहीं, क्योंकि
कण से पदार्थ
का बोध होता
है। इसलिए
अंग्रेजी में
एक नया शब्द
ही खोजना पड़ा
है—क्वांटा।
क्वांटा
का मतलब ही
कुछ और होता
है। कांटा का
मतलब होता है
जो दोनों है—कण
भी और लहर भी—एक
साथ। समझना ही
मुश्किल पड़
जाता है कि
कोई चीज कण और लहर
एक साथ कैसे
होगी? वह
दोनों एक साथ
है। ये दोनों
उसके बिहेवियर
हैं। वह कभी
कण की तरह
दिखाई पड़ती है
और कभी लहर की
तरह। अब लहर
यानी ऊर्जा और
कण यानी
पदार्थ। और वह
दोनों एक ही
है।
विज्ञान
गहरे गया तो
उसने पाया कि
सिर्फ ऊर्जा
है,
एनर्जी है।
और अध्यात्म
गहरे गया तो
उसने पाया कि
सिर्फ आत्मा
है। और आत्मा
एनर्जी है, आत्मा ऊर्जा
है। इसलिए
बहुत शीघ्र, बहुत जल्दी
वह सिंथीसिस,
वह समन्वय
उपलब्ध हो
जाएगा जहां विज्ञान
और धर्म के
बीच फासला तोड़
देना पड़ेगा।
जब पदार्थ और
परमात्मा के
बीच का फासला
झूठा सिद्ध
हुआ, तो
कितने दिन
लगेंगे कि
विज्ञान और
धर्म के बीच
के फासले को
हम बचा सकें? अगर जड़ और
चेतन दो नहीं
हैं, तो
धर्म और
विज्ञान भी दो
नहीं रह सकते।
वे उसी भेद पर
दो थे।
अस्तित्व
अद्वैत है:
मेरी
दृष्टि में, दो
का अस्तित्व
नहीं है, एक
ही है। तब फिर
यह सवाल नहीं
उठता कि कौन
जड़ है, कौन
चेतन है। अगर
आपको जड़ की
भाषा पसंद है
तो आप कहिए, सब जड़ है; अगर
आपको चेतन की
भाषा पसंद है
तो कहिए, सब
चेतन है।
लेकिन मुझे
चेतन की भाषा
पसंद है। और
क्यों पसंद है?
क्योंकि
भाषा सदा ऊपर
की चुननी
चाहिए, जिसमें
संभावना
ज्यादा हो, नीचे की
नहीं चुननी
चाहिए, उसमें
संभावना कम हो
जाती है।
जैसे
कि हम यह कह
सकते हैं कि
वृक्ष हैं ही
नहीं, बस बीज
हैं। गलत नहीं
है यह बात, क्योंकि
वृक्ष सिर्फ
बीज का ही
रूपांतरण है।
हम कह सकते
हैं : बीज ही
हैं, वृक्ष
नहीं हैं।
लेकिन खतरा है
इसमें। इसमें
खतरा यह है कि
कुछ बीज कहें,
जब बीज ही
हैं तो हम
वृक्ष क्यों
बनें? वे
बीज ही रह
जाएं। नहीं, ज्यादा
अच्छा होगा कि
हम कहें :
वृक्ष ही हैं,
बीज नहीं
हैं। तब बीज
को वृक्ष बनने
की संभावना
खुल जाती है।
चेतन
की भाषा' मुझे
पसंद है, वह
इसलिए कि जो
अभी सोया हुआ
है वह जाग सके,
वह संभावना
का द्वार
खोलती है।
पदार्थवादी
और अध्यात्मवादी
में एक समानता
है कि वे एक को
ही स्वीकार
करते हैं।
असमानता एक है
कि
पदार्थवादी
बहुत
प्राथमिक चीज
को मान लेता है,
और इसलिए
अंतिम से रुक
सकता है। अध्यात्मवादी
अंतिम को
स्वीकार करता
है, इसलिए
पहला तो उसमें
आ ही जाता है, वह कहीं
जाता नहीं।
मुझे
अध्यात्म की
भाषा
प्रीतिकर है,
और इसलिए
कहता हूं कि
सब चेतन है—
सोया हुआ चेतन
जड़ है; जागा
हुआ चेतन चेतन
है। समस्त
चेतना है।
मन के
विविध रूप :
बुद्धि, चित्त,
अहंकार:
दूसरी बात
उन्होंने
पूछी है कि मन, बुद्धि,
चित्त, अहंकार—यें क्या
अलग—अलग हैं?
ये
अलग—अलग नहीं
हैं,
ये मन के ही
बहुत चेहरे
हैं। जैसे कोई
हमसे पूछे कि
बाप अलग है, बेटा अलग है,
पति अलग है?
तो हम कहें
कि नहीं, वह
आदमी तो एक ही
है। लेकिन
किसी के सामने
वह बाप है, और
किसी के सामने
वह बेटा है, और किसी के
सामने वह पति
है, और
किसी के सामने
मित्र है और
किसी के सामने
शत्रु है; और
किसी के सामने
सुंदर है और
किसी के सामने
असुंदर है, और किसी के
सामने मालिक
है और किसी के
सामने नौकर है।
वह आदमी एक है।
और अगर हम उस
घर में न गए
हों, और
हमें कभी कोई
आकर खबर दे कि
आज मालिक मिल
गया था, और
कभी कोई आकर
खबर दे कि आज नौकर
मिल गया था, और कभी कोई
आकर कहे कि आज
पिता से
मुलाकात हुई थी,
और कभी कोई
आकर कहे कि आज
पति घर में
बैठा हुआ था, तो हम शायद सोचें
कि बहुत लोग
इस घर में
रहते हैं—कोई
मालिक, कोई
पिता, कोई
पति।
हमारा
मन बहुत तरह
से व्यवहार
करता है।
हमारा मन जब
अकड़ जाता है
और कहता है.
मैं ही सब कुछ
हूं और कोई
कुछ नहीं, तब
वह अहंकार की
तरह प्रतीत
होता है। वह
मन का एक ढंग
है; वह मन
के व्यवहार का
एक रूप है। तब
वह अहंकार, जब वह कहता
हैं—मैं ही सब
कुछ! जब मन
घोषणा करता है
कि मेरे सामने
और कोई कुछ भी
नहीं, तब
मन अहंकार है।
और जब मन
विचार करता है,
सोचता है, तब वह
बुद्धि है। और
जब मन न सोचता,
न विचार
करता, सिर्फ
तरंगों में
बहा चला जाता
है, अन—डायरेक्टेड.......।
जब मन डायरेक्यान
लेकर सोचता है—एक
वैज्ञानिक
बैठा है
प्रयोगशाला
में और सोच रहा
है कि अणु का
विस्फोट कैसे
हो—डायरेक्टेड
थिंकिंग,
तब मन
बुद्धि है। और
जब मन
निरुद्देश्य,
निर्लक्ष्य,
सिर्फ बहा
जाता है— कभी
सपना देखता है,
कभी धन
देखता है, कभी
राष्ट्रपति
हो जाता है—तब
वह चित्त है, तब वह सिर्फ
तरंगें मात्र
है। और तरंगें
असंगत, असंबद्ध,
तब वह चित्त
है। और जब वह
सुनिश्चित एक
मार्ग पर बहता
है, तब वह
बुद्धि है।
ये
मन के ढंग हैं
बहुत, लेकिन
मन ही है।
मन और
आत्मा : चेतना
के दो रूप:
और वे
पूछते हैं कि
ये मन, बुद्धि,
अहंकार, चित्त
और आत्मा अलग
हैं या एक हैं?
सागर
में तूफान आ
जाए,
तो तूफान और
सागर एक होते
हैं या अलग? विक्षुब्ध
जब हो जाता है
सागर तो हम
कहते हैं, तूफान
है। आत्मा जब
विक्षुब्ध हो
जाती है तो हम
कहते हैं, मन
है, और मन
जब शांत हो
जाता है तो हम
कहते हैं, आत्मा
है।
मन
जो है वह
आत्मा की
विक्षुब्ध
अवस्था है, और
आत्मा जो है
वह मन की शांत
अवस्था है।
ऐसा समझें :
चेतना जब
हमारे भीतर
विक्षुब्ध है,
विक्षिप्त
है, तूफान
से घिरी है, तब हम इसे मन
कहते हैं।
इसलिए जब तक
आपको मन का
पता चलता है
तब तक आत्मा
का पता न
चलेगा। और
इसलिए ध्यान
में मन खो
जाता है। खो
जाता है इसका
मतलब? इसका
मतलब, वे
जो लहरें उठ
रही थीं आत्मा
पर, सो
जाती हैं, वापस
शांति हो जाती
है। तब आपको
पता चलता है
कि मैं आत्मा
हूं। जब तक
विक्षुब्ध
हैं तब तक पता
चलता है कि मन
है।
विक्षुब्ध मन
बहुत रूपों
में प्रकट होता
है—कभी अहंकार
की तरह, कभी
बुद्धि की तरह,
कभी चित्त
की तरह— वे
विक्षुब्ध मन
के अनेक चेहरे
हैं।
आत्मा
और मन अलग
नहीं, आत्मा
और शरीर भी
अलग नहीं; क्योंकि
तत्व तो एक है,
और उस एक के
सारे के सारे
रूपांतरण हैं।
और उस एक को
जान लें तो
फिर कोई झगड़ा
नहीं है—शरीर
से भी नहीं, मन से भी
नहीं। उस एक
को एक बार
पहचान लें तो
फिर वही है—फिर
रावण में भी
वही है, फिर
राम में भी
वही है। फिर
ऐसा नहीं है
कि राम को
नमस्कार कर
आएंगे और रावण
को जला आएंगे;
ऐसा नहीं।
फिर नमस्कार
दोनों को ही
कर आएंगे, या
दोनों को ही
जला आएंगे; क्योंकि
दोनों में वही
है।
एक
है तत्व, अनंत
हैं
अभिव्यक्तियां;
एक है सत्य,
अनेक हैं
रूप, एक है
अस्तित्व, बहुत
हैं उसके
चेहरे, मुद्राएं।
सत्य विचारणा
नही, अनुभूति
है:
लेकिन, इसे
फिलासफी की
तरह समझेंगे
तो नहीं समझ
में आ सकेगा, इसे अनुभव
की तरह
समझेंगे तो
समझ में आ
सकता है। तो
यह तो मैंने
समझाने के
खयाल से कहा, लेकिन जब आप
ही उतरेंगे उस
एक में तभी आप
जानेंगे कि
अरे। जिसे
जाना था शरीर
की तरह, वह
भी तू ही है! और
जिसे जाना था
मन की तरह, वह
भी तू ही है! और
जिसे जाना था
आत्मा की तरह,
वह भी तू ही
है। जब जानते
हैं तब सिर्फ
एक ही रह जाता
है। इतना
ज्यादा एक रह
जाता है कि
जाननेवाला, और जो जानता
है, और जो
जाना जाता है,
इनमें भी
कोई फासला
नहीं रह जाता।
वहां
जाननेवाला और
जाना
जानेवाला, दोनों
एक ही रह जाते
हैं।
उपनिषद
का एक ऋषि
पूछता है. कौन
है वहां जानता? कौन
है वहां जो
जाना जाता? किसने वहां
देखा? कौन
है जो वहां
देखा गया? कौन
था जिसने
अनुभव किया? कौन था
जिसका अनुभव
हुआ? नहीं,
वहां इतना
भी दो नहीं रह
जाता। वहां
अनुभव
करनेवाला भी
नहीं बचता है।
सब फासले गिर
जाते हैं।
लेकिन
विचार तो
फासले बनाए
बिना नहीं चल
सकता। विचार
तो फासले
बनाएगा; वह
कहेगा—यह शरीर
है, यह मन
है, यह
आत्मा है, यह
परमात्मा है।
विचार फासले
बनाएगा।
क्यों? क्योंकि
विचार समग्र
को एक साथ
नहीं ले सकता,
विचार बहुत
छोटी खिड़की है;
उससे हम
टुकड़े—टुकड़े
को ही देख
पाते हैं।
जैसे एक बड़ा
मकान हो और
उसमें एक छोटा
छेद हो। और उस
छोटे छेद से
मैं देखूं। तो
कभी कुर्सी
दिखाई पड़े, कभी टेबल
दिखाई पडे,
कभी मालिक
दिखाई पड़े, कभी फोटो
दिखाई पड़े, कभी घड़ी
दिखाई पड़े।
छोटे छेद से
सब टुकड़े—टुकड़े
दिखाई पड़े, पूरा कमरा
कभी दिखाई न पडे; क्योंकि
वह छेद बहुत
छोटा है। और
फिर दीवाल
गिराकर मैं
भीतर पहुंच
जाऊं, तो
पूरा कमरा एक
साथ दिखाई पड़े।
विचार
बहुत छोटा छेद
है जिससे हम
सत्य को खोजते
हैं। उसमें
सत्य खंड—खंड
होकर दिखाई
पड़ता है।
लेकिन जब
विचार को छोड्कर
हम निर्विचार
में पहुंचते
हैं,
ध्यान में,
तब समग्र, दि टोटल
दिखाई पड़ता है।
और जिस दिन वह
पूरा दिखाई पड़ता
है, उस दिन
बड़ी हैरानी
होती है कि
अरे! एक ही था, अनंत होकर
दिखाई पड़ता
था! पर वह
अनुभव से ही।
हां, कहिए!
प्रश्न:
थोडा
पर्सनल सवाल
है।
कहिए—कहिए!
प्रश्न
: आपको ध्यान
में प्रवेश
करने में कितने
साल लगे?
ध्यान समयातीत
है
ये
मित्र पूछते
हैं कि मुझे
ध्यान में
प्रवेश करने
में कितने साल
लगे?
ध्यान
में प्रवेश तो
एक क्षण में
हो जाता है।
हां,
दरवाजे के
बाहर कितने ही
जन्म घूम सकते
हैं। दरवाजे
में प्रवेश तो
एक ही क्षण
में हो जाता है।
क्षण भी ठीक
नहीं, क्योंकि
क्षण भी काफी
बड़ा है, क्षण
के भी हजारवें
हिस्से में हो
जाता है। वह
भी ठीक नहीं
है, क्योंकि
क्षण का हजारवा
हिस्सा भी
टाइम का ही
हिस्सा है।
असल में, ध्यान
तो प्रवेश
होता है
टाइमलेसनेस
में, समय
रहता ही नहीं
और प्रवेश हो
जाता है।
इसलिए
अगर कोई कहे
कि ध्यान में
प्रवेश में मुझे
घंटा भर लगा, तो
वह गलत कहता
है; कहे कि
साल भर लगा, तो वह गलत
कहता है, क्योंकि
जब ध्यान में
प्रवेश होता
है तो वहां समय
नहीं होता।
समय होता ही
नहीं। हां, ध्यान का जो
मंदिर है, उसके
बाहर आप
जन्मों तक
चक्कर काटते
रहें। लेकिन
वह प्रवेश
नहीं है।
तो
चक्कर तो
मैंने भी बहुत
जन्म काटे, लेकिन
वह प्रवेश
नहीं है।
लेकिन जब
प्रवेश हुआ, तो वह
प्रवेश बिना
समय के ही हो
गया, बिना
किसी समय के
हो गया। इसलिए
यह सवाल बड़ा
कठिन पूछ लिया
आपने। अगर उस
सब का हिसाब
हम रखें जो
मंदिर के बाहर
घूमने में
वक्त बिताया,
तो वह
अंतहीन हिसाब
है, वह
अनंत जन्मों
का हिसाब है।
उसको भी बताना
मुश्किल है, क्योंकि
बहुत लंबा है।
उसकी भी कोई
गणना नहीं की
जा सकती। और
अगर प्रवेश को
ही ध्यान में
रखें सिर्फ, तो उसे समय
की भाषा में
नहीं कहा जा
सकता, क्योंकि
वह दो क्षणों
के बीच में घट
जाती है घटना।
एक क्षण गया, दूसरा अभी
आया नहीं, और
बीच में वह
घटना घट जाती
है। आपकी घड़ी
में एक बजा, और फिर एक
बजकर एक मिनट
बजा, और
बीच में जो
गैप छूट गया, उस गैप में
होती है वह
घटना। वह सदा
गैप में, इंटरवल
में, दो
मोमेंट के बीच
में जो खाली
जगह है, वहां
होती है। और
इसलिए उसको
नहीं बताया जा
सकता कि कितना
समय लगा।
समय
बिलकुल नहीं
लगता, समय लग
ही नहीं सकता,
क्योंकि
समय के द्वारा
इटरनल
में प्रवेश
नहीं हो सकता।
जो समय से
बाहर है, उसमें
समय के द्वारा
जाना नहीं हो
सकता।
तो
आपकी बात मैं
समझ गया हूं।
मंदिर के बाहर
जितना घूमना
हो,
घूम सकते
हैं। वह चक्कर
लगाना है।
जैसे एक आदमी
चक्कर लगा रहा
है। एक हमने
गोल घेरा खींच
दिया है, एक
सर्किल बना
दिया है, और
सर्किल के बीच
में एक सेंटर
है, और एक
आदमी सर्किल
पर चक्कर लगा
रहा है। वह
लगाता रहे, सर्किल पर
अनंत जन्मों
तक चक्कर
लगाता रहे, तो भी सेंटर
पर पहुंचने
वाला नहीं है।
वह सोचे कि और
जोर से दौडूं,
तो जोर से
दौड़े; वह
सोचे कि हवाई
जहाज ले आऊं, तो हवाई
जहाज ले आए; उसे जो भी
करना हो वह
करे, जितनी
ताकत लगानी हो
लगाए, अगर
वह सर्किल पर
ही दौड़ता
है तो दौड़ता
रहे, दौड़ता रहे, दौड़ता रहे, वह
सेंटर पर नहीं
पहुंच सकता।
और सर्किल पर
वह कहीं भी हो,
सेंटर से
दूरी बराबर
होगी।
इसलिए
वह कितना दौडा, बेमानी
है; कहीं
भी खड़ा हो जाए,
उसकी सेंटर
से दूरी उतनी
ही है जितनी
दौड़ने के पहले
थी। वह अनंत
जन्म दौड़ता
रहे। और अगर
सेंटर पर
पहुंचना है तो
सर्किल पर दौड़ना
छोड़ना पड़े उसे,
सर्किल ही
छोड़ना पड़े; सर्किल को छोड्कर
छलांग लगानी
पड़े।
अगर
फिर वह आदमी
सेंटर पर
पहुंच जाए, तो
आप उससे पूछें
कि सर्किल पर
कितनी यात्रा
करके तुम
सेंटर पर
पहुंचे? तो
वह आदमी क्या
कहे? वह
आदमी कहे कि
सर्किल पर तो
बहुत यात्रा
की, लेकिन
उससे पहुंचे
नहीं; वह
तो सर्किल पर
बहुत चले, लेकिन
उससे पहुंचे
ही नहीं। तो
आप उससे पूछें,
कितने मील
चलकर पहुंचे?
वह कहे कि
नहीं, कितने
ही मील चले, उससे पहुंचे
नहीं; चले
तो बहुत, लेकिन
उससे पहुंचना
न हुआ। और जब
पहुंचे तब
सर्किल से
छलांग लगाकर
पहुंचे। और
वहां मील का
सवाल नहीं है।
ठीक ऐसी बात
है। समय में
नहीं घटना
घटती है। और
समय तो, हमने
समय बहुत
गंवाया है।
समय तो हम
सबने बहुत
गंवाया है।
जिस दिन आपको
भी घटेगी उस
दिन आप भी न
बता सकेंगे कि
कितनी देर में
यह हुआ। नहीं,
देरी का
सवाल ही नहीं।
जीसस
से किसी ने
पूछा है कि
तुम्हारे उस
स्वर्ग में
कितनी देर हम
रुक सकेंगे? तो
जीसस ने कहा, तुम बडा
कठिन सवाल
पूछते हो।
देयर शैल बी
टाइम नो लांगर।
तुम पूछते हो,
तुम्हारे
उस स्वर्ग में
कितनी देर हम
रुक सकेंगे? बड़ी मुश्किल
का सवाल पूछते
हो, क्योंकि
वहां तो समय न
होगा। इसलिए
देरी का हिसाब
कैसे लगेगा?
समय मन
की प्रतीति है:
यह
समझने जैसा है
कि समय जो है
वह हमारे दुख
से जुड़ा है।
आनंद में समय
नहीं होता। आप
जितने दुख में
हैं,
समय उतना
बड़ा होता है।
रात घर में
कोई खाट पर
पड़ा है मरने
के लिए, तो
रात बहुत लंबी
हो जाती है।
घड़ी में तो
उतनी ही होगी,
कैलेंडर में उतनी ही
होगी, लेकिन
वह जो खाट के
पास बैठा है, जिसका
प्रियजन मर
रहा है, उसके
लिए रात इतनी
लंबी, इतनी
लंबी हो जाती
है कि लगता है
कि चुकेगी कि नहीं
चुकेगी? यह
रात खत्म होगी
कि नहीं होगी?
सूरज उगेगा
कि नहीं उगेगा?
यह रात
कितनी लंबी
होती चली जाती
है! और घड़ी उतना
ही कहती है।
और तब
देखनेवाले को
लगेगा कि घड़ी
आज धीरे चलती
है या रुक गई
है! कैलेंडर
की पंखुड़ी
उखड़ने के
करीब आ गई है, सुबह होने
लगी है, लेकिन
ऐसा लगता है
कि लंबा, लंबा.......।
बर्ट्रेड
रसेल ने कहीं
लिखा है कि
मैंने अपनी
जिंदगी में
जितने पाप किए, अगर
सख्त से सख्त
न्यायाधीश के
सामने भी मुझे
मौजूद कर दिया
जाए, तो
मैंने जो पाप
किए वे, और
जो मैं करना
चाहता था और
नहीं कर पाया,
वे भी अगर
जोड़ लिए जाएं,
तो भी मुझे
चार—पांच साल
से ज्यादा की
सजा नहीं हो
सकती। लेकिन
जीसस कहते हैं
कि नरक में
अनंत काल तक सजा
भोगनी
पड़ेगी। तो यह
न्याययुक्त
नहीं है।
क्योंकि, मैंने
जो पाप किए, जो नहीं किए
वे भी जोड़ लें,
क्योंकि
मैंने सोचे, तो भी सख्त
से सख्त अदालत
मुझे चार—पांच
साल की सजा दे
सकती है, और
यह जीसस की
अदालत कहती है
कि अनंत काल
तक, इटरनिटी तक नरक में सडुना
पड़ेगा। यह जरा
ज्यादती
मालूम पड़ती है।
रसेल
तो मर गए, अन्यथा
उनसे कहना
चाहता था कि
आप समझे नहीं,
जीसस का
मतलब खयाल में
नहीं आया आपके।
जीसस यह कह
रहे हैं कि
नरक में अगर
एक क्षण भी रहना
पड़ा तो वह इटरनिटी
मालूम पड़ेगा;
दुख इतना
ज्यादा है
वहां कि उसका
अंत ही नहीं मालूम
पड़ेगा कि वह
कभी समाप्त
होगा, कभी
समाप्त होगा।
दुख
समय को लंबाता
है,
सुख समय को
छोटा करता है।
इसलिए तो हम
कहते हैं सुख
क्षणिक है।
जरूरी नहीं है
कि सुख क्षणिक
है, सुख की
प्रतीति
क्षणिक होती
है—कि वह आया
और गया, क्योंकि
टाइम छोटा हो
जाता है। सुख
क्षणिक है, ऐसा नहीं है,
कि मोमेटरी
है। सुख की भी लंबाइयां
हैं। लेकिन
सुख सदा
क्षणिक मालूम
पड़ता है, क्योंकि
सुख में समय
छोटा हो जाता
है। प्रियजन
मिला नहीं कि
विदाई का वक्त
आ गया; आए
नहीं कि गए; इधर फूल
खिला नहीं कि
कुम्हलाया।
वह सुख की
प्रतीति
क्षणिक है, क्योंकि सुख
में समय छोटा
हो जाता है।
घड़ी फिर भी
वैसे ही चलती
है, कैलेंडर वही खबर
देता है, लेकिन
इधर हमारे मन
में सुख समय
को छोटा कर
देता है।
आनंद
में समय मिट
ही जाता है, छोटा—मोटा
नहीं होता।
आनंद में समय
होता ही नहीं।
जब आप आनंद
में होंगे तब
आपके पास समय
नहीं होगा।
असल में, समय
और दुख एक ही
चीज के दो नाम
हैं। टाइम जो
है वह दुख का
ही नाम है, समय
जो है वह दुख
का ही नाम है।
मानसिक
अर्थों में
समय ही दुख है।
और इसीलिए हम
कहते हैं—
आनंद समयातीत,
कालातीत, बियांड टाइम, समय
के बाहर है।
तो जो समय के
बाहर है, उसे
समय के द्वारा
नहीं पाया जा
सकता।
मुक्ति
अकाल है:
चक्कर
तो मैंने भी
लगाए हैं—
उतने ही, जितने
आपने। और मजा
यह है कि इतना
लंबा है हमारा
चक्कर कि उसमें
किसने कम लगाए,
ज्यादा
लगाए, बहुत
मुश्किल है।
महावीर
पच्चीस सौ साल
पहले पा गए
उसे, बुद्ध
पा गए, जीसस
दो हजार साल
पहले पा गए, शंकर हजार
साल पहले उसे
पा गए। लेकिन
अगर कोई कहे
कि शंकर ने
हमसे हजार साल
कम चक्कर लगाए,
तो गलत कह
रहा है, क्योंकि
चक्कर इतने
अनंत हैं.....जैसे
कि उदाहरण के
लिए कि आप
बंबई थे, बंबई
से आप नारगोल
आए, तो सौ
मील की आपने
यात्रा की।
लेकिन जो तारा
अंतहीन दूरी
पर हमसे है, उस तारे के
खयाल से आपने
कोई यात्रा ही
नहीं की, आप
वहीं के वहीं
हैं। कोई फर्क
नहीं पड़ता कि
आप बंबई से सौ
मील इधर आ गए।
उस तारे को
खयाल में रखें
तो आपने कोई
यात्रा ही
नहीं की। उस
तारे से आपकी
दूरी अब भी
वही है, जो
आपकी बंबई में
थी। तो आप
पृथ्वी पर
कहीं भी चले
जाएं, उस
तारे से आपकी
दूरी वही है; क्योंकि वह
तारा इतनी
दूरी पर है कि आपके
ये फासले कोई
अंतर नहीं
लाते।
हमारे
जन्मों की
यात्रा इतनी
लंबी है कि
कौन पच्चीस सौ
साल पहले, कौन
पांच सौ साल
पहले, कोई
पांच दिन पहले,
कोई पांच
घंटे पहले, कोई फर्क
नहीं पड़ता।
जिस दिन हम उस
केंद्र पर
पहुंचते हैं,
हम देखते
हैं, अरे!
अभी बुद्ध आ
ही रहे हैं, अभी महावीर
घुस ही रहे
हैं, अभी
जीसस का
प्रवेश ही हुआ
है, और हम
भी पहुंच गए!
मगर वह जरा
समझना कठिन है,
क्योंकि हम
जिस दुनिया
में जीते हैं,
वहां समय
बहुत
महत्वपूर्ण
है। वहां समय
बहुत
महत्वपूर्ण
है। और इसलिए
स्वभावत:
हमारे मन में
सवाल उठता है कितनी
देर?
बाहर
चक्कर लगाना
बंद करें:
लेकिन
मत उठाएं इस
सवाल को, देरी
की बात ही मत
करें; चक्कर
लगाना बंद
करें, चक्कर
में देरी लग
जाएगी; मंदिर
के बाहर मत घूमें,
भीतर चले
जाएं। लेकिन
डर लगता है
मंदिर के भीतर
जाने में—पता
नहीं, क्या
हो! मंदिर के
बाहर सब
परिचित है—
मित्र हैं, प्रियजन हैं,
पत्नी है, बेटा है, घर
है, द्वार
है, दुकान
है—मदिर के
बाहर सब अपना
है। और मंदिर
में एक शर्त
है कि वहां
अकेले ही भीतर
प्रवेश होता
है; वहां
दो आदमी
दरवाजे से
एकदम जा नहीं
सकते। तो इस
सब—मकान को, पत्नी को, बच्चे को, धन को, तिजोड़ी को, यश को,
पद—प्रतिष्ठा
को—इस सबको
लेकर घुस नहीं
सकते भीतर, यह सब बाहर
छोड़ना पड़ता है।
इसलिए हम कहते
हैं कि ठीक है,
अभी थोड़ा
बाहर और चक्कर
लगा लें। फिर
हम बाहर चक्कर
लगाते रहें, हम उस क्षण
की प्रतीक्षा
में हैं कि जब
दरवाजा जरा
ज्यादा खुला
हो, तब हम
सब के सब एकदम
से भीतर हो
जाएंगे।
वह
दरवाजा
ज्यादा कभी
नहीं खुलता, वहां
से एक ही
प्रवेश करता
है। आप भी
अपने पद को
लेकर भी
प्रविष्ट
नहीं हो सकते,
क्योंकि दो
हो जाएंगे— आप
और आपका पद।
अपने नाम को
लेकर भी
प्रवेश नहीं
कर सकते, क्योंकि
दो हो जाएंगे—
आप और आपका
नाम। वहां कुछ
भी लेकर.. .वहां
तो बिलकुल टोटली
नैकेड, एकदम नग्न
और अकेले वहां
प्रवेश करना
पड़ता है।
इसलिए हम बाहर
घूमते रहते
हैं, हम
मंदिर के बाहर
ही डेरा डाल
देते हैं। हम
कहते हैं कि
भगवान के पास
ही तो हैं, कोई
ज्यादा दूर तो
नहीं। लेकिन
मंदिर के बाहर
आप गज भर की
दूरी पर हैं, कि हजार गज
की दूरी पर
हैं, कि
हजार मील की
दूरी पर हैं, कोई फर्क
नहीं पड़ता; मंदिर के
बाहर हैं तो
बस बाहर हैं।
और भीतर जाना
हो, तो एक
क्षण के हजारवें
हिस्से में
मैं कह रहा
हूं ठीक नहीं
है वह कहना, बिना क्षण
के भी भीतर
प्रवेश हो
सकता है।
ज्ञान
की उपलब्धि
निर्विचार
में:
प्रश्न:
ओशो ज्ञान
क्या
निर्विचार
अवस्था में ही
रहता है मूत्र
विचार की
अवस्था में
ज्ञान रहता है
कि नहीं रहता
है?
इसको
अंतिम प्रश्न
मान लें, फिर
कोई और प्रश्न
हों तो रात कर
लेंगे। आप
पूछते हैं कि
जो ज्ञान है
वह निर्विचार
अवस्था में ही
रहता है और
विचार में
नहीं रहता
क्या?
ज्ञान
की उपलब्धि
निर्विचार
में होती है।
और उपलब्धि हो
जाए तो वह हर
अवस्था में
रहता है। फिर
तो विचार की
अवस्था में भी
रहता है। फिर
तो उसे खोने
का कोई उपाय
नहीं है।
लेकिन
उपलब्धि
निर्विचार
में होती है।
अभिव्यक्ति
विचार से भी
हो सकती है, लेकिन
उपलब्धि
निर्विचार
में होती है।
उसे पाना हो
तो निर्विचार
होना पड़े।
क्यों
निर्विचार
होना पड़े? क्योंकि
विचार की
तरंगें मन को
दर्पण नहीं बनने
देतीं।
जैसे
समझें, एक
चित्र उतारना
हो कैमरे से।
तो उतारने में
तो एक विशेष
अवस्था का
ध्यान रखना
पड़े कि कैमरे
में प्रकाश न
चला जाए, कैमरा
न हिल जाए।
लेकिन एक दफा
चित्र उतर गया,
तो फिर खूब हिलाइए, और खूब
प्रकाश में
रखिए। उससे
कोई फिर फर्क
नहीं पड़ता।
लेकिन उतारने
के क्षण में
तो कैमरा हिल
जाए तो सब
खराब हो जाए।
एक दफा उतर
जाए तो बात
खतम हो गई।
फिर खूब हिलाइए
और नाचिए
लेकर, तो
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
ज्ञान
की उपलब्धि
चित्त की उस
अवस्था में
होती है जब
कुछ भी नहीं
हिलता, सब
शांत और मौन
है। तब तो ज्ञान
का चित्र पकड़ता
है। लेकिन पकड़
जाए एक दफे, तो फिर खूब नाचिए, खूब
हिलिए, कुछ
भी करिए, फिर
कोई फर्क नहीं
पड़ता। ज्ञान
की उपलब्धि
निर्विचार
में है। और
विचार फिर कोई
बाधा नहीं
डालता। लेकिन
अगर सोचते हों
कि विचार से
उपलब्धि कर लेंगे,
तो कभी न
होगी, विचार
बहुत बाधा
डालेगा।
उपलब्धि में
बहुत बाधा
डालेगा, उपलब्धि
के बाद विचार
बिलकुल
नपुंसक है।
फिर उसकी कोई
ताकत नहीं है।
फिर वह कुछ भी
नहीं कर सकता।
यह
बहुत मजे की
बात है कि
शांति की
जरूरत प्राथमिक
है,
ज्ञान को
पाने में।
ज्ञान पा लेने
के बाद किसी
चीज की कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन वे बाद
की बातें हैं।
और बाद की
बातें पहले
कभी नहीं करनी
चाहिए, नहीं
तो नुकसान
होता है।
नुकसान
यह होता है कि
हम सोचने लगते
हैं कि जब बाद
में कोई फर्क
नहीं पड़ेगा तो
अभी भी क्या
हर्ज है!
तब
नुकसान हो
जाएगा। फिर हम
कैमरा हिला
देंगे, सब
गड़बड़ हो जाएगा।
चित्र तो हिला
हुआ कैमरा भी
उतारता है, लेकिन वह
सत्य चित्र
नहीं होता; वह टू नहीं
होता। वह भी
उतारता है; विचार में
भी ज्ञान का
ही पता चलता
है, लेकिन
वह ठीक नहीं
होता, क्योंकि
हिलता रहता है
मन पूरे समय, कंपता रहता
है। इसलिए कुछ
का कुछ बन
जाता है।
जैसे
चांद निकला हो
और सागर में
लहरें हों, तो
चांद का
प्रतिबिंब तो
बनेगा ही, लेकिन
सागर में हजार
चांद के टुकड़े
टूटकर फैल जाएंगे।
और अगर किसी
ने आकाश का
चांद न देखा
हो तो सागर
में देखकर पता
न लगा पाएगा
कि चांद कैसा
है। हजार
टुकड़े होकर
चांद लहरों पर
फैल जाएगा; चांदी बिखर
जाएगी उसकी, लेकिन चांद
का बिंब नहीं
पकड़ में आएगा।
एक दफा बिंब
पकड़ में आ जाए
कि चांद कैसा
है, फिर तो
सागर में
बिखरी हुई लहरों
में भी हम
पहचान लेते
हैं कि तुम ही
हो। लेकिन एक
बार हम उसे
देख तो लें।
एक बार उसकी
शक्ल हमारे
खयाल में आ
जाए, फिर
तो सभी शक्लों
में वह मिल
जाता है।
लेकिन एक दफा
पहचान ही न हो
पाए, तो वह
कहीं भी हमें
नहीं मिलता है।
मिलता है रोज,
लेकिन हम रिकग्नाइज
नहीं कर पाते,
हम पहचान
नहीं पाते कि
यही है।
एक
छोटी सी घटना
से मैं कहूं
फिर हम ध्यान
के लिए बैठें।
साईं
बाबा के पास
एक हिंदू
संन्यासी
बहुत दिन तक
था। हिंदू
संन्यासी, और
साईं तो रहते
थे मस्जिद में।
साईं बाबा का
कुछ पक्का
नहीं कि वे
हिंदू थे कि
मुसलमान। ऐसे
आदमियों का
कभी कुछ पक्का
नहीं। लोग
पूछते तो वे
हंसते थे। अब
हंसने से तो
कुछ पता चलता
नहीं! एक ही
बात पता चलती
है कि
पूछनेवाला
नासमझ है।
हिंदू
संन्यासी था,
लेकिन वह तो
मस्जिद में
कैसे रुके
साईं के पास!
तो वह गांव के
बाहर एक मंदिर
में रुकता था।
लगाव उसका था,
प्रेम उसका
था, रोज
खाना बनाकर
लाता था। साईं
को खाना देता,
फिर जाकर
खाना खाता।
साईं बाबा ने
उससे कहा कि
तू इतनी दूर
क्यों आता है?
हम तो कई
बार वहीं से
निकलते हैं, तब तू वहीं
खिला दिया कर!
उसने कहा, आप
वहां से
निकलते हैं? कभी देखा
नहीं! तो साईं
ने कहा कि जरा
गौर से देखना;
हम कई बार
तेरे मंदिर के
पास से निकलते
हैं, वहीं
खिला देना। कल
हम आ जाएंगे, तू मत आना।
कल
उस हिंदू
संन्यासी ने
बनाकर खाना
रखा,
अब देखता है,
देखता है, देखता है।
वे आते नहीं, आते नहीं, आते नहीं! वह
घबड़ा गया, दो
बज गए, तो
उसने कहा कि
बड़ी मुश्किल
हो गई, वे
भी भूखे होंगे
और मैं भी
भूखा बैठा हूं।
फिर वह थाली
लेकर भागा।
साईं के पास
पहुंचा, साईं
से उसने कहा
कि हम राह
देखते रहे, आज आप आए
नहीं।
उन्होंने कहा
कि आज भी आया
था, रोज
आता हूं लेकिन
तूने तो
दुत्कार दिया।
उसने कहा, कहां
दुत्कारा?
सिर्फ एक
कुत्ता आया था।
तो साईं ने
कहा कि वही
मैं था। तब तो
वह हिंदू
संन्यासी
बहुत रोया, बहुत दुखी
हुआ। उसने कहा
कि आप आए और
मैं पहचान न
पाया! कल जरूर पहचान
जाऊंगा।
अगर
कुत्ते की ही
शक्ल में कल
भी आते तो
पहचान जाता।
कल भी वे आए, लेकिन
एक कोढ़ी
था रास्ते पर
मिला। उस
संन्यासी ने
कहा कि जरा
दूर से! दूर से!
मैं भोजन लिए
हुए हूं साईं
का, जरा
दूर से निकलो!
वह कोढ़ी
हंसा भी। फिर
दो बज गए, फिर
भागा हुआ
मस्जिद आया, उसने कहा कि
आप आज आए नहीं,
आज मैंने
बहुत रास्ता
देखा। तो साईं
ने कहा कि मैं
तो फिर भी आया
था। लेकिन
तेरे चित्त
में इतनी तरंगें
हैं कि रोज
मैं वही तो
दिखाई नहीं पड़
सकता! तू ही
कैप जाता है।
आज वह एक कोढ़ी
आया था, तो
तूने कहा, दूर
हट। तो मैंने
कहा, हद हो
गई! मैं आता
हूं तो तू भगा
देता है और
यहां आकर कहता
है कि आप आए
नहीं। तो वह
संन्यासी
रोने लगा, उसने
कहा कि मैं
आपको पहचान ही
नहीं पाया। तो
साईं ने उससे
कहा था कि तू
अभी मुझे ही
नहीं पहचान
पाया, इसलिए
दूसरी शक्लों
में मुझे कैसे
पहचान पाएगा?
एक
बार हम सत्य
की झलक पा लें, तो
फिर असत्य है
ही नहीं। एक
बार हम
परमात्मा को
झांक लें, तो
परमात्मा के
अतिरिक्त फिर
कुछ है ही
नहीं। लेकिन
वह झांकना तब
हो पाए जब
हमारे भीतर सब
शांत और मौन
हो। फिर इसके
बाद तो कोई
सवाल नहीं, फिर तो
विचार भी उसके
हैं, वृत्तियां
भी उसकी हैं, वासनाएं भी
उसकी हैं—फिर
तो सब उसका है।
लेकिन
प्राथमिक चरण
में उसे
झांकने और
पहचानने के
लिए सब का रुक
जाना जरूरी है।
प्रयोग :
कुंडलिनी
जागरण और
ध्यान का:
अब
हम ध्यान के
लिए बैठें।
फासले
पर चले जाएं, दूर
बैठ जाएं, ताकि
लेटना पड़े तो
लेट भी सकें।
और कोई बात
नहीं करेगा।
चुपचाप हट
जाएं। जिसे
जहां हटना हो,
हट जाएं।.. ....बातचीत
नहीं। बातचीत
बिलकुल नहीं
करेंगे।..... .कोई
किसी को छूता
हुआ न बैठे, दूर हट जाएं।
और इधर तो
इतनी जगह है, इसलिए
कंजूसी न करें
जगह की। नाहक
बीच में कोई
आपके ऊपर गिर
जाए, कुछ
हो, तो सब
खराब होगा। हट
जाएं दूर—दूर......
.शीघ्रता से
बैठ जाएं या
लेट जाएं, जिसे
जैसा करना हो
वैसा कर ले। आंख
बंद कर लें और
जैसा मैं कहूं
वैसा करें।
पहला
चरण : तीव्र व
गहरी श्वास की
चोट:
आंख
बंद कर लें, गहरी
श्वास लेना
शुरू करें।
जितनी गहरी ले
सकें लें और
जितनी गहरी
छोड़ सकें छोड़े।
सारी शक्ति
श्वास के लेने
और छोड़ने में
लगा देनी है।
गहरी श्वास
लें और गहरी
श्वास छोड़े।
सिर्फ श्वास
ही रह जाए।
सारी शक्ति
लगा देनी है।
जितनी गहरी
श्वास लेंगे—छोड़ेंगे, उतनी ही
भीतर ऊर्जा के
जगने की
संभावना बढ़ेगी।
गहरी श्वास
लें और गहरी
श्वास छोड़े.. ....गहरी
श्वास लें और
गहरी श्वास
छोड़े। गहरी
श्वास लें और
गहरी श्वास
छोड़े। दस मिनट
पूरी शक्ति से
गहरी श्वास
लें और गहरी
श्वास छोड़े।
बस
आप श्वास
लेनेवाले एक
यंत्र ही रह
जाएं, इससे
ज्यादा कुछ भी
नहीं। सिर्फ
श्वास ले रहे
हैं, छोड़
रहे हैं, दस
मिनट तक। फिर
मैं दूसरा
सूत्र कहूंगा,
पहले दस
मिनट पूरा
श्रम श्वास के
साथ करें।
गहरी
श्वास लें और
गहरी श्वास
छोड़े.. .पूरी
शक्ति लगाएं।
सिर्फ श्वास
लेने के एक
यंत्र मात्र
रह जाए—एक
धौंकनी, जो
श्वास ले रही,
छोड़ रही।....
.एक—एक रोआं कैपने
लगे..... .पूरी
गहरी श्वास
लें, गहरी
श्वास छोड़े.....
.गहरी श्वास
लें, गहरी
श्वास छोड़े..
.गहरी श्वास
लें, गहरी
श्वास छोडे।
बस श्वास लेने
का एक यंत्र
मात्र रह
जाएं..... .सारी
शक्ति, सारा
ध्यान श्वास
लेने में ही
लगा दें..... .गहरी
श्वास लें, गहरी श्वास
छोड़े। और भीतर
देखते रहें..
.श्वास भीतर
गई, श्वास
बाहर गई.....
.श्वास भीतर
गई, श्वास
बाहर गई।
साक्षी रह
जाएं, देखते
रहें—श्वास
भीतर जा रही, श्वास बाहर
जा रही..... .सारा
ध्यान श्वास
पर रखें और
सारी शक्ति
लगा दें।
अब
मैं दस मिनट
के लिए चुप हो
जाता हूं। आप
गहरी श्वास
लें,
गहरी श्वास
छोड़े और भीतर
ध्यानपूर्वक
देखते रहें—श्वास
आई, श्वास
गई। दूसरे की
जरा भी फिकर न
करें, अपनी
फिकर करें......
.पूरी शक्ति
लगा दें और
दूसरे पर कोई
ध्यान न दें, दूसरे से
कोई संबंध
नहीं है। गहरी
श्वास लें, गहरी श्वास
छोड़े...... और भीतर
देखते रहें—श्वास
भीतर गई, श्वास
बाहर गई।
श्वास स्पष्ट
दिखाई पड़ने
लगेगी—यह
श्वास भीतर गई,
यह श्वास
बाहर गई......पूरी
शक्ति लगाएं,
ताकि जिसे
मैं शक्ति का
कुंड कह रहा
हूं वहां से
ऊर्जा उठनी
शुरू हो जाए.....
.यह पूरा
वातावरण
श्वास लेता
हुआ मालूम
पड़ने लगे.. ....गहरी
श्वास लें, गहरी श्वास
छोड़े...... और गहरी,
और गहरी, और गहरी।
सारा
व्यक्तित्व
कैप जाए, तूफान
की तरह गहरी
श्वास लें, छोड़े। गहरी
श्वास लें और
गहरी छोड़े।
गहरी श्वास
लें और छोड़े।
गहरी श्वास.. ....गहरी
श्वास...
(साधको को अनेक
प्रकार की
शारीरिक
प्रक्रियाएं
होने लगीं और
उनके मुंह से
अनेक तरह की
आवाजें भी निकलने
लगी. कुछ लोग ऊssss…. ऊsss….. ऊssss…..
करने लगे।)
गहरी
श्वास लें, गहरी
श्वास छोड़े।
और भीतर देखते
रहें—श्वास आई,
श्वास गई.. ....श्वास
आई, श्वास
गई...... पूरी
शक्ति लगाएं......
पूरी शक्ति
लगाएं.. ....यह एक
ही बात पर
सारी शक्ति
लगा दें, गहरी
श्वास लें, गहरी श्वास
छोड़े। और भीतर
देखते रहें—श्वास
आई, श्वास
गई.. ....श्वास आ
रही, श्वास
जा रही। अपने
को जरा भी न बचाएं,
पूरी शक्ति
लगाएं...
श्वास
के गहरे कंपन
भीतर किसी
शक्ति को
जगाने में
शुरुआत
करेंगे। गहरी
श्वास लें, गहरी
श्वास छोड़े......
भीतर कोई सोई
हुई ज्योति
गहरी श्वास से
गोगी.....
गहरी श्वास
लें, गहरी
श्वास छोड़े.....
.गहरी श्वास
लें, गहरी
श्वास छोड़े.....एक
यंत्र मात्र......
.श्वास भीतर
जा रही है, श्वास
बाहर जा रही
है...... पूरी
शक्ति लगा
दें.. .....पूरी
शक्ति लगा
दें......पूरी
शक्ति लगा
दें.. .दूसरे
सूत्र पर जाने
के पहले पूरी
शक्ति लगाएं......
गहरी से गहरी
श्वास लें और
छोड़े.......सारा
शरीर कैप जाए,
सारी जड़ें
कैप जाएं, सारा
व्यक्तित्व
कंप जाए.....एक
आधी की तरह
हालत पैदा कर
दें.......श्वास ही रह
जाए। पूरी
शक्ति लगा
दें.. .दूसरे
सूत्र पर
प्रवेश के
पहले पूरी
शक्ति लगाएं..
आपकी चरम
स्थिति में ही
दूसरे सूत्र
पर प्रवेश
होगा।
(चारों ओर
साधकों को
अनेक तरह की
यौगिक
प्रक्रियाएं
हो रही हैं......तीव्रता
के साथ उन्हें
कत से योगासन
प्राणायाम
अनेक तरह की
मुद्राएं और
बंध आप ही आप
हो रहे हैं. कई
लोगों के मुंह
से विचित्र
तरह की आवाजें
निकल रही हैं.......
आवाजें ऊंउठऽ.....
ऊंऽऽठठऽऽ.....
आदि। ओशो का
प्रोत्साहित
करना जारी
रहता है........)
गहरी
ताकत लगाएं.....
.गहरी श्वास, गहरी
श्वास, गहरी
श्वास...... अपने
को बचाएं
मत, पूरा
लगा है.. ...जरा भी
न बचाएं।
भीतर सोई हुई
शक्ति को
जगाना है..
पूरी शक्ति लगा
दें..... .गहरी
श्वास लें, गहरी श्वास
छोड़े..... गहरी
श्वास लें, गहरी श्वास
छोड़े
छोड़
दें......पूरी
ताकत लगाएं, अपने
को रोकें नहीं।
भीतर सोई हुई
विद्युत के
जागने के लिए
जरूरी है गहरी
श्वास लें, गहरी श्वास
छोड़े......शरीर का रोआं—रोआं
जीवंत हो जाए......
शरीर का रोआं—रोआं
कैपने
लगे...... पूरी
ताकत लगाएं—
गहरी श्वास.
गहरी श्वास......गहरी
श्वास..... गहरी
श्वास.....गहरी
श्वास...... सारी
ताकत लगा दें.....
पूरी ताकत
लगाएं। दो
मिनट पूरी
ताकत लगाएं तो
हम दूसरे
सूत्र में
प्रवेश करें
यह
पूरा वातावरण चार्ब्द
हो जाए..... गहरी
श्वास लें और
छोड़े। यह सारा
वातावरण
विद्युत की
लहरों से भर
जाएगा....... गहरी
श्वास लें और
छोड़े..... गहरी
श्वास लें और
छोड़े.....गहरी
लें,
गहरी छोड़े.....
पूरी शक्ति
लगाएं.......गहरी
श्वास....... और
गहरी
श्वास...
और गहरी
श्वास.. और
गहरी श्वास......
और गहरी
श्वास..... और
गहरी श्वास...
और गहरी
श्वास.....और
गहरी गहरी.. और
गहरी...... और
गहरी... और गहरी......
और गहरी....... और
गहरी...... और
गहरी...... और
गहरी...... और गहरी
गहरी.. और गहरी.......
और गहरी
(अनेक तरह की
आवाजें आ रही
हैं लोग रो और
चीख रहे हैं.......)
गहरी से
गहरी श्वास
लें.. .गहरी से
गहरी श्वास
लें..... .गहरी
श्वास...... गहरी
श्वास..... .गहरी
श्वास..... .गहरी
श्वास..... दूसरा
सूत्र जोड़ना
है। एक मिनट
गहरी श्वास
लें— पूरी
गहरी श्वास......पूरी
गहरी श्वास.....
पूरी गहरी
श्वास....... और
गहरी गहरी...... और
गहरी. किसी
दूसरे पर
ध्यान न दें, अपने
भीतर सारी
ताकत लगाएं—
और गहरी...... और
गहरी... और गहरी
गहरी...... और
दूसरा सूत्र
जोड़ दें।
दूसरा चरण :
तीव्र श्वास
के साथ
शारीरिक
क्रियाएं
दूसरा
सूत्र है, शरीर
को पूरी तरह
छोड़ देना है—गहरी
श्वास लें और
शरीर को छोड़
दें...... रोना आए,
आने दें...... आंसू
निकलें, बहने दें..
.हाथ—पैर कैंपने
लगें, कंपने
दें...... .शरीर
डोलने लगे, घूमने लगे, घूमने दें......
शरीर खड़ा हो
जाए, नाचने
लगे, नाचने
दें। पूरी
गहरी श्वास
लें और शरीर
को छोड़ दें.......शरीर
को जो होता हो,
होने दें—गहरी
श्वास......गहरी
श्वास....... गहरी
श्वास...... अब दस
मिनट तक गहरी
श्वास जारी
रहेगी और शरीर
को बिलकुल
ढीला छोड़ दें—जो
मुद्राएं
बनती हों, बनें,
जो आसन बनते
हों, बनें—
शरीर लोटता हो
लोटे, नाचता
हो नाचे...... शरीर
को छोड़ दें, सिर्फ
द्रष्टा रह
जाएं..... .शरीर को
जरा भी रोकें
नहीं—गहरी
श्वास.......गहरी
श्वास......गहरी
श्वास...... और
शरीर को
बिलकुल छोड़
दें.......जो भी
होता हो, होने
दें—शरीर को
जरा भी रोकें
नहीं।
अब
दस मिनट तक
गहरी श्वास
जारी रहेगी और
शरीर को
बिलकुल ढीला
छोड़ दें— शरीर
को जो होता है, होने
दें......कोई
संकोच न लें......गहरी
श्वास...... .गहरी
श्वास.. गहरी
श्वास...... आंसू
आएं, आने
दें......रोना
निकले, निकले.....
.जो भी होता हो,
होने दें।
(चारों ओर
साधकों का
नाचना कूदना
चिल्लाना और अनेक
तरह की आवाजें
निकालना। एक
व्यक्ति के
मुंह से लंबे सायरन की
सी आवाज
निकलने लगी......
ओशो का सुझाव
देना जारी
रहा......)
शरीर को
बिलकुल छोड़
दें। शरीर
अपने आप डोलने
लगेगा, चक्कर
खाने लगेगा।
शक्ति भीतर
उठेगी तो शरीर
कंपेगा, कंपित होगा,
डोलेगा।
भीतर से शक्ति
उठेगी तो शरीर
आंदोलित होगा,
उसे छोड़
दें......शरीर को
बिलकुल छोड़
दें... गहरी
श्वास जारी
रखें और शरीर
को छोड़ दें।
शरीर को जो
होता हो, होने
दें......उसे जरा
भी नहीं
रोकें......गहरी
श्वास...... और
गहरी श्वास.......
और गहरी
श्वास.. और
गहरी श्वास
(लोगों का
चीखना,
चिल्लाना
मुंह से अनेक
तरह की आवाजें
निकालना तथा
शरीर में
विविध गतियों
का होना.......)
गहरी
श्वास.......गहरी
श्वास.. ....गहरी
श्वास....... और
शरीर को छोड़
दें। ध्यान
रहे,
शरीर पर
कहीं कोई
रुकावट न रहे।
जो शरीर को
होना है, होने
दें। उससे
शक्ति के ऊपर
पहुंचने में
मार्ग बनेगा।
छोड़ दें...... .शरीर
को ढीला छोड़
दें, गहरी
श्वास जारी
रखें, उसे
ढीला न करें.. ….श्वास गहरी
चले, शरीर
को शिथिल छोड़
दें...... .शरीर को
जो होता है, होने दें.. ....बैठता
हो बैठे, गिरता
हो गिरे, खड़ा
होता हो, हो
जाए—जो होता
है, होने
दें...... .गहरी
श्वास जारी
रखें......
(अनेक आवाजों
के साथ लोगों
का तेजी से
उछलना कूदना......)
गहरी.......
और गहरी....... और
गहरी...... और
गहरी...... और
गहरी...... और
गहरी...... और
गहरी....... और
गहरी..... और गहरी
(कुछ लोगों का
तीव्र आवाज
में हुंकारना......
अनेक शारीरिक
प्रतिक्रियाएं
चलती रही.......)
कुछ बचाएं
न, सब दांव पर
लगा दें.......
.पूरी शक्ति
दांव पर लगा
दें। देखें, बचा रहे हैं।
बहुत कुछ बचा
लेते हैं।
पूरा दांव पर
लगा दें। गहरी
श्वास, गहरी
श्वास...... शरीर
को छोड़े — जो
होता है, होने
दें....... छोड़े......
.हंसना आ जाए, आ जाने दें.. .....रोना
आए, आने
दें...... आवाज
निकले, निकल
जाने दें......
.उसकी कोई
चिंता न लें, जरा न रोकें —
बस आप गहरी
श्वास लें और
छोड़ दें.......
(लोगों का
चीखना
चिल्लाना
नाचना कूदना
हुंकार और चीत्कार
करना.......)
छोड़े..
.....शक्ति उठ रही
है.. ....छोड़े शरीर
को...... .गहरी
श्वास लें......
.गहरी श्वास
लें..... .गहरी
श्वास लें और
शरीर को छोड
दें। शरीर में
कुछ जागेगा
तो शरीर कंपित
होगा, घूमेगा,
नाच सकता है,
रो सकता है,
चिल्ला
सकता है—छोड़
दें...... .शरीर को
छोड़ दें..... .शरीर
को बिलकुल छोड़
दें.. .....जरा
संकोच न लें.. .....शरीर
को बिलकुल छोड़
दें...
(अनेक साधकों
के मुंह से
पशुओं की
आवाजें निकलना......
सेना
चिल्लाना
नाचना...... मुंह
से कुत्ते की
आवाज....... सिंह की
गर्जना....... हाथ—
पैर पीटना......
छटपटाना.......)
गहरी
श्वास...... और
गहरी...... अपनी
शक्ति श्वास
पर लगाएं और
छोड़ दें— शरीर
को जो होता है, होने
दें.. ....जरा भी
संकोच नहीं......
जरा भी न
रोकें.. .दूसरे
की फिकर न
करें..... शरीर को
छोड़े। शक्ति
जगेगी तो बहुत
कुछ होगा—
रोना आ सकता
है, शरीर कंपेगा, अंग हिलेंगे,
मुद्राएं
बनेंगी, शरीर
खड़ा हो सकता
है..... .छोड़ दें—
जो होता है, होने दें...... आप
अकेले हैं और
कोई नहीं...
छोड़े.. ....गहरी
श्वास...... गहरी
श्वास...... गहरी
श्वास..... .एक दो
मिनट पूरी
मेहनत करें......
तीसरे सूत्र
पर जाने के
पहले पूरी
मेहनत लें—गहरी
श्वास लें...
गहरी श्वास
लें..... .गहरी
श्वास लें.....
.गहरी श्वास
लें...... गहरी
श्वास लें.....
.गहरी श्वास
लें...... गहरी
श्वास लें... और
शरीर को छोड़
दें—जो होता
है, होने
दें...... शरीर को
छोड़ दें...... जो
होता है, होने
दें...... जरा भी
नहीं रोकेंगे।
देखें कुछ
मित्र रोक
लेते हैं, रोकें
मत, छोड़े......
पूरी शक्ति
लगाएं और
छोड़े...... छोड़े......
रोना है, पूरे
मन से रोएं,
रोकें नहीं।
आवाज निकलती
है, दबाएं
नहीं...... निकल
जाने दें।
शरीर खड़ा होता
है, सम्हाले
न, हो जाने
दें। नाचता है,
नाचने दें।
शरीर को पूरी
तरह छोड़ दें, तभी सोई हुई
शक्ति अपना
मार्ग बना
सकती है।
छोड़े...... गहरी
श्वास लें. .....गहरी
श्वास... गहरी
श्वास...... गहरी
श्वास.. ....गहरी
श्वास..... .गहरी
श्वास...... और
गहरी...... और
गहरी...... और गहरी......
और गहरी...... और
गहरी......
(कुछ लोगों
का तीव्र
हुंकार करना....
अनेक लोगों का
सेना..... चीखना..
नाचना..... आदि....)
पूरी
शक्ति लगाएं......
पूरी शक्ति
लगाएं...... पूरी
शक्ति लगाएं......
श्वास गहरी...
और गहरी...... और
गहरी...... कैप
जाने दें पूरे
व्यक्तित्व
को,
हिल जाने
दें... जो होता
है, होने
दें...... छोड
दें। गहरी
शक्ति लगाएं,
गहरी शक्ति
लगाएं....... और
गहरी श्वास
लें...... और गहरी
श्वास लें।
पूरे शरीर में
विद्युत
दौड़ने लगेगी......
पूरे शरीर में
विद्युत दौडने
लगेगी... छोड़े...
आखिरी एक मिनट,
जोर से ताकत
लगाएं, तीसरे
सूत्र में
जाने के लिए—
गहरी श्वास...
गहरी श्वास......
गहरी श्वास......
गहरी श्वास.......
और गहरी...... और
गहरी...... और
गहरी...... पूरी
ताकत लगाएं, तीसरे चरण
में गति हो
सके....... और गहरी
श्वास लें.......
पूरी शक्ति
लगा दें...... और
गहरी श्वास
लें... ...और गहरी
श्वास लें, और गहरा....... और
गहरा...... और
गहरा...
तीसरा
चरण : पूछें—मैं
कौन हूं?
और
अब तीसरा
सूत्र जोड़
दें! श्वास
गहरी जारी रहेगी, शरीर
की गति जारी
रहेगी....... और
तीसरा सूत्र—
भीतर पूरी
शक्ति से
पूछने लगें....
.मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?......
भीतर पूछें.....
.श्वास—श्वास
में एक ही
प्रश्न भर जाए—मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?..... .श्वास
तेजी से जारी
रहे और भीतर
पूछें—मैं कौन
हूं? शरीर
की कंपन और
गति जारी रहे
और भीतर पूछें—मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?..... .दो
' मैं कौन
हूं?' के
बीच में जगह न
रहे। पूरी
शक्ति लगाएं.....
.मैं कौन हूं?.. ….मैं कौन हूं?..
….एक दस मिनट
सारी शक्ति
लगा दें— मैं
कौन हूं?..... .मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? पूरी
ताकत लगाएं।
प्राण भीतर एक
ही गंज से भर
जाएं—मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? ताकत
से पूछें।
भीतर सारे
प्राणों में
एक गज उठने
लगे—मैं कौन
हूं? गहरी
श्वास जारी
रहे, शरीर
को जो होना है
होने दें। और
पूछें, मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? एक
दस मिनट पूरी
शक्ति लगा लें,
फिर दस मिनट
के बाद हम
विश्राम
करेंगे।
लगाएं पूरी
शक्ति.. .मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?
(अनेक आवाजों
के साथ साधकों
की तीव्र प्रतिक्रियाएं......)
पूरी
शक्ति लगाएं।
जरा भी रोकें
नहीं। जोर से
भीतर पूछें—मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? एक
आंधी उठा दें
भीतर..... .मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं.
.श्वास गहरी
रहे, सवाल
गहरा रहे—मैं
कौन हूं? शरीर
को जो होना है,
होने दें.....
.मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
यह पूरा
वातावरण
पूछने लगे, ये रेत के कण—कण
पूछने लगें, यह आकाश, ये
वृक्ष, ये
सब पूछने लगें—मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?..... .पूरा
वातावरण मैं
कौन हूं से भर
जाए..... .मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......
(चारों ओर से
रोने की
आवाजें......
तीव्र
शारीरिक
हलचल..... अनेक
तरह की
आवाजें......)
पूरी
शक्ति लगाएं, फिर
विश्राम करना
है....... और जितनी
शक्ति
लगाएंगे, उतने
ही विश्राम
में प्रवेश
होगा। जितनी
ऊंचाई पर आधी
उठेगी, उतनी
ही गहरे ध्यान
में गति होगी।
चौथा सूत्र
ध्यान का होगा।
आप पूरी शक्ति
लगाएं, क्लाइमेक्स पर, जितना
आप कर सकते
हों, लगा
दें—कहने को न
बचे कि मेरे
पास कोई ताकत
शेष रह गई थी......
.मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
गहरी
श्वास...... .गहरी
श्वास...... भीतर
पूछें— मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? पूरी
ताकत से पूछें,
बाहर भी
निकल जाए फिकर
न करें। पूछें
भीतर—मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? पूरी
ताकत लगाएं......
.पूरी ताकत
लगाएं...... .पूरी
ताकत लगाएं.......
शरीर को जो
होता है, होने
दें...... .शरीर
गिरे, गिर
जाए...... .रोना
निकले, निकले......
.पूरी ताकत
लगाएं—मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?
(रोने—
चिल्लाने की
अनेक आवाजें.......)
पूरी
लगाएं..... .जरा भी
रोकें नहीं.....
.मैं कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? पूरी
लगाएं, पूरी
ताकत लगाएं—मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? रोकें
नहीं..... .रोकें
नहीं...... .मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? पूरी
शक्ति लगा
दें...
(कुछ लोगों
का रुक— रुककर
हुंकार करना.....
अनेक आवाजें.....
रोना चीखना
चिल्लाना
पशुओं की
आवाजें मुंह
से निकालना.....)
मैं कौन
हूं?
पूरी शक्ति
लगाएं। पांच
मिनट ही बचे
हैं, पूरी
शक्ति लगा
दें..... .मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? शरीर
का रोआं—रोआं
पूछने लगे—मैं
कौन हूं? हृदय
की धड़कन— धड़कन
पूछने लगे—मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? पूरे
क्लाइमेक्स
पर, चरम पर
अपने को
पहुंचा दें......
आखिरी सीमा पर
पहुंचा दें.....
.बिलकुल पागल
हो जाएं..... .मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? बिलकुल
पागल हो जाएं
पूछने में.....
.सारी शक्ति
लगा दें..... .पूरी
शक्ति लगाएं......
आखिरी, पूरी
शक्ति लगाएं.....
.फिर तो
विश्राम करना
है..... .पूरी
शक्ति लगाएं—
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?......
थका डालें
अपने को.. ....मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? आधी
उठा दें....... अब
दो मिनट ही
बचे हैं..... पूरी
शक्ति लगाएं.....
.मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
शरीर को जो
होता है, होने
दें...... .शक्ति
पूरी लगा दें।
दो मिनट तूफान
उठा दें—मैं
कौन हूं? मै
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? एक
ही मिनट बचा
है, पूरी
शक्ति लगाएं,
फिर
विश्राम करना
है. .मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? शरीर
को जो होता है,
होने दें।
गहरी श्वास......
.गहरी श्वास......
.गहरी श्वास....... गहरी
श्वास...... .गहरी
श्वास...... .गहरी गहरी
श्वास....... गहरी
श्वास........
(अनेक लोगों
का तीव्र
चीत्कार करना......
उछलना कूदना
आदि......)
मैं कौन
हूं?......
मैं कौन हूं?......
.शरीर कंपता
है, शरीर
नाचता है—छोड़
दें...... .मैं कौन
हूं?...... .मैं
कौन हूं? (साधको
पर चल रही
प्रतिक्रियाएं
बड़ी तेजी पर
हैं.....)
चौथे
सूत्र पर जाने
के लिए पूरी
शक्ति लगा
दें..... .मैं कौन
हूं?......
.मैं कौन
हूं?..... .लगाएं
पूरी शक्ति……. .लगाएं पूरी
जब तक आप पूरी
न लगाके
चौथे सूत्र पर
नहीं चलेंगे..
.मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं.... कौन
हूं? मैं......
कौन हू..... '' मैं
कौन हूं..... . मैं
कौन हूं... कौन
हू..... ' कौन
हू..... ' छ हू..... 'कौन हू..... 'कौन
हू? ' कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? पूरी
शक्ति लगा
दें....... मैं कौन
हूं? फिर
हम चौथे पर
चलें... मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?
(अनेक लोगों
का हुंकार
चीत्कार आदि
करना.......)
पूरी
शक्ति लगाएं...
छोड़े मत...... जरा
भी न बचाएं, पूरी
शक्ति लगाएं......
गहरी श्वास.....
गहरी श्वास......
गहरी श्वास
गहरी श्वास...
गहरी श्वास.....
मैं कौन हूं —.....
मैं कौन हूं —......
मैं कौन हूं —
मैं कौन हूं?.... मैं कौन हूं —....
मैं कौन हूं......
चौथा
चरण : पूर्ण
विश्राम—शांत, शून्य,
जाग्रत, मौन,
प्रतीक्षारत:
और
अब सब छोड़ है.
.चौथे सूत्र
पर चले जाएं—विश्राम
में। न पूछें, न
गहरी श्वास
लें—सब छोड़
दें। दस मिनट
के लिए सिर्फ
पड़े रह जाएं—
जैसे मर गए; जैसे हैं ही
नहीं, सब
छोड़ दें। दस
मिनट सिर्फ छोड्कर
पड़े रह जाएं, उसकी
प्रतीक्षा
में। छोड़ दें—न
पूछें, न
श्वास गहरी
लें, बस
पड़े रह जाएं।
सागर का गर्जन
सुनाई पड़े, सुनते रहें,
हवाएं वृक्षों
में आवाज करें,
सुनते रहें,
कोई पक्षी
शोर करे, सुनते
रहें— दस मिनट
मर गए...... .हैं ही
नहीं..... .दस मिनट
मर गए...... .हैं ही
नहीं।
(समुद्र का
गर्जन है.....
पक्षियों की
आवाजें. हवा
की सरसराहट......
कहीं— कहीं
किसी का कभी—
कभी सुबकना......
हिचकी लेना.. ....कराहना..
शेष सब शांत
है...... साधकों का
क्रमश: शांत
तथा निःशब्द
होते चले जाना......
किसी का बीच
में दो— चार
तीव्र श्वास—प्रश्वास
लेना और शांत
हो जाना..... किसी
साधक का शरीर
की स्थिति में
कुछ परिवर्तन
करना..... फिर
गहरी शांति
तथा स्थिरता
में चले जाना......)
धीरे—
धीरे अब आंख
खोल लें। आंख
न खुलती हो तो
दोनों आंखों
पर हाथ रख लें।
जो लोग गिर गए
हैं,
उनसे उठते न
बने तो धीरे—
धीरे गहरी
श्वास लें और
फिर उठें।
जल्दी कोई न
उठे। झटके से
न उठे। बहुत
आहिस्ता से उठ
आएं। फिर भी
किसी से उठते
न बने तो थोड़ी
देर लेटा रहे।
धीरे— धीरे
उठकर बैठ जाएं।
आंख खोल लें।
जिससे उठते न
बने वह थोड़ी
गहरी श्वास ले,
फिर
आहिस्ता से
उठे।
दो
एक छोटी सी
सूचनाएं हैं।
दोपहर तीन से
चार मौन में
बैठेंगे। मैं
यहां बैठूंगा।
तीन के पांच
मिनट पहले ही
आप सब आ जाएं।
मैं ठीक तीन
बजे आ जाऊंगा।
बिलकुल भी बात
यहां न करें।
एक शब्द भी
प्रयोग न करें।
चुपचाप आकर
बैठ जाएं। एक
घंटे मैं
चुपचाप यहां
बैठूंगा। उस
बीच किसी के
भी मन में लगे
कि मेरे पास
आना है, तो वह
दो मिनट के
लिए आकर
चुपचाप बैठ
जाए और फिर
अपनी जगह चला
जाए। दो मिनट
के बाद न रुके,
ताकि दूसरे
लोगों को आना
हो तो वे आ
सकें। एक घंटे
चुपचाप बैठकर
प्रतीक्षा
करें।
इस
बीच अगर आप
कहीं भी घूमने
जाते हैं—
सागर के तट पर
या कहीं भी
एकांत में— तो
कहीं भी अकेले
में बैठकर
ध्यान मैं ही
रहें। ये तीन
दिन सतत ध्यान
में ही बिताने
की कोशिश करें।
हमारी
सुबह की बैठक
पूरी हुई।
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