(दसघरा की दस कहानियां )
गाँव की शांति में अचानक तूफ़ान आ गया, कहाँ दबी पड़ी थी यह अशांति जंगली घास की तरह चार बुंदे अषाढ़ की पड़ी नहीं की न जाने कहां से उग आई। मनुष्य, औरतें, बच्चे ही नहीं, पेड़, पौधे, पशु-पक्षी सभी आश्चर्य और शौक में भर गये थे। औरतें गली चौराहों पर खड़ी घूंघट में ही खुसर-फुसर करती हुई जगह-जगह खड़ी दिखाई दे रही थी। कैसी कुंभ करणीय नींद से एक दम जाग गया था पूरा गाँव। सबसे ज्यादा रौनक मेला गहमागहमी चाचा चुन्नी की चाय की दुकान पर थी। चाचा चुन्नी की दुकान क्या गाँव का तोरण ही समझो। जो गाँव की कथा, पटकथा, रौनक, मेला यहीं से शुरू और यहीं पर आकर खत्म भी हो जाता था। आप इसे पूरे गाँव के ब्रह्मांड का केंद्र बिन्दु समझो। चुन्नी चाचा की चुटकी में कुछ ऐसा जादू था। अगर उनके हाथ की कोई चाय पी लेता तो फिर हो जाता उनकी चाय का कायल। चाचा की चाय में न जाने ऐसा क्या जादू था या कौन ऐसा रहस्य था। जिसे न तो आज तक कोई गुन पाया और न ही उसे समझ पाया। लाख लोगों ने कोशिश की परंतु उस रहस्य को कोई खोल नहीं पाया। जो आज भी अपनी जगह अटल है। बात यहां तक सुनने में आती है, चुन्नी चाचा की शान में, किसी ने उनके हाथ की चाय न पी तो समझो जीवन बेकार, नाहक ही वह आया इस दुनियाँ में, सर खपाई करने के लिए।
आज की खुसर-फुसर ने दुकान का सारे कायदे कानून ताक पर रख दिये थे। चाचा का पहले ही पारा सातवें आसमान पर रहता था। आज जो गिनना ही मुश्किल है...अनंत आसमान ही समझो। कितनी ही क्रोध भरी वाणी चाचा की जबान से निकल रही हो, आप उनके चेहरे पर फैला क्रोध का कोई चिन्ह तक नहीं पाओगे। चेहरा कैसे सपाट रेगिस्तानी रेत की तरह समतल रहता था भाव विहीन। परंतु उसमें कुरूपता कभी नहीं आती थी। चाचा चुन्नी की आंखें काली थी परंतु एक दम शीशे की तरह पार दर्शी। दिल भी उनका एक मुलायम ही होना चाहिए। आंखें तो दिल का आईना होती है। जहाँ मीलों तक कोई झाड़-झुक्कड़ नहीं सफाचट मैदान, कोरा, निर्मल, भाव रहित। गजब कलाकार थे हमारे चुन्नी चाचा, कोई नाटक-नौटंकी वाले की निगाह में आ जाते तो फिर छुट्टी थी तुम्हारे दिलीप, देवा आनंद, शाहारुख खान, मनोज कुमार की को कोई घास भी नहीं डालता बेचारों को। चलो जो भी होता है, अच्छा ही होता है, वरना तो हमारे गाँव का रौनक मेला तो उठ चुका होता अब तक। अरे नाम होता, अब कोई कम नाम है गाँव का, ये सब किसके दम से है। चाचा चुन्नी चाय वाले कह लो या ’’दसघरा वाले’’ दोनों पर्यायवाची वन गये है।
घटना यूँ घटी गाँव के भीमा की पोती ने मनखू धानक के लड़के से कोर्ट में विवाहा कर लिया। अब बोलो बचा कुछ कहने को, अनहोनी बात हो गई। दादा बुलाकी, राम सरूप, महाशय जिले सिंह, हवलदार, कबूल...। चारों चौकड़ी लम्बा घुटनों तक मुँह लटका ये, आग बबूला हो, चिंतित बैठे सर धुन रहे थे। गजब हो गया इस गांव की नाक ही कट गई। कैसी पवित्र मिट्टी थी अपने गांव की। कलंकित कर दी। देश की आजादी के लिए यहां से सपूत मरते थे। आज कोर्ट से विवाह कर के अपनी नाक कटवा रहे है। अरे भाई तु अनाथ थोड़े ही था। तेरा बाप एक ठेके दार ननवा, सब जानते है उसे गाड़ी चलती है उसके नाम की। दूर दौराला चीनी मिल तक उसका नाम है। अरे अपने राष्ट्रपति भवन को बनावने में काम किया है। क्या समझते हो वो भी अंग्रेजों के जमाने में। और आज कल के ये लड़के चार लाईन पढ़े नहीं कि हो गये बगावती। कालेज की पढ़ाई में ही कुछ दोष है में तो यही कहा रहा हूं। ये शिक्षा ही जहर है।
दादा बुलाकी--’’इब तो एक गली से दूसरी गली में ही ब्याहा की कमी रह गई से।’’
महाशय जिले सिंह सर पर दयानंद स्टाइल साफा बाँधते, कली का बंगाली कुरता पहने, हाथ में मोटा-सोटा लिए हुए कहाँ--’’कलजुग आ गया भाई शामी जी (दयानंद जी ) ने पहला ही कह दिया था कि जे बाते तो होनी ही थी। परंतु आज कल के बच्चे सुनते कहां है। न तो अपने धार्मिक ग्रंथ ही पढ़ते और न ही संगत अच्छी रही। बिना संगत में मनुष्य की गत बहुत खराब हो जाती है। कहते है ये रामायण, महाभारत सब काल्पनिक है। हद कर दी आज कल के नवजवानों ने। पढ़ा एक शब्द नहीं और दूसरों की बात मान ली पल में। या तो अभी शुरूआत है भाई बुलाकी आगे-आगे क्या-क्या देखने को मिलेगा।’
हवलदार कबूल-'मेरा तो ऐसा मन कर रहा है, चार लट्ठ मर कर उसे सीधा कर दो देखना दूसरे दिन न उतर जाये इस आशकी का भूत। पर भाई आज कल के इन बालकों को जरा धमका भी दो कैसी टेढ़ी नजारा से घूर कर देखते है जैसे की खा जायेगें। टाइम खराब आ रहा है भाई।’’
चाचा चुन्नी-'तम यूं ही नाहक क्यों थूक बिलोने लग रहे हो। पता तो है नहीं जो उन बच्चों ने किया है अब उनका कुछ नहीं हो सकता। तुम्हारी पंचायत की अब कोई कीमत नहीं रह गई है। इस कोट कचहरियाँ के सामने उन्होंने मजिस्ट्रेट के सामने खड़े होकर शादी की भारत संविधान अब उनके साथ है। आप नाहक परेशान हो रहे हो। कैसी पागल जैसे बाते कर हरा है तु कबूल। समय बदलता है, तो ताकत भी बदलती है। अंग्रेजों ने जीवन भर हम को आपस में लडवातें रहे। कभी मुसलमानों से, कभी जाति के नाम से अंग्रेजों से पहले इस ऊंच नीच को कोई निशान नहीं था। ये सारा का सारा घपला इन कॉमनेस्ट और अंग्रेजों के दिमाग की देन थी। बताओ तुम अगर हरिजनों को कुएं से पानी नहीं भरने दिया जाता था तो हमारे गांव में तो एक ही कुआँ है। तब ये कहां से पानी लाते थे। परंतु अब यही बात आजादी के बाद हमारे देश के नेता कर रहे है।’’
मैं उस सब के बीच में फंसा अखबार पढ़ना तो भूल ही गया, बस किसी तरह मुंह को छूपाये हुए ये सब बातें सुन रहा था। एक तो मन कर रहा था निकल भागू यहां से किसी तरह से नहीं तो ये सब मिल कर मुझे घेर लेंगे।
दादा बुलाकी--’’अरे ओ छोरे तू किसका है।’’
मैं--’’ दादा मैं राम दरस का बेटा, और पाटन का पोता हूं।’’
--’’भाई कोन सी कक्षा में पढ़े रहा हैं तु अब।’’
--’’दादा एम ए में यानि की 16वीं कक्षा में।’’
--’’वाह क्या बात है, तू तो बहुत बड़ी पढ़ाई पढ़ रहा है, अच्छा तू भी अपने गांव का नाम रोशन करना, एक बात मेरी समझ में नहीं आती यों पढ-पढ के तुम्हारे दिमाग में गोबर कैसे भर जाता है। देख हमारे गांव की भी कोई खबर आई से इस अखबार में।’’
--’’ कौन सी खबर दादा मुझे पता नहीं है।’’ (जबकि मुझे पता था)
--’’अरे कितना बावला से यह छोरा, अरे वो भीमा की पोती राम कुमार की बेटी ने अपने ‘’टोड़ापूर’’ वाले और मनखू धानक के छोरे की कोई बात। आज कल के बालक किसी का नाम गोत्र नहीं जानते। अरे भीमा वाला जौहड़ देखा है न उस न ही खुदवाया था। और आजा देखों उस पुण्य का क्या फल मिलन लग रहा था।’’
--’’नहीं दादा इसमें ऐसी कोई खबर नहीं आई हे।’’
--’’ चौखा यह भी ठीक रही, अरे चुन्नी चार कप चाय तो पिला दे यार कितनी देर होगी मगज खपाई करते। इज्जत तो अब गांव की गई। परंतु देखना इसी तरह से चलते रहे तो बचेगा ये देश भी नहीं एक दिन यह खुद ही इस गर्त में डूब जायेगा।’’
गांव में इससे पहले इस तरह की घटना नहीं होती थी। टोड़ा पूरा चाहे यादव का गांव हो परंतु वह सब हमारे भाई थे। दसघरा जाटों का गांव है। जाति की बात नहीं है। परंतु एक ही गांव में शादी करना। ये तो हद ही हो गई। गांव की सब लड़कियां हमारी बहन लगती है। अब हमारे गांव दसघरा में ही ले लो, गांव तो तुसीड़ गोत्र का है परंतु, प्रेम मोहब्बत में फोगाट, और फलसवाल भी बसा लिए। तब क्या कोई फोगाट लड़की इस गांव की बहु बन कर आ सकती है। नहीं हिंदु सोच बड़ा साफ और महान है, उसे गांव की बेटी कहेंगे या बहु। हिंदु धर्म का जो लोग मजाक बनाते है, उन्हें कुछ पता ही नहीं। किस तरह से गोत्र, मां, दादी, नानी तक बचाये जाते है।
सनातन की मान्यताओं के अनुसार विवाह अपने कुल में नहीं, बल्कि कुल के बाहर होना चाहिए। एक ही गोत्र में (सगोत्री) विवाह न हो सके, इसीलिए विवाह से पहले गोत्र पूछने की प्रथा आज भी प्रचलित है। शास्त्रों में अपने कुल में विवाह करना अधर्म, निंदित और महापाप बताया गया है,, इसलिए माता की 5 या पिता की 7 पीढ़ियों को छोड़कर अपनी ही जाति की दूसरे गोत्र की कन्या के साथ विवाह करके शास्त्र पदानुसार संतान पैदा करनी चाहिए। क्योंकि सगोत्र में विवाह करने पर पति-पत्नी में रक्त की अति समान जातियता होने से संतान का उचित विकास नहीं होता। यही कारण है कि अनादि काल से पशु-पक्षियों में कोई विकास नहीं हुआ है, वे ज्यों-के त्यों चले आ रहे हैं। सगोत्र विवाह का निषेध मनु महाराज ने भी किया है
उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र ‘’कश्यप’’ है तो उस व्यक्ति में विद्यमान y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है। या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल हैं। चूंकि yगुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता यही कारण है कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है। वैदिक / हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व स्त्री भाई बहन कहलाएंगे क्योंकि उनका प्रथम पूर्वज एक ही है।
परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नहीं कि जिन स्त्री व पुरुष ने एक दूसरे को कभी देखा तक नहीं और दोनों अलग-अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे, तो वे भाई बहन हो गये ?
इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता का भी है। आज के आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों के साथ उत्पन्न होगी।
ऐसे दंपतियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगोत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपति की संतानों में अनु वांशिक दोष अर्थात मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगोत्र विवाह पर प्रतिबंध
लगाया था।
इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके, इसलिये विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है, यही कारण था कि उस समय विधवा विवाह भी स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि, कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है।
यदि पुत्र है तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलन है। यदि पुत्री है तो 50% पिता और 50% माता का सम्मिलन है। फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई तो वह डी.एन.ए 50% का 50% रह जायेगा, फिर यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डी.एन.ए रह जायेगा, इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह प्रतिशत घटकर 1% रह जायेगा।
अर्थात, एक पति-पत्नी का ही डी.एन.ए सातवीं पीढ़ी तक पुनः-पुनः जन्म लेता रहता है , और यही है सात जन्मों का साथ।
अब गांव में अचानक इतनी बड़ी घटना घट गई जिसके विषय में सोचा नहीं था। दोनों गांव के प्रधान और समझदार लोग इकट्ठे हुए और विचार विमर्श, परामर्श किया गया कि अब आगे क्या किया जाये। इस तरह से तो बहन बेटी गलत रास्ते पर चलने लगेंगी। हिंदु धर्म एक विज्ञान है। तुम आज के बच्चे कुछ पढ़ते तो नहीं। दूसरे धर्मों की नकल और सिख को तुरंत मान लेते हो। कुछ धर्मो में तो वह बहन से भी विवाह कर लेते है। तब बुद्धि का विकास कहां से होगा। केवल सेक्स पर ही आपना जीवन खत्म कर देते है ये लोग। खून और सेक्स ही उनका धर्म है। खेर जो हुआ उसे समझाया या फिर सुलझाया जायेगा। और जाना भी चाहिए।
कहते है की पास का जो टोड़ापुर गांव है, वह राजा टोडरमल की पुस्तेनी जमीन पर बसा है। इसमें यादव लोग रहते है। कहते है एक बार इन लोगों ने राजा टोड़रमल की अहमदाबाद या गुजरता में काफी मदद की थी। और कहा था कभी मेरी जरूरत पड़े तो दिल्ली आ जाना। क्या सही है और क्या गलत ये राम जाने परंतु। हम दोनों ही नहीं आस पास के शादी पूर नरायणा, या मलचा तब परिवार की तरह से नाता था। टोडापुर से राम कुमार और दसघरा से मनखू को बुलाया गया। साथ उसके परिवार के लोग भी साथ थे। वो दोनों खुद शर्मिंदा थे। उन्होंने हाथ जोड़ कर पंचायत से माफी मांगी। पंचायत ने कहां की तुम खुद समझदार हो। हम कोई जोर जब दर्शी नहीं कर रहे। बस एक बात है, बच्चे बड़े हो गये परंतु परंपरा और शास्त्र ज्ञान नहीं है। खून का एक जोश है। आप सब उन्हें समझाओ। एक मछली के कारण सारा तालाब गंदा नहीं होना चाहिए। पढ़ाई ये नहीं कहती की आप अपनी धर्म मर्यादा को भूल जाओ। उससे कुछ सिखों। दोनों पिता और परिवार के लोगों ने कहां की आप सब बेफिक्र रहे। अगर लड़का या लड़की समझाने से समझ जाते है तो ठीक है। नहीं तो न वो मेरा बेटा है, न वो मेरी बेटी है। हम ये कलंक अपने गांव पर कभी नहीं लगने देंगे। अगर उन्हें रहना है तो दोनों गांव के बाहर रह सकते हो। परंतु हमार तब उनसे कानून रिश्ता खत्म हो जायेगा। परंतु उम्मीद है उन्हें बरगलाया गया है।
कुछ गांव के जवान लड़कों को भी साथ लिया गया। और उन सब में मैं भी शामिल था। अलग-अलग बात की उन्हें डी.एन.ए का विज्ञान अपने शस्त्रों की बात की। उनकी तो आंखें खुली की खुली रह गई। मैं भी उस कार्य का हिस्सा था। लड़की को भी वहां पर बुला लिया गया। एक खुले माहौल में हम पाँच छ: ही लोग उनके सामने बैठे। पहले उनकी सुनी। बाद में जब वो कह सके तब मैंने उन्हें कहां शादी दो शरीर की वासना ही नहीं है। इसके आगे भी बहुत कुछ है। तुम इससे क्या उत्पत्ति करोगे। इसका भुगतान तुम्हें करना होगा। स्वामी दयानंद जी का सत्यार्थ प्रकाश पढ़ो उसमें तो दिन समय तक कहां गया है। तब कैसे आप उच्च संतान पैदा कर सकते हो। सब गांव के लोग मेरी और देखने लगे की इसे क्या हो गया है। ये इतना ज्ञानी हम तो जाने ही नहीं। कुछ ना नुच कर लड़का और लड़की समझ गये की ये सब फिल्मों का भूत था। हमें पता नहीं की विवाह क्या होता है। बस कुछ कालेज के यार दोस्तों ने सलाह दी की शादी कोर्ट से कर लो। हम प्रेम और दोस्ती को एक समझ वासना बना देते है। सो बात बन गई तलाक के लिए दोनों तैयार हो गये। परंतु वह गांव के लिए एक मील का पत्थर बन गए। आज वो दोनों सरकारी नौकरी में कार्य रत है। एक बैंक में अफसर है। दूसरी लड़की पार्लियामेंट में आफिसर है। बच्चों को संगत जरूर चाहिए। पहले संगत मिलती है। आज की संगत हमें इन फिल्मी भांडों से मिलती है। जो नशेड़ी भंगेड़ी है। पहले जमाने में गुरुकुल हुआ करते थे। जिसमें भगवान राम क्या भगवान कृष्ण तो शिक्षा लेने जाना होता था। भला वो तो पूर्ण है फिर उन्हें शिक्षा की क्या जरूरत है। नहीं समाज के सामने वो आदर्श रखते है। आज सरकार ने सब हिंदु मंदिरों को तो आय का साधन बना लिया। परंतु उस पैसे से चलने वाले गुरुकुल बंध करा दिये। और दूसरे धर्म के चर्च, मदरसे उसी सरकारी चंदे से बेधड़क चल रहे है। जो आज हिंदु समाज में नहीं है। गुरुकुल खत्म करने से साम्यवाद की विकृति फैलती जा रही। शिक्षा तो है परंतु अगर इसमें संस्कार नहीं है। तो आप डेढ लाख कमा कर रात को होटलों में शराब पीते हो तो क्या किरना ऐसी कमाई की न वो समाज के काम आया न माता पिता के न किसी परिवार के न गांव के।
बेचारा भीम का जो पुण्य था वह आज काम आ गया। तब तो सब सोचते थे की भीमा बहार से पैसा कमा कर लाया है। परंतु पागल इतनी मेहनत से कमाया पैसा यूं ही तालाब खुदवाने में खर्च कर रहा है। गांव का एक तालाब तो है। फिर ये दूसरा क्यों खुदवा रहा है। परंतु प्रकृति आपने ऋण को कभी नहीं भूलती। पुराने जमाने के राजा और सेठ पैसा तो कमाते थे परंतु उस पैसे का कुछ हिस्सा लोगों और समाज की सेवा में बावड़ी, धर्मशालाएँ बनवाते थे।
मैंने देखा गाँव में एक मौत जैसा मातम था, चारों तरफ मायूसी छाई थी। सबका दुख अपना दुख था, किसी एक घर की घटना ना हो कर पूरे गांव पर छा गए घने काले बादल की तरह, अब बरसा की तब बरसा। कैसी सरलता थी अपने गांव में, परंतु एक बात सत्य थी गाँव के लोगों में, जबान से क्रोध कितना ही झरता परन्तु मन में कोई मैल, वमन, ईशा का भाव रंच मात्र भी नहीं होता था। चाचा चुन्नी की कथा तो पूरण कथा ही समझो, जिसका न आदि है अन्त, चराचर एक नदी के बहाव की तरह जो बिना रुके अपनी सीतलता से किनारों को छूता चलता जाए। एक बार आप ने चाय पी कर दोबारा माँग ली तो आपकी शामत आ गई--’’सारे दिन चाय-चाय भाग यहां से फूँक देगी तेरे कलेजे ने।’’आर ब्लाक राजेन्द्र नगर में थी हमारे चाचा चुन्नी की चाय की दुकान, बड़े-बड़े गाड़ियों वाले जब चाय की चुस्की भरते तो दंग रह जाते, भूल जाते चाचा की कटु वाणी, चाय के मिठास में कटुता कहाँ खो जाती थी पता ही नहीं चलता था। पूरी दिल्ली में चाचा की चाय का नाम था मेहरोली से ले कर बवाना तक के लोग चाचा की चाय का स्वाद लेने आते थे। जब गांव का कोई आदमी किसी दूसरे गांव में लड़की की शादी की बात करता तो पहले पूछते चाचा चुन्नी के गांव से हो आप। और शादी की बात बिना दहेज के पल में तैयार हो जाती। और लड़के तो पूछो ही मत। लोग तरसते थे की चाचा चुन्नी के गांव में हमारी लड़की गई है। वाह रे चाचा कमाल थे आप भी। एक दिन एक सरदार जी सुबह जल्दी आ गये चाय पीने के लिए, शरदी की ठिठुरन थी, चाचा अभी अंगीठी सुलगा ही रहे थे।
परंतु चाचा की दुकान की एक खासियत थी की अगर चाय पीनी है तो अपना कप आपको खूद ही धोना होगा। लिख के लगा रहा था। हमारे चाचा ने। बुरा लगे तो बीस बार मत पीओ चाय आपकी मर्जी अरे बाबा एक कप चाय पिला दो, चाचा का माथा एक दम गर्म अंगीठी से भी पहले हो गया उसने सरदार को ऊपर से नीचे तक देखा। मानो सरदार किसी और ही लोक से आया है। परन्तु कोई शुभ घड़ी ही थी, या सुबह की ताजगी छाई होगी चाचा के दिमाग़ में, कुछ नहीं बोले बस एक बार देखा सरदार जी को अपने चिर परिचित अन्दाज में और चाय चढ़ा दी अंगीठी पर, सरदार जी भी अपने तरीके के एक ही थे। ’’अरे बाबा चाय में थोड़ी पत्ती तेज रखना’’, चाचा ने फिर देखा हलके से मुसकुराये शायद बचपन लोट आया होगा, अरे बाबा थोड़ी चीनी तेज रखना, थोड़ा नमक भी डाल देना, गले में दर्द हो रहा हैं। जब सरदार जी ने पहला घुट भरा चाय का लिया तो लगे थू..थू..करने अरे ये क्या किया बाबा तू पागल हो गया है। ’’ फूफा जब सारी चीज अधिक चाहिए तो ये नमक कम क्यों? भले मानुष इसका भी पूरा मजा ले। और अगर कहे तो तेरे आठ आने भी इसमें डाल दूं।’’ चाचा खिलखिला कर एक शरारत भरी हंस दिए, सरदार जी बेचारे अपनी झेप मिटा कर बड़बड़ करते चले गये। आज चाचा मस्त लग रहे थे। आपातकाल आई तब उस लपेटे में चाचा कहां बचने वाले थे। आर ब्लाक में झुग्गियाँ संजय गांधी ने तोड़ी उसमें चाचा लपेटे में आ गए। 1975 की बात थी, जिन की भी झुग्गियां टूटी उन सब ने कहा पर्ची ले लो ’’सुलतान पुरी’’ या ‘’मंगोल पूरी’’ में दुकान मिल जायेगी, लोगों ने लाख समझाया अरे नहीं रखनी तो बेच देना। दस बीस हजार नगद मिल जायेगें। चाचा ने कहा जब मेरी अपनी ही जगह इतनी है की उसमें पचास झुग्गी बसा सकता हूं। तब सरकार को धोखा नहीं दे सकता। नहीं माने --’’कौन इतनी दूर जायेगा हमारे अपने ही घर के रोड़े ना संभाले जाते।’’
उस जमाने में कांग्रेस का जादू सर चढ़ कर बोलता था। पास राजेंद्र नगर के पो राम नाथ बीज ही एक मात्र जन संघ से जीत कर आते थे। और हमारे गांव में चार ही जनसंघ के प्रतिनिधी थे, चाचा, चेते, खिमे और हिमे। मोहर लगा दो दीपक पर, दो बैलों की जोड़ी नाक पकड़ के मरोडी। उसे बाद एक बल्ला मिलता था।
समय बितता गया चाचा ने दुकान गांव में आपने निजी रिहायशी जगह पर बना ली। दुकान क्या चाय बनाने का एक शौक था उसे पूरा तो करना था। वो पैसे को भी अधिक महत्व नहीं देते थे। उनका बेटा मेरा दोस्त था। इस लिए कभी मुझे आज तक चाचा को चाय के पैसे नहीं देने पड़े। हम श्याम को जब चाय पीने के बाद दूर तक दशा मैदान के लिए निकल पड़ते थे। एक पंथ दो काम होते थे। साथ में एक पानी की बोतल भर लेते थे। मई-जून में तो ठीक था परंतु दीपावली के आते-आते दिन छोटे हो जाते थे। तब आते-आते अँधेरा हो जाता था। वायरलेस के तारों के कारण बजरी खान से घूम कर आना होता था। इस लिए एक दिन हम दोनों को एक अजीब से संकट का सामना करना पड़ा कोई परछाई सी झाडियों की ओट से काफी दूर से हमारा पीछा कर हमें घेर रही थी। अचानक वह हमारे सामने आ गई। हमारे हाथ में कुछ नहीं था एक शीशे की वोट थे। तब पास पड़े हुए पत्थरों से हमने अपनी रक्षा की।
उस समय हम दोनों अंदर से डर तो बहुत गए थे। लेकिन एक तो हम दो थे दूसरे हम जवान थे। हम शेर भी मचा रहे थे। डर भी रहे थे और पत्थर भी फेंक रहे थे। आस पास एक दम से सून सान था। और पीछे की और भाग भी रहे थे। किसी तरह से हमने आधा मील भाग करअपनी जान बचाई। सोचा की जरूर कोई गीदड़ होगा। परंतु गीदड़ की इतनी हिम्मत नहीं हो सकती।
वह तो डरपोक प्राणी है। बाद में पता चाला जब चरवाहों ने कुड़की लगा कर एक लक्कड़ भग्गा मादा को जो गर्भवती थी को पकड़ा। उस दिन जिन बालमिकयो ने उसे पकड था सारा गांव ही नहीं दूर गांव के लोग भी उसे देखने आये थे। और उसे चिड़ियां घर की गाड़ी लेने आई थी। उन्हें इनाम और नौकरी भी दि थी परंतु शयद नौकरी यह कह कर छोड़ दी की इतनी दूर कोन जाये। उस के बाद से जब भी हम घूमने के लिए जाते तो एक डंडा जरूर साथ रखते थे।
चाचा के बेटे ने लाख मना किया कि आप बैठो अब घर पर मत मेहनत करो। मैं कमाता हूं। चाचा नहीं माने मैं भी साथ था तब मैंने कहां अपने दोस्त को की मत रोको चाचा को क्यों वह एक कार्य कर रहे है इस से उनका समय सुंदर कट रहा है।
परंतु चाचा कहां मानने वाले थे। चाचा हमारे एक दम मस्त मन मौजी थे। चाय के साथ गीत गुनगुनाते थे। वह भी सुर ताल में। कितनी तन्मयता से लगन से वह चाय बनाते थे। ऐसे लगता था की वह चाय नहीं बना रहे भगवान की आराधना कर रहे है। एक हमारे यहाँ का एम० एल० ए० श्री मान पूरण चंद जी पधारे, करेला वो भी नीम चढ़ा, नेता तो नेता ही होते हे। गाँव में घुसते ही खुले चौक के बीच चाचा की दुकान नजर आई। पहुंच गए दुकान पर, इक्का-दुक्का ग्राहक बैठे हुए थे। नेता जी ने आव देखा न ताव चला दिया नेता गिरी का रोब ’’अरे बाबा जरा भाग के जा और बुला कर तो ले आओ जरा राजेश्वर कौशिक जी को।’’
चाचा ने उठा लिया अपना सोटा तेरे बाप का नौकर लागू सू, आया चाल के हुक्म चलाने वाला।’’ पकड़ लिया चाचा चुन्नी ने नेता को, नेता तो बेचारा अपनी पूँछ दबा कर भागे, अरे बाबा बहुत गुस्सैल हो तुम तो। ऐसे थे हमारे चाचा चुन्नी। होली के दिनों की बात है हम सब रात को जब छुपा-छुपी खेलते, फिर देर रात जब सब सो जाते तो होली पर लड़कियां इक्कठा करते थे। ये सब कार्य चोरी से ही करना होता था परंतु कोई इस सब के लिए बुरा नहीं मानता था। और न ही होली पर गया सामान कोई वापस लेकर आता था।
आज हमारा निशाना चाचा चुन्नी की दुकान के सामने कीकर का बहुत बड़ा तना पड़ा था उस पर थी। सभी ने सलाह मिलाई, इसे एक दिन पहले होली पर डालेंगे, सो पहुँच गये चाचा की दुकान के पास रात के दो बजे। सब निश्चिंत थे अब वहाँ कौन होगा, परन्तु चाचा चुन्नी तो भूत बने पहरे पर बैठे थे। उम्मीद के अनुसार काम नहीं बना, समझे बात फैल गई जरूर किसी ने चाचा के कान में बात लीक कर दी। इससे चाचा चुन्नी चौकन्ना हो इन्तजार कर रहे थे हमारा। अब भला हम क्या बोलते बिना एक शब्द बोले हम सब दबे पाँव वापस एक खजले कुत्ते की तरह पूँछ दब कर चल दिए। हमें इस तरह से खाली हाथ वापस जाते देख कर। चाचा चुन्नी ने पीछे से आवाज लगाई ’’अरे छोरों उलटे क्यू चाल पड़े, क्या लेने के लिए यहां आये थे।’’ किसी की हिम्मत नहीं हुई, कुछ कहने की, क्योंकि चार पाई के पास एक मोटा लट्ठ भी तैयार था। सब यार मेरी और घूरकर देखने लगे क्योंकि मैं ही चाचा की दुकान पर आकर न्यूज पेपर पढ़ता था। चाचा का लड़का मेरा दोस्त भी इस चोरी में हमारे साथ था परंतु इस युद्ध में वह हमारे साथ नहीं आया वह थोड़ा दूर खड़ा तमाशा देखता रहा । तब चाचा ने मेरी और घूर कर कहा अरे वो पाटन के तू बाता तेरा यार कहां है। वह जानते थे रात के खेल में वो भी मेरे साथ जरूर होगा। मैंने कहां वह तो आज आया ही नहीं। तब बोले झूठ बोल रहा है। वह छुपा होगा की पीछे की और। मैंने हिम्मत कर के कहा कुछ नहीं चाचा होली के लिए...कुछ लड़कियां इकट्ठी कर रहे थे।
’’होली की ताही लाकडी लेन आये थे, अरे यार फिर क्यों डरन लाग रहे हो। डरो मत, उठा लौ जितनी थारी इच्छा हो, मैं कुछ ना कहूँ, बरस भर का त्यौहार से, और भाई ये तो पुण्य का काम से, आ जाओ मैं भी हाथ लगा तुम्हारी कुछ मदद कर देता हूं बहुत भारी है यह तना।’’
हम डरे-सहमते उस कुत्ते की हालत में आगे बढ़े जिसके सामने दूध का भरा बरतन हो और हाथ में मोटा सोटा, कई देर पुं..च..पुं..च ..का लाड़ सुन कर हम आगे बढ़े। सब यहीं सोच रहे थे कब हुआ चाचा का हमला, बच्चे तो फिर भी पास नहीं आये। चाचा ने खुद अपने हाथों से लड़की उठवाई, पूरी रात सोये नहीं हमारा इन्तजार करते रहे थे। शायद हमारे खेल में शामिल होने के लिए, ताकि हमारे मन में चोरी का भाव न कुरेदे। कैसे विरोध भाषी चरित्र, कितना कड़वा बोलते थे, पर थे कितने ’’मीठे बोल’’ ऐसे थे हमारे चाचा चुन्नी चाय वाले।
परन्तु आज चाचा क्या सभी गाँव के लोग परेशान है, सब समय की गति को पढ़ना चाहते हैं, परन्तु समय बिना ध्वनि किए तेज चाल से चला जाता है। जीवन के इस चौराहे पर जब मनुष्य पहुँचता है, तब खो चुका होता हे अपनी संघर्ष समता, पुराने संस्कार सूख कर दीमक खाई लड़की हो चुके होते है। आपने जरा छुआ नहीं की भुरभुरा कर गिर पड़ेंगे पल भर में। चाय पीते हुए गहरी साँस ले मेरी तरफ़ देख चाचा चुन्नी कहने लगे।’’ छोरे राम दरस के तुम जवानों का कोई लेना देन नहीं से इस ग्राम से या देश के प्रति, इस मिट्टी के प्रति। क्योंकि तुमने आजादी की कीमत नहीं चुकाई जिन लोगों ने संघर्ष किया था आज वो नहीं है। परंतु वह अंतिम समय मैंने अपनी आंखों से देखा है। इस लिए ये प्रकृति का नियम है जो चीज फ्री में मिलती है उसकी कोई कीमत नहीं होती उसके मन में विचारों में या भाव में। परंतु तुम्हें उसे जानना चाहिए। समझना चाहिए। जो आदमी अपनी मिट्टी से हवा से जल से प्रेम नहीं करता वह परमात्मा का बहुत बड़ा गुनाह गार है। हम ये सब प्रकृति ने उपहार के रूप में दिया है। हमार फर्ज बनता है कि इसे आने वाली पीढ़ी के लिए भी वरदान बना रहने दे।’’ चाचा के ऐसे विचार सून कर मैं तो दंग रह गया। क्या पढ़ हमने अकबर महान था, औरंगज़ेब ने जमा मस्जिद बनवाई, शाह जहां ने ताज महल बनवाया...जब ये इतने ही महान थे तो अपने देश में से सब ढ़ांचे क्यों नहीं बनवाए। तजाकिस्तान में आज भी मिट्टी के बने घर है। इंट तक बनानी उन्हें नहीं आती। किस ने लिखा ये इतिहास जो हमारे दिमाग में जहर घोल रहा है।
मैंने हिम्मत कर मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने की कोशिश की--’’चाचा फिल्मों में टी वी में एक ही कहानी दिखाते है, उसी गाँव का लड़की-लड़का साथ खेलते है, लड़ते हे, फिर प्रेम करते हे शादी करके उसी गाँव में रहते है। इस बात का कोई विरोध नहीं करता आप भी कहते थे,’’गंगा-जमुना’’ दिलीप कुमार की बहुत अच्छी फिल्म है। एक नहीं सभी भारतीय फिल्मों की यहीं कहानी होती है। कहीं यहीं बच्चों के दिमाग में गलत असर छोड़ती हो, फिल्म ही आज समाज का चरित्र निर्माण करती है, बाल कोमल मन उन्हें ही अपना आदर्श मान वैसा ही होना करना और बनना चाहते है। अब आज लोगों की मानसिकता बदल रही है, पैसे ने समाज में आदर्श, सिद्धान्तों से कहीं ऊपर अपना स्थान बना गया है। नैतिकता सिसक रही है विकास के किसी कोने में पड़ी-पड़ी इसको रोक पाना अंसम्भव है।
चाचा चुन्नी--’’ अरे छोरे पाटन के पोते एक बात ध्यान से सुन ले, इन फिल्म वालों और नेताओं में तो कीड़ी (चींटी) कितना भी दिमाग़ नहीं होता, अरे अगर दिमाग होता तो दूसरा धंधा नहीं कर लेते। परंतु देखों देश का दुर्भाग्य हमने इन्हें लोगों के हाथ में देश की लगाम सौंप दी। गन्जें के हाथ में नाखून आ गये है भाई इब टाँट (सर) की खैर मत समझना। अगर हम इसी तरह से चलते रहे तो अब आन वाले समय में ये नेता और फिल्म वाले ही भगवान होगे हमारे। घर-घर इनकी ही तस्वीर लगेगी और इनके नाम के ही मंदिर बनेंगे।
हां देश किसी परमवीर त्यागी पूरूष के हाथ आ गया तो ये देश बच सकता है। परंतु इन कांग्रेसी नेताओं में तो मात्र एक दो ही आदमी सच्चे थे, जो मर गये या मार दिये गये। जैसे सरदार वल्लभ भाई पटेल या नेताओं थारे, राम, कृष्ण, दयानंद स्वामी जी की जगहा, इन नेताओं और फिल्मी हीरो की फोटो लागी घर-घर। छोरे आज तू हमारी वात गांठ बांध ले, 200 साल राज किया अंग्रेजों ने हमारे तौर तरीके रहन सहन को नहीं छिना था न ही वह छिन पाये। देख लिया आजादी के 25 साल में तुम्हारी लंगोटी छिन ये सुतनी (पेंट) पनहा दी। अरे ये भारत देश केवल भारत रतन की माला में ही लिखा रह जायेगा। इन मल्लेछो की एक-एक गंदी बात तुम्हारे दिमाग में गीता, पुराण बन के बैठ जायेगी।
फिर मुड़ कर पास बैठे चाचा- यार जिले सिंह मैं तो मर जाऊंगा जब तक तू शायद जिंदा रहे सकता है। तब पूछना इस राम दरस छोरे से-देखना एक दिन अगर लड़के-लड़के और लड़की-लड़की का विवाहा ब्याहा ना करने लग जायेंगे आपस में तो तुम थू है मारी जिन्दगी पर। पहाड़ पर से गिरने के बाद केवल गिरना ही चला जाना होता है। रूकना की सम्भावना न के बराबर रह जाती है।
कोई विरला ही इस से सबक सिख सकता है। जो आज तुम सोच रहे हो वहीं तुम अपने भविष्य को तैयार कर रहे हो, एक बीज के रूप में। सो वही तुम्हारे सामने बोया पाएगा कल काटना भी वही पड़ेगा। उधम सिंह, भगत सिंह, राम प्रसाद बिसमिल, चंद्र शेखर आजाद, सुभाष, वीर संवरकर ने देश को आजाद करवाया। उन बेचारों को क्या पत्ता था उनके जाने के बाद देश कुत्ते मलाई खाएंगे। आजादी लेने की तो बात छोड़ ही दो ये लोग तो इसे सम्हाल के भी रख लो तो इनकी बहुत-बहुत मेहरबानी होगी।’
30-35 साल पहले जब चाचा चुन्नी और महाशय जिले सिंह ने ये बात कहीं थी, जब तो मैंने सोचा जोश में बोल रहे है। शायद आज गाँव में ऐसी अनहोनी घटना घटी है इससे उत्तेजित हो क्रोध के आवेग में बोल रहे है। परन्तु अभी दिल्ली कोर्ट का फैसले की खबर आई फिर इसपर चर्चा चली रही है कि समलैंगिक भी आपस में विवाहा कर सकते है। क्या विवाहा एक मात्र सेक्स की भूख बन कर रह गया है। ये मनुष्य का अति पतन है। असल में सेक्स शरीर की जरूरत है। सभी पशु पक्षियों पेड़ पौधों को प्रकृति तौर पर उपहार के रूप में मिली है। परंतु अगर वह शरीर से सरक कर मन पर आ जाये तो उसकी निकासी नहीं हो सकती।
इस लिए हिंदु धर्म में ब्रह्मचर्य का एक अध्याय है परंतु वह मात्र 25-50 तब मनुष्य का सेक्स उतार पर होता है। सब अंग शिथिल होते चले जाते है। उसके बाद मन अपना कार्य करता है। इस लिए हिंदूओं में विक्रीत सेक्स की अधिक उम्र में पाई जाती थी। परंतु आज तो एक जाति जन्म से ही विक्रीत हो रही गई। मेरे हिसाब से खतने को धर्म से जोड़ कर आदमी के सेक्स को विक्रीत कर दिया गया है। क्योंकि अब पुरुष जननेंद्री में वो तनाव कभी आयेगा ही नहीं। तब आप उस उतंग शिखर को छू ही नहीं पायेंगे। तब आप हमेशा अतृप्त ही रहेंगे सेक्स से। फिर वह धीर-धीरे रोग बनता चला जायेगा।
आज आप इसे अपने चारों और देख रहे है। तब कहीं वो बाते यादों की दबी पड़ी किन्हीं परतों ने अचानक एक अंगडाई ली। मेरा माथा ठनका अरे अपने चाचा चुन्नी नास्त्रेदमस की भविष्य वाणी की तरह सटीक और सत्य महसूस हो निकल आई।
समय के चलने की कोई आहट, ध्वनि, कोई भाषा भी होती है, जो समस्त आस्तित्व में केवल है, वो शब्द-ध्वनि के पार शून्य में। उसके लिये कान नहीं ह्रदय की विमलता ही उस सम प्रेषण को महसूस कर सकती हैं। उसका विस्तार अनंत है, परन्तु हम उसे सुकेड़-समेट कर कैद करना चाहते है, एक परिवार तक ही नहीं केवल अपने घर के कोने तक। कितने सरल ह्रदय थे, अनपढ़ गंवार से कहलाने वाले वो लोग.....परंतु उनकी समझ अभूतपूर्व थी वह दूरदर्शी थे।
वह प्रकृति के साथ समस्वरता से जीते है, उसे चूसते निचोड़ते नहीं थे। परंतु आज हम विक्रीत हो गए है। नमन है मेरा उन गांव के महान लोगों को जिन का संग साथ मुझे मिला उसी के कारण आप में प्रकृति के समस्वरता को साथ लिए चल रहा हूं। उसी सब के कारण ओशो जीवन में अवतरित हुए। और मेरी इन आंखों ने बुद्ध को देखा। उसे महसूस किया और उसे पी रहा हूं। नमन मेरे गांव की मिट्टी को जिसने सच ही बुद्धत्व के बीज थे जो में देखे थे।
उनको मेरा नमन। बस आज इतना ही।
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