छठवां
प्रवचन;
दिनाक 16
मई,
1979
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्न
सार :
*भगवान!
किसी अन्य
आश्रम से
(जैसे युग
निर्माण योजना,
मथुरा; रामकृष्ण
आश्रम आदि) संबंधित
कुछ मित्र
आपके पास आना
चाहते हैं और यहां
के विविध
ध्यान-
प्रयोगों में
भाग लेना
चाहते हैं :
कुछ ऐसे मित्र
हैं जिनके लिये
शेगाब के
प्रसिद्ध संत
गजानन महाराज
या शिरडी के
सांईबाबा
श्रद्धा-स्थान
हैं; से भी
आपके आश्रम के
ध्यान- शिविर
में भाग लेना
चाहते हैं। परंतु
इस धारणा से
कि किसी एक
जगह श्रद्धा
हो तो दूसरी
ओर जाना नहीं
चाहिए, वह
पाप है-इसलिए
हिचकिचाते
हैं। भगवान, इस पर कुछ
समझाने की
कृपा करें।
*भगवान!
एक और तो आप
आधुनिक यंत्र
-विधि के पक्ष में
हैं और मानते
हैं कि धर्म
का फूल
औद्योगिक
दृष्टि से
उन्नत देशों
में ही खिलेगा।
दूसरी तरफ आप
पश्चिम की
औद्योगिक सभ्यताओं
की विडंबनाओं
का भी बखान
करते हैं। 'या तो यंत्र
बचेगा या
मनुष्य' -यह
आपका ही
वाक्य है।
उसके अलावा आप
अतीत के जिन
महापुरुषों, संतों और
भक्तों की
वाणी की व्याख्या
करते हैं, उनमें
से कोई नहीं
मानता था कि
धर्म गरीबों
के लिये नहीं
है। इन सबकी पारस्परिक
संगति कैसे
बिठाई जाए?
*भगवान!
राजनीति क्या
है?
पहला
प्रश्न :
भगवान!
किसी अन्य
आश्रम से
(जैसे युग
निर्माण योजना, मथुरा;
रामकृष्ण
आश्रम आदि )
संबंधित कुछ
मित्र आपके आश्रम
आना चाहते हैं
और यहां के
विविध
ध्यान-प्रयोगों
में भाग लेना
चाहते हैं।
कुछ ऐसे मित्र
हैं जिनके लिए
शेगांव के
प्रसिद्ध संत
गजानन महाराज
या शिरडी के
सांईबाबा
श्रद्धा-स्थान
हैं; वे भी
आपके आश्रम के
ध्यान-शिविर में
भाग लेना
चाहते हैं।
परंतु इस
धारणा से कि
किसी एक जगह
श्रद्धा हो तो
दूसरी ओर जाना
नहीं चाहिए, वह पाप
है-इसलिए
हिचकिचाते
हैं। भगवान इस
पर कुछ समझाने
की कृपा करें!
'युगल
किशोर!
श्रद्धा
साहस की
अभिव्यक्ति
है। श्रद्धा
कायरता नहीं
है,
श्रद्धा
कमजोरी नहीं
है।
जीवन-ऊर्जा के
कमल के खिलने
का ना श्रद्धा
है-श्रद्धा
इतनी नपुंसक
नहीं होती कि
हिचकिचाये, भयभीत हो।
श्रद्धा
का तो अर्थ ही
यही है कि अब
कुछ भी उसे डिगा
न सकेगा-जहां
जाना हो जाओ, जो
सुनना हो सुनो,
जो समझना हो
समझो।
हिचकिचाहट तो
बताती है कि
श्रद्धा
कमजोर की है, कायर की है, नपुंसक की
है। श्रद्धा
के पीछे कहीं
संदेह छिपा है।
श्रद्धा ऊपर
-ऊपर है, भीतर
संदेह है। तो
डर है कि
जरा-सी खरोंच
लग गयी तो
श्रद्धा तो टूट
जाएगी। कांच
की बनी है, सम्हाल
-सम्हाल कर
चलना होता है।
और भीतर का
पता है कि
भीतर संदेह
भरा है; कोई
भी उकसा देगा,
कोई भी
भड्का देगा तो
संदेह प्रगट
हो जायेगा।
जिन
श्रद्धालूओं
की तुम बात कर
रहे हो उन्हें
मैं
श्रद्धालु
नहीं कहता। वे
तो संदेह से
भरे लोग हैं।
लेकिन इतना
साहस भी नहीं
है कि अपने
संदेह को स्वीकार
कर सकें। इतनी
भी
आत्मश्रद्धा
नहीं है कि
अपने संदेह को
अंगीकार कर
सकें; कि
ईमानदारी से
कह सकें कि हम
संदिग्ध हैं,
कि अभी
श्रद्धा का
जन्म नहीं हुआ
है। बेईमान
हैं, श्रद्धालु
नहीं हैं।
धोखा दे रहे
हैं-दूसरों को
ही नहीं, अपने
को भी। और जो
अपने को धोखा
दे रहा है वह
परमात्मा को धोखा
दे रहा है।
आत्मवचक है।
श्रद्धा का भय
से संबंध? श्रद्धा
तो इतनी समर्थ
है कि किसी भी
परिस्थिति
में प्रवेश कर
सकती है। आग
से गुजरने को
राजी है। असली
सोना तो आग से
गुजर कर और
शुद्ध हो जाता
है। नकली सोना
डरेगा, भयभीत
होगा, हिचकिचायेगा,
आग में जाने
से घबड़ाका, भागेगा, बचेगा।
जिन
श्रद्धालूओं
की तुम बात कर
रहे हो वे
श्रद्धालु नहीं
हैं;
संदेहग्रस्त
लोग हैं। भय
के कारण
श्रद्धा को ओढ़
लिया है। फिर
चाहे वे
रामकृष्ण के
आश्रम में हों
और चाहे
अरविन्द के और
चाहे रमण के, इससे कुछ
भेद नहीं पड़ता
कि वे कहां
हैं। उनकी
श्रद्धा ऊपर
से ओढ़ी गयी
श्रद्धा है।
और उन्हें
अच्छी तरह, भलीभाति पता
है कि भीतर
संदेह की
अग्नि जल रही
है, जो कभी
भी प्रगट हो
सकती है। अवसर
की भर बात है, अवसर मिल
गया तो आग
भीतर प्रगट हो
जाएगी; इसलिए
डरते हैं, इसलिए
भयभीत होते
हैं।
श्रद्धालु
को कोई भय
नहीं है।
रामकृष्ण में
जिसकी
श्रद्धा है वह
मुझमें भी
रामकृष्ण को
ही पायेगा।
मेरे कारण
रामकृष्ण में
उसकी श्रद्धा
कम नहीं होगी, बढ़ेगी।
और अगर मेरे
कारण कम हो
जाए तो न तो
उसने रामकृष्ण
को पहचाना है
और न अभी
श्रद्धा से
उसका कोई
संबंध हुआ है।
स्वर होंगे
अलग, गीत
तो वही है।
वाद्य होंगे
अलग, संगीत
तो वही है।
रामकृष्ण
हों,
रमण हों कि
कोई और, अलग-
अलग
अभिव्यक्तिया
हैं -एक ही
सत्य की! और जिसकी
सत्य पर
श्रद्धा है वह
सत्य की सारी
अभिव्यक्तियों
को प्रेम करने
में समर्थ
होगा।
श्रद्धा की
सीमा नहीं हो
तो जानना वह
श्रद्धा नहीं
है। जो कहे
मुझे सिर्फ
गुलाब के फूल
पर श्रद्धा है,
मैं चंपा के
फूल के पास
नहीं जा सकता;
कैसे जाऊं,
मेरी तो
गुलाब के फूल
पर श्रद्धा
है-वह सिर्फ इतना
ही बता रहा है
कि वह डरता है
कि कहीं ऐसा न हो
कि चंपा की
सुगंध
आवेष्टित कर
ले! कहीं ऐसा न
हो कि चंपा
में डुब जाऊं
और गुलाब भूल
जाए! कहीं ऐसा
न हो कि चंपा
अटका ले, फिर
गुलाब तक न आ
सकूं!
नहीं; जिसकी
श्रद्धा है वह
तो गुलाब का
भी आनंद लेगा
और चंपा का भी
और चमेली का
भी। क्योंकि
उसकी श्रद्धा
सौंदर्य में
होती है।
सौंदर्य की
कोई सीमा नहीं
है; सौंदर्य
असीम है, अपाप
है, अपरिभाष्य
है। श्रद्धा
इतनी संकीर्ण
नहीं होती कि
एक से बंध जाए।
श्रद्धा और
संकीर्ण, विरोधाभासी
शब्द हैं।
श्रद्धा
विस्तीर्ण
होती है, आकाश
जैसी होती है।
चर्च में भी
जा सकता है
श्रद्धालु और
मंदिर में भी
और मस्जिद में
भी और
गुरुद्वारे
में भी-और
उसकी श्रद्धा
को आच नहीं
आएगी। उसकी
श्रद्धा पकेगी,
बढ़ेगी, और
फूलेगी, और
समृद्ध होगी।
क्योंकि
निश्चित ही
जीसस के वचनों
में कुछ है जो
कृष्ण में
नहीं है। और
कृष्ण के
वचनों में कुछ
है जो जीसस के
वचनों में
नहीं है।
कृष्ण के
वचनों में एक
अपूर्व
सुसंस्कृत
अभिव्यक्ति
है। जीसस के
वचनों में एक
ग्राम्य
सौम्यता है, सरलता
है, सीधापन
है, सादगी
है। बुद्ध के
वचनों में कुछ
है -सम्राट के
बेटे के वचन
हैं-बहुत
परिष्कृत हैं।
कबीर के वचनों
में भी कुछ
है-माटी की
सुगंध है।
होंगे बुद्ध
के वचन आकाश
के, लेकिन
कबीर के वचनों
में कुछ है जो
बुद्ध के
वचनों में
नहीं है। माटी
की सुगंध नहीं
है बुद्ध के
वचनों में। और
पहली-पहली
वर्षा में
माटी की सुगंध
फूलों को भी
मात कर देती
है। माटी की
सोंधी सुगंध
का अपना जगत
है।
जिसको
श्रद्धा है वह
तो कबीर में
भी डुबकी लगा
लेगा और फरीद
में भी और
नानक में भी
और सब जगह से
हीरे बटोर
लेगा।
ऐसा
समझो कि एक
आदमी कहता हे
कि मुझे तैरना
आता है, मगर
मैं तो सिर्फ
गंगा में ही
तैर सकता हूं
मैं नर्मदा
में न तैरूंगा।
कहीं डूब जाऊं
तो! गोदावरी
में न तैरूंगा,
कोई जान
थोड़े ही
गंवानी है।
मैं तो सिर्फ
गंगा में ही
तैर सकता है।
ऐसे
तैरने वाले पर
तुम्हारे मन
में क्या
विचार उठेगा? इसका
तैरना जरूर
भ्रांति है।
क्योंकि जिसे
तैरना आता है,
गंगा में
तैर सकता है
तो नर्मदा में
क्या अड़चन है?
गोदावरी
में क्या अड़चन
है? तैरना
जिसको आ गया
उसके लिए
नदियों की
बाधा नहीं रह
जाती। उसके
लिए तो सारी
नदियां अपनी
हो गयीं। उसके
लिए तो सारे
सागर भी एक
दिन अपने हो
जाने वाले हैं।
और जो पृथ्वी
पर तैर लिया
है, अगर
चांद पर कोई
सागर होगा तो
उसमें भी तैर
सकेगा और मंगल
पी कोई सागर
होगा तो उसमें
भी तैर सकेगा।
क्योंकि
तैरने की कला
नदियों से
नहीं बंधती, तालाबों से
नहीं बंधती।
ऐसी ही
श्रद्धा है।
श्रद्धा
एक कला है।
जिसे भरोसा आ
गया है कि
परमात्मा है; जिसे
प्रतीति होने
लगी कि
अस्तित्व
मिट्टी और
पत्थर से ही
नहीं बना है, मिट्टी और
पत्थर में भी
चैतन्य छिपा
है; मृण्मय
मैं जिसे
चिन्मय का बोध
होने लगा-उस बोध
का नाम
श्रद्धा है।
फिर यह बोध
किस बहाने हुआ,
रामकृष्ण
के कि रमण के, कि कृष्ण
मूर्ति के, उससे क्या
भेद पड़ता है? मेरी अंगुली
से तुम्हें
चांद दिखाई
पड़ा कि कृष्ण
की अंगुली से
कि क्राइस्ट
की अंगुली से,
चांद में
थोड़े ही फर्क
पड़ जायेगा!
अंगुलिया भिन्न
होंगी-काली
होगी अंगुली,
गोरी होगी
अंगुली, लंबी
होगी, दुबली
होगी, मोटी
होगी; ये
अंगुलियों के
भेद हैं, इनसे
चांद में कोई
अंतर न पड़ेगा।
जिसको चांद की
झलक मिलने लगी
वह श्रद्धालु
है। और अब
जितनी
अंगुलियों से
मिल सके, लुटेगा,
बेधड़क
लुटेगा! अब
उसे कोई
रुकावट नहीं।
सारे मंदिर
उसके हैं, सारे
तीर्थ उसके
हैं। काबा भी
उसका, काशी
भी उसकी, कैलाश
भी उसका।
लेकिन तुम
जिनकी बातें
कर रहे हो, यूगल
किशोर, ये नपुंसक
लोग हैं।
इन्हें
श्रद्धा का
कोई भी पता
नहीं है। इनकी
श्रद्धा भी
बड़ी संकीर्ण
है। इनकी
श्रद्धा बड़ी
छोटी है, बड़ी
उथली है। है
ही नहीं, डाके
बैठे हैं
संदेह को।
किसी भांति
मना- मनु कर
अपने को
सम्हाल लिया है।
इसलिए डरे हुए
हैं।
नास्तिक
से बात करने
में आस्तिक
डरता है, यह
कैसा आस्तिक?
नास्तिक
नहीं डरता, आस्तिक डरता
है! मैंने
किसी नास्तिक
को आस्तिक से
बात करते डरते
नहीं देखा। और
मैं तथाकथित
आस्तिकों को
नास्तिकों से
बात करते डरते
देखता हूं। यह
तो बड़ी उल्टी
बात हो गयी।
नास्तिक डरे,
अकेला है
बेचारा, ईश्वर
का कोई सहारा
नहीं है, अस्तित्व
सूना है, जीवन
उसका
अर्थविहीन है
-नास्तिक डरे,
गणित ठीक
बैठता है।
लेकिन आस्तिक
डरता है, जो
कहता है सारा
जग, कण-कण
परमात्मा से
व्याप्त है -
यह कंपता है!
यह तो बड़ी
बेबूझ बात हो
गयी।
मगर
कारण साफ है।
नास्तिक
ईमानदार है, आस्तिक
बेईमान है।
तुम्हारा
तथाकथित
आस्तिक
बिलकुल
बेईमान है, इसलिए डरता
है। डर बाहर
से नहीं
आता-नास्तिक
क्या कर लेगा?
डर भीतर से
आता है। उसे
अपने ही संदेह
का भय है। उसे
पता है कि
संदेह दबाये
बैठा है। कहीं
कोई उकसा दे, कहीं कोई
कुरेद दे, कहीं
कोई ऐसी बात
कह दे कि
संदेह
प्रज्वलित हो
उठे, कि
श्रद्धा
डगमगा जाए! तो
ऐसी जगह जाना
ही नहीं।
जैन
शास्त्र कहते
हैं : पागल
हाथी भी
तुम्हारे
पीछे हो और पास
में हिंद
मंदिर हो तो
शरण मत लेना।
हाथी कि नीचे
दबकर पर जाना
बेहतर है, हिंदू
मंदिर में शरण
लेना बेहतर
नहीं है।
क्यों? क्योंकि
वहां कोई असद
वचन सुनने को
मिल जाएं; वहां
कोई
मिथ्या ज्ञान
की बात कान मैं
पड़ जाए तो
जन्म-जन्म
भटकोगे। हाथी
क्या करेगा, सिर्फ शरीर
ही ले सकता है;
मगर मिथ्या
वचन, मिथ्या
गुरु, मिथ्या
शास्त्र... अगर
उनकी बात कान
में पड़ गयी तो
शरीर ही नहीं
आत्मा भ्रष्ट
हो जायेगी।
और यही
बात हिंदू
ग्रंथों में
भी लिखी है, क्योंकि
ये सब ग्रंथ
एक ही जैसे
लोगों ने लिखे
है-कि अगर जैन
मंदिर के भीतर
शरण मिलती हो
तो उससे तो
बेहतर हाथी के
पैर कि नीचे
दब कर मर जाना
है।
तुमने
घंटाकरण की
कहानी तो सुनी
है न,
जो अपने
कानों में
घंटे बाधे
रखता था! ये
तुम्हारे
आस्तिक बस
घटाकरण हैं।
वह कानों में
घंटे बाधे
रखता था, क्यों?
ताकि उसके
कान में उसके
इष्ट देवता के
अतिरिक्त और कोई
नाम सुनाई न
पड़े। अगर उसके
इष्ट देवता
राम हैं तो
राम-राम राम -राम
जपता है और
कानों में
घंटा बाधे हुए
है; चलता
है तो घंटे
बजते रहते हैं।
इसलिए कोई
दूसरा इष्ट
देवता, कोई
कृष्ण- भक्त
कहीं कृष्ण का
नाम न डाल दे, कहीं कान
में कृष्ण का
नाम न पड़ जाए।
छोटे
-छोटे
आस्तिकों की
तो बात छोड़ दो, तुम्हारे
बड़े - बड़े
आस्तिक, वे
भी कसौटी पर
उतरते नहीं।
तुलसीदास के
जीवन में कथा
है कि उन्हें
ले जाया गया
मथुरा में
कृष्ण के
मंदिर में तो
वे झुके नहीं।
जो मित्र
उन्हें ले गये
थे उन्होंने
कहा : आप नमस्कार
न करेंगे? उन्होंने
कहा : मैं तो
सिर्फ राम को
ही नमस्कार
करता हूं। जब
तक धनुष -बाण
हाथ में न
लोगे, मैं
नमस्कार नहीं
करूंगा।
तुलसीदास
को कण -कण में
राम दिखाई
पड़ते हैं, लेकिन
कृष्ण मैं राम
दिखाई पड़ने
वाली बात
बकवास है।
तुलसीदास को
कृष्ण से कुछ
लेना-देना नहीं,
राम से कुछ
लेना-देना नहीं,
धनुष - बाण
ज्यादा
मूल्यवान
मालूम होता
हैं-मार्का, सरकारी
मार्का, वह
ज्यादा
मूल्यवान
मालूम होता है।
लेबिल। नहीं
झुकेंगे
कृष्ण के
सामने, राम
के सामने
झुकेंगे! और
शर्त कि धनुष
-बाण अगर हाथ
में लेते हो
तो मैं झुक
सकता हूं। अब
यह कृष्ण पर
छोड़ दिया कि
तुम्हारी
मर्जी अगर
मेरे झुकने का
मजा लेना हो
तो ले लो धनुष
-बाण हाथ में।
जिन्होंने
कहानी लिखी है, बेईमान
रहे होंगे।
उन्होंने
कहानी लिखी है
कि और कृष्ण
ने जल्दी से
धनुष -बाण हाथ
में ले लिया।
मूर्ति ने
धनुष -बाण हाथ
में ले लिया। तब
तुलसीदास
झुके। मगर
इसमें एक बात
साह है कि यह
भक्ति न हुई, यह तो भगवान
पर भी शर्त
हुई! यह तो
भगवान से भी सौदा
हुआ। इसमें
तुलसीदास तो
दो कौड़ी के हो
ही गये। अगर
कृष्ण ने धनुष
-बाण हाथ लिया
तो वे भी दो कौड़ी
के हो गये। यह
भी क्या बात
हुई? तुलसीदास
न झुकते तो
क्या बिगड़ता
है? यह तो
झुकाने का बड़ा
रस हुआ! ये तो
जैसे बैठे ही थे।
वह तो अच्छा
हुआ कि
उन्होंने
धनुष -बाण कहा,
कोई और
पहुंच जाते, कोई तुलाधर
वैश्य के भक्त
पहुंच जाते, कहते कि
तराजू हाथ में
लो तो वे
तराजू हाथ में
लेते। कोई मुहम्मद
के भक्त पहुंच
जाते वे कहते
कि तलवार हाथ
में लो। तो
कृष्ण को पूरी
दूकान ही
सजानी पड़ती, सामान सामने
रखना पड़ता, जब जो आये।
कोई जैन भक्त
पहुंच जाते, वे कहते
नग्न खड़े होओ,
दिगंबर, तो
जल्दी से
चड्डी
इत्यादि उतार
कर खड़े होना पड़ता।
यह तो बड़ी
बेहूदगी हो
जाती। मगर यही
तुम्हारे
आस्तिक की
स्थिति है।
तुम्हारा
आस्तिक कमजोर
है, झूठा
है। मुझे तो
वह नास्तिक
प्यारा है जो
कम-से - कम ईमानदार
है; जो
कहता है मुझे
पता नहीं है, इसलिए मैं
कैसे मानूं? इसे कभी पता
चल सकता है, क्योंकि
इसने अपने
अज्ञान को
छिपाया नहीं,
स्वीकार
किया है। और
अज्ञान की
स्वीकृति
सत्य की तरफ
पहला चरण है।
तो
पहली तो बात, युगल
किशोर, जिन
मित्रों की
तुम पूछ रहे
हो उसकी आस्था
झूठी है, उनकी
श्रद्धा बांझ
है। दूसरी बात,
जहां -जहां
वे अटके हैं वहां
उन्हें
कुछ मिला नहीं,
नहीं तो यहां
आने की जरूरत
क्या? क्या
प्रयोजन? गंगा
के किनारे जो
बसा है और
जिसकी प्यास
तृप्त हो रही
है, अब वह
किसलिए जाएगा
ब्रह्मपुत्र
की तलाश में? पानी तो
पानी है।
प्यास बुझ गयी,
बात समाप्त
हो गयी। तो
तुम जिनकी बात
कर रहे
हों-रामकृष्ण
आश्रम, अरविन्द
आश्रम, रमण
आश्रम-वहां जो लोग
हैं वे यहां
आना चाहते हैं,
उनका चाहना
ही बता रहा है
कि वहां कुछ हुआ
नहीं है। और
नपुंसक
श्रद्धा से
कहीं भी कुछ
नहीं होता।
रामकृष्ण
क्या करेंगे?
रमण क्या
करेंगे? मैं
क्या करूंगा?
कोई भी क्या
करेगा? तुम्हारी
श्रद्धा ही
अगर नहीं है, तुम अगर
भीतर बिलकुल
निर्बल हो, तुम अगर
भीतर बिलकुल
झूठे हो, थोथे
हो, ओछे हो,
तो
तुम्हारी
श्रद्धा लेकर
तुम जहां भी
जाओगे वहीं
कुछ भी होने
वाला नहीं। वहां
कुछ
हुआ नहीं है, इसलिए-यहां
आना चाहते हैं।
नहीं तो आने
की बात क्या
थी? अब डर
भी लगता है कि
कहीं छोड़ कर
गये तो कहीं
जिन पर अब तक
श्रद्धा की वे
नाराज न हो
जाएं! मिला भी
कुछ नहीं है वहां
।... 'नाराज न
हो जाएं, कहीं
श्रद्धा
डावाडोल न हो
जाए।
और
तुम्हारे
पंडित-पुरोहित
तुम्हें ऐसा
सिखाते रहे
हैं।
तुम्हारे
पंडित-
पुरोहितों ने
शिष्य और गुरु
के संबंध को
तो
करीब-करीब
पति -पत्नी का संबंध
बना दिया-एक
पत्नी-व्रत!
यह कोई विवाह
थोड़े ही
है-खोज है, अन्वेषण
है, जिज्ञासा
है। ठीक है
तुमने तलाश।
एक जगह, पूरा
श्रम लगाओ, हो सकता है
तुम्हें वहां
न मिल सके।
जरूरी नहीं है
कि तुम्हें
नहीं मिला, इसका यह
अर्थ है कि वहां
नहीं
है। तुम से
तालमेल न बैठा
हो, तुम्हारे
व्यक्तित्व
के अनुकूल न
पड़ा हो।
रामकृष्ण
सभी के अनुकूल
नहीं पड़ सकते, नहीं
तो वैविध्य
मिट जाए। किसी
को कुरान ही
जमती है और
कुरान के वचन
ही किसी के
प्राणों में पड़े
हुए जन्मों
-जन्मों के
बीजों को
अंकुरित करते
हैं। और किसी
को गीता में
ही वर्षा होती
है। जहां
वर्षा हो जाए...
प्रयोजन आम
खाने से है या
गुठलियां
गिनने से? लेकिन
लोग गुठलियों
से बंधे हुए
हैं; आम
-वाम खाने का
तो पता नहीं
है, गुठलियों
के ढेर लगाये
बैठे हैं। तुम्हें
अगर वहां मिल
गया तो यहां
आने का अकारण
कष्ट न करो।
अगर नहीं मिला
है तो क्षण - भर
भी रुकना
आत्मघात है
क्योंकि कौन
जाने कल मौत
हो!
तो
तलाशों, दौड़ो,
भागो, जहां
मिल सकता हो, जहां से खबर
मिले कि सूरज
उगा है वहां जाओ। यह
तो खोजी की
जिंदगी तलाश
है। जहां
तालमेल बैठ
जायेगा, कौन
जाने कहां बैठ
जाए! किससे
हृदय की
लयबद्धता हो
जाए, कौन-सा
वाद्य
तुम्हें
मोहित कर ले!
जब तक वैसी जगह
न आ जाए तब तक
बहुत द्वार
खटखटाने पड़ने
हैं। अपने
द्वार पर
पहुंचने के
लिए बहुत
द्वार खटखटाने
पड़ते हैं, अपना
मंदिर खोजने
के लिए बहुत
मंदिरों में
तलाश करनी
पड़ती है।
लेकिन
लोग तलाश नहीं
करना चाहते
-गोबर -गणेश हज! जहां
बैठ गये बैठ
गये। फिर वहां
से
उठने का नाम
नहीं लेते, चाहे
कुछ मिले चाहे
न मिले।
मैं
पुन: याद दिला
दूं र मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि वहां कुछ
नहीं है। होगा, जरूर
होगा। लेकिन
तुम्हें नहीं
मिला, यह
सवाल है।
दूसरों को
मिला होगा, दूसरे जानें।
तुम्हें अगर
नहीं मिला है
तो उठो, चलो।
पृथ्वी खाली
नहीं है; यहां
विविध-विविध
रंगों में
परमात्मा
प्रगट होता है।
और फिर, शिरडी
के साई बाबा
या गजानन
महाराज अब तो
मौजूद नहीं
हैं, न रामकृष्ण,
न रमण,।
जैसे ही
सदगुरु विदा
होता है वैसे
ही एक जाल इकट्ठा
हो जाता है वहां
, जो उस
सदगुरु के नाम
का शोषण शुरू
कर देते हैं।
इसे रोका नहीं
जा सकता। इसे
रोकना असंभव
है। कौन रोके,
कैसे रोके?
वह होता ही
रहेगा।
चालबाज आदमी,
होशियार
आदमी सदगुरु
के नाम का लाभ
उठायेंगे।
उसकी जिंदगी
में तो नहीं
ले सकते, उसकी
मौजूदगी में
तो मुश्किल
पड़ती है; लेकिन
जब वह मौजूद
नहीं रहेगा तो
उसकी कब्र बना
कर बैठ
जायेंगे, चमत्कारों
की चर्चाएं
चलायेंगे, कहानियां
फैलायेंगे, बाजार
लगायेंगे, दुकान
खोल लेंगे।
ऐसी ही
दूकानें
शिरडी के साई
बाबा और गजानन
महाराज, ऐसे
लोगों के
समाधि -स्थलों
पर इकट्ठी हो
गयी हैं। हर
चीज की वे एक
ही उपयोगिता
जानते
हैं-कैसे उससे
शोषण किया जा
सके? जरूर
वे तुमसे
कहेंगे कि
यहां से अगर
छोड्कर गये, बाबा नाराज
हो जायेंगे।
बाबा प्रसन्न
तो हो नहीं
रहे हैं, मगर
नाराज जरूर हो
जायेंगे! जो
बाबा प्रसन्न
ही नहीं हो
रहे हैं, अब
उनके नाराज
होने से भी
क्या होने
वाला है? बाबा
जा चुके। और
वे बाबा ही
नहीं हैं जो
नाराज हो जाएं।
तुम
अगर शिरडी छोड़
कर यहां आओगे
तो शिरडी के
साई बाबा की
आत्मा
प्रसन्न होगी,
आनंदित
होगी, कि
तुम फिर तलाश
पर निकल पड़े
हो, शायद
कोई द्वार मिल
जाए। वह द्वार
तो बंद हो गया।
जैसे
ही कोई सदगुरु
विदा होता है
इस पृथ्वी से, उसकी
सुगंध आकाश
में लीन हो
जाती है, पीछे
छूट जाते हैं
पग-चिह्नों के
आसपास इकट्ठे
पंडितों-पुरोहितों
की भीड़। और
पंडित-
पुरोहित बड़े
कुशल हैं शोषण
करने में। वे
सब भांति का
शोषण शुरू कर
देते हैं।
युगल
किशोर, अपने
मित्रों को
कहना :
तुम्हारी
हिचकिचाहट बताती
है कि श्रद्धा
झूठी है।
तुम्हारी
हिचकिचाहट
बताती है कि
अभी तुम्हें
जो मिलना था
नहीं मिला।
तुम्हारी
हिचकिचाहट
बताती है कि
तुम्हें अभी
मंदिर की तलाश
करनी है।
तुम्हारी
हिचकिचाहट
बताती है कि
तुम दुकानदारों
के चक्कर में
पड़ गये हो।
और
श्रद्धा इतनी
बड़ी है, आकाश
जैसी, सबको
समा लेती है।
श्रद्धा
जिसके पास है
उसमें राम और
कृष्ण और बुद्ध
और महावीर और
नानक और कबीर
सब समाविष्ट हो
जाते हैं।
श्रद्धा का
जादू ऐसा है, श्रद्धा की
रसायन ऐसी है
कि उसमें राम
और कृष्ण में
भेद नहीं रह
जाता, जीसस
और जरथुस्त्र
में भेद नहीं
रह जाता, महावीर
और मीरा में
भेद नहीं रह
जाता।
श्रद्धा की
रासायनिक
प्रक्रिया
ऐसी है कि वह सारे
सत्यों को
समाविष्ट कर
लेती है। और
सारे सत्यों
को समाविष्ट
करके जो परम
सत्य प्रगट होता
है उसकी
समृद्धि
अनूठी है, उसका
आनंद अपूर्व
हैं।
श्रद्धा
सारे वाद्यों
को इकट्ठा
करके आरकेस्ट्रा
बना लेती है।
है।,
बासुरी का
भी एक मजा है
-एकाकी बजती
बासुरी का, जरूर मजा है!
लेकिन जब तबले
पर थाप भी
पड़ती हो और बासुरी
बजती हो तो
मजा और गहन हो
गया। और जब
पीछे कोई सोये
सितार को भी
जगा दे तो रस और
बढ़ा। और फिर
कोई तानपूरा
भी लेकर बैठ
जाए तो बात और गहन
होने लगी, नये
-नये आयाम
जुड़ने लगे।
परमात्मा
अभी भी चुक
नहीं गया है, अभी
बहुत महावीर
होंगे और बहुत
बुद्ध होंगे और
बहुत मुहम्मद
होंगे और बहुत
जीसस होंगे।
और परमात्मा
तब भी चुकेगा
नहीं। नये
-नये वाद्य
जुड़ते
जायेंगे, संगीत
और सघन होता
जायेगा, संगीत
और गहन होता
जायेगा। कृपण
न बनो, कंजूस
न बनो। हृदय
को खोलो इस
विराट आकाश के
प्रति। पूरे
परमात्मा को
ही अंगीकार
करो, उसके
सब रूपों को
अंगीकार करो।
फिर जो
तुम्हें
प्रीतिकर
लगता हो, वहां
रम रहो।
लेकिन इनकार
तो कोई भी न हो।
श्रद्धा का
अर्थ होता है
भीतर ' है।'
का भाव उठा।
और 'है। ' मैं 'नहीं'
नहीं होती। 'है।' में
कोई शर्त बंदी
नहीं होती।
अपने
मित्रों को
कहना... और कौन
जाने मित्रों
के नाम से
सिर्फ तुम
अपने संबंध
में पूछ रहे
हो। इसका भी
बहुत डर है।
इसकी भी बहुत
संभावना है।
हम सीधा -सीधा
भी नहीं पूछते, क्योंकि
सीधा-सीधा
पूछो, कौर
जाने मैं लट्ठ
की तरह
तुम्हारे सिर
पर चोट करूं!
तो लोग
मित्रों के
नाम से पूछते
हैं।
एक
सज्जन आये। वे
कहने लगे :
मेरे मित्र
नपुंसक हैं!
उनके लिए कोई
ध्यान की विधि
हो सकती है?
मैंने
कहा : तुमने
नाहक कष्ट
किया! अपने
मित्र को
क्यों नहीं
भेज दिया?
उन्होंने
कहा : मैंने तो
उनसे बहुत कहा, मगर
वे संकोचवश
आये नहीं।
मैंने
कहा : उनसे तुम
यह कह सकते थे
कि तुम चले जाओ
और कहना कि
मेरे एक मित्र
हैं,
जो नपुंसक
हैं, उनको
ध्यान की कोई
विधि...।
वे
थोड़े बेचैन
हुए। मैंने
कहा :
तुम्हारी
बेचैनी, तुम्हारी
आखें, तुम्हारा
चेहरा सब कह
रहा है कि तुम
किस मित्र की
बात कर रहे हो।
सीधी-सीधी बात
करो, अपनी
बात करो।
यूगल
किशोर ठाकुर, ठाकुर
होकर तुम भी
कैसी बात कर
रहे हो! कहां
मित्रों की
बात उठा रहे
हो? अपनी
ही बात करो, सीधी-सीधी
बात करो। ये
परिकल्पित
मित्र, अगर
हो कोई तो
जरूर उनको कह
देना, मगर
अपनी तो गुन
लो। उनकी उन
पर छोड़ो। यहां
तुम आये हो, तुम भी कहीं
दूर -दूर खड़े न
रह जाना डर के
मारे कि अपनी
श्रद्धा और, आ तो गये तो
ठीक, मगर
दूर -दूर खड़े
रहें। न ध्यान
में उतरें, न प्रार्थना
में डूबे।
सुनें भी तो
एक पर्दे की
आडू से, अपने
सिद्धातों की
दीवाल बीच में
खड़ी रखें। ऐसा
करोगे तो चूक
जाओगे।
ऐसा
करोगे तो एक
अवसर और आया
था,
वह भी
व्यर्थ चला
जाएगा। अवसर
खोओ नहीं, अवसर
बहुत मुश्किल
से आते हैं।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान!
एक ओर तो आप
आधुनिक यंत्र
-विधि के पक्ष में
है और मानते
हैं कि धर्म
का फूल
औद्योगिक सभ्यताओं
की विडंबनाओं
का भी बखान
करते हैं। 'या
तो यंत्र
बचेगा या
मनुष्य' -यह
आपका ही वाक्य
है। इसके
अलावा आप अतीत
के जिन
महापुरुषों, संतों और
भक्तों की
वाणी की
व्याख्या
करते हैं, उनमें
से कोई नहीं
मानता था कि
धर्म गरीबों
के लिए नहीं
है। इस सबकी
पारस्परिक
संगति कैसे
बिठाई जाए?
'राजकिशोर!
मैं
यंत्र -विधि
के पक्ष में
हूं। लेकिन
इसका यह अर्थ
नहीं के
यंत्र-विधि के
साथ जुड़ी कुछ
घातक
संभावनाएं
नहीं हैं। उन
घातक
संभावनाओं से
भी मैं सचेष्ट
करता हूं।
बुद्धिमान
व्यक्ति तो
जहर से भी
अमृत बना लेता
है और बुद्ध
अमृत से भी
जहर।
विज्ञान
ने बहुत बड़ी
शक्ति मनुष्य
के हाथ में दी
है-देक्वालॉजी, यंत्र
-विधि की।
इससे
यह सारी
पृथ्वी
स्वर्ग बन
सकती है।
सदियों
-सदियों का
सपना, जो हम
देखते थे कहीं
दूर आकाश में
स्वर्ग है, वह पृथ्वी
पर उतर सकता
है। इस पृथ्वी
पर, हमारी
पृथ्वी पर
स्वर्ग उतर
सकता है!
विज्ञान ने एक
विराट ऊर्जा
का विस्फोट कर
दिया है। लेकिन
उसे खतरे हैं।
उन खतरों से
भी मैं सावधान
करता हूं।
सबसे बड़ा खतरा
यह है कि कहीं
यात्रिकता
मनुष्य के ऊपर
हावी न हो
जाये! कहीं
ऐसा न हो कि
मनुष्य सिर्फ
मशीन का एक
गुलाम होकर रह
जाये। मनुष्य
की मालकियत तो
रहनी ही चाहिए।
मनुष्य- मालिक
हो, यंत्र
सेवक हो, तो
शुभ है। यंत्र
मालिक हो, मनुष्य
सेवक हो जाये,
तो अशुभ है।
इसलिए
मैं एक ओर
यंत्र -विधि
का पूर्ण
समर्थन करता
हूं। क्योंकि
उसके बिना अब
पृथ्वी भूखी
मरेगी। उसके
बिना अब आदमी
समृद्ध नहीं
हो सकेगा।
समृद्धि तो
दूर,
जीवन की
सामान्य
सुविधाएं भी
आदमी को
उपलब्ध नहीं हो
सकेंगी। हमने
इतनी संख्या
बढ़ा ली है!
संख्या रोज
बढ़ती जा रही
है। पृथ्वी
उतनी की उतनी
है। हर आदमी
अपने साथ सौ
-पचास एकड़
जमीन भी ले
आता तो ठीक था।
आदमी चले आते
आते हैं, जमीन
उतनी-की-उतनी
है।
बुद्ध
के जमाने में
इस देश की कूल
जनसंख्या दो
करोड़ थी। आज
पाकिस्तान को
छोड्कर बंगला
देश को छोड्कर
इस देश की
जनसंख्या सौ
करोड़ है। अगर
उन दोनों को
भी हम जोड़ लें
तो अस्सी करोड़
के करीब पहुंच
रही है। इस
सदी के पूरे
होते -होते एक
अरब जनसंख्या
भारत की होगी।
इस एक अरब
जनसंख्या को न
तुम भोजन दे
सकोगे, न
कपड़े दे सकोगे,
न दवा दे
सकोगे, न
छप्पर दे
सकोगे। लोग
कीड़े -मकोड़े
की तरह
चिल्लाने
लगेंगे। और
तुम हो कि
चरखे का गीत
गाये जाते हो!
इस सदी
के पूरे होते
-होते तुम्हें
पता चलेगा कि गांधी
वाद के नाम पर
तुमने जो
मूढ़ता की है, इससे
बड़ी और कोई
मूढ़ता नहीं हो
सकती थी। गांधी
को भविष्य
का कोई बोध
नहीं था।
गांधी मरे
-मराये अतीत
के प्रशंसक थे।
वे रेलगाड़ी के
खिलाफ थे, टेलीफोन
के खिलाफ थे, पोस्ट- आफिस
के खिलाफ थे, दवाइयों के
खिलाफ थे।
मनुष्य ने जो
भी मनुष्य के
जीवन को
समृद्ध करने
के लिए विकसित
किया है, सबके
खिलाफ थे। वे
चाहते थे आदमी
बाबा आदम के
जमाने में
वापस लौट चले।
मगर यह हो ही
नहीं सकता। यह
मरना हो, तो
करोड़ों लोगों
की हत्या करनी
हतोई पहले।
बुद्ध
के जमाने में
जब दो करोड़
आदमी थे भारत
में,
तो एक तरह
की संपन्नता
थी। स्वभावत:
इतनी भूमि, इतना विशाल
देश और कुल दो
करोड़ आदमी! आज
भी दो करोड़ हों
तो फिर संपन्न
हो जाएगा देश।
कोई भूखा नहीं
मरेगा। और आज
भी दो करोड़
संख्या हो तो
घरों में ताले
न लगाने
पड़ेंगे। ये
कोई आदमियों
की खूबिया
नहीं थीं। ये
कोई नैतिक गुण
नहीं थे बुद्ध
के जमाने में,
कि लोग घरों
में ताला नहीं
लगाते थे।
ताला लगाने का
सवाल ही नहीं था।
लेकिन
आज उसी देश
में अस्सी
करोड़ लोग हैं।
चालीस गुनी
संख्या बढ़ गयी; और
जमीन उतनी की
उतनी है। और
ढाई हजार साल
में हमने जमीन
का शोषण कर
लिया। उसे
जितने
रासायनिक
द्रव्य थे, हम सब पी गये।
और वापिस हमने
कुछ नहीं डाला।
दूसरे
मुल्कों में
तो लोग, आदमी
पर जाता है तो
उसे जमीन में
गड़ा देते हैं।
तो जो कुछ भी
उसके शरीर में
खनिज, विटामिन,
जो कुछ भी
होते हैं, वापिस
जमीन में
पहुंच जाते
हैं। हम वह
नहीं करते, हम उसे जला
देते हैं। तो
जिंदगी- भर जो
खाया-पिया, उसको हम राख
कर देते हैं।
जमीन में
वापिस नहीं
पहुंच जाता वह
फिर। ढाई हजार
सालों में हम
आदमी जलाते
रहे और जमीन
का शोषण करते
रहे। जमीन
बांझ हो गयी
है। उसमें अब
कुछ
फलता-फूलता
नहीं मालूम
पड़ता। और
संख्या बढ़ती
जाती है।
यंत्र के
अतिरिक्त अब
कोई उपाय नहीं
है।
इसलिए
मैं यंत्र
-विधि के पूरे
पक्ष में हूं,
समग्ररूपेण
पक्ष में हूं।
देश के द्वार
-दरवाजे खोल
दिये जाने
चाहिए। हमने
देश को एक बंद
कारागृह बना
लिया है, इसलिए
हम सड़ रहे हैं।
मेरा बस चले
तो मैं देश के
सारे
द्वार-दरवाजे खो
दूं; सारी
दुनिया को
निमंत्रित
करूं कि आओ!
सारी दुनिया
की पूंजी
निमंत्रित
होनी चाहिए कि
लोग पूंजी
लायें, कि
लोग यंत्र
लायें, कि
लोग विज्ञान
के नये -नये
उपकरण लायें।
और इस देश में
जितने ज्यादा
हो सकें उतने
ही उद्योग
फैलें।
और
दुनिया से लोग
आना चाहते हैं।
मगर इस देश की
मूढताएं ऐसी
हैं कि हम
चाहते हैं कि दुनिया
की पूंजी भारत
में न आ जाये, कहीं
भारत का शोषण
न हो जाये। है
कुछ भी नहीं
पास... शोषण हो
जाने का बड़ा
डर है! नंगा
नहाये... नहाता
ही नहीं। वह
नहाता इसलिए
नहीं कि अगर
नहाऊंगा तो
निचोडूगा कहां?
निचोड़ने को
कुछ है ही
नहीं! वह
नहाता ही नहीं
है, क्योंकि
नहाऊंगा तो
फिर सुखाऊंगा
कहां? सुखाने
को कुछ है ही
नहीं। और इस देश
के पूंजीपति
हैं, उनको
भय है के अगर
दुनिया की
पूंजी भारत
में आये, और
दुनिया का
विज्ञान भारत
में आये तो
उनके कचरा
उत्पादन की
क्या कीमत रह
जाएगी! तुम
सोचते हो
एम्बेसेडर
कार की कितनी
कीमत होगी? बैलगाड़ी से
कम हो जाएगी!
अगर इस देश
में फोर्ड और
शेवरलेट और रोल्ससायस
और बेंज ये
सारे कारखाने
खुल जाएं तो
एम्बेसेडर
गाड़ी का तुम
सोचते हो क्या
हाल होगा? कोई
मुफ्त भी लेने
को राजी नहीं
होगा।
क्योंकि
जितनी कीमत एक
एम्बेसेडर
मिल रही है उतनी
पर तो वेज
गाड़ी मिल सकती
है। जो तीस
साल चालीस साल
चले और फिर भी
ऐसे लगे कि ताजी
है, नई है।
और एम्बेसेडर
काड़ी तुम
शो-रूम से घर
तक लाओ और खात्मा।
जब
युगल किशोर
बिड़ला मरे, तो
कहते हैं
उन्हें
स्वर्ग ले
जाया गया...
मुझे पक्का
पता नहीं है
कहानी कहां तक
सच है, मगर
सच ही होगी... वे
खुद भी चौंके।
मगर फिर सोचा
कि शायद मैंने
इतने बिड़ला-
मंदिर बनवाये
इसलिए मुझे
स्वर्ग में
लाया जा रहा
है। स्वर्ग
में उन्होंने
द्वारपाल से
पूछा कि मुझे
किसलिए
स्वर्ग लाया
जा रहा है? तो
उन्होंने कहा,
इसलिए कि जो
-जो तुम्हारी
गाड़ी खरीदते
हैं, वे
कहते हैं; हे
राम! तुमने
लोगों को
जितना राम का
नाम याद दिलवाया
है, उतना
किसी ने नहीं!
बड़े -बड़े
पंडित -
पुरोहित हार
गये। तुमने
एम्बेसेडर
क्या बनायी है,
ऐसी गाड़ी
दुनिया में
कोई नहीं!
जिसमें हर चीज
बजती है, सिर्फ
हार्न को
छोड्कर!
तो यह
हिंदुस्तानी
पूंजीपति है, जिसकी
प्रेइंग-लिस्ट
इस देश के
सारे नेताओं के
नाम हैं; जो
इस देश में
बाहर की संपदा
को, तकनीक
को, विज्ञान
को नहीं आने
देना चाहता।
इसीलिए तुम
गरीब हो, इसीलिए
तुम परेज्ञान
हो। और तुम
परेज्ञान
रहोगे। इस देश
के द्वार खोल
दिये जाने
चाहिए। अब यह
पृथ्वी खंड
-खंड में नहीं
होनी चाहिए।
अब दुनिया के
पास
वैज्ञानिक
विकास है कि
अगर हम अपने
द्वार खोल दें
तो यह देश
समृद्ध हो सकता
है। लेकिन हम
पिटी-पिटायी
बातें
दोहराये चले
जाते हैं।
हमारे
अर्थशास्त्री
कौन हैं? चौधरी
चरणसिंह जैसे
लोग हमारे
अर्थशास्त्री
हैं। जिनको
अर्थशास्त्र
का अ. ब. स. भी
नहीं आता।
अनर्थशास्त्र
का आता होगा, अर्थशास्त्र
का बिलकुल
नहीं आता। वह
अभी तक गौवों
का गुणगान
किये जा रहे
हैं। वे अभी
तक गांव की ही
प्रशंसा में
गीत गाये जा रहे
हैं। गांव का
कोई भविष्य
नहीं है। गांव
जा चुके, गांव
का कोई भविष्य
होना भी नहीं
चाहिए। अब
नगरों का भविष्य
है-सुसंपन्न,
सुशिक्षित,
सुनियोजित
नगरों का
भविष्य है।
दुनिया से
गांव विदा हो
रहे हैं। इधर
हम गांव की
तरफ सारी ताकत
लगा रहे हैं।
हमारे गांव भी
विदा होने
चाहिए। और गांव
में कुछ भी
नहीं है। बीमारी
है, गरीबी
है, मच्छर
है, मक्खिया
हैं, कीचड़
है, कबाड़
है। और एक
गुलामी है। जब
तक गांव नहीं
मिटेगा, वह
गुलामी नहीं
मिटेगी।
छोटे-छोटे
गांव की
गुलामी
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ती। तुम
कवियों की
कहानियों और
कविताएं पढ़
लेते हो, सोचते
हो कि अहा, गावों
में कैसा
रामराज्य!
कैसा पंचायत
राज्य! और
गांव में कैसे
लोग मजा कर
रहे हैं-कैसी
स्वभाविकता, प्राकृतिकता!
तुम्हें
गांव की
स्थिति का कोई
अंदाज नहीं है।
इस देश का गांव
एक तरह का
कारागृह है।
इस गांव में
जितना शोषण हो
सकता है, शहर
में नहीं हो
सकता। गांव
में हरिजन है,
उसको कुएं
पर पानी नहीं
भरने दिया जा
सकता। सह सबके
साथ पांत में
बैठकर भोजन भी
नहीं कर सकता।
पांत में
बैठकर भोजन
करने की तो
बात दुर, उसकी
छाया किसी पर
पड़ जाए, तो
गांव के लोग
मिलकर उसकी
हत्या कर दें।
अगर हरिजनों
से कोई मिले-
जुले तो पाप
हो जाए, तो
उसका हुक्का
पानी बंद कर
दें। गांव
इतनी छोटी जगह
है कि वहां
कोई आदमी
व्यक्तिगत
जीवन तो जी ही
नहीं सकता।
वहां कोई निजी
जीवन नहीं है
और। जहां
निजता नहीं है
वहां स्वतंत्रता
नहीं हो सकती।
शहरों
ने निजता दी
है। शहरों मैं
व्यक्ति निजी
हो गये हैं।
मैं
पक्ष में हूं
इस बात के कि
यंत्र बढ़ने
चाहिए। धीरे-धीरे
हमारे गांव
छोटे -छोटे
नकरों में
रूपांतरित
होने चाहिए।
लेकिन खतरे
हैं,
वे भी हमें
जान लेने
चाहिए।
एक
खतरा है सबसे
बड़ा कि कहीं
मनुष्य यंत्र
से छोटा न हो
जाए। कहीं
यंत्र मनुष्य
की छाती पर न
बैठ जाए। नहीं
तो भंयकर
गुलामी शुरू
हो जाएगी।
यंत्र का हमें
उपयोग करना है, यंत्र
हमारा उपयोग न
करने लगे। वैस
डर पश्चिम में
पैदा हो गया
है कि यंत्र
आदमी का उपयोग
करने लगा है।
हम सावधान हो
सकते हैं उससे।
कहीं ऐसा न हो
जाए कि यंत्र
मनुष्य की
सारी गरिमा और
गौरव छीन ले।
यह भी हो सकता
है क्योंकि
यंत्र इतना
कुशल है। उससे
प्रतिस्पर्धा
मनुष्य नहीं
कर पायेगा।
यंत्र की
कुशलता इतनी
बड़ी है कि जो
काम हजार आदमी
करें, एक
यंत्र कर देगा।
तो हजार आदमी
बेकार हो गये।
तो ये बेकार
आदमियों की
गरिमा खो
जाएगी। ये
बेकार आदमी कहां
जाएंगे, क्या
करेंगे?
पश्चिम
में जितना ही
स्वचालित
यंत्र बढ़ते
जाते हैं उतना
ही सवाल उठता
है कि बेकार आदमियों
का क्या करना? लेकिन
पश्चिम में
समझ है। यहां
तो काम जो
करता है उसको
भी तनखाह नहीं
मिलती, लेकिन
पश्चिम के
समृद्ध देशों
में जो काम
नहीं जिसे
मिलता है, उसे
काम नहीं
मिलने की
तनखाह मिलती
है।
बेरोजगारी के
लिए तनखाह
मिलती है।
क्योंकि वह भी
जुम्मा समाप
का है। अगर
तुमने
यंत्रों के
हाथ में काम
दे दिया और लोगों
को काम नहीं
मिलता, तो
उनको तनखाह
दो! वे काम
करने को तैयार
हैं।
धीरे-धीरे
यंत्र सारा
काम संभाल
लेंगे। तब
खतरे बहुत हैं।
एक खतरा तो यह
है कि आदमी
सदियों से काम
का आदी रहा है, खाजी
बैठने की उसे
अकल नहीं है।
खाली बैठेगा
तो उपद्रव
करेगा। झगड़े
-झांसे करेगा...
झंडा ऊंचा रहे
हमारा! चले! अब
कुछ काम ही
नहीं है...।
हिंदू र
मुसलमान, ईसाई
जूझने लगेंगे,
झगडूने
लगेंगे, व्यर्थ
के विवाद खड़े हो
जाएंगे। या
लोग शराब
पिएंगे। या
दिन-दिन भर
टेलीविजन
देखेंगे, आखें
खराब करेंगे।
या
वेश्यागामी
हो जाएंगे। तो
ये खतरे हैं।
और ये खतरे
रोके जा सकते
हैं। सच तो यह
है, सदियों
-सदियों का
सपना पूरे
होने के करीब
है। अब आदमी
के लिए मौका
है संगीत सीखे;
अब मौका है
ध्यान करे; अब मौका है
काव्य रचे, मूर्ति गढ़े;
अब मौका है
सुन्दर बगीचा
बनाए।
तो
इसके पहले कि
यंत्र मनुष्य
से सारे काम
छीन ले, हमें
आदमी को जीवन
का एक नया ढंग
और एक नई शैली देनी
होगी। ध्यान
केंद्र होगा।
बिना ध्यान के
मनुष्य मर
जाएगा, यंत्र
उसकी छाती पर
बैठ जाएगा।
ध्यान का अर्थ
ही होता है :
खाली बैठने का
मजा। पुराने
जमानों में
कहा जाता था :
खाली मज बैठो,
खाजी बैठना
शैतान का घर
है। पुराने
जमाने में जो
खाली बैठता
उसको गाली देनी
ही पड़ती, क्योंकि
दस आदमी कमाते,
मेहनत करते,
तब मुश्किल
से पेट भरता
था। खाली आदमी
जो बैठता, आलसी
होता, उसकी
निंदा करनी
होती थी। नये
भविष्य में जब
यंत्र सारा
उद्योग हाथ
में ले लेंगे
तो हमें कहना
पड़ेगा : खाली
बैठो, खाली
बैठना भगवान
का मंदिर है।
मैं उसी खाली
बैठने की कला
को सिखा कर
रहा हूं ध्यान
के नये -नये
आयाम हमें खोल
देने चाहिए, जो सिर्फ
राजाओं-
महाराजाओं को
उपलब्ध थे।
ठीक, किसी
के दरबार में
तानसेन था और
किसी के दरबार
में बैजु
-बावरा था, लेकिन
अब हमें घर -घर
में तानसेन और
बैजू-बावरा को
लाना होगा। तो
ही आदमी सुखी
रह सकेगा।
अन्यी। यंत्र
सारा काम कर
लेगा, आदमी
क्या करेगा!
और खाली आदमी
खतरनाक हो
सकता है। खाली
आदमी बहुत
खतरनाक हो
सकता है।
क्योंकि उसके
भीतर सदियों
-सदियों के
दबे हुए रोग
पड़े हैं-क्रोध
के, धृणा
के, ईर्ष्या
क्, वे
उभरने लगेंगे।
इसीलिए
यंत्र से जो
चतरा है, उससे
में सावधान
करता हूं र
लेकिन यंत्र
विरोधी मैं
नहीं हूं।
यंत्र के पूरे
पक्ष में हूं।
खतरा यंत्र से
नहीं आता; खतरा
आता है आदमी
की नासमझी से।
तो आदमी को
समझदार किया
जा सकता है।
यंत्र
का दूसरा खतरा
है कि कहीं
प्रकृति को यंत्र
नष्ट न कर दे।
पश्चिम में वह
खतरा पैदा हो
गया है। ऐसी
झीलें है जो
मुर्दा हो गयी
हैं,
जिनमें
मछलियां मर
गयीं; क्योंकि
फैक्टिरियों
का इतना तेल
उन झीलों में
पहुंच गया है
कि उस तेल ने
जहर का काम
किया। समुद्र
तेल से भरे जा
रहे हैं। कबीर
ने कहा है... वह
तो समझे
उलटबांसी है,
उन्हें
क्या पता कि
आगे क्या हालत
होगी! और उन्होंने
कहा : 'एक
अचंभा मैंने
देखा नदिया
लागी आती! ' अब
लौटो महाराज!
तब तुम ऐसा न कहोगे
कि एक अचंभा
मैंने देखा
नदिया लागी
आती। नदियों
में आग लग रही
है। अब अचंभा
नहीं है यह।
क्योंकि
नदियों में
जहाजों का, कारखानों का
इतना तेल
जहुंच रहा है
कि नदियों के
ऊपर तेल की तह
जम जाती है, उसमें आग लग
जाती है।
नदिया मर रही
हैं, झीलें
मर रही हैं।
ऐसी झीलें हैं
जिनकी सारी
मछलिया मर
गयीं। और वह
झील ही क्या
जिसमें
मछलियां न
हों! उन झीलों
का पानी पिया
नहीं जा सकता,
जहरीला हो
गया है।
समुद्र में
लाखों
मछलियां कर
रही हैं, सिर्फ
इसलिए कि बहुत
तेल हमारे
जहाजों से छुट
रहा है। हवा
में इतना धुआ
फैल रहा
है-कारखानों
का, कारों
का, हवाई
जहाजों का!
जंगल काटे जा
रहे हैं, पृथ्वी
की हरियाली
नष्ट होती जा
रहे है। बस
बनते जा रहे
हैं कोलतार के
रास्ते, और
खड़ी होती जा
रही हैं
सीमेंट की
बड़ी-बड़ी आकाश
छूती हुई
गगनचुंबी
इमारतें और
शेष अब नष्ट होता
जा रहा है।
इसलिए सावधान
करना भी जरूरी
है।
लाभ तो
बहुत है
यात्रिकता के, हानिया
भी बहुत हैं!
और
बुद्धिमानी
इसमें नहब है,
जैसा गांधी कहते
हैं कि यंत्र
ही छोड़ दो। गांधी
तो कह
रहे हैं : न
रहेगा बांस न
बजेगी बासुरी।
वे तो कहते
हैं, यंत्र
को ही जाने दे
तो खतरा नहीं
रहेगा। लेकिन
यंत्र के जाने
से जो खतरे
पैदा होंगे, वे यंत्र के
खतरे से
ज्यादा बड़े
हैं। जरा सोचो
तो! बिजली न रह
जाए, ट्रेनें
न रह जाएं, सड्कों
पर कारें और
बसें न रह
जाएं, कारखाने
बंद हो जाएं, जरा साचो
सात दिन के
लिये सब बंद
हो जाएं, जैसे
विज्ञान रहा
ही नहीं, विज्ञान
ने जो भी दिया
सात दिन के
लिये बंद हो
जाए, तुम्हारी
दुनिया के
क्या स्थिति
होगी? सात
दिन में
भस्मीभूत हो
जाएगी। सात
दिन में
भस्मीभूत हो
जाएगी। सात
दिन में सब
गिर जाएगा।
तीन
दिन के लिये
अमरीगा के कुछ
नगरों में
बिजली चली गयी, तो
बस हैरानी का
अनुभव हुआ।
एकदम लूटपाट
मच गयी!
अंधेरा हो गया
तीन दिन के लिये,
रास्तों पर
गुंडे ही
गुंडे हो गये!
ये गुंडे कहां
छिपे थे, पता
ही नहीं चलता
था पहले।
बिजली की
रोशनी मैं
छिपे थे। अब
अंधेरे में
मौका मिल गया।
बलात्कार हो
गये, स्त्रिया
चुरा ली गयीं,
बच्चों की
हत्याएं हो
गयी, दुकानें
तोड़ डाली गयीं;
रास्तों पर
निकलना
खतरनाक हो गया।
बिजली चली गयी
तो जैसे
आदमियत चली
गयी। तुम जरा
सोचो, सात
दिन के लिये
सारा विज्ञान
ने जो भी दिया
है बंद हो जाए...।
तुम एकदम ऐसे
भयंकद उत्पात
में पड़ जाओगे
कि कल्पना भी
नहीं कर सकते।
एकदम लूटपाट,
आदमी का
जंगलीपन
प्रगट हो
जाएगा।
गांधी जो
कहते हैं, मैं
उसके पक्ष में
नहीं हूं।
विज्ञान ने जो
टेल्मालाजी
दी है वह बहुत
उपयोगी है।
लेकिन आदमी को
थोड़ा समझदार
होना पड़ेगा।
विज्ञान ने
टेक्वालाजी
दी है वह अभी
ऐसी है, तैसे
बच्चे हाथ में
तलवार। आदमी
उतने योव्य
नहीं है जितना
कि विज्ञान ने
उसे साधन दे
दिये हैं।
आदमी की
योग्यता बढ़नी
है; उसे
ध्यान देना है,
उसे शांति
देनी है, उसे
आनन्दमग्न
होने की
अवस्था देनी
है, उसे
थोड़ी करुणा
देनी है, उसे
थोड़ा प्रेम
देना है। वही
प्रयोग मैं यहां
कर रहा हूं? राजकिशोर!
उद्योग
के बिना तो
कोई उपाय नहीं
है,
विज्ञान के
अतिरिक्त कोई
मार्ग नहीं है,
पीछे लौटा
नहीं जा सकता।
आगे ही जाना
है! लेकिन
आदमी को इस
योग्य बनाना है
कि वह विज्ञान
के खतासे से
बच सके और
विज्ञान का
सदुपयोग कर ले।
जरूरी नहीं है
कि विज्ञान
जंगलों को
काटे। हमने
गलती से काट
डाले हैं।
विज्ञान
ने अब इस तरह
की सुविधा
जुटा दी है कि अगर
हम चाहें तो
समुद्र में
बस्तिया बस
सकती हैं, जंगल
काटने जरूरत
नहीं है।
समुद्र में
बस्तिया
तैराई जा सकती
हैं। जमीन
पैदावार के
काम में लाई
जा सकती है और
बस्तिया
समुद्र में
तैराई जा सकती
हैं। और
समुद्र काफी
बड़ा है।
पृथ्वी का
जितना हिस्सा
समुद्र के
बाहर है, उससे
बहुत ज्यादा
हिस्सा
समुद्र के
भीतर है। सारी
बस्तिया
समुद्र में
तैराई जा सकती
हैं। अब
विज्ञान ने
इसके उपाय बता
दिये हैं। अब
इसमें कोई
अड़चन नहीं है।
यही नहीं, बस्तिया
आकाश में उड़ाई
जा सकती
हैं-पूरी की
पूरी बस्तिया!
जैसे बादल
तैरते हों
आकाश में।
जमीन पूरी कह
पूरी उत्पादन मैं
लग सकती है।
ये सारे
कोलतार के
रास्ते और ये
बड़े -बड़े भवन, ये सब विदा
किये जा सकते
हैं जमीन से।
ये आकाश में
उठाये जा सकते
हैं, जहां
इनसे कोई खतरा
नहीं होगा। और
पृथ्वी एक
सुंदर उपवन हो
सकती
है-जिसमेँ तुम
उतर सकते हो
कभी-कभी आनन्द
लेने को और
फिर वापिस जा
सकते हो।
समुद्र
में और आकाश
में बस्तिया
होंगी भविष्य
में। जमीन को
तो हमें खाली
करना पड़ेगा।
इतनी बड़ी
संख्या के
लिये तभी
उत्पादन हो
सकता है।
और अब
हम चांद पर
पहुंच गये हैं।
आप नहीं कल, जो-जो
खतरनाक
उत्पादन हैं,
जिनसे कि
विषाक्त होता
है वायुमंडल,
वे चांद पर
हटाये जा सकते
हैं। जिनसे
वायुमंडल में
जहर फैलता है,
वे सब चांद
पर हटाये जा
सकते हैं।
चांद पर कोई
खतरा नहीं है
क्योंकि कोई
आदमी नहीं, कोई जानवर
नहीं, कोई
पशु-पक्षी
नहीं। अगर
अणुबम बनाना
है तो चांद पर
बनाओ, जमीन
पर बनाने की
को जरूरत नहीं
है।
यह सब
संभव है
-सिर्फ एक चीज
की कमी है और
वह यह कि
मनुष्य की
बुद्धिमत्ता
को मुक्त करो।
मनुष्य की
बुद्धिमत्ता
पर से पुराने
बंधन गिराओ; उसकी
बुद्धिमत्ता
को निखारो, तराशों, धार
धरो। उसी महत
कार्य में मैं
संलग्न हूं।
मेरे काम का
मूल्य आज नहीं
औक। जा सकता, इस मूल्य को
औकने में
सदिया लग
जाएंगी। तुम
मेरे मूल्य को
आकते हो
पुराने हिसाब
-किताब से कि शंकराचार्य
ने ऐसा किया
और बुद्ध ने
ऐसा किया और
महावीर ने ऐसा
किया, आप
ऐसा क्यों
नहीं करते हैं?
मेरे लिये
वे कोइ मापदंड
नहीं हैं। जो
बीत गया बीत
गया। उसका अब
कोई मूल्य
नहीं है।
भविष्य एक
बिलकुल नया
भविष्य
है-जिसक।
बुद्ध को कोई
अंदाज नहीं था;
जिसकी कबीर
को कल्पना
नहीं थी। वे
उसके संबंध
में सोच भी
क्या सकते थे!
उसके संबंध
में कह भी
क्या सकते थे!
बीसवीं
सदी का कोई
बुद्ध ही
भविष्य के
संबंध में कुछ
कह सकता है।
एक विराट
भविष्य हमारे
सामने है। अगर
हमने नासमझी
की तो आदमी
आत्महत्या कर
लेगा। और हमने
थोड़ी समझदारी
बरती; अगर हम
हिंदू
मुसलमान, ईसाइ
जैसी
क्षुद्रताओं
से ऊपर उठ गये;
अगर हम
भारतीय, पाकिस्तानी,
चीनी, ऐसी
बेहूदगियो से
ऊपर उठ गये; अगर हम काले -
गोरे की
नासमझीयों से
ऊपर उठ गये -तो
पृथ्वी इतना
सुरम्य
स्वर्ग बन
सकती है कि हमारी
सारी कल्पनाए
फीकी पड़ जाएं!
स्वर्ग कह जो
हमने
कल्पनाएं की
थीं, वे
फीकी पड़ सकती
हैं। शक्ति
हमारे हाथ में
हैं। समझ अभी
हमारे हाथ में
नहीं है।
राजकिशोर!
तुमने पूछा : 'एक ओर तो आप
आधूनिक यंत्र
-विधि के पक्ष
में हैं और
मानते हैं कि
धमें का फूल
औद्योगिक
दृष्टि से
उन्नत देशों
में ही
खिलेगा...।
'निश्चित
ही! क्योंकि
धर्म मनुष्य
की सर्वाधिक
ऊंची अवस्था
है।
जीवन
में एक
क्रमबद्धता
है। भूखा पेट
हो तो भजन
नहीं हो सकता।
भूखे भजन न
होहि गोपाल।।
पहले तो पेट
भरा होना
चाहिए, शरीर
पर कपड़े होने
चाहिए, छप्पर
होना चाहिए।
शरीर की जरूरत
पहली सीढ़ी है।
जिसकी शरीर को
जरूरतें पूरी
नहीं हुइ वह
ईश्वर की बागा
कर सकता है
लेकिन ईश्वर
का अनुभव नहीं
कर सकेगा।
उसकी ईश्वर की
बातें भी
सिर्फ भूखे
पेट को भरने
की बातें
होंगी। उसकी
ईश्वर की
बावें वैसी ही
होंगी जैसे
सड़क के किनारे
बैठे भिखमंगे
की बातें, जो
तुमसे कहजा है
कि दो, भगवान
तुम्हें खूब
देगा। जो
भगवान
तुम्हें खूब
देगा, वह
इसी को क्यों
नहीं खूब दे
देता? इससे
कभी पूछो भी
तो कि तू
हमारे लिये
आशीर्वाद दे
रहा है, तू
सीधे ही क्यों
नहीं मांग
लेता? हम
तुझे दें, फिर
भगवान हमें दे,
इतना चक्कर
क्यों? इतना
सरकारी
लालफीताबाजी
क्यों? तू
उसी से मांग
ले सीधा, झंझट
खत्म कर! जब
इतना बड़ा दाता
है भगवान, तो
तुझे ही दे
देगा, हम
क्यों बीच में
आएं? लेकिन
वह तुमसे मांग
रहा है कि दो
मुझे कुछ, वह
तुम्हें करोड़
गुना देगा।
उसका न तो
भगवान सच्चा
है, न उसकी
दान की बात
सच्ची है, वह
सिर्फ
तुम्हारा
शोषण कर रहा है,
तुम्हारी
धारणाओं का
शोषण कर रहा
है।
और
ध्यान रखना, भिमंगे
को जो देता है,
भिखमंगा
समझता है कि
बुद्ध है।...
खूब बनाया!
भिखमंगे आपस
में बैठकर बात
करते हैं : किस
को बनाया आज, आज किसको
फांसा, आज
कौन लुटा? जो
नहीं देता, भिखमंबा
जानता है :
होशियार आदमी
है। भिखमंगे
के मन में
सम्मान उसका
है जो नहीं
देता उसको, क्योंकि वह
देखता है कि
मेरी बातों
में नहीं आता।
लेकिन
भिखमंगे
तुम्हारे
पूराने
संस्कारों को
जगा लेते हैं।
तुम
अगर भूखे हो
तो मंदिर में
जाकर भी
मागोगे क्या? रोटी,
रोजी, कपड़ा।
तुम जरा
मंदिरों में
जाकर खड़े हो
जाओ चुपचाप और
लोगों की
प्रार्थनाएं
सुनो, लोग
क्या मांग रहे
हैं? कोई
मांग रहा है
कि बेटे को
नौकरी मिल जाए;
कोंभ मांग
रहा है पत्नी
की बीमारी ठीक
हो जाए; कोई
मांग रहा है
कि मकान मिल
जाए, मकान
नहीं मिल रहा
है। तुम भगवान
से ये चीजें
मांग रहे हो!
तुम्हारा भगवान
से कोई नाता
नहीं है। तुम
भगवान को नहीं
मांग रहे हो; तुम कुछ और
मांग रहे हो।
शरीर
की जरूरतें
पहले पूरी
होनी चाहिए।
शरीर की
जरूरतें पूरी
होती हैं तो
मन की जरूरतें
पैदा होती हैं।
मन की
जरूरतें हैं :
संगीत, कला, साहित्य। अब
जिस आदमी का
पेट भूखा है, उससे कहो :
पढ़ो कालिदास!
कि पढ़ो मेघदूत,
कि यक्ष ने
मेघदूत से
उपनी प्रेयसी
के लिये निसेदन
भेजा है! वह
कहेगा, भाड़
में जाने दो
मेघदूत और
उसकी प्रेयसी!
अगर वादल कोई
संदेश ले जाते
हों, तो
हमारा संदेश
भगवान तक
पहुंचा देना
कि रोटी कब तक
आएगी?
कल मैं
पढ़ रहा था कि
बुद्ध के
सामने सुजाता
ने जाकर खीर
की थाली रखी।
बुद्ध ने एक
कौर खीर का
लिया और थू- थू
करके थूक दिया।
कहा,
यह किस तरह
की खीर!
सूजाता ने कहा
: क्या करें महाराज,
राशन के
चावल हैं।
कालिदास, शेक्सपियर,
बायरन, रवींद्रनाथ,
इनको समझने
के लिये शरीर
तृप्त, छप्पर
हो, बगिया
हो, घर में
पुस्कतकालय
हो, वीणा
बजाने कि
सूविधा हो, रात दीया
जलाकर शांति
से बैठकर
पढ्ने का अवसर
हो, संग
-साथ हो, वैसा
वातावरण-
माहौल हो, सकति
हो, तो मजा
है! भूखे पड़े
हैं बम्बई के
रास्ते के किनारे
और पढ़ रहे हैं
मेघदूत, यह
संभव नहीं है।
जब मन
की जरूरतें
पूरी हो जाती
हैं तो आत्मा
की जरूरतें
पैदा होती हैं।
जो तृप्त हो
जाता है कला
से,
संगीत से, साहित्य से,
उनके मन में
ध्यान, प्रार्थना,
योग, तंत्र,
इन
ऊंचाइयों की
बातें आनी
शुरू होती हैं।
ये सीढ़िया हैं।
इसलिये
मैं कहता हूं
की धर्म तो जब
कोई देश समृद्ध
होता है तभी पैदा
होता है। यह
देश जब समृद्ध
था तो धर्मिक
था। अब यह देश
धार्मिक नहीं
है। लाख
तुम्हारे
शंकराचार्य
चिल्लाते
रहें। यह देश
धार्मिक नहीं
है। यह देश अब
धार्मिक अभी
हो नहीं सकता।
पहले इस देश
को इसकी मौकि
जरूरतें पूरी
होनी चाहिए, तब
यह देश
धार्मिक हो
सकता है।
धर्म
पश्चिम में
उगेगा। सूरज
पश्चिम में
ऊगेगा, पूरब
में तो डूब
चुका। हमने ही
डुबा दिया।
हमने ही
मुढ़तापूर्ण
बातें कर-करके
डुबा दिया, कि संसार
में कुछ सार
नहीं है, कि
सब माया है, कि शरीर में
क्या रखा है, यह तो
मिट्टी है!
हमने इस तरह
की बातें कर
-करके जीवन का
एक ऐसा निषेध
पैदा कर दिया
कि उस निषेध
का अंतिम परिणाम
यह हुआ कि हम
दीन हुए, दरिद्र
हुए, गुलाम
हुए, सड़
गये, गल
गये। अब इस
सड़े- गले देश
में धर्म की
बात करनी मखौल
उड़ाना है, लोगों
का मजाक करना
है। धर्म तो
औद्योगिक रूप
से संपन्नता
में ही पैदा
होगा।
तो
निश्चित ही
मैं कहता हूं
कि उन्नत
देशों में ही
धमें का सूरज
ऊ-गेगा।
और
तुमने पूछा है
: 'दूसरी तरफ
आप पश्चिम की
औद्योगिक
सभ्यता की विडंबनाओं
की बखान भी
करते हैं। ' निश्चित ही!
अगर मैं नाव
की तारीफ करता
हूं तो उसक यह
अर्थ नहीं है
कि नाव कि
छेदों की भी
तारीफ करूं।
नाव की तारीफ
करता हूं और
सचेत करता हूं
कि नाव में
छेद हों तो
उन्हें भर
लेना, अन्यथा
डूवागे, तिसने
वाली नाव ही
डुताने वाली
हो जाएगी। और
पश्चिम की नाव
में बहूत छेद
हैं। नाव तो
हैं उनके पास
कम -से -कम; हमाने
पास तो नाव ही
नहीं है, छेद
का तो सवाल ही कहां
उठता है। पजले
तो नाव होनी
चाहिए, तब
छेद हों।
पश्चिम के पास
कम -से -कम नाव
तो है! छेद
वाली है, छेद
भरे जा सकते
हैं। लेकिन
नाव ही न हो तो
क्या खाक
भरोगे!
तो उन
छेदों के
प्रति भी सचेत
करता हूं।
इसलिये एक और
प्रशंसा भी
करता हूं एक
ओर आलोचना भी
करता हूं।
मेंरी आलोचना
और मेरी
प्रशंसा में
विरोधाभास
नहीं है। मेरी
आलोचना और
प्रशंसा, दोनों
ही ऐसे हैं
जैसे तुने
कुम्हार को
कभी घड़ा बनाते
देखा? एक
हाथ से भीतर
सम्हालता है
और दूसरे हाथ
से बाहर चोट
करता है। एक
हाथ से
सम्हालता एक
से चोट करता
है, तब घड़ा
बनता है। वैसे
ही एक हाथ से
सम्हाल रहा
हूं और दूसरे
हाथ से चोट कर
रहा हूं। तुम
यह मत समझना
कि यह चोट
करते हैं और
सम्हालते हैं,
यह तो बड़ा
विरोधाभास हो
गया, इसमें
संगति कैसे
बिठाएं संगति
बिठाने की जरूरत
है नहीं, सकति
बैठ ही रही है।
इसी तरह संगति
बैठती है -एक
तरफ से
सम्हालों, एक
तरफ से चोट
करो। प्रशंसा
करो उनकी जो
सदगुण हैं और
विरोध करो उनका
जो छिद्र हैं;
ताकि हम एक
ऐसी नाव बना
सकें जो
अछिद्र हो, जो हमें उस
पार ले जा सके।
यह भी
तुमने पूछा है
: 'इसके अलावा
आप अतीत के
जिन
महापुरुषों, संतों और
भक्तों की
वाणी की
व्याख्या
करते हैं, उनमें
से कोई नहीं
मानता था कि
धर्म गरीबों
के लिए नहीं
है। इन सबकी
पारस्परिक
संगति कैसे
बिठाई जाए?
अतीत
के जिन संतों
ने जीवन जीया, अभिव्यक्ति
दी सत्य को, सत्य उतने
पर ही सीमित
नहीं है और
समाप्त नहीं
है। सत्य कभी
सीमित नहीं
होता, कभी
समाप्त नहीं
होता। सत्य
बहुत विराट है।
मेरे बाद जो
आएंगे, उन्हें
कुछ और नई
बातें कहनी
पड़ेगी, जो
मैं नहीं
कहूंगा।
क्योंकि बात
भी कहने का
समय होता है।
बुद्ध ने जो
कहा, वह
बुद्ध के समय
के लिये जरूरी
था। पच्चीस सौ
साल पहले
बुद्ध अगर वह
कहे जो मैं कह
रहा हूं तो
किसके काम आता?
हालत तो यह
है कि अभी भी
मैं कह रहा
हूं तो कितनों
के काम आ रहा
है? पच्चीस
सौ साल पहले
तो लोग हंसते,
कहते आप भी कहां
की बातें, उड़न-छू
बातें कर रहे
हैं! मैंने
कहा कि आकाश
में नगर बस
सकते हैं, समुद्र
में नगर तैर
सकते हैं।
बुद्ध
अगर ये बातें
करते, तो लोग
कहते कल्पना
की बातें हैं।
आज ये कल्पना
की बातें नहीं
हैं। अब तो
विज्ञान ने सब
स्पष्ट कर
दिया है कि यह
सब काम हो
सकते हैं।
इनमें कोई
अड़चन नहीं है।
अब चांद पर
बस्ती बस सकती
है।
बुद्ध
ने जो कहा, वह
उनके समय के
अनुकूल था-
उनके सकय की
जरूरत थी। समय
बदल गया है।
बुद्ध में जो
-जो
महत्वपूर्ण
है, वह मैं
वचा लेना
चाहता हूं।
इसीलिए बुद्ध
पर बोलता हूं।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं कि
मैं बुद्ध की
प्रत्येक बात
का समर्थक हूं।
बहुत सी बातें
अब समय-वाह्य
हो गयीं; उनकी
मैं चर्चा ही
नहीं करता।
उनका अब कोई
मूल्य नहीं है।
जैसे बुद्ध को
स्त्रियों ने
प्रार्थना की
थभ कि हमें भी
दीक्षित करें।
बुद्ध बहुत
संकोच किये।
दस साल तक
टालते रहे।
मैं जानता हूं
पच्चीस सौ साल
पहले बुद्ध ने
अगर
स्त्रियों को
दीक्षा देने
से टाला, तो
मैं समझ सकता
हूं की अड़चन।
मैं
स्त्रियों को
संन्यास देकर
जिस अड़चन में पड़
रहा हूं बुद्ध
पच्चीस सौ साल
पहले अगर
शंकित हुए हों
तो आश्चर्य
नहीं है।
बुद्ध टलते
रहे, किसी
तरह बचाने की
कोशिश की कि
स्त्रियों को
संन्यास नहीं
देना है; क्योंकि
जिस समाज मैं
जी रहे थे, वह
स्त्रीविरोधी
समाज था।
सदियों से
स्त्रियों को
दबाया गया था,
शिक्षा नहीं
दी गयी थी, अपढ़
रखा गया था, समाज के
बाहर घरों में
बंद कर दिया
गया था। उनकी
दीक्षा देनी,
उनको
संन्यास देना!
और फिर जो लोग
संन्यासी हुए
थे पुरुष के
रूप में, उनमें
से अधिक लोग
कामवासना को
दमित किये हुए
बैठे थे -यह भी
बुद्ध को साफ
था, क्योंकि
सदियों की
शिक्षा यही थी
: कामवासना को
दबाओ! तो ये
कामवासना से
उबलते हुए लोग
और इनके साथ
स्त्रियों को
संन्यास दे
देना, उपद्रव
होगा। बारूद
के पास आग हो
जाएगी। तो
टलते थे। मैं
समझता हूं
उनकी अड़चन।
लेकिन फिर भी
अंततः वे राजी
हुए। राजी हुए
अपने
बुद्धत्व के
कारण। टालते
थे लोगों की
मूढ़ता के कारण।
लेकिन
मैं नहीं
टालूगा। अब हम
एक नयी दुनिया
में रह रहे
हैं -जहां
स्त्री उदघोष
कर रही है
अपनी
स्वतंत्रता
का;
जहां
स्त्री वापिस
अपना स्थान ले
रही है; जहां
पुरुष और
स्त्री के भेद
समाप्त हो रहे
हैं। फिर, कामवासना
का दमन मेरी शिक्षा
नहीं। जो मुझे
समझेगा, उसके
लिये
स्त्री-पुरुष
का भेद ही
क्षीण हो जाता
है। हो ही
जाना चाहिए।
जिस दिन
स्त्री-पुरुष
का भेद क्षीण
हो जाए, उसी
दिन जानना कि
तुम्हारे
जीवन में
ब्रह्मचर्य
का फूल खिला।
तो मैं
बुद्ध की बहुत
-सी बातों से
राजी भी नहीं
होऊंगा। मैं
महावीर कहते
थए,
रात्रि
भोजन मत करना,
ठीक कहते थे।
रोशनी नहीं थी,
उजाला नहीं
था, लोग
अंधेरे में
भोजन करते थे-
अब भी गांव
में करते
हैं-मच्छर भी
गिर जाते हैं,
कीड़े -
मकोड़े भी गिर
जाते हैं। अगर
अहिंसा की बात
भी छोड़ दो, तो
चिकित्सा-शास्त्र
की दृष्टि से
भी उचित नहीं
है; भयानक
है। लेकिन अब
तो बिजली है।
अब तो दिन से
ज्यादा उजाला
तुम रात में
कर सकते हो।
इसलिए मैं
महातीर की इस
बात का समर्थन
नहीं करूंगा।
और फिर भभ मैं
कहूंगा कि
महावीर ने
अपने समय में
ठीक ही कहा था।
लेकिन आज बात
तिथि-बाह्य हो
गयी है।
तुमने
पूछा है, राजकिशोर,
कि आप अतीत
के जिन
महापुरुषों, संतों और
भक्तों की
वाणी की
व्याख्या
करते हैं, उनमें
कोई नहीं
मानता था कि
धर्ग गरीबों
के लिये नहीं
है।
यह
प्रश्न ही ठीक
से उठाया नहीं
गया था। यह
पश्न ही
असामयिक था।
गरीब नहीं थे
ऐसा नहीं है।
गरीब थे।
लेकिन बुद्ध
के दिन का
गरीब आज के
मध्यवर्गीय
आदमी से बेहतर
हालत में था।
गरीबी नहीं थी, गरीब
थे। बुद्ध का
मध्यवर्गीय
व्यक्ति भी आज
के समृद्ध
व्यक्ति से
ज्यादा
समृद्ध था। और
बुद्ध के
जमाने का जो
गरिब था, वब
आज के
मध्यवर्गीय
से ज्यादा
बेहतद था।
उसके कई कारण
थे। एक तो खूब
धनधान्य था, भूख का कोई
कारण नहीं था।
यह तो इसी से
प्रमाणित
होता है कि
लाखों लोग भिक्षु
हुए बुद्ध के
साथ, और
लाखों लोग
मुनि महावीर
के साथ और इन
सबको भोजन
देने की सामर्थ्य
इस देश में थी।
कोई भूखा नहीं
मरा इनमें से।
सच तो यह है कि
इनको इतना
भोजन मिला, इतना सत्कार
मिला!... देश खूब
संपन्न था।
नहीं तो इतने
भिक्षु, इतने
मुनि, इतने
संन्यासी, इनको
कौन भोजन दे, कौन कपड़े थे?
इनको
लोग इतना भोजन
-कपड़े दे देते
थे, कि बुद्ध को,
महावीर को
नियम बनाने
पड़े कि इससे
ज्यादा कपड़े
मत लेना। और
अगर कपड़े
तुम्हें नये
मिल जाएं तो
अपने पुराने
कपड़े तुम किसी
को तत्काल दान
कर देना, इकट्ठे
मत करने लगना।
नहीं तो लोग
वहब अंबार लगा
देंगे। बुद्ध
को कहना पड़ा
कि भोजन कितना
लेना, नहीं
तो लोग इतना
दे देते हैं
कि तुम ज्यादा
खा लोगे।
काफी
था धनधान्य!
गरीब कोई इस
अर्थ में गरीब
नहीं था जैसे
आज गरीब है।
हो भी नहीं
सकता था। दो
करोड़ की आबादी, इतना
बड़ा देश! फिर
इतने साधन
नहीं थे; इतनी
भोग की
सामग्री नहीं
थी। अगर
तुम्हारे पास
एक बैलगाड़ी थी,
अच्छी
छकड़ा-गाड़ी, तो तुम रईस
थे। अगर एक
अच्छा घोq।
था ज्ञानदार
तो तुम मुंछ
पर, अपनी
मुंछ पर ताव
देकर चल सकते
थे। कोई अड़चन
न थी।
तुम्हारे मन
में यह पीड़ा
नहीं उठती थी
कि अपने पास
फियेट काड़ी
नहीं है, कि
क्या बैलगाड़ी
में बैठे जा
रहे हैं! साधन
बहुत कम थे, प्रतिस्पर्धा
बहुत कम थी।
साधन ही नहीं
थे, असलिए
गरीब - अमीर के
बीच बहुत
फासला नहीं था।
इस बात को
समझने की
कोशीश करो।
अमीर भी वही
खाता था जो
गरीब खाता था।
वही गेहूं र
वही चावल, वही
घी, वही
दूध। इतना दूध।इा
कि लोग दूध को
बेचते नहीं थे।
कौन खरीदता? सबके पास
दूध था। ऐसी
अवस्था में जहां
साधन बहुत कम
थे, प्रतिस्पर्धा
कम थी, खरीदने
की दौड़ कम थी, और भोग, जरूरी
भोग के साधन
पर्याप्त थे,
गरीब का
सवाल नहीं
उठता था। आज
सवाल उठा है।
इसलिए उन
संतों और
महात्माओं ने
ऐसी कोई बात नहीं
की कि गरीबों
के लिये धर्म
नहीं। गरीब इस
अर्थ में कोई
था ही नहीं।
इसलिये धर्म
सबके लिये था।
फिर भी
मैं तुमसे यह
याद दिलाना चाहता
हूं के जैनों
के चौबीस तीथ
कर ही राजाओं
के तेटे हैं।
बुद्ध भी राजा
के बेटे हैं।
हिंदूओं के
अवतार राम और
कृष्ण भी सब
राजाओं के
बेटे हैं।
इससे क्या
सिद्ध होता है? इससे
यही सिद्ध
होता है कि
धर्म की
ऊंचाइयां उस
समय भी उन्ही
लोगों ने पाइ
जिन लोगों ने
जीवन की सारी
सुख-सुविधाएं
भोग ली थीं।
मेरी बात फिर
भी सिद्ध होती
है। जैनों के
चौबीस तीथ कर
में एकाध गरीब
आदमी क्यों
नहीं है? एकाध
दुकारदार
क्यों नहीं है?
सब
राजपुत्र
क्यों हैं? राजपुत्र ने
सारी शिक्षा
पाई, सब
सुख भोगे, महल,
सुन्दरिया,
संगीत, सुरा,
जल्दी ही उन
सबसे ऊब गया।
और जीवन का
आत्यातिक
प्रश्न उसके
समक्ष खड़ा हो
गया कि यह सब
तो आज नहीं कल
मौत छीन लेगी,
फिर क्या है?
मृत्यु के
पार क्या है? इस सब में कब
तक खोया
रहूंगा? इस
पुनरुक्ति को
दौहराने में
क्या सार क्या
है? मैं
कौन हूं? तो
जैनों, हिंदूओं
और बौद्धों, तीनों के जो
सर्बश्रेष्ठ
पुरुष हैं, वे सभी के
सभी रापजुत्र
हैं। इससे
मेरी बात को
प्रमाण मिलता
है कि धर्म की जो
आत्यंतिक
अभिव्यक्ति
है, वह तभी
होती है जब
जीवन के और सब
खेल चुक जाते
हैं, जीवन
के और सब भोग
व्यर्थ हो
जाते हैं।
मेरे
हिसाब में अगर
मनुष्य
बचा-अगद मूड राजनीतिज्ञों
ने तीसरा
महायुद्ध न
करवा दिया और
मनुष्य किसी
तरह बच सका, और
विज्ञान ने
सारी पृथ्वी
को एक कर
दिया-कर ही
दिया ही, सिर्फ
राजनीतिज्ञों
की मूढ्ताएं
हट जाएं तो पृथ्वी
एक हो गयी है-
अगर विज्ञान
के हमने लाभ उठाये
और वितान की
हानियों से हम
सावधान रहे, तो मेरे
हिसाब में
इक्कीसवीं
सदी इस पृथ्वी
पर सबसे बड़ी
धार्मिक सदी
होगी।
इक्कीसवीं
सदी इतने
बुद्धों, इतने
जिनों, इतने
सिद्धों को
पैदा करगी
जितने पूरे
मनुष्य- जाति
के इतिहास ने
कभी नहीं किये
थे। करीब-करीब
ऐसी हालत होगी
तुम्हें पता
है, इस समय
जो वैज्ञानिक
हैं पृथ्वी पर
जिंदा और पूरे
मनुष्य-जाति
के इतिहास में
जो वैज्ञानिक
हुए हैं, उनका
अगर हिसाब
लगाओ तो तुम
चकित हो
हाओगे! नब्बे
प्रतिशत
वैतानिक आज
जिंदा हैं। और
पूरे
मनुष्य-जाति
के इतिहास
में-पिदले दस हजार
साल में-केवी
दस प्रतिशत
वैज्ञानिक
हुए। और आज
नब्बे
प्रतिशत
जिंदा हैं।
क्या
हो गया? विज्ञान
का विस्फोट
हुआ है!
ठीक
ऐसे ही धर्म
के विस्फोट की
घड़ी करीब आ
रही है। नब्बे
प्रतिशत
बुद्ध जिंदा
होंगे
इक्कीसवीं
सदी में। और
अतीत के सारे
बुद्ध और सारे
जिन केवल दस
प्रतिशत की
गिनती में रह
जाएंगे।
यह एक
महान क्षण
है-महाक्रांति
का! उसकी
पूर्व -तैयारी
के लिये मैं
संन्यास का
आयोजन कर रहा
हूं। यह जो
क्षेत्र है, यह
जो बुद्ध-संघ
है, यह उस
महातैयारी के
लिये, उस
परम अवसर को
निमंत्रित
करने के लिये
है, उसे
बुद्ध- आवाहन
देने के लिये
है। यह
प्रार्थना है,
कि
इक्कीसवीं
सदी
राजनीतिज्ञों
की मुढ़ता से
बच जाए और
वितान हानिकर
सिद्ध न हो, हम इतनी
समझदारी बरत
सकें, तो
मनुष्य अपने
बसली
स्वर्णयुग के
करीब हा रहा
है। जिनको
हमने पहले
स्वर्णयुग
कहा है, वे
कुछ भी नहीं
थे, सब
फीके पड़ जाए।!
क्योंकि इतनी
ऊर्जा, इतनी
क्षमता, इतना
वितान, इतना
बोध मनुष्य के
पास कभी भी
नहीं था जितना
आज है।
अगर
तुम्हें रात
बहुत अंधेरी
मालूम होती हो, राजकिशोर,
तो घबड़ाओ मत।
इतना ही समझो
कि सुबह बहुत
करीब है। सुबह
करीब होने के
पहले रात बहुत
अंधेरी हो जाती
है। हौर मेरी
बातों में
चाहे ऊपर से
सकति न दिखाई पड़े,
लेकिन अगर
गहरी खाज
करोगे, जरा
डूबकी मारोगे,
तो एक भी
असंगति न
पाओगे।
तीसरा
प्रश्न :
भगवान!
राजनीति क्या
है?
'रवींद्र!
राजनीति
नीति नहीं है, अनीति
है। न मालूम
किन बेईमानों
ने उसे
राजनीति का
नाम दे दिया!
नीति तो उसमें
कुछ भी नहीं
है। राजनीति
है : शुद्ध
बेईमानी की
कला।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
बेटे ने उससे
पूछा कि 'पापा,
आप बड़े
राजनीति के
खेल खेलते हैं;
राजनीति
क्या है?' तो
उसने कहा कि 'शब्दों में
कहना कठिन है,
यह बड़ी
रहस्यमय बात
है। मगर अपुभव
से तुझे समझा
सकता हूं। ' उसने कहा : 'समझाइए। ' तो बेटे को
कहा : चड़ सीडी
पर। ' सीढ़ी लगी
थी दीवाल से, तो बेटा चढ़
गया।
जब ऊपर
के सोपान पर
पहूंच गया, तो
नसरुद्दीन ने
कहा : 'कुद
जा, मैं
सम्हाल लूंगा।
' जरा
झिझक।। सिढ़ी
ऊंची थी; कूदे
और पिता के
हाथ से छूट
जाए, गिर
जाए, न
समहल जाए, तो
हाथ-पैर टूट
जाए।।
नसरुद्दीन
ने कहा : ' अरे
अपने बाप पर
नहीं करता!
कूद जा, कूद
जा बेटा। ' जब
बार -बार कहा, तो बेटा कूद
गया।
नसरुद्दीन हट
कर खड़ा हो गया।
दानों घूटने
छिल कये; नाक
से खून गिरने
लगा। बेटे ने
कहा कि 'मतलब!'
तो
नसरुद्दीन ने
कहा। ' यह
राजनीति है
बेटा; अपने
बाप पर भी
भरोसा न करना।
भूल करके भी
किसी पर भरोसा
न करना-यह
पहला पाठ।
' धोखा
ही धोखा
बेईमानी ही
बेईमानी है।
गलाघोंट
प्रतियोगिता
है।
राजनीति
हिंसा और बड़ी
चालबाज हिंसा
है। कहीं खून
दिखाई नहीं
पड़ता- और खून
हो जाते हैं।
हाथ नहीं
रंगते -और
हत्याए हो
जाती हैं।
आदमी पोंछ
दिये जाते हैं, उनका
फिर पता भी
नहीं चलता, और कहीं कोई
आवाज भी नहीं
होती।
एक राह
पर नेता किसी
को अपनी फटी-पुरानी
छतरी बेचने का
प्रयत्न कर
रहे थे। लेकिन
भावी ग्राहक
छतरी की हालत
देखकर थोड़ा सकुचा
रहा था। एकदम
इनकार भी नहीं
कर सकता था।
राजनेता
कभी-कभी ताकत
में आ जाते थे।
अभी ताकत में
नहीं थे, अभी
हालत खराब थी,
खस्ता थी, इसलिए तो
छतरी बेच रहे
थे। मगर फिर
भभ थे राजनेता
और कब ताकत
में वापस आ
जाएं, कोई
कुछ कह नहीं
किता, इसलिए
वह एकदम इनकार
भी नहीं कर
सकता था।
उस
भावी ग्राहक
ने पूछा कि 'नेताजी,
छतरी की ऐसे
तो मुझे जरूरत
नहीं है, लेकिन
आपकी छतरी है,
जरूर खूबी
की होगी। इसकी
खास खूबी क्या
है? आपकी
चीज और खूबी
की न हो, ऐसा
तो हो ही नहीं
सकता। ' एक
तरफ छतरी को
देखता था, एक
तरफ नेताजी के
चेहरे को
देखता था।
छतरी की हालत
तो बिलकुल
खराब थी; वह
तो कोई मुफ्त
में भी दे तो
लेने योग्य
नहीं थी।
नेताजी ने कहा
: 'इस छतरी
में बड़ी खूबिया
हैं। अगर आप
सिर्फ एक बात
का ख्याल रखें,
तो यह छतरी
वर्षों आपके
काम आएगी। ' ग्राहक ने
पूछा : 'किस
बात का ख्याल
रखना चाहिए?' नेताजी ने
कहा : 'बस
इसे धूप और
बरसात से बचाए
रखना।
'राजनीति
शोषण है, धोखा
है, प्रवंचना
है। राजनीति
प्रवंचना का
शास्त्र है।
आश्वासन
दो और सुंदर
आश्वासन दो।
और आश्वासन
देने में डरो
मत,
क्योंकि
पूरे तो
उन्हें न कोई
करता है न
करना है। ही, पांच-सात
साल में, नये
चुनाव आने तक,
लोग तुमसे
ऊब जौके, कोई
फिक्र न करो।
तुम्हारे भाई
- भतीजे तब तक
लोगों को राजी
कर लेंगे अपने
आश्वासनों से,
वे सत्ता
में आ जाएंगे।
जनता
की स्मृति बड़ी
कमजोर है, वह
भूल ही जाती
है कि तुमने
आश्वासन दिये
थे और पूरे
नहीं किये। और
अगर चुनाव मैं
तुम्हें हरा
भी देगी, तो
तुम्हारे ही
चचेरे भाई, तुम्हारे ही
भाई-बंधु
सत्ता में बैठ
जाएंगे। वे भी
उतने ही
धोखेबाज हैं।
ऐसे राजनीति
का खेल चलता
है। और इन ओ
चक्कियों के
बीच में लोग
पिसते रहते हैं।
जैसे
राजाओं के दिन
चले गये, ऐसे
ही अब
राजनेताओं के
दिन भी जाने
चाहिए। तुम
चौकोगे सह बात
जानकर।
क्योंकि अगर
आज से कोई
पांच सौ साल
पहले यह कहता
कि एक दिन ऐसा
भी आएगा कि
राजाओं के दिन
चले जाएंगे, तो कोई भी न
मानता। कोई
मान सकता था
कि राजाअएं के
दिन और कभभ
चले जाएंगे!
यह हो ही नहीं
सकता।
राजा
तो स्वयं
परमात्मा ने
बनाये हैं। वे
तो उसकी
प्रतिछतिया
हैं। वे तो
पृथ्वी पर
उसके प्रतिनिधि
हैं। वे कैसे
चले जाएंगे? राजाओं
के बिना तो
पृथ्वी डगमगा
जाएगी। राजा
सुखी, तो
प्रजा सुखी।
राजा के बिना
तो प्रजा ही
कैसे बचेगी? यह कल्पना
के बाहर रहा
होगा। लेकिन
तुमने देखा कि
राजा चले गये।
अब सिर्फ पांच
तरह के राजा
दुनिया में
बचे हैं।
बचेंगे-पाच
तरह के राजा
बचेंगे। चार
तो ताशों के
-चिड़ी के, और
लाल, और
इर्ट के, और
पांचवां
इंग्लैंड का।
बस पांच राजा
बचेंगे।
इंग्लैंड का
राजा बचेगा, कयोंकि उसकी
स्थिति ताशों
के राजा से
भिन्न नहीं है।
बस, बाकी
सब राजा तो
गये। मैं
तुमसे यह कहता
हूं कि
राजनेता भी
जाने के करीब
हैं। उनका
वक्त भी गया।
अब घसिट रहे
हज। अब बहुत
ज्यदा देर नहब
है। उनकी
मृत्यु की घड़ी
भी करीब आ गयी
है। उन्होंने
भी खूब उपद्रव
कर लिया है।
यह सदी उनका
अंत देखेगी।
राजनेता का अब
कोई भविष्य
नहीं है, न
हो सकता है।
दुनिया
में एक और तरह
के शासन की
जरूरत है।
राजनेता का
नहीं-
विशेषज्ञ का; राजनेता
का
नहीं-वैतानिक
का; राजनेता
का
नहीं-बुद्धिमत्ता
का। और तब
दुनिया एक और
तरह की दुनिया
होगी। लेकिन
आज तो कल्पना
करनी भी कठीन
है राजनेता का
कुल धंधा इतना
है कि किसी भी
तरह तुम्हारी छाती
पर बना रहे।
और न केवल तुम्हारी
छाती पर बना
रहे, बल्कि
तुम्हें यह भी
समझाता रहे कि
अगर वह तुम्हारी
छाती से उतर
गया, तो
तुम्हारा बड़ा
नुकसान होगा।
तुम्हारे ही
हित में वह
तुम्हारी
छाती पर बैठा
है! राजनेता
का इतना ही
काम है :
तुम्हें चूसता
रहे, और
तुमसे कहता
रहे कि यह
तुम्हारे ही
हित में हो
रहा है।
एक
साहब ने एक
आलसी और
कामचोर आदमी
को नौकर रख लिया।
वह नौकर कोई
और नहीं, चुनाव
में हारा हुआ
एक नेता ही था।
एक दिन
उन्होंने
नौकर से कहा : 'जाओ, बाजार
से सब्जी ले
आओ। ' नौकर
ने कहा : 'साहब,
मैं इस शहर
में नया आया
हूं। कहीं गुम
हो जाऊंगा। ' यह सुनकर
मालिक। ने खुद
ही बाजार से
जाकर सब्जी खरीदी
और नौकर से
कहा : 'लो, अब इसे पकाओ।
' इस पर
नौकर ने कहा : 'साहब, इस
गैस के चूल्हे
की मुझे आदत
नहीं है। कहीं
सब्जी जल गयी
तो?' यह
सुनकर मालिक
ने खुद ही
सब्जी पकाकर
नौकर से कहा : ' अब खाना खा
लो! नौकर ने
बड़े सहजभाव से
कहा : 'हुजूर,
हर बात पर न
कहना अच्छा
नहीं लगता! आप
कहते हैं, तो
खा लेता हूं!' तुम
पूछते हो :
राजनीति क्या
है? जरा
चारों तरफ आंख
खोलो। जहां
धोखा देखो, समझना वहीं
राजनीति हैं।
जहां बेईमानी
देखो, वहीं
समझना
राजनीति है। जहां
जेब कटती देखो,
समझना वहीं
राजनीति है। जहां
तुम्हारी
गर्दन को कोई
दबाये और कहे
कि मैं सेवक
हूं, जन
सेवक हूं
-समझना कि
वहीं राजनीति
है।
ध्यान
रखना : गर्दन
कोई सीधी नहीं
दबाता। लोग
पैर दबाने
शुरू करते हैं।
फिर बढ़ते
-बढ़ते, बढ़ते
-बढ़ते गर्दन
तक पहुंच जाते
हैं! पजले सर्वोदय
से शुरू करते
हैं! सर्वोदय
यानी पैर
दबाओ-कि हम
सेवा करने आए
हैं। अब सेवा
करने को कोई
मना भी नहीं
करता। कि ठीक
है भाई!
सर्वोदय है, करने दो।
फिर वह बढ़ते
-बढ़ते गर्दन
दबाएगा।
लेकिन तब तक
बहुत देर हो
जाती है।
तुम्हारी
गर्दनों पर
बहुत लोग फंदे
कसे बैठे हैं।
और तुम एक
फंदे से छूटते
हो,
तो दूसरे
में गिर जाते
हो। तुम एक
जेल से निकलते
हो, दूसरी
जेल में भर्ती
हो जाते हो।
राजनीति
की व्यर्थता
को समझो। और
राजनेता को
इतना आदर देना
बंद करो। क्या
कारण है कि
राजनेता इतना
सिर पर उठाये
फिरते हो? यह
क्षुद्र, क्रूर
शक्ति की पूजा
है। यह हिंसक
संगीनों की
पूजा हैं।
राजनेता की
ताकत क्या है?
क्योंकि अब
संगीनें उसके
आथ में हैं।
सत्ता
की पूजा
तुम्हारे
भीतर इस बात
की खबर देती
है कि न तो
तुम्हें
संस्कार है, न
तुम्हें समझ
है।
आने दो
राजनेताओं को, जाने
दो राजनेताओं
को। उपेक्षा
करो। राजनेताओं
की जितनी
उपेक्षा की
जाए, उतना
अच्छा है-कि
मोरारजी
देसाई आयें, तो न कोई भीड़
इकट्ठी हो, न कोई
फूलमालाए
पहनाये। आयें
और चले जाएं!
तो उनको पता
चले कि गये
दिन; लद
गये दिन! मगर
तुम हो
तमाशबीन। तुम
चले! जहां भीड़
चली वहां तुम चले!
और तुम्हारी
भीड़ शक्ति
देती है
राजनेताओं को।
इस भीड़ को
विदा करो।
कहीं
सत्संग में
बैठो। कहीं
कोई हरिगुण
गाता हो, वहां बैठो।
कहीं राम की
चर्चा होती हो,
वहां बैठो।
कहीं चार
दीवाने बैठकर
प्रभू -चर्चा
में संलग्न
हों, वहां डूबो।
कुछ प्रेम के
गीत गाओ। कुछ
करुणा के
कृत्य करो।
कुछ ध्यान में
डुबकी लगाओ।
समय ऐसी जगह
गइआ। राजनीति
को अपेक्षित
करो; उपेक्षा
दो। इसी को
मैं विद्रोह
कहता हुं।
मैं
राजनीति के
विपरीत क्रांति
नहीं सिखाता; विद्रोह
सिखाता हूं।
राजनीति की
तरफ से पीठ
मोड़ लो। ये
राजनेता अपने
- आप उदास और
व्यर्थ हो
जाएं। इनको
पता चल जाए कि
लोगों को अब
कोई रस नहीं
रहा।
तुम्हारा
जितना रस
इनमें कम हो
जायेगा, उतना
ही इनका बल कम
हो जाएगा।
जितना इनका बल
कम हो जाएगा, उतना
राजनीति कि
तरफ दौड़ने
वाले लोगों की
संख्या कम हो
जाएगी और धीरे
- धीरे अपने
जीवन को अपने
हाथ में लो।
मैं
राज्य की
सत्ता के पक्ष
में नहीं हूं।
असलिए मैं
समाजवार
-विरोधी हूं।
समाजवाद
-विरोधी इसलिए
नहीं हूं कि
मैं नहीं चाता
कि गरीब
दुनिया में
मिट न जाएं।
समाजवाद-विरोधी
इसलिए हूं कि
समाजवाद
राजनेता के
हाथ में पूरी
सत्ता दे देता
है। मैं चाहता
हूं कि लोग
सत्ता को अपने
हाथ में वापस
ले लें।
जिंदगी अपनी
है,
उसे जियो; जितने सुंदर
ढंग से जी सको,
जियो। उसे
राज्य पर मत
छोड़ो।
और
राज्य के हाथ
में शक्ति को
इकट्ठा मत
होने दो।
राज्य की
इच्छा यही है
कि बैंकों का
भी राष्ट्रीयकरण
हो जाए, कारखानों
का भी
राष्ट्रीयकरण
हो जाए, जमीनों
का भी
राष्ट्रीयकरण
हो जाए। और आज
नहीं कल वे
कहेंगे कि
लागों का भी
राष्ट्रीकरण
हो जाए! वही हो
रहा है।
मैं
स्वतंत्रता
का पक्षपाती
हूं। कोई चीज
के
राष्ट्रीयकरण
की आवश्यकता
नहीं है।
लोगों को
मुक्त करो।
द्वार खोलो
देश के, सारी
दुनिया के
लोगों को
निमंत्रित
करो कि आओ, सहयोग
दो। अपना
विज्ञान लाओ।
अपना उद्योग
लाओ। अपनी
तकनीक लाओ।
अपना धन लाओ।
दुनिया में धन
है बहुत।
अमरिका
ने अरबों -
खरबों डालर
सारी दुनिया
में लगा रखे
हैं। भारत में
केवल एक
प्रतिशत
अमरीकी पूंजी
है,
जबकि भारत
में कम -से -कम
बीस प्रतिशत
होनी चाहिए। मगर
हम दरवाजे
नहीं खोलते।
हम ऐसे भयभीत
हैं!
यह देश
संपन्न हो
सकता है, सुख
से भर सकता है।
यह सारी
पृथ्वी
संपन्न हो
सकती है, सुख
से भर सकती है।
लेकिन धीरे -
धीरे इसकी
बागडोर
वैज्ञानिक, दार्शनिक, संत के हाथ
में जानी
चाहिए।
राजनेता
चूनाव में खड़े
हुए हैं। किसी
मतदाता से वोट
मांग रहे हैं।
मतदाता ने
पूछा : 'क्या आप
किसी
जिम्मेदार
व्यक्ति का
नाम बता सकते
हैं, जिससे
आपके चाल-चलन
के बारे में
पता लगाया जा सके?'
'क्यों नहीं
', राजनेता
ने कहा, 'यहीं
के थानेदार से
पूछ लो, जिन्होंने
मुझे मेरे
अच्छे चाल-
चीन के लिए
तीन माह पहले
ही छोड़ दिया
था!'
सब तरह
के अपराधी
राजनीति के झेंडे
के नीचे
इकट्ठे हैं।
राजनीति
अपराधों को
सुंदर -सुंदर
रंग और सुंदर
-सुंदर मुखौटे
पहनाने की कजा
है। तुम मुझसे
पूछते हो
रवींद्र, राजनीति
क्या है? उससे
पूछते हो, जिसको
राजनीति का क
ख ग। भी पता
नहीं! ऐसे
कठिन प्रश्न
मुझसे मत पूछा
करो; इनमें
मेरा रस नहीं
है। मुझसे
पूछो : धर्म
क्या है? मुझसे
पूछो : जीवन
क्या है? मुझसे
पूछो : प्रेम
क्या है? मुझसे
पुछो :
परमात्मा
क्या है?
आज
इतना ही।
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