13
सितंबर, 1976
ओशो
आश्रम,
पूना।
अष्टावक्र
उवाच।
एको
द्रष्टाsसि
सर्वस्य
मुक्तप्रायोऽसि
सर्वदा।
अयमेव
हि ते बंधो
द्रष्टारं
यश्यसीतरम्।।7।।
अहं
कतेत्यहंमानमहाकृष्णहि
दंशित।
नाहं
कत्तेंति
विश्वासामृत
पीत्वा सुखी
भव।। 8।।
एको
विशुद्धबोधोउहमिति
निश्चवह्रिना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं
वीतशोक: सुखी
भव।। 9।।
यत्र
विश्वमिदं
भाति कल्पित
रज्जुसर्यवत्!
आनंदपरमानद
स बोधक्ल सुखं
चर।। 10।।
मुक्ताभिमानी
मुक्तो हि बद्धो
बद्धाभिमान्ययि।
किंवदतीह
सत्येयं या
मति: स
गतिर्भवेत।।
11।।
आत्मा
साक्षी विभु:
पूर्ण एको
मुक्तश्चिद
क्रिय:।
असंगो
निस्पृह:
शांतो भ्रमात
संसारवानिव!!
12।।
कूटस्थं
बोधमद्वैतमात्मान
परिभावय।
पहला
सूत्र:
अष्टावक्र
ने कहा, तू
सबका एक
द्रष्टा है और
सदा सचमुच
मुक्त है।
तेरा बंधन तो
यही है कि तू
अपने को छोड़
दूसरे को
द्रष्टा
देखता है।’
यह
सूत्र अत्यंत
बहुमूल्य है।
एक—एक शब्द
इसका ठीक से
समझें!
'तू सबका एक
द्रष्टा है।
एको
द्रष्टाऽसि
सर्वस्व! और
सदा सचमुच
मुक्त है।’
साधारणत:
हमें अपने
जीवन का बोध
दूसरों की आंखों
से
मिलता है। हम
दूसरों की आंखों
का
दर्पण की तरह
उपयोग करते
हैं। इसलिए हम
द्रष्टा को
भूल जाते हैं, और
दृश्य बन जाते
है।
स्वाभाविक भी
है।
छोटा
बच्चा पैदा
हुआ। उसे अभी
अपना कोई पता
नहीं। वह
दूसरों की आंखों
में झांककर
ही देखेगा कि
मैं कौन हूं।
अपना
चेहरा तो
दिखायी पडता
नहीं, दर्पण
खोजना होगा।
जब तुम दर्पण
में अपने को
देखते हो तो
तुम दृश्य हो
गये, द्रष्टा
न रहे।
तुम्हारी
अपने से पहचान
ही कितनी है? उतनी जितना
दर्पण ने कहा।
मां
कहती है बेटा
सुंदर है, तो
बेटा अपने को
सुंदर मानता
है। शिक्षक
कहते हैं
स्कूल में, बुद्धिमान
हो, तो
व्यक्ति अपने
को बुद्धिमान
मानता है। कोई
अपमान कर देता
है, कोई
निंदा कर देता
है, तो
निंदा का स्वर
भीतर समा जाता
है। इसलिए तो
हमें अपना बोध
बड़ा भ्रामक
मालूम होता है,
क्योंकि
अनेक स्वरों
से मिलकर बना
है; विरोधी
स्वरों से
मिलकर बना है।
किसी ने कहा
सुंदर हो, और
किसी ने कहा, 'तुम, और
सुंदर! शक्ल
तो देखो आईने
में!' दोनों
स्वर भीतर चले
गये, द्वंद्व
पैदा हो गया।
किसी ने कहा, बड़े
बुद्धिमान हो,
और किसी ने
कहा, तुम
जैसा बुद्ध
आदमी नहीं
देखा—दोनों
स्वर भीतर चले
गये, दोनों
भीतर जुड़ गये।
बड़ी बेचैनी
पैदा हो गयी, बड़ा द्वंद्व
पैदा हो गया।
इसीलिए
तो तुम
निश्चित नहीं
हो कि तुम कौन
हो। इतनी भीड़
तुमने इकट्ठी
कर ली है मतों
की! इतने दर्पणों
में झांका है, और
सभी दर्पणों
ने अलग—अलग
खबर दी! दर्पण
तुम्हारे
संबंध में
थोड़े ही खबर
देते हैं, दर्पण
अपने संबंध
में खबर देते
हैं।
तुमने
दर्पण देखे
होंगे, जिनमें
तुम लंबे हो
जाते हो; दर्पण
देखे होंगे, जिनमें तुम
मोटे हो जाते।
दर्पण देखे
होंगे, जिनमें
तुम अति सुंदर
दिखने लगते।
दर्पण देखे
होंगे, जिनमें
तुम अति कुरूप
हो जाते, अष्टावक्र
हो जाते।
दर्पण
में जो झलक
मिलती है वह
तुम्हारी
नहीं है, दर्पण
के अपने
स्वभाव की है।
विरोधी बातें
इकट्ठी होती
चली जाती हैं।
इन्हीं
विरोधी बातों
के संग्रह का
नाम तुम समझ
लेते हो, मैं
हूं! इसलिए
तुम सदा कंपते
रहते हो, डरते
रहते हो।
लोकमत
का कितना भय
होता है! कहीं
लोग बुरा न सोचें।
कहीं लोग ऐसा
न समझ लें कि
मैं मूढ़ हूं!
कहीं ऐसा न
समझ लें कि
मैं असाधु
हूं! लोग कहीं
ऐसा न समझ लें; क्योंकि
लोगों के
द्वारा ही
हमने अपनी
आत्मा निर्मित
की है।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
से कहता था.
अगर तुम्हें
आत्मा को
जानना हो तो
तुम्हें
लोगों को छोड़ना
होगा। ठीक
कहता था।
सदियों से यही
सदगुरुओं ने
कहा है। अगर
तुम्हें
स्वयं को
पहचानना हो तो
तुम्हें दूसरों
की आंखों में
देखना बंद कर
देना होगा।
मेरे
देखे, बहुत—से
खोजी, सत्य
के अन्वेषक
समाज को छोड़
कर चले गये—उसका
कारण यह नहीं
था कि समाज
में रह कर
सत्य को पाना
असंभव है, उसका
कारण इतना ही
था कि समाज
में रह कर
स्वयं की ठीक—ठीक
छवि जाननी
बहुत कठिन है।
यहां लोग खबर
दिये ही चले
जाते हैं कि
तुम कौन हो।
तुम पूछो न
पूछो, सब
तरफ से झलकें
आती ही रहती
हैं कि तुम
कौन हो। और हम
धीरे—धीरे
इन्हीं झलकों
के लिए जीने
लगते हैं।
मैंने
सुना, एक
राजनेता मरा।
उसकी पत्नी दो
वर्ष पहले मर
गयी थी। जैसे
ही राजनेता
मरा, उसकी
पत्नी ने उस
दूसरे लोक के
द्वार पर उसका
स्वागत किया।
लेकिन
राजनेता ने
कहा. अभी मैं
भीतर न आऊंगा।
जरा मुझे मेरी
अर्थी के साथ
राजघाट तक हो
आने दो।
पत्नी
ने कहा अब
क्या सार है? वहां
तो देह पड़ी रह
गयी, मिट्टी
है।
उसने
कहा मिट्टी
नहीं; इतना तो
देख लेने दो, कितने लोग
विदा करने
आये!
राजनेता
और उसकी पत्नी
भी अर्थी के
साथ—साथ—किसी
को तो दिखाई न
पड़ते थे, पर
उनको अर्थी
दिखाई पड़ती थी—चले.।
बड़ी भीड़ थी!
अखबारनवीस थे,
फोटोग्राफर
थे। झंडे
झुकाए गये थे।
फूल सजाये गये
थे। मिलिट्री
के ट्रक पर
अर्थी रखी थी।
बड़ा सम्मान
दिया जा रहा
था। तोपें आगे—पीछे
थीं। सैनिक चल
रहे थे। गदगद
हो उठा
राजनेता।
पत्नी
ने कहा, इतने
प्रसन्न क्या
हो रहे हो?
उसने
कहा,
अगर मुझे
पता होता कि
मरने पर इतनी
भीड़ आयेगी तो
मैं पहले कभी
का मर गया
होता। तो हम
पहले ही न मर
गये होते, इतने
दिन क्यों राह
देखते! इतनी
भीड़ मरने पर आये
इसी के लिए तो
जीये!
भीड़
के लिए लोग
जीते हैं, भीड़
के लिए लोग
मरते हैं।
दूसरे
क्या कहते हैं, यह
इतना मूल्यवान
हो गया है कि
तुम पूछते ही
नहीं कि तुम
कौन हो। दूसरे
क्या कहते हैं,
उन्हीं की
कतरन छांट—छांटकर
इकट्ठी अपनी
तस्वीर बना
लेते हो। वह
तस्वीर बड़ी
डांवांडोल
रहती है, क्योंकि
लोगों के मन
बदलते रहते
हैं। और फिर
लोगों के मन
ही नहीं बदलते
रहते, लोगों
के कारण भी बदलते
रहते हैं।
कोई
आकर तुमसे कह
गया कि आप बड़े
साधु—पुरुष
हैं,
उसका कुछ
कारण है—खुशामद
कर गया। साधु—पुरुष
तुम्हें
मानता कौन है!
अपने को
छोड्कर इस
संसार में कोई
किसी को साधु—पुरुष
नहीं मानता।
तुम
अपनी ही सोचो
न! तुम अपने को
छोड्कर किसको साधु
—पुरुष मानते
हो?
कभी—कभी
कहना पडता है।
जरूरतें हैं,
जिंदगी है,
अड़चनें
हैं—झूठे को
सच्चा कहना
पडता है; दुर्जन
को सज्जन कहना
पडता है, कुरूप
को सुंदर की
तरह प्रशंसा
करनी पड़ती है,
स्तुति
करनी पड़ती है,
खुशामद
करनी पड़ती है।
खुशामद
इसीलिए तो
इतनी
बहुमूल्य है।
खुशामद
के चक्कर में
लोग क्यों आ
जाते हैं? मूढ़
से मूढ़ आदमी
से भी कहो कि
तुम
महाबुद्धिमान
हो तो वह भी
इनकार नहीं
करता र
क्योंकि उसको अपना
तो कुछ पता
नहीं है, तुम
जो कहते हो
वही सुनता है,
तुम जो कहते
हो वही हो
जाता है।
तो
उनके कारण बदल
जाते हैं। कोई
कहता है, सुंदर
हो; कोई कहता
है, असुंदर
हो; कोई
कहता है, भले
हो, कोई
कहता है, बुरे
हो—यह सब
इकट्ठा होता
चला जाता है।
और इन विपरीत
मतों के आधार
पर तुम अपनी
आत्मा का
निर्माण कर
लेते हो। तुम
ऐसी बैलगाड़ी
पर सवार हो
जिसमें सब तरफ
बैल जुते हैं,
जो सब
दिशाओं में एक
साथ जा रही है
तुम्हारे अस्थिपंजर
ढीले हुए जा
रहे हैं। तुम
सिर्फ घसिटते
हो, कहीं
पहुंचते नहीं—पहुंच
सकते नहीं!
पहला
सूत्र है आज
का 'तू सबका एक
द्रष्टा है।
और तू सदा
सचमुच मुक्त
है।’
व्यक्ति
दृश्य नहीं है, द्रष्टा
है।
दुनियां
में तीन तरह
के व्यक्ति
हैं,
वे, जो
दृश्य बन गये—वे
सबसे ज्यादा
अंधेरे में
हैं, दूसरे
वे, जो
दर्शक बन गये—वे
पहले से थोड़े
ठीक हैं, लेकिन
कुछ बहुत
ज्यादा अंतर
नहीं है; तीसरे
वे, जो
द्रष्टा बन गए।
तीनों को अलग—अलग
समझ लेना
जरूरी है।
जब
तुम दृश्य बन
जाते हो तो
तुम वस्तु हो
गये,
तुमने
आत्मा खो दी।
इसलिए
राजनेता में
आत्मा को पाना
मुश्किल है; अभिनेता में
आत्मा को पाना
मुश्किल है।
वह दृश्य बन
गया है। वह
दृश्य बनने के
लिए ही जीता
है। उसकी सारी
कोशिश यह है
कि मैं लोगों
को भला कैसे
लग र सुंदर
कैसे लगू
श्रेष्ठ कैसे
लग? श्रेष्ठ
होने की
चेष्टा नहीं
है, श्रेष्ठ
लगने की
चेष्टा है।
कैसे श्रेष्ठ
दिखायी पडूं!
तो
जो दृश्य बन
रहा है, वह
पाखंडी हो
जाता है। वह
ऊपर से मुखौटे
ओढ़ लेता है, ऊपर से सब
आयोजन कर लेता
है— भीतर सड़ता
जाता है।
फिर
दूसरे वे लोग
हैं,
जो दर्शक बन
गए। उनकी बड़ी
भीड़ है।
स्वभावत: पहले
तरह के लोगों
के लिए दूसरे
तरह के लोगों
की जरूरत है; नहीं तो
दृश्य बनेंगे
लोग कैसे? कोई
राजनेता बन
जाता है, फिर
ताली बजाने
वाली भीड़ मिल
जाती है। तो
दोनों में बड़ा
मेल बैठ जाता
है। नेता हो
तो अनुयायी भी
चाहिए। कोई
नाच रहा हो तो
दर्शक भी
चाहिए। कोई
गीत गा रहा हो
तो सुनने वाले
भी चाहिए। तो
कोई दृश्य
बनने में लगा
है, कुछ
दर्शक बनकर रह
गये हैं।
दर्शकों की
बड़ी भीड़ है।
पश्चिम
के
मनोवैज्ञानिक
बड़े चिंतित
हैं,
क्योंकि
लोग बिलकुल ही
दर्शक होकर रह
गए हैं। फिल्म
देख आते हैं, रेडिओ खोल
लेते हैं, टेलिविजन
के सामने बैठ
जाते हैं
घंटों! अमरीका
में करीब—करीब
औसत आदमी छह
घंटे रोज
टेलिविजन देख
रहा है।
फुटबाल का मैच
हो, देख
आते हैं।
कुश्ती हो रही
हो तो देख आते
हैं। क्रिकेट
हो तो देख आते
हैं। ओलंपिक
हो तो देख आते
हैं। बस सिर्फ
देखने वाले रह
गए हैं। खड़े
हैं दर्शक की
तरह राह के
किनारे
राहगीर। जीवन
का जुलूस निकल
रहा है, तुम
देख रहे हो।
कुछ
हैं जो जीवन
के जुलूस में
सम्मिलित हो
गये हैं; वह
जरा कठिन धंधा
है; वहां
बड़ी
प्रतियोगिता
है। जुलूस में
सम्मिलित
होना जरा
मुश्किल है।
बड़े संघर्ष और
बड़े आक्रमण की
जरूरत है।
लेकिन जुलूस
को देखने
वालों की भी
जरूरत हैं। वे
किनारे खड़े
देख रहे हैं।
अगर वे न हों
तो जुलूस भी
विदा हो जाये।
तुम
थोड़ा सोचो, अगर
अनुयायी न
चलें पीछे तो
नेताओं का
क्या हो!
अकेले—'झंडा
ऊंचा रहे
हमारा' —बड़े
बुद्ध मालूम
पड़े! बड़े पागल
मालूम पड़े!
राह—किनारे
लोग चाहिए, भीड़ चाहिए।
तो पागलपन भी
ठीक मालूम पड़ता
है। तुम थोड़ा
सोचो, कोई
देखने न आये
और क्रिकेट का
मैच होता रहे—मैच
के प्राण निकल
गए! मैच के
प्राण मैच में
थोड़े ही हैं :
देखने जो
लाखों लोग
इकट्ठे होते
हैं, उनमें
हैं।
और
आदमी अदभुत
है! आदमी तो
घुड़दौड़ देखने
भी जाते हैं।
यह पूरा
कोरेगांव
पार्क घुड़दौड़
देखने वालों
की बस्ती है।
यह बड़ी हैरानी
की बात है.
आदमी को दौड़ाओ
कोई घोड़ा
देखने नहीं
आता! घोड़े दौड़ते
हैं,
आदमी देखने
जाते हैं। यह
घोड़ों से भी
गयी—बीती
स्थिति हो गई।
देखते ही
देखते जिंदगी
बीत जाती है।
दर्शक.! प्रेम
करते नहीं तुम;
फिल्म में
प्रेम चलता है,
वह देखते हो।
नाचते नहीं
तुम; कोई
नाचता l, तुम
देखते हो। गीत
तुम नहीं
गुनगुनाते; कोई
गुनगुनाता है,
तुम सुनते
हो। तुम्हारा
जीवन अगर
नपुंसक हो
जाये, अगर
उसमें से सब
जीवन ऊर्जा खो
जाये तो
आश्चर्य क्या?
तुम्हारे
जीवन में कोई
गति नहीं है, कोई ऊर्जा
का प्रवाह
नहीं है। तुम
मुर्दे की
भांति बैठे हो।
बस तुम्हारा
कुल काम इतना
है कि देखते
रहो, कोई
दिखाता रहे, तुम देखते
रहो। ये दो ही
की बड़ी संख्या
है दुनियां
में। दोनों एक—दूसरे
से बंधे हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, दुनियां
में हर बीमारी
के दौ पहलू
होते हैं। दुनियां
में कुछ लोग
हैं, जिनको
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं.
मैसोचिस्ट, स्व—दुखवादी!
वे अपने को
सताते हैं। और
दुनियां में
दूसरा एक वर्ग
है, जिसको
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं
सैडिस्ट, पर—दुखवादी।
वे दूसरे को
सताते हैं।
दोनों की
जरूरत है।
इसलिए दोनों
जब मिल जाते
हैं तो बड़ा
राग —रंग चलता
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर पति
दूसरों को सताने
वाला हो और
स्त्री खुद को
सताने वाली हो
तो इससे बढ़िया
जोड़ा और दूसरा
नहीं होता।
स्त्री अपने
को सताने में
मजा लेती है, पति
दूसरे को
सताने में मजा
लेता है—राम
मिलायी जोडी,
कोई अंधा
कोई कोढ़ी! मिल
गये, बिलकुल
मिल गये, बिलकुल
ठीक बैठ गये!
हर
बीमारी के दो
पहलू होते हैं।
दृश्य और
दर्शक एक ही
बीमारी के दो
पहलू हैं।
स्त्रियां
आमतौर से
दृश्य बनना
पसंद करती हैं, पुरुष
आमतौर से
दर्शक बनना
पसंद करते हैं।
मनोवैज्ञानिकों
की भाषा में
स्त्रियों को
वे कहते हैं
एग्जीबीशनिस्ट;
नुमाइशी।
उनका सारा रस
नुमाइश बनने
में है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मक्खियां मार
रहा था। बहुत
मक्खियां हो
गयी थीं तो
पत्नी ने कहा, इनको
हटाओ। आईने के
पास मक्खियां
मार रहा था; बोला कि एक
जोड़ा, दो
मादाएँ बैठी
हैं। पत्नी ने
कहा हद हो गई!
तुमने पता
कैसे चलाया कि
नर हैं कि
मादा हैं?
उसने
कहा,
घंटे भर से
आईने पर बैठी
हैं—मादाएं
होनी चाहिए।
नर को आईने के
पास क्या करना?
स्त्रियो
आईने से छूट
ही नहीं पातीं।
आईना मिल जाये
तो चुंबक की
तरह खींच लेता
है। सारी
जिंदगी आईने
के सामने बीत
रही है—कपड़ों
में,
वस्त्रों
में, सजावट
में, श्रृंगार
में! और बड़ी
हैरानी की बात
है, इतनी
सज— धजकर
निकलती हैं, फिर कोई धक्का
दे तो नाराज
होती हैं! कोई
धक्का न दे तो
भी दुखी होंगी,
क्योंकि
धक्का देने के
लिए इतना सज—धजने
का इंतजाम था,
नहीं तो
प्रयोजन क्या
था? पति के
सामने
स्त्रियां
नहीं सजती।
पति के सामने
तो वे भैरवी
बनी बैठी हैं।
क्योंकि वहां
धक्का— मुक्का
समाप्त हो
चुका है।
लेकिन घर के
बाहर जाएं, तब बड़ी
तैयारी करती
हैं। वहां
दर्शक
मिलेंगे। वहां
दृश्य बनना है।
मनुष्य
को,
पुरुष को
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं.
वोयूर। उसकी
सारी नजर
देखने में है।
उसका सारा रस
देखने में है।
स्त्रियों
को देखने में
रस नहीं है र
दिखाने में रस
है। इसलिए तो
स्त्री—पुरुषों
का जोडा बैठ
जाता है।
बीमारी के दो
पहलू बिलकुल
एक साथ बैठ
जाते हैं। और
ये दोनों ही
अवस्थाएं रूण
हैं।
अष्टावक्र
कहते हैं
मनुष्य का
स्वभाव द्रष्टा
का है। न तो
दृश्य बनना है
और न दर्शक।
अब
कभी तुम यह
भूल मत कर
लेना.। कई बार
मैंने देखा है, कुछ
लोग यह भूल कर
लेते हैं, वे
समझते हैं
दर्शक हो गए
तो द्रष्टा हो
गये। इन दोनों
शब्दों में
बड़ा बुनियादी फर्क
है। भाषा—कोश
में शायद फर्क
न हो—वहां
दर्शक और
द्रष्टा का एक
ही अर्थ होगा,
लेकिन जीवन
के कोश में
बड़ा
फर्क है।
दर्शक
का अर्थ है
दृष्टि दूसरे
पर है। और
द्रष्टा का
अर्थ है :
दृष्टि अपने
पर है। दृष्टि
देखने वाले पर
है,
तो द्रष्टा।
और दृष्टि
दृश्य पर है, तो दर्शक।
बडा क्रांतिकारी
भेद है, बड़ा
बुनियादी भेद
है! जब
तुम्हारी नजर
दृश्य पर अटक
जाती है और
तुम अपने को
भूल जाते हो
तो दर्शक। जब
तुम्हारी
दृष्टि से सब
दृश्य विदा हो
जाते हैं, तुम
ही तुम रह
जाते हो, जागरण—मात्र
रह जाता है, होश—मात्र
रह जाता है—तो
द्रष्टा।
तो
दर्शक तो तुम
तब हो जब तुम
बिलकुल
विस्मृत हो गए; तुम
अपने को भूल
ही गए; नजर
लग गयी वहां।
सिनेमा—हाल
में बैठे हो.
तीन घंटे के
लिए अपने को
भूल जाते हो, याद ही नहीं
रहती कि तुम
कौन हो। दुख—सुख,
चिंताएं सब
भूल जाती हैं।
इसीलिए तो भीड़
वहां पहुंचती
है। जिंदगी
में बड़ा दुख
है, चिंता
है, परेशानी
है—कहीं चाहिए
भूलने का
उपाय! लोग
बिलकुल
एकाग्र चित्त
हो जातै हैं।
बस ध्यान उनका
लगता ही फिल्म
में है। वहां
देखते हैं
पर्दे पर कुछ
भी नहीं है, छायाएं डोल
रही हैं, मगर
लोग बिलकुल
एकाग्र चित्त
हैं। बीमारी
भूल जाती, चिंता
भूल जाती, बुढ़ापा
भूल जाता, मौत
भी आती हो तो
भूल जाती है——लेकिन
द्रष्टा नहीं
हो गए हो तुम
फिल्म में बैठकर,
दर्शक हो गए;
भूल ही गए
अपने को; स्मरण
ही न रहा कि
मैं कौन हूं।
यह जो देखने
की ऊर्जा है
भीतर इसकी तो
स्मृति ही खो
गयी, बस
सामने दृश्य
है, उसी पर
अटक गए, उसी
में सब भांति
डूब गए।
दर्शक
होना एक तरह
का आत्म—विस्मरण
है। और
द्रष्टा होने
का अर्थ है. सब
दृश्य विदा हो
गए,
पर्दा खाली
हो गया; अब
कोई फिल्म
नहीं चलती
वहां; न
कोई विचार रहे,
न कोई शब्द
रहे, पर्दा
बिलकुल शून्य
हो गया—कोरा
और शुभ्र, सफेद!
देखने को कुछ
भी न बचा, सिर्फ
देखने वाला
बचा। और अब
देखने वाले
में डुबकी लगी,
तो द्रष्टा!
दृश्य
और दर्शक, मनुष्यता
इनमें बंटी है।
कभी—कभी कोई
द्रष्टा होता
है—कोई
अष्टावक्र, कोई कृष्ण, कोई महावीर,
कोई बुद्ध।
कभी—कभी कोई
जागता और
द्रष्टा होता
है। तू सबका
एक द्रष्टा है।
और
इस सूत्र की
खूबियां ये
हैं कि जैसे
ही तुम द्रष्टा
हुए,
तुम्हें
पता चलता है
द्रष्टा तो एक
ही है संसार
में, बहुत
नहीं हैं।
दृश्य बहुत
हैं, दर्शक
बहुत हैं।
अनेकता का
अस्तित्व ही
दृश्य और
दर्शक के बीच
है। वह झूठ का
जाल है।
द्रष्टा तो एक
ही है।
ऐसा
समझो कि चांद निकला, पूर्णिमा
का चांद निकला।
नदी—पोखर में,
तालाब—सरोवर
में, सागर
में, सरिताओं
में, सब
जगह
प्रतिबिंब
बने। अगर तुम
पृथ्वी पर
घूमों और सारे
प्रतिबिंबों
का अंकन करो
तो करोड़ों, अरबों, खरबों
प्रतिबिंब
मिलेंगे—लेकिन
चांद एक है, प्रतिबिंब
अनेक हैं।
द्रष्टा एक है;
दृश्य अनेक
हैं, दर्शक
अनेक हैं। वे
सिर्फ
प्रतिबिंब
हैं, वे
छायाएं हैं।
तो
जैसे ही कोई
व्यक्ति
दृश्य और
दर्शक से मुक्त
होता है—न तो
दिखाने की
इच्छा रही कि
कोई देखे, न
देखने की
इच्छा रही; देखने और
दिखाने का जाल
छूटा; वह
रस न रहा—तो
वैराग्य। अब
कोई इच्छा
नहीं होती कि
कोई देखे और
कहे कि सुंदर
हो, सज्जन
हो, संत हूो,
साधु हो।
अगर इतनी भी
इच्छा भीतर रह
गयी कि लोग
तुम्हें साधु
समझें तो अभी
तुम पुराने
जाल में पड़े हो।
अगर इतनी भी
आकांक्षा रह
गयी मन में कि
लोग तुम्हें
संत पुरुष
समझें तो तुम
अभी पुराने
जाल में पड़े
हो; अभी
संसार नहीं
छूटा। संसार
ने नया रूप
लिया, नया
ढंग पकड़ा, लेकिन
यात्रा
पुरानी ही
जारी है, सातत्य
पुराना ही
जारी है।
क्या
करोगे देखकर? खूब
देखा, क्या
पाया? क्या
करोगे दिखाकर?
कौन है यहां,
जिसको
दिखाकर कुछ
मिलेगा?
इन
दोनों से पार
हट कर, द्वंद्व
से हट कर जो
द्रष्टा में
डूबता है, तो
पाता है कि एक
ही है। यह
पूर्णिमा का
चांद तो एक ही
है। यह
सरोवरों, पोखरों,
तालाबों, सागरों में
अलग—अलग
दिखायी पड़ता
था; अलग—अलग
दर्पण थे, इसलिए
दिखायी पड़ता
था।
मैंने
सुना है, एक
राजमहल था।
सम्राट ने महल
बनाया था
सिर्फ
दर्पणों से।
दर्पण ही
दर्पण थे अंदर।
काँच—महल था।
एक कुत्ता, सम्राट का
खुद का कुत्ता,
रात बंद हो
गया, भूल
से अंदर रह
गया। उस
कुत्ते की
अवस्था तुम
समझ सकते हो
क्या हुई होगी।
वही आदमी की
अवस्था है।
उसने चारों
तरफ देखा, कुत्ते
ही कुत्ते थे!
हर दर्पण में
कुत्ता था। वह
घबड़ा गया। वह
भौंका।
जब
आदमी भयभीत
होता है तो
दूसरे को
भयभीत करना
चाहता है।
शायद दूसरा
भयभीत हो जाये
तो अपना भय कम
हो जाये।
वह
भौंका, लेकिन
स्वभावत: वहां
तो दर्पण ही
थे; दर्पण—दर्पण
से कुत्ते
भौंके। आवाज
उसी पर लौट
आयी; अपनी
ही
प्रतिध्वनि
थी। वह रात भर
भौंकता रहा और
भागता और
दर्पणों से जूझता, लहूलुहान
हो गया। वहां
कोई भी न था, अकेला था।
सुबह मरा हुआ
पाया गया।
सारे भवन में
खून के चिह्न
थे। उसकी कथा
आदमी की कथा
है।
यहां
दूसरा नहीं है।
यहां अन्य है
ही नहीं। जो
है,
अनन्य है।
यहां एक है।
लेकिन उस एक
को जब तक तुम
भीतर से न पकड़
लोगे, खयाल
में न आयेगा।
'तू सबका एक
द्रष्टा है, और सदा
सचमुच मुक्त
है।’
अष्टावक्र
कहते हैं
सचमुच मुक्त
है। इसे
कल्पना मत
समझना।
आदमी
बहुत अदभुत
है! आदमी
सोचता है कि
संसार तो सत्य
है और ये सत्य
की बातें सब
कल्पना हैं।
दुख तो सत्य
मानता है, सुख
की कोई किरण
उतरे तो मानता
है कोई सपना
है, कोई
धोखा है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
बडा आनंद
मालूम हो रहा
है, शक
होता है यह
कहीं भ्रम तो
नहीं! दुख में
इतने जन्मों—जन्मों
तक रहे हैं कि
भरोसा ही खो
गया कि आनंद हो
भी सकता है।
आनंद असंभव
मालूम होने
लगा है। रोने
का अभ्यास ऐसा
हो गया है, दुख
का ऐसा अभ्यास
हो गया है, काटो
से ऐसी पहचान
हो गयी है कि
फूल अगर दिखायी
भी पड़े तो
भरोसा नहीं
आता, लगता
है सपना है, आकाश—कुसुम
है, होगा
नहीं, हो
नहीं सकता!
इसलिए
अष्टावक्र
कहते हैं, सचमुच
मुक्त है!
व्यक्ति बंधा
नहीं है। बंधन
असंभव है, क्योंकि
केवल
परमात्मा है,
केवल एक है।
न तो बांधने
को कुछ है, न
बंधने को कुछ
है।
'तू सदा
सचमुच मुक्त
है!'
इसलिए
अष्टावक्र
जैसे व्यक्ति
कहते हैं कि इसी
क्षण चाहे तो
मुक्त हो सकता
है —क्योंकि
मुक्त है ही।
मुक्ति में
कोई बाधा नहीं
है। बंधन कभी
पड़ा नहीं, बंधन
केवल माना हुआ
है।
'तेरा बंधन
तो यही है कि
तू अपने को
छोड़, दूसरे
को द्रष्टा
देखता है।’
एको
द्रष्टsसि
सर्वस्य
मुक्तप्रायोऽसि
सर्वदा।
अयमेव
हि ते बंधो
द्रष्टारं
पश्यसीतरम्।।
एक
ही बंधन है कि
तू अपने को छोड़
दूसरे को
द्रष्टा
देखता है। और
एक ही मुक्ति
है कि तू अपने
को द्रष्टा
जान ले। तो इस
प्रयोग को
थोड़ा करना
शुरू करें।
देखते
हैं.......। वृक्ष
के पास बैठे
हैं,
वृक्ष
दिखायी पड़ रहा
है, तो
धीरे—धीरे
वृक्ष को
देखते—देखते,
उसको देखना
शुरू करें जो
वृक्ष को देख रहा
है। जरा से
हेर—फेर की
बात है।
साधारणत:
चेतना का तीर
वृक्ष की तरफ
जा रहा है। इस
तीर को दोनों
तरफ जाने दें।
इसका फल दोनों
तरफ कर लें—वृक्ष
को भी देखें
और साथ ही
चेष्टा करें
उसको भी देखने
की, जो देख
रहा है। देखने
वाले को न
भूलें। देखने
वाले को पकड़—पकड़
लें। बार—बार
भूलेगा—पुरानी
आदत है, जन्मों
की आदत है।
भूलेगा, लेकिन
बार—बार देखने
वाले को पकड़
लें। जैसे—जैसे
देखने वाला
पकड़ में आने
लगेगा, कभी—कभी
क्षण भर को ही
आयेगा, लेकिन
क्षण भर को ही
पायेंगे कि एक
अपूर्व शांति
का उदय हुआ! एक
आशीष बरसा!! एक
सौभाग्य की
किरण उतरी !!! एक
क्षण को भी
अगर ऐसा होगा
तो एक क्षण को
भी मुक्ति का
आनंद मिलेगा।
और वह आनंद
तुम्हारे
जीवन के स्वाद
को और जीवन की
धारा को बदल
देगा। शब्द
नहीं बदलेंगे
तुम्हारे
जीवन की धारा
को, शास्त्र
नहीं बदलेंगे—अनुभव
बदलेगा स्वाद
बदलेगा!
यहां
मुझे सुन रहे
हैं—दो तरह से
सुना जा सकता
है। सूनते
वक्त मैं जो
बोल रहा हूं,
अगर उस पर ही
ध्यान रहे और
तुम अपने को
भूल जाओ तो
फिर तुम
द्रष्टा न रहे,
श्रोता न
रहे, श्रावक
न रहे।
तुम्हारा
ध्यान मुझ पर
अटक गया, तो
तुम दर्शक हो
गए। आंख से ही
दर्शक नहीं
हुआ जाता, कान
से भी दशक हुआ
जाता है। जब
भी ध्यान
आब्जेक्ट पर,
विषय पर अटक
जाये तो तुम
दर्शक हो गये।
सुनते
वक्त, सुनो
मुझे, साथ
में उसको भी
देखते रहो, पकड़ते रहो, टटोलते रहो—जो
सुन रहा है।
निश्चित ही
तुम सुन रहे हूो,
मैं बोल रहा
हूं : बोलने
वाले पर ही
नजर न रहे, सुनने
वाले को भी पकड़ते
रहो, बीच—बीच
में उसका खयाल
लेते रहो।
धीरे— धीरे
तुम पाओगे कि
जिस घड़ी में
तुमने —सुनने
वाले को पकड़ा,
उसी घड़ी में
तुमने मुझे
सुना, शेष
सब व्यर्थ गया।
जब तुम सुनने
वाले को पकड़
कर सुनोगे तब
जो मैं कह रहा
हूं वही
तुम्हें
सुनायी पड़ेगा।
और अगर तुमने
सुनने वाले को
नहीं पकड़ा है
तो तुम न
मालूम क्या—क्या
सुन लोगे, जो
न तो मैंने
कहा, न
अष्टावक्र ने
कहा। तब
तुम्हारा मन
बहुत से जाल
बुन लेगा।
तुम
बेहोश हो!
बेहोशी में
तुम कैसे होश
की बातें समझ
सकते हो? ये
बातें होश की
हैं। ये बातें
किसी और दुनियां
की हैं। तुमने
अगर नींद में
सुना 'तो
तुम इन बातों
के आसपास अपने
सपने गूंथ
लोगे। तुम इन
बातों का रंग
खराब कर दोगे।
तुम इनको पोत
लोगे। तुम
अपने ढंग से
इनका अर्थ
निकाल लोगे।
तुम इनकी
व्याख्या कर
लोगे, तुम्हारी
व्याख्या में
ही ये अदभुत
वचन मुर्दा हो
जाएंगे। तुम्हारे
हाथ लाश लगेगी
अष्टावक्र की,
जीवित
अष्टावक्र से
तुम चूक जाओगे।
क्योंकि
जीवित
अष्टावक्र को
पकड़ने के लिए
तो तुम्हें
अपने द्रष्टा
को पकड़ना होगा—वहां
है जीवित
अष्टावक्र।
इसे
खयाल में लो।
सुनते
हो मुझे, सुनते
—सुनते उसको
भी सुनने लगो
जो सुन रहा है।
तीर दोहरा हो
जाये मेरी तरफ
और तुम्हारी
तरफ भी हो।
अगर मैं भूल
जाऊं तो कोई
हर्जा नहीं, लेकिन तुम
नहीं भूलने
चाहिए। और एक
ऐसी घड़ी आती
है, जब न तो
तुम रह जाते
हो, न मैं
रह जाता हूं।
एक ऐसी परम शांति
की घड़ी आती है
र जब दो नहीं
रह जाते, एक
ही बचता है, तुम ही बोल
रहे हो, तुम
ही सुन रहे हो,
तुम— ही देख
रहे हो, तुम
ही दिखायी पड़
रहे हो। उस
घडी के लिए ही
इशारा
अष्टावक्र कर
रहे हैं कि वह
एक है द्रष्टा
और सदा सचमुच
मुक्त है!
बंधन
स्वप्न जैसा
है।
आज
रात तुम पूना
में सोओगे, लेकिन
नींद में तुम
कलकत्ते में
हो सकते हो, दिल्ली में
हो सकते हो, काठमांडू
में हो सकते
हो, कहीं
भी हो सकते हो।
सुबह जागकर
फिर तुम अपने
को पूना में
पाओगे। सपने
में अगर
काठमांडू चले
गये, तो
लौटने के लिए
कोई हवाई जहांज
से यात्रा
नहीं करनी
पड़ेगी, न
ट्रेन पकड़नी
पड़ेर्गो, न
पैदल यात्रा
करनी पड़ेगी।
यात्रा करनी
ही नहीं पड़ेगी।
सुबह आंख
खुलेगी और तुम
पाओगे कि पूना
में हो। सुबह
तुम पाओगे, तुम कहीं
गये ही नहीं।
सपने में गये
थे। सपने में
जाना कोई जाना
है?
'बंधन तो एक
ही है तेरा कि
तू अपने को छोड़,
दूसरे को
द्रष्टा
देखता है।’
एक
ही बंधन है कि
हमें अपना होश
नहीं, अपने
द्रष्टा का
होश नहीं।
एक
तो यह अर्थ है
इस सूत्र का।
एक और भी अर्थ
है,
वह भी खयाल
में ले लेना
चाहिए।
साधारणत:
अष्टावक्र के
ऊपर
जिन्होंने भी
कुछ लिखा है, उन्होंने
दूसरा ही अर्थ
किया है।
इसलिए वह
दूसरा अर्थ भी
समझ लेना
जरूरी है। वह
दूसरा अर्थ भी
ठीक है। दोनो अर्थ
साथ—साथ ठीक
हैं।
'तेरा बंधन
तो यही है कि
तू अपने को
छोड़, दूसरे
को द्रष्टा
देखता है।’
तुम
मुझे सुन रहे
हो,
तुम सोचते
हो कान सुन
रहा है। तुम
मुझे देख रहे
हो, तुम
सोचते हो आंख
देख रही है। आंख
क्या देखेगी?
आंख को
द्रष्टा समझ
रहे हो तो भूल
हो गयी। देखने
वाला तो आंख
के पीछे है।
सुनने वाला तो
कान के पीछे
है। तुम मेरे
हाथ को छुओ, तो तुम
सोचोगे
तुम्हारे हाथ
ने मेरे हाथ
को छुआ। गलती हो
रही है। छूने
वाला तो हाथ
के भीतर 'छिपा
है, हाथ
क्या छुएगा? कल मर जाओगे,
लाश पड़ी रह
जायेगी, लोग
हाथ पकड़े बैठे
रहेंगे, कुछ
भी न छुएगा।
लाश पड़ी रह
जायेगी, आंख
खुली पड़ी
रहेगी, सब
दिखायी पड़ेगा
और कुछ भी
दिखायी न
पड़ेगा। लाश
पड़ी रह जायेगी,
संगीत होगा,
बैड—बाजे
बजेंगे, कान
पर चोट भी
लगेगी, झंकार
भी आयेगी, लेकिन
कुछ भी सुनायी
न पड़ेगा। जिसे
सुनायी पड़ता
था, जिसे
दिखायी पड़ता
था, जिसे
स्पर्श होता
था, स्वाद
होता था—वह जा
चुका।
इंद्रियां
नहीं अनुभव —लातीं, इंद्रियों
के पीछे छिपा
हुआ कोई......।
तो
दूसरा अर्थ इस
सूत्र का है
कि तुम अपने
को ही द्रष्टा
जानना, शरीर
को मत जान
लेना, आंख
को, कान को,
इंद्रियों
को मत जान
लेना। भीतर की
चेतना को ही द्रष्टा
जानना।
'मैं कर्ता
हूं, ऐसे
अहंकार—रूपी
अत्यंत काले
सर्प से दशित
हुआ तू 'मैं
कर्ता नहीं
हूं ', ऐसे
विश्वास—रूपी
अमृत को पीकर
सुखी हो।’
'
अहं कर्ता
इति—मैं कर्ता
हूं ऐसे
अहंकार—रूपी
अत्यंत काले
सर्प से दशित
हुआ तू..।’
हमारी
मान्यता ही सब
कुछ है। हम मान्यता
के सपने में
पड़े हैं। हम
अपने कौ जो
मान लेते हैं, वही
हो जाते हैं।
यह बड़ी विचार
की बात है। यह
पूरब के अनुभव
का सार—निचोड़
है। हमने जो
मान लिया है
अपने को, वही
हम हो जाते
हैं।
तुमने
अगर कभी किसी
सम्मोहनविद
को,
हिप्नोटिस्ट
को प्रयोग
करते देखा हो,
तो तुम चौंके
होओगे। अगर वह
किसी व्यक्ति
को सम्मोहित
करके कह देता
है, पुरुष
को, कि तुम
स्त्री हो और
फिर कहता है, उठो चलो, तो
वह आदमी
स्त्री की तरह
चलने लगता है।
बहुत कठिन है
स्त्री की तरह
चलना। उसके
लिए खास तरह
का शरीर का
ढांचा चाहिए।
स्त्री की तरह
चलने के लिए
गर्भ की खाली
जगह चाहिए पेट
में, अन्यथा
कोई स्त्री की
तरह चल नहीं
सकता। या बहुत
अभ्यास करे तो
चल सकता है।
लेकिन कोई
सम्मोहनविद
किसी को सुला
देता है बेहोशी
में और कहता
है, 'उठो, तुम स्त्री
हो, पुरुष
नहीं, चलो!'
वह स्त्री
की तरह चलने
लगता है।
वह
उसे प्याज
पकड़ा देता है
और कहता है, 'यह
सब है, नाश्ता
कर लो', वह
प्याज का
नाश्ता कर
लेता है। और
उससे पूछो
कैसा स्वाद, वह कहता है
बड़ा
स्वादिष्ट!
उसे पता भी
नहीं चलता कि
यह प्याज है।
उसे बास भी
नहीं आती।
सम्मोहनविदों
ने अनुभव किया
है और अब तो यह
वैज्ञानिक
तथ्य है, इस पर
बहुत प्रयोग
हुए हैं
सम्मोहन में मूर्च्छित
व्यक्ति के
हाथ में उठाकर
एक साधारण
कंकड़ रख दो
और कह दो
अंगारा रख
दिया है, वह
झटककर फेंक
देता है, चीख
मारता है कि
जल गया! इतने
तक भी बात
होती तो ठीक
था, लेकिन
हाथ पर फफोला
आ जाता है!
तुमने
खबर सुनी होगी
लोगों की कि
जो आग पर चल
लेते हैं! वह
भी सम्मोहन की
गहरी अवस्था
है। अगर तुमने
ऐसा मान लिया
कि नहीं
जलूंगा तो आग भी
नहीं जलाती।
मानने की बात
है। अगर जरा
भी संदेह रहा
तो मुश्किल हो
जायेगी, तो जल
जाओगे।
ऐसा
बहुत बार हुआ
है कि कुछ लोग
सिर्फ हिम्मत करके
चले गये, कि जब
इतने लोग चल
रहे हैं तो हम
भी चल लेंगे; लेकिन भीतर
संदेह का कीड़ा
था, वे जल
गये।
आक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी
में इस पर
प्रयोग किया
गया। लंका से
कुछ बौद्ध
भिक्षु
बुलाये गये थे—चलने
के लिए। वे
बुद्ध—पूर्णिमा
को हर वर्ष
बुद्ध की
स्मृति में आग
पर चलते हैं।
वह बात बिलकुल
ठीक है। बुद्ध
की स्मृति में
आग पर चलना
चाहिए, क्योंकि
बुद्ध की कुल
स्मृति इतनी
है कि तुम देह
नहीं हो। तो
जब हम देह ही
नहीं हैं तो
आग हमें कैसे
जलायेगी?
कृष्ण
ने गीता में
कहा है. न आग
तुझे जला सकती
है,
न शस्त्र
तुझे छेद सकते
हैं। नैनं
छिन्दति
शस्त्राणि, नैनं दहति
पावक:। नहीं
आग तुझे जलाकी,
नहीं
शस्त्र तुझे
छेद सकते हैं।
तो
बुद्ध—पूर्णिमा
के दिन
श्रीलंका में
बौद्ध भिक्षु आग
पर चलते हैं।
उन्हें
निमंत्रित
किया गया। वे
आक्सफोर्ड
में भी चले।
जब वे
आक्सफोर्ड
में चल रहे थे
तो एक भिक्षु
जल गया। कोई
बीस भिक्षु
चले,
एक भिक्षु
जल गया। खोज—बीन
की गयी कि बात
क्या हुई! वह
भिक्षु सिर्फ
इंग्लैंड
देखने आया था।
उसे कोई भरोसा
नहीं था कि वह
चल पायेगा।
उसकी मर्जी
कुछ और थी। वह
तो सिर्फ
यात्रा करने
आया था। उसकी
तो आकांक्षा
इतनी ही थी कि
इंग्लैड देख लेंगे।
और उसने सोचा
कि ये जब
उन्नीस लोग
नहीं जलते तो
मैं क्यों
जलूंगा! मगर
भीतर संदेह का
कीड़ा था, वह
जल गया।
और
वहीं उसी रात
दूसरी घटना
घटी कि एक
प्रोफेसर, आक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी
का प्रोफेसर
जिसने कभी यह
घटना न देखी
थी न सुनी थी, वह सिर्फ
बैठकर देख रहा
था; उसे
देखकर इतना
भरोसा आ गया
कि वह उठा और
चलने लगा और
चल गया। न तो
वह बौद्ध था, न धार्मिक
था। उसे तो
कुछ पता ही
नहीं था। उसे
तो सिर्फ इतने
लोगों का चलना
देखकर यह लगा,
यह भाव इतनी
गहनता से उठा,
यह श्रद्धा
इतनी सघन हो
गयी कि वह उठा
एक गहन आनंद—
भाव में और
नाचने लगा आग
पर! भिक्षु भी
चौंके, क्योंकि
भिक्षुओं को
तो यह खयाल था
कि बुद्ध भगवान
उन्हैं बचा
रहे हैं। यह
आदमी तो कोई
बौद्ध नहीं है,
यह तो
अंग्रेज था और
धार्मिक भी
नहीं था। चर्च
भी नहीं जाता
था, तो
क्राइस्ट भी
इसकी फिक्र
नहीं करेंगे।
बुद्ध से तो
कुछ लेना—देना
है नहीं। इसका
तो कोई भी
मालिक नहीं था।
सिर्फ
श्रद्धा!
हम
जो मानते हैं
गहन श्रद्धा
में,
वही हो जाता
है।
'मैं कर्ता
हूं ऐसे
अहंकार—रूपी
अत्यंत काले
सर्प से दंशित
हुआ तू मैं
कर्ता नहीं हूं, ऐसे
विश्वास—रूपी
अमृत को पी कर
सुखी हो।’
यह
वचन खयाल रखना, बार—बार
अष्टावक्र कहते
हैं. सुखी हो।
वह कहते हैं, इसी क्षण घट
सकती है बात।
अहं
कर्ता इति—मैं
कर्ता हूं,
ऐसी हमारी
धारणा है। उस
धारणा के
अनुसार हमारा
अहंकार
निर्मित होता
है। कर्ता
यानी अस्मिता।
मैं कर्ता हूं, उसी से
हमारा अहंकार
निर्मित होता
है। इसलिए
जितना बड़ा
कर्ता हो उतना
बड़ा अहंकार
होता है।
तुमने अगर कुछ
खास नहीं किया
तो तुम क्या
अहंकार रखोगे?
तुमने एक
बड़ा मकान
बनाया, उतना
ही बड़ा
तुम्हारा अहंकार
हो जाता है।
तुमने एक बड़ा
साम्राज्य
रचाया, तो
उतनी ही सीमा
तुम्हारे
अहंकार की हो
जाती है।
इसीलिए
तो दुनियां को
जीतने के लिए
पागल लोग
निकलते हैं। दुनियां
को जीतने थोड़े
ही निकलते
हैं! दुनियां
किसने कब जीती? लोग
आते हैं, चले
जाते हैं—दुनियां
को कौन जीत
पाता है!
लेकिन दुनियां
को जीतने
निकलते हैं—घोषणा
करने कि मेरा
अहंकार इतना
विराट है कि सारी
दुनियां को
छोटा कर दूंगा,
घेर लूंगा,
सीमा बना
दूंगा, मैं
ही परिभाषा
बनूंगा सारे
जगत की!
सिकंदर और
नेपोलियन और
तैमूर और
नादिर और सारे
पागल दुनियां
को घेरने चलते
हैं। यह दुनियां
को घेरने के
लिए जो आकांक्षा
है, यह
अहंकार की
आकांक्षा है।
किसी
को तुमने देखा? मंत्री
हो गया या
मुख्यमंत्री
हो गया, तब
उसकी चाल
देखी! फिर पद
पर नहीं रहा, तब उसको
देखा! ऐसी
खराब हालत हो
जाती है पद से
उतरकर! आदमी
वही है, बल
खो जाता है।
वह जो अहंकार
का विष था, जो
गति दे रहा था,
नशा दे रहा
था, वह चाल
में जो मस्ती
आ गयी थी, सिर
ऊंचा उठ गया
था, रीढ़
सीधी हो गयी
थी—वह सब खो
जाता है। क्या
हो गया? एक
क्षण पहले
इतना बल मालूम
होता था, एक
क्षण बाद ऐसा
निर्बल हो
गया!
राजनीतिज्ञ
पदों से उतरकर
ज्यादा दिन
जिंदा नहीं
रहते।
राजनीतिज्ञ
जब तक जीतते
हैं तब तक
बलशाली रहते
हैं,
जैसे ही
हारने लगते
हैं, वैसे
ही बल खो जाता
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
लोग रिटायर
होकर जल्दी मर
जाते हैं। दस
साल का फर्क
पड़ता है, थोड़ा—बहुत
फर्क नहीं। जौ
आदमी अस्सी
साल जीता है, वह जब साठ
साल में
रिटायर हो
जाता है तो
सत्तर में मर
जाता है। वह
आदमी अस्सी
साल जी सकता
था, कोई और
कारण न था
मरने का, लेकिन
मरने का एक
कारण मिल गया
कि जब तुम
कलेक्टर थे, कमिश्नर थे,
पुलिस—इंस्पेक्टर
थे, या
कास्टेबल ही
सही, स्कूल
के मास्टर ही
सही। स्कूल के
मास्टर की भी
अकड़ होती है।
उसकी भी एक दुनियां
होती है। तीस—चालीस
लड़कों पर तो
रोब बाधे ही
रखता है। उनको
तो दबाये ही
रखता है। वहां
तो सम्राट ही
होता है।
कहते
है,
जब औरंगजेब
ने अपने बाप
को कारागृह
में बंद कर
दिया, तो
उसके बाप ने
कहा कि मुझे
यहां मन नहीं
लगता। तू एक
काम कर, तीस—चालीस
छोटे—छोटे
लड़के भेज दे, तो मैं एक मद—
या खोल दूं।
कहते
हैं कि
औरगंजेब ने
कहा कि बाप
जेल में तो पड़
गया है, लेकिन
पुरानी
सम्राट होने
की अकड़ नहीं
जाती। तो तीस—चालीस
लड़कों पर ही
अब मालकियत
करेगा। उसने
इंतजाम कर
दिया। छोटा—छोटा
स्कूल का
मास्टर भी तीस—चालीस
लड़कों की दुनियां
में तो राजा
है। बड़े से
बड़े राजा को
भी इतना बल
कहां होता है!
कहो उठो, तो
उठते हैं लोग,
कहो बैठो तो
बैठते हैं लोग।
सब उसके हाथ
में है। स्कूल
का मास्टर ही
सही, कलेक्टर
हो, डिप्टी
कलेक्टर हो, मिनिस्टर हो,
कोई भी हो, जैसे ही
रिटायर होता
है वैसे ही बल
खो जाता है, अब कोई
रास्ते पर
नमस्कार नहीं
करता। अब कहीं
भी कोई उसकी
सार्थकता
नहीं मालूम
होती, वह
फिजूल मालूम
पड़ता है, जैसे
कूड़े के ढेर
पर फेंक दिया
गया, या
कबाड़खाने में
डाल दिया गया।
अब उसकी कहीं
कोई जरूरत
नहीं, जहां
भी जाता है, लोग उसको
सहते हैं, मगर
उनके भाव से
पता चलता है
कि 'अब जाओ
भी क्षमा करो,
अब यहां
किसलिए चले आए?
अब दूसरे
काम करने दो!' वे ही लोग जो
उसकी खुशामद
करते थे, रास्ते
से कन्नी काट
जाते हैं। वे
ही लोग जो
उसके पैर
दाबते थे, अब
दिखायी नहीं
पड़ते। अचानक
उसके अहंकार
का गुब्बारा
सिकुड़ जाता है;
जैसे
गुब्बारा फूट
गया, हवा
निकलने लगी, पंचर हो गया!
सिकुड़ने लगता
है। जीने में
कोई अर्थ नहीं
मालूम होता।
मरने की आकांक्षा
पैदा होने
लगती है। वह
सोचने लगता है,
अब मर ही
जाऊं, क्योंकि
अब क्या सार
है!
रिटायर
होकर लोग
जल्दी मर जाते
हैं। क्योंकि
उनके जीवन का
सारा बल तो
उनके साम्राज्यों
में था। कोई
हेड क्लर्क था
तो दस—पांच
क्लर्कों को
ही सता रहा था।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता कि
तुम कौन हो—तुम
चपरासी सही, मगर
चपरासी की भी
अकड़ होती है!
जब जाओ दफ्तर
में अंदर तो
चपरासी को
देखो, स्टूल
पर ही बैठा है
बाहर, लेकिन
उसकी अकड़
देखो! वह कहता
है, ठहरो!
मुल्ला
नसरुद्दीन
कास्टेबल का
काम करता. था।
एक महिला को
तेजी से कार
चलाते हुए पकड़
लिया। जल्दी
से निकाली नोट—बुक,
लिखने लगा।
महिला ने कहा,
'सुनो!
बेकार लिखा—पढ़ी
मत करो। मेयर
मुझे जानते
हैं।’ मगर
वह लिखता ही
रहा। महिला ने
कहा कि 'सुनते
हो कि नहीं, चीफ
मिनिस्टर भी
मुझे जानते
हैं!' मगर
वह लिखता ही
रहा। आखिर
महिला ने
आखिरी दाव
मारा, उसने
कहा, 'सुनते
हो कि नहीं? इंदिरा गांधी
भी मुझे जानती
हैं!'
मुल्ला
ने कहा, 'बकवास
बंद करो!
मुल्ला
नसरुद्दीन
तुम्हें जानता
है?'
उस
महिला ने कहा, 'कौन
मुल्ला
नसरुद्दीन? मतलब?'
उसने
कहा,
'मेरा नाम
मुल्ला
नसरुद्दीन है।
अगर मैं जानता
हूं तो कुछ हो
सकता है, बाकी
कोई भी जानता
रहे, भगवान
भी तुम्हें
जानता हो, यह
रिपोर्ट लिखी
जायेगी, यह
मुकदमा चलेगा।’
हर
आदमी की अपनी
अकड़ है!
कांस्टेबल की
भी अपनी अकड़
है;
उसकी भी
अपनी दुनियां
है, अपना
राज्य है, उसके
भीतर फंसे कि
वह सतायेगा।
अहंकार
जीता है उस
सीमा पर, जो
तुम कर सकते
हो। इसलिए तुम
देखना, अहंकारी
आदमी 'हां' कहने
में बड़ी
मजबूरी अनुभव
करता है।
तुम
अपने में ही
निरीक्षण
करना। यह मैं
कोई दूसरों को
जांचने के लिए
तुम्हें मापदंड
नहीं दे रहा
हूं तुम अपना
ही आत्मविश्लेषण
करना।’नहीं'
कहने में
मजा आता है, क्योंकि 'नहीं' कहने
में बल मालूम
पड़ता है। बेटा
पूछता है मां
से कि जरा
बाहर खेल आऊं,
वह कहती है
कि नहीं! नहीं!
अभी बाहर
खेलने में कोई
हर्जा भी नहीं
है। बाहर नहीं
खेलेगा बेटा
तो कहां
खेलेगा। और मां
भी जानती है
कि जायेगा ही
वह, थोड़ा
शोरगुल मचायेगा,
वह भी अपना
बल दिखलायेगा।
बलों की टक्कर
होगी। थोड़ी
राजनीति
चलेगी। वह चीख—पुकार
मचायेगा, बर्तन
पटकेगा, तब
वह कहेगी, ' अच्छा
जा, बाहर
खेल!' लेकिन
वह जब कहेगी, 'जा, बाहर
खेल', तब
ठीक है, तब
उसकी आज्ञा से
जा रहा है!
मुल्ला
नसरुद्दीन का
बेटा बहुत ऊधम
कर रहा था। वह
उससे बार—बार
कर रहा था, 'शांत
होकर बैठ! देख
मेरी आज्ञा
मान, शांत
होकर बैठ!' मगर
वह सुन नहीं
रहा था। कौन
बेटा सुनता
है! आखिर
भन्ना कर
मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहा, 'अच्छा
अब कर जितना
ऊधम करना है।
अब देखूं कैसे
मेरी आज्ञा का
उल्लंघन करता
है! अब मेरी आज्ञा
है, कर
जितना ऊधम
करना है। अब
देखें कैसे
मेरी
आज्ञा
का उल्लंघन
करता है।’
'नहीं' जल्दी
आती है; जबान
पर रखी है।
तुम
जरा गौर करना।
सौ में नब्बे
मौकों पर जहां
'नहीं' कहने
की कोई भी
जरूरत न थी, वहां भी तुम 'नहीं' कहते
हो।’नहीं'
कहने का
मौका तुम
चूकते नहीं।’नहीं' कहने
का मौका मिले
तो झपटकर लेते
हो। ’हां' कहने में
बड़ी मजबूरी
लगती है।’हां'
कहने में
बड़ी दयनीयता
मालूम होती है।’हां' कहने
का मतलब होता
है : तुम्हारा
कोई बल नहीं।
इसलिए
जो बहुत
अहंकारी हैं
वे नास्तिक हो
जाते हैं।
नास्तिक का
मतलब, उन्होंने
आखिरी 'नहीं'
कह।
उन्होंने कह
दिया, ईश्वर
भी नहीं; और
की तो बात
छोड़ो।
नास्तिक
का अर्थ है कि
उसने आखिरी, अल्टीमेट,
परम इनकार
कर दिया।
आस्तिक का
अर्थ है : उसने
परम स्वीकार
कर लिया, उसने
'हां' कह
दियाS ईश्वर
है। ईश्वर को 'हां' कहने
का मतलब है :
मैं न रहा।
ईश्वर को 'ना'
कहने का
मतलब है, बस
' हां रहा :
अब मेरे ऊपर
कोई भी नहीं; मेरे पार
कोई भी नहीं; मेरी सीमा
बांधने वाला
कोई भी नहीं।
हमारा
कर्तव्य
हमारे अहंकार
को भरता है।
इसलिए
अष्टावक्र के
इस सूत्र को
खयाल करना : 'मैं
कर्ता हूं—अहं
कर्ता इति—ऐसे
अहंकार—रूपी
अत्यंत काले
सर्प से दंशित
हुआ तू व्यर्थ
ही पीड़ित और
परेशान हो रहा
है।’
यह
पीड़ा कोई बाहर
से नहीं आती।
यह दुख जो हम
झेलते हैं, अपना
निर्मित किया
हुआ है। जितना
बड़ा अहंकार
उतनी पीड़ा
होगी। अहंकार
घाव है। जरा—सी
हवा का झोंका
भी दर्द दे
जाता है। निरहंकारी
व्यक्ति को
दुखी करना
असंभव है।
अहंकारी
व्यक्ति को
सुखी करना
असंभव है।
अहंकारी
व्यक्ति ने तय
ही कर लिया है
कि अब सुखी
नहीं होना है।
क्योंकि सुख
आता है 'हां'—
भाव से, स्वीकार—भाव
से। सुख आता
है यह बात
जानने कि मैं
क्या हूं? एक
बूंद हूं सागर
में! सागर की
एक बूंद हूं!
सागर ही है, मेरा होना
क्या है?
जिस
व्यक्ति को
अपने न होने
की प्रतीति
सघन होने लगती
है,
उतने ही सुख
के अंबार उस
पर बरसने लगते
हैं। जो मिटा
वह भर दिया
जाता है।
जिसने अकड़
दिखायी, वह
मिट जाता है।
'……मैं कर्ता ऐ,से तू सुखी
हो'
मैं
कर्ता नहीं
हूं, ऐसे भाव को
अष्टावक्र
अमृत कहते है।
अहं न कर्ता
इति—यहीं अमृत
है।
इसका
एक अर्थ और भी
समझ लेना
चाहिएँ।
सिर्फ अहंकार
मरता है, तुम
कभी नहीं मरते।
इसलिए अहंकार
मृत्यु है, विष है। जिस
दिन तुखमने
जान लिया कि
अहंकार है ही
नहीं, बस
मेरे भीतर
परमात्मा ही
है, उसका ही
एक फैलाव, उसकी
एक किरण, उसकी
ही एक बूंद—फिर
तुम्हारी कोई
मृत्यु नहीं.
फिर तुम अमृत
हो।
परमात्मा
के साथ तुम
अमृत हो; अपने
साथ तुम
मरणधर्मा हो।
अपने साथ तुम
अकेले हो, संसार
के विपरीत हो,
अस्तित्व
के विपरीत हो—तुम
असंभव युद्ध
में लगे हो, जिसमें हार
सुनिश्चित है।
परमात्मा के
साथ सब तुम्हारे
साथ है: जिसमें
हार असंभव,
जीत सुनिश्चितहै।
सबको साथ
लेकिन चल
पड़ो। जहां
सहयोग से घट
सकता हो,
वहां संघर्ष
क्यों करते
हो? जहां
झुक कर मिल सकता
हो, वहां
लड़ कर लेने की
चेष्टा क्यों
करते हो? जहां
सरलता से, विनम्रता
से मिल जाता
हो, वहां
तुम व्यर्थ ही
ऊधम क्यों
मचाते हो, व्यर्थ
का उत्पात
क्यों करते हो?
'मैं कर्ता
नहीं हूं ऐसे
विश्वास—रूपी
अमृत को पी कर
सुखी हो।’
जनक
ने पूछा है.
कैसे हम सुखी
हों?
कैसे सुख हो?
कैसे
मुक्ति मिले?
कोई
विधि नहीं बता
रहे हैं
अष्टावक्र।
वे यह नहीं कह
रहे हैं कि
साधो इस तरह।
वे कहते हैं, देखो
इस तरह।
दृष्टि ऐसी हो,
बस! यह सारा
दृष्टि का ही
उपद्रव है।
दुखी हो तो
गलत दृष्टि
आधार है। सुखी
होना है तो
ठीक दृष्टि।
'…….
विश्वास—रूपी
अमृत को पी कर
सुखी हो।’
इसमें
विश्वास की भी
परिभाषा
समझने जैसी है।
अविश्वास का
अर्थ होता है.
तुम अपने को
समग्र के साथ
एक नहीं मानते।
उसी से संदेह
उठता है। अगर
तुम समग्र के
साथ अपने को
एक मानते हो
तो कैसा
अविश्वास!
जहां ले जाएगा
अस्तित्व, वहीं
शुभ है। न हम
अपनी मर्जी
आये, न
अपनी मर्जी
जाते हैं। न
तो हमें जन्म
का कोई पता है—क्यों
जन्मे? न
हमें मृत्यु
का कोई पता है—क्यों
मरेंगे? न
हमसे किसी ने
पूछा जन्म के
पहले कि 'जन्मना
चाहते हो?' न
कोई हमसे मरने
के पहले
पूछेगा कि 'मरोगे,
मरने की
इच्छा है?' सब
यहां हो रहा
है। हमसे कौन
पूछता है? हम
व्यर्थ ही बीच
में क्यों
अपने को लाएं?
जिससे
जीवन निकला है, उसी
में हम
विसर्जित
होंगे। और
जिसने जीवन
दिया है, उस
पर अविश्वास
कैसा? जहां
से इस सुंदर
जीवन का
आविर्भाव हुआ
है, उस
स्रोत पर
अविश्वास
कैसा? जहां
से ये फूल
खिले हैं, जहां
ये कमल खिले
हैं, जहां
ये चांद—तारे
हैं, जहां
ये मनुष्य हैं,
पशु—पक्षी
हैं, जहां
इतना गीत है, जहां इतना
संगीत है, जहां
इतना प्रेम है—उस
पर अविश्वास
क्यों?
विश्वास
का अर्थ है. हम
अपने को
विजातीय नहीं मानते, परदेसी
नहीं मानते, हम अपने को
इस अस्तित्व
के साथ एक
मानते हैं। इस
एक की उदघोषणा
के होते ही
जीवन में सुख
की वर्षा हो जाती
है।
'ऐसे विश्वास—रूपी
अमृत को पी कर
सुखी हो।’
विश्वासामृतं
पीत्वा सुखी
भव।
अभी
हो जा सुखी!
पीत्वा सुखी
भव! इसी क्षण
हो जा सुखी!
'मैं एक
विशुद्ध बोध
हूं ऐसी
निश्चय—रूपी
अग्नि से
अज्ञान—रूपी
वन को जला कर
तू वीतशोक हुआ
सुखी हो।’ अभी
हो जा दुख के
पार!
एक
छोटी—सी बात
को जान लेने
से दुख
विसर्जित हो
जाता है कि
मैं विशुद्ध
बोध हूं कि
मैं मात्र
साक्षी— भाव
हूं कि मैं
केवल द्रष्टा
हूं।
अहंकार
का रोग
एकमात्र रोग
है।
मैंने
सुना है, दिल्ली
के एक कवि—सम्मेलन
में मुल्ला
नसरुद्दीन भी
सम्मिलित हुआ।
जब कवि—
सम्मेलन समाप्त
हुआ और संयोजक
पारिश्रमिक
बांटने लगे तो
वह तृप्त न
हुआ।
पारिश्रमिक
जितना वह
सोचता था उतना
उसे मिला नहीं।
वह बड़ा नाराज
हुआ। उसने कहा,
'जानते हो, मैं कौन हूं?
मैं पूना का
कालीदास हूं!'
संयोजक भी
छंटे लोग रहे
होंगे।
उन्होंने कहा,
'ठीक है, लेकिन
यह तो बताइये पूना
के किस
मोहल्ले के
कालीदास हैं?'
मोहल्ले—मोहल्ले
में कालीदास
हैं,
मोहल्ले—मोहल्ले
में टैगोर हैं।
हर आदमी यही
सोचता है कि
अनूठी, अद्वितीय
प्रतिभा है
उसकी!
अरब
में कहावत है
कि परमात्मा
जब किसी आदमी
को बनाता है
तो उसके कान
में कह देता
है,
तुमसे
बेहतर आदमी
कभी बनाया ही
नहीं। और यह
सभी से कहता
है। यह मजाक
बड़ी गहरी है।
और हर आदमी मन
में यही खयाल
लिए जीता है
कि मुझसे
बेहतर आदमी
कोई बनाया ही
नहीं। मैं
सर्वोत्कृष्ट
कृति हूं। कोई
माने न माने, तो वह उसकी
नासमझी है।
ऐसे मैं
सर्वोत्कृष्ट
कृति हूं!
इस
दंभ में जीता
आदमी बड़े दुख
पाता है।
क्योंकि इस
दंभ के कारण
वह बड़ी
अपेक्षाएं
करता है जो
कभी पूरी नहीं
होंगी। उसकी
अपेक्षाएं
अनंत हैं; जीवन
बहुत छोटा है।
जिसने भी
अपेक्षा
बांधी वह दुखी
होगा।
इस
जीवन को एक और
ढंग से भी
जीने की कला
है—अपेक्षा—शून्य; बिना
कुछ मांगे; जो मिल जाये,
उसके प्रति
धन्यवाद से
भरे हुए; कृतज्ञ—
भाव से! वही
आस्तिक की
प्रक्रिया है।
जो
तुम्हें मिला
है वह इतना है!
मगर तुम उसे
देखो तब न!
मैंने
सुना है, एक
आदमी मरने जा
रहा था। जिस
नदी के किनारे
वह मरने गया, एक सूफी
फकीर बैठा हुआ
था। उसने कहा,
'क्या कर
रहे हो?' वह
कूदने को ही
था, उसने
कहा : 'अब
रोको मत, बहुत
हो गया!
जिंदगी में
कुछ भी नहीं, सब बेकार है!
जो चाहा, नहीं
मिला। जो नहीं
चाहा, वही
मिला।
परमात्मा
मेरे खिलाफ है।
तो मैं भी
क्यों
स्वीकार करूं
यह जीवन?'
उस
फकीर ने कहा, 'ऐसा
करो, एक
दिन के लिए
रुक जाओ, फिर
मर जाना। इतनी
जल्दी क्या? तुम कहते हो,
तुम्हारे
पास कुछ भी
नहीं?'
उसने
कहा,
'कुछ भी
नहीं! कुछ
होता तो मरने
क्यों आता?'
उस
फकीर ने कहा, 'तुम
मेरे साथ आओ।
इस गाव का
राजा मेरा
मित्र है।’
फकीर
उसे ले गया।
उसने सम्राट
के कान में
कुछ कहा।
सम्राट ने कहा, 'एक
लाख रुपये
दूंगा।’ उस
आदमी ने इतना
ही सुना; फकीर
ने क्या कहा
कान में, वह
नहीं सुना।
सम्राट ने कहा,
'एक लाख
रुपये दूंगा।’
फकीर आया और
उस आदमी के
कान में बोला
कि सम्राट
तुम्हारी
दोनों आंखें
एक लाख रुपये
में खरीदने को
तैयार है।
बेचते हो?
उसने
कहा,
'क्या मतलब?
आंख, और
बेच दूं! लाख
रुपये में! दस
लाख दे तो भी
नहीं देने
वाला।’
तो
वह सम्राट के
पास फिर गया।
उसने कहा, 'अच्छा
ग्यारह लाख
देंगे।’
उस
आदमी ने कहा, 'छोड़ो
भी, यह
धंधा करना ही
नहीं। आंख
बेचेंगे
क्यों?'
फकीर
ने कहा, 'कान
बेचोगे? नाक
बेचोगे? यह
सम्राट हर चीज
खरीदने को
तैयार है। और
जो दाम मांगो
देने को तैयार
है।’
उसने
कहा,
'नहीं, यह
धंधा हमें
करना ही नहीं,
बेचेंगे
क्यों?'
उस
फकीर ने कहा, 'जरा
देख, आंख
तू ग्यारह लाख
में भी बेचने
को तैयार नहीं,
और रात तू
मरने जा रहा
था और कह रहा
था कि मेरे पास
कुछ भी नहीं
है!'
जो
मिला है वह
हमें दिखायी
नहीं पड़ता।
जरा इन आंखों का तो
खयाल करो, यह
कैसा चमत्कार
है! आंख चमड़ी
से बनी है, चमड़ी
का ही अंग है; लेकिन आंख
देख पाती है, कैसी
पारदर्शी है!
असंभव संभव
हुआ है। ये
कान सुन पाते
संगीत को, पक्षियों
के कलरव को, हवाओं के
मरमर को, सागर
के शोर को! ये
कान सिर्फ
चमड़ी और हड्डी
से बने हैं, यह चमत्कार
तो देखो!
तुम
हो,
यह इतना बड़ा
चमत्कार है कि
इससे बड़ा और
कोई चमत्कार
क्या तुम सोच
सकते हो। इस
हड्डी, मांस—मज्जा
की देह में
चैतन्य का
दीया जल रहा
है, जरा इस
चैतन्य के
दीये का मूल्य
तो आंको!
नहीं, लेकिन
तुम्हारी इस
पर कोई दृष्टि
नहीं! तुम
कहते हो, हमें
सौ रुपये की
नौकरी मिलनी
चाहिए थी, नब्बे
रुपये की मिली—मरेंगे,
आत्महत्या
कर लेंगे! कि
होना चाहिए था
मिनिस्टर, केवल
डिप्टी
मिनिस्टर हो
पाये—नहीं
जीयेंगे! कि
मकान बड़ा
चाहिए था, छोटा
मिला—अब कोई
सार रहने का
नहीं है! कि
दिवाला निकल
गया, कि
बैंक में खाता
खाली हो गया—अब
जीने में सार
क्या है! कि एक
स्त्री चाही
थी, वह न
मिली; कि
एक पुरुष चाहा
था, वह न
मिला—बस अब
मरेंगे!
जितना
तुम चाहोगे
उतना ही
तुम्हारे
जीवन में दुख
होगा। जितना
तुम देखोगे कि
बिना चाहे
कितना मिला है!
अपूर्व
तुम्हारे ऊपर
बरसा है!
अकारण! तुमने
कमाया क्या है? क्या
थी कमाई
तुम्हारी, जिसके
कारण तुम्हें
जीवन मिले? क्या है
तुम्हारा
अर्जन, जिसके
कारण क्षण भर
तुम सूरज की
किरणों में नाचो,
चांद—तारों
से बात करो? क्या है
कारण? क्या
है तुम्हारा
बल? क्या
है प्रमाण तुम्हारे
बल का, कि
हवाएं
तुम्हें छुए
और तुम
गुनगुनाओ, आनंदमग्न
हो, कि
ध्यान संभव हो
सके? इसके
लिए तुमने
क्या किया है?
यहां सब
तुम्हें मिला
है—प्रसादरूप!
फिर भी तुम
परेशान हो।
फिर भी तुम
कहे चले जाते हो।
फिर भी तुम
उदास हो। जरूर
अहंकार का रोग
खाये चला जा
रहा है। वही
सबको पकड़े
हुए है।
मैंने
सुना है, एक
परिवार के सभी
सदस्य
फिल्मों में
काम करते थे।
एक बार परिवार
का मुखिया
अपने
पारिवारिक
डाक्टर के पास
आया और बोला, 'डाक्टर साहब,
मेरे बेटे
को छूत की
बीमारी है—स्कारलेट
फीवर। और वह
मानता है कि
उसने घर की
नौकरानी को
चूमा है।’
'आप घबड़ाइये
नहीं, ' डाक्टर
ने सलाह दी, 'जवानी में
खून जोश मारता
ही है।’
'आप समझे
नहीं डाक्टर,
' वह आदमी
बोला और थोड़ा
बेचैन होकर, 'सच बात यह है
कि उसके बाद
मैं भी उस
लड़की को चूम चुका
हूं।’
'तब तो मामला
कुछ गड़बड़ नजर
आता है, ' डाक्टर
ने स्वीकार
किया।
'अभी क्या
गड़बड़ है, डाक्टर
साहब! उसके
बाद मैं अपनी
पत्नी को भी दो
बार चूम चुका
हूं।’ इतना
सुनते ही
डाक्टर अपनी
कुर्सी से
उछलकर चिल्लाया,
'तब तो मारे
गए! तब तो यह
वाहियात
बीमारी मुझे भी
लग चुकी होगी!'
वे
उनकी पत्नी को
चूम चुके हैं।
ऐसे बीमारी
फैलती चली
जाती है!
अहंकार
छूत की बीमारी
है।
जब
बच्चा पैदा
होता है तो
कोई अहंकार
नहीं होता; बिलकुल
निरहंकार, निर्दोष
होता है; खुली
किताब होता है;
कुछ भी
लिखावट नहीं
होती; खाली
किताब होता
है! फिर धीरे—धीरे
अक्षर लिखे जाते
हैं। फिर धीरे—धीरे
अहंकार
निर्मित किया
जाता है। मां—बाप,
परिवार, समाज,
स्कूल, विश्वविद्यालय,
फिर उसके
अहंकार को
मजबूत करते
चले जाते हैं।
यह सारी
प्रक्रिया
हमारे शिक्षण
की और संस्कार
की, सभ्यता
और संस्कृति
की, बस एक
बीमारी को
पैदा करती है—अहंकार
को जन्माती है।
यह अहंकार फिर
जीवन भर हमारे
पीछे प्रेत की
तरह लगा रहता
है।
अगर
तुम धर्म का
ठीक अर्थ
समझना चाहो तो
इतना ही है :
समाज, संस्कृति,
सभ्यता
तुम्हें जो
बीमारी दे
देते हैं, धर्म
उस बीमारी की
औषधि है, और
कुछ भी नहीं।
धर्म समाज—विरोधी
है, सभ्यता—
विरोधी है;
संस्कृति—विरोधी
है। धर्म
बगावत है।
धर्म क्रांति
है।
धर्म
क्रांति का
कुल अर्थ इतना
ही है कि
तुम्हें जो दे
दिया है
दूसरों ने उसे
किस भाति
तुम्हें
सिखाया जाये
कि तुम उसे
छोड़ दो। उसे
पकड कर मत चलो—वही
तुम्हारी
पीड़ा है; वही
तुम्हारा
नर्क है।
अहंकार के
अतिरिक्त
जीवन में और
कोई बोझ नहीं
है। अहंकार
अतिरिक्त
जीवन में और
कोई बंधन
जंजीर नहीं है।
'मैं एक
विशुद्ध बोध
हूं ऐसी
निश्चय रूपी
अग्नि से
अज्ञान—रूपी
वन को जला कर
तू वीतशोक हो,
सुखी हो!'
अहंकार
का अर्थ है :
अपने चैतन्य
को किसी और
चीज से जोड़
लेना।
एक
आदमी कहता है
कि मैं बुद्धिमान
हूं तो उसने
बुद्धिमानी
से अपने अहंकार
को जोड़ लिया; तो
उसकी चेतना
अशुद्ध हो गयी।
तुमने
देखा, तू में
कोई पानी मिला
देता है तो हम
कहते हैं, दूध
अशुद्ध हो गया।
लेकिन अगर
पानी मिलाने
वाला कहे कि
हमने बिलकुल
शुद्ध पानी
मिलाया है, फिर? तब
भी तुम कहोगे अशुद्ध
हो गया। शुद्ध
पानी मिलाओ या
अशुद्ध, यह
थोड़े ही सवाल
है—पानी
मिलाया! इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता कि तुमने
शुद्ध पानी
मिलाया, तो
भी दूध तो
अशुद्ध हो
गया! और अगर
गौर करो तो दूध
ही अशुद्ध
नहीं हुआ, पानी
भी अशुद्ध हो।
पानी और दूध
दोनों शुद्ध
थे अलग—अलग, मिलकर
अशुद्ध हो गये
विपरीत
और विजातीय और
अन्य से मिलकर
उपद्रव होता
है। चैतन्य
जैसे ही अपने
से भिन्न से
मिल जाता है।
तुमने कहा, मैं
बुद्धिमान...।
बुद्धि यंत्र
है; उसका
उपयोग करो।
बुद्धिमान मत
बनो। यही
बुद्धिमानी
है—बुद्धिमान
मत बनो! तुमने
कहा, मैं
बुद्धिमान—उपद्रव
शुरू हुआ! दूध
पानी से मिल
गया। फिर
तुम्हारी
बुद्धि कितनी
शुद्ध हो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। तुमने
कहा, मैं
चरित्रवान—दूध
पानी मिल गया।
अब तुम्हारा
चरित्र कितना
ही शुद्ध हो, इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता।
दुश्चरित्र
और सच्चरित्र
दोनों के
अहंकार होते
हैं।
मैंने
सुना है, एक
पुरानी कहानी
कि जार के
जमाने में, रूस में, साइबेरिया
में तीन कैदी
बंद थे। और
तीनों में सदा
विवाद हुआ
करता था कि
कौन बड़ा
अपराधी है। और
तीनों में सदा
विवाद हुआ
करता था कि
कौन ज्यादा
दिन से जेल
भोग रहा है।
जेल में अक्सर
यह होता है।
लोग वहां भी
बढ़ा—चढा कर
बताते हैं। ऐसा
नहीं कि तुम
अपना बैंक—बैलेंस
बढ़ा—चढ़ा कर
बताते हो और
मेहमान आ जाते
हैं तो घर में
पड़ोस फर्नीचर
मांगकर और
गलीचे बिछा
देते हो। तुम्हीं
धोखा देते हो,
ऐसा नहीं है।
ऐसा नहीं है
कि तुम्हीं
दूसरों को
देखकर खूब जोर—जोर
से हरे राम, राम करने
लगते हो, कि
कोई आ जाये तो
प्रार्थना
लंबी हो जाती
है, पूजा
की घंटियां
जोर से बजने
लगती हैँ; कोई
न आये, जल्दी
निपटा लेते हो।
ऐसा तुम ही
करते हो, ऐसा
नहीं है।
मेहमान घर में
हों तो तुम
मंदिर चले
जाते हो, क्योंकि
मेहमानों पर
धार्मिक होने
का प्रभाव
डालना है। कैदी
भी कारागृह
में इसी तरह
करते हैं। उन
तीन कैदियों
में विवाद
होता था। एक
दिन पहले कैदी
ने कहा, 'मैं
जब जेल में
आया था, जब
मुझे
साइबेरिया की
जेल में डाला
गया, तब
मोटर गाड़ी
नहीं चलती थी।’
दूसरे
ने कहा, 'इसमें
क्या रखा है? अरे, मैं
जब डाला गया
तब बैलगाड़ी तक
नहीं चलती थी।’
तीसरे ने
कहा, 'बैलगाड़ी!
बैलगाड़ी क्या
होती है?'
वे
यह सिद्ध करने
की कोशिश कर
रहे हैं कि
कौन कितने
प्राचीन समय
से इस जेल में
पड़ा हुआ है।
इसमें भी
अहंकार है।
मैंने
सुना है, एक
जेल में एक
नया अपराधी
आया। जिस
कोठरी में उस
भेजा गया था, उसे कोठरी में
एक दादा पहले
से ही जमे थे।
उस दादा ने
पूछा कि कितने
दिन रहेगा? उसने कहा कि
यही कोई बीस
साल की सजा
हुई है। उसने
कहा, 'तू
दरवाजे पर ही
रह! तुझे
जल्दी निकलना
पड़ेगा। तू
दरवाजे के पास
ही अपना
बिस्तरा लगा
ले।’
अपराधी
का भी अहंकार
है। बुरे के
साथ भी आदमी
अपने अहंकार
को भरता है, भले
के साथ भी
भरता है!
लेकिन दोनों
स्थितियों
में चैतन्य
अशुद्ध हो
जाता है।
अष्टावक्र
कहते हैं, 'मैं
एक विशुद्ध
बोध हूं।’ न
तो मैं
बुद्धिमान हूं, न मैं
चरित्रवान
हूं न मैं
चरित्रहीन
हूं न मैं
सुंदर हूं न
मैं असुंदर
हूं न मैं
जवान हूं न
मैं बूढ़ा हूं?
न गोरा न
काला, न
हिंदू न
मुसलमान, न
ब्राह्मण न
शूद्र—मेरा
कोई
तादात्म्य
नहीं है। मैं
इन सबको देखने
वाला हूं।
जैसे
तुमने दीया
जलाया अपने घर
में,
तो दीये की
रोशनी टेबिल
पर भी पड़ती है,
कुर्सी पर
भी पड़ती है, दीवाल पर भी
पड़ती है, दीवाल—घड़ी
पर भी पड़ती है,
फर्नीचर पर,
अलमारी पर,
कालीन पर, फर्श पर, छप्पर
पर—सब पर पड़ती
है। तुम बैठे,
तुम पर भी
पड़ती है।
लेकिन ज्योति
न तो दीवाल है,
न छप्पर है,
न फर्श है, न टेबिल है, न कुर्सी है।
सब रोशन है उस
रोशनी में; लेकिन रोशनी
अलग है।
शुद्ध
चैतन्य
तुम्हारी
रोशनी है, तुम्हारा
बोध है। वह
बोध तुम्हारी
बुद्धि पर भी
पड़ता, तुम्हारी
देह पर भी
पड़ता, तुम्हारे
कृत्य पर भी
पड़ता; लेकिन
तुम उनमें से
कोई भी नहीं
हो।
जब
तक तुम अपने
को किसी से जोड़कर
जानोगे, तब तक
अहंकार पैदा
होगा। अहंकार
है चेतना का
किसी अन्य
वस्तु से
तादात्म्य।
जैसे ही तुमने
सारे
तादात्म्य
छोड़ दिये—तुमने
कहा, मैं
तो बस शुद्ध
बोध हूं मैं
तो शुद्ध बोध
हूं शुद्ध
बुद्ध हूं—वैसे
ही तुम घर
लौटने लगे; मुक्ति का
क्षण करीब आने
लगा।
अष्टावक्र
कहते हैं, 'विशुद्ध
बोध हूं ऐसी
धारणा।’
अहं
एका विशुद्ध
बोध: इति।
ऐसे
निश्चय—रूपी
अग्नि से...।
यह
क्या है
निश्चय—रूपी
बात?
सुनकर यह
निश्चय न होगा।
केवल बुद्धि
से समझकर यह
निश्चय न होगा।
ऐसा तो बहुत
बार तुमने समझ
लिया है, फिर—फिर
भूल जाते हो।
अनुभव से यह निश्चय
होगा। थोड़े
प्रयोग करोगे
तो निश्चय
होगा।
प्रतीति होगी
तो निश्चय
होगा। और
निश्चय होगा
तो क्रांति
घटित होगी।
'...
अज्ञान—रूपी
वन को जला कर
तू वीतशोक हुआ
सुख को प्राप्त
हो, सुखी
हो।’
'जिसमें यह
कल्पित संसार
रस्सी में
सांप जैसा भासता
है, तू वही
आनंद परमानंद
बोध है। अतएव
तू सुखपूर्वक
विचर।’
यहां
दुख का कोई
कारण ही नहीं
है। तुम नाहक
एक दुख—स्वप्न
में दबे और
परेशान हुए जा
रहे दुख—स्वप्न
तुमने देखा? अपने
ही हाथ छाती
पर रखकर आदमी
सो जाता है, हाथ के वजन
से रात नींद
में लगता है
कि छाती पर कोई
भूत—प्रेत चढ़ा
है! अपने ही
हाथ रखे हैं
छाती पर, उनका
ही वजन पड़ रहा
है; लेकिन
निद्रा में
वही वजन
भ्रांति बन
जाता है। या
अपना ही तकिया
रख लिया अपनी
छाती पर, लगता
है पहाड़ गिर
गया! चीखता है,
चिल्लाता
है। चीख भी
नहीं निकलती।
हाथ—पैर
हिलाना चाहता
है। हाथ—पैर
भी नहीं हिलते—ऐसी
घबड़ाहट बैठ
जाती है। फिर
जब नींद भी
टूट जाती है
तो भी पाता है
पसीना—पसीना
है। नींद भी
टूट जाती है, जाग भी जाता
है, समझ भी
लेता है—कोई
दुश्मन नहीं,
कोई पहाड़
नहीं गिरा, अपना ही
तकिया अपनी
छाती पर रख
लिया, कि
अपने ही हाथ
अपनी छाती पर
रख लिए थे—तो
भी सांस धक—धक
चल रही है, जैसे
मीलों दौड़कर
आया हो। सपना
टूट गया, फिर
भी अभी तक
परिणाम जारी
है।
जिनको
हम यह संसार
के दुख कह रहे
हैं,
वे हमारे ही
बोध की
भ्रांतियां
हैं।
'जिसमें यह
कल्पित संसार
रस्सी में
सांप जैसा भासता
है...।’
तुमने
देखा कभी, रस्सी
पड़ी हो रास्ते
पर अंधेरे में,
बस सांप का
खयाल आ जाता
है! खयाल आ गया
तो रस्सी पर
सांप आरोपित
हो गया। भागे!
चीख—पुकार मचा
दी! हो सकता है
दौड़ने में गिर
पड़ो, हाथ—पैर
तोड़ लो, तब
बाद में पता
चले कि सिर्फ
रस्सी थी, नाहक
दौड़े! लेकिन
फिर क्या होता
है? हाथ—पैर
तोड़ चुके! लेकिन
अगर तुम्हारे
पास थोड़ा—सा
भी बोध का
दीया हो, प्रकाश
हो थोड़ा, तो
अंधेरी से अंधेरी
रात में भी
तुम बोध के
दीये से देख
पाओगे कि
रस्सी रस्सी
है, सर्प
नहीं है। इस
बोध में ही
आनंद और
परमानंद का
जन्म होता है।
'……अतएव तू
सुखपूर्वक
विचर!'
तेरे
पास सूत्र है।
तेरे पास
ज्योति है।
ज्योति को
तूने नाहक के
परदों में
ढाका। परदे
हटा। घूंघट के
पट खोल! विचार
के,
वासना के, अपेक्षा के,
कल्पनाओं
के, सपनों
के परदे हटाओ।
वे ही हैं
घूंघट। घूंघट
को हटाओ। खुली
आंख से देखो।
लोग
बुर्के ओढ़े
बैठे हैं। उन
बुर्कों के
कारण कुछ
दिखायी नहीं
पड़ता। धक्के
खा रहे हैं, गड्डों
में गिर रहे
हैं।
'……वही आनंद
परमानंद बोध
है। अतएव तू
सुखपूर्वक
विचर।’
यत्र
विश्वमिदं
भाति कल्पितं
रज्जुसर्पवत्।
आनंद
परमानंद: स
बोधस्तवं
सुखं चर।।
आनंद
परमानंद स 'बोधस्तवं
सुख चर।
इस
थोड़े—से बोध
को समझ लो, पकड़
लो, पहचान
लो—फिर विचरण
करो सुख में।
यह अस्तित्व
परम आनंद है।
इस अस्तित्व
ने दुख जाना
नहीं। दुख
तुम्हारा
निर्मित किया
हुआ है।
कठिन
है समझना यह
बात,
क्योंकि हम
इतने दुख में
जी रहे हैं, हम कैसे
मानें कि दुख
नहीं है। वह
जो रस्सी को
देखकर भाग गया
है, वह भी
नहीं मानता की
सर्प नहीं है।
वह जो हाथ
रखकर छाती पर
पड़ा है और
सोचता है पहाड़
गिर गया, वह
भी उस क्षण
में तो नहीं
मान सकता कि
पहाड़ नहीं गिर
गया है। वैसी
ही हमारी दशा
है।
क्या
करें?
थोड़े
दृश्य से
द्रष्टा की
तरफ चलें!
देखें सब, लेकिन
देखने वाले को
न भूलें।
सुनें सब, सुनने
वाले को न
भूलें। करें
सब, लेकिन
स्मरण रखें कि
कर्ता नहीं
हैं।
बुद्ध
कहते थे : चलो
राह पर और
स्मरण रखो कि
भीतर कोई चल
नहीं रहा खै।
भीतर सब अचल
है।
ऐसा
ही है भी।
गाड़ी
के चाक को
चलते देखा है? कील
तो ठहरी रहती
है, चाक
चलता जाता है।
ऐसे ही जीवन
का चाक चलता
है, कील तो
ठहरी हुई है।
कील हो तुम।
'मुक्ति का
अभिमानी
मुक्त है और
बद्ध का अभिमानी
बद्ध है।
क्योंकि इस
संसार में यह
लोकोक्ति सच
है कि जैसी
मति वैसी गति।’
यह
सूत्र
मूल्यवान है।
'मुक्ति का
अभिमानी
मुक्त है।’
जिसने
जान लिया कि
मैं मुक्त हूं
वह मुक्त है।
मुक्ति के लिए
कुछ और करना
नहीं; इतना
जानना ही है
कि मैं मुक्त
हूं! तुम्हारे
करने से
मुक्ति न
आयेगी, तुम्हारे
जानने से
मुक्ति आयेगी।
मुक्ति कृत्य
का परिणाम
नहीं, ज्ञान
का फल है।
मुक्ति
का अभिमानी
मुक्त है, और
बद्ध का
अभिमानी बद्ध
है।’
जो
सोचता है मैं
बंधा हूं वह
बंधा है। जो
सोचता है मैं
मुक्त हूं? वह
मुक्त है।
तुम
जरा करके भी
देखो! एक
चौबीस घंटे
ऐसा सोचकर
देखो कि चलो
चौबीस घंटे
यही सही :
मुक्त हूं! चौबीस
घंटे मुक्त
रहकर देख लो।
तुम बड़े चकित
होओगे, तुम्हें
खुद ही भरोसा
न आयेगा। कि
अगर तुम सोच
लो मुक्त हो
तो कोई नहीं
बांधने वाला
है। तो तुम
मुक्त हो। तुम
सोच लो कि
बंधा हूं तो
हर चीज बांधने
वाली है।
मेरे
एक मित्र थे, मेरे
साथ प्रोफेसर
थे। होली के
दिन थे, भांग
पी ली। रास्ते
पर शोरगुल मचा
दिया। हुल्लड़
कर दी। बड़े
सीधे आदमी थे।
सीधे आदमी के
साथ खतरा है।
उसके भीतर
काफी दबा पड़ा
रहता है।
उपद्रवी नहीं
थे। नाम भी
उनका भोलाराम
था। भोले—भाले
आदमी थे। भोले—
भाले आदमी के
साथ एक खतरा
है : भांग
वगैरह से बचना
चाहिए।
क्योंकि वह
भोला— भालापन
जो ऊपर—ऊपर है,
भांग ने तो
डुबा दिया
भीतर जो दबा
पड़ा था, जिंदगी
भर में जो
नहीं किया था,
वह सब निकल
आया। वे सड़क
पर गये, शोरगुल
मचाया, उपद्रव
कर दिया, किसी
स्त्री के साथ
छेड़—छाड़ कर दी।
पकड़ लिए गए।
थाने में बंद
कर दिये गये।
अंग्रेजी के
प्रोफेसर थे।
रात
कोई दो बजे
आदमी मेरे पास
आया और उसने कहा
कि आपके मित्र
पकड़ गये हैं
और उन्होंने
खबर भेजी है
कि निकालो; सुबह
के पहले
निकालो, नहीं
तो मुश्किल हो
जायेगी!
बामुश्किल
उनको निकाल
पाये सुबह
होते—होते।
निकाल तो लाये,
लेकिन वे
ऐसे घबड़ा गये—सीधे—साधे
आदमी थे—वे
ऐसे घबड़ा गये
कि बस मुश्किल
खड़ी हो गयी।
तीन महीने
उन्होंने ऐसा
कष्ट भोगा..
सड़क से पुलिस
वाला निकले कि
वे छिप जाएं, कि वह आ रहा
है पकड़ने!
मेरे साथ एक
ही कमरे में रहते
थे। रात पुलिस
वाला सीटी
बजाये, वे
बिस्तर के
नीचे हो जाएं।
मैं कहूं 'तुम
कर क्या रहे
हो?'
'आ रहे हैं वे
लोग!'
फिर
तो हालत ऐसी
बिगड़ गयी कि
वे न मुझे
सोने दें न
खुद सोये। वे
कहें कि जगो, सुना
तुमने? वे
लोग...! हवा में
खबर है, आवाज
आ रही है।
रेडियो पर वे
लोग यहां—वहां
से खबर भेज
रहे हैं कि
भोलाराम कहां
है! मैंने कहा,
' भोलाराम, तुम सो जाओ!'
'अरे, सो
कैसे जाएं, जीवन खतरे
में है। वे
पकड़ेंगे! फाइल
है मेरे खिलाफ।’
आखिर
मैं इतना
परेशान हो गया
कि कोई रास्ता
न देखकर...।
कालेज भी जाना
उन्होंने बंद
कर दिया, छुट्टी
लेकर घर बैठ
गये। वह चौबीस
घंटे एक ही
रंग चलने लगा,
जिसको
मनोवैज्ञानिक
पैरानायड
कहते हैं, वे
पैरानायड हो
गये—अपने भय
से ही रचना
करने लगे। भले
आदमी थे, कभी
सोचा भी नहीं
था मैंने।
लेकिन एक
अनुभव हुआ कि
आदमी क्या—क्या
कल्पना नहीं
कर ले सकता है! 'दीवालों के',
वे कहें, 'कान हैं। सब
तरफ लोग सुन
रहे हैं।’ कोई
भी रास्ते पर
चल रहा है तो
वह उन्हीं को
देखता हुआ चल
रहा है। कोई
किनारे पर खड़े
हो कर हंस रहा
है तो वह भोलाराम
को देख कर हंस
रहा है। कोई
बात कर रहा है
तो वह उनके
खिलाफ
षड्यंत्र रच
रहा है। सारी दुनियां
उनके खिलाफ है।
फिर
कोई उपाय न
देख कर मुझे
एक ही रास्ता
दिखायी पड़ा।
एक परिचित
मित्र थे, इंस्पेक्टर
थे। उनको
समझाया कि तुम
आ जाओ एक दिन
फाइल ले कर।
'उन्होंने
कहा, फाइल
हो तो हम ले
आयें। न कोई
फाइल है, न
कुछ हिसाब है।
इस आदमी ने
कभी कुछ किया
ही नहीं; सिर्फ
एक दफा भंग पी,
थोड़ा ऊधम
मचाया, खतम
हो गयी बात।
अब इसमें कोई
इतना शोरगुल
नहीं।’
'कोई भी फाइल
ले लाओ। कागज
कोरे रखकर आ जाना।
मगर फाइल बड़ी
होनी चाहिए, क्योंकि वे
कहते हैं कि
फाइल बड़ी है।
और भोलाराम का
नाम लिखी होनी
चाहिए। और तुम
चिंता मत करना,
दों—चार हाथ
इनको रसीद कर
देना और बांध
भी देना हथकड़ी
इनके हाथ में
और जब तक मैं
तुमको दस हजार
रुपया रिश्वत
न दूं इनको
छोड़ने के लिए
राजी मत होना।
तब ही शायद ये
छूटें।’
लाना
पड़ा।
उन्होंने दो—चार
हाथ उनको
लगाये। जब
उनको हाथ लगाए, तब
वे बड़े
प्रसन्न हुए।
वे कहने लगे
मुझसे, 'अब
देखो! जो मैं
कहता था, अब
हुआ कि नहीं? यह रही फाइल।
बड़े—बड़े
अक्षरों में
भोलाराम लिखा
है। अब बोलो, वे सब
समझदारी की बातें
कहां गयीं? अब यह हो रहा
है : चले
भोलाराम!
हथकड़ी भी डाल
दी!'
मगर
एक तरह से वे
प्रसन्न थे; एक
तरह से दुखी
थे, रो रहे
थे; मगर एक
तरह से
प्रसन्न थे कि
उनकी धारणा
सही सिद्ध हुई।
आदमी ऐसा पागल
है! तुम्हारे
दुख की धारणा
भी सही सिद्ध
हो तो
तुम्हारे
अहंकार को
तृप्ति मिलती
है कि देखो, मैं सही
सिद्ध हुआ!
उनका
पूरा भाव यह
था कि सब को
गलत सिद्ध कर
दिया, सब
समझाने वाले,
कोई सही
सिद्ध नहीं
हुआ, आखिर
मैं ही सही
सिद्ध हुआ।
बामुश्किल
समझाया—बुझाया
इंस्पेक्टर
को। उसको कह
रखा था, जल्दी
मत मान जाना; नहीं तो वे
फिर सोचेंगे
कि कोई
जालसाजी है।
उसने कहा, 'यह
हो ही नहीं
सकता। इनको तो
आजन्म सजा
होगी।’ बस
वह जब इस तरह
की बातें कहे,
वे मेरी तरफ
देखें कि कहो!
बहुत
मुश्किल से
समझा—बुझा कर, हाथ
पैर जोड़ कर
नोट की
गड्डियां
उनको दीं, फाइल
जलायी सामने।
उस दिन से
भोलाराम
मुक्त हो गये,
ठीक हो गये!
सब खतम हो गया
मामला!
करीब—करीब
ऐसी अवस्था है।
'मुक्ति का
अभिमानी
मुक्त है और
बद्ध का अभिमानी
बद्ध।
क्योंकि इस
संसार में यह
लोकोक्ति सच
है कि जैसी
मति वैसी गति।’
तुम
जैसा सोचते हो
वैसा ही हो
गया है।
तुम्हारे
सोचने ने
तुम्हारा
संसार
निर्मित कर
दिया है। सोच
को बदलो।
जागो! और ढंग
से देखो। सब
यही रहेगा, सिर्फ
तुम्हारे
देखने, सोचने,
जानने के
ढंग बदल
जायेंगे—और सब
बदल जायेगा।
मुक्ताभिमानी
मुक्तो हि
बद्धो
बद्धाभिमान्यपि।
किंवदंतीह
सत्येयं या
मति: स
गतिर्भवेत।।
या
मति: स
गतिर्भवेत।
जैसा
सोचो, जैसी
मति वैसी गति
हो जाती है।
'आत्मा
साक्षी है, व्यापक है, पूर्ण है, एक है, मुक्त
है, चेतन
है, क्रिया—रहित
है, असंग
है, निस्पृह
है, शांत
है। वह भ्रम
के कारण संसार
जैसा भासता है।’
साक्षी, व्यापक,
पूर्ण—सुनो
इस शब्द को!
अष्टावक्र
कहते हैं, तुम
पूर्ण हो!
पूर्ण होना
नहीं है।
तुममें कुछ भी
जोड़ा नहीं जा
सकता। तुम
जैसे हो, परिपूर्ण
हो। तुममें
कुछ विकास
नहीं करना है।
तुम्हें कुछ
सोपान नहीं
चढ़ने हैं।
तुम्हारे आगे
कुछ भी नहीं
है। तुम पूर्ण
हो, तुम
परमात्मा हो,
व्यापक हो,
साक्षी हो,
एक हो, मुक्त
हो, चेतन
हो, क्रिया—रहित
हो, असंग
हो। किसी ने
तुम्हें
बांधा नहीं, कोई संग—साथी
नहीं है।
अकेले हो! परम
स्वात में हो!
निस्पृह हो!
ऐसा
होना नहीं है।
यही फर्क है
अष्टावक्र के
संदेश का। अगर
तुम महावीर को
सुनो तो
महावीर कहते
हैं,
ऐसा होना है।
अष्टावक्र
कहते हैं, ऐसे
तुम हो!
यह
बड़ा फर्क है।
यह छोटा फर्क
नहीं है।
महावीर कहते
हैं : असंग
होना है, निस्पृह
होना है, पूर्ण
होना है, व्यापक
होना है, साक्षी
होना है।
अष्टावक्र
कहते हैं : तुम
ऐसे हो; बस
जागना है! ऐसा आंख
खोलकर देखना
है।
अष्टावक्र
का योग बड़ा
सहजयोग है।
साधो
सहज समाधि
भली!
'मैं आभास—रूप
अहंकारी जीव
हूं ऐसे भ्रम
को और बाहर—भीतर
के भाव को छोड़
कर तू कूटस्थ
बोध—रूप
अद्वैत आत्मा
का विचार कर।’
'अहं आभास:
इति—मैं आभास—रूप
अहंकारी जीव
हूं!'
यह
तुमने जो अब
तक मान रखा है, यह
सिर्फ आभास है।
यह तुमने जो
मान रखा है, यह तुम्हारी
मान्यता है, मति है।
यद्यपि तुम्हारे
आसपास भी ऐसा
ही मानने वाले
लोग हैं, इसलिए
तुम्हारी मति
को बल भी
मिलता है।
आखिर आदमी
अपनी मति उधार
लेता है। तुम
दूसरों से
सीखते हो।
आदमी अनुकरण
करता है। यहां
सभी दुखी हैं,
तुम भी दुखी
हो गये हो।
जापान
में एक अदभुत
संत हुआ. 'होतेई'। जैसे ही वह
ज्ञान को उपलब्ध
हुआ, या
कहना चाहिए
जैसे ही वह
जागा, वह
हंसने लगा।
फिर वह जीवन
भर हंसता ही
रहा। वह गाव—गाव
जाता। होतेई
को जापान में
लोग 'हंसता
हुआ बुद्ध' कहते हैं।
वह बीच बाजार
में खड़ा हो
जाता और हंसने
लगता। फिर तो
उसका नाम दूर—दूर
तक फैल गया।
लोग उसकी
प्रतीक्षा
करते कि होतेई
कब आएगा। उसका
कोई और उपदेश
न था, वह बस
बीच बाजार में
खड़े हो कर
हंसता, धीरे—धीरे
भीड़ इकट्ठी हो
जाती, और
लोग भी हंसने
लगते।
होतेई
से लोग पूछते, 'आप
कुछ और कहो।’ वह कहता, 'और
क्या कहें? नाहक रो रहे
हो, कोई
हंसने वाला
चाहिए जो
तुम्हें हंसा
दे! इतनी ही
खबर लाता हूं
कि हंस लो।
कोई कमी नहीं
है! दिल खोल कर
हंसो। सारा
अस्तित्व हंस
रहा है, तुम
नाहक रो रहे
हो! तुम्हारा
रोना बिलकुल
निजी, प्राईवेट
है। पूरा
अस्तित्व हंस
रहा है। चांद—तारे,
फूल—पक्षी
सब हंस रहे
हैं; तुम
नाहक रो रहे
हो। खोलो आंख,
हंस लो!
मेरा कोई और
संदेश नहीं है।’
वह
हंसता, एक
गाव से दूसरे
गाव घूमता
रहता। कहते
हैं उसने पूरे
जापान को
हंसाया! और
उसके पास
लोगों को धीरे—धीरे,
धीरे— धीरे,
हंसते—हंसते
झलकें मिलतीं।
वह उसका ध्यान
था, वही
उसकी समाधि थी।
लोग हंसते—हंसते
धीरे—धीरे अनुभव
करते कि हम
हंस सकते हैं,
हम प्रसन्न
हो सकते हैं!
अकारण!
कारण
की खोज ही गलत
है। तुम जब तक
कारण खोजोगे
कि जब कारण
होगा तब हंसेंगे
तो तुम कभी
हसोगे ही नहीं।
तुमने अगर
सोचा कि कारण
होगा तब सुखी
होंगे, तो
तुम कभी सुखी
न होओगे। कारण
खोजने वाला और—और
दुखी होता
जाता है। कारण
दुख के हैं।
सुख स्वभाव है।
कारण को
निर्मित करना
पड़ता है। दुख
को भी निर्मित
करना पड़ता है।
सुख है। सुख
मौजूद है। सुख
को प्रगट करो।
यही
अष्टावक्र का
बार—बार कहना
है।
बोधस्ल
सुखं चर!
वीतशोक:
सुखी भव!
'विश्वासामृत
पीत्वा सुखी
भव!' पी ले
अमृत, हो
जा सुखी!
मनुष्य
पूर्ण है, एक
है, मुक्त
है। सिर्फ
आभास बाधा डाल
रहा है।
'मैं आभास—रूप
अहंकारी जीव
हूं ऐसे भ्रम
को और बाहर—
भीतर के भाव
को छोड़ कर तू
कूटस्थ बोध—रूप
अद्वैत आत्मा
का विचार कर।’
अहं
आभास: इति
बाह्य अंतरम्
मुक्ता
'बाहर और
भीतर के भाव
से मुक्त हो
जा।’
आत्मा
न तो बाहर है
और न भीतर।
बाहर और भीतर
भी सब मन के ही
भेद हैं।
आत्मा तो बाहर
भी है, भीतर भी
है। आत्मा में
सब बाहर— भीतर
है। आत्मा ही
है। बाहर—
भीतर के सब
भाव को छोड़ कर
तू कूटस्थ बोध—रूप
अद्वैत आत्मा
का विचार कर।
यह
अनुवाद ठीक
नहीं है। मूल
सूत्र है :
बाह्य
अंतरम् भाव
मुक्ता,
—मुक्त होकर
अंतर—बाहर से।
त्वं
कूटस्थ
बोधमद्वैतमात्मान
परिभावय।
परिभाव
कर.
विचार
कर,
यह ठीक नहीं
है।’परिभाव
कर' कि तू
कूटस्थ आत्मा
है। ऐसा बोध
कर, ऐसा
भाव। भाव! ऐसी
भावना में जग।
विचार तो फिर
बुद्धिस की
बात हो जाती
है। विचार फिर
ऊपर—ऊपर की
बात जाती है।
सिर से नहीं
होगा, यह
हृदय होगा। यह
भाव प्रेम
जैसा होगा, गणित जैसा
नहीं। यह तर्क
जैसा नहीं
होगा, गीत
जैसा होगा—जिसकी
गुनगुनाहट
डूबती चली
जाती है गहराई
तक और प्राणों
के अंतरतम को
छू लेती है, स्पंदित कर
देती है।
परिभाव
कर कि मैं
कूटस्थ आत्मा
हूं। यह घूमता
हुआ चाक नहीं, बीच
की कील हूं।
कील यानी
कूटस्थ।
तुम
जब तक सोचते
हो पृथ्वी पर
हो,
पृथ्वी पर
हो। जिस क्षण
तुमने तैयारी
दिखायी, जिस
क्षण तुमने
हिम्मत की, उसी क्षण
आकाश में उड़ना
शुरू हो सकता
है।
दल
के दल तैर रहे
मेघ मगन भू पर
उड़ता
जाता हूं मैं
मेघों के ऊपर।
एक
अजब लोक खुला
है मेरे आगे
कोई
सपना विराट
सोये में जागे
कहां
उड़ जाता है
समय—सिंधु घर—घर!
गाड़ी
जो अंधी घाटी
में बर्फीली
ऊर्मिल
धाराओं में
मछली चमकीली
धंसता
जाता हूं
फेनिल तम के
भीतर।
कोसों
तक लाल परिधि
सूरज को घेरे
छलक
रहा
इंद्रधनुष
पंखों पर मेरे
यहां—वहां
फूट रहे रंगों
के निर्झर!
ठहरी—सी
नदी कहीं उड़ते—से
पुल हैं
धाराओं
पर धाराएं
आकुल—व्याकुल
हैं
गल—गल
कर बहे जा रहे
नभ में थर!
गांवों
पर गांव धवल
जंगल कासों के
उगते
ये तरु अनंत
किसकी सांसों
के!
एक
दूसरी धरती बना
हुआ है अंबर
दल
के दल तैर रहे
मेघ मगन भू पर!
उड़ता
जाता हूं मैं
मेघों के ऊपर!
एक अजब लोक खुला
है मेरे आगे!
कोई सपना
विराट सोये
में जागे!
जागो!
सपना खूब देखा, अब
जागो! बस
जागना कुंजी
है। कुछ और
करना नहीं—न
कोई साधना, न कोई योग, न आसन—बस
जागना!
हरि
ओंम तत्सत्!
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