ओशो
यूग
बीते पर सत्य
न बीता
सब
हारा पर सत्य
न हारा
11
सितंबर 1976
ओशो
आश्रम,
पूना।
जनक
उवाच।
कथं
ज्ञानमवाम्मोति
कथं
मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्य
ब कथं
प्राप्तमेतद
ब्रूहि मम
प्रभो।। १।।
अष्टावक्र
उवाच।
मुक्तिमिच्छसि
चेत्तात
विषयान्
विषवत्यज।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं
पीयूषवद् भज।।
2।।
न
पृथ्वी न जलं
नाग्निर्न
वायुधौर्न वा
भवान्।
एषां
साक्षिणमात्मानं
चिद्रूपं
विद्दि
मुक्तये।।3।।
यदि
देहं पृथस्कृत्य
निति
विश्राम्ब
तिष्ठसि।
अधुनैव
सखी शांत:
बंधमक्तो
भविष्यसि।।4।।
न
त्वं विप्रादिको
वर्णो
नाश्रमी
नाक्षगोचर:।
असंगोऽमि
निराकारो
विश्वसाक्षी
सुखी भव।।5।।
धर्माऽधमौं
सुखं दुःख
मानसानि न तो
विभो।
एक
अनूठी यात्रा
पर हम निकलते
हैं। मनुष्य—जाति
के पास बहुत
शास्त्र हैं, पर
अष्टावक्र—गीता
जैसा शास्त्र
नहीं। वेद
फीके हैं।
उपनिषद बहुत
धीमी आवाज में
बोलते हैं।
गीता में भी
ऐसा गौरव नहीं;
जैसा
अष्टावक्र की
संहिता में
है। कुछ बात
ही अनूठी है!
सबसे
बड़ी बात तो यह
है कि न समाज, न
राजनीति, न
जीवन की किसी
और व्यवस्था
का कोई प्रभाव
अष्टावक्र के
वचनों पर है।
इतना शुद्ध
भावातीत वक्तव्य,
समय और काल
से अतीत, दूसरा
नहीं है। शायद
इसीलिए
अष्टावक्र की
गीता, अष्टावक्र
की संहिता का
बहुत प्रभाव
नहीं पड़ा।
कृष्ण
की गीता का
बहुत प्रभाव
पड़ा। पहला
कारण : कृष्ण
की गीता
समन्वय है।
सत्य की उतनी
चिंता नहीं है
जितनी समन्वय
की चिंता है।
समन्वय का
आग्रह इतना
गहरा है कि
अगर सत्य थोड़ा
खो भी जाये तो
कृष्ण राजी
हैं।
कृष्ण
की गीता खिचड़ी
जैसी है; इसलिए
सभी को भाती
है, क्योंकि
सभी का कुछ न
कुछ उसमें
मौजूद है। ऐसा
कोई संप्रदाय
खोजना
मुश्किल है जो
गीता में अपनी
वाणी न खोज ले।
ऐसा कोई
व्यक्ति
खोजना
मुश्किल है जो
गीता में अपने
लिए कोई सहारा
न खोज ले। इन
सबके लिए
अष्टावक्र की
गीता बड़ी कठिन
होगी।
अष्टावक्र
समन्वयवादी
नहीं हैं—सत्यवादी
हैं। सत्य
जैसा है वैसा
कहा है—बिना
किसी लाग—लपेट
के। सुनने
वाले की चिंता
नहीं है।
सुनने वाला समझेगा, नहीं
समझेगा, इसकी
भी चिंता नहीं
है। सत्य का
ऐसा शुद्धतम वक्तव्य
न पहले कहीं
हुआ, न फिर
बाद में कभी
हो सका।
कृष्ण
की गीता लोगों
को प्रिय है, क्योंकि
अपना अर्थ
निकाल लेना
बहुत सुगम है।
कृष्ण की गीता
काव्यात्मक
है : दो और दो
पांच भी हो
सकते हैं, दो
और दो तीन भी
हो सकते हैं।
अष्टावक्र के
साथ कोई खेल
संभव नहीं।
वहां दो और दो
चार ही होते
हैं।
अष्टावक्र
का वक्तव्य
शुद्ध गणित का
वक्तव्य है। वहां
काव्य को जरा
भी जगह नहीं
है। वहां
कविता के लिए
जरा—सी भी छूट
नहीं है। जैसा
है वैसा कहा
है। किसी तरह
का समझौता
नहीं है।
कृष्ण की गीता
पढ़ो तो भक्त
अपना अर्थ निकाल
लेता है, क्योंकि
कृष्ण ने
भक्ति की भी
बात की है, कर्मयोगी
अपना अर्थ
निकाल लेता है,
क्योंकि
कृष्ण ने
कर्मयोग की भी
बात की है; ज्ञानी
अपना अर्थ
निकाल लेता है,
क्योंकि कृष्ण
ने शान की भी
बात की है।
कृष्ण कहीं
भक्ति को
सर्वश्रेष्ठ
कहते हैं, कहीं
ज्ञान को
सर्वश्रेष्ठ
कहते हैं, कहीं
कर्म को
सर्वश्रेष्ठ
कहते हैं।
कृष्ण
का वक्तव्य
बहुत
राजनैतिक है।
वे राजनेता थे—कुशल
राजनेता थे!
सिर्फ
राजनेता थे, इतना
ही कहना उचित
नहीं—कुटिल राजनीतिज्ञ
थे, डिप्लोमैट
थे। उनके
वक्तव्य में
बहुत—सी बातों
का ध्यान रखा
गया है। इसलिए
सभी को गीता
भा जाती है।
इसलिए तो गीता
पर हजारों
टीकाएं हैं; अष्टावक्र
पर कोई चिंता
नहीं करता।
क्योंकि
अष्टावक्र के
साथ राजी होना
हो तो तुम्हें
अपने को छोड़ना
पड़ेगा। बेशर्त!
तुम अपने को न
ले जा सकोगे।
तुम पीछे
रहोगे तो ही
जा सकोगे।
कृष्ण के साथ
तुम अपने को
ले जा सकते हो।
कृष्ण के साथ
तुम्हें
बदलने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। कृष्ण के
साथ तुम मौजूं
पड़ सकते हो।
इसलिए
सभी
सांप्रदायिकों
ने कृष्ण की
गीता पर
टीकाएं लिखीं—शंकर
ने,
रामानुज ने,
निम्बार्क
ने, वल्लभ
ने, सबने।
सबने अपने
अर्थ निकाल
लिए। कृष्ण ने
कुछ ऐसी बात
कही है जो बहु—अर्थी
है। इसलिए मैं
कहता हूं
काव्यात्मक
है। कविता में
से मनचाहे
अर्थ निकल
सकते हैं।
कृष्ण
का वक्तव्य
ऐसा है जैसे
वर्षा में
बादल घिरते
हैं. जो चाहो
देख लो। कोई
देखता है हाथी
की सूंड़; कोई
चाहे गणेश जी
को देख ले।
किसी को कुछ
भी नहीं दिखाई
पड़ता—वह कहता
है, कहां
की फिजूल
बातें कर रहे
हो? बादल
हैं! धुआ—इसमें
कैसी आकृतियां
देख रहे हो?
पश्चिम
में
वैज्ञानिक मन
के परीक्षण के
लिए स्याही के
धब्बे
ब्लाटिंग
पेपर पर डाल देते
हैं और
व्यक्ति को
कहते हैं, देखो,
इसमें क्या
दिखायी पड़ता
है? व्यक्ति
गौर से देखता
है, उसे
कुछ न कुछ
दिखाई पड़ता है।
वहां कुछ भी
नहीं है, सिर्फ
ब्लाटिंग
पेपर पर
स्याही के
धब्बे हैं—बेतरतीब
फेंके गये, सोच—विचार
कर भी फेंके
नहीं गये हैं,
ऐसे ही बोतल
उंडेल दी है।
लेकिन देखने
वाला कुछ न
कुछ खोज लेता
है। जो देखने
वाला खोजता है
वह उसके मन
में है, वह
आरोपित कर
लेता है।
तुमने
भी देखा होगा.
दीवाल पर
वर्षा का पानी
पड़ता है, लकीरें
खिंच जाती हैं।
कभी आदमी की
शक्ल दिखायी
पड़ती है, कभी
घोड़े की शक्ल
दिखायी पड़ती
है। तुम जो
देखना चाहते
हो, आरोपित
कर लेते हो।
रात
के अंधेरे में
कपड़ा टंगा है—
भूत—प्रेत
दिखायी पड़
जाते हैं।
कृष्ण
की गीता ऐसी
ही है—जों
तुम्हारे मन
में है, दिखायी
पड़ जायेगा। तो
शंकर ज्ञान
देख लेते हैं,
रामानुज
भक्ति देख
लेते हैं, तिलक
कर्म देख लेते
हैं—और सब
अपने घर
प्रसन्नचित्त
लौट आते हैं
कि ठीक, कृष्ण
वही कहते हैं
जो हमारी
मान्यता है।
इमर्सन
ने लिखा है कि
एक बार एक
पड़ोसी प्लेटो की
किताबें उनसे
माग कर ले गया।
अब प्लेटो दो
हजार साल पहले
हुआ—और दुनिया
के थोड़े —से
अनूठे
विचारकों में
से एक। कुछ
दिनों बाद
इमर्सन ने कहा, किताबें
पढ़ ली हों तो
वापस कर दें।
वह पड़ोसी लौटा
गया। इमर्सन
ने पूछा, कैसी
लगीं? उस
आदमी ने कहा
कि ठीक। इस
आदमी, प्लेटो
के विचार
मुझसे मिलते—जुलते
हैं। कई दफे
तो मुझे ऐसा
लगा कि इस
आदमी को मेरे
विचारों का
पता कैसे चल
गया! प्लेटो
दो हजार साल पहले
हुआ है; इसको
शक हो रहा है
कि इसने कहीं
मेरे विचार तो
नहीं चुरा
लिए!
कृष्ण
में ऐसा शक
बहुत बार होता
है। इसलिए
कृष्ण पर, सदियां
बीत गईं, टीकाएं
चलती जाती हैं।
हर सदी अपना
अर्थ खोज लेती
है; हर
व्यक्ति अपना
अर्थ खोज लेता
है। कृष्ण की
गीता स्याही
के धब्बों
जैसी है। एक कुशल
राजनीतिज्ञ
का वक्तव्य है।
अष्टावक्र
की गीता में
तुम कोई अर्थ
न खोज पाओगे।
तुम अपने को
छोड़ कर चलोगे
तो ही
अष्टावक्र की गीता
स्पष्ट होगी।
अष्टावक्र
का सुस्पष्ट
संदेश है।
उसमें जरा भी
तुम अपनी
व्याख्या न
डाल सकोगे।
इसलिए लोगों
ने टीकाएं
नहीं लिखीं।
टीका लिखने की
जगह नहीं है; तोड़ने—मरोड़ने
का उपाय नहीं
है; तुम्हारे
मन के लिए
सुविधा नहीं
है कि तुम कुछ
डाल दो।
अष्टावक्र ने
इस तरह से
वक्तव्य दिया
है कि सदियां
बीत गईं, उस
वक्तव्य में
कोई कुछ जोड़
नहीं पाया, घटा नहीं
पाया। बहुत
कठिन है ऐसा
वक्तव्य देना।
शब्द के साथ
ऐसी कुशलता
बड़ी कठिन है।
इसलिए
मैं कहता हूं
एक अनूठी
यात्रा तुम
शुरू कर रहे
हो।
अष्टावक्र
में
राजनीतिज्ञों
की कोई उत्सुकता
नहीं है—न
तिलक की, न
अरविंद की, न गांधी की, न विनोबा की,
किसी की कोई
उत्सुकता
नहीं है।
क्योंकि तुम
अपना खेल न
खेल पाओगे।
तिलक को उकसाना
है देश— भक्ति,
उठाना है
कर्म का ज्वार—कृष्ण
की गीता
सहयोगी बन
जाती है।
कृष्ण
हर किसी को
कंधा देने को
तैयार हैं।
कोई भी चला लो
गोली उनके
कंधे पर रख कर, वे
राजी हैं।
कंधा उनका, पीछे छिपने
की तुम्हें
सुविधा है, और उनके
पीछे से गोली
चलाओ तो गोली
भी बहुमूल्य
मालूम पड़ती है।
अष्टावक्र
किसी को कंधे
पर हाथ भी
नहीं रखने देते।
इसलिए गांधी
की कोई
उत्सुकता
नहीं है, तिलक
की कोई
उत्सुकता
नहीं है; अरविंद,
विनोबा को
कुछ लेना—देना
नहीं है।
क्योंकि तुम
कुछ थोप न
सकोगे।
राजनीति की
सुविधा नहीं
है।
अष्टावक्र
राजनीतिक
पुरुष नहीं
हैं।
यह
पहली बात खयाल
में रख लेनी
जरूरी है। ऐसा
सुस्पष्ट, खुले
आकाश जैसा
वक्तव्य, जिसमें
बादल हैं ही
नहीं, तुम
कोई आकृति देख
न पाओगे।
आकृति छोड़ोगे
सब, बनोगे निराकार,
अरूप के साथ
जोड़ोगे संबंध
तो अष्टावक्र
समझ में
आयेंगे।
अष्टावक्र को
समझना चाहो तो
ध्यान की
गहराई में
उतरना होगा, कोई
व्याख्या से
काम होने वाला
नहीं है।
और
ध्यान के लिए
भी अष्टावक्र
नहीं कहते कि
तुम बैठ कर
राम—राम जपो।
अष्टावक्र
कहते हैं : तुम
कुछ भी करो, वह
ध्यान न होगा।
कर्ता जहां है
वहां ध्यान
कैसा? जब
तक करना है तब
तक भ्रांति है।
जब तक करने
वाला मौजूद है
तब तक अहंकार
मौजूद है।
अष्टावक्र
कहते हैं :
साक्षी हो
जाना है ध्यान—जहां
कर्ता छूट
जाता है, तुम
सिर्फ देखने
वाले रह जाते
हो, द्रष्टा—मात्र!
द्रष्टा—मात्र
हो जाने में
ही दर्शन है।
द्रष्टा—मात्र
हो जाने में
ही ध्यान है।
द्रष्टा—मात्र
हो जाने में
ही ज्ञान है।
इसके
पहले कि हम
सूत्र में
उतरें, अष्टावक्र
के संबंध में
कुछ बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं। ज्यादा
पता नहीं है, क्योंकि न
तो वे सामाजिक
पुरुष थे, न
राजनीतिक, तो
इतिहास में
कोई उल्लेख
नहीं है। बस
थोड़ी—सी
घटनाएं ज्ञात
हैं—वे भी बड़ी
अजीब, भरोसा
करने योग्य
नहीं, लेकिन
समझोगे तो बड़े
गहरे अर्थ
खुलेंगे।
पहली
घटना—अष्टावक्र
पैदा हुए उसके
पहले की; पीछे
का तो कुछ पता
नहीं है—गर्भ
की घटना। पिता—बड़े
पंडित।
अष्टावक्र—मां
के गर्भ में।
पिता रोज वेद
का पाठ करते
हैं और
अष्टावक्र गर्भ
में सुनते हैं।
एक दिन अचानक गर्भ
से आवाज आती
है कि रुको भी!
यह सब बकवास
है। ज्ञान
इसमें कुछ भी
नहीं—बस
शब्दों का
संग्रह है।
शास्त्र में
ज्ञान कहां? ज्ञान स्वयं
में है। शब्द
में सत्य कहां?
सत्य स्वयं
में है।
पिता
स्वभावत:
नाराज हुए। एक
तो पिता, फिर
पंडित! और
गर्भ में छिपा
हुआ बेटा इस तरह
की बात कहे!
अभी पैदा भी
नहीं हुआ!
क्रोध में आ
गए, आगबबूला
हो गए। पिता
का अहंकार चोट
खा गया। फिर
पंडित का
अहंकार! बड़े
पंडित थे, बड़े
विवादी थे, शास्त्रार्थी
थे। क्रोध में
अभिशाप दे
दिया कि जब
पैदा होगा तो आठ
अंगों से टेढ़ा
होगा। इसलिए
नाम—अष्टावक्र।
आठ जगह से
कुबड़े पैदा
हुए। आठ जगह
से ऊंट की
भांति, इरछे—तिरछे!
पिता ने क्रोध
में शरीर को
विक्षत कर दिया।
ऐसी और भी
कथाएं हैं।
कहते
हैं,
बुद्ध जब
पैदा हुए तो
खड़े—खड़े पैदा
हुए। मां खड़ी
थी वृक्ष के
तले। खड़े—खड़े..
मां खड़ी थी
खड़े—खड़े पैदा
हुए। जमीन पर
गिरे नहीं कि
चले, सात
कदम चले।
आठवें कदम पर
रुक कर चार
आर्य—सत्यों
की घोषणा की, कि जीवन दुख
है—अभी सात
कदम ही चले
हैं पृथ्वी पर—कि
जीवन दुख है; कि दुख से
मुक्त होने की
संभावना है; कि दुख—मुक्ति
का उपाय है; कि दुख—मुक्ति
की अवस्था है,
निर्वाण की
अवस्था है।
लाओत्सु
के संबंध में
कथा है कि
लाओत्सु बूढ़े
पैदा हुए, अस्सी
वर्ष के पैदा
हुए; अस्सी
वर्ष तक गर्भ
में ही रहे।
कुछ करने की
चाह ही न थी तो
गर्भ से
निकलने की चाह
भी न हुई। कोई
वासना ही न थी
तो संसार में
आने की भी
वासना न हुई।
जब पैदा हुए
तो सफेद बाल
थे; अस्सी
वर्ष के बूढ़े
थे।
जरथुस्त्र के
संबंध में कथा
है कि जब
जरथुस्त्र
पैदा हुए तो
पैदा होते से
ही खिलखिला कर
हंसे। मगर इन
सबको मात कर
दिया
अष्टावक्र ने।
ये तो पैदा
होने के बाद
की बातें हैं।
अष्टावक्र ने
अपना पूरा
वक्तव्य दे
दिया पैदा
होने के पहले।
ये
कथाएं
महत्वपूर्ण
हैं। इन कथाओं
में इन
व्यक्तियों
के जीवन की
सारी सार—संपदा
है,
निचोड़ है।
बुद्ध ने जो
जीवन भर में
कहा उसका
निचोड़. बुद्ध
ने आष्टांगिक
मार्ग का
उपदेश दिया.
तो सात कदम
चले, आठवें
पर रुक गये।
आठ अंग हैं
कुल। पहुंचने
की अंतिम
अवस्था है
सम्यक समाधि।
उस समाधि की
अवस्था में ही
पता चलता है
जीवन के पूरे
सत्य का। उन
चार आर्य—सत्यों
की घोषणा कर
दी।
लाओत्सु
बूढ़ा पैदा हुआ।
लोगों को
अस्सी साल
लगते हैं, तब
भी ऐसी समझ
नहीं आ पाती।
बूढ़े हो कर भी
लोग
बुद्धिमान कहां
हो पाते हैं!
बूढ़ा होना और
बुद्धिमान
होना पर्यायवाची
तो नहीं। बाल
तो धूप में भी
पकाये जा सकते
हैं।
लाओत्सु
की कथा इतना
ही कहती है कि
अगर जीवन में
त्वरा हो, तीव्रता
हो तो जो
अस्सी साल में
घटता है वह एक क्षण
में घट सकता
है। प्रज्ञा
की तीव्रता हो
तो एक क्षण
में घट सकता
है। बुद्धि
मलिन हो तो
अस्सी साल में
भी कहां घटता
है!
जरथुस्त्र
जन्म के साथ
ही हंसे।
जरथुस्त्र का
धर्म अकेला
धर्म है
दुनिया में जिसको
'हंसता हुआ धर्म'
कह सकते हैं।
अतिपार्थिव, पृथ्वी का
धर्म है!
इसलिए तो
पारसी दूसरे
धार्मिकों को
धार्मिक नहीं
मालूम होते।
नाचते—गाते, प्रसन्न!
जरथुस्त्र का
धर्म हंसता
हुआ धर्म है; जीवन के स्वीकार
का धर्म है; निषेध नहीं
है, त्याग
नहीं है।
तुमने कोई
पारसी साधु
देखा—नंग—धड़ंग
खड़ा हो जाये, छोड़ दे, धूप
में खड़ा हो
जाये, धूनी
रमा कर बैठ
जाये? नहीं,
पारसी—धर्म
में जीवन को
सताने, कष्ट
देने की कोई
व्यवस्था
नहीं है।
जरथुस्त्र का
सारा संदेश
यही है कि जब
हंसते हुए
परमात्मा को
पाया जा सकता
है तो रोते
हुए क्यों
पाना? जब
नाचते हुए
पहुंच सकते
हैं उस मंदिर
तक तो नाहक
काटे क्यों
बोने? जब
फूलों के साथ
जाना हो सकता
है तो यह
दुखवाद क्यों?
इसलिए ठीक
है, प्रतीक
ठीक है कि
जरथुस्त्र
पैदा होते ही हंसे।
इन
कथाओं में इतिहास
मत खोजना। ऐसा
हुआ है—ऐसा
नहीं है।
लेकिन इन
कथाओं में एक
बड़ा गहरा अर्थ
है।
तुम्हारे
पास एक बीज
पड़ा है। जब
तुम बीज को
देखते हो तो
इससे पैदा
होने वाले फूल
की कोई भी तो
खबर नहीं
मिलती। यह
क्या हो सकता
है,
इसकी भनक भी
तो नहीं आती।
यह कमल बनेगा,
खिलेगा, जल
में रहेगा और
जल से अछूता
रहेगा, सूरज
की किरणों पर
नाचेगा और
सूरज भी
ईर्ष्यालु
होगा—इसके
सौंदर्य से, इसकी कोमलता
से, इसकी
अपूर्व गरिमा,
इसके
प्रसाद से, इसकी सुगंध
आकाश में
उड़ेगी—यह बीज
को देख कर तो
पता भी नहीं
चलता। बीज को
तो देख कर
इसकी कोई
कल्पना भी
नहीं कर सकता,
अनुमान भी
नहीं कर सकता।
लेकिन एक दिन
यह घटता है।
तो
दो तरह से हम
सोच सकते हैं।
या तो हम बीज
को पकड़ लें
जोर से और हम
कहें, जो बीज
में दिखाई
नहीं पड़ा वह
कमल में भी घट
नहीं सकता। यह
भ्रम है। यह
धोखा है। यह
झूठ है।
जिनको
हम तर्कनिष्ठ
कहते हैं, संदेहशील
कहते हैं, उनका
यही आधार है।
वे कहते हैं, जो बीज में
नहीं दिखायी
पड़ा वह फूल
में हो नहीं
सकता; कहीं
भ्रांति हो
रही है।
इसलिए
संदेहशील
व्यक्ति
बुद्ध को मान
नहीं पाता; महावीर
को स्वीकार
नहीं कर पाता;
जीसस को
अंगीकार नहीं
कर पाता।
क्योंकि वे
कहते हैं, हमने
जाना इनको।
जीसस
अपने गाव में
आये,
बड़े हैरान
हुए. गाव के
लोगों ने कोई
चिंता ही न की।
जीसस का
वक्तव्य है कि
पैगंबर की
अपने गांव में
पूजा नहीं
होती। कारण
क्या रहा होगा?
क्यों नहीं
होती गाव में
पूजा पैगंबर
की? गाव के
लोगों ने बचपन
से देखा : बढ़ई
जोसेफ का लड़का
है! लकड़ियां
ढोते देखा, रिंदा चलाते
देखा, लकड़ियां
चीरते देखा, पसीने से
लथपथ देखा, सड़कों पर
खेलते देखा, झगड़ते देखा।
गाव के लोग
इसे बचपन से
जानते हैं—बीज
की तरह देखा।
आज अचानक यह
हो कैसे सकता
है कि यह
परमात्मा का
पुत्र हो गया!
नहीं, जिसने
बीज को देखा
है, वह फूल
को मान नहीं
पाता। वह कहता
है, जरूर
धोखा होगा, बेईमानी
होगी। यह आदमी
पाखंडी है।
बुद्ध
अपने घर वापस
लौटे, तो पिता.
सारी दुनिया
को जो दिखाई
पड़ रहा था वह पिता
को दिखायी
नहीं पड़ा!
सारी दुनिया
अनुभव कर रही
थी एक प्रकाश,
दूर—दूर तक
खबरें जा रही
थीं, दूर
देशों से लोग
आने शुरू हो
गये थे; लेकिन
जब बुद्ध वापस
घर आये बारह
साल बाद, तो
पिता ने कहा
मैं तुझे अभी
भी क्षमा कर
सकता हूँ
यद्यपि तूने
काम तो बुरा
किया है, सताया
तो तूने हमें, अपराध तो
तूने किया है;
लेकिन मेरे
पास पिता का
हृदय है। मैं
माफ कर दूंगा।
द्वार तेरे
लिए खुले हैं।
मगर फेंक यह
भिक्षा का
पात्र! हटा यह
भिक्षु का
वेश! यह सब
नहीं चलेगा।
तू वापस लौट आ।
यह राज्य तेरा
है। मैं का हो
गया, इसको
कौन
सम्हालेगा? हो गया
बचपना बहुत, अब बंद करो
यह सब खेल!
बुद्ध
ने कहा. कृपा
कर मुझे देखें
तो! जो गया था वह
वापिस नहीं
आया है। यह
कोई और ही आया
है। जो आपके
घर पैदा हुआ
था वही वापिस
नहीं आया है।
यह कोई और ही
आया है। बीज
फूल हो कर आया
है। गौर से तो
देखो।
पिता
ने कहा, तू
मुझे सिखाने
चला है? पहले
दिन से, जब
तू पैदा हुआ
था, तबसे
तुझे जानता
हूं। किसी और
को धोखा देना।
किसी और को
समझा लेना, भ्रम में
डाल देना।
मुझे तू भ्रम
में न डाल
पायेगा। मैं
फिर कहता हूं।
मैं तुझे
भलीभांति
जानता हूं।
मुझे कुछ
सिखाने की
चेष्टा मत कर।
क्षमा करने को
मैं राजी हूं।
बुद्ध
ने कहा : आप, और
मुझे जानते
हैं! मैं तो
स्वयं को भी
नहीं जानता था।
अभी—अभी
किरणें उतरी
हैं और स्वयं
को जाना हूं।
क्षमा करें!
लेकिन यह मुझे
कहना ही पड़ेगा
कि जिसको आपने
देखा, वह
मैं नहीं हूं।
और जहां तक
आपने देखा, वह मैं नहीं
हूं। बाहर—बाहर
आपने देखा, भीतर आपने
कहां देखा? मैं आपसे
पैदा हुआ हूं
लेकिन आपने
मुझे निर्मित
नहीं किया।
मैं आपसे आया
हूं जैसे एक
रास्ते से कोई
राहगीर आता है,
लेकिन
रास्ता और
राहगीर का
क्या लेना—देना?
कल रास्ता
कहने लगे कि
मैं तुझे
पहचानता हूं तू
मेरे से ही तो
होकर आया है—ऐसे
ही आप कह रहे
हैं। आपके
पहले भी मैं
था। जन्मों—जन्मों
से मेरी
यात्रा चल रही
है। आपसे
गुजरा जरूर
हूं ऐसा मैं
औरों से भी
गुजरा हूं। और
भी मेरे पिता
थे, और भी
मेरी माताएं
थीं। लेकिन
मेरा होना बडा
अलग— थलग है।
कठिन
है बहुत, अति
कठिन है! अगर
बीज देखा तो
फूल पर भरोसा
नहीं आता।
एक
तो ढंग है
अश्रद्धालु
का,
तर्कवादी
का, संदेहशील
का, कि वह
कहता है कि
बीज को हम
पहचानते हैं,
तो फूल हो
नहीं सकता। हम
कीचड़ को जानते
हैं, उस
कीचड़ से कमल
हो कैसे सकता
है? सब गलत!
सपना होगा।
भ्रांति होगी।
किसी मोह—जाल
में पड़ गये
होओगे। किसी
ने धोखा दे
दिया। कोई
जादू कोई
तिलिस्म। एक
तो यह रास्ता
है।
एक
रास्ता है
श्रद्धालु का—प्रेमी
का,
भक्त का, सहानुभूति
से भरे हृदय
का—वह फूल को
देखता है और
फूल से पीछे
की तरफ यात्रा
करता है। वह
कहता है, जब
फूल में ऐसी
सुगंध हुई, जब फूल में
ऐसी विभा
प्रगट हुई, जब फूल में
ऐसी प्रतिभा,
जब फूल में
ऐसा कुंआरापन
दिखा, तो
जरूर बीज में
भी रहा होगा।
क्योंकि जो
फूल में हुआ है
वह बीज में न
हो, तो हो
ही नहीं सकता।
ये
सारी कथाएं
घटी हैं, ऐसा
नहीं।
जिन्होंने
अष्टावक्र के
फूल को देखा, उनको यह
खयाल में आया
कि जो आज हुआ
है वह कल भी रहा
होगा—छिपा था,
अवगुंठित
था, परदे
में पड़ा था।
जो आज है, अंत
में है, वह
प्रथम भी रहा
होगा। जो
मृत्यु के
क्षण में
दिखायी पड़ रहा
है, वह
जन्म के क्षण
में भी मौजूद
रहा होगा; अन्यथा
पैदा कैसे
होता!
तो
एक तो ढंग है
फूल से पीछे
की तरफ देखना, और
एक है बीज से
आगे की तरफ
देखना। गौर से
देखो तो दोनों
में सार—सूत्र
एक ही है, दोनों
की
आधारभित्ति
एक ही है; लेकिन
कितना जमीन— आसमान
का अंतर हो
जाता है! जो
बीज वाला है, वह भी यह कह
रहा है कि जो
बीज में नहीं
है वह फूल में
कैसे हो सकता
है! यह उसका
तर्क है। फूल
वाला भी यही
कह रहा है। वह
कह रहा है, जो
फूल में है वह
बीज में भी
होना ही चाहिए।
दोनों का तर्क
तो एक है।
लेकिन दोनों
के देखने के
ढंग अलग हैं।
बड़ी अड़चन है!
मुझसे
कोई पूछता था
कि आपके साथ
बचपन में बहुत
लोग पढ़े होंगे—स्कूल
में,
कालेज में—वे
दिखायी नहीं
पड़ते! वे कैसे
दिखायी पड़
सकते हैं!
उनको बड़ी अड़चन
है। वे भरोसा
नहीं कर सकते।
अति कठिन है
उन्हें।
कल
ही मेरे पास
रायपुर से
किसी ने एक
अखबार भेजा।
श्री हरिशंकर
परसाई ने एक
लेख मेरे
खिलाफ लिखा है।
वे मुझे जानते
हैं,
कालेज के
दिनों से
जानते हैं।
हिंदी के
मूर्धन्य
व्यंग्यलेखक
हैं। मेरे मन
में उनकी
कृतियों का
आदर है। लेख
में उन्होंने
लिखा है कि
जबलपुर की हवा
में कुछ खराबी
है। यहां
धोखेबाज और
धूर्त ही पैदा
होते हैं—जैसे
रजनीश, महेश
योगी, मूंदड़ा।
तीन नाम
उन्होंने
गिनाए।
धन्यवाद उनका,
कम से कम
मेरा नाम नंबर
एक तो गिनाया।
इतनी याद तो
रखी! एकदम
बिसार नहीं
दिया। बिलकुल
भूल गये हों, ऐसा नहीं है।
लेकिन
अड़चन
स्वाभाविक है, सीधी—साफ
है। मैं उनकी
बात समझ सकता
हूं। यह असंभव
है—बीज को
देखा तो फूल
में भरोसा!
फिर
जिन्होंने फूल
को देखा, उन्हें
बीज में भरोसा
मुश्किल हो
जाता है। तो
सभी
महापुरुषों
की जीवन—कथाएं
दो ढंग से
लिखी जाती हैं।
जो उनके
विपरीत हैं, वे बचपन से
यात्रा शुरू
करते हैं; जो
उनके पक्ष में
हैं, वे
अंत से यात्रा
शुरू करते हैं
और बचपन की तरफ
जाते हैं।
दोनों एक अर्थ
में सही हैं।
लेकिन जो बचपन
से यात्रा
करके अंत की
तरफ जाते हैं,
वे वंचित रह
जाते हैं।
उनका सही होना
उनके लिए
आत्मघाती है,
जो अंत से
यात्रा करते
हैं और पीछे
की तरफ जाते
हैं, वे
धन्यभागी हैं।
क्योंकि बहुत
कुछ उन्हें
अनायास मिल
जाता है, जो
कि पहले
तर्कवादियो
को नहीं मिल
पाता।
अब
न केवल मैं
गलत मालूम
होता हूं मेरे
कारण जबलपुर
तक की हवा
उनको गलत
मालूम होती
है. कुछ भूल
हवा—पानी में
होनी चाहिए!
यद्यपि मैं
उनको कहना चाहूंगा, जबलपुर
को कोई हक नहीं
है मेरे संबंध
में हवा—पानी
को अच्छा या
खराब तय करने
का। जबलपुर से
मेरा कोई बहुत
नाता नहीं है।
थोड़े दिन वहां
था। महेश योगी
भी थोड़े दिन वहां
थे। उनका भी
कोई नाता नहीं
है। हम दोनों
का नाता किसी
और जगह से है।
उस जगह के लोग
इतने सोए हैं
कि उन्हें अभी
खबर ही नहीं
है। महेश योगी
और मेरा जन्म
पास ही पास
हुआ। दोनों
गाडरवाड़ा के
आस—पास पैदा
हुए। उनका
जन्म चीचली
में हुआ, मेरा
जन्म कुछवाड़े
में हुआ। अगर
हवा—पानी खराब
है तो वहां का
होगा। इसका
दुख गाडरवाड़ा
को होना चाहिए—कभी
होगा। या सुख...।
जबलपुर को
इसमें बीच में
आना नहीं
चाहिए।
लेकिन
मन कैसे तर्क
रचता है!
अब
जो अष्टावक्र
की कथा को
देखेगा, वह
सुनते से ही
कह देगा : 'गलत!
असंभव!' यह
तो कथा
जिन्होंने
लिखी है उनको
भी पता है कि
कहीं कोई गर्भ
से बोलता है!
वे तो केवल
इतना कह रहे
हैं कि जो
आखिर में
प्रगट हुआ वह
गर्भ में
मौजूद रहा
होगा; जो
वाणी आखिर में
खिली वह किसी
न किसी गहरे
तल पर गर्भ
में भी मौजूद
रही होगी, अन्यथा
खिलती कहां से,
आती कहां से?
शून्य से
थोड़े ही कुछ
आता है! हर चीज
के पीछे कारण
है। नहीं देख
पाये हों हम, लेकिन था तो
मौजूद। ये
सारी कथाएं
इसी का सूचन
देती हैं।
अष्टावक्र
के संबंध में
दूसरी बात जो
ज्ञात है, वह
है जब वे बारह
वर्ष के थे।
बस दो ही
बातें ज्ञात
हैं। तीसरी
उनकी
अष्टावक्र—गीता
है; या कुछ
लोग कहते हैं 'अष्टावक्र—संहिता'। जब वे बारह
वर्ष के थे तो
एक बड़ा विशाल
शास्त्रार्थ
जनक ने रचा।
जनक सम्राट थे
और उन्होंने
सारे देश के
पंडितों को
निमंत्रण
दिया। और
उन्होंने एक
हजार गायें
राजमहल के
द्वार पर खड़ी
कर दीं और उन
गायों के
सींगों पर
सोना मढ़ दिया
और हीरे—जवाहरात
लटका दिये, और कहा, 'जो
भी विजेता
होगा वह इन
गायों को हांक
कर ले जाये।’
बड़ा
विवाद हुआ!
अष्टावक्र के
पिता भी उस
विवाद में गये।
खबर आई सांझ
होते—होते कि
पिता हार रहे
हैं। सबसे तो
जीत चुके थे, वंदिन
नाम के एक
पंडित से हारे
जा रहे हैं।
यह खबर सुन कर
अष्टावक्र भी
राजमहल पहुंच
गया। सभा सजी
थी। विवाद
अपनी आखिरी
चरम अवस्था
में था।
निर्णायक घड़ी
करीब आती थी।
पिता के हारने
की स्थिति
बिलकुल पूरी
तय हो चुकी थी।
अब हारे तब
हारे की
अवस्था थी।
अष्टावक्र
दरबार में
भीतर चला गया।
पंडितों ने
उसे देखा।
महापंडित
इकट्ठे थे!
उसका आठ अंगों
से टेढ़ा—मेढ़ा
शरीर! वह चलता
तो भी देख कर
लोगों को हंसी
आती। उसका
चलना भी बड़ा
हास्यास्पद
था। सारी सभा
हंसने लगी।
अष्टावक्र भी
खिलखिला कर
हंसा। जनक ने
पूछा. 'और सब
हंसते हैं, वह तो मैं
समझ गया क्यों
हंसते हैं, लेकिन बेटे,
तू क्यों
हंसा?'
अष्टावक्र
ने कहा. 'मैं
इसलिए हंस रहा
हूं कि इन
चमारों की सभा
में सत्य का
निर्णय हो रहा
है!' बड़ा...
आदमी अनूठा
रहा होगा! 'ये
चमार यहां
क्या कर रहे
हैं?'
सन्नाटा
छा गया!.. चमार!
सम्राट ने
पूछा. 'तेरा
मतलब?' उसने
कहा: 'सीधी—सी
बात है। इनको
चमड़ी ही
दिखायी पड़ती
है, मैं
नहीं दिखायी
पड़ता। मुझसे
सीधा—सादा
आदमी खोजना
मुश्किल है, वह तो इनको
दिखायी ही
नहीं पड़ता; इनको आड़ा—टेढ़ा
शरीर दिखायी
पड़ता है। ये
चमार हैं! ये
चमड़ी के पारखी
हैं। राजन, मंदिर के
टेढ़े होने से
कहीं आकाश
टेढ़ा होता है?
घड़े के फूटे
होने से कहीं
आकाश फूटता है?
आकाश तो
निर्विकार है।
मेरा शरीर
टेढ़ा—मेढ़ा है,
लेकिन मैं
तो नहीं। यह
जो भीतर बसा
है इसकी तरफ
तो देखो! इससे
तुम सीधा—सादा
और कुछ खोज न
सकोगे।’
यह
बड़ी चौंकाने
वाली घोषणा थी, सन्नाटा
छा गया होगा।
जनक प्रभावित
हुआ, झटका
खाया।
निश्चित ही
कहां चमारों
की भीड़ इकट्ठी
करके बैठा है!
खुद पर भी
पश्चात्ताप
हुआ, अपराध
लगा कि मैं भी
हंसा। उस दिन
तो कुछ न कहते
बना, लेकिन
दूसरे दिन
सुबह जब सम्राट
घूमने निकला
था तो राह पर
अष्टावक्र
दिखायी पड़ा।
उतरा घोड़े से,
पैरों में
गिर पड़ा। सबके
सामने तो
हिम्मत न जुटा
पाया, एक
दिन पहले। एक
दिन पहले तो
कहा था, 'बेटे,
तू क्यों
हंसता है?' बारह
साल का लड़का
था। उम्र तौली
थी। आज उम्र
नहीं तौली। आज
घोड़े से उतर
गया, पैर
पर गिर पड़ा—साष्टांग
दंडवत! और कहा :
पधारें
राजमहल, मेरी
जिज्ञासाओं
का समाधान
करें! हे
प्रभु, आयें
मेरे घर! बात
मेरी समझ में
आ गई है! रात भर
मैं सो न सका।
ठीक ही कहा :
शरीर को ही जो
पहचानते हैं
उनकी पहचान
गहरी कहां!
आत्मा के
संबंध में
विवाद कर रहे
हैं, और
अभी भी शरीर
में रस और
विरस पैदा
होता है, घृणा,
आकर्षण
पैदा होता है!
मर्त्य को देख
रहे हैं, अमृत
की चर्चा करते
हैं! धन्यभाग
मेरे कि आप आये
और मुझे
चौंकाया! मेरी
नींद तोड़ दी!
अब पधारो!
राजमहल
में उसने बड़ी
सजावट कर रखी
थी। स्वर्ण—सिंहासन
पर बिठाया था
इस बारह साल
के अष्टावक्र
को और उससे
जिज्ञासा की।
पहला सूत्र
जनक की
जिज्ञासा है।
जनक ने पूछा
है,
अष्टावक्र
ने समझाया है।
इससे
ज्यादा
अष्टावक्र के
संबंध में और
कुछ पता नहीं
है—और कुछ पता
होने की जरूरत
भी नहीं है।
काफी है, इतना
बहुत है। हीरे
बहुत होते भी
नहीं, कंकड़—पत्थर
ही बहुत होते
हैं। हीरा एक
भी काफी होता
है। ये दो
छोटी—सी
घटनाएं हैं।
एक
तो जन्म के
पहले की : गर्भ
से आवाज और
घोषणा कि 'क्या
पागलपन में
पड़े हो? शास्त्र
में उलझे हो, शब्द में
उलझे हो? जागो!
यह ज्ञान नहीं
है, यह सब
उधार है। यह
सब बुद्धि का
ही जाल है, अनुभव
नहीं है।
इसमें
रंचमात्र भी
सार नहीं है।
कब तक अपने को
भरमाये रखोगे?'
और
दूसरी घटना :
राजमहल में
हंसना
पंडितों का और
कहना
अष्टावक्र का, कि
जीवन में
देखने की दो
दृष्टियां
हैं—एक आत्म—दृष्टि,
एक चर्म—दृष्टि।
चमार चमड़ी को
देखता है।
प्रज्ञावान
आत्मा को देखता
है।
तुमने
गौर किया? चमार
तुम्हारे
चेहरे की तरफ
देखता ही नहीं,
वह जूते को
ही देखता है।
असल में चमार
जूते को देख
कर सब पहचान
लेता है तुम्हारे
संबंध में कि
आर्थिक हालत
कैसी है; सफलता
मिल रही है कि
विफलता मिल
रही है, भाग्य
कैसा चल रहा
है। वह सब
जूते में लिखा
है। जूते की
सिलवटें कह
देती हैं।
जूते की दशा
कह देती है।
जूते में
तुम्हारी
आत्मकथा लिखी
है। चमार पढ़
लेता है। जूते
में चमक, जूते
का ताजा और
नया होना, चमार
तुमसे
प्रसन्नता से
मिलता है।
जूता ही उसके
लिए तुम्हारी
आत्मा का सबूत
है।
दर्जी
कपड़े देखता है।
तुम्हारा कोट—कपड़ा
देख कर समझ
लेता है, हालत
कैसी है।
सबकी
अपनी बंधी हुई
दृष्टियां
हैं।
सिर्फ
आत्मवान ही
आत्मा को
देखता है।
उसकी कोई
दृष्टि नहीं
है। उसके पास
दर्शन है।
एक
छोटी घटना और—जों
अष्टावक्र के
जीवन से
संबंधित नहीं, रामकृष्ण
और विवेकानंद
के जीवन से
संबंधित है, लेकिन
अष्टावक्र से
उसका जोड़ है—फिर
हम सूत्रों
में प्रवेश
करें।
विवेकानंद
रामकृष्ण के
पास आये, तब
उनका नाम 'नरेंद्रनाथ'
था।’विवेकानंद'
तो बाद में
रामकृष्ण ने
उनको पुकारा।
जब आये
रामकृष्ण के
पास तो अति
विवादी थे, नास्तिक थे,
तर्कवादी
थे। हर चीज के
लिए प्रमाण
चाहते थे।
कुछ
चीजें हैं
जिनके लिए कोई
प्रमाण नहीं—मजबूरी
है। परमात्मा
के लिए कोई
प्रमाण नहीं
है;
है और
प्रमाण नहीं
है। प्रेम के
लिए कोई
प्रमाण नहीं
है; है और
प्रमाण नहीं
है। सौंदर्य
के लिए कोई
प्रमाण नहीं
है; है और
प्रमाण नहीं
है।
अगर
मैं कहूं देखो
ये खजूरिना के
वृक्ष कैसे
सुंदर हैं, और
तुम कहो, 'हमें
तो कोई
सौंदर्य
दिखायी नहीं
पड़ता। वृक्ष
जैसे वृक्ष
हैं। सिद्ध
करें।’मुश्किल
हो जायेगी।
कैसे सिद्ध
करें कि सुंदर
हैं! सुंदर
होने के लिए
सौंदर्य की
परख चाहिए—और
तो कोई उपाय
नहीं। आंख
चाहिए—और तो
कोई उपाय नहीं।
कहते
हैं,
मजनू ने कहा
कि लैला को
जानना हों तो
मजनू की आंख
चाहिए। ठीक
कहा। लैला को
देखने का और
कोई उपाय ही
नहीं।
मजनू
को बुलाया था
उसके गाव के
राजा ने और
कहा था. तू
पागल है! मैं
तेरी लैला को
जानता हूं साधारण—सी
लड़की है, काली—कलूटी,
कुछ खास
नहीं। तुझ पर
मुझे दया आती
है। ये मेरे
राजमहल की
बारह लड़कियां
खड़ी हैं, ये
इस देश की
सुंदरतम
स्त्रियां
हैं, इनमें
से तू कोई भी
चुन ले। यह
तुझे रोते देख
कर मेरा भी
प्राण रोता है।
उसने
देखा और उसने
कहा. इनमें तो
लैला कोई भी नहीं।
ये लैला के
मुकाबले तो
दूर,
उसके चरण की
धूल भी नहीं।
सम्राट
कहने लगा.
मजनू तू पागल
है।
मजनू
ने कहा : यह हो
सकता है।
लेकिन एक बात
आपसे कहना
चाहता हूं—लैला
को देखना हो
तो मजनू की आंख
चाहिए। ठीक
कहा मजनू ने।
अगर
वृक्षों के
सौंदर्य को
देखना हो तो
कला की आंख
चाहिए—और कोई
प्रमाण नहीं
है। अगर किसी
के प्रेम को
पहचानना हो तो
प्रेमी का
हृदय चाहिए—और
कोई प्रमाण
नहीं है। और
परमात्मा तो
इस जगत के
सारे सौंदर्य
और सारे प्रेम
और सारे सत्य
का इकट्ठा नाम
है। उसके लिए
तो ऐसा
निर्विकार
चित्त चाहिए, ऐसा
साक्षी— भाव
चाहिए, जहां
कोई शब्द न रह
जाये, कोई
विचार न रह
जाये, कोई
तरंग न उठे।
वहां कोई धूल
न रह जाये मन
की और चित्त
का दर्पण
परिपूर्ण
शुद्ध हो!
प्रमाण कहां?
रामकृष्ण
से विवेकानंद
ने कहा :
प्रमाण चाहिए।
है परमात्मा
तो प्रमाण दें।
और
विवेकानंद को
देखा
रामकृष्ण ने।
बड़ी थी
संभावनाएं इस
युवक की। बड़ी
थी यात्रा
इसके भविष्य
की। बहुत कुछ
होने को पड़ा
था इसके भीतर।
बड़ा खजाना था, उससे
यह अपरिचित है।
रामकृष्ण ने
देखा, इस
युवक के पिछले
जन्मों में
झांका। यह बड़ी
संपदा, बड़े
पुण्य की
संपदा ले कर आ
रहा है। यह
ऐसे ही तर्क
में दबा न रह
जाये। कराह
उठा होगा पीड़ा
और करुणा से
रामकृष्ण का हृदय।
उन्होंने कहा,
'छोड़, प्रमाण
वगैरह बाद में
सोच लेंगे।
मैं जरा बूढ़ा
हुआ, मुझे
पढ़ने में अड़चन
होती है। तू
अभी जवान, तेरी
आंख अभी तेज—यह
किताब पड़ी है,
इसे तू पढ़।’
वह थी
अष्टावक्र—गीता।’ जरा मुझे
सुना दे।'
कहते
हैं,
विवेकानंद
को इसमें तो
कुछ अड़चन न
मालूम पड़ी, यह आदमी कुछ
ऐसी तो कोई
खास बात नहीं
मांग रहा है!
दो—चार सूत्र
पढ़े और एक
घबड़ाहट, और
रोआं—रोआं
कंपने लगा! और
विवेकानंद ने
कहा, मुझसे
नहीं पढ़ा जाता।
रामकृष्ण ने
कहा : पढ़ भी!
इसमें हर्ज
क्या है? तेरा
क्या बिगाड़
लेगी यह किताब?
तू जवान है
अभी। तेरी आंख
अभी ताजी हैं।
और मैं बूढ़ा
हुआ, मुझे
पढ़ने में
दिक्कत होती
है। और यह
किताब मुझे
पढ़नी है तो तू
पढ़ कर सुना दे।
कहते
हैं उस किताब
को सुनाते—सुनाते
ही विवेकानंद
डूब गये।
रामकृष्ण ने
देखा इस
व्यक्ति के
भीतर बड़ी संभावना
है,
बड़ी शुद्ध
संभावना है, जैसी एक
बोधिसत्व की
होती है जो कभी
न कभी बुद्ध
होना जिसका
निर्णीत है, आज नहीं कल, भटके कितना
ही, बुद्धत्व
जिसके पास चला
आ रहा है।
क्यों
अष्टावक्र की
गीता
रामकृष्ण ने
कही कि तू पढ़
कर मुझे सुना
दे? क्योंकि
इससे ज्यादा शुद्धतम
वक्तव्य और
कोई नहीं। ये
शब्द भी अगर
तुम्हारे
भीतर पहुंच
जायें तो तुम्हारी
सोयी हुई
आत्मा को
जगाने लगेंगे।
ये शब्द
तुम्हें
तरंगायित
करेंगे। ये
शब्द तुम्हें
आह्लादित
करेंगे। ये
शब्द तुम्हें
झकझोरेंगे।
इन शब्दों के
साथ क्रांति
घटित हो सकती
है।
अष्टावक्र
की गीता को
मैंने यूं ही
नहीं चुना है।
और जल्दी नहीं
चुना—बहुत देर
करके चुना है, सोच—विचार
कर। दिन थे, जब मैं
कृष्ण की गीता
पर बोला, क्योंकि
भीड़— भाड़ मेरे
पास थी। भीड़—
भाड़ के लिए
अष्टावक्र—गीता
का कोई अर्थ न
था। बड़ी
चेष्टा करके
भीड़— भाड़ से
छुटकारा पाया
है। अब तो
थोड़े—से
विवेकानंद
यहां हैं। अब
तो उनसे बात
करनी है, जिनकी
बड़ी संभावना
है। उन थोड़े
से लोगों के
साथ मेहनत
करनी है, जिनके
साथ मेहनत का
परिणाम हो
सकता है। अब
हीरे तराशने
हैं, कंकड़—पत्थरों
पर यह छैनी
खराब नहीं
करनी। इसलिए
चुनी है
अष्टावक्र की
गीता। तुम
तैयार हुए हो,
इसलिए चुनी
है।
पहला
सूत्र :
जनक
ने कहा, 'हे
प्रभो, पुरुष
ज्ञान को कैसे
प्राप्त होता
है। और मुक्ति
कैसे होगी और
वैराग्य कैसे
प्राप्त होगा?
यह मुझे
कहिए! एतत मम
लूहि प्रभो!
मुझे समझायें
प्रभो!'
बारह
साल के लड़के
से सम्राट जनक
का कहना है : 'हे
प्रभु! भगवान!
मुझे समझायें!
एतत
मम लूहि!
मुझ
नासमझ को कुछ
समझ दें! मुझ
अज्ञानी को
जगायें!' तीन
प्रश्न पूछे
हैं—
'कथं
ज्ञानम्! कैसे
होगा ज्ञान!'
साधारणत:
तो हम सोचेंगे
कि 'यह भी कोई
पूछने की बात
है? किताबों
में भरा पड़ा
है।’ जनक
भी जानता था।
जो किताबों
में भरा पड़ा
है, वह
ज्ञान नहीं; वह केवल
ज्ञान की धूल
है, राख है!
ज्ञान की ज्योति
जब जलती है तो
पीछे राख छूट
जाती है। राख
इकट्ठी होती
चली जाती है, शास्त्र बन
जाती है। वेद
राख हैं—कभी
जलते हुए
अंगारे थे।
ऋषियों ने
उन्हें अपनी
आत्मा में
जलाया था। फिर
राख रह गये।
फिर राख
संयोजित की
जाती है, संगृहीत
की जाती है, सुव्यवस्थित
की जाती है। जैसे
जब आदमी मर
जाता है तो हम
उसकी राख
इकट्ठी कर
लेते हैं—उसको
फूल कहते हैं।
बड़े मजेदार
लोग हैं!
जिंदगी में
जिसको फूल नहीं
कहा, उसकी
हड्डिया—वड्डिया
इकट्ठी कर
लाते हैं—कहते
हैं, 'फूल
संजो लाये'! फिर सम्हाल
कर रखते हैं, मंजूषा
बनाते हैं।
जिसको जिंदगी
में कभी फूल
का आदर नहीं
दिया, जिसको
जिंदगी में
कभी फूल की
तरह देखा नहीं,
जब मर जाता
है—आदमी पागल
है—तब उसकी
हड्डी को, राख
को फूल कहते
हैं!
ऐसे
ही जब कोई
बुद्ध जीवित
होता है, तब
तुम सुनते
नहीं। जब कोई
महावीर
तुम्हारे बीच
से गुजरता है,
तब तुम
नाराज होते हो।
लगता है, यह
आदमी
तुम्हारे
सपने तोड़ रहा
है, या
तुम्हारी
नींद में दखल
डाल रहा है।’यह कोई
जगाने का वक्त
है? अभी—अभी
तो सपना आना
शुरू हुआ था; अभी—अभी तो
जरा जीतना
शुरू किया था
जिंदगी में; अभी—अभी तो
दाव ठीक लगने
लगे थे, तीर
ठीक—ठीक जगह
पड़ने लगा था—और
ये सज्जन आ
गये! ये कहते
हैं, सब
असार है! अभी—अभी
तो चुनाव जीते
थे:, पद पर
पहुंचने का
रास्ता बना था—और
ये महापुरुष आ
गये! ये कहते
हैं, यह सब
सपना है, इसमें
कुछ सार नहीं;
मौत आयेगी,
सब छीन
लेगी! और छोड़ो
भी, जब मौत
आयेगी
तब
देखेंगे, बीच
में तो इस तरह
की बातें मत
उठाओ!'
लेकिन
जब महावीर मर
जाते, बुद्ध
मर जाते, तब
उनकी राख को
हम इकट्ठी कर
लेते हैं। फिर
हम धम्मपद
बनाते हैं, वेद बनाते
हैं। फिर हम
पूजा के फूल
चढ़ाते हैं।
जनक
भी जानता था
कि शास्त्रों
में सूचनाएं
भरी पड़ी हैं।
लेकिन उसने
पूछा, 'कथं
ज्ञानम्? कैसे
होगा ज्ञान?' क्योंकि कितना
ही जान लो, ज्ञान
तो होता ही
नहीं। जानते
जाओ, जानते
जाओ, शास्त्र
कंठस्थ कर लो,
तोते बन जाओ,
एक—एक सूत्र
याद हो जाये, पूरे वेद
स्मृति में छप
जायें—फिर भी
ज्ञान तो होता
नहीं।
'कथं ज्ञानम्?
कैसे
होगा ज्ञान? कथं
मुक्ति? मुक्ति
कैसे होगी?'
क्योंकि
जिसको तुम
ज्ञान कहते हो, वह
तो बांध लेता
उलटे, मुक्त
कहां करता? ज्ञान तो
वही है जो
मुक्त करे।
जीसस ने कहा
है, सत्य
वही है जो
मुक्त करे।
ज्ञान तो वही
है जो मुक्त
करे—यह ज्ञान
की कसौटी है।
पंडित मुक्त
तो दिखाई नहीं
पड़ता, बंधा
दिखाई पड़ता है।
मुक्ति की
बातें करता है,
मुक्त
दिखाई नहीं
पड़ता; हजार
बंधनों में
बंधा हुआ
मालूम पड़ता है।
तुमने
कभी गौर किया, तुम्हारे
तथाकथित संत
तुमसे भी
ज्यादा बंधे हुए
मालूम पड़ते
हैं! तुम शायद
थोड़े—बहुत
मुक्त भी हो, तुम्हारे
संत तुमसे भी
ज्यादा बंधे
हैं। लकीर के
फकीर हैं, न
उठ सकते
स्वतंत्रता से,
न बैठ सकते
स्वतंत्रता
से, न जी
सकते
स्वतंत्रता
से।
कुछ
दिनों पहले
कुछ जैन
साध्वियों की
मेरे पास खबर
आई कि वे
मिलना चाहती
हैं,
मगर श्रावक
आने नहीं देते।
यह भी बड़े मजे
की बात हुई!
साधु का अर्थ
होता है, जिसने
फिक्र छोड़ी
समाज की; जो
चल पड़ा अरण्य
की यात्रा पर;
जिसने कहा,
अब न
तुम्हारे आदर
की मुझे जरूरत
है न सम्मान की।
लेकिन साधु—साध्वी
कहते हैं, 'श्रावक
आने नहीं
देते! वे कहते
हैं, वहां
भूल कर मत
जाना। वहां
गये तो यह
दरवाजा बंद!' यह कोई
साधुता हुई? यह तो
परतंत्रता
हुई, गुलामी
हुई। यह तो
बड़ी उलटी बात
हुई। यह तो
ऐसा हुआ कि
साधु श्रावक
को बदले, उसकी
जगह श्रावक
साधु को बदल
रहा है। एक
मित्र ने आ कर
मुझे कहा कि
एक जैन साध्वी
आपकी किताबें
पढ़ती है, लेकिन
चोरी से; टेप
भी सुनना
चाहती है, लेकिन
चोरी से। और
अगर कभी किसी
के सामने आपका
नाम भी ले दो
तो वह इस तरह
हो जाती है जैसे
उसने कभी आपका
नाम सुना ही
नहीं।
यह
मुक्ति हुई?
जनक
ने पूछा, 'कथं
मुक्ति?
कैसे
होती मुक्ति? क्या
है मुक्ति? उस ज्ञान को
मुझे समझायें,
जो मुक्त कर
देता है।’
स्वतंत्रता
मनुष्य की
सबसे
महत्वपूर्ण आकांक्षा
है। सब पा लो, लेकिन
गुलामी अगर
रही तो छिदती
है। सब मिल
जाये, स्वतंत्रता
न मिले तो कुछ
भी नहीं मिला।
मनुष्य चाहता
है खुला आकाश।
कोई सीमा न हो!
वह मनुष्य की
अंतरतम, निगढ़तम
आकांक्षा है,
जहां कोई
सीमा न हो, कोई
बाधा न हो।
इसी को
परमात्मा
होने की आकांक्षा
कहो, मोक्ष
की आकांक्षा
कहो।
हमने
ठीक शब्द चुना
है 'मोक्ष'; दुनिया
की किसी भाषा
में ऐसा
प्यारा शब्द
नहीं है।
स्वर्ग, फिरदौस—इस
तरह के शब्द
हैं, लेकिन
उन शब्दों में
मोक्ष की कोई
धुन नहीं है।
मोक्ष का
संगीत ही
अनूठा है।
उसका अर्थ ही
केवल इतना है :
ऐसी परम
स्वतंत्रता
जिस पर कोई
बाधा नहीं है;
स्वतंत्रता
इतनी शुद्ध कि
जिस पर कोई
सीमा नहीं है।
पूछा
जनक ने, 'कैसे
होगी मुक्ति
और कैसे होगा
वैराग्य? हे
प्रभु, मुझे
समझा कर कहिए!'
अष्टावक्र
ने गौर से
देखा होगा जनक
की तरफ; क्योंकि
गुरु के लिए
वही पहला काम
है कि जब कोई
जिज्ञासा करे
तो वह गौर से
देखे. 'जिज्ञासा
किस स्रोत से
आती है? पूछने
वाले ने क्यों
पूछा है?' उत्तर
तो तभी सार्थक
हो सकता है जब
प्रश्न क्यों
किया गया है, वह समझ में आ
जाये, वह
साफ हो जाए।
ध्यान
रखना, सदज्ञान
को उपलब्ध
व्यक्ति, सदगुरु
तुम्हारे
प्रश्न का
उत्तर नहीं
देता—तुम्हें
उत्तर देता
है! तुम क्या
पूछते हो, इसकी
फिक्र कम है; तुमने क्यों
पूछा है, तुम्हारे
पूछने के पीछे
अंतरचेतन में
छिपा हुआ जाल
क्या है, तुम्हारे
प्रश्नों की
आड़ में
वस्तुत: कौन—सी
आकांक्षा
छिपी है..!
दुनिया
में चार तरह
के लोग हैं—ज्ञानी, मुमुक्षु,
अज्ञानी, मूढ़। और
दुनिया में
चार ही तरह की जिज्ञासाए
होती हैं।
ज्ञानी की
जिज्ञासा तो
नि:शब्द होती
है। कहना
चाहिए, ज्ञानी
की जिज्ञासा
तो जिज्ञासा
होती ही नहीं—जान
लिया, जानने
को कुछ बचा
नहीं, पहुंच
गये, चित्त
निर्मल हुआ, शांत हुआ, घर लौट आये, विश्राम में
आ गये! तो
ज्ञानी की
जिज्ञासा तो जिज्ञासा
जैसी होती ही
नहीं। इसका यह
अर्थ नहीं कि
ज्ञानी सीखने
को तैयार नहीं
होता। ज्ञानी
तो सरल, छोटे
बच्चे की
भांति हो जाता
है—सदा तत्पर
सीखने को।
जितना
ज्यादा तुम
सीख लेते हो, उतनी
ही सीखने की
तत्परता बढ़
जाती है।
जितने तुम सरल
और निष्कपट
होते चले जाते
हो, उतने
ही सीखने के
लिए तुम खुल
जाते हो। आयें
हवाएं, तुम्हारे
द्वार खुले पाती
हैं। आये सूरज,
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक नहीं
देनी पड़ती।
आये परमात्मा,
तुम्हें
सदा तत्पर पाता
है।
ज्ञान—ज्ञान
को संगृहीत
नहीं करता; ज्ञानी
सिर्फ ज्ञान
की क्षमता को
उपलब्ध होता
है। इस बात को
ठीक से समझ
लेना, क्योंकि
पीछे यह काम
पड़ेगी।
ज्ञानी का
केवल इतना ही
अर्थ है कि जो
जानने के लिए
बिलकुल खुला
है; जिसका
कोई पक्षपात
नहीं, जानने
के लिए जिसके
पास कोई परदा
नहीं; जिसके
पास जानने के
लिए कोई पूर्व—नियोजित
योजना, ढांचा
नहीं। ज्ञानी
का अर्थ है
ध्यानी जो ध्यान
पूर्ण है।
तो
देखा होगा अष्टावक्र
ने गौर से, जनक
में झांक कर :
यह व्यक्ति
ज्ञानी तो
नहीं है। यह
ध्यान को तो
उपलब्ध नहीं
हुआ है।
अन्यथा इसकी
जिज्ञासा मौन
होती; उसमें
शब्द न होते।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है—एक
फकीर मिलने
आया। एक साधु
मिलने आया। एक
परिव्राजक घुमक्कड़।
उसने आकर
बुद्ध से कहा : 'पूछने
योग्य शब्द
मेरे पास नहीं।
क्या पूछना
चाहता हूं उसे
शब्दों में।
बांधने की
मेरे पास कोई
कुशलता नहीं।
आप तो जानते
ही हैं, समझ
लें। जो मेरे
योग्य हो,
कह दें।‘
यह
ज्ञानी की
जिज्ञासा है।
बुद्ध
चुप बैठे रहे, उन्होंने
कुछ भी न कहा।
घड़ी भर बाद, जैसे कुछ
घटा! वह जो
आदमी चुपचाप
बैठा बुद्ध की
तरफ देखता रहा
था, उसकी आंख
से आंसुओ की
धार लग गई, चरणों
में झुका
नमस्कार किया
और कहा, 'धन्यवाद!
खूब धन्यभागी
हूं! जो लेने
आया था, आपने
दिया।’वह
उठकर चला भी
गया। उसके
चेहरे पर
अपूर्व आभा थी।
वह नाचता हुआ
गया।
बुद्ध
के आसपास के
शिष्य बड़े
हैरान हुए।
आनंद ने पूछा. 'भंते!
भगवान! पहेली
हो गई। पहले
तो यह आदमी
कहता है कि
मुझे पता नहीं
कैसे पूछ— पता
नहीं किन
शब्दों में
पूछ— यह भी पता
नहीं क्या
पूछने आया हूर
फिर आप तो जानते
ही हैं सब; देख
लें मुझे; जो
मेरे लिए
जरूरी हो, कह
दें। पहले तो
यह आदमी ही
जरा पहेली था..
यह कोई ढंग हुआ
पूछने का! और
जब तुम्हें
यही पता नहीं
कि क्या पूछना
है तो पूछना
ही क्यों? पूछना
क्या? खूब
रही! फिर यहीं
बात खत्म न
हुई; आप
चुप बैठे सो
चुप बैठे रहे!
आपको ऐसा कभी
मौन देखा नहीं;
कोई पूछता
है तो आप
उत्तर देते
हैं। कभी—कभी
तो ऐसा होता
है कि कोई
नहीं भी पूछता
तो भी आप
उत्तर देते
हैं। आपकी
करुणा सदा
बहती रहती है।
क्या हुआ
अचानक कि आप
चुप रह गये और आंख
बंद हो गई? और
फिर क्या
रहस्यमय घटा
कि वह आदमी
रूपांतरित
होने लगा।
हमने उसे
बदलते देखा। हमने
उसे किसी और
ही रंग में
डूबते देखा।
उसमें मस्ती
आते देखी। वह
नाचते हुए गया
है—आंसुओ से
भरा हुआ, गदगद,
आह्लादित!
वह चरणों में
झुका। उसकी
सुगंध हमें भी
छुई। यह हुआ
क्या? आप
कुछ बोले नहीं,
उसने सुना
कैसे? और
हम तो इतने
दिनों से, वर्षों
से आपके पास
हैं, हम पर
आपकी कृपा कम
है क्या? यह
प्रसाद, जो
उसे दिया, हमें
क्यों नहीं
मिलता?'
लेकिन
ध्यान रहे, उतना
ही मिलता है
जितना तुम ले
सकते हो।
बुद्ध
ने कहा, 'सुनो।
घोड़े..।’आनंद
से घोड़े की
बात की, क्योंकि
आनंद
क्षत्रिय था,
बुद्ध का
चचेरा भाई था
और बचपन से ही
घोड़े का बड़ा
शौक था उसे, घुड़सवार था।
प्रसिद्ध
घुड़सवार था, प्रतियोगी
था बड़ा!
उन्होंने कहा,
'सुन आनंद!' बुद्ध ने
कहा : 'घोड़े
चार प्रकार के
होते हैं। एक
तो मारो भी तो
भी टस से मस
नहीं होते।
रही से रही
घोड़े! जितना
मारो उतना ही
हठयोगी हो
जाते हैं, बिलकुल
हठ बांध कर
खड़े हो जाते
हैं। तुम मारो
तो वे जिद्द
बना लेते हैं
कि देखें कौन
जीतता है! फिर
दूसरे तरह के
घोड़े होते
हैं. मारो तो
चलते हैं, न
मारो तो नहीं
चलते। कम से
कम पहले से
बेहतर। फिर
तीसरे तरह के
घोड़े होते हैं
: कोड़ा फटकासे,
मारना
जरूरी नहीं।
सिर्फ कोड़ा
फटकारो, आवाज
काफी है। और
भी कुलीन होते
हैं—दूसरे से
भी बेहतर। फिर
आनंद, तुझे
जरूर पता होगा
ऐसे भी घोड़े
होते हैं कि कोड़े
की छाया देख
कर भागते हैं,
फटकारना भी
नहीं पड़ता। यह
ऐसा ही घोड़ा
था। छाया काफी
है।’
अष्टावक्र
ने देखा होगा
गौर से।
जब
तुम आ कर
मुझसे कुछ
पूछते हो तो
तुम्हारे
प्रश्न से
ज्यादा
महत्वपूर्ण
सवाल तुम हो।
कभी—कभी
तुम्हें भी
ऐसा लगता होगा
कि तुमने जो
नहीं पूछा था, वह
मैंने उत्तर
दिया है। और
कभी—कभी
तुम्हें ऐसा
भी लगता होगा
कि शायद मैं
टाल गया
तुम्हारे
प्रश्न को, बचाव कर गया,
कुछ और
उत्तर दे गया
हूं। लेकिन
सदा तुम्हारी
भीतरी जरूरत
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है; तुम
क्या पूछते हो,
यह उतना
महत्वपूर्ण
नहीं।
क्योंकि
तुम्हें खुद
ही ठीक पता
नहीं, तुम
क्या पूछते हो,
क्यों
पूछते हो।
उत्तर वही
दिया जाता है,
जिसकी
तुम्हें
जरूरत है।
तुम्हारे
पूछने से कुछ
तय नहीं होता।
देखा
होगा
अष्टावक्र ने.
ज्ञानी तो
नहीं है जनक।
अज्ञानी है
फिर क्या? अज्ञानी
भी नहीं है।
क्योंकि
अज्ञानी तो
अकड़ीला, अकड़
से भरा होता
है। अज्ञानी
तो झुकना
जानता ही नहीं।
यह तो मुझे बारह
साल की उम्र
के लड़के के
पैरों में झुक
गया, साष्टांग
दंडवत की। यह
अज्ञानी के
लिए असंभव है।
अज्ञानी तो
समझता है कि
मैं जानता ही
हूं मुझे कौन समझायेगा!
अज्ञानी अगर
कभी पूछता भी
है तो तुम्हें
गलत सिद्ध
करने को पूछता
है। क्योंकि
अज्ञानी तो यह
मान कर ही
चलता है कि पता
तो मुझे है ही;
देखें इनको
भी पता है या
नहीं! अज्ञानी
परीक्षा के
लिए पूछता है।
नहीं, इसकी
आंखें, जनक
की तो बड़ी
निर्मल हैं।
मुझ बारह साल
के अनजान—अपरिचित
लड़के को
सम्राट होते
हुए भी इसने
कहा, 'एतत
मम बूहि
प्रभो! हे
प्रभु, मुझे
समझा कर कहें!'
नहीं, यह
विनयशील है, अज्ञानी तो
नहीं है। मूढ़
है क्या फिर? मूढ़ तो
पूछते ही नहीं।
मूढ़ों को तो
पता ही नहीं है
कि जीवन में
कोई समस्या है।
मूढ़
और
बुद्धपुरुषों
में एक समानता
है।
बुद्धपुरुषों
के लिए कोई
समस्या नहीं
रही,
मूढ़ों के
लिए अभी
समस्या उठी ही
नहीं।
बुद्धपुरुष
समस्या के पार
हो गये : मूढ़
अभी समस्या के
बाहर हैं। मूढ़
तो इतना मूर्च्छित
है कि उसे
कहां सवाल? 'कथं ज्ञानम्'—मूढ़ पूछेगा?
'कथं मुक्ति'—मूढ़ पूछेगा? 'कैसे
होगा वैराग्य'—मूढ़ पूछेगा?
असंभव!
मूढ़
अगर पूछेगा भी
तो पूछता है, राग
में सफलता
कैसे मिलेगी?
मूढ़ अगर
पूछता भी है
तो पूछता है, संसार में
और थोड़े
ज्यादा दिन
कैसे रहना हो
जाये? मुक्ति..!
नहीं, मूढ़
पूछता है बंधन
सोने के कैसे
बनें? बंधन
में हीरे—जवाहरात
कैसे जड़ें? मूढ़ पूछता
भी है तो ऐसी
बातें पूछता
है। ज्ञान!
मूढ़ तो मानता
ही नहीं कि
ज्ञान हो सकता
है। वह तो
संभावना को ही
स्वीकार नहीं
करता। वह तो
कहता है, कैसा
ज्ञान? मूढ़
तो पशुवत जीता
है।
नहीं, यह
जनक मूढ़ भी
नहीं है—मुमुक्षु
है।
'मुमुक्षु' शब्द समझना
जरूरी है।
मोक्ष की आकांक्षा—मुमुक्षा!
अभी मोक्ष के
पास नहीं
पहुंचा, ज्ञानी
नहीं है; मोक्ष
के प्रति पीठ
करके नहीं खड़ा,
मूढ़ नहीं है;
मोक्ष के
संबंध में कोई
धारणाएं पकड़
कर नहीं बैठा,
आज्ञानी भी
नहीं है—मुमुक्षु
है। मुमुक्षु
का अर्थ है, सरल है इसकी
जिज्ञासा; न
मूढ़ता से
अपवित्र हो
रही है, न
अज्ञानपूर्ण
धारणाओं से
विकृत हो रही
है। शुद्ध है
इसकी
जिज्ञासा।
सरल चित्त से
पूछा है।
अष्टावक्र
ने कहा, 'हे
प्रिय, यदि
तू मुक्ति को
चाहता है तो
विषयों को विष
के समान छोड़
दे और क्षमा, आर्जव, दया,
संतोष और
सत्य को अमृत
के समान सेवन
कर।’
मुक्तिमिच्छसि
चेत्तात
विषयान्
विषवत्यज।
शब्द
'विषय' बड़ा
बहुमूल्य है—वह
विष से ही बना
है। विष का
अर्थ होता है,
जिसे खाने
से आदमी मर
जाये। विषय का
अर्थ होता है,
जिसे खाने
से हम बार—बार
मरते हैं। बार—बार
भोग, बार—बार
भोजन, बार—बार
महत्वाकांक्षा,
ईर्ष्या, क्रोध, जलन—बार—बार
इन्हीं को खा—खा
कर तो हम मरे
हैं! बार—बार
इन्हीं के
कारण तो मरे
हैं! अब तक
हमने जीवन में
जीवन कहा जाना,
मरने को ही
जाना है। अब
तक हमारा जीवन
जीवन की
प्रज्वलित
ज्योति कहां,
मृत्यु का
ही धुआ है।
जन्म से ले कर
मृत्यु तक हम
मरते ही तो
हैं धीरे—धीरे,
जीते कहां?
रोज—रोज
मरते हैं!
जिसको हम जीवन
कहते हैं, वह
एक सतत मरने
की प्रक्रिया
है। अभी हमें
जीवन का तो
पता ही नहीं, तो हम
जीयेगे कैसे?
यह शरीर तो
रोज क्षीण
होता चला जाता
है। यह बल तो
रोज खोता चला
जाता है। ये
भोग और विषय
तो रोज हमें
चूसते चले
जाते हैं, जराजीर्ण
करते चले जाते
हैं। ये विषय
और कामनाएं तो
छेदों की तरह
हैं; इनसे
हमारी ऊर्जा
और आत्मा रोज
बहती चली जाती
है। आखिर में
घड़ा खाली हो
जाता है, उसको
हम मृत्यु
कहते हैं।
तुमने
कभी देखा, अगर
छिद्र वाले घड़े
को कुएं में
डालो तो जब तक
घड़ा पानी में
डूबा होता है,
भरा मालूम
पड़ता है; उठाओ,
पानी के ऊपर
खींचो रस्सी,
बस खाली
होना शुरू
हुआ! जोर का
शोरगुल होता
है। उसी को
तुम जीवन कहते
हो? जलधारें
गिरने लगती
हैं, उसी
को तुम जीवन
कहते हो? और
घड़ा जैसे—जैसे
पास आता हाथ के,
खाली होता
चला जाता है।
जब हाथ में
आता है, तो
खाली घड़ा! जल
की एक बूंद भी
नहीं! ऐसा ही
हमारा जीवन है।
बच्चा
पैदा नहीं हुआ, भरा
मालूम होता है;
पैदा हुआ कि
खाली होना
शुरू हुआ।
जन्म का पहला
दिन मृत्यु का
पहला दिन है।
खाली होने लगा।
एक दिन मरा, दो दिन मरा, तीन दिन मरा!
जिनको तुम 'जन्म—दिन' कहते हो, अच्छा
हो, 'मृत्यु—दिन'
कहो तो
ज्यादा
सत्यतर होगा
.। एक साल मर
जाते हो, उसको
कहते हो, चलो
एक जन्म—दिन आ
गया! पचास साल
मर गये, कहते
हो, 'पचास
साल जी लिये, स्वर्ण—जयंती
मनाएं!' पचास
साल मरे। मौत
करीब आ रही है,
जीवन दूर जा
रहा है। घड़ा
खाली हो रहा
है! जो दूर जा
रहा है, उसके
आधार पर तुम
जीवन को सोचते
हो या जो पास आ रहा
है उसके आधार
पर? यह
कैसा उलटा
गणित! हम रोज
मर रहे हैं।
मौत करीब
सरकती आती है।
अष्टावक्र
कहते हैं.
विषय हैं
विषवत, क्योंकि
उन्हें खा—खा
कर हम सिर्फ
मरते हैं; उनसे
कभी जीवन तो
मिलता नहीं।
'यदि तू
मुक्ति चाहता
है, हे तात,
हे प्रिय, तो विषयों
को विष के
समान छोड़ दे, और क्षमा, आर्जव, दया,
संतोष और
सत्य को अमृत
के समान सेवन
कर।’
अमृत
का अर्थ होता
है,
जिससे जीवन
मिले, जिससे
अमरत्व मिले;
जिससे उसका
पता चले जो
फिर कभी नहीं
मरेगा।
तो
क्षमा!
क्रोध
विष है; क्षमा
अमृत है।
आर्जव!
कुटिलता
विष है; सीधा—सरलपन,
आर्जव अमृत
है।
दया!
कठोरता, क्रूरता
विष है; दया,
करुणा अमृत
है।
संतोष।
असंतोष, का
कीड़ा खाए चला
जाता है।
असंतोष का
कीड़ा हृदय में
कैंसर की तरह
है; फैलता
चला जाता है; विष को
फैलाए चले
जाता है।
संतोष—जो
है उससे
तृप्ति; जो
नहीं है उसकी
आकांक्षा
नहीं। जो है
वह काफी से
ज्यादा है। वह
है ही काफी से
ज्यादा। आंख
खोलो, जरा
देखो!
संतोष
कोई थोपना
नहीं है ऊपर
जीवन के। जरा
गौर से देखो, तुम्हें
जो मिला है वह
तुम्हारी
जरूरत से सदा ज्यादा
है! तुम्हें
जो चाहिए वह
मिलता ही रहा
है। तुमने जो
चाहा है, वह
सदा मिल गया
है। तुमने दुख
चाहा है तो
दुख मिल गया
है। तुमने सुख
चाहा है तो
सुख मिल गया
है। तुमने गलत
चाहा तो गलत
मिल गया है।
तुम्हारी चाह
ने तुम्हारे
जीवन को रचा
है। चाह बीज
है, फिर
जीवन उसकी फसल
है। जन्मों—जन्मों
में जो तुम
चाहते रहे हो
वही तुम्हें मिलता
रहा है। कई
बार तुम सोचते
हो हम कुछ और
चाह रहे हैं, जब मिलता है
तो कुछ और
मिलता है—तो
तुम्हारे
चाहने में भूल
नहीं हुई है
सिर्फ तुमने
चाहने के लिए
गलत शब्द चुन
लिया था। जैसे—तुम
चाहते हो
सफलता, मिलती
है विफलता।
तुम कहते हो, विफलता मिल
रही है, चाही
तो सफलता थी।.
लेकिन
जिसने सफलता
चाही उसने
विफलता को
स्वीकार कर ही
लिया; वह
विफलता से
भीतर डर ही
गया है।
विफलता के
कारण ही तो
सफलता चाह रहा
है। और जब—जब
सफलता चाहेगा
तब—तब विफलता
का खयाल आयेगा।
विफलता का
खयाल भी मजबूत
होता चला
जायेगा।
सफलता तो कभी
मिलेगी; लेकिन
रास्ते पर
यात्रा तो
विफलता—विफलता
में ही बीतेगी।
विफलता का भाव
संगृहीभूत
होगा। वह इतना
संगृहीभूत हो
जायेगा कि वही
एक दिन प्रगट
हो जायेगा। तब
तुम कहते हो
कि हमने तो
सफलता चाही थी।
लेकिन सफलता
के चाहने में
तुमने विफलता
को चाह लिया।
लाओत्सु
ने कहा है :
सफलता चाही, विफलता
मिलेगी। अगर
सचमुच सफलता
चाहिए हो, सफलता
चाहना ही मत; फिर तुम्हें
कोई विफल नहीं
कर सकता।
तुम
कहते हो : हमने
सम्मान चाहा
था,
अपमान मिल
रहा है।
सम्मान चाहता
ही वही
व्यक्ति है, जिसका अपने
प्रति कोई
सम्मान नहीं।
वही तो दूसरों
से सम्मान
चाहता है।
अपने प्रति
जिसका अपमान
है वही तो
दूसरों से अपने
अपमान को भर
लेना चाहता है,
ढांक लेना
चाहता है।
सम्मान की
आकांक्षा इस
बात की खबर है
कि तुम अपने
भीतर अपमानित
अनुभव कर रहे
हो; तुम्हें
अनुभव हो रहा
है कि मैं कुछ
भी नहीं हूं
दूसरे मुझे
कुछ बना दें, सिंहासन पर
बिठा दें, पताकाएं
फहरा दें, झंडे
उठा लें मेरे
नाम के—दूसरे
कुछ कर दें!
तुम
भिखमंगे हो!
तुमने अपना
अपमान तो खुद
कर लिया जब
तुमने सम्मान
चाहा। और यह
अपमान गहन
होता जायेगा।
लाओत्सु
कहता है, मेरा
कोई अपमान नहीं
कर सकता, क्योंकि
मैं सम्मान
चाहता ही नहीं।
यह सम्मान को
पा लेना है।
लाओत्सु कहता
है, मुझे
कोई हरा नहीं
सकता, क्योंकि
जीत की हमने
बात ही छोड़ दी।
अब हराओगे
कैसे! तुम उसी
को हरा सकते
हो जो जीतना
चाहता है अब
यह जरा उलझा
हुआ हिसाब है।
इस
दुनिया में
सम्मान उन्हें
मिलता है
जिन्होंने
सम्मान नहीं
चाहा। सफलता
उन्हें मिलती
है जिन्होंने
सफलता नहीं
चाही।
क्योंकि
जिन्होंने
सफलता नहीं
चाही उन्होंने
तो स्वीकार ही
कर लिया कि
सफल तो हम हैं
ही,
अब और चाहना
क्या है? सम्मान
तो हमारे भीतर
आत्मा का है
ही; अब और
चाहना क्या है?
परमात्मा
ने सम्मान दे
दिया तुम्हें
पैदा करके; अब और किसका
सम्मान चाहते
हो? परमात्मा
ने तुम्हें
काफी गौरव दे
दिया! जीवन दिया!
यह सौभाग्य
दिया कि आंख
खोलो, देखो
हरे वृक्षों
को, फूलों
को, पक्षियों
को! कान दिए—सुनो
संगीत को, जलप्रपात
के मरमर को!
बोध दिया कि
बुद्ध हो सको!
अब और क्या
चाहते हो? सम्मानित
तो तुम हो गये!
परमात्मा ने
तुम्हें प्रमाण—पत्र
दिया। तुम
भिखारी की तरह
किनसे प्रमाण—पत्र
मांग रहे हो? उनसे, जो
तुमसे प्रमाण—पत्र
मांग रहे हैं?
यह
बड़ा मजेदार
मामला है : दो
भिखारी एक—दूसरे
के सामने खड़े
भीख मांग रहे
हैं! यह भीख मिलेगी
कैसे? दोनों
भिखारी हैं।
तुम किससे
सम्मान मांग,
रहे हो? किसके
सामने खड़े हो?
यह अपमान कर
रहे हो तुम
अपना। और यही
अपमान गहन
होता जायेगा।
संतोष
का अर्थ होता
है : देखो, जो
तुम्हारे पास
है। देखो जरा आंख
खोल कर, जो
तुम्हें मिला
ही है। यह
अष्टावक्र की
बड़ी बहुमूल्य
कुंजी है। यह
धीरे—धीरे
तुम्हें साफ
होगी।
अष्टावक्र की
दृष्टि बड़ी क्रांतिकारी
है, बड़ी
अनूठी है, जड़—मूल
से क्रांति की
है।
'संतोष और
सत्य को अमृत
के समान सेवन
कर।'
क्योंकि
असत्य के साथ
जो जीयेगा वह
असत्य होता
चला जायेगा।
जो असत्य को
बोलेगा, असत्य
को जीयेगा, स्वभावत:
असत्य से
घिरता चला
जायेगा। उसके
जीवन से संबंध
विच्छिन्न हो
जाएंगे, जड़ें
टूट जाएंगी।
परमात्मा
में जड़ें
चाहते हो तो
सत्य के द्वारा
ही वे जड़ें हो
सकती हैं।
प्रामाणिकता
और सत्य के
द्वारा ही तुम
परमात्मा से
जुड़ सकते हो।
परमात्मा से टूटना
है तो असत्य
का धुआ पैदा
करो,
असत्य के
बादल अपने पास
बनाओ। जितने
तुम असत्य
होते चले
जाओगे उतने
परमात्मा से
दूर होते चले
जाओगे।
'तू न पृथ्वी
है, न जल है,
न वायु है, न आकाश है।
मुक्ति के लिए
आत्मा को, अपने
को इन सबका
साक्षी
चैतन्य जान।'
सीधी—सीधी
बातें हैं; भूमिका
भी नहीं है।
अभी दो वचन
नहीं बोले
अष्टावक्र ने
कि ध्यान आ
गया, कि
समाधि की बात
आ गई। जानने
वाले के पास
समाधि के
अतिरिक्त और
कुछ जताने को
है भी नहीं।
वह दो वचन भी
बोले, क्योंकि
एकदम से अगर
समाधि की बात
होगी तो शायद
तुम चौंक ही
जाओगे, समझ
ही न पाओगे।
मगर दो वचन—और
सीधी समाधि की
बात आ गई!
अष्टावक्र
सात कदम भी
नहीं चलते; बुद्ध
तो सात कदम
चले, आठवें
कदम पर समाधि
है।
अष्टावक्र तो
पहला कदम ही
समाधि का
उठाते हैं।
'तू न पृथ्वी
है, न जल, न वायु, न
आकाश'—ऐसी
प्रतीति में
अपने को थिर
कर।’मुक्ति
के लिए आत्मा
को, अपने
को इन सबका
साक्षी
चैतन्य जान।'
'साक्षी' सूत्र
है। इससे
महत्वपूर्ण
सूत्र और कोई
भी नहीं।
देखने वाले
बनो! जो हो रहा
है उसे होने
दो; उसमें
बाधा डालने की
जरूरत नहीं।
यह देह तो जल
है, मिट्टी
है, अग्नि
है, आकाश
है। तुम इसके
भीतर तो वह
दीये हो
जिसमें ये सब
जल, अग्नि,
मिट्टी, आकाश,
वायु
प्रकाशित हो
रहे हैं। तुम
द्रष्टा हो।
इस बात को गहन
करो।
साक्षिणां
चिद्धूपं
आत्मानं
विदि.......
यह
इस जगत में
सर्वाधिक
बहुमूल्य
सूत्र है।
साक्षी बनो!
इसी से होगा
शान! इसी से
होगा वैराग्य!
इसी से होगी
मुक्ति!
प्रश्न
तीन थे, उत्तर
एक है।
'यदि तू देह
को अपने से
अलग कर और
चैतन्य में विश्राम
कर स्थित है
तो तू अभी ही
सुखी, शात
और बंध—मुक्त
हो जायेगा।’
इसलिए
मैं कहता हूं
यह जड़—मूल से क्रांति
है। पतंजलि
इतनी हिम्मत
से नहीं कहते
कि 'अभी ही।’ पतंजलि
कहते हैं, 'करो
अभ्यास—यम, नियम; साधो—प्राणायाम,
प्रत्याहार,
आसन; शुद्ध
करो। जन्म—जन्म
लगेंगे, तब
सिद्धि है।’
महावीर
कहते हैं, 'पंच
महाव्रत! और
तब जन्म—जन्म
लगेंगे, तब
होगी निर्जरा;
तब कटेगा
जाल कर्मों का।’
सुनो
अष्टावक्र को
यदि
देह
पृथस्कृत्य
चिति
विश्राम्य
तिष्ठसि।
अधुनैव
सुखी शांत:
बंधमुक्तो
भविष्यसि।।
'अधुनैव!' अभी,
यहीं, इसी
क्षण! 'यदि
तू देह को
अपने से अलग
कर और चैतन्य
में विश्राम
कर स्थित है...!' अगर तूने एक
बात देखनी
शुरू कर दी कि
यह देह मैं
नहीं हूं; मैं
कर्ता और
भोक्ता नहीं
हूं; यह जो
देखने वाला
मेरे भीतर
छिपा है जो सब
देखता है—बचपन
था कभी तो
बचपन देखा, फिर जवानी
आयी तो जवानी
देखी, फिर
बुढ़ापा आया तो
बुढ़ापा देखा;
बचपन नहीं
रहा तो मैं
बचपन तो नहीं
हो सकता—आया
और गया, मैं
तो हूं! जवानी
नहीं रही तो
मैं जवानी तो
नहीं हो सकता—
आई और गई; मैं
तो हूं!
बुढ़ापा आया, जा रहा है, तो मैं
बुढ़ापा नहीं
हो सकता।
क्योंकि जो
आता है जाता
है, वह मैं
कैसे हो सकता
हूं! मैं तो
सदा हूं। जिस
पर बचपन आया, जिस पर
जवानी आई, जिस
पर बुढ़ापा आया,
जिस पर हजार
चीजें आईं और
गईं—मैं वही
शाश्वत हूं।
स्टेशनों
की तरह बदलती
रहती है बचपन, जवानी,
बुढ़ापा, जन्म—यात्री
चलता जाता।
तुम स्टेशन के
साथ अपने को
एक तो नहीं
समझ लेते!
पूना की स्टेशन
पर तुम ऐसा तो
नहीं समझ लेते
कि मैं पूना
हूं! फिर
पहुंचे मनमाड
तो ऐसा तो
नहीं समझ लेते
कि मैं मनमाड
हूं! तुम
जानते हो कि
पूना आया, गया;
मनमाड आया,
गया—तुम तो
यात्री हो!
तुम तो
द्रष्टा हों—जिसने
पूना देखा, पूना आया; जिसने मनमाड़
देखा, मनमाड
आया! तुम तो
देखने वाले
हो!
तो
पहली बात : जो
हो रहा है
उसमें से
देखने वाले को
अलग कर लो!
'देह को अपने
से अलग कर और
चैतन्य में
विश्राम..।’
और
करने योग्य
कुछ भी नहीं
है। जैसे
लाओत्सु का
सूत्र है—समर्पण, वैसे
अष्टावक्र का
सूत्र है—विश्राम,
रेस्ट।
करने को कुछ
भी नहीं है।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं,
ध्यान कैसे
करें? वे
प्रश्न ही गलत
पूछ रहे हैं।
गलत पूछते हैं
तो मैं उनको
कहता हूं करो।
अब क्या
करोगे! तो
उनको बता देता
हूं कि करो, कुछ न कुछ तो
करना ही पड़ेगा—अभी
तुम्हें करने कीं
खुजलाहट है तो
उसे तो पूरा
करना होगा।
खुजली है तो
क्या करोगे!
बिना खुजाए
नहीं बनता।
लेकिन धीरे—धीरे
उनको करवा—करवा
कर थका डालता
हूं। फिर वे
कहते हैं कि
अब इससे
छुटकारा
दिलवाओ! अब कब
तक यह करते
रहें? मैं
कहता हूं मैं
तो पहले ही
राजी था, लेकिन
तुम्हें समझने
में जरा देर
लगी। अब
विश्राम करो!
ध्यान
का आत्यंतिक
अर्थ विश्राम
है। ाउ
चिति
विश्राम्य
तिष्ठसि
—जो विश्राम
में ठहरा देता
अपनी चेतना को;
जो होने
मात्र में ठहर
जाता...!
कुछ
करने को नहीं
है। क्योंकि
जिसे तुम खोज
रहे हो, वह
मिला ही हुआ
है। क्योंकि
जिसे तुम खोज रहे
हो, उसे
कभी खोया ही
नहीं। उसे
खोया नहीं जा
सकता। वही
तुम्हारा
स्वभाव है।
अयमात्मा
ब्रह्म! तुम
ब्रह्म हो!
अनलहक! तुम सत्य
हो! कहां
खोजते हो? कहां
भागे चले जाते
हो? अपने
को ही खोजने
कहां भागे चले
जाते हो? रुको,
ठहरो!
परमात्मा
दौड़ने से नहीं
मिलता, क्योंकि
परमात्मा
दौड़ने वाले
में छिपा है।
परमात्मा कुछ
करने से नहीं
मिलता, क्योंकि
परमात्मा
करने वाले में
छिपा है।
परमात्मा के
होने के लिए
कुछ करने की
जरूरत ही नहीं
है—तुम हो ही!
इसलिए
अष्टावक्र
कहते हैं.
चिति
विश्राम्य! विश्राम
करो! ढीला
छोड़ो अपने को!
यह तनाव छोड़ो!
कहां जाते? कहीं
जाने को नहीं,
कहीं
पहुंचने को
नहीं है।
और
चैतन्य में
विश्राम. तो
तू अभी ही, इसी
क्षण, अधुनैव,
सुखी, शात
और बंध—मुक्त
हो जायेगा।
अनूठा
है वचन! नहीं
कोई और
शास्त्र इसका
मुकाबला करता
है।
'तू ब्राह्मण
आदि वर्ण नहीं
है और न तू कोई
आश्रम वाला है
और न आंख आदि
इंद्रियों का
विषय है। असंग
और निराकार तू
सबका, विश्व
का साक्षी है।
ऐसा जानकर
सुखी हो।’
अब
ब्राह्मण
कैसे टीका
लिखें!
'तू ब्राह्मण
आदि वर्ण नहीं
है.।’
अब
हिंदू इस
शास्त्र को
कैसे सिर पर
उठायें! क्योंकि
उनका तो सारा
धर्म वर्ण और
आश्रम पर खड़ा
है। और यह तो
पहले से ही
अष्टावक्र जड़
काटने लगे। वे
कहते हैं, तू
कोई ब्राह्मण
नहीं है, न
कोई शूद्र है,
न कोई
क्षत्रिय है।
यह सब बकवास
है! ये सब ऊपर
के आरोपण हैं।
यह सब राजनीति
और समाज का
खेल है। तू तो
सिर्फ ब्रह्म
है, ब्राह्मण
नहीं, क्षत्रिय
नहीं, शूद्र
नहीं!
'तू ब्राह्मण
आदि वर्ण नहीं
और न तू कोई
आश्रम वाला है।’
और
न तो यह है कि
तू कोई
ब्रह्मचर्य—आश्रम
में है कि
गृहस्थ—आश्रम
में है, कि
वानप्रस्थ कि
संन्यस्त, कोई
आश्रम वाला
नहीं है। तू
तो इस सारे
स्थानों के
भीतर से
गुजरने वाला
द्रष्टा, साक्षी
है।
अष्टावक्र की
गीता, हिंदू
दावा नहीं कर
सकते, हमारी
है।
अष्टावक्र की
गीता सबकी है।
अगर
अष्टावक्र के
समय में
मुसलमान होते,
हिंदू होते,
ईसाई होते,
तो
उन्होंने कहा
होता, 'न तू
हिंदू है, न
तू ईसाई है, न तू
मुसलमान है।’
अब ऐसे
अष्टावक्र
को.. कौन मंदिर
बनाये इसके लिए!
कौन इसके
शास्त्र को
सिर पर उठाये!
कौन दावेदार
बने! क्योंकि
ये सभी का
निषेध कर रहे
हैं। मगर यह
सत्य की सीधी
घोषणा है। 'असंग
और निराकार तू
सबका, विश्व
का साक्षी है—ऐसा
जान कर सुखी
हो!'
अष्टावक्र
यह नहीं कहते
कि ऐसा तुम
जानोगे तो फिर
सुखी होओगे।
वचन को ठीक से
सुनना।
अष्टावक्र
कहते हैं, ऐसा
जान कर सुखी
हो!
न
त्वं
विप्रादिको
वर्णो
नाश्रमी
नाक्षगोचर।
असंगोsसि
निराकारो
विश्वसाक्षी
सुखी भव।।
सुखी
भव! अभी हो
सुखी!
जनक
पूछते हैं, 'कैसे
सुख होगा? कैसे
बंधन—मुक्ति
होगी? कैसे
ज्ञान होगा?'
अष्टावक्र
कहते हैं, अभी
हो सकता है। क्षणमात्र
की भी देर
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
इसे कल पर
छोड़ने का कोई
कारण नहीं, स्थगित करने
की कोई जरूरत
नहीं। यह घटना
भविष्य में
नहीं घटती, या तो घटती
है अभी या कभी
नहीं घटती। जब
घटती है तब
अभी घटती है।
क्योंकि 'अभी'
के
अतिरिक्त कोई
समय ही नहीं
है। भविष्य कहां
है? जब आता
है तब अभी की
तरह आता है।
तो
जो भी ज्ञान
को उत्पन्न
हुए हैं—'अभी' उत्पन्न हुए
हैं। कभी पर
मत छोड़ना—वह
मन की चालाकी
है। मन कहता
है, इतने
जल्दी कैसे हो
सकता है; तैयारी
तो कर लें!
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
'संन्यास
लेना है..
लेंगे कभी।’ 'कभी!' कभी
न लोगे! कभी पर
टाला तो सदा
के लिए टाला।
कभी आता ही
नहीं। लेना हो
तो अभी। अभी
के अतिरिक्त
कोई समय ही
नहीं है। अभी
है जीवन। अभी
है मुक्ति।
अभी है अज्ञान,
अभी है
ज्ञान। अभी है
निद्रा, अभी
हो सकता जागरण।
कभी क्यों?
कठिन होता है
मन को, क्योंकि
मन कहता है
तैयारी तो
करने दो! मन
कहता है, 'कोई
भी काम तैयारी
के बिना कैसे
घटता है?
आदमी को
विश्वविद्यालय
से प्रमाण—पत्र
लेना है तो
वर्षों लगते
हैं।
डाक्टरेट
करनी है तो
बीस—पचीस साल
लग जाते हैं, मेहनत करते—करते,
फिर आदमी
जाकर डाक्टर
हो पाता है।
अभी कैसे हो
सकते हैं?'
अष्टावक्र
भी जानते हैं :
दुकान करनी हो
तो अभी थोड़े
खुल जायेगी!
इकट्ठा करना
पड़े,
आयोजन करना
पड़े, सामान
लाना पड़े, दुकान
बनानी पड़े, ग्राहक
खोजने पड़े, विज्ञापन
भेजना पड़े—वर्षों
लगते हैं! इस
जगत में कोई
भी चीज 'अभी'
तो घटती
नहीं; क्रम
से घटती है।
ठीक है।
अष्टावक्र भी
जानते हैं, मैं भी
जानता हूं।
लेकिन एक घटना
यहां ऐसी है
जो अभी घटती
है—वह
परमात्मा है।
वह तुम्हारी
दुकान नहीं है,
न तुम्हारा
परीक्षालय है,
न तुम्हारा
विश्वविद्यालय
है। परमात्मा
क्रम से नहीं
घटता।
परमात्मा घट
ही चुका है। आंख
भर खोलने की
बात है—सूरज
निकल ही चुका
है। सूरज
तुम्हारी आंख
के लिए नहीं
रुका है कि
तुम जब आंख
खोलोगे, तब
निकलेगा।
सूरज निकल ही
चुका है।
प्रकाश सब तरफ
भरा ही है।
अहर्निश गज
रहा है उसका
नाद! ओंकार की
ध्वनि सब तरफ
गंज रही है!
सतत अनाहत
चारों तरफ गंज
रहा है! खोलो
कान! खोलो आंख!
आंख
खोलने में
कितना समय
लगता है? उतना
समय भी
परमात्मा को
पाने में नहीं
लगता। पल तो
लगता है पलक
के झपने में।
पल का अर्थ
होता है, जितना
समय पलक को
झपने में लगता,
उतना पल।
मगर परमात्मा
को पाने में
पल भी नहीं
लगता।
विश्वसाक्षी
असंगोउसि
निराकारो।
सुखी भव!
अभी
हो सुखी! उधार
नहीं है
अष्टावक्र का
धर्म—नगद, कैश..।
'हे व्यापक, धर्म और
अधर्म, सुख
और दुख मन के
हैं : तेरे लिए
नहीं हैं। तू
न कर्ता है न
भोक्ता है। तू
तो सर्वदा
मुक्त ही है।’
मुक्ति
हमारा स्वभाव
है। ज्ञान
हमारा स्वभाव
है। परमात्मा
हमारा होने का
ढंग है; हमारा
केंद्र है; हमारे जीवन
की सुवास है; हमारा होना
है।
धर्माउधमौं
सुखं दुःखं
मानसानि न तो
विभो।
अष्टावक्र
कहते हैं, 'हे
व्यापक, हे
विभावान, हे
विभूतिसंपन्न!
धर्म और अधर्म,
सुख और दुख
मन के हैं।’ ये सब मन की
ही तरंगें हैं।
बुरा किया, अच्छा किया,
पाप किया, पुण्य किया,
मंदिर
बनाया, दान
दिया—सब मन के
हैं।
न
कर्ताउसि न
भोक्ताउसि
मुक्त एवासि
सर्वदा।
'तू तो सदा
मुक्त है। तू
तो सर्वदा
मुक्त है।’
मुक्ति
कोई घटना नहीं
है जो हमें
घटानी है।
मुक्ति घट
चुकी है हमारे
होने में! मुक्ति
से बना है यह
अस्तित्व।
इसका रोआं—रोआं, रंच—रंच
मुक्ति से
निर्मित है।
मुक्ति है
धातु, जिससे
बना है सारा
अस्तित्व।
स्वतंत्रता
स्वभाव है। यह
उदघोषणा, बस
समझी कि क्रांति
घट जाती है।
समझने के
अतिरिक्त कुछ
करना नहीं है।
यह बात खयाल
में उतर जाये,
तुम सुन लो
इसे मन भर कर, बस! तो
आज इतना ही
कहना चाहूंगा.
अष्टावक्र को
समझने की
चेष्टा भर
करना।
अष्टावक्र
में 'करने'
का कोई
इंतजाम नहीं
है। इसलिए तुम
यह मत सोचना
कि अब कोई
तरकीब निकलेगी
जो हम करेंगे।
अष्टावक्र
कुछ करने को
कहते ही नहीं।
तुम विश्राम
से सुन लो।
करने से कुछ
होने ही वाला
नहीं है।
इसलिए तुम
कापी वगैरह, नोटबुक ले
कर मत आना कि
लिख लेंगे, कुछ आयेगा
सूत्र तो नोट
कर लेंगे, करके
देख लेंगे।
करने का यहां
कुछ काम ही
नहीं है।
इसलिए तुम
भविष्य की
फिक्र छोड़ कर
सुनना। तुम
सिर्फ सुन
लेना। तुम
सिर्फ मेरे
पास बैठ कर
शात भाव से
सुन लेना, विश्राम
में सुन लेना।
सुनते—सुनते
तुम मुक्त हो
जा सकते हो।
इसलिए
महावीर ने कहा
है कि श्रावक
मुक्त हो सकता
है—सिर्फ
सुनते—सुनते!
श्रावक का
अर्थ होता है
जो सुनते—सुनते
मुका हो जाये।
साधु का तो
अर्थ ही इतना
है कि जो सुन—सुन
कर मुक्त न हो
सका,
थोड़ा कमजोर
बुद्धि का है।
कुछ करना पड़ा।
सिर्फ कोड़े की
छाया काफी न
थी। घोड़ा जरा
कुजात है।
कोड़ा फटकारा,
तब थोड़ा चला;
या मारा तो
थोड़ा चला।
छाया
काफी है। तुम
सुन लेना, कोड़े
की छाया दिखाई
पड़ जायेगी।
तो
अष्टावक्र के
साथ एक बात
स्मरण रखना :
कुछ करने को
नहीं है।
इसलिए तुम
आनंद— भाव से
सुन सकते हो।
इसमें से कुछ
निकालना नहीं
है कि फिर
करके देखेंगे।
जो घटेगा वह
सुनने में
घटेगा। सम्यक
श्रवण सूत्र
है।
अधुनैव
सुखी शांत:
बंधमुक्तो
भविष्यसि।
अभी
हो जा मुका!
इसी क्षण हो
जा मुका! कोई
रोक नहीं रहा।
कोई बाधा नहीं
है। हिलने की
भी जरूरत नहीं
है। जहां है, वहीं
हो जा मुक्त। क्योंकि
मुक्त तू है
ही। जाग और हो
जा मुक्त!
असंगोउसि
निराकारो
विश्वसाक्षी
सुखी भव।
हो
जा सुखी! एक पल
की भी देर
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
छलांग है, क्यांटम
छलांग!
सीढ़ियां नहीं
हैं
अष्टावक्र में।
क्रमिक विकास
नहीं है; सडन,
इसी क्षण हो
सकता है!
हरि
ओम तत्सत्!
बहुत बढिया.. Salute to your efforts!!!
जवाब देंहटाएंWah,kya baat hai.
जवाब देंहटाएंWah,kya baat hai.
जवाब देंहटाएंAbhishek
जवाब देंहटाएंShri Siddhartha gautam Buddha ashtavakra mahagita
जवाब देंहटाएंShri Siddhartha gautam Buddha ashtavakra mahagita
जवाब देंहटाएंSidharth gautam Buddha .santosham parmam sukham.ashtavakra mahagita.
जवाब देंहटाएंSidharth gautam Buddha .santosham parmam sukham.ashtavakra mahagita.
जवाब देंहटाएंA sudden clash of.
जवाब देंहटाएंAshtavakra gita ,dhammpada
जवाब देंहटाएंAshtavakra gita ,dhammpada
जवाब देंहटाएंAshtavakra gita ,dhammpada
जवाब देंहटाएंA sudden clash of.
जवाब देंहटाएंA sudden clash of.
जवाब देंहटाएं