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गुरुवार, 13 नवंबर 2025

हाय ये काली छाया-(मेरी कविताएं) मनसा-मोहनी

 हाय ये काली छाया-(कविता)

हाय ये काली छाया
कैसे डस रही है
धूप के एक नन्हे से
प्यारे से टुकड़े को
देखो ये कैसा धर्म है
न जिसमें ध्यान है,
न ही उसमें कोई उत्सव है,
न ही वहां पर कोई
नृत्य के पुष्प खिलते है।
वहां न खुशी है, न ही प्रेम है।
केवल बहता है ‘’खून’’
चाहे वह दिन का पुण्य का हो
या उत्सव का ही क्यों न हो
परंतु हाय हजारों साल से
केवल वो यहीं खून बहाते
चले आ रहे है,
जन्नत पाने के लिए
किसी मां की गोद का सूनी कर
किसी का सुहाग छिन कर
किसी के प्रेम की बगिया
उजाड़ कर।
वो खून जो बह रहा है
इस बेरहमी से
जो प्रत्येक मां के आंचल
में दूध बन कर
उनकी भी रगो में बहता है।
कहां है जन्नत,
क्या ये धरा, ये जीवन
स्वर्ग तुल्य नहीं है।
जब यहां ही नहीं है
हमारे पैरों में थिरकन
मन में कोई दया भाव
तब वह ह्रदय पाषाण ही हो गया
तब ये कह कर हम पाषाण
का भी अपमान कर रहे है।
कहां जीवन में उगी कलियां
कहां बजा संगीत का राग
कहां पर उड़ी रंगों की उतुंग धूल
है वहां केवल काल अंधकार
जो कुरूप ही नहीं
अदृष्ट ही है
जिसे हम जानते नहीं
उसी मार्ग को जन्नत का
मार्ग मान कर इस धरा को
रंग रहे हो खून से
न हमें जीना आता है
न ही हम दूसरों को
जीने देंगे।
मरना भी एक कला है
डूबो उस ध्यान में कभी
फिर जानोगे मृत्यु क्या है
सच ही जब कोई मरना
जान जाता है
उसे ही जीना आता है।

मनस-मोहनी दसघरा
ओशोबा हाऊस दसघरा

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