मार्ग की मधुर यादें-( मेहेराबाद महाराष्ट्र)
आज जो (एम पी आर) मेहेराबाद बना है, आजादी से पहले वहां पर पहले अंग्रेजों की छावनी हुआ करती थी। परंतु आजादी के बाद सरकार ने इसे मेहर बाबा को उपहार स्वरूप दे दिया। क्योंकि ये जमीन पुराने मेहेराबाद से एक दम से सटी है। जो एक दम से वीरान थी। वहां न कोई पेड़ पौधा ही उकता था। पानी की वहां हमेशा करम रहती है। बरसात भी वहां कम ही होती है। इन दोनों के बीच से पूना रेल व हाईवे गुजरता है। अब जिसके नीचे से एक सुंदर पथ मार्ग बना दिया है। इस MPR (मेहर पिल ग्राम रिट्रीट) से पुराने मेहेराबाद आप बीच अंदर से भी जा आ सकते है। वैसे तो पूरा मेहेर बाबा का आश्रम कई किलोमीटर में फैला हुआ है। परंतु जहां मेहेर बाबा की समाधि है वह दोनों आश्रमों की एक दम से मध्य में है। परंतु चाहे नया हो या पुराना दोनों ही अति सुंदर कलात्मक शांति अपने में समेटे हुए है। पुराने मेहरा बाद में करीब रहने खाने का 250 रूपये ही लगते हे। इसलिए अगर देखे तो पुराने मेहेराबाद उर्जा क्षेत्र ध्यान के लिए अति गहरी है। क्योंकि समाधि के पास या पुराने मेहेराबाद में ही अधिक दिनों तक भगवान मेहर बाबा रहे थे। मुझे तो वहां का एक-एक स्थान उर्जा से लवरेज हे। आप कहीं भी एकांत जंगल में बैठ जाये आप अचानक गहरे ध्यान में डूबने लग जाओगे।
मेरा बचपन मेरे गांव के पास जो अरावली का
जंगल था उस में बहुत अधिक गुजरा है। बचपन से ही मुझे प्रकृति के संग-साथ जीने का
आनंद आने लगा था। स्कूल की छूटी के बाद हमारा और कोई काम नहीं होता था। गांव के
पास के जंगल में चले जाते थे। सच अरावली पर्वत माला जिस पर हमारा गांव बसा है।
जितनी जड़ी बूटियां या जंगली फल मैंने देखे है उतने आज तक किसी दूसरे स्थान पर
नहीं देख पाया। चाहे हिमालय हो अरूणाचल पर्वत माला वहां जो झाड़ या जंगली फल मिलते
थे। वह समय और स्थान को पार कर अपना रंग रूप और स्वाद बदले हुए ही मिले है। हमारे
यहां हर समय के अनुसार से जो भी फल हम ढूंढ ही लेते थे। सर्दी गर्मी हो या बरसात
हर मौसम में लगे उन्हें खूब चाव से खाते थे। अधिक तर तो वो अपने अंदर सम्पूर्ण पौष्टिकता
लिए होते थे। आज जब देखता हूं तो उन में से अधिक को तो की जड़ी बूटी ही समझा जाता
है। हर मौसम में फलों से अरावली जंगल लवरेज रहती थी। मनुष्य के लिए ही नहीं वहां
रहने वाले पशु पक्षियों के लिए भी। कभी जंगली, बेर,
धौल फुल्ली, काली मेवा, राम
चना, गिलोट.....और उस पर सबसे सोने पर सुहागा होता था वहां
के जलाशय जिसे में हम घंटों नहाते और खेलते रहते थे। तैरना भी अपने आप में एक अनोखा
ध्यान है। उन लम्बें चौड़े जलाशयों में कभी-कभी तो कोई सांप भी हमारे पास से गुजर जाता
था। हमारी दिल्ली की अरावली पर्वत माला को नाग नगरी भी कहा जाता है। जहां दुनिया से
अति खतरनाक सांप पाये जाते हे। पांडव ने जब यहां इंद्रप्रस्थ बसाया था तब भी कितने
ही हजारों आदि वासी और सांपों को मौत के घाट उतार दिया था। कहते है की अंग्रेजों ने
जब 1913 में बंगाल से राजधानी को दिल्ली लाये थे तब भी उन्होंने हजारों सांपों को मारा
या मरवाया गया था। एक सांप के बदले में वह एक रूपये देते थे। ये प्रकृति के साथ अन्याय
है। परंतु हम देखते थे की इतने सांप होने पर भी आज तक किसी भी सांप ने हमें या हमारे
साथी को नहीं काटा था। मां कहती थी की हमारे यहां का सांप अति शांत हे। बहुत मजबूरी
में डसता है। हमारे घर में तो अभी यानि 1985 तक भी कभी-कभी सांप निकल आते थे। क्योंकि
हमारे पुराने मकान पत्थरों के होते थे। उस समय न तो पैरों में जूते ही होते थे और
न ही चप्पल हम तो पांचवी कक्षा तक स्कूल में बिना जूते चप्पल के ही जाते थे। आज जब
पीछे मुड कर देखता हूं तो लगता है। नंगे पाव चलना भी एक साधना है। आप को बहुत होश
रखना पड़ता है। सुविधा हमें सुख साधन तो देती है परंतु इसके साथ-साथ छीन लेती है
हमारा होश हम बेहोश होते चले जाते हे।
तपती रेत पर जब आग बरसाता सूरज सर पर होता
था। तो कैसे एक पेड़ से दूसरे पेड़ तक दौड़ कर हम मित्र लोग पहुंचते थे। तब जाकर वहां
की ठंडी रेत पैरों को कितना आराम और कितना आनंद मिलता था। ये सब हमारे खेल का ही
एक अंग होता था। कभी गिली मिट्टी में
पैरों डूबो लेते और फिर दौड़ते जलते रेत पर। वह एक प्रकार से हमारे जुतो का कार्य
करते थे। अब उस सब को गुजरे सालों हो गया था। परंतु मेहेराबाद के इस सुंदर एकांत में
मेरा वही बचपन लोट आया। एक तो पूना का एकांत वास और ध्यान फिर यहां पर प्रकृति का
संग सच ही मन और तन को वहीं सालों पीछे लोटा ले गया।
कोई लोटो दो मेरे बीत हुए दिन...
बीते हुए दिन वो प्यारे पल क्षण।
बिन मांगे वो सब मिल रहा था। यहां न मेरे
पास समय की कमी थी। और ने कोई भी बंधन। एक दम से स्वछंद था। न कोई रोकने वाला न
कोई टोकने वाला। एक सम्पूर्ण स्वछंदता। कितनी मधुर होती है ये स्वतंत्रता। इन कुछ दिनों
के लिए मानो में मन से ही नहीं तन से भी बच्चा हो गया। जब तक थक नहीं जाता था
आवारा की तरह से धूप छांव की परवाह किए बिना घुमता ही रहता था। या उसे आवारगी या भटकना
भी कहें तो अति उत्तम होगा। ये मेरा हर रोज का नियम था। सुबह का नाश्ता करने के
बाद में करीब दो तीन घंटे आश्रम के बाहर के जंगल के एकांत में घूमता ही रहता था।
वहां नीम,
शीशम, इमली....अमल ताश का पूरा जंगल उगाया हुआ
था। कहते थे मेहेर बाबा के समय पर यहां सब जंगली झाड़ ही होते थे। परंतु अब उसे हरा
भरा बनाया जा रहा है। पानी की जो कमी थी वहां तालाब खोदे जा रहे है। जिससे पेड़ पौधों
की सिचाई की जाती है। सच जो पूना में रस भरा था जीवन में उसे बूंद-बूंद मैं पी रहा
था।
MPR (मेहर पिल ग्राम रिट्रीट) से मेहेर बाबा की समाधि करीब एक या दो किलो मीटर
पर ही थी। बीच में एक सुंदर कच्चा रास्ता बना हुआ था। बीच-बीच में बैठने के लिए इंटों
के बेंच भी बना रखे थे। कच्ची मिटी पर चलना अपना एक अलग ही अनुभव होता है। वहां आपके
घूटनों पर बहुत कम जोर पड़ता है। समाधि पर
सुबह और श्याम सात बजे रोज आना आरती होती थी। हम और कुछ कर भी नहीं सकते हे। केवल
लकीर ही तो पीट सकते है। वैसे भी मेहेर बाबा ने कोई ध्यान की विधि तो बतलाई नहीं।
इस लिए अब उनके अनुयायी और कर भी क्या सकते है। परंतु ओशो एक मात्र ऐसे इस युग में
गुरु हुए है जहां जाकर आप ध्यान की विधि को जान और उसमें डूब सकते हो। फिर आप कहीं
भी जाकर ध्यान में डूब सकते हो। अब मैं रमण आश्रम, या अरविंदों
या किसी भी दूसरे आश्रम या एकांत में जाता हूं तो वहाँ सब से मुझे ध्यान में जाने
में बहुत सहयोग मिलता है। इस लिए ओशो के सन्यासी जो ध्यान को जान या समझ सके है
आपको हर जगह से ध्यान में उतरने की कला को जान जाते हे। और आप को हर सुंदर जगह पर ओशो
सन्यासी मिलेंगे। क्योंकि ओशो ने संतों में भेद नहीं किया बस मार्ग भिन्न है चलने का
स्थान भिन्न हो सकता है। परंतु मंजिल तो एक ही है।
वह एक प्रकार से ओशो का सन्यासी रेत में से
भी तेल को निकालने की कला को जान गये है। फिर चाहे भीड़ हो या एकांत या जंगल वह हर
जगह ध्यान में उतर सकने के मार्ग से परिचित हो जाता हे। और खास कर ऐसे पवित्र और शांत
स्थान तो आपको और भी अधिक सहयोग देते हे। प्रकृति के इतने नजदीक आवारगी मुझे एक
नये ही आयाम लिये जा रही थी। मैं एक दम से पूर्ण स्वतंत्र था जैसे बचपन में। कब
कहां जाना, क्या खाना इस सब से मुक्त था। वरना कोई
भी साथ होता है तो उसके लिए भी बहुत समय जीवन का देना होता है। साधक को साल में
कभी-कभी अपने लिए पूर्ण एकांत में चले जाना चाहिए ताकि वह अपने पर पूर्ण कार्य कर
सके।
अब यहां की मेरी दिनचर्या एक दम से भिन्न
थी। पूना आवास और यहां के आवास में दिन रात का भेद था। हालांकि पूना आवास से जो
मार्ग खूला वह अब यहां आनंद दे रहा था। क्योंकि वहां की दिन चर्या एक दम से पैक
थी। हर एक पल एक क्षण ध्यान के लिए संकल्प था। परंतु यहां पर कोई ध्यान न हो कर हर
पल ध्यान बन गया था। वैसे श्याम को चार बजे की चाय के बाद मैं हर रोज आधा घंटा या
तो मेहर बाबा की समाधि पर जाकर ध्यान करता था। या जहां पर वह आकर मेहेर बाबा बैठते
थे वहां जाकर बांसुरी बजाता था। वहां की भी उर्जा बहुत प्रभावशाली थी। आज सालों
बाद भी वहां आप मेहेर बाबा की जीवंत उर्जा को महसूस ही नहीं करेंगे बल्कि उस में
बहते हुए अपने को महसूस कर सकते हे। और दूसरा पुराने मेहरा बाद में भी यहीं सब था।
वह समाधि से एक किलोमीटर दूर था पूना हाई वे और रेल ट्रैक के नीचे से एक सुंदर
मार्ग बना रखा था जहां पर मेहेर बाबा ने मौन और एकांत वास गुजारा था। वहां पर भी
बहुत गहरा ध्यान होता था। लगभग श्याम का मेरा यही दिनचर्या थी।
उसके बाद सूर्य अस्त को देखते हुए मैं अपने
कमरे में आ जाता था। खाना खाने के बाद में उपर के प्रथम तल पर एकांत में रात को
बैठता या बाँसुरी बजाता था। सुबह छ: बजे की चाय के बाद ही बांसुरी बजा पाता था
क्योंकि हर व्यक्ति की दिन चर्या अलग थी। इस लिए मैं छ: बजे की चाय अपने मग्गा में
लेकर आता था। वह मैं घर से ही लेकर गया था। उसके बाद एक या डेढ़ घंटा बांसुरी
बजाता फिर नाश्ता कर के आवारगी पर चला जाता था।
सच ही बहुत सुंदर स्वर्णिम दिन एक साथ मिले।
पूना आवास के बिना मेहेराबाद अधूरा था और मेहरा बाद के बाद अगर ये आठ दिन न गुजारे
होते तो उर्जा को वो गहराई नहीं मिलते। जैसे उर्जा का जल इस ठहराव के बाद निथर गया
और अति पारदर्शी हो गया।
उस एकांत वास में घूमते-घूमते में बाजार तक
चला जाता था। जहां से कुछ बिस्किट के पैकेट और कुछ चावल या ब्रेड भी ले लेता था।
जिससे एकांत में पक्षियों के लिए रख देता था। परंतु एक दो कुत्ते भी मेरा इंतजार
करते थे। मीलों से जब भी मुझे देखती तुरंत भाग कर वह मेरे पास आ जाते थे। जैसे वह
मेरा इंतजार ही कर रहे होते थे। बिस्किट आदि खाने के बाद वह जितनी देर मैं बैठा
रहता वह मेरे पास बैठ कर सो जाते थे। जब मैंने उसे आपने हाथ के चुल्लू में पानी भर
कर पिलाना चाहा तो वह डर गई। क्योंकि वह इस सब को नहीं जानते थे। परंतु धीरे-धरी
वह पीने लग गई थी। क्योंकि मीठा खाने के बाद हर प्राणी को प्यास लगती है। परंतु जब
चलता तो वह जब मेरे पीछे आने तो मैं उन्हें मना कर देता की अब तुम जाओ कल मिलेगें।
और वह दूर तक मुझे निहारते रहते थे। पशुओं में कुत्ता कितना प्रेम पूर्ण प्राणी
है। क्योंकि उसमें जल तत्व की मात्र अति प्रचुर है। इस लिए तरलता ही प्रेम है। जो
मानव प्रेम पूर्ण ह्रदय को होगा उसके अंदर भी जल तत्व की मात्रा अधिक से अधिक होनी
चाहिए। ये एक वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है।
पूरा मेहरा बाद चाहे वह नया हो या पुराना एक
कलात्मकता को अपने में समेटे है। उसका प्रत्येक कोना आप बस निहारते ही रहे।
क्योंकि वहां पानी की कमी हमेशा रहती है। इस लिए गर्मी के दिनों में उसे दो महीने
तक के लिए बंध कर दिया जाता है। परंतु वहां का भोजन ही नहीं भोजनालय भी आप को भोजन
का आनंद दो गुणा कर देगा। इतनी सुंदर व्यवस्था इतने कम कीमत पर मिलती है। तब वहां
कुछ दिनों के लिए फिर से जाने का मन करेगा।
एक बात और है नया आश्रम दो भागों में बनाया
गया है। एक और महिलाये रहती है और हमारी तरफ पुरूष आप एक साथ बैठ सकते हो,
धूम सकते हो, साथ खाना खा सकते हो। परंतु सोने
के लिए आपको दूसरे परिसर में ही जाना होगा। महिलाओं के परिसर में पुरूष को आज्ञा
नहीं है। ये भी अच्छा है हर स्थान की अपनी एक नैतिकता होती है उस का सम्मान करना
ही चाहिए। परंतु कुछ भी हो वहां पर जाना में लिए कोई कम विषमय की बात नहीं थी।
एक साथ दो-दो स्वर्ण तुल्य स्थान का आवास
मेरा भाग्य उस पर गर्व कर रहा है। और साथ वहां भेजने वाली बेटी उन्मनी का ह्रदय से
आभार मानता है। बेटी तो कह रही थी की पापा अगर और रहने को मन कर रहा है तो टिकट
कैंसिल करा देते है। तब मैंने ही मना कर दिया की आने वाले समय के लिए मन के आनंद
का प्याला कुछ खाली छोड़ देते है की वह फिर भी बुलाये।
मनसा-मोहनी दसघरा
ओशोबा हाऊस नई दिल्ली
शानदार.....किसी को भी लुभाए ऐसी दिव्य,मनोरम,आहालादक और प्रकृति से लबालब,लवरेज यह जगह आम आदमीओ के लिए तो हैं ही उत्तम लेकिन साधकों के लिए तो मानों ध्यान की पवित्र गंगा नदी मिल गई हों या ध्यान का कोई करिश्माई चिराग हाथ लगा हों ऐसी अनुभूति होती हैं 🙏🙏🙏
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