12
सितंबर 1976,
ओशो आश्रम,
पूना।
पहला
प्रश्न :
कल
प्रवचन सुनते
समय ऐसा लगा
कि मैं इस
पृथ्वी पर
नहीं हूं,
वरन मुक्त और
असीम आकाश में
एक ज्योति—कण
हूं। प्रवचन
के बाद भी
हलकेपन का, खालीपन का
अनुभव होता
रहा; उसी आकाश
में भ्रमण करते
रहने का जी
होता रहा।
ज्ञान, कर्म, भक्ति मैं
नहीं जानता; लेकिन अकेला
होने पर इस
स्थिति में
डूबे रहने का
जी होता है। लेकिन
कभी—कभी यह
भाव भी उठता
है कि कहीं यह
मेरा पागलपन
तो नहीं है, कहीं यह मेरे
अहंकार का ही
दूसरा खेल तो
नहीं है! कृपापूर्वक
मेरा
मार्ग—दर्शन
करें!
इस
पृथ्वी पर हम
हैं,
पर इस
पृथ्वी पर
वस्तुत: हम न
हो सकते हैं
और न हम हैं।
प्रतीत होता
है, पृथ्वी
पर हम अजनबी
हैं। देह में
घर किया है, लेकिन देह
हमारा घर नहीं।
जैसे कोई
परदेस में बस
जाये और भूल
ही जाये स्वदेश
को, फिर
अचानक राह पर
किसी दिन
बाजार में कोई
मिल जाये जो
घर की याद दिला
दे, जो
अपनी भाषा में
बोले—तो एक
क्षण को परदेस
मिट जायेगा, स्वदेश
प्रगट हो
जायेगा।
शास्त्र
का यही मूल्य
है। शास्ताओं
के वचनों का
यही अर्थ है।
उनकी सुनकर
क्षण भर को हम
यहां नहीं रह
जाते; वहां हो
जाते हैं जहां
हमें होना
चाहिए। उनके
संगीत में
बहकर, जो
चारों तरफ
घेरे है वह
दूर हो जाता
है; और जो
बहुत दूर है, पास आ जाता
है।
अष्टावक्र
के वचन बहुत
अनूठे हैं।
सुनोगे तो ऐसा
बार—बार होगा।
बार—बार लगेगा, पृथ्वी
पर नहीं हो, आकाश के हो
गये; क्योंकि
वे वचन आकाश
के हैं। वे वचन
स्वदेश से आए
हैं। उस स्रोत
से आए हैं, जहां
से हम सबका
आना हुआ है; और जहां
हमें जाना
चाहिए, और जहां
जाए बिना हम
कभी चैन को
उपलब्ध न हो
सकेंगे।
जहां
हम हैं—सराय
है,
घर नहीं।
कितना ही
मानकर बैठ
जायें कि घर
है, फिर भी
सराय सराय बनी
रहती है। समझा
लें, बुझा लें,
भुला लें—भेद
नहीं पड़ता; काटा चुभता
ही रहता है; याद आती ही
रहती है। और
कभी जब ऐसे
किसी सत्य के
साथ मुलाकात
हो जाये, जो
खींच ले, जो
चुंबक की तरह
किसी और दूसरी
दुनिया का
दर्शन करा दे
तो लगेगा कि
हम पृथ्वी के
हिस्से नहीं
रहे।
ठीक
लगा।
'कल प्रवचन
सुनते समय ऐसा
लगा कि मैं इस
पृथ्वी पर
नहीं हूं।’
इस
पृथ्वी पर कोई
भी नहीं है।
इस पृथ्वी पर
हम मालूम होते
हैं,
प्रतीति
होती है, सत्यतः
हम आकाश में
हैं। हमारा
स्वभाव आकाश
का है।
आत्मा
यानी भीतर का
आकाश। शरीर
यानी पृथ्वी।
शरीर बना है
पृथ्वी से।
तुम बने हो
आकाश से। तुम्हारे
भीतर दोनों का
मिलन हुआ है।
तुम
क्षितिज हो, जहां
पृथ्वी आकाश
से मिलती हुई
मालूम पड़ती है;
लेकिन
मिलती थोड़े ही
है कभी! दूर
क्षितिज
मालूम पड़ता है—मिल
रहा आकाश
पृथ्वी से। चल
पड़ो; लगता
है ऐसे घड़ी दो
घड़ी में पहुंच
जायेंगे।
चलते रहो
जन्मों—जन्मों
तक, कभी भी उस
जगह न
पहुंचोगे जहां
आकाश पृथ्वी
से मिलता है।
बस मालूम होता;
सदा मालूम
होता मिल रहा—थोड़ी
दूर आगे, बस
थोड़ी दूर आगे!
क्षितिज
कहीं है नहीं—सिर्फ
दिखाई पड़ता है।
जैसे बाहर
क्षितिज है
वैसे ही हमारी
अवस्था है।
यहां भीतर भी
मिलन कभी हुआ
नहीं। आत्मा
कैसे मिले शरीर
से! मर्त्य का
अमृत से मिलन
कैसे हो! दूध
पानी में मिल
जाता है—दोनों
पृथ्वी के हैं।
आत्मा शरीर से
कैसे मिले—दोनों
का गुणधर्म
भिन्न है!
कितने ही पास
हों,
मिलन असंभव
है। सनातन से
पास हों तो भी
मिलन असंभव है।
मिलन हो नहीं
सकता; सिर्फ
हमारी
प्रतीति है, हमारी धारणा
है। क्षितिज
हमारी धारणा
है। हमने मान
रखा है, इसलिए
है।
अष्टावक्र
के वचनों को
अगर जाने दोगे
हृदय के भीतर
तीर की तरह तो
वे तुम्हारी
याद को जगायेंगे; तुम्हारी
भूली—बिसरी
स्मृति को
उठायेंगे; क्षण
भर को आकाश
जैसे खुल
जायेगा, बादल
कट जायेंगे; सूरज की
किरणों से भर
जायेगा प्राण।
कठिनाई
होगी; क्योंकि
हमारे सारे
जीवन के
विपरीत होगा
यह अनुभव।
इससे बेचैनी
होगी। और ये
जो घटाएं छट
गई हैं, ये
तुम्हारे
कारण नहीं छटी
हैं; ये तो
किसी शास्ता
के वचनों का
परिणाम हैं।
फिर घटाएं घिर
जायेंगी। तुम
घर पहुंचते—पहुंचते
फिर घटाओं को
घेर लोगे। तुम
अपनी आदत से
इतनी जल्दी
बाज थोड़े आओगे—फिर
घटाएं घिर
जायेंगी, तब
और बेचैनी
होगी कि जो
दिखाई पड़ा था,
वह सपना तो
नहीं था; जो
दिखाई पड़ा था,
कहीं
कल्पना तो
नहीं थी, कहीं
अहंकार का, मन का खेल तो
न था, कहीं
ऐसा तो न हुआ
कि हम किसी
पागलपन में पड़
गये थे!
स्वभावत:
तुम्हारी
आदतों का वजन
बहुत पुराना है।
अंधेरा बड़ा
प्राचीन है।
यद्यपि है
नहीं—पर है
बहुत प्राचीन।
सूरज की किरण
कभी फूटती है
तो बड़ी नयी है—अत्यंत
नयी है, सद्यस्नात!
क्षण भर को
दिखाई पड़ती है,
फिर तुम
अपने अंधेरे
में खो जाते
हो। तुम्हारे
अंधेरे का बड़ा
लंबा इतिहास
है। जब तुम
दोनों को
तौलोगे तो शक
किरण पर पैदा
होगा, अंधेरे
पर पैदा नहीं
होगा। होना
चाहिए अंधेरे
पर—होता है
किरण पर; क्योंकि
किरण है नयी
और अंधेरा है
पुराना।
अंधेरा है
परंपरा जैसा—
सदियों—सदियों
की धारा है।
किरण है अभी—अभी
फूटी—ताजी, नयी, इतनी
नयी कि भरोसा
कैसे करें! '….
लगा कि मैं
इस पृथ्वी पर
नहीं हूं।’
इस
पृथ्वी पर कोई
भी नहीं है।
इस पृथ्वी पर
हम हो नहीं
सकते।
मान्यता है
हमारी, धारणा
है हमारी, लगता
है—सत्य नहीं
है।
'……
और मुझे, असीम आकाश
में एक ज्योति—कण
हूं ऐसा
प्रतीत हुआ।’
यह
शुरुआत है : 'असीम
आकाश में एक
ज्योति—कण हूं।’
जल्दी ही
लगेगा कि असीम
आकाश हूं। यह
प्रारंभ है।
तो
असीम आकाश में
भी अभी हम
पूरी तरह लीन
नहीं हो पाते।
अगर लगता भी
है कभी, कभी
वह उड़ान भी आ
जाती है, वह
तूफान भी आ
जाता है, हवाएं
हमें ले भी
जाती है—तो भी
हम अपने को
अलग ही बचा
लेते हैं।’ज्योति
कण!' न रहे
अंधेरे, हो
गये ज्योति—कण;
लेकिन आकाश
से अभी भी भेद
रहा, फर्क
रहा, फासला
रहा। घटना तो
पूरी उस दिन
घटेगी, जिस
दिन तुम आकाश
ही हो जाओगे—ज्योति—कण
भी भिन्न है—जिस
दिन तुम
अभिन्न हो
जाओगे; जिस
दिन लगेगा मैं
शून्याकाश
हूं।
ऐसा
तो कहते हैं
भाषा में कि
मैं शून्य
आकाश हूं। जब
तक 'मैं' है, तब तक यह
कैसे हो सकेगा?
मैं है तो
आकाश अलग
रहेगा। जब ऐसा
प्रतीत होगा
कि शून्याकाश
है, तब मैं
तो नहीं
रहूंगा।
शून्याकाश ही
रहेगा। कहते
हैं : अहं
ब्रह्मास्मि—मैं
ब्रह्म हूं।
लेकिन जब
ब्रह्म होगा
तब मैं कैसे
रहेगा? ब्रह्म
ही रहेगा, मैं
नहीं रहूंगा।
पर कहने में
और कोई उपाय
नहीं।
भाषा
तो सोए हुए
लोगों की है।
भाषा तो उनकी
है जो परदेस
में बस गए और
जिन्होंने
परदेस को
स्वदेश मान
लिया है। मौन
ही ज्ञानियों
का है; भाषा तो
अज्ञानियों
की है।
तो
जैसे ही कुछ
कहो,
कहते ही
सत्य असत्य हो
जाता है।’अहं
ब्रह्मास्मि!
मैं ब्रह्म
हूं। मैं आकाश
हूं।’—कहते
ही असत्य हो
गया।.. आकाश ही
है!
लेकिन
यह भी कहना ' आकाश
ही है' पूरा
सत्य नहीं है,
क्योंकि 'ही' बताता
है कि कुछ और
भी होगा, अन्यथा
'ही' पर
जोर क्यों है?
'आकाश है', इतने कहने
में. भी अड़चन
है, क्योंकि
जो है वह
'नहीं' हो सकता है।
हम
कहते हैं, मकान
है; कभी
मकान नहीं हो
जाता है, गिर
जाता है, खंडहर
हो जाता है।
हम कहते हैं, आदमी है; कभी
आदमी मर जाता
है। आकाश इस
तरह तो नहीं
है कि कभी है
और कभी नहीं है।
आकाश तो सदा
है।
तो
आकाश है, ऐसा
कहना
पुनरुक्ति है।
आकाश का
स्वभाव ही
होना है, इसलिए
'है' को
क्या दोहराना?
'है' कहना
तो उन चीजों
के लिए ठीक है
जो कभी 'नहीं'
भी हो जाती
हैं। मनुष्य
है। एक दिन
नहीं था, आज
है, कल फिर
नहीं हो
जायेगा।
हमारी 'है'
तो दो 'नहीं'
के बीच में
है। आकाश की 'है' कल भी है आज
भी है, कल
भी है। दो 'है'
के बीच में 'है' का
क्या अर्थ? दो 'नहीं'
के बीच में 'है' का
अर्थ होता है।
आकाश
है,
यह भी
पुनरुक्ति है।
कहें आकाश।
लेकिन ' आकाश'
जब कहते हैं,
शब्द जब
बनाते हैं, तभी भूल हो
जाती है। आकाश
कहने का अर्थ
ही हुआ कि कुछ
और भी है जो आकाश
से अन्यथा है,
भिन्न है।
अन्यथा शब्द
की क्या जरूरत
है? अगर एक
ही है तब तो एक
कहने का भी
कोई प्रयोजन नहीं।
एक तो तभी
सार्थक है जब
दो हो, तीन
हो, चार हो,
संख्या हो।’
आकाश' भी
क्या कहना? इसलिए ज्ञान
तो मौन है।
परम ज्ञान को
शब्दों तक
लाना असंभव है।
लेकिन
हम धन्यभागी
हैं कि
अष्टावक्र
जैसे किन्हीं
पुरुषों ने
अथक,
असंभव
चेष्टा की है।
जहां तक संभव
हो सकता था, सत्य की
सुगंध को शब्द
तक लाने का
प्रयास किया
है।
और
इतना खयाल
रखना कि
अष्टावक्र
जैसी सफल चेतना
बहुत कम है।
बहुतों ने
प्रयास किया
है सत्य को
शब्द तक लाने
का—सभी हारे
हैं। हारना
सुनिश्चित है।
मगर अगर हारे
हुओं में भी
देखना हो, तो
अष्टावक्र
सबसे कम हारे
हैं, सबसे
ज्यादा जीते
हैं। सुनोगे
ठीक से तो घर
की याद आयेगी।
शुभ है कि लगा
ज्योति—कण हूं।
तैयारी रखना
खोने की। किसी
दिन लगेगा
ज्योति—कण भी
खो गया, आकाश
ही बचा। तब
पूरा
मतवालापन
छायेगा। तब
डूबोगे सत्य
की शराब में।
तब नाचोगे। तब
अमृत की पूरी
झलक मिलेगी।
'……
प्रवचन के
बाद भी हलकेपन,
खालीपन का
अनुभव होता
रहा। उसी आकाश
में भ्रमण
करने का जी
होता रहा।’
यहां
थोड़ी भूल हो
जाती है। जब
भी हमें कुछ
सुखद अनुभव
होता है, तो हम चाहते
हैं फिर—फिर
हो। मनुष्य का
मन है बड़ा
कमजोर—आकांक्षा
से भर जाता है,
लोभ से भर
जाता है, प्रलोभन
पैदा होता है।
जो भी सुखद है
उसे दोहराने
का मन होता है।
लेकिन एक बात
खयाल रखना, दोहराने में
ही भूल हो
जाती है। जैसे
ही तुमने चाहा
फिर से हो, कभी
न होगा। क्योंकि
जब पहली दफे
हुआ था तो
तुम्हारे
चाहने से न हुआ
था—हो गया था, घटा था; तुम्हारा
कृत्य न था।
यही
तो अष्टावक्र
का पूरा जोर
है : सत्य घटता
है;
कृत्य नहीं
है, घटना
है। सुनते—सुनते
हुआ था, तुम
कर क्या रहे
थे? सुनने
का अर्थ ही
होता है कि
तुम कुछ भी न
कर रहे थे; तुम
शून्य— भाव से
बैठे थे; तुम
मौन थे, तुम
सजग थे; तुम
जागे हुए थे, सोए नहीं थे।
ठीक! लेकिन
तुम कर क्या
रहे थे? तुम
केवल ग्राहक
थे। तुम्हारी
चित्त की दशा
दर्पण की तरह
थी : जो आ जाये, झलक जाये; जो कहा जाये,
सुन लिया
जाये। तुम कुछ
उसमें जोड़ न
रहे थे। अगर
तुम जोड़ रहे
होते, तो
जो घटी है बात
वह कभी न घटती।
तुम व्याख्या
भी न कर रहे थे।
भीतर बैठे—बैठे
तुम यह न कह
रहे थे कि ही, ठीक है गलत
है, मुझसे
मेल खाता नहीं
मेल खाता, शास्त्र
में ऐसा कहा
है कि नहीं
कहा है। तुम
तर्क न कर रहे
थे। अगर तुम
तर्क कर रहे
थे तो यह घटना
न घटती।
जिन्होंने
पूछा है, स्वामी
ओमप्रकाश
सरस्वती ने, उन्हें मैं
जानता हूं।
तर्क से उनका
चित्त बड़ा दूर
है; संदेह—विवाद
से बहुत दूर
है। जा चुके
वे दिन! कभी
किया होगा
तर्क, कभी
किया होगा
संदेह। जीवन
के अनुभव से
पक गये हैं।
अब नहीं वह
बचपना मन में
रहा। इसीलिए
घटना घट सकी।
सुन रहे थे, कुछ कर न रहे
थे, बैठे
थे—बैठे—बैठे
हो गया।
तो
जब पहली दफा
तुम्हारे
बिना किये हुआ, तो
दूसरी दफा अगर
तुमने चाहा कि
हो जाये तो बाधा
पड़ जायेगी।
चाह तो उसके
होने का कारण
थी ही नहीं।
इसलिए जब ऐसी
अभूतपूर्व
घटनाएं घटें
तो चाहना मत.
जब घटें, आनंद—
भाव वे
स्वीकार कर
लेना; जब न
घटें तो
शिकायत मत
करना, मांगना
मत। मांगे कि
चूके। मांग
में जबरदस्ती
है, आग्रह
है : 'घटना
चाहिए! एक दफा
घट गया तो अब
क्यों नहीं घटता
है?'
ऐसा
रोज होता है।
जब यहां लोग
ध्यान करने
आते हैं, शुरू—शुरू
में ताजे और
नये होते हैं;
कोई अनुभव
नहीं होता, तो घट जाता
है। यह बड़ी
हैरानी की बात
है। इसे तुम
समझना।
अष्टावक्र को
समझने में
इससे सहायता
मिलेगी। यह
मेरे रोज का
अनुभव है : जब
लोग नये—ताजे
आते हैं और
ध्यान का
उन्हें कोई
अनुभव नहीं
होता तो घट
जाता है। घट
जाता है तो
आह्लाद से भर
जाते हैं, मगर
वहीं गड़बड़ हो
जाती है। फिर
मांग शुरू
होती है आज जो
हुआ कल हो; न
केवल हो, बल्कि
और ज्यादा हो।
फिर नहीं घटता।
फिर वे मेरे
पास आ कर रोते
हैं। वे कहते
हैं, 'हुआ
क्या? कहीं
भूल हो गई? पहले
घटा, अब
नहीं घट रहा
है!' भूल
यही हो गई कि
पहले जब घटा
तो तुमने
मांगा न था; अब तुम मांग
रहे हो। अब
तुम्हारा मन
निर्दोष न रहा,
मांग ने
दूषित किया।
अब तुम सरल न
रहे, अब
तुम खुले न
रहे, मांग
ने द्वार—दरवाजे
बंद किये। आकांक्षा
जग गई; आकांक्षा
ने सब विकृत
कर दिया।
वासना खड़ी हो
गई, लोभ
पैदा हो गया।
ऐसा
रोज होता है।
जो लोग बहुत
दिन से ध्यान
कर रहे हैं, बहुत
तरह की
प्रक्रियाएं
कर रहे हैं, उन्हें
ध्यान बड़ी
मुश्किल से
लगता है। उनका
अनुभव बाधा
बनता है। कभी—कभी
कोई चला आता
है, ऐसे ही,
तरंगों में
बहता हुआ। कोई
मित्र आता था—उसने
कभी सोचा भी
नहीं ध्यान का—कोई
मित्र आता था,
उसने सोचा
चलो चले चलें,
देखें क्या
है। कुतूहलवश
चला आया था, कोई वासना न
थी, कोई
अध्यात्म की
खोज भी न थी, कोई चेष्टा
भी न थी, ऐसे
ही चला आया था—औरों
को ध्यान करते
देख तरंग आ गई,
सम्मिलित
हो गया—घट गया!
चौंका आदमी. 'मैं तो आया
ही नहीं था
ध्यान करने और
ध्यान हो गया!'
बस फिर अड़चन।
अब दुबारा जब
आता है तो
आकांक्षा है,
मन में रस
है; फिर से
हो। लोभ है, पुनरुक्ति
का भाव है! मन आ
गया। मन ने सब
खेल खराब कर
दिया। जहां मन
नहीं है, वहां
घटता है।
ध्यान
रखना, मन
पुनरुक्ति की
वासना है। जो
हुआ सुखद, फिर
से हो; जो
हुआ दुखद, फिर
कभी न हो—यही
तो मन है। मन
चुनाव करता
है. यह हो और यह
न हो; ऐसा
बार—बार हो और
ऐसा अब कभी न
हो। यही तो मन
है।
जब
तुम जीवन के
साथ बहने लगते
हो—जो हो ठीक, जो
न हो ठीक; दुख
आये तो
स्वीकार; दुख
आये तो विरोध
नहीं, सुख
आये तो
स्वीकार; सुख
आये तो उन्माद
नहीं। जब सुख
और दुख में
कोई सम होने
लगता है, समता
आने लगती है, जब सुख और
दुख धीरे—धीरे
एक ही जैसे
मालूम होने
लगते हैं, क्योंकि
कोई चुनाव न
रहा, अपने
हाथ की कोई
बात न रही, जो
होता है होता
है; हम
देखते रहते
हैं—इसको
अष्टावक्र
कहते हैं
साक्षी— भाव।
और वे कहते
हैं, साक्षी—
भाव सधा तो सब
सधा : साक्षी—भाव
साक्षी को
जगाता है भीतर,
बाहर समता
ले आता है।
समत्व साक्षी—
भाव की छाया
है। या तुम
समत्व में
उपलब्ध हो जाओ
तो साक्षी—
भाव चला आता
है। वे दोनों
साथ—साथ चलते
हैं। वे एक ही
घटना के दो
पैर या दो पंख
हैं।
'…….उसी आकाश
में भ्रमण करने
का जी होता
रहता है।’
इससे
सावधान होना।
मन को मौका मत
देना कि ध्यान
की घड़ियों को
खराब करे। इसी
मन ने तो
संसार खराब
किया। इसी ने
तो जीवन के
सारे संबंध
विकृत किये।
इसी मन ने तो
सारे जीवन को
रेगिस्तान
जैसा रूखा कर
दिया; जहां
बहुत फूल खिल
सकते थे, वहां
सिर्फ काटे
हाथ में रह
गये। अब इस मन
को
अंतर्यात्रा
पर साथ मत लाओ।
इसे नमस्कार
करो। इसे विदा
दो। प्रेम से
सही, पर
इसे विदा दो।
इससे कहो :
बहुत हो गया, अब हम न
मांगेंगे। अब
जो होगा, हम
जागेंगे। हम
देखेंगे।
जैसे ही तुमने
मांगा, फिर
तुम साक्षी
नहीं रह सकते,
तुम भोक्ता
हो गये। ध्यान
के भी भोक्ता
हो गये तो
ध्यान गया।
भोक्ता का
अर्थ यह है कि
तुमने कहा :
इसमें मुझे रस
आया, इससे
मुझे सुख मिला।
'…....ज्ञान, कर्म,
भक्ति मैं
नहीं जानता; लेकिन अकेला
होने पर इसी
स्थिति में
डूबे रहने का
जी होता है।’
छोड़ो
इस जी को—और
तुम डूबोगे
इसी स्थिति
में। अकेले ही
नहीं, भीड़ में
भी रहोगे, तो
डूबोगे।
बाजार में भी
रहोगे तो भी
डूबोगे। इस
स्थिति का कोई
संबंध अकेले
और भीड़ से
नहीं है, मंदिर
और बाजार से
नहीं है, ख्यात,
समूह से
नहीं है—इस
स्थिति का
संबंध
तुम्हारे
चित्त के शात
होने से है, सम होने से
है। जहां भी
शाति, समता
होगी, यह
घटना घटेगी।
लेकिन तुम
इसको मांगों मत,
अन्यथा यही अशांति
बन जायेगी, यही तनाव बन
जायेगी।
अष्टावक्र
कहते. 'अभी और
यहीं!'
मांग
तो सदा कल के
लिए होती है।
मांग तो 'अभी
और यहीं' नहीं
हो सकती। मांग
का स्वभाव
वर्तमान में
नहीं ठहरता।
मांग का अर्थ
ही है : हो, कल
हो, घड़ी भर
बाद हो, क्षण
भर बाद हो—हो।
मांग अभी तो
नहीं हो सकती,
मांग के लिए
तो समय चाहिए।
थोड़ा ही सही, पर समय
चाहिए। और
भविष्य है
नहीं। जो नहीं
है उसी का नाम
भविष्य है। जो
है उसका नाम
वर्तमान है।
वर्तमान और
मांग का कोई
संबंध नहीं
होता। जब तुम
वर्तमान में
होओगे तो
पाओगे कोई
मांग नहीं है।
और तब घटेगी
यह घटना। जब
इसे घटाने का
जी न रहेगा, तब यह खूब
घटेगी।
इस
पहेली को ठीक
से समझ लो। इस
पहेली का एक—एक
कोना पहचान लो।
जिस दिन तुम
कुछ भी न
मांगोगे, उस
दिन सब घटेगा।
जिस तुम
परमात्मा के पीछे
दीवाने हो कर
न दौड़ोगे, वह
तुम्हारे
पीछे चला
आयेगा। जिस
दिन तुम ध्यान
के लिए आतुरता
न दिखाओगे, तुम्हारे
भीतर कोई तनाव
न होगा, उस
दिन ध्यान ही
ध्यान से भर
जाओगे।
ध्यान
कहीं बाहर से
थोड़े ही जाता
है। जब तुम
तनाव में नहीं
हो तो
तुम्हारे
भीतर शेष रह
जाता, उसका
नाम ध्यान है।
जब
तुम्हारे
भीतर वासना
नहीं है तो जो
शेष रह जाता, उसका
नाम ध्यान है।
झील
है। तरंगें उठ
रही हैं। हवा
के झकोरे! झील
की पूरी छाती
तूफान से भर
गई है। आधी है।
सब उथल—पुथल
हो रही है।
आकाश में चांद
है पूरा, लेकिन
प्रतिबिंब
नहीं बनता; क्योंकि झील
कंप रही है, दर्पण कैसे
बने? चांद
का प्रतिबिंब
बनता है, टूट—टूट
जाता है हजार—हजार
टुकड़ों में; चांदी फैल
जाती है पूरी
झील पर, लेकिन
चांद कर प्रतिबिंब
नहीं बनता है।
झील शात हो गई।
लहरें कहीं
चली गईं? लहरें
कहीं से आई
थीं? लहरें
झील की थीं।
फिर सो गईं; झील में
वापस उतर गईं।
झील अपनी थिर
अवस्था में आ
गई। वह जो
चांदी की तरह
फैल गया चांद
था झील की छाती
पर, सिकुड़
आया एक जगह, ठीक
प्रतिबिंब
बनने लगा।
जैसे
ही तुम्हारे
मन की झील पर
तरंगें नहीं
होतीं—तरंग
यानी वासना, तरंग
यानी मांग, तरंग यानी
ऐसा हो और ऐसा
न हो—जब कोई तरंग
मन की झील पर
नहीं होती तो
सत्य जैसा है
वैसा ही
प्रतिबिंबित
होता है। तो
जो बनता है
चांद
तुम्हारे
भीतर, उसके
सौंदर्य का
क्या कहना!
उसके रस का
क्या कहना!
रसधार बरसती!
मिलन होता!
फिर सुहागरात
ही सुहागरात
है!
लेकिन
तुमने मांगा
कि चूक हो
जायेगी।
और
मैं समझता हूं
मांग बिलकुल
स्वाभाविक
मालूम होती है।
बड़ी अड़चन है।
इतना सुख
मिलता है ऐसी
घड़ियों में कि
कैसे बचें न
मांगने से!
मानवीय है।
मैं यह नहीं
कहता कि तुमने
कुछ बड़ी
अमानवीय भूल
की। बिलकुल
मानवीय भूल है।
कभी जब क्षण
भर को झरोखा
खुल जाता है
और आकाश बहता
है तुममें, कभी
क्षण भर को जब
अंधेरा टूटता
है और किरणें उतरती
हैं तो असंभव
है, करीब—करीब
असंभव है कि
इसे न मांगो।
लेकिन
यह 'असंभव' सीखना
पड़ेगा। आज
सीखो, कल
सीखो, परसों
सीखो, मगर
सीखना पड़ेगा।
जितनी जल्दी
सीखो उतना
उचित। अभी
तैयार हो जाओ
तो अभी घटना
घटने को देर
नहीं है।
जरा
भी क्षण भर की
प्रतीक्षा
करने की जरूरत
नहीं है।
'……
इसी स्थिति
में डूबे रहने
का जी होता है।’
यह
स्थिति घटेगी।
इसका
तुम्हारे
चित्त से कुछ
लेना—देना
नहीं है।
इसलिए तुम
अपने चित्त को
पीछे छोड़ो। वह
जब बीच—बीच
में आये तब
उसे बार—बार
कह दो कि
क्षमा करो, बहुत
हुआ, काफी
हुआ! संसार
खराब किया, अब परमात्मा
तो खराब मत
करो! जीवन के
सारे सुख विकृत
कर डाले; अब
ये अंतरतम के
सुख आ रहे हैं,
इन्हें तो
विकृत मत करो!
सजग
रह कर मन को
नमस्कार कर लो, विदा
दे दो। धीरे—धीरे,
धीरे—धीरे
ऐसी घड़ियां
आने लगेंगी—तुम्हारे
अनुभव से ही आयेंगी—जब
मन नहीं होगा,
तत्क्षण
फिर वही झरोखा
खुलता है; फिर
बहती रसधार; फिर उतरता
प्रकाश, फिर
तुम आलोकित; फिर तुम मगन,
फिर तुम
अमृत में
डूबे! जब ऐसा
बार—बार होगा
तो बात साफ हो
जायेगी; तो
फिर मन से तुम
अपने को दूर
रखने में कुशल
हो जाओगे।
जब
घटे,
तब घट जाने
देना; जब न
घटे तब शाति
से प्रतीक्षा
करते रहना—आयेगा।
जो एक बार आया
है, बार—बार
आयेगा। तुम भर
मत मांगना।
तुम भर बीच
में मत आना।
तुम भर बाधा
मत देना। '.? लेकिन
कभी—कभी यह
भाव भी उठता
है कि कहीं यह
मेरा पागलपन तो
नहीं है!'
बुद्धि
ऐसे भाव भी
उठायेगी।
क्योंकि
बुद्धि यह मान
ही नहीं सकती
कि आनंद हो
सकता है।
बुद्धि दुख से
बिलकुल राजी
है। बुद्धि ने
दुख को पूरी
तरह स्वीकार
किया है, क्योंकि
बुद्धि दुख की
जन्मदात्री
है। अपनी ही
संतान को कौन
स्वीकार नहीं
करेगा! तो बुद्धि
मानती है : दुख
है तो बिलकुल
ठीक है। लेकिन
महासुख! —जरूर
कहीं कोई गड़बड़
हो गई है। ऐसा
कहीं होता है?
कोई कल्पना
हो गई, कोई
सपना देखा, किसी दिवा—स्वप्न
में खो गये, किसी
सम्मोहन में
उतर गये? जरूर
कहीं कुछ
पागलपन हो गया
है।
बुद्धि
ऐसे बार—बार
कहेगी। इसे
सुनना मत। इस
पर ध्यान मत
देना। अगर इस
पर ध्यान दिया
तो वे घटनाएं
बंद हो
जायेंगी, वे
द्वार—झरोखे
फिर कभी न
खुलेंगे।
एक
बात खयाल में
रखना : आनंद
सत्य की
परिभाषा है। जहां
से आनंद मिले, वहीं
सत्य है।
इसलिए तो हमने
परमात्मा को 'सच्चिदानंद'
कहा है।
आनंद उसकी
आखिरी
परिभाषा है।
सत्य से भी
ऊपर, चित
से भी ऊपर, आनंद
को रखा है, 'सच्चिदानंद'
कहा है।
सत्य एक सीढ़ी
नीचे, चित
एक सीढ़ी नीचे—आनंद
परम है।
जहां
से आनंद बहे, जहां
से आनंद मिले—फिर
तुम चिंता मत
करना, सत्य
के करीब हो।
जैसे कोई
बगीचे के करीब
आता है तो
हवाएं ठंडी हो
जाती हैं, पक्षियों
के गीत सुनाई
पड़ने लगते हैं,
शीतलता अनुभव
होने लगती है—तब
बगीचा दिखाई
भी न पड़े तो भी
अनुभव में आने
लगता है कि
राह ठीक है, बगीचे की
तरफ पहुंच रहे
हैं। ऐसे ही, जैसे ही तुम
सत्य की तरफ
पहुंचने लगते
हो, आनंद
झरता है, शीतल
होने लगता मन,
संतुलन आने
लगता, सहिष्णुता
बढ़ती है, सुख
बढ़ता है! एक
उमंग घेरे रहती
है—अकारण! कोई
कारण भी दिखाई
नहीं पड़ता। न
कोई लाटरी
मिली है। न
कोई धंधे में
बड़ा लाभ हुआ
है। न कोई बड़ा
पद मिला है।
ऐसा भी हो
सकता था : पद था,
वह भी गया, हाथ में जो
था वह भी खो
गया; धंधा
भी डूब गया—लेकिन
अकारण एक उमंग
है कि भीतर कोई
नाचे जा रहा
है, कि रुकता
ही नहीं! तो
बुद्धि कहेगी.
कहीं पागल तो
नहीं हो गये
हो? ये तो
पागलों के
लक्षण हैं।
यही
बड़ी अजीब
दुनिया है. यहां
सिर्फ पागल ही
प्रसन्न
दिखाई पड़ते
हैं! इसलिए
बुद्धि कहती
है,
पागल हो गये
होओगे, क्योंकि
यहां पागलों
के सिवा किसी
को प्रसन्न
देखा है? यहां
हजार कारण
होते हैं, तब
भी आदमी
प्रसन्न नहीं
होता। बड़ा महल
हो, धन हो, संपत्ति हो,
सुख—सुविधा
हो, तब भी
आदमी प्रसन्न
नहीं होता। यह
दुनिया दुखी
लोगों की
दुनिया है।
मगर दुखी
लोगों की भीड़
है। यहां अगर
तुम हंसने लगो
अकारण तो लोग
कहेंगे पागल
हो गये हो! अगर
तुम कहो कि
हंसी आ रही है,
कोई कारण
नहीं है, फैली
जा रही है, भीतर
से उठ रही है, लहर आ रही है—लोग
कहेंगे, बस,
दिमाग खराब
हो गया! यहां
तुम शक्ल बना
कर चलो, उदास
रहो, तुम्हारी
शक्ल देख कर
भूत—प्रेत भी
डरें, तो
बिलकुल ठीक हो;
तो कोई अड़चन
नहीं है; तो
सब ठीक चल रहा
है; तुम
आदमी जैसे
आदमी हो; जैसा
आदमी होना
चाहिए वैसे
आदमी हो।
लेकिन तुम
मुस्कुराने
लगो, तुम
हंसने लगो, तुम गीत
गुनगुनाने
लगो, तुम
राह के किनारे
खड़े हो कर
नाचने लगो—बस,
तुम पागल हो
गये!
परमात्मा
को हमने इस
भांति इनकार
किया है कि अगर
परमात्मा आये
तो हम उसे
पागलखाने में
बंद कर देंगे।
शायद इसी कारण
नहीं आता, आने
से डरता है।
तुम
जरा सोचो, कृष्ण
अगर मिल जायें
चौराहे पर
बांसुरी बजाते,
मोर—मुकुट
बांधे, पीतांबर
डाले, गोपियां
नाचती हों—क्या
करोगे? तत्थण
पुलिस— थाने
जाओगे कि कुछ
गड़बड़ है! यह
क्या हो रहा
है? जो
नहीं होना
चाहिए वह हो
रहा है—तुम इस
आदमी को
जेलखाने में
डालोगे।
आनंद
निष्कासित कर
दिया गया है!
हमने आनंद को जीवन
के बाहर कर
दिया है। हम
दुख को छाती
से लगा कर
बैठे हैं।
यहां दुखी
आदमी
बुद्धिमान
मालूम होता है; यहां
आनंदित आदमी
पागल मालूम
होता है। सारी
सरणी उलटी है।
तो
स्वाभाविक है।
जीवन भर जिसको
तुमने
बुद्धिमानी
समझा है, आज
अचानक अगर
खोने लगेगी, खिसकने
लगेगी, अगर
आज अचानक नींव
उखड़ने लगेगी
तुम्हारी तथाकथित
बुद्धिमानी
की, और
अचानक झांकने
लगेगी
प्रसन्नता—' अकारण' खयाल
रखना! पागलपन
का मतलब यह
होता है.
अकारण प्रसन्न!
कारण भी नहीं
है कुछ। बैठे
हैं अकेले और
मुस्कुराहट आ
रही है। बस, पागल हो गये!
क्योंकि ऐसा
तो हमने सिर्फ
पागलों को ही
देखा है।
ध्यान
रखना. पागलों
में और
परमहंसों में
थोड़ा—सा संबंध
है। पागल भी
हंसते हैं, प्रसन्न
होते हैं, क्योंकि
बुद्धि गंवा
दी। परमहंस भी
हंसते हैं, प्रसन्न
होते हैं, क्योंकि
बुद्धि के पार
आ गये। दोनों—पागल
बुद्धि से
नीचे गिर जाता
है, इसलिए
हंस लेता है; परमहंस
बुद्धि के पार
चला जाता है, इसलिए हंसता
है—दोनों में
थोड़ी समानता
है।
पागल
और परमहंस में
एक बात समान
है कि दोनों ने
बुद्धि गंवाई।
एक ने
होशपूर्वक
गंवाई है, एक
ने बेहोशी में
गंवाई है—इसलिए
फर्क बहुत है।
जमीन— आसमान
जितना फर्क है।
लेकिन फिर भी
एक समानता है।
इसलिए कभी—कभी
तुम्हें पागल
में परमहंस
दिखाई पड़ेगा
और कभी—कभी
परमहंस में
पागल। तो भूल—चूक
हो जाती है।
पश्चिम
के पागलखानों
में ऐसे बहुत—से
लोग बंद हैं जो
पागल नहीं हैं।
अभी वहां बडी क्रांति
चलती है इसके
संबंध में।
कुछ
मनोवैज्ञानिक, विशेषकर
आर. डी लैंग और
उनके साथी, एक बड़ा आंदोलन
चलाते हैं कि
बहुत—से पागल
पागलखानों
में बंद हैं
जो पागल नहीं
हैं। अगर वे
पूरब में पैदा
होते तो
परमहंसों की
तरह उनका आदर—सम्मान
होता है। आर
डी लैंग को
पता नहीं है, इससे उलटी
घटना पूरब में
घट चुकी है :
यहां कई पागल
हैं जो परमहंस
समझे जाते हैं।
मगर आदमी आदमी
है। यहां पूरब
में कई पागल
परमहंस समझ
लिये गये हैं।
मगर भूल—चूक
होती है, क्योंकि
दोनों की
सीमाएं एक—दूसरे
पर पड़ जाती
हैं। तो यह शक
स्वाभाविक है।
एक
ही बात खयाल
रखना इसमें.
आनंद बढ़ रहा
हो,
घबड़ाना मत।
मगर आनंद
पागलपन के
कारण भी बढ़
सकता है। तो
सुरक्षा की.
कसौटी क्या है?
सुरक्षा की
कसौटी यह है :
तुम्हारा
आनंद बढ़ रहा
हो और
तुम्हारे
कारण किसी का
दुख न बढ़ रहा
हो तो
बेफिक्री से
जाना। तुम्हारा
आनंद किसी की
हिंसा, किसी
पर आक्रमण, किसी को दुख
देने पर
निर्भर न हो, तो फिर
पागलपन से
डरने की कोई
वजह नहीं है।
अगर पागल भी
हो रहे हो तो
यह पागलपन
बिलकुल शुभ है,
ठीक है। फिर
बेझिझक इसमें
प्रवेश कर
जाना।
डरने
का कारण तो
तभी है जब तुम
किसी को
नुकसान पहुंचाने
लगो।
तुम्हारे नाच
से किसी को
कोई बाधा नहीं
है,
लेकिन कोई
सो रहा है और
तुम उसकी छाती
पर जा कर ढोल
बजा कर नाचने
लगो। तुम नाचो,
इससे कुछ
अड़चन नहीं है।
तुम गुनगुनाओ
राम का नाम, यह ठीक है।
लेकिन माइक
लगा कर आधी
रात में और
तुम अखंड कीर्तन
शुरू कर दो, तो तुम पागल
हो। हालांकि
कोई तुमको
पागल नहीं कह
सकता, क्योंकि
तुम राम—धुन
कर रहे हो।
ऐसे कई पागल
कर रहे हैं।
वे कहते हैं, अखंड कीर्तन
कर रहे हैं, चौबीस घंटे
की कथा की है।
सोओ न सोओ, तुम्हारी
मर्जी! अगर
तुम बाधा डालो
तो अधार्मिक
हो।
इतना
ही खयाल रखना :
तुम्हारा आनंद
हिंसात्मक न
हो। बस यह
पर्याप्त है।
तुम्हारा
आनंद
तुम्हारा
निजी हो। इसके
कारण किसी के
जीवन में कोई
बाधा न पड़े, कोई
पत्थर न पड़े।
तुम्हारा फूल
खिले, लेकिन
तुम्हारे फूल
के खिलने के
कारण किसी को कांटे
न चुभे। इतना
ही भर खयाल
रहे तो तुम
ठीक दिशा में
जा रहे हो।
जहां
तुम्हें लगे
कि अब दूसरों
को बाधा होने
लगी,
वहां थोड़े
सावधान होना!
वहां परमहंस
की तरफ न जा कर
तुमने पागलपन
का रास्ता पकड़
लिया।
'ओमप्रकाश' से किसी को
कोई दुख नहीं
है। बेझिझक, बेधड़क जा
सकते हो। कल
मैं एक गीत पढ़
रहा था :
जो
कुछ सुंदर था, प्रेय,
काम्य
जो
अच्छा, मजा, नया था, सत्य—सार
मैं
बीन—बीन कर
लाया
नैवेद्य
चढ़ाया
पर
यह क्या हुआ?
सब
पड़ा पड़ा
कुम्हलाया
सूख
गया,
मुर्झाया
कुछ
भी तो उसने
हाथ बढ़ा कर
नहीं लिया!
यूं
कहीं तो था
लिखा
पर
मैंने जो दिया, जो
पाया,
जो
पिया, जो
गिराया,
जो
ढाला, जो
छलकाया,
जो
निथारा, जो
छाना
जो
उतारा, जो
चढ़ाया,
जो
जोड़ा, जो तोड़ा,
जो छोड़ा
सबका
जो कुछ हिसाब
रहा,
मैंने
देखा कि उसी
यज्ञ—ज्वाला
में गिर गया
और
उसी क्षण मुझे
लगा कि
अरे
मैं तिर गया!
ठीक
है,
मेरा सिर
फिर गया।
तिरता
है आदमी—सिर
के फिरने से।
परमात्मा
को तुम चढ़ाओ
चुन—चुन कर
चीजें, अच्छी—
अच्छी चीजें—उससे
कुछ न होगा, जब तक कि सिर
न चढ़े। सुनो
फिर :
जो
कुछ सुंदर था, प्रेय,
काम्य
जो
अच्छा, मजा, नया था, सत्य—सार
मैं
बीन —बीन कर
लाया नैवेद्य
चढ़ाया
पर
यह क्या हुआ?
सब
पड़ा —पड़ा
कुम्हलाया
सूख
गया,
मुर्झाया
कुछ
भी तो उसने हाथ
बढ़ा कर नहीं लिया।
तुम
ले आओ सुंदरतम
को खोज कर, बहुमूल्य
को खोज कर, चढ़ाओ
कोहिनूर—कुम्हलायेंगे!
तोड़ो फूल कमल
के, गुलाब
के, चढाओ—कुम्हलायेगे!
एक ही चीज वहां
स्वीकार है—वह
तुम्हारा सिर;
वह
तुम्हारा
अहंकार; वह
तुम्हारी
बुद्धि; वह
तुम्हारा मन।
अलग— अलग नाम
हैं; बात
एक ही है।
वहां चढ़ाओ
अपने को।
और
उसी क्षण मुझे
लगा कि
अरे
मैं तिर गया
ठीक
है,
मेरा सिर
फिर गया!
लोग
तो यही कहेंगे, ओमप्रकाश,
कि सिर फिर
गया! कहने दो
लोगों को।
लोगों के कहने
से कोई चिंता
नहीं है। जब
लोग तुमसे
कहते हैं, सिर
फिर गया तो वे
इतना ही कर
रहे हैं कि
अपने सिर की
रक्षा कर रहे
हैं, और
कुछ नही। जब
लोग तुमसे
कहते हैं
तुम्हारा सिर
फिर गया, तो
वे यह कह रहे
हैं कि 'बचाओ
हमें, इधर
इस तरफ मत आओ!
हमें मत सुनाओ
ये गीत! मत यह
हंसी हमारे
द्वार लाओ! मत
दिखाओ हमें ये
आंखें मदमस्त!
ये खबरें मत
कहो हमसे!' घबड़ाहट
है उनकी! भीतर
उनके भी यही
राग है। भीतर
उनके भी ऐसी
ही वीणा पड़ी
है, जो
प्रतीक्षा
करती है
जन्मों—जन्मों
से कि कोई छेड़
दे! मगर डर है, घबड़ाहट है।
बहुत कुछ
उन्होंने
झूठे जगत में
बनाया है, बसाया
है—कहीं उखड़ न
जाये!
मैं
इलाहाबाद में
था। एक मित्र
मेरे सामने ही
बैठ कर मुझे
सुन रहे थे।
लाखों लोगों
ने मुझे मेरे
सामने बैठ कर
सुना है; बहुत
कम ऐसे लोग
हैं, जिन्होंने
इतने भाव से
सुना हो जैसा
भाव से वे सुन
रहे थे। उनकी आंखों
से आंसुओ की
धार बह रही थी।
अचानक बीच में
उठे, सभा—
भवन छोड़ कर
चले गये! मैं
थोड़ा चौंका :
यह क्या हुआ? पूछताछ की। संयोजक
को कहा।
वे
बड़े प्रसिद्ध
व्यक्ति थे, मैं
तो जानता नहीं
था।
साहित्यकार
थे, कवि थे,
लेखक थे।
संयोजक ने
उनके घर जा कर
पूछा।
उन्होंने
कहा : 'बाबा माफ
करो! मैं घबड़ा
गया। बीस मिनट
के बाद मैंने
कहा, अब
यहां से भाग
जाना उचित है।
अगर थोड़ी देर
और रहा तो कुछ
से कुछ हो
जायेगा। इस
आदमी का तो
सिर फिरा है, मेरा फिरा
देगा। आऊंगा;
अभी नहीं।
जरूर आऊंगा, पर थोड़ा समय
दो। और दो रात
से मैं सो
नहीं सका हूं।
और बातें मेरे
मन में गज रही
हैं। नहीं, अभी मेरे
पास बहुत काम
करने को पड़े
हैं। अभी
बच्चे हैं
छोटे। अभी घर—गृहस्थी
सम्हालनी है।
जरूर आऊंगा, तुम जाओ!
उनसे कहना
जरूर आऊंगा; लेकिन अभी
नहीं।’
जब
कोई तुमसे
कहता है, तुम्हारा
सिर फिर गया, वह सिर्फ
अपनी
आत्मरक्षा कर
रहा है। वह यह
कह रहा है कि
ऐसा मान कर कि
तुम्हारा सिर फिर
गया है, मैं
अपने आकर्षण
को रोकता हूं।
उसके भीतर भी
अदम्य आकांक्षा
है।
कौन
है ऐसा जो
परमात्मा को
खोजने नहीं
चला है! कौन है
ऐसा जो आनंद
का प्यासा
नहीं है! कौन
है ऐसा जिसे
सत्य की
अभीप्सा नहीं
है! ऐसा कभी
कोई हुआ ही
नहीं है।
जिनको तुम
नास्तिक कहते
हो वे वे ही
लोग हैं, जो
घबड़ा गये हैं,
वे वे ही
लोग हैं जो
कहते हैं, नहीं,
कोई
परमात्मा
नहीं है।
क्योंकि
परमात्मा को
इनकार न करें
तो खोज पर जाना
होगा।
मेरा
अपना अनुभव यह
है कि नास्तिक
के भीतर तथाकथित
आस्तिकों से
सत्य की खोज
की ज्यादा
गहरी आकांक्षा
होती है। वह
मंदिर जाने से
डरता है, तुम
डरते ही नहीं।
तुम डरते नहीं,
क्योंकि
तुम्हारे
भीतर कोई ऐसी
प्रबल आकांक्षा
नहीं कि तुम
पगला जाओगे।
तुम मंदिर हो
आते हो, जैसे
तुम दुकान चले
जाते हो। तुम
मंदिर के बाहर—
भीतर हो लेते
हो, तुम पर
कुछ असर नहीं
होता।
नास्तिक
वैसा व्यक्ति
है जो जानता
है,
अगर मंदिर
गया तो वापस न
लौट सकेगा; गया तो वैसा
का वैसा वापस
न लौट सकेगा।
तो एक ही उपाय
है : वह कहता है,
'ईश्वर नहीं
है! धर्म सब
पाखंड है!' वह
अपने को बचा
रहा है, समझा
रहा है कि
ईश्वर है ही
नहीं, तो
मंदिर जाना
क्यों? ईश्वर
है ही नहीं तो
क्यों उलझन
में पड़ना? क्यों
ध्यान, क्यों
प्रार्थना?
मेरे
देखे, नास्तिक
के भीतर
आत्मरक्षा चल
रही है। मैंने
अब तक कोई
नास्तिक नहीं
देखा, जो
वस्तुत:
नास्तिक हो।
आदमी नास्तिक
हो कैसे सकता
है? नास्तिक
का तो अर्थ
हुआ कि कोई
आदमी 'नहीं'
के भीतर
रहने का
प्रयास कर रहा
है।’नहीं'
के भीतर कोई
रह कैसे सकता
है? नास्तिकता
में कोई जी
कैसे सकता है?
जीने के लिए
'हा' चाहिए।’नहीं' में
कहीं फूल
खिलते हैं? 'हा' चाहिए!
स्वीकार
चाहिए!
जीवन
में जितना
स्वीकार होता
है,
उतने ही फूल
खिलते हैं; लेकिन सीमा
के बाहर फूल न
खिल जायें, इससे भय
होता है। कहीं
फूल इतने न
खिल जायें कि
मैं उन्हें
सम्हाल न
पाऊं...!
कल
रात एक युवक
ने मुझे कहा
कि अब मुझे
बचाएं, यह
जरूरत से
ज्यादा हुई जा
रही है बात।
मैं इतना
प्रसन्न हूं
कि लगता है
मैं टूट जाऊंगा!
इतना आनंद है
कि लगता है
मैं सम्हाल न
पाऊंगा। यह
मेरा हृदय का
पात्र छोटा है।
मुझे बचाएं!
मैं इसके ऊपर
से बहा जा रहा
हूं। ये मेरी
सीमाएं सब
टूटी जा रही
हैं। और मुझे
डर है कि अगर
मैं इसके साथ
बह गया तो फिर
लौट न पाऊंगा।
नियंत्रण
कहीं खो न
जाये—यह भय है।
अहंकार दुख के
साथ भलीभांति
जी लेता है, क्योंकि
दुख में
नियंत्रण
नहीं खोता।
कितने ही तुम
रोओ दुख में, तुम अपने
मालिक रहते हो।
नियंत्रण
खोता है आनंद
में, सीमा
टूटती है आनंद
में। दुख में
कभी कोई सीमा
नहीं टूटती।
नरक में भी
सीमा नहीं
टूटती। तुम
नरक में भी
पड़े रहो तो भी
तुम अपने भीतर
मजबूत रहते हो।
सीमा टूटती है
स्वर्ग में।
वहां
नियंत्रण खो
जाता है। जहां
नियंत्रण
खोता है, वहां
अहंकार खो जाता
है। जहां
नियंत्रण
खोता है, वहां
बुद्धि की पकड़
खो जाती है, तर्क का जाल
खो जाता है।
वही
हो रहा है।
घबड़ाना मत!
तिरने का क्षण
करीब आ रहा है।
लेकिन सिर
फिरे बिना कोई
कभी तिरा नहीं
है।
एक
धुन की तलाश
है मुझे
जो
ओठों पर नहीं
शिराओं
में मचलती है
लावे—सी
दहकती है—
पिघलने
के लिए
एक
आग की तलाश है
मुझे
कि
रोम—रोम सीझ
उठे
और
मैं तार—तार
हो जाऊं!
कोई
मुझे जाली—जाली
बुन दे
कि
मैं पारदर्शी
हो जाऊं!
एक
खुशबू की तलाश
है मुझे
कि
भारहीन हो, हवा
में तैर सकूं
हलकी
बारिश की महीन
बौछारों में
कांप सकूं गहराती
सांझ के
स्लेटी आसमान
पर
चमकना
चाहता हूं कुछ
देर,
एक
शोख रंग की
तलाश है मुझे!
ओमप्रकाश,
वहीं शोख रंग
मैंने तुम्हें
दे दिया है।
ये गैरिक
वस्त्र वही
शोख रंग है।
बहो सीमाएं छोड़
कर बहो!
बुद्धि के पार
बहो! जाने दो
नियंत्रण!
नियंत्रण का
अर्थ है :
कर्ता! छोड़ो
नियंत्रण!
कर्ता अगर कोई
है तो एक
परमात्मा है।
तुम परमात्मा
से होड़ न करो, उससे
प्रतिस्पर्धा
न लो; उसके
साथ संघर्ष मत
करो। करो
समर्पण। बहो
उसकी धार के
साथ। तिरोगे।
जो डूब जाते
हैं, वही
तिरते हैं। जो
तिरने की
चेष्टा करते
हैं डूब जाते
हैं।
दूसरा
प्रश्न :
सदा
से खोजियो का
यह अवलोकन रहा
है कि परमात्म—उपलब्धि
अत्यंत
दुःसाध्य
घटना है।
लेकिन आप जैसे
बुद्धपुरुष
सदा से इस बात
पर जोर देते
रहे हैं कि
परमात्मा अभी
और यहीं घट
सकता है। क्या
बार—बार यह
कहना एक
चुनौती और एक
प्रयास करने
की एक विधि है, एक
उपाय है?
सत्य
है यही; न तो
विधि है और न
उपाय है।
तुम्हारा ऐसा
पूछना बचने की
विधि और उपाय
है। यह बात
हमारा मन स्वीकार
करने को राजी
नहीं होता कि
परमात्मा अभी
और यहीं मिल
सकता है।
क्यों नहीं
राजी होता? इसलिए राजी
नहीं होता कि
अगर अभी और
यहीं मिल सकता
है, तो फिर
हमें मिल नहीं
रहा तो इसका
कारण क्या
होगा? फिर
इसकी
व्याख्या
कैसे करें? अगर अभी और
यहीं मिल सकता
है, तो मिल
क्यों नहीं
रहा? बेचैनी
खड़ी हो जाती
है। अभी और
यहीं मिल सकता
है, मिल तो
नहीं रहा! तो
इसे समझायें
कैसे? यह
तो बड़ी अड़चन
की बात हो गई।
इस अड़चन को
सुलझाने के
लिए तुम कहते
हो. मिल तो सकता
है, लेकिन
पात्रता
चाहिए!
बुद्धि
रास्ते
निकालती है।
जहां उलझन खड़ी
हो जाती है, उसे
सुलझाती है. 'रास्ता
खोजना पड़ेगा,
पात्रता
खोजनी पड़ेगी,
शुद्ध होना
पड़ेगा—तब
मिलेगा। और
अगर
अष्टावक्र
कहते हैं अभी
और यहीं मिल सकता
है, तो
जरूर इसमें
कुछ कारण है।
वे इसलिए कहते
हैं ताकि तुम
तीव्रता से
प्रयास में लग
जाओ! लेकिन
लगना प्रयास
में ही पड़ेगा।’
मन
बड़ा होशियार
है!
अष्टावक्र
की बात बिलकुल
सीधी—साफ है.
परमात्मा अभी
और यहीं मिल
सकता है, क्योंकि
परमात्मा कोई
उपलब्धि नहीं
है। परमात्मा
तुम्हारा
स्वभाव है।
सारा जोर सीधा
है। तुम परमात्मा
हो; मिल
सकने की बात
ही गलत है। जब
हम कहते हैं
अभी और यहीं
मिल सकता है
तो इसका अर्थ इतना
ही हुआ कि
मिला ही हुआ
है; जरा आंख
खोलो और देखो!
मिल सकने की
भाषा ठीक नहीं
है। मिल सकने
में तो ऐसा
लगता है कि
तुम अलग हो और
परमात्मा अलग
है, तुम
खोजने वाले हो,
वह खोज का
लक्ष्य है; तुम यात्री
हो, वह
मंजिल है।
नहीं, अभी
और यहीं मिल
सकता है का
इतना ही अर्थ
है कि तुम वही
हो जिसे तुम
खोज रहे हो।
जरा अपने को
पहचानो! आंख
खोलो और देखो!
या आंख बंद
करो और देखो—मगर
देखो! थोडी दृष्टि
की बात है, पात्रता
की नहीं।
पात्रता
का तो अर्थ
हुआ कि
परमात्मा भी
सौदा हे। जैसे
तुम बाजार में
जाते हो तो
कोई चीज हजार
रुपये की है, कोई
लाख रुपये की
है, कोई दस
लाख रुपये की
है—हर चीज का
मूल्य है। तो
पात्रता का तो
अर्थ हुआ कि
परमात्मा का
भी मूल्य है; जो पात्रता
अर्जित करेगा,
मूल्य
चुकायेगा, उसे
मिलेगा। तुम
परमात्मा को
भी बाजार में
एक वस्तु बना
लेना चाहते हो।
त्याग करोगे,
तपश्चर्या
करोगे, तो
मिलेगा! मूल्य
चुकाओगे तो
मिलेगा! मुफ्त
कहीं मिलता
है! तुम
परमात्मा को
खींच कर दुकान
पर रख देते हो;
डब्बे में
बंद कर देते
हो, दाम
लिख देते हो।
तुम कहते हो :
इतने उपवास
करो, इतना
ध्यान करो; इतनी
तपश्चर्या
करो; धूप
में तपो; सर्दी,
आतप सहो—तब
मिलेगा!
कभी
इस पर तुमने
सोचा कि यह
तुम क्या कह
रहे हो? तुम
यह कह रहे हो
कि तुम्हारे
कुछ करने से
परमात्मा के
मिलने का संबंध
हो सकता है।
तुम जो करोगे,
वह
तुम्हारा
किया होगा।
तुम्हारा
किया तुमसे
बड़ा नहीं हो
सकता।
तुम्हारी
तपश्चर्या
तुम्हारी ही
होगी। तुम
जैसी ही दीन, तुम जैसी ही
मलिन।
तुम्हारी
तपश्चर्या
तुमसे बड़ी
नहीं हो सकती।
और तपश्चर्या
से जो मिलेगा
उसकी भी सीमा
होगी; क्योंकि
सीमित से
सीमित ही मिल
सकता है, असीम
नहीं।
तपश्चर्या से
जो मिलेगा वह
तुम्हारे ही
मन की कोई
धारणा होगी, परमात्मा
नहीं।
अष्टावक्र
कह रहे हैं कि
परमात्मा तो
है ही। वही
तुम्हारे
भीतर धड़क रहा
है। वही
तुम्हारे
भीतर श्वास ले
रहा है। वही
जन्मा है। वही
विदा होगा।
वही अनत काल
से,
अनंत—अनंत
रूपो प्रगट हो
रहा है। कहीं
वृक्ष है, कहीं
पक्षी है, कहीं
मनुष्य है।
परमात्मा
है! उसके
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं है।
इस सत्य की
प्रत्यभिज्ञा, इस
सत्य का
स्मरण...।
मैंने सुना है,
एक सम्राट
अपने बेटे पर
नाराज हो गया,
उसे देश—निकाला
दे दिया।
सम्राट का
बेटा था, कुछ
और तो करना
जानता नहीं था,
क्योंकि
सम्राट के
बेटे ने कभी
कुछ किया न था,
भीख ही मांग
सकता था। जब
कोई सम्राट
सम्राट न रह
जाये तो
भिखमंगे के
सिवा और कोई
उपाय नहीं
बचता। भीख
मांगने लगा।
बीस वर्ष बीत
गये। भूल ही
गया। अब बीस
वर्ष कोई भीख
मांगे तो याद
रखना कि मैं सम्राट
हूं असंभव, कष्टपूर्ण
होगा; भीख मांगने
में कठिनाई
पड़ेगी; यही
उचित है कि
भूल ही जाओ।
वह भूल ही गया
था, अन्यथा
भीख कैसे
मांगे! सम्राट,
और भीख
मांगे! द्वार—द्वार,
दरवाजे—दरवाजे
भिक्षापात्र
ले कर खड़ा हो!
होटल में, रेस्तरा
के सामने भीख
मांगे! जूठन
मांगे! सम्राट!
सम्राट को
भुला ही देना
पडा विस्मत ही
कर देना पडा।
वह बात ही गई।
वह जैसे
अध्याय
समाप्त हुआ।
वह जैसे कि
कहीं कोई
सपनाँ देखा
होगा, कि
कोई कहानी पढ़ी
होगी, कि
फिल्म देखी
होगी अपने से
क्या लेना—देना!
बीस
साल बाद जब
सम्राट का हो
गया,
उसका बाप, तो वह. : एक ही
बेटा! वही
मालिक था।
उसने अपने
वजीरों को कहा
: उसे खोजो और
जहां भी हो
उसे ले आओ।
कहना, बाप ने
क्षमा किया।
अब क्षमा और न
क्षमा का कोई
अर्थ नहीं, मैं मर रहा
हूं। अब यह
राज्य कौन
सम्हालेगा? यह औरों के
हाथ में जाये
इससे बेहतर है
मेरे खून के
हाथ में जाये।
बुरा— भला
जैसा भी है, उसे ले आओ!
जब
वजीर पहुंचे
तो वह एक होटल
के सामने पैसे—पैसे
मांग रहा था—टूटा—सा
पात्र लिये।
नंगा था।
पैरों में
जूते नही थे।
भरी दुपहरी थी।
गर्मी के दिन
थे। लू बहती
थी। पैर जल
रहे थे। और वह
मांग रहा था
कि मुझे जूते
खरीदने हैं, इसलिए
कुछ पैसे मिल
जायें। कुछ
पैसे उसके पात्र
में पड़े थे।
रथ आ कर रुका।
वजीर नीचे
उतरा। वजीर ने
गिर कर उसके
चरण छुए—होने
वाला सम्राट
था! जैसे ही
वजीर ने उसके
चरण छुए, एक
क्षण में घटना
घट गई—बीस साल
जिसकी याद न
आई थी कि मैं
सम्राट हूं! फिर
ऐसा थोड़े ही
लगा रहा कि वह
बैठा, उसने
सोचा और
विचारा और
तपश्चर्या की
और ध्यान किया
कि याद करूं, एक क्षण में,
पल में, पल
भी न लगा, एक
क्षण में
रूपांतरण हो
गया. यह आदमी
और हो गया! अभी
भिखारी था दीन—हीन;
अब भी था; अब भी पैर
में जूते न थे—लेकिन
हाथ से उसका
पात्र उसने
फेंक दिया और
वजीरों से कहा
कि जाओ और
मेरे स्नान की
व्यवस्था करो,
ठीक वस्त्र
जुटाओ! वह जा
कर रथ पर बैठ
गया। उसकी
महिमा देखने
जैसी थी। अभी
भी वही का वही
था, लेकिन
उसके चेहरे पर
अब एक गरिमा
थी; आंखों में एक
दीप्ति थी; चारों तरफ
एक आभामंडल
था! सम्राट था!
याद आ गई। बाप
ने बुलावा भेज
दिया।
ठीक
ऐसा ही है।
अष्टावक्र
जब कहते कि
अभी और यहीं
तो वे यही
कहते हैं. कितने
चलो,
बीस साल
नहीं बीस जन्म
सही देश—निकाले
पर रहे भीख
मांगी बहुत
भूल गये बिलकुल
याद को बिलकुल
सुला दिया—सुलाना
ही पड़ा; न
सुलाते तो भीख
मांगनी
मुश्किल हो जाती;
द्वार—द्वार
दरवाजे—दरवाजे
भिक्षापात्र
ले कर घूमे...।
अष्टावक्र यह
कह रहे हैं : आ
गया बुलावा!
जागो! भिखमंगे
तुम नहीं हो!
सम्राट के
बेटे हो।
अगर
कोई ठीक से
सुन लेगा, तो
घटना सुनने
में ही घट
जायेगी। यही
अष्टावक्र—गीता
का महात्म्य
है, महिमा
है। कोई आग्रह
नहीं है कि
कुछ करो।
सिर्फ सुन लो,
सिर्फ सत्य
को पहुंचने दो
तुम्हारे
हृदय तक, बाधा
मत बनो, ग्राहक
रहो, सिर्फ
सुन लो, पहुंच
जाये यह तीर
तुम्हारे
हृदय में, इसकी
चोट—बस
पर्याप्त है!
जन्मों—जन्मों
की विस्मृति
टूट जायेगी, स्मरण लौट
आयेगा। तुम
परमात्मा हो।
इसलिए वे कहते
हैं : अभी और
यहीं!
अब
तुम तरकीबें
मत खोजो। तुम
कहते हो, शायद
यह विधि होगी,
उपाय होगा
कि लोगों की
त्वरा बढ़े
तीव्रता बढ़े।
'स्वामी योग
चिन्मय' ने
पूछा है।
चिन्मय के पास,
चिन्मय की
बुद्धि में 'चेष्टा', 'प्रयास',
'तप' जरूरत
से ज्यादा है—साधारण
योगी की जो
पकड़ होती है
वैसी पकड़ है।
ये
अष्टावक्र के
वचन साधारण
योगी के लिए
नहीं हैं; असाधारण,
प्रज्ञावान..
जो सुन कर ही
जाग जाये।
चिन्मय थोड़े
हठयोगी हैं।
काफी पिटाई हो
तो थोड़े—बहुत
चलेंगे। कोड़े
को देख कर, उसकी
छाया को देख
कर नहीं चल
सकते।
हंसना
मत,
क्योंकि
चिन्मय जैसे
ही अधिक लोग
हैं। हंस कर
तुम यह मत
सोचना कि
तुमने हंस लिया
तो तुम चिन्मय
से भिन्न हो
कि देखो तुम तो
हंसे। चिन्मय
ने कम से कम
हिम्मत करके
पूछा, तुमने
पूछा नहीं—बस
इतना ही फर्क
है। हो तुम भी
वही। यह
अष्टावक्र की
गीता पूरी हो
जायेगी और अगर
तुम परमात्मा
न हो गये तो
समझ लेना कि
वहीं हो, कोई
फर्क नहीं है।
अगर इस सुनने—सुनने
में तुम जाग
जाओ और
परमात्मा हो
जाओ तो ही
कोड़े की छाया
ने काम किया।
'सदा से
खोजियो का यह
अवलोकन रहा है
कि परमात्म—उपलब्धि
अत्यंत
दुःसाध्य
घटना है।’ खोजी
शुरू से ही
भ्रांति है।
खोजी का अर्थ
ही यह है कि वह
मान लिया है
कि परमात्मा
को खोजना है, कि परमात्मा
को खो दिया है।
उसने एक बात
तो मान ही ली
कि खो दिया
परमात्मा को।
यह भी कोई बात
हुई कि खो
दिया
परमात्मा को?
परमात्मा
को खो कैसे
सकते हो?
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
परमात्मा
को खोजना है!
मैं कहता हूं 'चलो ठीक!
खोजो! लेकिन
खोया कहां? कब खोया?' वे
कहते हैं, 'इसका
तो कुछ पता
नहीं है।’ पहले
इसका तो तुम
ठीक से पता कर
लो, कहीं
ऐसा न हो कि
खोया ही न हो!
कभी—कभी
ऐसा हो जाता
है कि चश्मा
नाक पर चढ़ा है
और उसी चश्मे
से देख कर
चश्मा खोज रहे
हैं। कहीं ऐसा
न हो कि
परमात्मा नाक
पर चढ़ा हो और
तुम उसी
परमात्मा से
खोज रहे हो!
ऐसा ही है।
खोजी
बुनियादी रूप
से भ्रांत है।
उसने एक बात
तो मान ही ली
कि परमात्मा
खो दिया है; या
परमात्मा को
अब तक खोजा
नहीं, पाया
नहीं; वह
कहीं दूर है, उसे खोजना
है।
खोज
से कभी
परमात्मा
नहीं मिलता।
खोज—खोज कर तो
इतना ही पता
चलता है.
खोजने में कुछ
भी नहीं है।
एक दिन खोजते—खोजते
खोज ही गिर
जाती है; खोज
के गिरते ही
परमात्मा
मिलता है।
बुद्ध ने छह
वर्ष तक खोजा।
खूब खोजा! उन
से बड़ा खोजी
और कहां
खोजोगे? जहां—जहां
खबर मिली कि
कोई ज्ञान को
उपलब्ध है, वहां—वहां
गये। सभी
चरणों में सिर
रखा। जो
गुरुओं ने कहा
वही किया।
गुरु भी थक
गये उनसे।
क्योंकि गुरु
उन शिष्यों से
कभी नहीं थकते
जो आज्ञा का
उल्लंघन करते
हैं। उनसे कभी
नहीं थकते!
क्योंकि उनके
पास सदा कहने
को है कि तुम
आज्ञा मान ही
नहीं रहे, इसलिए
कुछ नहीं घट
रहा है, हम
क्या करें? गुरु को बड़ी
सुविधा है, अगर तुम
गुरु की न
मानो। वह सदा
कह सकता है कि
तुमने माना ही
नहीं, मानते
तो घट जाता।
मगर बुद्ध के
साथ गुरु
मुश्किल में
पड़ गये। जो
गुरुओं ने कहा,
बुद्ध ने
वही किया।
उन्होंने एक
सेर कहा तो
बुद्ध ने सवा
सेर किया।
गुरु ने आखिर
उनसे हाथ जोड़
लिये कि तू भई
कहीं और जा; जो हम बता
सकते थे बता
दिया। बुद्ध
ने कहा, इससे
तो कुछ घट
नहीं रहा है।
उन्होंने कहा,
इससे
ज्यादा हमें
भी नहीं घटा
है; तेरे
से क्या
छिपाना। तू
कहीं और जा!
इतने
प्रामाणिक
व्यक्ति के
सामने गुरु भी
धोखा न दे पाए।
सब तरफ खोज कर
बुद्ध ने आखिर
पाया कि नहीं, खोजने
से मिलता ही
नहीं। संसार
तो व्यर्थ था
ही, अध्यात्म
भी व्यर्थ हुआ।
भोग तो व्यर्थ
हो ही चुका था,
जिस दिन महल
छोड़ा उस दिन
व्यर्थ हो
चुका था, इसलिए
छोड़ा; योग
भी व्यर्थ हुआ।
न भोग में कुछ
है, न योग
में कुछ है—अब
क्या करें? अब तो करने
को ही कुछ न
बचा। अब तो
कर्ता होने के
लिए कोई
सुविधा न रही।
इस
सूत्र को ठीक
से समझना। न
भोग बचा न योग
बचा,
न संसार बचा
न स्वर्ग बचा—तो
अब कर्ता होने
के लिए जगह ही
न बची। कुछ
करने को बचे
तो कर्ता बच
सकता है। कुछ
करने को न बचा।
रात घटना। उस
सांझ —वृक्ष
कुछ न था।.
हैरानी में
पड़े। संसार छोड़
दिया था तो
योग पकड़ लिया
था। भोग छोड़
दिया था तो
अध्यात्म पकड़
लिया था। कुछ
तो करने को था!
तो मन उलझा था।
अब मन को कोई
जगह न बची। मन
का पक्षी तड़फड़ाने
लगा : कोई जगह
नहीं! मन के
लिए जगह चाहिए।
अहंकार के लिए
कर्ता का रस
चाहिए, कर्तव्य
चाहिए। कुछ
करने को हो तो
अहंकार बचे।
कुछ था ही
नहीं करने को।
जरा
थोड़ा सोचो! एक
गहन उदासीनता, जिसको
अष्टावक्र
वैराग्य कहते
हैं, वह
उदय हुआ। योगी
विरागी नहीं
है, क्योंकि
योगी नये भोग
खोज रहा है।
योगी
आध्यात्मिक
भोग खोज रहा
है, विरागी
नहीं है। अभी
भोग की आकांक्षा
है। संसार में
नहीं मिला तो
परमात्मा में
खोज रहा है; लेकिन खोज
जारी है। यहां
नहीं मिला तो
वहां खोज रहा
है; बाहर
नहीं मिला तो
भीतर खोज रहा
है—लेकिन खोज
जारी है।
भोगी
विरागी नहीं
है,
योगी भी
विरागी नहीं
है। ही, उनकी
खोज राग की
अलग—अलग है।
एक बाहर की
तरफ जाता है, एक भीतर की
तरफ जाता है; लेकिन जाते
दोनों हैं।
उस
रात बुद्ध को
जाने को कुछ न
बचा-- बाहर न
भीतर। रात की
तुम करो! उस
रात को जरा
जगाओ और सोचो
कि कैसी वह
रात रही होगी!
उस दिन पहली
दफा वि उपलब्ध
हैं : जो चित्त
में विश्राम
को उपलब्ध हो
जाये तो सत्य
उपलब्ध हो
जाता है। उस
दिन विश्राम
उपलब्ध हुआ।
जब
तक कुछ करने
को शेष है तब
तक श्रम जारी
रहता है। जब
तक कुछ करने
को शेष है, तनाव
जारी रहता है।
अब तनाव करके
भी क्या करना?
शरीर भी
ढीला छट गया, मन भी ढीला
छूट गया। वे
उस वक्ष के
नीचे पड़ गये
और सो गये।
सुबह जब उनकी आंख
खुँली तो ऐसी
खुल की जैसी
सबकी खुलनी चाहिए।
सुबह जब आंख
खुली तो पहली
दफा खुली।
सदियो—सदियों
बद, वह आंख
खुली। सुबह जब
आंख खुली भोर
का आखिरी तारा
डूबता था। उस
भोर के आखिरी
तारे को
उन्होने
डूबते हुए देखा।
इधर बाहर भोर
का आखिरी तारा
डूब गया, भीतर
भी की आखिरी
रेखा
विसर्जित हो
गई। कुछ भी न
था। भीतर कोई
भी न बचा।
सन्नाटा था, शून्य था, विराट शून्य
था, आकाश
था।
कहते
हैं,
बुद्ध सात
दिन वैसे ही
बैठे रहे—मूर्तिवत;
हिले नहीं,
डुले नहीं।
कहते हैं, देवता
घबड़ा गये।
आकाश से देवता
उतरे।
ब्रह्मा उतरे।
चरणों पड़े और
कहा : आप कछ
बोलें! ऐसी
घटना सदियों
में घटती है, बड़ी मुश्किल
से घटती है।
आप कुछ कहें, हम आतुर हैं
सुँनने को कि
क्या हुआ है!
हिंदू बहुत
नाराज हैं इस
बात से कि
बौद्ध कथाओं
में ब्रह्मा
को उतार कर, और बुद्ध के
चरणों में
गिरा दिया।
लेकिन कथा
बिलकुल ठीक है।
क्योंकि
देवता भला
स्वर्ग में
हों, आकांक्षा
के बाहर थोड़े
ही हैं! आज एक
घटना घटी है
कि एक व्यक्ति
आकांक्षा के
बाहर चला गया
है।
तो
बुद्ध के ऊपर
कोई भी नहीं
है। बुद्धत्व
आखिरी बात है।
देवता भी नीचे
हैं;
अभी उनकी भी
स्वर्ग की, भोग की
आकांक्षा है।
इसलिए
तो कथाएं हैं
कि इंद्र का
आसन डोलने लगता
है जब भी लगता
है कि कोई
प्रतियोगी आ
रहा,
कोई ऋषि—मुनि
तपश्चर्या
में गहरा उतर
रहा है—इंद्र
घबड़ाता; आसन
कंपने लगता!
यह तो आसन
इंद्र का क्या
हुआ, दिल्ली
का हुआ! इंद्र
का कहो कि
इंदिरा का कहो—एक
ही बात है!
इसमें कुछ
बहुत फर्क न
हुआ। यह तो
कोई आने लगा!
तो
प्रतिस्पर्धा,
घबड़ाहट, बेचैनी!
बुद्ध
ना—कुछ करके
उपलब्ध हुए।
जो बुद्ध के
जीवन में घटा; वही
अष्टावक्र के
जीवन में घटा
होगा। कोई कथा
हमारे पास
नहीं है, किसी
ने लिखी नहीं
है। लेकिन
निश्चित घटा
होगा।
क्योंकि
अष्टावक्र जो
कह रहे हैं, वह इतना ही
कह रहे हैं कि
तुम दौड़ चुके खूब,
अब रुको!
दौड़ कर नहीं
मिलता
परमात्मा, रुक
कर मिलता है।
खोज चुके खूब,
अब खोज छोड़ो।
खोज कर नहीं
मिलता सत्य; क्योंकि
सत्य खोजी में
छिपा है, खोजने
वाले में छिपा
है। कहां
भागते फिरते
हो?
कस्तूरी
कुंडल बसै!
लेकिन जब
कस्तूरी का
नाफा फूटता है
तो मृग पागल
हो जाता है, कस्तूरी—मृग
पागल हो जाता
है। भागता है।
इधर भागता, उधर भागता, खोजता है : 'कहां से आती
है यह गंध?
कौन खींचे ले
आता है इस
सुवास को? कहां
से आती है?' क्योंकि
उसने जब भी
गंध आती देखी
तो कहीं बाहर
से आती देखी।
कभी फूल की
गंध थी, कभी
कोई और गंध थी;
लेकिन सदा
बाहर से आती
थी। आज जब गंध
भीतर से आ रही
है, तब भी
वह सोचता है
बाहर से ही
आती होगी।
भागता है। और
कस्तुरी उसके
ही कुंडल में
बसी है।
कस्तूरी
कुंडल बसै!
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर बसा है।
तुम जब तक
बाहर खोजते
रहोगे—योग में, भोग
में—व्यर्थ! साधारण
योगी भोग के
बाहर ले जाता
है; अष्टावक्र
योग और भोग
दोनों के बाहर
ले जाते हैं—योगातीत,
भोगातीत!
इसलिए तुम
पाओगे :
सांसारिक का
अहंकार होता
है। तुमने
योगी का
अहंकार देखा
या नहीं? सांसारिक
का क्रोध होता
है; तुमने'
दुर्वासाओं
का क्रोध देखा
या नहीं? सांसारिक
आदमी दंभ से
अकड़ कर चलता
है, पताकाएं
ले कर चलता है;
तुमने
योगियों की
पताकाएं, हाथी—घोड़े
देखे या नहीं?
साधारण
आदमी घोषणा
करता है. इतना
धन है मेरे पास,
इतना पद है
मेरे पास!
तुमने
योगियों को
देखा घोषणा
करते या नहीं
कि इतनी
सिद्धि है, इतनी रिद्धि
है! लेकिन ये
सारी बातें
वही की वही
हैं; कोई
फर्क नहीं हुआ।
जब
तक योग
योगातीत न हो
जाये, जब तक
व्यक्ति 'मैं
कर्ता हूं?, इस भाव से
समग्रतया
मुक्त न हो
जाये, तब
तक कुछ भी
नहीं हुआ। तब
तक तुमने
सिर्फ रंग
बदले। तब तक
तुम गिरगिट हो
: जैसा देखा
वैसा रंग बदल
लिया। लेकिन
तुम नहीं बदले,
रंग ही बदला।
'सदा से
खोजियों का यह
अवलोकन रहा है
कि परमात्म—उपलब्धि
अत्यंत
दुःसाध्य
घटना है।’ यह बात
एक अर्थ में
सच है। अगर
तुम बहुत दौड़
कर ही आना
चाहते हो तो
कोई क्या करे?
अगर तुम
अपने कान को
उलटे तरफ से
पकड़ना चाहते हो,
मजे से पकड़ो।
निश्चित ही
तुम जब उलटी
तरफ से कान को
पकड़ोगे तो
तुमको लगेगा :
कान को पकड़ना बहुत
दुःसाध्य
घटना है। यह
तुम्हारे
कारण; यह
कान के कारण
नहीं। अब अगर
तुम सिर के बल
खड़े हो कर
चलने की कोशिश
करो और दस—पांच
कदम चलना भी
बहुत कठिन हो
जाये और तुम
कहो कि चलना
बहुत
दुःसाध्य
घटना है, तो
तुम गलत भी नहीं
कह रहे; तुम
ठीक ही कह रहे
हो। लेकिन सिर
के बल तुम खड़े
हो। जो पैर के
बल चल रहे हैं,
उनके लिए
चलने में कोई
दुःसाध्य
घटना नहीं है।
अब तुम उपवास
करो, आग
में तपाओ, धूनी
रमाओ, नाहक
शरीर को कष्ट
दो, सताओ, हजार तरह के
पागलपन करो—
और फिर तुम
कहो कि
परमात्मा को पाना
बड़ी दुःसाध्य
घटना है, तो
ठीक ही कह रहे
हो।
जहां
तुम सहज पहुंच
सकते थे, वहां
तुम असहज हो
कर पहुंच रहे
हो तो
दुःसाध्य
मालूम होता है।
तुम्हारे
पहुंचने में
भूल हो रही है।
लेकिन
असाध्य को
आदमी क्यों
चुनता है? यह
भी समझ लेना
चाहिए। सिर के
बल चलने का
मजा क्या है, जब कि
तुम्हारे पास
पैर हैं? सिर
के बल चलने का
एक मजा है, और
वह मजा यह है.
मजा है अहंकार
का मजा!
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
झील में
मछलियां मार
रहा था। घड़ी
दो घड़ी मैं
देखता रहा, देखता
रहा. उसकी
मछलियां पकड़
में कुछ आती
नहीं; झील
में मछलियां
हैं भी नहीं, ऐसा मालूम
होता है।
मैंने उससे
पूछा : 'नसरुद्दीन!
इस झील में
मछलिया मालूम
नहीं होतीं, तुम कब तक
बैठे रहोगे? वह पास ही
दूसरी झील है,
वहां क्यों
नहीं मछलियां
मारते? यहां
कोई दूसरा
मछुआ दिखाई भी
नहीं पड़ता; वहीं सब
मछुए हैं।’
नसरुद्दीन
ने कहा : 'वहां
मारने से सार
ही क्या! अरे वहां
इतनी मछलियां
हैं कि
मछलियों को
तैरने के लिए
जगह भी नहीं
है। वहां मारी
तो क्या मारी! यहां
मछली मारो तो
कोई बात।’
असाध्य
में भी आकर्षण
है। जितना
असाध्य काम हो
उतना अहंकार
मजबूत होता है।
यहां मछली
मारो तो कुछ
है। जो सभी कर
रहे हैं, वही
तुमने किया तो
क्या सार है? सभी पैर के
बल चल रहे हैं,
तुम भी चले,
तो क्या मजा?
सिर के बल
चलो!
मेरे
देखे, परमात्मा
से कोई संबंध
नहीं है
कठिनाइयों का;
कठिनाइयों
का संबंध
अहंकार से है।
अहंकार कठिन
को करने में
मजा लेता है।
क्योंकि सरल
तो सभी करते, उसमें क्या
सार है? अगर
तुम किसी से
कहो कि हम पैर
के बल चलते
हैं तो लोग
कहेंगे, 'तुम्हारा
दिमाग खराब हो
गया है? सभी
चलते हैं।’ लेकिन अगर
तुम सिर के बल
चलो तो
अखबारों में नाम
छपेगा, तो
लोग तुम्हारे
पास आने
लगेंगे; लोग
तुम्हारे
चरणों में सिर
झुकायेंगे कि
तुम्हें कोई
सिद्धि मिल गई
है कि तुम सिर
के बल चलते हो।
अहंकार
की पूजा तभी
हो सकती है जब
तुम कुछ असाध्य
करो।
जैसे
हिलेरी चढ़ गया
एवरेस्ट पर, तो
सारी दुनिया
में खबर हुई।
अब तुम जाओ और
पूना की छोटी—मोटी
पहाड़ी पर चढ़
कर खड़े हो जाओ,
और झंडा
लगाने लगो और
तुम कहो कि 'कोई अखबार
वाला भी नहीं
आ रहा है, कोई
फोटोग्राफर
भी नहीं आ रहा
है—मामला क्या
है? आखिर
यह भेदभाव
क्यों हो रहा
है? हिलेरी
के साथ इतना
शोरगुल मचाया—इतिहास
में नाम अमर
रहेगा सदा के
लिए! और हमारा
कुछ भी नहीं
हो रहा। हम भी
वही कर रहे
हैं; उसने
भी झंडा ही
गाड़ा।’
लेकिन
एवरेस्ट पर
चढ़ना कठिन है।
पचास—साठ साल
से लोग चढ़ने
की कोशिश कर
रहे थे, तब एक
आदमी चढ़ पाया,
इसलिए।
धीरे— धीरे
वहां रास्ता
बन जायेगा, बस जाने
लगेगी, कभी
न कभी जायेगी,
सदा इतनी
देर तक
एवरेस्ट अपने
को बचा नहीं
सकता आदमी से।
जब एक आदमी
पहुंच गया तो
सिलसिला शुरू
हो गया।
अभी
कुछ देर पहले
औरतें भी
पहुंच गईं। जब
औरतें भी
पहुंच गईं तो
अब और पहुंचने
को क्या बाकी
रहा! अब सब
धीरे—धीरे
पहुंच रहे हैं।
थोड़े दिन में
वहां होटलें
और बसें और सब
पहुंच
जायेंगी। फिर
तुम फिर जा कर
फिर झंडा
गाड़ना, जब बस
वगैरह सब चलने
लगे वहां—तुम
कहोगे यह वही जगह
है जहां
हिलेरी ने
झंडा गाडा बडा
भेदभाव हो रहा
है, बड़ा
पक्षपात हो
रहा है!
कठिन
में अहंकार को
मजा 'है,।
आदमी कई चीजों
को कठिन कर
लेता है ताकि
अहंकार को
भरने में रस आ
सके। हम बहुत—सी
चीजों को कठिन
कर लेते हैं।
जितनी कठिन कर
लेते हैं, उतना
ही रस आने
लगता है। कठिनाई
परमात्मा को
पाने में नहीं
है; कठिनाई
अहंकार का रस
है।
तो
तुम जो कहते
हो कि 'सदा से
खोजियो का यह
अवलोकन रहा है
कि परमात्म—उपलब्धि
अत्यंत
दुःसाध्य
घटना है', यह
ठीक है। वे जो
खोजी हैं, अहंकारी
हैं। और
परमात्मा को
खोजियों ने कब
पाया? जब
खोज छूट गई, तब पाया।
खोज छूटने पर
ही मिलता है
परमात्मा। जब
तुम कहीं भी
नहीं जा रहे, सिर्फ बैठे
हो—विश्राम
में, परम
विराम में; यात्रा
शून्य जहां हो
जाती है!
साधारणत:
लोग सोचते हैं
कि परमात्मा
को पा लेंगे
तो फिर यात्रा
नहीं हुाएगी।
बात बिलकुल
उलटी है :
यात्रा अगर
तुम अभी छोड़ दो
तो अभी
परमात्मा मिल
जाये। लोग
सोचते हैं :
मंजिल मिल
जायेगी तो फिर
हम विश्राम
करेंगे। हालत
उलटी है : तुम
विश्राम करो
तो मंजिल मिल
जाये।
विश्राम, ध्यान
और समाधि का
सूत्र है; श्रम,
अहंकार का
सूत्र है।
इसलिए
तुम पाओगे कि
जितना जिस
धर्म के भीतर
श्रम की व्यवस्था
है साधु के
लिए,
उतना ही
अहंकारी साधु
होगा।
जैनियों का
साधु जितना
अहंकारी है
उतना हिंदुओं
का नहीं।
क्योंकि जैन
साधु कहेगा : 'हिंदू साधु,
इसमें रखा
ही क्या है, कोई भी हो
जाये!' जैन
साधु! कठिन
मामला है। एक
बार भोजन!
अनेक—अनेक
उपवास. सब तरह
की कठिनाइयां!
फिर
जैनों में भी
दिगंबरों और
श्वेतांबरों
के साधु हैं।
दिगंबर साधु
कहते हैं : 'श्वेतांबरों
में क्या रखा
है? कपड़े
पहने बैठे
हैं! साधु तो
दिगंबर का है!'
इसलिए
दिगंबर साधु
में तुम जैसे
अहंकार को चमकता
हुआ पाओगे, कहीं भी न
पाओगे। देह तो
सूखी होगी, हड्डी—हड्डी
होगी—क्योंकि
बहुत उपवास, नग्न रहना, धूप—ताप
सहना—लेकिन
अहंकार बड़ा
प्रज्वलित
होगा। अकड़
उसकी वैसी है
जैसी हिलेरी
की।
हिंदुस्तान
में मुश्किल
से बीस दिगंबर
मुनि हैं; श्वेतांबर
मुनि तो पांच—सात
हजार हैं।
हिंदुओं के तो
संन्यासी
पचास लाख हैं।
और अगर मेरी
चले तो सारी
दुS_निया
को संन्यासी
कर दूं। इसलिए
मेरे
संन्यासी
होने में तो
अहंकार हो ही
नहीं सकता।
क्योंकि कोई
कह ही नहीं
रहा हूं कि
तुम ऐसा करो, वैसा करो।
एक बहुत ही
सरल मामला है :
तुम गेरुए
कपड़े पहन लो, संन्यासी हो
गये!
संन्यास
सरल हो तो
अहंकार को मजा
कहा?
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि
संन्यास आप
देते हैं तो
इसके लिए कोई
विशेष आयोजन
करना चाहिए।
विशेष आयोजन
संन्यास के
लिए! वे ठीक
कहते हैं, क्योंकि
ऐसा होता है :
अगर जैन
दीक्षा होती
है तो देखा, कैसा घोड़ा, बैंडबाजा
इत्यादि बजता
है और सब मजा
आता है और
लगता है कोई बड़ी
घटना घट रही
है; कोई
सिंहासन पर
चढ़ाया जा रहा
है! संन्यास
भी सिंहासन
जैसा हो गया!
लोग जय—जयकार
करते हैं कि
कोई बडी घटना
घट रही है। और
मैं 'ऐसा' किसी को पता
ही नहीं चलता—पोस्ट
से भी देता हूं।
मुझे भी पता
नहीं चलता कौन
सज्जन है,
उनको भी पता
नहीं चलता।
ठीक है!
मेरे
देखे, संन्यास
सरल होना
चाहिए। मेरे
देखे
परमात्मा
विश्राम में
मिलता है; अहंकार
में नहीं। कृत्य
नहीं है, खोज
नहीं है।
परमात्मा
मिला ही हुआ
है—तुम जरा
हलके हो जाओ, तुम जरा शात
हो जाओ, तुम
जरा रुको।
अचानक तुम
पाओगे वह सदा
से था!
आखिरी
प्रश्न :
हमारे
शरीर में कोई
बीस अरब कोशिकाएं
हैं और शरीर
में
प्रतिक्षण
रासायनिक प्रतिक्रिया
होती रहती है।
आप या
अष्टावक्र जब
कहते हैं कि
द्रष्टा बनो, तब
यह बात आप किससे
कहते हैं?
यह
कौन है जो कह
रहा है कि
शरीर में बीस
अरब कोशिकाएं
हैं?
निश्चित ही
कोशिकाएं
नहीं कह रही
हैं। एक
कोशिका बाकी
कोशिकाओं का
हिसाब भी नहीं
लगा सकती। ये
बीस अरब
कोशिकाएं हैं
शरीर में, अरबों—खरबों
सेल हैं शरीर
में—यह कौन कह
रहा है? यह
किसने पूछा? यह किसको
पता चला? जरूर
तुम्हारे
भीतर
कोशिकाओं से
भिन्न कोई है,
जो गिनती कर
लेता है कि
बीस अरब
कोशिकाएं हैं।
'हमारे शरीर
में कोई बीस
अरब कोशिकाएं
हैं और शरीर
में
प्रतिक्षण
रासायनिक
प्रतिक्रिया
होती रहती है।
आप या
अष्टावक्र जब
कहते हैं कि
द्रष्टा बनो,
तब यह बात
आप किससे कहते
हैं?'
उसी
से जो कह रहा
है कि बीस अरब
कोशिकाएं हैं।
'यदि
मस्तिष्क की
कोशिकाओं से
कहते हैं तो
बात व्यर्थ है,
क्योंकि
बुद्धि नश्वर
है।’
नहीं, हम
कह भी नहीं
रहे मस्तिष्क
की कोशिकाओं
से। हम तुमसे
कह रहे हैं।
अष्टावक्र भी
तुमसे बोल रहे
हैं।
अष्टावक्र
इतने बुद्ध
नहीं कि
तुम्हारे मस्तिष्क
की कोशिकाओं
से बोल रहे
हों। तुमसे
बोल रहे हैं!
तुम्हारा होना
तुम्हारी
कोशिकाओं के
पार है। तुम
कोशिकाओं का
उपयोग कर रहे
हो, सच है।
जैसे एक कार
में बैठा हुआ
ड्राइवर कार
चला रहा है, दौड़ा जा रहा
है कार की गति
से दौड़ा जा
रहा है, सौ
मील प्रति
घंटे चला जा
रहा है; लेकिन
फिर भी वह जो
ड्राइवर भीतर
है, वह कार
नहीं है। और
अगर एक सिपाही
सीटी बजाये कि
रुको और वह
पूछे कि 'किससे
कह रहे हैं? —कार के
इंजिन से?' क्योंकि
चल तो इंजिन
रहा है।’किससे
कह रहे हैं? —पेट्रोल से?'
क्योंकि
चला तो
पेट्रोल रहा
है।’किससे
कह रहे हैं? —पहियों से?' क्योंकि दौड़
तो पहिये रहे
हैं। तो क्या
कहेगा पुलिस का
सिपाही? वही
मैं तुमसे
कहता हूं कि
सीटी
तुम्हारे लिए बजा
रहे हैं।
'यदि आप
आत्मा को जगा
रहे हैं तो भी
बात व्यर्थ है,
क्योंकि
आत्मा तो जागी
ही हुई है।
उसको जगाना और
पहचानो कहना
तो बेवकूफी है।’
बिलकुल
ठीक बात है।
आत्मा तो जागी
ही हुई रही है; उसको
जगाने का कोई
उपाय नहीं है।
और हम उसको
जगा भी नहीं
रहे।
मामला
कुछ ऐसा है कि
तुम बने हुए
पड़े हो, जागे
हुए पड़े हो और आंखें
बंद किये।
सोये को जगाना
तो बहुत आसान
है; हिलाओ—डुलाओ,
पानी छिड़को—जागेगा।
जागा हुआ अगर
कोई आदमी पड़ा
हो, आंखें
बंद करके, ढोंग
करता हो सोने
का—इसको कैसे
जगाओ? छिड़को
पानी, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। हिलाओ—डुलाओ,
वह हिल—डुल
कर फिर करवट
ले कर सो जाता
है। पुकारो
नाम, सुन
लेता है, बोलता
नहीं। ऐसी
तुम्हारी
हालत है।
जागे
हुए को जगाना, कोई
अर्थ नहीं
रखता; लेकिन
जागा हुआ सोने
का बहाना कर
रहा है। इसलिए
जगाने की
जरूरत है।
सोये
हुए को जगा
नहीं रहे हैं, क्योंकि
आत्मा सो नहीं
सकती। जो सोया
है वह शरीर है।
जो शरीर है
उसे जगाया
नहीं जा सकता
और जो आत्मा
जागी हुई है, उसे जगाने
का कोई अर्थ
नहीं है।
बिलकुल ठीक
कहते हो। बड़े
ज्ञान की बात
कर रहे हो; मगर
उधार होगी, क्योंकि खुद
की समझ से आई
होती तो पूछते
ही नहीं।
अष्टावक्र या
मैं उसको जगा
रहे हैं जो
जागा हुआ है
और भूल गया कि
हम जागे हुए
हैं; जो
जागा हुआ है
और सोने के
बहाने में पड़
गया है, सोने
का खेल खेल
रहा है। इसलिए
तो कठिनाई है
जगाने में, बड़ी कठिनाई
है।
'आप लोगों को
भ्रम में तो
नहीं डाल रहे
हैं?'
तुम
सोचते हो लोग
भ्रम में हैं
नहीं? अगर लोग
भ्रम में नहीं
हैं तो
निश्चित ही
मैं भ्रम में
डाल रहा हूं।
मगर, अगर
लोग भ्रम में
नहीं हैं तो
भ्रम में डाले
कैसे जा
सकेंगे? इतने
बुद्धपुरुष
भ्रम में डाले
जा सकते हैं? और अगर लोग
भ्रम में हैं
तो मैं जो कर
रहा हूं वह
भ्रम के बाहर
लाने की
चेष्टा है। जो
भी तुम हो, उससे
उलटा मैं कर
रहा हूं। अगर
तुम सोचते हो
तुम भ्रम में
हो, तो यह
चेष्टा है
जगाने की। अगर
तुम सोचते हो
तुम जागे हुए
हो तो यह
चेष्टा
तुम्हें भ्रम
में डालने की।
लेकिन अगर तुम
जागे हुए हो
तो कौन तुम्हें
भ्रम में डाल
देगा?
खयाल
रखना, तुम्हारे
अतिरिक्त
तुम्हें भ्रम
में कोई भी नहीं
डाल सकता, और
तुम्हारे
अतिरिक्त
तुम्हें कोई
जगा भी नहीं
सकता। जगाने
की चेष्टा कोई
कर सकता है; लेकिन जब तक
तुम सहयोग न
करोगे, तुम
जागोगे नहीं।
क्योंकि यह
नींद थोड़े ही
है कि कोई तोड़
दे; तुम
बने हुए पड़े
हो!
तुम्हारा
सहयोग जरूरी
है। सहयोग का
अर्थ ही
शिष्यत्व है।
सहयोग का अर्थ
ही है कि कोई
जगाने वाले के
पास तुम जाते
हो,
तुम कहते हो
: मेरी पुरानी
आदत हो गई है
अपने को धोखा
देने की, जरा
मुझे साथ दें,
जरा मुझे
सहारा दें कि
इस आदत के
बाहर निकाल
लें।
एक
युवती मेरे
पास आई और
उसने कहा कि
उसे कुछ मादक
द्रव्य लेने
की आदत हो गई
है;
बाहर आना
चाहती है। बड़ी
आकांक्षा है
बाहर निकल आने
की। बड़ी आतुर
है कि किस तरह
बाहर निकल आये।
लेकिन वह जो
आदत पड़ गई है
मादक
द्रव्यों की
वह इतनी गहरी
हो गई है, वह
शरीर की कोशिकाओं
में पहुंच गई
है। अगर न ले
मादक द्रव्य
तो ऐसी पीड़ा
और बेचैनी सारे
शरीर में होती
है कि न तो सो
सकती, न उठ
सकती, न
बैठ सकती, तो
लेना ही पड़ता
है। और लेती
है तो पीड़ा होती
है मन को कि यह
क्या जाल हो
गया! अब वह
मेरे पास आई
कि मुझे बाहर
निकाल लें, आपके हाथ का
सहारा चाहिए!
बस ऐसी ही
अवस्था है।
जन्मों—जन्मों
तक सोने के
अभ्यास को
तुमने बहुत
गहरा कर लिया
है। जागे हुए
को सोने के
भ्रम में डाल
दिया है।
सम्राट को
भिखारी मान
लिया है।
लेकिन इतने
जन्मों तक
माना है कि आज
अपने ही अभ्यास
के कारण...।
सिर्फ सुन
लेने से कुछ
नहीं होता।
तुम मेरी बात
सुन ले सकते
हो,
उससे कुछ भी
न होगा—जब तक
कि तुम उसे
गुनो न; जब
तक कि तुम
राजी न हो जाओ।
तुम्हारे
अतिरिक्त
तुम्हें कोई
जगा न सकेगा।
नहीं तो एक
बुद्धपुरुष
काफी था; शोरगुल
मचा कर सबको
जगा देता; ढोल—ढमास
पीट देता और
सबको जगा देता।
इधर
सौ आदमी सो
रहे हों तो एक
आदमी जगाने के
लिए काफी है।
वस्तुत: आदमी
की भी जरूरत
नहीं है, अलार्म
घड़ी भी जगा
देती है। एक
आदमी आ जाये
और ढोल पीट दे,
सब उठ
जाएंगे; घंटा
बजा दे, सब
उठ जाएंगे।
लेकिन यह
क्यों नहीं हो
सका कि बुद्ध
हुए, महावीर
हुए, अष्टावक्र
हुए, कृष्ण
हुए, क्राइस्ट
हुए, जरथुस्त्र,
लाओत्सु—इन
लोगों ने ऐसा
क्यों न किया
कि जोर से
घंटा बजा देते,
सारी
पृथ्वी जाग
जाती? घंटा
खूब बजाया, मगर कोई सो
रहा हो तो
जागे; यहां
बने हुए लोग
पड़े हैं! वे आंखें
बंद किये पड़े
हैं। वे सुन
लेते हैं घंटे
को। वे कहते
हैं. बजाते
रहो, देखें
कौन हमको
जगाता है!
जब
तुम जागना
चाहोगे तो
जागोगे। भ्रम
में मैं
तुम्हें डाल
नहीं सकता।
भ्रम में तो
तुम हो; अब और
भ्रम में
तुम्हें क्या
डाला जा सकता
है? तुम्हें
और भी भटकाया
जा सकता है
तुम सोचते हो?
तुम सोचते
हो और कुछ
भटकने को बचा
है? इससे
नीचे तुम और
गिर सकते हो, गिरने की
कोई और जगह है?
लोभ जितना
तुम्हारे
भीतर है, इससे
थोड़ा इंच भर
और ज्यादा हो
सकता है? क्रोध
तुम्हारे
भीतर है, इससे
थोड़ा और
ज्यादा हो
सकता है, एक
रत्ती—माशा? वासना ने
जैसा तुम्हें
घेरा है, और
वासना बढ़ सकती
है? तुम
आखिरी जगह खड़े
हो। जो प्रथम
होना चाहिए वह
आखिर में खड़ा
है। जो सम्राट
होना चाहिए वह
भिखमंगा हो कर
खड़ा है। इससे
पीछे अब तुम
जा भी नहीं
सकते। इसके
पार गिरने का
उपाय भी नहीं
है।
तुम्हें
भ्रम में
डालने की कोई
सुविधा नहीं है।
कोई डालना भी
चाहे तो डाल
नहीं सकता। हा, कोई
इतना ही कर सकता
है ज्यादा से
ज्यादा.
तुम्हारे
भ्रम बदल दे, एक भ्रम से
तुम ऊब जाओ तो
दूसरा भ्रम दे
दे। यही साधु —संन्यासी
करते रहते हैं।
संसार का भ्रम
उखड़ने लगा, ऊब पैदा
होने लगी, खूब
जी लिए अब कुछ
सार नहीं, देख
लिया—तो
अध्यात्म का
भ्रम पैदा
करते हैं।
कहते हैं कि 'चलो अब
स्वर्ग का मजा
लो! थोड़ा
पुण्य करो; त्याग, तपश्चर्या
करो; स्वर्ग
में अप्सराएं
भोगो! यहां
बहुत भोग लीं,
कुछ पाया
नहीं। यहां
चुन्न—चुन्न
शराब पीते रहे;
वहां
बहिश्त में, फिरदौस में
झरने बह रहे
हैं शराब के, डुबकियां
लगाना! यहां
क्या रखा है? स्वर्ग में
स्वर्ण के महल
हैं; हीरे—जवाहरातों
के वृक्ष हैं—वहां
मजा लो!
कल्पवृक्ष
हैं, उनके
नीचे बैठो! यहां
तो रोना—धोना
खूब कर लिया!' लेकिन यह
नया भ्रम है।
मैं
तुम्हें कोई
नया भ्रम नहीं
दे रहा। मैं
तुमसे सिर्फ
इतना कह रहा
हूं : काफी
भ्रम देख लिए
अब साक्षी—भाव
कैसे भ्रम हो
सकता है, थोड़ा
सोचो। सिर्फ
साक्षी होने
को कह रहा हूं :
जो भी है, उसे
देखने को कह
रहा हूं। कुछ
करने को कहता
तो भ्रम पैदा
होता। तुमसे
कहता कि यह
छोड़ कर यह करो
तो भ्रम पैदा
होता। तुमसे
सिर्फ इतना ही
कह रहा हूं : जो
भी कर रहे हो, जहां भी हो, भोगी हो
योगी हो, जो
भी हो, हिंदू
हो मुसलमान हो,
मस्जिद में
हो, मंदिर
में हो, जहां
भी हो—जागो!
जाग कर देखो।
जागने में
कैसे भ्रम हो
सकता है? जागे
हुए आदमी को
भ्रम की कोई
संभावना नहीं
रह जाती। नींद
में सपने होते
हैं; जागने
में कैसे सपना
हो सकता है?
'और यदि लोग
सुख—दुख में
प्रतिक्रिया
करना छोड़ दें
तो वे पशु या
पेड़—पौधे जैसे
तो नहीं हो
जायेंगे?'
पहली
तो बात, तुमसे
किसने कहा कि
पशु और पेड़—पौधे
तुमसे खराब
हालत में हैं?
तुमने ही
उमनान
ध्यलिया, पेड़—पौधों
से भी तो पूछो!
पशुओं से भी
तो पूछो! थोड़ा पशुओं
की आंख में भी
तो झांक
यह
भी आदमी का
अहंकार है कि
वह सोचता है
कि वह पशुओं
से ऊपर है। और
पशुओं की
इसमें कोई
गवाही भी नहीं
ली गई है, यह भी
बड़े मजे की
बात है।
एकतरफा
निर्णय कर
लिया है। अपने—आप
ही निर्णय कर
लिया है।
अगर
पशुओं में भी
इस तरह की
किताबें लिखी
जाती होंगी, शास्त्र
रचे जाते
होंगे, तो
उनमें भी लिखा
होगा कि आदमी
बहुत गया—बीता
जानवर है।
मैंने
तो सुना है कि
बंदर एक—दूसरे
से कहते हैं
कि आदमी पतित
बंदर है।
डार्विन कहता
है कि आदमी
बंदर का विकास
है,
लेकिन
डार्विन कौन—सी
कसौटी है? बंदरों
से भी तो पूछो!
दोनों ही
पार्टियों से भी
तो पूछ लेना
चाहिए। बंदर
कहते हैं, आदमी
पतित है। और
उनकी बात समझ
में आती है।
बंदर वृक्षों
पर हैं और तुम
जमीन पर हो—पतित
हो ही! बंदर
ऊपर हैं, तुम
नीचे हो। किसी
बंदर से टक्कर
ले कर तो देखो,
तो शक्ति
बढ़ी कि खोई? जरा एक
वृक्ष से दूसरे
वृक्ष पर
छलांग ले कर
तो देखो,
हड्डी पसली
टूट जायेंगी!
तो कला आई कि
गई? वह
तुमसे किसने
कह दिया? कि
खुद ही
यह
बड़े मजे की
बात है। आदमी
की बीमारियों
में एक बीमारी
है कि आदमी मानता
है कि वह सबसे
ऊपर है। फिर
पुरुषों से
पूछो तो वे
मानते हैं, वे
स्त्रियों से
ऊपर हैं।
स्त्रियों से
बिना ही पूछे!
स्त्रियों की
इसमें कोई
गवाही नहीं ली
गई। इस पर कोई
वोट नहीं हुआ
कभी। क्योंकि
पुरुषों ने
शास्त्र लिखे,
जो मन में
था लिख लिया।
और स्त्रियों
को तो पढ़ने पर
भी रोक लगा
रखी थी कि
कहीं वे पढ़ भी
लें तो बाधा
डालेंगी।
क्योंकि जो
पंडित लिख रहा
था, उसकी
पत्नी ही उसको
कष्ट में डाल
देती, अगर
पढ़ना आता होता।
तो पढ़ने पर
बाधा लगा दी
कि वेद पढ़
नहीं सकतीं स्त्रियां,
यह नहीं कर
सकतीं.। हद कर
दी पुरुषों
ने. स्त्रियां
मोक्ष भी नहीं
जा सकतीं!
मोक्ष जाने के
पहले उनको
पुरुष होना
पड़ेगा, पुरुष
पर्याय में
आना पड़ेगा।
फिर
पुरुषों में
भी पूछो। गोरा
समझता है कि
वह ऊंचा है
काले से। काले
से भी तो पूछो!
मैंने
सुना है कि
अफ्रीका के एक
जंगल में एक अंग्रेज
शिकार के लिए
गया और उसने
अपने साथ एक नीग्रो
को गाइड की
तरह लिया।
जंगल में
दोनों भटक गये।
और देखा कि
कोई सौ
आदमियों का, भाले
लिए हुए
जंगलियों का
एक नीग्रो
दस्ता चला आ
रहा है। वह
अंग्रेज बहुत
घबड़ाया। उसने
अपने गाइड से,
नीग्रो से
कहा कि हम
लोगों की जान
खतरे में है।
उसने कहा, 'हम
लोगों की! तुम
मुझे छोड़ो, तुम अपनी
सोचो। मेरी
क्यों खतरे
में होगी?'
सफेद
आदमी सोचता है, वह
श्रेष्ठ है; काला सोचता
है, वह
श्रेष्ठ है।
चीनियों
से पूछो।
चीनियों की
किताबों में
लिखा है कि
अंग्रेज बंदर
हैं। आदमी में
भी गिनती नहीं
करते वे उनकी।
सारी
दुनिया में यह
रोग है। आदमी
का यह रोग बड़ा
गहरा है। वह
बिना ही दूसरी
पार्टी के
पूछे निर्णय
करता चला जाता
है। ये सब
अहंकार के खेल
हैं। अगर तुम
थोड़े अहंकार
को छोड़ कर
देखोगे, तो
तुम पाओगे
परमात्मा के
ही सब रूप हैं—जानवर
भी, पशु—पक्षी
भी, पौधे
भी, मनुष्य
भी। परमात्मा
ने कहीं चाहा
है हरा हो
जाना तो हरा है;
कहीं चाहा
है पक्षियों
के गीत से
प्रगट होना तो
वैसा हो रहा
है; कहीं
चाहा है आदमी
होना तो आदमी
हो गया है।
इनमें कोई
तारतम्यता
नहीं है, हायरेरकी
नहीं है, कोई
ऊपर—नीचे नहीं
है। ये सब एक
साथ परमात्मा
की अनंत लहरें
हैं। छोटी लहर
में भी वही, बड़ी लहर में
भी वही; सफेद
लहर में भी
वही, काली
लहर में भी
वही। घास में
भी वही, आकाश
छूते हुए
वृक्षों में
भी वही।
आध्यात्मिक
दृष्टि तो यह
कहती है कि
इसी क्षण जो
भी है वही
परमात्मा है।
फिर परमात्मा
में कोई आगे—पीछे
कैसे हो सकता
है?
यह तो बड़ा
मुश्किल हो
जायेगा। यह तो
परमात्मा में
भी कुछ नीचे, कुछ ऊपर
करना कठिन हो
जायेगा। एक ही
है! साक्षी—भाव
से देखोगे तो
पाओगे सब एक
है। इसलिए
पहले तो यह
पूछो ही मत कि 'यदि लोग सुख—दुख
में
प्रतिक्रिया
करना छोड़ दें
तो वे पशु या
पौधे जैसे तो
नहीं हो
जायेंगे?' हो
जायेंगे तो
कुछ हर्जा
नहीं होगा।
हिटलर अगर पशु
हो जाये, पौधा
हो जाये तो
कोई हर्जा है?
ही, दुनिया
में करोड़ों
लोग मरने से
बच जायेंगे, और तो कुछ
हर्जा नहीं हो
जायेगा।
नादिरशाह अगर
शेर होता तो
कोई हर्जा
होता? दस—पांच
आदमियों को
मार कर तृप्त
हो जाता। भोजन
के लिए ही
मारता; ऐसे
अकारण लाशों
से तो नहीं भर
देता दुनिया
को। इतना तो
पक्का है कि
पशुओं ने अभी
तक एटम बम जैसी
कोई चीज नहीं
खोजी, नाखून
से काम लेते
हैं, बड़े
पुराने ढंग से
काम चलता है।
भोजन के लिए
मारते हैं।
आदमी
अकेला जानवर
है जो बिना
भोजन की इच्छा
के भी मारता
है। आदमी जाता
है जंगल में
शिकार करने, पशुओं—पक्षियों
को मारता है
और कहता है, आखेट के लिए
आये, खेल
के लिए आये! और
अगर सिंह उस
पर हमला कर दे,
तो वह आखेट
नहीं है! फिर
नहीं कहता कि
सिंह खेल कर
रहा है—करने
दो, आखेट
हो रही है।
खेल
के लिए मारते
हो?
कोई पशु
नहीं मारता
खेल के लिए।
और
एक और बड़े मजे
की बात है कि
कोई पशु अपने
वर्ग में नहीं
मारता। कोई
सिंह किसी
दूसरे सिंह को
मारता नहीं।
कोई बंदर किसी
दूसरे बंदर की
हत्या नहीं
करता। सिर्फ
आदमी अकेला
जानवर है जो
आदमियों को
मारता है।
चींटी चींटी
को नहीं मारती।
हाथी हाथी को
नहीं मारता।
कुत्ता
कुत्ते को
नहीं मारता।
लड़—झगड़ लें, मारने
वगैरह की बात
नहीं करते, हत्या नहीं
करते। आदमी
अकेला जानवर
है जो एक—दूसरे
की हत्या करता
है।
आदमी
में ऐसा है
क्या जिसके
लिए तुम इतने
परेशान हो रहे
हो?
खो भी
जायेगा तो
क्या खो
जायेगा? पेड़—पौधे
बहुत सुंदर
हैं। पशु बड़े
निर्दोष हैं।
मगर मैं यह
नहीं कह रहा
कि तुम पेड़—पौधे
या पशु हो जाओ।
मैं सिर्फ यह
कह रहा हूं कि
अहंकार छोड़ो।
और
दूसरी बात यह
मैंने कहा भी
नहीं कि सुख
और दुख में
प्रतिक्रिया
करना छोड़ दें।
यह अष्टावक्र
ने भी कहा
नहीं। सुख—दुख
में समता रखने
का अर्थ सुख—दुख
में
प्रतिक्रिया
करना छोड़ देना
नहीं है। सुख—दुख
में समता रखने
का अर्थ केवल
इतना ही है कि 'मैं
साक्षी
रहूंगा; दुख
होगा तो दुख को
देखूंगा, सुख
होगा तो सुख
को देखूंगा।’
इसका यह
अर्थ थोड़े ही
है कि जब तुम
बुद्ध को काटे
चुभाओगे तो
उनको दुख नहीं
होता। बुद्ध
को कांटे
चुभाओगे तो
तुमसे ज्यादा
दुख होता है; क्योंकि
बुद्ध तुमसे
ज्यादा
संवेदनशील
हैं; तुम
तो पथरीले हो,
बुद्ध तो
कोमल कमल की
तरह हैं! तुम
जब बुद्ध को
काटे चुभाओगे
तो बुद्ध को
पीड़ा तुमसे
ज्यादा होती
है; लेकिन
पीड़ा हो रही
है शरीर में, बुद्ध ऐसा
जान कर दूर
खड़े रहते हैं।
देखते हैं, पीड़ा हो रही
है; जानते
हैं, पीड़ा
हो रही है—फिर
भी अपना
तादात्म्य
पीड़ा से नहीं
करते। जानते
हैं : मैं
जानने वाला
हूं ज्ञाता—स्वरूप
हूं।
प्रतिक्रिया
छोड़ने को नहीं
कह रहे हैं।
यह नहीं कह
रहे हैं कि घर
में आग लग
जाये तो तुम बैठे
रहना तो तुम
बुद्ध हो गये, भागना
मत बाहर!
भागते समय भी
जानना कि घर
जल रहा है, वह
मैं नहीं जल
रहा। और अगर
शरीर भी जल
रहा हो तो
जानना कि शरीर
जल रहा है, मैं
नहीं जल रहा।
इसका यह मतलब
नहीं कि शरीर
को जलने देना।
शरीर को बाहर
निकाल लाना।
शरीर को कष्ट
देने के लिए
नहीं कह रहे
हैं।
प्रतिक्रिया—शून्य
करने का तो
अर्थ हुआ कि
तुम पत्थर हो
गये,
जड़ हो गये।
तो बुद्ध
पत्थर नहीं
हैं। बुद्ध से
बड़ा करुणावान
कहा पाया
तुमने? अष्टावक्र
पत्थर नहीं हो
गये होंगे।
प्रेम की धारा
बही। तो जिनसे
प्रेम का झरना
बहा, उनकी
संवेदनशीलता
बढ़ गई होगी, घट नहीं गई
होगी। उनके
पास महाकरुणा
उतरी।
लेकिन
तुम गलत
व्याख्या कर
ले सकते हो।
और
जिन्होंने
पूछा है, थोड़े
शास्त्रीय
बुद्धि के
मालूम होते
हैं; थोड़ा
बुद्धि में
कचरा ज्यादा
है। कुछ पढ़
लिया, सुन
लिया, इकट्ठा
कर लिया—वह
काफी चक्कर
मार रहा है! वह
सुनने नहीं
देता, वह
देखने भी नहीं
देता। वह
चीजों को
विकृत करता
चला जाता है।
राही
रुके हुए सब
भीतर का पानी
अधहंसा बाहर
जमी बरफ है
एक
तरफ छाती तक
दल—दल अगम
बाढ़
का दरिया एक
तरफ है।
मनमानी बह रही
हवाएं जंगल
झुके हुए सब
राही
रुके हुए सब।
बंद
द्वार, अधखुली
खिड़कियां
झांक
रहीं कुछ आंखें
सूरज
के मुंह पर
संध्या की
काली
अनगिन तीर
सरीखी—सी
चुभती
हुई सलाखें
अपने चेहरे के
पीछे चुप सहमे
लुके हुए सब
राही
रुके हुए सब!
अपने चेहरे के
पीछे चुप
सहमे
लुके हुए सब
राही
रुके हुए सब!
ये
जो चेहरे हैं, मुखौटे
हैं—बुद्धिमानी
के, पाडित्य
के, शास्त्रीयता
के—इनके पीछे
कब तक छुपे
रहोगे? ये
जो विचारों की
परतें हैं, इनके पीछे
कब तक छुपे
रहोगे? इन्हें
हटाओ! भीतर के
शुद्ध
चैतन्य को जगाओ।
द्रष्टा
की तरह देखो, विचारक
की तरह नहीं।
विचारक का तो
अर्थ हुआ मन
की क्रिया
शुरू हो गई तो
अगर
अष्टावक्र को
समझना हो तो
चैतन्य, शुद्ध
चैतन्य की तरह
ही समझ पाओगे।
अगर तुम सोच—विचार
में पड़े तो
अष्टावक्र को
तुम नहीं समझ
पाओगे, चूक
जाओगे।
अष्टावक्र
कोई दार्शनिक
नहीं हैं, और
अष्टावक्र
कोई विचारक
नहीं हैं।
अष्टावक्र तो
एक संदेशवाहक
हैं—चैतन्य के,
साक्षी के।
शुद्ध साक्षी!
सिर्फ देखो!
दुख हो दुख को
देखो, सुख
हो सुख को
देखो! दुख के
साथ यह मत कहो
कि मैं दुख हो
गया, सुख
के साथ यह मत
कहो कि मैं
सुख हो गया।
दोनों को आने
दो, जाने
दो। रात आये
तो रात देखो, दिन आये तो
दिन देखो। रात
में मत कहो कि
मैं रात हो
गया। दिन में
मत कहो कि मैं
दिन हो गया।
रहो अलग— थलग, पार, अतीत,
ऊपर, दूर!
एक ही बात के
साथ
तादात्म्य
रहे कि मैं द्रष्टा
हूं साक्षी
हूं।
हरि
ओम तत्सत्!
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