'अमृत—वाणी'
से
संकलित सुधा—बिंदु
1970—71
1—परमात्मा
की चाह नहीं
हो सकती
मन मांगता
रहता है संसार
को, वासनाएं
दौड़ती रहती
हैं वस्तुओं
की तरफ, शरीर
आतुर होता है
शरीरों के लिए,
आकांक्षाएं विक्षिप्त
रहती हैं
पूर्ति के लिए।
हमारा जीवन आग
की लपट है, वासनाएं
जलती हैं उन
लपटों में— आकांक्षाएं
इच्छाएं जलती
हैं। गीला
ईंधन जलता है
इच्छा का, और
सब धुआं— धुआं
हो जाता है।
इन लपटों में
जलते हुए कभी—कभी
मन थकता भी है,
बेचैन भी
होता है, निराश
भी, हताश
भी होता है।
हताशा
में, बेचैनी
में कभी—कभी
प्रभु की तरफ
भी मुड़ता
है। दौड़ते—दौड़ते
इच्छाओं के
साथ कभी—कभी
प्रार्थना
करने का मन भी
हो आता है।
दौड़ते—दौड़ते
वासनाओं के
साथ कभी—कभी
प्रभु की
सन्निधि में आंख
बंदकर
ध्यान में डूब
जाने की कामना
भी जन्म लेती
है।
बाजार की भीड़— भाड़ से हटकर कभी मंदिर के एकांत, मस्जिद के एकांत कोने में डूब जाने का खयाल भी उठता है।
बाजार की भीड़— भाड़ से हटकर कभी मंदिर के एकांत, मस्जिद के एकांत कोने में डूब जाने का खयाल भी उठता है।
लेकिन
वासनाओं से
थका हुआ आदमी
मंदिर में बैठकर
पुन: वासनाओं
की मांग शुरू
कर देता है।
बाजार से थका
आदमी मंदिर
में बैठकर
पुन: बाजार का
विचार शुरू कर
देता है।
क्योंकि
बाजार से वह
थका है, जागा नहीं; वासना से
थका है, जागा
नहीं।
इच्छाओं से
मुक्त नहीं
हुआ, रिक्त
नहीं हुआ, केवल
इच्छाओं से
विश्राम के
लिए मंदिर चला
आया। उस
विश्राम में
फिर इच्छाएं
ताजी हो जाती
हैं।
प्रार्थना
में जुड़े हुए
हाथ भी संसार
की ही मांग
करते हैं।
यज्ञ की वेदी
के आस—पास
घूमता हुआ
साधक, या
याचक भी पली
मांगता है, पुत्र
मांगता है, गौएं मांगता है, धन मांगता
है, यश, राज्य,
साम्राज्य
मांगता है।
असल
में जिसके
चित्त में
संसार है उसकी
प्रार्थना
में संसार ही
होगा। जिसके
चित्त में
वासनाओं का
जाल है उसके
प्रार्थना के
स्वर भी
उन्हीं
वासनाओं के
धुएं को पकड़कर
कुरूप हो जाते
हैं। यहां एक
बात और समझ
लेनी जरूरी है
कि जब कहते हैं, सांसारिक
मांग नहीं, तो अनेक बार
मन में खयाल
उठता है तो
गैर—सांसारिक
मांग तो हो
सकती है न! जब
कहते हैं, संसार
की वस्तुओं की
कोई चाह नहीं,
तो खयाल उठ
सकता है कि
मोक्ष की
वस्तुओं की चाह
तो हो सकती है
न! नहीं
मांगते संसार
को, नहीं
मांगते धन को,
नहीं
मांगते
वस्तुओं को—मांगते
हैं शान्ति को,
आंनद को। छोड़े, इन्हें भी
नहीं मांगते—मांगते
हैं प्रभु के
दर्शन को, मुक्ति
को, ज्ञान
को।
यहीं
वह बात समझ
लेनी जरूरी है
कि सांसारिक
मांग तो
सांसारिक
होती है, मांग—मात्र
सांसारिक
होती है।
वासनाएं
सांसारिक हैं
यह तो ठीक है, लेकिन वासना—मात्र
सांसारिक है,
यह भी स्मरण
रख लें!
शान्ति की कोई
मांग नहीं होती,
अशान्ति से
मुक्ति होती
है। और शान्ति
परिणाम होती
है। शालि को
मांगा नहीं जा
सकता, सिर्फ
अशांति को
छोड़ा जा सकता
है और शांति
मिलती है। और
जो शान्ति को
मांगता है वह
कभी शांत नहीं
होता है
क्योंकि उसकी
शान्ति की
मांग, सिर्फ
एक और अशांति
का जन्म होता
है।
इसलिए
साधारणतया अशांत
आदमी इतना
अशांत नहीं
होता जितना
शांति की
चेष्टा में
लगा हुआ आदमी
अशांत हो जाता
है। अशांत तो
होता ही है, यह शांति
की चेष्टा और
अशान्त करती
है। यह भी
मांग है, यह
भी इच्छा है, यह भी वासना
है। मोक्ष
मांगा नहीं जा
सकता।
क्योंकि जब तक
मोक्ष की मांग
है, जब तक
मांग है, तब
तक बंधन है।
फिर बंधन और
मोक्ष का मिलन
कैसा? हां,
बन्धन न रहे
तो जो रह जाता
है, वह
मोक्ष है।
हम
परमात्मा को
चाह नहीं सकते, क्योंकि
चाह ही तो
परमात्मा और
हमारे बीच बाधा
है। ऐसा नहीं
कि धन की चाह
बाधा है, चाह
ही— 'डिजायर एज सच' बाधा
है। ऐसा नहीं कि
इस चीज की चाह
बाधा है और इस
चीज की चाह
बाधा नहीं है—न,
चाह ही बाधा
है। क्योंकि
चाह ही तनाव
है, चाह ही
असन्तोष है।
चाह ही, जो
नहीं है उसकी
कामना है—जो
है उसमें
तृप्ति नहीं।
अगर ठीक से
कहें तो
सांसारिक चाह
कहना ठीक नहीं,
चाह का नाम
संसार है।
वासना ही संसार
है, सांसारिक
वासना कहना
ठीक नहीं।
लेकिन
हम भाषा में
भूलें करते
हैं। सामान्य
करते हैं तब
तो कठिनाई
नहीं आती, चल जाता
है लेकिन जब इतने
सूक्ष्म और
नाजुक मसलों
में भूलें
होती हैं, तो
कठिनाई हो
जाती है।
भूलें
भाषा में हैं, क्योंकि
अज्ञानी भाषा निर्मित
करता है। और ज्ञानी
की अब तक कोई
भाषा नहीं है।
उसको भी
अज्ञानी की
भाषा का ही
उपयोग करना पड़ता
है। ज्ञानी की
भाषा हो भी
नहीं सकती
क्योंकि ज्ञान
मौन है, मुखर
नहीं—मूक है!
ज्ञान के पास
जबान नहीं, जान 'साइलेंस'
है—शन्य
है! ज्ञान के पास
शब्द नहीं।
शब्द उठने तक
की भी अशांति
जान में नहीं
है।
इसलिए
अज्ञानी की
भाषा ही
ज्ञानी को
उपयोग करनी
पड़ती है। फिर
भूलें होती
हैं, जैसे
यह भूल निरंत्तर
हो जाती है।
हम कहते है, संसार की चीजों
को मत चाहो—कहना
चाहिए, चाहो
ही मत, क्योंकि
चाह का नाम ही
संसार है। हम
कहते हैं, मन
को शांत करो—ठीक
नहीं है यह
कहना।
क्योंकि शांत
मन जैसी कोई
चीज होती नहीं।
अशांति
का नाम ही मन
है। जब तक
अशांति है तब
तक मन है; नहीं तो मन
भी नहीं। जहां
शांति हुई
वहां मन
तिरोहित हुआ।
ऐसा समझें—तूफान
आया है, लहरों
में सागर की।
फिर हम कहते हैं,
तूफान शांत
हो गया। जब
तूफान शांत हो
जाता है तो
क्या सागर तट
पर खोजने से
शांत तूफान
मिल सकेगा? हम कहते हैं,
तूफान शांत हो
गया तो पूछा जा
सकता है, शांत
तूफान कहां है?
शांत तूफान होता
ही नहीं।
तूफान का नाम
ही अशांति है।
शांत
तूफान—मतलब
तूफान मर गया, अब तूफान
नहीं है। शांत
मन का अर्थ, मन मर गया, अब मन नहीं
है। चाह के
छूटने का अर्थ,
संसार गया,
अब नहीं है।
जहां चाह नहीं,
वहां
परमात्मा है।
जहां चाह है, वहां संसार
है। इसलिए
परमात्मा की
चाह नहीं हो
सकती और अनचाहा
संसार नहीं हो
सकता। यह दो
बातें नहीं हो
सकतीं।
अज्ञान
से ऊबे, थके, घबराए हुए लोग विश्राम
के लिए, विराम
के लिए, धर्म,
पूजा, प्रार्थना,
ध्यान, उपासना
में आते हैं।
लेकिन मांगें
उनकी साथ चली
आती हैं।
चित्त उनका
साथ चला आता
है। एक आदमी
दुकान से उठा
और मंदिर में
गया, जूते
बाहर छोड़ देता,
मन को भीतर
ले जाता है।
जूते भीतर ले जाए
तो बहुत हर्जा
नहीं है, मन
को बाहर छोड़
जाए। जूते से मंदिर
अपवित्र नहीं
होगा। जूते
में ऐसा कुछ
भी अपवित्र
नहीं है, मगर
मन भीतर ले
जाता है।
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि जूते
भीतर ले जाना।
घर से चलता है तो
स्रान कर
लेता है, शरीर धो लेता
है। मगर मन? मन वैसा का
वैसा बासा, पसीने की
बदबू से भरा, दिन भर की
वासनाओं की
गंध से पूरी तरह
लबालब, दिन
भर के धूल
कणों से बुरी
तरह आच्छादित!
उसी गंदे मन को
लेकर वह मंदिर
में प्रवेश कर
जाता है। फिर जब
हाथ जोड़ता है तो
हाथ धुले होते
है लेकिन जुडे
हुए हाथों के पीछे
मन गैर—धुला होता
है। आंखें तो
परमात्मा को देखने
के लिए उठती हैं
लेकिन भीतर से
मन परमात्मा को
देखने के लिए नहीं
उठता। वहाँ फिर
वस्तुओं की
कामना और
वासना लौट आती
है।
हाथ
जुड़ते
परमात्मा से
कुछ मांगने के
लिए! और जब भी
हाथ कुछ
मांगने के लिए
जुड़ते हैं
तभी
प्रार्थना का
अन्त हो जाता
है। मांग और
प्रार्थना का
कोई मेल नहीं।
फिर
प्रार्थना
क्या है? प्रार्थना
सिर्फ
धन्यवाद है, मांग नहीं—'डिमाण्ड'
नहीं, 'थैक्सगिविंग'
—सिर्फ
धन्यवाद। जो मिला
है वह इतना काफी
है कि उसके लिए
मंदिर
धन्यवाद देने
जाना चाहिए।
धार्मिक
आदमी वही है
जो मंदिर
धन्यवाद देने
जाता है।
अधार्मिक वह
नहीं जो मंदिर
नहीं जाता—न हो
जाता, वह
तो अधार्मिक
है ही—
अधार्मिक
असली वह है जो
मंदिर मांगने
जाता है।
छोड़े
वासनाओं को, छोड़े
भविष्य को, छोड़े सपनों
को, छोड़े अन्तत:
अपने को—ऐसे जिएं जैसे
प्रभु ही आपके
भीतर से जीता
है। ऐसे जिएं
जैसे चारों ओर
प्रभु ही जीता
है, ऐसे
करें कृत्य, जैसे प्रभु
ही करवाता है।
जैसे
प्रत्येक
करने के पीछे
प्रभु ही फल
को लेने, हाथ
फैलाकर खड़ा है।
तब ज्ञान घटित
होता है। ज्ञान
परम मुक्ति है,
'द अल्टीमेट
फ्रीडम'! अज्ञान
बन्धन है, ज्ञान
मुक्ति है!
अज्ञान
रुग्णता है, ज्ञान
स्वास्थ्य है!
यह
स्वास्थ्य
शब्द बहुत
अदभुत है। दुनियां
की किसी भाषा
में उसका ठीक—ठीक
अनुवाद नहीं
है। अंग्रेजी
में हेल्थ है, और पश्चिम
की सभी भाषाओं
में हेल्थ से
मिलते—जुलते
शब्द हैं।
हेल्थ का मतलब
होता है
हीलिंग, घाव
का भरना—शारीरिक
शब्द है, गहरे
नहीं जाता।
स्वास्थ्य
बहुत गहरा
शब्द है। उसका
अर्थ हेल्थ ही
नहीं होता, हेल्थ तो
होता ही है, घाव का भरना तो
होता ही है, स्वास्थ्य
का अर्थ है.
स्वयं में
स्थित हो जाना—
'टू बी इन वनसेल्फ'।
आध्यात्मिक
बीमारी से
संबंधित है
स्वास्थ्य।
स्वास्थ्य का
अर्थ है :
स्वयं में ठहर
जाना—इंचभर
भी न हिलना, पलभर भी न
कंपना। जरा—सा
भी कंपन न रह
जाए भीतर, वैवरींग जरा भी न रह
जाए, बस तब
स्वास्थ्य
फलित होता है।
वैवरींग क्यों? कंपन
क्यों है, कभी
आपने खयाल
किया? जितनी
तेज इच्छा
होगी उतना ही
कंपन हो जाता
है भीतर।
इच्छा नहीं
होती, कंपन
खो जाता है।
इच्छा ही कंपन
है। आप कंपते
कब हैं? दीया
जल रहा है, कंपन
कब है? जब
हवा का झोंका
लगता है। हवा
का झोंका न
लगे तो दीया
निष्कंप हो
जाता है, ठहर
जाता है, स्वस्थ
हो जाता है, अपनी जगह हो
जाता है। जहां
होना चाहिए
वहां हो जाता
है। हवा के
धक्के लगते
हैं तो ज्योति
वहां हट जाती
है जहां नहीं
होनी चाहिए।
जगह से छूत हो
जाती है, रुग्ण
हो जाती है, कंपित हो
जाती है। और
जब कंपित होती
है तब बुझने
का, मौत का
डर पैदा हो
जाता है। जोर
की हवा आती है
तो ज्योति
बुझने—बुझने
को, मरने—मरने
को होने लगती
है।
ठीक
ऐसे ही
इच्छाओं की
तीव्र हवाओं
में, वासना
के तीव्र ज्वर
में कंपती है
चेतना! इसलिए
यह भी खयाल
में ले लें—जो
वासना से मुक्त
हुआ, वह
मृत्यु के भय
से मुक्त हो
जाता है। दीये
की ली हवा के
धक्कों से
मुक्त हुई, फिर उसे
क्या मौत का
डर? मौत का
डर खो गया।
लेकिन जब
तूफान की हवा
बहती है तो
दीया कंपता और
डरता है कि
मरा... अब मरा!
ठीक हमारी अज्ञान
की अवस्था में
ऐसे ही चित्त
होता है। एक कंपन
छूटता है तो
दूसरा कंपन
शुरू होता है।
एक वासना हटती
है तो दूसरा
झोंका वासना
का आता है—कहीं
कोई विराम
नहीं, कहीं
कोई विश्राम
नहीं।
वासना
का कंपन ही 'स्पिन्यूअल डिसीज', आध्यात्मिक
रुग्णता है!
कंपन का अर्थ
ही है कि
स्थिति में
नहीं। इसलिए
कहा जाता है
कि ज्ञान परम
मुक्ति है
क्योंकि
ज्ञान परम
स्वास्थ्य है।
वह कैसे होगा
उपलब्ध? वासना
से जो मुक्त
हो जाता है—मांग
से, चाह से,
जो मुक्त हो
जाता है वही
जान में
प्रतिष्ठित हो
जाता है!
भागे हिरण
और भटके राम—
हमारा अनुभव
यह है कि हमने
जहां—जहां
कामना के फूल
तोड़ना चाहा
वहीं दुख का
कांटा हाथ में
लगा। जहां—जहां
कामना के फूल
के लिए हाथ बढाया, फूल
दिखायी पड़ा, जब तक हाथ
में न आया—जब
हाथ में आया
तो रह गया
सिर्फ लहू? खून! कांटा चुभा, फूल
तिरोहित हो
गया। लेकिन
मनुष्य अदभुत
है। उसका सबसे
अदभुत होना इस
बात में है कि
वह अनुभव से
सीखता नहीं।
शायद ऐसा कहना
भी ठीक नहीं।
कहना चाहिए, मनुष्य
अनुभव से सदा
गलत सीखता है।
उसने हाथ
बढ़ाया और फूल
हाथ में न आया,
कांटा हाथ
में आया तो वह
यही सीखता है
कि मैंने गलत
फूल की तरफ ही
हाथ बढ़ा दिया।
अब मैं ठीक
फूल की तरफ
हाथ बढ़ाऊंगा।
यह नहीं सीखता
कि फूल की तरफ
हाथ बढ़ाना ही
गलत है।
साधारण
आदमियों की
बात हम छोड़
दें। स्वयं
राम अपनी
कुटिया के
बाहर बैठे है
और एक स्वर्ण
मृग दिखाई पड़
जाता है—स्वर्ण—मृग!
सोने का हिरण
होता नहीं, पर जो
नहीं होता वह
दिखाई पड़ सकता
है। जिन्दगी
में बहुत कुछ दिखाई
पड़ता है, जो
है ही नहीं।
परन्तु जो है
वह दिखाई नहीं
पड़ता है।
स्वर्ण—मृग
दिखाई पड़ता है,
राम उठा
लेते हैं धनुष—बाण।
सीता कहती है,
जाओ, ले
आओ इसका चर्म।
राम निकल पड़ते
हैं स्वर्ण
मृग को मारने।
यह कथा
बडी मीठी है।
सोने का मृग
भी कहीं होता
है? लेकिन
आपको कहीं
दिखाई पड़ जाए
तो रुकना
मुश्किल हो
जाए। असली मृग
हो तो रुका भी
जाए, सोने का
मृग दिखाई पड़
जाए तो रुकना
मुश्किल हो
जाएगा। हम सभी
सोने के मृग
के पीछे ही
भटकते हैं। एक
अर्थ में हम
सबके भीतर का
राम सोने के
मृग के लिए ही
तो भटकता है, और हम सबके
भीतर की सीता
भी उकसाती है,
जाओ, सोने
के मृग को ले
आओ!
हम सब
के भीतर की
कामना, हम सब के
भीतर की वासना,
हम सबके
भीतर की 'डिजायरिग'
कहती है
भीतर की शक्ति
को, उस
ऊर्जा को, उस
राम को, कि
जाओ तुम— 'इच्छा
है सीता, शक्ति
है राम'! कहती
है, जाओ, स्वर्ण मृग
को ले आओ! राम
दौड़ते—फिरते
हैं। स्वर्ण—मृग
हाथ में न आए
तो लगता है कि
अपनी कोशिश
में कुछ कमी
रह गयी... और
तेजी से दौड़ो!
स्वर्ण मृग को
तीर मारो ताकि
वह गिर जाए, न ठीक
निशाना लगे तो
लगता है कि
विषधर तीर बनाओ;
लेकिन यह
खयाल में नहीं
आता कि स्वर्ण—मृग
होता ही नहीं!
कामना
के फूल आकाश
कुसुम हैं, होते
नहीं। जैसे
धरती पर तारे
नहीं होते
वैसे आकाश में
फूल नहीं होते।
कामना के
कुसुम या तो
धरती के तारे
है या आकाश के
फूल। सकाम
हमारी दौड़ है।
बार—बार थककर
गिर—गिरकर भी,
बार—बार
कांटों से उलझकर
भी फूल की
आकांक्षा
नहीं जाती—दुख
हाथ लगता है।
लेकिन कभी हम
दूसरा प्रयोग
करने को नहीं
सोचते। वह
दूसरा प्रयोग
है निष्काम
भाव का।
बड़ा
मजा है, निष्काम भाव
से कांटा भी
पकड़ा जाए तो पकडने पर
पता चलता है
कि फूल हो गया।
ऐसा ही 'पेराडोक्स है, ऐसा
ही जिन्दगी का
नियम है। ऐसा
होता है। आपने
एक अनुभव तो
करके देख लिया।
फूल को पकड़ा
और कांटा हाथ
में आया, यह
आप देख चुके।
और अगर ऐसा हो
सकता है कि
फूल पकड़े
और काटा हाथ
में आए तो
उल्टा क्यों
नहीं हो सकता
है कि कांटा पकड़े और
फूल हाथ में आ
जाए? क्यों
नहीं हो सकता
ऐसा? अगर
यह हो सकता है
तो इससे उल्टा
होने में कौन—सी
कठिनाई है? हां, जो
जानते है वे
तो कहते हैं, होता है!
एक
प्रयोग करके
देखें। चौबीस
घण्टे में
एकाध काम
निष्काम करके
देखें, सब तो करने
मुश्किल हैं—सिर्फ
एकाध काम!
चौबीस घण्टे
में एक काम
सिर्फ निष्काम
करके देखें।
छोटा—सा ही
काम, ऐसा
कि जिसका कोई
बहुत अर्थ
नहीं होता।
रास्ते पर
किसी को
बिलकुल
निष्काम
नमस्कार करके
देखें। उसमें
तो कुछ खर्च
नहीं होता!
लेकिन लोग
निष्काम
नमस्कार तक
नहीं कर सकते।
नमस्कार तक
में कामना
होती है।
मिनिस्टर है,
तो नमस्कार
हो जाता है।
पता नहीं कब
काम पड़ जाए? मिनिस्टर
नहीं रहा अब, 'एक्स' हो
गया, तो
कोई उसकी तरफ
देखता ही नहीं।
स्वयं
मिनिस्टर ही
अब नमस्कार
करता है। वह
इसलिए
नमस्कार करता
है कि फिर कभी
काम पड़ सकता
है। कामना के
बिना नमस्कार
तक नहीं रहा।
कम से कम
नमस्कार तो
बिना कामना के
करके देखें।
आप
हैरान हो
जाएंगे, अगर साधारण
से जन को भी, राहगीर को
भी, अपरिचित
को भी हाथ जोड़कर
नमस्कार कर
लें, बिना
कामना के, तो
भीतर तत्काल
पाएंगे कि
आनन्द की एक
झलक आ गयी—सिर्फ
नमस्कार ही
कोई बड़ा कृत्य
नहीं, कोई
बड़ी 'डीड'
नहीं। कुछ
नहीं, सिर्फ
हाथ जोड़े
निष्काम और
पाएंगे कि एक
लहर शान्ति की
दौड़ गयी। एक
अनुग्रह, एक
ईश्वर की कृपा
भीतर दौड़ गयी।
और अगर अनुभव
आने लगे तो
फिर बड़े काम
में भी निष्काम
होने की भावना
जगने लगेगी।
जब
इतने छोटे काम
में इतनी
आनन्द की पुलक
पैदा होती है, तो जितना
बड़ा काम होगा
उतनी बड़ी
आनन्द की पुलक
पैदा होगी।
फिर तो धीरे—
धीरे पूरा
जीवन निष्काम
होता चला
जायेगा।
3—पाप
कभी पुण्य से
नहीं कटता
यह प्रश्न
सनातन है, सदा ही
पूछा जाता रहा
है। बहुत हैं
पाप आदमी के, अनन्त हैं, अनन्त
जन्मों के हैं।
गहन है, लम्बी
है शृंखला पाप
की। इस लम्बी
पाप की शृंखला
को क्या ज्ञान
का एक अनुभव
तोड़ पायेगा? इतने बड़े
विराट पाप को
क्या ज्ञान की
एक किरण नष्ट कर
पायेगी? जो
नीतिशास्त्री
हैं, नीतिशास्त्री अर्थात
जिन्हें धर्म
का कोई भी पता
नहीं, जिनका
चिन्तन पाप और
पुण्य के ऊपर
कभी गया नहीं,
वे कहेंगे,
जितना किया
पाप उतना ही
पुण्य करना
पड़ा है। एक—एक
पाप को एक—एक
पुण्य से
काटना पड़ेगा,
तब बैलेंस,
तब ऋण— धन
बराबर होगा, तब हानि—लाभ
बराबर होगा और
व्यक्ति होगा।
जो नीतिशास्त्री
हैं 'मोरलिस्ट'
हैं, जिन्हें
आत्म—अनुभव का
कुछ भी पता
नहीं, जिन्हें
'बीइंग' का कुछ भी
पता नहीं, जिन्हें
आत्मा का कुछ
भी पता नहीं, जो सिर्फ 'डीड' का,
कर्म का
हिसाब—किताब
रखते हैं—वे
यही कहेंगे एक—एक
पाप के लिए एक—एक
पुण्य साधना
पड़ेगा। अगर
अनन्त पाप हैं
तो अनन्त पुण्यों
के अतिरिक्त
कोई उपाय नहीं।
लेकिन मैं
कहता हूं तब
मुक्ति
असम्भव है।
दो
कारण से
असम्भव है—एक
तो इसलिए
असम्भव है कि
अनन्त शृंखला
है पाप की और
अनन्त पुण्यों
की शृंखला
करनी पड़ेगी।
इसलिए भी
असम्भव है कि
कितने ही कोई
पुण्य करे, पुण्य
करने के लिए
भी पाप करने
पड़ते हैं।
एक
आदमी
धर्मशाला
बनाए, तो
पहले ब्रैक
माकेंट
करे। ब्रैक
माकेंट
के बिना
धर्मशाला
नहीं बन सकती।
एक आदमी
मन्दिर बनाए
तो पहले लोगों
की गर्दनें
काटे।
गर्दनें काटे
बिना मन्दिर
की नींव का
पत्थर नहीं पड़ता।
एक आदमी पुण्य
करने के लिए
कम से कम जियेगा
तो सही, और
जीने में ही
हजार पाप हो
जाते हैं—चलेगा
तो, हिंसा
होगी—उठेगा तो,
हिंसा होगी—बैठेगा
तो, हिंसा
होगी। आस भी
लेगा तो...
वैज्ञानिक
कहते हैं, एक श्वास
में कोई एक
लाख छोटे
जीवाणु नष्ट
हो जाते हैं।
बोलेगा तो... एक
बार ओंठ ओंठ
से मिला और
खुला, करीब
एक लाख
सूक्ष्म
जीवाणु नष्ट
हो जाते हैं।
किसी का
चुम्बन आप
लेते हैं, लाखों
जीवाणुओं का
आदान—प्रदान
हो जाता है।
कई मर जाते
हैं बेचारे।
जीने में ही
पाप हो जाएगा।
पुण्य करने के
लिए ही पाप हो
जाएगा।
तब तो
यह अनन्त
वर्तुल है, 'विशियस सर्किल' है,
दुष्ट चक्र
है, इसके
बाहर आप जा
नहीं सकते।
अगर पुण्य से
पाप को काटने
की कोशिश की
तो पुण्य करने
में पाप हो
जायेगा। फिर
उस पाप को
काटने की
पुण्य से
कोशिश की, फिर
उस पुण्य करने
में पाप हो
जायेगा। हर
बार पाप को
काटना पड़ेगा,
हर बार
पुण्य से
काटेंगे, और
पुण्य नये पाप
करवा जाएगा।
इस वर्तुल का
कभी अन्त नहीं
होगा। इसलिए
नैतिक
व्यक्ति कभी
मुक्त नहीं हो
सकता। नैतिक
दृष्टि कभी मुक्ति
तक नहीं जा
सकती। नैतिक दृष्टि
तो चक्कर में
ही पड़ी रह
जाती है।
एक
बहुत ही और
दृष्टि की बात—गहरी
दृष्टि की बात
जो भी जानते
हैं, वह
करेंगे। वे
कहेंगे अगर आप
सब पापियों
में भी सबसे
बड़े पापी हैं,
'द ग्रेटेस्ट
सिनर' — अस्तित्व
में जितने
पापी हैं, उनमें
सबसे बडे
पापी हैं, तो
भी ज्ञान की
एक घटना आपके
सब पापों को
क्षीण कर देगी।
क्या मतलब हुआ
इसका? इसका
मतलब यही हुआ
कि पाप की कोई
सघनता नहीं होती,
पाप की कोई 'डेंसिटी'
नहीं होती।
पाप है अंधेरे
की तरह।
एक घर
में अंधेरा है
हजार साल से, दरवाजे
बन्द और ताले
बन्द! हजार
साल पुराना अंधेरा
है और आप दीया
जलाएंगे, तो
अंधेरा कहेगा
क्या, कि
इतने से काम
नहीं चलेगा? आप हजार साल
तक दीये जलाए
तब मैं कटूगा।
नहीं, आपने
दीया जलाया कि
हजार साल
पुराना
अंधेरा गया।
वह यह नहीं कह
सकता है कि
मैं हजार साल
पुराना हूं।
वह यह भी नहीं
कह सकता कि
हजार सालों से
मैं बहुत सघन,
'क्लेस्ट'
हो गया हूं
इसलिए दीये की
इतनी छोटी—सी
ज्योति मुझे
नहीं तोड़ सकती।
हजार
साल पुराना
अंधेरा और एक
रात का पुराना
अंधेरा एक ही 'डेंसिटी'
के होते हैं
या कहना चाहिए
कि 'नो डेंसिटी'
के होते हैं,
उनमें कोई
सघनता नहीं
होती। अंधेरे
की पर्तें
नहीं होतीं, क्योंकि
अंधेरे का कोई
अस्तित्व
नहीं होता। बस
इधर आपने
जलायी तीली, अंधेरा गया—अभी
और यहीं!
हां, अगर कोई
अंधेरे को पोटलियों
में बांधकर
फेंकना चाहे
तो फिर मोरलिस्ट
का काम कर रहा
है, नैतिकवादी का। वह कहता
है जितना
अंधेरा है, बांधों
पोटली में, बाहर फेंककर
आओ। फेंकते
रहो टोकरी
बाहर और भीतर,
अंधेरा
अपनी जगह
रहेगा। आप चुक
जाओगे, अंधेरा
नहीं चुकेगा।
ध्यान
रहे, पाप
को पुण्य से
नहीं काटा जा
सकता।
क्योंकि
पुण्य भी
सूक्ष्म पाप
के बिना नहीं
हो सकता। पाप
को तो सिर्फ
ज्ञान से काटा
जा सकता है, क्योंकि
ज्ञान बिना
पाप के हो
सकता है।
ज्ञान
कोई कृत्य
नहीं है कि
जिसमें पाप
करना पड़े, जान
अनुभव है।
कर्म बाहर है,
ज्ञान भीतर
है। ज्ञान तो
ज्योति के
जलने जैसा है—जला
कि सब अंधेरा
गया। फिर तो
ऐसा भी पता
नहीं चलता कि
मैंने कभी पाप
किये थे; क्योंकि
जब 'मैं' ही चला जाए
तो सब खाते—बही
भी उसी के साथ
चले जाते हैं,
फिर आदमी
अपने अतीत से
ऐसे ही मुक्त
हो जाता है
जैसे सुबह
सपने से मुक्त
हो जाती है।
कभी
आपने ऐसा सवाल
नहीं उठाया कि
जब सुबह हम उठते
हैं, रातभर
का सपना देखकर
और जरा—सा किसी
ने हिलाकर उठा
दिया, तो
इतने से
हिलाने से रातभर
का सपना कैसे
टूट सकता है? जरा—सा किसी
ने हिलाया, पलक खुली, सपना गया!
फिर आप यह
नहीं कहते कि
रातभर इतना सपना
देखा, अब
सपने के विरोध
में इतना ही
यथार्थ
देखूंगा तब
सपना मिटेगा।
बस सपना टूट
जाता है! पाप
सपने की भांति
है।
ज्ञान
की जो
सर्वोच्च
घोषणा है वह यह
है कि पाप स्वप्न
की भांति है, पुण्य भी स्वप्न
की भांति है।
और सपने सपने
से नहीं काटे
जाते। सपने सपने से
काटेंगे तो भी
सपना देखना
जारी रखना
पड़ेगा। सपने सपने से
नहीं कटते
क्योंकि
सपनों को सपने
से काटने में
सपने बढ़ते हैं।
और सपने
यथार्थ से भी
नहीं काटे जा
सकते।
क्योंकि झूठ
है, वह सच
से काटा नहीं
जा सकता। जो
असत्य है वह
सत्य से काटा
नहीं जा सकता।
वह इतना भी तो
नहीं है कि
काटा जा सके।
वह सत्य की
मौजूदगी पर
नहीं पाया
जाता है, काटने
को भी नहीं
पाया जाता है।
इसलिए
कृष्ण भी कहते
हैं कि कितना
ही बड़ा पापी
हो तू सबसे
बड़ा पापी हो
तू तो भी मैं
कहता हूं
अर्जुन, कि जान की एक
किरण तेरे
सारे पापों को
सपनों की
भांति बहा ले
जाएगी। सुबह
जैसे कोई जाग
जाता है वैसे
ही रात समाप्त,
सपने
समाप्त, सब
समाप्त! जागे
हुए आदमी को
सपनों से कुछ
लेना—देना
नहीं रह जाता।
इसलिए
जब पहली बार
भारत के ग्रंथ
पश्चिम में
अनुवादित हुए
तो उन्होंने
कहा, यह
ग्रंथ तो 'इम्मारल' मालूम होता
है, अनैतिक
मालूम होता है।
खुद शोपेनहार
को चिन्ता हुई—मनीषि था, चिन्तक था
गहरा, उसको
खुद चिन्ता
हुई कि ये किस
तरह की बातें
है। ये कहते
हैं, एक
क्षण में कट
जायेंगे पाप।
क्रिश्रियनिटी कभी भी
नहीं समझ पायी
इस बात को, ईसाइयत
कभी नहीं समझ
पायी इस बात
को कि एक क्षण
में पाप कैसे
तिरोहित
होंगे? क्योंकि
ईसाइयत ने पाप
को बहुत भारी
मूल्य दे दिया,
बहुत
गम्भीरता से
ले लिया। सपने
की तरह नहीं, असलियत की
तरह ले लिया।
ईसाइयत के ऊपर
पाप का भार
बहुत गहरा है,
'बर्डन'
बहुत गहरा
है।’ ओरिजिनल
सिन', एक—एक
आदमी का पाप
तो है ही, पर
उससे पहले
आदमी ने जो
पाप किया था
वह भी सब आदमियों
की छाती पर है।
उसको काटना
बहुत मुश्किल
है।
इसलिए क्रिश्रियनिटी
'गिल—रिडन' हो
गयी, अपराध
का भाव भारी
हो गया। और
पाप का कोई छुटकारा
दिखायी नहीं
पड़ता। कितना
ही पुण्य करो
उससे छुटकारा
नहीं दिखायी
पड़ता। इसलिए
ईसाइयत गहरे
में जाकर
रुग्ण हो गयी।
जीसस को नहीं
था यह खयाल, लेकिन
ईसाइयत जीसस
को नहीं समझ
पायी, जैसा
कि सदा होता
है।
हिंदू
कृष्ण को नहीं
समझ पाए, जैन महावीर
को नहीं समझ
पाए, न
समझने वाले।
समझने का जब
दावा करते हैं
तो उपद्रव
शुरू हो जाता
है। जीसस ने
कहा— 'सीक यी फर्स्ट
द किंगडम आफ
गाड एण्ड आल एल्स शैल
बी एडेड
अन टू यू।
जीसस ने कहा, सिर्फ प्रभु
के राज्य को
खोज लो और शेष
सब तुम्हें
मिल जाएगा।
वही जो कृष्ण
कह रहे हैं कि
सिर्फ प्रकाश
की किरण को
खोज लो और शेष
सब, जो तुम
छोड़ना चाहते
हो छूट जाएगा,
जो तुम पाना
चाहते हो मिल
जाएगा।
भारतीय
चिन्तन 'इम्मारल'
नहीं है, 'ए मारल' है—अनैतिक
नहीं है, अतिनैतिक है, 'सुपर
मारल' है—नीति
के पार जाता
है, पुण्य—पाप
के पार चला
जाता है!
4—धर्म
संस्थापनार्थाय:
धर्म नष्ट
कभी नहीं होता, कुछ भी
नष्ट नहीं
होता। धर्म तो
नष्ट होगा ही
नहीं, लेकिन
लुप्त होता है।
लुप्त होने के
अर्थों में
नष्ट होता है।
इसलिए उसकी
पुनर्स्थापना
की निरंत्तर
जरूरत पड़ जाती
है। उसकी पुनर्प्रतिष्ठा
की निरंत्तर
जरूरत पड़ जाती
है। जैसे धर्म
कभी
अस्तित्वहीन
नहीं होता
वैसे ही अधर्म
कभी
अस्तित्ववान
नहीं होता।
लेकिन बार—बार
फिर भी उस
अस्तित्वहीन
अधर्म को
हटाने की जरूरत
पड़ जाती है।
इसे थोड़ा
समझें—क्योंकि
बड़ी उल्टी बात
मालूम पड़ेगी।
जो धर्म कभी
नष्ट नहीं
होता उसकी
संस्थापना की
क्या जरूरत है?
और जो अधर्म
कभी होता नहीं,
उसके
मिटाने की भी
क्या जरूरत है।
लेकिन ऐसा है!
अंधेरा
है— अंधेरा है
नहीं, रोज
मिटाना पड़ता
है, और है
बिलकुल नहीं!
अंधेरे का कोई
अस्तित्व नहीं
है। अंधेरा 'एक्जिस्टेंशियल'
नहीं है, अंधेरा कोई
चीज नहीं है—फिर
भी है। यह मजा
है, यह पैराडाक्स
है जिन्दगी का
कि अंधेरा है
नहीं, फिर
भी है! काफी है,
घना होता है,
डरा देता है,
प्राण कंपा
देता है और है
नहीं! अंधेरा
सिर्फ प्रकाश
की
अनुपस्थिति
है—सिर्फ 'एब्सेंस' है।
जैसे
कमरे में आप
थे और बाहर
चले गए तो हम
कहते हैं, अब आप
कमरे में नहीं
हैं। अंधेरा
इसी तरह है।
अंधेरे का
मतलब इतना ही
है कि प्रकाश
नहीं है।
इसलिए अंधेरे
को तलवार से
काट नहीं सकते,
अंधेरे को
गठरी में
बांधकर फेंक
नहीं सकते।
दुश्मन के घर
में जाकर
अंधेरा डाल
नहीं सकते।
अंधेरा घर के
बाहर निकालना
हो तो धक्का
देकर निकाल नहीं
सकते।’सब्सटेंशियल'
नहीं है, अंधेरे में
कोई 'सब्सटेंस'
नहीं है। कण्टेंट
नहीं है, अंधेरे
में कोई वस्तु
नहीं है।
अंधेरा
अवस्तु है— 'नो थिंग,
नथिंग'!
अंधेरे में
कुछ है नहीं, लेकिन फिर
भी है। इतना
तो है कि डरा
दे, इतना
तो है कि कंपा
दे! इतना तो है
कि गड्डे
में गिरा दे, इतना तो है, हाथ—पैर टूट
जाएं!
यह बड़ी
मुश्किल की
बात है कि जो
नहीं है उसके
होने से आदमी गड्डे में
गिर जाता है।
यह कहना नहीं
चाहिए
क्योंकि
एब्सर्ड है।
जो नहीं है
उसके होने से
आदमी गड्डे
में गिर जाता
है। जो नहीं
है उसके होने
से हाथ—पैर
टूट जाते हैं, जो नहीं
है उसके होने
से चोर चोरी
कर ले जाते हैं,
जो नहीं है
उसके होने से
हत्यारा
हत्या कर लेता
है। नहीं तो
है बिलकुल, वैज्ञानिक
भी कहते हैं, नहीं है!
उसका कोई
अस्तित्व
नहीं है।
अस्तित्व
है प्रकाश का।
जिसका
अस्तित्व हो
उसको रोज जाना
पड़ रहा है।
रोज सांझ दीया
जलाओ, न
जलाओ तो
अंधेरा खड़ा है।
तो कृष्ण कहते
हैं, संस्थापनार्थ— धर्म की
संस्थापना के
लिए, दीये
को जलाने के
लिए, अधर्म
के अंधेरे को
हटाने के लिए—
अधर्म जो नहीं
है, धर्म
जो सदा है..!
सूरज
स्रोत है
प्रकाश का।
अंधेरे का
स्रोत पता है, कहां है?
कहीं भी
नहीं है। सूरज
से आ जाती है
रोशनी।
अंधेरा कहां
से आता है? — 'फ्रोम नो हेयर',
कोई 'सोर्स'
नहीं है।
कभी आपने पूछा,
अंधेरा
कहां से आता
है? कौन
डाल देता है
इस पृथ्वी पर
अंधेरे की
चादर? कौन
आपके घर को
अंधेरे से भर
देता है।
स्रोत नहीं है
उसका, क्योंकि
है ही नहीं
अंधेरा।
जब
सुबह सूरज आ
जाता है तो
अंधेरा कहां
चला जाता है? कहीं सिकुड़कर
छिप जाता है? कहीं नहीं सिङ़ता, कहीं नहीं
जाता। है ही
नहीं, कभी
था नहीं!
अंधेरा कभी
नहीं है, फिर
भी रोज उतर
आता है।
प्रकाश सदा है,
फिर भी रोज
सांझ जलाना
पड़ता है और
खोजना पड़ता है।
ऐसे ही
धर्म और अधर्म
है। अंधेरे की
भांति है
अधर्म, प्रकाश की
भांति है धर्म।
प्रतिदिन
खोजना पड़ता है।
युग—युग में, कृष्ण कहते
हैं, लौटना
पड़ता है। मूल
स्रोत से धर्म
को फिर वापस
पृथ्वी पर लौटना
पड़ता है।
सूर्य से फिर
प्रकाश को
वापस लेना
पड़ता है। यद्यपि
जब प्रकाश
नहीं रह जाता
सूर्य का तो
हम मिट्टी के
दीये जला लेते
है। कैरोसिन
की कंदील जला
लेते है। उससे
काम चलाते हैं,
लेकिन काम
नहीं चलता है।
कहां सूरज, कहां कंदील?
बस काम चलता
है!
तो जब
कृष्ण जैसे
व्यक्तित्व
नहीं होते
पृथ्वी पर तब
छोटे—मोटे
दीये, कंदीलें कैरोसिन
की, जिनसे धुआं
काफी निकलता
है, रोशनी
कम ही निकलती
है, उनसे
भी काम चलाना
पड़ता है।
तथाकथित साधु—सन्तों की
भीड़ ऐसी ही है—कैरोसिन
आइल, मिट्टी
का तेल—मगर
रात में बड़ी
कृपा उनकी।
थोड़ी—सी तथा
धीमी, दो
चार दस फीट पर
रोशनी पड़ती
रहती है उनकी।
लेकिन बार—बार
अंधेरा सघन हो
जाता है और
बार—बार करुणावान
चेतनाओं को
लौट आना पड़ता
है, जो आकर
फिर सूरज से
भर देती हैं।
कई बार
ऐसा भी होता
है कि सूरज
जैसी चेतनाओं
को आमने—सामने
नहीं देखा जा
सकता। आपने
कभी खयाल किया
कि सूरज को
कभी आप आमने—सामने
नहीं देखते।
दीये को मजे
से देखते हैं।
इसलिए साधु—संतों
से सत्संग
चलता है।
कृष्ण जैसे
लोगों के आमने—सामने
मुश्किल हो
जाती है।’एन्काउण्टर ' हो जाता
है, तो
झंझट हो जाती
है। कई दफा तो आंखें
चौंधिया जाती
है। सूरज की
तरफ देखें तो
रोशनी कम
मिलेगी, आंखें
बन्द हो जायेंगी,
अंधेरा हो
जाएगा।
सूरज को
आदमी तभी
देखता है जब
ग्रहण लगता है, अन्यथा
नहीं देखता
कोई। यह बड़े
मजे की बात है,
ग्रहण लगे
सूरज को लोग
देखते हैं।
पागल हो गये
हैं? सूरज
बिना ग्रहण के
रोज अपनी पूरी
ताकत से मौजूद
है, कोई
नहीं देखता।
क्या बात है? ग्रहण लगने
से थोड़ा भरोसा
आता है कि हम
भी देख सकते
हैं, थोड़ा
सूरज कम है, अधूरा है।
शायद अब जोर
से हमला नहीं
करेगा।
इसलिए
कृष्ण जैसे
व्यक्तियों
को कभी भी
समझा नहीं
जाता; हमेशा
'मिस—अष्ठरस्टैड'
किया जाता
है। और जिनको
आप समझ लेते
हैं—समझ लेना,
वे कैरोसिन
की कन्दील
हैं। अपने घर
में जलायी—बुझायी,
अपने हाथ से
बत्ती नीची—ऊंची
की। जब जैसी
चाही, वैसी
की। जिनको आप
समझ पाते हैं,
समझ लेना कि
घर के मिट्टी
के दीये हैं।
जिनको आप कभी
नहीं समझ पाते,
आंखें
चौंधिया जाती
है, हजार
सवाल उठ जाते
हैं, मुश्किल
पड़ जाती है, तो समझना कि
सूरज उतरा है।
इसलिए
कृष्ण को हम
अभी तक नहीं
समझ पाए, न क्राइस्ट
को समझ पाए, न बुद्ध को, न महावीर को,
न मुहम्मद
को। इनमें से
हम किसी को
नहीं समझ पाते।
इस तरह के
व्यक्ति जब भी
पृथ्वी पर आते
हैं, हमारी
आंखें
चौंधिया जाती
हैं, जब वह
हट जाते है—जब आंख
के सामने नहीं
रहते तब हम
अपने—अपने
मिट्टी के
दीये जलाकर
समझने की
कोशिश करते
हैं।
पुन:
संस्थापना के
लिए नष्ट नहीं
होता धर्म कभी, खो जरूर
जाता है।
अधर्म कभी
स्थापित नहीं
होता, छा
जरूर जाता है।
ऐसा समझ में आ
सके तो ठीक है!
‘अमृत—
वाणी'
से
संकलित सुधा—
बिंदु 1971—71
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