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शुक्रवार, 14 नवंबर 2025

हे सखी –(कविता) मनसा-मोहनी

 हे सखी –(कविता)

हे सखी !

मेरे स्वप्न अभी टूटे नहीं है,

अभी भी मैं उनमें उलझा हूं।

परंतु कभी-कभी देखता हूं

उनमें एक विराम,

एक अविरलता

तब झरता है एक रस

पता नहीं उसे कह पाऊंगा।

या  शायद नहीं।

और..... हे सखी

मेरी तमस की कालिमा

भी मुझे धेरे है

मेरी नींद जो अभी भी

खुली नहीं है

क्योंकि आप देख रही हो

मुझे आज भी जंभाई आती है।

परंतु एक कालिमा जो बदल रही है

चांदी के रंग में

नहीं परवाह उसकी मुझे

परंतु ....है सखी

तेरे शब्द प्रवचन में

अब सुनाई नहीं देते

बस जब उन्हें सुनता हूं तो

वह एक राग से, एक संगीत से

प्रतीत होते है

अर्थ हीन से

बस मैं उनके साथ बहता हूं

उन शब्दों की धारा के साथ

किसी लयवदित संगीत सा

जो कर जाता है

मुझे तन के भार से मुक्त

कितना सुखद है वह अहसास

न कोई पकड़ है न ही को भार

मानों उड़ रहा हूं किसी

स्वछंद गगन में

बिना पंख  के

बस मुझे बहने दो

किसे फिक्र है मंजिल की

मार्ग ही कितना सुखद है

हे सखा...

शब्द नहीं है मेरे पास

तुम तो समझ रही होगी

क्योंकि तुम तो जानती हो

उस भाषा को

जो शब्दों के पार है।

 

मनसा-मोहनी दसघरा

ओशोबा हाऊस नई दिल्ली

 

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