प्यारे
ओशो
यहां
मैं बैठता और
प्रतीक्षा करता
हूं, पुरानी
छिन्न— भिन्न
नियम— तालिकाएं
मेरे चारों ओर
बिखरी
हुईं
और नयी अर्द्धलिखित
नियम— तालिकाएं
भी। कब मेरी
घड़ी आएगी? — मेरे
नीचे जाने की
घड़ी
मेरे अवरोह की
: क्योकि
एक बार और मैं
मनुष्यों तक
जाना चाहता
हूं।
उसके
लिए मैं अब
प्रतीक्षा
करता हूं :
क्योंकि पहले
इस बात का
संकेत मुझ तक
आना
आवश्यक
है कि यह मेरी
घड़ी है —
अर्थात फाख्ताओं
के झुंड से
युक्त हंसता
हुआ शेर।
इस
दरम्यान मैं
स्वयं से ही
बातचीत करता
हूं ऐसे
व्यक्ति की
भांति जिसके
पास बहुत सारा
समय
है। कोई भी
मुझे कुछ भी
नया नहीं
बताता; इसलिए
मैं स्वयं को
ही स्वयं को
बताता हूं।
जब
मैं मनुष्यों
से मिला मुझे
वे एक पुराने
अभिमान पर
सवार मिले।
प्रत्येक का
सोचना था कि
उसे बहुत काल
से पता था कि
मनुष्य के लिए
अच्छा क्या है
और बुरा क्या
है। सद्गुणों
की समस्त
बातचीत
उन्हें एक
प्राचीन थका—
हारा मामला
लगा;
और जो
भलीभांति
सोने की चाहत
रखता था
वह
विश्राम में
जाने से पहले 'अच्छाई'
और 'बुराई'
के संबंध
में बातचीत
करता था।
मैने
इस
निद्रालुता
को
अस्तव्यस्त
कर दिया जब
मैने सिखाया
कि अब तक कोई
भी नहीं जानता
कि अच्छा और
बुरा क्या है —
जब तक कि वह
सृजनकर्ता न
हो!
ऐसा
जरथुस्त्र ने
कहा।.........
जरथुस्त्र
केवल एक धर्म
में यकीन करते
हैं :
उद्विकास (एवकान
) का धर्म।
स्वभावत:, यदि
उद्विकास
जीवन का धर्म
है तो
परिवर्तन को
इसका सिद्धात
होना होगा — एक
सतत परिवर्तन।
समस्त धर्म
स्थायी
मूल्यों पर
आश्रित रहे हैं;
उन्होंने
अपने मूल्य
सदा—सदा के लिएं
निर्धारित कर
लिए हैं।
जीवन
बदलता जाता है; उनके
मूल्य स्थिर
बने रहते हैं
और अस्तित्व से
संपर्क खो
देते हैं।
उससे मनुष्य
के मन में
असीम तनाव
पैदा होता है।
यदि वह उन
मूल्यों का
अनुसरण करे तो
वह समकालीन
नहीं रह जाता;
वह जीवन के
जीवित
स्रोतों के
साथ संपर्क
में नहीं रह
जाता। यदि वह उनका
अनुसरण नहीं
करता, वह
अपराधी महसूस
करता है, वह
अनैतिक महसूस
करता है, वह
अधार्मिक
महसूस करता है।
और तब भय उसे
जकड़ लेता है।
इस
प्रकार
मनुष्य जीवन
और तथाकथित
स्थायी मूल्यों
के बीच डावांडोल
रहा आता है।
वह जहां कहीं
भी होता है, आधे—आधे
मन से होता है।
वह जहा कहीं
भी होता है, दुखी होता
है — क्योंकि
हर्षोल्लास
तो केवल तभी
उमगता है जब तुम
समग्रमना
होते हो।
हर्षोल्लास
कुछ भी नहीं
है एक अखंड मन
की सुगंध के
सिवाय, और
दुख—दुर्दशा
एक ऐसे मन के
फल हैं जो
खंडों में, टुकड़ों में
बांट दिया गया
है।
जहा
तक जरथुस्त्र
का सवाल है
केवल एक ही
बात
अपरिवर्तनशील
है और वह है स्वयं
परिवर्तन।
परिवर्तन के
सिवा सब कुछ
परिवर्तित
होता चला जाता
है। और चैतन्य
व्यक्ति
प्रत्येक
परिवर्तन को
प्रतिध्वनित
करेगा —
निर्धारित
मूल्यों के
अनुसार नहीं
बल्कि अपनी
सजगता व चेतना
के अनुसार, अपनी
सहजस्फूर्तता
के अनुसार।
जीवन
अतीत के
अनुसार नहीं जीआ जा
सकता है।
वह
जरथुस्त्र की
मूलभूत
शिक्षाओं में
से एक है.
व्यक्ति को
वर्तमान के
अनुसार ही
जीना होगा, भविष्य
के प्रति सजग।
और व्यक्ति को
याद रखना
जरूरी है : जो
मेरे लिए सच
है वही सब के
लिए सच नहीं
है, और जो
मेरे लिए आज
सच है वही
आवश्यक रूप से
मेरे लिए कल
सच रहनेवाला
नहीं है।
हमारे
मूल्यों को
जीवन के
अनुसार होना
होगा — उसका
उलटा सही नहीं
है।
जिस
क्षण तुम जीवन
को अपने
मूल्यों के
अनुसार बना
देने का
प्रयास करते
हो,
तुम जीवन—ध्वंसक
बन जाते हो, जीवन—निषेधक।
और जीवन को
नष्ट करना
स्वयं अपने को
नष्ट करना है।
तब दुख—दुर्दशा
ही तुम्हारे
हिस्से में
पड़ने वाले हैं।
जरथुस्त्र
कह रहे हैं, यहां
मैं बैठता और
प्रतीक्षा
करता हूं
पुरानी छिन्न—
भिन्न नियम— तालिकाएं
मेरे चारों ओर
बिखरी हुईं और
नयी अर्द्धलिखित
नियम— तालिकाएं
भी।
जीवन
इतनी तेजी से
बदलता है कि
जब तक तुमने
अपने नियम, विधान
लिखे वे पहले
ही तिथिबाह्य
हो चुके। यही
कारण है कि
जरथुस्त्र
कहते हैं, मैं
यहा बैठा
हूं
प्रतीक्षा
करता, मेरे
चारों ओर
पुरानी छिन्न—भिन्न
नियम—तालिकाएं
और नयी, अर्द्धलिखित नियम—तालिकाएं
भी।
अर्द्धलिखित
क्यों? — क्योंकि
जब तक तुम
उन्हें लिखते
हो, हो
सकता है तब तक
वे प्रासंगिक
न रह गयी हों।
व्यक्ति को
सहजस्फूर्त
रूप से ही
जीना होगा, किसी लिखित
नियम के
अनुसार नहीं।
व्यक्ति को
पूरी तरह से
उत्तरदायित्व
अपने ही कंधों
पर लेना होगा।
यदि
तुम चाहते हो
कि तुम्हारे
बच्चे बुद्धिमान
हों,
तो उन्हें
बुद्धिमत्ता
कभी मत दो।
यदि तुम चाहते
हो कि
तुम्हारे
बच्चों के पास
जीवन के प्रति
एक स्पष्टता
और लोगों तथा
स्थितियों के
प्रति एक
सहजस्फूर्त
जिम्मेदारी हो,
तो उन पर
अच्छे और बुरे
की अवधारणाएं
मत लादो, क्योंकि वे
तुम्हारे समय
में नहीं रह
रहे होंगे — और
तुम कल्पना भी
नहीं कर सकते
कि वे किस समय
में रह रहे
होंगे, उनकी
परिस्थितियां
क्या होंगी।
सारा कुछ जो
तुम कर सकते
हो वह यह कि
उन्हें अधिक मेधापूर्ण
बनाओ, उन्हें
अधिक सजग बनाओ,
उन्हें
अधिक सचेत
बनाओ, उन्हें
अधिक
प्रेमपूर्ण
बनाओ, उन्हें
अधिक शात व
मौन बनाओ।
ताकि जहा कहीं
भी वे हों
उनका
प्रत्युत्तर
उनके मौन से
निकले और उनके
प्रेम से
निकले और उनकी
सजगता से
निकले; वह
ठीक होने वाला
है। उन्हें यह
मत बताओ कि
अच्छा क्या है,
बल्कि
उन्हें ठीक
संसाधन दो खोज
निकालने के लिए
कि क्या अच्छा
है एक भिन्न
परिस्थिति
में।
हम
बच्चों को
उत्तर प्रदान
करने की इतनी
जल्दी में
होते हैं कि
हम कभी गहराई
से पता नहीं
करते कि उनके
प्रश्न क्या
हैं?
कोई प्रश्न
हैं भी अथवा
नहीं? एक धैर्यपूर्ण
मा अथवा पिता
को प्रतीक्षा
करनी चाहिए।
लेकिन नहीं, बच्चा पैदा
हुआ और तुरंत
उसका एक ईसाई
के रूप में
बप्तिस्मा कर
दिया जाना है।
उसका अर्थ यह
है कि तुमने
उसे वे समस्त
उत्तर प्रदान
कर दिये जो
ईसाइयत के पास
हैं। अथवा
उसका खतना कर
दिया जाना है,
और इस
प्रकार तुमने
वे सारे उत्तर
उसे प्रदान कर
दिये जो यहूदी
धर्म के पास
हैं। अथवा
हिंदू धर्म
में, बौद्ध
धर्म में या
इस्लाम धर्म
में उसका
संस्कार किया
जाना है, और
उन सबके अपने क्रियाकांड
हैं। लेकिन वह
उत्तरों की
शुरुआत है।
बच्चे
से कोई पूछ ही
नहीं रहा। और
यह पूछने का
समय तक नहीं
है,
क्योंकि
बच्चा कुछ भी
जवाब नहीं दे
सकता — वह ऐसा
नवागंतुक है
अभी। वह भाषा
नहीं जानता, वह दुनिया
के संबंध में
कुछ भी नहीं
जानता। उसे
परवाह ही नहीं
है कि किसने
बनायी दुनिया।
उसे कोई
अवधारणा ही
नहीं स्कइ
'ईश्वर' कहने से
तुम्हारा
क्या
तात्पर्य है।
यह
दुनिया
उत्तरों से
भरी हुई है।
हर व्यक्ति का
सिर उत्तरों
से भरा हुआ है
जिसके लिए
तुम्हारे पास
अपना
प्रामाणिक
प्रश्न ही
नहीं है। यही
कारण है कि
तुम्हारे
ज्ञान को मैं
कचरा कहता हूं।
पहले
तुम्हारे
भीतर प्रश्न
तो उठना चाहिए।
और प्रश्न का
उत्तर किसी
अन्य व्यक्ति
द्वारा नहीं
दिया जा सकता; तुम्हें
खुद ही उत्तर
पाना होगा।
केवल तब, जब
उत्तर
तुम्हारा
अपना है, उसमें
एक सत्य होता
है। यदि वह
तुम्हें किसी
अन्य व्यक्ति
द्वारा प्रदान
किया गया है
तो वह पुराना,
सड़ा—गला और
घृणित है।
तुम्हारी
अपनी ही खोज
तुम्हें एक
ताजे उत्तर तक
ले आएगी।
ऐसा
जरमुस्त्र
ने कहा।.........
thank you guruji
जवाब देंहटाएं