नौवां
प्रवचन;
दिनाक 19
मई 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्न
सार :
*युनिवर्सिटी
की अनेक
डिग्रिया
प्राप्त करने,
राजनीति
में सक्रिय
रहने, तथा
अनेक गुरुओं
के भटकाव मैं
मैंने अपनी
सारी जिंदगी
बरबाद कर दी।
आपने करुणावश
मुझे उन्नीस
सौ इकहत्तर
में संन्यास
दिया। अब
सत्तर वर्ष की
उस देखकर आंसू
बहाता हूं।
बराबर आता हूं
और सोचता हूं
कि इस बार
भगवान से बहुत
कुछ पूछूंगा।
लेकिन आपके
पास आते ही
प्रश्न खो
जाते हैं।
बुढ़ापे के
कारण अंग
शिथिल होता जा
रहा है। भगवान,
मेरे अंतर
को समझकर आप
ही
मार्गदर्शन
करें।
*भगवान!
आज आपने
स्त्री-स्पर्श
के संबंध में
चर्चा की तो सारी
बातें तीर की
तरह चुभ गई।
कल प्रवचन के
बाद मैं
स्वागत-कक्ष
में गया तो 'दर्शन' मुझसे
बोली कि मैं
आपका आलिंगन
करना चाहती हूं।
मैं थोड़ा
सकुचाया, लेकिन
जिस भाव से
उसने कहा उसे
मैं पी गया और
हम दोनों एक
-दूसरे के आलिंगन
में डूब गये।
लेकिन इस गहरे
निष्पाप
आलिंगन में भी
मेरा पुरुष-
भाव बना ही
रहा। तब मुझे
याद आया कि
पचास साल कि
इस जिंदगी में
मैंने एक
पत्नी को
छोड्कर किसी
भी व्यक्ति कों-मेरी
मां, बेटी
और बहन तक
किसी को भी
मैंने भाव से
गले नहीं
लगाया। मैं
गहरे स्पर्श से
वंचित रहा हूं
लेकिन कल 'दर्शन'
ने और आज
आपने जैसे एक
झरोखा खोल
दिया। भगवान,
इस पर आप
कुछ बोलें तो
उसे सुनने का,
सहने का बल
और साहस
मांगता हूं
क्योंकि वह
मौत जैसा लगता
है।
*भगवान!
जीवन रीता-
रीता क्यों
लगता है? मैं
अभी पच्चीस
वर्ष का ही
हूं। विवाह और
घर -द्वार की
झंझट में पड़ना
नहीं चाहता
हूं।
ब्रह्मचर्य
ही मेरे जीवन
का लक्ष्य है।
आपके आशीष
चाहिये।
*भगवान!
पंडित
-पुरोहित
मनुष्य को
जगाने के क्यों
सदा से विरोधी
हैं और जन
-सामान्य
क्यों उनके
जालों में
बार-बार उलझ
जाता है?
पहला
प्रश्न :
भगवान!
यूनिवर्सिटी
की अनेक
डिग्रिया
प्राप्त करने, राजनीति
मैं सक्रिय
रहने, जेल
जाने, दिल्ली
दौड़ने में तथा
अनेक गुरुओं
के भटकाव में
मैंने अपनी
सारी जिंदगी
बरबाद कर दी।
आपने करुणावश
मुझे, टालमटोल
करने पर भी, १९७१ मैं
संन्यास दिया।
अब सत्तर वर्ष
की उस देखकर आंसू
बहाता हूं।
बराबर आता हूं
और सोचता हूं
कि इस बार
भगवान से बहुत
कुछ पूछूंगा।
लेकिन आपके
पास आते ही
प्रश्न खो
जाते हैं।
बुढ़ापे के
कारण अंग
शिथिल होता जा
रहा है। भगवान,
मेरे अंतर
को समझकर आप
ही
मार्गदर्शन
करें!
'धर्मरक्षित!
विश्वविद्यालय
शिक्षा नहीं
देते, संस्कार
देते हैं।
संस्कार, जो
कि कारागृह बन
जाते हैं।
शिक्षा तो
मुक्तिदायी
है। ज्ञान तो
वही है जो
विमुक्त करे।
और जिसे हम आज
शिक्षा कह रहे
हैं उसका
विमुक्ति से
क्या संबंध? बंधन तो
बनाती है बहुत,
मुक्ति को
जरा भी पास
नहीं लाती।
विश्वविद्यालय
विचार देते
हैं और मुक्ति
आती है
निर्विचार से।
विश्वविद्यालयों
से कितनी ही
उपाधिया प्राप्त
कर जी जायें, वे
उपाधि के
दूसरे अर्थ
में ही उपाधि
हैं-बीमारी के
अर्थ में।
उनसे
स्वास्थ्य-लाभ
नहीं होता।
उनसे अहंकार
तो अर्जित
होता है।
अहंकार पर
सजावट चढ़ जाती
है, अहंकार
पर फूलमालायें
लग जाती हैं; लेकिन भीतर
का खोखापन, भीतर का
थोथापन न मिट
सकता है। उसे
मिटाने की तो
एक ही कला है।
उस कला को
बाहर से
सिखाने का कोई
उपाय नहीं है।
वह कला तो एक
ही कला है। उस
कला को बाहर
से सिखाने का
कोई उपाय नहीं
है। वह कला तो
सत्संग में
सहज स्फुरित
होती है।
शिक्षा, जिसे
तुम कहते हो
विश्वविद्यालय
की, वहां
सत्संग नहीं
है। वहां बंधे
हुए सिद्धांत ,
धारणायें, शब्द, शास्त्र
कोरे मनों के
ऊपर थोपे जा
रहे हैं।
विद्यार्थी
आता है एक
कोरे कागज की
तरह और जब विश्वविद्यालय
से लौटता है
तो गुदा कागज
होता है। कोरे
कागज का तो
कुछ मूल्य भी
है, गुदें
कागज का तो
कोई मूल्य
नहीं-बस रही
में बेच दो, जो मिल जाये
सो बहुत है।
सत्संग
में कागज फिर
कोरा होता है।
सदगुरु कुछ
सिखाता नहीं, मिटाता
है। सदगुरु
कुछ देता नहीं,
छीन लेता है।
सदगुरु सिद्धांत
नहीं
देता; तुम्हारी
जो पकड़ है
सिद्धातों पर,
शब्दों पर,
शास्त्रों
पर, उसे
शिथिल करता है।
और ये सब होता
है, किसी
सिखावन के
द्वारा
नहीं-सिर्फ
सदगुरु के पास
बैठते -बैठते,
उसके रंग
में रंगते
-रंगते, उसके
रस में डूबते
-डूबते, उसके
गीत को सुनते
-सुनते, किसी
दिन, किसी
सौभाग्य के
क्षण में बस
झरोखा खुल
जाता है।
तुम
कहते हो : 'यूनिवर्सिटी
की अनेक
डिग्रीया
प्राप्त करने,
राजनीति
में सक्रिय
रहने...। '
विश्वविद्यालय
सिखाता ही
राजनीति है।
राजनीति का
मौलिक आधार है
महत्त्वाकाक्षा-कुछ
हो जाऊं, किसी
बड़े पद पर, अग्रणी!
जीसस
ने कहा है :
धन्य हैं वे जो
अंतिम हैं, क्योंकि
वे ही मेरे
प्रभु के
राज्य मैं
प्रथम होंगे
और अभागे हैं
वे जो प्रथम
हैं, क्योंकि
मेरे प्रभु के
राज्य में वे
अंतिम होंगे।
एक और
गणित है-एक
महा गणित है
परमात्मा का, जहां
मापदंड अलग
हैं, जहां
तराजू और हैं
तौलने के। वहां
जो
अंतिम होने में
समर्थ है वही
प्रथम समझा
जाता है। इस
जगत का गणित
और है। यहां
जो प्रथम होने
मैं समर्थ है
वही प्रथम
समझा जता है, वही सार्थक,
उसी का जीवन
सफल।
लेकिन
तुम चारों तरफ
सफल लोगों की
जिदगिया तो देखो, इनसे
ज्यादा असफल
जीवन और कहां
मिलेंगे! धन
तो इकट्ठा हो
जाता है, भीतर
निर्धनता है।
बाहर तो पद
हैं और भीतर
भिखमंगा बैठा
है। हाथ तो
हीरों से भरे
हैं, आत्मा
कूड़े -कर्कट
से।
सारी
शिक्षा
राजनीति में
ले जाती है, क्योंकि
सारी शिखा का
मौलिक आधार है
महत्त्वाकाक्षा,
दूसरे से
आगे होने की
दौड़। पीछे रह
जाओ तो दो
कौड़ी के हो; आगे हो जाओ
तो हीरे
-जवाहरातों
में तौले
जाओगे। फिर
तुम आगे कैसे
हुए, यह भी
कोई पूछता
नहीं। नियम से
हुए गैर -नियम
से हुए, ईमान
से हुए
बेईमानी से
हुए, इसकी
कोई चिंता
नहीं; अगर
सफल हो गए, तो
तुम कैसे सफल
हुए उस सब पर
फुल-मालायें
चढ़ जाती हैं। यहां
असफल ही पकड़ा
जाता है कि
उसने कुछ गड़बड़
की है, सफल
नहीं पकड़ा
जाता। इसलिए
तुम देखते हो,
जब तक कोई
एक व्यक्ति पद
पर होता है तब
तक वह जो करे
सब ठीक; और
जैसे ही पद से
उतरा कि उसने
जो किया सब
गलत। और
अंधापन ऐसा है
कि उसके बाद
पद पर जो
बैठता है वह
भी पद पर बैठ
कर यही सोचता
है कि अब जो
मैं कर रहा
हूं सब ठीक।
तुमने
इंदिरा को
देखा, शाह
-कमीशन के
सामने! किसी
दिन मौका आया
और मोरारजी
देसाई किसी
बादशाह-कमीशन
के सामने खड़े
हुए, तब
पता चलेगा!
अभी पता नहीं
चलेगा। अभी तो
पता कैसे चले?
अभी तो सब
ठीक है। सत्ता
है तो सब ठीक
है। जिसकी
लाठी उसकी
भैंस, ऐसा
राजनीति का
शास्त्र है।
विश्वविद्यालय
की शिक्षा
तुम्हें
राजनीति में
ले गयी, यह
स्वाभाविक था।
राजनीति की
दौड़ ही कहां
है-दिल्ली की
तरफ! फिर
दिल्ली हो कि
लंदन हो कि पेकिंग
हो कि
वाशिंगटन हो
कि मास्को, ये सब
दिल्ली के ही
नाम हैं। वहां
थके
होओगे, हारे
होओगे, व्यर्थता
देखी होगी, विफलता देखी
होगी, सब
बेस्वाद लगा
होगा। आदमी
समझदार थे तुम,
नहीं तो
जन्मों-
जन्मों पता
नहीं चलता।
आदमी होशियार
थे तुम।
तुम्हारे
भीतर कुछ
ज्योति थी, कुछ अंगारा
जलता था, बिलकुल
राख में दब
नहीं गया था।
इसलिए तुम
गुरुओं की
तलाश में निकले।
गुरुओं की
तलाश निकलता
वही है।
जिसके
भीतर
परमात्मा की
प्यास पैदा
होती है। और
प्यास
तुम्हारी सच
में ही सच्ची
थी,
अन्यथा
किसी भी गुरु
में उलझ जाते।
जिसके
पास सच्ची
प्यास है, वह
हर किसी में
नहीं उलझ सकता।
उसकी प्यास ही
उसे मार्ग-
दिशा देती
रहेगी। उसकी
प्यास कसौटी
है। वह ही चीज
को कस कर देख
लेगा अपनी
प्यास पर कि प्यास
है या नहीं; नहीं बुझती
तो कहीं और
चलो, और
आगे हटे, कहीं
और खोजो।
ऐसे
तुम बहुत
गुरुओं के पास
भटके, स्वाभाविक
है। जहां असली
सिक्के होंगे
वहां नकली
सिक्के भी
होंगे। और
असली सिक्का
तो एक होगा, नकली
सिक्कों की
जरूरत भी है।
ऐसे ही व्यर्थ
नहीं हैं वे।
वे भी कोई काम
पूरा करते हैं। ' अधिक
लोग मिT को
ही चाहते हैं,
क्योंकि
मिथ्या गुरु
सुविधापूर्ण
है। मिथ्या
गुरु
सुविधापूर्ण
है। मिथ्या
गुरु यहा या
गुरु तुम्हें
बदलता नहीं, तुम्हें
काटता नहीं, छाटता नहीं।
मिथ्या गुरु
तुम्हारी
धारणाओं को ही
सबल करता है, तुम्हारे
अहंकार को ही
सबल करता है।
मिथ्या गुरु
तुम्हारे
अहंकार को ही
नए पंख देता
है। मिथ्या
गुरु आचरण
सिखाता है। और
आचरण अहंकार
को और सुशोभित
कर देता है।
मिथ्या
गुरु तुमसे
कहता है :
स्वर्ग
तुम्हारा है, अगर
इतने नियम
पूरे करो। वह
तुम्हें नयी
राजनीति
सिखाता
है-स्वर्ग की राजनीति।
मगर वही दौड़!
दिल्ली न रही,
स्वर्ग हुआ,
मगर दौड़ तो
वही रही। वह
तुम्हें
सिखाता है :
अगर इतना आचरण
पूरा किया तो
स्वर्ग में
प्रथम होओगे। मगर
प्रथम होने की
वह जो रुग्ण आकांक्षा
है, उसमें
और आग में घी
डालता है।
तुम्हें
डराता है कि
अगर आचरण से
चूके तो नर्क
में पड़ोगे।
तुम्हें
भयभीत करता है।
मिथ्या गुरु
वही है जो
तुम्हें
भयभीत करे, जो तुम्हें
लोभ से भरे; क्योंकि लोभ
और भय दोनों
ही मनुष्य को
उसकी शुद्धतम
चैतन्य ऊर्जा
को अनुभव करने
रोकते हैं। भय
भी अटका लेता
है, लोभ भी
अटका लेता है।
भय और लोभ एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
सदगुरु तो वह
है जो भय और
लोभ की बात ही
नहीं करता। जो
यह कहता ही
नहीं कि तुम
कोई नयी
महत्त्वाकाक्षा
धर्म के नाम
पर जगाओ। जो
तुमसे कल की
बात ही नहीं
करता। जो
तुमसे कहता है
: आज काफी है, यही क्षण
बहुत है। और
जो तुमसे सह
भी नहीं कहता
कि परमात्मा
मल मिलेगा। जो
तुमसे कहता है
: परमात्मा
अभी उपलब्ध है।
आंख खोजो और
पा लो! जागो और
पा लो! चूक रहे
हो तो अपने
कारण।
परमात्मा
दूर नहीं है; निकट
से भी निकट है;
श्वास से भी
पास है; हृदय
की धड़कन से भी
पास है। और एक
क्षण को भी
परमात्मा
तुमसे दूर
नहीं हुआ है, क्योंकि
परमात्मा
अर्थात जीवन।
परमात्मा
अर्थात
तुम्हारे
हृदय की धड़कन,
तुम्हारी
श्वास!
परमात्मा
अर्थात
तुम्हारा चैतन्य,
तुम्हारा
साक्षीभाव।
झूठा गुरु
सिखाता है कि
परमात्मा
तुम्हें देख
रहा है। इसे
जरा गौर से
सुन लेना और
खूब सम्हाल कर
रख लेना इस
सूत्र को।
झूठा
गुरु तुम्हें
सिखाता है :
परमात्मा
तुम्हें देख
रहा है, डरो।
चौबीस घंटे
देख रहा है!
सोच-समझ कर
करना कुछ। जरा
कुछ गलत। किया
तो सडोगे नर्क
में! जरा कुछ गलत
किया कि बहुत
भुगतोगे, बहुत
पछताओगे।
क्षमा भी
नहीं
किए जाओगे।
जरा भूल हुई, जरा चूक हुई,
नजर में आ
जायेगी।
कयामत के दिन
हिसाब होगा।
और अगर ठीक
करते रहे तो
और उसका
गुणगान करते रहे,
उसकी
स्तुति करते
रहे, उसके
गीत गाते रहे,
उसकी
खुशामद करते
रहे, तो
स्वर्ग मैं
खूब -खूब
पुरस्कार
मिलेंगे। झूठा गुरु
सिखाता है :
परमात्मा
तुम्हें देख
रहा है।
सच्चा
गुरु सिखाता
है : तुम्हारे
भीतर जो देखते
वाला है वह
परमात्मा है।
परमात्मा
तुम्हें नहीं
देख रहा है।
परमात्मा
क्या तुम्हें
देखेगा? तुम
परमात्मा हो!
तुम्हारे
भीतर देखने
देखने वाले का
नाम परमात्मा
है। तुम परमात्मा
के दृश्य नहीं
हो, तुम
द्रष्टा हो।
इस बात को
बहुत गहरे में
अपने भीतर उतर
जाने दो। यह
कसौटी का काम
करेगी। इस पर
कस लेना।
सदगुरु
सदा सिखायेगा
: साक्षी बनो।
कर्ता नहीं; न
अच्छे न बुरे।
कर्ता के ऊपर
उठो। मिथ्या
गुरु सिखाएगा
: कर्ता बनो।
आचरण, चरित्र,
यह-वह। शुभ
कार्य करो, पुण्य करो, दान करो, धर्मशाला
बनाओ, मंदिर
बनाओ, सत्यनारायण
की कथा करवाओ।
कुछ करो! धर्म
उसके लिए
कृत्य है और
धर्म भी कृत्य।
सदगुरु
कहता है : धर्म
साक्षी- भाव
है। चैतन्य है, कृत्य
तो सब माया है-
अच्छा भी बुरा
भी, पुण्य
भी पाप भी।
है।, पाप
की जंजीरें
लोहे की हैं
और पुण्य की
जंजीरें सोने
की हैं; मगर
ध्यान रखना
जंजीरें हैं।
लोहे की भी
बौध लेती हैं,
सोने की भी
बौध लेती है।
और यह भी
ध्यान रखना कि
सोने की
जंजीरें ज्यादा
मजबूत होती
हैं लोहे की
जंजीरों से।
क्योंकि लोहे
की जंजीरें तो
किसी को भी
दिखाई पड़ जाती
हैं कि
जंजीरें हैं
और लोहे कि
जंजीरों को तो
तोड़ने की किसी
के भी भीतर
गहन आकांक्षा
पैदा होती है।
क्योंकि
अपमान होता है,
ग्लानि
होती है।
लेकिन सोने की
जंजीरें तो
आभूषण मालूम
होती हैं। कौन
छोड़ना चाहता
है! और उल्टे
आदमी पकड़ता है।
कौन तोड़ना
चाहता है! और
संभालता है।
कोई अगर तोड़ने
आ जाये तो
झगड़ेगा, लड़ेगा,
बचाएगा, रखा
करेगा।
पाप तो
बांधता ही है, पुण्य
भी बाधता है।
मुक्ति तो
चैतन्य मैं है।
मुक्ति तो
जागरूकता में
है। मुक्ति तो
पाप और पुण्य
दोनों को
देखने में है।
दोनों को
तटस्थ भाव से
देखने में
समर्थ हो जाओ,
धर्मरक्षित!
और चिंता न
करो कि उस हो
गई, क्योंकि
यह बात तो एक
क्षण में घट
सकती है। यह
तो बोध की बात
है। इसके लिये
कोई योगासन
नहीं साधने
हैं।
शरीर
शिथिल हो रहा
है,
चिंता न करो।
शरीर शिथिल
होने ही है।
मौत करीब आ रही
है, अच्छा
ही है।
क्योंकि मौत
की पृष्ठभूमि
शायद, मौत
की चोट -टंकार
शायद साक्षी
को जगा दे।
जिंदगी में जो
न हो पाया, शायद
मौत में हो
जाये। होगा!
तुम्हारी
आखों में
देखता हूं तो
मुझे लगता है
कि होगा। होना
है।
निश्चित
ही,
जब तुम्हें
संन्यास दिया
था तो तुम थोड़े
झिझके -झिझके
थे। बहुत
मित्रों को
संन्यास लेते
वक्त झिझक होती
है, क्योंकि
संन्यास की
मेरी जो धारणा
है वह तुम्हारी
किसी धारणा से
मेल नहीं खाती।
तुम्हारी
सारी धारणाओं
से भिन है।
इसलिए झिझक भी
होती है, संकोच
भी होता है।
फिर
मैं जो तुमसे
कह रहा हूं वह
अतीत की बात
नहीं है, भविष्य
की बात है; अभी
होने बाली बात
है। अतीत की
होती तो
तालमेल बैठ
जाता; तुम
जल्दी राजी हो
जाते। भविष्य
की है। जिनके
पास देखने की
दूरदृष्टि है,
केवल वे ही
राजी होंगे।
लेकिन तुम
सौभाग्यशाली
हो कि
डावांडोल हुए
फिर भी भागे
नहीं।
सोच-विचार मैं
पड़े, लेकिन
डूबे नहीं उस
सोच-विचार में;
सम्हाल
लिया अपने को,
उबार लिया
अपने को। राजी
हो गये इस
जोखम को उठाने
के लिए।
मेरे
साथ होना जोखम
से भरा है।
समाज में
अप्रतिष्ठा
होगी। शासन
दुश्मन होगी।
धर्म के
ठेकेदार
तुम्हारी जान
के पीछे पड़
जायेंगे, तुम्हारा
जीना मुश्किल
कर देंगे। यह
सब होगा।
लेकिन यही सब
तो चुनौती है।
यही सब तो आग
है जिसके बीच
संन्यास का
स्वर्ण निखरता
है, कुंदन
बनता है।
और यह
भी मैं जानता
हूं कि अब
तुम्हें पीड़ा
हो रही है, पछतावा
भी हो रहा है
कि सत्तर वर्ष
यूं ही गुजर
गये। लेकिन
इसमें समय
गवाओ न। बीता
सो बीता। अभी
जितने क्षण
हाथ में हैं, ये भी काफी
हैं; इतने
में ही बात हो
जायेगी। यह तो
बात है, इसका
समय से कोई
संबंध नहीं है
कि सत्तर साल
में हो कि सात
सौ साल में हो
कि सात क्षण
में हो कि पल
के अंश में हो
जाये, कि
पलक झपते हो
जाये। इस बात
का कोई संबंध
समय से नहीं
है, क्योंकि
यह बात ही समय
के अतीत है, कालातीत है।
इसलिए समय मत
गवाओ। अब ये आंसू
जो सत्तर साल
बीत गये उनके
लिये मत गवाओ,
अन्यथा ये
क्षण भी जो
तुम आंसू
गिराने में
बिता रहे हो, ये भी गये।
अब इन आंसुओ
को नया ढंग दो,
नया रंग दो,
नया संगीत
दो। इन आंसुओ
को अब उत्सव
बनाओ। जो बीता
सो बीता, उसे
भूलो, उसे
बिसारो। अब इन
आंसुओ को
प्रार्थना
बनाओ। अब इन आंसुओ
को नृत्य करने
दो, नाचने
दो।
ऐसा
देखो कि सत्तर
साल में भी
होश आ गया, इतना
भी क्या कम है!
जरा उनकी तरफ
तो देखो जिनको
सत्तर साल में
भी होश नहीं।
सत्तर तो दूर,
कोई अस्सी
के हो गए हैं
कोई चौरासी के
हो गए हैं, वे
भी अभी दिल्ली
में जमे हुए
हैं। चौरासी
के हो गये हैं,
फिर भी अभी
ज्योतिषियों
से पूछताछ
करवाते हैं कि
सौ साल जी
सकूंगा कि
नहीं? किसी
ज्योतिषियों
ने अभी कह
दिया है
मोरारजी देसाई
को, एक सौ
बीस साल जिओगे।
जैसे इस देश
का पिंड कभी
छोड़ेंगे ही
नहीं! एक सौ
बीस साल! खुद
के मरने के
पहले सभी को
मरने के पहले
सभी को मार
डालना है? मगर
प्रसन्न हुए
होंगे
ज्योतिषी से,
जिसने कहा
एक सौ बीस साल।
उसके पहले
किसी
ज्योतिषी ने
बताया था सौ
साल। इस नये
ज्योतिषी ने
सिद्ध किया है
कि नहीं, एक
सौ बीस साल; सौ साल का
हिसाब गलत है।
आदमी
कितनी ही उस
हो जाये, उस से
ही समझदार
नहीं हो जाता।
अधिकतर लोग तो
धूप में ही
बाल पकाते हैं।
धर्मरक्षित, तुम
सत्तर साल में
चौकन्ने हो
गये, यह भी
बहुत है! रोओ
मत, प्रसन्न
होओ, आनंदित
होओ। जरा
देखने का
विधायक ढंग
पकड़े।
कल मैं
पढ़ रहा था कि
डब्बू जी का
बेटा पप्पू फेल
हो गया। क्लास
मैं सबसे
आखिरी आया। और
दूसरे दिन जब
स्कूल पहुंचा
तो बड़ा
प्रसन्न है।
बच्चे इकट्ठे
हो गये, उन्होंने
पूछा के पप्पू?
रिपोर्ट
डब्बू जी को
दिखाई कि नहीं?
फिर क्या
हुआ? पिटाई
हुई होगी।
पप्पू
ने कहा। नहीं
मेरे पिता जी
ने रिपोर्ट
देखी और कहा
कि ऐसी
रिपोर्ट
दिखाने की
हिम्मत किसी
बहादुर में ही
हो सकती है।
मुझे शाबाशी
दी। मेरी पीठ
ठोंकी और कहा :
बेटा तू बड़ा
हिम्मतवर है।
ऐसी रिपोर्ट
अपने बाप को
दिखाने की
हिम्मत!
देखने
के ढंग हैं।
तुम सत्तर साल
पर रो रहे हो, सत्तर
साल के लिए
प्रसन्न होओ
कि चलो सत्तर
साल में ही
बात कट गई; सात
सौ साल में भी
नहीं कटती, सात हजार
साल में भी
नहीं कटती।
लाखों -लाखों
साल से लोग
भटक रहे हैं।
सत्तर साल में
कट गयी बात। आंसू
प्रसन्नता के
गिराओ, आनंद
के गिराओ, अहोभाव
के गिराओ।
आंसू
यही होंगे, लेकिन
इनका स्वाद
बदल जायेगा, उनका सौरभ
बदल जायेगा।
और
धर्मरक्षित, तुम कहते हो
कि आता हूं
बार -बार तो
सोचता हूं कुछ
पूछूंगा, फिर
आपके पास आते
ही प्रश्न खो
जाते हैं। ऐसा
ही होना चाहिए।
यही शुभ हैं।
यही सत्य है।
यही शिष्य का
लक्षण है।
विद्यार्थी
पूछता है।
शिष्य पूछने
की सोच कर आता
है, लेकिन
पूछ नहीं पाता।
शिष्य गुरु के
पास आते ही
ऐसा भाव
-विभोर हो जाता
है कि क्या
पूछना है, क्या
शब्दों में
समय खराब करना?
क्या
शब्दों में
गुरु और शिष्य
के बीच बन रहे संगीत
को खंडित करना?
क्या
प्रश्न उठाकर
वह जो श्रद्धा
का तार जुड़
रहा है उसे
डगमगाना?
तो
शिष्य रो सकता
है,
कि हंस सकता
है, कि नाच
सकता है, कि
गीत गा सकता
है; लेकिन
प्रश्न नहीं
पूछ सकता, मुश्किल
हो जाती है।
जैसे ही गुरु
के पास होता
है शिष्य, वैसे
ही सन्नाटा छा
जाता है, एक
शून्य प्राणों
में व्याप्त
हो जाता है।
ऐसा ही होना
चाहिए। यही
गुरु के पास
होने का अर्थ
है। यही
नैकट्य है।
यही समीपता है।
ऐसी ही समीपता
में उपनिषद
पैदा हुए।
उपनिषद
का अर्थ है :
गुरु के समीप
होना। उपासना
का भी यही
अर्थ है, गुरु
के पास बैठना,
उप आसन। और
उपवास का भी
यही अर्थ है।
उप्र वास? पास
होना। गुरु के
पास ऐसे बैठे
कि भोजन की
बात भूल गई, तो उपवास।
गुरु के पास
ऐसे बैठे कि
भोजन की बात
भूल गई, तो
उपवास। गुरु
के पास ऐसे
बैठे कि सारी
दुनिया
विस्मृत हो गई,
तो उपासना।
गुरु के पास
ऐसे बैठे कि
दूरी न रही, तो उपनिषद
का जन्म हो
जाता है।
उत्तर जो
तुमने कभी
चाहे नहीं, प्रश्न जो
तुमने कभी
पूछे नहीं, वे प्रश्न
पूछ लिये जाते
हैं उस
सन्नाटे में।
न कोई बोलता
है न कोई
चालता है और
बात हो जाती है।
बिन कहे बात
हो जाती है।
धर्मरक्षित, वैसी
बात होने लगी
है। जब भी तुम
मेरे पास आये
हो मैंने
अनुभव किया है
कि वैसी बात होना
लगी है-जों
कही नहीं जाती,
बोली नहीं
जाती। तुम
पूछते नहीं, मैं उत्तर
नहीं देता; मगर जो होना
है वह हो रहा
है। तुम्हारी
बुद्धि थोड़ी
अड़चन मैं पड़ती
होगी लौट कर
कि गये थे
पूछने, फिर
पूछे आ गये!
क्योंकि पास
जब आते हो तो
हृदय धड़कता है
और बुद्धि चुप
हो जाती है और
जब दूर जाते
हो तो हृदय से
फिर दूर हो
जाते हो, बुद्धि
फिर बोलने
लगती है। धीरे
- धीरे इस
रहस्य को समझो।
तो दूर रहकर
भी हृदय ही
धड़केगा।
बुद्धि फिर ये
प्रश्न भी
नहीं उठायेगी
कि पूछ क्यों
न पाया।
बुद्धि तो
बीमारी है।
बुद्धि
तो खाज की
बीमारी है; कितना
ही खुजलाओ, कुछ हल नहीं
होता, हानि
होती है।
बीमारी और
बढ़ती है, मिटती
नहीं। है।, खुजलाओ तो
थोड़ी -सी
मिठास मालूम
होती है खुजलाते
वक्त, लेकिन
फिर लहूलुहान
हो जाते हैं।
जानते हैं कि
खाज को
खुजलाने से
कोई लाभ नहीं
होगा, लेकिन
जब खाज होती
है तो मजबूरी
में खुजलाना।
होता
है। बुद्धि
खाज है और
बुद्धि का जो
शास्त्र है-दर्शनशास्त्र-वह
सिर्फ
खुजलाहट है।
उससे मनुष्य
रुग्ण होता है, स्वस्थ
नहीं होता।
धर्मरक्षित, अच्छा
हो रहा है।
तुम आते हो
चुप और चुप ही
चले जाते हो।
दो बूंद आंसू
गिराकर, सिर
झुकाकर, मौन
भिक्षापात्र
फैला कर; लेकिन
तुम
भिक्षापात्र
खाली लेकर
नहीं जाते, यह मैं
तुमसे कहता
हूं। जो भी
इतने मौन से
मेरे पास आता
है, मुझसे
भरकर लौटता है।
तुमने
पूछा है : ' अब
आप मेरे अंतर
को समझ कर खुद
ही
मार्गदर्शन करें।
' मार्ग
मिलना शुरू हो
गया है। राह
तुमने पकड़ ली
है।
तीन
बातें ख्याल
रखो। एक-विचार
से नाता तोड़ो।
मस्तिष्क
जैसे
तुम्हारा है
ही नहीं, ऐसा
समझो। भाव में
उतरों। विचार
क्षीण करो, भाव गहरा
करो। दूसरी
बात -जब विचार
क्षीण हो जाये,
भाव गहरा
होने लगे तो
भाव से भी
मुक्त होने
लगो। सिर्फ
अस्तित्व!
सिर्फ शून्य
सन्नाटा! न जहां
विचार है न
भाव है, जहां
कोई तरंग
नहीं-उस शून्य
सन्नाटे में
डूबते समय
बहुत भय लगेगा,
बहुत
घबड़ाहट होगी।
मौत जैसा
लगेगा।
घबड़ाना मत! यह
मौत नहीं है; यह बीज का
मरना है, यह
वृक्ष होने की
शुरुआत है। यह
सरिता का सागर
में उतरना है।
यह सागर होने
का प्रारंभ है।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान!
इस प्रश्न को
पूछने से डरता
हूं, लेकिन
पूछे बगैर रहा
नहीं जाता। आज
आपने
स्त्री-स्पर्श
के संबंध में
चर्चा की तो
सारी बातें
तीर की तरह
चुभ गई। कल
प्रवचन के बाद
मैं स्वागत
-कक्ष में गया
तो 'दर्शन'
मुझसे बोली
कि मैं आपका
आलिंगन करना
चाहती हूं।
मैं थोड़ा
सकुचाया, लेकिन
जिस भाव से
उसने कहा उसे
मैं पी गया और
हम दोनों एक
-दूसरे के
आलिंगन में
डूब गये, जैसे
कि समय ठहर
गया। लेकिन इस
गहरे निष्पाप
आलिंगन में भी
मेरा पुरुष -
भाव बना ही
रहा। तब मुझे
याद आया कि
पचास साल कि
इस जिंदगी में
मैंने, एक
पत्नी को
छोड्कर, किसी
भी व्यक्ति
कों-मेरी मां,
बेटी और बहन
तक किसी को भी
मैंने भाव से
गले नहीं
लगाया।
परंपरा तो इसे
भूषण मानेगी।
लेकिन अब मुझे
लगता है कि
यही मेरी रुकावट
रही है। मैं
गहरे स्पर्श
से वंचित रहा
हूं लेकिन कल 'दर्शन' ने
और आज आपने
जैसे एक झरोखा
खोल दिया! अब
इन स्व-निर्मित
दीवालों को
गिराना आसान
तो नहीं, लेकिन
संभव जरूर
लगता है।
भगवान, इस
पर आप कुछ
बोलें तो उसे
सुनने का, सहने
का बल और साहस
मांगता हूं
क्योंकि वह
मौत जैसा लगता
है!
'अजित
सरस्वती!
दर्शन
भैरवी है, पुरानी
तात्रिक है।
शरतचन्द्र ने
अपने
उपन्यासों
में जिस वैष्णवी
की चर्चा की
है, दर्शन
की वैसी ही
आत्मदशा है।
या रामकृष्ण
ने जिस
वैष्णवी का
हृदयपूर्वक सम्मान
किया है। एक
घूमती हुई
खानाबदोश
स्त्री!
आह्लाद से भरी
नाचती हुई!
सारे
अस्तित्व के
प्रति प्रेम
से पगी! जिस
वैष्णवी को
रामकृष्ण ने
भी सम्मान दिया
है, दर्शन
के वैसे ही
लक्षण हैं।
दर्शन की कुछ
खूबिया हैं।
सरल है, निर्दोष
है। प्रेम
उसके लिए
वासना जैसा
नहीं है, प्रार्थना
जैसा है।
तुम्हारी
मुसीबत समझी
होगी।
तुम्हारी
अड़चन समझी
होगी। इसलिए
तुम्हें
निमंत्रण
दिया होगा कि
आलिंगनबद्ध
हो जाओ। और
ठीक समझी। और
तुम भी ठीक
पहचाने कि वही
तुम्हारी
अड़चन रही है।
तुम बड़ी
धारणाओं में
बंधे -बंधे
जीये हो।
निश्चित ही
समाज उस तरह
के बंधे जीवन को
बहुत भूषण
मानता है।
मानेगा ही, क्योंकि उसी
बंधे हुए जीवन
के कारण
व्यक्ति गुलाम
की तरह
व्यवहार करता
है और समाज
गुलाम चाहता
है-मुक्त
स्वच्छंद
व्यक्ति नहीं
चाहता। समाज
स्वतंत्रता
को बर्दाश्त
नहीं करता।
समाज
स्वतंत्रता
विरोधी है।
समाज व्यक्ति
को मिटा देना
चाहता है।
मिटा ही दिया
है उसने। भेड़े
हैं दुनिया
में, व्यक्ति
तुम्हारे ऊपर
पड़े हुए बचपन
से अब तक के
हिंदू
-संस्कार
एकमात्र बाधा
हैं। दर्शन ने
अनुकंपा की, जो उन
संस्कारों को
तोड़ने का
तुम्हें एक
अवसर दिया। डर
तो तुम गये
होओगे। डर तो
तुम इतने गये
हो कि जिस दिन से
तुमने प्रश्न
पूछा है, तुम
मुझे दिखाई
नहीं पड़ते तो
सोचता हूं र
तुम हो ही
नहीं तो उत्तर
किसको दूं? शायद तुमने
अपनी पत्नी को
जाकर भी यह
कहा होगा और
झंझट खड़ी हुई
होगी, उपद्रव
खड़ा हुआ होगा।
तुम छिपा न
सकोगे। और
मुसीबत आई
होगी।
क्योंकि
प्रेम को हमने
बपौती बना
किया है और प्रेम
को हमने
अधिकार बना
लिया है।
प्रेम
किसी का
अधिकार नहीं।
प्रेम किसी की
बपौती नहीं।
प्रेम बंधना
नहीं जानता।
और जो प्रेम
बंध जाता है, मर
जाता है। जैसे
नदी की धार
बौध दो तो बस
नदी न रह गई, ताल -तलैया
हो जायेगा। जल्दी
ही कीचड़ मच
जायेगी।
जल्दी ही
गंदगी उठेगी।
जहां स्वच्छ
जलधार थी वहां
अब
केवल एक गंदी
तलैया होगी।
ऐसा ही
प्रेम है। बहे
तो स्वच्छ
रहता है; बंध
जाये, गंदी
तलैया हो जाता
है, सूखने
लगता है। और
सदियों
-सदियों से
आदमी ने यही
किया है, प्रेम
को बांधा है।
और हम बंधे
हुए प्रेम को
बड़ा सम्मान
देते हैं।
प्रेम
जितना मुक्त
हो,
जितना
विस्तीर्ण हो,
जितने अधिक
लोगों को मिल
सके, उतनी
ही तुम्हारी
आत्मा बड़ी
होती है-उतनी
ही तुम्हारी
आत्मा फैलती
है। तुम्हारे
प्रेम का
विस्तार
तुम्हारी
आत्मा का
विस्तार है और
तुम्हारे
प्रेम का
सिकुड़ जाना
तुम्हारी
आत्मा का
सिकुड़ जाना है।
क्योंकि
प्रेम और
आत्मा
पर्यायवाची
हैं।
शुभ
हुआ। भयभीत न
होओ। अच्छी
दुनिया में, थोड़ी
ज्यादा
प्राकृतिक
दुनिया में, थोड़ी ज्यादा
जागरूक और
ध्यानपूर्ण
दुनिया में, थोड़ी
प्रार्थना की
हवा और सुगंध जहां
हो ऐसी दुनिया
में, लोग
सहज ही एक
-दूसरे का
आलिंगन
करेंगे-सहज ही,
आत्मायें
मिलना चाहती
हैं। शरीर उस
मिलन की
अभिव्यक्ति
बनते हैं।
लेकिन हमने तो
इन सहज भावों
पर बड़े
प्रतिबंध बिठा
दिये हैं, बड़ी
संगीनें अड़ा
दी हैं, बड़ी
जंजीरें पहना
दी हैं। और
उसका परिणाम
यह हुआ है कि
प्रेम सूख गया
है।
और
सबको यह भय है
कि अगर प्रेम
फैलेगा तो
मुझे जो प्रेम
मिल रहा है वह
घट जायेगा।
पत्नी डरती है
कि अगर मेरे
पति का प्रेम
और लोगों तक
भी फैला तो
फिर मेरा क्या
होगा! उसे पता ही
नहीं है कि
जीवन का एक और
अर्थशास्त्र
है जिसके नियम
बिलकुल भिन्न
हैं। उसे जीवन
का एक
अर्थशास्त्र
तो पता है कि जहां
बांटने से
चीजें कम हो
जाती हैं। अगर
मेरे पास दस
रुपये हैं और
मैं दस लोगों
को बांट दूं
तो एक -एक
रुपया एक -एक
के हिस्से
पड़ेगा और अगर
एक को ही दूं
तो उसके
हिस्से दस
रुपये पड़ेंगे।
यह जीवन का
साधारण अर्थशास्त्र
है। लेकिन एक
और
अर्थशास्त्र
है परमात्मा
का,
कि अगर मैं
दस लोगों को
बांटू तो
तुम्हारे पास
दस गुना पड़ेगा।
और अगर मैं
किसी को भी न
बांटू तो
तुम्हारे पास
शायद ही कुछ
पड़े।
ऐसा
समझो कि पति
सुबह घर से
निकला और
पत्नी उससे कह
दे कि 'देखो, कहीं और
सांस मत लेना,
सांस तो तुम
मेरे ही पास
लेना।
क्योंकि हम
प्रणय- बंधन
में बंधे हैं;
हमने कसम
खायी है-या की
धूम्रशिखा के
समक्ष, यश
की लपट के
समक्ष, पंडितों
-पुरोहितों के
समक्ष, मंत्रोच्चारण
के बीच-हमने
यह कसम खायी
है कि हम एक
-दूसरे के
लिये जीयेंगे
और एक -दूसरे
के लिये
मरेंगे। तो
तुम श्वास
कहीं और मत
लेना दफ्तर
इत्यादि में,
बाजार में,
हर कहीं। जब
लौट आओ तो घर
हम दोनों पास
बैठेंगे, फिर
दिल खोल कर
सांस लेना। ' यह आदमी कभी
धर लौटेगा ही
नहीं फिर। यह
घर से बाहर ही
निकलेगा और
गिर कर ढेर हो
जायेगा। सच तो
इससे उल्टा है।
अगर बाहर खूब
श्वास लेगा, फेफड़े इसके
प्राणवायु से
भरेंगे, यह
सूरज के नीचे
खुली हवाओं
में, वृक्षों
के नीचे अगर
दिन - भर खूब
गहरी श्वास लेगा,
तो लौटेगा
जीवंत, नाचता
हुआ, प्रफुल्लित,
रोआ -रोआ
उमंग से भरा!
और वह सारी
उमंग, वह
सारा उत्साह
और सारा जीवन
पत्नी पर
उंडेल देगा।
ठीक
ऐसा ही प्रेम
का नियम हैं।
लेकिन प्रेम
को हमने एक
क्षुद्रता
में बांध लिया
है-कामुकता।
हमने प्रेम को
बहुत ही निम्न
अर्थ दे दिया
है-कामवासना
का।
प्रेम
के बहुत आयाम
हैं। प्रेम एक
पूरी सीडी है, जिसके
कई सोपान हैं।
कोई व्यक्ति
संगीत को इतना
प्रेम कर सकता
है कि पत्नी
को छोड़ दे और
संगीत को न
छोड़े। कोई
व्यक्ति
चित्रकला को
इतना प्रेम कर
सकता है कि
परिवार को छोड़
दे और
चित्रकला को न
छोड़े। कोई
व्यक्ति
साहित्य को
इतना प्रेम कर
सकता है कि
इसीलिए विवाह
न करे कि
साहित्य में
और पत्नी में
कहीं ईर्ष्या
न खड़ी हो जाये।
एक बड़े
संगीतज्ञ से
जब पूछा गया
कि तुमने विवाह
क्यों नहीं
किया, तो उसने
कहा : घर में दो
स्त्रियों का
रखना उपद्रव
होता। पूछने
वाला समझा
नहीं। उसने
कहा : दो
स्त्रिया, तो
पहले एक
स्त्री है? उस संगीतज्ञ
ने कहा : यह
संगीत। यह
मेरा एक विवाह
और यह इतना
बड़ा है कि अब
किसी दूसरी
स्त्री को
लाना उसे कष्ट
देना होगा।
क्योंकि ऐसे
बहुत से दिन
आयेंगे, जब
मैं अपने
संगीत में
डूबा होऊंगा
और मेरी स्त्री
की मुझे याद
भी न रह
जायेगी। तब
उसे
कष्टपूर्ण
होगा। साधारण
स्त्री-दुखी
होगी, परेज्ञान
होगी, नाराज
जोगी। संगीत
से उसकी
दुश्मनी हो
जायेगी।
सुकरात
जैसे
महापुरुष की
पत्नी भी
सुकरात से नाखुश
थी,
बहुत नाखुश
थी क्यों? क्योंकि
वह दार्शनिक
ऊहापोह में ऐसा लीन
हो जाता था कि
भूल ही जाता
था कि पत्नी
भी है। एक दिन
तो दार्शनिक
चर्चा में ऐसा
लीन था कि चाय ही
पीना भूल गया
सुबह की।
पत्नी को तो
ऐसा क्रोध आया,
चाय बनाकर
बैठी है और वह
बाहर बैठा
चर्चा कर रहा
है अपने
शिष्यों के
साथ, उसके
क्रोध की सीमा
न रही, वह
भरी हुई केतली
को लाकर उसके
सिर पर उंडेल
दिया। उसका
आधा मुंह जल
गया। जीवन- भर
उसका मुंह जला
रहा। वह आधा हिस्सा
काला हो गया।
लेकिन
सुकरात सिर्फ
हंसा। उसके
शिष्यों ने
पूछा : आप
हंसते हैं इस
पीड़ा में!
उसने कहा :
नहीं, मैं
इसलिए हंसता
हूं कि स्त्री
का मन हमने
कितना छोटा कर
दिया है! उसके
लिये दर्शन भी,
यह दर्शन का
ऊहापोह भी ऐसा
लगता है जैसे
कोई सौतेली
पत्नी। उसने
मेरे ऊपर नहीं
डाली यह चाय, मैं तो
सिर्फ
निमित्त हूं।
अगर
दर्शनशास्त्र
उसे मिल जाये
कहीं तो गर्दन
काट ले।
दर्शनशास्त्र
कहीं मिल नहीं
सकता, इसलिए
मैं तो सिर्फ
बहाना हूं।
किसी
ने सुकरात से
पूछा-एक युवक
ने-कि मैं विवाह
करने का सोचता
हूं। सोचा
आपसे ज्यादा
अनुभवी और कौन
होगा! विचार में
भी आप अंतिम
शिखर हैं आप
जीवन के भी सब
मीठे -कडुवे
अनुभव आपके
हैं। क्या
सलाह देते हैं?
तुम
चकित होओगे
सुकरात की
सलाह सुनकर।
सुकरात ने कहा।
विवाह करो। वह
युवक बोला : आप, और
कहते
हैं विवाह
करूं! और मुझे
सारी कथायें
पता हैं। आपकी
पत्नी
जेनथिप्पे और
आपके बीच जो
घटता है
रोज-रोज, वह
सब मुझे पता
है। वे
अफवाहें मुझ
तक भी पहुंची
हैं। उनमें से
अगर एक
प्रतिशत भी सच
है तो भी
पर्याप्त है
विवाह न करने
के लिए।
सुकरात
ने कहा : उसमें
से सौ प्रतिशत
सत्य है, लेकिन
फिर भी तुमसे
कहता हूं र
विवाह करो, विवाह के
लाभ ही लाभ
हैं!
उस
युवक ने कहा :
जरा मैं सुनूं? कौन-से
लाभ हैं? सुकरात
ने कहा : अगर
अच्छी पत्नी
मिली, समझदार
पत्नी मिली, तो प्रेम का
विस्तार होगा।
और प्रेम का
विस्तार इस
जगत में सबसे
बड़ा लाभ है।
और अगर मेरी
जैसी पत्नी
मिल गई तो
वैराग्य का
उदय होगा। और
वैराग्य तो
राग से भी ऊपर
है। वह तो
प्रेम की
पराकाष्ठा है।
वह तो
परमात्मा से
प्रेम है।
दोनों हालत
में तुम लाभ
ही लाभ में
रहोगे।
हमने
बहुत संकीर्ण
कर दिया है
प्रेम को और
बहुत क्षुद्र
कर दिया है।
'दर्शन'
ने अगर ' अजित'
को कहा कि
आओ, आलिंगन
में बंध जायें,
तो अजित
झिझके, झिझके
होंगे
क्योंकि
आलिंगन शब्द
में ही कामवासना
प्रविष्ट हो
गई है। हम यह
सोच ही नहीं
सकते कि दो
व्यक्ति
आलिंगनबद्ध
हो सकते हैं
बिना किसी
कामवासना के।
और निश्चित ही
आलिंगन की एक
ऊंचाई है जहां
कामवासना की
कोई रूपरेखा
भी नहीं, छाया
भी नहीं बनती।
दो आत्माओं का
मिलन है। दो
आत्मायें एक
-दूसरे में
डूब जाने के
लिए क्षणभर को
आतुर हुई हैं।
और यह मिलन
अत्यंत
पवित्र है, निर्दोष है,
कुंवारा है।
यह मिलन पूजा
के थाल जैसा
है, अर्चना
के गीत जैसा
है। लेकिन
चूंकि हमें
इसका कोई
अनुभव नहीं
है-हमारे
अनुभव तो सब
क्षुद्र हैं;
मिट्टी के
अनुभव हैं, कमल की
हमारी कोई
पहचान नहीं
है-इसलिए मन
झिझकता है।
तुम झिझके, क्योंकि तुम
कहते हो :
मैंने कभी
अपनी मां, बेटी
और बहन तक को
भी आलिंगन
नहीं किया है।
और मेरा पुरुष
- भाव बना रहा।
उस
पुरुष - भाव
बने रहने के
कारण 'दर्शन' ने जो झरोखा
खोला था उससे
तुम ठीक - ठीक
झांक नहीं
पाये। झरोखा
खुला, ऐसा
तुम्हें पता
चला। कुछ हुआ,
ऐसा
तुम्हें पता
चला। लेकिन
स्पष्ट नहीं
हो सका होगा।
जैसे सुबह के
धुंधलके में
खुला हो झरोखा,
अभी सूरज न
निकला हो ऐसा
खुला होगा, अंधियारा
रहा होगा। काश
पुरुष - भाव भी
मिट गया होता
तो तुम सूरज
को उगते
देखते! दुबारा
अब कभी ऐसा हो,
कोई ऐसा
आमंत्रण दे, तो उस
आमंत्रण को
सिर आखों लेना।
और
क्या पुरुष
क्या स्त्री? इन
क्षुद्रताओं
से अब ऊपर उठो!
समय आ गया, इन
क्षुद्रताओं
को जाने दो! सब
उसी मिट्टी से
बने हैं और
सभी उसी
परमात्मा से
भी बने हैं-
कौन पुरुष कौन
स्त्री? भेद
क्या है? जरा-सा
अंगों का भेद
है।
मिट्टी
के तुम पुतले
बनाओ तो कुछ
पुरुष के बना
दो,
कुछ पुतले
मिट्टी के
स्त्रियों के
बना दो; कुछ
बड़ा भेद होगा?
फिर
परमात्मा
उनमें आत्मा
डाल दे तो बड़ा
भेद हो जायेगा,
एकदम बड़ा
भेद हो
जायेगा! तुम
ने कभी भीतर
झांक कर देखा,
चेतना न तो
पुरुष है न
स्त्री! कोई
भी अपनी आंख बंद
करके देखे और
पूछे भीतर, यह जो
चैतन्य है, यह कौन है, स्त्री या
पुरुष? चैतन्य
कोई भी नहीं
है। न वहां कोई
स्त्री है न
वहां कोई पुरुष
है।
आलिंगन
में जब कभी
ऐसे बंध जाओ
कि दो चेतनाएं
एक-दूसरे में
डूबे, न कोई
पुरुष न कोई
स्त्री, तो
झरोखा खुलेगा,
भरी दुपहरी
में सूरज का
दर्शन होगा, खुले आकाश
का। और उससे
जीवन में क्रांति
घटनी शुरू
होगी।
लेकिन
धुंधलके में
खुले इस झरोखे
से भी तुम्हारे
भीतर कुछ
महत्वपूर्ण
घटा है। तुम
कहते हो : 'मैं
इस गहरे
स्पर्श से
वंचित रहा हूं
र लेकिन कल
दर्शन ने और
आज आपने जैसे
एक झरोखा खोल
दिया। अब इन
स्व-निर्मित
दीवालों को
गिराना आसान
तो नहीं लेकिन
संभव जरूर
लगता है। ' बस
जो संभव है वह
आसान है। एक
बार यह दिखाई
पड़ने लगे कि
संभव है तो
आसान होने में
कितनी देर लगती
है? असल
में हम को
समझाया जाता
है कि असंभव
है; स्त्री
स्त्री रहेगी,
पुरुष
पुरुष रहेगा;
कैसे
स्त्री-पुरुष
भाव गिरेगा, यह असंभव है।
और जब तुम
आलिंगन करोगे
तो कामवासना
तो रहेगी ही; बिना
कामवासना के
कैसे आलिंगन
हो सकता है, यह असंभव है।
और तुम्हारे
पंडित
-पुरोहित, तुम्हारे
साधु- संत, तुम्हारे
तथाकथित
महात्मा, सदियों
-सदियों से
यही बकवास
दोहरा रहे हैं।
यह इतनी बार
दोहराई गयी है
कि तुम्हारे
भीतर बहुत
गहरी बैठ गयी
है।
लेकिन
अब तुम कहते
हो : संभव
मालूम होता है।
आसान तो नहीं!
लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं : जो संभव
है,
बस संभव के
होने में ही
आसान हो गया।
फिर से दरवाजा
बंद मत कर
लेना। अड़चनें
आएंगी, कठिनाइया
आएंगी; यह
मैं नहीं कह
रहा हूं कि
तुम्हारी कोई
शोभा -यात्रा
निकाली जाएगी,
कि सब
पूनावासी
इकट्ठे होकर
और फूलमालाएं पहनाके,
कि
तुम्हारी
पत्नी घर में
दीवाली मनाकी
कि पति देवता
आ रहे हैं!
नहीं, झंझटें
होंगी। लेकिन
वे अड़चनें, वे झंझटें
उठाने जैसी
हैं।
और अगर
सच में ही तुम
ऊपर उठते चलो
देह से, देह -
भाव से, तो
आज नहीं कल
पत्नी भी
पहचानेगी। आप
नहीं कल, उसको
भी उठने का
अवसर तुम्हारे
द्वारा
मिलेगा। आज
नहीं कल, तुम्हारे
मित्र -परिचित
भी पहचानेंगे।
मगर पहचानें
या न पहचानें,
तुमने कुछ
उनकी मुक्ति
का ठेका नहीं
लिया है। तुम
स्वयं मुक्त
हो सको, इतना
तुम्हारा
दायित्व है।
इतना तो कर ही
लेना है और
किसी भी कीमत
पर हो।
और
अंततः तुमने
कहा,
अजित : ' भगवान!
इस पर आप कुछ
बोलें तो उसे
सुनने का, सहने
का बल और साहस
मांगता हूं। '
मगर तुम चार
दिन से एकदम
नदारद हो!
क्योंकि वह
मौत जैसा लगता
है। मैं अजित
को जानता हूं।
जरूर यह मौत
जैसा है। एक
मर्यादा में
जीने की आदत, एक खास ढंग
के ढाचें में
सदा से जीने
की व्यवस्था,
एकदम
टूटेगी तो मौत
जैसा तो लगेगा
ही; जैसे
किसी का घर
छीन लो और
खुले आकाश के
नीचे छोड़ दो; कि अचानक
भरे बाजार में
किसी के
वस्त्र छीन लो
और उसे नग्न
कर दो! इससे भी
ज्यादा कठिन :
जैसे किसी की
खाल उखाड़ लो, उसकी चमड़ी
छील लो, तो
पीड़ा हो। मौत
जैसा ही लगेगा,
क्योंकि
तुम्हारा जो
पवित्र
अहंकार है कि
मैं
चरित्रवान, कि मैं एक
पत्नीव्रती, कि मैं ऐसा
कि मैं
वैसा-वह सब
धारणा गिरेगी।
मैं
तुम्हें
चरित्र की
अंतिम
पराकाष्ठा
सिखा रहा हूं -जहां
चरित्र और
दुश्चरित्रता
दोनों ही विदा
हो जाती हैं :
जहां शुभ अशुभ
दोनों विदा हो
जाते हैं; जहां
सिर्फ एक
साक्षी रह
जाता है।
कभी 'दर्शन'
को फिर ऐसा
आभास उठे और
तुम्हें
आलिंगन के लिए
आमंत्रित करे
तो साक्षी-
भाव से आलिंगन
में डूब जाना।
जागे रहना, होश में!
लेकिन न पुरुष
- भाव न स्त्री-
भाव। कुंजी
हाथ लगेगी कोई।
यही तो तंत्र
का मौलिक आधार
है, सारे
तंत्र
-शास्त्र का
मूल-सूत्र है।
तीसरा
प्रश्न :
भगवान!
जीवन
रीता-रीता
क्यों लगता है? न
कोई उमंग, न
कोई उत्साह न
कोई उत्सव। और
मैं अभी
पच्चीस वर्ष
का ही हूं।
विवाह और घर
-द्वार की
झंझट में पड़ना
नहीं चाहता
हूं।
ब्रह्मचर्य
ही मेरे जीवन
का लक्ष्य है।
आपके आशीष
चाहिए।
'रोहित!
आशीष
तो मैं दूं
आशीष देने में
क्या कंजूसी
करनी! मगर तुम
गलत आशीष माग
रहे हो।
ब्रह्मचर्य
जीवन का
लक्ष्य है, ऐसा
मानकर चलोगे
तो
ब्रह्मचर्य
कभी उपलब्ध न होगा।
ब्रह्मचर्य
लक्ष्य नहीं
है।
ब्रह्मचर्य
तो जीवन के
सारे सुख- दुख,
सफलता-विफलता,
काम- प्रेम,
इन सारे
अनुभवों का
निचोड़ है, निष्पत्ति
है। लक्ष्य
नहीं है, परिणाम
है।
लक्ष्य
तो अर्थ होता
है कि हम चले, हमने
वय ही कर लिया
कि
ब्रह्मचर्य
पाकर रहेंगे;
अब हम न
देखेंगे
बायें, न
देखेंगे
दायें। अभी
अनुभव तो जीवन
का कुछ हुआ
नहीं। अभी
कामवासना का
सुख देखा न
दुख देखा। अभी
कामवासना का कोई
स्वाद ही नहीं,
न मीठा न
कडुवा, और
निर्णय ले
लिया
ब्रह्मचर्य
का, क्योंकि
हाथ में आ गयी
कोई
किताब-ब्रह्मचर्य
ही जीवन है! बस
पढ़ ली किताब
या मिल गये
कोई महात्मा,
सुन ली कोई
बकवास। तय कर
लिया। या घर
में देखा। और
सभी तो घर में
पैदा होते हैं,
और कहीं तो
पैदा होने का
उपाय नहीं। घर
में देखा कि
मां -बाप सुबह
कलह करते
हैं-झगडू।, झंझट, उपद्रव!
यह बहुत
आश्चर्यजनक
है कि मां-बाप
को देख -देख कर
भी बेटे एक न
एक दिन विवाह
कर लेते हैं, यह
बड़ा चमत्कार
है! अगर जरा भी
अक्ल हो तो
मां -बाप को
देखकर एकदम
भाग खड़े होंगे,
कि बस हो
गया बहुत! देख
लिया जो देखना
था।
मगर एक
प्राकृतिक
भ्रमण। है। एक
प्राकृतिक
भ्रम -जाल है, जो
भीतर से यह
कहता है कि यह
मां - बाप की
गलती है। मैं
ऐसी स्त्री
खोजूगा कि ऐसी
भूल नहीं होगी।
ऐसा ही
तुम्हारे मां
-बाप ने सोचा
था। ऐसे ही
उनके पौ-बाप
ने भी सोचा था।
बाबा आदम के
जमाने से लेकर
ऐसा ही लोग
सोचते रहे।
ऐसा ही
तुम्हारे
बच्चे भी
सोचेंगे। 'मैं
अपवाद हो
जाऊंगा! हम
ऐसा काम ही न
करेंगे!'
लेकिन
किसी भी घर
में देख लो, मां
-बाप कलह ही
कलह से भरे
हैं। बच्चे
देखते हैं, उनका मन तभी
से जुइषत होना
शुरू हो जाता
है। उनके मन
में एक
दुर्भाव पैदा
होने लगता है
विवाह के
प्रति, अगर
लड़का है तो
स्त्रियों के
प्रति, अगर
स्त्रियां
हैं तो
पुरुषों के
प्रति-एक दुर्भाव
पैदा होने
लगता है।
चित्त कूइषत
होने लगता है।
इसी जुइषत
चित्त से
महात्माओं की
बात ठीक लगती
है कि
ब्रह्मचर्य
ही जीवन है।
और फिर
ब्रह्मचर्य
की ऐसी-ऐसी
चमत्कारी
बातें सुनाई
जाती हैं कि
स्वभावत:
कच्चे मनों
में उनकी छाप
पड़ जाती है।
लोगों को
समझाया जाता
है कि आदमी मरता
ही इसीलिए है
क्योंकि वह
ब्रह्मचर्य
खो देता है।
तो फिर
तुम्हारे
सारे
ब्रह्मचारी कहां
हैं, वे
क्यों कन गये?
ब्रह्मचारियों
का क्या हुआ? उनको तो
मरना ही नहीं
था।
ये सब
व्यर्थ की
बातें हैं।
इनका कोई
वैज्ञानिक
आधार नहीं है।
मरना तो सभी
को है।
ब्रह्मचर्य
से रहो कि
अब्रह्मचर्य
से रहो, मारना
सभी को है। और
कभी -कभी तो
ऐसा हो जाता
है कि
व्यभिचारी ज्यादा
जीते हैं, क्योंकि
व्यभिचारी
तनाव मुक्त
होते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन सौ
साल का हो गया; तो
उसके घर
पत्रकार आये।
सौ साल का हो
जाना! उससे
पूछा कि
तुम्हारे सौ
साल के हो
जाने का राज
क्या है? उसने
कहा : राज! न
मैंने की खराब
पी, न कभी
विवाह किया, न किसी
स्त्री के
पीछे भाग।, दौड़ा। शराब
तो दूर कभी
सिगरेट भी
नहीं पी। समय
पर सोना, समय
पर उठना।
योगासन, घूमने
जाना, श्रम
करना।
रूखा-सूखा
खाना और ऊंचे
विचार करना।
इसलिए इतना
जीया हूं।
जब यह
बात ही चल रही
थी और पत्रकार
प्रभावित हो
रहे थे, तभी
कमरे में जोर
की खड्बडाहट
हुई और एक
अलमारी गिरी
और कोई भागता
हुआ मालूम हुआ,
तो
उन्होंने
पूछा : क्या
मामला है? पत्रकार
चौंके। तो
मुल्ला ने कहा
: कुछ नहीं, मेरे
पिताजी हैं।
वे फिर जी कर आ
गये और
उन्होंने फिर
नौकरानी को
पकड़ने की
कोशिश की। तब
वे पत्रकार और
चौंके कि आपके
पिताजी अभी
जिंदा हैं!
उसने कहा : है।
उनकी उस एक सौ
बीस साल है। मगर
वे आदतें अपनी
छोड़ते ही नहीं।
समझा-समझा कर
मैं हार गया, अभी भी पीना
और अभी भी
उपद्रव करना...।
तुम्हें
समझाया जाता
रहा है कि
ब्रह्मचर्य
के ऐसे लाभ, वैसे
लोभ, कि
तुम्हारी
बुद्धि बढ़ेगी
और तुम्हारी
बुद्धि बड़ी
प्रखर हो
जाएगी।
तुम्हारे
ब्रह्मचारियों
का क्या हिसाब
है? अगर यह
सच होता तो
दुनिया की
सारी नोबल
प्राइज भारत
आती। लेकिन
भारतीयों को
तो नोबल
प्राइज कुछ
पता ही नहीं
चलती।
सर्वाधिक
नोबल प्राइज
मिलती है
यह्यइदयों को
और यहूइदयों
में
ब्रह्मचर्य
पर बिलकुल भरोसा
नहीं है।
यहूदी
ब्रह्मचर्य
को मानते ही
नहीं। यहूदी
रबाई भी
विवाहित होता
है, ब्रह्मचारी
नहीं होता। वे
ब्रह्मचर्य -
विरोधी हैं।
जीसस
के खिलाफत में
एक खिलाफत यह
भी है उनकी कि
जीसस ने विवाह
नहीं किया था।
क्योंकि
विवाह
नैसर्गिक है
उनके हिसाब से।
यहूइदयों को
सर्वाधिक
नोबल प्राइज
मिलते हैं, उनकी
संख्या बड़ी
छोटी है। साठ
करोड़ का मुल्क,
कितनी नोबल
प्राइज
तुम्हें
मिलती! अगर
गिनने बैठो तो
अंगुलियों पर
एक दो तीन
लोगों को मिली।
और जिनको मिली,
उन में एक
भी
ब्रह्मचारी
नहीं था। न तो
रवींद्रनाथ, न डाक्टर
रमण, न
जगदीशचंद्र
बसु, एक भी
ब्रह्मचारी
नहीं था। नोबल
प्राइज तो
मिलनी चाहिए
पुरी के
शंकराचार्य
इत्यादि को, मगर इनको तो
कुछ मिलती
नहीं। नोबल
प्राइज तो
मिलनी चाहिए
हिमालय में
बैठे हुए
तुम्हारे
ब्रह्मचारियों
को, जो
अपनी गुफाओं
में बैठे हुए
हैं। मगर इनकी
बुद्धि में तो
कुछ दिखाई
पड़ता नहीं।
मैं
निरीक्षण से
कह रहा हूं
ऐसे ही नहीं
कह रहा हूं।
मैं तुम्हारे
सब तरह के
साधु
-संन्यासियों
को जान कर कह
रहा हूं
-हिंदुओं के, जैनों
के, बौद्धों
के। जितने
जड़बुद्धि
मुझे
तुम्हारे
साधु दिखाई पड़े
उतने मुझे
गृहस्थ भी
दिखाई नहीं
पड़ते। बाजार
में भी
कभी-कभी किसी आंख
में
रौनक दिखाई पड़
जाती है, मगर
तुम्हारे
आश्रमों में
तो बिलकुल
बेरौनकी छाई
हुई है।
तुम्हारे
आश्रम तो
बिलकुल
मुर्दा हैं।
ब्रह्मचर्य
के संबंध में
व्यर्थ की
बकवासें
सुन-सुन कर
रोहित, तुम्हारे
मन में उठता
होगा :
ब्रह्मचर्य
ही लक्ष्य है!
ब्रह्मचर्य
को तो लक्ष्य
बना लिया, अब
उसका परिणाम
भोगो। अब कह
रहे हो कि न
कोई उमंग, न
कोई उत्साह, न कोई उत्सव!
अब मैं क्या
करूं? यह
आपका ही
इंतजाम है।
कहते हो : जीवन
रीता-रीता
क्यों लगता है?
रीता-रीता
नहीं लगेगा तो
क्या भरा- भरा
लगेगा?
पहले
जिंदगी को सहज
ढंग से जियो।
ब्रह्मचर्य
तो अंतिम
पराकाष्ठा है।
वह तो सार
-निचोड़ है, बहुत
-बहुत फूलों
का इत्र है!
ऐसे नहीं
मिलता कि ले
ली कसम कि
ब्रह्मचर्य
से रहेंगे, कि बौध लिया
लंगोट खूब कर
कर, हो गए
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध।
इतनी मूढ़ता की
बातों में न
पड़ो। थोड़ी
अक्ल से काम
लो। नहीं तो
जितना लंगोट
कस कर बाधोगे
उतना ही जीवन
रीता-रीता! न
कोई उमंग, न
कोई उत्साह, न कोई उत्सव।
और प्रश्न
मुझसे पूछोगे!
पूछो ये
प्रश्न अपने
महात्माओं से।
पूछो
करपात्री
महाराज से। जो
तुम्हें
बकवास सिखा
रहे हैं उनसे
पूछो।
मैं तो
तुमसे जीवन को
सहज जीने के
लिए कह रहा हूं।
मैं तो कह रहा
हूं कि जो
तुम्हारे
भीतर स्वाभाविक
है,
उसे उसकी
अभिव्यक्ति
दो, उसे
पूरी
अभिव्यक्ति
दो। उसकी
अभिव्यक्ति
से ही धीरे -
धीरे तुम पकोगे।
वह परिपक्वता
एक दिन जरूर
ब्रह्मचर्य
लाती है।
ब्रह्मचर्य
जरूर एक दिन
खिलता है। और
अपूर्व फूल है
ब्रह्मचर्य
का! लेकिन
ब्रह्मचर्य
का अर्थ केवल
कामवासना का
निरोध नहीं होता।
ब्रह्मचर्य
का अर्थ उस
शब्द में ही
छिपा है-ब्रह्म
जैसी चर्या, ईश्वरीय
आचरण। उसका कोई
इतना छोटा
अर्थ नहीं है
कि कामवासना
का निरोध।
उसका अर्थ
बहुत बड़ा है।
उसका अर्थ
नकारात्मक
नहीं है, विधायक
है।
तुम
जरा
ब्रह्मचर्य
शब्द पर देखो, ख्याल
दो। अंग्रेजी
में कोई शब्द
नहीं
ब्रह्मचर्य
को अनुवाद
करने के लिए।
जो शब्द है
अंग्रेजी में,
सेलिवेसी, वह अनुवाद
नहीं करता
उसका।
क्योंकि
सेलिबेसी
नकारात्मक है।
उसका कुल इतना
ही अर्थ होता
है-अविवाहित
रहना। मगर
अविवाहित
रहना तो
नकारात्मक
बात है -कुछ न
करना, विवाह
न करना। लेकिन
ब्रह्मचर्य
विधायक बात है
: ब्रह्म को पा
लेना। विवाह न
करना तो
छोटी-मोटी बात
है। विवाह न करने
से तुम ब्रह्म
को पा लोगे, काश इतना
सस्ता होता
हिसाब, तो
ब्रह्म की
कीमत पत्नी से
ज्यादा न
होती! स्वभावत:
जब विवाह न
करने से
ब्रह्म मिलता
हो तो ब्रह्म
को रख दो एक
पलवे पर और
पत्नी को रख
दो एक पलवे पर,
तराजू
बराबर बताएगा
कि या चुन लो
पत्नी या चुन
लो ब्रह्म, जो भी चुनना
हो।
ब्रह्म
को इतना छोटा
न करो। ब्रह्म
को इतना ओछा न
करो। ब्रह्म
विराट अनुभव
है। उसके पार
फिर कोई अनुभव
नहीं। और
ब्रह्मचर्य
का अर्थ होता
है : ब्रह्म को
अनुभव करके जो
चर्या होती है, जो
जीवन होता है;
ब्रह्म के
अनुभव करने से
जो चारों तरफ
आभा होती है; ब्रह्म को
अनुभव करने से
जो प्रतिभा का
निखार होता है;
ब्रह्म को
अनुभव करने से
जो आनंद
-उत्सव, जो
मंगल -गीत
छिड़ते हैं : जो
भीतर होली-
दीवाली दिन-रात
चलने लगती
है-होली भी और
दीवाली भी!
दीये भी जलते
हैं और रंग भी
उड़ते हैं और
गुलाल भी! वसंत
ही छा जाता है।
और सब ऋतुएं
खो जाती हैं, बसंत ही
बसंत रह जाता
है।
लेकिन
उस विराट
अनुभव को, तुम
सोचते हो इतने
सस्ते में पा
लोगे? विवाह
न करोगे? एक
गरीब स्त्री
से विवाह न
करोगे और
तुम्हें ब्रह्म
मिल जायेगा? काश इतना
आसान होता तो
मैं भी तुमसे
कहता कि ब्रह्मचर्य
को लक्ष्य बना
लो!
ब्रह्मचर्य
को तो भूलो।
अभी तो जीवन
को जियो!
परमात्मा ने
जो जीवन दिया
है उसे उसकी
समग्रता में
जियो, परिपूर्णता
में जियो। जरा
भी इनकार मत
करो। जरा भी
भयभीत नहीं, जरा भी
सिकुडो मत।
अभी तो डुबकी
मारो इस जीवन
में। इसी
डुबकी को मार
कर तुम जो
मोती ले आओगे,
वे
ब्रह्मचर्य
के होंगे।
ब्रह्मचर्य
जीवन-विपरीत
नहीं है, जीवन
का सार -निचोड़
है।
जैसा
कुछ चाहा था,
वैसा
तो हुआ नहीं!
शब्दों
की भीड़ और हम,
जलते
संबंध और भ्रम।
चिटका
है शीशा क्यों?
हमने
तो छुआ नहीं।
जीने
को खींचतान।
कहने
को
स्वाभिमानी।
आच
बहुत है लेकिन,
आस -पास
धुआ नहीं।
रीतापन
अपना है
बाकी
सब सपना है,
डूबे
हैं जिसमें हम,
शायद
वह कुआ नहीं
जीवन को
रीता-रीता
अनुभव न करोगे
तो क्या करोगे? अगर
अस्वाभाविक
ढंग से जीने
की कोशिश की
तो यही होगा-
रीतापन
अपना है,
बाकी
सब सपना है।
डूबे
हैं जिसमें हम,
शायद
वह कुआ नहीं।
जीवन
में डूबो, जीवन
के कुएं में
डूबो। डरो मत!
डर - डर कर कोई
परमात्मा तक
नहीं पहुंचता।
केवल साहसी, दुस्साहसी
उस तक पहुंचते
हैं। और देन न
करो।
तुम
कहते हो : मैं
पच्चीस वर्ष
का ही हूं अभी।
विवाह और घर
-द्वार की
झंझट में पड़ना
नहीं चाहता।
फिर क्या
सत्तर साल में
पड़ोगे विवाह
और घर-द्वार
की झंझट में? अभी
पड़ो तो सत्तर
तक निकल आओगे।
सत्तर में पड़े
तो फिर
निकलोगे कब? सीधी-सी बात
है।
हमने
इस देश में
पूरा विज्ञान
तय किया था।
पच्चीस वर्ष
तक
विद्यार्थी
के काल को
हमने 'ब्रह्मचर्य
' कहा था।
क्योंकि सब
तरह से डूब
जाना अध्ययन
में, मनन
में, संगीत
में, शास्त्र
में, कला
में तो
ब्रह्मचर्य
अपने - आप फलित
होगा। फिर
पच्चीस साल के
बाद विवाह, परिवार, गृहस्थ;
क्योंकि वह
जो सीख कर आए
हो गुरुकुल से,
उसका उपयोग
करना। वे जो
कलाएं सीखीं,
उनको
जीयोगे कहां?
वह जो
मूर्ति गढ़ना
सिखा, उनको
गढ़ोगे कहां? वह जो ध्यान
सीखा गुरुकुल
में, उसकी
जांच- पड़ताल
कहां करोगे?
तो
पच्चीस वर्ष
तक शिक्षण और
पच्चीस वर्ष
के बाद पच्चीस
वर्ष तक जीवन मैं
उसका परीक्षण, प्रयोग।
और जब तुम
पचास के होने
लगोगे तब
मुड़ना जंगल की
तरफ। सिर्फ
मुड़ना, अभी
चले मत जाना।
जल्दबाजी में
कुछ भी मत
करना इसलिए
तीसरी अवस्था
को हम कहते
हैं :
वानप्रस्थ।
वानप्रस्थ का
अर्थ होता है :
जंगल की तरफ
मुड़ना।
प्रस्थान की
तैयारी।
बोरिया
-बिस्तर बाधना।
अभी एकदम चले
ही मत जाना।
पच्चीस वर्ष
वानप्रस्थ
रहना। घर में
ही रहना, लेकिन
मुंह जंगल की
तरफ रखना। और
पचहत्तर वर्ष
की उस में चले
जाना सब छोड़
-छाड़ कर। छोड़
-छोड़ कर चले
जाना, फिर
कहना ठीक नहीं
है -सब छूट ही
जाएगा। इतनी
सरलता से जो
जीयेगा-पच्चीस
वर्ष तक जीवन
की कलाओं का अध्ययन
किया उनके साथ,
जिन्होंने
जीवन जाना है;
फिर पच्चीस
वर्ष तक
प्रयोग किया
और पाया कि वे
ठीक कहते थे; फिर पच्चीस
वर्ष तक सिर्फ
घर में ही
रहकर, घर
के बाहर होने
की कला का
अभ्यास किया।
पानी में रहे
और पानी को
छूने न दिया।
पानी में चले
और पानी को
देह से लगने न
दिया। कमलवत!
जब भी हो गया
तो फिर
पचहत्तर वर्ष
की उस में
चुपचाप सरक
गये : फिर कुछ
छोड़ना नहीं
पड़ता, छुट
जाता है।
ये तो
केवल
सांकेतिक हैं।
अब तुम कहीं
पच्चीस का
हिसाब बाधकर
मत बैठ जाना।
नहीं तो बहुत
लोगों को तो
संन्यास का
क्षण ही न
आएगा, क्योंकि
पचहत्तर साल
कितने कम लोग
जिते हैं, बहुत
कम लोग जीते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन गया अपने
बीमा एजेंट के
पास और कहा कि
मेरा बीमा
करवा दो, लाखों
का बीमा करवा
दो! उसने कहा
कि नसरुद्दीन,
तुम्हारी
उस सौ साल हो
गयी और अब
तुम्हारा कौन
कंपनी बीमा
करेगी? नसरुद्दीन
ने कहा : अगर
कंपनियों में
थोड़ी भी अक्ल
हो तो मेरा बीमा
करना ही चाहिए,
क्योंकि
आकड़े बताते
हैं कि सौ साल
के बाद बहुत
कम लोग मरते
हैं।
यह बात
तो सच है। सौ
साल तक जीते
ही नहीं तो
मरेंगे कैसे? सौ
साल के बाद
बहुत कम लोग
मरते हैं, मुश्किल
से। 'तो
मेरा बीमा
करने में तो कंपनी
को कोई डर
होना ही नहीं
चाहिए। मरने
वाले पहले ही
निपट जाते हैं।
जिनको नहीं
मरना है वे ही
इतना लंबा
बचते हैं।
'पचहत्तर
साल के बाद तो
तुम बचोगे कहां?
औसत उस ही
भारत की कोई
छत्तीस साल, चौंतीस साल।
यहां तो धर
-गृहस्थी भी
नहीं बन पाएगी।
इसलिए इसको तो
सिर्फ
औपचारिक, प्रतीकात्मक
समझना। अर्थ
इतना है कि
जीवन को चार
खंडों में
बांट लेना
चाहिए-एक खंड
अध्ययन-मनन; दूसरा खंड
प्रयोग
परीक्षण; तीसरा
खंड तैयारी; चौथा खंड
डूब जाना
परमात्मा में।
नहीं तो अभी
तो किसी तरह
दबा लोगे...।
यह एक
बहुत महत्व की
बात है समझ
लेनी कि जवान
आदमी अगर
ब्रह्मचर्य
चाहे तो आसान
है क्योंकि
दबाने की भी
ताकत होती है।
और जैसे -जैसे
उस कम होगी, दबाने
की ताकत कम
होगी और
मुश्किल बढ़ती
जाएगी।
तथाकथित
ब्रह्मचारियों
को असली
कठिनाई चालीस
साल के बाद
शुरू होती है,
क्योंकि
दबाने की ताकत
तो कम हो जाती
है और जिसको
दबाया है वह
ताजा का ताजा,
वासनादग्ध,
भीतर
अंगारों की
तरह मौजूद! और
तुम्हारी
दबाने की ताकत
रोज कम होने
लगी। फिर
वासना बदला
लेगी। फिर
दुनिया हसेगी।
अभी अच्छा है,
जीवन में
उतरों।
एक धार
मार
कर चली
गयी
बयार
सिहर
रहा मन अब तक, घाव आर -पार। हंसती
है
घास आस -पास
हंसते
हैं
रक्त -रंगे
ढीठ
कचनार!
फिर
घास भी हसेगी, ढीठ
कचनार भी
हंसेंगे!
बुढ़ापे में
दूल्हा बनोगे,
घास भी
हसेगी, कचनार
भी हंसेंगे।
बुढ़ापे में
दूल्हा बनोगे,
जिस घोड़े पर
सवार होओगे वह
भी
हीनहीनाएगा।
अभी समय है जब
जीवन को जियो!
उत्कुल्लता आ
जाएगी, उत्साह
आएगा, उमंग
आएगा, उत्सव
आएगा। यद्यपि
ये उत्सव, ये
उत्साह, उमंग
सब क्षणभंगुर
हैं। जल्दी ही
आएगी भी और
चली भी जाएगी,
टिकने वाली
नहीं है।
लेकिन इस
अनुभव से
गुजरना जरूरी
है।
क्षणभंगुर
के अनुभव से
जो गुजरता है
वही शाश्वत का
प्यासा होता
है। अभी
तुम्हारी
शाश्वत की
प्यास भी झूठी
है। अभी तुमने
बूंद ही नहीं
पी और तुम
सागर पीने की
बातें करने
लगे। अभी
चम्मच भर भी
जीवन को नहीं
चखा और
ब्रह्मचर्य
की बातें करने
लगे।
नहीं
-नहीं, रोहित, अभी तो
प्रेम के
द्वार खोलो।
आज
मानव का
सुनहला
प्राप्त है
आप
विस्मृत का
मृदुल आघात है
आज
अलसित और
मादकता भरे
सुखद
सपनों से
शिथिल यह गात
है
मानिनी
हंसकर हृदय को
खोल दो!
आज तो
तुम प्यार से
कुछ बोल दो!
आज
सौरभ में भरा
उच्छवास है
आप
कम्पित -
भ्रमित सा
वातास है
आज
शतदल पर मुदित
-सा झूलता
कर रहा
अठखेलियां
हिमहास है
लाज की
सीमा प्रिये, तुम
तोड़ दो!
आज मिल
लो,
मान करना
छोड़ दो!
आज
मधुकर कर रहा
मधुपान है
आज
कलिका दे रही
रसदान है
आज
बौरों पर विकल
बौरी हुई
कोकिला
करती प्रणय का
गान है
यह
हृदय की भेंट
है,
स्वीकार हो!
आज
यौवन का
सुमुखि, अभिसार
हो!
आज
नयनों में भरा
उत्साह है;
आज उर
में एक पुलकित
चाह है
आज
श्वासों में
उमड़कर बह रहा
प्रेम
का स्वच्छंद
मुक्त प्रवाह
है
डूब
जायें देवि, हम
-तुम एक हो!
आज
मनसिज का
प्रथम अभिषेक
हो!
अभी तो
प्रेम का
निवेदन करो।
अभी तो कोई
द्वार खटखटाओ।
अभी तो प्रेमी
खोजो, प्रेयसी
खोजो। अभी तो
इस जगत को
जियो। और
त्वरा से
जियो! जितनी
त्वरा से
जीयोगे उतने
ही जल्दी इससे
मुक्त होने की
घड़ी आ जाएगी।
जितनी अखंडता
और समग्रता से
जीयोगे उतना
ही शीघ्र
ब्रह्मचर्य
का फूल खिलेगा।
तुम्हारे
खिलाने से
नहीं, अपने
- आप खिलेगा।
तुम एक दिन
पाओगे खिल गया।
लक्ष्य नहीं
है ब्रह्मचर्य-परिणाम
है।
चौथा
प्रश्न :
भगवान!
कहो कुछ और
लोग समझते कुछ
और ही हैं।
ऐसा क्यों?
'नरोत्तम!
ऐसा न
होता तो
आश्चर्य होता।
कहते तुम हो; समझने
वाला अपना
अतीत लिए है, अपनी स्मृति
लिए है, अपने
न्यस्त
स्वार्थ लिए
है। शब्द
तुम्हारे हैं,
अर्थ तो
उसके होंगे!
तुम उसके अर्थ
की मालकियत
नहीं कर सकते।
तुम्हें कहना
हो कहो, मगर
उसे जो सुनना
है वही सुनेगा।
और फिर सुनने
में से भी
अर्थ वही
निकालेगा जो उसे
निकालना है।
इसलिए
नाराज न होना।
तुम निवेदन कर
देना अपनी बात, फिर
वह जो समझे
समझे। तुम
क्या करोगे? तुम कर भी
क्या सकते हो?
तुम फिर कुछ
कहोगे, उस
कुछ से भी वह
कुछ और समझेगा।
इसका कोई अंत
नहीं है।
लेकिन
ऐसा बहुत बार
होता है, तुम
कुछ कहना
चाहते
हों-सदभाव से,
प्रेम से, करुणा से- और
जब तुम देखते
हो दूसरा कुछ
का कुछ समझ
गया तो बड़ी
चोट लगती है।
ऐसा लगता है
कि जानकर वह
बेईमानी कर
रहा है, कि
जानकर धोखा कर
रहा है।
नहीं
कोई जानकर
धोखा नहीं कर
रहा है, कोई
जानकर
बेईमानी नहीं
कर रहा है।
लोग इतने
मूर्च्छित
हैं कि जानकर
बेईमानी करने
लायक होश कहां!
है।, बेईमानिया
हो रही हैं, धोखे भी हो
रहे हैं; लेकिन
सब बेहोशी में
चल रहा है। पत्नी
ने शिकायत -
भरे स्वरों
में पति से
कहा : तुम्हें
मेरे
रिश्तेदार
फूटी आंख नहीं
सुहाते।
'यह लो,
तुम भी कैसी
बातें करती
हो!' -पति ने
कहा। 'मुझे
अपने
रिश्तेदारों
की अपेक्षा
तुम्हारे
रिश्तेदार
ज्यादा पसंद
हैं। अब यही
देख लो न, मैं
अपने सास-सुसर
की अपेक्षा
तुम्हारे सास
-सुसर को
ज्यादा चाहता
हूं।
' अर्थ
तो अपने ही
होंगे।
शादी
के बाद दामाद
पहली बार
ससुराल गया।
वह और उसकी
पत्नी एक ही
कमरे में बैठे
थे। दूसरे
कमरे में लगी
हुई दीवार
-घड़ी से पहले
नौ बजने की
आवाज आयी, फिर
दस बजने की और
उसी तरह बारह
भी बज गये।
पति अभी तक
अपनी पत्नी को
एकटक देखता ही
रहा था। बारह
की घंटी बजते
ही वह बोल उठा :
ओह प्रिये, तुम्हारे
साथ होता हूं
तो समय कितनी
जल्दी बीत
जाता है!
'पागल
मत बनो, पिता
जी घड़ी ठीक कर
रहे हैं'-पत्नी
ने संयत स्वर
में कहा।
अलग-
अलग मन हैं, अलग-
अलग अनुभव हैं,
अलग - अलग
बोध हैं।
एक
नेता जी
चुनाव- भाषण
दे रहे थे और
कह रहे थे : मैं
इसी क्षेत्र
में पैदा हुआ
और इसी
क्षेत्र की सेवा
करते हुए
मरूंगा।
एक
आदमी ने खड़े
होकर पूछा :
लेकिन कब?
नरोत्तम!
तुम्हें जो
कहना हो कहो :
लेकिन दूसरा
वही समझे, इसके
जितने उपाय
तुम कर सको करना,
जितनी
सुस्पष्टता
से कह सको
कहना; मगर
दुखी मत होना
अगर वह कुछ और
समझे। यह
बिलकुल
स्वाभाविक है।
यहां हम एक ही
भाषा बोलते
हैं फिर भी एक
ही भाषा नहीं
बोलते।
दो
मित्र बैठे
बातें कर रहे
थे। उन में से
एक कहने लगा :
यार,
यह जम्हाई
क्या चीज है? दूसरे मित्र
ने कहा : एक
खामोश चीख! या
वह एकमात्र
क्षण जब विवाहित
पुरुषों को
मुंह खोलने का
अवसर मिलता है।
मगर यह
तो कोई
विवाहित ही कह
सकता है। यह
तो अनुभवियों
की बात है। और
सबके अनुभव
अलक हैं, सबकी
जीवन-प्रतीतिया
अलग हैं।
एक बात
ख्याल रखो, शब्द
तुम्हारा
होता है, अर्थ
तो उसका होगा
जो सुनेगा।
कला-समीक्षक
अपनी पत्नी से
एक कलाकार की
प्रशंसा करते
हुए कह रहे थे :
उसने अपने
कमरे की छत पर
मकड़ी के जाले
का एक ऐसा
यथार्थवादी
चित्र बनाया
कि उसकी
नौकरानी झाडू
से उस जाले को
हटाने के लिए
तीन दिन तक
कोशिश करती
रही।
पत्नी
बोली : वैसे कलाकार
तो दूसरे भी
मिल जायेंगे
जी,
मगर आजकल
वैरी नौकरानी
मिलनी बहुत
मुश्किल है।
कला-समीक्षक
का एक जगत है।
वह प्रशंसा कर
रहा है कि
इतना
यथार्थवादी
मकड़ी का जाला
बना दिया उसने
कि नौकरानी
तीन दिन तक
उसको साफ करने
की कोशिश में
लगी रही। मगर
पत्नी का और
अनुभव है।
पत्नी जानती
है
नौकरानियों
को। असली मकड़ी
के जालों को
नहीं छूती...।
तीन दिन तक!
बिलकुल असंभव
है!
तुम्हें
बहुत बार ऐसी
अड़चन आएगी और
ऐसी अड़चन ज्यादा
आएगी, जब तुम
जीवन के गहरे
अनुभवों की
बातें करोगे।
अगर तुम अपने
ध्यान की बात
करोगे तो बहुत
मुश्किल होगा।
धन की बात
करोगे तो इतनी
मुश्किल नहीं
होगी बात,
क्योंकि धन
सभी का अनुभव
है। ध्यान सभी
का अनुभव नहीं।
लोग चौकन्ने
होकर सुनेंगे।
लोग समझेंगे
दिमाग खराब हो
गया। तुम अगर
कहोगे कि
विचार शांत हो
जाते हैं
बिलकुल, तो
वे तुम्हारी
तरफ ऐसे
देखेंगे कि
होश में हो कि
ज्यादा पी गये?
क्योंकि
उनके तो कभी शांत
नहीं हुए, तुम्हारे
कैसे हो गये!
और जो उनको
नहीं हुआ वह किसी
और को कैसे हो
सकता है! तुम
अगर कहोगे कि
भीतर बड़ा आनंद
ही आनंद होता
है, तो
थोड़े
विस्मयविमुग्ध
होंगे कि कुछ
कल्पना कर ली
होगी, कुछ
भाग वगैरह तो
नहीं पी ली थी?
कोई नशा
वगैरह तो नहीं
करने लगे? क्योंकि
नशे वगैरह में
कभी-कभी ऐसे
आनंद अनुभव
होता है भीतर
ही भीतर; कोई
कारण नहीं
होता, और
भी भंगेड़ी को
हंसी आती है।
और जितना ही
उसको ऐसा लगता
है कि कोई
कारण नहीं है
और हंसी आ रही
है, तो
हंसी पर हंसी
आती है। वह और
मुश्किल में
पड़ जाता है।
ये भीतर की
बातें तो ऐसे
नशे इत्यादि
में होती हैं।
बाहर की बातें
तो होश में
होती हैं।
तुम
अगर किसी को
ध्यान की बात
करोगे, प्रार्थना
की बात करोगे,
तो जरा
सोच-समझकर
करना। जानकर
ही चलना कि
दूसरा
तुम्हें पागल
समझेगा, नशेलची
समझेगा, अफीमची
समझेगा।
समझेगा कि
पीनक में तान
रहे हो। कहां
की लंबी हांक
रहे हो! बुरा
मत मानना, कहे
कि लंबी हांक
रहे हो, क्योंकि
उसके हिसाब से
लंबी ही बात
है। दया करना।
नरोत्तम, तुम्हारे
प्रश्न का
अर्थ मैं
समझता हूं।
तुम्हें जो हो
रहा है, तुम
चाहते हो कि
कहो और कहते
हो तो लोग कुछ
का कुछ समझ
लेते हैं।
दूसरों की तो
बात छोड़ दो, अपने नहीं
सुनते। पत्नी
के ही पास
बैठकर अगर तुम
ध्यान की बात
शुरू करो तो
वह कहेगी, बस
बंद करो; कोई
और बात नहीं
करनी, तुम्हें
बस ध्यान ही
ध्यान सूझता
है? कुछ
काम- धाम की
बात करो!
जिससे
भी तुम बात
करो,
सोच लेना कि
समझने की
संभावना बहुत
कम है। इसलिए
थोड़े चुन कर
बात करो।
जिनमें लगे कि
खोज है, उनसे
बात करो। तो
शायद
थोड़ी-बहुत भनक
उन तक पहुंच
जाये।
और यह
मैं जानता हूं
कि जब
तुम्हारे
भीतर कुछ घटता
है तो कहने की
एक
अनिवार्यता
पैदा होती है, कहना
ही पड़ता है।
इसीलिए तो
संन्यासियों
का यह संघ
निर्मित कर
रहा हूं। तुम
दूसरों से न
कह सकोगे, लेकिन
संन्यासियों
से तुम दिल
खोलकर कह सकोगे,
वे समझेंगे।
तुम्हारे आंसू
भी समझेंगे, तुम्हारा
नाच भी
समझेंगे, तुम्हारी
चुप्पी भी
समझेंगे। कोई
भी तुम्हारी
कही हुई बात
पर अविश्वास
नहीं करेगा, तर्क नहीं
करेगा।
व्यर्थ की
बकवास और
विवाद को खड़ा
नहीं करेगा।
ऐसे
संघ की जरूरत
है,
ताकि
तुम्हें
सहारा मिले, ताकि तुम
भरोसा कर सको
कि तुम्हें जो
हो रहा है वह
कोई
व्यक्तिगत
कल्पना नहीं
है, कोई
सपना नहीं है;
और लोगों को
भी हो रहा है।
इसलिए
सदी -सदी मैं
संघ खड़े
हुए-बुद्ध का, महावीर
का, कबीर
का, नानक
का। सदी-सदी
में सदगुरुओं
के पास एक
जमात प्रेमियों
कि इकट्ठी हुई,
एक सत्संग
जमा। वहां
पीने वाले एक
-दूसरे से बात
करेंगे तो समझ
में आती है
क्योंकि सभी
पियक्कड़ हैं। मगर
तुम जब बाहर
जाओ तो
सोच-समझ कर
बात करना। इस
हीरे को हर
किसी को मत
दिखाने बैठ
जाना। पारखी
कोई मिल जाये
तो जरूर
दिखाना, लेकिन
हर किसी को
दिखाओगे तो वह
कहेगा : इस पत्थर
को किसलिए लिए
फिर रहे हो? फेंको-फेंको!
किसी दूसरे
काम में लगो!
अगर
तुम चुपचाप घर
में बैठोगे, शांत
बैठोगे तो घर
के ही लोग
कहने लगेंगे
कि क्या कर
रहे हो बैठे
-बैठे? शांत
क्यों बैठे हो?
उठो, कुछ
करते हुए चलते
-फिरते नजर आओ!
यह
दुनिया
बिलकुल ध्यान
के विपरीत है।
यहां कोई नहीं
समझेगा
तुम्हारा शांत
बैठना। लोग
हंसेंगे। और
तुम अगर कहोगे
कि भीतर आनंद
के झरने फूट
रहे हैं तो
लोग अगर सामने
न भी हैसे तो
पीठ पीछे हंसेंगे, कि
ये सज्जन गये
काम से।
आखिरी
सवाल :
भगवान!
पंडित
-पुरोहित
मनुष्य को
जगाने के क्यों
सदा से विरोधी
है?
और जन
-सामान्य
क्यों उनके
जालों में
बार-बार उलझ
जाता है?
'रामस्वरूप!
पंडित
-पुरोहित का
अर्थ होता है!
वह जो स्वयं तो
जागा हुआ नहीं
है,
लेकिन जागे
हुए लोगों के
वचनों का
व्यापार कर रहा
है। जो स्वयं
तो अनुभव नहीं
किया है, लेकिन
अनुभवी जो
संपदा छोड़ गये
हैं उस पर फन मारकर
बैठ गया है, उस पर कब्जा
कर लिया है।
जो खुद भी कुछ
नहीं समझता कि
जिस संपदा पर
उसने कब्जा
किया है वह
क्या है, लेकिन
फिर भी लोगों
में यह
भ्रांति बनाए
रखता है कि वह
समझता है।
शब्द समझता है,
सार नहीं
समझता।
शास्त्र
समझता है, सत्य
नहीं समझता।
और ये सत्य का
जो जगत है, अनुभव
का जगत है, विचार
का जगत नहीं
है।
पंडित
-पुरोहित बड़े
विचारपूर्ण
हैं;
मगर सत्य का
अनुभव ही
विचार से नहीं
हैं, ध्यान
से है। बुद्ध
पैदा होंगे तो
उनके पास
आसपास
प्रेमियों की,
पियक्कड़ों
की जमात बनेगी।
लेकिन बुद्ध
ने जाने पर
अड़चन आएगी।
बुद्ध के जाते
ही पंडित
इकट्ठे हो
जायेंगे।
स्वभावत: उस
भीड़ - भाड़ में
जो सर्वाधिक
मुखर होंगे, बोलने में
समर्थ होंगे,
समझाने में
समर्थ
होंगे-वें
नेता हो
जाएंगे। चाहे
वे अनुभवी हों
या न हों
लेकिन चूंकि
बोल सकते हैं,
वे नेता, और नेतृत्व
ग्रहण कर
लेंगे। धीरे -
धीरे
अनुभवियों को
तो वे बाहर कर
देंगे, क्योंकि
अनुभवियो के
कारण उनको
अड़चन होगी।
उनका गिरोह
इकट्ठा हो
जाएगा। और
अनुभवी का
चिंता भी नहीं
है नेतृत्व
करने की। और
अनुभवी को कोई
जनता के ऊपर
कब्जा भी नहीं
करना है। और
अनुभवी को कोई
जनता को शोषण
भी नहीं करना
है। लेकिन ये
पंडित मौका न
छोड़ेंगे। इन
पंडितों की
जमात फिर
सदियों तक
लोगों का शोषण
करेगी। नाम
चलेगा बुद्ध
का, बुद्ध
के नाम की आडू
में पंडित की
दुकान चलेगी।
यह पंडित कैसे
राजी होगा कि
कोई दूसरा
बुद्ध लोगों
को जगाए? क्योंकि
अगर लोग जाग
जायें तो इसके
ग्राहक कम हो जाएंगे,
उसकी दुकान
टूटती है।
एक
होटल में दो
बैरे बात कर
रहे हैं।
पहला
बैरा : यह आदमी
शराब पी कर
टेबल पर ही सो
गया है। उसे
दो बार जगा
चुका हूं, अब
तीसरी बार
जगाने जा रहा
हू।
दूसरा
बैरा : उसे
बाहर क्यों
नहीं निकाल
देते?
पहला
बैरा : वह मैं
नहीं कर सकता, क्योंकि
हर बार जगाने
पर वह बिल अदा
करता है और
फिर सो जाता
है।
ऐसे
आदमी को बाहर
कैसे करो!
सोये लोगों की
जमात है, इसमें
पंडित खूब
शोषण कर रहा
है। अगर कोई
जगाने वाला
आएगा तो पंडित
को दुश्मन मालूम
होगा। अगर
बुद्ध स्वयं
लौटें तो
बुद्ध के ही
भिक्षु और
पंडित बुद्ध
का विरोध
करेंगे। अगर
जीसस वापिस
लौटें तो पोप
-पादरी ही
उनका विरोध
करेंगे।
स्वाभाविक, क्योंकि कोई
भी जो जगा
देगा, फिर
लोग पंडित के
जाल में नहीं
पडेंगे।
पंडित
तो चाहता है :
और लाओ अफीम।
और दो अफीम! और
पिलाओ अफीम!
कार्ल
मार्क्स ने
ठीक ही कहा है
कि धर्म अफीम का
नशा है।
निन्यानबे
प्रतिशत यह
बात सच है, सिर्फ
एक प्रतिशत
गलत है। बुद्ध
-महावीर, कृष्ण-
क्राइस्ट के
संबंध में गलत
है, बाकी
निन्यानबे
प्रतिशत-शंकराचार्य
और वेटिकन के
पोप और जामा
मस्जिद के
इमाम, इन
सबके संबंध
में तो बिलकुल
सही है।
पंडित
की इतनी पकड़
क्यों है
जन-मानस पर? तुम
पूछते हो...
जन-मानस क्यों
उसके जालों
में फंस जाता
है? क्योंकि
उसके पास
सुंदर -सुंदर
शब्द हैं, भाषा
है, तर्कजाल
है।
जज ने
चोर से पूछा :
तुम उस घर में
क्यों घुसे थे? चोर
कोई साधारण
चोर नहीं था, संस्कृत
भाषा का
जानकार था।
असफल हो गया
था परीक्षाओं
में, इसलिए
पंडित न हो
जाया सो चोर
हो गया था। सो
उस चोर ने बड़े
सरल भाव से
जवाब दिया :
मैं क्या करता,
दरवाजे पर
स्वागतम लिखा
था, इसलिए।
शब्द
ही समझ में
आते हैं कुछ
लोगों को।
शब्द ही उनकी
नौका, शब्द ही
उनका सार -
सर्वस्व। और
जनता को भी
शब्द ही समझ
में आते हैं।
और शब्द अगर
बहुत दिन तक
दोहराए जायें
तो उनमें ऐसी
प्रतीति होने
लगती है कि
सत्य हैं।
जैसे अगर
सदियों
-सदियों तक
कोई बात कही
गयी है तो तुम
मान ही लेते
हो कि ठीक
होगी, अन्यथा
इतने दिन इतने
लते कैसे
मानते! जार्ज
बर्नार्ड शॉ
को किसी आदमी
ने कहा...।
जार्ज
बर्नार्ड शॉ
ने बहुत
व्यंग्य किए
हैं और बड़े
महत्वपूर्ण
व्यंग्य किए
हैं। अस सदी
के कुछ समझदार
लोगों में एक
आदमी था। किसी
आदमी ने कहा
कि आन बहुत-सी
ऐसी बातें कहते
हैं जिनको
दुनिया मैं
कोई भी नहीं
मानता। इतने
लोग गलत कैसे
हो सकते हैं?
जार्ज
बर्नार्ड शॉ
ने पता है क्या
उत्तर दिया!
जार्ज
बर्नार्ड शॉ
ने कहा कि
इतने लोग सही
कैसे हो सकते
हैं?
सही तो कभी
कोई एकाध होता
है। जागा तो
कोई कभी एकाध
होता है।
बर्नार्ड शॉ
की बात में बल
है, जो
उसने पूछा कि
इतने लोग सही
कैसे हो सकते
हैं। जार्ज
बर्नार्ड शॉ
अमरीका मैं
बोल रहा था, एक भाषणमाला
दे रहा था।
जैसे उसकी आदत
थी, लोगों
को चौंका देने
की, कभी
उल्टी-सीधी
बातें कह देने
की, तो
उसने शुरू ही
व्याख्यान इस
तरह किया...
चारों तरफ
देखा खड़े होकर
मंच पर और कहा
कि मैं देखता
हूं कि यहां
कम-से -कम पचास
प्रतिशत
महामूढ़ बैठे
हुए हैं।
अमरीका जैसा देश,
लोग एकदम
नाराज हो गये!
हों-हल्ला मच
गया। लोगों ने
कहा। : यह क्या
मजाक है? अपने
शब्द वापिस
लो!
थोड़ी
देर तो
बर्नार्ड शॉ
खड़ा रहा, शोरगुल
सुनता रहा। जब
लोग खूब
चिल्लाने लगे
और कुर्सियों
फेंकने की
नौबत करीब आने
लगी तो उसने
कहा : अच्छा
भाई, मैं
अपने शब्द वापिस
लेता हूं।
यहां पचास
प्रतिशत बड़े
बुद्धिमान
लोग आए हुए हैं।
और लोग
प्रसन्न हो
गये,
और अपनी-
अपनी जगह बैठ
गये। लोगों की
समझ ही इतनी
है। इससे
ज्यादा कोई
उसकी गर्दन
पकड़ लेगा
जिसके भी हाथ
में गर्दन आ
जाए उसकी।
जिनके भी करीब
पड़ गया, वे
ही उसकी गर्दन
पकड़ लेंगे।
उसका पिलाने
लगेंगे। घुटी
के दूध के साथ,
चलो रामायण,
गीता, कुरान।
उसे होश ही
नहीं है, तुम
उसे पिलाए जा
रहे हो। जब तक
उसे होश आएगा
तब तक उसकी
हड्डी-मांस
-मज्जा में
समा गयी
तुम्हारी
बकवास। बस तुम
हनुमान जी को
पूजते हो, वह
भी पूजने लगा।
तुम
हनुमान-चालीसा
पढ़ते हो, वह
भी पढ्ने लगा।
तुम मानते हो
कि हनुमान-
चालीसा में
बड़ी शक्ति है,
वह भी मानने
लगा कि
हनुमान-चालीसा
में बड़ी शक्ति
है।
हनुमान-चालीसा
में क्या
शक्ति हो सकती
है?
हनुमान की
पूजा कैसे चल
पड़ी? अगर
तुम इसके भीतर
जाओ तो
तुम्हें बड़ी
हैरानी होगी।
यह वैसा ही
जैसे अगर
तुम्हें
दिल्ली में
मोरारजी भाई तक
पहुंचना हो तो
पहले किसी
चमचे को पकड़ो।
चमचा-चालीसा!
हनुमान जी
सेवक हैं
रामचंद्र जी
के, रामचंद्र
जी तक सीधी
पहुंच होना तो
जरा मुश्किल
है, हनुमान
जी को पकड़ो! और
ये रहे बंदर, सो जरा इनको
फुसलाया, पीठ
थपथपायी, जरा
पूंछ पर
तेल-मालिश की,
ये खुश हो
गये।
इन्होंने
कंधे पर
बिठाया और ले
चले कि चलो रामचंद्र
जी से मिलवा
दें! और इनके
लिए तो सब द्वार
खुले हैं, रामचंद्र
जी के हों कि
सीता मैया के
हों, ये तो
कहीं भी घूस
जाएं। ये तो
अशोक वाटिका
में घुस गये
थे। तो इनको
तो कौन रोकेगा,
कहां
रोकेगा!
हनुमान-चालीसा
पढ़ो! तो तुम भी
पढ्ने लगे।
हनुमान जी की
मूर्ति जाती
है रास्ते में, तुम्हें
पता ही नहीं
रहता कि तुमने
कब सिर झुका
लिया।
एक
सज्जन मेरे
साथ घूमने
जाते थे रोज
सुबह। जो भी
मंदिर
इत्यादि
मिलता जल्दी
से वे सिर झुका
लेते। दों-चार
दिन मंजने
देखा। मैंने
उनसे कहा कि
यह तुम होश से
करते हो कि ये एक
यंत्रवत आदत
हो गई है? तो
उन्होंने कहा
: नहीं -नहीं
होश से करता
हूं। मैंने
कहा : तो फिर एक
काम करो, कल
होश रखना कि
नहीं करना है।
अगर होश से
करते हो तो कल
एक दिन सबूत
दो इस बात का
कि नहीं करना
है।
कल मैं
उनको लेकर फिर
निकला। बस
पहले ही
हनुमान जी का
मंदिर आया कि
मैंने कहा, कहो।...
'मैं भूल
ही गया। ' फिर
वे कहने लगे :
डर भी लगता है,
रात में मैं
सोचता भी रहा
कि एक दिन के
प्रयोग के लिए
और अपनी
जिंदगी- भर की
तपश्चर्या
छोड़ना! और
कहीं हनुमान जी
नाराज हो जाएं,
फिर? तो
भय भी है!
जनता
भयभीत है और
लोभी है और
मूड है और सोई
हुई है। इसका
शोषण बिलकुल
आसान है। किसी
भी तरह का
इसका शोषण कर
सकते हो।
मैं
सूरत गया। एक
मित्र ने आ कर
कहा कि आपकी
बातें सुनकर
प्रीतिकर
लगीं। मैं एक
ऐसे संप्रदाय मैं
पैदा हुआ हूं जहां
एक अजीब
सिलसिला है।
वह सिलसिला यह
है कि तुम लाख
रुपया अभी दान
कर दो मौलवी
को,
जो प्रधान
है संप्रदाय
का उसको लाख
रुपया अभी दान
कर दो तो वह
चिट्ठी लिख कर
दे देता है कि
लिख दी भगवान
के नाम कि सनद
रहे, कि
इसने लाख
रुपया दिया है,
सो इसको ठीक
-ठीक इंतजाम कर
देना
इत्यादि...। जो
-जो लाख रुपये
में हो सकता
है इंतजाम
स्वर्ग में, वह सब
चिट्ठी पर लिख
कर दे देता है।
और जब तुम
मरोगे तो वह
चिट्ठी
तुम्हारी
छाती पर रखकर
कब्र में रख
दी जाती है और
लोग ये कर रहे
हैं। पैसा
भगवान तक
पहुंचता नहीं।
और चिट्ठी भी
नहीं पहुंचती,
क्योंकि
चिट्ठी वहां कब्र
में पड़ी रहती
है, वह
चिट्ठी कहां
जाने वाली!
कौन चिट्ठी ले
जाएगा?
मैंने
उनसे कहा : तुम
जरा दों-चार
कब्रें तो खोद
कर देखो, चिट्ठी
वहीं की वहीं
पड़ी होगी।
उन्होंने कहा
कि वह तो पड़ी
ही है, वह
जानी कहां है
चिट्ठी!
मगर
लोग दे रहे
हैं लोभ! आदमी
इतना कमजोर है
कि उसका शोषण
करना बहुत
आसान है। उसे
डरा देना बहुत
आसान है। उसे
घबड़ा देना
बहुत आसान है।
और पंडितों की
सारी कला यह
है कि घबड़ाओ, डराओ,
भयभीत करो
और यह दावा
करो कि हम
मध्यस्थ हैं।
अगर तुमने
हमारी सुनी तो
हम तुम्हारी
सुरक्षा का
इंतजाम करवा
देंगे। मौत के
बाद, अगर
तुमने अभी
हमारी सुनी तो
हम तुम्हारा
साथ देंगे।
और मौत
का सबसे बड़ा
भय है। और जब
तक मौत का भय
है तब तक
पंडित
तुम्हारी छाती
पर हावी रहेगा।
सदगुरु
मौत के भय के
मिटा देते हैं, क्योंकि
वे तुम्हें
उसका अनुभव
करवा देते हैं
जिसकी कोई
मृत्यु
नहीं-उस अमृत
का स्वाद तुम्हें
दिला देते हैं।
अमी झरत, बिगसत
कंवल! वे
तुम्हारे
भीतर उस लोक
में प्रवेश
करा देते हैं जहां
अमृत की वर्षा
हो रही है और
कमल विकस रहे
हैं। ऐसे कमल,
जो कभी
मुरझाते नहीं!
वे तुम्हें
शाश्वत और
सनातन से जोड़
देते हज।
जो
तुम्हें
शाश्वत से जोड़
देगा, जो
तुम्हें
मृत्यु के पार
का दर्शन करा
देगा, वही
तुम्हें
पंडित और
पुरोहित के
जाल के बाहर ले
जा सकता है।
इसलिए
स्वभावत:
पंडित और
पुरोहित, जो
भी तुम्हें
जगाएगा उसके
दुश्मन हैं।
ईसा को सूली
दी उन्होंने,
सुकरात को
जहर पिलाया, मैसूर की
गर्दन काटी।
यही उनका काम
रहा है! यही
उनका काम आगे
भी रहेगा।
उनसे सावधान!
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