15
सितंबर, 1976
ओशो
आश्रम पूना।
अष्टावक्र
उवाच।
देहाभिमानपाशेन
चिरं बद्धोsसि
पत्रक ।
बोधोsहं
ज्ञानखंगेन
तन्निष्कृत्य
सुखी भव ।।14।।
नि:संगो
निष्क्रियोउसि
त्वं
स्वप्रकाशो
निरंजन:?
अयमेव
हि ले बंध:
समाधिमनुतिष्ठसि
।।15।।
त्वया
व्याप्तमिदं
विश्व त्वयि
प्रोतं यथार्थत:
।
शुद्धबुद्ध
स्वरूपस्त्वं
मागम:
क्षुद्रचित्तताम्
।।16।।
निरपेक्षो
निर्विकारो
निर्भर:
शीतलाशय:।
अगाध
बुद्धिरक्षुब्धो
भव
चिन्यात्रवासन:
।।17।।
साकारमनृतं
विद्धि
निराकारं तु
निश्चलम् ।
एतत्तत्वोपदेशेन
न पुनर्भवसंभव
।।18।।
यथैवादर्शमध्यस्थे
रूपेन्त: परितस्तम:
।
यथैवास्थिन्
शरीरेsन्तः परित
परमेश्वर:
।।19।।
एकं
सर्वगतं
व्योम
बहिरंतर्यथा
घटे ।
पहला
सूत्र
अष्टावक्र
ने कहा, 'हे
पुत्र! तू
बहुत काल से
देहाभिमान के
पाश में बंधा
हुआ है। उस
पाश को मैं
बोध हूं,
इस ज्ञान की
तलवार से काट
कर तू सुखी हो!'
अष्टावक्र
की दृष्टि में—और
वही शुद्धतम
दृष्टि है, आत्यंतिक
दृष्टि है—बंधन
केवल मान्यता
का है। बंधन
वास्तविक
नहीं है।
रामकृष्ण
के जीवन में
ऐसा उल्लेख है
कि जीवन भर तो
उन्होंने मां
काली की पूजा—
अर्चना की, लेकिन
अंततः अंतत:
उन्हें लगने
लगा कि यह तो द्वैत
ही है, अभी
एक का अनुभव
नहीं हुआ।
प्रीतिकर है,
सुखद है, लेकिन अभी
दो तो दो ही
बने हैं। कोई
स्त्री को
प्रेम करता, कोई धन को
प्रेम करता, कोई पद को, उन्होंने
मां काली को
प्रेम किया—लेकिन
प्रेम अभी भी
दो में बंटा
है; अभी
परम अद्वैत
नहीं घटा।
पीड़ा होने लगी।
तो वे
प्रतीक्षा
करने लगे कि
कोई
अद्वैतवादी, कोई वेदांती,
कोई ऐसा
व्यक्ति आ
जाये जिससे
राह मिल सके।
एक
परमहंस, 'तोतापुरी'
गुजरते थे,
रामकृष्ण
ने उन्हें रोक
लिया और कहा, मुझे एक के
दर्शन करा दें।
तोतापुरी ने
कहा, यह
कौन—सी कठिन
बात है? दो
मानते हो, इसलिए
दो हैं।
मान्यता छोड़
दो! पर
रामकृष्ण ने
कहा, मान्यता
छोड़नी बड़ी
कठिन है। जन्म
भर उसे साधा। आंख
बंद करता हूं
काली की
प्रतिमा खड़ी
हो जाती है।
रस में डूब
जाता हूं। भूल
ही जाता हूं
कि एक होना है।
आंख बंद करते
ही दो हो जाता
हूं। ध्यान
करने की
चेष्टा करता
हूं द्वैत हो
जाता है। मुझे
उबासे!
तो
तोतापुरी ने
कहा,
ऐसा करो जब
काली की
प्रतिमा बने
तो उठाना एक तलवार
और दो टुकडे
कर देना।
रामकृष्ण ने
कहा, तलवार
वहां कहां से
लाऊंगा?
तो
जो तोतापुरी
ने कहा, वही
अष्टावक्र का
वचन है।
तोतापुरी ने
कहा, यह
काली की
प्रतिमा कहां
से ले आये हो? वहीं से
तलवार भी ले
आना। यह भी
कल्पना है।
इसे भी कल्पना
से सजाया—
संवारा है।
जीवन भर साधा
है। जीवन भर
पुनरुक्त
किया है, तो
प्रगाढ़ हो गई
है। यह कल्पना
ही है। सभी को आंख
बंद करके काली
तो नहीं आती।
ईसाई
आंख बंद करता
है,
वर्षों की
चेष्टा के बाद,
तो
क्राइस्ट आते
हैं। कृष्ण का
भक्त आंख बंद करता
है तो कृष्ण
आते हैं।
बुद्ध का भक्त
आंख बंद करता
है तो बुद्ध
आते हैं।
महावीर का
भक्त आंख बंद
करता है तो
महावीर आते
हैं। जैन को
तो क्राइस्ट
नहीं आते।
क्रिश्चियन
को तो महावीर
नहीं आते। जो
तुम कल्पना
साधते हो वही
आ जाती है।
रामकृष्ण
ने काली को
साधा है तो
कल्पना प्रगाढ़
हो गई है। बार—बार
पुनरुक्ति से, निरंतर—निरंतर
स्मरण से
कल्पना इतनी
यथार्थ हो गई
है कि अब लगता
है काली सामने
खड़ी है। कोई
वहां खड़ा नहीं।
चैतन्य अकेला
है। यहां कोई
दया नहीं है, दूसरा नहीं
है।
तुम
आंख करो बद—तोतापुरी
ने कहा—उठाओ
तलवार और तोड़
दो।
रामकृष्ण
आंख बंद करते, लेकिन
आंख बंद करते ही
हिम्मत खो
जाती : तलवार
उठाये, काली
को तोड़ने को!
भक्त भगवान को
काटने को तलवार
उठाये, यह
बड़ी कठिन बात
है!
संसार
छोड़ना बड़ा सरल
है। संसार में
पकड़ने योग्य
ही क्या है? लेकिन
जब मन की किसी
गहन कल्पना को
खड़ाकर लिया हो,
मन का कोई
काव्य जब
निर्मित हो
गया हो, मन
का स्वप्न जब
साकार हो गया
हो, तो
छोड़ना बड़ा
कठिन है।
संसार तो दुख—स्वप्न
जैसा है।
भक्ति के
स्वप्न, भाव
के स्वप्न दुख—स्वप्न
नहीं हैं, बड़े
सुखद स्वप्न
हैं। उन्हें
छोड़े कैसे, तोड़े कैसे?
आंख
से आंसू बहने
लगते। गदगद हो
जाते। शरीर
कंपने लगता।
मगर वह तलवार
न उठती। तलवार
की याद ही भूल
जाती। आखिर
तोतापुरी ने
कहा,
बहुत हो गया
कई दिन बैठकर।
ऐसे न चलेगा।
या तो तुम करो
या मैं जाता
हूं। मेरा समय
खराब मत करो।
यह खेल बहुत
हो गया।
तोतापुरी
उस दिन एक
कांच का टुकड़ा
ले आया। और
उसने कहा कि
जब तुम मगन
होने लगोगे, तब
मैं तुम्हारे
माथे को कांच
के टुकड़े से
काट दूंगा। जब
मैं यहां
तुम्हारा
माथा काटू तो
भीतर एक दफा
हिम्मत करके
उठा लेना
तलवार और कर
देना दो टुकड़े।
बस यह आखिरी
है, फिर
मैं न रुकूंगा।
तोतापुरी की
धमकी जाने की,
और फिर वैसा
गुरु खोजना
मुश्किल होता!
तोतापुरी
अष्टावक्र
जैसा आदमी रहा
होगा। जब
रामकृष्ण आंख
बंद किये, काली
की प्रतिमा
उभरी और वे
मगन होने को
ही थे, आंख
से आंसू बहने
को ही थे, उद्रेक
हो रहा था, उमंग
आ रही थी, रोमांच
होने को ही था,
कि
तोतापुरी ने
लिया माथे पर
जहां आज्ञा—चक्र
है, वहां
लेकर ऊपर से
नीचे तक कांच
के टुकड़े से
माथा काट दिया।
खून की धार बह
गई। हिम्मत उस
वक्त भीतर
रामकृष्ण ने
भी जुटा ली।
उठा ली तलवार,
दो टुकड़े कर
दिये काली के।
काली वहां
गिरी कि
अद्वैत हो गया,
कि लहर खो
गई सागर में, कि सरिता
उतर गई सागर
में। फिर तो
कहते हैं, छह
दिन उस परम
शून्य में
डूबे रहे। न
भूख रही न
प्यास; न
बाहर की सुध
रही न बुध, सब
भूल गये। और
जब छह दिन के
बाद आंख खोली
तो जो पहला
वचन कहा वह
यही—आखिरी
बाधा गिर गई! द
लास्ट बैरियर
हैज फालन।
यह
पहला सूत्र
कहता है : हे पुत्र!
तू बहुत काल
से देहाभिमान
के पाश में बंधा
हुआ,
उस पाश को
ही अपना
अस्तित्व
मानने लगा है।
मैं
देह हूं! मैं
देह हूं!! मैं
देह हूं!!! —ऐसा
जन्मों—जन्मों
तक दोहराया है; दोहराने
के कारण हम
देह हो गये
हैं। देह हम
हैं नहीं; यह
हमारा अभ्यास
है। यह हमारा
अभ्यास है, यह हमारा
आत्म— सम्मोहन
है। हमने इतनी
प्रगाढ़ता से
माना है कि हम
हो गये हैं।
रामकृष्ण
के जीवन में
एक और उल्लेख
है। उन्होंने
सभी धर्मों की
साधनाएं की
हैं। वे अकेले
व्यक्ति थे
मनुष्य—जाति
के इतिहास में
जिन्होंने
सभी धर्मों के
मार्ग से सत्य
तक जाने की
चेष्टा की।
साधारणत:
व्यक्ति
पहुंच जाता है
एक मार्ग से; फिर
कौन फिक्र
करता है दूसरे
मार्गों की!
तुम पहाड़ की
चोटी पर पहुंच
गये; फिर
दूसरी
पगडंडियां भी
लाती हैं या
नहीं लाती हैं,
कौन फिक्र
करता है—
पहुंच ही गये।
जो पगडंडी ले
आई, ले आई; बाकी लाती
हों न लाती
हों, प्रयोजन
किसे है!
लेकिन
रामकृष्ण बार—बार
पहाड़ की चोटी
पर पहुंचे, फिर—फिर
नीचे उतर आये।
फिर दूसरे
मार्ग से चढ़े।
फिर तीसरे
मार्ग से चढ़े।
वे पहले
व्यक्ति हैं,
जिन्होंने
सभी धर्मों की
साधना की और
सभी धर्मों से
उसी शिखर को
पा लिया।
समन्वय
की बात बहुतों
ने की थी—रामकृष्ण
ने पहली दफा
समन्वय का
विज्ञान निर्मित
किया। बहुत
लोगों ने कहा
था,
सभी धर्म सच
हैं; लेकिन
वह बात की बात
थी—रामकृष्ण
ने उसे तथ्य
बनाया; उसे
अनुभव का बल
दिया; अपने
जीवन से
प्रमाणित
किया। जब वे
इस्लाम की
साधना करते थे
तो वे ठीक
मुसलमान फकीर
हो गये। वे
भूल गये राम—कृष्ण,
'अल्लाहू—अल्लाहू
की आवाज लगाने
लगे; कुरान
की आयतें
सुनने लगे। एक
मस्जिद के
द्वार पर ही
पड़े रहते थे।
मंदिर के पास
से निकल जाते,
आंख भी न
उठाते, नमस्कार
तो दूर रही।
भूल गये काली
को।
बंगाल
में एक
संप्रदाय है :
सखी—संप्रदाय।
जब रामकृष्ण
सखी—संप्रदाय
की साधना करते,?. सखी—संप्रदाय
की मान्यता है
कि परमेश्वर
ही पुरुष है, बाकी सब
स्त्रियां; परमेश्वर
कृष्ण है, बाकी
सब उसकी
सखियां हैं।
तो सखी—संप्रदाय
का पुरुष भी
अपने को
स्त्री ही मान
कर चलता है।
लेकिन जो घटना
रामकृष्ण के
जीवन में घटी
वह किसी सखी—संप्रदाय
की मान्यता
वाले व्यक्ति
को कभी नहीं
घटी थी। पुरुष
मान ले अपने
को ऊपर—ऊपर से
स्त्री हूं
भीतर तो पुरुष
ही बना रहता है,
जानता तो है
कि मैं पुरुष
ही हूं। तो
सखी—संप्रदाय
के लोग कृष्ण
की मूर्ति को
लेकर रात बिस्तर
पर सो जाते।
वही पति हैं।
लेकिन इससे
क्या फर्क
पड़ता है?
लेकिन
जब रामकृष्ण
ने साधना की
तो अभूतपूर्व घटना
घटी। बड़े—बड़े
वैज्ञानिकों
को भी चकित कर
दे,
ऐसी घटना
घटी। छह महीने
तक उन्होंने
सखी—संप्रदाय
की साधना की।
तीन महीने के
बाद उनके स्तन
उभर आये; उनकी
आवाज बदल गई; वे
स्त्रियों
जैसे चलने लगे,
स्त्रियों
जैसी उनकी
मधुर वाणी हो
गई। स्तन उभर
आये, स्त्रियों
जैसे स्तन हो
गये! शरीर का
पुरुष—ढांचा
बदलने लगा।
मगर
इतना भी संभव
है,
क्योंकि
स्तन होते तो
पुरुष को भी
हैं; अविकसित
होते हैं।
स्त्री के
विकसित होते
हैं। तो हो
सकता है, अविकसित
स्तन विकसित
हो गये हों। बीज
तो है ही। यहां
तक कोई बहुत
बड़ी घटना नहीं
घटी। बहुत
पुरुषों के
स्तन बढ़ जाते
हैं। यह कोई
बहुत
आश्चर्यजनक
बात नहीं।
लेकिन छह
महीने पूरे
होते—होते
उनको मासिक—धर्म
शुरू हो गया।
तब चमत्कार की
बात थी! मासिक—धर्म
का शुरू हो
जाना तो शरीर
के पूरे
शास्त्र के प्रतिकूल
है। ऐसा तो
कभी किसी
पुरुष को न
हुआ था।
यह
छह महीने में
क्या हुआ? एक
मान्यता कि
मैं स्त्री
हूं—यह
मान्यता इतनी
प्रगाढ़ता से
की गई, यह
भाव इतने गहरे
तक गुंजाया
गया, यह
रोएं—रोएं में,
कण—कण में
शरीर के गुंजने
लगा कि मैं
स्त्री हूं!
इसका विपरीत
भाव न रहा।
पुरुष की बात
ही भूल गई। तो
घटना घट गई।
अष्टावक्र
कह रहे हैं : हम
देह नहीं हैं; हमने
माना तो हम
देह हो गये
हैं। हमने जो
मान लिया, हम
वही हो गये
हैं। संसार
हमारी
मान्यता है।
और मान्यता
छोड़ दी तो हम
तत्सण
रूपांतरित हो सकते
हैं। छोड़ने के
लिए किसी
यथार्थ को
बदलना नहीं है;
सिर्फ एक
धारणा को छोड़
देना है। हम
वस्तुत: अगर
शरीर होते बदलाहट
बड़ी मुश्किल
थी। हम
वस्तुत: शरीर
नहीं हैं। हम
वस्तुत: तो
शरीर के भीतर
छिपा जो
चैतन्य है, वही हैं—वह
साक्षी, द्रष्टा
है।
देहाभिमानपाशेन
चिरं
बद्धोउसि
पुत्रक।
बोधोउहं
ज्ञानखंगेन
तन्निबष्कृत्य
सुखी भव ।।
उठा
बोध की तलवार! 'बोध—रूप
हूं—उठा ऐसे
भाव की तलवार
और काट डाल इस
धारणा को कि
मैं देह हूं।
फिर सुखी है।
सारे
दुःख देह के
है। जन्म है, बीमारी
है, बुढ़ापा
है, मृत्यु
है—सभी देह के
हैं। देह के
साथ तादात्म
है तो देह की सारी
पीड़ाओं के साथ
भी तादात्म्य
है। जब देह
जराजीर्ण
होती है तो हम
सोचते हैं, मैं
जराजीर्ण हो
गया। जब देह
बीमार होती है
तो हम सोचते
हैं, मैं
बीमार हो गया।
जब देह मरण के
निकट पहुंचती
है तो हम
घबड़ाते हैं कि
मैं मरा।
मान्यता—सिर्फ
मान्यता!
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन एक
रात सोया अपनी
पत्नी के साथ।
तब तक उसे कोई
बेटा—बेटी न
हुए थे। और
पत्नी को बड़ी
आतुरता थी कि
कोई बच्चा हो
जाये। सोने ही
जा रहे थे कि
पत्नी ने कहा
कि सुनो तो, अगर हमारे
घर बेटा हो
जाये तो
सुलायेंगे कहां?
क्योंकि एक
ही बिस्तर है।
तो
मुल्ला थोड़ा
किनारे सरक
गया। उसने कहा
कि हम बीच में
सुला लेंगे।
और पत्नी ने
कहा कि दूसरा
और हो जाए?
तो मुल्ला
थोड़ा और सरक
गया, उसने
कहा उसको भी
यही सुला
लेंगे। कंजूस
आदमी! पत्नी
ने कहा, अगर
तीसरा हो जाये? तो मुल्ला
और सरका और
कहने ही जा
रहा था कि यहां
सुला लेंगे कि
धड़ाम से नीचे
गिरा। उसकी
टांग टूट गई।
पड़ोस के लोग
इकट्ठे हो गये
शोरगुल सुनकर।
वह चिल्लाया,
रोने लगा।
पड़ोस के लोगों
ने पूछा, क्या
हुआ? उसने
कहा, जो
बेटा अभी हुआ
ही नहीं उसने
टांग तोड़ दी।
और जब मिथ्या
बेटा इतना
नुकसान कर
सकता है तो सच्चे
बेटे का क्या
कहना! क्षमा
मांगता हूं
बेटा—वेटा
चाहिए ही नहीं।
इतना अनुभव
बहुत है।
कभी—कभी, कभी—कभी
क्या, अक्सर
हम ऐसे ही
जीते हैं—मान
लेते हैं, फिर
मान कर चलने
लगते हैं। मान
कर चलने लगते
हैं तो जीवन
में वास्तविक
परिणाम होने
लगते हैं, मान्यता
चाहे झूठी हो।
बेटे वहां थे
नहीं, लेकिन
टांग असली टूट
गई। झूठ का भी
परिणाम सच हो
सकता है। अगर
झूठ भी
प्रगाढ़ता से
मान लिया जाये
तो उसके
परिणाम
यथार्थ में
घटित होने
लगते हैं।
मनस्विद
कहते हैं कि
इस जगत में
जितनी भिन्नताएं
दिखाई पड़ती
हैं,
ये
भिन्नताएं
यथार्थ की कम
हैं, मान्यता
की ज्यादा हैं।
एक
मनोवैज्ञानिक
हारवर्ड
विश्वविद्यालय
में प्रयोग कर
रहा था। वह एक
बडी बोतल ठीक
से बंद की हुई, सब
तरह से पैक की
हुई लेकर कमरे
में आया, अपनी
क्लास में।
कोई पचास
विद्यार्थी
हैं। उसने वह
बोतल टेबल पर
रखी और उसने
विद्यार्थियों
को कहा कि इस
बोतल में अमोनिया
गैस है। मैं
एक प्रयोग
करना चाहता
हूं कि
अमोनिया गैस
का जैसे ही
ढक्कन खोलूंगा
तो उस गैस की
सुगंध कितना
समय लेती है
पहु्ंचने में
लोगों तक। तो
जिसके पास
पहुंचने लगे
सुगंध वह हाथ
ऊपर ऊठा दे।
जैसे ही सुगंध
का उसे पता
चले, हाथ
ऊपर उठा दे।
तो मैं जानना
चाहता हूं कि
कितने सेकेंड लगते
हैं कमरे की
आखिरी पंक्ति
तक पहुंचने में।
विद्यार्थी
सजग होकर बैठ
गये। उसने
बोतल खोली।
बोतल खोलते ही
उसने जल्दी से
अपनी नाक पर
रुमाल रख लिया।
अमोनिया गैस!
पीछे हटकर खड़ा
हो गया। दो
सेकेंड नहीं
बीते होंगे कि
पहली पंक्ति
में एक आदमी
ने हाथ उठाया, फिर
दूसरे ने, फिर
तीसरे ने; फिर
दूसरी पंक्ति
में हाथ उठे, फिर तीसरी
पंक्ति में।
पंद्रह
सेकेंड में
पूरी क्लास
में अमोनिया गैस
पहुंच गई। और
अमोनिया गैस
उस बोतल में
थी ही नहीं; वह खाली
बोतल थी।
धारणा—तो
परिणाम हो
जाता है। मान
लिया तो हो
गया! जब उसने
कहा,
अमोनिया
गैस इसमें है
ही नहीं, तब
भी
विद्यार्थियों
ने कहा कि हो
या न हो, हमें
गंध आई। गंध
मान्यता की आई।
गंध जैसे भीतर
से ही आई, बाहर
तो कुछ था ही
नहीं। सोचा तो
आई।
मैंने
सुना है, एक
अस्पताल में
एक आदमी बीमार
है। एक नर्स
उसके लिए रस
लेकर आई—
संतरे का रस।
उस रस लाने
वाली नर्स के
पहले ही दूसरी
नर्स उसे एक
बोतल दे गई थी
कि इसमें अपनी
पेशाब भरकर रख
दो—परीक्षण के
लिए। वह थोड़ा
मजाकिया आदमी
था। उसने उस
बोतल में
संतरे का रस
डाल कर रख
दिया। जब वह
नर्स लेने आई
बोतल तो वह
जरा चौंकी, क्योंकि यह
रंग कुछ अजीब—सा
था। तो उस
आदमी ने कहा, तुम्हें भी
हैरानी होती
है, रंग
कुछ अजीब—सा
है। चलो मैं
इसे एक दफा और
शरीर में से
गुजार देता हूं
रंग ठीक हो
जायेगा—वह
उठाकर बोतल और
पी गया। कहते
हैं, वह
नर्स बेहोश
होकर गिर पड़ी।
क्योंकि उसने
तो यही सोचा
कि यह आदमी
पेशाब पीये जा
रहा है! फिर से
कहता है कि एक
दफा और निकाल
देते हैं शरीर
से तो रंग
सुधर जायेगा,
ढंग का हो
जायेगा। यह
आदमी कैसा है!
लेकिन वहां
केवल संतरे का
रस था। अगर
पता हो कि
संतरे का ही
रस है तो कोई
बेहोश न हो
जायेगा; लेकिन
यह बेहोशी
वास्तविक है।
यह मान्यता की
है। तुम जीवन
में चारों तरफ
ऐसी हजारों
घटनाएं खोज ले
सकते हो, जब
मान्यता काम
कर जाती है, मान्यता
वास्तविक हो
जाती है।
मैं
शरीर हूं,
यह जन्मों—जन्मों
से मानी हुई
बात है; मान
ली तो हम शरीर
हो गये। मान
ली तो हम
क्षुद्र हो
गये। मान ली
तो हम सीमित
हो गये।
अष्टावक्र
का मौलिक आधार
यही है कि यह
आत्म—सम्मोहन
है,
आटो—हिप्नोसिस
है। तुम शरीर
हो नहीं गये
हो, तुम
शरीर हो नहीं
सकते हो। इसका
कोई उपाय ही
नहीं है। जो
तुम नहीं हो, वह कैसे हो
सकते हो? जो
तुम हो, तुम
अभी भी वही हो।
सिर्फ झूठी
मान्यता को
काट डालना है।
'उस पाश को, मैं बोध हूं, इस ज्ञान की
तलवार से
काटकर तू अभी
सुखी हो जा।’
ज्ञानखंगेन
तत्
निष्कृत्य
त्वं सुखी भव!
अभी
सुख को जगा ले, क्योंकि
सारे दुख
हमारे उस
मान्यता के
पिछलग्गू हैं
कि हम देह हैं।
बुद्ध भी मरते
हैं, लेकिन
मृत्यु की कोई
पीड़ा नहीं है।
रामकृष्ण भी
मरते हैं, लेकिन
मृत्यु की कोई
पीड़ा नहीं है।
रमण भी मरते
हैं, लेकिन
मृत्यु की कोई
पीड़ा नहीं है।
रमण
जब मरे तो
उन्हें कैंसर
था। चिकित्सक
बहुत चकित थे।
बड़ी कठिन
बीमारी थी।
बड़ी पीड़ादायी
बीमारी थी।
लेकिन रमण
वैसे ही थे जैसे
थे,
जैसे
बीमारी ने कोई
भेद ही नहीं
लाया, कहीं
कोई अंतर ही
नहीं पड़ा।
चिकित्सक
परेशान थे कि
यह असंभव है।
यह हो कैसे
सकता है! मौत
द्वार पर खड़ी
है और आदमी
अविचलित है।
चिकित्सकों
की बेचैनी हम
समझ सकते हैं।
इतनी पीड़ा हो
रही है और
आदमी अविचलित
है, निस्तरंग
है! उनकी
बेचैनी, उनका
तर्क हम समझ
सकते हैं; क्योंकि
शरीर ही हमारे
लिए सब कुछ
मालूम होता है।
जिसको पता चल
गया कि मैं
शरीर नहीं
हूं. मौत आ रही
है लेकिन शरीर
को आ रही है।
और पीड़ा हो
रही है, वह
भी शरीर में
हो रही है। एक
नये चैतन्य का
आविर्भाव हुआ
है जो दूर खड़े होकर
देख रहा है।
और दूरी शरीर
की और चेतना
की इतनी है
जैसे जमीन और
आसमान की दूरी।
इससे बड़ी कोई
दूरी नहीं है।
तुम्हारे
भीतर दुनियां
में अस्तित्व
की सबसे दूर
की चीजें मिल
रही हैं। तुम
क्षितिज हो, जहां जमीन
और आसमान मिल
रहे हैं।
जायते
अस्ति
वर्द्धते,
विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति।
'जो उत्पन्न
होता है, स्थित
है, बढ़ता
है, बदलता
है, क्षीण
होता है और
नाश हो जाता
है, वह तू
नहीं है।’
जो
इन सबको देखता
है. बचपन देखा
तुमने; फिर
बचपन को जाते
भी देखा! अगर
तुम बचपन ही
होते तो आज
याद भी कौन
करता कि बचपन
था? तुम
बचपन के साथ
ही चले गये
होते। जवानी
देखी। जवानी
आते देखी, जाते
देखी। अगर तुम
जवानी ही होते
तो आज कौन याद
करता? तुम
जवानी के साथ
ही चले गये
होते। तुमने
जवानी आते
देखी, जाते
देखी—स्वभावत:
तुम जवानी से
भिन्न हो।
इतनी सीधी—सी
बात है, इतनी
साफ—सुथरी बात
है! तुमने
पीड़ा देखी, दर्द उठते
देखा, दर्द
के बादल घिरते
देखे अपने
चारों तरफ—फिर
पीड़ा को जाते
भी देखा; दर्द
को विसर्जित
होते देखा।
तुमने दुख
देखा, सुख
देखा। कांटा
चुभा—पीड़ा
देखी। कांटा
निकला—निष्पीड़ा
हुए, वह भी
देखा। तुम
देखने वाले हो।
तुम पार खड़े
हो। तुम अछूते
हो। कोई भी
घटना तुम्हें
छू नहीं पाती।
तुम जल में
कमलवत हो।
'तू असंग है, क्रियाशून्य
है, स्वयं—प्रकाश
है और निर्दोष
है। तेरा बंधन
यही है कि तू
समाधि का
अनुष्ठान करता
है।’
यह
अदभुत क्रांतिकारी
वचन है। ऐसा क्रांतिकारी
वचन दुनियां
के किसी
शास्त्र में
खोजना असंभव
है। इसका पूरा
अर्थ समझोगे
तो गहन अहोभाव
पैदा होगा।
पतंजलि
ने कहा है, चित्त—वृत्ति
का निरोध योग
है। यह योग की
मान्य धारणा
है कि जब तक
चित्त—वृत्तियों
का निरोध न हो
जाये तब तक
व्यक्ति स्वयं
को नहीं जान
पाता। जब
चित्त की सारी
वृत्तियां
शांत हो जाती
हैं तो
व्यक्ति अपने को
जान पाता है।
अष्टावक्र
पतंजलि के
सूत्र के
विरोध में कह
रहे हैं।
अष्टावक्र
कह रहे हैं, 'तू
असंग है, क्रिया—शून्य
है, स्वयं—प्रकाश
है और निर्दोष
है। तेरा बंधन
यही है कि तू
समाधि का
अनुष्ठान करता
है।’
समाधि
का अनुष्ठान
हो ही नहीं
सकता। समाधि
का आयोजन हो
ही नहीं सकता, क्योंकि
समाधि तेरा
स्वभाव है।
चित्त—वृति तो
जड़ स्थितियां
हैं। चित्त—वृत्तियों
का निरोध तो
ऐसे ही है
जैसे किसी आदमी
के घर में
अंधेरा भरा हो,
वह अंधेरे
से लड़ने लगे।
इसे
थोड़ा समझना!
ले आये
तलवारें, भाले,
लट्ठ और
लड़ने लगे
अंधेरे से; बुला लिया
जवानों को, मजबूत
आदमियों को, धक्के देने
लगे अंधेरे
कों—क्या वह
जीतेगा कभी? यद्यपि यह
परिभाषा सही
है कि अंधेरे
का न हो जाना
प्रकाश है।
लेकिन इस
परिभाषा में
थोड़ा समझ लेना,
अंधेरे का न
हो जाना
प्रकाश है यह
सच है, चित्त—वृत्तियों
का शून्य हो
जाना योग है
यह सच है, लेकिन
बात को उलटी
तरफ से मत पकड़
लेना। अंधेरे
का न हो जाना
प्रकाश है, इसलिए
अंधेरे को न
करने में मत
लग जाना।
वस्तुत:
स्थिति दूसरी
तरफ से है।
प्रकाश का हो
जाना अंधेरे
का न हो जाना
है। तुम
प्रकाश जला
लेना, अंधेरा
अपने—आप चला
जायेगा।
अंधेरा है ही
नहीं। अंधेरा
केवल अभाव है।
पतंजलि
कहते हैं, चित्त—वृत्तियों
को शांत करो
तो तुम आत्मा
को जान लोगे।
अष्टावक्र
कहते हैं, आत्मा
को जान लो, चित्त—वृत्तियां
शांत हो
जायेंगी।
आत्मा को जाने
बिना तुम
चित्त—वृत्तियों
को शांत कर भी
न सकोगे।
आत्मा को न
जानने के कारण
ही तो चित्त—वृत्तियां
उठ रही हैं।
समझा अपने को
कि मैं शरीर
हूं तो शरीर
की वासनाएं
उठती हैं।
समझा अपने को
कि मैं मन हूं
तो मन की
वासनाएं उठती
हैं। जिसके
साथ तुम जुड़
जाते हो उसी
की वासनाएँ तुममें
प्रतिछायित
होती हैं, प्रतिबिंबित
होती हैं। तुम
जिसके पास बैठ
जाते हो, उसी
का रंग तुम पर
चढ़ जाता है।
जैसे
स्फटिक मणि को
कोई रंगीन
पत्थर के पास
रख दे, तो
रंगीन पत्थर
का रंग मणि पर
झलकने लगता है।
लाल पत्थर के
पास रख दो, मणि
लाल मालूम
होने लगती है।
नीले पत्थर के
पास रख दो, मणि
नीली मालूम
होने लगती है।
यह सान्निध्य—दोष
है। मणि नीली
हो नहीं जाती,
सिर्फ
प्रतीत होती
है।
अंधेरा
केवल प्रतीत
होता है, है
नहीं। प्रकाश
के न होने का
नाम अंधेरा है।
अंधेरे की
अपनी कोई
सत्ता नहीं, अपना कोई
वास्तविक
अस्तित्व
नहीं। तो तुम
अंधेरे से मत
लड़ने लगना।
योग
और अष्टावक्र
की दृष्टि बड़ी
विपरीत है।
इसलिए मैंने
कहा,
अगर
अष्टावक्र को
समझना हो तो
कृष्णमूर्ति
को समझने की
कोशिश करना।
कृष्णमूर्ति
अष्टावक्र का
आधुनिक
संस्करण हैं।
ठीक आधुनिक
भाषा में, आज
की भाषा में
कृष्णमूर्ति
जो कह रहे हैं,
वह शुद्ध
अष्टावक्र का
सार है।
कृष्णमूर्ति
के मानने वाले
ऐसा सोचते हैं
कि कृष्णमूर्ति
कोई नयी बात
कह रहे हैं।
नयी बात कहने
को है ही नहीं।
जो भी कहा जा
सकता है, कहा
जा चुका है।
जितने जीवन के
पहलू हो सकते
हैं, सब
छाने जा चुके
हैं। अनंत काल
से आदमी खोज
कर रहा है। इस
सूरज के नीचे
नया कहने को
कुछ है ही
नहीं। केवल
भाषा बदलती है,
आवरण बदलते
हैं, वस्त्र
बदलते हैं!
समय के अनुसार
नयी धारणाओं का
प्रयोग बदलता
है। लेकिन जो
कहा जा रहा है,
वह ठीक वही
है।
अष्टावक्र
की भाषा अति
प्राचीन है।
कृष्णमूर्ति
की भाषा अति
नवीन है।
लेकिन जो थोड़ा
भी समझ सकता है, उसे
दिखाई पड़
जायेगा कि बात
तो वही है।
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, योग
की कोई जरूरत
नहीं, ध्यान
की कोई जरूरत
नहीं, जप—तप
की कोई जरूरत
नहीं। ये सब
अनुष्ठान हैं।
अनुष्ठान
उसके लिए करना
होता है, जो
हमारा स्वभाव
नहीं है, स्वभाव
को पाने के
लिए क्या
अनुष्ठान
करना है? सब
अनुष्ठान छोड़
कर अपने में
झांक लो, स्वभाव
प्रगट हो
जायेगा।
'तू असंग है, क्रिया—शून्य
है, स्वयं—प्रकाश
और निर्दोष
है!' —यह
घोषणा तो
देखो!
अष्टावक्र
कहते हैं, तू
निर्दोष है, इसलिए तू
भूलकर भी यह
मत समझना कि
मैं पापी हूं।
लाख तुम्हारे
साधु —संत कहे
चले जायें कि
तुम पापी हो, पाप का
प्रक्षालन
करो, पश्चात्ताप
करो, बुरे
कर्म किये है
उनको छुड़ाओ—अष्टावक्र
का वचन ध्यान
में रखना : तू
क्रिया—शून्य
है, इसलिए
कर्म तो तू
करेगा कैसे?
अष्टावक्र
कहते हैं.
जीवन में छह
लहरें हैं, षट
ऊर्मियां।
भूख —प्यास, शोक—मोह, जन्म—मरण
ये छह तरंगें
हैं। भूख—प्यास
शरीर की
तरंगें हैं।
अगर शरीर न हो
तो न तो भूख
होगी न प्यास
होगी। ये शरीर
की जरूरतें
हैं। जब शरिर
स्वस्थ होता
है तो ज्यादा
भूख लगती है, जब शरीर
बीमार होता है
तो ज्यादा भूख
नहीं लगती।
अगर शरीर को
धूप में खड़ा
करोगे, ज्यादा
प्यास लगेगी
क्योंकि
पसीना उड़
जायेगा। गरमी
में ज्यादा
प्यास लगेगी,
सर्दियों
में कम प्यास
लगेगी। ये
शरीर की
जरूरतें हैं,
ये शरीर की
तरंगें हैं।
भूख—प्यास—शरीर
की। शोक—मोह—मन
की।
कोई
छूट जाता है
तो दुख होता, क्योंकि
मन पकड़ लेता
है, राग
बना लेता है।
कोई मिल जाता,
प्रियजन, तो सुख होता।
कोई प्रियजन
छूट जाता तो
दुख होता। कोई
अप्रियजन मिल
जाता है तो
दुख होता है; अप्रियजन
छूट जाता है
तो सुख होता
है। लेकिन ये
मन के खेल हैं;
आसक्ति और
विरक्ति के
खेल हैं; आकर्षण
और विकर्षण के
खेल हैं। जिस
आदमी के भीतर
मन न रहा, उसके
भीतर फिर कोई
शोक नहीं, कोई
मोह नहीं। ये
तरंगें मन की
हैं।
और
जन्म—मरण..
जन्म—मरण
तरंगें प्राण
की हैं। जन्म
होता श्वास के
साथ;
मृत्यु
होती श्वास के
विदा होने के
साथ। इसलिए
जैसे ही बच्चा
पैदा होता है,
डाक्टर
फिक्र करता है
कि बच्चा
जल्दी श्वास ले,
रोये। रोने
का अर्थ केवल
इतना ही है कि
रोयेगा तो श्वास
ले लेगा। रोने
के झटके में
श्वास का
द्वार खुल
जायेगा। रोने
के झटके में
बंद फेफड़ा काम
करने लगेगा।
अगर बच्चा
नहीं रोता कुछ
सेकेंड के
भीतर तो डाक्टर
उसे उलटा लटका
कर उस पर चोट
करता है, बच्चे
के ऊपर, ताकि
धक्के में
श्वास चल पड़े।
श्वास जन्म है।
श्वास यानी
प्राण की
प्रक्रिया।
जब आदमी मरता
है तो श्वास
समाप्त हो
जाती है।
प्राण की
प्रक्रिया
बंद हो गई।
प्रतिपल यही
हो रहा है।
श्वास भीतर
आती है तो
जीवन भीतर आता
है। श्वास
बाहर जाती है
तो जीवन बाहर
जाता है।
प्रतिपल
जन्म और
मृत्यु घट रही
है। हर आती
श्वास जीवन है।
हर जाती श्वास
मौत है। तो
मौत और जन्म
तो प्रतिपल घट
रहे हैं। ये
प्राण की
तरंगें हैं।
अष्टावक्र
कहते हैं, ये
षट ऊर्मियां
हैं, तुम
इन छहों के
पार हो, इनके
द्रष्टा हो।
इसलिए
बुद्ध ने तो
श्वास पर ही
सारी की सारी
अपनी साधना की
व्यवस्था खड़ी
की। बुद्ध ने
कहा,
एक ही काम
पर्याप्त है
कि तुम आती—जाती
श्वास को
देखते रहो।
क्या होगा आती
—जाती श्वास
को देखने से? धीरे — धीरे
अगर तुम जाती
श्वास को देखो
कि श्वास बाहर
गई, आती
श्वास को देखो
श्वास भीतर आई,
तो बीच में
तुम थोड़े समय
ऐसे भी पाओगे
जब श्वास थिर
हो जाती है, न तो बाहर
जाती न भीतर
आती। हर आती—जाती
श्वास के बीच
में क्षण भर
को अंतराल है—जब
श्वास न चलती,
न हिलती, न डुलती।
बाहर जाती, फिर क्षण भर
को रुकती, फिर
भीतर आती।
भीतर आती, फिर
क्षण भर को
रुकती, फिर
बाहर जाती। तो
अंतराल
तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगेंगे।
उन्हीं
अंतराल में
तुम पाओगे कि
तुम हो; श्वास
का आना—जाना
तो प्राण का
खेल है। और
अगर तुम श्वास
को देखने में
समर्थ हो गये
तो वह जो
देखने वाला है
वह श्वास से
पृथक हो गया।
वह श्वास से
अलग हो गया।
शरीर
हमारी बाहर की
परिधि है, मन
उसके भीतर की
परिधि है; प्राण
उसके और भी
भीतर की परिधि
है। तो ऐसा भी
हो सकता है, शरीर अपंग
हो जाये, टूट—फूट
जाये तो भी
आदमी जीता है।
मन खंडित हो
जाये, विक्षिप्त
हो जाये, जड़
हो जाये, तो
भी आदमी जीता
है। लेकिन
बिना श्वास के
आदमी नहीं
जीता।
मस्तिष्क भी निकाल
लो आदमी का
पूरा का पूरा,
तो भी आदमी
जीये चला जाता
है। पड़ा रहेगा,
मगर जीवन
रहेगा। शरीर
के अंग—अंग
काट डालो, बस
श्वास भर चलती
रहे, तो
आदमी जीता
रहेगा। श्वास
बंद हो जाये
तो सब मौजूद
हो तो भी आदमी
मर गया। ये छह
तरंगें हैं और
इन छह के पार
द्रष्टा है।
'तू असंग है।’
कोई
तेरा संगी—साथी
नहीं। शरीर भी
तेरा संगी—साथी
नहीं, श्वास
भी तेरी संगी—साथी
नहीं, मन
के विचार भी
तेरे संगी—साथी
नहीं। तू असंग
है। भीतर भी
कोई साथी नहीं,
बाहर की तो
बात ही क्या!
पति—पत्नी, परिवार, मित्र,
प्रियजन
कोई साथी नहीं।
साथ होंगे, संगी कोई भी
नहीं। साथ
होना केवल
बाह्य घटना है।
भीतर से किसी
से कोई जोड़
बनता नहीं। तू
असंग, क्रिया—शून्य
है।
इसलिए
कर्म के जाल
की तो बात ही
मत उठाओ। अगर
अष्टावक्र से
तुम यह पूछोगे
कि आप कहते हो
अभी—अभी हो
सकती है
मुक्ति, तो
कर्मों का
क्या होगा? जन्म—जन्म
तक पाप किये, उनका क्या
होगा? उनसे
छुटकारा कैसे
होगा? अष्टावक्र
कहते हैं, तुमने
कभी किये ही
नहीं। भूख के
कारण शरीर ने
किया होगा कुछ।
प्राण के कारण
प्राण ने किया
होगा कुछ। मन
के कारण मन ने
किया होगा कुछ।
तुमने कभी कुछ
नहीं किया।
तुम सदा से
असंग हो; अकर्म
में हो। कर्म
तुमसे कभी हुआ
नहीं, तुम
सारे कर्मों
के द्रष्टा हो।
इसलिए इसी
क्षण मुक्ति
हो सकती है।
खयाल
करना, अगर
कर्मों के
सारे जाल को
हमें तोड़ना
पड़े तो शायद
मुक्ति कभी भी
न हो सकेगी।
असंभव है।
अनंत काल में
हमने कितने
कर्म किये, उनका कुछ
लेखा—जोखा करो।
अगर उन सब कर्मों
से छूटना पड़े
तो उन कर्मों
से छूटने में
अनंत काल
लगेगा। और यह
जो अनंत काल
छूटने में
लगेगा, इसमें
भी तुम बैठे
थोड़े ही रहोगे,
कुछ तो
करोगे। तो
कर्म तो फिर
होते चले
जायेंगे। तो
यह श्रृंखला
तो अंतहीन हो
जायेगी। इस
श्रृंखला की
तो कभी कोई
समाप्ति आने
वाली नहीं, इसमें से
कोई निष्कर्ष
आने वाला नहीं।
अष्टावक्र
कहते हैं, अगर
कर्मों से
मुक्त होना
पड़े, फिर
मुक्ति होती
हो, तो
मुक्ति कभी
होगी ही नहीं।
लेकिन मुक्ति
होती है। मुक्ति
का होना इस
बात का सबूत
है कि आत्मा
ने कर्म कभी
किये ही नहीं।
न तो तुम पापी
हो न तुम
पुण्यात्मा
हो; न तुम
साधु हो न तुम
असाधु हो। न
तो कहीं कोई
नर्क है और न
कहीं कोई
स्वर्ग है।
तुमने कभी कुछ
किया नहीं; तुमने सिर्फ
सपने देखे हैं,
तुमने
सिर्फ सोचा है।
तुम भीतर सोये
रहे, शरीर
करता रहा। जिन
शरीरों ने
कर्म किये थे,
वे जा चुके।
उनका फल
तुम्हारे लिए
कैसा। तुम तो
भीतर सोये रहे,
मन ने कर्म
किये। जिस मन
ने किये वह
प्रतिपल जा
रहा है।
मैंने
सुना है, एक
भूतपूर्व
महाराजा ने
देखा कि
ड्राइंग—रूम
गंदा है। तो
नौकर झनकू को
डांटा। कहा, बैठक में
मकड़ी के जाले
लगे हैं। तुम
दिन भर क्या
करते हो?
झनकू
ने कहा, हुजूर!
जाला कौनो
मकड़ी लगाई होई।
हम तो अपन
कोठरिया में
औंघात रहे!
तुम तो औंघाते
रहे भीतर, जाला
कौनो मकड़ी
लगाई होई।
शरीर ने जाले
बुने, मन
ने जाले बुने, प्राण ने
जाले बुने—तुम
तो सोये रहे।
जागो! जागते
ही तुम पाओगे
तुमने तो कभी
कुछ किया नहीं।
तुम तो करना
भी चाहो तो
कुछ कर नहीं
सकते। अकर्म
तुम्हारा
स्वभाव है।
अकर्ता
तुम्हारी
स्वाभाविक
दशा है।
'तू असंग, क्रिया—शून्य,
स्वयं—प्रकाश
और निर्दोष है।’
यह
सुनी घोषणा? तू
निर्दोष है!
तो जो कुछ
तुम्हें
सिखाया हो पंडितों
ने, पुरोहितों
ने—फेंको! तुम
निर्दोष हो।
उनकी सिखावन
ने बड़े खतरे
किये हैं; तुम्हें
पापी बना दिया।
तुम्हें हजार
तरह की बातें
सिखा दीं कि
तुम ऐसे बुरे
हो। तुम में
दीनता भर दी
और अपराध का
भाव भर दिया।
तुम निर्दोष
हो, निरपराधी
हो।
'तेरा बंधन
यही है कि तू
समाधि का
अनुष्ठान करता
है।’
इस
वचन की क्रांति
तो देखो! तेरा
बंधन यही है
कि तू समाधि
का अनुष्ठान
करता है—कि तू
आयोजन करता है
कि समाधि कैसे
फले,
फूल कैसे
लगें ध्यान के,
मुक्ति
कैसे हो? अनुष्ठान!
ते
बंध: हि
समाधिम्
अनुतिष्ठसि!
यही
तेरा बंधन है।
उठा तलवार बोध
की और काट दे!
तो
यहां तुम्हें
साफ हो जायेंगी
दो बातें कि
योग का एक
मार्ग है और
बोध का बिलकुल
दूसरा मार्ग
है। बोध के
मार्ग का
प्राचीन नाम
है सांख्य।
सांख्य का
अर्थ होता है.
बोध। योग का
अर्थ होता है.
साधन। सांख्य
का अर्थ होता
है. सिर्फ
जागना है बस, कुछ
करना नहीं है।
योग का अर्थ
होता है : बहुत
कुछ करना है, तब जागरण
घटेगा। योग
में साधन हैं;
सांख्य में
सिर्फ साध्य
है। मार्ग
नहीं है, केवल
मंजिल है।
क्योंकि
मंजिल से तुम
कभी गये ही
नहीं कहीं और,
तुम अपने
भीतर के मंदिर
में ही बैठे
हो। आना नहीं
है वापिस; इतना
ही जानना है
कि कभी गये ही
नहीं।
निसंगो
निष्कियोऽसि
त्वं
स्वप्रकाशो
निरंजन:।
अयमेव
हि ते बंध:
समाधिमनुतिष्ठसि।।
बस
इतना ही बंधन
है कि तुम
मोक्ष खोज रहे
हो। मोक्ष की
खोज से नये
बंधन निर्मित
होते हैं। एक
आदमी संसार
में बंधा है, फिर
घबड़ा जाता है
तो मोक्ष
खोजने लगता है—तो
इधर से घर—द्वार
छोड़ता है, परिवार
छोड़ता है, धन—दुकान
छोड़ता है, फिर
नये बंधनों
में बंध जाता
है—साधु हो
गया। अब ऐसे
उठो, ऐसे
बैठो, ऐसे
खाओ, ऐसे
पीयो—अब नये
बंधन अपने
चारों तरफ रच
लेता है।
तुमने
देखा, साधुओं
की हालत
कैदियों जैसी
है! साधु
मुक्त नहीं है।
क्योंकि साधु
सोच रहा है, मुक्ति के
लिए पहले तो
बंधन करने
पड़ेंगे। यह भी
खूब मजे की
बात है!
मुक्ति के लिए
पहले बंधन
मानने पड़ेंगे।
मुक्त होने के
लिए कोई बंधन
नहीं चाहिए।
कृष्णमूर्ति
की एक किताब
है. द फर्स्ट
ऐंड द लास्ट
फ्रीडम—पहली
और अंतिम
मुक्ति। वह
अष्टावक्र का
आधुनिकतम
वक्तव्य है।
अगर
मुक्त होना है
तो पहले ही
चरण पर मुका
हो जाओ। यह मत
सोचो कि अंत
में मुक्त
होएंगे। पहले
चरण पर ही
मुक्त होना है, दूसरे
चरण पर नहीं।
क्योंकि अगर
पहले ही चरण
पर सोचा कि
तैयारी करेंगे
मुक्त होने की,
तो उसी
तैयारी में
नये बंधन
निर्मित हो
जायेंगे। फिर
उन नये बंधनों
से छूटने के
लिए फिर
तैयारी करनी
पड़ेगी। उस
तैयारी में
फिर नये बंधन
निर्मित हो
जायेंगे। तो
तुम एक से
छूटोगे, दूसरे
से बंधोगे।
कुएं से बचोगे,
खाई में
गिरोगे।
तो
तुम देखो, गृहस्थ
बंधा है और
संन्यस्त
बंधे हैं!
दोनों के बंधन
अलग—अलग हैं।
मगर फर्क कुछ
नहीं है। ऐसा
लगता है कि
मौलिक
मूर्च्छा जब
तक नहीं टूटती,
तुम जो भी
करोगे बंधन
होगा। मैंने
सुना है कि एक
आदमी की
स्त्री भाग
गयी, तो
उसे खोजने
निकला। खोजते —खोजते
जंगल में
पहुंच गया।
वहां एक साधु
एक वृक्ष के
नीचे बैठा था।
उसने पूछा कि
मेरी स्त्री
को तो जाते
नहीं देखा? घर से भाग गई
है। बड़ा बेचैन
हूं।
तो
उस साधु ने
पूछा, तेरी
स्त्री का नाम
क्या है? उसने
कहा, 'मेरी
स्त्री का नाम,
फजीती।’ साधु
ने कहा, 'फजीती!
तुमने भी खूब
नाम रखा। ऐसे
तो सभी
स्त्रियां
फजीती होती
हैं, बाकी
तूने नाम भी
खूब चुनकर रखा।
तेरा नाम क्या
है?' साधु
उत्सुक हुआ कि
यह तो नाम में
बड़ा होशियार
है। उसने कहा,
'मेरा नाम
बेवकूफ।’ वह
साधु हंसने
लगा। उसने कहा,
तू खोज—बीन
छोड़। तू तो
जहां बैठ
जायेगा, फजीतियां
वहीं आ
जायेंगी। कोई
कहीं तुझे
जाने की जरूरत
नहीं। तेरा
बेवकूफ होना
काफी है।
फजीतियां
तुझे खुद खोज
लेंगी।
संसार
को छोड़ कर
आदमी भाग जाता
है तो संसार
छोड़ने से उसकी
मंदबुद्धिता
तो नहीं मिटती, उसकी
मूढ़ता तो नहीं
मिटती।
मूर्च्छा तो
नहीं मिटती; वह उस
मूर्च्छा को
लेकर मंदिर
में बैठ जाता
है, नये
बंधन बना लेता
है। वह
मूर्च्छा नये
जाले बुन देती
है। पहले
संसार में
बंधा था, अब
वह संन्यास
में बंध जाता
है; लेकिन
बिना बंधे
नहीं रह सकता।
मुक्ति
है प्रथम चरण
पर। उसके लिए
कोई आयोजन
नहीं। आयोजन
का मतलब हुआ
कि अब आयोजन
में बंधे।
इंतजाम किया
तो इंतजाम में
बंधे। फिर
इससे छूटना पड़ेगा।
तो यह कहां तक
चलेगा? यह तो
अंतहीन हो
जायेगा।
सुना
है मैंने, एक
आदमी डरता था
मरघट से
निकलने से। और
मरघट के पार
उसका घर था।
तो रोज निकलना
पड़ता है। इतना
डरता था कि
रात घर से
नहीं निकलता
था, सांझ
घर लौट आता था
तो कंपता हुआ
आता था। आखिर
एक साधु को
दया आ गई।
उसने कहा कि
तू यह फिक्र
छोड़। यह ताबीज
ले। यह ताबीज
सदा बांधकर रख,
फिर कोई भूत—प्रेत
तेरे ऊपर कोई
परिणाम न ला
सकेगा। परिणाम
हुआ। ताबीज
बांधते से ही
भूत—प्रेत का
डर मिट गया।
लेकिन अब एक
नया डर पकड़ा
कि ताबीज कहीं
खो न जाये।
स्वाभाविक, जिस ताबीज
ने भूत—प्रेतों
से बचा दिया, अब वह आधी
रात को भी
निकल जाता
मरघट से र कोई
डर नहीं। भूत—प्रेत
तो कभी भी
वहां नहीं थे।
अपना ही डर था।
ताबीज ने डर
से तो छुड़वा
दिया, लेकिन
नया डर पकड़
गया कि यह
ताबीज कहीं खो
न जाये। तो वह
स्नान—गृह में
भी जाता तो
ताबीज लेकर ही
जाता; बार—बार
ताबीज को टटोल
कर देख लेता।
अब वह इतना
भयभीत रहने
लगा कि रात
सोए तो डरे कि
कोई ताबीज न
खोल ले, कोई
ताबीज चुरा न
ले जाये; क्योंकि
ताबीज उसकी
जिंदगी हो गई।
डर अपनी जगह
कायम रहा— भूत
का न रहा तो
ताबीज का हो
गया। अब अगर
कोई इसको
ताबीज की जगह
कुछ और दे दे तो
क्या फर्क
पड़ने वाला है।
इस आदमी की
भयभीत दशा तो
नहीं बदलती।
भूत का थोड़ी
प्रश्न है, भय का
प्रश्न है।
तो
तुम भय को एक
जगह से दूसरी
जगह हटा सकते
हो। बहुत—से
लोग इसी तरह
का वालीबाल का
खेल खेलते
रहते हैं; गेंद
इधर से उधर
फेंकी, उधर
से इधर आई, बस
फेंकते रहते हैं,
खेलते रहते
हैं। और इस
बीच जिंदगी
गुजरती चली
जाती है।
अष्टावक्र
कहते हैं, समाधि
का अनुष्ठान
ही बंधन का
कारण है। अगर
तुझे मुक्त
होना है तो
मुक्त होने की
घोषणा कर, आयोजन
नहीं।
इसलिए
मैं कहता हूं,
इस वचन की क्रांति
को देखो! यह
वचन अनूठा है!
यह बेजोड़ है!
अष्टावक्र
कहते हैं, अभी
और यहीं घोषणा
करो मुक्त
होने की!
तैयारी मत करो।
यह मत कहो कि
पहले तैयार
होंगे, फिर।
क्योंकि फिर
तैयारी बांध
लेगी। फिर
तैयारी को
कैसे छोड़ोगे?
एक रोग से
छूटते हैं, दूसरा रोग
पकड़ जाता है।
यह तो कंधे
बदलना हुआ।
तुमने देखा, लोग मरघट ले
जाते हैं लाश
को, तो
कंधे बदल लेते
हैं, एक
कंधे पर रखे —रखे
थक गये तो
दूसरे कंधे पर
रख ली। थोड़ी
देर राहत
मिलती है। फिर
दूसरा कंधा
दुखने लगता है
तो फिर बदल
लेते हैं। ऐसे
तो तुम जन्मों
—जन्मों से कर
रहे हो। बस यह
सिर्फ राहत
मिलती है।
इससे परम
विश्राम नहीं
मिलता। छोड़ो
मुर्दों को
ढोना। घोषणा
करो! अगर तुम
चाहो तो एक
क्षण में, क्षण
के एक अंश में
घोषणा हो सकती
है।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि आप हर किसी
को संन्यास दे
देते हैं। मैं
कहता हूं कि
हर कोई हकदार
है,
सिर्फ
घोषणा करने की
बात है। कुछ
और करना थोड़े
ही है; सिर्फ
घोषणा करनी है।
इस घोषणा को
अपने हृदय में
विराजमान
करना है कि
मैं संन्यस्त
हूं तो तुम
संन्यस्त हो
गये, कि
मैं मुक्त हूं
तो तुम मुक्त
हो गये।
तुम्हारी
घोषणा
तुम्हारा
जीवन है।
घोषणा
करने की
हिम्मत करो।
क्या छोटी—मोटी
घोषणाएं करनी? घोषणा
करो : अहं
ब्रह्मास्मि!
मैं ब्रह्म
हूं! —तुम
ब्रह्म हो गये।
आगे
के सूत्र में
अष्टावक्र
कहते हैं, 'यह
संसार तुझसे
व्याप्त है, तुझी में
पिरोया है। तू
यथार्थत:
शुद्ध चैतन्य
स्वरूप है, अत: क्षुद्र
चित्त को मत
प्राप्त हो।’
क्या
छोटी—छोटी
बातों से जुड़ता
है?
कभी जोड़
लेता—यह मकान
मेरा, यह
देह मेरी, यह
धन मेरा, यह
दुकान मेरी!
क्या क्षुद्र
बातों से मन
को जोड़ रहा है?
त्वया
व्याप्तमिदं
विश्वं त्वयि
प्रोतं
यथार्थत:।
तुझसे
ही सारा सत्य
ओत—प्रोत है!
तुझसे ही सारा
ब्रह्म
व्याप्त है!
शुद्धबुद्ध
स्वरूपक्ल
मागम
क्षुद्रचित्तताम्
।
क्यों
छोटी—छोटी
बातों की
घोषणा करता है? बड़ी
घोषणा कर! एक
घोषणा कर. 'शुद्ध
चैतन्य
स्वरूप हूं!
शुद्ध—बुद्ध
स्वरूप हूं!' क्षुद्र
चित्त को मत
प्राप्त हो!
हमने
बड़ी छोटी—छोटी
घोषणाएं की
हैं। जो हम
घोषणा करते
हैं वही हम हो
जाते हैं। इस
दृष्टि से
भारत का
अनुदान जगत को
बड़ा अनूठा है।
क्योंकि भारत
ने जगत में
सबसे बड़ी
घोषणाएं की
हैं। मैसूर ने
मुसलमानों की दुनियां
में घोषणा की, ' अनलहक!
मैं सत्य हूं '
उन्होंने
मार डाला।
उन्होंने कहा
यह आदमी जरूरत
से बड़ी घोषणा
कर रहा है।’मैं सत्य
हूं! '—यह तो
केवल
परमात्मा कह
सकता है, आदमी
कैसे कहेगा!
लेकिन
हमने
अष्टावक्र को
मार नहीं डाला, न
हमने उपनिषद
के ऋषियों को
मार डाला, जिन्होंने
कहा, अहं
ब्रह्मास्मि!
क्योंकि हमने
एक बात समझी कि
आदमी जैसी
घोषणा करता है
वैसा ही हो
जाता है। तो
फिर छोटी क्या
घोषणा करनी!
जब तुम्हारी
घोषणा पर ही
तुम्हारे
जीवन का
विस्तार
निर्भर है तो
परम विस्तार
की घोषणा करो,
विराट की
घोषणा करो, विभु की, प्रभु
की घोषणा करो।
इससे छोटी पर
क्यों राजी
होना? इतनी
कंजूसी क्या?
घोषणा में
ही कंजूसी कर
जाते हो। फिर
कंजूसी कर
जाते हो तो
वैसे ही हो
जाते हो।
क्षुद्र
मानोगे तो
क्षुद्र हो
जाओगे; विराट
मानोगे तो
विराट हो
जाओगे।
तुम्हारी
मान्यता
तुम्हारा
जीवन है।
तुम्हारी
मान्यता
तुम्हारे
जीवन की शैली
है।
'तू निरपेक्ष
(अपेक्षा—रहित)
है, निर्विकार
है, स्वनिर्भर
(चिदघन—रूप ) है,
शांति और
मुक्ति का
स्थान है, अगाध
बुद्धिरूप है,
क्षोभ—शून्य
है। अत:
चैतन्यमात्र
में
निष्ठावाला
हो।’
एक
निष्ठा
पर्याप्त है।
साधना नहीं—निष्ठा।
साधना नहीं—श्रद्धा।
इतनी निष्ठा
पर्याप्त है
कि मैं
चैतन्यमात्र
हूं। इस जगत
में यह सबसे
बड़ा जादू है।
मनस्विद
कहते हैं कि
अगर किसी
व्यक्ति को
बार—बार कहो
कि तुम
बुद्धिहीन हो, वह
बुद्धिहीन हो
जाता है।
जितने लोग दुनियां
में
बुद्धिहीन
दिखाई पड़ते
हैं, ये सब
बुद्धिहीन
नहीं हैं। ये
हैं तो
परमात्मा।
इनको
बुद्धिहीन
जतला दिया गया
है, बतला
दिया गया है।
इतने लोगों ने
इनको दोहरा
दिया है और
इन्होंने भी
इतनी बार
दोहरा लिया है
कि बुद्ध हो
गये हैं! जो
बुद्ध हो सकते
थे, वे
बुद्ध होकर रह
गये हैं।
मनस्विद
कहते हैं, किसी
आदमी को तुम
राह पर मिलो—वह
भला—चंगा है—तुम
देखते ही उससे
कहो, 'अरे
तुम्हें क्या
हो गया? चेहरा
पीला है!
बुखार है!
देखें हाथ!
बीमार हो!
तुम्हारे पैर
कंपते से
मालूम पड़ते
हैं।
पहले
तो वह इनकार
करेगा—क्योंकि
सोचा भी नहीं
था क्षण भर
पहले तक—वह
कहेगा, 'नहीं—नहीं!
मैं बिलकुल
ठीक हूं। आप
कैसी बातें कर
रहे हैं?'
'ठीक है, आपकी
मर्जी!' फिर
थोड़ी देर बाद
दूसरा आदमी
उसको मिले और
कहे, 'अरे!
चेहरा पीला पड़
गया है, क्या
मामला है?' अब
वह इतनी
हिम्मत से न
कह सकेगा कि
मैं बिलकुल
ठीक हूं। वह
कहेगा, हा
कुछ तबीयत
खराब है। वह
राजी होने लगा।
हिम्मत उसकी
खिसकने लगी।
फिर
तीसरा आदमी
मिले और कहे
कि अरे! अब तो
वह घर ही लौट
जायेगा कि
तबीयत मेरी
ज्यादा खराब
है। अब बाजार
जाने से कुछ
सार नहीं।
तुमने
कहानी सुनी कि
एक ब्राह्मण
एक बकरी को खरीद
कर लाता था।
तीन—चार
लफंगों ने उसे
देखा और
उन्होंने
सोचा कि इसकी
बकरी तो छीनी
जा सकती है।
लेकिन
ब्राह्मण
मजबूत था और
छीनना आसान
मामला न था।
तो उन्होंने
सोचा कि थोड़ी
कूटनीति करो।
एक
उसे मिला राह
के किनारे और
कहा कि गजब, यह
कुत्ता कितने
में खरीद
लाये! उस आदमी
ने, ब्राह्मण
ने कहा, 'कुत्ता!
तू अंधा तो
नहीं है? पागल
कहीं के! बकरी
है! बाजार से
खरीद कर ला
रहा हूं। पचास
रुपये खर्च
किये हैं।’
उसने
कहा,
'तुम्हारी
मर्जी, लेकिन
तुम जानो।
ब्राह्मण
होकर कुत्ते
को कंधे पर
लिये हो! भई, मुझको तो
कुत्ता दिखाई
पड़ता है। हो
सकता है मेरी
गलती हो।’
ब्राह्मण
चला सोचता हुआ
कि यह आदमी भी
कैसा है! मगर
उसने एक बार
टटोल कर बकरी
के पैर देखे।
उसने कहा, बकरी
ही है। दूसरे
किनारे पर राह
के दूसरा
उन्हीं का सगा
साथी खड़ा था।
उसने कहा कि
कुत्ता तो गजब
का खरीदा! अब
ब्राह्मण
इतनी हिम्मत
से न कह सका कि
कुत्ता नहीं है;
हो न हो
कुत्ता ही हो!
दो आदमी गलत
नहीं हो सकते।
फिर भी उसने
कहा कि नहीं—नहीं,
कुत्ता
नहीं है।
लेकिन अब
कमजोर था। कह
तो रहा था, लेकिन
भीतर की नींव
हिल गई थी।
उसने कहा कि
नहीं—नहीं, बकरी है।
उसने कहा कि
बकरी है? इसको
बकरी कहते हैं?
तो फिर
परिभाषा
बदलनी पड़ेगी
ब्राह्मण
देवता! अगर
इसको बकरी
कहते हैं तो
फिर कुत्ता
किसको कहेंगे?
वैसे आपकी
मर्जी। आप
पंडित आदमी
हैं, हो
सकता है बदल
दें। नाम की
तो बात है।
चाहे कुत्ता
कहो, चाहे
बकरी कहो—रहेगा
तो कुत्ता ही।
कहने से कुछ
नहीं होता।
वह
आदमी तो चला
गया,
ब्राह्मण
ने बकरी उतार
कर नीचे रख कर
देखी, बिलकुल
बकरी है!
बिलकुल बकरी
जैसी बकरी है।
आंखें मीड़ीं।
रास्ते के
किनारे लगे नल
से पानी से आंखें
धोईं।
क्योंकि अपना
पड़ोस करीब आता
जाता और लोग
देख लें कि
ब्राह्मण
कुत्ता सिर पर
लिये है तो
पूजा और
पांडित्य को
धक्का लगेगा!
पूजा करवाते
हैं, लोग न
करवायेंगे; लोग पागल
समझेंगे। मगर
फिर देख—दाख
कर उसने सब
तरह से कि
बकरी है; लेकिन
इन दो आदमियों
को क्या हुआ!
फिर
रखकर चला, लेकिन
अब जरा डरता
हुआ चला कि
फिर कोई और न
देख ले। वह
तीसरा उनका
साथी खड़ा था।
उसने कहा कि
कुत्ता तो गजब
का है। कहां
से लाये? हम
भी बड़े दिन से
कुत्ता चाहते
हैं।
उसने
कहा,
बाबा तू ही
ले ले! अगर
कुत्ता चाहते
हो तुम्हीं ले
लो। यह कुत्ता
ही है। एक
मित्र ने दे
दिया है, इससे
छुटकारा करो
मेरा।
वह
भागा वहां से
घर की तरफ कि
किसी को पता न
चल जाये कि
कुत्ता इसने
लिया है।
आदमी
ऐसे ही जी रहा
है। तुमने जो
मान रखा है वह
तुम हो गये हो।
और तुम्हारे
चारों तरफ
बहुत लफंगे
हैं;
जो तुम्हें
बहुत—सी बातें
मनवा रहे हैं।
उनके अपने
प्रयोजन हैं।
पुरोहित
समझाना चाहता
है कि तुम
पापी हो; क्योंकि
तुम पापी नहीं
हो तो पूजा
कैसे चलेगी? उसका हित
इसमें है कि
बकरी कुत्ता
मालूम पड़े।
पंडित
है,
अगर तुम
अज्ञानी नहीं
हो तो उसके
पांडित्य का क्या
होगा? उसकी
दुकान कैसे
चलेगी? धर्मगुरु
है, वह अगर
तुम्हें समझा
दे कि तुम
अकर्ता हो, कर्म—शून्य
हो, तुमने
कभी पाप किया
ही नही—तो
उसकी जरूरत
क्या है?
यह
तो ऐसा हुआ कि
डाक्टर के पास
तुम जाओ। और
वह समझा दे कि
बीमार तुम हो
ही नहीं, बीमार
तुम कभी हुए
ही नहीं, बीमार
तुम हो ही
नहीं सकते, स्वास्थ्य
तुम्हारा स्वभाव
है—तो यह
डाक्टर
आत्महत्या कर
रहा है अपनी।
इसकी दुकान का
क्या होगा? तुम डाक्टर
के पास जाओ
भले—चंगे, जब
तुम्हें कोई
बीमारी नहीं
है तब जाओ, तब
भी तुम पाओगे
कि वह बीमारी
खोज लेगा। तुम
जा कर देखो!
बिलकुल भले—चंगे
हो, तुम्हें
कोई बीमारी
नहीं है। जाकर,
जरा चले जाओ,
डाक्टर से
कहना कि कुछ
जांच—पड़ताल
करवानी है।
ऐसा डाक्टर
खोजना बहुत
मुश्किल है जो
कह दे कि तुम
बीमार नहीं हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन का
बेटा डाक्टर
हुआ। तो मैंने
उससे पूछा कि
कैसी चल रही
है?
उसने कहा कि
काफी अच्छी चल
रही है। मैंने
कहा कि तुम
कैसे समझे कि काफी
अच्छी चल रही
है। उसने कहा,
इतनी अच्छी
चल रही है कि
कई दफे तो वह
बीमारों को कह
देता है कि
तुम बीमार ही
नहीं हो। यह
तो बड़ा ही
डाक्टर कह
सकता है जिसकी
खूब चल रही हो।
चल रही ऐसी हो
कि अब उसे
उपद्रव
ज्यादा लेना ही
नहीं है, फुर्सत
नहीं है। तो
उसने कहा, इससे
मैं सोचता हूं
कि बिलकुल ठीक
चल रही है। कई
दफा आदमियों
को कह देता है
कि नहीं, तुम्हें
कोई बीमारी
नहीं है।
दुकानें
हैं;
उनके अपने
हित हैं।
तुम्हारे ऊपर
हजारों
दुकानें चल
रही हैं—पंडित
की है, पुरोहित
की है, धर्मगुरु
की है।
तुम्हारा
पापी होना
जरूरी है।
तुमने बुरे
कर्म किये हों,
यह आवश्यक
है; नहीं
तो तुम्हारा
बुरे कर्मों
से छुटकारा दिलाने
वालों का क्या
होगा? मसीहाओं
का क्या होगा,
जो आते हैं
तुम्हारी
मुक्ति के लिए?
अगर
अष्टावक्र
सही हैं तो सब
मसीहा व्यर्थ
हैं। फिर
तुम्हारे
छुटकारे की
कोई जरूरत
नहीं; तुम
छूटे ही हुए
हो। तुम मुक्त
ही हो!
अष्टावक्र की
जैसे कोई भी
दुकान नहीं है।
जैसे
अष्टावक्र
तुम्हारे साथ
कोई धंधा नहीं
करना चाहते।
सीधी—सीधी बात
कह देते हैं, दो टूक सत्य
कह देते हैं।
'तू निरपेक्ष
(अपेक्षा—रहित),
निर्विकार,
स्वनिर्भर
(चिदघन—रूप ), शांति और
मुक्ति है तू।
अगाध
बुद्धिरूप, क्षोभ—शून्य
है तू। अत:
चैतन्यमात्र
में निष्ठा
वाला हो।’
एक
ही निष्ठा
होनी चाहिए कि
मैं साक्षी—रूप
हूं बस
पर्याप्त है।
ऐसा
निष्ठावान
व्यक्ति
धार्मिक है।
और किसी
निष्ठा की कोई
जरूरत नहीं। न
तो परमात्मा
में निष्ठा की
जरूरत है, न
स्वर्ग—नर्क में
निष्ठा की
जरूरत है, न
कर्म के
सिद्धात में
निष्ठा की
जरूरत है। एक
निष्ठा
पर्याप्त हैं।
और वह निष्ठा
है कि मैं
साक्षी, निर्विकार।
और तुम जैसे
ही निष्ठा
करोगे, तुम
पाओगे तुम
निर्विकार
होने लगे।
एक
मनोवैज्ञानिक
ने प्रयोग
किया। एक
कक्षा को दो
हिस्सों में
बांट दिया।
आधे लड़के एक
तरफ,
आधे दूसरी
तरफ—अलग— अलग
कमरों में।
फिर पहले
हिस्से को
जाकर कहा कि
यह गणित बहुत कठिन
है; तुममें
से कोई भी हल न
कर पायेगा। एक
गणित लिखा
बोर्ड पर और
कहा, यह
इतना कठिन है
कि तुम्हारी
तो सामर्थ्य
ही नहीं, तुमसे
आगे की कक्षा
के
विद्यार्थी
भी इसको हल नहीं
कर सकते।
लेकिन हम एक
प्रयोग कर रहे
हैं। हम जानना
चाहते हैं, क्या तुममें
से कोई इसको
हल करने के
थोड़े—बहुत भी
करीब आ सकता
है? थोड़ी—बहुत
विधि, दो—चार
कदम भी ठीक
उठा सकता है? यह असंभव है!
उसने यह बार—बार
दोहराया कि यह
असंभव है। फिर
भी तुम चेष्टा
करो।
दूसरे
कमरे में गया।
उसी वर्ग के
आधे लड़के। वही
बोर्ड पर उसने
गणित लिखा और
कहा कि यह प्रश्न
इतना सरल है
कि यह असंभव
है कि तुममें
से कोई इसे हल
न कर पाये।
तुमसे नीची
कक्षाओं के
लड़कों ने हल
कर लिया है।
तो इसलिए नहीं
दे रहे हैं कि
यह तुम्हारी
कोई परीक्षा
करनी है, तुम
तो हल कर ही
लोगे, यह
इतना सरल है।
सिर्फ हम यह
जानना चाहते
हैं कि क्या
एकाध विद्यार्थी
ऐसा भी है
तुम्हारी
कक्षा में जो
इसमें भी भूल—चूक
कर जाये।
सवाल
वही,
कक्षा वही।
बड़े अंतर आये
परिणाम में।
पहले वर्ग में
पंद्रह लड़कों
में से केवल तीन
लड़के हल कर
पाये। दूसरे
वर्ग में
पंद्रह में से
बारह ने हल
किया, केवल
तीन हल न कर
पाये। इतना
बड़ा अंतर!
सवाल वही। उस
सवाल के साथ
जो भाव दिया
गया, वह
परिणामकारी
हुआ।
अष्टावक्र
तुमसे नहीं
कहते कि धर्म
दुःसाध्य है।
अष्टावक्र
कहते हैं, बड़ा
सरल है। जो
दुःसाध्य
कहते हैं, वे
दुःसाध्य बना
देते हैं। जो
कहते हैं, बड़ा
असंभव है, खड्ग
की धार, वे
तुम्हें घबड़ा
देते हैं। जो
कहते हैं, यह
तो हिमालय पर
चढ़ने जैसा है,
इसमें तो
विरले चढ़ पाते
हैं—तुम छोड़
ही देते फिक्र
कि 'विरले
तो हम हैं नहीं,
यह अपने बस
की बात नहीं; तो चढ़े
विरले, हम
इस झंझट में न
पड़ेंगे। हम
स्वागत करते
हैं विरलों का,
जाएं! मगर
हम सीधे—सादे
आदमी, हमें
तो इसी घाटी
में रहने दो!'
अष्टावक्र
कहते हैं, यह
बड़ा सरल है।
यह इतना सरल
है कि तुम्हें
कुछ करने की
भी जरूरत नहीं,
सिर्फ जागकर
देखना
पर्याप्त है।
यह
मनुष्य की
मेधा की अंतिम
घोषणा है। यह
मनुष्य की
अंतिम
संभावनाओं के
प्रति मनुष्य
को सजग करना
है। धर्म
मनुष्य की
प्रतिभा का
आखिरी
चमत्कार है।
अगर तुलना
करनी हो तो
राजनीति
मनुष्य की
प्रतिभा का
निकृष्टतम
रूप है और
धर्म मनुष्य
की प्रतिभा का
श्रेष्ठतम
रूप है।
ऐसा
हुआ,
एक राजनेता
सख्त बीमारी
से उठा। तो
डाक्टर ने
सलाह दी : दो—तीन
महीने तक आप
कोई भी दिमागी
काम न करें।
राजनेता ने
पूछा, 'डाक्टर
साहब! यदि
थोड़ी राजनीति
इत्यादि करूं तो
कोई आपत्ति है?'
डाक्टर ने
कहा, 'नहीं,
बिलकुल
नहीं, राजनीति
आप जितनी
चाहें करें, बस दिमागी
काम बिलकुल न
करें।
राजनीति
में दिमागी
काम है भी
नहीं।
राजनीति में
तो हिंसा है, प्रतिभा
नहीं; छीन—झपट
है, संघर्ष
है, शांति
नहीं; चैन
नहीं, बेचैनी
है, महत्वाकांक्षा
है, ईर्ष्या
है, आक्रमण
है; आत्मा
नहीं।
धर्म
अनाक्रमण है, अहिंसा
है, प्रतियोगिता—मुक्ति
है; संघर्ष
नहीं, समर्पण
है। किसी से
छीनना नहीं है;
अपना जो है,
उसकी घोषणा
करनी है। अपना
ही इतना काफी
है कि किसी से
छीनना क्या है?
छीनते तो वे
ही हैं
जिन्हें अपना
पता नहीं।
टुकड़े—टुकड़े
के लिए लड़ते
हैं, और
परमात्मा
भीतर
विराजमान है!
टुकड़े—टुकड़े
के लिए मरते
हैं, और
परम विस्तार
भीतर मौजूद
है! सागर
मौजूद है, बूंदों
के लिए तरसते
हैं!
जिन्हें
अपना पता नहीं
है,
वे ही
राजनीति में
होते हैं। और
जब मैं
राजनीति कहता
हूं तो मेरा
मतलब इतना ही
नहीं कि वे
लोग जो
राजनीतिक
पार्टियों में
हैं। राजनीति
से मेरा मतलब
है. वे सभी लोग
जो किसी तरह
के संघर्ष में
हैं। वह धन का
संघर्ष हो तो
धन की राजनीति।
पद का संघर्ष
हो तो पद की
राजनीति।
त्याग का
संघर्ष हो तो
त्याग की
राजनीति।
त्यागियों
में बड़ा
संघर्ष होता
है कि कोई दूसरा
त्यागी हाथ न
मार ले।
ओलंपिक चलता
रहता है
त्यागियों का
कि कोई
महात्मा बड़ा न
हो जाये! तो एक
महात्मा
दूसरे
महात्मा को
हराने में लगा
है। वह तो अगर
कभी भारत में
ओलंपिक हो तो
उसमें महात्माओं
की भी
प्रतियोगिता
होनी चाहिए।
लेकिन
जहां भी
प्रतियोगिता
है वहीं
राजनीति है।
राजनीति का
मूल स्वर है
कि मेरे पास
नहीं है और
दूसरों के पास
है;
छीन कर ही
मेरे पास हो
सकेगा। लेकिन
जो तुम दूसरे
से छीनते हो, वह तुम्हारा
कब होगा, कैसे
होगा? छीना
हुआ तुम्हारा
कैसे होगा? जो छीना गया
है, वह
छीना जायेगा।
आज नहीं कल, तुमसे कोई
दूसरा छीन
लेगा। और अगर
कोई भी न छीन
पाया तो मौत
तो निश्चित
छीन लेगी।
तुम्हारा तो
सिर्फ वही है
जो किसी से
बिना छीने
तुम्हारा है,
तो फिर मौत
भी न छीन
पायेगी।
तुम्हारा तो
वही है जो
जन्म के पहले
तुम्हारा था,
मौत के बाद
भी तुम्हारा
होगा।
उस
एक की खोज करो।
और उस एक की
खोज के लिए
साधन तक की
जरूरत नहीं है—
अष्टावक्र
कहते हैं—सिर्फ
सजगता, सिर्फ
साक्षी— भाव।
जीवन
में तुम्हें
बहुत बार लगता
भी है कि व्यर्थ
दौड़े चले जा
रहे हैं; लेकिन
रुके कैसे!
ऐसा नहीं है
कि तुम्हें
नहीं लगता कि
यह व्यर्थ दौड़—धूप
है। तुम्हें
भी लगता है
लेकिन रुके
कैसे! फिर दौड़—धूप
का अभ्यास प्राचीन
है। रुकना भूल
ही गये हैं।
पैरों की आदत
दौड़ने की हो
गई है। मन की
आदत दौड़ने की
हो गई है।
अभ्यास ऐसा हो
गया है कि बैठ
नहीं सकते।
बैठने का
अभ्यास खो गया
है।
आ
गयी थी शिकायत
लबों पे मगर
किससे
कहते तो क्या, कहना
बेकार था
चल
पड़े दर्द पी
कर तो चलते
रहे
हार
कर बैठ जाने
से इनकार था।
और
फिर लोग सोचते
हैं कि ऐसे
बैठ गये तो
हार जायेंगे, बैठ
गये तो लोग
समझेंगे हार
गये, बैठ
गये तो लोग
समझेंगे, अरे
पलायनवादी!
भगोड़े! बैठ
गये तो जो भीड़
जा रही है
हजारों की, वह निंदा से
देखेगी। तो
लोग चलते रहते
हैं।
शिकायत
बहुत बार आ जाती
है मन में कि
यह सब व्यर्थ
मालूम होता है, लेकिन
किससे कहो!
कौन समझेगा!
यहां सभी
तुम्हारे
जैसे हैं। कोई
किसी. से कहता
नहीं। अपने—अपने
घाव छिपाए लोग
चलते रहते हैं।
आ
गयी थी शिकायत
लबों पे मगर
किससे
कहते तो क्या, कहना
बेकार था
कोई
अष्टावक्र
मिले, कोई
बुद्ध मिले तो
कहने का कोई
सार है। किससे
कहना यहां!
चल
पड़े दर्द पी
कर तो चलते
रहे
दर्द
पी—पीकर लोग
चलते रहते हैं।
हार
कर बैठ जाने
से इनकार था।
और
यह अहंकार की
धारणा हो जाती
है कि हारकर
बैठने का मतलब
तो गये, डूब
गए, मर गये।
चलते रहो, कुछ
न कुछ करते
रहो! कुछ न कुछ
पाने की
चेष्टा में
लगे रहो.! नहीं
तो खो जाओगे।
और मिलता
उन्हें है जो
बैठ जाते हैं।
मिलता उन्हें
है जो रुक
जाते हैं।
परमात्मा
भागने से नहीं
मिलता, रुकने
से मिलता है।
इसलिए
अष्टावक्र
कहते हैं, परम
विश्रांति
में मिलता है।
कभी
थोड़ा बैठो!
कभी घड़ी भर
खोजकर, सिर्फ
बैठो, कुछ
मत करो!
झेन
फकीरों में एक
प्रक्रिया है
झाझेन। झाझेन
का मतलब होता
है. बस बैठो और
कुछ मत करो।
बड़ी गहरी
ध्यान की
प्रक्रिया है।
प्रक्रिया
कहनी ठीक ही
नहीं; क्योंकि
प्रक्रिया तो
कुछ भी नहीं, बस बैठो, कुछ
भी न करो।
जैसे
अष्टावक्र जो
कह रहे हैं, वही झेन कह
रहा है. बैठ
जाओ! कुछ देर
सिर्फ बैठो
विश्राम में।
कुछ देर सब
ऊहापोह छोड़ो!
कुछ देर सब महत्वाकांक्षा
छोड़ो। मन की
दौड़—धूप, आपाधापी
छौड़ो! थोड़ी
देर सिर्फ
बैठे रहो, डूबे
रहो अपने में!
धीरे—
धीरे
तुम्हारे
भीतर एक
प्रकाश फैलना
शुरू होगा।
शुरू में शायद
न दिखाई पड़े।
ऐसे ही जैसे
तुम भरी
दोपहरी में घर
लौटते हो तो
घर के भीतर
अंधेरा मालूम
होता है, आंखें
धूप की आदी हो
गयी हैं। थोड़ी
देर बैठते हो,
आंखें राजी
हो जाती हैं
तो फिर प्रकाश
मालूम होने लगता
है। धीरे—धीरे
कमरे में
प्रकाश हो
जाता है।
ऐसा
ही भीतर है।
बाहर—बाहर चले
जन्मों तक, तो
भीतर अंधेरा
मालूम होता है।
पहली दफा
जाओगे तो कुछ
भी न सूझेगा.
अंधेरा ही अंधेरा!
घबड़ाना मत!
बैठो! थोड़ा आंख
को राजी होने
दो भीतर के
लिए। ये आंख
की पुतलियां
धूप के लिए
आदी हो गई हैं।
तुमने
खयाल किया, धूप
में जब तुम
जाते हो तो आंख
की पुतलियां
छोटी हो जाती
हैं। धूप के
बाद एकदम आईने
में देखना तो
तुम्हें पुतली
बहुत छोटी
मालूम पड़ेगी,
क्योंकि
उतनी धूप को
भीतर नहीं ले
जाया जा सकता,
वह जरूरत से
ज्यादा है, तो पुतली
सिकुड़ जाती है।
वह आटोमैटिक
है, स्वचालित
सिकुड़न है।
फिर जब तुम
अंधेरे में
आते हो तो
पुतली को फैलना
पड़ता है, पुतली
बड़ी हो जाती
है। अंधेरे
में थोड़ी देर
बैठने के बाद
फिर आईने में
देखना तो
पाओगे पुतली
बड़ी हो गई। और जो इस
कहर की आंख का
ढंग है, वही
भीतर की तीसरी
आंख का भी ढंग
है। बाहर
देखने के लिए
पुतली छोटी चाहिए।
भीतर देखने के
लिए पुतली बड़ी
चाहिए। तो
अभ्यास हो गया
है पुराना। उस
अभ्यास को
मिटाने के लिए
कुछ नया
अभ्यास नहीं
करना है। बस
बैठ रहो!
लोग
पूछते हैं, 'बैठकर
क्या करें? चलो कुछ राम—नाम
दे दो, कोई
मंत्र दे दो; उसी को
दोहराते
रहेंगे। मगर
कुछ दे दो कुछ
करने को!' लोग
कहते हैं, आलंबन
चाहिए, सहारा
चाहिए।
अनुष्ठान
किया कि बंधन
शुरू हुआ
सिर्फ बैठो! बैठने
का भी मतलब यह
नहीं कि बैठो
ही,
खड़े भी रह
सकते हो, लेट
भी सकते हो।
बैठने से मतलब
इतना ही है.
कुछ न करो, थोड़ी
देर चौबीस
घंटे में
अकर्ता हो
जाओ! अकर्मण्य
हो जाओ! खाली
रह जाओ! होने
दो जो हो रहा
है। संसार बह
रहा है, बहने
दो; चल रहा
है, चलने
दो। आवाज आती
है आने दो।
रेल निकले, हवाई जहांज
चले, शोरगुल
हो—होने दो, तुम बैठे
रहो।
एकाग्रता
नहीं—तुम
सिर्फ बैठे
रहो। समाधि
धीरे—धीरे
तुम्हारे
भीतर सघन होने
लगेगी। तुम
अचानक समझ
पाओगे
अष्टावक्र का
अर्थ क्या है—अनुष्ठान—रहित
होने का अर्थ
क्या है?
'साकार को
मिथ्या जान, निराकार को
निश्चल—नित्य
जान इस यथार्थ
(तत्व ) उपदेश
से पुन: संसार
में उत्पत्ति
नहीं होती।’
जिसको
बुद्ध ने कहा
है,
अनागामिन—ऐसा
व्यक्ति जब
मरता है तो
फिर वापिस
नहीं आता।
क्योंकि
वापिस तो हम
अपनी
आकांक्षा के
कारण आते हैं,
राजनीति के
कारण आते हैं।
वापिस तो हम
वासना के कारण
आते हैं। जो
यह जानकर मरता
है कि मैं
सिर्फ जानने
वाला हूं उसका
फिर कोई आगमन
नहीं होता। वह
इस व्यर्थ के
चक्कर से छूट
जाता है—आवागमन
से।
'साकार को
मिथ्या जान!'
साकारमनृत
विद्धि
निराकार
निश्चलम्
विद्धि।
'निराकार को
निश्चल—नित्य
जान।’
जो
हमारे भीतर
आकार है, वही
भ्रांत है। जो
हमारे भीतर
निराकार है, वही सत्य है।
देखा
कभी पानी में
भंवर पड़ती है!
भंवर क्या है? पानी
में ही उठी एक
लहर है, फिर
शांत हो जाती
है, तो भंवर
कहां खो जाती
है? भंवर
थी ही नहीं; पानी में ही
एक तरंग थी; पानी में ही
एक रूप उठा था।
ऐसे ही हम
परमात्मा में
उठी एक तरंग
हैं। तरंग खो
जाती, कुछ
भी पीछे छूटता
नहीं। राख भी
नहीं छूटती।
निशान भी नहीं
छूटता। जैसे
पानी पर तुम
कुछ लिखो, लिखते
ही मिट जाता
है—ऐसे ही
जीवन की सारी
आकार की
स्थितियां
तरंगें मात्र
हैं।
'जिस तरह
दर्पण अपने
में
प्रतिबिंबित
रूप के भीतर
और बाहर स्थित
है, उसी
तरह परमात्मा
इस शरीर के
भीतर और बाहर
स्थित है।’
तुमने
देखा दर्पण के
सामने तुम खड़े
होते हो, प्रतिबिंब
बनता है! बनता
है कुछ दर्पण
में? प्रतिबिंब
बनता है, यानी
कुछ भी नहीं
बनता। तुम हट
गये, प्रतिबिंब
हट जाता है।
दर्पण जैसा था
वैसा ही है।
जैसे का तैसा।
तुम्हारे
सामने होने से
दर्पण में
प्रतिबिंब
बना था, हट
जाने से हट
गया, लेकिन
दर्पण में न
तो कुछ बना और
न कुछ हटा, दर्पण
अपने स्वभाव
में रहा।
यह
सूत्र कहता है
अष्टावक्र का, कि
जैसे दर्पण के
सामने खड़े हों,
दर्पण में
प्रतिबिंब
बनता है; लेकिन
प्रतिबिंब
वस्तुत: बनता
है क्या? बना
हुआ प्रतीत
होता है।
प्रतिबिंब से
धोखा मत खा
जाना। बहुत
लोग धोखा खाते
हैं
प्रतिबिंब से।
और
यह सूत्र कहता
है कि
प्रतिबिंब के
चारों तरफ
दर्पण हैं—बाहर—
भीतर; प्रतिबिंब
में दर्पण ही
दर्पण हैं, और कुछ भी
नहीं है। ऐसा
ही, उसी
तरह परमात्मा
इस शरीर के
भीतर और बाहर
स्थित है।
परमात्मा
भीतर, परमात्मा
बाहर, परमात्मा
ऊपर, परमात्मा
नीचे, परमात्मा
पश्चिम, परमात्मा
पूरब, परमात्मा
दक्षिण, परमात्मा
उत्तर—सब तरफ
वही एक है। उस
विराट के सागर
में उठी हम
छोटी भंवरे, छोटी तरंगें
हैं
अपने
को तरंग मानकर
मत उलझ जाना।
अपने को सागर
ही मानना। बस
इतनी ही
मान्यता का
भेद है—बंधन
और मुक्ति में।
जिसने अपने को
तरंग समझा, वह
बंध गया; जिसने
अपने को सागर
समझा, वह
मुका हो गया।
'जिस तरह
सर्वव्यापी
एक आकाश घट के
बाहर और भीतर
स्थित है, उसी
तरह नित्य और
निरंतर
ब्रह्म सब
भूतों में स्थित
है।’
'जिस तरह
सर्वव्यापी
एक आकाश घट के
बाहर और भीतर।’
घड़ा
रखा है। घड़े
के भीतर भी
वही आकाश है, घड़े
के बाहर भी
वही आकाश है।
तुम घड़े को
फोड़ दो तो
आकाश नहीं
फूटता। तुम
घड़े को बना लो
तो आकाश
बिगड़ता नहीं।
घड़ा तिरछा हो,
गोल हो, कैसा
ही आकार हो, इससे आकाश
पर कोई आकार
नहीं चढ़ता।
हम
सब मिट्टी के
भांडे हैं; मिट्टी
के घड़े! बाहर
भी वही है, भीतर
भी वही है। इस
मिट्टी की
पतली—सी दीवार
को तुम बहुत
ज्यादा मूल्य
मत दे देना।
यह मिट्टी की
पतली—सी दीवाल
तुम्हें एक
घड़ा बना रही
है। इससे बहुत
जकड़ मत जाना।
अगर तुमने ऐसा
मान लिया कि
यह मिट्टी की
दीवाल ही मैं
हूं तो फिर
तुम बार—बार
घड़े बनते
रहोगे, क्योंकि
तुम्हारी
मान्यता
तुम्हें
वापिस खींच
लायेगी। कोई और
तुम्हें
संसार में
नहीं लाता है;
तुम्हारे
के होने की
धारणा ही
तुम्हें
वापिस ले आती
है। एक बार
तुम जान लो कि
दुम घड़े के
भीतर का शून्य
हो..।
लाओत्सु
के वचन
अर्थपूर्ण
हैं। लाओत्सु
कहता है : घड़े
की दीवाल का
क्या मूल्य है? असली
मूल्य तो घड़े
के भीतर के
शून्य का होता
है। पानी
भरोगे तो
शून्य में
भरेगा, दीवाल
में थोड़े ही!
मकान बनाते हो
तुम, तो
तुम दीवाल को
मकान कहते हो?
तो गलती है।
दीवाल के भीतर
जो खाली जगह
है, वही
मकान है। रहते
तो उसमें हो, दीवाल में
थोड़े ही रहते
हो! दीवाल तो
केवल एक सीमा
है। असली में
रहते तो हम आकाश
में ही हैं।
हैं तो हम सब
दिगंबर ही।
भीतर के आकाश
में रहो कि
बाहर के आकाश
में, दीवाल
के कारण कोई
फर्क थोड़े ही
पड़ता है? दीवाल
तो आज है, कल
गिर जायेगी? आकाश सदा है।
तो
तुम भूल से घर
को अगर दीवाल
समझ लेते हो
और घड़े को अगर
मिट्टी की
पर्त समझ लेते
हो और अपने को
अगर देह समझ
लेते हो, तो बस
यही बंधन है।
जरा—सी गलती, पढ्ने में
जीवन के
शास्त्र को—और
सब गलत हो
जाता है। बड़ी
छोटी—सी भूल
है!
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
बार अपने
विचारों में डूबा
बस में चढ़ गया
और सीट पर
बैठकर सिगरेट
पीने लगा।
'साफ—साफ तो
लिखा है कि बस
में धूम्रपान
वर्जित है, क्या आपने
पढ़ा नहीं? क्या
आपको पढना
नहीं आता', कंडक्टर
ने
क्रोधपूर्वक
उससे कहा।
'पढ़ तो लिया, लेकिन लिखने
को तो बस में
बहुत कुछ लिखा
है। मैं किस—किस
की बात का
पालन करूं?' नसरुद्दीन
बोला।’यही
देखो! यहां
लिखा है, हमेशा
हैंडलूम की
साड़ियां पहनो!'
जरा—सा
ऐसी भूलों से
सावधान होना
जरूरी है।
शरीर बहुत
करीब है, इसलिए
शरीर की भाषा
पढ़ लेनी बहुत
आसान है। और
शरीर इतना
करीब है कि
उसकी छाया
भीतर के दर्पण
पर पड़ती है, प्रतिबिंब
बनता है।
लेकिन तुम
शरीर में हो, शरीर नहीं।
शरीर
तुम्हारा है,
तुम शरीर के
नहीं। शरीर
तुम्हारा
साधन है; तुम
साध्य हो।
शरीर का उपयोग
करो; मालकियत
मत खो दो! शरीर
के भीतर रहते
हुए भी शरीर
के पार रहो—जल
में कमलवत!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें