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बुधवार, 12 नवंबर 2025

29 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्याय - 29)

जीवन कुछ है

जीवन इतना सरल नहीं है जितना हम जीते या उस जानते है। न ही वो ऐसा है जैसा हम उसे ऊपर से देखते है या दिखाई देता हे। वह अपने अंदर भी एक अटूट गहराई समेटे हुए रहता है। उसकी परत—दर—परत एक—एक नया आयाम लेकर चलती रहती है जिंदगी। ऊपरी सतह पर जिस तरह से धूल खरपतवार जमा होता है, वहीं गहराई में कहीं अधिक चिकनी मिट्टी और अधिक गहराई में गीलापन लिये रहती है। और अति गहराई में शीतल मीठे जल का स्त्रोत। क्या ऊपर की सतह को देख कोई कह सकता है की ठीक इसके नीचे एक शीतल जल को स्त्रोत बह रहा है। कौन विश्वास करेगा आपकी इस बात का।

आने वाला समय तो न जाने कितने पतन की और गिर सकता है कोई कहा नहीं जा सकता। परंतु मनुष्‍य लाख मांसाहारी हो गया है, तो क्‍या वह अपने पालतू कुत्‍ते का मांस खा सकता है, नहीं। हां, लेकिन अब सूना है किसी देश में शायद कोरिया में कुछ लोग पालतू कुत्‍तों को भी मार कर खा जाते है। तो शायद इसके विपरीत वो फिर मनुष्‍य को भी खाने मैं ज्यादा देर नहीं रुकेंगे। या फिर आज नहीं कल जरूर उनका वही अगला कदम होगा।

किसी पशु को खुद पाल कर खाना अति कठिन कार्य है। इससे आपकी क्रूरता अति विक्रीत हो उठती है। आप अति हिंसक हो रहे होते हो। क्‍योंकि उसका भरोसा तो देखो। क्‍या मेरा मालिक मेरी गर्दन पर जब छुरी या चाकू रखेगा तो मैं सोच सकता हूं कि वो मुझे मार कर खा जायेगा। वो ऐसा सोच भी नहीं सकता बेचारा, कभी नहीं मेरा मालिक तो भगवान है। उसके इन्‍हीं हाथों ने न जाने कितने ही प्‍यार भरे कोर मुझे खिलाये है। मेरी गर्दन को प्यार और स्नेह से सहलाया था। मुझे लाड़ प्यार दिया था। अगर इस तरह से कोई अपने पालतू पशु या पक्षी को मारता है तो वह उसकी ही चेतना निम्न तल पर चली जाता है। फिर शायद उसमें मनुष्यता नाम की कोई चीज नहीं रह जाती। वो समाज संसार के लिए बहुत ही खतरनाक है। खेर ये तो संसार है नित बदलता ही रहता है। कभी अंधकार तो कभी प्रकाश। परंतु इस कुरूपता को धर्म की आड़ में करना कितना आसान हो जाती है। तब आपकी आँख पर पट्टी बाँध कर ये सब करते हुए जारा भी दया भाव आपके अंदर नहीं बचता। लेकिन वह जाति अपने विनाश के अति निकट जा रही है, ये उसे जान लेना चाहिए कि। अगला कदम अब विनाश का है।

कुछ बात तो हम इस तरह से करते है जैसे हम किसी चेतना से न चल कर एक मशीन की तरह चल रहे है। कोई हमारे भीतर से धक्के मार रहा है, और हम चल रहे है। उसका हमें कुछ पता ही नहीं है। न हम उसकी आवाज सुनने की कोशिश ही करते है। जैसे कि जब भी किसी सैनिक को या वर्दी धारी को हम देखते है तो हमें लगता है ये हमें मारने के लिए आ गये है। ये बात शायद हमारे अचेतन में कहीं समाई किसी दुर्घटना का ही परिणाम हो सकती है। क्‍योंकि हजारों साल से जब भी सेना आती युद्ध होता तो शहर गांव को लूटती थी। मार काट मचाती थी। जब सेना आती तो सब गांव—शहर खाली हो जाते होंगे। ये सब कुरूप घटनाएं हमारे अचेतन में समाई हुई होगी जो पीढ़ी दर पीढ़ी ढोने को हमें मिल रही है। लोग तो एक ही जन्‍म को सहन न कर पाते और पागल हो जाते है। हमें देखो.....लिए चल रहे है हजारों पीढ़ियों का ज्ञान जिसे हम नहीं भूल पाते। वो बात हमारे पूर्वजों से चली आ रही पीड़ा हमारे खून मांस मज्जा में समा गई है। और साधुओं की टोली से शायद इसलिए चिड़ते है कि वह हमारे हिस्से का भोजन मांग कर ले जाते है। अपने प्रतिद्वंद्वी से प्रत्‍येक प्राणी चिड़ता है। ये मैं आपको बहुत गहरे रहस्‍य बात रहा हूं जो हमारी जाति पर कलंक है। हां तो वह स्‍वामी जहां पर वह बैठ कर खाना खाते मैं उनके बिलकुल पास सटकर ही बैठ जाता। और बार—बार उनके कान के पास अपना मुंह कर के ग़ुर्राता कि चुप से मुझे अपने खाने में से दे दे। न जाने ये बात मेरे दिमाग में कहां से आई। पर थी चमत्कारी जो अपना प्रभाव दिखा रही थी। सच में वह मेरे गुर्राने से डर जाता था और चुप से अपनी थाली में से कुछ मेरे सामने रख देता था। लेकिन मैं भी कहां चेन लेने वाला था बार—बार ऐसा ही करता।

परंतु समय की गति किसी से रूकी है। या होनी को कोई टाल सकता है। दीपावली के बाद राम रतन अंकल अपने घर गये तो फिर नहीं आये थे। शायद पापा जी ने उन्‍हें कुछ हिदायत दे दी थे। क्‍योंकि नवम्बर माह में ठंड हो गई थी। और अब तो कड़ाके की ठंड पड़ने लगी थी। धूप सेंकना बहुत भाता था। और इस बार मैं देख रहा था। कितनी ही ब्रेड छत पर सुखाई जा रही थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि गीदड़ों को जो ब्रेड दी जानी है। उसे छत पर क्‍यों सुखाया जा रहा है। यह तो अपने आप ही हवा और घूप पा कर जंगल में सूख जाती थी।

उस में से कभी—कभी मैं एक आधी ब्रेड मांग कर खा लेता था। परंतु उसका स्‍वाद मुझे कभी अच्‍छा नहीं लगता था। क्‍योंकि रोटी तो रोटी है या चावल का क्‍या जवाब। इस के खाने से पेड़ में कुछ दर्द या कुछ गर्ल—गर्ल होने लग जाती थी। इसलिए ब्रेड मुझे कभी नहीं जंची। खैर जो ब्रेड छत पर सूख रही थी। तो मुझे उससे क्‍या दिक्कत हो सकती थी। परंतु छत पर सूखने के कारण मुझे फिक्र होती थी कि उसे कौवे या चिड़िया खराब न कर दे। फिर कभी मन में आता की उन्‍हें गीदड़ों के लिए ही तो ले जाना है इस में से थोड़ा ये भी खा लेंगे तो ठीक ही तो है। मुझे अनजाने में वह गीदड़ बुरे भी लगते थे। मैं मानता था कि उन्हीं ने मेरी मां को मारा था। तो मन करता उन पर टाँग उठा कर अपना ठप्पा लगा दूं। परंतु डर लगता की अगर किसी और काम के लिए रखी गई होगी तो फिर मुसीबत आ जायेगी। बड़ी मुश्‍किल से अपने आप को रोक पाता था। वहीं गीदड़ वाली हूकी हूं....हूकी हूं की कथा। पापा जी जब ये कथा सुनाते थे तो मुझे भी बड़ा मजा आता था।

लो ये कथा आप भी सून लीजिए......एक बार की बात है। एक गीदड़ और एक ऊँट में दोस्ती हो गई। दोनों पक्के मित्र बन गये। गीदड़ जंगल में बहुत अच्‍छी—अच्‍छी खाने की चीजों को जानता था। और कभी जंगली कचरी या हरी मुलायम घास जो गहराईयों में छुपी होती वहां पर अपने दोस्‍त को ले जाता और उसे मीठी घास का स्‍वाद दिलाता। इस से उसके अहंकार को बहुत तृप्ति होती। इसी से तो उसे अपने दोस्‍त पर अपना रोब दाब जमाने में बहुत मजा आता। धीरे—धीरे दोस्‍ती अधिक पक्की होती जा रही थी।

जैसे ही जंगल में ऊँट चरने के लिए जाता गीदड़ दिन में उससे मिलने आ जाता। एक बार बात करते हुए गीदड़ ने ऊँट से कहां यार एक बात है। मैंने अपने यार दोस्तों से सूनी है। नदी के उस पार बहुत से खेत है। और उन में खरबूजे, तरबूजे, ककड़ी न जाने क्‍या—क्‍या लगा रहता है। परंतु नदी बहुत गहरी है। और इस समय तो बरसात के बाद से वह अति बैग से बह रही थी। अगर तुम हिम्‍मत करो तो दोनों दोस्‍त एक दिन पिकनिक मनाने उस पर चलते है। ऊँट भी यहां की रूखी सूखी घास खा कर दुःखी हो गया था। उसने सोचा चलो चलते है। आज ही रात का प्रोग्राम बना लिया गया।

रात के समय दोनों दोस्त नदी किनारे मिले। आसमान पर पूरा चाँद चमक रहा था। एक बार तो ऊँट के मन में शंका उठी इस चाँद की चाँदनी में किसान मुझे तो दूर से ही देख लेगा। और फिर भागना भी कठिन होगा। उसने गीदड़ से कहां की यार आज नहीं चलते कुछ दिनों बाद जब अँधेरा हो जायेगा तब चलेंगे। तब गीदड़ खुब जोर से हंसा और कहने लगा इतना बड़ा शरीर लेकर भी क्‍या चूहे की तरह से डर रहा है। अरे मुझे देखो मेरा तन जरूर छोटा है परंतु दिल बहुत मजबूत है। और फिर डरने की क्‍या बात है। हम दो ही तो है। और मेरे होते तुझे डरने की कोई जरूरत नहीं है। हजार बार ना नुच करने के बाद भी गीदड़ नहीं माना सो नहीं माना। अब मजबूरी में ऊंट को उस गीदड़ की बात माननी पड़ी।

पानी का बहाव तेज था। परंतु ऊँट भी बहुत अच्छा तैराक था। चाहे उसने रेत में चलने में महारत हासिल कर ली हो परंतु उसके पानी में तैरते देख कर गीदड़ खूद हैरान था। इतने तेज बहाव को देख कर एक बार तो गीदड़ हवा निकल गई। की जरा भी पैर इधर उधर हो गया तो फिर इस पानी से बच पाना कठिन ही नहीं असंभव था। परंतु अपने डर को छुपा कर वह इस अकड़ से उठ पर बैठकर चारों और देख रहा था। मानो कोई राजा अपने राज सिंहासन पर बैठ का अपनी जनता को देख रहा हो। नदी के बीच में जाकर एक समय तो ऐसा आया की ऊंट की पूरी पीठ पानी में डूब गई केवल उसकी गर्दन और उभरी पीठ ही पानी से बहार थी। अब तो गीदड़ को लगा मैं गया। कहां के ख़रबूज़े खाये। यहां तो लगता है प्राणों से भी हाथ गवाना होगा। गीदड़ पानी में आधा डूब गया था। परंतु उसने अगली दोनों टांगो से ऊंट की पीठ को पकड़ रखा था और दम थाम कर बैठा था।

किसी तरह से राम—राम कर के नदी पार हुई। जिस खुशी से गीदड़ नदी के उस किनारे से चला था वह यहां तक आते—आते काफूर हो गई थी। गीदड़ का सारा शरीर पानी में भीग गया था। जिसे वह किनारे की रेत में लेट—लेट कर सूखा रहा था। उधर बीच-बीच में ऊंट को भी ज्ञान दे रहा था कि तुम भी कुछ देर सुस्ता लो और रेत में लेट लो। जिससे यह रेत तुम्‍हारे गीले शरीर पर चिपक जायेगा और तुम मिट्टी के रंग के हो जाओगे।

सच ही गीदड़ का दिमाग शैतान को होता है। उसकी इस बात को सून कर ऊंट अपने दोस्‍त की बुद्धि का कायल हो गया। कि गजब दिमाग पाया है मेरे दोस्‍त ने। और दोनों कुछ देर के लिए रेत में लेट गये। चढ़ी हुई सांस मध्यम हो गई हो थके शरीर को कुछ आराम भी मिला। और आधी रात होने पर जब चाँद पूरे आसमान पर होगा तो हमारी परछाई लंबी भी नहीं होगी। उस समय किसान जाग—जाग कर थक गया होगा। और थोड़ा आराम करने के लिए चला गया होगा। कि अब शायद कोई जानवर नहीं आयेगा। इसलिए वह कुछ घंटों वही बैठ कर आधी रात होने का दोनों इंतजार करते रहे।

आधी रात होने के बाद गीदड़ नदी के तट से बहार निकल कर इधर उधर देख और अपने दोस्‍त को कहा की मैं पहले जाता हूं, क्‍योंकि मेरा चलना किसको दिखाई भी नहीं देगा। जब रास्‍ता साफ होगा तो में इशारा कर दूंगा....तुम फौरन भाग कर मेरी और आ जाना। ऊंट तो उसका मुख टुकूर—टुकूर देख रहा था। मानो उसका दोस्त कोई फरिश्ता हो। कुछ ही देर में गीदड़ ने इशारा किया ऊंट खड़ा होकर चुप—चाप खेत की और चल दिया। खेत में कोई नहीं था। दूर तक चाँद की चाँदनी फैली थी। खेत ख़रबूज़ों से भरा पड़ा था। हरे पीले ऊंट ने कुछ नहीं देखे बस खाने लगा। इतनी देर में गीदड़ उसके पास आया और कहने लगा यार कच्चे क्‍यों खा रहा है। यह देख मैं तुझे देता हूं मीठे। और वह अपने हाथ से ख़रबूज़े तोड़—तोड़ कर ऊंट को खिलाने लगा। सच ही वह खरबूजे मीठे और बहुत मजेदार थे।

परंतु ऊंट ने जीभ का स्‍वाद ही नहीं चाहिए था अपना पेट भी भरना था। गीदड़ का क्‍या था दो चार ख़रबूज़े तोड़े एक आधा खाया और आधा फेंक दिया। भर गया पेट। वह वहीं पर लेट गया। उसे नहीं पता था ऊंट इतना पेटू होता है। वह बार—बार उसकी और देखे जा रहा था। कि यह कितना खायेगा। पेट भरने के बाद अब गीदड़ को हूक—हूँ. की...लत.. लगी। जो उसकी आदत में सूमार थी। हूक हूँ. की....हूं.....हूँ की.. हूं....उसके ऊंट के पास जाकर कहा की यार जल्‍दी कर मुझे हूक....हूकी लगी है। मेरे पेट में अब वो हजम नहीं हो रही। चल भर गया होगा तेरा पेट। ऊंट ने उसका मुख देख और कहने लगा यार मरवायेगा मुझे। यहां अगर तूने हूकी-हूकी की तो किसान उठ जायेगा। फिर मेरी शामत आ जायेगी। किसी तरह से गीदड़ ने अपने आप को रोका....एक दो खरबूजा और तोड़ा मीठा होने पर भी वह उसे खा नहीं सका क्योंकि उसका पेट भर गया था। इस तरह से समय गुजरता गया। गीदड़ अपनी हूक...हूकी को रोकने की लाख कोशिश करता रहा। वह जानता था की उसके बोलने से सब गुड़ गोबर हो जायेगा।

परंतु एक समय ऐसा आया कि उसने ऊंट से कहा कि या तो यहां से चल पड़ नहीं तो में  हूक हूकी...... करता हूं। ऊंट ने कहा कौन सा रोज—रोज इधर आना होता है। फिर तू जानता है नदी इतनी भंयकर है कि उसे पार करना कितना कठिन है। परंतु उसकी कोई भी बात गीदड़ के दिमाग में नहीं जा रहा थी। कुछ देर सब्र करने के बाद गीदड़ ने अपना चिर परिचित मुख आसमान की और उठाया और हूकी...हूं.....हूकी हूं..... कि हुंकार भरने लगा।

किसान जो अपनी झोंपड़ी में सो रहा था। गीदड़ की हुंकार सून कर जागा और अपना लट्ठ को ले कर भागा। गीदड़ तो उसके पद चाप सून का भाग लिया। परंतु इतना बड़ा ऊंट कैसे भागता। उसे लट्ठों से खूब मार खानी पड़ी किसी तरह से अपनी जान बचता हुआ वह नदी के किनारे पहुंचा। जहां पर गीदड़ रेत में लेट कर उसका इंतजार कर रहा था। जब दूर से ऊँट को आते देख कर कहने लगा आ गये महाराज किसान का प्रसाद प्राप्त कर के। उसकी इस धूर्तता को देख कर ऊंट का खून जल कर रह गया। उसके पूरे बदन पर मार के कारण नील के निशान पड़ गये थे। वह दर्द से कराह रहा था। और उसे डर था की किसान उसका पीछा करता हुआ अगर यहाँ भी आ गया तो.....और ठंडे पानी में अंदर जाने का कम से कम इस समय उसका मन बिलकुल नहीं था। परंतु गीदड़ कह रहा था यार जल्‍दी कर। वह किसान इधर आ गया तो मैं कहां जाऊंगा। तेरा तो शरीर तगड़ा है तू तो उसके लट्ठ झेल सकता है मुझे तो एक भी लग गया तो मेरे प्राण निकल जायेंगे।

अब यहां आराम करने का समय नहीं है। जल्‍दी से नदी के उस पार मुझे पहुँचा दे। उसकी इस बात को सून कर ऊंट के दिल को बहुत ठेस पहुंची। वह अपने जख्मों को कुछ देर सूखी रेत में रख कर आराम करना चाहता था। तभी गीदड़ ने कहा क्‍या यार मैं तो तुझे पहले ही कहा रहा था परंतु तु तो इतना पेटू है की वहाँ से हिलने का नाम ही नहीं ले रहा था। जब इतने ख़रबूज़े खाये है तो इतने लट्ठ भी तो तुझे ही खाने होगे। दर्द पर मरहम न लगा कर गीदड़ उन्‍हें कुरेद रहा था।

उसकी ये जली कटी बातें सून कर ऊंट मन मसोस कर रह गया। गीदड़ उसकी पीठ पर चढ़ कर बैठ गया। न चाहते हुए भी ऊंट किसी तरह से खड़ा हुआ और पानी की चल दिया। ठंडा पानी उसकी चोटों को चीरे जा रहा था। दर्द के मारे ऊंट कराह रहा था। और गीदड़ इधर उधर देख रहा था कि किसान तो नहीं आ रहा है। दूर कही पौधों के हिलने की और लालटेन की रोशनी के साथ पैरों के चलने की आवाज भी आ रहा थी। इस पर उसने कहां की जल्‍दी कर वह देख कितने लोग आ रहे है। इस बार एक दो ने ही मारा है अब की बार तो पूरी बारात ही आ रहा है तेरे स्वागत के लिए। जल्‍दी से पानी में चल। वरना दोनों मारे जायेंगे बे मौत।

मरता क्‍या न करता। ऊंट बेचारा डरता हुआ तेज कदमों से नदी के अंदर चला दिया। और तैरते—तैरते नदी के बीच में पहुंच गया। अब कहीं जाकर गीदड़ की जान में जान आई गीदड़ कहने लगा अब हम किसानों की पहुंच के बहार है। बहुत मार पड़ने के कारण ऊँट के अंग—अंग में दर्द था। वह पूरी ताकत लगा कर तैर रहा था। परंतु थकावट के कारण या शरीर पर मार पड़ने के कारण वह अपने को बहुत थका—थका महसूस कर रहा था। अब उसे पानी का बहाव और भी तेज लग रहा था। शायद या तो वह कमजोर हो गया था या पानी का बहाव बहुत तेज हो गया था। गीदड़ है की उसे चैन नहीं था। वह कहे ही जा रहा था। कि क्‍या मरे मुर्दे की तरह से तैर रहा है। एक मन (चालीस किलो) ख़रबूज़े खाकर भी तुमने तो सब खो दिये। आती दफा कितनी तेजी से आ रहा था। उसकी ये बात सून—सून कर ऊँट का दिमाग खराब हो गया था। कि ऐसे दोस्‍त से दुश्मन ही भला है। इस को जरा भी दया नहीं आ रही कि मुझे कितनी मार पड़ी है। और फिर भी मैं उसे पीठ पर बैठाकर नदी पार करा रहा हूं।

आखिर कर ऊँट के सब्र का बाँध टूट गया। और उसने चुप से गीदड़ को कहा की यार मुझे लूट—लूटी आ रही है। (ऊंट रेत में लेट कर बहुत प्रसन्‍न होता है) उसकी ये बात सून कर गीदड़ को काटो तो खून नहीं। उसने कहा नहीं यार तुम मजाक कर रहा है। तु तो कितना अच्‍छा है कितना प्यारा और समझदार है। तेरे जैसा दोस्‍त कभी किसी को नहीं मिल सकता। तब ऊंट ने कहा नहीं यार सच ही लूट लूटी आ रही है। गीदड़ तो रोने लगा। यार मैं मर जाऊंगा। मुझे तैराना भी नहीं आता। ऊँट ने उसे कहां की जब मैं हूकी....हूँ.... कि बात कर रहा था। कि मत कर तब तो तुझसे रहा नहीं गया। अब अपनी बारी में क्‍या हो गया। क्यों रोता है।

गीदड़ ने कहां इस नदी के बीच में लाकर तु मुझे धोखा दे रहा है। मैं तुझे अपना दोस्‍त समझ कर ख़रबूज़े खिलाने के लिए लाया था और तु बीच मझधार में मुझे डूबो रहा है। परंतु ऊँट समझ गया था कि यह गीदड़ दोस्‍ती करने के लायक नहीं है। और उसने पानी में लुट—लूटी मार दि....देखते ही देखते गीदड़ तेज बहती नदी में गोते खाने लगा। पानी का बहाव उसे दूर लिए जा रहा था।

तब ऊँट ने उससे कहा जैसी करनी वैसी भरनी। दोस्‍त अलविदा.....तैर सकते हो तो अपने दम पर तैर जाओ.....आ अब देखता हूं तेरी हूक...हूकी कब सुनाई देती है। और देखते ही देखते तेज लहरे उस गीदड़ को निगल गई। और ऊँट दूसरे किनारे पर चला गया और उसने वहां जाकर कान पकड़े की लालच नहीं करना और अपने संग के लोगों से दोस्‍ती भली है।

और कहानी यूं खत्‍म हो जाती है। आज कल रोज इसी तरह से रात कहानी सुनाई जाती थी। क्‍योंकि राम रतन मित्र अभी तक भी नहीं आया था।

जिस दिन बच्चों के स्‍कूल छूटी होती तो हम सब जंगल में चले जाते थे। वहीं पर खाना खाते खेलते। और वह सूखी ब्रेड यहां पर लाकर एक किनारे रख दी जाती थी। जीवन बड़ा ही रहस्‍य गति से चलता है। उसकी पदचाप न तो सुनाई देती है न ही पद चिन्‍ह ही कहीं दिखाई देते है। फिर भी सफर चलता रहता है। किस और जाना है शायद ये भी चलने वाले को पता नहीं चलता। बस चलते जाना है, कोई अंदर अचेतन से मंद आवाज आ रही होती है। चरेवेति-चरेवेति। चलों अब बहुत हो गया आज के लिए बहुत अब आराम करते है।

भू..... भू..... भू.....

आज इतना ही।

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