मधुर यादें-( ओशो मिस्टिक रोज़)
(तीसरा चरण-मोन ध्यान)–
पूना आवास-(भाग-06)
ध्यान के पहने दो चरण गुजर चूके थे। परंतु विश्वास ही नहीं हो रहा था की वो सब अनुभव इस मन इस देह पर से गुजरा है। अचेतन तक उस सब से अनभिग था। ओशो से जूड़े इस लम्बे अंतराल में ध्यान के अभूतपूर्व अनुभव है। कदम-कदम पर विषमय के साथ आनंद बरस रहा था। परंतु इस सब का न तो मन को पता था और नहीं ही इस सब की पहले मन ने कल्पना थी। बेटी बोधि उन्मनी की जिद के कारण यहां आया। वह तो आठ साल पहले ही मुझे ध्यान के लिए भेज रही थी। उस समय तो मोहनी बीमार भी नहीं हुई थी। परंतु मुझे लगा की इस सब ध्यान की मुझे जरूरत ही नहीं है। क्योंकि लम्बे अंतराल से लगातार पूना ध्यान के लिए आ जा रहे थे। और हमारा घर भी ध्यान के लिए अति सहयोगी है। आज भी वहां नित एक या दो ध्यान तो हम करते ही रहते है। बहुत सरल और सहज गति से हम सब ध्यान में साथ सहयोग के साथ बरसो से चल ही रहे थे। ध्यान से जो जीवन में बदलाव हो रहे थे, मन एक दम से जो मिल रहा था उस से तृप्त था। परंतु तब मैं नहीं आया। परंतु इस बार तो वह जिद्द पर ही अड़ गई की मम्मी की बीमारी के ये सात-आठ साल के कारण तो आप एकांत में जी रहे है इस तरह से आप भी बीमार हो जायेंगे। और उसने मेरी एक न सूनी और आज सोचता हूं तो ये उसने सच ही एक महान कार्य किया। अब मन से उसका ये उपकार एक उपहार एक आनंद दे रहा है। की मेरी जिद्द गलत थी। हम बड़े है इस का मतलब हम सही है ये जरूरी नहीं।
अब ध्यान के तीसरे चरण की बात करते है। दो
चरण किस सहजता और सजगता से ध्यान की गहराई में ले गये। इसलिए अब तीसरे चरण का मन में कोई भय नहीं था।
हालांकि इससे पहले मैंने कभी तीन घंटे एक साथ बैठ कर मोन कभी ध्यान नहीं किया था।
ज्यादा से ज्यादा एक घंटे का विपश्यना
ध्यान या समाधि पर "सिटिंग साइलेंस" (Sitting Silence किया है। परंतु जो पहले इतना अच्छा हुआ है ये भी उससे अधिक सुंदर और नया
अनुभव होगा। इस लिए अपने आप को पूर्णता से मैंने छोड़ दिया। फिर एक मित्र जो पूना
में ही रहते है। उन्होंने मेरे को डीप मसाज दी तीन दिन। क्योंकि मेरे कंधे मुझे
बहुत भारी लग रहे थे जैसे की वह कोई बोझ ढ़ो रहे है। उसकी उस तीन दिन की मसाज थेरपी
ने मुझे बहुत हलका किया उसने कहां की स्वामी दो सप्ताह तो ध्यान की तैयारी थी।
आनंद अमृत तो अब निकलेगा। इस सब से भी तन को और मन को बहुत सहयोग मिला। सच ये कोई
साधारण मसाज नहीं थी। परंतु ध्यान करने वालों आपके अंतस गहरे शरीर पर भी जमी पर्त
को उघाड़ सकता हे। ये कोई ध्यान में डूबा हुआ ध्यान में डूब कर आपके उपर कार्य कर
सकता है। आप अगर किसी साधारण मालिश करने वाले से ये सब कराते हो तो वह आपके शरीर
पर रहता है उसके अंदर नहीं जा सकता।
आज ओशो समाधि पर ध्यान के लिए एक नया ही रंग
रूप था। एक दम से सफेद गद्दे, सफेद बिस्तरे लगे थे।
हर बात के लिए कितना ख्याल रहता है। कौन सी वस्तु भी आप को सहयोगी होती है। उस सब
का ओशो कितना ख्याल रखते थे। आज से ध्यान को तीन चरणों में बांट दिया। 50-50 मिनट
के तीन मोन, के साथ बीच में दस मिनट का विश्रांति काल। जिसमें कोई मधुर संगीत बजेगा उसी से आप को पता
चलेगा की आप का पहला चरण समाप्त हो गया। परंतु आज ऐसा गहरा ध्यान हुआ की संगीत भी
मुझे और-और गहरे ल जा रहा था। इस लिए न तो मैंने आंखें ही खोली और न पानी आदी पीने
के लिए उठा। परंतु जब दूसरा चरण खत्म हुआ तब मैंने आंखें खोली तब सब कुछ कितना
नया-नया लग रहा था। हफ्तों से जिसे देख रहा था वह भी एक दम से विषमय से भर रहा था।
कुछ गहरी श्वास ली और में आप वॉशरूम आदि गया, कुछ पानी पिया।
कुछ मित्र लोग हल्का नृत्य भी कर रहे थे। ताकि उर्जा एक उत्सव में बदल जाये।
कुछ सहज होश से घूम रहे थे। इस विश्राम को एक प्रकार से आप अगले चरण में जाने की
इसे तैयारी ही समझो। और फिर ध्यान के लिए एक घंटी बजेगी जिससे आप को संदेश मिला
की अब अपने स्थान पर बैठ सकते हो। या कुछ मित्र लेट कर भी ध्यान कर रहे थे।
ध्यान एक दम से विपश्यना की तरह से ही था।
बीच-बीच में मास्टर (कॉर्डिनेटर) आपके सर पर एक ओशो छड़ी से छू सकता है। ये छड़ी
अति प्राचीन है। इस आप अनुभव कर के देखों जैसे ही आप के मन में विचार चलेंगे। ये
छड़ी ध्यान कराने वाला आपके सहस्रार चक्र को छूएगा और आपके विचार पानी में पड़े
पत्थर की तरह से टूट जायेगे। एक दो तीन चरण बीत गये पता ही नहीं चला। आखिर ओशो का
एक प्रचलन चला। उसके बाद कल आने के लिए कहा गया। परंतु आज ध्यान के बाद किसी से
बात करने का मन नहीं कर रहा था। वैसे तो रोज ही ऐसा होता था। परंतु जैसे कल रोने
का भाव बह रहा था। आज पानी एक दम से शांत था। दूसरे दिन भी ध्यान और-और गहरा होने
लगा। जैसे-जैसे समय गुजर रहा था। शरीर और आप की दूरी बहुत साफ दिखाई दे रही थी।
परंतु और दूसरे ध्यान कि विधियों में इस तरह से शरीर को दूर देखने का कम समय मिलता था। क्योंकि उस सब में आ क्रिया
भी कर रहे होते हो। परंतु आज तो केवल देखना है। लगातार। परंतु बीच-बीच में विचार
का एक झंझा वात भी आता था। एक तूफान की तरह से परंतु मैं जानता था ये जिस तरह से
आया है उसी से चला जायेगा।
आप उन विचारों से तादात्म्य ही नहीं करेंगे तो वह रुकेंगे
कहां। इधर उधर शरीर में मस्तिष्क में या मन में बेचारे थोड़ी देर घूमने के बाद चले
ही जायेगे। जब आप उन विचारों की मेहमान गिरी नहीं करेंगे तो वो आपके साथ क्यों रहेंगे।
उनका भी तो अपना एक अहंकार है, एक आस्तित्व है। सच
हंसना-रोना अपनी जगह था। उसने अचेतन में बहुत काम किया परंतु सच ध्यान की गहराई
तो अब महसूस हो रही थी। हां उन दो सप्ताह की खुदाई ने अंदर एक सुंदर सरल मार्ग बना
दिया था। जिससे बिना किसी उलझन के बिना किसी रूकावटें के बहुत सरलता से अंदर जाया
जा सका। जो पहले मार्ग में अवरोध था, वो मार्ग को घेरे हुए थे। अब मार्ग काफी साफ हो गया था। मन को
और तन को कैसी निर्भरता लग रही थी। जब आप पर विचारों का, न
ही भावों का, न हीं शरीर का भार हो। आप अपने आप को कितना निर्भर महसूस करेंगे। जब
तक साधक इस अवस्था को जान नहीं लेता वह शरीर से अलग नहीं हो सकता। पहले तो उसे
शरीर से दूरी बनानी होती है। जितनी पकड़ को छोड़ता चला जाता है। उतने ही गहरे
उतरता चला जाता है। धीरे-धीरे श्वास भी कैसे दूर पराई-पराई सी लगती है। कभी-कभी
तो साधक को लगता है, की ये शरीर जो दूर है मेरा नहीं
है। आप इसे दूर से देखने वाले भर है। उस अवस्था में बहुत से साधक डर जाते थे। और अपने
में सुकड़ कर वापस शरीर से चिपक जाते है। साधक को डरना नहीं चाहिए। ये स्वर्णिम क्षण
है। इसे देखते रहना चाहिए। इसका आनंद लेना चाहिए। कभी-कभी साधक को लगेगा की उसकी श्वास
बंध हो गई है। तब वह जानता है की श्वास से ही तो वह जीवत है। ऐसा नहीं है। जब हम मां
के पेट में होते है, तो क्या वहां आप श्वास लेते थे। क्या आपका
दिल धड़कता था। नहीं फिर भी वहां जीवन चक्र था। दूर से देखते रहे और उस निर्भरता को
निर्भय होकर देखते रहे। श्वास चले या मध्यम हो उस को अधिक महत्व नही देना चाहिए। क्या ये श्वास ले रहा है या नहीं क्योंकि आपका
इस समय जूड़ा से जड़ाव तो खत्म हो गया है।
आप जितना अंदर जाते है अपने, उतनी ही दूसरी आपकी आपके शरीर
से मन से भाव से होती चली जाती हे। हम आज
तक अपने को केवल शरीर या मन या विचार ही तो मानते या जानते हुए आये है। आज पहली
बार जब साधक को लग रहा है, कि न तो मैं विचार हूं, न भाव हूं, और नहीं शरीर हूं तब अंदर से एक साहस उठेगा
की फिर ये सब नहीं है तो मैं कौन हूं? मैं नहीं हूं तो क्या हूं? हालांकि तब तक आपको अपने होने का पता नहीं होता।
की आप है कौन परंतु इतना साफ हो जाता है की में ये सब नहीं हूं। तब आप एक नये आयाम
में प्रवेश कर जाते है। की भला मैं हूं कौन? और आप एक नई यात्रा
पर चल पड़ते है। आप में एक नया साहस आ जाता है। तब साधक श्रोता पति में प्रवेश करता
है।
हम किसी भी इंद्री का उपयोग अगर करीब तीन
साल नहीं करते है तो वह हम से छीन ली जाती है। केवल एक सेक्स ही ऐसी इंद्री है जो
आप जन्मो उपयोग मत करो लेकिन उसकी वासना जीवित रहती है। क्योंकि हम बने ही उन
सेक्स कणों से है हमारा रोम-रोम उन से ही निर्मित है। इसलिए ओशो ने अनेक बार कहां
है कि सेक्स से मुक्ति या उसके पार जाने के लिए जो साधक जब तक अपने शरीर से अलग
हो कर एक भार उस अनुभव को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक वह सेक्स से मुक्त नहीं हो
सकता है। सच आज एक नई उड़ान एक नये आकाश में विचार कर के कैसा लग रहा था। बताना अति
कठिन था।
आज दूसरे दिन ध्यान के बाद 2-30 राधा हाल
में मीटिंग थी। क्योंकि हर चरण के दूसरे दिन ये मीटिंग होती थी। सब राधा हॉल में
आकर बैठ गये। ओशो की एक विडियों दिखलाई गई। फिर सब के अनुभव या कोई ध्यान में
समस्या हो तो प्रश्न चर्चा होती थी। पहली दो मीटिंग में मैंने कोई प्रश्न ही
नहीं पूछा कुछ क्यों अंदर था ही नहीं। क्यों तो आज भी नहीं था। परंतु एक धन्यवाद
का भाव था उस सब के लिए जिसके कारण आज ये ध्यान कर रहा था। तब मैंने कहां की ‘मेरे पास शब्द नहीं की जो मुझे मिल रहा है उसे शब्दों में कह दूं। परंतु
इस 35 साल यात्रा के ये स्वर्णिम दिन है। मानो उस सब का निचोड़ इस लिए मैं शब्द
से तो उसे कह नहीं सकूंगा। परंतु हो सकता है। मेरी बांसुरी मेरी ह्रदय के भाव को
कुछ-कुछ आप तक पहुंचा सके।’
सब लोग बहुत खुश हुए और मैंने एक पाँच मिनट
बांसुरी बजाई। जो सब के लिए ध्यान का एक नया ही अनुभव दे रही थी। बांसुरी के बाद
मैं इतना भावुक हो गया की मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और मेरा रोना फूट पड़ा। शायद
बांसुरी भी वो सब नहीं कह पाई शायद शरीर रोकर ही उन उद्गारों उन कथनों या अभिव्यक्तियों को व्यक्त
करना चाह रहा होगा। क्योंकि ह्रदय में
इतना तूफान था जैसे इस छोटे से साज से कहां नहीं जा सकता था। परंतु सब के ह्रदय
भरे हुए थे। सब मित्रों की आंखों में अहोभाव के आंसू थे। सच इस पूना वास में जो घट
रहा था उसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। समय का चक्र भी कितना रहस्य अपने में
छूपाए हुए है। ध्यान रोज-रोज गहरा हो रहा था। क्योंकि मैंने शांत बैठ कर ध्यान
कम किए है मेरी उर्जा क्रियाशील है इस लिए मुझे ताकत के ध्यान अच्छे लगते थे।
परंतु समय ने धीरे-धीरे उस स्थान पर पहुंचा दिया की अब उतनी ताकत तो लगा कर ध्यान
नहीं कर सकते परंतु बैठ कर ध्यान में गहराई मिलने लगी थी।
ये सतत प्रयास से ही संभव था। परंतु उस
एकांत में मेरा सबसे प्रिय साथी था मेरी बांसुरियां। जिसे बजाने से जितनी सुरति
सजग वहां पर होती रही इतनी और कहीं नहीं। धीरे-धीरे ध्यान का छटा दिन आ गया। मन
कट रहा था की ये दिन किस तेजी से गुजर गये। ध्यान के बाद सब मित्रों का एक ग्रुप,
सामूहिक
फोटो के लिए गेट पर सब इकट्ठे हो गये। सब ने हंसी खुशी फोटो खिंचवाये। एक याद तो
चित्रों ठहर कर बस गई।
अगले दिन ध्यान का अंतिम दिन था। ध्यान खत्म
होने के बाद भी ओशो समाधि से जाने का किसी का भी जाने को मन नहीं हो रहा था। सब एक
दूसरे के गले लग कर रो रहे थे। कुछ दिन पहले एक दूसरे से कितनी अंजान थे। आप सब
मानो एक हो होए। परंतु कुछ दिनों बाद सब पक्षी न जाने कितनी-कितनी दूर उड़ जायेगे।
मिलते रहने का नाम प्रेम है। मिलते रहने से ही प्रेम बढ़ता हे और इसी सब का नाम
मोह भी हो सकता है।
परंतु ये ध्यान की जो थिरता थी वह बहुत
गहरे उतर गई थी। शायद इस गहराई को पाने के लिए सतत मेहनत के बाद भी सालों लग सकते
थे। परंतु ओशो मिस्टिक रोज ध्यान ने उसे कुछ दिनों में पूरा कर दिया। सच ही ये
ओशो की बनाई सबसे कीमती विधि है। जो जेट विमान की गति से यात्रा करवा सकती है। इसे
ध्यान ने कहे तो अति उत्तम होगा। ये एक प्रकार की थेरपी है। जो आपके अंतस के बंध
जंग लगे ताले खोल सकती है। जिन्हें साधक बिना गुरु की कृपा से खोल पाना अति कठिन
ही नहीं दुरूह भी है।
इस ध्यान ने अंदर तक इतना तृप्त कर दिया
की अगर मुझ से कोई पूछे की ये ध्यान अब आप करना चाहेंगे तो मैं कहूंगा की अभी तो
फिलहाल नहीं क्योंकि अंतस में इतना आनंद उत्सव उतर गया की वहां कोई स्थान नहीं
है। हां अगर कभी भविष्य में कुछ स्थान खाली हुआ तो फिर के विषय में कहां नहीं जा
सकता हो सकता है दो-तीन साल बाद फिर करने का मन करे। परंतु अब तो एक दम से तृप्ति
है।
इतना आनंद उतरा है की उसके सामने सब आनंद फीके
लगते है। उस सब को मैं शब्दों में बाँध तो रहा हूं परंतु अंतस में कोई तृप्ति नहीं
महसूस होती की जो हुआ था उसे तो कहां कह पाया। शायद उसकी परछाई भी नहीं छू पाया हूं।
राम रस पिया रे, राम रस पिया।
जे रस बिसर
गये अब सारे।
-गुरु नानक देव
(मनसा-मोहनी दसघरा)
ओशोबा हाऊस नई दिल्ली
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