हीर कटोरा हो गया रीत—दूसरा प्रवचन
दूसरा
प्रवचन;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार :
*भगवान!
कैसे पता चले
कि प्रेम
कितना सपना है
और कितना सच?
*भगवान!
अहंकार होने
का कोई कारण
नहीं है, फिर
भी अहंकार
क्यों है?
*भगवान!
अहंकार होने
का कोई भी
कारण नहीं है,
फिर भी
अहंकार क्यों
है?
*भगवान!
हीर
कटोरा हो गया
रीता
भय
कैसा यह तीखा
-मीठा!
तेरे
लिए ही मैं
सरजाई
मैं तो
पर गई ओ हरजाई!
तूने
बांधी महा
सगाई
मैं तो
पर गई ओ हरजाई!
*भगवान!
'है कोई
लेवनहारा'
आपकी
यह पुकार
सुनकर मेरी
झोली आपके
सामने फैलती
गई।
प्रवचनोपरात
आपने पास से गुजरते
समय झोली भर
दी। धड़कते दिन
से पूछती हूं
मैं आपसे क्या
कहूं भगवान?
पहल
प्रश्न :
भगवान!
कैसे पता चलें
कि प्रेम
कितना सपना है
और कितना सच?
योग
चिन्मय!
प्रेम
तो बस सपना ही
सपना है-लेकिन
एक विशिष्ट
सपना, जो
जागरण के बहुत
करीब है। भोर
का सपना!
सुबह-सुबह
होने को है।
नींद चली भी
नहीं गई। नींद
है, ऐसा भी
कहना कठिन है।
हल्की-हल्की
नींद है।
हल्का-हल्का
जागरण भी है।
ऐसी मध्य की
अवस्था है।
संध्याकाल है
प्रेम। न रात
न दिन। बस
सुबह होने को
है, मगर
अभी हो नहीं
गई। आकाश लाल
होने लगा है।
बदलियों में
रंग आने लगा
है सूरज की
किरणों का, लेकिन सूरज
अभी प्रगट
नहीं हुआ, क्षितिज
के नीचे दबा
है। होता ही
है। अब हुआ, अब हुआ।
प्रेम
सपना है, लेकिन
जागरण के
सर्वाधिक करीब।
और भी सपने
हैं। घृणा भी
सपना है, लेकिन
जागरण से
सर्वाधिक दूर।
घृणा है आधी
रात का सपना, प्रेम है
भोर का सपना।
इसलिए
जिन्हें
जागना है
उन्हें प्रेम
का सपना देखना
होता है।
घृणा
के सपने से
जागना बहुत
कठिन है।
प्रेम के सपने
से जागना आसान
है;
जागना
जरूरी नहीं है
अनिवार्यता
नहीं है।
क्योंकि सुबह
भी हो जाए और
तुम न चाहो
जागना, तो
न जागो। सूरज
भी निकल आए और
तुम्हें सोना
है तो तुम सोए
ही रहो। तुम
जाग कर भी तो
आखें बंद रख
सकते हो।
दिन एक
सुबह-सुबह उठ
कर मुल्ला नसरुद्दीन
की पत्नी ने
उससे कहा :
मुल्ला, रात
नींद में तुम
बहुत मुझे
गालियां दे
रहे थे, बहुत
गड़बड़ा रहे थे।
बहुत अंट -शंट
बोल रहे थे।
मुल्ला
ने कहा : कौन
बेवकूफ सो रहा
था?
सोए को
जगाना तो आसान
है;
जागे को
जगाना बहुत
मुश्किल।
जागा तो बन कर
पड़ा है, चादर
ओढ़ ली है, आंख
बंद कर
ली है। जागा
तो तय कर लिया
है कि जागेगा
नहीं। सोया है
तो झकझोर दो।
उसे पता नहीं
है सोया है, तो झकझोरने
में जाग जाएगा।
लेकिन जो जागा
है, झकझोरो
तो भी न
जागेगा; उसे
तो पता है।
उसने तो तय
किया कि जागना
नहीं है।
तो
सुबह हो जाने
से ही कुछ
नहीं होता।
प्रेम हो जाने
से ही कुछ
नहीं होता।
प्रेम हो
-होकर भी लोग
चूक जाते हैं।
मंदिर के
द्वार तक आ-
आकर मुड़ जाते
हैं। सीढ़िया
चढ़ -चढ़ कर लौट
जाते हैं।
प्रेम
तो बहुत बार
जीवन में घटता
है,
मगर बहुत
थोड़े से
धन्यभागी हैं
जो जागते हैं।
जो जाग जाते
हैं, उनके
प्रेम का नाम
प्रार्थना है।
जागे हुए
प्रेम का नाम
प्रार्थना है।
सोई हुई
प्रार्थना का
नाम प्रेम है।
प्रेम
तो सपना ही
सपना है। तुम
पूछते हो : 'कितना
सपना, कितना
सच?' कहीं
सपना और सच
मिलते हैं? कहीं सपने
और सच का कोई
तालमेल हो
सकेगा, कि
इतने प्रतिशत
सपना, इतने
प्रतिशत सच? कहीं अंधेरे
और रोशनी को
मिला पाओगे? या तो
अंधेरा होगा
या रोशनी होगी।
कहीं जीवन और
मौत को मिला
पाओगे? या
तो जिओगे या
नहीं जिओगे; बीच में
नहीं हो सकणै।
प्रेम
तो सपना ही
सपना है-मगर
बड़ा प्रीतिकर, मधुर,
सुस्वादु, लेने योग्य।
और जब
मैं कहता हूं
प्रेम अनुभव
करने योग्य सपना
है,
तो ध्यान
रखना, यह
वक्तव्य
सापेक्ष है।
सभी वक्तव्य
सापेक्ष हैं।
मैं घृणा की
तुलना में कह
रहा हूं कि
प्रेम जीने
योग्य सपना है।
मैं
प्रार्थना की
तुलना में
नहीं कह रहा
हूं।
प्रार्थना की
तुलना में तो
जितने जल्दी
प्रेम से भी
जाग जाओ, उतना
शुभ। और फिर
प्रार्थना के
पार परमात्मा
है।
तो
प्रेम की
तुलना में
प्रार्थना
बेहतर है, लेकिन
प्रार्थना
में ही अटके
मत रह जाना।
पूजा-पाठ और
अर्चन और
प्रार्थना और
निवेदन-यही सब
न हो जाए।
डूबना है ऐसे
कि प्रार्थी
और प्रार्थ्य
दो न रह जाए, कि भक्त और
भगवान दो न रह जाएं।
प्रार्थना
भी छूट जानी
चाहिए एक दिन, क्योंकि
प्रार्थना भी
थोड़ा शोरगुल
है।
प्रार्थना भी
थोड़ी-सी विचार
की छाया है।
संसार गया, लेकिन उसकी
कुछ रेखाएं
छूट गई हैं।
यात्री तो
गुजर गया, उसके
पदचिह्न रह गए
हैं। यात्रा
का तो अंत हो
गया, लेकिन
यात्रा में
जमी धूल अभी
भी तुम्हारे
वस्त्रों पर
है। उसे भी धो
डालना है।
प्रार्थना
में भी कहीं न
कहीं थोड़ा-सा 'मैं'
शेष रहता है।
कौन करेगा
प्रार्थना? और जहां 'मैं'
है वहां अभी
भ्राति मौजूद
है। प्रेम में
'मैं' कटता
है, काफी
कटता है।
प्रार्थना
में और भी कट
जाता है; बस
छाया रह जाती
है। लेकिन
छाया भी काफी
है भटकाने को।
छाया के पीछे
भी चल पड़े अगर,
तो भटक
जाओगे, बहुत
दूर चले जाओगे।
छाया भी जानी
चाहिए।
घृणा
का जगत है, जहां
लोग जी रहे
हैं। चूंकि
लोग घृणा में
जी रहे हैं, मैं प्रेम
की बात करता
हूं। जो प्रेम
में जीने
लगेंगे, उनसे
तत्क्षण मैं
प्रार्थना की
बात करना शुरू
कर दूंगा। जो
प्रार्थना
में जीने
लगेंगे, उनसे
तत्क्षण मैं
परमात्मा की
बात करना शुरू
कर दूंगा।
छोड़ते चलना है,
तोड़ते चलना
है। अतिक्रमण
और अतिक्रमण।
अंततोगत्वा
वहां पहुंच
जाना है जहां 'मैं ' बचे
ही न, 'वही' बचे! एक ही
बचे, दो न
बचे।
जहां
तक दो हैं, वहां
एक सपना है।
प्रेम करोगे न
किसी को? तो
दो हैं। मगर
घृणा जहरीला
नाता है और
प्रेम-बड़ा
मधुर, मीठा!
प्रार्थना
बड़ी
अमृतपूर्ण है,
और फिर भी
दो हैं- भक्त
है और भगवान
है।
पराकाष्ठा तो
तब है, जब
दुई न रह जाए; जब भक्त और
भगवान एक हो
जाएं; जब
भक्त भगवान हो,
जब भगवान
भक्त हो।
उस परम
घड़ी की
प्रतीक्षा
करो। सत्य वहां
है।
उसके पहले तो
सब असत्य की
मात्राएं
हैं-कम ज्यादा।
और जब तक
३अस।त्य की
थोड़ी-सी भी
मात्रा शेष है, चाहे
होमियोपैथिक
मात्रा क्यों
न हो, तो भी
सजग रहना; उतनी
मात्रा भी
विदा करनी है।
किसने
कहा-वह फूल है?
किसने
कहा-वह शूल है?
प्रात:
हुई-सब रूप है,
प्रात:
हुई-सब रंग है,
दिन का
प्रकाश उछाह
है,
दिन का
प्रकाश उमंग
है।
पर मौन
सूनी सी अमा,
निज 'नास्ति
' की ले
कालिमा,
निःश्वास
भर कर कह उठी-
'जो
कुछ यहां वह
भूल है!'
तब
चेतना ने
ज्ञान ले
नभ पर
यहां मानव चढ़ा
रवि-शशि
बने उसके नयन,
निःसीम
को उसने गढ़,
पर वह
अचानक रुक गया,
पर शीश
उसका झुक गया,
ले गोद
में उसका धरा
ने कह
दिया- 'तू धूल
है!'
यहां
सब धूल है!
यहां तुम जो
भी देखोगे, सोचोगे,
विचारोगे-मन
का ही खेल हैं।
तुम्हारा बड़े
से बड़ा प्रेम
भी, तुम्हारा
श्रेष्ठ से
श्रेष्ठ
प्रेम भी सुंदर
सपना है-सजा
हुआ, हीरे
-जवाहरात जड़ा,
मणि -मणिक्य
पटा, सिंहासन
पर विराजमान!
पर सपना फिर
भी सपना है।
जागना
है! पूरे
जागना है! और
जागरण में'मैं'
नहीं पाया
जाता। और जहां
'मैं' नहीं,
वहां कैसा
सपना! कौन
देखेगा सपना?
जहां 'मैं'
नहीं, वहां
रह जाती है
सिर्फ साक्षी
चेतना। वहां
कोई दृश्य
नहीं रह
जाता-सिर्फ
द्रष्टा रह
जाता है। और
द्रष्टा का जो
अनुभव है उसे
चाहो समाधि कहो,
चाहे
निर्वाण कहो,
चाहे
कैवल्य कहो, जो तुम्हारी
मर्जी हो।
समाधि
में,
निर्वाण
में, कैवल्य
में सत्य है।
उसके पहले बस
ढंग- ढंग के
असत्य हैं।
बहुत
असत्य हैं इस
बाजार में। यह
असत्य का
बाजार है।
ढंग- ढंग के
असत्य हैं, रंग
-रंग के असत्य
हैं। बहुत
दूकानदार हैं
और बहुत ढंग
से सौदे को बेच
लेने वाले
कुशल होशियार
लोग हैं।
सावधान रहना!
होशियार रहना!
जागे रहना!
योग चिन्मय!
प्रेम सपना ही
सपना है।
लेकिन
हमारी अड़चन
क्या है? हमारी
अड़चन यह है कि
अगर मैं तुमसे
कहूं प्रेम
सपना ही सपना
है, तो तुम
कहते हो : फिर
प्रेम में
क्या धरा? और
मजा यह है कि
प्रेम में
क्या धरा, ऐसा
सोच कर तुम
प्रार्थना की
तरफ न जाओगे, तुम्हारी
जिंदगी में
घृणा भर जाएगी।
यह हजारों
-हजारों
संन्यासियों
के जीवन में हुआ
है। यह सारा
देश इसी तरह
पीड़ित है, परेज्ञान
है। सब सपना
है, प्रेम
सपना है। दया,
ममता, मोह-सपना
है। सब सपना
है। बात सच है,
लेकिन
परिणाम क्या
है? दया भी
सपना है।
करुणा भी सपना
है; क्रोध
नहीं गया।
तुमने
दुर्वासा
जैसे मुनि
पैदा किए।
इससे घृणा
नहीं गई।
तुम्हारे
तथाकथित साधु
-संन्यासी इस
जगत को बहुत
घृणा करते हैं।
साधारण आदमी
तो कभी-कभी
किसी को घृणा
करता है, लेकिन
तुम्हारे
महात्मा तो
आकंठ घृणा से
भरे हैं। हर
चीज से घृणा
है! हर चीज की
निंदा है। हर
चीज पाप है।
यह तो प्रेम
तो नहीं आया; प्रार्थना
की तो बात दूर;
परमात्मा
तो बहुत -बहुत
दूर-यह तो पतन
हो गया! यह तो
घृणा सब कुछ
हो गई।
खयाल
करते हो, कोई
आदमी अपनी
पत्नी को
प्रेम करता है
और फिर यह
सोचकर कि
प्रेम सपना है,
पत्नी-बच्चों
को छोड्कर
जंगल भाग जाता
है-यह भागना
सपना नहीं है?
यह पति, पत्नी
और बच्चों को
छोड्कर चला
आया है; इसमें
कहीं घृणा है,
कहीं गहरा
जहर है। यह
सपना नहीं है?
यह भी उतना
ही सपना है।
अगर
राग सपना है
तो विराग भी
सपना है। और
अगर संसार
सपना है तो
त्याग भी सपना
है। संसार ही
अगर सपना है
तो त्याग तो
और भी बड़ा
सपना है-सपने
के भीतर सपना
है। अगर संसार
है ही नहीं तो
त्यागते क्या
हो?
जो नहीं है
वह भी त्यागा
जा सकता है? जो है वही
त्यागा जा
सकता है। तो
त्यागियो का
अहंकार
भोगियों के
अहंकार से ज्यादा
गर्हित है, ज्यादा
नारकीय है।
भोगो का
अहंकार
क्षम्य है; त्यागी का
अहंकार
क्षम्य भी
नहीं, क्योंकि
वह और पतित हो
गया। और
तुम्हारे
तथाकथित
त्यागियो के
अगर तुम पास
बैठोगे तो
सिवाय अहंकार
के और कुछ भी न
पाओगे। महा
अहंकार पाओगे!
भोगियों को तो
वे ऐसे देखते
हैं जैसे कीड़े
-मकोड़े!
भोगियों को तो
वे नरक भेजने
बैठे हैं।
भोगियों को तो
वे जानते हैं
कि सबको नरक
में सड़ना है
-सडोगे! उनके
भीतर यही बात
उठ रही है बार -बार,
कि सडोगे!
अभी कर लो
थोड़ा भोग, अभी
कर लो थोड़ा
मजा...।
ईर्ष्या
है इस भाव में
कि सडोगे!
क्योंकि अभी कर
लो थोड़ा मजा, फिर
हम मजा करेंगे
शाश्वत तक, अनंतकाल
तक-स्वर्ग में,
मोक्ष में!
और तुम सडोगे
नरक में। याद
रखना, भूल
मत जाना। कीड़े
- मकोड़े
काटेंगे। आग
के कड़ाहों में
उबाले जाओगे।
सब तरह की
यातनाएं दी
जाएंगी। कर लो
अभी भोग थोड़ा।
तुम्हारे
महात्मा बैठे
-बैठे मन यह
मजा ले रहे
हैं कि कर लो
थोड़ा, और चार
दिन की कहानी,
फिर अंधेरी
रात! चार दिन
की चादनी है, फिर अंधेरी
रात! फिर हम
देखेंगे बैठ
कर ऊपर से, देखेंगे
मुजरा।
देखेंगे नाटक।
फिर सडोगे
नीचे, फिर
गलोगे नीचे।
फिर समझोगे।
कितना समझाया
था, पहले न
समझे।
यह सब
ईर्ष्या है।
संसार
की निंदा जो
कर रहा है, वह
अभी समझा नहीं
कि संसार सपना
है। तुम्हारे
शास्त्रों
में संसार की
ऐसी निंदा भरी
है-और वे ही
शास्त्र कहते
हैं कि संसार
माया है! फिर
निंदा किसकी
कर रहे हो? और
तुम्हारे
शास्त्रों
में त्याग की
बड़ी महिमा है
-और साथ ही
संसार माया है।
जरा मूढ़ता
देखते हो! ऐसा
छोटा-सा गणित
भी तुम्हारी
समझ में नहीं
आता कि अगर
संसार माया है
तो फिर त्याग
की महिमा क्या
है?
जैन
शास्त्र कहते
हैं : महावीर
ने इतने हाथी, इतने
घोड़े, इतने
स्वर्ण -रथ
त्यागे। अगर
यह सब सपना है
तो गधे त्यागे
कि घोड़े कि हाथी,
क्या फर्क
पड़ता है? तुम
सुबह जाग कर
यह तो घोषणा
नहीं करते मोहल्ले
में कि रात
सपने में
स्वर्ण -रथ
देखे, त्याग
कर दिया-सुबह
उठते ही सब
त्याग कर दिए!
लोग हंसेंगे।
तुम्हारे
हाथी सपने के
उतने झूठे हैं
जितने गधे। और
तुम्हारा
स्वर्ण सपनों
का उतना ही
झूठा है जितना
मिट्टी।
महाराष्ट्र
की ही एक
प्यारी कथा है।
रौका नाम का एक
साधु हुआ।
उसकी पत्नी को
नाम मिला-बाक।।
इसी कहानी के
आधार पर नाम
मिला-बाक।।
बांकी औरत रही
होगी। रौका को
मात कर गई।
दोनों त्यागी, फिर
भी भेद दोनों
में। पति तो
त्याग था ऐसा,
जैसे
त्यागी होते
हैं-चेष्टा से,
संयम से, समझा-बुझा
कर, नियंत्रण
से, अपने
को रो -रोकर, किसी तरह
व्रत- उपवास
में अपने को
बौध कर। बोध
से नहीं, योग
से। संयमी था,
त्यागी था।
लेकिन
पत्नी अद्भुत
थी। बोध से...। वहां
घोषणा
भी न थी
त्यागी की।
चुपचाप थी।
स्वाभाविक थी।
बात दिख गई थी
कि सब व्यर्थ
है,
बस बात खत्म
हो गई। छोड़ना
क्या है?
दोनों
लड़कियां काट
लाते, बेच
लेते; जो
मिल जाता उससे
भोजन चल जाता।
एक दिन तीन
दिन तक वर्षा
हो गई बेमौसम,
आशा नहीं थी।
वर्षा का पता
होता तो
लकड़ियां थोड़ी
जोड़ लेते थे, मगर बेमौसम
अचानक वर्षा
हो गई तो तीन दिन
तक लड़कियां न
काट सके। एक
पैसा पास में
न था। तो तीन
दिन उपवास
किया। तीन दिन
के बाद गए
लकड़ी काटने।
लकड़िया काट कर
लौटते हैं; पति आगे है, पत्नी पीछे
है। राह के
किनारे रौका
को दिखाई पड़ा
कि किसी राहगीर
की, किसी
घुड़सवार की, मालूम होता
है थैली गिर
गई। थैली खोली
तो स्वर्ण -
अशर्फियों से
भरी है।
त्यागी आदमी
था, महात्मा
था! उसने कहा :
छी: छी:! कहां
मैंने सोना छू
लिया। सोना तो
मिट्टी है!
फिर उसे खयाल
आया कि मेरी पत्नी
पीछे आ रही है।
पतियों
को पत्नियों
पर तो कभी
भरोसा होता ही
नहीं! कम-से -कम
त्याग के
संबंध में तो
नहीं होता।...
पता नहीं इसका
मन डावाडोल हो
जाए! और
शास्त्र कहते
भी हैं कि
स्त्री नरक का
द्वार है। अब
यह मौका है, अगर
यह जिद पकड़ गई
तो झंझट होगी।
कहेगी कि 'हमेशा
के लिए झंझट
मिट जाएगी, बस यह उठा लो।
परमात्मा की
भेजी हुई चीज
है, क्यों
छोड़ना! कोई
हमने चुराई तो
नहीं है! अगर इसका
मालिक मिल
जाएगा तो लौटा
देंगे। ' ऐसी
सब बातें रौका
के मन में
उठीं-कहीं
पत्नी जोर न
दे, तीन
दिन की भूख भी
है, प्यास
भी है, उस
भी बढ़ गई है, बुढ़ापा भी
करीब आ रहा है
लकड़ी काटने
में भी मुश्किल
होने लगी है, कहीं मन
डावांडोल न हो
जाए! कमजोर ही
तो मन है आखिर।
तो
इसके पहले कि
पत्नी आए, उसने
एक गड्डे में
डाल कर थैली
को मिट्टी से
ढांक दिया। बस
आखिरी मिट्टी
डाल रहा था कि
पत्नी आ गई।
पत्नी ने पूछा
: रौका, क्या
करते हो? कसम
खाई थी सच
बोलने की, इसलिए
सच बोलना पड़ा।
खयाल
रखना, कसमों
से जो सच बोले
जाते हैं वे
सच नहीं होते।
सहज जो सत्य
होते हैं, वे
ही सत्य होते
हैं। मजबूरी थी,
आज बोलना तो
झूठ चाहता था।
कहना तो चाहता
था : कुछ नहीं।
मन में तो
सवाल उठा कि
कह दूं कि एक
सांप था, उसको
मिट्टी से दबा
दिया कि किसी
राहगीर को काट
न दे। मगर कसम
खा ली थी कि सच
बोलना है, झूठ
नहीं। तो उसने
कहा : क्षमा कर,
तूने पूछा
तो सच बोलना
पड़ेगा। मगर
बात यहीं
समाप्त हो जाए,
इससे आगे
नहीं बढ़ानी है।
यहां एक थैली
पड़ी थी, खोली
तो स्वर्ण-
अशर्फियों से
भरी थी। यह
सोचकर कि कहीं
तेरा मन न डोल
जाए, थैली
को डाल कर
गट्टे में
मिट्टी से पूर
रहा था, कि
तुझे थैली
दिखाई न पड़े।
उसकी
पत्नी हंसने
लगी और उसने
कहा : तो तुम्हें
अभी सोने और
मिट्टी में
भेद दिखाई पड़ता
है?
तो वह मुझसे
बार-बार कहते
थे कि सोना
मिट्टी है, वह बात सच
नहीं थी फिर? फिर मिट्टी
में मिट्टी को
दबा रहे हो? थोड़े शर्म
खाओ। थोड़ा होश
सम्हालो। अगर
सोना मिट्टी
है तो फिर
मिट्टी में
मिट्टी को
क्या दबा रहे
हो? और अगर
सोना मिट्टी
नहीं है तो
दबाने से क्या
होगा? सोना
सोना है। हालांकि
तुमने छोड़ा, मगर तुम छोड़
नहीं पाए।
उस दिन
उसकी पत्नी को
नाम
मिला-बांका ।
अद्भुत महिला
रही होगी। बड़े
बोध की महिला
रही होगी। लोग
छोड़ भी देते
हैं तो भी
छूटता कहां? समझा-बुझा
कर छोड़ देते
हैं कि सब
माया है। सब
सपना है; मगर
समझा -बुझा कर।
यह दिखाई नहीं
पड़ रहा है। यह
उनका अंतर
-दर्शन नहीं
है। तुम्हारे
शास्त्र भरे
पड़े हैं संसार
की निंदा से
और साथ ही
कहते हैं कि
संसार माया है।
ये
दोनों बातें
सच नहीं हो
सकतीं। अगर
संसार माया है
तो निंदा
व्यर्थ है। और
अगर निंदा
सार्थक है तो
संसार माया
नहीं है।
तुम्हारे
शास्त्र राकांओं
ने लिखे हैं, बाकांओं
ने नहीं।
कितनी महिमा
गाई गई है
त्याग की और
कितनी निंदा
संसार की!
दोनों ही
व्यर्थ बाते
हैं। न संसार
में कुछ महिमा
गाने योग्य है
और न कुछ निंदा
करने योग्य है।
देख लो, मुस्करा
लो। समझ लो और
सम्हल जाओ।
प्रेम
तो सपना ही
सपना है।
लेकिन फिर याद
दिला दूं :
घृणा की तुलना
में कह रहा
हूं। क्योंकि यहां
सभी वक्तव्य
तुलना के होते
हैं। कोई
वक्तव्य
निरपेक्ष
नहीं हो सकता।
वक्तव्य
मात्र
साक्षेप होते
हैं।
जब
अल्वर्ट
आइंस्टीन ने
पहली बार
सापेक्षता का सिद्धांत
खोजा
तो बड़ा जटिल
प्रक्रिया है
उस सिद्धांत आइंस्टीन
के सापेक्षता
के सिद्धांत को ठीक
से समझते थे। मगर
जहां भी
अल्वर्ट
आइंस्टीन
जाता, लोग
उससे पूछते कि
समझाइए, सापेक्षता
का सिद्धांत क्या है?
वह भी बड़ी मुश्किल
में पड़ता था।
बात बहुत जटिल
है और सूक्ष्म
है। मगर जीवन
का बहुत गहरा
सत्य है उसमें।
महावीर ने इसी
सापेक्षता के सिद्धांत
का
स्यादवाद कहा
है। जो महावीर
ने धर्म के
जगत में किया
था, वही
अल्वर्ट
आइंस्टीन ने
विज्ञान के
जगत में किया
है। ढाई हजार
साल के फासले
पर अल्वर्ट
आइंस्टीन ने
पुन: उसी
सिद्धांत
की स्थापना की
है जो महावीर
ने की थी। मगर
वैज्ञानिक
आधारों पर!
महावीर को बात
तो केवल एक
वैचारिक
उद्घोषणा थी।
महावीर
की बात भी
कठिन है, इसलिए
महावीर को
बहुत अनुयायी
नहीं मिले।
बात जटिल है।
और जो महावीर
के अनुयायी
तुम्हें
दुनिया में दिखाई
भी पड़ते हैं, वे भी
पैदायशी है, उनकी भी समझ
में कुछ नहीं
है। कुछ थोड़े
-से लोग
महावीर से
दीक्षित हुए
होंगे, बहुत
थोड़े -से लोग।
आज भी जैनों
की संख्या
मुश्किल से
तीन लाख है।
अगर तीस जोड़े
महावीर से
दीक्षित हो गए
हों तो पच्चीस
सौ साल में
उनके
बाल-बच्चे
बढ़ते -बढ़ते
तीस लाख हो
जाएंगे। कोई
बहुत ज्यादा
लोग महावीर से
दीक्षित नहीं हुए
होंगे। आदमी
भी चूहों जैसे
बढ़ते हैं, कम-से
-कम इस देश में
तो बढ़ते ही
हैं।
अल्वर्ट
आइंस्टीन की
बात भी बहुत
लोग नहीं समझ
पाते थे, तो
उसने समझाने
के लिए एक
उदाहरण खोज
रखा था। जब भी
कोई पूछता तो
वह कहता कि सिद्धांत
तो
थोड़ा जटिल है,
लेकिन एक
उदाहरण, उससे
शायद समझ में
आ जाए। तो वह
कहता कि
तुम्हें किसी
ने गर्म तवे
पर बिठा दिया,
घड़ी सामने
है, टिक
-टिक करके घड़ी
सेकंड-सेकंड
आगे बढ़ रही है।
तवा गर्म होता
जा रहा है।
तुम उत्तप्त
होते जा रहे
हो। तुम
घबड़ाने लगे।
और पसीना
-पसीना हुए जा
रहे हो। तो
तुम्हें कुछ
हो सेकंड ऐसे
मालूम पड़ेंगे
जैसे कुछ घंटे
बीत गए। और
अगर घंटे- भर
उस गरम तवे पर
बैठे रहना पड़े
तो ऐसा लगेगा
जैसे कि
वर्षों बीत गए
हैं।
दुख
में समय लंबा
हो जाता है।
घड़ी तो अपनी
चाल से चलती
है। लेकिन गरम
तवे पर बैठे
आदमी को लगो।
कि घड़ी भी बेईमान, आज
धीमे चल रही
है। टिक -टिक
भी आज
आहिस्ता-
आहिस्ता हो
रहा है। आज ही
सूझा था अस
घड़ी को भी! रोज
जाती थी गति
से, आज बड़ी
मंथर है। आज
जैसे
झिझक-झिझक कर
चल रही है।
जैसे आज मुझे
सताने का तय
ही कर रखा है।
और
आइंस्टीन यह
भी कहता कि
समझो कि
वर्षों से बिछड़ी
हुई प्रेयसी
तुम्हें मिल
गई आज। यही
घड़ी। तुम अपनी
प्रेयसी का
हाथ हाथ में
लिए,
पूर्णिमा
की रात, बैठे
हो आकाश के
तले। वही घड़ी,
अब भी टिक
-टिक कर रही है;
लेकिन अब घंटे
ऐसे बीत
जाएंगे जैसे
क्षण बीते।
रात ऐसे बीत
जाएगी जैसे
अभी आई अभी गई,
हवा के
झोंके की तरह।
तुम्हारा मन
कहेगा :
बेईमानी घड़ी,
आज बड़ी तेज
चली!
घड़ी तो
वही है, घड़ी
की चाल वही है।
घड़ी को पता भी
नहीं है कि
तुम कब गरम
तवे पर बैठे
थे और कब
प्रेयसी का
हाथ हाथ में
लिए थे। घड़ी
को न तुम्हारी
अमावस का पता
है न तुम्हारी
पूर्णिमा का।
घड़ी तो यंत्र
है। लेकिन
तुम्हारे
भीतर जो
मनोवैज्ञानिक
बोध है समय का,
वह लंबा हो
जाएगा, छोटा
हो जाएगा।
तुम्हारा
मनोवैज्ञानिक
जो बोध है समय
का, वह
भूतियों
निर्भर होता
है होगी
अनुभूति तो समय
थोड़ा हो जाता
है और जब होगी
तो तुम्हारी
अनु पर। जब
सुखद दुखद
बहुत छोटा हो
जाता है।
इसलिए
परम आनंद का
जो क्षण है, समाधि
का जो क्षण है,
उसमें समय
मिट ही जाता
है, समय
बचता ही नहीं।
और जो महादुख
का क्षण है, जिसको हम
नरक कहते हैं...
ईसाइयों का
कथन ठीक है कि
नरक अनंत है।
उस संबंध में
मैं ईसाइयों
से राजी हूं
-बजाय हिंदू र
जैनों, बौद्धों
के। हालांकि
उनकी सिद्धांत
तर्क से बैठता
नहीं।
बर्ट्रेड
रसेल ने एक
किताब
लिखी-काय आय
एक नाट ए
क्रिश्चियन? क्यों
मैं ईसाई नहीं
हूं?' उसमें
बहुत दलीलें
दी हैं अपने
ईसाई न होने
की। उसमें खास
दलील यह दी है
कि ईसाइयत
अन्यायपूर्ण है।
छोटे -मोटे
पापों के लिए
अनंतकाल तक
नरक भोगना
पड़ेगा! और बात
तर्कयुक्त है।
और बर्ट्रेड
रसेल इस सदी
के सर्वाधिक
तर्कयुक्त
व्यक्तियों
में एक था।
उसका कहना ठीक
है, कि
मैंने इस
जिंदगी में
जितने पाप किए
हैं, कठोर
से कठोर
न्यायाधीश भी
मुझे चार साल
से ज्यादा की
जेल नहीं दे
सकता। और अगर
मैं वे पाप भी
गिना दूं जो
मैंने किए नहीं,
करना चाहता
था, तो भी
आठ साल से
ज्यादा की सजा
मुझे नहीं दी
जा सकती। चलो
आठ नहीं, अस्सी
साल दे दो; अस्सी
नहीं आठ सौ
साल दे दो; आठ
सौ नहीं, आठ
हजार साल दे
दों-मगर
अनंतकाल!
टुच्चे
-टुच्चे पापों
के लिए अनंतकाल
तक सडाओगे नरक
में! यह बात
ज्यादती की है।
गणित में
बैठती नहीं।
लेकिन
बर्ट्रेड
रसेल चूक गया, समझा
नहीं। और मुझे
हैरानी होती
है : क्यों चूक
गया! क्योंकि
बर्ट्रेड
रसेल ने
अल्वर्ट
आइंस्टीन के
ऊपर सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
किताब लिखी
है- 'ए. बी. सी.
आफ
रिलेटिविटी'। शायद
सर्वाधिक
समझने योग्य
किताब
बर्ट्रेड रसेल
ने ही लिखी है।
अलबर्ट
आइंस्टीन ने
भी उसकी किताब
की प्रशंसा की
थी, कि इस
किताब से बहुत
लोग समझ
सकेंगे, इतनी
सुगमता से बात
समझा दी है। ए.
बी. सी. आफ रिलेटिविटी'। शायद
सर्वाधिक
समझने योग्य
किताब
बर्ट्रेड रसेल
ने ही लिखी है।
अलबर्ट
आइंस्टीन ने
भी उसकी किताब
की प्रशंसा की
थी, कि इस
किताब से बहुत
लोग समझ
सकेंगे, इतनी
सुगमता से बात
समझा दी है। ए.
बी. सी.! बिलकुल
क्. ख. ग.! सरलता
से कि
सामान्यजन, जो कोई
विशेषज्ञ
नहीं है
भौतिकी का, वह भी समझ ले;
गणित की
जिसे बहुत
ऊंचाई का पता
नहीं है वह भी समझ
ले। तब मैं
चकित होता हूं
कि बर्ट्रेड
रसेल ने सापेक्षवाद
पर इतनी
बहुमूल्य
किताब लिखी, फिर भी उसे
यह खयाल न आया,
सपने में भी
कि यह नरक की
अनंतता की बात
भी कहीं
सापेक्षवाद
के सिद्धांत से
संबंधित तो
नहीं है!
उससे
ही संबंधित है।
अनंत नहीं है
नरक। लेकिन
नरक की पीड़ा
इतनी चरम है
कि अनंत मालूम
होती है। जैसे
समाधि का आनंद
इतना गहन है
कि कालातीत हो
जाता है, समय
विलीन हो जाता
है -ऐसे ही नरक
में समय ही समय
रह जाता है, अंतहीन! अंत
आता ही नहीं
मालूम होता।
नरक में कभी
सुबह नहीं
होती-रात इतनी
लंबी मालूम
होती है!
स्वर्ग में
कभी रात नहीं
होती-दिन इतना
लंबा मालूम
होता है। ये
अंतरप्रतीतिया
हैं।
जिन
लोगों ने कहा
है कि त्याग
बड़ा
महिमापूर्ण है, निश्चित
ही यह उनकी
अंतरप्रतीति
है कि वे अभी भोग
से ग्रस्त हैं;
अभी उनको धन
ने पकड़ा है।
धन के त्याग
की चर्चा कर
रहे हैं, क्योंकि
धन में अभी
उनका लोभ लगा
है। अभी भी
हाथी- घोड़ों
की गिनती कर
रहे हैं-कितने
छोड़े!
रामकृष्ण
के पास एक
आदमी आया।
स्वर्ण-
अशर्फिया
लाया था भर कर
एक झोले में।
और आकर उसने
रामकृष्ण के
चरणों में चढ़ा
दी झोली और
कहा कि लें, ये
हजार स्वर्ण -
अशर्फिया हैं।
कहना नहीं
भूला-हजार!
हजार जरा जोर
से ही कहा।
आसपास बैठे सब
लोगों को
सुनाई भी पड़
जाए। हजार
स्वर्ण -
अशर्फियां उन
दिनों बहुत
बड़ी बात थी।
रामकृष्ण ने
कहा : हजार हों
कि दस हजार, अब यह झंझट, इनकी कौन
देख -रेख
करेगा? तू
एक काम कर...
तूने तो मुझे
दे दी न?
उस
आदमी ने कहा :
आपके चरणों
में समर्पित
है। तो
उन्होंने कहा
: अब तू मेरी
मान। इनको ले
जा और गंगा
में सिरा दे।
गंगा मैया
जाने। अब इनको
कौन देखेगा? कभी
मैं नहाने -
धोने जाऊं तो
अब इनके पीछे
कोई बिठाओ कि
यह देखे कोई।
या फिर इनको
ले जाओ गंगा
साथ; फिर वहां
नहाऊं
तो भी नहीं न
पाऊं, क्योंकि
घाट पर नजर
रखूं कि
अशर्फिया कोई
लेकर न चल दे!
अब यह झंझट तू
ले आया, चल,
तेरी भी कट
गई झंझट, मेरी
भी काट। तू
गंगा में डुबा
दे।
उस
आदमी को बड़ा
धक्का लगा।
ऐसी आशा नहीं
थी। उसने सोचा
था,
रामकृष्ण
कहेंगे : ' अहो,
तू है भक्त!
हे धन्यभागी!
हे महापुरुष!
जन्म- जन्म के
पुण्यों का यह
फल है। तू ही
धन्य नहीं हुआ,
तेरे पितर
भी धन्य हो गए!
इसी को त्याग
कहते हैं! इसी
की महिमा
शास्त्रों
में गाई है। ' यह तो कुछ
कहा नहीं, पीठ
भी न ठोंकी, सिर पर हाथ
रख कर धन्यवाद
भी न
दिया-उल्टे
कुछ नाराज
मालूम हुए; उल्टे कुछ
ऐसा लगा कि
अपनी झंझट
मुझे दे रहा है।...
मेरी भी झंझट
काट भैया, तू
जाकर इनको
गंगा में गिरा
दे। गंगा पास
ही बह रही है।
ज्यादा दूर
जाना भी न
पड़ेगा।
बड़े
बेमन से उस
आदमी ने अपनी
झोली उठाई।
चला गंगा की
तरफ। 'नहीं' भी नहीं कह
सकता। जब दे
ही चुके तो अब
तुम कौन हो
कहने वाले! कई
बात तो मन में
आया कि भाग
जाए बीच से, कौन
रामकृष्ण
पीछे आ रहे
हैं। मगर डरा
भी। लोग
महात्माओं से
डरते भी बहुत
हैं कि पता नहीं
कोई अभिशाप
वगैरह दे दें।
और देखते तो
रहे ही होंगे,
हालांकि
दिखाई नहीं पड़
रहा हूं
उन्हें, मगर
अंतर्दृष्टि
महात्माओं की
तो खुली होती
है। तीसरा
चक्षु! देख
रहे होंगे और
पढ़ रहे होंगे
मेरा विचार भी।
यह ठीक नहीं
है। अब झंझट
में जो हो गया
हो गया, भूल
हो गई। अब
निपटा दो।
मगर
बड़ी देर हो गई, वह
आदमी लौटा
नहीं। तो
रामकृष्ण ने
कहा कि भई बड़ी
देर लग गई, वह
आदमी कहां है,
अभी तक लौटा
नहीं! चले, देखने
उस आदमी को।
वह आदमी क्या
कर रहा था, मालूम
है। घाट पर
उसने बड़ी भीड़
इकट्ठी कर ली
थी। सैकड़ों
आदमी इकट्ठे
हो गए थे। वह
एक-एक अशर्फी
को बजाता था
पहले घाट पर
पत्थर पर गिर
कर। खन -खन, खन-
खन उसको बजाता।
गिनती करता।
पांच सौ सत्तर,
फिर गंगा
में फेंकता।
पांच सौ
अठहत्तर, फिर
गंगा में फेंकता।
ऐसे ही धीरे -
धीरे कर रहा
था और खूब
बजा-बजा कर फेंक
रहा था।
रामकृष्ण गए,
खड़े हो गए
और कहा कि अरे
मूड! गिनती
किसलिए कर रहा
है? जब
फेंकना ही है
तो गिनती
किसलिए? गिनती
जोड़ते वक्त
करनी होती है,
फेंकते
वक्त क्या
गिनती करनी है?
थैली की
थैली फेंक
देना था। और
यह बजा क्यों
रहा है? यह
बजा- बजा कर
लेना... लेते
समय तो ठीक, क्योंकि
कहें कोई धोखा
न दे रहा हो, कोई नकली
सिक्के न पकड़ा
रहा हो। लेकिन
गंगा में
फेंकते वक्त...
गंगा को कोई
फिक्र नहीं है
कि नकली है कि
असली तेरा धन।
गंगा को कुछ
लेना-देना
नहीं है कि नौ
सौ निन्यानवे
फेंकी कि पूरी
हजार फेंकी।
गंगा कुछ
हिसाब-किताब
तेरा रखेगी भी
नहीं। मगर तू
मूड का मूड
रहा!
यह
कहानी सोचने
जैसी है। आदमी
इकट्ठे करते
वक्त भी गिनता
है और छोड़ते
वक्त भी गिनता
है। जब मानता
है कि धन सत्य
है,
तब भी गिनता
है और जब
मानता है कि
धन असत्य है, तब भी गिनता
है! दोनों
हालत में
गिनता है! तो
महावीर ने
कितने घोड़े, कितने हाथी,
कितने रथ, कितना धन, कितनी
अशर्फियां, मणि
-माणिक्य छोड़े,
जैन
शास्त्रों
में
ईसि।लसिला
बड़ा लंबा है।
ऐसा ही बौद्ध
शास्त्रों
में है, बुद्ध
ने कितना छोड़ा।
एक -दूसरे से
होड़ लगी है।
बढ़ाए चले जाते
है।
तुम
अगर शास्त्र
उठा कर देखोगे
तो जैसे -जैसे शास्त्र
बाद में लिखे
गए वैसे - वैसे
संख्या बढ़ती
चली गई।
क्योंकि
महावीर ने
हजार स्वर्ण
-रथ छोड़े तो
बौद्ध कोई
पीछे तो नहीं
रह जाएंगे :
उन्होंने
बुद्ध से एक
हजार एक छुड़वा
दिए। तो फिर
जब शास्त्र
लिखा गया तो
जैनियों ने एक
हजार दो छुड़वा
दिए,
क्योंकि वे
कहीं पीछे तो
नहीं रह
जाएंगे।
महावीर- बुद्ध
से तो कुछ
लेना-देना
नहीं है। न तो
महावीर के पास
इतने रथ थे और
न बुद्ध के
पास, क्योंकि
दोनों का
राज्य बहुत
छोटी-छोटी
तहसीलों से
ज्यादा नहीं।
बुद्ध के
जमाने में
भारत में दो
हजार राज्य थे,
कोई बहुत
बड़े राज्य हो
नहीं सकते
उनके पास।
बुद्ध के बाप
-दादो का नाम
कोई इतिहास
में नहीं है; वह तो बुद्ध
की वजह से।
महावीर के बाप
-दादो का भी
नाम कोई
इतिहास में नहीं
है; वह तो
महावीर की वजह
से थोड़ी याद
रह गई है। तो
ये हाथी-
घोड़ों के कारण
नाम नहीं इनके।
लेकिन फिर भी
हमारा मन तो
वही है।
तो
तुमसे मैं यह
कहना चाहता हूं
: घृणा की
तुलना में
कहता हूं, प्रेम
को पकड़ो।
लेकिन प्रेम
को ही पकड़ कर
बैठ मत जाना।
और आगे चलना
है।
प्रार्थना की
तुलना में
प्रेम को जाने
दो, प्रार्थना
को पकड़ो।
लेकिन
प्रार्थना को
ही पकड़ कर मत
बैठ जाना। और
आगे चलना है।
चलना है तब तक
जब तक कि चलने
वाला शेष है।
जब चलने वाला
शेष न रह जाए, गंगा न बचे
और गति ही बचे,
तब समझना कि
आ गए घर। फिर
सत्य है। तब
तक तो सब सपने
ही सपने हैं।
अच्छे सपने, बुरे सपने, मीठे, कडुवे;
स्वर्ग के,
नरक के -मगर
सब सपने हैं।
सत्य तो एक
है-साक्षी।
शेष सब सपना
है।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान!
अहंकार होने
का कोई भी
कारण नहीं है, फिर
भी अहंकार
क्यों है?
मुकेश
भारती!
अहंकार
होने का कारण
तो कोई भी
नहीं है, लेकिन
अहंकार होने
के निमित्त
हैं। और
निमित्त और
कारण का भेद
समझना होगा।
कारण
तो यथार्थ
होते हैं; निमित्त
मनुष्य
-निर्मित होता
है। कारण तो
अस्तित्व के
हिस्से होते
हैं; निमित्त
मनुष्य के मन
के हिस्से
होते हैं।
निमित्त यानी
बहाने। बहाने
बहुत हैं।
तुम्हारा
अहंकार
बहानों की
बैसाखियों पर
टिका है। उसके
कोई कारण नहीं
हैं। कारण तो
बिलकुल नहीं
हैं। अगर कारण
देखने चलो तो
अहंकार विलीन
हो जाएगा। जो
भी कारण की
खोज में गए
हैं उन्होंने
अहंकार पाया
ही नहीं है।
लेकिन तुम
कारण की खोज
ही कहां करते
हो! तुम
निमित्त की
खोज करते हो, तुम बहाने
खोजते हो।
जैसे
तुम्हारे पास
दस रुपये हैं, तो
दस रुपये वाला
अहंकार होगा
तुम्हारे पास।
स्वाभाविक।
इससे बड़ा
अहंकार कहां
से लाओगे? दस
के नोट से बड़ा
नहीं हो सकता।
फिर तुम्हारे
पास दस लाख
रुपये हैं तो
तुम्हारे पास
और बड़ा अहंकार
होगा-दस लाख
रुपये वाला
अहंकार होगा!
निमित्त
तुम्हारे पास
बड़ा है; बैसाखी
बड़ी है! तुम
अपनी पतंग को
आकाश में उड़ाओगे;
डोर बड़ी है।
लोग
निमित्त खोज
रहे हैं- धन बढ़
जाए,
पद बढ़ जाए, त्याग बढ़
जाए। इसलिए मन
की एक ही खोज
है- और, और, और। अगर मन
की तुम
परिभाषा
समझना चाहो तो
यह जो ' और
की पता' है,
यही मन की
परिभाषा है।
और मन क्यों
मांगता है और,
और? और
मजा ऐसा है कि
यह और किसी भी
चीज पर लागू
हो सकता है-यह
धन पाने में
लागू हो सकता
है, यह धन
छोड़ने में
लागू हो सकता
है। इसलिए धन
पाने वाला
कहता है : और धन
मिले तो तृप्ति
होगी। और
त्यागी कहता
है : ' और छोड'
और छोडूं।
अभी दिन में
एक बार भोजन
करता हूं; अब
दो दिन में एक
बार भोजन
करूंगा, तब...
तब उपलब्धि
होगी। अभी दो
ही वस्त्र
बचाए हैं; जब
बिलकुल नग्न
हो जाऊंगा तब
उपलब्धि होगी।
नग्न तो हो
गया हूं? धूप-
धाप भी सहता
हूं; लेकिन
जब तक कांटो
की शैया बना
कर न लेटूगा
तब तक उपलब्धि
नहीं होगी। ' और की दौड़
जारी है!
धन के
पीछे दौड़ने
वाला भी और के
पीछे लगा है
और त्याग की
दिशा में चलने
वाला भी और के
पीछे लगा है!
और नहीं जाता।
और निमित्त है, कारण
नहीं है।
बच्चा
जब पैदा होता
है तो उसमें
कोई अहंकार नहीं
होता, कोई मैं -
भाव नहीं होता।
मनोवैज्ञानिकों
ने इस संबंध
में बहुत शोध
-कार्य किया
है; खास कर
पियागे ने
बहुत काम किया
है। बच्चा जब
पैदा होता है,
उसके पास
कोई मैं भाव
नहीं होता। बच्चे
थोड़े बड़े भी
हो जाते हैं
तब तक भी
उनमें मैं -
भाव नहीं होता।
तुमने देखा
होगा, छोटा
बच्चा कहता है
कि बेबी को
भूख लगी है! यह
नहीं कहता कि
मुझे भूख लगी
है? कहता
है बेबी को
भूख लगी है।
जैसे बेबी कोई
और। अभी मैं -
भाव नहीं
जन्मा है।
यह
जानकर तुम
चकित होओगे कि
पहले तू - भाव
पैदा होता है, फिर
मैं - भाव पैदा
होता है। पहले
बच्चा समझने
लगता है कि
कुछ लोग हैं
जो उससे भिन्न
हैं। मां है; कभी उपलब्ध
होती है, कभी
उपलब्ध नहीं
होती है। कभी
भूख लगती है
तो मां एकदम
पास होती है, स्तन दे
देती है और
कभी भूख लगती
है तो रोता है,
चिल्लाता
है और मां
अपने काम में
व्यस्त है, नहीं आती, नहीं आती।
एक बात समझ
में आने लगती
है उसे कि मै।
मुझसे भिन्न
है। ऐसी कोई
भाषा में नहीं,
ऐसी
प्रतीति होने
लगती है कि
मां मुझसे
भिन्न है; अन्यथा
चौबीस घंटे
उपलब्ध होनी
चाहिए थी। अभी
सब चीजें
धुंधली- धुंधली
होती हैं। अभी
कुछ नहीं
मिलता तो अपने
पैर का अंगूठा
ही पकड़ कर
चूसने लगता है।
अभी उसे यह भी
पक्का नहीं है
कि पैर का
अंगूठा मेरा
ही है, कि
मैं अपना ही
अंगूठा चूस
रहा हूं कि
इससे ज्यादा
बुद्धूपन का
और क्या काम
होगा! और इस
अंगूठे से कुछ
मिलने वाला
नहीं है। अभी
चीजें बिलकुल
धुंधली हैं, कुछ साफ
नहीं है। अभी
चीजें बिलकुल
ही पृथक नहीं
हुई है।
लेकिन
धीरे-धीरे
पृथकता का बोध
पैदा होगा।
मां कभी होती
है,
कभी नहीं
होती है। कभी
खुश होती है, कभी नाखुश
होती है। कभी
थपथपाती है, कभी
लापरवाही
दिखाती है। एक
बात साफ होने
लगती है कि
मां चौबीस
घंटे मुझे
उपलब्ध नहीं
है, इसलिए
मुझसे भिन्न
है। खयाल रखना,
ऐसा कोई
बच्चा तर्क
नहीं करता, बच्चा ऐसा
कोई तर्क नहीं
कर सकता; मगर
इसकी
प्रतीतिया
उसे होने लगती
हैं, इसकी
अंतःप्रज्ञा
होने लगती है।
पहले तू का
जन्म होता है।
फिर पिता को
देखता है, भाई-बहन
को देखता है।
वे कभी आते
हैं, कभी
जाते हैं; आते
-जाते देखता
है, भाई-बहन
को देखता है।
वे कभी आते
हैं, कभी
जाते हैं; आते
-जाते देखता
है, भाई-
बहन को देखता
है। वे कभी
आते हैं, कभी
जाते हैं; आते
-जाते देखता
है। धीरे -
धीरे तू
स्पष्ट होने
लगता है कि
लोग मुझसे
भिन्न हैं। और
तब इसके
परिणाम
-स्वरूप यह
उसे याद आती
है कि मैं भी
भिन्न हूं। जब
लोग मुझसे
भिन्न हैं तो
मैं उनसे
भिन्न हूं।
पहले
तू पैदा होता
है,
फिर मैं
पैदा होता है।
तू की बैसाख
पर मैं टिक
जाता है। फिर
मैं को और - और
बैसाखिया
चाहिए-मेरा
खिलौना, मेरा
झूला, मेरी
साइकिल, कोई
दूसरे को छूने
न दूंगा। फिर
मेरे का फैलाव
शुरू होता है
-मेरा कमरा, मेरी मां, मेरे पिता।
छोटे
-छोटे बच्चे
जब घर में कोई
नया बच्चा पैदा
होता है तो
बड़ी ईर्ष्या
से भर जाते
हैं,
भयंकर
ईर्ष्या से भर
जाते हैं! तुम
छोटे बच्चों
को इतने भोले
मत समझना
जितना तुम
मानते हो।
तुम्हारे
छोटे बच्चों
में वे सब
बीमारियां मूल
रूप में मौजूद
हैं जो तुम
में प्रगट
होती हैं बाद
में। घर में
नया बच्चा
पैदा होता है,
छोटे बच्चे
बड़े ईर्ष्या
से भर जाते
हैं; चाहते
हैं कि मर ही जाए।
यह और झंझट कहां
से आ गई!
क्योंकि इस
बच्चे की
उपेक्षा होने
लगती है। बाप
भी आता है तो
इस छोटे बच्चे
को पुचकारता है।
सारे घर का
ध्यान इस पर
लग गया। पड़ोस
के लोग भी
देखने आते हैं
नए बच्चे को।
बड़ा बच्चा एक
कोने में खड़े
होकर देखता
है-उपेक्षित,
निरादृत।
अचानक अब तक
वही केंद्र था,
अब केंद्र
से हट गया, परिधि
पर पड़ गया।
कभी-कभी छोटे
बच्चे गर्दन
भी दबाना
चाहते हैं नए
आगंतुक की।
कल्पना तो
बहुत बार करते
हैं कि कोई
भूत -प्रेत
आएगा और ले
जाएगा; कोई
बाबा आएगा और
ले जाएगा; इससे
कैसे छुटकारा
हो!
यह 'मैं'
ने संघर्ष
करना शुरू कर
दिया। पहले तू
का सहारा लिया,
फिर मेरे का
सहारा लिया।
अब ईर्ष्या
जन्मी, अब
और दीवालें
मजबूत होने
लगीं। फिर
प्रतिस्पर्धा
जन्मेगी-स्कूल
में मुझे प्रथम
आना है। फिर
स्कूल से लेकर
विश्वविद्यालय
तक स्वर्ण -पदक
पाना है। फिर
प्रतिस्पर्धा,
गलाघोंट
प्रतिस्पर्धा...
यह 'मैं' फिर और - और
निमित्त खोज
रहा है। फिर
विश्वविद्यालय
से निकल कर
बड़ी पदवी पानी
है, बड़ी
नौकरी पानी है,
देश का
प्रधानमंत्री
बनना है।
छोड़ती ही नहीं
यह बात, मरते
दम तक नहीं
छोड़ती! झूले
से पकड़ती है
और कब्र तक
नहीं छोड़ती।
और कारण कुछ
भी नहीं है-निमित्त।
कारण
का तो अर्थ
होता
है-वास्तविक;
निमित्त का
अर्थ होता
है-कल्पित।
जिस दिन भी
तुम आंख बंद
करके भीतर
झाकोगे, पाओगे
वहां कोई
अहंकार नहीं
है। आत्मा तो
है, अहंकार
नहीं है।
आत्मा का अर्थ
ही होता है
निर - अहंकार
अस्तित्व। तो
जिन्होंने
भीतर झांका
उन्होंने कहा
अहंकार झूठ है।
और जो बाहर ही
दौड़ते रहे
उन्होंने
माना कि अहंकार
ही एकमात्र
सत्य है। उठते
रहो ऊंचे से
ऊंचे
सिंहासनों पर;
बस यही
एकमात्र जीवन
का अर्थ है।
और फिर गिर
जाओ एक दिन
कब्र में और
मिल जाए धूल धूल
में और गिर
जाएंगे
तुम्हारे
सारे अहंकार।
च्चांगत्सु
एक
कब्रिस्तान
से गुजरता था।
सांझ का वक्त
था,
अंधेरा हो
रहा था।
कब्रिस्तान
में पड़ी एक
खोपड़ी से उसका
पैर टकरा गया।
वह एकदम घुटने
टेककर बैठ गया,
खोपड़ी को
हाथ जोड़े।
उसके शिष्य तो
बड़े चौंके।
च्चागत्सु एक
बुद्ध पुरुष
था, यह क्या
कर रहा है!
उसने बड़ी
प्रार्थना की।
उस खोपड़ी से
कहा : माफ करना!
आप कोई
छोटी-मोटी खोपड़ी
नहीं हैं, क्योंकि
मुझे पक्का
पता है यह बड़े
लोगों का कब्रिस्तान
है। यहां केवल
राजा-महाराजा,
पुरोहित, महात्मा, वे ही दफनाए
जाते हैं। यहां
केवल राजा
-महाराजा, पुरोहित,
महात्मा, वे ही दफनाए
जाते हैं। आप
जरूर किसी
महात्मा की या
किसी राजा
-महाराजा की
खोपड़ी है। यह
तो संयोग की
बात है कि आज
आपके ऊपर चमड़ी
नहीं है और
भीतर अहंकार
का ढोल नहीं
बज रहा है, नहीं
तो मेरी
मुश्किल हो
जाती। यह तो
बिलकुल संयोग
की बात है कि
बच गए। जान
बची और लाखों
पाए...। अगर
भीतर अहंकार
का ढोल बज रहा
होता और ऊपर
चमड़ी चढ़ी होती
और हाथ-पैर
में चलने की
गति होती, तो
आज हम मारे गए
थे। मगर फिर
भी हो तो आप
किसी न किसी
बड़े आदमी की
खोपड़ी, माफी
तो मांग ही
लूं।
खोपड़ी
को उठा लाया।
उसे अपने पास
ही रखता था।
शिष्य पूछते भी
कि यह आप क्या
कर रहे हो? तो
वह कहता कि
इससे मुझे याद
बनी रहेगी और
तुम्हें भी
याद बनी रहेगी
कि अपनी खोपड़ी
की यह गति
होनी है। अब
ये सज्जन, महाराजा
रहे होंगे, कि कोई
महात्मा रहे
होंगे। अब
इनकी हालत
देखते हो, मारो
ठोकर, खेलो
फुटबाल! कुछ
कर सकते नहीं!
च्चांगत्सु
कहाता है कि
इससे मुझे बड़ा
लाभ हुआ है।
इसको मैं रखे
ही रहता हूं
पास। कल ही एक
आदमी आया और
गाली देने लगा।
वह गाली देता
था,
मैं खोपड़ी
की तरफ देखने
लगा। उसने
पूछा : क्या कर
रहे हो? मैंने
कहां : मैं इस
खोपड़ी की तरफ
देख रहा हूं।
उसने कहा : मैं
कुछ समझा नहीं।
मैंने कहा :
तुम समझोगे भी
नहीं। मगर
समझना चाहो तो
मत समझाने को
राजी हूं। आया
था गाली देने,
समझने को
बैठ गया! कहने
लगा कि
समझाइये, क्यों
मैं गाली दे
रहा हूं आप
खोपड़ी क्यों
देख रहे हैं?
तो
च्चांगत्सु
ने कहा : मैं
खोपड़ी देख कर
यह सोच रहा
हूं कि यही
हालत अपनी भी
होने वाली है।
खोपड़ी कल पड़ी
होगी। यही
आदमी लात
मारेगा तो हम
यह भी न कह
सकेंगे कि 'क्यों
३! तूने लात
मारी? मजा
चखाऊंगा तुझे!
तूने समझा
क्या है? तू
समझता क्या है
कि मैं कौन
हूं?' यह भी
न कह सकूंगा।
तो एक दिन बाद
जो बात होनी
है, आज यह
गाली दे रहा
है, क्या
बनता-बिगड़ता
है! यह खोपड़ी
तो धूल में
मिल जाने वाली
है। यह सब तो
धूल में गिर
जाने वाला है।
जो
भीतर झाकेगा
वह पाएगा कि
बाहर का तो सब
गिर जाने वाला
है- धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा
यश- मान। ही, भीतर कुछ एक
अस्तित्व है
जो बचेगा। वह
अस्तित्व
कोरा
अस्तित्व है
-आकाश जैसा
निर्मल! उस पर
कभी कोई धूल
पड़ती है, न वहां
कोई
मैं का भाव है।
मैं के
लिए कारण तो
कोई भी नहीं
है,
मुकेश।
निमित्त
तुमने खोज
लिये हैं। और
जब तक तुम
निमित्त
खोजते रहोगे,
अहंकार बना
रहेगा।
अहंकार तो ऐसा
है जैसे कोई
साइकिल को
चलाता है; पैडिल
मारते रहो तो
साइकिल चलती
है। पैडिल
मारना बंद कर
दो तो हो सकता
है, दस
-पांच कदम चली
जाए पुरानी
गति के आधार
पर, लेकिन
फिर गिर जाएगी।
अहंकार को
पैडिल मारते
रहो रोज-रोज, तो चलता है।
आज पैडिल
मारना बंद कर
दो तो दो -चार
दिन में गिर
जाएगा।
मेरी
दृष्टि में
अहंकार को
पैडिल मारना
बंद कर देने
का नाम ही
संन्यास है।
अहंकार के लिए
निमित्त की और
तलाश न करना, यही
संन्यास है।
और जिस दिन
तुम तलाश न
करोगे अहंकार
के लिए निमित्तों
की, पुराने
निमित्त
ज्यादा दिन
काम नहीं
आएंगे।
पुराने
निमित्त बस
गिर जाएंगे, अपने से गिर
जाएंगे। उनको
रोज-रोज नया
करना होता है,
तो ही जीवित
रहते हैं।
उनमें रोज
-रोज प्राण
डालने होते
हैं।
और बड़ा
महंगा सौदा है
यह : आत्मा को
गंवा कर अहंकार
हाथ में लगता
है। और अहंकार
बिलकुल झूठ है, आभास
मात्र है।
आत्मा तो खो
जाती है, छाया
बचती है।
जर्मन
कहानी है एक
कि एक आदमी ने
बहुत दिन तक तपश्चर्या
की। देवदूत
प्रगट हुआ। उस
फरिश्ते ने
कहा कि मांग
ले कुछ मांगना
हो। तो उस
आदमी ने कहा :
कुछ ऐसी चीज
दो जो कभी
किसी का न दी
हो। पताने
वाले तो बहुत
हुए होंगे; मैं
तो कोई ऐसी
चीज मागता हूं
जो कभी हुई न
हो और कभी हो
भी नहीं। उस
फरिश्ते ने
कहा : तो ठीक, ऐसा ही किए
देते हैं। कल
से तेरी छाया
न बनेगी। धूप
में चलेगा, तो भी छाया
नहीं बनेगी।
वह
आदमी तो बड़ा
खुश हुआ। उसने
कहा कि गजब
हुआ! सारी
दुनिया में
ख्याति हो
जाएगी। ऐसा
आदमी न कभी
इतिहास में
हुआ,
न कभी
होगा-कि जो धूप
में चले और
जिसकी छाया न
बने! भाग।, पहाड़
वगैरह छोड़
दिया, जहां
बैठ कर
तपश्चर्या कर
रहा था। वह
तपश्चर्या भी
अहंकार के लिए
नए निमित्त खोजने
की तलाश थी।
और इससे बड़ा
निमित्त और
क्या मिल सकता
था, जरा
सोचो तुम कि
तुम धूप में
चलो और
तुम्हारी छाया
न बने! सारी दुनिया
चरण छूने आएगी।
आया
नगर में, घूमा।
बात कुछ उल्टी
ही हो गई। लोग
उससे बचने लगे।
लोग कन्नी काट
जाएं। जहां से
निकले, कोई
दूसरा आदमी आ
रहा हो परिचित,
तो वह बगल
की दुकान में
घुस जाए आदमी,
या बगल की
गली से निकल
जाए। अपने
बिलकुल पराए
होने लगे।
मित्र पास न
आएं, गांव-
भर में खबर
फैल गई कि यह
आदमी भूत
-प्रेम हो गया,
या क्या
मामला है!
इसकी छाया
नहीं बनती!
कहानियों में
तो सिर्फ भूत
-प्रेतों की
छाया नहीं बनती
या देवताओं की
छाया नहीं
बनती। तो
देवता तो यह
हो नहीं सकता।
देवता तो कोई
मान नहीं सकता
इसको। कोई इस
दुनिया में
किसी दूसरे को
देवता मानने
को आसानी से
राजी नहीं
होता। भूत
-प्रेत हो गया
है।
घर के
लोग अपना
दरवाजा बंद कर
लिए,
जब वह अय।!
पत्नी ने कहा :
क्षमा करो, पतिदेव!
अपनी गुफा में
ही रहो! आखिर
हमें भी जीना
है। बाल
-बच्चे हैं, इनको बड़ा
करना है। तुम
गए सो गए, वह
ठीक है; अब
तुम हमें और
बरबाद न करो।
तुम्हें
देखकर डर लगता
है। बच्चे जो
एकदम झूल जाते
थे उसके गले
से आकर, वे
मै। के पीछे
छिप कर खड़े हो
गए। डैडी भूत
हो गए!
मित्रों ने
दरवाजे बंद कर
लिए। होटलों
में लोग एकदम
दरवाजे बंद
करने लगें, भोजन देने
को कोई राजी
नहीं। छाया नहीं
बनती, लेकिन
भूख तो लगती
ही थी। पानी
पिलाने को कोई
राजी नहीं। और
लोगों ने कहा
कि अगर तुमने
गांव नहीं
छोड़ा तो हम
पुलिस को
पकड़वा देंगे।
बड़ा
हैरान हुआ कि
यह भी क्या
मैंने वरदान
मांग लिया! हट
जाना पड़ा उसे
गांव से। बड़े
अपमान में।
यह
कहानी बड़ी
अर्थपूर्ण है।
उस आदमी की
छाया खो गई थी
और ऐसी हालत
हो गई। और
तुम्हारी
आत्मा खो गई
है,
सिर्फ छाया
बची है।
तुम्हारी
हालत तो सोचो!
उस आदमी की
आत्मा तो बची
थी, छाया
खो गई थी।
तुम्हारी
छाया बची है, आत्मा खो गई
है।
छाया
है अहंकार। और
फिर अहंकार के
लिए निमित्त
जितने मिल
जाएं उतना बड़ा
हो सकता है।
निमित्त टूट
जाएं, उतना
छोटा हो जाता
है। इसलिए तो
जो व्यक्ति एक
बार जिस पद पर
पहुंच जाता है
उसको छोड़ता ही
नहीं।
दिल्ली
में तुम देखो
न, किस्सा
कुर्सी का
खत्म थोड़े ही
हो गया है! किस्सा
कुर्सी का कभी
खत्म होता ही
नहीं। हर एक
अपनी कुर्सी
को ऐसे पकड़ कर
बैठा है! और छुड़ाने
वाले भी चारों
तरफ लगे हैं, चींटों की
तरह! जैसे
चींटे गुड़ पर
लगे हों! वे भी
अपनी खींचतान
में लगे हैं।
किसी को फिक्र
ही नहीं कि
कुर्सी बचेगी
भी कि नहीं।
कोई फिक्र
नहीं कुर्सी
की, एक टन
ही हाथ लग जाए
तो भी ठीक।
कुर्सी के लिए
इतनी खींचतान!
और जो जिस
कुर्सी पर
पहुंच जाता है
उससे हटता
नहीं, चाहे
कितने ही जूते
पड़े और चाहे
कितनी ही फजीयत
हो; बिलकुल
बैठा ही रहता
है अकड़।।
कुर्सी को
पकड़े ही रहता
है जब तक मर ही
न जाए!
किसी
को कुर्सी से
उतारना
मुश्किल है।
जो चढ़ गया वह
चढ़ गया। पहले
चढ़ने के लिए
कोशिश करो; फिर
चढ़ जाओ तो
पकड़ने की
कोशिश करो। जब
तक चढ़े नहीं
थे तब तक जो
अपने मित्र थे,
चढ़ जाने के
बाद दुश्मन हो
जाते हैं, क्योंकि
वे ही खींचतान
शुरू करते हैं।
दुश्मन फिर
दुश्मन नहीं
रह जाते।
दुश्मन तो
बहुत दूर रहते
हैं कुर्सी से।
जो अपने हैं, जो मित्र
हैं, जिनके
कंधों पर चढ़
कर तुम पहुंच
गए कुर्सी तक,
अब वे ही
कहते हैं कि
अब बैठ लिए
काफी, अब
हमें बैठने
दो! अब हम भी
थोड़ा आराम
करें!
मगर जो
बैठ गया
कुर्सी पर, कुर्सी
नहीं छोड़ता।
क्योंकि
कुर्सी छोड़ते
ही उसकी हालत
बुरी हो जाएगी।
कुर्सी छोड़ते
ही अहंकार को
सिकुड़ना
पड़ेगा। फैलने
में तो अहंकार
को अच्छा लगता
है, सिकुड़ने
में बड़ी पीड़ा
होती है।
जिसके
पास धन है, धन
नहीं छोड़ सकता।
जिसके पास यश
है, यश
नहीं छोड़ सकता।
यश के लिए जो
भी करना पड़े करने
को राजी रहता
है। उपवास
करवाओ तो
करेगा, क्योंकि
महात्मा नहीं
तो महात्मा
नहीं रहेगा।
सिर के बल खड़ा
करो तो सिर के
बल खड़ा होगा, नहीं तो
महात्मा नहीं
रहेगा। मैं
एक गांव में
गया। लोगों ने
कहा : गांव में
एक महात्मा
हैं। वे दस
साल से खड़े
हुए हैं, बैठते
ही नहीं।
मैंने कहा :
तुम बैठने
नहीं देते
होओगे।
उन्होंने कहा
: नहीं, हम
तो कुछ नहीं
करते। मैंने
कहा : तुम्हें
पता नहीं है, लेकिन तुम
बैठने नहीं
देते होओगे।
चलो मैं जरा
देखूं।
महात्मा
की हालत बड़ी
बुरी हो गई।
उनका नाम ही
खड़े श्री बाबा
हो गया। वे
खड़े ही हैं।
अब खड़ा होना
दस साल कोई
आसान मामला
नहीं है। तो
दोनों हाथों
में बैसाखिया
लगा दी गई हैं।
ऊपर हाथ जंजीर
से बांध दिए
गए हैं, क्योंकि
कहीं भूल-चूक
से बैठ न जाएं।
मैंने
कहा : यह जंजीर
किसने बाधी है? वे
बैसाखिया
किसने लगाई
हैं?
और
उनके पैर
हाथी-पांव हो
गए हैं क्योंकि
सारा खून शरीर
का उतर कर
पैरों में चला
गया है। वह
आदमी बड़े कष्ट
में है। अब तो
वह बैठना भी
चाहे तो नहीं
बैठ सकता।
उसके पैर न
बैठने देंगे।
अब पैर
मुड़ेंगे भी
नहीं, दस साल
हो गए। और इस
खड़े होने में
ही तो सारी
उसकी
प्रतिष्ठा है।
लोग आते रहते
हैं, दिन
-रात मजमा लगा
रहता है। पैसे
चढ़ रहे हैं, सिर झुकाएं
जा रहे हैं, मनौतिया
मनाई जा रही
हैं, बैड
-बाजे बजाए जा
रह हैं। और वह
आदमी बिलकुल
मुर्दे की तरह
खड़ा है। न
उसकी आखों में
कोई ज्योति है
न चेहरे पर
कोई भाव है।
इस
आदमी को क्या
हुआ?
यह आदमी भीड़
का शिकार है, जैसे और
सारे लोग भीड़
के शिकार हैं।
कोई प्रधान
मंत्री होकर
शिकार है; यह
आदमी खड़े होकर
महात्मा हो
गया है, अब
यह चक्कर में
पड़ गया है। अब
बैठ नहीं सकता।
अब बैठे तो सब
प्रतिष्ठा गई।
अगर खड़े श्री
महाराज बैठ
जाएं तो कौन
जाएगा फिर, फिर कौन
पूजा करेगा!
मेरे
पास जैन मुनि
कभी- कभी आ
जाते थे। दो
जैन मुनि आए-
आचार्य तुलसी
के शिष्य।
उन्होंने कहा
कि हमने आशा
तो ले ली है, तुलसी
जी से, मगर
उन्होंने कहा
: किसी को पता न
चले! क्योंकि यहां
तो मेरे पास
आना ही खतरनाक
है, अगर
किसी को पता
चल जाए...! तो
चुपचाप जाना,
छिपकर जाना।
दोनों ध्यान
करने आए थे।
मैंने
कहा : करो
ध्यान। मगर
ध्यान ऐसा है
कि छिप कर हो न
सकेगा। इसमें
उछलना पड़े, कूदना
पड़े।
उन्होंने
कहा : हम मुनि
हैं,
हम बहुत दिन
से उछले -कूदे
भी नहीं। बचपन
के बाद उछले
-कूदे नहीं।
मैंने
कहा : वह तुम
सोच लो। इसमें
शोरगुल भी
मचाना पड़ेगा।
उन्होंने
कहा : तो कमरा
बंद करके अगर
करें? मैंने
कहा : कमरा बंद
करके करना हो
तो कमरा बंद करके
करो। जैसी
तुम्हारी
मर्जी।
'किसी
को पता तो न
चलेगा?'
मैंने
कहा : ध्यान का
अगर पता भी चल
जाए तो हर्ज क्या? कुछ
बुराई है?
उन्होंने
कहा। बुराई यह
है कि हमारे
श्रावक क्या
सोचेंगे? वे
तो सोचते हैं
कि हम
आत्मज्ञान को
उपलब्ध हो गए
हैं। और हम
उछल-कूद रहे
हैं!
मैंने
कहा : वैसे
तुम्हारी
मर्जी है। अगर
आत्मज्ञान को
उपलब्ध हो गए
हो तो फिर कोई हर्जा
नहीं, फिर तो
उछलों -कूदो!
अब तुम से कोई
क्या चीज छीन
लेगा?
कहा कि
नहीं, अभी
उपलब्ध तो
नहीं हुए। तो
मैंने कहा :
फिर तो
उछलना-कूदना
ही पड़ेगा।
नहीं तो
उपलब्ध न हो
सकोगे।
दोनों
उछले -कूदे।
चैतन्य भारती
से मैंने कहा
कि दोनों की
तस्वीरें ले
लेना।
तस्वीरे हैं!
बाद में उनको
पता चला।
मागने आए कि
तस्वीरें
हमारी दे दें।
मैंने
कहा :
तस्वीरें तो
रहने दो। एक
प्रमाण रहेगा
कि महात्मा भी
उछले -कूदे।
बड़े उदास थे
कि यह ठीक
नहीं हुआ कि
किसी न तस्वीरें
ले लीं। हमको
पता ही न चला।
हमारी तो आंख पर
पट्टी बंधवा
दी थी आपने।
आंख पर
पट्टी इसलिए
बंधवाई जाती
है कि जिसमें
तस्वीर लेने
वालों को कोई
अड़चन न हो। वे
तो चले गए, लेकिन
उनके शिष्य कई
बार आ चुके
हैं कि वे तस्वीरे
दे दें।
तस्वीरों
से तुम्हें
क्या फिक्र है?
उनको
डर लगा है कि
किसी दिन वे
तस्वीरें
प्रगट न हो
जाए,
नहीं तो
प्रतिष्ठा का
क्या होगा? तेरापंथी
मुनि और आंख में
पट्टी बौध कर
और नाच रहे
हैं, हूं
-हूं कर रहे
हैं! और बड़े
ज्ञानी-मुनि!
एक की उस कोई
होगी
साठ-सत्तर साल,
दूसरे की
होगी कोई
पैंतीस -चालीस
साल। और उनकी
बड़ी ख्याति है।
नाम उनका न
बताऊंगा
क्योंकि नाहक
क्यों उनको कष्ट
देना! उनकी
बड़ी ख्याति है।
सैकड़ों लोग
उन्हें मानते
हैं। उनको डर
है बहुत, कि
कहीं पता न चल
जाए! किसी को
अगर जरा पता
चल गया तो
प्रतिष्ठा
गिर जाएगी।
यह तो
वही अहंकार का
खेल चल रहा है!
भेद कहां है? कोई
कुर्सी पकड़े
है, कोई
अपना यश पकड़े
हैं। कोई धन
पकड़े है, कोई
ज्ञान पकड़े है।
ये
निमित्त हैं, मुकेश!
अहंकार का कोई
कारण नहीं है।
लेकिन
निमित्त बहुत
हैं। और
निमित्त
तुम्हारे
निर्मित हैं।
इसलिए एक
सुसमाचार :
चूंकि
तुम्हारे ही
हाथ से बनाए
हुए निमित्त
हैं, तुम
जिस दिन चाहो,
जिस क्षण
चाहो उस क्षण
अहंकार से
मुक्त हो सकते
हो। यह
सुसमाचार।
तुम मालिक हो!
यह तुम्हारी
बनावट है। यह
तुम्हारा
नाटक है। यह
तुम्हारे
प्रपंच है।
इसमें
परमात्मा का
कोई हाथ नहीं
है। इसे तुम
अभी गिरा सकते
हो। यह रेत का
घर तुमने
बनाया, अभी
उछल-कूद कर
उसको मिटा
सकते हो।
आत्मा
का कारण है, अहंकार
अकारण है। जो
है उसका कारण
होता है। जो
नहीं है उसकी
सिर्फ कल्पना
होती है।
अहंकार
सिर्फ
तुम्हारी
कल्पना है।
तुम अलग नहीं
हो अस्तित्व
से। तुम पृथक
नहीं हो
अस्तित्व से।
अहंकार का
अर्थ इतना ही
होता है कि
मैं अलग, मैं
थलग, मैं
भिन्न। निर -
अहंकार का
अर्थ होता है :
मैं
एक-वृक्षों से,
चाद-तारों से,
पृथ्वी से,
आकाश से। हम
अलग नहीं हैं।
हम इसी एक
ऊर्जा की
तरंगें हैं।
हम इसी एक
संगीत के स्वर
हैं। हम इसी
एक गीत की
कड़ियां हैं।
यह जो महागीत
गाया जा रहा
है, यह जो
महागीता चल
रही अस्तित्व
की, हम
इसकी
छोटी-छोटी
कड़िया है-कि
छोटे -छोटे
शब्द कि
छोटी-छोटी
मात्राएं, कि
अर्धविराम, पूर्णविराम।
हमारा इस
विराट महागीत
से कोई भिन्न
अस्तित्व
नहीं है। जिस
दिन यह जानना
चाहोगे उसी
दिन क्रांति
हो जाएगी।
क्षण में
रूपांतरण हो
जाएगा।
लेकिन
साहस चाहिए
मरने का।
क्योंकि अभी
तो तुम अहंकार
को ही अपना
जीवन समझे हो।
अहंकार की तरह
मरने की जिसकी
क्षमता है वह
आत्मा की तरह
जन्मता है।
अहंकार को दो
सूली तो
तुम्हें
आत्मा का
सिंहासन मिले।
अहंकार को दो
कब्र तो
तुम्हें
पुनरुज्जीवन
मिले, तुम्हें
शाश्वत जीवन
मिले। तब तुम
जान सकोगे, आनंद, तब
तुम जान सकोगे
सच्चिदानंद।
तब तुम जान सकोगे-जों
है उसे। अभी
तो तुमने मान
रखा है
कुछ-कुछ, अपनी
मान्यताओं
में जी रहे हो।
और जब
तक मान्यताओं
में जीते
रहोगे तब तक
जीना
तुम्हारा एक
दुख है, एक
पीड़ा है, एक
लंबी व्यथा!
तुम्हारी
कथा ही क्या
है -सिवाय
व्यथा के?
जागो!
जाग कर थोड़ा
देखो। भीतर आंख
खोलो। वहां
कोई नहीं है-वहां
सन्नाटा
है! वहां
अस्तित्व की
शून्यता है।
वहां अस्तित्व
की पूर्णता है।
वहां
परमात्मा
विराजमान है!
तीसरा
प्रश्न :
भगवान!
हीर
कटोरा हो गया
रीता
भय
कैसा यह
तीखा-मीठा!
तेरे
लिए ही मैं
सरजाई
मैं
तो पर गई ओ
हरजाई!
तूने
बांधी महा
सगाई
मैं
तो पर गई ओ
हरजाई!
जया!
भय तो
लगेगा, बहुत
भय लगेगा!
क्योंकि जिस
अहंकार को
हमने अब तक
अपना सब कुछ
समझा, सर्वस्व
समझा, जब
हाथ से छूटेगा
तो पैर तो
कपेगे, तो
प्राण तो
थर्राएंगे।
जैसे
बीज जब मरेगा
भूमि में, तो
डरेगा नहीं? डरेगा। क्या
भरोसा कि
वृक्ष होगा कि
नहीं होगा!
बीज तो श्रद्धा
से मर जाता है।
मगर श्रद्धा
से ही मरता है;
आश्वासन तो
कोई भी नहीं।
गंगा
जब सागर में
उतरती है तो
क्या आश्वासन
है कि बचेगी? बचती
भी कहां? है।,
सागर हो
जाती है; मगर
गंगा तो खो
जाती है। तो
गंगा भी डरती
होगी।
खलील
जिब्रान ने
लिखा है कि जब
कोई नदी सागर
के किनारे आती
है तो मैंने
उसे थर्राते
देखा है, कंपते
देखा है, झिझकते
देखा है; लौट
-लौटकर पीछे
देखते देखा है।
याद्दाश्तें
मीठी-कड्वी, वे सारी
याद्दाश्तें
पहाड़ों की, उत्तुंग
शिखरों की, घाटियों की,
फूलों की, पक्षियों की,
लोगों की, तीर्थ
स्थानों की, नावों की, चाद-तारों
की, किनारों
की, किनारों
पर खड़े
वृक्षों की, छायाओं की, धूप की-न
मालूम कितने
खेल, न
मालूम कितने
सपने, न
मालूम कितने
अनुभव, अनूठे
अनुभव, उन
सबकी याद तो
आती होगी नदी
को! मन तो होता
होगा कि रुक
जाए, ठहर
जाए; यह
क्या खतरा मोल
लेती हूं!
सागर में
उतरना मतलब
किनारों को
छोड़ना।
किनारों को
छोड़ना मतलब
अपनी परिभाषा
को छोड़ना।
सागर में
उतरना-फिर
गंगा गंगा
नहीं रहेगी और
ब्रह्मपुत्र
ब्रह्मपुत्र
नहीं रहेगी और
सिंध सिंध
नहीं रहेगी।
सागर में उतर
तो फिर
व्यक्तित्व कहां?
फिर अस्मित कहां?
और गंगा की
अस्मिता होगी,
जरूर
होगी-उसके
किनारे कितने
तीर्थ, कितना
पुण्य! लंबी
यात्रा। सारी
यात्रा याद तो
आती होगी! मन
फिर -फिर करके उन
क्षणों में
जीने का होता
होगा।
ठीक
वैसा ही होता
है,
जया! जब
अहंकार के
छूटने का क्षण
आता है तो बहुत
भय लगता है।
मृत्यु जैसा
भय लगता है।
शायद मृत्यु
से भी ज्यादा
भय लगता है, क्योंकि
जिसको हम
मृत्यु कहते
हैं उसमें तो
सिर्फ शरीर
मरता है, मन
तो बच जाता है।
और जिस मृत्यु
के तू करीब आ
रही है, जिस
मृत्यु के
करीब मेरे
संन्यासियों
को आना है, आ
रहे हैं -उस
मृत्यु में
शरीर तो जैसा
का तैसा रहता
है; और भी
गहरी बात मरती
है-मन मरता है,
अहंकार
मरता है और
शरीर की
मृत्यु कोई
असली मृत्यु
थोड़े ही है।
इधर शरीर मरा
उधर फिर नया
शरीर मिला।
जिसका मन मरा
फिर उसे शरीर
नहीं मिलता।
मन की मृत्यु
महामृत्यु है।
वह एक
छोटा-सा विहग
अपनी
उमंगों से उमैं
निज
पंख फैला चल
पड़ा
उस नील
नभ को नापने!
उर में
भरा उल्लास था,
स्वर
में भरा
उच्छ्वास था
संगीत
जीवन का रचा
उसकी
विसुध प्रति
सांस ने!
थे मौन
गिरी-पर्वत
खड़े
थे मौन
वन -उपवन पड़े
वह गा
रहा,
वह जा रहा,
था
सामने, बस
सामने!
ऊंचा
अधिक उड़ता गया,
ओझल
हुई उससे धरा,
पर
सामने निःसीम
था,
उसके
लगे पर कापने!
में तो
संन्यास की
यात्रा सुगम
मालूम होती है, सरल
मालूम होती है।
शुरू-शुरू में
तो ध्यान शांतिदायी।
शुरू- शुरू
होता है।
लेकिन
एक ऐसी घड़ी
आती है
उड़ते -उड़ते
ऊंचा
अधिक उड़ता गया,
ओझल
हुई उससे धरा,
पर
सामने निःसीम
था,
उसके
लगे पर कापने!
जब
धरती दूर हो
जाती है और
दिखाई भी नहीं
पड़ती, जब देह
दूर हो जाती
है और दिखाई
भी नहीं
पड़ती-देह यानी
धरती- और जब
भीतर के आकाश
में सिर्फ नीलिमा
रह जाती है, अनंत आकाश
में, और
आगे कोई ओर
-छोर नहीं
दिखाई
पड़ता-तों
स्वाभाविक है
कि पर कंपने
लगें, मन
घबड़ाने लगे!
मन कहने लगे :
लौट चलो, लौट
चलो, अभी
भी लौट चलो।
अभी भी देर
नहीं हो गई है।
अभी भी लौटा
जा सकता है।
पृथ्वी
यद्यपि दिखाई
नहीं पड़ती, मगर पता है
हमें पक्का कि
है, लौटा
जा सकता है।
लेकिन
उस घड़ी से
लौटना सबसे
बड़ा
दुर्भाग्य है।
उसी घड़ी की तो
तलाश है कि हम
उस बिंदु पर
पहुंच जाएं, जहां
से लौटा न जा
सके। कितनी
बार तो लौटते
रहे धरा पर, कितनी बार
तो लौटते रहे
देह में!
कितनी-कितनी देह
धरीं, कितने-कितने
जन्म, कितनी
मृत्युएं, कितने
खेल रचे! और हर
खेल व्यर्थ
गया। हाथ अखीर
में राख लगी।
हर खेल के बाद
पता चला कि
व्यर्थ ही
दौड़े - धापे; न कोई मंजिल
मिली न कोई
मार्ग मिला।
चले तो बहुत, कोस्कू के
बैल की तरह
चले।
ठीक
वैसी ही घड़ी
जया आ रही है
करीब। तू कहती
है : हीर कटोरा
हो गया रीता...।
वही तो मेरी
शिक्षा है :
रीतो! शून्य
हो जाओ! क्योंकि
शून्य होना
पूर्ण होने की
पात्रता है।
घड़ा खाली हो
तो ही तो भरा
जा सकेगा न!
घड़ा पहले से
ही भरा हो तो
कैसे भरा जा
सकेगा? भरे
घड़े को बरसते
हुए आकाश के
नीचे भी रख
दोगे, तो
भी कुछ लाभ न
होगा। इसलिए
तो पहाड़ खाली
रह जाते हैं
क्योंकि पहले
से ही भरे हैं;
खाई- खड्डे
भर जाते हैं
और झीलें बन
जाते हैं
क्योंकि खाली
हैं। खाली
होना गुण है, बड़ा गुण है!
सबसे बड़ा
धार्मिक गुण
है।
अगर
तुम मुझसे
पूछते हो तो
सबसे बड़ी
धार्मिक कला
एक ही है-वह ही
रीतने की कला।
रीत जाओ, बिलकुल
रीत जाओ! ऐसे
कि तुम में
कुछ भी न बचे।
बस बिलकुल
सूने घड़े हो
जाओगे, उसी
दिन तुम पाओगे
: आ गया
परमात्मा, आ
गया नाचता
परमात्मा!
उसकी पगध्वनि
सुनाई पड़ने
लगेगी। उसे
पैर के घूंघर
बजने लगेंगे।
उसकी बांसुरी
की आवाज आने
लगेगी। आ गया,
आ गया!
तुम्हारे
प्राणों में
समा गया!
लेकिन
तुम खाली हो
जाओ,
जगह खाली
करो, उसके
लिए स्थान
रिक्त करो।
तुम सिंहासन
पर बैठे हो, उसके बैठने
के लिए जगह
कहां? तुम
बीच में अड़े
हो। तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है।
महावीर
ने कहा है :
तुम्हीं हो
शत्रु, तुम्हीं
हो मित्र। अगर
हट जाओ तो तुम
मित्र हो; अगर
अड़े रहो तो
तुम शत्रु हो।
हीर
कटोरा हो गया
रीता... तू कहती
है। अच्छा हुआ।
असल में रीत
जाता है तभी
तो कटोरा हीरे
का होता है; उसके
पहले तो
मिट्टी। उसके
पहले तो बस
मिट्टी। उसके
पहले तो दो
कौड़ी इसका
मूल्य नहीं है।
भरे कटोरे का
कोई मूल्य
नहीं है। तुम
भरोगे किस चीज
से? कचरे
से ही भरोगे!
कोई धन से, कोई
पद से, कोई प्रतिष्ठा
से, कोई
त्याग से, कोई
ज्ञान से। तुम
भरोगे किस चीज
से? कूड़ा-कचरा
जो चारों तरफ
उपलब्ध है, इसी से
भरोगे न!
तुम्हारी
भरावट के कारण
तुम्हारा
हीरे का कटोरा
भी मिट्टी का
हो जाएगा।
मैं एक
मित्र के साथ
कुछ दिन रहा।
उनका घर ऐसा
भरा था कि
चलने-फिरने को
भी जगह नहीं
थी। चोरों की
तो बात दूसरी, घर
का मालिक भी
अगर भरे उजाले
दिन में चले
तो भी टकराए।
बस चीजें ही
चीजें भरी थीं।
जो कुछ भी मिल
जाए वह भर
लेते थे। और
कुछ छोड़ते तो
थे ही नहीं।
पुराना
फर्नीचर तो
रहता ही था, नया आता जाता
था। पुराने
रेडियो तो रखे
थे, नये भी
आ गए थे।
पुराना
टेलीविजन तो
था ही, नया
भी आ गया था।
और हर चीज
कहीं भी पड़ी
मिल जाए, वे
जोड़ लेते
थे-जोड़ने में
बड़े कुशल थे।
एक दिन
तो मैं बहुत
चकित हुआ। हम
दोनों घूमने
निकले थे।
सुबह का वक्त।
रास्ते के
किनारे एक
साइकिल का
हैंडिल पड़ा था।
किसी का टूट
गया होगा।
थोड़े तो झिझके
मेरे कारण।
थोड़े तो
सकुचाये।
लेकिन फिर
उनकी आदत ने
बल मारा। कहा :
क्षमा करें।
मैंने कहा :
क्या बात है, किस
बात की क्षमा
मागते हैं?
उन्होंने
कहा : बस क्षमा
करें। यह
हैंडिल तो मैं
उठा कर ले
जाऊंगा।
मैंने
कहा : इस
हैंडिल का
करोगे क्या?
उन्होंने
कहा : अब आप से
क्या छिपाना
है! एक चाक भी
मैंने पहले
इकट्ठा कर रखा
है,
एक पैडल भी
मेरे पास है।
ऐसे ही धीरे -
धीरे साइकिल
भी हो जाएगी।
आप देखना!
पैसे
वाले थे, गरीब
नहीं थे कोई।
इसी तरह तो
लोग पैसे वाले
हो जाते हैं।
इधर से हैंडिल
मिल गया, उधर
से चाक मिल
गया, उधर
से पैडिल मिल
गया। फिर कोई
सीट भी पड़ी
मिल जाएगी।
फिर बचा ही
क्या? और
तब तक जोड़ने
की कला भी सीख
लेंगे।
कूड़ा-करकट
लोग इकट्ठा कर
रहे हैं! मैं
उनसे कहता कि
करोगे क्या
इसका?
वह
कहते : कब कोई
चीज काम पड़
जाए,
कब काम पड़
जाए, क्या
पता!
एक
बंगाली कहानी
मैं पढ़ रहा था :
एक सज्जन है
उनको यह आदत
है कि वे अगर
सफर को भी
जाते हैं तो
घर का सारा
सामान ले जाते
हैं। रेडियो
भी,
ग्रामोफोन
भी, रेकार्डप्लेअर
भी और सब
अंटशट! उनकी
पत्नी स्वभावत:
परेज्ञान है।
इतना सारा
सामान लादना,
थर्ड क्लास
का सफर-और
भरतीय
ट्रेनें! जब
भी सफर की बात
उठती है, उनकी
पत्नी के
प्राण कंपते
है। गर्मी आ
रही है, अब
फिर सफर की
तैयारी शुरू
हो रही है, घर
- भर का सामान
बौध। जा रहा
है। भर दिया
जाकर एक कमरे
में। संयोग की
बात थी, कमरा
बिलकुल खाली
था। बड़े चकित
थे, पत्नी
भी बड़ी चकित
थी। और पति ने
कहा : देखा!
मैंने कहा
नहीं कि ऊपर
वाला सबकी
फिक्र करता
है! पूरी
ट्रेन भरी है,
एक कमरा
बिलकुल खाली
है। यह बस
अपने ही लिए
समझो। सारा
सामान भर दिया
कमरे में। वह
कमरा इसलिए
खाली था कि वह
मिलिट्री के
लिए था।
मिलिट्री का
अफसर आया, उसने
कहा कि यह
क्या मामला
है! तीसरे
स्टेशन के बाद
तुम्हें
उतरना पड़ेगा।
क्योंकि तीन
स्टेशन तक कोई
बात नहीं, तुम
बैठे रहो; तीसरे
स्टेशन के बाद
हमारे लोग सफर
करने वाले हैं।
उसने
कहा कोई फिक्र
नहीं। वह शांत
ही बैठा रहा, अपना
हुक्का
गुड्गुडाता
रहा। हुक्का
भी साथ लाया
है। सब चीजें
साथ हैं। पूरा
घर ही साथ है।
चोरों के लिए
कुछ छोड़ नहीं
आए पीछे।
पत्नी बहुत
डरी और उसने
कहा : अब क्या
होगा? अब
इतने सामान का
उतारना, फिर
किसी दूसरे
डब्बे में
चढ़ाना। गाड़ी
पूरी भरी है।
उसने
कहा : तू
बिलकुल फिक्र
मत कर। अरे
जिसने चोंच दी
है वह दाना भी
देता है।
तीसरा
स्टेशन आ गया।
वह उतरने को
राजी नहीं।
गाड़ी वहां दो
ही मिनट रुकती
है। मिलिट्री
के लोग अलग
नाराज, वह
उतरने का राजी
नहीं, खींचातानी
की बात हो गई।
मिलिट्री के
लोग भी अंदर
घुस गए। गाड़ी
छूट गई। अब
बड़ी कल मची है,
मगर वह अपना
हुक्का
गुड़गुड़ा रहा
है। आखिर उस
मिलिट्री के
प्रमुख ने कहा
कि फेंक देंगे
तुम्हारा
सामान, एक-एक
चीज उतर देंगे।
उसने कहा :
देखें कौन
उतारता है!
चौथा
स्टेशन आया और
मिलिट्री के
लोगों ने सबने
मिलकर उसका
सारा सामान
नीचे उतार
दिया। वह खड़ा
अपना हुक्का
गुड्गुडाता
रहा। यही
स्टेशन है
जहां उसे
उतरना है। वह
अपनी पत्नी से
कहा रहा है :
देख,
अरे जो चोंच
देता है वह
चना भी देता
है! अब ये बुद्ध
देख रहे हैं!
सामान उतार
रहे हैं!
सामान उतारने
तक की भी अपने
का जरूरत नहीं।
ऐसे
लोग हैं चारों
तरफ,
तुम्हें
जगह -जगह मिल
जाएंगे, जो
कूड़ा-करकट भरे
हैं। और उसको
भी सोचते हैं
कि परमात्मा
की देन है।
सोचते हैं वह
भी परमात्मा
की भेंट है!
इस
कूड़े -करकट से
रीते हो जाओ।
यह परमात्मा
की भेंट नहीं
है। ही, कटोरा
परमात्मा का
है और कटोरा
जरूर हीरे का
है। कटोरा
दिव्य है। तुम
दिव्य हो। तुम
कूड़ा -करकट
भरने के लिए
नहीं हो।
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा
उतरे तो ही
शोभा है, तो
ही गौरव है, तो ही गरिमा
है।
आ गई वह
घड़ी जया। तू
कहती है:
हीर
कटोरा हो गया
रीता
भय
कैसा यह तीखा
मीठा!
भय
लगेगा-और तीखा
और मीठा दोनों।
तीखा, क्योंकि
पता नहीं किस
अज्ञात में
उतरना होगा! और
मीठा, क्योंकि
अतात की पुकार
और चुनौती!
तीखा, क्योंकि
अतीत जाएगा।
और मीठा, क्योंकि
नए का पदार्पण
होगा। तीखा, क्योंकि
आदतें पुरानी,
सुविधाएं
पुरानी, सुरक्षाएं
पुरानी, सब
छिन जाएंगी।
और मीठा, निर्भार
होने का क्षण
आ गया। मुक्त
होने का क्षण
आ गया। उड़ने
का मौका आ गया।
अब खुला आकाश
अपना है, सारा
आकाश अपना है!
तू कहती
है:
तेरे
लिए ही मैं
सरजाई
मैं तो
पर गई ओ हरजाई!
तूने
बांधी महा
सगाई
मैं तो
पर गई ओ हरजाई!
मरना
ही तो है। और
धन्य है वे जो
परमात्मा के
लिए मरते हैं।
ऐसे तो सभी
मरते हैं, मगर
शेष सब कुत्ते
की मौत मरते
हैं। कुत्ते
की मौत मत
मरना। कुत्ते
की मौत का
अर्थ है कि
जबर्दस्ती
मरते हैं; मौत
आती है तो
मरते हैं।
साधु की मौत
का क्या अर्थ
होता है? स्वेच्छा
से मर जाना, स्वेच्छा से
अपने अहंकार
को समर्पित कर
देना- और कहना :
जैसी तेरी
मर्जी हो, जो
तेरी मर्जी
हो!
जीसस
के अंतिम वचन
सूली पर यही
थे : हे प्रभु, तेरी
मर्जी पूरी हो,
मेरी नहीं!
यह है मृत्यु,
यह है परम
मृत्यु! और
ऐसी मृत्यु
अमृत का द्वार
बन जाती है।
और ऐसी मृत्यु
में निश्चित
ही महा सगाई
हो जाती है।
ऐसी मृत्यु
में ही
व्यक्ति लीन
हो जाता है और
समष्टि से एक
हो जाता है।
आखिरी
प्रश्न :
भगवान!
'है कोई
लेवनहारा' आपकी
यह पुकार
सुनकर मेरी
झोली आपके
सामने फैलती
गई।
प्रवचन-उपरात
आपने पास से
गुजरते समय
झोली भर दी।
धड़कते दिल से
पूछती हूं :
मैं आपसे क्या
पूछु भगवान!
योग
शुक्ला!
पूछने
की कोई जरूरत
नहीं, पूछने
को कुछ है भी
नहीं।
गुनगुनाओ, गाओ!
पूछना क्या है?
नाचो, उत्सव
मनाओ! पूछना
क्या है? पूछने
दो उन्हें
जिनके
मस्तिष्क में
खुजलाहट है।
पूछने दो
उन्हें जो
खुजली के
बीमार हैं।
अगर
तेरी झोली भर
गई तो नाच, तो
सब लोकलाज छोड़
कर नाच! अब तो
नाचने से ही
कहा जा सकेगा।
अब तो गाकर ही
कहा जा सकेगा।
कुछ
बातें हैं जो
सिर्फ
गुनगुनाई जा
सकती हैं; और
उनके कहने का
कोई उपाय नहीं
है। कुछ बातें
हैं जो चुप्पी
में ही कही
जाती है, मौन
ही उनकी भाषा
है। इसलिए
स्वाभाविक
तुझे लगता है
कि अब क्या
कहूं! कहने की
कोई जरूरत ही
नहीं है। तेरे
बिना कहे
मैंने सुना।
जब तेरी झोली
भरते देखी, तो तूने ही
थोड़े देखी, मैंने भी
देखी।
तुम्हारी
झोली मेरे
बिना जाने तो
न भर जाएगी!
देखी तेरी
आखों की चमक, देखा तेरा
अहोभाव!
कितना
मोहक रूप,
नयन ही
बतलाके,
कितनी
पागल प्यार,
सपन ही
समझाएंगे।
हर
पपड़ी है एक
जलाधि
की शेष
निशानी,
कितनी
गहरी प्यास, अधर
से जान सकोगे।
चरणों
का इतिहास डगर
से जान सकोगे।
पल-पल
का है साथ,
मगर पल-पल
की दूरी,
फीका
स्वर्ण
-प्रभात,
विफल
संध्या
सिंदूरी।
तन
छूती जलधार
मगर
जीवन रेतीला,
तट के
मन की पीर लहर
से जान सकोगे।
चरणों
का इतिहास डगर
से जान सकोगे।
संध्या
की थाली में
कितने
दीप हैसे थे,
पावस
की स्याही ने
कितने
दीप डसे थे!
किस
कुर्बानी ने
सूरज
की भाग्य लिखा
था-
ऊषा की
रंगीन नजर से
जान सकोगे।
चरणों
का इतिहास डगर
से जान सकोगे।
प्रतिभा
वाले बीज
अंगारों
में पलते हैं।
गीतों
वाले फूल
अश्रु-तट
पर खिलते हैं।
मधुर
मिलन का पता
विरह-पुर
में पाओगे,
मधु-मदिरा
का मोल जहर से
जान सकोगे।
चरणों
का इतिहास डगर
से जान सकोगे।
तेरी
झोली भरते
मैंने भी देखी
है। जैसे तूने
देखी वैसे
मैंने देखी।
मैंने नहीं
भरी तेरी झोली।
झोली भरने
वाला तो कोई
और ही है।
मैंने तो बस
पुकार दी, मैंने
तो बस इतना ही
कहा- 'है
कोई लेवनहारा'!
और तूने
झोली फैला दी।
लेने वाली तु
भरने वाला कोई
और। मैं तो बस
बीच का
संदेशवाहक, पत्रवाहक, डाकिया!
तेरी आखों में
देखा एक क्षण
को -एक लपट, एक
चमक, एक
फूल का खिलना,
एक गीत का
उभरना! मगर
ध्यान रहे, यह झोली जरा
में खाली हो
सकती है।
जरा-सी भूल और
झोली खाली हो
जाए। यह झोली
बार -बार
भरेगी, बार-बार
खाली होगी।
अगर
चूंके होती
रहीं। इसलिए
जब झोली भरे
तो बहुत
सम्हाल लेना।
कबीर
कहते हैं :
हीरा
पायो गांठ
गठियायो, बाको
बार -बार
क्यों खोले?
कबीर
ठीक कहते हैं :
हीरा
मिल जाए, जल्दी
से गांठ गठिया
लेना, छिपा
लेना। खोल
-खोल कर बार
-बार मत देखना,
क्योंकि कई
जेबकट भी
मौजूद रहते
हैं। ऐसे बार
-बार देखा...
जेबकट को पता
ही ऐसे चलता
है। जो
होशियार हैं
वे खाली जेब
को बार -बार
देखते हैं। जो
नासमझ हैं वे
भरी जेब को
बार- बार
टटोलते हैं।
भरी जेब को
बार -बार
टटोला कि
कटेगी।
क्योंकि वे जो
चोर हैं वे
जानते हैं कि
जिसकी जेब भरी
है वह बार -बार
टटोल कर देखता
है, कि
कहीं कोई ले
तो नहीं गया, कहीं कोई
चुरा तो नहीं
गया! अगर
होशिया हो तो
खाली जेब को
बार -बार टटोल
कर देखना, तो
खाली जेब को
ही काटेगा कोई
काटेगा तो; भरी जेब को
कोई छुएगा ही
नहीं। हीरा
पायो गांठ
गठियायो... फिर
बहुत
सम्हालने की
जरूरत है।
जिनके पास कुछ
नहीं है उनके
पास तो
सम्हलने को भी
कुछ नहीं है।
एक लिहाज से
वे सुविधा में
हैं; उनको
झंझट नहीं है
ज्यादा।
जापान
की एक प्राचीन
कहानी है। एक
सम्राट रोज
रात को निकलता
है-राजधानी
में चक्कर
मारने, वेश
बदलकर देखने-कहां
क्या हो रहा
है? व्यवस्था
ठीक चल रही कि
नहीं चल रही
है? सिपाही
जागे हैं या
नहीं? एक
बात उसे बड़ी
हैरान करती है
कि एक फकीर
हमेशा उसे
जागा मिलता है।
एक वृक्ष के
नीचे। न तो
उसके पास कुछ
है, मगर
हमेशा जागा
हुआ मिलता है,
हमेशा
सावधान, सचेत।
न इतना केवल
कि सावधान
सचेत; अकेला
बैठा -बैठा
खुद से ही
कहता रहता है :
जागते रहो, जागते रहो!
सो मत जाना!
कोई और है
नहीं तो खुद
से ही कहता है।
सम्राट की भी
जिज्ञासा बढ़ी।
और आदमी भी
थोड़ा मस्त
लगता है, अलमस्त
लगता है! कुछ
बात है! कोई
हीरे -
जवाहरात तो
नहीं रखे हुए
है! पा गया हो
कहीं, फकीरों
का क्या! कहीं
गुदड़ी में लाल
छिपाए बैठा
हो! जागते रहो,
सो मत
जाना-कह किससे
रहा है? खुद
से ही कह रहा
है!
एक दिन
सम्राट से न
रहा गया।
उत्सुकता
बढ़ती चली गई, तो
उसने पूछा कि
महाराज, पूछ
सकता हूं? दिन
में भी आकर
देखा, आपको
जागते पाया; रात में भी
आकर देखता हूं
जागते पाया।
जागते ही नहीं
पाता हूं कहते
भभ पाता हूं
कि जागते रहो,
सो मत जाना!
सावधान! किसको
सावधान कर रहे
हैं, किसको
जगा रहे हैं? किसलिए? आपके
पास है क्या
जो इतनी चिंता?
सोओ मजे से,
पैर पसार कर
सोओ। हमें तो
सोने की
सुविधा नहीं
है, सेना
भी चाहते हैं
तो सो नहीं
पाते, नींद
नहीं आती। तुम
तो घोड़े बेच
कर सो सकते हो।
वह
फकीर कहने लगा
: बात उल्टी है।
तुम चाहो तो
घोड़े बेचकर
सोओ,
तुम्हारे
पास खोने को
क्या है? मेरे
पास खोने को
कुछ है। मेरी
झोली भर गई।
अब मुझे जागे
ही रहना है, जागे ही
रहना है। अपने
को ही चेताता
रहता हूं-सों
मत जाना!
उसने
सम्राट से कहा
: तुम अगर सो
जाओ तो तुम्हारे
पास खोने को
भी क्या
है-कूड़ा -करकट!
खो भी गया तो
क्या, बचा भी
रहा तो क्या! न
ऐसे कोई मूल्य
है न वैसे कोई
मूल्य है।
मेरे पास कुछ
खोने को है।
शुक्ला, अब
तेरे पास कुछ
खोने को है।
जागी रहना, होश सम्हाले
रखना! झोली
भरे तो फिर
बड़ी ही सावचेतता
की आवश्यकता
है। अन्यथा
झोली जरा में
खाली हो जाती
है! भरती बड़ी
मुश्किल से है,
खाली बड़ी
जल्दी हो जाती
है।
जीवन
के जो परम
मूल्य हैं, मिलने
तो बहुत
मुश्किल से
हैं, लेकिन
खो बड़े जल्दी
जाते हैं। इन
पर्वत -शिखरों
पर चढ़ना तो
बहुत दूभर है
लेकिन गिर
जाना बहुत
आसान। है।
गिरना मत, सम्हल
कर चलना!
जो
तुझे हुआ है, और
बहुत
संन्यासियों
को हो रहा है।
बाहर से आए
हुए दर्शकों
को दिखाई भी न
पड़ेगा।
क्योंकि यह
झोली कोई
दृश्य नहीं है,
और यह हीरे
कोई हाथों से नहीं
छुए जा सकते।
जो तुझे हो
रहा है बहुतों
को हो रहा है।
जो दीवाने यहां
इकट्ठे हुए
हैं वे इकट्ठे
ही इसलिए हुए
हैं। जो
पियक्कड़ यहां
आ गए हैं वे
कुछ ऐसे ही
नहीं बैठे हैं।
जी- भर कर पी
रहे हैं! पी
रहे हैं तो ही यहां
टिके हैं।
अन्यथा हजार
बाधाएं
हैं-समाज की, राज्य की, व्यवस्था की।
हजार बाधाएं
हैं। यहां आना
आसान तो नहीं
है। यहां आना
केवल
दुस्साहसियों
का काम है।
लेकिन जो आ गए
हैं और
जिन्हें
स्वाद लग गया, उनके
जाने का भी
उपाय नहीं है।
तेरी
झोली भरी, ऐसी
सबकी झोली
भरे! है कोई
लेवनहारा!
आज
इतना ही।
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