मेरे हांसे मैं हंसूं—सातवां प्रवचन
सातवां
प्रवचन;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र
:
साइ
बड़ो सिलावटो, जिण
आ काया कोरी।
खूब
रखाया कांगरा, नीकी
नौ मोरी।।
'लालू'
क्यूं
सूत्यां सरै,
बायर ऊबो
काल।
जोखौ
है इण जीवनै, जंववो
घालै जाल।।
ऊपर तो
बोली गई, आगे
ओछी आव।
बेड़ी समदर
बीज में, किण
बिद लंगसी
न्याव।।
'लालू'
ओ जी आंधलो,
आगैं, अलसीड़ा।
झरपट
बावै सरपणी, पिंड
भुगतै पीड़ा।।
निरगुण
सेती निसतिया, सुरगुण
सूं सीधा।
कूड़ा
कोरा रह गया, कोई
बिरला बीधा।।
पिरथी
भूली पीवकूं? पड़या
समदरा खोज।
मेरे हांसे
मैं हंसूं? दुनिया
जाणै रोज।।
भली
बुरी दोनूं
तजो,
माया जाणों
खाक।
आदर
जाकूं दीजसी, दल।
खुलिया ताक।।
यह
जीवन क्या है? केवल
एक पहेली है
यह
यौवन क्या है? विस्मृति
की रंगरेली है;
यह
आत्म-ज्ञान तो
भ्रम है, भ्रम
है, भ्रम
है!
ममता
रहती है निशि
-दिन यहां
अकेली!
जी
भरकर मिल लो आज, ठिकाना
कल का?
युग का
वियोग, संयोग
एक ही पल का?
जग
क्या है? उसको
जान नहीं पाता
हूं
मैं
निज को ही
पहचान नहीं
पाता हूं
जग है
तो मैं हूं
मैं हूं तो यह
जग है,
जग मुझ
में,
मैं भी जग
में मिल जाता
हूं।
यह एक
समस्या, कठिन
जिसे सुलझाना!
सुलझानेवाला
हाय बना
दीवाना!
दीवानापन
है पाप? नहीं
जीवन है;
ज्ञानी
का केवल ज्ञान
व्यर्थ
क्रंदन है;
ममता
पर प्रति पल
हंस-हंसकर घुल
घुलकर
मरनेवाले
का यहां
मृत्यु ही धन
है;
कामना
कसक है और
तृप्ति
सूनापन;
हंसना
ही तो है
मृत्यु, रुदन
है जीवन!
वैभव-सागर
का बूंद- बूंद
उत्पीड़न,
आहों
के जग का
प्रति कण
पुलकित
स्पंदन-
नादान
विश्व क्या
समझ सकेगा
इसको?
मर
मिटने में ही
अरे यहां है
जीवन!
चातक
से सीखो तड़प-तड़प
मर जाना;
सीखो
पतंग से निज
अस्तित्व
मिटाना!
मधुकर
क्या जाने
प्रेम? प्रेम
है तड़पन!
उन्माद-
भरा है दो
प्राणों का
बंधन;
कलिका
का ले सर्वस्व, नष्ट
कर उसको
उड़
जाने में ही
है मधुकर को
पुलकन!
रस में
मिल जाना ही
है रस का पीना;
जो मिट
न सगा वह नहीं
जानता जीना!
लेना
पल भर का, युग-
युग भर का
देना,
निज का
देना ही है
जीवन का लेना
बाजार
उठ रही, और
दूर जाना है
जितना
जी चाहे कर लो
लेना-देना!
उस की
लाल से मुख की
कालिख धो
लो सर
आज हथेली पर
है बोलो बोलो!
मस्ती
में हस्ती भरी
हुई गाफिल की
मत बात
चलाना अरे अभी
मंजिल की
चलना
है हमको बरबस
जाना होगा
फिर
क्यों रह जाने
पाए दिल में
दिल की?
मैं
समय-सिंधु में
डुबा चुका
अपनापन!
कल एक
कल्पना और आज
है जीवन!
जीवन
एक तो वह है जो
हम जानते हैं; वह
सरासर
स्वम्यवत है।
एक और जीवन है
लो उन्होंने
जाना जो जागे
हैं। उस जीवन
का नाम ही
ईश्वर है।
ईश्वर
कोई व्यक्ति
नहीं है; वास्तविक
जीवन की
अनुभूति का
नाम है। संसार
का कोई
अस्तित्व
नहीं; सोये
हुए आदमी के
सपनों की भीड़
है।
ऐसा
समझो, संसार
है सोये हुए
आदमी के
कल्पना -जाल
का नाम और
ईश्वर है जागे
मनुष्य की
प्रतीति, साक्षात्कार।
जो है
वही है। अगर
तुम सोये हो
तो सपने फैल
जायेंगे, सपने
छा जायेंगे।
जो है, उस
पर सपने सवार
हो जायेंगे।
तुम जागे हो, सपने हट
जायेंगे। जो
है, जैसा
है, वैसा
प्रगट हो
जायेगा।
नींद
क्या है? अहंकार
नींद है। मैं
भिन्न हूं मैं
पृथक हूं मैं
अलग हूं मेरा अपना
निज का
अस्तित्व
है-ऐसी
प्रतीति
निद्रा है।
फिर शेष सारे
उपद्रव इस
प्रतीति से ही
खड़े होते हैं।
फिर मैं से
ममता होती है।
फिर मैं से
माया होती है।
फिर मैं के
फैलाव का कोई
ओर -छोर नहीं
है। जिसे
जागना है, उसे
मैं को जड़ से
काट देना होगा।
चातक
से सीखो तड़प
-तड़प मर जाना
सीखो
पतंग से निज
अस्तित्व
मिटाना
रस में
मिल जाना ही
है रस का पीना
जो मिट
न सका वह नहीं
जानता जीना
मिटने
की कला धर्म
है। अपने को
बिलकुल
नेस्तनाबूद
कर देने की
कला धर्म है।
अपने को ऐसे
मिटा देन है
जैसे बूंद
सागर मैं गिर
जाती है और
खोजाती है; कि
बीज भूमि में
गिर जाता है
और विनष्ट हो
जाता है। पर
देखना राज, रहस्य, चमत्कार!
मरे हुए बीज
से उगता है
वृक्ष।
मृत्यु से
अमृत का पौधा
निकलता है।
बीज में तो
कुछ भी न था, वृक्ष मैं
बहुत कुछ होगा।
रसधार बहेगी।
हवाओं में
नर्तन होगा।
बदलियों से
प्रेमालाप
होगा।
चाद-तारों से
गुफ्तगू होगी।
सूरज से छेड़
-छाड़ होगी।
फूल खिलेंगे।
फल लगेंगे।
पक्षी आवास
करेंगे। थके -
पौदे लोगों को
छाया
मिलेगी।
बीज
में तो यह कुछ
भी नहीं था।
बी तो व्यर्थ
था। अगर बीज
की कोई
सार्थकता थी
तो इतनी ही थी
की वृक्ष बन
जाये। वृक्ष
बने तो सार्थक, बीज
रह जाये तो
व्यर्थ।
मनुष्य भी
परमात्मा बन
जाये तो
सार्थक, मनुष्य
ही रह जाये तो
व्य।
मनुष्य
बीज है; उसमें
बहुत कुछ होने
की संभावना है।
मनुष्य पर
अपनी इतिश्री
न मान लेना, अंत न मान
लेना। मनुष्य
अंत नहीं, प्रारंभ
है। मनुष्य
समाप्ति नहीं
है; मनुष्य
के पार जाना
है, अतिक्रमण
करना है। अपने
से ऊपर उठने
की जो आकांक्षा
है, वही
सत्य की खोज
है-वही
संन्यास है।
फ्रेडरिक
नीत्शे ने कहा
है वह दिन
सबसे अभागा
दिन होगा
मनुष्य के
इतिहास में, जब
आदमी अपने
अतिक्रमण की आकांक्षा
को भूल जायेगा;
जब आदमी
अपने से तृप्त
हो जायेगा; जब आदमी का
तीर चढ़ेगा
नहीं
प्रत्यंचा पर,
निकलेगा
नहीं अज्ञात
की यात्रा को;
जब मनुष्य
मान लेगा कि
जो मैं हूं बस
काफी हूं। जिस
दिन मनुष्य इस
भांति तृप्त
हो जायेगा, उसे नीत्शे
ने सबसे अभागा
दिन कहा है।
और वह
अभागा दिन
लगता है करीब
आने लगा।
क्योंकि बहुत
लोग अपने से
तृप्त मालूम
होते हैं। कमा
लिया कुछ धन, बैंक
में कुछ पूंजी
इकट्ठी हो गयी,
बना लिया
मकान। पत्नी
है, बच्चा
है, पद
-प्रतिष्ठा
है- और बस जीवन
की समाप्ति हो
गयी। अगर यही
जीवन है तो
होना बिलकुल
व्यर्थ है।
क्योंकि
पूंजी रह
जायेगी और
तुम्हारी
अर्थी उठेगी।
और
पत्नी-बच्चे
चार दिन बाद
भूल जायेंगे
कि तुम कभी थे
भी। तुम्हारा
कोई चिह्न भी
समय की रेत पर
छूट नहीं
जायेगा। पानी
पर खींची गयी
लकीरों की तरह
तुम मिट जाओगे।
नहीं; यही
जीवन नहीं है।
जीवन की एक और
दिशा है, एक
और आयाम है।
एक शाश्वत
जीवन भी है।
और दूर नहीं
बहुत, यहीं
पास है। जरा
टटोलो, जरा
खोजो।
लाल के
आज के वचन उसी
जीवन की तरफ
इशारा करते हैं।
जो समझदार हैं, जिनमें
थोड़ा बोध है, वे तो इन
सीधे- सादे
वचनों में से
भी नाव तना लेंगे
उस पार जाने
ताली। हंसा तो
मोती चुगैं...!
कंकड़ -पत्थर
भी पड़े हों, तो भी हंस तो
मोती चुग लेता
है। सीधे-
सादे वचन हैं।
उपनिषदों, वेदों
जैसी दुरूहता
नहीं है।
धम्मपद, ताओ
-तेह -किंग, वैसी
सैद्धातिक
उड़ान नहीं है।
सीधे -सादे
ग्राम्य वचन
हैं। पर गांव
की सोंधी
सुगंध भी है
उनमें, जो
परिष्कृत
उपनिषदों में
नहीं हो सकती।
गांव की ताजगी
भी है उनमें, जो बुद्ध के
वचनों में
नहीं हो सकती।
सीधे -सादे
सामान्य जन का,
शब्दों के
आडंबर से रहित,
सिद्धातों
के जाल से मुक्त-दर्पण
है उनमें। चुन
सको तो मोती
चुन सकते हो।
साइ
बड़ो सिलावटो, जिण
आ काया कोरी।
कहते
हैं :
परमात्मा बड़ा
कारीगर है।
सिलावटो! बड़ा
सर्जक है!
पत्थर में
मूर्ति बना दे, ऐसा
मूर्तिकार है।
साइ
बड़ो सिलावटो, जिण
आ काया कोरी!
जिसने
मनुष्य की यह
देह रची है। इस
जगत में
मनुष्य की देह
सबसे बड़ा
चमत्कार है।
ऐसे तो
चमत्कार ही
चमत्कार हैं।
ऐसे तो वृक्ष
ही देह भी कुछ
कम चमत्कार
नहीं। ऐसे तो
आकाश में उड़ते
हुए पक्षी की
देह भी कुछ कम
चमत्कार नहीं।
पर मनुष्य
बेजोड़ है!
उसकी देह में
जितने फुल संभव
हैं उतने किसी
और देह में नहीं।
उसके भीतर
जितने खजाने
भरे हैं, उतने
किसी और देह
में नहीं।
उसमें जितने
फल लग सकते
हैं, उतने
किसी और वृक्ष
में नहीं। और
वह जितना ऊंचा
उड़ सकता है, कोई पक्षी न
कभी उड़ा है न
उड़ सकेगा। वह
जितना गहरा जा
सकत है, कोई
मछली न कभी
गयी है, न
जा सकेगी।
मनुष्य
अपूर्व है, अद्वितीय
है। हिमालय के
उत्तुंग शिखर
भी उसके चेतना
के शिखर के
सामने टीले
-टाले हैं।
चाद-तारों की
रोशनी भी उसके
भीतर ध्यान से
जन्मी हुई
रोशनी के
सामने फीकी है,
अंधेरी है।
यह विराट सूरज
जो रोज सुबह
उगता है और
जिससे इस
पृथ्वी का
सारा जीवन
चलता है, यह
कुछ भी नहीं, जिन्होंने
भीतर आंख खोली
है, उन्होंने
ऐसे हजार
-हजार सूरज एक
साथ उगते देखे
हैं।
उन्होंने
उसका जल्वा
देखा है।
उन्होंने
उसकी रोशनी
देखी है।
शराब
पी कर मस्त
हुए लोग तुमने
देखे हैं, मगर
वह मस्ती तो
अभी है और अभी
उतर जाती है, क्षण- भर को
है। लेकिन
जिन्होंने
उसको पिया है,
उनकी मस्ती
फिर चढ़ी सो
चढ़ी, फिर
चढ़ती ही जाती
है, बढ़ती
ही जाती है!
फिर कोई उतार
नहीं है। उस
ज्वार का कोई
भाटा नहीं है।
उस बाढ़ में
फिर कभी कोई
ग्रीष्म ऋतु
नहीं आती कि
सुख जाये धार।
साइ
बड़ो सिलावटो...।
लाल कहते हैं :
बड़ा सिलावट है
परमात्मा, पत्थर
में फूल उगा
देता है।
पत्थर में
प्राण डाल
देता है। ऐसे
तो मनुष्य
मिट्टी है।
उर्दू
में,
अरबी में, हिब्रू में
मनुष्य के लिए
शब्द है- ' आदम',
आदमी। आदम
का अर्थ होता
है : मिट्टी।
क्योंकि
परमात्मा ने
मिट्टी से
आदमी को रचा और
फिर उसमें
सांस फूंकी।
अंग्रेजी में
शब्द है : 'ह्यूमन'। ह्यूमन का
अर्थ होता है।
मिट्टी, खुमस।
ऐसे तो आदमी
मिट्टी है। और
अगर हम आदमी
में तलाश न
करें, खोज
न करें, मोती
न चुगें तो
मिट्टी ही रह
जाता है।
मिट्टी में मिट्टी
एक दिन गिर
जाती है। कब्र
में सब समा
जाता है। कुछ
बचता नहीं।
लेकिन अगर हम
खोज करें, अगर
हम थोड़ा श्रम
उठाएं, अगर
हम अपनी ही
पहाड़ियों पर
चढ़े और अपने
ही प्रशांत
महासागरों
में डुबकी
लगाएं, तो
बहुत -बहुत
मोती हाथ लगते
हैं। उन
मोतियों में
सबसे बड़ा जो
मोती है, सबसे
बड़ा चमत्कार
जो है, वह
यह कि पुणय
में चिन्मय
छिपा हुआ है।
मिट्टी में
अमृत का आवास
है। देह
मिट्टी है और
उसके भीतर
परमात्मा
छिपा है।
मंदिर मिट्टी
है मगर मंदिर
का देवता मिटी
नहीं है।
पर
देवता से तो
कितने कम
लोगों की
पहचान होती है!
लोग तो दर्पण
में देखकर
अपनी पहचान
करते हैं।
दर्पण में तो
तुम्हें जो
दिखाई पड़ता है
वह मिट्टी की
छाया है।
दर्पण में तो
मिट्टी की ही
छाया बन सकती
है। तुम्हारी
छाया दर्पण
में कभी नहीं
बन सकती। ऐसा
कोई दर्पण
नहीं है
जिसमें
तुम्हारी
छाया बन सके।
कोई दर्पण
तुम्हारी
चेतना का
प्रतिबिंब
नहीं पकड़ सकता।
चेतना कोई
वस्तु तो नहीं
कि उसका
प्रतिबिंब जो
सके।
और
दर्पण से ही
हमें अपनी
पहचान है। अलग
- अलग तरह के
दर्पण हमने
निर्मित किये
हैं। कांच का
दर्पण ही
अकेला दर्पण
नहीं है।
दूसरे की आखों
में जब तुम
झांकते हो और
उनसे अपने
संबंध में कुछ
सूत्र लेते हो, वह
दर्पण भी कांच
का ही दर्पण
है। तुम्हें
अपने संबंध
में जो पता है
वह तुमने दूसरों
से इकट्ठा
किया है, उनके
मंतव्य हैं।
किसी ने कहा
प्यारे हो, किसी ने कहा
सुंदर हो; तुम्हारी
छाती फूल गयी।
और किसी ने
कहा कुरूप हो,
और किसी ने
कहा गंदे हो; और तुम्हारे
प्राण सिकुड़
गये। और किसी
ने फूल
-मालाएं पहना
दीं और किसी
ने पत्थर मारे
और गालियां
दीं...। और इस
तरह तुम चारों
तरफ से अपने
संबंध मैं मंतव्य
इकट्ठे कर
लेते हो। वे
सारे मंतव्य
बहुत
विरोधाभासी
हैं। उनमें
मित्रों के
मंतव्य हैं, शत्रुओं के
मंतव्य हैं, तटस्थों के
मंतव्य हैं।
इसलिए तुम एक
बिगूचन हो।
तुमने सब तरह
के मंतव्य तो
इकट्ठे कर लिए,
उनमें कोई
तालमेल
बिठालना
मुश्किल है।
कोई कुछ कहता
है, कोई
कुछ कहता हैं।
आज कुछ कहता
है, कल कुछ
कहता है।
तुम्हारे
भीतर में इतने
विरोधाभासी
वक्तव्य
तुम्हारे ही
संबंध में
इकट्ठे हो गये
हैं कि तुम एक
विभ्रम हो गये
हो। तुम एक
भीड़ हो
विचारों की, जिसमें
कुछ तय करना
मुश्किल है।
तुमने बहुत
दर्पणों में
झांका है और
सब दर्पणों से
तस्वीरें
इकट्ठी कर ली
हैं। तुम कभी
दर्पणों की
ऐसी
प्रदर्शनी
में गये हो, जहां बहुत
तरह के दर्पण
होते हैं। एक
में तुम लंबे
दिखाई पड़ते हो,
बहुत लंबे।
और एक में तुम
ठिगने दिखाई
पड़ते हो, बहुत
ठिगने। और एक
में मोटे
दिखाई पड़ते हो,
बहुत! और एक
में दुबले
दिखाई पड़ते हो,
बहुत। और एक
में बिलकुल
कुरूप और एक
में अति सुंदर।
यही
तुम्हारी दशा
है। चारों तरफ
से तुम
तस्वीरें इकट्ठी
कर रहे हो
अपनी। अलबम
बना लेते हो।
उसी अलबम को
तुम अपना
आत्मज्ञान
समझते हो। वह
तुम्हारा
आत्मज्ञान
नहीं है। जो
स्वयं को नहीं
जानते हैं, वे
तुम्हारे
संबंध में
क्या कहेंगे?
और दूसरे
तुम्हारे
संबंध में कुछ
कहना भी चाहें
तो क्या कह
सकते हैं? तुम्हारी
अंतरात्मा
में उनका
प्रवेश नहीं
है। वहां तो
केवल तुम ही
जा सकते हो, तुम्हारे
अतिरिक्त कोई
भी नहीं जा
सकता है।
इसलिए वहां जाने
के लिए आंख बंद
करनी पड़ती है।
आंख खोलकर
सारी दुनिया
से परिचय होता
है;
अपने से
परिचय आंख बंद
करके होता है।
विचार के
द्वारा सारी
दुनिया समझी
जाती है; निर्विचार
के द्वारा
स्वयं को समझा
जाता है। मन
उपयोगी है जगत
को समझने में;
स्वयं को
समझने में मन
की कोई
अर्थवत्ता
नहीं है, मन
को एक तरफ
हटाकर रख देना
पड़ता है।
मन
बहिर्मुखी है-
और तुम भीतर
हो,
बहुत भीतर
हो! मन की कोई
अंतर्गति
नहीं है। वह
सिर्फ बाहर
जाना ही जानता
है; वह
पीछे लौटना
जानता ही नहीं।
मन के पास कोई
रिवर्स गियर
नहीं है।
फोर्ड
ने जब सबसे
पहले अपनी कार
बनाई थी, उसमें
रिवर्स गियर
नहीं था।
ख्याल में ही
नहीं आया था।
उसकी जो पहली
कार थी, अगर
अपने घर लौटना
हो या गाड़ी को
पीछे लाना हो
तो बड़े चक्कर
लगाने पड़ते थे।
यह तो उसे बाद
में ख्याल आया
कि इसमें
रिवर्स गियर भी
हो सकता है।
जरा-सा पीछे
लौटना हो तो
मील भर का
चक्कर लगाकर
आओ, के दो
मील का चक्कर
लगाकर आओ, यह
तो बहुत महंगा
धंधा है।
रिवर्स गियर
तो बाद में
आया, लेकिन
आदमी के मन
में रिवर्स
गियर अभी भी
नहीं है और
कभी नहीं होगा।
मन तो
बस बाहर ही
जाता है। मन
सिर्फ दूर ले
जाता है।
जितना
तुम्हारे पास
मन है उतने ही
तुम अपने से
दूर हो।
इसलिए
ज्ञानियों ने
कहा है : अपनी
दशा में कोई स्वयं
से
साक्षात्कार
करता है, मन-
मुक्त होकर, मन से शून्य
होकर, मन-रिक्त
होकर! और तब
दिखाई पड़ता है
कैसा चमत्कार
है, कैसा
अदभुत
चमत्कार है!
भरोसे योग्य
नहीं। मिट्टी
की इस काया
में- अमृत का
वास! मिट्टी
के इस बर्तन
में-अमृत भर
दिया! सोने का
बर्तन होता, हीरे
-जवाहरात जड़ा
होता, तो
शायद हम सोचते
भी कि इसके भीतर
अमृत होगा।
मिट्टी की इस
देह में, जो
मिटी से बनी
और मिट्टी में
गिर जायेगी...
और जीवन की
परम संपदा भर
दी!
शायद
यह देह मिट्टी
की है, इसलिए
हमें स्मरण भी
नहीं जाता।
सोने की देह
होती, तो
तुम शायद भीतर
टटोलते कि जब
देह सोने की
है तो भीतर
पता नहीं और
खजाने पड़े हों।
देह तो मिट्टी
की है, तो
तुम भीतर जाते
नहीं और बाहर
ही बाहर तलाश
करते रहते हो।
और बाहर
मिलेगा नहीं,
क्योंकि जो
है वह भीतर है।
खूब गहरे में
दबाया है।
उतनी गहरी
खुदाई अपने
भीतर करनी
होगी। उस
खुदाई का नाम
ही ध्यान है।
ये
सूत्र ध्यान
से जन्में
हैं-साइ बड़ो
सिलावटो...। मगर
हैं गांव के
ग्रामीण आदमी
के सूत्र।
गांव में जो
पत्थरों को
गढ़ता है, उसको 'सिलावट' कहते
हैं।
परमात्मा को
कह रहे हैं कि
तू भी खूब बड़ा
पत्थरों का
कारीगर है...
जिण आ काया
कोरी! मिट्टी
-पत्थर से
तूने मनुष्य
की यह देह बना
दी और इस देह के
भीतर छिपा
दिया खजानों
का खजाना, रहस्यों
का रहस्य, काव्यों
का काव्य! जहां
से गीताए
फूटती हैं और
कुरान जन्मते
हैं!
खूब
रखाया कतार।, नीको
नौ मोरी।
कैसे
कंगूरे तूने
उठाये हैं
भीतर, कैसे
शिखर, गौरीशंकर!
मंदिर बहुत
थोड़े -से
सौभाग्यशाली
लोग हैं जो
अपने मंदिर के
कंगूरों की
तरफ आंख भी
उठाते हैं।
उनसे पहचान
करनी, उन
तक पहुंच जाना
तो दूर; तुम्हें
बोध ही नहीं
हो पाता कि
तुम कौन थे और मर
जाते हो। तुम
ऐसे ही व्यर्थ
की आपाधापी
में पर जाते
हो। चीजें
इकट्ठी कर
लेते हो और मर
जाते हो।
आत्मा गंवा
देते हो और
चीजें इकट्ठी
कर लेते हो।
जीसस
ने कहा है : जो
अपने को
बचायेगा, सब
गंवा देगा; और जो अपने
को गंवाने को
राजी है, सब
बचा लेगा।
तुम
जिंदगी- भर
चीजों को
बचाते हो, और
चीजों को
बचाकर तुम
सोचते हो कि
तुम अपने को बचा
रहे हो। तुम सोचते
हो जितनी
चीजें
तुम्हारे पास
होंगी, उतने
ही तुम
सुरक्षित
रहोगे। चीजें
तो बच जायेंगी,
तुम नहीं
बचोगे।
स्वयं
को बचाने का
तो रास्ता बड़ा
अनूठा है -बड़ा
बेबूझ, बड़ा
अटपटा, बड़ा
उल्टा! मिटने
की कला आनी
चाहिए, बचाने
की नहीं। अपने
को समर्पित
करने की कला
आनी चाहिए, संघर्ष की
नहीं।
धर्म
का रास्ता
संघर्ष का
नहीं है, संकल्प
का नहीं
है-समर्पण का
है। अपने को
डुबा देने का,
अपने को
झुका देने का
है। और जो
झुकता है उसे
कंगूरे दिखाई
पड़ते हैं। जो
झुकता है उसे
अपने भीतर के
गौरीशंकर का
दर्शन होता
है-उत्तुंग
शिखर, जिन
पर जमे है
क्यारी बर्फ,
जो न कभी
पिघली और न
पिघलेगी। उन
ऊंचाइयों से
परिचित न होना,
पैदा होना
और न होने के
बराबर है।
इसलिए
जो व्यक्ति उन
ऊंचाइयों से
परिचित हो जाता
है,
उसे हमने
द्विज कहा है।
उसका दोबारा
जन्म हो गया।
उसे हमने ब्राह्मण
कहा है, क्योंकि
उसने अपने
भीतर छिपे
ब्रह्म को जान
लिया।
ब्राह्मण का
जन्म से कोई
संबंध नहीं और
गले में
यज्ञोपवीत
डाल लेने से
कोई द्विज
नहीं हो जाता।
द्विज
होने की तो
बड़ी रासायनिक
प्रक्रिया है।
ध्यान से
द्विज होता है
कोई। ध्यान से
एक नया जन्म
होता है, क्योंकि
अपनी नयी
प्रतीति होती
है, अपनी
नयी प्रतिमा
का बोध होता
है, अपनी
झलक मिलती है।
साइ
बड़ो सिलावटो
जिण आ काया
कोरी।
खूब
रखाया कलर।...
लाल कहते हैं :
तूने भी गजब
किया, छोटी-सी
देह और इतनी
ऊंचाइयां, ऐसे
कंगूरे, स्वर्ण
-पंडित! तूने
भी गजब किया, छोटी-सी देह
और ऐसी
गहराइयां!...
नीकी नौ मोरी।
इसमें ऊंचे
-ऊंचे कंगूरे
भी दिये हैं, जिनके
द्वारा जगत की
ऊंचाइयों से
संस्पर्श हो
सके और इसमें
नौ द्वार भी
दिये हैं, जिनसे
जगत की
गहराइयों से
भी संस्पर्श
हो सके। शरीर
में नौ छिद्र
हैं। इन नौ
छिद्रों के
द्वारा हम
पदार्थ के जगत
में संबंधित
होते हैं।
जैसे नाक है, जैसे मुंह
है, जैसे
कान है, जैसे
आंख है
-ऐसे नौ छिद्र।
इन नौ छिद्रों
से हम जो बाहर
है उससे
परिचित होते
हैं। जो हमसे
नीचे है उससे
परिचित होते
हैं। ये नौ
द्वार हैं, जिनसे हम
परमात्मा का
अभिव्यक्त
रूप जान पाते
हैं।
आंख के
बिना रोशनी का
पता न चलेगा।
अंधे को लाख
समझाओ, समझ न
सकेगा। सिर
पटको कितना ही,
कितने ही
गणित बिठाओ, कितनी ही
भाषा जमाओ, अंधे को तुम
रोशनी न समझा
सकोगे। कैसे
समझाओगे? और
अंधा मान भी
ले सिर्फ
तुम्हें
संतोष देने को,
तो भी अंधे
को कुछ पता
नहीं हो सकेगा
कि रोशनी क्या
है।
रामकृष्ण
कहते थे, एक
अंधा आदमी
अपने मित्र के
घर भोजन करने
गया। मित्र ने
उसके स्वागत
में खीर बनवाई
थी। गरीब आदमी
था, उसने
कभी खीर न खाई
थी। जब वह खीर
खाया, खीर
उसे बहुत पसंद
आयी। खूब
बदाम-पिस्ता
और केसर उसमें
डाले थे। उसने
पूछा अपने
मित्र को : यह
क्या है, मुझे
बहुत रुचिकर
लगा, बहुत
स्वादिष्ट
लगा! मित्र ने
कहा : खीर है।
अंधे ने पूछा :
खीर! खीर यानी
क्या? खीर
से मैं क्या
समझूं?
मित्र
पंडित था
शास्त्रों का
ज्ञाता था।
अंधे ने ऐसा
प्रश्न उठा
दिया तो मित्र
के लिए चुनौती
मिली। उसने
कहा : समझा कर
रहूंगा। कहा :
खीर सफेद होती
है। अंधे ने
कहा : तुम
पहेलियों पर
पहेलिया
बूझने लगे!
मैं एक
प्रश्न
' और एक नयी
पहेली खड़ी कर
देते हो। अब
यह सफेद क्या
बला है? सफेद
यानी पूछता हू;
सफेद क्या?
मित्र
ने कहा : सफेद
नहीं जानते? (एक
बात मित्र देख
ही नहीं रहा
है कि अंधे
आदमी से बात
हो रही है। )
सफेद नहीं
जानते, बगुले
हैं!
उस
अंधे आदमी ने
कहा कि तुम
मेरी मुश्किल
बढ़ाए जाते हो।
मुझे खीर का
पता नहीं, मुझे
सफेद का पता
नहीं। अब यह
बगुला और एक
नयी झंझट। यह
बगुला कैसा
होता है? कुछ
इस तरह से कहो
कि मेरी समझ
में आये।
तब याद
आया पंडित को
कि अंधे को
समझा रहा है।
ऐसे हल नहीं
होगा। तो वह
अपना हाथ अंधे
के पास ले गया, हाथ
को मोड। और
कहा : मेरे हाथ
पर हाथ फेर।
इस तरह बगुले
की गर्दन होती
है। उस अंधे
आदमी ने अपने
मित्र के हाथ
पर हाथ फेरा
और बड़ी
प्रसन्नता से
बोला, आनंदित
होकर बोला कि
अब मैं समझा, कि खीर मुड़े
हुए हाथ की
तरह होती है!
अंधे
आदमी की जैसी
समझ वैसी ही
तो होगी न! आंख चाहिए। आंख
नहीं
है। आंख के
द्वारा हम
प्रकाश से
जुड़ते हैं- और
प्रकाश
परमात्मा का
बहिर रूप है।
ये चाद -तारे
सब उसकी चादर
पर जड़े हुए
हैं,
टिमटिमाते
हीरे -जवाहरात
हैं। यह उसकी
नीली चादर, यह आकाश...। नौ
द्वार हमें
दिये हैं कि
हम परमात्मा
के अभिव्यक्त
रूप से परिचित
हो सकें, उसकी
देह से परिचित
हो सकें। कान
के बिना नाद
सुनाई न पड़ेगा।
वीणा बजती
रहेगी और
तुम्हारे लिए
कुछ भी न बजेगा।
ऐसे नौ द्वार
दिये हैं इस
मिट्टी की देह
में कि हम
बाहर के जगत
से परिचित हो
सकें। और
इसमें ऐसे
कंगूरे भी हैं
कि अगर हम ये
नौ द्वार बंद
कर लें और
भीतर मुड़े तो
उन कंगूरों से
परिचित हो
सकें।
ये नौ
द्वार दोहरे
काम करते हैं।
अगर खोलो, तो
बाहर ले जाते
हैं, अगर
बंद करो तो
भीतर ले जाते
हैं। आंख खुले तो
बाहर का दर्शन
है। कान खुले
तो बाहर का
नाद, आंख बंद हो
तो भीतर का
प्रकाश। कान
बंद हो तो
ओंकार।
इन नौ
द्वारों पर सब
कुछ निर्भर है।
योग की सारी
प्रक्रियाएं-इन
नौ द्वारों को
कैसे बंद किया
जाये, ताकि हम
भीतर के
परमात्मा से
परिचित हो
सकें। जब बाहर
वह इतना सुंदर
है तो भीतर
कितना सुंदर न
होगा!
राबिया
अपने झोपड़े
में बैठी है
-एक सूफी फकीर औरत; मीरा
की कोटि की
स्त्री; महावीर
और बुद्ध की
कोटि की
स्त्री! और
हसन नाम का
फकीर उसके घर
ठहरा था। हसन
बाहर आया।
सुबह हुई है, सूरज निकला
है, सूरज
निकला है, पक्षी
गीत गा रहे
हैं, वृक्ष
लहलहा रहे हैं।
हवाओं में
सुगंध हैं।
सुबह की ताजगी,
नयापन है।
हसन ने
आवाज दी :
राबिया, तू
भीतर झोपड़े
में बैठी क्या
करती है? बाहर
आ! देख, परमात्मा
ने कितना
सुंदर सूरज
निकाला है और
कैसे फूल खिल
आये हैं रंग
-बिरंगे! और
आकाश में बदलिया
तैर रही है।
और बड़ा प्यारा
मौसम है।
परमात्मा ने
बड़ी सुंदर
सुबह को जन्म
दिया है, तू
बाहर आ राबिया,
भीतर क्या
करती है?
राबिया
खिलखिला कर
हंसी और उसने
कहा : हसन, तुम्हीं
भीतर आओ!
जिसने सुबह
बनायी, मैं
भीतर बैठकर
उसे देख रही
हूं। मैं
मालिक को देख
रही हूं। तुम
उसके हाथ के
खिलौने देख
रहे हो, मैं
उसी को देख
रही हूं।
तुम्हीं भीतर
आओ। और जब
बाहर इतना
सुंदर है तो
भरोसा रखो, मालिक। उससे
अनतगुना
सुंदर है।
हसन ने
तो बात यूं ही
कही थी। मगर
राबिया जैसे
व्यक्तियों
से जब तुम बात
करो तो उनकी
छोटी-छोटी बात
में से बात होती
है,
बात में से
बात निकलती है।
राबिया ने तो
राज खोल दिया
सारा। हसन
रोने लगा।
भीतर आकर
राबिया के
चरणों पर गिर
पड़ा और कहा कि
मैंने तो यूं
ही कहा था, लेकिन
तूने मुझे
सोते से जगा
दिया।
राबिया
ने कहा।
व्यर्थ समय
खराब न करो, आंख
बंद
करो! ये चरण भी
मेरे जो तुम
पकड़े बैठे हो,
बाहर हैं।
और ये आंसू भी
जो गिर रहे
हैं, ये भी
बाहर हैं। हसन,
देर न करो, क्योंकि कल
का कोई भरोसा
नहीं, क्षण
- भर का कोई
भरोसा नहीं। आंख
बंद
करो और भीतर
जाओ। चरण ही
पकड़ने हैं तो
उस मालिक के
पकड़ो!
हमारे
भीतर
अनभिव्यक्त
परमात्मा है
और बाहर अभिव्यक्त
परमात्मा है।
बाहर उसका
प्रगट रूप, भीतर
उसका अप्रगट
रूप। बाहर
उसकी देह है
और मिट्टी की
काया में कैसा
आयोजन है!
साइ
बड़ो सिलावटो, जिण
आ काया कोरी।
खूब
रखाया कतार।, नीकी
नौ मोरी।।
'लालू'
क्यूं
सूत्यां सरे,
बायर ऊबो
काल।
लाल
कहते हैं : 'लालू'
क्यूं
सूत्यां सरे!
कब तक सोया
रहेगा? ऐसे
ही सोते -सोते
मिट जाना है? जागना नहीं
है? 'लालू ' क्यूं
सूत्या सरे!
और सोते रहने
से कुछ होने का
नहीं है। क्या
सते।? सोते
रहने से कुछ
तनेगा नहीं, खोको। ही।
'लालू'
क्यूं
सूत्यां सरे,
सायर ऊबो
काल! और जरा
देख तो, बाहर
मौत आकर खड़ी
हो गयी है। कब
द्वार पर
दस्तक दे देगी,
कहा नहीं जा
सकता। और तू
यूंही सो रहा
है और यूंही
सोये -सोये
गंवा रहा है!
सोने
का अर्थ समझ
लेना। जिसने
भी ध्यान नहीं
जाना, वह सोया
हुआ है। ध्यान
के बिना जागरण
नहीं है। वह
जो तुम सुबह
रोज जागते हो
उसको जागना मत
समझ लेना; नहीं
तो सभी बुद्ध
होते। बुद्ध
का अर्थ होता
है जो जाग गया।
जो तुम सुबह
रोज जागते हो,
वह जागने की
भ्रांति है।
तुम वही-कें
-वही हो। जो
तुम सोये हुए
होते हो, वही
तुम जागे हुए
होते हो।
तुममें जरा
भेद नहीं होता।
सच तो यह है कि
तुम जागे में
कहीं ज्यादा
बेईमान होते
हो, ज्यादा
चोर होते हो, ज्यादा
धोखेबाज होते
हो। सोते में
तुम कहीं
ज्यादा
ईमानदार होते
हो, ज्यादा
सच्चे होते हो।
इसलिए
तो
मनोविश्लेषक
तुम्हारे
जागरण की तलाश
नहीं करते।
तुम्हारे मन
में अगर कोई
बीमारी हो, तुम्हारा
चित्त अगर
रुग्ण हो, अगर
विक्षिप्त हो,
अगर मन किसी
परेशानी से
बहुत ज्यादा
दब गया है, टूट
गया है-तों
मनोविश्लेषक
तुम्हारे
सपनों में
तलाश करता है।
मनोविश्लेषक
तुम्हारे
जागरण पर जरा
भी भरोसा नहीं
करता।
क्योंकि तुम
ऐसे धोखेबाज
हो कि तुम
औरों को तो
धोखा देते ही
हो, तुम
अपने को भी
धोखा दे लेते
हो! तुम धोखे
में ऐसे
पारंगत हो गये
हो! तुमने
नहीं कि तुम
दूसरे को धोखा
देते हो, दूसरे
को देते -देते
अपने को दे
लेते हो। बहुत
बार धोखा देते-देते
देते -देते
तुम अपने को
ही दे लेते हो।
लोग दूसरों की
जेब ही नहीं
काटते, धीरे-धीरे
अपनी भी काटने
लगते हैं!
मनोविश्लेषक
तुम्हारे
जागरण पर जरा
भी भरोसा नहीं
करता। तुम
क्या कहते हो, उसका
कोई मूल्य
नहीं मानता।
वह तो कहता है
अपने सपने
बताओ। अपने
सपने खोलो।
अपने सपने
उघाड़ों।
क्योंकि
तुम्हारे
सपनों में तुम
कहीं अभी ज्यादा
सच्चे हो।
तुमने अपने
सपनों को अभी
तक विकृत नहीं
किया है।
तुम्हारे
सपनों में
सभ्यता की छाप
नहीं पड़ी है।
तुम्हारे
सपनों में
शिक्षा नहीं
घुसी है।
तुम्हारे
सपनों में
तुम्हारा
सोच-विचार
ज्यादा हेर-फेर
नहीं कर पाता।
तुम्हारे
सपने अभी भी
शुद्ध हैं, निर्दोष हैं।
तुम्हारे
सपनों से
तुम्हारी
वास्तविकता
के संबंध में
मनोवैज्ञानिक
पता लगाता है।
यह बड़ी
अनूठी बात है।
जागरण की तो
वह फिक्र ही
नहीं करता, तुम्हारे
सपनों की
फिक्र करता है।
जार्ज
गुरजिएफ के
पास जब भी कोई
नये शिष्य आते
थे तो पहला
उसका काम था
कि वह उनको
इतनी शराब पिला
देता...। अब यह
तुम थोड़े
हैरान होओगे
कि कोई
सदगुरु- और शिष्यों
को शराब
पिलाए! लेकिन
गुरजिएफ के
अपने रास्ते
थे। हर सदगुरु
के अपने
रास्ते होते
हैं। इतनी
शराब पिला
देता... पिलाए
ही जाता, पिलाए
ही जाता; जब
तक कि वह
बिलकुल बेहोश
न हो जाता, गिर
न जाता, अल्ल-बल्ल
न बकने लगता।
जब वह
अल्ल-बल्ल
बकने लगता, तब वह बैठकर
सुनता कि वह
क्या कह रहा
है। उसी से वह
निर्णय लेता
उसके संबंध
में कि कहां
से काम शुरू
करना है।
क्योंकि जब तक
वह होश में है
तब तक तो वह
धोखा देगा। तब
तक मसला कुछ
और होगा, बताएगा
कुछ और।
कामवासना से
पीड़ित होगा और
ब्रह्मचर्य
के संबंध में
पूछेगा। धन के
लिए आतुर होगा
और ध्यान की
चर्चा चलायेगा।
पद के लिए
भीतर
महत्त्वाकांक्षा
होगी और
संन्यास क्या
है, ऐसे
प्रश्न
उठायेगा। भोग
में लिप्सा
होगी और त्याग
के संबंध में
विचार -विमर्श
करेगा। क्यों?
क्योंकि ये
अच्छी- अच्छी
बातें हैं और
इन अच्छी-
अच्छी बातों
पर बात करने
से प्रतिष्ठा
बढ़ती है।
लोग
अपनी सच्ची
समस्याएं भी
नहीं कहते।
लोग ऐसी
समस्याओं पर
चर्चा करते
हैं जो उनकी समस्याएं
ही नहीं हैं; जिनसे
उनका कुछ
लेना-देना
नहीं है। और
अगर तुम
चिकित्सक को
ऐसी बीमारी
बताओगे जो
तुम्हारी
बीमारी नहीं
है तो इलाज
कैसे होगा?
गुरजिएफ
ठीक करता था, डटकर
शराब पिला
देता। और जब
वह गिर पड़ता
आदमी और
अल्ल-बल्ल
बकने लगता तब
बैठकर सुनता,
उसके एक -एक
वचन को सुनता,
क्योंकि अब
वह सच्ची बात
बोल रहा है।
अब होश -हवास
तो गया, अब
हिसाब -किताब
तो गया। अब वह
जो कहता है, उससे उसकी
सचाई पता
चलेगी। वह
उसके आधार पर
उसकी साधना तय
करता। उसको
पता ही नहीं
चल पाता कभी
कि उसकी साधना
कैसे तय की
गयी।
गुरजिएफ
बड़ा
मनोवैज्ञानिक
था! फ्रायड को
तीन साल लग
जाते हैं
मनोविश्लेषण
करने में, गरजिएफ
दो- तीन घंटों
में निपटा
लेता था; क्योंकि
रोज- रोज
सपनों की
फिक्र करो, पूछो और फिर
भी आदमी इतना
बेईमान है कि
रात सपना एक
देखता है सुबह
दूसरा बताता
है। और ऐसा भी
नहीं है कि
जानकर; थोड़े
-से हेर -फेर कर
लेता है, थोड़े
सुधार कर लेता
है, थोड़े
रंग लगा देता
है। यह सब
अनजाने हो रहा
है, यह
हमारी
मूर्च्छा है।
तुम
अपना कच्चा
सपना भी नहीं
कहते। तुम
सपने में भी
थोड़ा- सा
संशोधन कर
लेते हो, संपादन
कर लेते हो।
और ऐसा नहीं
है कि जानकर
करते हो; बस
अनजाने हो रहा
है। यह सब
मूर्च्छा में
हो रहा है।
तुमने
देखा, सुबह जब
तुम जागते हो
तो कितनी देर
तक तुम्हें सपने
याद रहते है? कुछ सेकेंड।
बिलकुल जब तुम
सुबह-सुबह
जागते हो, पहली
जाग, अभी आंख
खुली
ही नहीं तब
तुम्हारे पास
सपने थोड़े -से
छाये रहते हैं।
आंख खुली, क्षण भी
नहीं बीत पाते,
हाथ-मुंह
धोया, दतुअन
की, तब तक
गये, सपने
भूल- भाल गये।
तुम्हारा मन
इतनी जल्दी
उनको हटा देता
है कि कहीं
कोई सत्य
प्रगट न हो
जाये। कहीं
कोई बात सच
में ही बाहर न
आ जाये।
तुम्हारे
सपनों की एक
दुनिया है और
तुम्हारे जागरण
की दूसरी
दुनिया है। मगर
तुम्हारा
जागरण झूठा है।
जो लोग सच्चे
रूप से जागे
हैं उनके
जागरण का एक
लक्षण है कि
उनको सपने नहीं
आते। क्योंकि
जो सच्चा है, उसने
कुछ छिपाया
नहीं, दबाया
नहीं। जिसने
कुछ छिपाया
नहीं, दबाया
नहीं, सपने
आने को उसके
पास कुछ बचा
नहीं। सपने
में वही आता
है जो हम
दबाते हैं और
छिपाते हैं।
तुम्हें
अपने पड़ोसी की
पत्नी बड़ी
सुंदर मालूम
होती है। दिन
में तो तुम
दबा जाते हो।
दिन में तो
तुम बहन जी, बहन
जी कहते हो।
रक्षाबंधन पर
राखी भी बंधवा
आते हो। शायद
डर के कारण ही
बंधवा आते हो।
ऊपर से तो ऐसा
लगता है कि इस
स्त्री की
रक्षा करोगे,
लेकिन
रक्षाबंधन
बंधवाकर तुम
अपनी रक्षा कर
रहे हो! तुम
अपने मन को यह
कह रहे हो कि
अब यह मेरी बहन
हो गयी। अब और
तरह के ख्याल
उठाना ठीक
नहीं। अब इसके
पैर छू लिए।
अब और तरह के
ख्याल उठाना
ठीक नहीं।
लेकिन रात
सपने में तुम
उसे ले भागते
हो। सुबह उठकर
तुम भूल जाना
चाहोगे यह, क्योंकि यह
बात तुम्हारे
अहंकार के
विपरीत है कि
रात तुम अपनी
पड़ोसी की
पत्नी को ले
भागे।
तुम्हारी
पत्नी
बर्दाश्त
नहीं करेगी
यही; सपने
में भी ले
भीगोगे तो
बर्दाश्त
नहीं करेगी।
और तुम्हारा
अहंकार भी
बर्दाश्त
नहीं करेगा।
जल्दी सपना
तुम भुला देते
हो। जागते से
ही हम सपने को
भुलाना शुरू
कर देते हैं।
जिस
दिन उपवास
करोगे, उस
रात सपना
देखोगे- भोजन...।
जो दबाओगे, वही सपने
में आयेगा।
लेकिन जिसने
कुछ दबाया
नहीं, जो
अदमित जाग्रत
भाव से जीता
है, उसके
स्वप्न
समाप्त हो
जाते हैं। और
जिसके स्वप्न
समाप्त हो गये,
वही जागा
हुआ है। वह
जागने में तो
जागा होता ही है;
नींद में भी
जागा होता है।
इसलिए कृष्ण
ठीक कहते हैं
अर्जुन से : 'या निशा
सर्वभूताया
तस्याम
जागर्ति
संयमी। ' जो
सबके लिए
अंधेरी रात है,
जो सबके लिए
भयंकर निद्रा
है, संयमी
के लिए वह भी
जग़ारण है।
संयमी वहां भी जागा
होता है।
संयम
शब्द का अर्थ
तुमने अपना बिठा
लिया है।
संयमी से
तुम्हारा
अर्थ होता है
जिसने नियंत्रण
किया है। संयम
शब्द में ही
कंट्रोल और
नियंत्रण आ
गया है। संयम
शब्द का वैसा
अर्थ नहीं है।
संयम बड़ा
अदभुत शब्द है।
संयम
का अर्थ होता
है : संतुलन, अति
से मुक्ति।
संयम का अर्थ
होता है : जैसे
कोई सितारवादक
अपने सितार के
तार कसता है।
बहुत ढीले
रहें तार तो
भी संगीत पैदा
नहीं होता। और
बहुत कस जायें
तो तार टूट
जाते हैं।
तारों की एक
ऐसी भी दिशा
है जब न तो वे
बहुत कसे होते
हैं न बहुत
ढीले होते हैं।
उस मध्य की
दशा पर, उस
मध्य की
अवस्था में, उस मध्यम
में, उस संतुलन
में संयम है।
उस संयम से
संगीत पैदा
होता है।
ऐसे ही
जीवन का भी एक
संयम है। न तो
बहुत त्याग की
तरफ झुका हुआ, न
बहुत भोग की
तरफ झुका
हुआ-जों दोनों
के मध्य में
खड़ा है तुमने
नट को देखा
हैं रस्सी पर
चलते हुए? कभी-कभी
बाएं झुकता है,
कभी दाएं
झुकता है
-सिर्फ
सम्हालने को। मगर
सम्हल। रहता
है बीच में।
अगर डर लगता
है उसे कि
बाएं ज्यादा
झुक जाऊंगा तो
गिर जाऊंगा, तो दाएं झुक
जाता है ताकि
संतुलन हो
जाये। दाएं
गिरने लगता है
तो बाएं झुक
जाता है, ताकि
संतुलन हो जाए।
मगर उसकी नजर
एक बात पर
रहती है कि
बीच में रहूं
र मध्य में
रहूं।
बुद्ध
ने अपने मार्ग
को मज्जिम
निकाय कहा
है-मध्य का
मार्ग। ठीक
बीच में हो
जाना। बुद्ध
ने अपनी संयम
की परिभाषा
में कहा है कि जो
ठीक मध्य में
है,
जो दो
विपरीतों के
बीच चुनाव
नहीं करता, जो
चुनाव-रहित है।
कृष्णमूर्ति
जिसको
च्चाइसलेस
काशसनेस कहते
हैं, चुनाव
-रहित चैतन्य,
वही मध्य
अवस्था है।
वैसा
मध्यस्थ
व्यक्ति न तो
दिन में डोलता
है न रात में
डोलता है
-डोलता ही
नहीं। उसका
डोलना गया।
वही जागा हुआ
है। जब तक तुम
डोल-डोल जाते
हो,
जब तक
तुम्हें
चित्त यहां से
वहां भटकाए
फिरता हैं, तब तक तुम
निद्रा में हो।
तुम जागे हुए
भी निद्रा में
हो; बुद्ध
जागे हुए तो
जागे होते ही
हैं, सोए
हुए भी जागे
हुए होते हैं।
तुम्हारा
जागरण भी सोने
का ही एक ढंग
है- आखें खुले
हुए सोने का
ढंग है। और
बुद्धों का...
आखें बंद किए
भी वे जागते
ही हैं।
आनंद
बुद्ध के पास
कोई चालीस
-पचास साल रहा, सतत
उनकी सेवा में
रहा। उसे एक
बात से बड़ी
हैरानी होती
थी कि बुद्ध
जिस करवट सोते
थे उसी करवट
रात - भर सोते
थे। जहां रखा
पैर वही रहा
पैर। जहां रखा
हाथ वहीं रहा
हाथ। रात में
हिलते ही नहीं।
दिन में तो
अडिग हैं ही, रात भी अडिग
हैं। रात में
करवट बदलनी
होती है। आदमी
थक जाता है एक
ही करवट पड़े
-पड़े। एक वार
आनंद ने पूछा
के मैं बहुत
बार, कई
बार जाग-जाग
कर देख चुका
हूं रात में, आप जैसे
सोते हैं वैसे
ही सोए रहते
हैं! तो बुद्ध
ने कहा : नासमझ,
सोता कौन है?
शरीर सोता
है, मैं तो
जागा ही रहता
हूं। भीतर
जागरण का दीया
वैसा ही जलता
रहता है जैसा
दिन में।
चौबीस घंटे
सतत जप्तारण
की धारा भीतर
बहती रहती है।
उसी
जागरण की बात
लाल कह रहे
हैं- 'लालू' क्यूं
सत्या सरे!
सोया रहेगा? ऐसे कहीं
काम ससे।? ऐसे
कहीं काम
बनेगा? बिगड़ी
को बना ले।
अभी समय है
थोड़ा-बहुत।
अभी मौत द्वार
पर तो खड़ी है मगर
दस्तक नहीं
दिया। इतनी
थोड़ी देर कुछ
सम्हाल ले।
बायर
ऊबो काल...।
बाहर आकर खड़ी
है मौत। और
तुम यह मत
सोचना, लालू
अपने बाबत कह
रहे हैं, लालू
तुम्हारे
बाबत भी कह
रहे हैं। मौत
खड़ी ही है
द्वार पर, किसी
भी क्षण गले
को दबा लेगी। मगर
आदमी की
बड़ी-से -बड़ी
भ्रांतियों
में एक भ्राति
यह है कि सदा
दूसरे मरते
हैं, मैं
तो नहीं मरता।
आज रामलाल जी
पर गये, कल
कृष्णलाल जी
पर गये, परसों
कोई और मरा, मैं तो कभी
मरता नहीं।
तुम तो जाकर
सभी को मरघट
पहुंचा आते हो।
तो तुम्हें एक
भ्रांति बनी
रहती है कि
सदा दूसरा
मरता है, मैं
तो मरघट
पहुंचाने का
काम करता हूं।
मैं तो अब तक
मरा नहीं, शायद
मैं अपवाद हूं।
तुम
सोचते नहीं इस
बात पर कि उन
जिनको तुम मरघट
पहुंचा आये हो, वे
भी बहुतों को
मरघट पहुंचा
चुके थे। और
जैसे तुम सोच
रहे हो ऐसे वे
भी सोचते थे।
इस पृथ्वी पर
कोई बचा नहीं।
छोटे मर जाते
हैं, बड़े
मर जाते हैं, गरीब मर
जाते हैं, अमीर
मर जाते हैं।
कमजोर, शक्तिशाली
सब पर जाते
हैं। मृत्यु
सार्वजनिक है,
सार्वभौम
है। मृत्यु
अपवाद नहीं
मानती है।
'लालु'
क्यूं
सत्या सर, बायर
ऊबो काल।
जोखो
है इण जीवने, जवसे
घालै जाल।।
जरा
सम्हल, बड़ा
जोखम से भरा
जीवन है। जोखो
है शा जीवने!
इस जीवन में
बड़ा जोखम है।
पल-पल जोखम है।...
जबरों घालै
जाल! क्योंकि
मौत ने ऐसा
जाल फैला रखा
है कि तू बच
नहीं पायेगा।
इधर बचा तो
उधर फंसा, उधर
बचा तो इधर
फंसा। चारों
तरफ जाल है।
मौत
उसी दिन आ गयी
जिस दिन तुम
जन्मे।
जन्मने के साथ
ही मौत घट गयी।
जन्म सिक्के
एक पहलु मौत
दूसरा पहलू।
एक पहलू हाथ
में आ गया तो
दूसरा भी हाथ
में आ गया। अब
देर - अबेर की
बात है, साठ
साल कि सत्तर
साल, कुछ
फर्क नहीं
पड़ता, मौत
आनी निश्चित
है। मौत ने
जन्म के साथ
ही जाल फैला
दिया। सच पूछो
तो जन्म में
फंसकर ही हम
मौत में फंस जाते
हैं। अब फंसने
का कुछ बचा
नहीं, हमारे
पैर फंस ही
चुके हैं।
जोखो
है इण जीवने!
बहुत जोखम से
भरी यह जिंदगी
है। और जहां
इतना जोखम है, वहां
एक काम
तो कर ही
लो-जाग तो जाओ!
सोए-सोए जन्मे,
सोए-सोए जिए,
सोए- सोए पर
जाओगे।
जन्मते और
मरने के बीच
में एक ही क्रांति
की घटना घटने
जैसी है, घटने
योग्य है, घटाने
योग्य है -वह
है जागने की
घटना।
जन्म
और जीवन के
बीच जो जाग
जाता है, उसने
पा लिया। उसने
पा लिया
सर्वस्व! उसने
पा लिया धनों
का धन, उसने
पा लिया पदों
का पद। जन्म
और जीवन के
बीच जो जाग
गया, उसने
शाश्वत जीवन
का अनुभव कर
लिया। फिर न
उसका कोई जन्म
है और न कोई
मृत्यु है।
निर्बाध
अक्षय गति लिए
मैं
चला रहा, बस चल
रहा।
यह पथ
अजान कठोर है,
दिखता
न ओर न छोर है,
रंजित
अनिश्चय से यहां
हर
सांझ है, हर
भोर है।
हर काम
में कुछ भूल,
हर कदम
खतरे से भरा
हर
दृष्टि कुछ
सहमी हुई
हर सास
में कुछ शोर
है।
सब
जानता हूं पर
वहीं
कुछ लग
रहा ऐसा मुझे
साहस
बला मैं लिए
मुझ
में बला का
जोर है।
उर में
असीमित दाह है
है
रक्त में
ज्वाला अमिट
निष्कम्प-सा
निर्धूम-सा
मैं जी
रहा,
बस जल रहा!
आकुल
अतृप्त तृषा
लिये
मैं जल
रहा बस जल रहा!
उन्माद
सौरभ का भरे
निज
में,
सौरभ का भरे
निज
में,
कली है
झूमती
होकर
विकल मधु
ज्वाल को
कोयल
स्वरों में
चूमती!
उन्माद
मुझमें सुरभि
का
संगीत
है मधु ज्वाल
का
पागल
बसंत बयार-सी
हर चाह
दिशि-दिशि
घूमती!
जलती
हुई हर भावना,
जलता
हुआ हर प्यार
है,
कुछ लग
रहा ऐसा मुझे
जीवन
स्वयं अंगार
है।
अंगार-जिसमें
पुलक है,
अंगार-जिसमें
तरलता,
नित
हास में नित
अश्रु में
मैं गल
रहा,
बस गल रहा!
कोमल
मृदुल करुणा
लिये
मैं गल
रहा,
बस गल रहा!
बादल
गला,
पीकर उसे
प्यासी
धरा मुसका पडी,
हिम की
गलन से उमैं
कर
सरिता
विसुध -सी गा
पडी!
गलना
नियति का कम यहां-
मैं
जानता हूं
क्या करूं
निःसीम
भ्रम से ज्ञान
की
सीमा
विवश टकरा
पड़ी!
कितनी
घुटन, कितनी
व्यथा,
कितनी
विवशताए लिए
मैं रच
रहा सपने कि
जो
रंगीन
आशाएं लिए!
कैसी
झिझक? कब सत्य
को
कोई यहां
पर पा सका?
इसलिए
अपने - आप को
मैं छल
रहा बस छल रहा!
जग के
रुदन को हास
से
मैं छल
रहा,
बस छल रहा!
है धूप
कुछ हंसती हुई,
कुछ
चादनी पुसका
रही,
सुकुमार
फूलों की
सुरभि
उल्लास
-लाल लुटा रही!
लेकर
कुतूहल कम्प
को
हर दिन यहां
उत्सव नया,
संगीत
तारों में
विशुद्ध
है रात
लोरी गा रही
पर
क्या करूं, निज
स्वप्न से
कब कौन
उलझा रह सका?
हैं
पैर रुकना
चाहते
पर राह
बढ़ती जा रही!
जो रुक
गया वह मर गया
चलना
अकेले जिंदगी
विश्वास
भ्रम से खेलता
मैं चल
रहा बस चल रहा
निर्बाध
अक्षय गति लिए
मैं चल
रहा बस चल रहा।
चले जा
रहें हैं, बस
चले जा रहें
हैं। पक्का
पता नहीं, कहां
से आए हैं!
पक्का पता
नहीं, कहां
जा रहे हैं!
पक्का पता
नहीं, क्यों
जा रहे हैं!
पक्का पता
नहीं, कौन
हैं! बस भीड़ चल
रही है, भीड़
के साथ हम भी
चल रहे हैं।
बंधे हैं
पंक्ति में
भीड़ के
सम्मोहन में।
जागो!
ऐसे सोए -सोए
चलने से बात
सरेगी नहीं।
लाल ठीक कहते
हैं : 'लालू ' क्यूं
सूत्यां सरे,
बायर ऊबो
काल। जोखो है इण
जीवने, जबरों
घालै जाल।।
जोखम बहुत है
इस जिंदगी में,
तो एक जोखम
और उठा
लो-जागने की जोखम!
जोखम बहुत है
अस जिंदगी में,
जहां मौत ही
आनेवाली है, एक जोखम और
उठा
लो-संन्यास की
जोखम। जहां सब
मिट हो
जानेवाला है,
एक जोखम और
उठा लो- अपने
को अपने हाथ
से मिटाने की
जोखम, ध्यान
की जोखम, समाधि
की जोखम। और
जो उस जोखम को
उठा लेते है, वह सब जोखम
के पार हो
जाता है।
ऊपर तो
बोली गई, आगे
ओछी आव।
लंबी
उस तो जा ही
चुकी। उसकी तो
बोली लग ही
चुकी। वह तो
बिक ही गयी
बाजार में।
ऊपर तो बोली
गई,
आगे ओदी आव!
अब बहुत थोड़ी
बची है। बहुत
तो बीत गयी, बहुत थोड़ी
बची है।
बेड़ी
समदर बीज में, किण
बिद लकसी
न्याव।
लाल
कहते हैं : बड़ी
समझ में नहीं
आ रही है बात।
किनारा दिखाई
नहीं पड़ता
दूसरा। बीच
समंदर में आ
गये हैं। अधिक
उस तो बीत गयी, बहुत
थोड़ी बची है।
किण बिद लगसी
न्याव! यह नाव
किस विधि से
उस पार लगेगी?
सोचो, विचारो,
मनन करो।
लोग तो सोचते
ही नहीं, क्योंकि
सोचने से
घबराहट होती
है। सोचने से
भय लगता है।
सोचने से ऐसा
लगता है, फिर
कुछ करना
पड़ेगा। लोग
सोचने को
टालते हैं।
लोग अपने को
व्यस्त रखते
हैं-फिल्म में,
टेलीविजन
में, रेडियो
में, मित्रों
में, ताश
खेल रहे, होटलों
में, क्लबघरों
में। चले लॉयस
क्लब, रोटरी
क्लब... कहीं भी!
आ गया कोई
बुद्ध
राजनेता, चले।
कहीं भी उलझाए
रखो अपने को।
सड़क पर दो
आदमी लड़ रहे
हैं, गालियां
दे रहे हैं, बस वहीं खड़े
हो गये। किसी
तरह उलझाये
रखो अपने को, व्यस्त रखो
अपने को।
आदमियों
कि तो बात
छोड़ो, लोग
मुर्गियों को
लड़ाते हैं, कबूतरों को
लड़ाते हैं, तीतरों को
लड़ाते हैं।
सैकड़ों की भीड़
इकट्ठी हो
जाती है। साडो
को लड़ाते हैं।
आदमियों को
लड़ाते हैं, औरों की तो
बात छोड़ दो।
हजारों -लाखों
लोग इकट्ठे
हैं। क्योंकि
दो मूड लड़ रहे
है, लोग
देखने आये हुए
हैं कि कौन
किसकी छाती पर
सवार होता है
कौन किसको
तारे दिखा
देता है! लाखों
लोग देख रहे
हैं आतुरता से,
उत्सुकता
से।
फुटबाल
खेली जा रही
है। लोग गेंद
को इधर से उधर
ले जा रहे हैं
और लाखों लोग
बैठे देख रहे
हैं। मार- पीट
हो जायेंगी
अगर उनकी टीम
हार गयी। दंगे
-फसाद हो
जायेंगे। जरा
लोगों की हालत
तो देखो, कुछ
भी हो, क्रिकेट
का मैच हो रहा
हैं; अगर नहीं
पहुंच सके तो
रेडियो के
सामने ही बैठे
हुए हैं।
मैं एक
सज्जन को
जानता हूं
क्रिकेट के
दीवाने, प्रोफेसर
थे
विश्वविद्यालय
में। जहां मैं
प्रोफेसर था
वहीं थे
प्रोफेसर।
क्रिकेट का
मैच हो, जाना
ही है। न जा
पाएं तो
रेडियो के पास
लगे बैठे हैं।
रेडियो से
बिलकुल कान
लगाये बैठे
हैं। एक बार
उनकी पार्टी
हार गयी, जिसको
वे जिताना
चाहते थे, इतने
गुस्से में आ
गये, रेडियो
उठाकर जमीन पर
पटक दिया।
रेडियो!
रेडियो का
जैसे कुछ कसूर
हो! लोग इस तरह
आने को व्यस्त
रखे हुए हैं।
कोई
सिगरेट पी रहा
है। तुम सोचते
हो,
उसकी अड़चन
क्या है? धूम्रपान
असली सवाल
नहीं है; वह
उलझा रहा है
अपने को, किसी
काम में उलझाए
हुए है। धुआ
बाहर - भीतर कर
रहा है। इससे
कुछ भेद नहीं
पड़ता। कोई
भगतजी माला
फेर रहे हैं; उसमें और
धूम्रपान में
कोई बहुत फर्क
नहीं है। वे
माला में उलझा
रहे हैं। वे
गुरिए गिन रहे
हैं। कोई बैठा
राम- राम
राम-राम
राम-राम... जप
रहा है। उलझाओ,
कहीं भी
उलझाए रखो मन
को! कहीं ऐसा न
हो कि जीवन का
जोखम दिखाई पड़
जाये कि मौत
द्वार पर खड़ी
है!
'लालू'
क्यूं
सूत्या सरे
बायर ऊबो काल।
जोखो
है इण जीवने, जैवसे
घाल जाल।।
ऊपर तो
बोली गई, आगे
ओछी आव।
बेड़ी
समदर बीज में, किण
बिद लगसी
न्याव।।
नाव
बीच पड़ गयी है।
समुंदर बड़ा है।
आर -पार, ओर-छोर
दिखाई पड़ता
नहीं, चलो
ताश ही खेलो!
जितनी देर ताश
में उलझे रहे,
कम-से -कम
उतनी देर तो
इसकी फिक्र न
रहेगी कि नाव
का क्या होगा,
किनारे
लगेंगे कि
नहीं लगेंगे!...
कि चलो बिछाओ
शतरंज, असली
हाथी-घोड़े
नहीं हैं तो
चलो नकली
हाथी- घोड़े
चलाओ। और
शतरंजों में
तलवारें खिंच
जाती हैं।
शतरंजों में
सिर कट गये
हैं।
आदमी
का पागलपन
अदभुत है!
आदमी ऐसी
बातों पर लड़
बैठता है
जिसका हिसाब
नहीं! लड़ना भी
अपने से बचने
की एक
व्यवस्था है।
उलझना, विवाद,
व्यर्थ की
बकवास, ये
सब उपाय
हैं-किसी तरह
जीवन का जो
जोखम है वह दिखाई
न पड़े।
क्योंकि
दिखाई पड़ेगा
तो फिर कुछ
करना पड़ेगा।
मेरे
एक परिचित को
उनकी पत्नी
मेरे पास लायी।
वे डाक्टर के
पास जाने को
राजी नहीं। और
उनकी दलील भी
ठीक। वे कहें
कि मैं जाऊं
क्यों, मैं
बिलकुल
स्वस्थ हूं।
और पत्नी मुझे
कहे कि ये
स्वस्थ नहीं
हैं। रात - भर
इन्हें नींद
नहीं आती कहीं
इनको टी. बी. न
हो। और पति
कहें, वह
कुछ भी नहीं।
कभी एकाध बार
ऐसा खून आ गया,
उससे कोई
टी. बी. होता है।
और खासी किसको
नहीं आती!
मुझे कोई
बीमारी नहीं
है। मैं क्यों
जाऊं?
और
कारण कुल इतना
कि वे खुद डरे
हुए हैं। वे
डरे हुए हैं
कि कहीं
बीमारी हो न।
वह उनकी आखों
में मैंने पढ़ा
कि वे डरे हुए
हैं,
कि कहीं ऐसा
न हो कि
बीमारी निकल
ही आये। कहीं
पता न चल जाये
कि टी. बी. है!
तो
मैंने उनसे
कहा कि आप बात
तो बिलकुल ठीक
कह रहे हैं।
पत्नी तो उनकी
बहुत हैरान
हुई। पत्नी ने
कहा : हम आपके
पास इसलिए लाए
हैं कि आप इनको
समझाकर
डाक्टर के पास
भेजें; ये
आपकी मानते
हैं, किसी
और की मानेंगे
नहीं।
मैंने
कहा कि तू
बिलकुल गलत
बकवास कर रही
है। वे बिलकुल
ठक कह रहे हैं।
जब उनको
बीमारी है ही
नहीं, तो
क्यों उनके
पीछे पड़ी है? तो उन्होंने
बड़ी ज्ञान से
अपनी पत्नी की
तरफ देखा और
कहा : अब समझी!
अब कभी भूलकर
बात मत करना।
मैंने उनसे
कहा कि अब
सिर्फ इस
बेचारी पर दया
के कारण चले
जाओ डाक्टर के
पास; तुम्हीं
कोई बीमारी तो
है नहीं, तुम्हें
डर क्या? इसका
मन भर जायेगा।
यह फिक्र में
बीमार पड़ी जा
रही है। इस पर
ख्याल करो।
अब वे
बड़ी मुश्किल
में पड़े।
मैंने कहा :
मैं तुम्हारी
दलील मानता
हूं के तुम्हें
कोई बीमारी
नहीं। तो
तुम्हें कोई
भय भी नहीं
डाक्टर का।
डाक्टर
तुम्हारा
क्या बिगाड़
लेगा? मगर यह
बेचारी मरी जा
रही है। देखते
हो, सूख
गयी बिलकुल।
चिंता में ही
मरी जा रही है,
इसको टी. बी.
हो जायेगी अगर
तुम डाक्टर के
यहां नहीं गये।
उन्होंने
कहा : अब आप ऐसा
कहते हैं तो
मैं चला जाता
हूं। मगर
मैंने देखा
उनकी हालत बड़ी
कंपी हुई है।
अब कोई जवाब
नहीं था उनके
पास तो जाना
पड़ा और टी. बी.
निकला। वे
मुझसे कहने
लगे कि अब मैं
आपसे क्या
छिपाऊं, मुझे
यह भय था कि
कहीं टी. बी.
निकले न। और
अब मैं जिंदा
न रह सकूंगा।
मैंने
कहा : तुम
बिलकुल पागल
हो। तुम
सौभाग्यशाली
हो। तीस साल
पहले टी. बी.
हुआ होता तो
शायद खतरा था, अब
क्या खतरा है?
अब तो
सर्दी-जुखाम
का इलाज नहीं
है टी. बी. का इलाज
है। अब तुम
क्या घबड़ाते
हो? सर्दी-जुखाम
जिसको हो वह
डरे चिकित्सक
उत्सुक नहीं
है
सर्दी-जुखाम
में, अपने -
आप तीन-चार
दिन मैं ठीक
हो जाता है।
कहावत
है कि अगर दवा
लो,
तो सर्दी-जुखाम
एक सप्ताह में
ठीक होता है
और अगर दवा न लो
तो सात दिन
में। कोई
चिकित्सक
फिक्र क्यों
करे उसकी, वह
हो ही जाता है
अपने- आप ठीक
-ठाक। लेकिन
टी. बी. तो अब
सर्दी-जुखाम
से भी छोटी
बीमारी है।
मैंने कहा :
तुम घबड़ाओ मत।
मगर वे मर गये।
वे कोई
पंद्रह-बीस
दिन के भीतर
मर गये। टी. बी.
का सदमा, जिसको
बरसों से छिपा
रहे थे, अपने
को दबा रहे थे,
रोक रहे थे...।
वे नहीं झेल
सके।
मैंने
कहा कि अब यह
टी. बी. से मरने
कोई जरूरत ही नहीं
है। अब टी. बी.
से कोई मरे तो
उसकी मर्जी।
अब टी. बी. तो
बिलकुल छोटी-मोटी
बीमारी है।
टी. बी. का तो अब
इलाज है। मगर
उनको तो टी. बी.
शब्द बड़ा था।
टी. बी. यानी
मौत। वह शब्द
ही बहुत बड़ा!
घबड़ाहट में मर
गये। उनके
चिकित्सक ने
भी मुझसे कहा
कि ऐसा कोई मरने
का कारण नहीं
था। मैंने कहा
कि कारण कोई
भी नहीं था, लेकिन
उनका मन...।
तुम अपने
को उलझाए हो
हजार -हजार
बातों में, सिर्फ
एक बात छिपाने
को बायर ऊबो
काल... द्वार पर
मौत खड़ी है और
जीवन में जोखम
ही जोखम है।
इस
जोखम से जागो।
यह जोखम अच्छा
है यह चुनौती
है। यह जोखम
तुम्हारी
छाती में तीर
की तरह चुभ जाये
तो क्रांति हो
जाये। तो
तुम्हें कुछ
करना ही पड़े।
और करोगे क्या? तुम्हें
अंतर्यात्रा
करनी पड़ेगी।
अगर बाही मौत
खड़ी है तो एक
ही रास्ता
बचता है कि
भीतर जाओ।
जापान
में एक झेन
फकीर को कुछ
मित्रों ने
भोजन पर
बुलाया था।
सातवीं मंजिल
के मकान पर
भोजन कर रहे
हैं,
अचानक
भूकंप आ गया।
सारा मकान
कंपने लगा।
भागे लोग। कोई
पच्चीस-तीस
मित्र थे।
सीढ़ियों पर
भीड़ हो गयी।
जो मेजबान था
वह भी भाग।।
लेकिन भीड़ के
कारण अटक गया
दरवाजे पर।
तभी उसे ख्याल
आया कि मेहमान
का क्या हुआ? लौटकर देखा,
वह झेन फकीर
आंख बंद
किये अपनी जगह
पर बैठा है
-जैसे कुछ हो
ही नहीं रहा!
मकान कैप रहा
है, अब
गिरा तब गिरा।
लेकिन उस फकीर
का उस शांत
मुद्रा में
बैठा होना, कुछ ऐसा
उसके मन को
आकर्षित किया,
कि उसने कहा,
अब जो कुछ
अस फकीर का
होगा वही मेरा
होगा। रुक गया।
कंपता था, घबड़ाता
था, लेकिन
रुक गया।
भूकंप आया, गया। कोई
भूकंप सदा तो
रहते नहीं।
फकीर ने आंख खोली, जहां से बात
टूट गयी थी
भूकंप के आने
से, वहीं
से बात शुरू
की।
लेकिन
मेजबान ने कहा
: मुझे क्षमा
करें, मुझे अब
याद ही नहीं
कि हम क्या
बात करते थे।
बीच में इतनी
बड़ी घटना घट
गयी है कि सब
अस्तव्यस्त
हो गया। अब तो
मुझे एक नया
प्रश्न पूछना
है। हम सब
भागे, आप
क्यों नहीं
भागे?
उस
फकीर ने कहा :
तुम गलत कहते
हो। तुम भागे, मैं
भी भाग।। तुम
बाहर की तरफ
भागे, मैं
भीतर की तरफ
भाग।।
तुम्हारा
भागना दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
तुम बाहर की
तरफ भागे।
मेरा भागना
दिखाई नहीं
पड़ा तुम्हें
लेकिन अगर गौर
से तुमने मेरा
चेहरा देखा था,
तो तुम समझ
गये होओगे कि
मैं भी भाग
गया था। मैं
भी यहां था
नहीं, मैं
अपने भीतर था।
और मैं तुमसे
कहता हूं के
मैं ही ठीक
भाग।, तुम
गलत भागे।
यहां भी भूकंप
था और जहां
तुम भाग रहे
थे वहां भी
भूकंप था।
बाहर भागोगे
तो भूकंप ही
भूकंप है। मैं
ऐसी जगह अपने
भीतर भाग। जहां
कोई भूकंप कभी
नहीं पहुंचता
है। मैं वहां निश्चित
था। मैं बैठ
गया अपने भीतर
जाकर। अब बाहर
जो होना हो हो।
मैं अपने अमृत
-गृह मैं बैठ
गया, जहां
मृत्यु घटती
ही नहीं। मैं
उस निष्कंप
दशा में पहुंच
गया, जहां
भूकंपों की
कोई बिसात
नहीं।
अगर
तुम्हें बाहर
का जोखम दिखाई
पड़ जाये तो तुम्हारे
जीवन में
अंतर्यात्रा
शुरू हो सकती
है।
'लालू'
ओ जी आधलो, आगे अलसीड़ा
लालू कहते हैं
: जरा देखो, एक
तो अंधियारा
बहुत, फिर
तुम अंधे बहुत,
और आगे झाडू
-झंखाड़।
'लालू'
ओजी आधलो, आगे अलसीड़ा।
झरपट
बावे सरपणी, पिंड
भुगते पीड़ा।।
और जगह -
जगह सौपों ने
घर बना रखे
हैं। जगह-जगह
सौपों ने
स्थान बना
रखें हैं। कहां
से सोप हमला
कर देगा... और
इतनी झटपट
करता है हमला
कि बचने का
मौका नहीं
रहता, समय
नहीं रहता।
'लालू'
ओ जी आधलो
आगे अलसीड़ा।
एक तो अंधेरा
बहुत, अंधापन
बहुत। फिर
बहुत झाडू
-झंखाड़ हैं
जीवन मैं। और
जगह-जगह सौपों
ने बावली बना
रखी हैं।
क्यों भागे जा
रहे हो बाहर
की तरफ? गिरोगे
किसी झाड़ी में।
काटे जाओगे
किसी सांप से।
यूं ही आये, ' ही
चले जाओगे।
जीवन का यह
परम अवसर यूं
ही खो दोगे?
हंसा
तो मोती
चुगैं...। और
तुम हो हंस-मोती
चुगने को बने
हो!
चरण
बढ़ाता हूं मैं
अपने जिन
सपनों को संग
ले
मैं
क्या जानूं वे
आए हैं अपनी
एक उमंग ले?
वैसे
कल है एक आवरण
जो अभेद्य है
मौन है
पर हम
उसका चित्र
बनाते अपने
अपने रंग ले!
रंगों
में अस्तित्व यहां
है रंगों में
दिन-रात है
फिर
उससे क्यों
टकराना जो
अदृश्य
अज्ञात है?
उठती
गिरती इन
सांसों की
घटती बढ़ती
प्यास है,
जो
टूटा वह असत्य, सत्य
जो बना हुआ
विश्वास है।
वैसे
बनना और
बिगड़ना अपने
बस की बात कब
पर
रीते को भरने
वाला जीवन
अपने पास है
कब
देखा इस पार
कि उलझूं कहां
छिपा उस पार
है?
जिधर
झुकाई दृष्टि
उधर ही मुझे
दिखा मझधार
है!
कभी
शोक का कभी
हर्ष का मेरा
प्रतिपल पर्व
है
कुछ
चाहो में कुछ
आहों मेरी
संज्ञा सर्व
है!
वैसे
पागल सी यह
दुनिया उलझ
रही है ज्ञान
से
पर मैं
सुलझा जिन
भूलों से उन
पर मुझको गर्व
है!
मैंने
कब पूछा है
किससे क्या हर्ष
क्या खेद है?
खुलने
पर बर गया धुआ
-सा मन को जो भी
भेद है!
है
इतनी
सामर्थ्य भला
कब अनचाहे छोड़
दूं?
किस
प्रकाश के बल
पर अपनी खोई
राहें मोड़ दूं?
वैसे
कौतुक क्षणिक
भावना पल भर
का उन्माद है
मैं
अपनी ही सीमा
को बोलो कैसे
तोड़ पर दू?
मेरे
सनमुख जो कुछ
है वह सीमा
में लयमान है।
सीमाओं
में बंधा अहं
है,
सीमा ही
वरदान है!
ऐसे
आदमी अपने को
समझाता रहता
है। यही
जिंदगी है
-यही सीमाओं
की,
यही अहंकार
की; यही
आपाधापी, यही
व्यवसाय, यही
धन, पर-प्रतिष्ठा।
मेरे
सम्मुख जो कुछ
है वह सीमा
में लयमान है।
सीमाओं
में बंधा अहं
है,
सीमा ही
वरदान है!
ऐसे हम
अपने को
सांत्वना दे
लेते हैं कि
बस यही हमारी
नियति है।
नहीं-नहीं, मृत्यु
तुम्हारी
नियति नहीं है।
अमृत का
तुम्हारा
स्वरूप -सिद्ध
अधिकार है। और
अगर तुम्हें
सब जगह मझधार
दिखाई पड़ती
है...
कब
देखा इस पार
कि उलझूं कहां
उस पार है?
जिधर
झुकाई दृष्टि
नहीं है। तो
अभी तुम आंख बंद
करके देख रहे
हो। तो तुम
अंधे की तरह
देख रहे हो।
तो तुम्हें
अभी देखने का
बोध ही नहीं
मिला, देखने
की कला नहीं
मिला; अन्यथा
कहीं भी मझधार
नहीं है, सब
जगह किनारा है।
साहिल ही
साहिल हैं।
जिसको दिखाई
नहीं पड़ता, उसे सब जगह
मौत है और
जिसको दिखाई
पड़ता है उसे सब
जगह अमृत है।
जो अंधा है, उसे कहीं भी
परमात्मा
नहीं है, सब
जगह पदार्थ है,
मिट्टी ही
मिट्टी है। और
जिसके पास आंख
है
उसके लिए
मिट्टी है ही
नहीं, क्योंकि
मिट्टी में भी
वही छिपा है।
मिट्टी के
कण-कण में भी
वही विराजमान
है।
निरगुण
सेती
निसतिया...!
जिसने उस
निर्गुण को, उस
निराकार को, न दिखाई
पड़नेवाले को,
अदृश्य को,
अतात को
स्मरण किया, दिन-रात
स्मरण किया, सब उस पर
अर्पित किया।
वह सिद्ध हो
गया! सुरगुण
सूं सीधा! वह
सिद्ध हो गया।
उसके भीतर संगीत
उठा शाश्वत का।
उसके भीतर कमल
खिला शाश्वत
का, जो कभी
मुरझाता नहीं।
कूड़ा
कोरा रह गया...!
लेकिन जो
व्यर्थ के
संसार में
फंसे हुए हैं, वे
कोरे -के -कोरे
रह गये।... कोई
बिरला बीधा।
शायद मुश्किल
से कभी कोई, कोई बिरला
उस सत्य की
तरफ आकृष्ट
होता हैं।
अधिक तो
कूड़ा-करकट में
ही उलझे रह
जाते हैं।
रोते हैं फिर
बहुत बाद में,
पर पीछे
पछताए होत का
जब चिड़िया चुग
गइ खेत! मरते
क्षण रोते हैं।
चरते क्षण
किसकी आखें
गीली नहीं हो
जातीं? मगर
फिर समय नहीं
बचता। और लोग
यहां इसी आशा
में बैठते हैं
कि मरने वक्त
भगवान का नाम
ले लेंगे, कि
राम -रात कर
लेंगे।
जिंदगीभर
नहीं कर पाये,
मरते वक्त
कैसे कर पाओगे?
मृत्यु तो
वही करवाएगी
जो जिंदगीभर
किया है।
जो
जिंदगीभर
संभाला है वही
मृत्यु में
प्रगट होता
है-निचोड़ की
तरह,
इत्र की तरह
जिंदगीभर के
फूल निचुड़ आते
हैं। मगर यह
मत सोचना कि
जिंदगीभर तो
धन- धन करेंगे,
पद -पद
करेंगे और
मरते वक्त
एकदम हरि को
स्मरण कर
लेंगे। ऐसी
असंगति नहीं
हो सकती।
जिंदगी
एक सुसंबद्ध
श्रृंखला है, उसमें
हर कड़ी जुड़ी
है। अगर
जिंदगीभर तो
वेश्यालय गये
तो यह मत
सोचना कि मरते
वक्त अचानक
मंदिर पहुंच
जाओगे। पैरों
की पुरानी आदत
वेश्यालय ही
ले जायेगी; मरते वक्त
भी ले जायेगी।
पैर दूसरा
रास्ता ही
नहीं जानते
हैं। है।, यह
हो सकता है कि
तुम मर जाओ और
दूसरे अर्थी
ले जायें और
कहें राम-नाम
सत्य हैं। यह
होगा, मगर
तुम तो गये।
यह बड़े
मजे की बात है, जिंदगीभर
जिनको राम नाम
सत्य नहीं था,
उनको दूसरे
मरते वक्त राम
नाम सत्य करवा
रहे हैं। पर
ही चुके वह; मरते वक्त
भी नहीं, कर
ही चुके; अब
वे हैं ही
नहीं, वहां
कुछ है ही
नहीं। खाली
पिंजड़ा पड़ा है,
हंसा तो उड़
चला। अब दूसरे
चले मरघट लेकर
उनको राम राम
सत्य। और ये
दूसरे अपने
लिए नहीं कह
रहे हैं
राम-राम सत्य;
ये भी जो पर
गये हैं सज्जन,
उनके लिए कह
रहे हैं राम
राम सत्य है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मरा। गांव भर
उससे परेज्ञान
था। राजनेता
था। हर तरह से
उसने गांव को
परेज्ञान
किया था, पीड़ित
किया था, हैरान
किया था, झंझटों
में डाला था।
कब पर मौलवी
अंतिम विदा
देने, कुरान
की आयतें
पढ्ने, मुल्ला
नसरुद्दीन के
संबंध में दो
शब्द बोलने
खड़ा हुआ।
हमारी दुनिया
के रिवाज बड़े
अजीब हैं!
जिनको जिंदगीभर
गाली देते हैं,
उनको भी
मरते वक्त
कहते हैं 'स्वर्गीय'
हो गये।
जिनको लोग
जिंदगीभर
भलीभांति
जानते हैं, उनकी भी
प्रशंसा करते
हैं। हम कहते
ही हैं कि मरे
की क्या निंदा
करना! अब पर ही
गया बेचारा!
तो
मौलवी ने भी
दिल खोलकर
प्रशंसा की, ऐसी
प्रशंसा की कि
मुल्ला की
पत्नी अपने
बेटे से बोली
कि फजलू? जरा
जाकर देख तो
कि अर्थी में
तेरे पिताजी
ही हैं कि कोई
और? क्योंकि
इतनी प्रशंसा
और तेरे
पिताजी की!
मरोगे
तो लोग
प्रशंसा
करेंगे। राम
-राम का गीत गा
देंगे। हरि -
भजन करेंगे।
पहुंचा आएंगे
मरघट तक। अपने
लिए नहीं, तुम्हारे
लिए राम नाम
सत्य। उनके
लिए तो खतरा
ही नहीं है।
अब तो राम -राम
सत्य करने में
कुछ हर्जा भी
नहीं है। ऐसी
प्रतीक्षा मत
करो कि दूसरों
को कहना पड़े
राम नाम सत्य
है। जीवन में
राम को सत्य
कर लो। अपने
जीवन में, अपने
अनुभव से राम
को सत्य कर लो
तो तुमने जीवन
पाया और जीवन
का उपयोग किया।
बीत
गयी बातों में
रात वह
खयालों की
हाथ
लगी निदियारी
जिंदगी
आंसू
था सिर्फ एक
बूंद
मगर
जाने क्यों
भीग
गयी है सारी
जिंदगी
वह भी
क्या दिन था-
जब सतर
की लहरों ने
घाट
बंधी नावों की
पीठ
थपथपायी थी
जाने
क्या जादू था
मेरे
मनुहारों में
चांदनी
लजा कर
इन बाहों तक
आयी थी
अब तो
गुलदस्ते
में बासी कुछ
फूल बचे
और बची
रतनारी
जिंदगी
मन के
आईने में
उगते
जो चेहरे में
हर
चेहरे में
उदास
हिरनी की आखें
हैं
आंगन
से सरहद को
जाती-
पगडंडी
की दूबों पर
बिखरी
कुछ बगुले की
पाखें हैं
अब तो
हर रोज
हादसे गुमसुम
सुनती है
अपनी
यह गौधारी
जिंदगी
जाने
क्या हुआ
नदी पर
कोहरे
मंडराये
मूक
हुई सांकल
दीवार
हुई बहरी है
बौरों
पर पहरा है-
मौसमी
हवाओं का
फागुन
है नाम
मगर
जेठ की दुपहरी
है
अब तो
अस बियावान
में
पडाव
ढूंढ रही
मृगतृष्णा
की मारी
जिंदगी!
ऐसा न
कहना पडे अंत
में। आज ही
देख लो
मृगतृष्णा को।
आज ही देख लो
जिंदगी की भरी
दोपहरी को।
अभी इसे वसंत
माने बैठे हो, फिर
रोओगे बहुत।
अभी इसे
मधुमास समझा
है और यहां
मृत्यु के
सिवाय और कुछ
भी नहीं।
जागो
और थोडा देखो!
देखी
है खिजा की
बेरहमी वीरान
गुलिस्तां
देखा है?
जलते
हुए जंगल देखे
हैं सूखा हुआ
चश्मा देखा है?
लुट
जाते है चौराहे
पर गफलत में
कभी चौकन्ने
में
दावा
तो यही सब
करते हैं हमने
भी जमाना देखा
है?
देखी
भी नहीं मय
मुद्दत से तुम
कहते हो पी
रखी है
प्यासा
कैसे बहकेगा
भला पीकर तो
बहकना देखा है।
झुलसे
हैं कभी, टूटे
हैं कभी, बह
निकले हैं
सैलाब में हम,
जीने
की हर टूक
ख्वाहिश में
बस मौत का
सामी देखा है
राही
तो मंजिल पा
ही गये सब
उनकी
खुशिर्या
देखते हैं,
राहों
के सीनों का
किसने रौंदा
हुआ अरमां देखा
है।
वैसे
तो तजुर्बे की
खातिर नाकाफी
है यह उस मगर,
हमने
तो जरा से
अर्से में मत
पूछिए क्या
क्या देखा है।
बोध हो
तो जरा से
अर्से में सब
देख लिया जाता
है और बोध न हो
तो सत्तर -
अस्सी साल, नब्बे
साल, सौ
साल... मगर वही
दौड़, वही
मूढ़ता, वही
चले दिल्ली!
वही आकांक्षाएं
पद की, वही
तृष्णाएं! देखी है
खिजां की
बेरहमी वीरान
गुलिस्तां देखा
है?
जलते
हुए जंगल देखे
हैं सुखा हुआ
चश्मा देखा है?
ऐसे ही
एक दिन हो
जाओगे-जीते
हुए जंगल, सूखा
हुआ चश्मा...।
आज नहीं कल
पतझड़ आने को
है।
वसंत
में भूले मत
रहो,
भटके मत रहो।
लुट
जाते हैं
चौराहे पर
गफलत में कभी
चौकन्ने में
दावा
तो यही सब
करते हैं हमने
भी जमाना देखा
है।
नहीं, सभी
ने जमाना नहीं
देखा होता।
अधिक लोग तो
बाल धूप में
पकाते हैं और
सोचते हैं कि
जमाना देखा है।
जिसने जमाना
देख लिया, वह
परमात्मा देख
लिया, वह
परमात्मा की
तरफ मुड़े बिना
रह नहीं सकता।
पिरथी
भूली पीव कूं? पड्यां
समदरा खोज।
मेरे हांसे
मैं हंसु, दुनिया
जाणे रोज।
लाल
कहते हैं :
पृथ्वी उस
प्यारे को भूल
ही गयी है।
पिरथी भूली
पीव कूं? पड्या
समदरा खोज!
इसीलिए हम
समुद्र में
गिर गये हैं
और खोजना पड़
रहा है, तड़फना
पड़ रहा है, चिल्लाना
पड़ रहा है। उस
एक प्यारे को
याद करते ही
समंदर विलीन
हो जाता है।
उस प्यारे को
याद करते ही
किनारा मिल
जाता है। वह
प्यारा ही
किनारा है।
उसकी याद ही
किनारा है।
पिरथी
भूली पीव कूं? पड्या
समदरा खोज।
मेरे हांसे
मैं हंसूं? दुनिया
जाणे रोज।।
और लाल
कहते हैं कि
बड़े मजे की
बात है कि
मैंने तो
परमात्मा को
पा लिया है और
आनंदित हूं
मग्न हूं।
मेरी जिंदगी
तो हंसी ही
हंसी, हंसी का
फव्वारा हो
गयी है। और
लोग समझते हैं
कि बेचारा
उदास हो गया, उदासीन हो
गया, त्यागी
हो गया, व्रती
हो गया! सब
छोड्कर चला
गया-बेचारा!
मैं तो हंसता
हूं; लोग
समझते हैं
रोता हूं।
यह
सूत्र बड़े
समझने जैसा है।
महावीर ने महल
छोड़ दिया, धन
छोड़ दिया, पद
छोड़ दिया, प्रतिष्ठा
छोड़ दी।
शास्त्रों
में इसका बड़ा
वर्णन होता है,
बड़ा लंबा!
लेकिन कोई यह
नहीं कहता कि
इस छोड़ने के
पहले कुछ पा
लिया, इसलिए
छोड़ा। पाए
बिना कोई नहीं
छोड़ता। ध्यान
की संपदा मिल
गयी महावीर को
महल में ही।
जब ध्यान की
संपदा मिल गयी
तो और संपदाएं
दो कौड़ी की हो
गयीं। हमें
लगता है कि
संपदा छोड़ी, महावीर
कौड़िया छोड़
रहे हैं।
एक
आदमी
रामकृष्ण के
पास आया, बहुत
-सी अशर्फिया
उनके पैरों
में डाल दीं
और कहा कि आप
त्यागी-व्रती
हैं। आप महा
त्यागी हैं!
कुछ भेंट करना
चाहता हूं।
रामकृष्ण
ने कहा : तू बड़ी
गलत बात कहता
है। तू त्यागी
है,
हम त्यागी
नहीं हैं। हम
तो भोगी ठहरे।
उस
आदमी ने कहा :
परमहंस देव, आप
क्या कह रहे
हैं, आप और
भोगी! और मुझ
संसारी को कह
रहे हैं त्यागी?
रामकृष्ण
ने कहा। समझने
की कोशिश कर।
तूने कौड़िया
इकट्ठी कर रखी
हैं,
हमने हीरे!
तो कौड़िया
इकट्ठी
करनेवाला
भोगी है या
हीरे इकट्ठे
करनेवाला? तूने
कूड़ा-करकट
इकट्ठा किया
है और हमने
राम की शरण गह
ली। तू मिट्टी
में ही उलझा
है, हम
अमृत के वासी
हो गये। भोगी
कौन है, तू
बता और त्यागी
कौन है, तू
बता?
मैं भी
तुमसे यही
कहना चाहता
हूं : महावीर, बुद्ध,
रामकृष्ण, रमण, ये
महाभोगी हैं।
तुम अपने को
भोगी तज समझना।
इस धोखे में
मत रहना कि
तुम भोगी हो।
रोगी भला होओ,
भोगी नहीं
हो। त्यागी हो
तुम-परमात्मा
को छोड्कर
ठीकरों को पकड़कर
बैठे हो! बड़े
त्यागी हो, महा त्यागी
हो! तुम्हारे
सबके दरवाजों
पर लिखा होना
चाहिए : फलां
फलां महा
त्यागी, परमहंस,
व्रती, महाव्रती!
तुमने सब कुछ
छोड़ दिया है, जो पाने
योग्य है गौर
सब पकड़ लिया
है, जो
पाने योग्य
नहीं है।
लाल
ठीक कहते हैं :
मेरे हांसे
मैं हंसूं...।
मैं हंस रहा
हूं और लोग
समझते हैं कि
रो रहा हूं।
मैं उदास नहीं
हूं मैं
आनंदित हूं और
लोग समझते हैं
उदासीन हो गया
हूं। मैंने
कुछ छोड़ा नहीं
है,
जो कचरा था
वह दिखाई पड़
गया है और जो
हीरा था वह मैंने
पा लिया है।
भली
बुरी दोनूं
तजो,
माया जाणों
खाक।
आदर
जाकूं दीजसी, दरया
खुलिया ताक।।
कहते
हैं : जिसने
भले और बुरे
दानों से
मुक्ति पा ली...।
दुनिया में
तीन तरह के
लोग हैं।
दुर्जन, जिनको
हम बुरे लोग
कहते हैं।
सज्जन, जिन्हें
हम भले लोग
कहते हैं। और
साधु। आमतौर
से हम साधु को
सज्जन का ही
विकसित रूप समझते
हैं; वहां हमारी
भूल हो रही है।
साधु न तो
दुर्जन है न
सज्जन है।
साधु तो अच्छे
-बुरे दानों
के पार हो गया।
दुर्जन और
सज्जन तो एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
दुर्जन और
सज्जन में भेद
नहीं है, बहुत
भेद नहीं है।
एक ने बुरे को
पकड़ा है, मगर
पकड़ा है! एक ने
भले को पकड़ा
है, मगर
पकड़ा है।
दोनों की पकड़
है। एक बुरे
की आदत से भर
गया है, एक
भले की आदत से
भर गया है।
साधु
वह है, जिसकी
कोई आदत नहीं
है; जिसकी
कोई पकड़ नहीं
है; जिसकी
मुट्ठी खुली
है।
साधु
वह है जो कहता
है : मैं हूं ही
नहीं, पकड़े
कौर? पकड़े
क्या?
साधु
वह है : जो कहता
है,
परमात्मा
मुझसे जिए। जो
उसको करना हो
को, न करना
हो न करे। मैं
तो बांस की
पोंगरी हूं; उसे जो गीत
गाना हो गाए।
मेरा कोई
आग्रह नहीं है।
दुर्जन
का दुराग्रह
होता है, सज्जन
का सत्याग्रह
होता है; साधु
का अनाग्रह
होता है-कोई
आग्रह नहीं!
भली
बुरी दोनूं
तजो,
माया जाणों
खाक।
जिसने
अच्छे और बुरे
दोनों छोड़
दिया, जिसने
शुभ- अशुभ
दोनों को छोड़
दिया, पाप -पुण्य
दोनों को छोड़
दिया, उसके
लिए माया
मिट्टी हो
गयी! जब तक
तुमने बुरे को
पकड़ा माया है।
और अगर तुमने
बुरे को
छोड्कर अच्छे
को पकड़ा, तो
भी माया है।
पकड़ने में
माया है। और
जो दोनों को
छोड़ देता है...
आदर जाकूं
दीजसी... अगर
आदर ही देना
हो तो उसको
देना, जो
बुरे और भले
दोनों के पार
है। क्यों?
आदर
जाकूं दीजसी, दरया
खुलिया ताक।
...
क्योंकि जो
भले-बुरे
दोनों के पार
है उसमें ही
दरवाजा खुल
गया है
परमात्मा का।
अगर तुम उसे
आदर दोगे तो
शायद उस
दरवाजे से तुम्हें
भी परमात्मा
की झलक मिलनी
शुरू हो जाये।
दरया खुलिया
ताक! भले -बुरे
के जो पार है।
अतिक्रमण कर
गया-शुभ का
अशुभ का। मन
के जो अतीत हो
गया। क्योंकि
भला- बुरा सब
मन का ही
खेल है।
जिसका मन ही न
रहा,
उसकी माया न
रहीं। और जो
शून्य हो गया,
जिसकी कोई
पकड़ न रही, वहां
दरवाजा खुल
गया। दरया
खुलिया ताक!
वहां मंदिर का
द्वार खुला है।
काश, तुम
वहां अपना सिर
झुका सको तो
तुम्हें
परमात्मा की
झलक मिलनी
सुनिश्चित है!
और
परमात्मा की
झलक जब तक न
मिले तब तक
तृप्त मत हो
जाना। कहीं
रास्ते पर रुक
मत जाना। यहां
बड़े सुंदर
पड़ाव हैं, लेकिन
कोई पड़ाव
मंजिल नहीं
परमात्मा ही
मंजिल है।
स्मरण
रखो,
परमात्मा
ही मंजिल है।
क्षण- भर को न
भूलो, परमात्मा
ही मंजिल है।
परमात्मा को
बिना पाये
नहीं जाना है।
परमात्मा को
पाना ही है, क्योंकि उसी
को पाकर जीवन
की कृतार्थता
है, सार्थकता
है। जिसने उसे
खोया, उसने
सब खोया।
जिसने उसे
पाया, अगर
सब भी खो जाये
तो भी उसने सब
पाया।
आज
इतना ही।
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