मार्ग की अनुभुतिया-( मेहेराबाद महाराष्ट्र)
भाग-01
पूना का एक माह का आवास काल अति सुंदर रहा।
तब बेटी ने कहां की पापा आप ध्यान में जो ठहराव मिला है उसे गहरे जाने के लिए आप मेहेराबाद
चले जाये तो अति उत्तम होगा। हम आप की वहां की बुकिंग करा देते हे। मैं इससे पहले
मेहेराबाद कभी नहीं आया था। पूना के पास ही है, करीब
125 किल मीटर होगा। पूना से अमरावती जाने
वाली ट्रेन जो 11-20 पर चलती है। और मैं एक बज कर 20 मिनट पर मेहेराबाद पहुंच गया।
वहां से आटो ले कर। MPR (मेहर पिल ग्राम रिट्रीट) ये रेहने के लिए नया
स्थान बनाया है। वैसे पुराना जो पूना हाईवे से सटा है। जहां पहले महर बाबा रहते
थे। उसे मेहेराबाद कहते है। सड़क से इसकी दूरी 8-9 किलोमीटर है। परंतु अंदर से अगर
आओ तो केवल दो किलोमीटर है। परंतु सामान के साथ तो आपको बाहर से ही आना होगा।
दफ्तर में पहुंचने पर वहां काम करने वाले मित्र ने कहां की आपका खाना रखा है। पहले आप खाना खाकर आये बाद में आप दफ्तर का काम करे। व्यवहार बहुत मधुर था वहां के लोगों का। मैंने आठ दिन के पैसे दे दिये। 400+300 खाने के। खाने में सुबह नाश्ता चाय। दोपहर का नाश्ता श्याम की चाय और रात का खाना। खाना यहां का बहुत सुस्वाद है। तीन चार तरह की सब्जियां, दो-तीन तरह का सलाद।
उबली हुई कम मिर्च मशालें की सब्जी, दो-तीन प्रकार की रोटी, गेहूं की, ज्वार की मक्का या बाजरे की। चावल, छाछ आदि इतना है जैसे बारात में बुफे लगा हो। और आश्रम का भवन भी अति सुंदर कलात्मकता लिए हुआ था। गजब की इंजीनियरिंग थी। उसे देखते ही मैं समझ गया कि ये किसी अंग्रेज इंजीनियर का बनाया हुआ नक्शा है। एक सुंदर कमरा मुझे मिला उस में वो सब था जिस की एकांत के लिए मनुष्य को जरूरत है। सबसे अच्छा लगा एक टेबल और टेबल लेम्प क्योंकि पूना आवास में जो कमरा था उस में प्रकाश बहुत कम था इस लिए न तो वहां पढ़ने में सुविधा थी और न ही लिखने में। इस लिए पूना आवास के वो अनुभव मैं ध्यान खत्म होने के बाद तरण ताल पर एक पैड़ की छांव में बैठ कर लिखे थे।मेहेर बाबा के विषय में पहले अधिक पढ़ा नहीं
था। परंतु इतना पता था की उनकी एक पुस्तक ओशो की उन सौ पुस्तकों में एक थी जो उन्हें
प्रिय थी। ‘गॉड स्पीक्स’ सच ओशो
से जुड़ने के बाद जितने संतों को हमने जाना है, उतने गहरे के
तो उनके खूद को अनुयायी भी नहीं जानते होंगे। ओशो से जुड़ने के बाद हमारे जीवन में
संतों का एक विशाल सागर खुल गया।
‘मैं कोई सम्प्रदाय, समाज अथवा संगठन स्थापित नहीं करने आया हूं। और ये भी समझ लो की न मैं कोई
नया धर्म ही स्थापित करने के लिए आया हूं। जो धर्म में प्रदान करूंगा वह अनेक के पीछे
एक ज्ञान की शिक्षा देता हे। जो किताब मैं लोगों को पढ़ाऊंगा वह ह्रदय की किताब होगी।
जिसके हाथ में रहस्य की कुंजी होगी। मैं मन और ह्रदय का आनंददायी मेल कर दूंगा। मैं
सब धर्मों और सम्प्रदायों में नया जीवन डाल दूंगा। और
उनको एक धागे में पिरोई हुई गुरियों के समान एक साथ पिरो दूंगा’
मेहेर बाबा
संतों की भाषा और जीवन को जब हम पढ़ते और जानते
है और उनके जाने के बाद जब उनके अनुयायियों को देखते है तो कितना विभेद रहता है। जो
वो कहना याद बतलाना चाहते है वो हम या तो समझ नहीं पा रहे या हम में उस मार्ग पर चलने
का साहस नहीं होता।
मेहेर बाबा तो मौन हो गए। और अपने अंतिम दिनों
तक यानि करीब चालीस साल शरीर छोड़ने तक मौन ही रहे। उनके जो भी वचन हम पढ़ रहे है वह
तो उन्होंने एक इशारे की भाषा में ही लिखा है। अब मैं हो सकता हूं गलत हूं परंतु जो
वह कहना चाहते थे। मेरी समझ में ये नहीं आया की वह इशारे की बजाये अगर खुद भी तो लिख
सकते थे। तब वो वचन ज्यादा सत्य के करीब होते। अब उनके जो शब्द में टाईप कर रहा हूं
उनमें भी कुछ तो छूट ही जाता है। खेर न तो बहुत अच्छा है जो किसी माध्यम से हमारे सामने
आया वह बहुत कीमती हे।
इस लिए वहां काफी समय था अध्ययन करने का और वहां
पर मेहेर बाबा की पुस्तकों की एक लाईब्रेरी भी जिससे आप पुस्तक ला कर पढ़ सकते थे।
इस लिए मैंने उस समय का सद उपयोग किया।
मेहर बाबा ने अगस्त 1953 में देहरादून ,
भारत में वर्णमाला बोर्ड के माध्यम से एरुच जेसवाला को ईश्वर की
बातें सुनाना शुरू किया । हर दिन जेसवाला को अंक सुनाए जाते थे, जो उन्हें नोट कर लेते थे और रात में उन्हें लिख देते थे। अगले दिन एरुच
बाबा को पढ़कर सुनाते थे कि उन्होंने क्या लिखा है। यह श्रुतलेख महाबलेश्वर और बाद
में सतारा में भी कई महीनों तक जारी रहा ।
अक्तूबर 1954 में,
बाबा ने अपना वर्णमाला बोर्ड त्याग दिया और तब से केवल हाथ के
इशारों का उपयोग करना शुरू कर दिया। [ "ईश्वर की दस अवस्थाएँ" शीर्षक
वाला अध्याय एरुच जेसवाला द्वारा मेहर बाबा की प्रत्यक्ष देखरेख में लिखा गया था,
जिसमें मेहर बाबा द्वारा तैयार किए गए एक मूल आलेख का वर्णन और
व्याख्या की गई थी। [ यह और निष्कर्ष जेसवाला द्वारा नोट्स के विस्तार में लिखे गए
थे, और मेहर बाबा द्वारा सीधे लिखे गए पिछले अनुभागों का
पुनर्कथन हैं।
जब बिंदुओं की श्रुतलेखिका पूरी हो गई और
एरुच ने बाबा की संतुष्टि के अनुसार इन पर काम कर लिया,
तो फेरम वर्किंग बॉक्सवाला और भाऊँ कलचुरी ने एरुच के हस्तलिखित
पृष्ठों की टाइपिंग का समन्वय किया। कलचुरी पुस्तक को अध्यायों में विभाजित करने
के लिए भी आंशिक रूप से जिम्मेदार थे।
मई 1965 में, बाबा
ने गॉड स्पीक्स की शब्दावली की जाँच की और उसमें सुधार किया , जिसे लुड डिम्पफ्ल ने तैयार किया था। बाल नटू हर शब्द और उसके अर्थ को
पढ़ता था और जब आवश्यकता होती थी, तो बाबा एक बिंदु को सही
कर देते थे।
सच ही एक चमत्कार भरी पुस्तक हे। जिसे केवल गूढ़
रहस्यों में बतलाया गया है। इसे केवल ध्यान की कुंजी से ही समझा जा सकता हे।
मेहर बाबा का जन्म 1894 में पुणे ,
भारत (पूर्व में पूना) में ईरानी पारसी माता-पिता के घर हुआ था।
उनका नाम मेरवान शेरियार ईरानी रखा गया, जो शेरियार ईरानी और
शिरीन ईरानी के दूसरे बेटे थे। शेरियार ईरानी खुर्रमशहर के एक फ़ारसी पारसी थे
जिन्होंने पुणे में बसने से पहले आध्यात्मिक अनुभवों की तलाश में कई साल भटकते रहे
थे।
19 वर्ष की आयु में,
मेहर बाबा ने आध्यात्मिक परिवर्तन की सात साल की अवधि शुरू की ,
जिसके दौरान उनकी मुलाकात हजरत बाबा जान, उपासनी
महाराज , शिरडी के साईं बाबा , ताजुद्दीन
बाबा और नारायण महाराज से हुई। 1925 में, उन्होंने मौन की 44
साल की अवधि शुरू की, जिसके दौरान उन्होंने पहले वर्णमाला
बोर्ड का उपयोग करके और 1954 तक पूरी तरह से एक दुभाषिया का उपयोग करके हाथ के
इशारों के माध्यम से संवाद किया। मेहर बाबा की मृत्यु 31 जनवरी 1969 को हुई और
उन्हें मेहरा बाद में दफनाया गया। उनकी कब्र, या "
समाधि ", उनके अनुयायियों के लिए तीर्थ स्थान बन गई है,
जिन्हें अक्सर "बाबा प्रेमी" के रूप में जाना जाता है। अगले
कई वर्षों में, उनकी मुलाकात अन्य आध्यात्मिक हस्तियों से
हुई, जैसे कि ताजुद्दीन बाबा , नारायण
महाराज और शिरडी के साईं बाबा , जिनके बारे में बाबा ने बाद
में कहा कि वे बाबा जान और उपासनी महाराज के साथ उस युग के पाँच "पूर्ण
गुरु" थे। 1922 की शुरुआत में, 27 वर्ष की आयु में,
बाबा ने अपने शिष्यों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया। उन्होंने उन्हें मेहर बाबा नाम दिया , जिसका अर्थ है "दयालु पिता"।
1922 में मेहर बाबा और उनके अनुयायियों ने
मुंबई में मंज़िल-ए-मीम (गुरु का घर) की स्थापना की । वहाँ,
बाबा ने अपने शिष्यों से सख्त अनुशासन और आज्ञाकारिता की माँग करने
का अपना अभ्यास शुरू किया। एक साल बाद,
बाबा और उनकी मंडली अहमदनगर से कुछ मील दूर एक क्षेत्र में चले गए,
जिसका नाम उन्होंने मेहेराबाद (आशीर्वाद का बगीचा) रखा। यह आश्रम
उनके काम का केंद्र बन गया। 1920 के दशक के दौरान, मेहर बाबा
ने मेहरा बाद में एक स्कूल, अस्पताल और औषधालय खोला, जो सभी जातियों और धर्मों के लिए निशुल्क और खुले थे।
(क्रमशः: अगले अंक में.......)
मनसा-मोहनी दसघरा
ओशोबा हाऊस नई दिल्ली
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