अपि तो किछु नाई—तीसरा प्रवचन
दिनाक 13
मई,
1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्न
सार :
*भगवान,
बाबा
अलाउद्दीन
अपने जीवन के
अंतिम दिनों
में कहा करते
थे: सब माटी
होए गेलो, अपि
तो किछु नाई, नाद-सुर को
पार न पायो।
क्या उन्हें
कोई सदगुरु न
मिला, इसलिए
वे
ऐसा कहते हुए
मरे या कि
नाद-सुर अनंत
हैं, उसके
पार होने का
उपाय नहीं है
इसलिए? कृपा करके
समझाएं!
*भगवान!
ईश्वर
-प्राप्ति में
कार्य -कारण
नहीं; तो
फिर ध्यान का
औचित्य
समझाने की
कृपा करें!
भगवान! स्वर
सभी असमर्थ
मेरे, कैसे
अभिनंदन करूं?जी यही कहता,
तुम्हारा
मूक अभिनंदन
करूं!
*भगवान!
मैं विवाह
करने ही वाली
थी कि मेरा
होने वाला पति
लापता हो गया
है। मैं बहुत दुखी
हूं।
सांत्वना की
तलाश में आपके
द्वार आई हूं।
*भगवान!
आपने
अपना बनाया,
मेहरबानी
आपकी
हम तो
इस काबिल न थे,
है
कद्रदानी
आपकी
आपने अपना
बनाया..।
*भगवान!
मैं आपका
संदेश घर - घर, हृदय-हृदय
में पहुंचाना
चाहता हूं पर
लोग बहरे हैं,
मैं क्या
करूं?
पहला
प्रश्न :
भगवान!
बाबा
अलाउद्दीन
अपने जीवन के
अंतिम दिनों
में कहा करते
थे : सब माटी
होए गेलो, अपि
तो किछु नाई, नाद-सूर को
पार न पायो।
क्या उन्हें
सदगुरु न मिला,
इसलिए वे
ऐसा कहते हुए
मरे या कि
नाद-स्वर अनंत
हैं, उसके
पार होने का
उपाय ही नहीं
है, इसलिए?
कृपा करके
समझाएं।
'नरेन्द्र
बोधिसत्व !
संगीत, सत्य,
सौंदर्य-सभी
अनंत हैं।
उनके पार पाने
का कोई उपाय
नहीं है। अथाह
हैं। जो
डूबेगा खो
जाएगा; लौटकर
थाह की खबर न
दे सकेगा।
रामकृष्ण
कहते थे : ऐसे
ही है सत्य की
खाज जैसे कोई
नमक का पुतला
सागर में
डुबकी मारे
थाह लगाने को।
नमक का पुतला
और सागर में
डुबकी-गल ही
जाएगा! जैसे
गहरा जाएगा, वैसे
ही गलत। जाएगा।
जैसे -जैसे
गहराई बढ़ेगी
वैसे - वैसे
मिटेगा। परम
गहराई में शेष
ही न रह जाएगा;
लौट कर खबर
देने को कोई
भी न बचेगा।
जीवन
अपने सभी
आयामों में
अनंत है।यहां
मनुष्य की
बनाई हुई
चीजों की ही
सीमाएं हैं।
परमात्मा का
बनाया हुआ कुछ
भी सीमित नहीं
हो सकता। उसके
हाथ की जिस
चीज पर छाप है
वही अनंत है, वही
असीम है। न
आदि है उसका न
अंत है उसका।
और नाद
गहरे से गहरा
आयाम है।
भौतिकविद
कहते हैं कि
अस्तित्व का
निर्माण हुआ
है
विद्युत-ऊर्जा
से।
रहस्यवादी
कहते हैं
अस्तित्व का
निर्माण हुआ
है ध्वनि से, नाद
से। और दोनों
बातें भिन्न
दिखाई पड़ती
हैं, भिन्न
नहीं हैं, क्योंकि
नवीनतम खोजें
यह भी कहती
हैं कि विद्युत
-ऊर्जा को नाद
में बदला जा
सकता है, नाद
को विद्युत
-ऊर्जा में
बदला जा सकता
है। वे दोनों
एक ही मोलिक
शक्ति की
अभिव्यक्तिया
हैं।
यह जो
तुमने कहानी
सुनी है शायद
कहानी ही हो, लेकिन
उसमें सत्य का
बड़ा अंश छिपा
है। तुमने
जरूर सुना है
कि एक समय था, ऐसे
संगीतज्ञ भी
थे जो दीपक
राग बजा सकते
थे, जो ऐसा
राग उठा सकते
थे कि बुझे
दीये जल जाएं।
ऐसा कभी हुआ
हो या न हुआ हो,
मगर ऐसा हो
सकता है।
विज्ञान आज
इसके लिये
गवाही देता है।
क्योंकि अगर
विद्युत
ध्वनि बन सकती
है और ध्वनि
विद्युत बन
सकती है, तो
फिर एक
विशिष्ट नाद
में बुझे दीये
जल सकते हैं, जले दीये
बुझ सकते हैं।
यह ऊर्जा की
ही दो
अभिव्यक्तिया
हैं।
जिन्होंने
बाहर से
खोजा-विज्ञान
ने, भौतिक
शास्त्रियों
नें-उन्होंने
विद्युत -ऊर्जा
को पाया।
विद्युत-
ऊर्जा मालूम
होता है-देह
है अस्तित्व
की। और नाद, ओंकार-प्राण
है अस्तित्व
का जिन्होंने
भीतर खोजा, जो अंतरतम
में गये, उन्होंने
नाद की बात
कही। इस
देश में तीन
धर्म हैं।
उनमें हर बात
में भेद है :
हिंदू हैं, जैन हैं, बौद्ध
हैं; उनमें
किसी बात में
तालमेल नहीं
है। बाद में
भी जो और धर्म
पैदा हुए, जैसे
सिक्ख, उनमें
भी बड़े भेद
हैं। लेकिन एक
बात के संबंध
में वे सब
राजी हैं और वह
है ओंकार का
नाद। जैन
मानते हैं कोई
ईश्वर नहीं है।
अब इससे बड़ा
विरोध और क्या
होगा हिंदू र
विचार का? हिंदू
-विचार ईश्वर
में आसपास ही
नृत्य करता है।
हिंदू -विचार
ही ईश्वर की
बासुरी के
बिना अर्थ
नहीं रखेगा!
ईश्वर ही
केंद्र-बिन्दु
है। वही
केंद्र है; हिंदू
-चिंतन उसकी
परिधि है।
लेकिन जैनों
ने ईश्वर को
इनकार कर दिया
और एक धर्म
बनाया जो
अदभुत है
-अनीश्वरवादी
धर्म। और आज
से ढाई हजार
साल पहले!
अभी
पश्चिम में इस
पर विचार चलता
है।
अनीश्वरवादी
धर्म हो सकता
है या नहीं, इसका
विचार ही चल
रहा है अभी।
लेकिन यहां
हमने
अनीश्वरवादी
धर्म निर्मित
भी किया।
नास्तिक भी
धार्मिक हो
सकता है, हमने
उसके लिये भी
द्वार खोले।
आस्तिक होना
अनिवार्य
शर्त न रखी।
नास्तिक के
लिए भी धर्म
उतना ही सुगम
और सुलभ बनाया
जितना आस्तिक
के लिये। यह
बड़ी क्रांति
थी। फिर बुद्ध
तो और एक कदम
आगे
गये-महावीर से
भी आगे एक कदम
लिया। कम से
कम महावीर
आत्मा को तो
मानते हैं।
बुद्ध ने तो
कहा : आत्मा भी
नहीं है। न
कोई आत्मा है
न कोई
परमात्मा है।
शून्य है।
नास्तिक भी
इतनी हिम्मत
नहीं करता
बुद्ध महा-नास्तिक
हैं! नास्तिक
भी इतनी
हिम्मत नहीं
करता कि मैं
नहीं हूं भला
नास्तिक कहता
हो शाश्वत
आत्मा नहीं है,
लेकिन इतना
तो मानेगा अभी
हूं! बुद्ध
कहते हैं : अभी
भी नहीं हूं।
क्षणभंगुर
भी नहीं है, शाश्वत
की तो बात ही
छोड़ दो। न कोई
आत्मा हैं; फिर भी धर्म
हो सकता है!
धर्म हुआ और
बुद्ध के पीछे
चलकर अनंत -
अनंत लोगों ने
जीवन का परम
स्वाद पाया। इन
तीनों धर्मों
में हर चीज का
विरोध है-यज्ञ
का, हवन का,
वर्णाश्रम-
धर्म का, विधि-विधानों
का काई तालमेल
नहीं है। मगर
एक संबंध में
तीनों राजी
हैं कि उस
अंतरतम में, जिसको
महावीर आत्मा
कहते हैं, हिंदू
परमात्मा
कहते हैं, बुद्ध
शून्य कहते
हैं- एक नाद
उठता है, एक
अपूर्व नाद
उठता है! एक
वीणा बजती है।
वीणा नहीं है वहां
- और बजती है।
कोई संगीत
नहीं है वहां -
और संगीत उठता
है। इस संबंध
में तीनों
राजी हैं। अगर
हम गौर से
समझें तो इसका
यह अर्थ हुआ
कि ईश्वर से
भी ज्यादा, आत्मा से भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
विचार है नाद का,
संगीत का, इसका कोई
पार नहीं हो
सकता।
अलाउद्दीन
ठीक कहते हैं
कि नाद का कोई
पार न पाया... 'नाद
-सूर को पार न
पायो...। ' और
इस सदी में जो
लोग नाद-सुर
की गहराई में
गये हैं, उनमें
बाबा
अलाउद्दीन का
और कोई
मुकाबला नहीं
है। बाबा
अलाउद्दीन तो
कहीं से भी
नाद में उतर
जाते थे। कोई
वीणा ही नहीं
चाहिए, कोई
सितार ही नहीं
चाहिए; लोहे
के दो टुकड़े पड़े
मिल जाएं, उन्हीं
को बजा देंगे
और उन्हीं से
अद्भुत संगीत
का जन्म हो
जाएगा! चम्मच
से थाली को
बजाने लगेंगे
और मंत्र
-मुग्ध कर
देंगे। एक बार
जिसे स्वाद आ
गया, एक
बार जिसे उसका
बोध आ गया, वह
उसे कहीं से
भी पुकार ले
सकता है।
लेकिन जितनी
गहराई बढ़ी
उतना ही यह भी
अनुभव बढ़ा कि
पार पाया न हो
सकेगा। मैं
मिट जाऊंगा
लेकिन पार
पाया न जा
सकेगा।
हेरत
हेरत हे सखी
रह्या कबीर
हिराइ
बुन्द
समानी समानी
समुद में सो
कत हेरी जाइ।
हेरत
हेरत हे सखी
रह्या कबीर
हिराइ
समुद
समान बुन्द
में सो कत
हेरी जाइ।
ऐसा
अपूर्व उनका
अनुभव हुआ
होगा। इसी
अपूर्व अनुभव
के कारण कहते
हैं : सब माटी होए
गैलो... सब
प्रयत्न, प्रयास,
अभ्यास, सब
मिट्टी हो गया।
जीवन - भर
चेष्टा की, सब मिट्टी
हो गयी।
मनुष्य की
चेष्टा
मिट्टी हो ही
जाती है।
मनुष्य के
किये कुछ हुआ
है, कि
होगा? होता
है उसके किये।
हम नाहक ही
बीच में अपने
अहंकार को भर
लेते हैं।
दो
व्यक्ति नदी
के किनारे
बैठे हैं। एक
युवक और युवती।
सांझ का समय
है। बाढ़ में
आई नदी है।
बड़ी लहरें उठ
रही हैं।
पूर्णिमा की
रात है। नदी
चांदी हो गई
है। दोनों
प्रेम में हैं, नये-
नये प्रेम में
हैं। प्रेम का
गहरा अंधापन
है अभी, अभी
हर चीज हरी-
हरी सूझती है-
और ऐसी रात! और
दूर पपीहे की
पुकार और नदी
के किनारे का
सन्नाटा! युवक
कहने लगा ' आओ
लहरों आओ, नाचो
लहरों नाचो। '
और लहरें
आने लगीं! आ ही
रही थीं लहरें
तो। और लहरें
नाचने लगीं!
नाच ही रही
थीं लहरें तो।
युवती और पास
आ गयी, गले से
लग गयी युवक
के, और कहा :
तो नदी की
लहरें भी
तुम्हारी आशा
मानती हैं।
धन्य हो तुम!
तुम्हें पाकर
मैं भी धन्य
हूं। फूल खिल
ही रहे हैं, चांद -तारे
ची ही रहे हैं।
यह विराट
अस्तित्व
तुम्हारे
किये से नहीं
हो रहा है।
तुम नहीं थे
तब भी चल रहा
था। तुम नहीं
रहोगे तब भी
चलेगा। मगर
बीच में दो
घड़ी को तुम
अकड़ लेते हो, नाहक अकड़
लेते हो! और
बड़े प्रयास
करते हो, बड़ी
चेष्टाएं
करते हो- अपने
को सिद्ध करने
की, छोड़
जाने की
हस्ताक्षर, छोड़ जाने की
कुछ चिह्न समय
की रेत पर। जो
जानते हैं, वे ऐसा ही
कहेंगे : सब
माटी होए गैलो।
...
वह जो किया -
धरा था सब
मिट्टी हो गया।
और जिसने ऐसा
अनुभव कर लिया
कि मेरा किया-
धरा था सब
मिट्टी हो गया, उसके
ऊपर सोने की
वर्षा हो जाती
है। लेकिन वह
प्रसाद -रूप
है, वह
प्रसाद ही है।
प्रयास नहीं,
प्रयत्न
नहीं। वह
प्रसाद उतरता
तभी है जब तुम
बिलकुल
निष्प्रयत्न,
अप्रयास
में, शून्य,
आतुर, उन्मुख,
राजी, द्वार
खोले बैठे
होते हो- आता
है अतिथि, जरूर
आता है।
तुम्हारे
बुलाने से
नहीं आता। न
तुम्हारे
बुलाने से
सूरज की
किरणें कमरे
के भीतर आती
हैं, न हवा
के झोंके आते
हैं, न
पानी की
बूंदें आती
हैं। ही, इतना
ही तुम करे कि
द्वार खुला
रखना; सूरज
उगे तो आए; हवा
बहे तो आए, पानी
बरसे तो
बूंदाबांदी
हो। इतना ही
करना कि तुम
द्वार खुला
रखना। इससे
ज्यादा
मनुष्य को
करने को और
कुछ भी नहीं
है।
अलाउद्दीन
ठीक कहते हैं :
सब
माटी होए गेलो,
अपि तो
किछु नाई।
अब मैं
कुछ भी नहीं
हूं। खो गये, मिट
गये। सब
मिट्टी हो गया
प्रयास। और जब
प्रयास
मिट्टी हो
जाता है तो
अहंकार को बनने
की कोई जगह
नहीं रह जाती,
खड़े होने को
कोई स्थान
नहीं रह जाता,
सहारा नहीं
रह जाता, काई
टेका नहीं रह
जाता। जब
तुम्हारे
सारे प्रयास
मिट्टी हो
जाएंगे, जब
तुम पाओगे कि
तुम्हारे
सारे प्रयास
व्यर्थ हैं, तो तुम कैसे
कह सकोगे कि
मैं हूं? मैं
को कैसे
निर्मित
करोगे? मैं
के लिये
प्रयास की इंटे
चाहिए, तो
मैं का भवन
बनता है, बड़ा
भवन बनता है। हालांकि
भवन होता है
सिर्फ ताश के
पत्तों का; हवा के
जरा-से झोंके
में गिर जाता
है, देर
नहीं लगती।
मौत आती है और
देर नहीं लगती,
पत्ते बिखर
जाते हैं, महल
भूमिसात हो
जाते हैं।
पत्तों के महल
ही नहीं बिखर
जाते, पत्थरों
के महल भी
बिखर जाते हैं।
यहां सभी कुछ
मिट्टी हो
जाता है।
अलाउद्दीन
का वचन
महत्वपूर्ण
है। संगीत से
उन्होंने
परमात्मा को
जाना, संगीत
से उन्हें
परमात्मा की
झलक मिली।
संगीत मैं
ही उन्हें
सदगुरु मिला।
सब
माटी होए गैलो,
अपि तो
किछु नाई,
नाद-सुन
को पार न पायो।
सीधे।
सादे आदमी थे।
पर बड़ी चेष्टा
की,
जीवन- भर
चेष्टा की।
नाद- सुर में
सब कुछ
समर्पित किया
था। और पार
नहीं मिला। और
यही धन्यता है।
पार मिल जाता
तो उसका अर्थ
था : नाद-सुर को
जाना ही नहीं,
नाद -सुर के
नाम पर खेल-
खिलौने सीखे;
नाद -सुर के
नाम पर आदमी
के ही बनाये
हुए वाद्य-यंत्रों
मैं उलझे रहे;
नाद-सुर न
जाना।
जिसका
पार मिल जाए, जानना
वह आदमी की ही
बनावट है।
जिसका पार न
मिले, समझना
कि प्रभु से
जुड़े, प्रभु
के निकट आए।
अपार को ही
तलाशों, अनंत
को ही तलाशों।
और तलाश के
लिये तुम्हें
कोई कृत्य
नहीं करना है-
तुम्हें
मिटना है, तुम्हें
नाकुछ होना है।
तुम शून्य हो
जाओ तो पूर्ण
आज उतरने को
राजी है।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान!
ईश्वर-
प्राप्ति में कार्य-कारण
नहीं, तो
फिर ध्यान का
औचित्य
समझाने की
कृपा करें।
'रामनाथ
शर्मा!
ध्यान
का कोई औचित्य
नहीं है। उचित
- अनुचित की
भाषा बहुत
पीछे छूट जाती
है। ध्यान
उचित - अनुचित
का अतिक्रमण
है। उचित और
अनुचित तो मन
के विचार हैं; और
ध्यान अ-मन की
अवस्था है।
उचित - अनुचित
तो बाजार की
बातें हैं; ध्यान तो
अंतर्यात्रा
है। उचित -
अनुचित तो
व्यवहार है; ध्यान तो
अंतर्दशा है।
लेकिन
मैं तुम्हारा
प्रश्न समझा।
तुम यह पूछ
रहे हो कि
ईश्वर
-प्राप्ति में
कार्य -कार
नहीं।
निश्चित ही
ईश्वर
-प्राप्ति में
कोई कारण नहीं
है। तुम ऐसा
कुछ भी नहीं
कर सकते जिससे
ईश्वर जाया जा
सके। तुम कुछ
कर सके तो
कारण होता।
तुम्हारे
किये ईश्वर
मिलता तो कुछ
कारण होता।
ईश्वर पाने
में कोई भी
कारण काम नहीं
आता। इसीलिए
तो ईश्वर
वितान का अंग
नहीं है, इसीलिए
तो विज्ञान
ईश्वर को
अंगीकार नहीं
कर पाता। क्योंकि
विज्ञान का एक
मौलिक आधार है
और वह है
कार्य -कारण
का सिद्धांत।
जो चीज कार्य
-कारण के सिद्धांत
के भीतर है वह
विज्ञान
स्वीकार
करेगा। सौ
डिग्री तक
पानी गर्म करो,
भाप बनता है;
फिर सौ
डिग्री तक
गर्म चाहे
मस्जिद में
करे चाहे
मंदिर में, चाहे
गुरुद्वारा
में, चाहे
चर्च में, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ेगा। ऐसा
नहीं है कि
मंदिर में
निन्यानबे
डिग्री पर बन
जाएगा भाप और
मस्जिद में
थोड़ा देर
लगाएगा कि यह
मांसाहारियों
की जगह है।
सौ
डिग्री पर ही
बनेगा, चाहे
मस्जिद हो
चाहे मंदिर हो,
हिंदू
-मुसलमान का
कोई भेद न
करेगा। फिर
चाहे भारत हो
और चाहे
पाकिस्तान हो
और चाहे चीन
हो चाहे जापान
हो, सौ
डिग्री पर ही
भाप बनेगा। सौ
डिग्री गर्मी
कारण है। जैसे
ही कारण पूरा
हुआ, पानी
को भाप बनन ही
पड़ेगा। लेकिन
इसका एक अर्थ
हुआ कि पानी
गुलाम है। सौ
डिग्री तक
तुमने गर्मी
पैदा कर दी तो
अब पानी मालिक
नहीं है कि कह
सके कि आज दिल
नहीं, कि
आज भाप न
बनेंगे, कि
आज उमंग ही
नहीं हो रही, आज आकाश में
उड़ने का इरादा
ही नहीं है, फिर कभी
देखेंगे, कि
आज चित्त बहुत
खिन्न है।
पानी कुछ भी न
कह सकेगा।
पानी की कोई
स्वतंत्रता
नहीं है।
कार्य-कारण
का सिद्धांत स्वतंत्रता
का अंत
है-हत्या है। जहां
कार्य -कारण
का सिद्धांत लागू
होता है वहां नियति
है,
वहां भाग्य
है। यह पानी
का भाग्य है
कि उसे सौ
डिग्री पर भाप
बनना ही पड़ेगा।
यह अपरिहार्य
भाग्य है, अनिवार्य
भाग्य है।
इससे बचने का
कोई उपाय नहीं
है।
परमात्मा
कार्य -कारण के
भीतर नहीं है, नहीं
तो गुलाम होता।...
कि किसी आदमी
ने सौ उपवास
के दिये कि
परमात्मा को
आना ही पड़ेगा।
तब तो
परमात्मा
आदमी से छोटा
होता, जैसे
पानी आदमी से
छोटा है। तब
तो हमारी
मुट्ठी में
होता; जैसा
चाहते वैसा
नचाते, जहां
चाहते वहां बिठाते।
फिर तो
परमात्मा प्रयोगशाला
में होता। फिर
तो हम नई -नई
तरकीबें खोज
लेते। जैसे
पुराने जमाने
में लोग पानी
गर्म करते तो
लकड़ी जलाते, बमुश्किल
लकड़ी जलती, फिर पानी
गर्म होता, घंटों लगते।
अब हम जानते
हैं कि बिजली
से क्षण में
हो जाए। और
विद्युत से
क्षण में होता
है, अणु की
भट्टी से तो
क्षण भी न लगे।
जैसे गर्म तवे
पर पानी की
बूंद बस छन्न
से उड़ जाती है
हवा में, ऐसे
सागर के सागर
उड़ सकते हैं
अणु -ऊर्जा से-
क्षण में!
अगर
कार्य -कारण
का सिद्धांत परमात्मा
पर लागू होता
हो तो महावीर
ने बारह साल
में पाया, पच्चीस
सौ साल मैं
हमने ऐसी
तरकीबें खोज
ली होतीं कि
बारह साल लगते?
बारह मिनट
में पाते।... कि
और भी जल्दी
कद लेते, नये
-नये यंत्र
खोजते, नई
-नई व्यवस्था
करते। अगर
उपवास से ही
परमात्मा
मिलता हो, तो
उपवास करता
क्या है? तुम्हारे
शरीर में से
एक पौंड वजन
रोज कम करेगा।
तुम्हारे
भोजन के यंत्र
को निष्किय कर
देगा, तुम्हारे
पेट की
अंतड़ियों को
खाली कर देगा।
लेकिन यह सब
तो विज्ञान के
द्वारा
घड़ियों में हो
सकता है, इसे
किये महीनों
की क्या जरूरत
है? इसमें
तो कोई बड़ी
अड़चन नहीं है।
अगर इससे
परमात्मा
मिलता हो तो
महावीर ने बारह
साल उपवास
किये, यह
तो दो -चार दिन
में हो जाएगा।
तुम्हारे
शरीर की इतनी
शुद्धि तो ऐसे
ही हो सकती है।
लेकिन
विज्ञान की
सीमा के बाहर
है परमात्मा; पकड़
में नहीं आता;
किसी
प्रयोग में
नहीं आता।
कार्य -कारण
का तो कोई
संबंध
परमात्मा से
नहीं है।
इसीलिए
रामनाथ का
प्रश्न ठीक है
: फिर ध्यान का
क्या औचित्य
है?
प्रश्न
इसलिये उठ रहा
है कि रामनाथ
के मन में यह
भाव होगा कि
ध्यान कारण है
और परमात्मा
कार्य है।
ध्यान कारण
नहीं है।
ध्यान केवल
अवसर है, कारण
नहीं। ध्यान
निषेधात्मक
है, कारण
विधायक होता
है। इस भेद को
समझो।
तैसे
मैंने अभी
तुमसे कहा :
सूरज निकला।
यह तुम्हारी
इच्छा से नहीं
निकल सकता कि
तुम जब चाहो
तब निकल आये।
लेकिन एक काम
तुम कर सकते
हो कि सूरज
निकला हो और
तुम आंख बंद
किये बैठे रहो।
तो लाख सूरज
सिर पटके, तुम्हारे
लिये तो नहीं
निकला सो नहीं
निकला। सूरज
तुम्हारी
इच्छा से नहीं
निकलता; लेकिन
तुम्हारी इच्छा
से तुम चाहो न
देखना तो नहीं
देखो, जन्मों
- जन्मों तक न
देखो, आंख बंद रख
सकते हो।
द्वार -दरवाजे
बंद रख सकते
हो। परदे मोटे
लटका सकते हो
कि तुम्हारे
कमरे मैं
अंधकार ही रहे,
दिन में भी
अंधकार रहे।
यह तुम कर
सकते हो।
ध्यान
की भी ऐसा ही
निषेधात्मक
प्रयोजन है।
ध्यान कहता है
परदे खोलो।
परदे खोलने से
सूरज के पैदा
होने का कोई
संबंध नहीं है।
ध्यान कहता है।
खिडकिया, द्वार
-दरवाजे खोलो।
द्वार -दरवाजे
खुले हों तो
जब सुबह होगी
तब तुम्हारे
जीवन में
रोशनी भर
जाएगी। सुबह
तो जब होगी तब
होगी। सुबह के
तो अपने राज
हैं, अपने
रास्ते हैं, अपना मार्ग
है।
परमात्मा
को जब आना है
तब आएगा; तुम
खींचकर नहीं
ला सकते।
लेकिन इतना
तुम कर सकते
हो कि जब
परमात्मा आये
तो तुम मौजूद
रहो। द्वार पर
बदन-वार बौध
सकते हो, दीये
जला सकते हो; द्वार पर
बांसुरी बजा
सकते हो; उसके
स्वागत में
फूल बिछा सकते
हो, पलक
-पावड़े बिछा
सकते हो। आएगा
तब आएगा।
कार्य -कारण
की बात नहीं
कि सौ डिग्री
हमने पूरी कर
दी, अब आना
ही पड़ेगा; ऐसी
कोई
अपरिहार्यता
नहीं है। आएगा
तब आएगा।
प्रसाद जब
बरसेगा तब
बरसेगा।
लेकिन इतना
तुम कर सकते
हो कि प्रसाद
बरसे तो तुम
वंचित न रह
जाओ। तुम अपना
सारा
कूड़ा-करकट
खाली कर सकते
हो कि जब आये
अतिथि तो
तुम्हें रहने
योग्य पाए।
तुम मंदिर बन
सकते हो ध्यान
परमात्मा को
नहीं जाता, तुम्हें
मंदिर बनाना
है। ध्यान
परमात्मा को
नहीं लाता।
लेकिन
तुम्हें उसके
स्वागत के लिए
तत्पर करता है।
ध्यान उत्सव
है, अवसर
है।
ध्यान
में औचित्य मत
खोजो। लेकिन
हमारा मन ऐसा
है कि हर चीज
में साधन-साध्य
की बातें
खोजता है।
हमारा मन
दुकानदार का
है : लाभ क्या
होगा?
लोग
मुझसे आकर
पूछते हैं :
' ध्यान
करेंगे तो लाभ
क्या होगा?' जरा सोचते
हो, लाभ की
भाषा और
ध्यान!... 'मिलेगा
क्या?' आदमी
पहले पूछता है:
मिलेगा क्या?
ध्यान तो
उत्सव है, अपने-
आप में आनंद
है। द्वार
खुला हो, पक्षियों
के ये गीत
तुम्हारे
द्वार पर
प्रवेश करने
लगें; ये
वृक्षों की
सुगंध
तुम्हारे
नासापुटों में
भर जाए! यह
सूरज, ये
चाद-तारे
तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगें। यह
अस्तित्व
तुम्हारे
अनुभव में आने
लगे।
परमात्मा
कहीं और थोड़े
ही है-यहीं है,
यहीं है, अभी है।
कण-कण में है! मगर
तुम जड़ हो।
ध्यान
परमात्मा को
नहीं लायेगा;
तुम्हारी
जड़ता को
तोड़ेगा।
ध्यान
को तुम
परमात्मा से
जोड़ो ही मत।
इसीलिये तो
बुद्ध भी
ध्यान की
शिक्षा दे सके।
क्योंकि
परमात्मा से
कोई लेना-देना
ही नहीं है।
महावीर भी
ध्यान की
शिक्षा दे सके
क्योंकि परमात्मा
से कुछ
लेना-देना
नहीं है।
चकित
होओगे जानकर
तुम कि पतंजलि
ने परमात्मा को
भी ध्यान करने
के लिये एक
निमित्त माना
है। यह तुम
चकित होओगे
जानकर, उल्टी
हो गयी बात।
आम-तौर से लोग
सोचते हैं कि
ध्यान कारण है,
परमात्मा
कार्य; ध्यान
निमित्त है, परमात्मा
उसका लक्ष्य।
पतंजलि ने कहा
है कि
परमात्मा
ध्यान करने
में सिर्फ एक
आलंबन है, एक
निमित्त। कुछ
लोग हैं जो
बिना
परमात्मा के
ध्यान नहीं कर
सकते, तो
चलो भाई, मान
लो परमात्मा
को और ध्यान
तो करो। चलो
इसीलिए ध्यान
करो कि ध्यान
करने से परमात्मा
मिलेगा। हालांकि
ध्यान करने से
परमात्मा के
मिलने का कोई
संबंध नहीं है।
ध्यान तुम
करोगे तो तुम
खुलोगे, तुम
प्रगट होओगे।
तुम्हारी कली
जो बंद -बंद है,
विकसित
होगी, कमल
बनेगा। और उस
कमल की
अनुभूति का
नाम ही
भगवत्ता है।
भगवान
व्यक्ति नहीं
है-खुले हुए
कमल की अभिव्यक्ति।
वह आनंद जो
फूल के खिलने
पर उपलब्ध
होता है, जै
तुम्हारी
चेतना का कमल
खुलेगा तो उस
आनंद का नाम
भगवत्ता है।
कार्य
-कारण का कोई
संबंध नहीं है।
औचित्य की कोई
बात नहीं है।
ध्यान तो एक
दीवानगी है। यहां
लाभ -हानि का
हिसाब, इतनी
होशियारी से
नहीं चलेगा।
पहले पक्का हो
जाए कि क्या
मिलेगा, तब
ध्यान करोगे,
तो कभी
ध्यान ही न कर
सकेंगे।
जीवन
में कुछ तो
रहने दो जो
औचित्य के पार
हो! जीवन में
कुछ तो बचने
दो जो साधन न
हो,
कारण न हो।
जीवन में कुछ
तो बचने दो जो
बस अपने - आप
में अपना
साध्य हो।
नाचने का मजा
अपने में है।
नाचना क्या
अपने में काफी
नहीं? है।,
जो न नाच
सकते हों, बिलकुल
ही पंगु हों, लकवा खा गये
हों, उनके
लिये जरूरत हो
तो भगवान की
धारणा को बना लें।
पहले कृष्ण की
मूर्ति खड़ी कर
लें, फिर
नाचे। अगर तुम
नाच सकते हो
तो कृष्ण के
आसपास नाचने का
सवाल नहीं है;
जहां तुम
नाचोगे, कृष्ण
आसपास होंगे।
नाचोगे तो
कृष्ण को
आसपास होना ही
है। नृत्य की
भाव - भंगिमा
भगवत्ता है।
जब तुम
शून्य होकर
बैठ जाओगे तो
परमात्मा नहीं
तो और कौन
होगा? जब तुम
मिट जाओगे तो
जो बचेगा उसका
नाम परमात्मा
है।
तीसरा
प्रश्न :
भगवान!
स्वर सभी
असमर्थ मेरे, कैसे
अभिनंदन करूं जी
यही कहता, तुम्हारा
मूक अभिनंदन
करूं।
'जगदीश
भारती!
मौन हो
जाना ही, चुप
हो जाना ही
गहरी से गहरी
बात कहने का
उपाय है। शब्द
तो केवल सतह
पर है। इसीलिए
कोई शब्द सत्य
को अभिव्यक्त
नहीं कर पाता।
न कोई शब्द
प्रेम को
अभिव्यक्त कर
पाता है। न
कोई शब्द
सौंदर्य को
अभिव्यक्त कर
पाता है। सत्य
बड़ा असमर्थ है;
बोल ही नहीं
सकता, अबोल
है। और शब्द
भी बड़े असमर्थ
हैं, नपुंसक
हैं, बस
कामचलाऊ
दुनिया में ठक
हैं, लेन
-देन की
दुनिया में
ठीक हैं। जैसे
गहरे चले वैसे
ही शब्द
व्यर्थ हुए।
अभिनंदन
मौन ही होगा।
अभिनंदन
समर्पण है, झुक
जाना है।
क्यों सदियों
-सदियों में
लोग
प्रार्थना
में झुके हैं?
क्या तुम
सोचते हो
पृथ्वी पर सिर
रख देने से कुछ
धार्मिकता हो
जाती है? पृथ्वी
पर सिर रख
देने से कुछ
धार्मिकता
नहीं हो
जाती। लेकिन
क्या करे आदमी?
शब्द काम
नहीं पड़ते और
धन्यवाद देना
है। धन्यवाद
दिये बिना भी
नहीं बनता, क्योंकि जब
इतना प्रसाद
बरसता हो तो
लाज आती, संकोच
लगता, धन्यवाद
देने का मन
होता; धन्यवाद
न दो तो लगता
है अपराध हुआ।
तो करे क्या
आदमी? असमर्थ,
असहाय-झुक
जाता है! वह
झुकना केवल
मनुष्य की असमर्थता
है, शब्द
की असमर्थता
है, बोल की
असमर्थता है।
पृथ्वी पर सीर
टेक देता है
कि अब और क्या
करूं? अर्पित
मेरी
भावना-इसे
स्वीकार करो!
तुमने
गति का संघर्ष
दिया मेरे मन
को,
सपनों
को छवि के छवि
के इंद्रजाल
का सम्मोहन,
तुमने आंसू
की सृष्टि रची
है आखों में
अधरों
को दी है
शुभ्र
मधुरिमा की
पुलकन!
उल्लास
और उच्छवास
तुम्हारे ही
अवयव
तुमने
मरीचिका और
तृषा का सृजन
किया
अभिशाप
बना कर तुमने
मेरी सत्ता को
मुझको
पग-पग मिटने
का वरदान दिया।
मैं
हंसा
तुम्हारे
हंसते -से
संकेतों पर
मैं
फूट पड़ा लख
बैक भृकुटि का
संचालन
अपनी
लीलाओं से हे
विस्मित और
चकित!
अर्पित
मेरी
भावना-इसे
स्वीकार करो!
अर्पित
है मेरा
कर्म-इसे
स्वीकार करो।
क्या
पाप और क्या
पुण्य? इसे
तो तुम जानो
करना
पड़ता है, केवल
इतना शांत यहां।
आकाश
तुम्हारा और
तुम्हारी ही
पृथ्वी
तुममें
ही तो इन
सासों का आघात
यहां।
तुममें
निर्बलता और
शक्ति इन
हाथों की
मैं
चला कि चरणों
का गुण केवल
चलना है
ये
दृश्य रचे, दी
वही दृष्टि
तुमने मुझको
मैं
क्या जानूं
क्या सत्य और
क्या छलना है।
रच- रच
कर करना नष्ट
तुम्हारा ही
गुण है
तुममें
ही तो है
कुण्ठा इन
सीमाओं की
हे निज
असफलता और
सफलता से
प्रेरित!
अर्पित
है मेरा
कर्म-इसे
स्वीकार करो!
अर्पित
मेरा
अस्तित्व-उसे
स्वीकार करो!
रंगों
की सुषमा रख
मधुऋतु जब
जाती है
सौरभ
बिखरा कर फूल
धूल बन जाता
है
धरती
की प्यास बुझा
जाता गल कर
बादल
चट्टानों
से टकरा कर
निर्झर गाता
है!
तुमने
ही तो पागलपन
का संगीत दिया
करुणा
वन गलना तुमने
मुझको
सिखलाया
तुमने
ही मुझको यहां
धूल से ममता
दी
रंगों
में जलना
मैंने तुमसे
ही पाया!
उस
ज्ञान और भ्रम
में ही तो तुम
चेतन हो।
जिनसे
मैं बरबस
उठता-गिरता
रहता हूं
निज
खण्ड-खण्ड में
हे असीम, तुम
हे अखण्ड
अर्पित
मेरा
अस्तित्व-इसे
स्वीकार करो!
झुकों!
झुक
जाओ पृथ्वी
पर! झुक जाओ
धूल में! कुछ
मंदिरों की
तलाश करनी
जरूरी नहीं है।
तुम जहां झुके
वहां मंदिर है।
तुम जहां अकड़े
वहीं तीर्थ खो
गया-संसार...।
तुम जहां झुके
वहीं तीर्थ बन
गया।
शब्द
तो नहीं कह
पाएंगे, जगदीश!
स्वर नहीं कह
पाएंगे, लेकिन
मौन झुकने की
कला सब कह
देती है-जों
नहीं ईक्ह।।
जा सकता, वह
भी; जो
अव्याख्य है,
वह भी; जो
अनिर्वचनीय
है, वह भी।
ज्ञानी जो
नहीं कह पाते,
भक्त कह जाते
है।
चौथा
प्रश्न :
भगवान!
मैं विवाह
करने ही वाली
थी कि मेरा
होने वाला पति
लापता हो गया
है। हैं बहुत
दुखी हूं।
सांत्वना की
तलाश में आपे
द्वार आई हूं।
'कमला!
नाचो!
पति समय पर
लापता हो
गया-उलझन बची, झंझट
बची। पीछे
बहुत पछतावा
होता। लेकिन
आदमी का मन
ऐसा है कि जो
नहीं है उसमें
आकर्षण है और
जो है उसमें
विकर्षण।
गरीब
सोचते हैं
अमीर हो जाएं।
अज्ञानी
सोचते हैं
ज्ञानी हो
जाएं! भोगी
सोचते हैं
त्यागी हो
जाएं।
अविवाहित
सोचते है विवाहित
हो जाएं।
विवाहित
सोचते हैं पर
जाएं, कैसे मर
जाएं, कब
मर जाएं। जो
नहीं है उसकी
तरफ दौड़ बनी
रहती है।
तू बच
गयी! भगवान का
हाथ रहा होगा।
नहीं तो पति
कुछ ऐसे लापता
नहीं होते।
सदभाग्य है।
अब तू कहती है
सांत्वना दो।
सांत्वना
देने का तो
अर्थ हुआ कि
पहले मैं यह मान
लूं कि तेरा
जो दुख है वह
दुख है। उसे
मैं दुख नहीं
मान सकता।
क्योंकि
जिनके विवाह
हो गये हैं
उनको सुख कहा
है?
जरा चारों
तरफ आंख उठाकर
विवाहितों को
देख।
एक
ज्योतिषी ने
एक नवयुवक को
भविष्य बताते
हुए कहा :
पच्चीस वर्ष
की आयु में
तुम्हारा
विवाह हो
जाएगा।
नवयुवक
ने घबरा कर
कहा : लेकिन
अपने अभी - अभी
तो बताया था कि
मैं कम-से -कम
पचास वर्ष
जीऊंगा।
जिस
दिन विवाह हुआ
उसी दिन आदमी
पर जाता है।
फिर बचता कहां
है!
ढब्बूजी
चंदूलाल से
पूछ रहे थे :
चंदूलाल, कोई
आदमी गलती कर
अपनी गलती का
इकरार कर ले
तो उसे तूम
क्या कहोगे?
'सत्यवादी',
चंदूलाल ने
कहा।
और उसे
जिसने गलती न
की हो, फिर भी
स्वीकार कर ले,
उसे तुम
क्या कहोगे
हंसा...
चंदूलाल?
चंदूलाल
ने कहा :
शादीशुदा।
कमला!
तू बची, तू
धन्यभागी है। 'सुनिये!
आपका जिगरी
दोस्त शादी
करने जा रहा
है। और जिस
लड़की से उसकी
शादी होने
वाली है वह
बिलकुल घटिया
है।
' पति
महोदय चुपचाप
अखबार पढ़ते रहे।
' आप भी
अजीब हैं, उसका
जीवन बर्बाद
हो जाएगा और
अपन चुपचाप
बैठे हैं!'
पत्नी
ने फिर कहा।
फिर भी पति
चुप्पी साधे
रहे।
पत्नी
बौखला उठी : 'क्या
आपका फर्ज
नहीं बनता कि
उसे समझा कर
ऐसा करने से
रोकें?'
'मैं
नहीं जाऊंगा ',
पति ने कहा,
'मुझे कौन
समझाने आया था?
तेरा
पति जरूर बड़ा
ज्ञानी रहा
होगा, जो भाग
गया। अब तू
क्या पता लगा
रही है उसका ?कहीं इसी
ख्याल से तो
यहां नहीं आई
कि अक्सर... अनेक
भागे हुए लोग
यहां हैं...
शायद भाग। हुआ
पति यहां मिल
जाए। पहचानना
मुश्किल होगा।
दाढ़ी
-वाढी ली होगी, गैरिक
वस्त्र पहन
लिये होंगे।
चौबे
जी अपनी भारी-
भरकम पत्नी के
पास बैठे हुए
पूछ रहे थे :
अच्छा यह बताओ
कि आदमी का
एकदम मर जाना
बेहतर है या
घुट-घुटकर?
' मैं
समझती हूं आज
के
तनावग्रस्त
जीवन से छुटकारा
पाने के लिये
मनुष्य को
एकदम मर जाना
चाहिए। ' श्रीमती चौबे ने
अपनी राय
व्यक्त की।
'ठीक
है तो अपनी
दूसरी टन भी
मुझ पर रख लो', कहते हुए
चौबे जी सीधे
सोफे पर लेट
गये। तू
सांत्वना
लेने किस आदमी
के पास आ गयी!
किसी पंडित
-पुरोहित के
पास जाना था, तो तेरी
जन्मपत्री, कुंडली
इत्यादि
देखते, तुझे
भरोसा बंधाते
कि घबड़ा मत; पति पूरब
गये हैं, लौट
आएंगे; कि
ज्यादा दूर
नहीं निकल गये
हैं, अभी
बंबई ही हैं, थोड़ी देर
चेष्टा
करेंगे फिल्म
अभिनेता होने की,
फिर जो पास
के पैसे हज
खर्च होते ही
घर आ जाएंगे, घबड़ा मत।
कुछ विधि-विधान
बताते कि
यज्ञ-हवन करवा
ले, कि
सत्य की कथा
करवा ले। तू
भी कहां मेरे
पास आ गयी!
मैं तो
इतना ही तुमसे
कह सकता हूं
कि अब उस जगह मत
रहना जहां पति
जानते हैं कि
तू रहती है, नहीं
तो कहीं
भूल-चूक से
लौट ही आएं।
जगह बदल ले, ताकि लौट भी
आएं तो तुझे न
पाएं। और अगर
कभी मिलना हो
भी जाए तो
जैसे वे लापता
हो गये ऐसे तू
भी लापता हो
जाना। एक झंझट
बची, एक
व्यर्थ का
उपद्रव बचा।
उपद्रवों में
से जाकर भी
निकलना तो
पड़ता ही है।
निकलना
मुश्किल होता
जाता है, क्योंकि
जाल उलझता
जाता जै। पति
अकेले तो नहीं
आते, मुसीबतें
अकेले तो नहीं
आतीं। फिर
बाल-बच्चे आते
हैं। इसलिए तो
कहा है
ज्ञानियों ने
: मुसीबतें
अकेली नहीं आती।
पति आए, फिर
बाल-बच्चे आए...!
फिर उस
रिश्तेदार
हैं और सास और
ससुर और न
मालूम
क्या-क्या
आएगा...! फिर उस
सब में से, जंगल
में से निकलना
मुश्किल हो
जाएगा। पति
तुझे बचा गये।
अनुग्रह मान,
धन्यवाद दे।
जन्म- जन्म का
साथ होगा तेरा
उनसे! इस बार
कृपा कर गये।
सांत्वना
किस बात की? कुछ
गंवाया थोड़े
ही तूने; कुछ
पाया! चल इस
बहाने यहां आ
गयी। यह भी
कुछ कम है? कौन
जाने इसी
बहाने जीवन मैं
क्रांति हो
जाए! तू कहती
है कि मैं
बहुत दुखी हूं।
तू सोचती है, जो विवाहित
हैं वे सुखी
हैं?
अपने
आसपास जरा आंख
खोलकर देखो।
धन है तो लोग
दुखी हैं, धन
नहीं है तो
लोग दुखी हैं।
पद है तो लोग
दुखी हैं, पद
नहीं है तो
लोग दुखी हैं।
विवाहित हैं
तो दुखी हैं, अविवाहित
हैं तो दुखी
हैं। दुख का
कोई संबंध
बाहर नहीं है,
बाहर की
परिस्थिति से
नहीं है। दुख
का कोई
उत्तरदायित्व
बाहर मत छोड़ो।
मेरे
पास लोग आते
हैं। कोई
इसीलिए दुखी
हैं कि उनके
बहुत बच्चे
हैं;
कोई इसलिए
दुखी हैं कि
उनके बच्चे
नहीं हैं। मैं
कहता हूं : तुम
दोनों जरा आपस
में बातचीत करो,
सत्संग करो।
दो -चार दिन के
लिये घर बदल
लो। जिसके
बच्चे हैं, तुम उसके घर
जाकर रह जाओ
और उसे तुम
अपने घर रख दो।
तब तुम्हें
थोड़ी अकल आ
जाएगी कि तुम
जिन बच्चों के
लिये तड़पे जा
रहे हो वे
बच्चे कैसा
उपद्रव ले आते
हैं। और वह जो
बच्चों से
तड़पा जा रहा
है उसे जरा
फौत में रहने
दो दों-चार
दिन, वह भी
घबड़ा जाएगा।
क्योंकि एकात
में रहने की
क्षमता भी
नहीं है।
अकेलापन काटता
है।
चारों
तरफ नजर फैलाओ।
बुद्धिमान
आदमी वह है जो
दूसरों को
देखकर समझ ले।
बुद्धिहीन वह
है जो खुद भी
गुजर -गुजर कर
न समझे।
जिंदगी बड़ी है।
इसमें अगर हर
अनुभव करके ही
तुम्हें
समझना है तो
और बहुत -बहुत
जन्म लग
जाएंगे फिर भी
शायद समझ न
पायेगी।
समझदार तो दूसरे
को देख कर समझ
लेता है।
चारों तरफ नजर
खोलता है, देखता
है कि जिनके
पास है उनको
क्या है? तब
फिर अगर मेरे
पास नहीं है
तो इस कारण
दुख नहीं हो
सकता। कारण
दुख का कोई और
होगा। न तो
पति की
मौजूदगी से
दुख होता है न
पति के लापता
हो जाने से
दुख होता है।
दुख तो हमारा
आत्म - अज्ञान
है।
तुम
झूठे बहाने मत
खोजो। दुख तो
सिर्फ इसलिये
होता है कि
हमारे भीतर अभी
दीया नहीं
जला- ध्यान का
दीया नहीं जला, ज्योति
नहीं जली
ध्यान की।
ध्यान की
रोशनी है सुख,
आत्मज्ञान
की अनुभूति है
सुख।
जिन्होंने
अपने को जाना
है बस
उन्होंने सुख
जाना है। शेष
सब लोग तो दुख
ही जानते हैं,
दुख में ही
जीते हैं, दुख
में ही मरते
हैं। फिर दुख
के कारण अलग-
अलग हो सकते
हैं; कोई
इस गड्डे में
गिरे कोई उस
गड्डे में
गिरे, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? कोई
इस भट्टी में
जले कोई उस
भट्टी में जले,
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
एक
आदमी करा।
राजनेता था, दिल्ली
का बड़ा नेता
था! बहुत चकित
हुआ जब उसे नर्क
ले जाया गया।
उसने कहा कि
नर्क! मैं वी.
वी. आई. पी. हूं!
नर्क मेरे
लिये? कुछ
भूल-चूक हो
गयी होगी।
शैतान भी थोड़ा
डरा-वी. वी. आई.
पी.! आदमी ताकतवर
था। गांधी
टोपी, अचकन
चूड़ीदार
पैजामा, बिलकुल
पक्का नेता था,
कोई कमी
नहीं थी। और
नेताओं से
नर्क में भी
शैतान डरता है
क्योंकि
हड़ताल करवा
दें, घेराबंदी
करवा दें...।
अभी दिनों से
शैतान तक का
घेराव होने
लगा है।
पुराने
शास्त्रों
में उल्लेख
नहीं है क्योंकि
पुराने
शास्त्रों
में... ये नई - नई
कलाएं विकसित
नहीं थीं। तो
अब तो नेताओं
को भी संभालकर
रखना पड़ता है।
उसने कहा : आप
घबडाएं न, आप
विशिष्ट आदमी
हैं, आपके
लिये विशिष्ट
आयोजन करेंगे।
आप आएं, आपके
लिये विशेष
सुविधा दी
जाएगी। जाप
खुद देख लें, नर्क के कई
खंड हैं। जो
खंड आपको पसंद
आ जाए, वही
रहें।
नेता
प्रसन्न हुए।
यह बात कुछ
बात हुई! नर्क
भी है तो कोई
बात नहीं लेकिन
विशिष्ट
चुनाव का मौका
है। कोई
साधारण आदमी
नहीं हैं!
पहले
खंड में ले
जाया गया। लोग
जलाये जा रहे
थे,
कड़ाहों में
चुडाये जा रहे
थे। नेता ने
कहा : नहीं, यह
नहीं जमेगा।
यह सब तो हम
दिल्ली में
बहुत देख चुके।
किसी तरह तो
दिल्ली से बचे,
अब फिर
कड़ाहे में
जलना! यह नहीं
होगा।
दूसरे
खंड में ले
जाया गया। वहां
कीड़े
-मकोड़े, एकदम
कीड़े - मकोड़े
ही कीड़े
-मकोड़े! लोगो
में घुस रहे, निकल रहे, बाहर आ रहे, भीतर जा रहे;
छेद ही छेद!
नेता ने कहा : यहां
सब दिल्ली की
पुनरुक्ति है,
कुछ नया
दिखलाओ।
ऐसे कई
खंड दिखलाये, नेता
को कुछ जंच।
नहीं। फिर
आखिरी खंड-एक
तो आखिरी था
वह, अब
इसके आगे कुछ
था भी नहीं, और जंच। भी।
थोड़ी अड़चन थी
उसमें, मगर
जिसने दिल्ली
देखी, उसे
क्या अड़चन!
छोटी अड़चन का
क्या रखा है, यह सब तो खेल
-खिलवाड़ था।
अड़चन इतनी थी
कि लोग खड़े थे
मल -मूत्र में
घुटने-घुटने
तक। तो नेता
ने कहा : इससे
हम डरते नहीं,
हम तो
स्वमूत्र तो
पहले से ही
पाते थे।यह
कुछ हमारा
बिगाड़ नहीं
सकता। यह ठीक
है।... तो हम
पहले से ही
जीवन-जल के
परिपोषक रहे हैं।
यह जगह जमेगी।
यह जैसे अपने
लिये अपने
लिये ही बनाई
गयी है। जरा
एक कदम और आगे
है। मूत्र तो
है ही, मी
भी है -एक कदम
और आगे। यह
जरा आगे की
सीढ़ी है। यह
जरा और
सिद्धों के
लिये है। मगर
जमेगी!
और लोग
प्यालियों
में काँफी पी
रहे थे। खड़े
थे घुटने -
घुटने उसमें। नेता
ने कहा कि यह
ठीक है, थोड़ी-सी
तकलीफ है
घुटने-घुटने
मल - मूत्र में
खड़े होना। मगर
यहां मजा ही
मजा है। लोग...
कोई काँफी पी
रहा है, कोई
कोकाकोला पी
रहा है। नेता
ने कहा : यह भी
अच्छा है, दिल्ली
में कोकाकोला
भी मिलना बंद
हो गया था। जो
जिसका दिल हो,
अपनी- अपनी
मौज के लोग...
कोई फैन्टा पी
रहा है।
तरह-तरह की
चीजें पी जा
रही हैं। लोग
पी रहे हैं... बस
एक ही अड़चन है
घुटने -घुटने
तक। नेता ने
कहा यह तो कोई
अड़चन ही नहीं
है। यह तो सुख
समझो। यह तो
हमारे लिये
स्वर्ग है।
लेकिन बस थोड़ी
देर में ही
पता चल गया।
जैसे ही नेता
ने कोकाकोला
की बोतल हाथ
में ली, बस
दो -चार घूंट
ही मार पाया
था कि जोर की
घंटी बजी और
आज्ञा आई कि
अब सब लोग अब
शीर्षासन
करें। तब पता
चला कि नर्क
में कहीं भी
जाओ, नर्क
ही है।
थोड़ी-बहुत देर
को कोकाकोला
भी कहीं-कहीं
मिलता है, मगर
फिर घुटने तक
खड़े होना तो
ठीक था मगर
शीर्षासन
करना! ऐसे
नेता को
शीर्षासन
करना भी आता
था। जिंदगी-
भर और किया ही
क्या! सिर के
बल खड़े रहे।
लेकिन इस
मल-मूत्र में...!
यहां
लोगों ने अलग -
अलग नर्क चुन
लिये हैं, बस
इतना हे फर्क
समझना। उनके
नर्कों की
तस्वीरें अलग
हैं। उनकी
तस्वीरों के
रंग अलग हैं, मगर गहरे
में नर्क ही
नर्क है, दुख
ही दुख है।
अगर सुख चाहिए
तो सिर्फ एक
उपाय है-सिर्फ
एक, एकमात्र-और
वह है स्वयं
को जानना। जो
नहीं स्वयं को
जानता वह तो
दुख
उठाएगा-विवाहित
हो तो विवाह
से दुख उठाएगा;
अविवाहित
हो तो
अविवाहित
होने से दुख
उठाएगा। गरीब
हो तो गरीबी
से दुख उठाएगा,
अमीर हो तो
अमीरी से दुख
उठाएगा। उसके
भाग्य में दुख
है क्योंकि
उसके भीतर सुख
की किरण नहीं
है। सुख भीतर
की घटना है, बाहर से
नहीं आता; इसका
कोई बहिर्गमन
नहीं होता।
तुम सुख को
अर्जित नहीं
कर सकते हो।
सुख को कोई भी
संबंध तुम्हारे
पास क्या है, इससे नहीं
है; तुम
क्या हो, इससे
है। और तब
तुम्हें नर्क
में भी भेज
दिया जाए, तो
भी तुम सुखी
रहोगे। और ऐसे
तुम स्वर्ग
में भी जाओ तो
भी तुम दुखी रहोगे।
तुम जरा सोचो,
अगर तुम
पैसे हो अभी, ऐसे उठाकर
किसी चमत्कार
से स्वर्ग में
बिठा दिया जाए,
तो तुम क्या
करोगे? तुम
सोचते हो कुछ
फर्क पड़ जाएगा?
नहीं, जरा
भी फर्क नहीं
पड़ेगा।
एक
ईसाई पादरी
मरा,
स्वर्ग
पहुंचा।
पादरी था तो
स्वर्ग
पहुंचना ही था।
सेंट पीटर ने
दरवाजा खोजा
स्वर्ग का। और
पादरी को
स्वर्ग के
भ्रमण के लिये
और उपयोग के
लिये एक
फटियल-सी
पुरानी फोर्ड
टी. माडल कार
दी, लेकिन
फिर भी पादरी
प्रसन्न हुआ
कि कुछ भेंट तो
दी। उसे कुछ
पता नहीं था
कि और
क्या-क्या चल
रहा है यहां।
और भी खुश हुआ जब उसने
देखा कि उसी
के पास से
अयातुल्ला, एक मुसलमान
मौलवी साइकिल
पर ही चला जा
रहा है। तो
उसने कहा : अरे!
अब देखो फर्क
मुसलमान होने
का और ईसाई
होने का! हम जा
रहे हैं फोर्ड
में, माना
कि टी. माडल है,
बाबा आदम के
जमाने
का-जिसमें
ईश्वर ने आदम
और हब्बा को
बिठाकर
स्वर्ग के
बाहर निकाला
था-मगर है तो
आखिर... कार तो
कार ही है! और
फिर जो समझदार
हैं वे इसको
ऐसा नहीं
कहते... वे इसको
कहते हैं :
एंटीक! जो
जानकार हैं वे
इसकी बड़ी कद्र
करते हैं।
तभी
उसने देखा एक
रबाई फर्र से
एक राल्सरायस
में निकला।
उसने कहा : ये
यहूदी मात
यहां भी किये
दे रहे हैं।
ये जिंदगी में
भी मजा करते
रहे,
वहां भी धन
इकट्ठा करते
रहे।
रबाई
तो पूरे मजे
में जीता जै, शादी
भी करता है, बच्चे भी
होते हैं मकान
भी होता है, धन-दौलत भी
होती है। रबाई
कोई ऐसे कोई
त्यागी, भोग
को छोड़ -छाड़ कर
भाग। हुआ नहीं
होता। यह तो
हद हो कई और यह
तो बड़ी
ज्यादती हो गई।
और हम जीसस
में मानने
वाले... पहुंचा
एकदम नाराजगी
में, ईर्ष्या
जन्मी।
तुम देखते
हो,
तुम जो यहां
हो वहीं वहां
हो जाएगा।
किसी को
साइकिल पर
देखकर बड़ा
अहंकार जन्मा
था- अहा! दिल
खुश हुआ था।
और रबाई को
देखा
राल्सरायस
में जाते हुए
और रसाई ने
हाथ हिलाया...।_पुरानी
पहचान थी, एक
ही गांव में
दोनों रहे थे।
आग लग गयी
छाती में। अब
उसे दिखाई पड़ी
कि यह एंटीक
वगैरह कुछ
नहीं है, यह
फटियल गाड़ी है।
पहुंचा वापिस,
सेंट पीटर
से कहा कि यह
अन्याय हो रहा
है। ये यहूदी
दुनिया में भी
मजा करते रहे,
सारी
दुनिया का धन
इकट्ठा किये
बैठे थे। और
यह रबाई इसे
में भलीभाती
जानता हूं; न कभी इसने
पूजा की न कभी
प्रार्थना की,
इसको फुरसत
ही नहीं थी।
होटल, क्लब,
गोल्फ, और
न मालूम कहां-कहां
के उपद्रवों
में यह रहा।
इसने ऐसा कोई
पाप नहीं है
जो न किया हो।
यह मेरे ही
सामने तो रहता
था, इसको
मैं भलीभांति
जानता हूं। हम
पूजा कर -करके
मरे और यह
फोर्ड टी.
माडल... और इस लफंगे
को राल्सरॉयस!
सेंट
पीटर ने कहा :
धीरे, आहिस्ता
बोलो! वह
परमात्मा का
निकट का
रिश्तेदार है।
और तुम्हें
याद होना
चाहिए कि जीसस
भी यहूदी थे, उनका भी वह
निकट
रिश्तेदार है।
हम तो बहुत
पीछे आये, बाकी
दूसरे लोग तो
बहुत पीछे आये।
पादरी
ने छाती पीट
ली। तो उसने
कहा : यहां भी
रिश्तेदारी
चलती है, भाई-
भतीजावाद!
नहीं; तुम
अगर एकदम से
ऐसे के ऐसे
उठाकर स्वर्ग
भी पहुंचा
दिये जाओ तो
तुम यही रहोगे।
यही
ईर्ष्याएं, यही वैमनस्य,
यही द्वेष,
यही
स्पर्धाएं
तुम्हें वहां भी घेर
लेंगी। तुम
सुख न पा
सकोगे। और तुम
अगर अपने
अंतस्तल में
विराजमान हो
जाओ, ध्यानस्थ
हो जाओ तो
स्वर्ग यहीं
उतर आयेगा।
स्वर्ग कहीं
और थोड़े ही है,
नर्क कहीं
और थोड़े ही है।
ये कोई
भौगोलिक
स्थितियां
थोड़े ही हैं।
स्वर्ग और
नर्क
तुम्हारी
मनोदशाए हैं।
स्वर्ग है
स्व- ज्ञान और
नर्क है स्व-
अज्ञान।
तू
कहती है! मैं
बहुत दुखी हू!
कमला, व्यर्थ
दुखी है। कीचड़
से बच गई, अब
तेरा नाम कमला
है, कमल बन।
पति भाग गया, धन्यवाद दे,
सदा-सदा के
लिये अनुग्रह
मान। कभी मिल
जाये तो चरण
छूना। कहना :
गुरुदेव! हे
सदगुरु!
तुम्हारी
अपरंपार कृपा!
ठीक समय रहते
तुम भाग गये।
और जरा देर हो
जाती और घोड़े
पर बैठ जाते
और बैड- बाजे
बज जाते, तो
फिर बचना
मुश्किल हो
जाता। स्त्रियों
का बचना तो और
भी मुश्किल हो
जाता है, क्योंकि
पुरुषों ने
उन्हें ऐसा
दीन कर दिया है।
सदियों
-सदियों तक
उन्हें काम
नहीं करने
दिया दुनिया
में, रोटी-रोजी
नहीं कमाने दी;
क्योंकि वे
रोटी-रोजी
कमाने लगें तो
फिर पति की जो
मालकियत है वह
कहां टिके? जब पत्नी
खुद रोटी-रोजी
कमाने लगे तो
फिर इतनी
निर्भर नहीं
रह जाती।फिर
वह यह नहीं
कहेगी कि मैं
तुम्हारे
चरणों दासी।
किसलिये
कहेगी? और
अगर तुमसे
ज्यादा कमाये
तो फिर
तुम्हीं को
लिखना
पड़े-तुम्हारे
चरणों का दास!
कोई
पति पसंद नहीं
करता अपने से
ज्यादा पढ़ी-लिखी
लड़की से विवाह
करना। कोई
पुरुष पसंद
नहीं करता।
क्योंकि
उसमें बड़ी
हीनता मालूम
होती है।कोई
पुरुष पसंद
नहीं करता कि
पत्नी उससे
ज्यादा कमाये, क्योंकि
तब उसके
अहंकार को चोट
लगती है।
तुम्हारा
होने वाला पति
भाग गया, अच्छा
हुआ।
सांत्वना मत
खोजो, सत्य
खोजो। इस अवसर
का उपयोग कर
लो। इस अवसर
को
अंतर्यात्रा
के लिए चुनौती
बना लो। पति
से तो विवाह
चूक गया, क्यों
न परमात्मा से
विवाह कर लें,
क्यों न अब
महासगाई हो
जाए! तो कमला, तू कमल हो
जाए! कीचड़
में कमल छिपा
है। कोई सोच
भी नहीं सकता
कि कीचड़ में
और कमल छिपा होगा!
कहां कीचड़, कहां कमल! मगर
कीचड़ से कमल
पैदा होता है।
ऐसे ही हम
सबके भीतर कमल
छिपे हैं।
कीचड़ भी रहें
तो रहकर पर
जाएंगे। कमल
भी हो सकते
हैं। लेकिन ये
कमल चैतन्य के
कमल हैं। ये
कमल ध्यान की
ही ऊर्जा से
खिल सकते हैं-
ध्यान का ही
सूरज निकले
तुम्हारे
भीतर तो।
और
ध्यान का अर्थ
क्या है? निर्विचार,
मौन, शांत,
ऐसी चैतन्य
की अवस्था कि जहां
कोई हलचल न हो,
कोई चहल
-पहल न हो, कोई
तरंगें न हो।
ऐसा ही अगर कर
पाओ तो
महासगाई हो
जाए। अब मौका
ही आ गया। अब क्या
छोटे -मोटे
किसी की
दुल्हन
बनना-राम की दुल्हन
बनो! अब राम से
ही हो जाये
गठबंधन।
सांत्वना
नहीं दूंगा।
सांत्वना मैं
किसी को भी
नहीं देता।
सांत्वना जो
दे वह दुश्मन
है,
क्योंकि वह
मलहम -पट्टी
कर देता है।
मेरा भरोसा
सर्जरी में है,
मलहम पट्टी
में नहीं है।
इस जगत
का सारा प्यार
नश्वर है -दो
कौड़ी का है।
तुम
प्यार नहीं कर
पाओगे।
तुम
नश्वर हो तो
भावों में
अमरत्व कहां
से लाओगे? तुम
प्यार नहीं कर
पाओगे।
पथरीली है यह
प्रेम डगर, कोमल तम जग
के नारी, नर
कुछ पहले ही
दम तोड़ गए।
कुछ
बैठ गये थोड़ा
चलकर,
प्रियतम, इस
पथ में पांव न
दो,
चलते
-चलते थक
जाओगे।
मैं आज
प्रणय-पथ में
आयी,
मन में
सुख के सपने
लायी,
पर
इसका कुछ भी
ठीक नहीं-
कल कौन
तुम्हारे मन
भायी?
यह
ज्ञात नहीं, इस
जीवन में
तुम
किस -किसके
कहलाओगे?
मानव
का मन ही है
चंचल,
अपने
से भी करता है
छल,
दो
छींटों से बुझ
जाता है,
विक्षिप्त
धधकता
विरहानल
तुम भी
तृणवत् मन के
गति
के
हलकोरों में
बह जाओगे।
मैं
तुम से
प्रियतम कहती
हूं
तुम
ज्यादा हो, कम
कहती हूं मैं,
किन्तु
प्रणय के
बन्न्धन को,
सच
पूछो तो भ्रम
कहती हूं
तुम
सुख के सुन्दर
धोखे में
उर को
कब तक उरझाओगे?
तुम
प्यार नहीं कर
पाओगे।
तुम
नश्वर हो तो
भावों में
अमरत्व
कहां से लाओगे?
तुम
प्यार नहीं कर
पाओगे।
स्वप्न
है प्रेम एक।
स्वप्न
शाश्वत का!
स्वप्न है इस
तरह जीने का, जैसे
कि ज्ञानी
जिये, ध्यानी
जिये। स्वप्न
है सुंदरतम को
पाने का, मगर
कहां तुम पानी
के बबूलों में
सुंदरतम को
पाओगे? है।,
कभी-कभी
सूरज की किसी
किरण में पानी
का कोई बबूला
इंद्रधनुष
जैसा चमक जाये
क्षण- भर को, बात और। मगर
अब फूटा तब
फूटा। रेत की
इस दुनिया में
घर कैसे
बनाओगे? ही,
बनाते हैं
घर, बच्चे
बनाते हैं घर,
मगर उन घरों
में कोई रह तो
नहीं जाता। और
वे घर बन भी
नहीं पाते और
गिर जाते हैं।
कागज की नावों
में तैरने चले
हो! नावें
कागज की बस
नावें कहलाती
हैं, नावें
हैं नहीं। और
हो सकता है
थोड़े -बहुत तर
भी जाओ, मगर
कितनी दूर तर
पाओगे? इस
अथाह सतर मैं
कागज की नावें
काम न देंगी।
प्रेम
जिसको तुम
कहते हो, कागज
की नाव है।
प्रार्थना की
नाव पकड़ाए।
लेकिन तुझे
चोट लगी है।
तेरे अहंकार
को पीड़ा हुई
है।
स्वाभाविक है।
मैं समझता हूं।
बड़ी
प्रतीक्षा
तूने की होगी।
शहनाई बजती
होगी, द्वार
पर अतिथि
इकट्ठे हुए
होंगे।
सहेलियों ने
तुझे सजाया
होगा। और फिर
आया नहीं
दूल्हा, फिर
घोड़े की टापें
सुनाई ही न
पड़ी। फिर खबर
आई दूल्हे की
जगह, कि
भाग गया है, लापता हो
गया है। तेरे
मन पर सांप
लोट गये होंगे।
तो सारे
स्वप्न धूल -
धूसरित हो गये
होंगे। तुझे
पीड़ा हुई है।...
लेकिन पीड़ा से
ही तो कोई
जागता है।
पीड़ा ही तो चुनौती
बनती है। इसे
चुनौती समझ।
इसे एक अवसर
समझ-एक नयी
यात्रा का, एक नये
संक्रमण का।
ये
बियाबान मेरे
वास्ते बने
होंगे
इनकी
रौनक न बढाऊं
तो किधर
जाऊंगा
सर्द
रातों में
चिलकती हुई
धूपों के तले
मैं न
गाऊंगा तो मर
जाऊंगा।
बरहा
मुझको सफर
करना है
राह मैं
आग बिछा दो तो
भी तर जाऊंगा
तुमने
जिस राह पर
अपनी हो बनायी
मंजिल
ताउम्र
भूल से उस राह
नहीं जाऊंगा।
चंद
सांसों की
सलामी में
जिंदगी खो दूं
ऐसा
सौदा तो सासों
का न कर
पाऊंगा
कोई
अपना तो नहीं
रात के सायों
के सिवा
काले
सूरज को उजाले
तो न दे
पाऊंगा।
तुमने
छीनी हैं जो
मुझसे वो
सुनहरी
किरणें
उनकी
स्याही में
बहुत गहरे उतर
जाऊंगा
फिर न
मैं लौट के उस
गांव कभी
आऊंगा
अब ना
मातम तेरे
जाने का मैं
मनाऊंगा।
कसम जो
कि हो गयी बात, एक
खेल से
छुटकारा
हुआ। समय रहते
छुटकारा हुआ
चंद
सांसों की
सलामी में
जिंदगी खो दूं
ऐसा
सौदा तो में
सांसों का न
कर पाऊंगा।
फायदा
भी क्या था? होता
भी क्या, हो
भी क्या जाता?
धोखा खड़ा कर
देते हैं हम।
लोगों को
आशाओं के
सहारे पर
जिलाये जाते
हैं हम। छोटे
बच्चों को
कहते हैं : बड़े
हो जाओगे तब
सुख मिलेगा।
फिर वे बड़े हो
जाते हैं तो
कहते हैं :
विवाहित हो जाओगे
तब सुख मिलेगा।
फिर वे
विवाहित हो
जाते हैं तो
कहते हैं : जब
तक बच्चे न
होंगे तब तक
कैसे सुख? फिर
बच्चे हो जाते
हैं तो कहते
हैं कि अब
बच्चों का
विवाह
इत्यादि करो
तब सुख मिलेगा।
और ऐसे -ऐसे
मौत आती है, सुख नहीं
आता। ऐसे हम
टालते हैं।
ऐसे हम स्थगित
करते हैं। हम
कहते हैं कल।
और कल के हम
बड़े सपने
संजोते हैं।
और आज? आज
नर्क में जीते
हैं।
मैं
तुमसे कहता
हूं : आज ही
स्वर्ग हैं, अभी
स्वर्ग है! कल
पर मत टालो।
और स्वर्ग में
होने के लिये
कोई भी बाह्य
उपकरण आवश्यक
नहीं है। तुम जहां
हो जैसे हो, वैसे ही
अपने भीतर
डुबकी मार लो।
और तब फिर
रेगिस्तान भी
उद्यान हो
जाते हैं। और
तब अंधेरी
रातें सूरज की
रोशनी से भर
जाती हैं। और
तब काटे फूलों
में
रूपांतरित हो
जाते हैं।
ये बियाबान
मेरे वास्ते
बने होंगे
इनकी
रौनक न बढाऊं
तो किधर
जाऊंगा
सर्द
रातों में
चिलकती हुई
धुपों के तले
मैं न
गाऊंगा तो मर
जाऊंगा।
फिर
गीत उठने शुरू
होते
हैं-रेगिस्तानों
से भी
मरूद्यानों
के;
कांटो से भी
फूलों के; अंधेरी
रातों से भी
सुनहरी
प्रभातों के।
चुनौती
स्वीकार करो।
सांत्वना मत
खोजो।
सांत्वना
कमजोरों और
कायरों के
लिये छोड़ो।
जिनके पास
थोड़ी आत्मा है
वे जीवन की
प्रत्येक
स्थिति को
चुनौती बना
लेते हैं। हर
चुनौती सीडी
बन जाती है
प्रभु के
मंदिर की।
पांचवां
प्रश्न :
भगवान!
राजनीति में
सफल होने का
नुस्सा क्या
है?
'महेन्द्र!
एक ही
नुस्सा है :
बुद्धि नहीं
होनी चाहिए।
या हो तो
बिलकुल
न्यूनतम होनी
चाहिए।
बुद्धि हो तो
फिर राजनीति
में सफल न हो
पाओगे। वहां
बुद्धओं की
गति है।
क्योंकि
राजनीति मैं
बुद्धओं के
अतिरिक्त और
कोई उत्सुक
नहीं होता।
सफलता की तो
बात दूर; जिनके
पास कुछ
बुद्धि है, कुछ चैतन्य
का निखार है
वे गीत रचेंगे,
वीणा
बजाएंगे, नृत्य
में उतरेंगे,
ध्यान में
डूबेंगे, प्रार्थना
करेंगे। बहुत
कुछ है करने
को उनके पास।
जिंदगी बहुत
बड़ी है और
जिंदगी में
बड़े अनूठे- अनूठे
अमृत के आयाम
हैं। वे
राजनीति की
कीचड़ में पड़ेंगे!
किसलिये? राजनीति
तो उनके लिये
है जिनके लिये
कुछ और नहीं।
जो
मूर्ति नहीं
बना सकते, जो
चित्र नहीं
रंग सकते, जो
गीत नहीं गा
सकते, जो
कुछ भी नहीं
कर सकते-उन सब
अयोग्यों के
लिये राजनीति
है। आखिर
अयोग्यों के
लिये भी तो
कुछ होना
चाहिए।
जिनमें और कोई
योग्यता नहीं
है उनमें
राजनीति की
योग्यता होती
है।
राजनीति
के लिये
बुद्धि नहीं
चाहिए।
क्योंकि
बुद्धिमान
आदमी इतनी
बेईमानी नहीं कर
समता; कुछ तो
सोचेगा बुद्धिमान
आदमी इतने
धोखे नहीं दे
सकता। कुछ तो
विचारेगा!
बुद्धिमान
आदमी इतने झूठ
नहीं बोल सकता,
आखिर खुद की
आत्मा
कचोटेगी। और
राजनीति तो
सिर्फ झूठे
आश्वासन हैं।
सिर्फ झूठ पर
झूठ। अत्यंत
सोई हुई चेतना
चाहिए
राजनीति में
सफल होने के
लिये।
शहर
में
एनसेफेलाइटिस
(मस्तिष्क
-ज्वर ) से अनेक
मौतों की खबर
पढ़कर चिंतित
हुई पत्नी
अपने राजनेता
पति से कहा :
क्यों, पढ़ा
आपने, यह
रोग यहां भी
फैल गया!
राजनेता
ने कहा : तो
क्या हुआ?
तो
क्या? पत्नी
बोली, 'मुझे
बड़ा डर लग रहा
है कि कहीं
तुम्हें...?
'घबराओ
मत!' राजनेता
ने कहा, 'इस
रो का संक्रमण
केवल
मस्तिष्क हो
तभी होता है।
'आखिर
मस्तिष्क हो
तो ही
मस्तिष्क का
ज्वर हो सकता
है।
मैंने
सुना है कि एक
आदमी के
मस्तिष्क का
आपरेशन किया
जा रहा था।
बड़ा आपरेशन था, पूरा
मस्तिष्क
खोपड़ी से बाहर
निकाल लिया
गया था। और
डाँक्टर
मस्तिष्क को
साफ -सुथरा
करने में लगे
थे। मरीज
बिस्तर पर
लेटा था। तभी
एक आदमी भीतर
भाग। हुआ आया,
उसने कहा कि
नेता जी, आप
यहां क्या कर
रहे हैं? आप
तो देश के
प्रधान
मंत्री चुन लिये
गये।
वह
आदमी एकदम
उठकर खड़ा हो
गया। डाँक्टर
तो बड़े हैरान
हुए! वह तो
चलने ही लगा।
डाक्टरों ने
कहा : अरे भाई, आपका
मस्तिष्क तो
यहीं है। उसने
कहा : अब
मस्तिष्क की
क्या जरूरत है?
अब रखो यहीं।
अब करते रहो
साह-सुथरा। अब
मुझे
मस्तिष्क की
क्या जरूरत? मैं मुल्क
का प्रधान
मंत्री हो गया
हूं। अब तो
मस्तिष्क हो
तो अड़चन होगी।
तुम
पूछते हो :
राजनीति में
सफल होने का
नुस्सा क्या
है?
बुद्धि का
अभाव चाहिए, बेईमानी
चाहिए, झूठ
चाहिए। हर तरह
से एक ही
दृष्टि चाहिए
बस, कि
किसी तरह पद
पर पहुंच जाएं;
मार्ग ठीक
हो कि गलत, साधन
ठीक हो कि गलत,
कोई चिंता
नहीं-न शुभ की
न अशुभ की, न
नीति की न
अनीति की।
इतना कठोर
हृदय चाहिए कि
लोगों के सिर
की सीढ़िया बना
सको। और इतनी
कुशलता चाहिए
के चेहरे बदल
सको। इतने
मुखौटे चाहिए
कि जब जैसी
जरूरत पड़ जाए
वैसा मुखौटा
लगा लिया।
होटल
में एक पहलवान
शराब पीकर
अपने दाएं तथा
बाएं बैठे
लोगों को
चैलेंज कर रहा
था। दाहिनी ओर
उंगली उठाकर
बोला : गधो...।
बाइ ओर उंगली
उठाकर बोला :
घोड़ो...। है तुम
लोगों में से
किसी की
हिम्मत जो मुझ
से आकर कुश्ती
लड़े?
तुरंत
एक प्रसिद्ध
राजनेता, जो
दाहिनी ओर
बैठा था, उठा
और बाइ ओर
जाने लगा।
पहलवान ने
सीना फुलाते
हुए उसे घूरा,
और कहा :
क्यों बे
नेताजी के
बच्चे, तू
लड़ेगा मुझसे?
नेताजी
ने कहा : अरे
पहलवान साहब!
मेरी क्या मजाल
आपसे लड़ने की!
मैं तो गलत
साइड पर गधों
की तरफ बैठ
गया था, सो
घोड़ों की तरफ
जा रहा हूं।
मुखौटे
बदलने की
हिम्मत चाहिए।
लोगों के जूते
चाटने की
हिम्मत चाहिए।
झूठ की कुशलता
चाहिए। मूड
सपने देखने की
कुशलता चाहिए।
डब्बू
जी चंदूलाल से
कह रहे थे :
जानते हो चंदुलाल, मैं
रोजाना दो सौ
पचास रुपये
बचाता हूं!
ऐसे करते
-करते आज नहीं
कल करोड़पति हो
जाऊंगा।
चंदूलाल
ने कहा : वह
कैसे?
ढब्बूजी
ने कहा : आजकल
मैं रोजाना
रेल में सफर करता
हूं। और रेल
में एक जंजीर
का गलत
इस्तेमाल
करनेवाले को
दो सौ पचास
रुपये रुपये
जुर्माना
भरना पड़ता है।
चंदूलाल
ने कहा : पर
उससे क्या?
डब्बू
ने कहा : तुम
समझे नहीं, आज
तक मैंने वह
जंजीर नहीं
खींची। जो सौ
पचास रुपये
रोज बचते हैं।
करोड़पति हो
जाने वाला हूं।
तुम देखना तुम
जरा देखते रहो।
इस तरह
के
मूढतापूर्ण
गणित बिठाने
की क्षमता चाहिए।
राजनीति जड़ों
का,
जड़ताओं का
अड्डा है। वहां
जो जितना
ज्यादा जड़ हो
उतने सफल होने
की संभावना है।
बुद्धिमान तो
बहुत पहले हट
जाएंगे दौड़ से
क्योंकि दौड़
इतनी गंदी है।
महेन्द्र!
तुमने ये
प्रश्न पूछा
ही क्यों? क्या
राजनीति में
उतरने में
इरादे हैं!
क्या जीवन में
कुछ और करने
को नहीं बचा? क्या जीवन
में और कुछ
करने योग्य
नहीं मालूम
होता? लेकिन
राजनीति में
उतरने की आकांक्षाएं
पैदा होती हैं।
क्योंकि राजनेताओं
को इतनी
प्रतिष्ठा
मिलती है। यह
दुर्भाग्य है
कि राजनेताओं
को इतनी प्रतिष्ठा
मिलती है। यह
ज्यादा दिन
चलेगा नहीं।
भविष्य
राजनीति का
नहीं है।
राजनेताओं की
प्रतिष्ठा
धीरे - धीरे
डूबती ही जाने
वाली है।
जैसे
राजा चले गये
ऐसे ही
राजनेता भी
चले जाएंगे, मैं
तुमसे ये कहता
हूं। आज नहीं
कल तुम देखोगे,
कुछ नये
लोगों की ही
प्रतिष्ठा और
पूजा होगी।
सृजनात्मक
लोगों की
प्रतिष्ठा और
पूजा होगी। मगर
अभी थोथे लोग
पजेऊ जाते हैं।
तुम्हारे मन
में भी आकांक्षा
उठती है। मगर
जरा गौर तो
करो, इन
थोथे लोगों की
तरह जरा देखो
तो! इनकी
आत्माएं
इन्हें कभी का
छोड़ चुकी हैं।
इन्होंने
अपनी आत्माएं
बेच दी हैं और
पद खरीद लिये
हैं। इनसे
ज्यादा गरीब
आदमी, इनसे
ज्यादा
भिखमंगे आदमी
खोजना कठिन है।
मगर अखबारों
में इनका नाम
देखकर, रोज
इनकी
तस्वीरें मन
में भाव उठता
है : कभी हम भी
कुछ हो जाएं!
एक
अदालत में
मुकदमा चल रहा
था। एक
राजनेता को
किसी होटल में
किसी आदमी ने
उल्लू का
पट्टा कह दिया
था। स्वभावत:
राजनेता
नाराज हो गया।
उसने अदालत
में मानहानि
का मुकदमा
चलाया।
मुल्ला
नसरुद्दीन
उसका गवाह था।
मजिस्ट्रेट
ने कहा कि जिस
आदमी ने उल्लू
का पहा कहा है
उसका कहना है
कि होटल में
कम से कम दो सौ
पचास आदमी
मौजूद थे।
मैंने किसी का
नाम नहीं लिया।
है।,
मैंने
उल्लू का
पट्टा शब्द का
उपयोग किया है।
लेकिन मैंने
राजनेता को
उल्लू का
पट्टा नहीं
कहा। वहां दो सौ
पचास लोग
मौजूद थे, मैं
किसी को भी कह
सकता हूं। मैं
खुद को भी कह
सकता हूं। नाम
मैंने किसी का
लिया नहीं।
इसलिये
राजनेता नाहक
ही भड़क गये
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन से
पूछा
मजिस्ट्रेट
ने कि तुम
गवाह हो
राजनेता के, क्या
सबूत है तुम्हारे
पास कि इस
आदमी ने
राजनेता को ही
उल्लू का
पट्टा कहा था?
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा कि छाती
पर हाथ रखकर, खुदा
की कसम खा कर
कहता हूं कि
इसने राजनेता
को ही उल्लू
का पट्टा कहा
था।
लेकिन
मजिस्ट्रेट
ने पूछा : दो सौ
पचास लोग वहां
थे,
नाम इसने
किसी का लिया
नहीं। तुम
इतना
बलपूर्वक
कैसे कहते हो?
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा कि अब आप
मानते नहीं तो
सच्ची बात कह
दूं। दो सौ
पचास लोग थे मगर
उल्लू का
पट्टा वहां एक ही था।
इसने राजनेता
को ही उल्लू
का पट्टा कहा
है।
महेन्द्र!
तुम्हें
उल्लू का
पट्टा होना है? जिंदगी
में कुछ और
करने को है।
जिंदगी में
कुछ और करो।
यह तो छोड़ दो
जो कूड़ा-करकट
है। यह तो छोड़
दो तुम समाज
के चौथे वर्ग
कों-शूद्रों
को। मैं
राजनीति को
शूद्रों का
धंधा कहता हूं।
राजनीति यानी
शूद्रता। अब
हमें बदल देनी
चाहिए
परिभाषाएं, जमाना बदल
गया। अब हम
शूद्र कहते
हैं, बुहारी
लगा रहा है
कोई आदमी उसको।
काहे के लिये?
स्वच्छता
कर रहा है, उसको
शूद्र कह रहे
हो? ब्राह्मण
कहना चाहिए।
स्वच्छता कर
रहा है। और
राजनेता सब
तरह की गंदगी
फैला रहा है, उसको तुम
नेता समझ रहे
हो। शूद्र!
शूद्र
होने की कोई
जरूरत नहीं है।
ब्राह्मण बनो!
ब्रह्म को
जानो। और जानो
नहीं केवल, प्रगट
भी करो, अभिव्यक्त
भी करो।
तुम्हारे
गीतों में
झलके, तुम्हारे
नृत्यों में
उतने।
सृजनात्मक
कोई आयाम पकड़ो।
राजनीति तो
विध्वंस है।
छठवां
प्रश्न :
भगवान!
आपने अपना
बनाया,
मेहरबानी
आपकी हम तो इस
काबिल न थे,
है
कद्रदानी आपकी
आपने
अपना बनाया...
' कृणातीर्थ!
तुम्हें
पता नहीं है
कि तुम्हारे
भीतर कितने हीरे
पड़े हैं!
तुम्हें पता
नहीं है कि
कितना बड़ा
साम्राज्य
तुम्हारे
भीतर है, कि
तुम सम्राट
हो! तुम्हें
नहीं दिखाई
पड़ता तुम्हारा
राज्य, मुझे
तो दिखाई पड़ता
है। तुम्हें
नहीं दिखाई
पड़ती अपनी
सोने की खदान,
मुझे तो
दिखाई पड़ती है।
तुम्हारी
आखों में
तुम्हारा कोई
मूल्य नहीं है
क्योंकि
तुमने अपने को
कभी देखा नहीं,
पहचाना
नहीं।
पहचानते, जानते,
थोड़ा
परिचित होते,
तो पाते कि
तुम सम्राट हो,
सम्राट की
तरह पैदा हुए
हो! इस अस्तित्व
में जहां
परमात्मा के
स्रोत से सबका
आगमन होता है,
कोई सम्राट
से कम हो भी
कैसे सकता है!
मेरे
ये चरण जो कि
पग-पग पर
कम्पमान
मेरा
यह मस्तक है
जिसका अभिशाप ज्ञान
मेरे
ये हाथ जो कि
फैले हैं अंजलि
बन
मेरा
ये
उरउठना-गिरना' जिसका
विधान!
इनमें
ही मेरे अस्तित्व
का पराभव है
अपनी
सीमा से उठ
सकना कब सम्भव
है?
मेरे
आगे जो
अनजाना-सा है
प्रसार--
इसमें
किसकी सत्ता, है
किसका अहंकार?
टेढ़े -
मेढ़े अगणित पथ
अगणित लोगों
के
किन्तु
निगल लेता है
प्रति पथ को
अंधकार!
ज्ञात
है मुझे-तुम
कह दोगे, 'यह
सपना है!'
पर मैं
पंथी हूं पथ
मेरा भी अपना
है!
खिलना-कलियों
का गुण, मुरझाना-फूलों
का
टूट
-टूट कर फिर
-फिर चुभ-चुभ
जाना शूलों का
गुण
उसका 'जो कुछ' है, निर्गुण
अस्तित्वहीन
मेरे
जीवन का
गुण-संचय है
भूलों का!
मेरा
विश्वास
शिथिल, मेरा
स्वर धीमा है
अपराजित
अंधकार, ज्ञान
एक सीमा है!
मेरे
सपनों में हंस
-हंस पड़ते नव
-प्रभात
मेरे
संघर्षों में
धुंधली-सी निहित
रात
मेरे
चरणों पर
लहराते हैं
सप्त सिंधु
मेरे
मस्तक पर
मंडराते आकाश
सात!
क्षिति
की प्राचीरों
से मुझको
टकराना है
मेरे
आगे सुख-दुख
का ताना-बाना
है?
शशि
में शीतलता है,रवि
में है असह
ताप
अलि
में गुन-गुन
गुंजन, कोयल
में है
प्रलाप!
मेरे
होठों पर हिम, उर
में अंगारे
हैं
अपनी
सासों में मैं
युग-युग की
लिये माप!
सासों
का स्रोत कहां? युग
भी अनजाना है
मैं
कहता- 'कब
मैंने निज को
पहचाना है?
बस
उतनी ही भूल
है- निज को पहचाना
नहीं। नहीं तो
सारा आकाश
तुम्हारा है, और
सारे चाद-
तारे
तुम्हारे
भीतर हैं। निज
को पहचाना
नहीं, अन्यथा
तुम शाश्वत हो,
न तुम्हारा
कोई जन्म है न
कोई मृत्यु है।
देह नहीं हो
तुम, मन भी
नहीं हो तुम।
तुम स्वयं
परमात्मा हो।
जानोगे, जागोगे
तो चकित हो
जाओगे-विस्मय-विमुग्ध!
नाच उठोगे।
अनुग्रह से, आनद से, उत्सव
से!
कृष्णतीर्थ!
तुम्हें पता
नहीं तुम कौन
हो। मिट्टी
में दबे हीरे
हो! मिट्टी
में छिपे अमृत
हो! मृण्मय
होगा दीया, लेकिन
ज्योति
चिन्मय है- और
वही ज्योति
तुम हो।
इसलिए
मेरे पास जो
भी आये, स्वीकार
है। मैं पूछता
नहीं पाप-
पुण्य, मैं
पूछता नहीं
योग्यता-
अयोग्यता, मैं
पूछता नहीं
जाति - धर्म, मैं पूछता
नहीं कुछ भी।
जो भी मेरे
पास आये
स्वीकार है, क्योंकि
प्रत्येक के
भीतर
परमात्मा
विराजमान है,
किसको
अस्वीकार करो!
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि आप सभी को
संन्यास दे देते
हैं?
सभी को! मैं
भी क्या करूं?
परमात्मा
ने सभी को
जीवन दे दिया
है। और जब
उसने नहीं
पूछा तो मैं
पूछने वाला
कौन हूं? और
अगर उसने
भरोसा किया है
तो मैं संदेह
करनेवाला कौन
हूं? जो भी
आये, स्वीकार
है, अंगीकार
है। क्योंकि
मैं तो देखता
हूं तुम्हारी
संभावना।
गुरजिएफ
कहा करता था
अपने शिष्यों
से कि तुम जो
हो सकते हो
उससे मुझे
प्रेम है
लेकिन तुम जो
हो उससे मुझे
घृणा है और
तुम्हारी सात
पीढ़ियों तक
घृणा है।
(मैं
तुमसे कहता
हूं : तुम जो हो
सकते हो उससे
मुझे प्रेम है
और तुम जो हो
उससे भी मुझे
प्रेम है और
तुम्हारी सात
पीढ़ियों तक
प्रेम है!
क्योंकि तुम
जो हो सकते हो
वह उसमें ही
छिपा है जो
तुम हो।
तुम्हारे
होने में ही
तुम्हारा
भविष्य है।
तुम अगर बीज
हो तो आज फूल
दिखाई नहीं
पड़ते, क्या
इस कारण
तुम्हारे बीज
को इनकार कर
दूं? और
बीज को इनकार
कर दूंगा तो
फूल कैसे पैदा
होंगे? बीज
को अंगीकार
करना है, स्वीकार
करना है।
प्रेम से बीज
को सहलाना है,
सम्हालना
है, भूमि
देनी है, खाद
देना, सूरज
देना, पानी
देना-तों एक
दिन वसंत
आयेगा और बीज
में फूल
खिलेंगे। मैं
एक बगिया बना
रहा हूं। इस
बगिया में सब
अंगीकार है, क्योंकि मैं
चाहूंगा इस
बगिया में सब
तरह के फूल
हों। वैविध्य
हो! जितनी
विविधता होती
है उतनी ही गहनता
होती है।
जितनी
विविधता होती
है उतनी ही
संपदा होती है।
)
आखिरी
प्रश्न :
भगवान!
मैं आपका
संदेश घर-घर, हृदय
-हृदय में
पहुंचाना चाहता
हूं पर लोक
बिलकुल बहने
है, अंधे
हैं। मैं क्या
करूं? जो
पाया है उसे
पाकर न बांटू?
यह भी संभव
नहीं है। उसे बांटने
की भी तो एक
अपरिहार्यता है।
'कृष्ण
देव!
निश्चय
ही उसे बांटने
की एक
अपरिहार्यता
है,
उससे बचा
नहीं जा सकता।
उसे बांटना ही
होगा। उसे
रोकने का कोई
उपाय ही नहीं
है। बादल जब
भर जाएंगे जल
से तो बरसेंगे
ही और फूल जब
खिलेगा तो
सुगंध उड़ेगी
ही और दीया जब
जलेगा तो
प्रकाश
विकीर्ण होगा
ही।
बांटना
तो पड़ेगा, लेकिन
बांटने में
शर्तबंदी न
करो। क्या
फिक्र करना कि
कौन बहरा है, कौन अंधा है?
आखिर अंधे
को भी तो आंख देनी है
न और बहरे को
भी कान देने
हैं न! ऐसे
देख-देखकर
चलोगे कि आंख वाले को
देंगे तो आंख वाले को
तो जरूरत ही
नहीं है; वह
तो खुद ही देख
ले रहा है। और
उसको ही देंगे
जो सुन सकता
है... जो सुन
सकता है उसने
तो सुन ही
लिया होगा, वह तुम्हारी
प्रतीक्षा
में बैठेगा? आंख है
जिसकी खुली
हुई उसने देख
लिया। कार हैं
जिसके पास
सुनने के, उसने
सुन लिया नाद।
वह तुम्हारी
राह थोड़े ही
देखेगा कि तुम
जब आओगे तब
सुनेगा। उसकी
बासुरी तो बज
गई, उसकी
रोशनी तो जल
गई।
अंधे
और बहरों को
ही जरूरत है।
इसलिये यह मत
सोचे कि अंधे
-बहरे लोग हैं, इनको
कैसे दें? इनको
ही देने में
मजा है।
इन्हीं को
देने में कला
है। इन्हीं को
देने की
चेष्टा में
तुम्हें नये
-नये उपाय
खोजने पडेंगे,
नई भाषा, नई भाव-
भंगिमाएं
खोजनी पड़ेगी।
और इन्हीं को
देने में तुम
विकसित भी
होओगे; क्योंकि
जो मिला है
इसका कोई अंत
थोड़े ही है।
जितना बाटोगे
उतना और
मिलेगा।
जितना
लुटाओगे उतना
और पाओगे।
फिक्र
छोड़ो, शर्तबंदी
छोड़ा। जीसस ने
कहा है अपने
शिष्यों से :
चढ़ जाओ मकानों
की मुंडेरों
पर चिल्लाओ।
लोग बहरे हैं,
चिल्लाना
पड़ेगा।
झकझोरो, लोगों
को जगाओ। लोग
सोये हैं।
और जब
तुम झकझोरोगे
सोये हुए
लोगों को, तो
वे नाराज भी
होंगे, गालियां
भी देंगे। कौन
जागना चाहता
है सुखद नींद
से! और नींद
वाले को पता
भी क्या कि
जागने का मजा
क्या है! पता हो
भी कैसे सकता
है? वह
क्षम्य है अगर
नाराज हो। और
बहरा अगर न
माने नाद के
अस्तित्व को,
तो तुम
क्रुद्ध मत हो
जाना। वह
मानेगा तो
उसका मानना तो
उसका मानना
झूठ होगा। और
झूठे मानने से
कोई क्रांति
नहीं होती।
उसके न मानने
से टकरान।
उसके न मानने
को काटना, इंच
-इंच तोड़ना।
उठाना छैनी और
उसके पत्थर को
काटना। जन्म
से कोई भी
बहरा नहीं है
और जन्म से
कोई अंधा नहीं
है।
मैं
आध्यात्मिक
अंधेपन और
बहरेपन की बात
कर रहा हूं।
जन्म से सभी
लोग
आध्यात्मिक
आखें और
आध्यात्मिक
कान लेकर पैदा
हुए हैं, क्योंकि
आत्मा लेकर
पैदा हुए हैं।
समाज ने कानों
को बंद कर
दिया है, रुद्ध
कर दिया है।
कानों में रुई
भर दी
है-शास्त्रों
की, शब्दों
की, सिद्धातों
की। आखों पर
पट्टिया बौध
दी हैं, जैसे
कोल्ह के बैल
या तागे में
जुते घोड़े की आंख
पर पट्टी बौध
देते हैं। ऐसी
पट्टिया बौध
दी है। कोई
अंधा नहीं है,
कोई बहरा
नहीं है। जरा
तुमने अगर
प्रेमपूर्ण
मेहनत की तो
पट्टिया
उतारी जा सकती
हैं। फुसलाना
होगा। जरा
तुमने अगर
मेहनत की तो
उनके कानों से
रुई निकाली जा
सकती है। मगर
एकदम से वे
तुम्हारी बात
मानने को राजी
नहीं होंगे।
जल्दी
भी क्या है? परमात्मा
के काम में
जल्दी की
जरूरत भी नहीं
है। उसकी
मर्जी होगी तो
तुम से काम ले
लेगा। उसकी
मर्जी होगी तो
तुमसे
किन्हीं को गांव।
लेगा, किन्हीं
की आखें खुलवा
लेगा और उसकी
मर्जी नहीं
होगी तो
तुम्हारी
चिंता क्या है?
तुम्हारी
खुल गई, यही
क्या कम है!
तुम
बहते जाना, बहते
जाना, बहते
भाई!
तुम
शीश उठा कर
सरदी-गरमी
सहते जाना
भाई!
सब यहां
कह रहे हैं रो-
रो कर अपने
दुख की बातें!
तुम
हंसकर सब के
सुख की बातें
कहते जाना
भाई!
भ्रम
रहे यहां पर
हैं बेसुध-से
सूरज, चांद, सितारे
गल रही
बरफ,
चल रही हवा,
जब रहे यहां
अंगारे
है
आना-जाना सत्य, और
सब झूठ यहां
पर भाई
कब
रुकने पाये
झुकने वाले
जीवन पर
बेचारे?
तुम
किस पर खुश हो
गये और तुम
बोलो किस पर
रूठे?
जो कल
वाले थे
स्वप्न
सुनहले आज पड़
चुके झूठे!
है यह कांटो
की राह
विवश-सा सबको
चलते रहना
जो
स्वयम्
प्रगति बन जाए
उसी के स्वप्न
अपूर्व अनूठे!
तुम जो
देते हो
मानवता को
आठों याम
चुनौती
तुम
महल खजानों को
जो अपनी समझे
हुए बपौती!
तुम कल
बन कर रजकण
पैरों से
ठुकराये
जाओगे।
है कौन
यहां पर ऐसा
जो खा आया हो
अमरौती?
यह
रंग-बिरंगी
उषा लिये है
दुख की काली
रातें
हैं
ग्रीष्म-काल
की दाहक लपटों
में रस की
बरसाते!
यह
बनना-मिटना
अमिट काल के
चल-चरणों का
कम है, छाया के
चित्रों सदृश यहां
हैं ये
सुख-दुख की
बातें।
रुकना
है गति का
नियम नहीं, तुम
चलते जाना भाई
बुझना
प्राणों का
नियम नहीं, तुम
जलते जाना
भाई!
हिम-खण्ड
सदृश तुम
निर्मल, शीतल,
उज्ज्वल यश
भागी
जमना आंसू
का नियम नहीं, तुम
गलते जाना
भाई!
तुम
बहते जाना, बहते
जाना बहते
जाना भाई!
तुम
शीश उठा कर
सरदी-गरमी
सहते जाना
भाई!
सब यहां
कह रहे हैं रो-
रो कर अपने
दुख की बातें!
तुम
हंसकर सब के
सुख की बातें
कहते जाना
भाई!
फिक्र
न करना।
तुम्हारे
भीतर जो हुआ
है उसे कहे
जाओ,
कहे जाओ।
कोई सुने तो
कोई सुने न तो,
कोई चिंता
नहीं; कोई
न देखे तो।
तुम बाटते रहो।
सौ में से अगर
एक ने भी देख
लिया और सौ
में से अगर एक
ने भी सुन
लिया तो तुम
धन्यभागी हो।
उतना ही बहुत
है। तुम्हारा
श्रम सार्थक
हुआ।
कृष्णदेव!
बांटना
अपरिहार्य है।
शर्तबंदी छोड़
दो। पात्र -
अपात्र का
विचार न करो।
यह पात्र -
अपात्र का
विचार न करो।
यह पात्र- अपात्र
का विचार ही
बाधा बन जाता
है। लोग सोचते
हैं, पात्र
को देंगे। फिर
पात्र मिलता
नहीं। क्या
पात्र, क्या
अपात्र? तुम
जिसको दोगे
वही पात्र बन
जायेगा। तुम
देते ही जाना
भाई!
तुम
बहते जाना, बहते
जाना, बहते
जाना भाई!
तुम
शीश उठा कर
सरदी-गरमी
सहते जाना
भाई!
सब यहां
कह रहे हैं रो-
रो कर अपने
दुख की बातें!
तुम
हंसकर सब के
सुख की बातें
कहते जाना
भाई!
रोने
दो लोगों को, तुम
गीत गाओ।
लोगों को आंख बंद
किये बैठे
रहने दो, तुम
रोशनी जलाओ।
लोगों को कान
बंद किये पड़े
रहने दो, तुम-
वीणा के तार
छेड़ो। आज नहीं
कल, कल
नहीं परसों-
कोई सुनेगा, कोई जगेगा, कोई देखेगा।
और एक भी देख
ले...।
तुम्हारे जले
दीये से एक
दीया भी जल
जाये, तो
बहुत कृत
-कृत्य हुए
तुम।... और
जलेंगे दीये,
जरूर
जलेंगे। जलते
रहे हैं! यही
कम है सदा से।
सौ को बुलाओ, दस आते हैं।
जो दस आते हैं,
उनमें से एक
पग पाता है।
यही अनुपात है।
आज
इतना ही!
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