16
सितंबर, 1976
कोरेगांव
पार्क,
ओशो
आश्रम पूना।
पहला
प्रश्न :
वेदांत
तथा
अष्टावक्र—गीता
जैसे ग्रंथों
द्वारा
स्वाध्याय
करके यह जाना
कि जो पाने
योग्य है वह
पाया हुआ ही
है! उसके लिए
प्रयास करना
भटकन है। इस
निष्ठा को गहन
भी किया, तो
भी आत्मज्ञान
क्यों नहीं
हुआ? कृपया
मार्गदर्शन
करें।
शास्त्र
से जो समझ में
आया वह
तुम्हें समझ में
आया र ऐसा
नहीं है। शब्द
से जो समझ में
आया,
वह
तुम्हारी
प्रतीति हो गई,
ऐसा नहीं है।
अष्टावक्र को
सुनकर बहुतों
को ऐसा लगेगा
कि अरे, तो
सब पाया ही
हुआ है! लेकिन
इससे मिल न
जायेगा।
अष्टावक्र
को सुनकर ही
लगने से मिलने
का क्या संबंध
हो सकता है? यह
प्रतीति तुम्हारी
हो कि मिला ही
हुआ है। यह
अहसास
तुम्हें हो, यह अनुभूति
तुम्हारी हो;
यह बौद्धिक
निष्कर्ष न हो।
बुद्धि तो बड़ी
जल्दी राजी हो
जाती है। इससे
सरल बात और
क्या होगी कि
मिला ही हुआ
है। चलो, झंझट
मिटी! अब कुछ
खोजने की
जरूरत नहीं, ध्यान की
जरूरत नहीं; पूजा—प्रार्थना
की जरूरत नहीं—मिला
ही हुआ है!
बुद्धि
इससे राजी हो
जाती है—इसलिए
नहीं कि
बुद्धि समझ गई; बुद्धि
राजी हो जाती
है, क्योंकि
मार्ग की अड़चन
भी छूटी, साधन
का श्रम भी
छूटा, उपाय
करने की जरूरत
भी छूटी। फिर
तुम चारों तरफ
देखने लगते हो
कि अरे, अभी
तक मिला नहीं।
अगर
बुद्धि को ही
समझने से
मिलता था तो
फिर अध्यात्म
के
विश्वविद्यालय
हो सकते थे।
अध्यात्म का
कोई
विश्वविद्यालय
नहीं है।
शास्त्र से न
मिलेगा, स्वयं
की
स्वस्फूर्त
प्रज्ञा से
मिलेगा। अष्टावक्र
को सुनो, लेकिन
जल्दी मत करना
मानने की।
तुम्हारा लोभ
जल्दी करवा
देगा।
तुम्हारा लोभ
कहेगा, यह
तो बड़ी सुलभ
बात है, यह
खजाना मिला ही
हुआ है। तो
चलो पाने का
भी उपद्रव
मिटा, अब
कहीं जाना भी
नहीं, अब
कुछ करना भी
नहीं।
यही
तो तुम सदा से
चाहते थे कि
बिना किये मिल
जाये। लेकिन
ध्यान रखना इस
सबके पीछे
पाने की आकांक्षा
बनी ही हुई है :
बिना किये मिल
जाये! पहले
सोचते थे करके
मिलेगा, अब
सोचते हो बिना
किये मिल जाये।
पाने की आकांक्षा
बनी हुई है।
इसलिए तो
प्रश्न उठता
है कि अभी तक
आत्मज्ञान
क्यों नहीं
हुआ?
जिसको
समझ में आ गई
बात—भाड़ में
जाये
आत्मज्ञान, करना
क्या है? अगर
अष्टावक्र को
समझ गये तो
दूसरा प्रश्न
उठ ही नहीं
सकता।
आत्मज्ञान
नहीं मिला, तो इसका
अर्थ हुआ कि
अष्टावक्र को
मानने के साथ—साथ
आंख के कोने
से देख रहे थे,
अभी तक मिला
कि नहीं मिला?
नजर अभी भी
मिलने पर लगी
थी।
मेरे
पास लोग आते
हैं। उनको मैं
कहता हूं कि
ध्यान तब तक न
गहरा होगा, जब
तक तुम कुछ
माग जारी
रखोगे। जब तक
तुम सोचोगे
कुछ मिले—आनंद
मिले, परमात्मा
मिले, आत्मा
मिले—तब तक
ध्यान गहरा न
होगा, क्योंकि
यह लोभ की
वृत्ति है, जो मिलने की
बात सोच रही
है, यह महत्वाकांक्षा
है, यह
राजनीति है, अभी धर्म
नहीं हुआ। तो
वे कहते हैं, ' अच्छा! तो अब
बिना सोचे
बैठेंगे, फिर
तो मिलेगा न?'
अंतर
जरा भी नहीं
पड़ा। वे इसके
लिए भी राजी
हैं कि न
सोचेंगे, चलो
आप कहते हो
मिलने के लिए
यही उपाय है, तो न
सोचेंगे; लेकिन
फिर मिलेगा न?
तुम
लोभ से छूट
नहीं पाते।
अष्टावक्र को
सुनकर बड़े
जल्दी, बहुत
लोग मान लेंगे
कि चलो, मिल
गया। इतनी
जल्दी अगर
मिलता होता!
और ऐसा नहीं
है कि कोई
बाधा है मिलने
में। बाधा है
तो तुम्हारी
कामना की
नासमझी ही। है
तो बिलकुल पास।
ठीक
अष्टावक्र
कहते हैं, मिला
ही हुआ है।
लेकिन 'यह
मिला हुआ ही
है' तब समझ
में आयेगा, जब पाने की
सारी आकांक्षा
विसर्जित हो
जायेगी। तब
तुम्हारी
समग्रता से
तुम जानोगे कि
मिला हुआ है।
अभी तो बुद्धि
का खिलवाड़ हो
जाता है।
अष्टावक्र
जैसे महर्षि
कहते हैं तो
ठीक ही कहते
होंगे। तुम
जल्दी कर लेते
हो मानने की।
तुम्हारी
श्रद्धा बड़ी
नपुंसक है।
तुम संदेह भी
नहीं करते, तुम
जल्दी मान लेते
हो। शास्त्र
के वचन पर इस
देश में तो
संदेह करनेकी
आदत ही खो गई
है; शास्त्र
कहते हैं तो
ठीक ही कहते
होंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन आया, तो एक
बड़ी खूबसूरत
छतरी लिए हुए
था। मैंने
पूछा, कहां
मिल गई? इतनी
खूबसूरत छतरी यहां
तो बनती नहीं!
उसने कहा, बहन
ने भेंट भेजी
है। मैंने कहा,
नसरुद्दीन!
तुम तो सदा
कहते रहे कि
तुम्हारी कोई
बहन नहीं! वह
कहने लगा, यह
बात तो सच है।
तो
फिर मैंने कहा, यह
बहन ने भेंट
भेजी?
उसने
कहा,
अब आप न
मानो तो इसकी
डंडी पर लिखा
हुआ है बहन की
ओर से भाई को
भेंट। एक होटल
से निकलने लगा,
यह छतरी पर
लिखा था, मैंने
सोचा अब हो न
हो, बहन हो
ही। जब लिखा
हुआ है तो
मानना ही पड़ता
है। और फिर
ऐसे कोई
फुफेरी, ममेरी,
कोई चचेरी
बहन शायद हो
भी। और फिर
अध्यात्मवादी
तो सदा से
कहते हैं कि अपनी
पत्नी को
छोड्कर सभी को
माता—बहन समझो।
लिखी
हुई बात पर—और
फिर शास्त्र
में लिखी हो!
छपी बात पर
बड़ी जल्दी
श्रद्धा आती
है। कुछ बात
कहो किसी से, वह
कहता है, कहां
लिखी है? लिखा
हुआ बता दो तो
वह राजी हो
जाता है। जैसे
लिखे होने में
कोई बल है।
कितनी पुरानी?
तो लोग राजी
हो जाते हैं।
जैसे सत्य का
पुराना होने
से कोई संबंध
है! किसने कही?
अष्टावक्र
ने कही? बुद्ध
ने कही? महावीर
ने कही? —तो
फिर ठीक ही
कही।
तुम
थोड़ा भी तो
अपनी तरफ से, थोड़ा
भी, इंच भर
भी जागने का
प्रयास नहीं
करते। किसी ने
कह दी, तुमने
मान ली—और फिर
ऐसी सरल बात
कि बिना कुछ
किए मिल जाए।
कृष्णमूर्ति
को मानने वाले
चालीस वर्षों
से सुन रहे
हैं—करीब —करीब
वे ही के वे
लोग। मिला कुछ
भी नहीं है।
मेरे पास कभी—कभी
उनमें से कोई
आता है तो
कहता है कि
हमें पता है
कि सब मिला ही
हुआ है, मगर
मिलता क्यों
नहीं? हम
कृष्णमूर्ति को
सुनते हैं, बात समझ में
आती है कि सब
मिला ही हुआ
है। ये लोभीजन
हैं। ये चाहते
ही थे पहले से
कि कोई श्रम न
करना पड़े, मुफ्त
मिल जाये।
इन्होंने
कृष्णमूर्ति
को नहीं सुना,
न
अष्टावक्र को
समझा है, इन्होंने
अपने लोभ को
सुना है।
इन्होंने
अपने लोभ के
माध्यम से
सुना है। फिर
इन्होंने
अपने हिसाब से
व्याख्या कर
ली!
किसी
मित्र ने पूछा
है कि अब
ध्यान करना
बड़ा बेहूदा
लगता है। पांच—पांच
ध्यान—और
अष्टावक्र पर
चल रही
प्रवचनमाला—बडा
बेहूदा लगता
है!
ध्यान
छोड़ने में
कितनी सुगमता
है—करने में
कठिनता है!
अष्टावक्र को
भी जो मिला, वह
कुछ करके मिला,
ऐसा नहीं, लेकिन बिना
कुछ किए मिला,
ऐसा भी नहीं।
अब
इसे तुम समझना।
यह थोड़ा जटिल
मामला है।
मैंने
तुमसे कहा, बुद्ध
को मिला जब
उन्होंने सब
करना छोड़ दिया,
लेकिन पहले
सब किया। छह
वर्ष तक अथक
श्रम किया, सब दाव पर
लगा दिया। उस
दाव पर लगाने
से ही यह अनुभव
आया कि करने
से कुछ नहीं
मिलता।
अष्टावक्र को
पढ्ने से थोड़े
ही, नहीं
तो अष्टावक्र
की गीता बुद्ध
के समय में उपलब्ध
थी। उन्होंने
पढ़ ली होती, छह साल
मेहनत करने की
जरूरत न थी।
छह साल अथक
श्रम किया और
श्रम कर—करके
जाना कि श्रम
से तो नहीं
मिलता। रत्ती
भर रेखा भी न
बची भीतर कि
श्रम करने से
मिल सकता है।
ऐसी कोई वासना
भी न बची भीतर।
करके देख लिया,
नहीं मिलता।
यह इतना
प्रगाढ़ हो गया
कि एक दिन इसी
प्रगाढ़ता में
करना छूट गया,
तभी मिल गया।
तो
मैं तुमसे यह
कहना चाहता
हूं कि न करने
की अवस्था
आयेगी, जब
तुम सब कर
चुके होओगे।
जल्दबाजी मत
करना; अन्यथा
थोड़ा—बहुत
ध्यान कर रहे
हो, वह भी
छूट जायेगा, थोड़ी बहुत
पूजा—प्रार्थना
में लगे हो, वह भी छूट
जायेगी।
अष्टावक्र तो
दूर रहे, तुम
जो हो थोड़े —बहुत,
चल रहे थे
किसी यात्रा
पर, वह भी
बंद हो जायेगा।
इसके
पहले कि कोई
रुके, समग्र
रूप से दौड़
लेना जरूरी है।
तो ही दौड़ने
से नहीं मिलता,
यह बोध
प्रगाढ़ होता
है। छूटता है
एक दिन श्रम, लेकिन केवल
बुद्धि के
समझने से नहीं—तुम्हारा
रोआं —रोआं, तुम्हारा कण
—कण समझ लेता
है कि व्यर्थ
है, उसी
घडी मिल जाता
है।
ठीक
कहते हैं
अष्टावक्र कि
अनुष्ठान
बंधन है।
लेकिन जो
अनुष्ठान
करेगा, उसको
ही पता चलेगा।
मैं
तुमसे कह रहा
हूं क्योंकि
अनुष्ठान
किया और पाया
कि बंधन है।
मैं तुमसे कह
रहा हूं,
क्योंकि साधन
किये और पाया
कि कोई साधन
साध्य तक नहीं
पहुंचते।
ध्यान कर करके
पाया कि कोई
ध्यान समाधि
तक नहीं लाता।
लेकिन जब ऐसा
करके तुम पाते
हो कि कोई
ध्यान समाधि
तक नहीं लाता,
ऐसी
तुम्हारी गहन
होती अनुभूति,
एक दिन उस
जगह आ जाती, सौ डिग्री
पर उबलती, तुम
सब दाव पर लगा
देते हो, कुछ
बचाते नहीं, अपने को
पूरा झोंक
देते हो आग
में, श्रम
परिपूर्ण हो
जाता है, तपश्चर्या
पूरी हो जाती
है, साधन
पूरा हो जाता
है, अब
तुमसे कोई
अस्तित्व यह
मांग नहीं कर
सकता कि तुमने
कुछ भी बचाया
था, सब लगा
दिया—उस दिन, उस प्रगाढता
में, उस
प्रज्वलित
चित्त की दशा
में अचानक सब
भस्मीभूत हो
जाता है। सब
साधन, सब
अनुष्ठान, सब
ध्यान, सब
तप—त्याग—अचानक
तुम जागकर
पाते हो कि
अरे, यह तो
मिला ही था
जिसे मैं खोज
रहा था!
लेकिन
यह अष्टावक्र
को पढ्ने से
हो जाता होता तो
बात बड़ी सुगम
थी।
अष्टावक्र को
पढ़ना क्या
कठिन है? सूत्र
तो बड़े सीधे—साफ
हैं।
ध्यान
रखना, सीधी—सरल
बातें समझना
इस जगत में
सबसे कठिन है।
और कठिनाई
तुम्हारे
भीतर से आती
है। तुम चाहते
ही थे कि कुछ न
करना पड़े।
ध्यान
बामुश्किल
लोग करने को
राजी होते हैं।
अब यह कसौटी
है—अष्टावक्र
की गीता।
अष्टावक्र को
सुनकर भी जो
ध्यान करते
रहेंगे, वे
ही समझे। जो
अष्टावक्र को
सुनकर ध्यान
छोड़ देंगे, अष्टावक्र
को तो समझे ही
नहीं, ध्यान
भी गया।
अनुष्ठान
करके ही पता
चलेगा
अनुष्ठान
बंधन है। यह
तो आखिरी दशा
है अनुष्ठान
करने की। इससे
तुम जल्दबाजी
मत कर लेना।
'वेदांत और
अष्टावक्र
जैसे ग्रंथों
द्वारा
स्वाध्याय
करके यह जाना।’
स्वाध्याय
करके किसी ने
कहीं जाना? पठन—पाठन
करके किसी ने
जाना? शास्त्र,
शब्दों को
सीख लेने से
किसी ने जाना?
यह जानना
नहीं है, यह
जानकारी है।’जानकारी हुई'
कहो, कि
जो पाने योग्य
है पाया ही
हुआ है। अगर
जान ही लिया
तो बात खत्म
हो गई। सूचना
मिली, गुदगुदी
उठी, लोभ
में अंकुर
हुआ! लोभ ने
कहा, अरे!
हम नाहक मेहनत
करते थे, ये
अष्टावक्र
कहते हैं, बिना
ही किए, तो
चलो बिना ही
किए बैठ जाएं।
तो तुम बिना
ही किये बैठ
गये। थोड़ी ही
देर में तुम
देखने लगे ' अभी तक घटी
नहीं घटना, देर लग रही
है, बात
क्या है? और
अष्टावक्र
कहते हैं, अभी!'
तुम घड़ी पर
नजर लगाये
बैठे हो कि 'पांच सेकेंड
निकल गये, पांच
मिनिट निकल
गये, यह
घंटा भी बीता
जा रहा है —और
अष्टावक्र
कहते हैं, तत्क्षण!
इसी वक्त! एक
क्षण के भी
विदा होने की
जरूरत नहीं!' फिर तुम
कहने लगे, झूठ
ही कहते होंगे।
श्रद्धा टूट
गई।
जाना
नहीं—जानकारी
हुई। जानकारी
और जानने के
फर्क को सदा
याद रखना।
जानकारी
अर्थात उधार।
किसी और ने
जाना, उससे
सुन कर
तुम्हें
जानकारी हुई।
इन्फर्मेशन—जानकारी।
जानना तो
अनुभव है।
तुम्हारे
अतिरिक्त कोई
तुम्हारे लिए
जान नहीं सकता।
यह उधार नहीं
हो सकता। मैं
जान लूं इससे
तुम्हारे
जानने की थोड़े
ही घटना घटेगी।
मेरा जानना
मेरा होगा, तुम्हारा
जानना
तुम्हारा
होगा। ही, अगर
मेरे शब्दों
को तुमने
संग्रह कर
लिया तो वह
जानकारी है।
जानकारी से
आदमी पंडित
बनता है, प्रज्ञावान
नहीं। ज्ञान
का बोझ इकट्ठा
हो जाता है, शान की
मुक्ति नहीं।
शब्दों का जाल
खड़ा हो जाता
है, सत्य
का सौंदर्य
नहीं। शब्द और
घेर लेते हैं,
और बांध
लेते हैं।
इसलिए तुम
पंडित को बड़ा
बंधा हुआ
पाओगे। खुला
आकाश कहां?
'यह जाना कि
जो पाने योग्य
है वह पाया ही
हुआ है।’ अगर
जान ही लिया, तो अब क्या
पूछने को बचा?
'उसके लिये
प्रयास भटकन
है।’ अगर
यह जान ही
लिया, तो
अब और क्या
पूछने को बचा? 'इस
निष्ठा को गहन
भी किया।’ यह
निष्ठा या तो
होती है या
नहीं होती; इसे गहन
करने का उपाय
नहीं है। गहन
कैसे करोगे? निष्ठा होती
है तो होती है,
नहीं होती
तो नहीं होती—ग्रहन
कैसे करोगे? क्या उपाय
है निष्ठा को
गहन करने का? संदेह को
दबाओगे? संदेह
की छाती पर
बैठ जाओगे? क्या करोगे?
संदेह को
झुठलाओगे? मन
में प्रश्न
उठेंगे, नहीं
सुनोगे? भीतर
संदेह का कीड़ा
काटेगा, और
कहेगा कि सुनो
भी, कहीं
बिना किये कुछ
मिला है? बैठे—बैठे
कहीं कुछ हुआ
है? कुछ
करने से होता
है, खाली
बैठने से कहीं
होता है? मुफ्त
कहीं कुछ
मिलता है? किन
बातों में पड़े
हो? किस
भ्रांति में
भटके हो? उठो,
चलो, दौड़ो,
अन्यथा
जीवन निकल
जायेगा, जीवन
निकला ही जा
रहा है! ऐसे
बैठे—बैठे मूढ़
की भांति समय
मत गंवाओ।
ये
संदेह उठेंगे, इनका
क्या करोगे? इनको दबा
लोगे? इनको
झुठला दोगे? कहोगे कि
नहीं सुनना
चाहता? इनको
अचेतन में
फेंक दोगे? तलघरे में
छिपा दोगे
भीतर? इनके
सामने आंख
करके न देखोगे?
क्या करोगे
निष्ठा गहन
करने में? ऐसा
ही कुछ करोगे।
किसी तरह का
दमन करोगे। यह
निष्ठा झूठी
होगी। इसके
नीचे
अविश्वास
सुलगता होगा।
यह निष्ठा ऊपर—ऊपर
होगी। इसकी
झीनी चांद र
होगी ऊपर, भीतर
अविश्वास के,
संदेह के
अंगारे होंगे,
वह जल्दी ही
इस निष्ठा को
जला डालेंगे।
यह निष्ठा
किसी भी काम
की नहीं है, इसको तुम
गहरा नहीं कर
सकते। निष्ठा
होती है, तो
होती है। ऐसा
समझो कि कोई
आदमी एक
वर्तुल खींचे,
आधा वर्तुल
खींचे, तो
क्या तुम उसे
वर्तुल कहोगे?
आधे वर्तुल
को वर्तुल कहा
जा सकता है? चाप कहते
हैं, वर्तुल
नहीं। वर्तुल
तो तभी कहते
हैं, जब
पूरा होता है।
अधूरे वर्तुल
का नाम वर्तुल
नहीं है।
अधूरी
श्रद्धा का
नाम श्रद्धा
नहीं है, क्योंकि
अधूरी
श्रद्धा का
अर्थ हुआ कि
अधूरा अभी
अविश्वास भी
खड़ा है। वह जो
आधी जगह खाली
है, वहां
कौन होगा? वहां
संदेह होगा।
संदेह के साथ
श्रद्धा चल ही
नहीं सकती। यह
तो ऐसा हुआ कि
एक पैर पूरब
जा रहा है, एक
पैर पश्चिम जा
रहा है—तुम
कहीं
पहुंचोगे
नहीं। यह तो
ऐसा हुआ कि
तुम दो नावों
पर सवार हो, एक इस
किनारे को आ
रही, एक उस
किनारे को जा
रही है—तुम
पहुंचोगे
कहां?
संदेह
की यात्रा अलग, श्रद्धा
की यात्रा अलग।
तुम दो नावों
पर सवार हो।
अधूरी
श्रद्धा का
क्या अर्थ? अधूरी
निष्ठा का
क्या अर्थ? कि आधा
अविश्वास, आधा
संदेह भी
मौजूद है!
श्रद्धा होती
तो पूरी, नहीं
होती तो नहीं
होती।
और
एक और मजे की
बात ध्यान रखना, इस
जगत में जब भी
श्रेष्ठ को
निकृष्ट से
मिलाओगे, तो
निकृष्ट कुछ
भी नहीं खोता,
श्रेष्ठ का
कुछ खो जाता
है। जब भी तुम
श्रेष्ठ के
साथ निकृष्ट
को मिलाओगे, तो निकृष्ट
की कोई हानि
नहीं होती, श्रेष्ठ की
हानि हो जाती
है।
शुद्ध
पकवान, भोजन
तैयार है, तुम
जरा—सी मुट्ठी
भर गंदगी लाकर
डाल दो। तुम
कहोगे, यह
पकवान का तो
ढेर लगा है
मनों, इसमें
मुट्ठी भर
गंदगी से क्या
होता है? तो
मुट्ठी भर
गंदगी उस पूरे
शुद्ध भोजन को
नष्ट कर देगी।
वह पूरा शुद्ध
भोजन भी उस
मुट्ठी भर
गंदगी को नष्ट
न कर पायेगा।
तुम एक फूल पर
पत्थर फेंक दो,
तो पत्थर का
कुछ न बिगड़ेगा,
फूल समाप्त
हो जायेगा।
पत्थर जड़ है, निकृष्ट है।
फूल महिमावान
है। फूल आकाश
का है, पत्थर
पृथ्वी का है।
फूल काव्य है
जीवन का।
पत्थर और फूल
की टक्कर होगी,
तो फूल का
सब बिगड़
जायेगा, पत्थर
का कुछ भी न
बिगड़ेगा। एक
बूंद जहर
पर्याप्त है।
तो
ध्यान रखना, संदेह
निकृष्ट है।
श्रद्धा के
फूल के साथ
अगर संदेह का
पत्थर भी पड़ा
है तो फूल
दबेगा और मर जायेगा,
हत्या हो
जायेगी फूल
की।
तुम
यह मत सोचना
कि श्रद्धा, पत्थर
को बदल लेगी।
पत्थर फूल को
नष्ट कर देगा।
निष्ठा
या तो होती है
या नहीं होती।
इसमें दो मत नहीं
हैं। होती है, तो
सारे जीवन को
घेर लेती है, रोएं—रोएं
को व्याप्त कर
लेती है।
निष्ठा व्यापक
है फिर। पर
ऐसी निष्ठा
शास्त्र से
नहीं मिलती है,
न मिल सकती
है। ऐसी
निष्ठा जीवंत
अनुभव से मिलती
है। जीवन के
शास्त्र को
पढ़ोगे तो
मिलेगी, अष्टावक्र
को पढ़ने से
नहीं।
अष्टावक्र
को समझ लो। उस
समझ को ज्ञान
मत समझ लेना।
अष्टावक्र को
समझकर, अपने
भीतर सम्हाल
कर, एक
कोने में रख
दो। एक कसौटी
मिली। ज्ञान
नहीं मिला, एक कसौटी
मिली। अब जब
तुम्हें
ज्ञान मिलेगा,
तब
अष्टावक्र की
कसौटी पर उसे
कसने में
तुम्हें
सुविधा हो
जायेगी। कसौटी सोना
नहीं है। तुम
जाते हो एक
सुनार के पास,
देखते हो
रखा है काला
पत्थर कसौटी
का। वह काला
पत्थर सोना
नहीं है। जब
सोना मिलता है
तो सुनार उस
काले पत्थर पर
घिसकर देख
लेता है कि
सोना सोना है
या नहीं है?
अष्टावक्र
की बात को
समझकर, कसौटी
की तरह सम्हाल
कर रख लो, गाठ
बांध लो, जब
तुम्हारे
जीवन का अनुभव
आयेगा, तो
कस लेना।
अष्टावक्र की
कसौटी उस वक्त
काम आयेगी।
तुम जान पाओगे
कि जो हुआ है, वह क्या हुआ?
तुम्हारे
पास समझने को
भाषा होगी।
तुम्हारे पास
समझने को उपाय
होगा।
अष्टावक्र
तुम्हारे
गवाह होंगे।
मैं
शास्त्रों को
इसी अर्थ में
लेता हूं।
शास्त्र गवाह
हैं। अनजाना
है मार्ग सत्य
का। उस अनजाने
मार्ग पर
तुम्हें कुछ
गवाहियां
चाहिए। तुम जब
पहली दफा स्वयं
सत्य के सामने
आओगे, सत्य
इतना विराट
होगा कि तुम कंपोगे,
समझ न
पाओगे। तुम
जड़—मूल से कैप
जाओगे। बहुत डर
है कि तुम
पागल हो जाओ।
थोड़ा
सोचो तो, कि एक
आदमी जो
जन्मों—जन्मों
से किसी खजाने
को खोज रहा था,
एक दिन
अचानक पाए कि
खजाना वहीं
गड़ा है जहां वह
खड़ा है—वह
पागल नहीं हो
जाएगा? यह
जन्मों—
जन्मों की खोज
व्यर्थ गई। और
खजाना यहीं
गड़ा था जहां
मैं खड़ा हूं।
तुम
थोड़ा सोचो! उस
आदमी पर यह
आघात बड़ा हो
जाएगा। 'तो
इतने दिन मैं
व्यर्थ जीया!
तो यह सारा
अनंत काल तक
जीना एक
निरर्थक
चेष्टा थी, एक
दुख—स्वप्न
था! जिसे मैं
खोज रहा था, वह भीतर पड़ा
था!' क्या
ऐसी चोट में, संघात में
आदमी पागल न
हो जाएगा? उस
वक्त
अष्टावक्र की
मधुर वाणी
शीतल करेगी। उस
वक्त वेदांत,
बुद्ध के
वचन, उपनिषद,
बाइबिल, कुरान
तुम्हारे
साक्षी होकर
खड़े हो
जाएंगे। उनकी
उपस्थिति में
जो नया
तुम्हें घट
रहा है, तुम
उसे समझने में
सफल हो पाओगे,
अन्यथा
अकेले में बड़ी
मुश्किल हो
जाएगी।
शास्त्रों
पर मैं बोल
रहा हूं—इसलिए
नहीं कि शास्त्रों
को सुनकर तुम ज्ञानी
हो जाओगे; इसलिए
बोल रहा हूं
कि ध्यान के
मार्ग पर चले
हो, आज
नहीं कल घटना
घटेगी, घटनी
ही चाहिए। जब
घटना घटे तो
ऐसा न हो कि
सोना सामने हो
और तुम समझ भी न
पाओ। कसौटी
तुम्हें दे
रहा हूं। इन
कसौटियों पर
कस लेना।
अष्टावक्र
शुद्धतम
कसौटी हैं।
अष्टावक्र पर निष्ठा
नहीं करनी है; अष्टावक्र
की कसौटी का
उपयोग करना है
स्वयं के
अनुभव पर।
अष्टावक्र को
गवाही बनाना
है।
जीसस
ने कहा है
अपने शिष्यों
से कि जब तुम
पहुंचोगे, मैं
तुम्हारा
गवाह रहूंगा।
शिष्य तो फिर
भी गलत समझे।
शिष्य तो समझे
कि हम जब
मरेंगे और परमात्मा
के स्वर्ग में
पहुंचेंगे तो
जीसस हमारी
गवाही देंगे
कि ये मेरे
शिष्य हैं, इन्हें भीतर
आने दो; ये
अपने वाले हैं,
ईसाई हैं।
इनके साथ थोड़ी
विशेष
अनुकंपा करो। इन
पर प्रसाद
ज्यादा हो!
लेकिन
जीसस का मतलब
बहुत और था।
जीसस ने कहा कि
जब तुम
पहुंचोगे, मैं
तुम्हारी
गवाही होऊंगा—इसका
यह मतलब नहीं
कि जीसस वहां
खड़े होंगे।
लेकिन जीसस ने
जो कहा है, वह
कसौटी की तरह
पड़ा रहेगा। जब
तुम्हारा
अनुभव होगा, झट तुम उसे
कस लोगे और
गुत्थी सुलझ
जाएगी। अन्यथा,
असत्य में
भटके हो इतने
दिन तक कि
तुम्हारी आंखें
असत्य की आदी
हो गई हैं।
सत्य का आघात
कहीं तुम्हें
तोड़ न दे, विक्षिप्त
न कर दे।
इसे
याद रखना, सत्य
के बहुत खोजी
पागल हो गए
हैं। सत्य के
बहुत खोजी ठीक
उस दशा के
करीब, जब
परमहंस होने
को होते हैं, तभी पागल हो
जाते हैं, विक्षिप्त
हो जाते हैं।
क्योंकि घटना
इतनी बड़ी है, अविश्वसनीय
है, भरोसे—योग्य
नहीं है, जैसे
पूरा आकाश टूट
पड़े तुम पर, छोटा
तुम्हारा
पात्र है और
विराट
तुम्हारे पात्र
पर बरस जाए!
तुम
अस्तव्यस्त
हो जाओगे। तुम
सम्हाल न
पाओगे। जैसे
सूरज एकदम
सामने आ जाए
और तुम्हारी
आंखें झकपका
जाएं, धुंधलका
हो जाए! सूरज
सामने हो और
अंधेरा हो जाए,
क्योंकि
तुम्हारी
आंखें बंद हो
जाएं। उस घड़ी
अष्टावक्र के
वचन तुम्हें
सूरज को समझने
में उपयोगी हो
जाएंगे। उस
समय तुम्हारे
अचेतन में पड़ी
अष्टावक्र की
वाणी तत्क्षण
मुखर हो
जाएगी। गूंजने
लगेंगे
उपनिषद के वचन,
गूंजने
लगेगी गीता, गूंजने
लगेगा कुरान,
उठने
लगेंगी आयतें!
उनकी गंध
तुम्हें
आश्वस्त
करेगी कि तुम
घर आ गए हो, घबड़ाने
की कोई बात
नहीं। यह
विराट हो तुम!
अष्टावक्र
कहते हैं तू
व्यापक है! तू
विराट है। तू
विभु है। तू
कर्म—शून्य!
तू
शुद्ध—बुद्ध। तू
सिर्फ
ब्रह्मस्वरूप
है!
ये
वचन उस क्षण
व्याख्या
बनेंगे। इन पर
निष्ठा करने मात्र
से,
इनको पकड़
लेने मात्र से
तुम कहीं भी
पहुंचोगे नहीं।
और लोभ
तुम्हारा
भीतर खड़ा है
कि आत्मज्ञान
हुआ नहीं।
वासना
को बांधने को
तूमड़ी
जो स्वरतार
बिछाती है।
आह! उसी
में कैसी
एकांत—निबिड़
वासना
थरथराती है!
फिर
सुनो—
वासना
को बौधने को
तूमड़ी
जो स्वरतार
बिछाती है।
आह! उसी
में कैसी
ख्यात—निबिड़
वासना
थरथराती है!
तभी तो
सांप की
कुंडली हिलती
नहीं,
फन
डोलता है।
तुम
वासना से
मुक्त भी होना
चाहते हो, तो
भी तुम वासना
का ही जाल
बिछाते हो।
तुम परम शुद्ध—बुद्ध
होना चाहते हो,
तो भी लोभ
के माध्यम से
ही, तो भी वासना
ही थरथराती
है।
आह! उसी
में कैसी
एकांत—निबिड़
वासना
थरथराती है।
वासना
को बांधने को
तूमडी
जो स्वरतार
बिछाती है।
तुम
परमात्मा को
पाने चलते हो, लेकिन
तुम्हारे
पाने का ढंग
वही है जो धन
पाने वाले का
होता है। तुम
परमात्मा को
पाने चलते हो,
लेकिन तुम्हारी
वासना, कामना
वही है—जो
पदार्थ को
पाने वाले की
होती है।
संसार को पाने
वाले की जो
दीवानगी होती
है, वही
दीवानगी
तुम्हारी है।
वासना
विषय बदल लेती
है,
वासना नहीं
बदलती।
सुनकर
अष्टावक्र को
तुम्हारी
वासना कहती है
: 'अरे, यह
तो बड़ा शुभ
हुआ! हमें पता
ही न था कि
जिसे हम खोज
रहे हैं वह
मिला ही हुआ
है। तो अब बस
बैठ जाएं। ' फिर तुम
प्रतीक्षा
करते हो : अब
मिले, अब
मिले, अब
मिले! कैसी
वासना
थरथराती है!
अब मिले! तो तुम
समझे ही नहीं।
फिर से सुनो
अष्टावक्र
को। अष्टावक्र
कहते हैं.
मिला ही हुआ
है। लेकिन इसे
तुम कैसे सुनोगे?
कैसे
समझोगे? तुम्हारी
वासना तो
थरथरा रही है।
जब
तक तुम अपनी
वासना में दौड़
न लो,
दौड़—दौड़कर
वासना की
व्यर्थता देख
न लो, दौड़ो
और गिरो और
लहूलुहान न हो
जाओ, हाथ—पैर
न तोड़ लो—तब तक
तुम नहीं समझ
पाओगे। वासना
के अनुभव से
जब वासना
व्यर्थ हो
जाती है, थककर
गिर जाती है
और टूट जाती
है—उस
निर्वासना के
क्षण में तुम
समझ पाओगे, कि जिसे तुम
खोजते हो वह
मिला ही हुआ
है।
अन्यथा, तुम
तोते हो
जाओगे। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता कि तुम
हिंदू तोते हो
कि मुसलमान कि
ईसाई कि जैन
कि बौद्ध, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता—तोते
यानी तोते। तोते
को तुम चाहो
तो बाइबिल रटा
दो, और
तोते को तुम
चाहो तो गीता
रटा दो। तोता
तोता है; वह
रटकर दोहराने
लगेगा।
मंदिर
के भीतर वे सब
धुले—पुंछे
उघडे, अवलिप्त,
खुले गले से,
मुखर
स्वरों में, अति
प्रगल्म
गाते
जाते थे
राम—नाम।
भीतर
सब गंगे, बहरे,
अर्थहीन
जलपक, निबोंध,
अयाने, नाटे
पर
बाहर,
जितने
बच्चे, उतने
ही बड़बोले!
मंदिरों
में देखो!
मंदिर
के भीतर वे सब
धुले—पुंछे,
उघडे, अवलिप्त..!
कैसे
लोग निर्दोष
मालूम पड़ते
हैं मंदिर
में। उन्हीं
शक्लों को
बाजार में
देखो, उन्हीं
को मंदिर में
देखो। मंदिर
में उनका आवरण
भिन्न मालूम
होता है।
खुले
गले से, मुखर
स्वरों में
अति
प्रगल्म, गाते
जाते थे
राम—नाम।
देखा
तुमने माला
लिए,
किसी को
राम—नाम जपते
न: राम चदरिया
ओढ़े, चंदन—तिलक
लगाए— कैसी
शुभ्र लगती है
प्रतिमा! इन्हीं
सज्जन को
बाजार में
देखो, भीड़—
भाड़ में देखो,
पहचान भी न
पाओगे। लोगों
के चेहरे अलग—
अलग हैं; बाजार
में एक चेहरा
ओढ़ लेते हैं, मंदिर में
एक चेहरा ओढ़
लेते हैं।
अति
प्रगल्म, गाते
जाते थे
राम—नाम
भीतर
सब गुंगे, बहरे,
अर्थहीन
जलपक, निबोंध,
अयाने, नाटे,
पर
बाहर,
जितने
बच्चे उतने ही
बड़बोले!
जानकारी
तुम्हें तोता
बना सकती है, बड़बोला
बना सकती है।
जानकारी
तुम्हें
धार्मिक होने
की भ्रांति दे
सकती है, धोखा
दे सकती है।
लेकिन ज्ञान
उसे मत मान
लेना। और
जानकारी के
आधार पर तुम
जो निष्ठा
सम्हालोगे, वह निष्ठा
संदेह के ऊपर
बैठी होगी, संदेह के
कंधे पर सवार
होगी। वह
निष्ठा कहीं
सत्य के द्वार
तक ले जाने
वाली नहीं है।
उस निष्ठा पर
बहुत भरोसा मत
करना। वह
निष्ठा दो
कौड़ी की है।
निष्ठा
आनी चाहिए
स्वानुभव से।
निष्ठा आनी चाहिए
शुद्ध
निर्विकार
स्वयं की
ध्यान—अवस्था
से।
दूसरा
प्रश्न :
कल
संध्या घूम
रहा था कि अचानक
आपका कल सुबह
का पूरा
प्रवचन मेरे
रोम—रोम में
गूंजने लगा।
दर्शक होकर
दृश्यों की
छवि निहार रहा
था कि कहीं से
द्रष्टा की
याद आ गई।
द्रष्टा का
खेल भी जरा देर
चला, लेकिन
इसी बीच मेरे
पैर
लड़खड़ाने लगे
और गिरने से
बचने के लिए
मैं सड़क के
किनारे बैठ
गया। और तभी न
दृश्य रहा न
दर्शक रहा और
न द्रष्टा ही
रहा। सब कुछ
समाप्त हो गया
और फिर भी कुछ
था। कभी
अंधेरा, कभी
प्रकाश की
आख—मिचौनी
चलती रही।
लेकिन तभी से
बेचैनी भी बढ़
गई और समझ में
नहीं आया कि
यह सब क्या है!
यही
मैं तुमसे कह
रहा हूं। अगर
सत्य की थोड़ी—सी
झलक भी तुम्हारे
पास आएगी तो तुम
बेचैन हो
जाओगे; तुम
समझ न पाओगे
यह क्या है। न
समझ पाए कि
क्या है, तो
गहन अशांति
पकड़ लेगी, विक्षिप्तता
भी पकड़ सकती
है। इसलिए
बोलता हूं इन
शास्त्रों
पर। इसलिए रोज
तुम्हें
समझाए जाता
हूं कि कहीं
तुम्हारे
अचेतन में
जानकारी पड़ी
रहे और जब
घटनाएं घटें
तो तुम उनकी
ठीक—ठीक
व्याख्या कर
लो, सुलझा
लो। अन्यथा
तुम सुलझाओगे
कैसे? —तुम्हारे
पास भाषा न
होगी; शब्द
न होंगे, समझने
का कोई उपाय न
होगा; मापदंड
न होगा। तराजू
न होगा, तुम
तौलोगे कैसे?
कसौटी न
होगी, तुम
परखोगे कैसे?
पूछा
है 'मेरे
रोम—रोम में
प्रवचन
गूंजने लगा। दर्शक
होकर दृश्यों
की छवि निहार
रहा था, कहीं
से द्रष्टा की
याद आ गई।
द्रष्टा का
खेल भी जरा
देर चला, लेकिन
इसी बीच मेरे
पैर लडखडाने
लगे और गिरने से
बचने के लिए
मैं सडक के
किनारे बैठ
गया। '
निश्चित
ही ऐसा ही
होता है। जब
पहली दफा
तुम्हें
द्रष्टा का
थोड़ा—सा बोध
होगा, तुम
लड़खड़ा जाओगे,
तुम्हारी
पूरी जिंदगी
लड़खड़ा जाएगी।
क्योंकि
तुम्हारी
पूरी जिंदगी
ही द्रष्टा के
बिना खड़ी है।
यह नई घटना सब
अस्तव्यस्त
कर देगी। जैसे
अंधे आदमी की
अचानक आख खुल
जाए, थोड़ा
सोचो, वह
चल पाएगा
रास्ते पर? वह लड़खड़ा
जाएगा। चालीस
साल, पचास
साल से अंधा
था, लकडी के
सहारे
टटोल—टटोलकर
चलता था।
अंधेरे में चलने
की धीरे — धीरे
क्षमता आ गई
थी अंधेपन के
साथ ही। कुशल
हो गया था।
आवाजें समझ
लेता था। रास्तों
के मोड़ पहचान
में आ गए थे।
कान के द्वारा
आख का काम
लेना सीख गया
था। पचास साल
से सब ठीक व्यवस्थित
हो गया था।
एक
जिंदगी है
अंधे की—तुम
उसकी कल्पना
भी नहीं कर
सकते—प्रकाश—विहीन, रंग—विहीन,
रूप—विहीन,
आकार —विहीन,
सिर्फ
ध्वनि के
माध्यम पर
टिकी। उसकी एक
ही भाषा है :
ध्वनि। तो उसी
के आधार पर
उसने अपना सारा
जीवन संरचित
कर लिया था।
आज अचानक सुबह
वह जा रहा है
बाजार, उसकी
अचानक आख खुल
जाए, थोड़ा
सोचो क्या
होगा? उसका
सारा संसार
झकपका कर गिर
पड़ेगा। उसकी
ध्वनि का सारा
लोक एकदम
अस्तव्यस्त
हो जाएगा। यह
घटना इतनी बड़ी
होगी—आख का
खुलना, लोगों
के चेहरे
दिखाई पड़ने, रंग दिखाई
पड़ने, सूरज
की किरणें, धूप—छाव, यह
भीड़— भाड़, इतने
लोग, बसें,
कारें, साईकिले—वह
एकदम घबड़ा
जाएगा। यह
इतना बड़ा आघात
होगा उसके ऊपर
कि उसकी
छोटी—सी
दुनिया जो ध्वनि
के सहारे बनी
थी, वह
कहीं दब जाएगी,
पिछड़ जाएगी,
मर जाएगी, कुचल जाएगी!
वह वहीं
थरथराकर बैठ
जाएगा, लड़खड़ाकर
गिर पड़ेगा; शायद घर न आ
सके, या
बेहोश हो जाए।
और
यह उदाहरण कुछ
भी नहीं है।
जब तुम्हारे
जीवन में
द्रष्टा का
प्रवेश होगा, एक
किरण भी
द्रष्टा की
आएगी, तो
यह उदाहरण कुछ
भी नहीं है—वह
घटना और भी
बड़ी है। भीतर
की आख खुल रही
है। तुमने उस
भीतर की आख के
बिना ही अपना
एक संसार रच
लिया है।
अचानक वह भीतर
की आख खुलते
ही तुम्हारे
सारे संसार को
गलत कर देगी।
तुम चौंककर
अवाक रह
जाओगे। जिसने
पूछा है, ठीक
ही पूछा है और
अनुभव से पूछा
है। इसे खयाल करना।
प्रश्न
दो तरह के
होते हैं। एक
तो सैद्धांतिक
होते हैं।
उनका कोई बड़ा
मूल्य नहीं
होता। यह
प्रश्न अनुभव
का है। अनुभव
से न हुआ होता
तो यह प्रश्न
बन ही नहीं
सकता था। ये
पैर लड़खड़ाए न
होते तो यह
प्रश्न बन
नहीं सकता था।
यह प्रश्न
सीधे अनुभव का
है।
'कहीं से
द्रष्टा की
याद आ गई। '
गज
रहे होंगे
अष्टावक्र के
वचन। जो मैंने
कहा था सुबह, उसकी
गज बाकी रह गई
होगी, उसकी
सुगंध
तुम्हारे
भीतर उठ रही होगी,
उसकी
थोड़ी—सी
लकीरें कहीं
उलझी रह गई
होंगी।
'आ गई कहीं से
द्रष्टा की
याद! द्रष्टा
का खेल थोड़ी
देर चला। '
शायद
क्षण भर ही
चला हो। वह
क्षण भी बहुत
लंबा मालूम
होता है जब
खेल द्रष्टा
का चलता है, क्योंकि
द्रष्टा
समयातीत है।
यहां घड़ी में
क्षण बीतता है,
वहां
द्रष्टा होने
में ऐसा लग
सकता है कि
सदियां बीत
गईं। यह घड़ी
वहा काम नहीं
आती। यह घड़ी भीतर
की आख के लिए
नहीं बनी है। ' थोड़ी
देर खेल चला, लेकिन इसी
बीच मेरे पैर
लड़खड़ाने लगे,
जिनसे बचने
के लिए मैं
सड़क के किनारे
बैठ गया। '
यह
लड़खड़ाहट
बताती है कि
घटना घटी। प्रश्न
पूछने वाले ने
सुनकर प्रश्न
नहीं पूछा है, पढ़कर
प्रश्न नहीं
पूछा है—कुछ
घटा।
'और तभी न
दृश्य रहा, न दर्शक रहा,
न द्रष्टा
रहा। ' उस
लड़खड़ाहट में
सब बिखर गया, सब खो गया।
ऐसी
घड़ी में ही
कभी
विक्षिप्तता
आ सकती है, अगर
धीरे—धीरे
अभ्यास न हो।
अगर
रत्ती—रत्ती
हम इसको
आत्मसात न
करते चलें और
यह एकदम से फूट
पड़े, तो
विस्फोट हो
सकता है।
'सब कुछ
समाप्त हो गया
और फिर भी कुछ
था। '
निश्चित
कुछ था।
वस्तुत: पहली
दफा सब कुछ
था। तुम्हारा
सब कुछ समाप्त
हो गया। तुमने
जो बना ली थी
अपनी छोटी—सी
घासफूस की
कुटिया—वह गिर
गई। आकाश था, चांद—तारे
थे। परमात्मा
ही बचा! तुमने
जो बना ली थी
सीमाएं, रेखाएं—वे
खो गईं।
निरभ्र आकाश
बचा! तुमने जो छोटे—से
में रहने का
अभ्यास कर
लिया था, वह
लड़खड़ा गया।
उसी लड़खड़ाहट
में तुम भी
घबड़ाकर सड़क के
किनारे बैठ
गए।
निश्चित
कुछ था। लेकिन
जिसको यह
अनुभव हुआ, अवाक
कर गया। वह
पकड़ नहीं पाया,
क्या था, कौन था!
तुम्हें
खयाल है? कभी—कभी
ऐसा होता है, सुबह अचानक
कोई तुम्हें
जगा दे जब तुम
गहरी नींद में
सोए थे—पांच
बजे हों, तुम
गहरी नींद में
थे, रात की
सबसे गहरी घड़ी
थी—कोई अचानक
जगा दे, कोई
शोरगुल हो जाए,
रास्ते पर
कोई बम फूट
जाए, कोई
कार टकरा जाए
द्वार पर, कोई
शोरगुल हो
जाए—तुम अचानक
से जाग जाओ।
अचानक! नींद
से एकदम होश
में आ जाओ।
नींद की गहराई
से तीर की तरह
आ जाओ।
साधारणत:
हम जब आते हैं
नींद की गहराई
से तो धीरे—धीरे
आते हैं। पहले
गहरी नींद
छूटती है, फिर
धीरे—धीरे
सपने तैरना
शुरू होते
हैं। फिर
सपनों में हम
थोड़ी देर रहते
हैं। इसलिए
तुम्हें सुबह
के सपने याद
रहते हैं रात
के सपने
तुम्हें याद
नहीं रहते।
क्योंकि सुबह
के सपने बहुत
हलके होते हैं,
और नींद और
जागरण के ठीक
मध्य में होते
हैं। फिर
धीरे—धीरे
सपने हटते
हैं। फिर
अधूरी—अधूरी
टूटी—सी नींद
होती है। फिर
धूप—छांव की
आख—मिचौनी
चलती है थोड़ी
देर, क्षण
भर को लगता है
जागे, क्षण
भर को फिर
नींद में हो
जाते हैं, करवट
बदल लेते हैं,
करवट बदलते
तब लगता है
जागे हैं, बीच
में आवाज भी
सुनाई दे जाती
है कि पत्नी
चाय बनाने लगी,
कि बर्तन
गिर गया, कि
दूध वाला आ
गया, कि
राह से कोई
गुजर रहा, कि
नौकरानी ने
दस्तक दी, कि
बच्चे स्कूल
जाने की
तैयारी करने
लगे। फिर करवट
लेकर फिर तुम
एक गहराई में
डुबकी लगा जाते
हो। ऐसा
धीरे—धीरे, धीरे— धीरे
सतह पर आते
हो। फिर तुम
आख खोलते हो।
लेकिन
अगर कभी कोई
अचानक घटना घट
जाए तो तुम
तीर की तरह
गहराई से सीधे
जागरण में आ
जाते हो। आख
खोलकर
तुम्हें
लगेगा अचानक, तुम
कहां हो, कौन
हो पू एक क्षण
को कुछ समझ
में न आएगा।
ऐसा
तुम सबको हुआ
होगा कभी किसी
घड़ी में. 'कौन
हूं? नाम—पता
भी याद नहीं
आता। कहां हूं?
यह भी समझ
में नहीं आता।
जैसे किसी
अजनबी दुनिया
में अचानक आ
गए हों! यह
क्षण भर ही
रहती है बात, फिर तुम
सम्हल जाते
हो। क्योंकि
यह धक्का कोई बहुत
बड़ा धक्का
नहीं है। और
फिर इसके तुम
अभ्यासी हो।
रोज ही यह
होता है। रोज
सुबह तुम उठते
हो, सपने
की दुनिया से
वापिस जागृति
की दुनिया में
लौटते हो। यह
अभ्यास
पुराना है, फिर भी
कभी—कभी अचानक
हो जाए तो
चौंका जाता है,
घबड़ा जाता
है।
असली
जागरण जब घटता
है तो तुम
बिलकुल ही
अवाक रह
जाओगे।
तुम्हें कुछ
समझ में न
आएगा, क्या हो
रहा है? सब
सन्नाटा और
शून्य हो
जाएगा। लेकिन
ठीक हुआ।
'न द्रष्टा
रहा, न
दर्शक, न
दृश्य। सब कुछ
समाप्त हो
गया। फिर भी
कुछ था। '
इस
कुछ की ही तुम
व्याख्या कर
सकी,
इसीलिए
इतने
शास्त्रों पर
मैं बोल रहा
हूं। इस कुछ
की ही तुम
व्याख्या
करने में
समर्थ हो जाओ;
इस कुछ को
तुम अर्थ दे
सको; इस
कुछ की तुम
प्रत्यभिज्ञा
कर सको, परिभाषा
कर सकी, नहीं
तो यह कुछ
तुम्हें डुबा
लेगा। तुम बाढ़
में बह जाओगे।
तुम्हारे पास
खड़े होने की
कोई जगह रहे, इसीलिए इतनी
बातें कह रहा
हूं।
'सब कुछ
समाप्त हो गया,
फिर भी कुछ
था। कभी
अंधेरा, कभी
प्रकाश की
आख—मिचौनी
चलती रही।
लेकिन तभी से
बेचैनी बढ़ गई
है। और समझ
में नहीं आता
कि यह सब क्या
था। '
जो
मैं कहता हूं
उसे सम्हाले
जाओ। उसकी
मंजूषा बनाओ।
उसे ज्ञान मत
समझना, जानकारी
ही समझना।
समझपूर्वक
उसकी मंजूषा
बनाओ। फिर धीरे—धीरे
तुम पाओगे, जब—जब अनुभव
घटेगा, जो
अनुभव घटेगा,
उस अनुभव को
सुस्पष्ट, सुविश्लिष्ट
कर देने वाले
मेरे शब्द
तुम्हारे अचेतन
से उठकर खड़े
हो जाएंगे।
मैं तुम्हारा
साक्षी बन
जाऊंगा। मैं
तुम्हारा
गवाह हूं।
लेकिन
अगर सुनते वक्त
तुम मेरे साथ विवाद
कर रहे हो तो फिर
मैं तुम्हारा गवाह
न बन सकूंगा।
अगर सुनते
वक्त तुम मुझसे
किसी तरह का आंतरिक
संघर्ष कर रहे
हो,
तर्क कर रहे
हो, अगर
सुनते वक्त
तुम मुझे
सहानुभूति, प्रेम से
नहीं सुन रहे
हो, विवाद
कर रहे हो—तो
मैं तुम्हारा
गवाह न बन सकूंगा।
क्योंकि फिर
तुम जो अपनी
मंजूषा में रखोगे,
वह मेरा
नहीं होगा, तुम्हारा ही
होगा।
कल
रात
आस्ट्रेलिया
से आए एक
मनोवैज्ञानिक
ने संन्यास
लिया। उस
मनोवैज्ञानिक
को मैंने कहा
कि तुम
संन्यास न लो, तो
भी तुम्हारा
स्वागत है।
लेकिन तब तुम
मेरे अतिथि न
रहोगे।
स्वागत तो
तुम्हारा है।
अगर तुम
संन्यास ले लो
तो भी स्वागत
तुम्हारा है,
पर तुम मेरे
अतिथि भी हो
गए। मुझसे लोग
पूछते हैं कि 'अगर हम
संन्यास नलें
तो क्या आपका
प्रेम हम पर
कम रहेगा?' मेरा
प्रेम तुम पर
पूरा रहेगा।
स्वागत है। लेकिन
संन्यास लेते
ही तुम अतिथि
भी हो गए।
और
बड़ा फर्क है।
बिना संन्यास
लिए तुम सुन
रहे हो दूरी
से,
संन्यास लेकर
तुम पास आ गए।
बिना संन्यास लिए
तुम सुन रहे
हो, अपनी
बुद्धि से
विश्लेषण कर रहे
हो, तुम छांट
रहे हो मैं जो
कह रहा हूं।
उसमें जो
तुम्हें मन—भाता
है, वह रख
लेते हो; जो
मन नहीं भाता,
वह छोड़ देते
हो। और संभावना
इसकी है कि जो
तुम्हें मन नहीं
भाता है वही काम
पड़ने वाला है।
क्योंकि तुम्हें
जो मन—भाता है,
वह तुम्हें बदल
नही सकता।
तुम्हें
मन—भाता है, उसका अर्थ
है तुम्हारे
अतीत से मेल खाता
है। जो
तुम्हारे
अतीत से मेल नही
खाता, वही तुम्हारे
भीतर क्रांति की
किरण बनेगा।
जो तुमसे मेल
नहीं खाता वही
तुम्हे रूपातरित
करेगा। जो
तुमसे बिलकुल मेल
खा जाता है, वह तुम्हें
मजबूत करेगा,
रूपांतरित
नहीं करेगा।
तो तुम चुन रहे
हो। तुम सोचते
हो तुम
बुद्धिमान
हो।
बुद्धिमान
कभी—कभी बड़ी
नासमझियां
करते हैं। वे
चुन रहे हैं
बैठे। वे
चुनते रहते
हैं। अपने
मतलब का जो है, वह
सम्हाल लेंगे;
जो अपने
मतलब का नहीं,
उससे हमें
क्या
लेना—देना!
लेकिन
मैं तुमसे फिर
कहता हूं : जो
तुम्हें लगता
है तुम्हारे
मतलब का नहीं
है,
वही किसी
दिन तुम्हारे
काम पड़ेगा। आज
तुम्हारे पास
उसको समझने का
भी कोई उपाय
नहीं है, क्योंकि
तुम्हारे पास
उसका कोई
अनुभव नहीं है।
लेकिन फिर भी
मैं कहता हूं
सम्हाल कर रख
लो। किसी दिन
अनुभव जब आएगा,
तो अचानक
तुम्हारे
अचेतन से
उठेगी बात और
हल कर जाएगी।
तब तुम अवाक न
रहोगे। तब तुम्हारा
विस्मय
तुम्हें तोड़
नहीं देगा। और
तब तुम घबड़ा न
जाओगे और
बेचैनी न
होगी।
ऊपर ही
ऊपर,
जो हवा
ने गाया
देवदारू
ने दोहराया
जो
हिम—चोटियों
पर झलका
जो
सांझ के आकाश
से छलका
वह
किसने पाया?
जिसने
आयत करने की
आकांक्षा का
हाथ बढ़ाया?
आह, वह
तो मेरे
दे दिए
गए हृदय में
उतरा
मेरे
स्वीकारे आंसू
में ढलका
वह
अनजाना, अनपहचाना
ही आया
वह इन
सबके और मेरे
माध्यम से
अपने
में,
अपने को
लाया
अपने
में समाया
अकेला
वह तेजोमय है
जहां
दीठ
बेबस झुक जाती
है
वाणी
तो क्या, सन्नाटे
तक की गंज
वहां
चुक जाती है।
सुनो
मुझे—गहन
आसुओं से!
सुनो
मुझे—हृदय से!
सुनो
मुझे—प्रेम
से! बुद्धि से
नहीं, तर्क से
नहीं। वही
श्रद्धा और
निष्ठा का
अर्थ है।
ऊपर ही
ऊपर,
जो हवा
ने गाया
जो
देवदारू ने
दोहराया
जो
हिम—चोटियों
पर झलका
जो
सांझ के आकाश
से छलका
वह
किसने पाया?
क्या
उसने, जिसने
आयत
करने की
आकांक्षा का
हाथ बढ़ाया?
नहीं!
जहां
आकांक्षा का
हाथ बढ़ा, वहा
तो हाथ बड़ा
छोटा हो गया।
आकांक्षा के
हाथ में तो
भिक्षा ही
समाती है, साम्राज्य
नहीं समाते।
साम्राज्य
समाने के लिए
तो प्रेम से
खुला हुआ हृदय
चाहिए; भिक्षा
का, वासना
का पात्र
नहीं।
वह
किसने पाया?
जिसने
आयत करने की
आकांक्षा का
हाथ बढ़ाया?
तो
तुम मुझे यहां
ऐसे सुन सकते
हो कि चलो, जो
अपने मतलब का
हो उसे उठा
लें, अपनी
झोली में
सम्हाल लें।
तो तुम
आकांक्षा के
हाथ से मेरे
पास आ रहे हो।
आकांक्षा तो
भिक्षु है। तो
तुम कुछ
थोड़ा—बहुत ले
जाओगे, लेकिन
तुम जो ले
जाओगे वे टेबल
से गिरे रोटी
के टुकड़े
इत्यादि थे।
तुम अतिथि न
हो पाए। संन्यास
तुम्हें
अतिथि बना
देता है।
आह, वह
तो मेरे दे
दिए गए
हृदय
में उतरा!
आह, वह
तो मेरे दे
दिए गए
हृदय
में उतरा।
मेरे
स्वीकारे आंसू
में ढलका
वह
अनजाना—अनपहचाना
ही आया
वह इन
सबके और मेरे
माध्यम से
अपने
में,
अपने को
लाया
अपने
मैं समाया
अकेला
वह तेजोमय है
जहां
दीठ
बेबस झुक जाती
है।
वहां आंख
तो झुक जाती
है।
वाणी
तो क्या, सन्नाटे
तक की गज
वहां
चुक जाती है
उसके
लिए तैयारी
करो। उसके लिए
हृदय को प्रेम
से भरो। उसके
लिए
सहानुभूति से
सूनना सीखो।
और मैं तुमसे
जो कह रहा हूं, उसे
मंजूषा में
संजोओ। तो फिर
बेचैनी न
होगी। फिर वह
उतरे अपरिचित,
अनजान—तुम
उसे समझ
पाओगे। तुम
उसके गढ़ स्वर
को समझ पाओगे।
तुम उसके
सन्नाटे में
डूबोगे नही, घबडाओगे
नहीं—मुका हो
जाओगे।
अन्यथा, वह
मौत जैसा
लगेगा।
परमात्मा अगर
बिना समझे हुए
आ जाए, तुम्हारे
पास अगर समझने
का कोई भी
उपाय न हो, तो
मौत जैसा
लगेगा कि मरे!
अगर तुम्हारे
पास समझने का
थोड़ा उपाय हो,
थोड़ी
तैयारी हो, तुमने
सदगुरुओं से
कुछ सीखा हो, सत्संग किया
हो—तो
परमात्मा
मोक्ष है, अन्यथा
मृत्यु जैसा
मालूम पड़ता
है। और एक बार तुम
घबड़ा गए तो
तुम उस तरफ
जाना बंद कर
दोगे। एक बार
तुम बहुत
भयभीत हौ गए, तो तुम्हारा
रोआं—रोआं
डरने लगेगा।
तुम और सब जगह
जाओगे, वही
न जाओगे जहा
ऐसा भय है
जहां हाथ—पैर
लड़खड़ा जाएं; जहां राह के
किनारे बैठ
जाना पड़े, जहां
सब धूमिल हो
जाए, सब
खोता मालूम
पड़े; कुछ
अज्ञात
अनजाना शेष
रहे और घबड़ाए
और बेचैनी
दे—फिर तुम
वहां न जाओगे।
रवींद्रनाथ
का गीत है कि
मैं परमात्मा
को खोजता था
अनेक जन्मों
से। बहुत खोजा, मिला
नहीं। कभी
—कभी दूर, बहुत
दूर चांद—तारों
पर उसकी झलक
दिखाई पड़ जाती
थी। आशा बंधी
रही, खोजता
रहा। फिर एक
दिन संयोग और
सौभाग्य कि उसके
द्वार पर
पहुंच गया।
तख्ता लगी
थी—यही रहा घर
भगवान का! चढ़
गया सीढ़ियां
एक छलांग में,
जन्मों—जन्मों
की यात्रा
पूरा हुई थी।
अहोभाग्य! हाथ
में सांकल
लेकर बजाने को
ही था किए तब
एक भय पकड़ा कि
अगर वह मिल
गया, तो
फिर? फिर
मैं क्या
करूंगा? अब
तक परमात्मा
को खोजना ही
तो मेरा कुल
कृत्य था। अब
तक इसी सहारे
जीया। यही थी
मेरी जीवन—यात्रा।
तो परमात्मा
अगर मिल गया
तो वह तो मृत्यु
हो जाएगी। फिर
मेरे जीवन का
क्या? फिर
मेरी यात्रा
कहा? फिर
कहां जाना है,
किसको पाना
है, क्या
खोजना है? फिर
तो कुछ भी न
बचेगा। तो
बहुत घबड़ा
गया। छोड़ दी
सांकल
आहिस्ता से, कि कहीं
आवाज न हो जाए,
कहीं वह
द्वार खोल ही
न दे! जूते हाथ
में ले लिए।
भागा तो तब से
भाग रहा हूं।
अब
भी खोजता
हूं—रवींद्रनाथ
ने लिखा है उस
गीत में—अब भी
खोजता हूं
परमात्मा को
हालांकि मुझे
पता है उसका
घर कहां है।
उस जगह को भर छोड़
कर सब जगह
खोजता हूं; क्योंकि
खोजना ही जीवन
है। उस जगह भर
जाने से बचता
हूं। उस घर की
तरफ भर नहीं
जाता। वहा से किनारा
काट लेता हूं।
और सब जगह
पूछता फिरता हूं,परमात्मा
कहां है? और
मुझे पता है
कि परमात्मा
कहां है।
मेरे
देखे, बहुत
लोग अनत
जन्मों की
यात्रा में कई
बार उस घर के
करीब पहुंच गए
हैं, लेकिन
घबड़ा गए हैं।
ऐसे घबड़ा गए
कि सब भूल गया,
वह घबड़ाहट
नहीं भूली है
अभी तक!
इसीलिए लोग ध्यान
करने को आसानी
से उत्सुक
नहीं होते।
ध्यान वगैरह
की बात से ही
लोग डरते हैं,
बचते हैं।
परमात्मा
शब्द का
औपचारिक
उपयोग कर लेते
हैं, लेकिन
परमात्मा को
कभी. जीवन की
गहरी खोज नहीं
बनने देते।
मंदिर—मस्जिद
हो आते
हैं—सामाजिक औपचारिकता
है, लोकाचार।
जाना चाहिए, इसीलिए चले
जाते हैं।
लेकिन कभी
मंदिर को, मस्जिद
को हृदय में
नहीं बसने
देते। उतना
खतरा मोल नहीं
लेते। दूर—दूर
रखते हैं
परमात्मा को।
उसका कारण
होगा। कहीं
किसी गहन
अनुभव में, कहीं छिपी
किसी गहरी
स्मृति में
कोई भय का अनुभव
छिपा है। कभी
लड़खड़ा गए
होंगे उसके घर
के पास।
अब
जिन मित्र को
यह अनुभव हुआ
है,
अगर वे ठीक
से न समझें तो
घबड़ाने
लगेंगे। अब रास्ते
पर ऐसा घबड़ा
कर बैठ जाना, हाथ—पैर कंप
जाना, हृदय
का जोर सै
धड़कने लगना, श्वास का
बेतहाशा चलने
लगना, कुछ
से कुछ हो
जाए—ऐसे ध्यान
से दूर ही
रहना अच्छा!
यह तो झंझट की
बात है। फिर
लौट आए तो ठीक,
अगर न लौट
पाए तो? अगर
ऐसे ही बैठे
रह जाएं
रास्ते के
किनारे तो लोग
पागल समझ
लेंगे। घडी—दो
—घड़ी तो ठीक, फिर पुलिस आ
जाएगी। फिर
पास—पड़ोस के
लोग कहेंगे कि
अब इनको उठाओ,
अस्पताल
भेजो, क्या
हो गया? चिकित्सक
इंजेक्यान
देने लगेंगे
कि इनका होश
खो गया, कि
मस्तिष्क
खराब हो गया?
मेरे
एक मित्र ने
लिखा
है—संन्यासी
है—कि यहां से
गए तो नाचते
हुए,
आनंदित
होकर गए। घर
के लोगों ने
कभी उन्हें नाचते
और आनंदित तो
देखा नहीं था।
जब वै घर नाचते,
आनंदित
पहुंचे तो
लोगों ने समझा
पागल हो गए। घर
के लोगों ने
एकदम दौड़कर
उन्हें पकड़
लिया कि बैठो,
क्या हो गया
तुमको? ' अरे,'
उन्होंने
कहा, 'मुझे
कुछ हुआ नहीं।
मैं बड़ा
प्रसन्न हूं
बड़ा आनंद में
हूं। ' वे
जितने जान की
बातें करें, घर के लोग
उतने संदिग्ध
हुए कि गड़बड़
हो गई। वे
उन्हें घर —से
न निकलने दें।
जबरदस्ती
उनको अस्पताल
में भरती करवा
दिया। उनका पत्र
आया है कि मैं
पड़ा हंस रहा
हूं यहां
अस्पताल में।
यह खूब मजा है!
मैं दुखी था, मुझे कोई
अस्पताल न
लाया। अब मैं
प्रसन्न हूं तो
लोग मुझे
अस्पताल ले आए
हैं। मैं देख
रहा हूं खेल।
मगर वे समझते
हैं कि मैं
पागल हूं। और जितना
वे मुझे समझते
हैं कि पागल
हूं,उतनी
मुझे हंसी आती
है। जितनी
मुझे हंसी आती
है, वे
समझते हैं कि
बिलकुल गए काम
से।
ठीक
हुआ जो पूछ
लिया। घबड़ाना
मत। यह अनुभव
धीरे—धीरे शांत
हो जाएगा।
साक्षी— भाव
रखना। ऐसा
स्वाभाविक है।
तीसरा
प्रश्न :
हम
ईश्वर—अंश हैं
और अविनाशी
भी। कृपया
बताएं कि यह
अंश मूल से कब, क्यों
और कैसे
बिछुड़ा? और
अंश का मूल से
पुनर्मिलन, कभी न
बिछुडने वाला मिलना
संभव है या
नहीं? यदि
संभव है तो अंश
को मूल में
मिला देने की
कृपा करें कि
बार—बार इस
कोलाहाल में
आकर भयभीत न
होना पड़े।
देखे
फर्क! अभी एक
प्रश्न था—वह
अनुभव का था।
यह प्रश्न
शास्त्रीय है.
'हम
ईश्वर—अंश हैं
और अविनाशी
भी!' यह
तुम्हें पता
है? सुन
लिया, पढ़
लिया—और
अहंकार को
तृप्ति देता
है—मान भी लिया।
इससे बड़ी
अहंकार को
तृप्ति देने
वाली और क्या
बात हो सकती
है कि हम
ईश्वर—अंश हैं?
ईश्वर हैं,
ब्रह्म हैं,
अविनाशी
हैं! यही तो
तुम चाहते हो।
यही तो अहंकार
की खोज है।
यही तो
तुम्हारी
गहरी से गहरी आकांक्षा
है कि अविनाशी
हो जाओ, ईश्वर—
अंश हौ जाओ, ब्रह्मस्वरूप
हो जाओ, सारे
जगत के मालिक
हो जाओ!
'हम
ईश्वर—अंश हैं
और अविनाशी
भी। '
ऐसा
तुम्हें पता
है?
अगर
तुम्हें पता है
तो प्रश्न की
कोई जरूरत
नहीं। अगर
तुम्हें पता
नहीं है तो यह
बात लिखना ही
व्यर्थ है, फिर प्रश्न
ही लिखना काफी
है।
'कृपया बताएं
कि यह अंश मूल
से कब, क्यों
और कैसे
बिछुड़ा?'
ये
पांडित्य के
प्रश्न हैं।
कब?
—समय, तारीख,
तिथि
चाहिए। क्या
करोगे? अगर
मैं तिथि भी बता
दू र उससे
क्या अंतर
पड़ेगा? संवत
बता दूं समय
बता दूं कि
ठीक सुबह छह
बजे फला—फलां
दिन—उससे क्या
फर्क पड़ेगा? उससे
तुम्हारे
जीवन में क्या
क्रांति होगी,
तुम्हें
क्या मिलेगा?
कब, क्यों
और कैसे
बिछुड़ा?
अगर
तुम्हें पता
है कि तुम
ईश्वर—अंश हो
तो तुम्हें
पता होगा कि
बिछुड़ा कभी भी
नहीं। तुमने
बिछुड़ने का सपना
देखा। बिछुड़ा
कभी भी नहीं, क्योंकि
अंश बिछुड़
कैसे सकता है?
अंश तो अंशी
के साथ ही
होता है।
तुम्हें याद भूल
गई हो, बिछुड़न
नहीं हो सकती,
विस्मृति
हो सकती है।
बिछुड़ने का तो
उपाय ही नहीं
है। हम जो हैं,
वही हैं।
चाहे हम भूल
जाएं, विस्मरण
कर दें, चाहे
हम याद कर
लें—सारा भेद
विस्मृति और
स्मृति का है।
'मूल से कब, क्यों और
कैसे बिछुड़ा?'
बिछुड़ा
होता तो हम
बता देते कि
कब,
क्यों और
कैसे बिछुड़ा।
बिछुड़ा नहीं।
रात तुम सोए, तुमने सपना
देखा कि सपने
में तुम घोड़े
हो गए। अब
सुबह तुम पूछो
कि हम घोड़े
क्यों, कैसे,
कब हुए—बहुत
मुश्किल की
बात है। 'क्यों
घोड़े हुए?' हुए
ही नहीं, पहली
तो बात। हो गए
होते तो पूछने
वाला बचता? घोड़े तो
नहीं पूछते।
तुम कभी हुए
नहीं, सिर्फ
सपना देखा।
सुबह जागकर
तुमने पाया कि
अरे, खूब
सपना देखा! जब
तुम सपना देख
रहे थे तब भी
तुम घोड़े नहीं
थे, याद
रखना।
हालांकि —तुम
बिलकुल ही
लिप्त हो गए
थे इस भाव में
कि घोड़ा हो
गया। यही तो
अष्टावक्र की
मूल धारणा है।
अष्टावक्र
कहते हैं जिस
बात से भी तुम
अपने मैं— भाव
को जोड़ लोगे, वही हो
जाओगे।
देहाभिमान—तो
देह हो गए।
कहा 'मैं देह हूं',
तो देह हो
गए।
ब्रह्माभिमान—कहा
कि मैं ब्रह्म
हूं तो ब्रह्म
हो गए। तुम
जिससे अपने
मैं को जोड़
लेते हो, वही
हो जाते हो।
सपने में
तुमने घोड़े से
जोड लिया, तुम
घोड़े हो गए।
अभी तुमने
शरीर से जोड़
लिया तो तुम
आदमी हो गए।
लेकिन तुम हुए
कभी भी नहीं हो।
हो तो तुम वही,
जो तुम हो।
जस—के—तस! वैसे
के वैसे!
तुम्हारे स्वभाव
में तो कहीं
कोई अंतर नहीं
पड़ा है।
इसलिए
इस तरह के
प्रश्न
अर्थहीन हैं।
और इस तरह के
प्रश्न पूछने
में समय मत गंवाओ।
और इस तरह के
प्रश्नों के
जो उत्तर देते
हैं,
वे तुमसे भी
ज्यादा नासमझ
हैं।
झेन
फकीर बोकोजू
के जीवन में
उल्लेख है : एक
दिन सुबह उठा
और उठकर उसने
अपने प्रधान
शिष्य को
बुलाया और कहा
कि सुनो, मैंने
रात एक सपना
देखा। उसकी
तुम व्याख्या
कर सकोगे? उस
शिष्य ने कहा
कि रुके। मैं
थोड़ा पानी ले
आऊं, आप
हाथ—मुंह पहले
धो लें।
वह
मटकी में पानी
भर लाया और
गुरु का उसने
हाथ—मुंह
धुलवा दिया।
वह हाथ—मुंह
धुला रहा था, तभी
दूसरा शिष्य
पास से गुजरता
था। गुरु ने
कहा, सुनो!
मैंने रात एक
सपना देखा।
तुम उसकी
व्याख्या
करोगे?
उसने
कहा कि ठहरो, एक
कप चाय ले
लेना आपके लिए
अच्छा रहेगा।
वह एक कप चाय
ले आया। गुरु
खूब हंसने
लगा। उसने कहा
कि अगर तुमने
व्याख्या की
होती मेरे सपने
की, तो
मारकर बाहर
निकाल देता।
सपने
की क्या
व्याख्या? अब
देख भी लिया, जाग भी गए, अब छोड़ो
पंचायत!
शिष्यों
ने बिलकुल ठीक
उत्तर दिए। वह
कसौटी थी। वह
परीक्षा थी
उनकी। वह
परीक्षा का
क्षण आ गया
था। एक शिष्य
पानी ले आया
कि आप
हाथ—मुंह धो
लें। सपना गया, अब
मामला खत्म
करें! अब और
व्याख्या
क्या करनी? सपना सपना
था, बात
खत्म हो गई; व्याख्या
क्या करनी? व्याख्या
सत्य की होती
है, सपनों
की थोड़े ही।
झूठ की क्या
व्याख्या हो
सकती है? जो
हुआ ही नहीं, उसकी क्या
व्याख्या हो
सकती है? इतना
काफी है कि
जान लिया सपना
था, अब
हाथ—मुंह धो
लें। अब बाहर
आ ही जाएं, जब
आ ही गए।
दूसरे
युवक ने भी
ठीक किया कि
चाय ले आया, कि
हाथ—मुंह तो
धुल गया लेकिन
लगता है थोडी
नींद बाकी है,
आप ठीक से
चाय पी लें, बिलकुल जाग
जाएं।
यही
मैं तुमसे
कहता हूं :
हाथ—मुंह धो
लो,
चाय पी लो!
तुम कभी अलग
हुए नहीं। अलग
होने का कोई
उपाय नहीं है।
फिर
पूछते हैं. 'अंश
का मूल से
पुनर्मिलन, कभी न
बिछुड़ने वाला
मिलन संभव है
या नहीं? जब तुम
बिछुड़े ही
नहीं तो मिलन
की बात ही
बकवास है।
इसीलिए तो
अष्टावक्र
कहते हैं कि
मुक्ति का
अनुष्ठान मुक्ति
का बधन है। वे
क्या कह रहे
हैं? वे यह
कह रहे हैं कि
जिससे तुम कभी
अलग ही नहीं हुए,
उससे मिलने
की योजना? तो
हद हो गई
पागलपन की! तो
यह योजना ही
तुम्हें मिलने
न देगी।
थोड़ा
सोचो! अगर तुम
अपने घर के
बाहर कभी गए
ही नहीं, तो घर
लौटने की
चेष्टा
तुम्हें
जागने न देगी।
एक
शराबी रात घर
लौटा। ज्यादा
पी गया।
दरवाजे पर
टटोलकर तो
देखा, लेकिन
समझ में न आया
कि अपना मकान
है। उसकी मां
ने दरवाजा
खोला, तो
उसने कहा, हे
बूढ़ी मां!
मुझे मेरे घर
का पता बता
दें।
वह
बूढ़ी कहने लगी, तू
मेरा बेटा है,
मैं तेरी
मां हूं पागल!
यह तेरा घर है।
उसने
कहा कि मुझे
भरमाओ मत।
मुझे भटकाओ
मत। इतना मुझे
पक्का है कि
घर यहीं कहीं
है,
लेकिन कहां
है?
मोहल्ले
के लोग इकट्ठे
हो गए। लोग
समझाने लगे।
अब शराबी को
समझाने की
जरूरत नहीं
होती। शराबी
को जो समझाएं
वह भी शराब
पीए है। वे
समझाने लगे कि
यही तेरा घर
है। सिद्ध
करने लगे, प्रमाण
जुटाने लगे कि
देख, यह
देख। वे इतनी
बात समझ ही
नहीं रहे कि
वह आदमी शराब
पीए है, कहां
प्रमाण! उसे
न—मालूम
क्या—क्या
दिखाई पड़ रहा
है, जिसकी
तुम सोच भी
नहीं कर सकते।
जो तुम्हें दिखाई
पड़ रहा है उसे
दिखाई पड़ ही
नहीं रहा है।
वह किसी दूसरे
लोक में है।
वह अपनी मा को
नहीं पहचान
रहा है, क्या
खाक अपने घर
को पहचानेगा!
वह अपने को
नहीं पहचान
रहा है, वह
क्या किसी और
को पहचानेगा!
उसके
पीछे एक दूसरा
शराबी आया। वह
अपनी बैलगाड़ी
जोते चला आ
रहा था। तो
उसने कहा कि
तू मेरी बैलगाड़ी
में बैठ, मैं
तुझे पहुंचा दूंगा
तेरे घर।
उसने
कहा कि यह
आदमी ठीक
मालूम होता
है। सदगुरु
मिल गये! ये सब
तो नासमझ थे।
हम पूछते हैं, हमारा
घर कहां है, बस वे एक ही
रट लगाए हुए
हैं कि यही
तेरा घर है! हम
क्या अंधे हैं?
यह आदमी
सदगुरु है!
तुम ध्यान
रखना। तुम गलत
प्रश्न
पूछोगे, तुम
गलत गुरुओं के
जाल में पड़
जाओगे। एक बार
तुमने गलत प्रश्न
पूछा तो कोई न
कोई गलत उत्तर
देने वाला मिल
ही जाएगा। यह
जीवन का नियम
है। पूछो कि
उत्तर देना
वाला तैयार
है। सच तो यह
है कि तुम न
पूछो तो उत्तर
देने वाले
तैयार हैं। वे
तुम्हें खोज
ही रहे हैं।
इस तरह के
प्रश्न पूछकर
तुम केवल
उलझनों में
अपने को डालने
का आयोजन करते
हो।
'क्या
पुनर्मिलन
संभव है?'
बिछुड़न
हुई ही नहीं, विदा
कभी ली ही
नहीं—पुनर्मिलन
की बात ही
क्या करनी?
और
फिर पूछते हैं
कि 'क्या न
बिछुड़ने वाला
मिलन संभव है —?—
' कहीं ऐसा न
हो कि मिलन हो
और फिर बिछुड़
जाएं!
ये
सारी बातें
सार्थक मालूम
पड़ती हैं, क्योंकि
हमें याद ही
नहीं कि हम
कौन हैं?
परमात्मा
अगर भिन्न हो
तो ये बातें
सब सच हैं।
परमात्मा
तुम्हारा
स्वभाव है।
स्वभाव को भूल
सकते हैं हम।
यह भी हमारे
स्वभाव में है
कि हम स्वभाव
को भूल सकते
हैं।
मित्र
ने पूछा है कि
अगर आत्मा
शुद्ध—बुद्ध
है और आत्मा
अगर मुक्त है
और आत्मा अगर
असीम ऊर्जा है, परम
स्वतंत्रता
है—तों फिर
वासना का जन्म
कैसे हुआ?
यह
भी आत्मा की
स्वतंत्रता
है कि अगर
वासना करना
चाहे तो कर
सकती है। अगर
आत्मा वासना न
कर सके तो
परतंत्र हो
जाएगी। थोड़ा
सोचो!
संसार
तुम्हारी
स्वतंत्रता
है;
तुमने चाहा
तो हो गया।
तुम्हारी चाह
मुक्त है। तुम
चाहो तो अभी न
हो जाए। तुम
चाहो तो अभी
फिर हो जाए।
तो
मैं तुमसे यह
नहीं कह सकता
कि न बिछुड़ने
वाला मिलन
कैसे होगा।
बिछुड़न तो कभी
हुई नहीं है, लेकिन
आत्मा की यह
परम
स्वतंत्रता
है कि वह जब चाहे
जिस चीज को
भूल जाए, और
जिस चीज को
चाहे याद कर
ले। अगर आत्मा
की यह संभावना
न हो तो आत्मा
सीमित हो
जाएगी; उसकी
मुक्ति बंधित
हो जाएगी, उस
पर आरोपण हो
जाएगा, उपाधि
हो जाएगी।
पश्चिम
में एक विचारक
हुआ दिदरो।
उसने सिद्ध किया
है कि ईश्वर
पूर्ण
शक्तिमान
नहीं है, सर्व
शक्तिमान
नहीं है। उसने
तर्क जो दिए
हैं, वे
ऐसे हैं कि
लगेगा कि बात
ठीक कह रहा
है। जैसे वह
कहता है, 'क्या
ईश्वर दो और
दो के जोड़ से
पांच बना सकता
है?' यह
अपने को भी
अड़चन मालूम
होती है कि दो
और दो से पांच
ईश्वर भी कैसे
बनाएगा? तो
फिर
सर्वशक्तिवान
कैसा? दो
और दो चार ही
होंगे। 'क्या
ईश्वर एक
त्रिकोण में
चार कोण बना
सकता है?' कैसे
बनाएगा? चार
कोण बनाएगा तो
वह त्रिकोण
नहीं रहा।
त्रिकोण
रहेगा तो चार
कोण बन नहीं
सकते उसमें। 'तो सीमित हो
गया ईश्वर। '
ईसाइयों
की जो ईश्वर
के बाबत धारणा
है,
उसको तो
दिदरो ने झकझोर
दिया। लेकिन
अगर दिदरो को
भारतीयों की धारणा
पता होती तो
मुश्किल में
पड़ जाता। वे
कहते कि यही
तो सारा
उपद्रव है कि
ईश्वर की स्वतंत्रता
ऐसी है कि दो
और दो पांच
बना देता है, दो और दो तीन
बना देता है।
इसी को तो हम
माया कहते हैं,
जिसमें दो
और दो पांच हो
जाते हैं, दो
और दो तीन हो
जाते हैं। जब
दो और दो चार
हो गए, माया
के बाहर हो
गए।
यहां
त्रिकोण
चतुर्भुज
जैसे बैठे
हैं। यहां बड़ा
धोखा चल रहा
है। यहां कोई
कुछ समझे है, कोई
कुछ समझे है।
जो जैसा है, वैसे भर का
पता नहीं रहा।
दो और दो चार
नहीं रहे, एक
बात पक्की है,
और सब हो
गया है। इसको
ही हम माया
कहते हैं।
माया
को हमने
परमात्मा की
शक्ति कहा है।
तुमने कभी
सोचा है, इसका
क्या अर्थ
होता है? माया
को हमने
परमात्मा की
शक्ति कहा है!
इसका अर्थ हुआ
कि अगर
परमात्मा
चाहे तो अपने
को भ्रम देने
की भी शक्ति
उसमें है, नहीं
तो सीमित हो
जाएगा। वह
परमात्मा भी
क्या
परमात्मा जो
सपना न देख
सके? तो
उतनी सीमा हो
जाएगी कि सपना
देखने में
असमर्थ है।
नहीं, परमात्मा
सपना देख सकता
है। तुम सपना
देख रहे हो।
तुम परमात्मा
हो, जो
सपना देख रहा
है। जाग सकते
हो, सपना
देख सकते
हो—और यह
क्षमता
तुम्हारी है।
इसलिए तुम जब
चाहो तब सपना
देख सकते हो, और तुम तब
चाहो तब जाग
सकते हो। यह
तुम्हारी मर्जी
है कि तुम अगर
जागे ही रहना
चाहो तो तुम जागे
ही रहोगे, तुम
अगर सपने में
ही रहना चाहो
तो तुम सपना
देखते रहोगे।
मनुष्य की
स्वतंत्रता
अबाध है। आत्मा
की शक्ति अबाध
है। सत्य और
स्वप्न—आत्मा
की दो धाराएं
हैं। उन दो
धाराओं में सब
समाविष्ट है।
तुम
पूछते हो कि
क्या
पुनर्मिलन
संभव है?
पहले
तो 'पुनर्मिलन'
कहो मत।
पुनर्सारण
कहो, तो
तुमने ठीक
शब्द उपयोग
किया।
फिर
तुम पूछते हो
कि 'क्या न
बिछुड़ने वाला......
?’
उसकी
गारंटी मैं
नहीं दे सकता।
क्योंकि वह
तुम्हारे ऊपर
निर्भर है, तुम्हारी
मर्जी। तुम
अगर उसे छोड़ना
चाहो, भूलना
चाहो, तो
तुम्हें कोई
भी रोक नहीं
सकता।
तुम
उसे याद करना
चाहो तो
तुम्हें कोई
रोक नहीं
सकता। और इससे
तुम परेशान मत
होना। इससे तो
तुम अहोभाव
मानना कि
तुम्हारी
स्वतंत्रता कितनी
है,
कि तुम
परमात्मा तक
को भूलना चाहो
तो कोई बाधा
नहीं है।
परमात्मा जरा
भी अड़चन
—तुम्हें देता
नहीं। तुम अगर
उसके विपरीत
जाना चाहो तो
भी कोई बाधा
नहीं। वह तब
भी तुम्हारे
साथ है। तुम तब
विपरीत जाना
चाहते हो, तब
भी तुम्हें
शक्ति दिए चला
जाता है।
सूफी
फकीर हसन ने
लिखा है कि
मैंने एक रात
परमात्मा से पूछा, कि
इस गाव में
सबसे श्रेष्ठ
धर्मात्मा
पुरुष कौन है?
तो
परमात्मा ने
मुझे कहा कि
वही जो तेरे
पड़ोस में रहता
है।
उस
पर तो कभी हसन
ने खयाल ही न
दिया था। वह
तो बड़ा
सीधा—सादा
आदमी था।
सीधे—सादे
आदमियों को कोई
खयाल देता है!
खयाल तो
उपद्रवियों
पर जाता है।
सीधा—सादा
आदमी था, चुपचाप
रहता था, साधारण
आदमी था, अपनी
मस्ती में
था—न किसी से
लेना न देना।
किसी ने खयाल
ही न दिया था।
हसन ने कहा, यह आदमी
सबसे बड़ा
पुण्यात्मा!
दूसरे
दिन सुबह गौर
से देखा तो
लगा कि बड़ी
प्रभा है इस
आदमी की!
दूसरी रात
उसने फिर
परमात्मा से
कहा कि अब एक
प्रश्न और। यह
तो अच्छा हुआ, आपने
बता दिया।
पूजा करूंगा
इस पुरुष की।
नमन करूंगा
इसे। यह मेरा
गुरु हुआ। अब
एक बात और बता,
इस गाव में
सबसे बुरा कौन
आदमी है जिससे
मैं बचूं?
परमात्मा
ने कहा, वही
तेरा पड़ोसी।
उसने
कहा,
यह जरा उलझन
की बात है।
तो
परमात्मा ने
कहा,
मैं क्या
करूं? कल
रात वह अच्छे
भाव में था, आज बुरे भाव
में। मैं कुछ
कर सकता नहीं।
कल सुबह मैं
कह नहीं सकता
कि क्या हालत
होगी। वह फिर
अच्छे भाव में
आ सकता है।
आत्मा
परम स्वतंत्र
है। उस पर कोई
बंधन नहीं है।
इस परम
स्वतंत्रता
को ही हम
मोक्ष कहते
हैं। मोक्ष
में यह बात
समाविष्ट है
कि तुम चाहो
भूलना तो
तुम्हें कोई
रोक नहीं
सकता। वह
मोक्ष भी क्या
मोक्ष होगा, जिसके
तुम बाहर
निकलना चाहो
और निकल न सको?
मैंने
सुना है कि
ईसाई पादरी
मरा। स्वर्ग
पहुंचा, तो वह
बड़ा हैरान हुआ।
कई लोग उसने देख
कि जंजीरों
में, बेड़ियों
में बंधे पड़े
हैं। उसने कहा,
यह मामला
क्या है? स्वर्ग
में और
जंजीरें—बेड़ियां।
उन्होंने
कहा.,
ये वापिस—ये
अमरीकन
हैं—वापिस
अमरीका जाना
चाहते हैं। ये
कहते हैं, वहीं
ज्यादा मजा
था। इनको
हथकड़ियां
डालनी पड़ी हैं, क्योंकि यह
तो स्वर्ग की
तौहीन हो
जाएगी। ये कहते
हैं, 'स्वर्ग
में हमें रहना
नहीं, हमें
वापिस अमरीका
जाना है। वहां
ज्यादा मजा था।
इन अप्सराओं
से बेहतर
स्त्रियां
वहां थीं।
शराब! इससे
बेहतर शराब
वहा थी। मकान!
इससे ऊंचे
मकान वहां थे।
यह भी तुम
कहां के
पुराने जमाने
के मकानों को
लेकर बैठे हो?'
अब
स्वर्ग के
मकान हैं, दकियानूसी
हैं, समय
के बिलकुल
बाहर पड़ गए
हैं। उनके
इंजीनियर, उनके
आर्किटेक्ट......
दस—पच्चीस
हजार साल पहले
बनाए थे, वह
चल रहा है।
'वे कहते हैं,
हमें
अमरीका जाना
है। तो इनको
हमें बन्ध कर
रखना पड़ा है।
अगर ये भाग
जाएं और
अमरीका पहुंच
जाएं, तो
स्वर्ग की बड़ी
तौहीन होगी।
फिर स्वर्ग
कोई आना कैसे
चाहेगा?' लेकिन
स्वर्ग क्या
रहा अगर वहां
हथकड़ियां डली
हों? इससे
तो फिर नरक
बेहतर; कम
से कम
हथकड़ियां तो
नहीं हैं। एक
बात ध्यान रखना,
स्वतंत्रता
यानी स्वर्ग।
मुक्ति यानी मोक्ष।
तुम अपनी
स्वतंत्रता
से जहां हो, वहीं मुक्ति
है। और यह
अंतिम घटना
है। यह अंतिम
बेशर्त बात
है। इसके ऊपर
कोई शर्त नहीं
है।
तो
अगर किसी
मुक्त आत्मा
की मर्जी हो
जाए कि फिर
वापिस लौटना
है संसार में, तो
कोई रोक सकता
नहीं। लौटती
नहीं मुक्त
आत्माएं, यह
दूसरी बात है।
लेकिन अगर कोई
मुक्त आत्मा
लौटना ही चाहे
तो कोई रोक
सकता नहीं।
क्योंकि कौन
रोकेगा? और
अगर कोई रोक
ले तो मुक्त
आत्मा मुक्त
कहां रही?
तुम
निकलने लगे
स्वर्ग के
दरवाजे से।
उन्होंने कहा, 'रुको!
बाहर न जाने
देंगे। यह
स्वर्ग है, कहां जा रहे
हो? '—यह स्वर्ग
इसी क्षण
समाप्त हो
गया।
मैं
तुमसे यह नहीं
कह रहा हूं कि
मुक्त आत्माएं
लौटती हैं।
मैं यह कहता
हूं कि लौटना
चाहें तो कोई
रोक नहीं
सकता। इसलिए
मैं तुम्हें
गारंटी नहीं
दे सकता। तुम
अगर लौटना
चाहो तो मैं क्या
करूंगा? तुम
अगर परमात्मा
को भूलना चाहो
तो मैं क्या
करूंगा? मैं
सिर्फ
तुम्हारी
पूर्ण मुक्ति
की घोषणा करता
हूं।
'यदि संभव हो
तो अंश को मूल
से मिला देने
की कृपा करें!'
बहुत
सस्ते में
तुम्हारा
इरादा है। तुम
यह कह रहे हो
कि तुम तो
मिलना नहीं
चाहते, कोई
मिला देने की
कृपा करे। यह
कैसे होगा? अगर तुम
मिलना चाहते
हो तो ही
मिलना हो सकता
है। यह
तुम्हारी ही
चाहत, यह
तुम्हारा ही
संकल्प, तुम्हारी
ही आकांक्षा
होगी, अभीप्सा
होगी—तो.। कोई
और तुम्हें
नहीं मिला सकेगा।
जबर्दस्ती
मोक्ष में ले
जाने का कोई
उपाय नहीं
है—न बाहर न
भीतर। तुम
अपनी मर्जी से
जाते हो।
और
अगर मैं किसी
तरह मिला भी
दूं तो तुम
फिर छूट
जाओगे। क्योंकि
वह बाहर से
लाई हुई घटना
तुम्हारी
आत्मा का
संबंध न बन
पाएगी। वह
जबर्दस्ती
होगी। यह हो
नहीं सकता।
अन्यथा एक ही
बुद्धपुरुष
सारी दुनिया
को मुका कर
देता। एक बुद्धपुरुष
काफी था। वह
सबको मुक्त कर
देता, सबको
मिला देता।
कोई
बुद्धपुरुषों
की करुणा में
कमी है? नहीं,
उनकी करुणा
में कोई कमी
नहीं। लेकिन
तुम्हारी
मर्जी के
खिलाफ कुछ भी
नही हो सकता।
और तुम्हारी
मर्जी हो तो
अभी हो सकता
है, इसी
क्षण हो सकता
है। सुखी भव!
अभी हो जाओ!
और
यह दूसरे से
आकांक्षा
रखना कि कोई
तुम्हें मिला
दे परमात्मा
से,
यही संसार
में लौटने का
उपाय है।
दूसरे की आकांक्षा
ही संसार में
लौटने का उपाय
है। कोई दूसरा
सुख दे, कोई
दूसरा प्रेम
दे, कोई
दूसरा आदर
दे—वही पुरानी
आदत अब कहती
है, कोई
दूसरा मुक्त
करवा दे, परमात्मा
से मिला
दें—मगर
दूसरा!
तुम
कब तक कमजोर, निर्बल,
नपुंसक बने
रहोगे? कब
तुम जागोगे
अपने बल के
प्रति? कब तुम
अपने वीर्य की
घोषणा करोगे?
कब तुम अपने
पैरों पर खड़े
होओगे? कभी
पत्नी के कंधे
पर झुके रहे, कभी
सत्ताधिकारियो
के कंधे पर
झुके रहे, कभी
नेताओं के
कंधों पर झुके
रहे।
मैंने
सुना है, दिल्ली
के पास कुछ
मजदूर सड़क पर
काम करने भेजे
गए। वे वहां पहुंच
तो गए, लेकिन
पहुंच कर पता
चला कि अपने
फावड़े भूल आए,
कुदालिया—फावडे
नहीं लाए।
उन्होंने
वहां से फोन
किया
इंजीनियर को,
कि
कुदाली—फावड़े
हम भूल आए हैं,
तत्काल
भेजो।
उन्होंने
कहा,
भेजते हैं,
तब तक तुम
एक—दूसरे के कंधे
पर झुके रहो।
मजदूर
करते ही यही
काम हैं।
कुदाली—फावड़ा
लेकर उस पर
झुककर खड़े
रहते
हैं—विश्राम
का सहारा। उस
इंजीनियर ने
कहा,
मैं भेजता
हूं जितनी
जल्दी हो सके;
तब तक तुम
ऐसा करो, एक—दूसरे
के कंधे पर
झुके रहो।
हम
झुके हैं—कंधे
बदल लेते हैं।
फिर इन सबसे छुटकारा
हुआ तो गुरु
का कंधा, कि अब
कोई गुरु लगा
दे पार, कि
चलो तुम्हीं
तारण—तरण, तुम्हीं
पार लगा दो!
तुम
अपनी घोषणा, अपने
स्वत्व की
घोषणा कब
करोगे? तुम्हारी
स्वत्व की
घोषणा में ही
तुम्हारे स्वभाव
की संभावना
है—फूलने की, खिलने की।
यह कब तक तुम
शरण गहोगे? कब तक तुम
भिखारी रहने
की जिद बांधे
बैठे हो? परमात्मा
भी भिक्षा में
मिल जाए! जागो
इस तंद्रा से!
'ऐसी कृपा
करें कि
बार—बार इस
कोलाहल में
आकर भयभीत न
होना पड़े। '
इस
कोलाहल में
तुम आना चाहते
हो,
इसलिए आते
हो। और मजा यह
है कि तुमको
अगर स्वात में
रखा जाए तो
तुम भयभीत वहा
भी हो जाओगे।
कौन तुम्हें
रोक रहा है? भाग जाओ
हिमालय, बैठ
जाओ स्वात
में। वहां
एकांत का डर
लगेगा, भाग
आओगे कोलाहल
में वापिस।
कोलाहल में हम
इसलिए रह रहे
हैं कि स्वात
में डर लगता
है, अकेले
रह नहीं सकते।
भीड़ में बुरा
लगता है। बड़ा
मुश्किल है
मामला। न
अकेले रह सकते,
न भीड़ में
रह सकते।
तुमने
कभी देखा, जब
तुम अकेले छूट
जाते हो तो
क्या होता है।
अंधेरी रात
में अकेले हो
जंगल. में, क्या
होता है? आनंद
आता है?
कोलाहल
में ज्यादा
बेहतर लगता
है। कोई मिल
जाए,
कोई बातचीत
हो जाए! अकेले
में तुम बहुत
घबड़ाने लगते
हो कि मरे। अकेले
में तो मौत
लगती है।
परमात्मा
में डूबोगे तो
बिलकुल अकेले
रह जाओगे, क्योंकि
दो परमात्मा
नहीं हैं
दुनिया में—एक
परमात्मा है।
डूबे कि अकेले
हुए।
परमात्मा में
डूबे कि तुम
तुम न रहे, परमात्मा
परमात्मा न
रहा—बस एक ही
बचा। इसलिए तो
ध्यान की
तैयारी करनी
पड़ती है, ताकि
तुम स्वात का
थोड़ा रस लेने
लगो। इसके पहले
कि परम स्वात
में उतरो, स्वात
में थोड़ा आनंद
आने लगे, धुन
बजने लगे, गीत
गूंजने लगे।
स्वात में रस
आने लगे तो
फिर तुम परम
एकांत में उतर
सकोगे। यह
अभ्यास है
परमात्मा को
झेलने का।
अगर
तुम मुझसे
पूछो तो मैं
कहूंगा कि
ध्यान परमात्मा
को पाने की
प्रक्रिया
नहीं।
परमात्मा तो
बिना ध्यान के
भी पाया जा
सकता है।
ध्यान परमात्मा
को झेलने का
अभ्यास।
ध्यान पात्रता
देता है कि
तुम झेल सको।
परम स्वात
उतरेगा तो फिर
तुम बिलकुल
अकेले रह
जाओगे। फिर न
रेडियो, न
टेलीविजन, न
अखबार, न
मित्र, न
क्लब, न
सभा—समाज—कुछ
भी नहीं; बिलकुल
अकेले रह जाओगे।
उस अकेले की
तैयारी है।
मैं
तो तैयार हूं
तुम्हें
कोलाहल के
बाहर ले चलूं; लेकिन
तुम तैयार हो?
तुम अकेले
में भी बैठते
हो तो
तुम्हारे सिर
में कोलाहल
चलाने लगते
हो। जिन मित्रों
को घर छोड़ आए
हो, उनसे
सिर में बात
करने लगते हो।
जिस पत्नी को घर
छोड़ आए, उससे
सिर में बात
करने लगते हो।
सारी भीड़ फिर इकट्ठी
कर लेते हो।
कल्पना का जाल
बुनने लगते हो।
अकेले तुम रह
ही नहीं सकते।
इसलिए तो तुम बार—बार
लौट आते हो।
संसार
में तुम अकारण
नहीं लौट रहे
हो। संसार में
तुम अपने ही
कारण लौट रहे
हो। यह कोलाहल
तुमने चाहा है, इसलिए
तुम्हें मिला
है।
आदमी
की हयात कुछ
भी नहीं
बात यह
है कि बात कुछ
भी नहीं।
आदमी
की हयात कुछ
भी नहीं
आदमी
की जिंदगी कोई
जिंदगी थोड़ी
है। जिंदगी तो
परमात्मा की
है।
बात यह
है कि बात कुछ
भी नहीं।
आदमी
तो बेबात की
बात है।
वह
कल मुल्ला नसरुद्दीन
जो गिर पड़ा था
बिस्तर से—बेबात
की बात है।
लड़का हुआ नहीं
था,
उसके लिए
जगह बना रहे
थे। उसमें
गिरे, टांग
टूट गई।
एक
अदालत में
मुकदमा था। दो
आदमियों ने
एक—दूसरे का
सिर खोल दिया।
मजिस्ट्रेट
ने पूछा, मामला
क्या है? वे
दोनों बड़े
सकुचाए।
उन्होंने कहा,
मामला क्या
बताएं! मामला
बताने में बड़ा
संकोच होता
है। आप तो जो
सजा देना हो
दे दो।
उसने
कहा,
फिर मामला
भी तो पता
चले। सजा किस
को दे दें?
तो
वे दोनों
एक—दूसरे की
तरफ देखें कि
तुम्हीं कह
दो। फिर
मजबूरी में जब
मजिस्ट्रेट
नाराज होने
लगा कि कहते
हो या नहीं, तो
फिर उन्होंने
बताया कि
मामला ऐसा है,
हम दोनों
मित्र हैं।
बैठे थे नदी
के किनारे रेत
पर। यह मित्र
कहने लगा कि
मैं एक भैंस
खरीद रहा हूं।
मैंने कहा, भैंस मत
खरीदो, क्योंकि
मैं एक खेत
खरीद रहा हूं;
और
तुम्हारी भैंस
खेत में घूस
जाए तो अपनी
जिंदगी भर की
दोस्ती खराब
हो जाए।
इसने
कहा. जा, जा!
तेरे खेत के
खरीदने से हम
अपनी भैंस न
खरीदें? तू
खेत मत खरीद!
और फिर भैंस
तो भैंस है—यह
कहने लगा—अब
घुस ही गई तो
घुस ही गई। अब
कोई भैंस के पीछे
हम दिन भर
थोड़े ही खड़े
रहेंगे। और ऐसी
दोस्ती क्या
मूल्य की कि
हमारी भैंस
तुम्हारे खेत
में घुस जाए
और इससे ही
तुष्ट अड़चन हो
जाए।
तो
मैं भी रोब
में आ गया और
मैंने कहा, तो
अच्छा खरीद
लिया खेत, तू
दिखा खरीद कर
भैंस। तो
मैंने ऐसा
जमीन पर रेत
पर, लकड़ी
से खेत बना
दिया कि यह
रहा खेत और इस
मूरख ने एक
दूसरी लकड़ी से
भैंस घुसा दी।
झगड़ा हो गया, मारपीट हो
गई! अब आपसे
क्या कहें! आप
सजा दे दो। कहने
में संकोच
होता है।
आदमी
की हयात कुछ
भी नहीं
बात यह
है कि बात कुछ
भी नहीं।
तूने
सब कुछ दिया
है इन्सां को
फिर भी
इन्सां की जात
कुछ भी नहीं।
इस्तिराबे
—दिलो —जिगर के
सिवा
शौक की
वारिदात कुछ
भी नहीं।
हुस्न
की कायनात सब
कुछ है
इश्क
की कायनात कुछ
भी नहीं।
आदमी
पैरहन बदलता
है।
यह
हयातो—मयात
कुछ भी नहीं।
आदमी
सिर्फ कपड़े
बदलता है। न
तो जिंदगी कुछ
है,
न मौत कुछ
है।
आदमी
पैरहन बदलता
है।
यह
हयातो—मयात
कुछ भी नहीं।
आदमी
की हयात कुछ
भी नहीं
बात यह
है कि बात कुछ
भी नहीं।
इतना
तुम्हें समझ
मैं आ जाए कि
तुम बेबात की
बात हो, कि
तुम्हें सब
समझ में आ
गया।
आखिरी
प्रश्न:
कब
से आपको पूछना
चाहती हूं।
कृपया आप ही
बताएं कि क्या
पूछ? मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें!
पूछा
है 'दुलारी' ने।
निश्चित यह
बात है।
वर्षों से मैं
उसे जानता
हूं। उसने कभी
कुछ पूछा
नहीं। बहुत
थोड़े लोग हैं
जिन्होंने
कभी कुछ न
पूछा हो। यह
पहली दफे उसने
पूछा, यह
भी कुछ पूछा
नहीं है.
'कब से आपसे
पूछना चाहती
हूं। कृपया आप
ही बताएं कि
क्या पूछूं ?'
जीवन
का वास्तविक
प्रश्न ऐसा है
कि पूछा नहीं
जा सकता। जो
प्रश्न तुम
पूछ सकते हो, वह
पूछने योग्य
नहीं। जो तुम
नहीं पूछ सकते,
वही पूछने
योग्य है।
जीवन का
वास्तविक
प्रश्न
शब्दों में बांधा
नहीं जा सकता।
जीवन का
प्रश्न तो
केवल सूनी आंखों
से, जिज्ञासा—
भरी आंखों से
निवेदित किया
जा सकता है।
जीवन का
प्रश्न तो
अस्तित्वगत
है, तुम्हारी
पूरी भाव—दशा
से प्रगट होता
है। दुलारी को
मैं जानता
हूं। उसने कभी
पूछा नहीं, लेकिन उसका
प्रश्न मैंने
सुना है। उसका
प्रश्न उसका
भी नहीं है, क्योंकि जो
तुम पूछते हो
वह तुम्हारा
होता है। जो
तुम पूछ ही
नहीं सकते, वह सबका है।
हम
सबके भीतर एक
ही प्रश्न है।
और वह प्रश्न
है कि यह सब हो
रहा है, यह सब
चल रहा है और
फिर भी कुछ
सार मालूम
नहीं होता! यह
दौड़— धूप, यह
आपा— धापी—फिर
भी कुछ अर्थ
दिखाई नहीं
पड़ता। इतना
पाना, खोना—फिर
भी न कुछ
मिलता मालूम
पड़ता है, न
कुछ खोता
मालूम पड़ता
है। जन्म—जन्म
बड़ी यात्रा, मंजिल कहीं
दिखाई नहीं
पड़ती। हम
हैं—क्यों हैं?
यह हमारा
होना क्या है?
हम कहां जा
रहे हैं और
क्या हो रहा
है? हमारा
अर्थ क्या है?
इस संगीत का
प्रयोजन क्या
है? सभी
के भीतर दबा
पड़ा हुआ है
अस्तित्व का
प्रश्न, कि
अस्तित्व का
अर्थ क्या है?
और इसके लिए
कोई शब्दों
में उत्तर भी
नहीं है। जो
प्रश्न ही
शब्दों में
नहीं बनता, उसका उत्तर
भी शब्दों में
नहीं हो सकता।
यह
जो भीतर है
हमारे—कहो
साक्षी, द्रष्टा,
जीवन की
धारा, चैतन्य,
जो भी नाम
चाहो, ऐसे
तो अनाम है, तुम जो भी
नाम देना चाहो
दो—परमात्मा,
मोक्ष, निर्वाण,
आत्मा, अनात्मा,
जो तुम कहना
चाहो—पूर्ण, शून्य, जो
भी यह भीतर है
अनाम—इसमें
डूबो! इसमें
डूबने से ही
प्रश्न
धीरे—धीरे
विसर्जित हो
जाएगा। उत्तर
मिलेगा, ऐसा
मैं नहीं कह
रहा हूं; सिर्फ
प्रश्न
विसर्जित हो
जाएगा। और
प्रश्न के विसर्जित
हो जाने पर
तुम्हारी जो
चैतन्य की दशा
होती है वही
उत्तर है।
उत्तर मिलेगा,
ऐसा मैं
नहीं कह रहा।
निष्प्रश्न
जब तुम हो
जाते हो तो
जीवन में आनंद
है, मंगल
है, शुभाशीष
बरसता है। तुम
नाचते हो, तुम
गुनगुनाते
हो। समाधि
फलती है। फिर
तुम कुछ पूछते
नहीं। फिर कुछ
पूछने को है
ही नहीं। फिर
जीवन एक
प्रश्न की तरह
मालूम नहीं
होता, फिर
जीवन एक रहस्य
है। समस्या
नहीं, जिसका
समाधान करना
है; एक
रहस्य है, जिसे
जीना है, जिसे
नाचना है, जिसे
गाना है; एक
रहस्य, जिसका
उत्सव मनाना
है।
भीतर
उतरो। शरीर के
पार,
मन के पार, भाव के पार—भीतर
उतरो!
जान
सके न जीवन भर
हम
ममता
कैसी, प्यार
कहां
और
पुष्प कहां पर
महका करता?
जान
सके न जीवन भर
हम
ममता
कैसी, प्यार
कहां
और
पुष्प कहा पर
महका करता?
गंध
तो आती मालूम
होती है—कहां
से आती है? जीवन
है, इसकी
छाया तो पड़ती
है; पर
इसका मूल कहां
है? प्रतिबिंब
तो झलकता है, लेकिन मूल
कहां? प्रतिध्वनि
तो गूंजती है
पाहाड़ों पर, लेकिन मूल
ध्वनि कहां है?
जान
सके न जीवन भर
हम
ममता
कैसी, प्यार
कहां
और
पुष्प कही पर
महका करता?
मिली
दुलारी आहों
की
और हास
मिला है शूलों
का
जान
सके न जीवन भर
हम
सौरभ
कैसा, पराग
कहा
और मेघ
कहा पर बरसा
करता?
पर
मेघ बरस रहा
है—तुम्हारे
ही गहनतम
अंतस्तल में।
फूल महक रहा
है—तुम्हारे
ही गहन
अंतस्तल में।
कस्तुरी
कुंडल बसै! यह
जो महक
तुम्हें घेर
रही है और प्रश्न
बन गई है—कहा
से आती है? यह
महक तुम्हारी
है, यह
किसी और की
नहीं। इसे अगर
तुमने बाहर
देखा तो
मृग—मरीचिका
बनती है, माया
का जाल फैलता
है, जन्मों—जन्मों
की यात्रा
चलती है। जिस
दिन तुमने इसे
भीतर झांक कर
देखा उसी दिन
मंदिर के द्वार
खुल गए। उसी
दिन पहुंच गए
अपने सुरभि के
केंद्र पर।
वहां है प्रेम,
वहीं है
प्रभु!
मन
उलझाए रखता है
बाहर। मन कहता
है चलेंगे
भीतर, लेकिन
अभी थोड़ा देर
और।
किसी
कामना के
सहारे
नदी के
किनारे बड़ी
देर से
मौन
धारे खड़ा हूं
अकेला।
सुहानी
है
गोधूलि—बेला
लगा है
उमंगों का
मेला।
यह
गोधूलि—बेला
का हलका
धुंधलका
मेरी
सोच पर छा रहा
है।
मैं यह
सोचता हूं?
मेरी सोच
की शाम भी हो
चली है।
बड़ी
बेकली है।
मगर
जिंदगी में
निराशा
में भी एक आशा
पली है
मचल ले
अभी कुछ देर
और ऐं दिल!
सुहाने
धुंधलके से
हंस कर गले
मिल
अभी
रात आने में
काफी समय है!
मन
समझाए चला
जाता है; थोड़ी
देर और, थोड़ी
देर और—भुला
लो अपने को
सपनों में; थोड़ी देर और
दौड़ लो
मृग—मरीचिकाओं
के पीछे। बड़े
सुंदर सपने
हैं! और फिर
अभी मौत आने
में तो बहुत
देर है।
इसलिए
तो लोग सोचते
हैं,
संन्यास
लेंगे, प्रार्थना
करेंगे, ध्यान
करेंगे—बुढ़ापे
में, जब
मृत्यु द्वार पर
आकर खड़ी हो
जाएगी। जब एक
पैर उतर
चुकेगा कब्र
में तब हम एक
पैर ध्यान के
लिए उठाएंगे।
मचल ले अभी
कुछ देर और ३
दिल!
सुहाने
धुंधलके से
हंस कर गले
मिल अभी रात
आने में काफी
समय है।
ऐसे
हम टाले चले
जाते हैं। रात
आती चली जाती
है। काफी समय
नहीं है, रात आ
ही गई है।
बहुत बार हमने
ऐसे ही जन्म
और जीवन
गंवाया, मौत
की हम प्रतीक्षा
करते रहे—मौत
आ गई, ध्यान
आने के पहले।
एक जीवन फिर
खराब गया। एक अवसर
फिर व्यर्थ
हुआ। अब इस
बार ऐसा न हो।
अब टालो मत! यह
गंध तुम्हारी
अपनी है। यह
जीवन तुम्हारे
भीतर ही छिपा
है। घूंघट
भीतर के ही
उठाने हैं।
प्रश्न
कहीं बाहर
पूछ्ने का
नहीं है।
उत्तर कहीं से
बाहर से आने
को नहीं है।
जहां से प्रश्न
उठ रहा है
भीतर, वहीं
उतर चलो।
प्रश्न भी साफ
नहीं है, फिक्र
मत करो। जहा
यह गैर—साफ
धुंधलका है
प्रश्न का, वहीं उतरो।
उसी संध्या से
भरी रोशनी में,
धुंधलके
में धीरे—
धीरे भीतर
उतरो। जहां से
प्रश्न आ रहा
है, उसी की खोज
करो। प्रश्न
की बहुत फिक्र
मत करो कि
प्रश्न क्या
है—इतनी ही
फिक्र करो कि
कहां से आ रहा है?
अपने ही
भीतर उस तल को
खोजो, उस
गहरे तल को, जहा से
प्रश्न का बीज
उमगा है, जहां
से प्रश्न के
पत्ते उठे
हैं। वहीं जड़
है और वहीं
तुम उत्तर
पाओगे।
उत्तर
का अर्थ यह
नहीं कि
तुम्हें कोई
बंधा—बंधाया
उत्तर, निष्कर्ष
वहां मिल
जाएगा। उत्तर
का अर्थ : वहां
तुम्हें जीवन
का अहोभाव
अनुभव होगा।
वहां जीवन एक
समस्या नहीं
रह जाता, उत्सव
बन जाता है।
एक
चिकना मौन
जिसमें
मुखर, तपती
वासनाएं
दाहक
होतीं, लीन
होती हैं।
उसी
में रवहीन
तेरा गूंजता
है छंद
ऋत
विज्ञप्त
होता है!
एक
चिकना मौन
जिसमें
मुखर, तपती
वासनाएं
दाहक
होतीं, लीन
होती हैं।
नहीं, भीतर
एक मौन, एक
शाति, जिसमें
सारी वासनाओं
का ताप
धीरे—धीरे खो
जाता और शांत
हो जाता है।
उसी में रवहीन
तेरा गूंजता
है छंद—फिर
कोई स्वर
सुनाई नहीं
देते, सिर्फ
छंद गूंजता
है—शब्दहीन, स्वरहीन
छंद। शुद्ध
छंद गूंजता
है।
उसी
में रवहीन
तेरा गूंजता
है छंद
ऋत
विज्ञप्त
होता है!
वहीं
जीवन का सत्य
प्रगट होता
है—ऋत
विज्ञप्त होता
है।
एक
काले घोल
की—सी रात
जिसमें
रूप,
प्रतिमा, मूर्तियां
सब
पिघल जातीं, ओट
पातीं
एक
स्वप्नातीत
रूपातीत
पुनीत गहरी
नींद की
उसी
में से तू बढ़ा
कर हाथ
सहसा
खींच लेता है, गले
मिलता है!
छिपा
है परमात्मा
तुम्हारे ही
भीतर। उतरो थोड़ा।
छोड़ो
मूर्तियों को, विचारों
को, प्रतिमाओं
को, धारणाओं
को—मन के
बुलबुले! थोड़े
गहरे उतरो! जहां
लहरें नहीं, जहां शब्द
नहीं—जहां मौन
है। जहां परम
मौन मुखर है!
जहां केवल मौन
ही गूंजता है!
उसी
में रवहीन
तेरा गूंजता
है छंद
ऋत
विज्ञप्त
होता है।
उतरो
वहां!
उसी
में से तू बढ़ा
कर हाथ
सहसा
खींच लेता है, गले
मिलता है।
वहीं
है मिलन!
तुम
जिसे खोजते हो, तुम्हारे
भीतर छिपा है।
तुम जिस
प्रश्न की तलाश
कर रहे हो, उसका
उत्तर
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
जागो! इसी क्षण
भोगो उसे!
अष्टावक्र के
सारे सूत्र एक
ही खबर देते
हैं. पाना
नहीं है उसे, पाया ही हुआ
है। जागो और
भोगो!
हरि
ओंम तत्सत्!
ओशो महागीता (अष्टावक्र)प्रवचन 6 में जगा हुआ भाव
जवाब देंहटाएंमै लड़खना चाहती हूँ
ऐसी मदिरा को चाहती हूँ
कुछ की व्याख्या करना चाहती हूँ
ऐसी अव्याख्या की कामना करती हूँ
अति सहज मौन होना चाहती हूँ
ऐसा देवालय की कामना करती हूँ
फूल बनकर महकना चाहती हूँ
ऐसा खाद होना चाहती हूँ
श्रद्धा का पूर्ण वर्तुल चाहती हूँ
ऐसी पूर्ण असंशय अवस्था चाहती हूँ
अनुभूतिओं को सहजना चाहती हूँ
ऐसा संपुट या मंजूषा चाहती हूँ
अनंत यात्रा को चाहती हूँ
ऐसा मिल का पथ्थर बनना चाहती हूँ
कृष्ण की गवाही लेना चाहती हूँ
क्षणार्ध राधा या मींरा होना चाहती हूँ
जबतक चाह है तबतक ये मुमकिन नहीं,जब बीज मीटे नहीं तबतक वृक्ष नहीं बन सकता इसी तरह जबतक चाहने वाला बीलकुल मीट ना जाय तबतक ये चाह पुर्ण नहीं होती,
हटाएंSuperb आपकी हर इच्छा पूरी हो सकती है
हटाएंइच्छापूर्ति कल्पवृक्ष आपके सामने प्रकट होगा
( self study & Research From २००५ - कम्प्लेटेड ७ लेवल समाधि programme )
२०२४ के इंसान
चाह से बुद्धत्व पाना चाहते है
चाह या इच्छा एक मात्र CONNECTION है साक्षी या आत्मा का
Deepest चाह है जीने की - ये कहाँसे आती है ?
अध्यात्म में अभी तक "" कौन "" MISSING है
"" कौन "" का जवाब आजतक किसीने नहीं दिया
मैंने एक तरीका निकाला है
अप्पो दिप भव
कैसे होगा ?
खुदी को कर बुलंद इतना
( अब बुलंद हो गए तो खुदा की क्या जरुरत ? - एक इशारा )
mahamudra.ajay@gmail.com
Love with Gratitude