14 सितंबर, 1976
ओशो आश्रम, पूना।
पहला
प्रश्न :
ध्यान
और साक्षित्व
में क्या संबंध
है?
उनसे
चित्तवृत्तियां
और अहंकार किस
प्रकार
विसर्जित
होता है? पूर्ण
निरहंकार को
उपलब्ध हुए
बिना क्या
समर्पण संभव
है? गैरिक
वस्त्र और
माला, ध्यान
और साक्षी—साधना
में कहां तक
सहयोगी है? और कृपया यह
भी समझाएं कि
साक्षित्व, जागरूकता और
सम्यक स्मृति
में क्या अंतर
है?
मनुष्य
के जीवन को हम
चार हिस्सों
में बांट सकते
हैं। सबसे
पहली परिधि तो
कर्म की है।
करने का जगत
है सबसे बाहर।
थोड़े भीतर
चलें तो फिर
विचार का जगत
है। और थोड़े
भीतर चलें तो
फिर भाव का
जगत है, भक्ति
का, प्रेम
का। और थोड़े
भीतर चलें, केंद्र पर
पहुंचें, तो
साक्षी का।
साक्षी
हमारा स्वभाव
है,
क्योंकि
उसके पार जाने
का कोई उपाय
नहीं—कभी कोई
नहीं गया, कभी
कोई जा भी
नहीं सकता।
साक्षी का
साक्षी होना
असंभव है।
साक्षी तो बस
साक्षी है।
उससे पीछे
नहीं हटा जा
सकता। वहां
हमारी
बुनियाद आ गयी।
साक्षी की
बुनियाद पर यह
हमारा भवन है—
भाव का, विचार
का, कर्म
का।
इसलिए
तीन योग हैं.
कर्मयोग, ज्ञानयोग,
भक्तियोग।
वे तीनों ही
ध्यान की
पद्धतियां हैं।
उन तीनों से
ही साक्षी पर
पहुंचने की
चेष्टा होती
है। कर्मयोग
का अर्थ है.
कर्म +
ध्यान। सीधे
कर्म से
साक्षी पर
जाने की जो
चेष्टा है, वही कर्मयोग
है।
तो
ध्यान पद्धति
हुई,
और साक्षी—
भाव लक्ष्य
हुआ।
पूछा
है,
' ध्यान और
साक्षित्व
में क्या
संबंध है?'
ध्यान
मार्ग हुआ, साक्षित्व
मंजिल हुई।
ध्यान की
परिपूर्णता
है साक्षित्व।
और साक्षी —
भाव का
प्रारंभ है
ध्यान।
तो
जो कर्म के
ऊपर ध्यान को
आरोपित करेगा, जो
कर्म के जगत
में ध्यान को
जोड़ेगा—कर्म + ध्यान—वह
कर्मयोगी है।
फिर
ज्ञानयोगी है, वह
विचार के ऊपर
ध्यान को
आरोपित करता
है। वह विचार
के जगत में
ध्यान को
जोड़ता है। वह
ध्यानपूर्वक
विचार करने
लगता है। एक
नयी
प्रक्रिया
जोड़ देता है
कि जो भी
करेगा होशपूर्वक
करेगा।
जब
'विचार +
ध्यान' की
स्थिति बनती
है तो फिर
साक्षी की तरफ
यात्रा शुरू
हुई।
ध्यान
है दिशा—परिवर्तन।
जिस चीज के साथ
भी ध्यान जोड़
दोगे वही चीज
साक्षी की तरफ
ले जाने का
वाहन बन जाएगी।
फिर, तीसरा
मार्ग है
भक्तियोग—भाव
के साथ ध्यान
का जोड़; भाव
के साथ ध्यान
का गठबँधन, भाव के साथ
ध्यान की भांवर!
तो भाव के साथ
ध्यानपूर्ण
हो जाओ।
इन
तीन मार्गों
से व्यक्ति
साक्षी की तरफ
आ सकता है।
लेकिन लाने
वाली विधि
ध्यान है।
मौलिक बात
ध्यान है।
जैसे
कोई वैद्य
तुम्हें औषधि
दे और कहे, शहद
में मिलाकर ले
लेना, और
तुम कहो, शहद
मैं लेता नहीं,
मैं जैन—
धर्म का पालन
करता हूं—तो
वह कहे, दूध
में मिलाकर ले
लेना, और
तुम कहो, दूध
मैं ले नहीं
सकता, क्योंकि
दूध तो रक्त
का ही हिस्सा
है; मैं
क्वेकर ईसाई
हूं मैं दूध
नहीं पी सकता,
दूध तो
मांसाहार है।
तो वैद्य कहे
पानी में
मिलाकर ले
लेना। लेकिन
औषधि एक ही है—मधु,
दूध या जल, कोई फर्क
नहीं पड़ता, वह तो सिर्फ
औषधि को गटकने
के उपाय हैं, गले से उतर
जाये, औषधि
अकेली न
उतरेगी।
ध्यान
औषधि है।
तीन
तरह के लोग
हैं जगत में।
कुछ लोग हैं
जो बिना कर्म
के जी नहीं
सकते, उनके
सारे जीवन का
प्रवाह
कर्मठता का है।
खाली बैठाओ, बैठ न
सकेंगे, कुछ
न कुछ करेंगे।
ऊर्जा है, बहती
हुई ऊर्जा है—कुछ
हर्ज नहीं।
तो
सदगुरु कहते
हैं कि फिर
तुम कर्म के
साथ ही ध्यान
की औषधि को
गटक लो। चलो
यही सही।
तुमसे कर्म
छोड़ते नहीं
बनता; ध्यान
तो जोड़ सकते
हो कर्म में।
तुम कहते हो, 'कर्म छोड़कर
तो मैं क्षण
भर नहीं बैठ
सकता। बैठ मैं
सकता ही नहीं।
बैठना मेरे बस
में नहीं, मेरा
स्वभाव नहीं।’
मनोवैज्ञानिक
जिनको एक्स्ट्रोवर्ट
कहते हैं—बहिर्मुखी—सदा
संलग्न हैं, कुछ न कुछ
काम चाहिए; जब तक थककर
गिर न जायें, सो न जायें, तब तक कर्म
को छोड़ना
उन्हें संभव
नहीं। कर्म
उन्हें
स्वाभाविक है।
तो
सदगुरु कहते
हैं,
ठीक है, कर्म
पर ही सवारी
कर लो, इसी
का घोड़ा बना
लो! इसी में
मिला लो औषधि
को और गटक जाओ।
असली सवाल
औषधि का है।
तुम
ध्यानपूर्वक
कर्म करने लगो।
जो भी करो, मूर्च्छा
में मत करो, होशपूर्वक
करो। करते समय
जागे रही।
फिर
कुछ हैं, जो
कहते हैं कर्म
का तो हम पर
कोई प्रभाव
नहीं; लेकिन
विचार की बड़ी
तरंगें उठती
हैं। विचारक
हैं। कर्म में
उन्हें कोई रस
नहीं। बाहर
में उन्हें
कोई उत्सुकता
नहीं; मगर
भीतर बड़ी
तरंगें उठती
हैं, बड़ा
कोलाहल है। और
भीतर वह क्षण
भर को
निर्विचार
नहीं हो पाते।
वे कहते हैं
कि हम बैठें शांत
होकर तो और
विचार आते हैं।
इतने वैसे
नहीं आते
जितने शांत
होकर बैठकर
आते हैं। पूजा,
प्रार्थना,
ध्यान का
नाम ही लेते
हैं कि बस
विचारों का बड़ा
आक्रमण, सेनाओं
पर सेनाएं चली
आती हैं, डुबा
लेती हैं, क्या
करें? तो
सदगुरु कहते
हैं, तुम
विचार में ही
मिलाकर ध्यान
को पी जाओ।
विचार को रोको
मत, विचार
आए तो उसे
देखो। उसमें
खोओ मत, थोड़े
दूर खड़े रहो, थोड़े फासले
पर। शांत भाव
से देखते हुए
विचार को ही
धीरे—धीरे तुम
साक्षी— भाव
को उपलब्ध हो
जाओगे। विचार
से ही ध्यान
को जोड़ दो।
फिर
कुछ हैं, वे
कहते हैं. न
हमें विचार की
कोई झंझट है, न हमें कर्म
की कोई झंझट
है; भाव का
उद्रेक होता
है, आंसू
बहते हैं, हृदय
गदगद हो आता
है, डुबकी
लग जाती है—प्रेम
में, स्नेह
में,श्रद्धा
में, भक्ति
में। सदगुरु
कहते हैं, इसी
को औषधि बना
लो, इसी
में ध्यान को
जोड़ दो। आंसू
तो बहे—ध्यानपूर्वक
बहे। रोमांच
तो हो, लेकिन
ध्यानपूर्वक
हो। लेकिन सार—सूत्र
ध्यान है।
ये
जो भक्ति, कर्म
और ज्ञान के
भेद हैं, ये
औषधि के भेद
नहीं हैं।
औषधि तो एक ही
है। और यहीं
तुम्हें
अष्टावक्र को
समझना होगा।
अष्टावक्र
कहते हैं, सीधे
ही छलांग लगा
जाओ। औषधि
सीधी ही गटकी
जा सकती है।
वे कहते हैं, इन साधनों
की भी जरूरत
नहीं है।
इसलिए
अष्टावक्र न
तो ज्ञानयोगी
हैं,
न
भक्तियोगी, न कर्मयोगी।
वे कहते हैं, सीधे ही
साक्षी में
उतर जाओ; इन
बहानों की कोई
जरूरत नहीं है।
यह औषधि सीधी
ही गटकी जा
सकती है। छोड़ो
बहाने, वाहन
छोड़ो, सीधे
ही दौड़ सकते
हो, साक्षी
सीधे ही हो
सकते हो।
इसलिए
जहां तक
अष्टावक्र का
संबंध है, साक्षी
और ध्यान में
कोई फर्क नहीं;
लेकिन जहां
तक और
पद्धतियों का
संबंध है, साक्षी
और ध्यान में
फर्क है।
ध्यान है विधि,
साक्षी है
मंजिल।
अष्टावक्र
के लिए तो
मार्ग और
मंजिल एक हैं।
इसलिए तो वे
कहते हैं, अभी
हो जाओ आनंदित।
जिसकी मंजिल
और मार्ग अलग
हैं, वह
कभी नहीं कह
सकता, अभी
हो जाओ। वह
कहेगा, चलो,
लंबी
यात्रा है; चढ़ो, तब
पहुंचोगे
पहाड़ पर।
अष्टावक्र
कहते हैं, आंख
खोलो—पहाड़ पर
बैठे हो। कहाँ
जाना, कैसा
जाना?
इसलिए
अष्टावक्र के
सूत्र तो अति क्रांतिकारी
हैं। न तो
ज्ञान, न
भक्ति, न
कर्म, तीनों
ही इस ऊंचाई
पर नहीं
पहुंचते हैं,
शुद्ध
साक्षी की बात
है। ऐसा समझो
कि दवाई गटकनी
तक नहीं है, समझ लेना
काफी है। बोध
मात्र काफी है।
सहारे की कोई
जरूरत ही नहीं
है। तुम वहां
हो ही। लेकिन
ऐसा होता है
कि कुछ लोग
असमर्थ हैं इस
बात को मानने
में।
एक
सूफी कहानी है।
एक फकीर सत्य
को खोजने
निकला। अपने
ही गाव के
बाहर, जो पहला
ही संत उसे
मिला, एक
वृक्ष के नीचे
बैठे, उससे
उसने पूछा कि
मैं सदगुरु को
खोजने निकला हूं
आप बताएंगे कि
सदगुरु के
लक्षण क्या
हैं? उस
फकीर ने लक्षण
बता दिये।
लक्षण बड़े सरल
थे। उसने कहा,
ऐसे—ऐसे
वृक्ष के नीचे
बैठा मिले, इस—इस आसन में
बैठा हो, ऐसी—ऐसी
मुद्रा हो—बस
समझ लेना कि
यही सदगुरु है।
चला
खोजने साधक।
कहते हैं तीस
साल बीत गये, सारी
पृथ्वी पर
चक्कर मार
चुका। बहुत
जगह गया, लेकिन
सदगुरु न मिला।
बहुत मिले, मगर कोई
सदगुरु न था।
थका—मादा अपने
गाव वापिस
लौटा। लौट रहा
था तो हैरान
हो गया, भरोसा
न आया। वह
बूढ़ा बैठा था
उसी वृक्ष के
नीचे। अब उसको
दिखायी पड़ा कि
यह तो वृक्ष
वही है जो इस
बूढ़े ने कहा
था, 'ऐसे—ऐसे
वृक्ष के नीचे
बैठा हो।’ और
यह आसन भी वही
लगाये है, लेकिन
यह आसन वह तीस
साल पहले भी
लगाये था।
क्या मैं अंधा
था? इसके
चेहरे पर भाव
भी वही, मुद्रा
भी वही।
वह
उसके चरणों
में गिर पड़ा।
कहा कि आपने
पहले ही मुझे
क्यों न कहा? तीस
साल मुझे
भटकाया क्यों?
यह क्यों न
कहा कि मैं ही
सदगुरु हूं?
उस
बूढ़े ने कहा, मैंने
तो कहा था, लेकिन
तुम तब सुनने
को तैयार न थे।
तुम बिना भटके
घर भी नहीं आ
सकते। अपने घर
आने के लिए भी
तुम्हें हजार
घरों पर दस्तक
मारनी पड़ेगी,
तभी तुम आओगे।
कह तो दिया था
मैंने, सब
बता दिया था
कि ऐसे—ऐसे
वृक्ष के नीचे,
यही वृक्ष
की व्याख्या
कर रहा था, यही
मुद्रा में
बैठा था; लेकिन
तुम भागे—
भागे थे, तुम
ठीक से सुन न सके;
तुम जल्दी
में थे। तुम
कहीं खोजने जा
रहे थे। खोज
बड़ी
महत्वपूर्ण
थी, सत्य
महत्वपूर्ण
नहीं था
तुम्हें।
लेकिन आ गये
तुम! मैं थका
जा रहा था
तुम्हारे लिए
बैठा—बैठा इसी
मुद्रा में!
तीस साल तुम
तो भटक रहे थे,
मेरी तो
सोचो, इसी
झाड़ के नीचे
बैठा कि किसी
दिन तुम आओगे
तो कहीं ऐसा न
हो कि तब तक
मैं विदा हो
जाऊं!
तुम्हारे लिए
रुका था, आ
गये तुम! तीस
साल तुम्हें
भटकना पड़ा—अपने
कारण। सदगुरु
मौजूद था।
बहुत
बार जीवन में
ऐसा होता है, जो
पास है वह
दिखायी नहीं
पड़ता, जो
दूर है वह
आकर्षक मालूम
होता है। दूर
के ढोल
सुहावने मालूम
होते हैं। दूर
खींचते हैं
सपने हमें।
अष्टावक्र
कहते हैं कि
तुम ही हो वही
जिसकी तुम खोज
कर रहे हो। और
अभी और यहीं
तुम वही हो।
कृष्णमूर्ति
जो कह रहे हैं
लोगों से वह
शुद्ध अष्टावक्र
का संदेश है।
न अष्टावक्र
को किसी ने
समझा, न कृष्णमूर्ति
को कोई समझता
है। और
तथाकथित साधु—संन्यासी
तो बहुत नाराज
होते हैं, क्योंकि
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, ध्यान
की कोई जरूरत
नहीं। बिलकुल
ठीक कहते हैं।
न भक्ति की
कोई जरूरत है,
न कर्म की
कोई जरूरत है,
न ज्ञान की
कोई जरूरत है।
साधारण साधु—संत
बड़े विचलित हो
जाते हैं कि
कुछ भी जरूरत
नहीं! भटका
दोगे लोगों
को!
भटका
ये साधु—संत
रहे हैं।
कृष्णमूर्ति
तो सीधा
अष्टावक्र का
संदेश ही दे
रहे हैं। वे
इतना ही कह
रहे हैं कि
कुछ जरूरत
नहीं, क्योंकि
जरूरत तो तब
होती है जब
तुमने खोया होता
है। जरा झटकारो
धूल, उठो!
ठंडे पानी के
छींटे आंख पर
मार लो, और क्या
करना है!
तो
अष्टावक्र के
दर्शन में तो
साक्षी और
ध्यान एक ही
है,
क्योंकि
मंजिल और
मार्ग एक ही
है। लेकिन और
सभी मार्गों
और
प्रणालियों
में ध्यान
विधि है, साक्षी
उसका अंतिम फल
है।
'उनसे चित्त—वृत्तियां
और अहंकार किस
प्रकार
विसर्जित होते
हैं?'
साक्षी—
भाव से चित्त—वृत्तियां
और अहंकार
विसर्जित
नहीं होते; साक्षी—
भाव में पता
चलता है कि वे
कभी थे ही
नहीं।
विसर्जित तो
तब हों जब रहे
हों।
तुम
ऐसा समझो कि
तुम एक अंधेरे
कमरे में बैठे
हो,
समझ रहे हो
कि भूत है।
तुम्हारा ही
कुर्ता टंगा
है; मगर भय
में और घबड़ाहट
में और कल्पना
के जाल में
तुमने उसमें
हाथ भी जोड़
लिए, पैर
भी जोड़ लिए, वह खड़ा
तुम्हें डरा
रहा है! अब कोई
कहे कि दीया जला
लो तो तुम
पूछोगे, दीये
के जलने से
भूत कैसे दूर
होता है? लेकिन
दीये के जलने
से भूत दूर हो
जाता है, क्योंकि
भूत है नहीं।
होता तब तो
दीये के जलने
से दूर नहीं
होता। दीये के
जलने से भूत
के दूर होने
का क्या लेना—देना?
अगर भूत
होता ही तो
दीये के जलने
से दूर न होता।
नहीं है; आभास
होता है, इसलिए
दूर भी हो
जाता है।
तुम
हजारों ऐसी
बीमारियों से
पीड़ित रहते हो
जो नहीं हैं।
इसलिए किसी साधु—संत
की राख भी काम
कर जाती है।
इसलिए नहीं कि
तुम्हारी
बीमारी का राख
से दूर होने
का कोई संबंध
है। पागल हुए
हो?
राख से कहीं
बीमारियां
दूर हुई हैं? नहीं तो सब
औषधि—शास्त्र
व्यर्थ हो
जायें। राख से
बीमारी दूर
नहीं होती; सिर्फ
बीमारी थी, यह खयाल दूर
होता है।
मैंने
सुना है एक
वैद्य के
संबंध में।
खुद उन्होंने
मुझसे कहा। एक
आदिवासी
क्षेत्र में
बस्तर के पास
वह रहते हैं।
तो बस्तर से
दूर देहात से
एक आदिवासी
आया। वे एक
गांव में गये
हुए थे—
आदिवासियों
का गांव था।
वह बीमार था।
तो वैद्य के
पास लिखने को
भी कोई उपाय न
था,
गाव में न
तो फाउंटेन
पेन था, न
कलम थी, न
कागज था। तो
पास में पड़े
हुए एक खपड़े
पर पत्थर के
एक टुकड़े से
उन्होंने
औषधि का नाम
लिख दिया और
कहा कि बस
इसको तू एक
महीने भर
घोंटकर दूध
में मिलाकर पी
लेना, सब
ठीक हो जायेगा।
वह आदमी महीने
भर बाद आया, बिलकुल ठीक
होकर—स्वस्थ,
चंगा! वैद्य
ने कहा, दवा
काम कर गयी? उसने कहा, गजब की काम
कर गयी। अब
फिर एक और
खपड़े पर लिखकर
दे दें।
उन्होंने
कहा,
तेरा मतलब ?
उसने
कहा,
खपड़ा तो खतम
हो गया, घोलकर
पी गये! मगर
गजब की दवा थी!
अब
वह ठीक भी
होकर आ गया है!
अब वैद्य भी
कुछ कहे तो
ठीक नहीं। अब
कुछ कहना उचित
ही नहीं। वे
मुझसे कहने
लगे,
फिर मैंने
कुछ नहीं कहा
कि जब ठीक ही
हो गया, तो
जो ठीक कर दे
वह दवा। अब
इसको और
भटकाने में
क्या सार है—यह
कहना कि पागल,
हमने दवा का
नाम लिखा था, वह तो तूने
खरीदी नहीं!
वह
प्रिसक्रिपान
को ही पी गये।
मगर काम कर गयी
बात। बीमारी
झूठी रही होगी।
मनोकल्पित
रही होगी।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, हमारी
सौ में से
नब्बे
बीमारियां
मनोकल्पित हैं।
और जैसे —जैसे
समझ बढ़ती है, ऐसी संभावना
है कि
निन्यानबे
प्रतिशत
मनोकल्पित हो
सकती हैं। और
एक दिन ऐसी भी
घटना घट सकती
है कि सौ
प्रतिशत बीमारियां
मनोकल्पित
हों।
इसलिए
तो दुनियां
में इतने
चिकित्सा—शास्त्र
काम करते हैं।
एलोपैथी लो, उससे
भी मरीज ठीक
हो जाता है, आयुर्वेदिक
लो, उससे
भी ठीक हो
जाता है, होमियोपैथी,
उससे भी ठीक
हो जाता है, यूनानी, उससे
भी ठीक हो
जाता है; नेचरोपैथी
से भी ठीक हो
जाता है, और
गंडे —ताबीज
भी काम करते
हैं।
आश्चर्यजनक
है,
अगर बीमारी
वस्तुत: है तो
फिर बीमारी को
दूर करने का
एक विशिष्ट
उपाय ही हो
सकता है, सब
उपाय काम नहीं
करेंगे।
बीमारी है
नहीं।
तुम्हें जिस
पर भरोसा है, किसी को
एलोपैथी पर
भरोसा है, काम
हो जाता है।
बीमारी से ज्यादा
डाक्टर का नाम
काम करता है।
तुमने
कभी खयाल किया, जब
भी तुम बड़े
डाक्टर को
दिखाकर लौटते
हो, जेब
खाली करके, काफी फीस
देकर, आधे
तो तुम वैसे
ही ठीक हो
जाते हो। अगर
वही डाक्टर
मुफ्त
प्रिसक्रिपान
लिख दे तो
तुम्हें असर न
होगा। डाक्टर
की दवा कम काम
करती है, चुकायी
गयी फीस
ज्यादा काम
करती है। एक
दफा खयाल आ
जाये कि
डाक्टर बहुत
बड़ा, सबसे
बड़ा डाक्टर, बस काफी है।
तुम
पूछते हो, 'अहंकार
और चित्त—वृत्तियां
साक्षी— भाव
में कैसे
विसर्जित
होती हैं?'
विसर्जित
नहीं होती हैं।
होतीं, तो
विसर्जित
होतीं।
साक्षी— भाव
में पता चलता
है कि अरे
पागल, नाहक
भटकता था!
अपने ही
कल्पना के
मृगजाल बिछाए,
मृग—तृष्णाएं
बनायीं—सब
कल्पना थी।
विसर्जित
नहीं होती हैं;
साक्षी में
जागकर पता
चलता है, थीं
ही नहीं।
'पूर्ण
निरहंकार को
उपलब्ध हुए
बिना क्या समर्पण
संभव है?'
यह
महत्वपूर्ण
प्रश्न है।
पूछने वाला कह
रहा है, 'पूर्ण
निरहंकार को
उपलब्ध हुए
बिना क्या समर्पण
संभव है?' लेकिन
पूछने वाले का
मन शायद
अनजाने में
चालाकी कर गया
है। निरहंकार
में तो पूर्ण
जोड़ा है, समर्पण
में पूर्ण
नहीं जोड़ा।
पूर्ण
निरहंकार के
बिना पूर्ण
समर्पण संभव नहीं
है। जितना अहंकार
छोड़ोगे उतना
ही समर्पण
संभव है। पचास
प्रतिशत
अहंकार
छोड़ोगे तो
पचास प्रतिशत
समर्पण संभव
है। अहंकार का
छोड़ना और
समर्पण दो
बातें थोड़े ही
हैं, एक ही
बात को कहने
के दो ढंग हैं।
तो
तुम कहो कि
पूर्ण अहंकार
को छोड़े बिना
तो समर्पण
संभव नहीं है—पूर्ण
समर्पण संभव
नहीं है। धोखा
मत दे लेना
अपने को। तो
सोचो कि
समर्पण की
क्या जरूरत है, जब
पूर्ण अहंकार
छूटेगा! और वह
तो कब छूटेगा,
कैसे
छूटेगा?
जितना
अहंकार
छूटेगा, उतना
समर्पण संभव
है। अब पूर्ण
की प्रतीक्षा
मत करो; जितना
बने उतना करो।
उतना कर लोगे
तो और आगे कदम
उठाने की
सुविधा हो
जायेगी।
जैसे
कोई आदमी
अंधेरी रात
में यात्रा पर
जाता है, हाथ
में उसके छोटी—सी
कंदील है, चार
कदम तक रोशनी
पड़ती है। वह
आदमी कहे कि
इससे तो दस
मील की यात्रा
कैसे हो सकती
है? चार
कदम तक रोशनी
पड़ती है, दस
मील तक अंधेरा
है—भटक
जायेंगे! तो
हम उससे
कहेंगे, तुम
घबड़ाओ मत, चार
कदम चलो। जब
तुम चार कदम
चल चुके होओगे,
रोशनी चार
कदम आगे बढ़ने
लगेगी। कोई दस
मील तक रोशनी
की थोड़े ही
जरूरत है, तब
तुम चलोगे।
चार कदम काफी
हैं। तो जितना
अहंकार रत्ती
भर छूटता है, रत्ती भर
छोड़ो। रत्ती
भर छोड़ने पर
फिर रत्ती भर
छोड़ने की
संभावना आ
जायेगी। चार
कदम चले, फिर
चार कदम तक
रोशनी पड़ने
लगी।
ऐसी
तरकीब खोजकर
मत बैठ जाना
कि जब पूर्ण
अहंकार
छूटेगा तब
समर्पण
करेंगे। फिर
तुम कभी न
करोगे। तुमने
बड़ी कुशलता से
बचाव कर लिया।
उतना ही
समर्पण होगा—यह
बात सच है —जितना
अहंकार
छूटेगा। तो
जितना छूटता
हो उतना तो कर
लो। जितना कमा
सको समर्पण, उतना
तो कमा लो।
शायद उसका
स्वाद
तुम्हें और
तैयार कर दे; उसका आनंद, अहोभाव
तुम्हें और
हिम्मत दे दे!
हिम्मत स्वाद
से आती है।
कोई
आदमी कहे कि
जब तक हम पूरा
तैरना न सीख
लेंगे तब तक पानी
में न उतरेंगे—ठीक
कह रहा है; गणित
की बात कह रहा
है, तर्क
की बात कह रहा
है। ऐसे बिना
सीखे पानी में
उतर गये और खा
गये डुबकी—ऐसी
झंझट न
करेंगे! पहले
तैरना सीख
लेंगे पूरा, फिर
उतरेंगे!
लेकिन पूरा
सीखोगे कहां?
गद्दी पर? पूरा तैरना
सीखोगे कहा? पानी में तो
उतरना ही
पड़ेगा। मगर
तुमसे कोई
नहीं कह रहा
है कि तुम
सागर में उतर
जाओ। किनारे
पर उतरो, गले—गले
तक उतरी, जहां
तक हिम्मत हो
वहां तक उतरो।
वहां तैरना
सीखो। धीरे—
धीरे हिम्मत
बढ़ेगी। दो—दो
हाथ आगे बढ़ोगे—सागर
की पूरी गहराई
भी फिर तैरी
जा सकती है।
तैरना आ जाये
एक बार! और
तैरना आने के
लिए उतरना तो
पड़ेगा ही।
किनारे पर ही
उतरो, मैं
नहीं कह रहा
हूं कि तुम
सीधे किसी
पहाड़ से और
किसी गहरी नदी
में उतरो, छलांग
लगा लो।
किनारे पर ही
उतरो। जल के
साथ थोड़ी
दोस्ती बनाओ।
जल को जरा
पहचानो। हाथ—पैर
तडूफड़ाओ।
तैरना
है क्या? कुशलतापूर्वक
हाथ—पैर
तड़फड़ाना है।
तड़फड़ाना सभी
को आता है।
किसी आदमी को,
जो कभी नहीं
तैरा उसे भी
पानी में फेंक
दो तो वह भी
तड़फड़ाता है।
उसमें और
तैरनेवाले
मेँ फर्क थोड़ी—सी
कुशलता का है,
क्रिया का
कोई फर्क नहीं
है। हाथ—पैर
वह भी फेंक
रहा है, लेकिन
उसका पानी पर भरोसा
नहीं है, अपने
पर भरोसा नहीं
है। वह डर रहा
है कि कहीं
डूब न जाऊं।
वह डर ही उसे
डुबा देगा। जल
ने थोड़े ही
किसी को कभी
डुबाया है।
तुमने
देखा मुर्दे
ऊपर तैर जाते
हैं,
मुर्दे
पानी पर तैरने
लगते हैं!
पूछो मुर्दों से,
तुम्हें
क्या तरकीब
आती है? जिंदा
थे, डूब
गये। मुर्दा
होकर तैर रहे
हो! मुर्दा
डरता नहीं, अब 'नदी
कैसे डुबाए? पानी का
स्वभाव
डुबाना नहीं
है, पानी
उठाता है।
इसीलिए तो
पानी में वजन
कम हो जाता है।
तुम पानी में
अपने से वजनी
आदमी को उठा
ले सकते हो।
बड़ी चट्टान
उठा ले सकते
हो, पानी
में। पानी में
चीजों का वजन
कम हो जाता है।
जैसे जमीन का
गुरुत्वाकर्षण
है; जमीन
नीचे खींचती
है, पानी
ऊपर उछालता है।
पानी का
उछालना
स्वभाव है।
अगर डूबते हो
तो तुम अपने
ही कारण डूबते
हो, पानी
ने कभी किसी
को नहीं
डुबाया।
भूलकर भी पानी
को दोष मत
देना। पानी ने
अब तक किसी को
नहीं डुबाया।
तुम
वैज्ञानिक से
पूछ लो; वह भी
कहता है यह
चमत्कार है कि
आदमी डूब कैसे
जाते हैं, क्योंकि
पानी तो
उबारता है।
तुम्हारी
घबड़ाहट में
डूब जाते हो।
चीख—पुकार मचा
देते हो, मुंह
खोल देते हो, पानी पी
जाते हो, भीतर
वजन हो जाता
है—डुबकी खा
जाते हो। मरते
तुम अपने कारण
हो।
तैरने
वाला इतना ही
सीख लेता है
कि अरे, पानी
तो उठाता है!
उसकी श्रद्धा
पानी पर बढ़ जाती
है। वह समझ
लेता है कि
पानी तो वजन
कम कर देता है।
जितने वजनी हम
जमीन पर थे
उससे बहुत कम
वजनी पानी में
रह जाते हैं।
तुमने
देखा होगा, कभी
तुम बालटी कुएं
में डालते हो;
जब बालटी भर
जाती है और
पानी में डूबी
होती है तो
कोई वजन नहीं
होता। खींचो
पानी के ऊपर
और वजन शुरू
हुआ। पानी तो
निर्भार करता
है, डुबाएगा
कैसे? सीखने
वाला धीरे—धीरे
इस बात को
पहचान लेता है।
श्रद्धा का
जन्म होता है।
पानी पर भरोसा?
आ जाता है कि
यह दुश्मन
नहीं है, मित्र
है। यह डुबाता
ही नहीं।
फिर
तो कुशल तैराक
बिना हाथ—पैर
फैलाए, बिना
हाथ—पैर चलाए,
पड़ा रहता है
जल पर— कमलवत।
यह वही आदमी
है जैसे तुम
हो, कोई
फर्क नहीं है,
सिर्फ
इसमें
श्रद्धा का
जन्म हुआ! और
इसे अपने पर
भरोसा आ गया, जल पर भरोसा
आ गया—दोनों
की मित्रता सध
गयी।
ठीक
ऐसा ही समर्पण
में घटता है।
समर्पण में डर
यही है कि
कहीं हम डूब न
जायें, तो
किनारे पर
उतरो। तुमसे
कोई सौ डिग्री
समर्पण करने
को कह भी नहीं
रहा है—एक
डिग्री सही।
उतर—उतरकर
पहचान आएगी, स्वाद बढ़ेगा,
रस जगेगा, प्राण
पुलकित होंगे,
तुम चकित
होओगे कि
कितना गंवाया
अहंकार के साथ!
जरा—से समर्पण
से कितना
पाया! नये
द्वार खुले, प्रकाश—द्वार!
नयी हवाएं
बहीं प्राणों
में। नयी पुलक,
नयी उमंग!
सब ताजा—ताजा
है! तुम पहली
दफे जीवन को
देखोगे।
तुम्हें पहली
दफा आंखों से धुंध
हटेगी; प्रभु
का रूप थोड़ा—
थोड़ा प्रगट
होना शुरू
होगा। इधर
समर्पण, उधर
प्रभु पास आया।
क्योंकि इधर
तुम मिटना
शुरू हुए, उधर
प्रभु प्रगट
होना शुरू हुआ।
प्रभु
दूर थोड़े ही
है,
तुम्हारे
वजनी अहंकार
के कारण
तुम्हें दिखायी
नहीं पड़ता।
तुम्हारी आंखें
अहंकार से भरी
हैं, इसलिए
दिखायी नहीं
पड़ता। खाली आंखें
देखने में
समर्थ हो जाती
हैं। फिर धीरे—धीरे
हिम्मत बढ़ती
जाती है—श्रद्धा,
आत्म—विश्वास।
तुम और—और
समर्पण करते
हो। एक दिन
तुम पूरी
छलांग ले लेते
हो। एक दिन
तुम कहते हो, अब बस बहुत
हो गया। अपने
को बचाने में
ही अपने को
गंवाया अब तक,
एक दिन समझ
में आ जाती है
बात; अब
डुबा देंगे और
डुबाकर बचा
लेंगे!
धन्य
हैं वे जो
डूबने को राजी
हैं क्योंकि
उनको फिर कोई
डुबा नहीं
सकता। अभागे
हैं वे जो बच
रहे हैं, क्योंकि
वे डूबे ही
हुए हैं, उनकी
नाव आज नहीं
कल टकराकर डूब
जायेगी।
फिर
अहंकार और
समर्पण की बात
में एक बात और खयाल
कर लेनी जरूरी
है। मन बड़ा
चालाक है। वह
तरकीबें
खोजता है। मन
कहता है, 'तो
पहले कौन? अहंकार
का छोड़ना पहले
कि समर्पण
पहले? पहले
समर्पण करें
तो अहंकार
छूटेगा, कि
अहंकार छोड़े
तो समर्पण
होगा?'
तुम
इस तरह की
बातें, बाजार
जाते हो अंडा
खरीदने, तब
तुम नहीं
पूछते कि पहले
कौन, अंडा
कि मुर्गी? अगर तुम यह
पूछो तो तुम
अंडा खरीदकर
कभी घर न आ सकोगे।
तुम बस खरीदकर
चले आते हो? पूछते नहीं
कि पहले कौन, पहले पक्का
तो कर लें कि
अंडा पहले कि
मुर्गी पहले?
अंडा या
मुर्गी?
बहुत
लोगों ने
विवाद किये
हैं। अंडा—मुर्गी
का प्रश्न बड़ा
प्राचीन है।
पहले कौन आता
है?
बड़ा कठिन है
उत्तर खोज
पाना।
क्योंकि जैसे
ही तुम कहो, अंडा पहले
आता है, कठिनाई
शुरू हो जाती
है, क्योंकि
अंडा आया होगा
मुर्गी से—तो
मुर्गी पहले आ
गयी। जैसे ही
कहो, मुर्गी
आती पहले, वैसे
ही मुश्किल
फिर खड़ी हो
जाती है, क्योंकि
मुर्गी आयेगी
कैसे बिना
अंडे के? यह
तो एक
वर्तुलाकार
प्रश्न
भूल— भरा है।
प्रश्न भूल—
भरा इसलिए है
कि मुर्गी और
अंडा दो नहीं
हैं। मुर्गी
और अंडा एक ही
चीज की दो
अवस्थाएं हैं।
आगे—पीछे रखने
में,
दो कर लेने
में तुम
प्रश्न को उठा
रहे हो।
मुर्गी अंडे
का एक रूप है—पूरा
प्रगट रूप, अंडा मुर्गी
का एक रूप है—अप्रगट
रूप। जैसे बीज
और वृक्ष। ऐसा
ही निरहंकार
और समर्पण है।
कौन पहले—इस
विवाद में
पड़कर समय मत
गंवाना। अगर
मुर्गी ले आए
तो अंडा भी ले
आए। अगर अंडा
ले आए तो
मुर्गी भी ले
आए। एक आ गया
तो दूसरा आ ही
गया। कहीं से
भी शुरू करो।
अगर अहंकार
छोड़ सकते हो, अहंकार
छोड़ने से शुरू
करो। अगर
अहंकार नहीं
छोड़ सकते तो
समर्पण करने
से शुरू करो।
समर्पण किया
तो अहंकार
छूटा। पूर्ण
छूटा, ऐसा
मैं कह नहीं
रहा हूं।
जितना समर्पण
किया, उतना
छूटा! अगर
समर्पण करना
मुश्किल
मालूम पड़ता है
तो अहंकार छोड़ो।
जितना छूटेगा
अहंकार, उतना
समर्पण हो
जायेगा।
दुनियां
में दो तरह के
धर्म हैं। एक
हैं निरहंकारिता
के धर्म, और एक
हैं समर्पण के
धर्म। एक हैं
मुर्गी पर जोर
देने वाले
धर्म, एक
हैं अंडे पर
जोर देने वाले
धर्म। दोनों
सही हैं, क्योंकि
एक आ गया तो
दूसरा अपने—आप
आ जाता है।
जैसे महावीर
का धर्म है—जैन
धर्म, बुद्ध
का धर्म है—बौद्ध
धर्म; उनमें
समर्पण के लिए
कोई जगह नहीं
है, सिर्फ
अहंकार छोड़ो।
समर्पण करोगे कहां?
कोई
परमात्मा
नहीं है, जिसके
सामने समर्पण
हो सके।
महावीर कहते
हैं. अशरण! शरण
जाने की कोई
जगह ही नहीं
है। किसकी शरण
जाओगे? अशरण
में हो जाओ, लेकिन
अहंकार छोड़ो।
हिंदू
हैं,
मुसलमान
हैं, ईसाई
हैं—वे धर्म
समर्पण के
धर्म हैं। वे
अहंकार छोड़ने
की इतनी बात
नहीं कहते; वे कहते हैं,
परमात्मा
पर समर्पण करो।
कोई चरण खोज
लो—कोई चरण, जहां तुम
अपने सिर को
झुका सको!
अहंकार अपने
से चला जायेगा।
दोनों
सही हैं, क्योंकि
दोनों घटनाएं
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। तुम
सिक्के का
सीधा हिस्सा
घर ले आओ कि
उलटा हिस्सा
घर ले आओ, इससे
क्या फर्क
पड़ता है, सिक्का
घर आ जाएगा!
दोनों ही एक
सिक्के के पहलू
हैं। पर कहीं
से शुरू करना पड़ेगा।
बैठकर सिर्फ
गणित मत
बिठाते रहना। 'गैरिक
वस्त्र और
माला, ध्यान
और साक्षी—साधना
में कहां तक
सहयोगी हैं?
चाहो
तो हर चीज
सहयोगी है।
चाहो तो छोटी—छोटी
चीजों से
रास्ता बना ले
सकते हो।
कहते
हैं,
राम ने जब
पुल बनाया
लंका को जोड़ने
को र जब सागर—सेतु
बनाया तो छोटी—छोटी
गिलहरियां
रेत के कण और
कंकड़ ले आयीं।
उनका भी हाथ
हुआ।
उन्होंने भी
सेतु को बनने
में सहायता दी।
बड़ी—बड़ी
चट्टानें
लाने वाले लोग
भी थे। छोटी—छोटी
गिलहरियां भी
थीं, जो
उनसे बन सका, उन्होंने
किया।
कपड़े
के बदल लेने
से बहुत आशा
मत करना, क्योंकि
कपड़े के बदल
लेने से अगर
सब बदलता होता
तो बात बडी
आसान हो जाती।
माला के गले
में डाल लेने
से ही मत समझ
लेना कि बहुत
कुछ हो जायेगा,
क्रांति घट
जाएगी। इतनी
सस्ती क्रांति
नहीं है।
लेकिन इससे यह
भी मत सोच
लेना कि यह
गिलहरी का उपाय
है, इससे
क्या होगा? राम ने
गिलहरियों को
भी धन्यवाद
दिया।
ये
छोटे—छोटे
उपाय भी कारगर
हैं। कारगर इस
तरह हैं—अचानक
तुम अपने गांव
वापिस जाओगे
गैरिक वस्त्रों
में,
सारा गांव
चौंककर
तुम्हें
देखेगा। तुम
उस गांव में
फिर ठीक उसी
तरह से न बैठ
पाओगे जिस तरह
से पहले बैठते
थे। तुम उस
गांव में उसी
तरह से छिप न
जाओगे जैसे पहले
छिप जाते थे।
तुम उस गाव
में एक पृथकता
लेकर आ गये।
हर एक पूछेगा,
क्या हुआ है?
हर एक
तुम्हें याद
दिलाएगा कि
कुछ हुआ है।
हर एक तुमसे
प्रश्न करेगा।
हर एक
तुम्हारी
स्मृति को
जगायेगा। हर
एक तुम्हें
मौका देगा
पुन: पुन:
स्मरण का, साक्षी
बनने का।
एक
मित्र ने
संन्यास लिया।
संन्यास लेते
वक्त वे रोने
लगे। सरल
व्यक्ति! और
कहा कि बस एक
अड़चन है, मुझे
शराब पीने की
आदत है और आप
जरूर कहेंगे कि
छोड़ो। मैंने
कहा, मैं
किसी को कुछ
छोड़ने को कहता
ही नहीं। पीते
हो—ध्यानपूर्वक
पीयो!
उन्होंने
कहा,
क्या मतलब?
संन्यासी
होकर भी मैं
शराब पीऊं?
'तुम्हारी
मर्जी!
संन्यास
मैंने दे दिया,
अब तुम समझो।’
वे
कोई महीने भर
बाद आए। कहने
लगे,
आपने
चालबाजी की।
शराब—घर में
खड़ा था, एक
आदमी आकर मेरे
पैर पड़ लिया।
कहा, 'स्वामी
जी कहां से
आये?' मैं
भागा वहां से—मैंने
कहा कि ये
स्वामी जी और
शराब—घर में!
वह
आदमी कहने लगा, आपने
चालबाजी की।
अब शराब—घर की
तरफ जाने में
डरता हूं कि
कोई पैर वगैरह
छू ले या कोई
नमस्कार
वगैरह कर ले।
आज पंद्रह दिन
से नहीं गया
हूं।
एक
स्मृति बनी!
एक याददाश्त
जगी!
तुम
इन गैरिक
वस्त्रों में
उसी भांति
क्रोध न कर
पाओगे जैसा कल
तक करते रहे थे।
कोई चीज चोट
करेगी। कोई
चीज कहेगी, अब
तो छोड़ो! अब ये
गैरिक
वस्त्रों में
बड़ा बेहूदा
लगता है।
मैं
तुम्हारे लिए
गैरिक वस्त्र
देकर सिर्फ थोड़ी
अड़चन पैदा कर
रहा हूं, और
कुछ भी नहीं।
तुम अगर चोर
हो तो उसी
आसानी से चोर
न रह सकोगे।
तुम अगर धन के
पागल हो, दीवाने
हो, लोभी
हो, तो
तुम्हारे लोभ
में वही बल न
रह जायेगा।
तुम अगर
राजनीति में
दौड़ रहे हो, पद की
प्रतिष्ठा
में लगे थे, अचानक तुम
पाओगे कुछ सार
नहीं!
ये
छोटे—से
वस्त्र बड़े
प्रतीकात्मक
हो जायेंगे।
अपने—आप में
इनका मूल्य
नहीं है, लेकिन
इनके साथ जुड़
जाने में तुम
धीरे—धीरे
पाओगे, बात
तो बड़ी छोटी
थी, बीज तो
बड़ा छोटा था, धीरे—धीरे
बड़ा हो गया।
धीरे— धीरे
उसने सब बदल
डाला।
तुम्हारे
कृत्य
बदलेंगे, तुम्हारी
आदतें
बदलेंगी, तुम्हारे
उठने—बैठने का
ढंग बदलेगा।
तुम्हारे
जीवन में एक
नया प्रसाद.।
लोगों की
अपेक्षाएं
तुम्हारे
प्रति बदलेंगी।
लोगों की आंखें
तुम्हारे
प्रति
बदलेंगी।
नाम
का परिवर्तन—पुराने
नाम से संबंध—विच्छेद
हो जायेगा।
वस्त्र का
परिवर्तन—पुरानी
तुम्हारी
रूपरेखा से
मुक्ति हो
जायेगी। यह
गले में
तुम्हारी
माला तुम्हें
मेरी याद दिलाती
रहेगी। यह
मेरे और
तुम्हारे बीच
एक सेतु बन
जायेगी। तुम
मुझे भूल न
पाओगे इतनी
आसानी से। और
लोग तुम्हें
पृथक करने
लगेंगे। और
उनका पृथक
करना
तुम्हारे लिए
साक्षी होने में
बड़ा सहयोगी हो
जायेगा।
लेकिन
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
इतना कर लेने से
सब हो जायेगा, कि
बस पहन लिए
वस्त्र और
माला डाल ली—समझा
कि खतम!
यात्रा पूरी!
तुम पर निर्भर
है। ये संकेत
जैसे हैं।
जैसे मील के
किनारे पत्थर
लगा होता है, लिखा रहता
है कि बारह
मील, पचास
मील, सौ
मील दिल्ली।
उस पत्थर से
कुछ बड़ा मतलब
नहीं है।
पत्थर हो या न
हो, दिल्ली
सौ मील है तो
सौ मील है।
लेकिन पत्थर
पर लिखी हुई
लकीर, तीर
का चिह्न राही
को हलका करता
है। वह कहता
है, चलो सौ
मील ही बचा, पच्चीस मील
बचा, पचास
मील बचा।
स्विटजरलैंड
में मील के
पत्थर की जगह
मिनिटों के
पत्थर हैं।
अगर गाड़ी
तुम्हारी रुक
जाए कहीं किसी
पहाड़ी जगह पर
तो तुम चकित
होकर देखोगे
कि बाहर खंभे
पर पिछली
स्टेशन कितनी
दूर है—तीस
मिनिट दूर; अगली
स्टेशन कितनी
दूर—पंद्रह
मिनिट दूर!
बड़ा
महत्वपूर्ण
प्रतीक है।
तो
अगर स्विस लोग
अच्छी घड़ियां
बनाने में कुशल
हैं तो कुछ
आश्चर्य नहीं।
समय का उनका
बोध बड़ा
प्रगाढ़ है।
मील नहीं
लिखते, समय
लिखते हैं।
पंद्रह मिनिट
दूर! खबर
मिलती है कि
समय का बोध प्रगाढ़
है इस जाति का।
तुम
गैरिक वस्त्र
पहने हो, कुछ
खबर मिलती है
तुम्हारे
बाबत। हर चीज
खबर देती है।
कैसे तुम
बैठते हो, कैसे
तुम उठते हो, कैसे तुम
देखते हो—हर
चीज खबर देती
है।
सैनिकों
को हम ढीले
वस्त्र नहीं
पहनाते; दुनियां
में कोई जाति
नहीं पहनाती—पहनाएगी
तो हार खाएगी।
सैनिक को ढीले
वस्त्र
पहनाना
खतरनाक सिद्ध
हो सकता है।
सैनिक को हम
चुस्त वस्त्र
पहनाते हैं—इतने
चुस्त वस्त्र,
जिनमें वह
हमेशा अड़चन
अनुभव करता है।
और इच्छा होती
है कि कब वह
इनके बाहर कूद
कर निकल जाये।
चुस्त वस्त्र
झगड़ालू आदत
पैदा करते हैं।
चुस्त वस्त्र
में बैठा आदमी
लड़ने को तत्पर
रहता है। ढीले
वस्त्र का
आदमी थोड़ा
विश्राम में
होता है।
सिर्फ सम्राट
ढीले वस्त्र
पहनते थे, या
संन्यासी, या
फकीर।
तुमने
कभी देखा कि
ढीले वस्त्र
पहनकर अगर तुम
सीढ़ियां चढ़ी
तो तुम एक—एक
सीढ़ी चढ़ोगे, चुस्त
वस्त्र पहनकर
चढ़ों, दो—दो
एक साथ चढ़
जाओगे। चुस्त
वस्त्र पहने
हो तो तुम
क्रोध से भरे
हो; कोई
जरा—सी बात
कहेगा और
बेचैनी खड़ी हो
जायेगी। ढीले
वस्त्र पहने
हो, तुम थोड़े
विश्राम में
रहोगे।
छोटी—छोटी
चीजें फर्क
लाती हैं।
जीवन छोटी—छोटी
चीजों से बनता
है।
गिलहरियों के
द्वारा लाए गए
छोटे—छोटे
कंकड़—पत्थर
जीवन के सेतु
को निर्मित
करते हैं।
क्या तुम खाते
हो,
क्या तुम
पहनते हो, कैसे
उठते—बैठते हो,
सबका अंतिम
परिणाम है।
सबका जोड़ हो
तुम।
अब
एक आदमी चला
जा रहा है—चमकीले, भड़कीले,
रंगीले
वस्त्र पहने—तो
कुछ खबर देता
है। एक स्त्री
चली जा रही है—बेहूदे,
अश्लील, शरीर
को उभारने
वाले वस्त्र
पहने—कुछ खबर
देती है। एक
आदमी ने सीधे —सादे
वस्त्र पहने
हैं, ढीले,
विश्राम से
भरे—कुछ खबर
मिलती है उस
आदमी के संबंध
में।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, अगर
तुम एक आदमी
को आधा घंटा
तक चुपचाप
देखते रहो—कैसे
वस्त्र पहने
है, कैसा
उठता, कैसा
बैठता, कैसा
देखता—तो तुम
उस आदमी के
संबंध में
इतनी बातें
जान लोगे कि
तुम भरोसा न
कर सकोगे।
हमारी
हर गतिविधि, हर
भाव— भंगिमा 'हमारी' है।
भाव— भंगिमा
के बदलने से
हम बदलते हैं,
हमारे
बदलने से भाव—
भंगिमा बदलती
है।
तो
यह तो केवल
प्रतीक है। ये
तुम्हें साथ
देंगे। ये
तुम्हारे लिए
इशारे बने
रहेंगे। ये
तुम्हें
जागरूक रखने
के लिए थोड़ा—सा
सहारा हैं।
'और कृपया यह
भी समझाएं कि
साक्षित्व, जागरूकता और
सम्यक स्मृति
में क्या अंतर
है?' कोई भी
अंतर नहीं है।
वे सब
पर्यायवाची
शब्द हैं। अलग—
अलग परंपराओं
ने उनका उपयोग
किया है।
जागरूकता
कृष्णमूर्ति
उपयोग करते
हैं। सम्यक
स्मृति, माइंडफुलनेस
बुद्ध ने
उपयोग किया है।
साक्षित्व
अष्टावक्र ने,
उपनिषदों
ने, गीता
ने उपयोग किया
है। सिर्फ भेद
अलग— अलग
परंपराओं का
है। लेकिन
उनके पीछे
जिसकी तरफ
इशारा है वह
एक ही है।
दूसरा
प्रश्न :
आपके
महागीता पर
हुए पहले प्रवचन
के समय अनेक
लोग आंसू
बहाकर रो रहे
थे। उसका क्या
मतलब है? क्या
रोने वाले कमजोर
मन के लोग हैं
या आपकी वाणी
का यह प्रभाव
है? कृपया
इस पर थोड़ा
प्रकाश डालें!
एक
बात पक्की है
कि पूछने वाले
कठोर मन के
आदमी हैं। आंसुओ
में उन्हें
सिर्फ कमजोरी
दिखायी पड़ी।
एक बात पक्की
है पूछने वाले
व्यक्ति के आंख
के आंसू सूख
गये हैं, आंखें
बंजर हो गयी
हैं, मरुस्थल
जैसी; उनमें
फूल नहीं
खिलते। आंसू
तो आंख के फूल
हैं। पूछने
वाले का भाव
मर गया है।
पूछने वाले का
हृदय अवरुद्ध
हो गया है।
पूछने वाला
सिर्फ बुद्धि
से जी रहा
होगा; उसने
भाव की
तिलांजलि दे
दी। सोच—विचार
से जी रहा
होगा। प्रेम
और करुणा और
जीवन की तरफ
जो लगाव की, चाहत की, आनंद
की संभावना है—उसे
इनकार कर दिया
होगा। कोई
रसधार नहीं
बहती होगी।
सूखा—साखा
मरुस्थल जैसा
मन हो गया
होगा। इसीलिए
पहली बात यह
खयाल में आयी
कि जो लोग रोते
हैं, कमजोर
मन के होंगे।
किसने
कहा तुम्हें
कि रोना
कमजोरी का
लक्षण है? मीरा
खूब रोयी है!
चैतन्य की आंखों
से झर—झर
आंसू बहे!
नहीं, कमजोरी
के लक्षण नहीं
हैं—भाव के
लक्षण हैं; भाव की
शक्ति के
लक्षण हैं। और
ध्यान रखना, भाव विचार
से गहरी बात
है।
मैंने
कहा : पहले
कर्म की रेखा, फिर
विचार की रेखा,
फिर भाव की
रेखा, फिर
साक्षी का
केंद्र। भाव
साक्षी के
निकटतम है।
भक्ति भगवान
के निकटतम है।
कर्म बहुत दूर
है। वहां से
यात्रा बड़ी
लंबी है।
विचार भी काफी
दूर है। वहां
से भी यात्रा
काफी लंबी है।
भक्ति बिलकुल
पास है।
खयाल
रखना, आंसू
जरूरी रूप से
दुख के कारण
नहीं होते।
हालांकि लोग
एक ही तरह के आंसुओ
से परिचित हैं
जो दुख के
होते हैं।
करुणा में भी आंसू
बहते हैं।
आनंद में भी आंसू
बहते हैं।
अहोभाव में भी
आंसू बहते हैं।
कृतज्ञता में
भी आंसू बहते
हैं। आंसू तो
सिर्फ प्रतीक
हैं कि कोई
ऐसी घटना भीतर
घट रही है
जिसको
सम्हालना
मुश्किल है—दुख
या सुख; कोई
ऐसी घटना भीतर
घट रही है जो
इतनी ज्यादा
है कि ऊपर से
बहने लगी। फिर
वह दुख हो, इतना
ज्यादा दुख हो
कि भीतर
सम्हालना
मुश्किल हो
जाये तो आंसुओ
से बहेगा। आंसू
निकास हैं। या
आनंद घना हो
जाये तो आनंद
भी आंसुओ से
बहेगा। आंसू
निकास हैं।
आंसू
जरूरी रूप से
दुख या सुख से
जुड़े नहीं हैं—अतिरेक
से जुड़े हैं।
जिस चीज का भी
अतिरेक हो
जायेगा, आंसू
उसी को लेकर
बहने लगेंगे।
तो
जो रोये, उनके
भीतर कुछ
अतिरेक हुआ
होगा; उनके
हृदय पर कोई
चोट पड़ी होगी;
उन्होंने
कोई मर्मर
सुना होगा
अज्ञात का; दूर अज्ञात
की किरण ने
उनके हृदय को
स्पर्श किया
होगा; उनके
अंधेरे में
कुछ उतरा होगा;
कोई तीर
उनके हृदय को
पीड़ा और
आह्लाद से भर
गया—रोक न
पाये वे अपने आंसू।
मेरे
बोलने के
प्रभाव से
इसका कोई
संबंध नहीं, क्योंकि
तुम भी सुन
रहे थे। अगर
मेरे बोलने का
ही प्रभाव
होता तो तुम
भी रोये होते,
सभी रोये
होते। नहीं!
मेरे बोलने से
ज्यादा सुनने
वाले की हार्दिकता
का संबंध है।
जो रो सकते थे
वे रोए।
और
रोना बड़ी
शक्ति है। एक
बहुत अनूठी
दिशा को
मनुष्य—जाति
ने खो दिया है—विशेषकर
मनुष्यों ने
खो दिया है, पुरुषों
ने, स्त्रियों
ने थोड़ा बचा
रखा है, स्त्रियां
धन्यभागी हैं।
मनुष्य की आंख
में, पुरुष
हो कि स्त्री,
एक—सी ही
आसुरों की
ग्रंथियां
हैं। प्रकृति
ने आंसुओ की
ग्रंथियां
बराबर बनायी
हैं। इसलिए
प्रकृति का तो
निर्देश
स्पष्ट है कि
दोनों की आंखें
रोने के लिए
बनी हैं।
लेकिन पुरुष
के अहंकार ने
धीरे—धीरे
अपने को
नियंत्रण में
कर लिया है।
धीरे— धीरे
पुरुष सोचने
लगा है कि
रोना स्त्रैण
है; सिर्फ
स्त्रियां
रोती हैं। इस
कारण पुरुष ने
बहुत कुछ खोया
है—भक्ति खोयी,
भाव खोया।
इस कारण पुरुष
ने आनंद खोया,
अहोभाव
खोया। इस कारण
पुरुष ने दुख
की भी महिमा
खोयी; क्योंकि
दुख भी
निखारता है, साफ करता है।
इस कारण पुरुष
के जीवन में
एक बड़ी
दुर्घटना घटी
है।
तुम
चकित होओगे, दुनियां
में
स्त्रियों की
बजाय दुगुने
पुरुष पागल होते
हैं! और यह
संख्या बहुत
बढ़ जाये, अगर
युद्ध बंद हो
जायें; क्योंकि
युद्ध में
पुरुषों का
पागलपन काफी निकल
जाता है, बड़ी
मात्रा में
निकल जाता है।
अगर युद्ध
बिलकुल बंद हो
जाएं सौ साल
के लिए, तो
डर है कि
पुरुषों में
से नब्बे
प्रतिशत पुरुष
पागल हो
जायेंगे।
पुरुष
स्त्रियों से
ज्यादा
आत्मघात करते
हैं—दो गुना।
आमतौर से
तुम्हारी
धारणा और होगी।
तुम सोचते
होओगे, स्त्रियां
ज्यादा
आत्मघात करती
हैं। बातें
करती हैं
स्त्रियां, करतीं नहीं
आत्मघात। ऐसे
गोली वगैरह
खाकर लेट जाती
हैं, मगर
गोली भी हिसाब
से खाती हैं।
तो स्त्रिया
प्रयास
ज्यादा करती
हैं आत्मघात
का, लेकिन
सफल नहीं
होतीं। उस
प्रयास में भी
हिसाब होता है।
वस्तुत:
स्त्रिया
आत्मघात करना
नहीं चाहतीं—आत्मघात
तो उनका केवल
निवेदन है
शिकायत का। वे
यह कह रही हैं
कि ऐसा जीवन
जीने योग्य
नहीं; कुछ
और जीवन चाहिए
था। वे तो
सिर्फ
तुम्हें खबर
दे रही हैं कि
तुम इतने वज्र—हृदय
हो गये हो कि
जब तक हम मरने
को तैयार न
हों शायद तुम
हमारी तरफ
ध्यान ही न
दोगे। वे
सिर्फ
तुम्हारा
ध्यान
आकर्षित कर
रही हैं।
यह
बड़ी अशोभन बात
है कि ध्यान
आकर्षित करने
के लिए मरने
का उपाय करना
पड़ता है। आदमी
जरूर खूब कठोर
हो गया होगा, पथरीला
हो गया होगा।
स्त्रियां
मरना नहीं
चाहतीं, जीना
चाहती हैं।
जीने के मार्ग
पर जब इतनी
अड़चन पाती हैं—कोई
सुनने वाला नहीं,
कोई ध्यान
देने वाला
नहीं—तब सिर्फ
तुम ध्यान दे
सको, इसलिए
मरने का उपाय
करती है।
लेकिन
पुरुष जब
आत्महत्या
करते हैं तो
सफल हो जाते
हैं। पुरुष
पागलपन में
आत्महत्या
करते हैं।
ज्यादा पुरुष
मानसिक रूप से
रुग्ण होते
हैं। कारण
क्या होगा? बहुत
कारण हैं। मगर
एक कारण उनमें
आंसू भी हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, पुरुषों
को फिर से
रोना सीखना
होगा। यह बल
नहीं है, जिसको
तुम बल कह रहे
हो—यह बड़ी
कठोरता है। बल
इतना कठोर
नहीं होता; बल तो कोमल
का है।
तुमने
देखा पहाड़ से
झरना गिरता है, जलप्रपात
गिरता है—कोमल
जल! चट्टानें बड़ी
सख्त!
चट्टानें
जरूर सोचती
होंगी, हम
मजबूत हैं, यह जलधार
कमजोर है।
लेकिन अंततः
जलधार जीत
जाती है, चट्टान
रेत होकर बह
जाती है।
परमात्मा
कोमल के साथ
है। निर्बल के
बल राम!
एक
फूल खिला है।
पास में पड़ी
है एक चट्टान।
चट्टान जरूर
दिखती है
मजबूत; फूल
कमजोर। लेकिन
तुमने कभी फूल
की शक्ति देखी—जीवन
की शक्ति! कौन
चट्टान को सिर
झुकाता है।
तुम पत्थर को
लेकर तो भगवान
के चरणों में
चढ़ाने नहीं
जाते। तुम
चट्टान, सोचकर
कि बड़ी मजबूत
है चलो अपनी
प्रेयसी को भेंट
कर दें, ऐसा
तो नहीं करते।
फूल तोड़कर ले
जाते हो। फूल
का बल है! फूल
की गरिमा है!
उसकी कोमलता
उसका बल है।
उसका खिलाव
उसका बल है।
उसका संगीत
उसकी सुगंध
उसका बल है।
उसकी
निर्बलता में
उसका बल है।
सुबह खिला है,
सांझ मुरझा
जायेगा—यही
उसका बल है।
लेकिन खिला है।
चट्टान कभी
नहीं खिलती—बस
है। चट्टान
मुर्दा है।
फूल जीवंत है,
मरेगा, क्योंकि
जीया है।
चट्टान कभी
नहीं मरती, क्योंकि मरी
ही है।
कोमल
बनो! आंसुओ को
फिर से
पुकारो!
तुम्हारी आंखों
को गीत
और कविता से
भरने दो।
अन्यथा तुम
वंचित रहोगे
बहुत—सी बातों
से। फिर
तुम्हारा
परमात्मा भी
एक तर्कजाल
रहेगा, हृदय
की अनुभूति
नहीं, एक
सिद्धात—मात्र
रहेगा, एक
सत्य का स्वाद
और सत्य की
प्रतीति नहीं।
जो
आंसू बहाकर
रोये, वे
सौभाग्यशाली
हैं, वे
बलशाली हैं।
उन्होंने
फिक्र न की कि
तुम क्या
कहोगे। उनको
भी फिक्र तो
लगती है कि
लोग क्या
कहेंगे। जब
कोई आदमी जार—जार
रोने लगता है
तो उसे भी
फिक्र लगती है
कि लोग क्या
कहेंगे। बल
चाहिए रोने को
कि फिक्र छोड़े
कि लोग क्या कहेंगे।
कहने दो।
होंगे बदनाम
तो हो लेने दो!
हमको जी खोलकर
रो लेने दो!
जब
कोई आदमी रोता
है,
छोटे बच्चे
की तरह
बिसूरता है, तो थोड़ा
सोचो उसका बल!
तुम सबकी
फिक्र नहीं की
उसने। उसने यह
फिक्र नहीं की
कि लोग क्या
कहेंगे कि मैं
यूनिवर्सिटी
में प्रोफेसर
हूं और रो रहा
हूं कोई विद्यार्थी
देख ले! कि मैं
इतना बड़ा
दुकानदार और
रो रहा हूं
कोई ग्राहक
देख ले! कि मैं
इतना बलशाली
पति और रो रहा
हूं और पत्नी
पास बैठी है, घर जाकर
झंझट खड़ी होगी।
कि मैं बाप
हूं और रो रहा
हूं और बेटा
देख ले! छोटे
बच्चे देख
लें! सम्हाल
लो अपने को।
अहंकार
सम्हाले रखता
है। यह
निरहंकार
रोया। अहंकार
अपने को सदा
नियंत्रण में
रखता है।
निरहंकार
बहता है, उसमें
बहाव है।
जे
सुलगे ते बुझि
गये,
बुझे ते
सुलगे नाहिं।
रहिमन
दाहे प्रेम के, बुझि
बुझि के
सुलगाहिं।।
अंगारे
जलते हैं—जे
सुलगे ते बुझि
गये—लेकिन एक
घड़ी आती है, बुझ
जाते हैं, फिर
तुम दुबारा
उन्हें नहीं
जला सकते। राख
को किसी ने
कभी दुबारा
अंगारा बनाने
में सफलता
पायी?
जे
सुलगे ते बुझि
गये,
बुझे ते
सुलगे नाहिं।
फिर
एक दफे बुझकर
वे कभी नहीं
सुलगते।
रहिमन दाहे
प्रेम के—लेकिन
जिनके हृदय
में प्रेम का
तीर लगा, उनका
क्या कहना
रहीम!
रहिमन
दाहे प्रेम के, बुझि—बुझि
के सुलगाहिं।
बार—बार
जलते हैं! बार—बार
बुझते हैं!
फिर—फिर सुलग
जाते हैं।
प्रेम
की अग्नि
शाश्वत है, सनातन
है।
जिन्होंने
मुझे प्रेम से
सुना, वे रो
पायेंगे।
जिन्होंने
मुझे सिर्फ
बुद्धि से
सुना वे कुछ निष्कर्ष,
ज्ञान लेकर
जायेंगे। वे
राख लेकर
जायेंगे—प्रेम
का अंगारा
नहीं। वे ऐसी
राख लेकर
जायेंगे जो
फिर कभी नहीं
सुलगेगी। याद
रखना! वह बुझ
गयी! वह तो
मैंने तुमसे
जब कही तब ही
बुझ गयी। अगर
तुमने बुद्धि
में ली तो राख,
अगर तुमने
हृदय में ले
ली तो अंगारा।
इसलिए
प्रेम का
अंगारा जिनके
भीतर पैदा हो
जायेगा, वह तो
फिर जलेगा, फिर बुझेगा,
फिर जलेगा।
वह तो तुम्हें
खूब तड़फायेगा।
वह तो तुम्हें
निखारेगा। वह
तो तुम्हारे
जीवन में सारा
रूपांतरण ले
आयेगा। दिल
खोलकर अगर तुम
रो सके तो
अंगारा हृदय
में पहुंच गया,
इसकी खबर थी।
अगर न रो सके
तो बुद्धि तक
पहुंचा। थोड़ी
राख इकट्ठी हो
जायेगी। तुम
थोड़े जानकार
हो जाओगे। तुम
दूसरों को
समझाने में
थोड़े कुशल हो
जाओगे। वाद—विवाद,
तर्क करने
में तुम थोड़े
निपुण हो
जाओगे। बाकी मूल
बात चूक गयी।
जहां से
अंगारा ला
सकते थे, वहां
से सिर्फ राख
लेकर लौट आये।
फिर तुम उस
राख को चाहे
विभूति कहो, कुछ फर्क
नहीं पड़ता।
राख राख है।
लगी
आग,
उठे दर्द के
राग दिल से
तेरे
गम में आतशबया
हो गये हम।
खिरद
की बदौलत रहे
रास्ते में
गुबारे—पसे—कारवा
हो गये हम।
लगी
आग,
उठे दर्द के
राग दिल से—वे आंसू
आग लग जाने के आंसू
थे।
जब
किसी को रोते
देखो, उसके
पास बैठ जाना!
वह घड़ी सत्संग
की है, वह
घड़ी छोड़ने
जैसी नहीं।
तुम नहीं रो
पा रहे तो कम
से कम रोते
हुए व्यक्ति
के पास बैठ
जाना। उसका
हाथ हाथ में
ले लेना, शायद
बीमारी
तुम्हें भी लग
जाये।
लगी
आग,
उठे दर्द के
राग दिल से
आग
लग जाये! ये
गैरिक वस्त्र
आग के प्रतीक
है—ये प्रेम
की आग के
प्रतीक हैं।
तेरे
गम में आतशबयां
हो गये हम।
और
जब तुम्हारे
भीतर हृदय में
पीड़ा उठेगी, विरह
का भाव उठेगा,
तुम्हारी
श्वास—श्वास
में जब अग्नि
प्रगट होने
लगेगी, आतशबया...!
तेरे
गम में आतशबया
हो गए हम।
खिरद
की बदौलत रहे
रास्ते में,
बुद्धि
की बदौलत तो
रास्ते में
भटकते रहे!
खिरद
की बदौलत रहे
रास्ते में
गुबारे—पसे—कारवा
हो गये हम।
और
बुद्धि के
कारण धीरे —
धीरे हमारी
हालत ऐसी हो
गयी,
जैसे कारवां
गुजरता है, उसके पीछे
धूल उड़ती रहती
है। हम धूल हो
गए।
धूल
के अतिरिक्त
बुद्धि के हाथ
में कभी कुछ
लगा नहीं है।
खिरद
की बदौलत रहे
रास्ते में,
गुबारे—पसे—कारवा
हो गये हम।
जो
दिल अपना रोशन
हुआ
कृष्णमोहन
हदें
मिट गयीं बेकस
हो गए हम।
जो
दिल अपना रोशन
हुआ कृष्णमोहन—अगर
प्रेम में पड़
जाये चोट, हृदय
पर लग जाये
चोट, खिल
जाये वहां आग
का अंगारा.....
जो
दिल अपना रोशन
हुआ
कृष्णमोहन
हदें
मिट गयीं
बेकरा हो गए
हम।
उस
घड़ी फिर
सीमाएं टूट
जाती हैं—असीम
हो जाते हैं। आंसू
असीम की तरफ
तुम्हारा
पहला कदम है। आंसू
इस बात की खबर
है कि तुम
पिघले, तुम्हारी
सख्त सीमाएं
थोड़ी पिघली, तुम थोड़े
नरम हुए, तुम
थोड़े गरम हुए,
तुमने ठंडी
बुद्धि थोड़ी
छोड़ी, थोड़ी
आग जली, थोड़ा
ताप पैदा हुआ!
ये आंसू ठंडे
नहीं हैं। ये आंसू
बड़े गर्म हैं।
और ये आंसू
तुम्हारे
पिघलने की खबर
लाते हैं।
जैसे बरफ
पिघलती है, ऐसे जब
तुम्हारे
भीतर की
अस्मिता
पिघलने लगती
है तो आंसू
बहते हैं।
कतीले—हवस
थे तो आतशनफस
थे
मुहब्बत
हुई,
बेजुबां हो
गये हम।
जब
बुद्धि से भरे
थे,
वासनाओं से
भरे थे, विचारों
से भरे थे तो
लाख बातें कीं,
जबान बड़ी
तेज थी।
कतीले—हवस
थे तो आतशनफस
थे
मुहब्बत
हुई,
बेजुबां हो
गये हम।
वे
आंसू बेजुबान
अवस्था की
सूचनाएं हैं।
जब कुछ ऐसी
घटना घटती है
कि कहने का
उपाय नहीं रह
जाता तो न रोओ
तो क्या करो? जब
जबान कहने में
असमर्थ हो
जाये तो आंखें
आंसुओ से कहती
हैं। जब
बुद्धि कहने
में असमर्थ हो
जाये तो कोई
नाचकर कहता है।
मीरा नाची।
कुछ ऐसा हुआ
कि कहने को
शब्द ने मिले।
पद घुंघरू बाध
मीरा नाची ३!
रोई! जार—जार
रोयी! कुछ ऐसा
हो गया कि
शब्दों में
कहना संभव न
रहा, शब्द
बड़े संकीर्ण
मालूम हुए। आंसू
ही कह सकते थे—आंसुओ
से ही कहा।
नहीं, इस
तरह के भाव मन
में मत लेना कि
वे लोग कमजोर
हैं। वे लोग
शक्तिशाली
हैं। उनकी
शक्ति कोमलता
की है। उनकी
शक्ति संघर्ष
की और हिंसा
की नहीं है, उनकी शक्ति
हार्दिकता की
है। क्योंकि
अगर तुमने
सोचा कि ये
लोग कमजोर हैं
तो फिर तुम
कभी भी न
रोओगे। इसलिए
तुमसे बार—बार
जोर देकर कह
रहा हूं,
उनको कमजोर मत
समझना। उनसे
ईर्ष्या करो।
बार—बार सोचो
कि क्या हुआ
किए मैं नहीं
रो पा रहा हूं।
भाव
से भरा
व्यक्ति
स्वयं के
केंद्र के
सर्वाधिक
निकट है। और
जितना ही भाव
से भरा
व्यक्ति
स्वयं के निकट
होता है उतनी
ही ज्यादा
पीड़ा को अनुभव
करता है। तुम
जितने घर से ज्यादा
दूर हो उतने
ही घर को
भूलने की
सुगमता है; जैसे—जैसे
घर करीब आने
लगता है वैसे—वैसे
घर की याद भी
आने लगती है।
तुम परमात्मा
को भूलकर बैठे
हो। परमात्मा
शब्द
तुम्हारे
कानों में
पड़ता है, लेकिन
कोई हलचल नहीं
होती है। सुन
लेते हो, एक
शब्द मात्र है।
परमात्मा
शब्द मात्र
नहीं है। उसे
सुन लेने भर
की बात नहीं
है। जिसके
भीतर कुछ थोड़ी—सी
अभी भी जीवन
की आग है उसे 'परमात्मा'
झकझोर देगा—शब्द
मात्र झकझोर
देगा।
चाहते
हो अगर मुझे
दिल से
फिर
भला किसलिए
रुलाते हो?
भक्त
सदा परमात्मा
से कहते रहे
हैं—
चाहते
हो अगर मुझे
दिल से
फिर
भला किसलिए
रुलाते हो?
रोशनी
के घने
अंधेरों में
क्यों
नजर से नजर
चुराते हो?
पास
आये न पास आकर
भी
पास
मुझको नहीं
बुलाते हो?
किसलिए
आसपास रहते हो?
किसलिए
आसपास आते हो?
अगर
तुमने मुझे
ठीक से सुना
तो तुम्हें
परमात्मा
बहुत बार, बहुत
पास मालूम
पड़ेगा।
किसलिए
आसपास रहते हो?
किसलिए
आसपास आते हो?
पास
आये न पास आकर
भी
पास
मुझको नहीं
बुलाते हो?
चाहते
हो अगर मुझे
दिल से
फिर
भला किसलिए
रुलाते हो?
रोशनी
के घने
अंधेरों में
क्यों
नजर से नजर
चुराते हो?
जो
व्यक्ति भाव
में उतर रहा
है वह बिलकुल
इतने करीब है
परमात्मा के
कि परमात्मा
की आंच उसे
अनुभव होने
लगती है; नजर
में नजर पड़ने
लगती है; सीमाएं
एक—दूसरे के
ऊपर उतरने
लगती हैं; एक—दूसरे
की सीमा में
अतिक्रमण
होने लगता है।
यहां
जो कहा जा रहा
है,
वह सिर्फ
कहने को नहीं
है; वह
तुम्हें
रूपांतरित
करने को है।
वह सिर्फ बात
की बात नहीं
है, वह
तुम्हें
संपूर्ण रूप
से, जड़—मूल
से बदल देने
की बात है।
तीसरा
प्रश्न :
धर्म
+ धारणा या
धारणा + धर्म
से संस्कृति
का निर्माण
होता है। और
संस्कृति से
समाज और उसकी
परंपराएं
बनती हैं।
पूज्यपाद ने
बताया कि धर्म
सबके खिलाफ है।
अगर धर्म सभी
के विरोध में
रहेगा तो किसी
प्रकार की
अराजकता होना
असंभव है क्या?
हमें
समझाने की
कृपा करें!
धर्म
से जो तुम
अर्थ समझ रहे
हो धारणा का, वैसा
अर्थ नहीं है।
धारणा, कनसेप्ट
धर्म नहीं है।
धर्म शब्द बना
है जिस धातु
से, उसका
अर्थ है :
जिसने सबको
धारण किया है;
जो सबका
धारक है; जिसने
सबको धारा है।
धारणा नहीं—जिसने
सबको धारण
किया है।
यह
जो विराट, ये
जो चांद—तारे,
यह जो सूरज,
ये जो वृक्ष
और पक्षी और
मनुष्य, और
अनंत— अनंत तक
फैला हुआ
अस्तित्व है—इसको
जो धारे हुए
है, वही
धर्म है।
धर्म
का कोई संबंध
धारणा से नहीं
है। तुम्हारी
धारणा हिंदू
की है, किसी की
मुसलमान की है,
किसी की
ईसाई की है—इससे
धर्म का कोई
संबंध नहीं।
ये धारणाएं
हैं, ये
बुद्धि की
धारणाएं हैं।
धर्म तो उस
मौलिक सत्य का
नाम है, जिसने
सबको सम्हाला
है; जिसके
बिना सब बिखर
जायेगा; जो
सबको जोड़े हुए
है; जो
सबकी समग्रता
है; जो
सबका सेतु है—वही!
जैसे
हम फूल की
माला बनाते
हैं। ऐसे फूल
का ढेर लगा हो
और फूल की
माला रखी हो—फर्क
क्या है? ढेर
अराजक है।
उसमें कोई एक
फूल का दूसरे
फूल से संबंध
नहीं है, सब
फूल असंबंधित
हैं। माला में
एक धागा
पिरोया। वह
धागा दिखायी
नहीं पड़ता; वह फूलों
में छिपा है।
लेकिन एक फूल
दूसरे फूल से
जुड़ गया।
इस
सारे
अस्तित्व में
जो धागे की
तरह पिरोया हुआ
है,
उसका नाम
धर्म है। जो
हमें वृक्षों
से जोड़े है, चांद—तारों
से जोड़े है, जो कंकड़—पत्थरों
को सूरज से
जोड़े है, जो
सबको जोड़े है,
जो सबका जोड़
है—वही धर्म
है।
धर्म
से संस्कृति
का निर्माण
नहीं होता।
संस्कृति तो
संस्कार से
बनती है। धर्म
तो तब पता
चलता है जब हम
सारे
संस्कारों का
त्याग कर देते
हैं।
संन्यास
का अर्थ है :
संस्कार—त्याग।
हिंदू
की संस्कृति
अलग है, मुसलमान
की संस्कृति
अलग है, बौद्ध
की संस्कृति
अलग है, जैन
की संस्कृति
अलग है। दुनियां
में हजारों
संस्कृतियां
हैं, क्योंकि
हजारों ढंग के
संस्कार हैं।
कोई पूरब की
तरफ बैठकर
प्रार्थना
करता है, कोई
पश्चिम की तरफ
मुंह करके
प्रार्थना
करता है—यह
संस्कार है।
कोई ऐसे कपड़े
पहनता, कोई
वैसे कपड़े
पहनता; कोई
इस तरह का
खाना खाता, कोई उस तरह
का खाना खाता—ये
सब संस्कार
हैं।
दुनियां
में
संस्कृतियां
तो रहेंगी—रहनी
चाहिए।
क्योंकि
जितनी
विविधता हो
उतनी दुनियां
सुंदर है। मैं
नहीं चाहूंगा
कि दुनियां
में बस एक
संस्कृति हो—बडी
बेहूदी, बेरौनक,
उबाने वाली
होगी। दुनियां
में हिंदुओं
की संस्कृति
होनी चाहिए
मुसलमानों की,
ईसाइयों की,
बौद्धों की,
जैनों की, चीनियों की,
रूसियों की—हजारो
संस्कृतियां
होनी चाहिए।
क्योंकि
वैविध्य जीवन
को सुंदर
बनाता है।
बगीचे में
बहुत तरह के
फूल होने
चाहिए। एक ही
तरह के फूल
बगीचे को ऊब
से भर देंगे।
संस्कृतियां
तो अनेक होनी
चाहिए—अनेक
हैं,
अनेक
रहेंगी।
लेकिन धर्म एक
होना चाहिए, क्योंकि
धर्म एक है।
और कोई उपाय
नहीं है।
तो
मैं हिंदू को
संस्कृति
कहता हूं
मुसलमान को
संस्कृति
कहता हूं धर्म
नहीं कहता।
ठीक है।
संस्कृतियां
तो सुंदर हैं।
बनाओ अलग ढंग
की मस्जिद, अलग
ढंग के मंदिर।
मंदिर सुंदर
हैं, मस्जिदें
सुंदर हैं।
मैं नहीं
चाहूंगा कि दुनियां
में सिर्फ
मंदिर रह
जायें और
मस्जिदें मिट
जायें—बड़ा
सौंदर्य कम हो
जायेगा। मैं
नहीं चाहूंगा
कि दुनियां
में संस्कृत
ही रह जाये, अरबी मिट
जाये—बड़ा
सौंदर्य कम हो
जायेगा। मैं
नहीं चाहूंगा
कि दुनियां
में सिर्फ
कुरान रह जाये,
वेद मिट
जायें, गीता—उपनिषद
मिट जायें—दुनियां
बड़ी गरीब हो
जायेगी।
कुरान
सुंदर है; साहित्य
की अनूठी कृति
है, काव्य
की बड़ी गहन
ऊंचाई है—लेकिन
धर्म से कुछ
लेना—देना
नहीं। वेद
प्रिय हैं; अनूठे उदघोष
हैं; पृथ्वी
की
आकांक्षाएं
हैं आकाश को
छू लेने की।
उपनिषद अति
मधुर हैं।
उनसे ज्यादा
मधुर वक्तव्य
कभी भी नहीं
दिए गये। वे
नहीं खोने
चाहिए। वे सब
रहने चाहिए—पर
संस्कृति की
तरह।
धर्म
तो एक है।
धर्म तो वह है
जिसने हम सबको
धारण किया—हिंदू
को भी, मुसलमान
को भी, ईसाई
को भी। धर्म
तो वह है
जिसने पशुओं
को, मनुष्यों
को, पौधों
को, सबको
धारण किया है;
जो पौधों
में हरे धार
की तरह बह रहा
है; जो
मनुष्यों में
रक्त की धार
की तरह बह रहा
है; जो
तुम्हारे
भीतर श्वास की
तरह चल रहा है;
जो
तुम्हारे
भीतर साक्षी
की तरह मौजूद
है। धर्म ने
तो सबको धारण
किया है।
इसलिए
धर्म को
संस्कृति का
पर्याय मत
समझना। धर्म
से संस्कृति
का कोई लेना—देना
नहीं। इसलिए
तो रूस की
संस्कृति हो
सकती है; वहां
कोई धर्म नहीं
है। चीन की
संस्कृति है;
वहां अब कोई
धर्म नहीं है।
नास्तिक की
संस्कृति हो
सकती है, आस्तिक
की हो सकती है।
धर्म से
संस्कृति का
कोई लेना—देना
नहीं है। धर्म
तो तुम्हारे
रहने—सहने से
कुछ वास्ता
नहीं रखता, धर्म तो
तुम्हारे
होने से
वास्ता रखता
है। धर्म तो
तुम्हारा
शुद्ध स्वरूप
है, स्वभाव
है। संस्कृति
तो तुम्हारे
बाहर के आवरण
में, आचरण
में, व्यवहार
में, इन सब
चीजों से
संबंध रखती है—कैसे
उठना, कैसे
बोलना, क्या
कहना, क्या
नहीं कहना..।
धर्म
से कोई परंपरा
नहीं बनती।
धर्म परंपरा
नहीं है। धर्म
तो सनातन, शाश्वत
सत्य है।
परंपराएं तो
आदमी बनाता है—धर्म
तो है।
परंपराएं
आदमी से
निर्मित हैं,
आदमी के
द्वारा बनायी
गयी हैं। धर्म,
आदमी से
पूर्व है।
धर्म के
द्वारा आदमी
बनाया गया है।
इस फर्क को
खयाल में ले
लेना।
इसलिए
परंपरा को भूल
कर भी धर्म मत
समझना और धार्मिक
व्यक्ति कभी
पारंपरिक
नहीं होता, ट्रेडीशनल
नहीं होता।
इसलिए तो जीसस
को सूली देनी
पड़ी, मैसूर
को मार डालना
पड़ा, सुकरात
को जहर देना
पड़ा—क्योंकि
धार्मिक
व्यक्ति कभी
भी परंपरागत नहीं
होता।
धार्मिक
व्यक्ति तो एक
महाक्रांति
है। वह तो बार—बार
सनातन और
शाश्वत का
उदघोष है। जब
भी सनातन और
शाश्वत का कोई
उदघोष करता है
तो परंपरा से
बंधे, लकीर
के फकीर बहुत
घबड़ा जाते हैं।
उनको बहुत
बेचैनी होने
लगती है। वे
कहते हैं, इससे
तो अराजकता हो
जाएगी।
अराजकता
अभी है। जिसको
तुम कहते हो
व्यवस्था, राजकता,
वह क्या खाक
व्यवस्था है?
सारा जीवन
कलह से भरा है।
सारा जीवन न—मालूम
कितने
अपराधों से
भरा है। और
सारा जीवन दुख
से भरा है।
फिर भी तुम
घबड़ाते हो, अराजकता हो
जाएगी।
तुम्हारे
जीवन में क्या
है सिवाय नर्क
के?
कौन—से सुख
की सुरभि है? कौन—से आनंद
के फूल खिलते
हैं? कौन—सी
बांसुरी बजती
है तुम्हारे
जीवन में? राख
ही राख का ढेर
है! फिर भी
कहते हो, अराजकता
हो जायेगी।
धार्मिक
व्यक्ति
विद्रोही तो
होता है, अराजक
नहीं। इसे
समझना।
धार्मिक
व्यक्ति ही
वस्तुत: राजक
व्यक्ति होता
है,
क्योंकि
उसने संबंध
जोड़ लिया अनंत
से। उसने जीवन
के परम मूल से
संबंध जोड़
लिया, अराजक
तो वह कैसे
होगा? ही, तुमसे संबंध
टूट गया, तुम्हारे
ढांचे, व्यवस्था
से वह थोड़ा
बाहर हो गया।
उसने परम से
नाता जोड़ लिया।
उसने उधार से
नाता तोड़ दिया,
उसने नगद से
नाता जोड़ लिया।
उसने बासे से
नाता तोड़ दिया,
उसने ताजे
से, नित—नूतन
से, नित—नवीन
से नाता जोड़
लिया।.
तुम्हारी
संस्कृति और
सभ्यता तो
प्लास्टिक के
फलों जैसी है।
धार्मिक
व्यक्ति का
जीवन
वास्तविक
फूलो जैसा है।
प्लास्टिक के
फूल फूल जैसे
दिखीई पड़ते
हैं,
वस्तुत: फूल
नहीं हैं; मालूम
होते हैं; बस
हैं; हैं।
तुम
अगर इसलिए सत्य
बोलते हो क्योंकि
तुम्हें संस्कार
डाल दिया गया
है सत्य बोलने
का,
तो
तुम्हारा
सत्य दो कौड़ी
का है। तुम
अगर इसलिए
मांसाहार
नहीं करते
क्योंकि तुम
जैन घर में
पैदा हुए और
संस्कार डाल
दिया गया कि
मांसाहार पाप
है, इतना
लंबा संस्कार
डाला गया कि
आज मांस को
देखकर ही
तुम्हें मतली
आने लगती है, तो तुम यह मत
सोचना कि तुम
धार्मिक हो गए।
यह केवल
संस्कार है।
यह व्यक्ति जो
जैन घर में
पैदा हुआ है
और मांसाहार
से घबड़ाता है,
इसे देखकर
मतली आती है, देखने की तो
बात, 'मांसाहार'
शब्द से इसे
घबड़ाहट होती
है, मांसाहार
से मिलती—जुलती
कोई चीज देख
ले तो इसको
मतली आ जाती
है, टमाटर
देखकर यह
घबड़ाता है—यह
सिर्फ
संस्कार है।
अगर यह व्यक्ति
किसी
मांसाहारी घर
में पैदा हुआ
होता तो बराबर
मांसाहार
करता; क्योंकि
वहां मासाहार
का संस्कार
होता, यहां
मांसाहार का
संस्कार नहीं
है।
संस्कार, कंडीशनिंग
तो तुम्हारा
बंधन है। मैं
तुमसे यह नहीं
कह रहा कि मांसाहार
करने लगो। मैं
तुमसे कह रहा
हूं तुम्हारे
भीतर वैसा आविर्भाव
चैतन्य का, जैसा महावीर
के भीतर हुआ!
वह संस्कार
नहीं था। वह
उनका अपना
अनुभव था कि
किसी को दुख
देना अंतत
अपने को ही
दुख देना है; क्योंकि हम
सब एक हैं, जुड़े
हैं। यह ऐसे
ही है जैसे
कोई अपने ही
गाल पर चांटा
मार ले! देर—अबेर
जो हमने दूसरे
के साथ किया
है, वह हम
पर ही लौट
आयेगा।
महावीर को यह
प्रतीति इतनी
गहरी हो गयी, यह बोध इतना
साकार हो गया
कि उन्होंने
दूसरे को दुख
देना बंद कर
दिया।
मांसाहार
छूटा, इसलिए
नहीं कि बचपन
से उन्हें
सिखाया गया कि
मांसाहार पाप
है; मांसाहार
छूटा उनके
साक्षी—भाव में।
यह धर्म है।
तुम
अगर जैन घर
में पैदा हुए
और मांसाहार
नहीं करते, यह
सिर्फ
संस्कार है।
यह प्लास्टिक
का फूल है, असली
फूल नहीं। यह
जैन को तुम
भेज दो अमरीका,
यह दो—चार
साल में
मांसाहार
करने लगता है।
चारों तरफ
मांसाहार
देखता है, पहले
घबड़ाता है, पहले नाक—भौं
सिकोड़ता है, फिर धीरे—धीरे
अभ्यस्त होता
चला जाता है।
फिर उसी टेबल
पर दूसरों को
मांसाहार
करते—करते
देखकर धीरे—धीरे
इसकी नाक, इसके
नासारंध्र
मांस की गंध
से राजी होने
लगते हैं। फिर
दूसरी
संस्कृति का
प्रभाव! वहां
हरेक व्यक्ति
का कहना कि बिना
मांसाहार के
कमजोर हो
जाओगे। देखो
ओलंपिक में
तुम्हारी
क्या गति होती
है बिना
मांसाहार के!
एक स्वर्णपदक
भी नहीं ला
पाते।
स्वर्णपदक तो
दूर, तांबे
का पदक भी
नहीं मिलता।
तुम अपनी हालत
तो देखो! हजार
साल तक गुलाम
रहे, बल
क्या है
तुममें? तुम्हारी
औसत उम्र कितनी
है? कितनी
हजारों
बीमारियां
तुम्हें पकड़े
हुए हैं!
निश्चित
ही मांसाहारी
मुल्कों की
उम्र अस्सी
साल के ऊपर
पहुंच गयी है—औसत
उम्र, अस्सी—
पचासी। जल्दी
ही सौ साल औसत
उम्र हो
जायेगी। यहां
तीस—पैंतीस के
आसपास हम अटके
हुए हैं।
कितनी नोबल
प्राइज
तुम्हें
मिलती हैं? अगर शुद्ध
शाकाहार
बुद्धि को
शुद्ध करता है
तो सब नोबल
प्राइज
तुम्हीं को
मिल जानी
चाहिए थीं।
बुद्धि तो कुछ
बढ़ती विकसित
होती दिखती
नहीं। और जिन
रवींद्रनाथ
को मिली भी
नोबल—प्राइज
वे शाकाहारी
नहीं हैं, खयाल
रखना! एकाध
जैन को नोबल
प्राइज मिली?
क्या, मामला
क्या है? तुम
दो हजार साल
से शाकाहारी
हो, दो
हजार साल में
तुम्हारी
बुद्धि अभी तक
शुद्ध नहीं हो
पायी?
तो
मांसाहारी के
पास दलीलें
हैं। वह कहता
है,
'तुम्हारी
बुद्धि कमजोर
हो जाती है, क्योंकि ठीक—ठीक
प्रोटीन, ठीक—ठीक
विटामिन, ठीक—ठीक
शक्ति
तुम्हें नहीं
मिलती।
तुम्हारी देह
कमजोर हो जाती
है। तुम्हारी
उम्र कम हो
जाती है।
तुम्हारा बल
कम हो जाता है।’
अमरीका
में तुम रोज
देखते हो, खबरें
सुनते हो
अखबार में कि
किसी नब्बे
साल के आदमी
ने शादी की!
तुम हैरान
होते हो। तुम
कहते हो, यह
मामला क्या
पागलपन का है!
लेकिन नब्बे
साल का आदमी
भी शादी कर
लेता है, क्योंकि
अभी भी
कामवासना में
समर्थ है। यह
बल का सबूत है।
नब्बे साल के
आदमी का भी
बच्चा पैदा हो
जाता है। यह
बल का सबूत है।
तो
जैसे ही कोई
जाकर पश्चिम
की संस्कृति
में रहता है, वहां
ये सब दलीलें
सुनता है और
प्रमाण देखता
है और उनकी विराट
संस्कृति का
वैभव देखता है।
धीरे—धीरे भूल
जाता है..।
महावीर
को अगर पश्चिम
जाना पड़ता तो
वह मांसाहार
नहीं करते। वह
फूल
स्वाभाविक था।
वे कहते, ठीक!
दों—चार—दस
साल कम जीयेगे,
इससे हर्ज
क्या! ज्यादा
जीने का फायदा
क्या है? ज्यादा
जीकर तुम
करोगे क्या? और थोड़े
जानवरों को खा
जाओगे, और
क्या करोगे!
महावीर से अगर
किसी ने कहा
होता तो वे
कहते, जरा
लौटकर तो देखो,
अगर तुम सौ
साल जीये और
तुमने जितने
जानवर, पशु—पक्षी
खाये, उनकी
जरा तुम कतार
रखकर तो देखो!
एक मरघट पूरा का
पूरा तुम खा
गये! एक पूरी
बस्ती की
बस्ती तुम खा गये!
हड्डियों के
ढेर तुमने लगा
दिये अपने चारों
तरफ! एक आदमी
जिंदगी में
जितना
मांसाहार करता
है—हजारों—लाखों
पशु—पक्षियों
का ढेर लग
जायेगा! अगर
जरा तुम सोचो कि
इतना तुम.
इतने प्राण
तुमने मिटाये!
किसलिए? सिर्फ
जीने के लिए? और जीना
किसलिए? और
पशुओं को
मिटाने के लिए?
अगर
महावीर से कोई
यह कहेगा कि
तुम निर्बल हो
जाते हो, तो वे
कहते, 'बल
का हम करेंगे क्या?
किसी की
हिंसा करनी है?
किसी को
मारना है? कोई
युद्ध लड़ना है?'
अगर महावीर
को कोई कहता
कि देखो तुम
एक हजार साल
गुलाम रहे, तो महावीर
कहते हैं : दो
स्थितियां
हैं, या तो
मालिक बनो
किसी के या
गुलाम।
महावीर
कहेंगे, मालिक
बनने से गुलाम
बनना बेहतर—कम
से कम तुमने
किसी को सताया
तो नहीं, सताए
गये! बेईमान
बनने से
बेईमानी झेल
लेना बेहतर—कम
से कम तुमने
किसी के साथ
बेईमानी तो न
की। चोर बनने
से चोरी का
शिकार बन जाना
बेहतर।
अगर
महावीर को कोई
कहता कि देखो
तुम्हें नोबल
प्राइज नहीं
मिलती, वे
कहते : नोबल
प्राइज का
करेंगे क्या?
ये खेल—खिलौने
हैं, बच्चों
के खेलने—कूदने
के लिए अच्छे
हैं। इनका
करेंगे क्या?
हम कुछ और
ही पुरस्कार
पाने चले हैं।
वह पुरस्कार
सिर्फ
परमात्मा से
मिलता है, और
किसी से भी
नहीं मिलता।
वह पुरस्कार
साक्षी के
आनंद का है।
वह
सच्चिदानंद
का है! नोबल
प्राइज तुम
अपनी सम्हालो।
तुम बच्चों को
दो, खेलने
दो। ये खिलौने
हैं।
इस
संसार का कोई
पुरस्कार उस
पुरस्कार का
मुकाबला नहीं
करता जो भीतर
के आनंद का है।
शरीर जाये, उम्र
जाये, धन
जाये, सब
जाये—भीतर का
रस बच जाये बस,
सब बच गया!
जिसने भीतर का
खोया, सब
खोया। जिसने
भीतर का बचा
लिया, सब
बचा लिया।
लेकिन
जैन साधारणत:
जाता है, वह
भ्रष्ट होकर आ
जाता है। कारण?
वह भ्रष्ट
था ही! भ्रष्ट
होकर आ गया, ऐसा नहीं—कागजी
फ्लू था, झूठी
बात थी, संस्कार
था।
संस्कृति
और धर्म में
अंतर समझ लेना।
धर्म
तुम्हारा
स्वानुभव है, और
संस्कृति
दूसरों के
द्वारा
सिखायी गयी बातें
हैं। लाख कोई
कितनी ही
व्यवस्था से
सिखा दे, दूसरे
की सिखायी बात
तुम्हें
मुक्त नहीं
करती, बंधन
में डालती है।
तो
जब मैं कहता
हूं धर्म
बगावत है, विद्रोह
है, तो
मेरा अर्थ है—बगावत
परंपरा से, बगावत
संस्कार से, बगावत
आध्यात्मिक
गुलामी से।
लेकिन
धार्मिक
व्यक्ति
अराजक नहीं हो
जाता।
धार्मिक
व्यक्ति अगर
अराजक हो जाता
है तो इस संसार
में फिर कौन
लाएगा
अनुशासन? धार्मिक
व्यक्ति तो
परम
अनुशासनबद्ध
हो जाता है।
लेकिन उसका
अनुशासन
दूसरे ढंग का
है। वह भीतर
से बाहर की
तरफ आता है।
वह किसी के
द्वारा
आरोपित नहीं
है। वह
स्वस्फूर्त
है। वह ऐसा है
जैसे झरना
फूटता है भीतर
की ऊर्जा से।
वह ऐसा है
जैसे नदी बहती
है जल की
ऊर्जा से; कोई
धक्के नहीं दे
रहा है।
तुम
ऐसे हो जैसे
गले में किसी
ने रस्सी
बांधी और
घसीटे जा रहे
हो,
और पीछे से
कोई कोड़े मार
रहा है तो
चलना पड़ रहा है।
संस्कार
से जीने वाला
आदमी
जबरदस्ती
घसीटा जा रहा
है,
बे—मन से
घसीटा जा रहा
है। धार्मिक
व्यक्ति
नाचता हुआ
जाता है। वह
मृत्यु की तरफ
भी जाता है तो
नाचता हुआ जाता
है। तुम जीवन
में भी घसीटे
जा रहे हो।
तुम हमेशा
अनुभव करते
रहते हो, जबरदस्ती
हो रही है।
तुम हमेशा
अनुभव करते
रहते हो, कुछ
चूक रहे हैं; दूसरे मजा
ले रहे हैं, दूसरे मजा
भोग रहे हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं : हम साधु—संत, सीधे—सादे
आदमी हैं। बड़ा
अन्याय हो रहा
है दुनियां
में! बेईमान
मजा लूट रहे
हैं। चोर—बदमाश
मजा लूट रहे
हैं।
मैं
उनसे कहता हूं
कि तुम्हें यह
खयाल ही उठता
है कि वे मजा
लूट रहे हैं, यह
बात बताती है
कि
तुम
साधु भी नहीं, संत
भी नहीं, सरल
भी नहीं। तुम
हो तो उन्हीं
जैसे लोग, सिर्फ
तुम्हारी
हिम्मत कमजोर
है। चाहते तो
तुम भी उन्हीं
जैसा मजा हो, लेकिन उस
मजे के लिए जो
कीमत चुकानी
पड़ती है वह
चुकाने में
तुम डरते हो।
हो तो तुम भी
चोर, लेकिन
चोरी करने लिए
हिम्मत चाहिए,
वह हिम्मत
तुम्हारीS खो
गयी है। चाहते
तो तुम भी हो
कि बेईमानी
करके धन का
अंबार लगा, लेकिन
बेईमानी करने '
कहीं फंस न
जाएं, पकडे
न जाएं इसलिए
तुम रुके हो।
अगर तुम्हें
पक्का
आश्वासन दे
दिया जाये कि
कोई तुम्हें
पकड़ेगा नहीं,
कोई
तुम्हें
पकड़ने वाला
नहीं है, कोई
पकड़ने का डर
नहीं है—तुम
तत्क्षण चोर
जाओगे।
धार्मिक
व्यक्ति तो
दया खाता है
उन पर जो
बेईमानी कर
रहे हैं।
क्योंकि वह
कहता है : ये
बेचारे कैसे
परम आनंद से
वंचित हो रहे
हैं! जो हमें
मिल रहा है, वह
इन्हें नहीं
मिल रहा!
धार्मिक
व्यक्ति
ईर्ष्या नहीं
करता
अधार्मिक से—दया
खाता है। मन
ही मन में
रोता है कि इन
बेचारों का
सिर्फ चांदी—सोने
के ठीकरे ही
जुटाने में सब
खो जायेगा। ये
मिट्टी के, रेत
के घर बना—बनाकर
समाप्त हो
जाएंगे। जहां
अमृत का अनुभव
सकता था, वहां
ये व्यर्थ में
ही भटक
जायेंगे। उसे
दया आती है।
ईर्ष्या का तो
सवाल ही नहीं,
क्योंकि
उसके पास कुछ
विराटतर है।
और उसी विराट
के कारण उसके
जीवन में एक
अनुशासन होता
है। उस
अनुशासन के
ऊपर कोई
अनुशासन नहीं
है।
धार्मिक
व्यक्ति
विद्रोही है, लेकिन
अनुशासनहीन
नहीं है। उसका
अनुशासन
आत्मिक है, आंतरिक है।
आत्मानुशासन
है उसका
अनुशासन।
और
जिसको तुम
राजकता कहते
हो जिसको तुम
व्यवस्था
कहते हो इस
व्यवस्था ने
दिया है? युद्ध
दिये, हिंसा
दी, पाप
दिये, घृणा,
दी, वैमनस्य
दिया। दिया
क्या है?
एक
धरती जली है
घनों के लिए
प्यार
पैदा हुआ
तड़पनों के लिए
मित्र
मांगे अगर
प्राण तो गम
नहीं
प्राण
हमने दिये
दुश्मनों के
लिए।
पापियों
ने तो हमको
बचाया सदा
पाप
हमने किए
सज्जनों के
लिए।
प्रश्न
जब भी मिले सब
मुखौटे लगा
उम्र
हमको मिली
उलझनों लिए।
भीड़
सपनों की हमने
उगायी सदा
बंजरों
के नगर
निर्जनों के
लिए।
किन
लुटेरों की दुनियां
में हम आ गए
हाथ
कटते यहां कंगनों
के लिए।
जिंदगी
ने निचोड़ा है
इतना हमें
बेच
डाले नयन
दर्शनों के
लिए।
यहां
है क्या? आंखें
तक बिक गयी
हैं—इस आशा
में कि कभी
दर्शन होंगे!
आत्मा तक बिक
गयी
है—इस आशा में
कि कभी
परमात्मा
मिलेगा! यहां
पाया क्या है? यहां
व्यवस्था है
कहा? इससे ज्यादा
और अव्यवस्था
क्या होगी? सब तरफ घृणा
है, सब तरफ
वैमनस्य है, सब तरफ
गलाघोंट
प्रतियोगिता
है, सब तरफ
ईर्ष्या है, जलन है। कोई,
किसी का
मित्र नहीं; सब शत्रु ही
शत्रु मालूम
होते हैं।
यहां मिलता तो
कुछ भी नहीं, किस बात को
तुम व्यवस्था
कहते हो?
व्यवस्था
तो तभी हो
सकती है, जब
जीवन में आनंद
हो। आनंद एक
व्यवस्था
लाता है। आनंद
के पीछे छाया
की तरह आती है
व्यवस्था।
स्मरण
रखना, दुखी
आदमी अराजक
होता है। सुखी
आदमी अराजक
नहीं हो सकता।
दुखी आदमी
अराजक हो जाता
है, उसे
मिला क्या है?
वह तोड़ने —फोड़ने
में उत्सुक हो
जाता है।
जिसके जीवन
में कुछ भी
नहीं मिला वह
नाराजगी में
तोड़ने —फोड़ने
लगता है।
जिसके जीवन
में कुछ मिला
है, वह
इतना
धन्यभागी
होता है जीवन
के प्रति कि
तोड़ेगा—फोड़ेगा
कैसे?
इस
व्यवस्था को, इस
धोखे की
व्यवस्था को
तुम व्यवस्था
मत समझ लेना।
यह
राजनीतिज्ञों
की चालबाजी है।
और जिन्हें
तुम समझते हो
कि वे
तुम्हारे
नेता हैं, जिन्हें
तुम समझते हो
तुम्हारे
राहबर हैं, वे सहजन हैं!
वही तुम्हें
लूटते हैं।
चलो
अब किसी और के
सहारे लोगो
बड़े
खुदगर्ज हो गए
थे किनारे
लोगो।
अब
तो किनारे का
भी सहारा रखना
ठीक नहीं
मालूम पड़ता।
चलो
अब किसी और के
सहारे लोगो
बड़े
खुदगर्ज हो
गये थे किनारे
लोगो।
सहारा
समझ कर खड़े हो
साये में
जिनके
ढह
पड़ेगी अचानक वे
दीवारें लोगो।
जरूर
कछ करीश्मा
हुआ है आज
खंडहर
सेँ ही आ रही
है झंकारें
लोगो।
उम्मीद
की हदें टूटी
तो ताज्जुब नहीं
म्यान
से बाहर हैं
तलवारें लोगो।
क्या
गुजरेगी
सफीने पे, खबर
नहीं
अंधड़
मिल गयी हैं
पतवारें लोगो।
क्या
गुसजरेगी
सफीने पे खबर
नहीं
अंधड़
मिल गयी हैं
पतवारें लोगो।
हजारों
बेबस आहें दफन
हैं यहां
महज
पत्थरों के
ढेर नहीं हैं
ये मजारें
लोगो।
यहां
अंधड़ से मिल
गयी हैं
पतवारें! यहां
जिन्हें तुम
समझते हो
तुम्हारे
सहारे हैं, वे
तुम्हारे
शोषक हैं। और
जिन्हें तुम
समझते हो कि
व्यवस्थापक
हैं, वे
केवल तुम्हारी
छाती पर सवार
हैं।
तुमने
कभी खयाल किया, जो
भी आदमी पद पर
होता है वह
व्यवस्था की
बात करने लगता
है! और आदमी पद
के बाहर होता
है राजनीति
में, वह
बगावत की बात
करने लगता है।
पद के बाहर
होते ही से
बगावत की बात!
तब सब गलत है, सब बदला
जाना चाहिए।
और पद पर होते
से ही
व्यवस्था
की बात! सब ठीक
है;
बदलाहट
खतरनाक है; अनुशासन—पर्व
की जरूरत है।
यह
सारी दुनियां
में सदा से
ऐसा होता रहा
है।
राजनीतिज्ञ
को सिर्फ पद
का मोह है; न
व्यवस्था से
मतलब है, न
अव्यवस्था से।
ही, जब वह
व्यवस्था का
मालिक नहीं
होता, जब
खुद के हाथ
में ताकत नहीं
होती, तब
वह कहता है, सब गलत है।
तब क्रांति की
जरूरत है।
और
जैसे ही वह पद
पर आता है, फिर
क्रांति की
बिलकुल जरूरत
नहीं।
क्योंकि क्रांति
का काम पूरा
हो गया। वह
काम इतना था—उसको
पद पर लाना—वह
काम पूरा हो
गया। फिर जो क्रांति
की बात करे, वह दुश्मन
है। और वह जो क्रांति
की बात कर रहा
है, उसको
भी क्रांति से
कुछ लेना—देना
नहीं है। यह
बड़ी अदभुत
घटना है—दुनियां
में रोज घटती
है, फिर भी
आदमी सम्हलता
नहीं।
सब
क्रांतिकारी क्रांति—विरोधी
हो जाते हैं—पद
पर पहुंचते ही।
और सब पदच्यूत
राजनीतिज्ञ क्रांतिकारी
हो जाते हैं—पद
से उतरते ही।
पद में भी बड़ा
जादू है।
कुर्सी पर
बैठे कि
व्यवस्था।
क्योंकि अब
व्यवस्था
तुम्हारे हित
में है।
कुर्सी से
उतरे, क्रांति!
अब क्रांति
तुम्हारे हित
में है।
धार्मिक
व्यक्ति को न
तो व्यवस्था
से मतलब है, न क्रांति
से। धार्मिक
व्यक्ति को
आत्मानुशासन
से मतलब है।
धार्मिक
व्यक्ति
चाहता है—बाहर
के सहारे बहुत
खोज लिए, कोई
व्यवस्था न आ
सकी दुनियां
में—अब जागो!
अपना सहारा
खोजो! अपनी
ज्योति जलाओ!
बाहर के दीयों
के सहारे बहुत
चले और भटके—सिर्फ
भटके; खाई—खंडहरों
में गिरे, लहूलुहान
हुए। अब अपनी
ज्योति जलाओ
और अपने सहारे
चलो! नहीं कोई
बाहर तुम्हें
व्यवस्था दे
सकता है। अपनी
व्यवस्था तुम
स्वयं दो।
तुम्हारा
जीवन
तुम्हारे
भीतर के
अनुशासन से भरे!
हरि
ओंम तत्सत्!
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