18
सितंबर, 1976
ओशो
आश्रम,
कोरेगांव
पार्क,
पूना।
पहला
प्रश्न :
मुझे
लगता है कि
मेरा शरीर एक पिंजड़े
या बोतल जैसा
है,
जिसमें एक बड़ा
शक्तिशाली
सिंह कैद है, और वह
जन्मों—
जन्मों से
सोया हुआ था, लेकिन आपके
छेड़ने से वह
जाग गया है।
वह भूखा है और
पिंजरे से
मुक्त होने के
लिए बड़ा बेचैन
है। दिन में अनेक
बार वह बौखला
कर हुंकार
मारता, गर्जन
करता, और
ऊपर की ओर
उछलता है। उसकी
हुंकार, गर्जन,
और ऊपर की
ओर उछलने के
धक्के से मेरा
रोआं—रोआं कैप
जाता है, और
माथे व सिर का
ऊपरी हिस्सा ऊर्जा
से फटने लगता
है। इसके बाद
मैं एक अजीब नशे
व मस्ती में
डूब जाता हूं।
फिर वह सिंह
जरा शांत होकर
कसमसाता, चहलकदमी
करता व
गुर्राता
रहता है। और
फिर कीर्तन
में या आपके
स्मरण से वह
मस्त हो कर
नाचता भी है!
अनुकंपा करके
समझायें कि यह
क्या हो रहा
है?
पूछा
है 'योग चिन्मय'
ने। शुभ हो
रहा है! जैसा
होना चाहिए, वैसा हो रहा
है। इससे
भयभीत मत
होना। इसे
होने देना।
इसके साथ
सहयोग करना।
एक अनूठी
प्रक्रिया
शुरू हुई है, जिसका अंतिम
परिणाम
मुक्ति है।
हम
निश्चित ही
शरीर में कैद
हैं। सिंह
पिंजड़े में
बंद है! बहुत
समय से बंद है, इसलिए
सिंह भूल ही
गया है अपनी
गर्जना को।
बहुत समय से
बंद है, और
सिंह सोचने
लगा है कि यह
पिंजड़ा ही
उसका घर है।
इतना ही नहीं,
सोचने लगा
है कि मैं
पिंजड़ा ही
हूं।
देहोऽहम्! मैं
शरीर ही हूं!
चोट
करनी है! उसी
के लिए तुम
मेरे पास हो
कि मैं चोट
करूं और तुम
जगो।
ये
वचन जो मैं
तुमसे बोल रहा
हूं सिर्फ वचन
नहीं हैं; इन्हें
तीर समझना; ये छेदेंगे
तुम्हें। कभी
तुम नारज भी
हो जाओगे मुझ
पर, क्योंकि
सब शांत चल
रहा था, सुविधापूर्ण
था, और
बेचैनी खड़ी हो
गई। लेकिन
जागने का और
कोई उपाय नहीं;
पीड़ा से
गुजरना होगा।
जब
भीतर की ऊर्जा
उठेगी, तो
शरीर राजी
नहीं होता उसे
झेलने को; शरीर
उसे झेलने को
बना नहीं है।
शरीर की सामर्थ्य
बड़ी छोटी है, ऊर्जा विराट
है। जैसे कोई
किसी छोटे
अपान में पूरे
आकाश को बंद
करना चाहे।
तो
जब ऊर्जा
जगेगी, तो
शरीर में कई
उत्पात शुरू
होंगे। सिर
फटेगा।
कभी—कभी तो
ऐसा होता है
कि पूर्ण
ज्ञान के बाद
भी शरीर में
उत्पात जारी
रहते हैं।
ज्ञान की घटना
के पहले तो
बिलकुल
स्वाभाविक है,
क्योंकि
शरीर राजी
नहीं है। जैसे
जिस बिजली के
तार में सौ
कैंडल की
बिजली दौड़ाने
की क्षमता हो,
उसमें हजार
कैंडल की
बिजली दौड़ा दो,
तो तार
झनझना जायेगा,
जल उठेगा!
ऐसे ही जब
तुम्हारे
भीतर ऊर्जा
जगेगी—जो सोयी
पड़ी थी—प्रगट
होगी, तो
तुम्हारा
शरीर उसके लिए
राजी नहीं है।
शरीर
तुम्हारा
भिखमंगा होने
के लिए राजी
है, सम्राट
होने को राजी
नहीं है। शरीर
की सीमा है, तुम्हारी
कोई सीमा नहीं
है। झकझोरे
लगेंगे, आंधिया
उठेंगी।
ज्ञान की घटना
के पहले, समाधि
के पहले तो ये
झकझोरे
बिलकुल
स्वाभाविक
हैं। कभी—कभी
ऐसा भी होता
है कि समाधि
भी घट जाती है,
और झकझोरे
जारी रहते हैं,
आधी जारी रहती
है, क्योंकि
शरीर राजी
नहीं हो पाता।
कृष्णमूर्ति
के मामले में
ऐसा ही हुआ
है। चालीस साल
से,
परमज्ञान
की उपलब्धि के
बाद भी
प्रक्रिया जारी
है, शरीर
झटके झेल नहीं
पाता।
कृष्णमूर्ति
आधी रात में
चिल्ला कर, चीख कर, उठ
आते हैं; गुर्राने
लगते
हैं—वस्तुत:
गुर्राने
लगते हैं। और
सिर में चालीस
साल से दर्द
बना हुआ है, जो जाता
नहीं, आता
है, जाता
है, लेकिन
पूरी तरह जाता
नहीं। दर्द
कभी इतना प्रगाढ़
हो जाता है कि
सिर फटने लगता
है।
कृष्णमूर्ति
के पिछले
चालीस वर्ष
शरीर की दृष्टि
से बड़े कष्ट
के रहे। ऐसा
कभी—कभी होता
है। अक्सर तो
समाधि के
साथ—साथ शरीर
राजी हो जाता
है। लेकिन
कृष्णमूर्ति
के साथ इसलिए
नहीं हो पाया शांत, क्योंकि
समाधि के लिए
बड़ी चेष्टा की
गई। थियोसाफी
के जिन
विचारकों ने
कृष्णमूर्ति
को बड़ा किया, उन्होंने
बड़ा प्रयास
किया, समाधि
को लाने के
लिए बड़ी अथक
चेष्टा की।
उनकी
आकांक्षा थी
कि एक जगतगुरु
को वे पैदा
करें, जगत
को जरूरत
है—कोई
बुद्धावतार
पैदा हो।
कृष्णमूर्ति
ने अगर अपनी
ही चेष्टा से
काम किया होता
तो शायद
उन्हें
एकाध—दो जन्म
और लग जाते।
लेकिन तब यह
अड़चन न होती।
त्वरा के साथ
काम किया गया, जो
दो जन्मों में
होना चाहिए था,
वह शीघ्रता
से घट गया। घट
तो गया, लेकिन
शरीर राजी
नहीं हो पाया।
आकस्मिक घट गया;
शरीर तैयार
न था, और घट
गया। तो चालीस
वर्ष शारीरिक
पीड़ा के रहे।
आज भी
कृष्णमूर्ति
रात गुर्राते
हैं, नींद
से उठ—उठ आते
हैं। ऊर्जा
सोने नहीं
देती। चीखते
हैं!
यह
थोड़ी हैरानी
की बात मालूम
होगी कि
परमज्ञान को
उपलब्ध
व्यक्ति रात
को चीखे!
लेकिन पूरा
गणित साफ है।
जिस घटना को
घटने में दो
जन्म कम से कम
लगते, वह बड़ी
शीघ्रता से
घटा ली गई।
उसके लिए शरीर
तैयार नहीं हो
पाया था, इसलिए
प्रक्रिया
अभी भी जारी
है। घटना घट
गई, और
तैयारी जारी
है। घर पहुंच
गये, और
शरीर पीछे रह
गया है। वह
अभी भी घिसट
रहा है। आत्मा
घर पहुंच गई, शरीर घर
नहीं पहुंचा
है। वह जो
घिसटन है, वह
जारी है, उससे
दर्द है, पीड़ा
है।
तो
इससे घबड़ाना
मत। ये समाधि
के आने की
पहली खबरें
हैं। ये समाधि
के पहले चरण
हैं। इन्हें सौभाग्य
मानना, इनसे
राजी हो जाना।
इन्हें
सौभाग्य मान
कर राजी हो
जाओगे तो
शीघ्र ये
धीरे— धीरे शांत
हो जायेंगे।
और जैसे—जैसे
शरीर इनके लिए
राजी होने
लगेगा, सहयोग
करने लगेगा, वैसे—वैसे
शरीर की
पात्रता और
क्षमता बढ़
जायेगी।
उस
असीम को
पुकारा है, तो
असीम बनना
होगा। उस
विराट को चुनौती
दी है, तो
विराट बनना
होगा।
पुरानी
बाइबिल में
बड़ी अनूठी कथा
है—जैकब की। जैकब
ईश्वर की खोज
करने में लगा
है। उसने अपनी
सारी संपत्ति
बेच दी, अपने
सारे
प्रियजनों, अपनी पत्नी,
अपने बच्चे,
अपने नौकर,
सबको अपने
से दूर भेज
दिया। वह
स्वात नदी तट
पर ईश्वर की प्रतीक्षा
कर रहा है।
ईश्वर का आगमन
हुआ।
लेकिन
घटना बड़ी
अदभुत है, कि
जैकब ईश्वर से
कुश्ती करने
लगा! अब ईश्वर
से कोई कुश्ती
करता है!
लेकिन जैकब
ईश्वर से
उलझने लगा।
कहते हैं, रात
भर दोनों लड़ते
रहे। सुबह
होते—होते, भोर
होते—होते, जैकब हार
पाया। जब
ईश्वर जाने लगे,
तो जैकब ने
ईश्वर के पैर
पकड़ लिए और
कहा, 'अब
मुझे
आशीर्वाद तो
दे दो!' ईश्वर
ने कहा, 'तेरा
नाम क्या है?' तो जैकब ने
अपना नाम
बताया, कहा,
'मेरा नाम
जैकब है। ' ईश्वर
ने कहा, 'आज
से तू इजरायल
हुआ'—जिस
नाम से यहूदी
जाने जाते
हैं—'आज से
तू इजरायल। अब
तू जैकब न रहा;
जैकब मर
गया। ' जैसे
मैं तुम्हारा
नाम बदल देता
हूं जब संन्यास
देता हूं।
पुराना गया!
ईश्वर
ने जैकब को
कहा,
'जैकब मर
गया, अब से
तू इजरायल है।'
यह
कहानी पुरानी
बाइबिल में
है। ऐसी कहानी
कहीं भी नहीं
कि कोई आदमी
ईश्वर से लड़ा
हो। लेकिन इस
कहानी में बड़ी
सचाई है। जब
वह परम—ऊर्जा
उतरती है तो
करीब—करीब जो घटना
घटती है वह
लड़ाई जैसी ही
है। और जब वह
परम घटना घट
जाती है और
तुम ईश्वर से
हार जाते हो और
तुम्हारा
शरीर पस्त हो
जाता है और
तुम हार स्वीकार
कर लेते हो—तो
तुम्हारी
परम—दीक्षा हुई!
उसी घड़ी ईश्वर
का आशीर्वाद
बरसता है। तब
तुम नये हुए।
तभी तुमने
पहली बार अमृत
का स्वाद चखा।
तो 'योग चिन्मय'
करीब—करीब
वहा हैं, जहां
जैकब रहा
होगा। रात
कितनी बड़ी
होगी, कहना
कठिन है।
संघर्ष कितना
होगा, कहना
कठिन है। कोई
भविष्यवाणी
नहीं की जा
सकती। लेकिन
शुभ है
संघर्ष।
इस
ऊर्जा को
सहारा देना।
यह जो सिंह
भीतर मुक्त
होना चाहता है, यही
तुम हो। यह जो
ऊर्जा उठना
चाहती है सिर
की तरफ, काम—केंद्र
से सहस्रार की
तरफ जाना
चाहती है र
राह बनाना
चाहती है—यही
तुम हो। यह
जन्मों—जन्मों
से कुंडली मार
कर पड़ी थी, अब
यह फन उठाना
शुरू कर रही
है।
सौभाग्यशाली
हो, धन्यभागी
हो! इसी से परम
आशीर्वाद के
करीब आओगे!
तुम्हारा
वास्तविक
रूपांतरण
होगा!
कृष्णमूर्ति
ने अपनी
नोटबुक में
लिखा है, कि जब
भी यह सिर
फटता है और
रात मैं सो
नहीं पाता और
चीख—पुकार
उठती है, और
कोई मेरे भीतर
गुर्राता
है—उसके बाद
ही बड़े अनूठे
अनुभव घटते
हैं। उसके बाद
ही बड़ी शांति
उतरती है।
चारों तरफ
वरदान की
वर्षा होती
है। सब तरफ
कमल ही कमल
खिल जाते हैं।
ठीक वैसा ही 'चिन्मय' को
होना शुरू हुआ,
अच्छा है।
'इसके बाद
मैं एक अजीब
नशे और मस्ती
में डूब जाता
हूं। '
क्योंकि
जब ऊर्जा अपना
संघर्ष करके
ऊपर उठेगी और
शरीर थोड़ा—सा
राजी होगा, तो
एक नई मस्ती
आयेगी. विकास
हुआ! तुम थोड़े
ऊपर उठे।
तुमने थोड़ा
अतिक्रमण
किया। तुम
कारागृह के
थोड़े—से बाहर
हुए, स्वतंत्र
आकाश मिला!
तुम
प्रफुल्लित
होओगे। तुम
नाचोगे, तुम
मगन हो कर
'फिर वह सिंह शांत
होकर कसमसाता,
चहलकदमी
करता, गुर्राता
रहता है, और
कीर्तन में या
आपके स्मरण से
मस्त होकर नाचता
भी है। '
वह
सिंह नाचना ही
चाहता है; शरीर
में जगह नहीं
है नाचने
लायक। नाचने
को स्थान तो
चाहिये; शरीर
में स्थान
कहां है? शरीर
के बाहर ही
नृत्य हो सकता
है। इसलिये
अगर तुम ठीक
से नाचोगे, तो तुम
पाओगे कि तुम
शरीर नहीं
रहे। नाच की
आखिरी गरिमा
में, आखिरी
ऊंचाई पर, तुम
शरीर के बाहर
हो जाते हो।
शरीर फिरकता
रहता, थिरकता
रहता; लेकिन
तुम बाहर होते
हो, तुम
भीतर नहीं
होते।
इसलिए
तो मैं ध्यान
की
प्रक्रियाओं
में नृत्य को
अनिवार्य रूप
से जोड़ दिया
हूं;
क्योंकि
नृत्य से अदभुत
ध्यान के लिए
और कोई
प्रक्रिया
नहीं है। अगर
तुम भरपूर नाच
लो, अगर
तुम समग्ररूप
से नाच लो, तो
उस नाच में
तुम्हारी
आत्मा शरीर के
बाहर हो
जाएगी। शरीर
थिरकता रहेगा,
लेकिन तुम
अनुभंव करोगे
कि तुम शरीर
के बाहर हो।
और तब
तुम्हारा
असली नृत्य
शुरू होगा : यहां
शरीर नीचे
नाचता रहेगा,
तुम वहां
ऊपर नाचोगे।
शरीर पृथ्वी
पर, तुम
आकाश पर! शरीर
पार्थिव में,
तुम
अपार्थिव में!
शरीर जड़ नृत्य
करेगा, तुम
चैतन्य का
नृत्य करोगे।
तुम नटराज हो
जाओगे।
पूछा
है,
'समझायें यह
क्या हो रहा
है?'
अनूठा
हो रहा है!
अदभुत हो रहा
है! अपूर्व हो रहा
है! समझाने
योग्य नहीं है, जो
हो रहा है.
अनुभव करने
योग्य है। जो
भी मैं कहूंगा,
उससे कुछ
समझ में नहीं
आयेगा, उससे
इतना ही हो
सकता है कि
तुम ज्यादा
सरलता से इसे
स्वीकार करने
में समर्थ हो
जाओ। इससे राजी
हो जाओ। इसे
दबाना मत!
स्वाभाविक मन
होता है दबाने
का, कि यह
क्या पागलपन
है कि मैं
सिंह की तरह
गुर्रा रहा
हूं! यह
गर्जना कैसी!
लोग पागल
समझेंगे! तो
स्वाभाविक मन
होता है कि
दबा लो इस, छिपा
लो इसे! मत
किसी को पता
चलने दो! कोई
क्या कहेगा!
फिक्र
मत करना! कौन
क्या कहता है, इसकी
फिक्र मत
करना। लौग
पागल कहें तो
पागल हो जाना!
पागल हुए बिना
कभी कोई
परमहंस हुआ है?
तुम तो अपने
भीतर पर ध्यान
देना। अगर
इससे आनंद आ
रहा है, मस्ती
आ रही है, सुरा
बरस रही है, तो तुम
फिक्र मत
करना। इस
संसार के पास
कुछ भी नहीं
है! इतना
मूल्यवान
तुम्हें देने
को। इसलिए इस
संसार से कोई
सौदा मत करना।
इंच भर भी
आत्मा मत
बेचना, अगर
पूरे जगत का
साम्राज्य भी
बदले में
मिलता हो।
जीसस
ने कहा है, पूरा
जगत भी मिल
जाये, और
आत्मा खो जाये,
तो क्या सार?
आत्मा बच
जाये, और
सारा जगत भी
खो जाये, तो
भी सार ही सार
है।
हिम्मत
रखना! साहस
रखना! भरोसे
से,
श्रद्धा से
बढ़े जाना!
जल्दी ही
धीरे— धीरे
करके शरीर
राजी हो जायेगा।
तब गर्जना भी
खो जायेगी, तब नृत्य ही
रह जायेगा। तब
सिंह तडूफेगा
नहीं, क्योंकि
सिह को रास्ता
मिल जायेगा, जब जाना
चाहे बाहर चला
जाये, जब
आना चाहे तब
भीतर आ जाये।
तब यह देह
कारागृह नहीं
रह जाती, तब
यह देह विश्राम
का स्थल हो
जाती है। तुम
जब आना हौ
भीतर आ जाओ, जब तुम जाना
हो बाहर चले
जाओ।
जब
तुम इतनी
सरलता से
बाहर— भीतर आ
सकते हो, जैसे
अपने घर में
आते—जाते
हों—सर्दी है,
शीत लग रही,
तो तुम बाहर
चले जाते हो, धूप में बैठ
जाते हो। फिर
धूप बढ़ गई, सूरज
चढ़ आया, गरमी
होने लगी, पसीना
बहने लगा—तुम
उठ कर भीतर
चले आते हो।
जैसे तुम अपने
घर में
बाहर—भीतर आते
हो, तो घर
कारागृह नहीऐ
है—ऐसा अगर
तुम कारागृह
में बैठे हो, तो इतनी
सुविधा नहीं
है कि जब
तुम्हारा दिल
हो बाहर आ जाओ,
जब
तुम्हारा दिल
हो भीतर आ
जाओ। कारागृह
में तुम बंदी
हो, घर में
तुम मालिक हो।
जैसे—जैसे
तुम्हारा
सिंह नाच
सकेगा बाहर, उड़ सकेगा आकाश
में, चांद—तारों
के साथ खेल
सकेगा—फिर कोई
बात नहीं। फिर
शरीर से कोई
झगड़ा नहीं है;
फिर शरीर
विश्राम का
स्थल है। जब
थक जायेगा, तुम भीतर
लौट कर
विश्राम भी
करोगे। फिर
शरीर से कोई
दुश्मनी भी
नहीं है। शरीर
फिर मंदिर है।
दूसरा
प्रश्न :
कल
आपने कहा कि
आप तो सदा
हमारे साथ हैं, लेकिन
हमारे
संन्यास लेने
से हम भी आपके
साथ हो लेते
हैं। मुझे तो
ऐसा कोई क्षण
स्मरण नहीं आता,
जब मैंने
संन्यास लिया
हो : कब लिया, कहां लिया!
आपने ही दिया
था। मैं आप तक
पहुंचा कहां
अभी! मुझे तब
कछ पता न था
संन्यास का, और न आज ही
हैँ। तो कैसे
होऊं
संन्यस्त, प्रभु?
कैसे आऊं
मैं आप तक? मेरी
उतनी पात्रता
कहां! मेरी
उतनी श्रद्धा
व समर्पण
कहां!
ऐसा
भी बहुत बार
हुआ है कि
मैंने
संन्यास उनको भी
दिया है, जिन्हें
संन्यास का
कोई भी पता
नहीं। उन्हें
भी संन्यास
दिया है, जो
संन्यास लेने
आये नहीं थे।
उन्हें भी
संन्यास दिया
है, जिन्होंने
कभी स्वप्न
में भी
संन्यास के
लिए नहीं सोचा
था। क्योंकि
तुम्हारे मन
को ही मैं नहीं
देखता, तुम्हारे
मन के अचेतन में
दबी हुई
बहुत—सी बातों
को देखता हूं।
कल
रात्रि ही एक
युवती आई।
उससे मैंने
पूछा भी नहीं।
उससे मैंने
कहा,
'आंख बंद कर
और संन्यास
ले। ' उससे
मैंने पूछा भी
नहीं कि तू
संन्यास
चाहती है? उसने
आंख बंद कर ली,
और संन्यास
स्वीकार कर
लिया। अन्यथा
आदमी चौंकता
है। आदमी
सोचता है!
संन्यास लेना
है तो महीनों
सोचते हैं कुछ
लोग, वर्षों
सोचते हैं।
कुछ तो
सोचते—सोचते
मर गये और
नहीं ले पाये।
उसने चुपचाप
स्वीकार कर
लिया। उसे
चेतन रूप से
कुछ भी पता
नहीं है।
लेकिन
हम नये थोड़े
ही हैं—हम अति
प्राचीन हैं! वह
युवती बहुत
जन्मों से
खोजती रही है।
ध्यान की उसके
पास संपदा है।
उस संपदा को
देख कर ही
मैंने कहा कि
तू डूब, आंख
बंद कर! उससे
मैंने कहा, तुझसे मैं
पूछूंगा नहीं
कि तुझे
संन्यास लेना
या नहीं।
पूछने की कोई
जरूरत नहीं
है।
ऐसा
ही मैंने 'दयाल'
को भी
संन्यास दिया
था। दयाल का
यह प्रश्न है।
दयाल से पूछा
नहीं है, दयाल
को पता भी नही
है।
तुम्हें
अपना ही पता
कहां है! तुम
कहां से आते हो, पता
नहीं।
क्या—क्या
संचित संपदा
लाते हो, पता
नहीं।
क्या—क्या
तुमने किया है
अनेक—अनेक जन्मों
में, उसका
तुम्हें पता
नहीं।
क्या—क्या
तुमने खोज लिया
था, क्या—क्या
अधूरा रह गया
है, उसका
तुम्हें कुछ
पता नहीं। हर
बार मौत आती
है, और
तुमने जो किया
था, सब
चौपट कर जाती
है। तुममें से
बहुत ऐसे हैं,
जो बहुत बार
संन्यस्त हो
चुके हैं—हर
बार मौत आ कर
चौपट कर गई।
और तुम्हारी
इतनी स्मृति
नहीं है कि
तुम याद कर
लो।
ऐसा
ही समझो कि
तुम एक काम कर
रहे थे, तुम
एक चित्र बना
रहे थे, अधूरा
बना पाये थे
कि मौत आ गई।
बस मौत आ गई कि
तुम भूल गए।
फिर तुम
जन्मे। फिर
अगर तुम्हें
वह अधूरे
चित्र की
सूचना भी मिल
जाये, वह
अधूरा चित्र
भी तुम्हारे
सामने ला कर
रख दिया जाये,
तो भी
तुम्हें याद
नहीं आता, क्योंकि
तुमने तो सोचा
ही नहीं इस
जन्म में, कि
मैं और
चित्रकार! और
अगर मैं तुमसे
कहूं कि इसे
पूरा कर लो, यह अधूरा
पड़ा है; तुमने
बड़ी आकांक्षा
से बनाया था, तुमने बड़ी
गहन अभीप्सा
से रचा था—अब
इसे पूरा कर
लो, मौत
बीच में आ गई
थी, अधूरा
छूट गया था।
तुम कहोगे, 'मुझे तो कुछ
पता नहीं, आप
पकड़ा देते हैं
तूलिका तो ठीक
है; लेकिन
मुझे तूलिका
पकड़ना भी नहीं
आता है। आप रख
देते हैं ये
रंग, तो
ठीक है रंग
दूंगा; लेकिन
मुझे कुछ पता
नहीं कि चित्र
कैसे बनाये जाते
हैं। ' फिर
भी मैं तुमसे
कहता हूं कि
शुरू करो, शुरू
करने से ही
याद आ जायेगी।
चलो, पकड़ो
तूलिका हाथ
में, याद आ
जाये शायद!
ऐसा
हुआ,
दूसरे
महायुद्ध में,
एक सैनिक
गिरा चोट खा
कर, उसकी
स्मृति खो गई
गिरते ही। सिर
पर चोट लगी, स्मृति के
तंतु
अस्तव्यस्त
हो गये, वह
भूल गया। वह
भूल गया—अपना
नाम भी! वह भूल
गया मैं कौन
हूं! और युद्ध
के मैदान से
जब वह लाया गया
तो वह बेहोश
था, कहीं
उसका तगमा भी
गिर गया, उसका
नंबर भी गिर
गया। बड़ी
कठिनाई खड़ी हो
गई। जब वह होश
में आया तो न
उसे अपना नंबर
पता है, न
अपना नाम पता
है, न अपना
ओहदा पता है।
मनोवैज्ञानिकों
ने बड़ी चेष्टा
की खोज—बीन
करने की, सब
तरह के उपाय
किये, कुछ
पता न चले। वह
आदमी बिलकुल
कोरा हो गया, जैसे अचानक
उसकी
स्मृतियों से
सारा संबंध टूट
गया। फिर किसी
ने सुझाव दिया
कि अब एक ही
उपाय है कि
इसे इंग्लैंड
में घुमाया
जाये। वह इंग्लैंड
की सेना का
आदमी था। इसे
इंग्लैंड में
घुमाया जाए
शायद अपने गाव
के पास पहुंच
कर इसे याद आ
जाये।
तो
उसे इंग्लैंड
में घुमाया
गया ट्रेन पर
बिठा कर; दो
आदमी उसे ले
कर चले। हर
स्टेशन पर
गाड़ी रुकती, वह उसे नीचे
उतारते। वह
देखता खड़े हो
कर! वह थक गए।
इंग्लैंड
छोटा मुल्क है,
इसलिए बहुत
अड़चन न थी, सब
जगह घुमा
दिया। और
अंततः एक
छोटे—से
स्टेशन पर, जहां गाड़ी
रुकती भी नहीं
थी, लेकिन
किसी कारणवश
रुक गई, वह
आदमी नीचे
उतरा, उसने
स्टेशन पर लगी
तख्ती देखी, उसने कहा, 'अरे, यह
रहा मेरा गाव!'
वह दौड़ने
लगा। वह पीछे
भूल ही गया कि
मेरे साथ दो
आदमी हैं। वे
दो आदमी उसके
पीछे भागने
लगे। वह
स्टेशन से
निकल कर गाव
में दौड़ा। सब
याद आ गया!
गली—कूचे याद
आ गये। उसने
किसी से पूछा
भी नहीं।
गली—कुचों को पार
करके वह अपने
घर के सामने
पहुंच गया।
उसने कहा, 'अरे!
यह रहा मेरा
घर, यह रहा
मेरा नाम! यह
मेरी तख्ती भी
लगी है!' उसे
सब याद आ गई।
बस एक चोट पड़ी
कि फिर उसे
सारी याद आ
गई। विस्मृति
खो गई, स्मृति
का तंतु फिर
जुड़ गया।
तो
कभी—कभी मैं, जैसे
'दयाल' को
संन्यास दिया,
इसी आशा में
कि घुमाऊंगा
गेरुए
वस्त्रों में,
शायद याद आ
जाये कि तुम
पहले भी गेरुए
वस्त्रों में
घूमे हो! कि
कहूंगा. नाचो!
शायद
नाचते—नाचते
किसी दिन उस
मनोअवस्था
में पहुंच जाओ,
जहां
तुम्हें अतीत
जन्मों के
नृत्य याद आ
जायें।
कहूंगा :
ध्यान करो!
ध्यान करते—करते
शायद अचेतन का
कोई द्वार खुल
जाये, स्मृतियों
का बहाव आ
जाये! इसीलिए तो
बोले चला जाता
हूं—कभी गीता
पर, कभी
अष्टावक्र पर,
कभी
जरथुस्त्र पर,
कभी बुद्ध
पर, कभी
जीसस पर, कभी
कृष्ण पर!
न—मालूम
कौन—सा शब्द
तुम्हारे
भीतर गज बना
दे; न—मालूम
कौन—सा शब्द
तुम्हारे
भीतर कुंजी बन
जाये; न—मालूम
कौन—सा शब्द
तुम्हें जगा
दे तुम्हारी नींद
से! सब उपाय
किये चला जाता
हूं। कोशिश सिर्फ
इतनी है, कि
किसी तरह
मृत्युओं ने
जो बीच—बीच
में आ कर तोड़
दिया है और
तुम्हारा
जीवन
अस्तव्यस्त
हो गया है, उसमें
एक सिलसिला
पैदा हो जाये,
उसमें
एकतानता आ
जाये, एकरसता
आ जाए। बस
एकरसता आते ही
तुम्हारी नियति
करीब आने
लगेगी। तुमने
घर तो बहुत
बार बनाया, अधूरा—अधूरा
छूट गया।
इसलिए
'दयाल' ठीक
ही कहता है कि
मुझे तो ऐसा
कोई क्षण
स्मरण नहीं
आता जब मैंने
संन्यास लिया
हो। उसने लिया
भी नही, मैंने
दिया है।
'कब लिया, कहा
लिया! आपने ही
दिया था। मैं
आप तक पहुंचा
कहां हूं अभी!'
मुझ
तक तो तुम तभी
पहुंचोगे, जब
तुम तुम तक
पहुंच जाओगे।
मुझ तक
पहुंचने का और
कोई उपाय भी
नहीं। अपने तक
पहुंच जाओ कि
मुझ तक पहुंच
गये। स्वयं को
जान लो, तो
मुझे जान
लिया। मेरे
पास आने के
लिए बाहर की
कोई यात्रा
नहीं करनी
है—अंतरतम, और अंतरतम
में उतर जाना
है।
'न मुझे तब
कुछ पता था
संन्यास का और
न आज ही पता है।
'
होगा, शीघ्र
ही पता होगा।
न तब पता था, न आज पता
है—यह सच है।
लेकिन यह
मनोदशा अच्छी
है कि तुम सोचते
हो, जानते
हो कि तुम्हें
पता नहीं।
दुर्भाग्य तो उनका
है जिनको पता
नहीं, और
सोचते हैं कि
पता है। तुम
तो ठीक स्थिति
में हो। यही
तो निर्दोष
चित्त की बात
है कि मुझे पता
नहीं है! तो
तुम खाली हो, तो तुम्हें
भरा जा सकता
है। कुछ हैं
जिन्हें कुछ
भी पता नहीं
है—और बहुत है
उनकी
संख्या—लेकिन
सोचते हैं
उन्हें पता
है। इसी
भ्रांति के
कारण, पता
हो सकता है, उससे भी
वंचित रह जाते
हैं।
ज्ञान
रोक लेता है, ज्ञान
तक जाने से।
अगर तुम्हें
पता है कि मैं अज्ञानी
हूं तो तुम
ठीक दिशा में
हो। ऐसी निदोंषचित्तता
में ही ज्ञान
की परम घटना
घटती है। यह
जानना कि मैं
नहीं जानता
हूं जानने की
तरफ पहला कदम
है।
'मेरी
पात्रता कहां!
मेरी उतनी
श्रद्धा और
समर्पण कहा!'
यह
पात्र
व्यक्ति के
हृदय में ही
भाव उठता है कि
मेरी पात्रता
कहा! अपात्र
तो समझते हैं, हम
जैसा सुपात्र
कहां! यह
विनम्र भाव ही
तो पात्रता है
कि मेरी
पात्रता कहा,
कि मेरा
समर्पण कहां,
कि मेरी
श्रद्धा कहां!
यही तो
श्रद्धा की
सूचना है। बीज
मौजूद हैं, बस समय की
प्रतीक्षा है
: ठीक अनुकूल
समय पर, ठीक
अनुकूल ऋतु
में, अंकुरण
होगा, क्रांति
घटेगी।
और
यह यात्रा तो
अनूठी यात्रा
है। यह यात्रा
तो अपरिचित, अज्ञेय
की यात्रा है।
मुसलसल
खामोशी की ये
पर्दापोशी,
अबस
है कि अब
राजदा हो गये
हम।
सुकूं
खो दिया हमने
तेरे जुनू में,
तेरे
गम में
शोला—बजी हो
गये हम।
हुए इस
तरह खम जमानों
के हाथों,
कभी
तीर थे, अब
कमी हो गये
हम।
न रहबर
न कोई
रफीके—सफर है,
ये किस
रास्ते पर रवी
हो गये हम।
हमें
बेखुदी में
बड़ा लुक आया
कि गुम
हो के
मजिलनिशा हो
गये हम।
यह
मंजिल ऐसी है
कि खो कर
मिलती है। तुम
जब तक हो, तब तक
नहीं मिलेगी;
तुम खोये कि
मिलेगी।
हमें
बेखुदी में
बड़ा लुक आया
जहां
तुम नहीं, जहां
तुम्हारा
अहंकार गया, जहां बेखुदी
आई..।
हमें
बेखुदी में
बड़ा लुक आया
कि गुम
हो के
मजिलनिशा हो
गये हम।
कि
खो कर और
पहुंच गये! यह
रास्ता मिटने
का रास्ता है।
तो
अगर तुम्हें
लगता है, 'मेरी
समर्पण की
पात्रता कहां?'
तो मिटना
शुरू हो गये, बेखुदी आने
लगी। अगर
तुम्हें लगता
है कि 'मेरी
श्रद्धा कहां?'
तो बेखुदी
आने लगी, तुम
मिटने लगे।
संन्यास
यही है कि तुम
मिट जाओ, ताकि
परमात्मा हो
सके।
न रहबर, न
कोई रफीके—सफर
है!
यह
तो बड़ी अकेले
की यात्रा है।
न रहबर, न
कोई रफीके—सफर
है!
न
कोई साथी है, न
कोई
मार्गदर्शक
है। अंततः तो
गुरु भी छूट
जाता है, क्योंकि
वहां इतनी जगह
भी कहां!
प्रेम—गली अति
सीकरी, तामें
दो न समाये!
वहां इतनी जगह
कहां कि तीन बन
सकें! दो भी
नहीं बनते। तो
शिष्य हो, गुरु
हो, परमात्मा
हो, तब तो
तीन हो गए!
वहां तो दो भी
नहीं बनते। तो
वहां गुरु भी
छूट जाता है।
वहा तुम भी
छूट जाते; वहा
परमात्मा ही
बचता है।
न रहबर, न
कोई रफीके—सफर
है
ये किस
रास्ते पर रवी
हो गये हम।
संन्यास
तो बड़ी अनजानी
यात्रा है; बड़ी
हिम्मत, बड़े
साहस की
यात्रा है! जो
अनजान में
उतरने का जोखिम
ले सकते
हैं—उनकी। यह
होशियारों, हिसाब लगाने
वालों का काम
नहीं। यह कोई
गणित नहीं है।
यह तो प्रेम
की छलांग है।
तीसरा
प्रश्न :
आपने
कहा कि 'तू
अभी, यहीं, इसी क्षण
मुक्त है'; लेकिन
मैं इस 'मैं'
से कैसे
मुक्त होऊं?
कैसे
पूछा कि चूक
गये;
फिर समझे
नहीं। यही तो
अष्टावक्र का
पूरा उपदेश है
: अनुष्ठान.,। 'कैसे' यानी
अनुष्ठान; 'कैसे' यानी
किस विधि से; विधि—विधान।
'कैसे' पूछा
कि चूक गये, फिर
अष्टावक्र
समझ में नहीं
आयेंगे। फिर
तुम पतंजलि के
दरवाजे पर
खटखटाओ, फिर
वे बतायेंगे : 'कैसे'।
अगर 'कैसे'
में बहुत
जिद है, तो
पतंजलि
तुम्हारे लिए
मार्ग होंगे।
वे तुम्हें
बहुत—सा
बतायेंगे कि
करो यम, नियम,
संयम, प्राणायाम,
प्रत्याहार,
धारणा, ध्यान,
समाधि। वे
इतना
फैलायेंगे कि
तुम भी कहोगे :
महाराज, थोड़ा
कम! कोई सरल
तरकीब बता दें;
यह तो बहुत
बड़ा हो गया, इसमें तो
जन्मों लग
जायेंगे।
अधिक
योगी तो यम ही
साधते रहते
हैं;
नियम तक भी
नहीं पहुंच
पाते। अधिक
योगी तो आसन
ही साधते—साधते
मर जाते
हैं—कहां
धारणा, कहां
ध्यान! आसन ही
इतने हैं; और
आसन की ही
साधना पूरी हो
जाये तो कठिन
मालूम होती
है। बहुत खोज
करने वाले
ज्यादा—से—ज्यादा
धारणा तक
पहुंच पाते
हैं। और घटना
तो समाधि में
घटेगी। और
समाधि को भी
पतंजलि दो में
बांट देते हैं
: सविकल्प
समाधि; निर्विकल्प
समाधि। वे
बांटते चले
जाते हैं, सीढ़ियां
बनाते चले
जाते हैं। वे
जमीन से ले कर
आकाश तक
सीढ़ियां लगा
देते हैं।
अगर
तुम्हें 'कैसे'
में रुचि
है—अनुष्ठान
में—तों फिर
तुम पतंजलि से
पूछो।
हालांकि आखिर
में पतंजलि भी
कहते हैं कि
अब सब छोड़ो, बहुत हो गया 'करना'।
मगर कुछ लोग
हैं जो बिना
किये नहीं छोड़
सकते, तो
करना पड़ेगा।
ऐसा
ही समझो कि
छोटा बच्चा है
घर में, शोरगुल
मचाता है, ऊधम
करता है; तुम
कहते हो, 'बैठ
शांत', तो
वह बैठ भी
जाता है तो भी
उबलता है।
हाथ—पैर उसके
कैप रहे हैं, सिर हिला
रहा है—वह कुछ
करना चाहता है,
उसके पास
ऊर्जा है। यह
कोई ढंग नहीं
है उसको बिठाने
का। इसमें तो
खतरा है।
इसमें तो
विस्फोट
होगा। इसमें
तो वह कुछ न
कुछ करेगा।
बेहतर तो यह
है कि उससे
कहो कि जा, दौड़
कर जरा घर के
सात चक्कर लगा
आ। फिर वह खुद
ही हांफते हुए
आ कर शांत बैठ
जायेगा। फिर
तुम्हें कहना
न पड़ेगा, शांत
हो जा। उसी
कुर्सी पर शांत
हो कर बैठ
जायेगा, जिस
पर पहले शांत
नहीं बैठ पाता
था।
पतंजलि
उनके लिए हैं, जो
सीधे शांत
नहीं हो सकते।
वे कहते हैं, सात चक्कर
लगा आओ।
दौड़—धूप कर लो
काफी। शरीर को
आड़ा—तिरछा करो,
शीर्षासन
करो, ऐसा
करो, वैसा
करो। कर—करके
आखिर एक दिन
तुम पूछते हो
कि महाराज, अब करने से
थक गये! वे
कहते हैं, यह
अगर तुम पहले
ही कह देते, तो हम भी
बचते, तुम
भी बचते; अब
तुम शांत हो
कर बैठ जाओ!
आदमी
करना चाहता
है। क्योंकि
बिना किए
तुम्हारे
तर्क में ही
नहीं बैठता कि
बिना किये कुछ
हो सकता है!
अष्टावक्र
तुम्हारे
तर्क के बाहर
हैं। अष्टावक्र
तो कहते हैं, तुम
मुक्त हो! तुम
फिर गलत समझे।
तुम कहते हो, 'तू अभी
मुक्त, यहीं
मुक्त'; लेकिन
मैं इस 'मैं'
से कैसे
मुक्त होऊं?'
अष्टावक्र
यह कहते हैं
कि यह 'कैसे' की बात ही तब
है, जब कोई
मान ले कि मैं
अमुक्त हूं।
तो तुमने एक
बात तो मान ही
ली पहले ही कि
मैं बंधन में
हूं अब कैसे
मुक्त होऊं? अष्टावक्र
कहते हैं :
बंधन नहीं
है—भ्रांति है
बंधन की। तुम
फिर कहोगे, इस भ्रांति
से कैसे मुका
होए? तो भी
तुम्हें समझ
में न आया, क्योंकि
भ्रांति का
अर्थ ही होता
है कि नहीं है,
मुक्त क्या
होना है? देखते
ही, जागते
ही—मुक्त हो।
अगर
तरकीबों में
पड़े,
तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ोगे।
हर
तरकीब खोटी पड़
गई
आखिर
जिंदगी छोटी
पड़ गई।
ऐसे
अगर तरकीबों
में पड़े तो
तुम पाओगे कि
एक जिंदगी
क्या, अनेक
जिंदगियां
छोटी हैं।
तरकीबें बहुत
हैं।
कितने—कितने जन्मों
से तो तरकीबें
साधते रहे!
करने पर तुम्हारा
भरोसा है, क्योंकि
करने से
अहंकार भरता
है।
अष्टावक्र
कह रहे हैं, कुछ
करो मत। करने
वाला
परमात्मा है।
जो हो रहा है, हो रहा है; तुम उसमें
सम्मिलित हो
जाओ। तुम इतना
भी मत पूछो कि
इस 'मैं' से कैसे
मुक्त होऊं? अगर यह 'मैं'
हो रहा है
तो होने दो; तुम हो कौन, जो इससे
मुक्त होने की
चेष्टा करो? तुम इसे भी
स्वीकार कर
लेते हो कि
ठीक है, अगर
यह हो रहा है, तो यही हो
रहा है। तुमने
तो बनाया
नहीं। याद है,
तुमने कब
बनाया इसे? तुमने तो
ढाला नहीं।
तुम तो इसे
लाये नहीं। तो
जिसे तुम नहीं
लाये, उससे
तुम छूट कैसे
सकोगे? जो
तुमने ढाला
नहीं, उसे
तुम मिटाओगे
कैसे? तुम
कहते हो, क्या
कर सकते हैं? दो आंखें
मिलीं, एक
नाक मिली, ऐसा
यह अहंकार भी
मिला। यह सब
मिला है। अपने
हाथ में कुछ
भी नहीं। तो
जो है ठीक है। 'मैं' भी
सही, यह भी
ठीक है।
इसमें
रंचमात्र भी
शिकायत न रखो।
उस बे—शिकायत
की भाव—दशा
में,
उस परम
स्वीकार में,
तुम अचानक
पाओगे. गया 'मैं'! क्योंकि
'मैं' बनता
ही कर्ता से
है। जब तुम
कुछ करते हो, तो 'मैं' बनता है।
अब
तुम एक नई बात
पूछ रहे हो, कि
'मैं' को
कैसे मिटाऊं?
तो यह
मिटाने वाला 'मैं' बन
जायेगा, कहीं
बच न पाओगे
तुम। इसलिए तो
विनम्र आदमी
का भी अहंकार
होता है—और
कभी— कभी
अहंकारी आदमी
से ज्यादा बड़ा
होता है।
तुमने
देखा विनम्र
आदमी का
अहंकार! वह
कहता है, मैं
आपके पैर की
धूल! मगर उसकी आंख
में देखना, वह क्या कह
रहा है! अगर
तुम कहो कि आप
बिलकुल ठीक कह
रहे हैं, हमको
तो पहले ही से
पता था कि आप
पैर की धूल
हैं, तो वह
झगड़ने को खड़ा
हो जायेगा। वह
यह कह नहीं रहा
है कि आप भी
इसको मान लो।
वह तो यह कह
रहा है कि आप
कहो कि आप
जैसा विनम्र
आदमी. दर्शन
हो गये बड़ी
कृपा! वह यह कह
रहा है कि आप
खंडन करो कि 'आप, और
पैर की धूल? आप तो
स्वर्ण—शिखर
हैं! आप तो
मंदिर के कलश
हैं!' जैसे—जैसे
तुम कहोगे
ऊंचा, वह
कहेगा कि नहीं,
मैं बिलकुल
पैर की धूल
हूं। लेकिन जब
कोई कहे कि
मैं पैर की
धूल हूं तुम
अगर स्वीकार
कर लो कि आप
बिलकुल ठीक कह
रहे हैं, सभी
ऐसा मानते हैं
कि आप बिलकुल
पैर की धूल
हैं, तो वह आदमी
फिर तुम्हारी
तरफ कभी
देखेगा भी
नहीं। वह
विनम्रता
नहीं थी—वह
नया अहंकार का
रंग था; अहंकार
ने नये वस्त्र
ओढ़े थे, विनम्रता
के वस्त्र ओढ़े
थे।
तो
तुम अगर 'मैं' से छूटने की
कोशिश किये, तो यह जो
छूटने वाला है,
यह एक नये 'मैं' को
निर्मित कर
लेगा। आदमी
पैरहन बदलता
है! कपड़े बदल
लिये, मगर
तुम तो वही
रहोगे।
अष्टावक्र
की बात समझने
की कोशिश करो; जल्दी
मत करो कि
क्या करें, कैसे अहंकार
से छुटकारा हो?
करने की
जल्दी मत करो;
थोड़ा समझने
के लिए
विश्राम लो।
अष्टावक्र यह कह
रहे हैं कि 'मैं' बनता
कैसे है, यह
समझ लो—करने
से बनता है, चेष्टा से
बनता है, यत्न
से बनता है, सफलता से
बनता है। तो
तुम जहां भी
यत्न करोगे, वहीं बन
जायेगा।
तो
फिर एक बात
साफ हो गई कि
अगर अहंकार से
मुक्त होना है
तो यत्न मत
करो,
चेष्टा मत
करो। जो है, उसे वैसा ही
स्वीकार कर
लो। उसी
स्वीकार में तुम
पाओगे. अहंकार
ऐसे मिट गया, जैसे कभी था
ही नहीं।
क्योंकि उसको
जो ऊर्जा देने
वाला तत्व था,
वह खिसक गया;
बुनियाद
गिर गई, अब
भवन ज्यादा
देर न खड़ा
रहेगा।
और
अगर कर्ता का
भाव गिर जाये, तो
जीवन की सारी
बीमारियां
गिर जाती हैं;
अन्यथा
जीवन में बड़े
जाल हैं। धन
की दौड़ भी
कर्ता की दौड़
है। पद की दौड़
भी कर्ता की दौड़
है।
प्रतिष्ठा की
दौड़ भी कर्ता
की दौड़ है। तुम
दुनिया को कुछ
करके दिखाना
चाहते हो।
मेरे
पास कई लोग आ
जाते हैं, वे
कहते हैं कि
ऐसा कुछ मार्ग
दें कि दुनिया
में कुछ करके
दिखा जायें।
क्या करके
दिखाना चाहते
हो? कि नहीं,
वे कहते हैं
कि 'नाम रह
जाये। हम तो
चले जायेंगे,
लेकिन नाम
रह जाए!' नाम
रहने से क्या
प्रयोजन? तुम्हारे
नाम में और
किसी की कोई
उत्सुकता नहीं
है, सिवाय
तुम्हारे। जब
तुम्हीं चले
गये, कौन
फिक्र करता
है! जब
तुम्हीं न
बचोगे, तो
तुम्हारा नाम
क्या खाक
बचेगा? तुम
न बचे, जीवंत,
तो नाम तो
केवल तख्ती थी,
वह क्या खाक
बचेगा? कौन
फिक्र करता है
तुम्हारे नाम
की? और नाम
बच भी गया तो
क्या सार है? किन्हीं
किताबों में
दबा पड़ा रहेगा,
तड़फेगा
वहां! सिकंदर
का नाम है, नेपोलियन
का नाम
है—क्या सार
है?
नहीं, लेकिन
हमें बचपन से
ये रोग सिखाये
गये हैं। बचपन
से यह कहा गया
है : 'कुछ
करके मरना, बिना करे मत
मर जाना!
अच्छा हो तो
अच्छा, नहीं
तो बुरा करके
मरना, लेकिन
नाम छोड़ जाना।
' लोग कहते
हैं, 'बदनाम
हुए तो क्या, कुछ नाम तो
होगा ही। अगर
ठीक रास्ता न
मिले, तो
उलटे रास्ते
से कुछ करना, लेकिन नाम
छोड़ कर जाना!' लोग ऐसे
दीवाने हैं कि
पहाड़ जाते हैं,
तो पत्थर पर
नाम खोद आते
हैं। पुराना
किला देखने
जाते हैं, तो
दीवालों पर
नाम लिख आते
हैं। और जो
आदमी नाम लिख
रहा है, वह
यह भी नहीं
देखता कि
दूसरे नाम
पोंछ कर लिख रहा
है। तुम्हारा
नाम कोई दूसरा
पोंछ कर लिख
जायेगा। तुम
दूसरे का पोंछ
कर लिख रहे
हो। दूसरों के
लिखे हैं, उनके
ऊपर तुम अपना
लिख रहे हो—और
मोटे अक्षरों
में; कोई
और आ कर उससे
मोटे अक्षरों
में लिख
जायेगा। किस
पागलपन में
पड़े हो?
अलबेले
अरमानों ने
सपनों के बुने
हैं जाल कई।
एक चमक
ले कर उठे हैं, जज्जाते
—पामाल कई।
रूप की
मस्ती ,प्यार
का नशा ,नाम
की अजमत ,जर
का गुरूर
धरती
पर इन्सां के
लिए हैं, फैले
मायाजाल कई।
अपनी—अपनी
किस्मत है, और
अपनी—अपनी
फितरत है,
खुशियों
से पामाल कई
हैं,
गम से
मालामाल कई।
इंसानों
का काल पड़ा है, वक्त
कड़ा है दुनिया
पर,
ऐसे कड़े
कब वक्त पड़े
थे,
यूं तो पड़े
हैं काल कई।
दिल की
दौलत कम मिलती
है,
दौलत तो
मिलती है बहुत,
दिल
उनके मुफलिस
थे हमने देखे
अहलेमाल कई।
कितने
मंजर पिनहा
हैं,
मदहोशी की
गहराई में,
होश का
आलम एक मगर, मदहोशी
के पाताल कई।
कितने
मंजर पिनहा
हैं मदहोशी की
गहराई में! यह
जो हमारी
मूर्च्छा है, इसमें
कितने दृश्य
छिपे
हैं—दृश्य के
बाद दृश्य; परदे के
पीछे परदे; कहानियों के
पीछे
कहानियां! यह
जो हमारी मूर्च्छा
है, इसमें
कितने पाताल
छिपे हैं—धन
के, पद के, प्रतिष्ठा
के, सपनों
के! जाल बिछे
हैं!
कितने
मंजर पिनहा
हैं मदहोशी की
गहराई में, होश
का आलम एक मगर,
मदहोशी के
पाताल कई।
लेकिन
जो होश में आ
गया है, उसका
आलम एक है, उसका
स्वभाव एक है,
उसका
स्वरूप एक है,
उसका स्वाद
एक है!
बुद्ध
ने कहा है : 'जैसे
चखो सागर को
कहीं भी तो
खारा है, ऐसा
ही तुम मुझे
चखो तो मैं
सभी जगह से
होशपूर्ण
हूं। मेरा एक
ही स्वाद
है—होश। '
वही
स्वाद
अष्टावक्र का
है। कर्ता
नहीं, भोक्ता
नहीं—साक्षी!
तो
यह तो पूछो ही
मत. कैसे!
क्योंकि 'कैसे'
में तो
कर्ता आ गया, भोक्ता आ
गया—तो तुम
चूक गये, अष्टावक्र
की बात चूक
गये।
अष्टावक्र
इतना ही कहते
हैं : जो भी है, उसे देखो; साक्षी बनो।
बस देखो!
अहंकार है तो
अहंकार को
देखो; करने
का क्या है? सिर्फ
देखो—और देखने
से क्रांति
घटित होती है।
तुम
समझे बात? बात
थोड़ी जटिल है,
लेकिन जटिल
इतनी नहीं कि
समझ में न
आये। बात सीधी—साफ
भी है।
अष्टावक्र कह
रहे हैं कि
तुम सिर्फ
देखो, तो
देखने में
कर्ता तो रह
नहीं जाता, मात्र
साक्षी रह
जाते हो।
कर्ता हटा कि
कर्ता से
जिन—जिन चीजों
को रस मिलता
था, बल
मिलता था, वे
सब गिर
जायेंगी।
बिना कर्ता के
धन की दौड़ कहां?
पद की दौड़
कहां? बिना
कर्ता के
अहंकार कहां?
वे सब
अपने—आप गिरने
लगेंगे। एक
बात साध लो—साक्षी;
शेष कुछ भी
करने को नहीं
है। शेष सब
अपने से हो
जायेगा। शेष
सदा होता ही
रहा है। तुम
नाहक ही
बीच—बीच में
खड़े हो जाते
हो।
मैंने
सुना है, एक
हाथी एक पुल
पर से गुजरता
था। हाथी का
वजन—पुल कैपने
लगा! एक मक्खी
उसकी सूंड़ पर
बैठी थी। जब
दोनों उस पार
हो गये, तो
मक्खी ने कहा,
'बेटा! हमने
पुल को बिलकुल
हिला दिया। 'हाथी ने कहा,
'देवी! मुझे
तेरा पता ही न
था, जब तक
तू बोली न थी
कि तू भी है। '
यह
तुम जो सोच
रहे हो तुमने
पुल को हिला
दिया, यह तुम
नहीं हो—यह
जीवन—ऊर्जा
है। तुम तो
मक्खी की तरह
हो, जो
जीवन—ऊर्जा पर
बैठे कहते हो,
'बेटा, देखो
कैसा हिला
दिया!'
यह
अहंकार तो
सिर्फ
तुम्हारे ऊपर
बैठा है। तुम्हारी
जो अनंत ऊर्जा
है,
उससे सब कुछ
हो रहा है। वह
परमात्मा की
ऊर्जा है, उसमें
तुम्हारा कुछ
लेना—देना
नहीं है। वही
तुममें श्वास
लेता, वही
तुममें जागता,
वही तुममें
सोता, तुम
बीच में ही अकड़
ले लेते हो।
इतना जरूर है
कि तुम जब अकड़
लेते हो तो वह
बाधा नही
डालता।
हाथी
ने तो कम—से—कम
बाधा डाली।
हाथी ने कहा
कि देवी, मुझे
पता ही न था कि
तू भी मेरे
ऊपर बैठी है।
इतना तो कम—से—कम
हाथी ने कहा, परमात्मा
इतना भी नहीं
कहता।
परमात्मा परम
मौन है। तुम
अकड़ते हो तो
अकड़ लेने देता
है। तुम उसके
कृत्य पर अपना
दावा करते हो
तो कर लेने
देता है। जो
तुमने किया ही
नहीं है, उसको
भी तुम कहते
हो मैं कर रहा
हूं तो भी वह
बीच में आ कर
नहीं कहता कि
नहीं, तुम
नहीं, मैं
कर रहा हूं!
क्योंकि उसके
पास तो कोई 'मैं' है
नहीं, तो
कैसे तुमसे
कहे कि मैं कर
रहा हूं? इसलिए
तुम्हारी
भ्रांति चलती
जाती है।
लेकिन
गौर से देखो, थोड़ा
आंख खोल कर
देखो :
तुम्हारे
किये थोड़े ही
कुछ हो रहा है;
सब अपने से
हो रहा है!
यही
नियति का
अपूर्व
सिद्धात है, भाग्य
का अपूर्व
सिद्धात है कि
सब अपने से हो रहा
है। गलत लोगों
ने उसके गलत
अर्थ ले लिये,
गलत लोगों
की भूल।
अन्यथा भाग्य
का इतना ही अर्थ
है कि भाग्य
के सिद्धात को
अगर तुम ठीक
से समझ लो, तो
तुम साक्षी रह
जाओगे, और
कुछ करने को
नहीं है फिर।
लेकिन भाग्य
से लोग साक्षी
तो न बने, अकर्मण्य
बन गये; अकर्ता
तो न बने, अकर्मण्य
बन गये।
अकर्ता
और अकर्मण्य
में भेद है।
अकर्मण्य तो काहिल
है,
सुस्त है, मुर्दा है।
अकर्ता ऊर्जा
से भरा
है—सिर्फ इतना
नहीं कहता कि
मैं कर रहा
हूं।
परमात्मा कर रहा
है! मैं तो
सिर्फ देख रहा
हूं। यह लीला
हो रही है, मैं
देख रहा हूं।
आदमी
बहुत बेईमान
है,
सुंदरतम
सत्यों का भी
बड़ा कुरूपतम
उपयोग करता
है। भाग्य बड़ा
सुंदर सत्य
है। उसका केवल
इतना ही अर्थ
है कि सब हो
रहा है; तुम्हारे
किये कुछ नहीं
हो रहा है। सब
नियत है। जो
होना है, होगा।
जो होना है, होता है। जो
हुआ है, होना
था। तुम
किनारे बैठ कर
शांति से देख
सकते हो लीला,
कोई
तुम्हें बीच
में उछल—कूद
करने की जरूरत
नहीं है।
तुम्हारे
आगे—पीछे
दौड़ने से कुछ
भी फर्क नहीं
पड़ रहा है; जो
होना है, वही
हो रहा है। जो
होना है, वही
होगा। फिर तुम
साक्षी हो
जाते हो।
साक्षी
की तरफ ले
जाने के लिए
भाग्य का
ढांचा खोजा
गया था। लोग
साक्षी की तरफ
तो नहीं गये; लोग
अकर्मण्य हो
कर बैठ गये।
उन्होंने कहा,
जब जो होना
है, होना
है, तो फिर
ठीक; फिर
हम करें ही
क्यों? अभी
भी धारणा यही
रही कि हमारे
करने का कोई
बल है, हम
करें ही क्यों?
पहले कहते
थे, हम
करके
दिखायेंगे; अब कहते हैं,
करने में
सार क्या! मगर
कर्ता का भाव
न गया; वह
अपनी जगह खड़ा
हुआ है।
अष्टावक्र
को अगर तुम
समझो, तो कोई
विधि नहीं है,
कोई
अनुष्ठान
नहीं है।
अष्टावक्र
कहते हैं : अनुष्ठान
ही बंधन है; विधि ही
बंधन है; करना
ही बंधन है।
चौथा
प्रश्न :
आपकी
अनुकंपा से
आकाश देख पाता
हूं; प्रकाश
के अनुभव भी
होते हैं, और
भीतर के बहाव
के साथ भी एक
हो पाता हूं। लेकिन
जब कामवासना
पकड़ती है, तब
उसमें भी उतना
ही डूबना
चाहता जितना
ध्यान में।
कृपया बतायें,
यह मेरी
स्थिति है?
पहली
बात :
कामवासना के
भी साक्षी बनो।
उसके भी
नियंता मत
बनी। उसको भी
जबर्दस्ती
नियंत्रण में
लाने की
चेष्टा मत करो, उसके
भी साक्षी
रहो। जैसे और
सब चीजों के
साक्षी हो
वैसे ही
कामवासना के
भी साक्षी
रहो। कठिन है,
क्योंकि
सदियों से
तुम्हें
सिखाया गया कि
कामवासना पाप
है। उस पाप की
धारणा मन में
बैठी है।
इस
जगत में पाप
है ही नहीं—बस
परमात्मा है।
यह धारणा
छोड़ो। इस जगत
में एक ही है
रूप समाया सब में——वह
परमात्मा है।
क्षुद्र से
क्षुद्र में वही, विराट
से विराट में
वही! निम्न
में वही, श्रेष्ठ
में वही!
कामवासना में
भी वही है, और
समाधि में भी
वही है। यहां
पाप कुछ है ही
नहीं।
इसका
यह अर्थ नहीं
कि मैं यह कह
रहा हूं कि
तुम कामवासना
में ही अटके
रह जाओ। मैं
सिर्फ इतना कह
रहा हूं. उसे
भी तुम
परमात्मा का
ही एक रूप
समझो। और भी
रूप हैं। शायद
कामवासना
पहली सीढ़ी है
उसके रूप की।
थोड़ा—सा स्वाद
समाधि का
कामवासना में
फलित होता है, इसलिए
इतना रस है।
जब और बड़ी
समाधि घटने
लगेगी, तो
वह रस अपने से
खो जायेगा।
जिन
मित्र ने पूछा
है कि 'ध्यान
में लीन होता
हूं भीतर के
बहाव के साथ एक
हो पाता हूं
कामवासना
पकड़ती है, तब
उसमें भी उतना
ही डूबना
चाहता हूं। ' डूबो! रोकने
की कोई जरूरत
नहीं है। बस
डूबते—डूबते
साक्षी बने
रहना। देखते
रहना कि डुबकी
लग रही है।
देखते रहना कि
कामवासना ने
घेरा। असल में
'कामवासना'
शब्द ही
निंदा ले आता
है मन में।
ऐसा कहना : परमात्मा
के एक ढंग ने
घेरा; यह
परमात्मा की
ऊर्जा ने घेरा;
यह
परमात्मा की
प्रकृति ने
घेरा; परमात्मा
की माया ने
घेरा! लेकिन
कामवासना शब्द
का उपयोग करते
ही—पुराने
सहयोग, संबंध
शब्द के साथ
गलत हैं—ऐसा लगता
है पाप हुआ; साक्षी रहना
मुश्किल हो
जाता है—या तो
मूर्च्छित हो
जाओ और या
नियंता हो
जाओ। साक्षी
होना न तो
मूर्च्छित
होना है और न
नियंता होना
है—दोनों के
मध्य में खड़ा
होना है। एक
तरफ गिरो, कुंआ;
एक तरफ गिरो,
खाई—बीच में
रह जाओ, तो
सधे, तो
समाधि।
ये
दोनों आसान
हैं।
कामवासना में
मूर्च्छित हो
जाना बिलकुल
आसान है; बिलकुल
भूल जाना कि
क्या हो रहा
है, नशे
में हो जाना
आसान है।
कामवासना को
नियंत्रण कर
लेना, जबर्दस्ती
रोक लेना, सम्हाल
लेना, वह
भी आसान है।
मगर दोनों में
ही तुम चूक
रहे हो।
व्यभिचारी भी
चूक रहा है, ब्रह्मचारी
भी चूक रहा
है। वास्तविक
ब्रह्मचर्य
तो तब घटित
होता है, जब
तुम दोनों के
मध्य में खड़े
हो, जब तुम
सिर्फ देख रहे
हो। तब तुम
पाओगे कि कामवासना
भी शरीर में
ही उठी और
शरीर में ही
गंजी; मन
में थोड़ी छाया
पड़ी, और
विदा हो गई।
तुम तो दूर
खड़े रहे!
तुममें कैसी
कामवासना!
तुममें वासना
हो ही कैसे
सकती है? तुम
तो
द्रष्टा—मात्र
हो।
और
अक्सर ऐसा
होगा कि जब
ध्यान ठीक
लगने लगेगा, तो
कामवासना जोर
पकड़ेगी। यह
तुम समझ लो, क्योंकि
अधिक लोगों को
ऐसा होगा।
ध्यान जब ठीक
लगने लगेगा, तो तुम्हारे
जीवन में एक
विश्राम
आयेगा, तनाव
कम होगा। तो
जन्मों—जन्मों
से तुमने जो जबर्दस्ती
की थी, कामवासना
के साथ जो दमन
किया था, वह
हटेगा। तो
दबी—दबाई
वासना तेज
ज्वाला की तरह
उठेगी। इसलिए
ध्यान के साथ
अगर कामवासना
उठे, तो
घबड़ाना मत, यह ठीक
लक्षण है कि
ध्यान ठीक जा
रहा है; ध्यान
काम कर रहा है,
ध्यान
तुम्हारे
तनाव' हटा
रहा है, नियंत्रण
हटा रहा है, तुम्हारा
दमन हटा रहा
है; ध्यान
तुम्हें सहज
प्रकृति की
तरफ ला रहा
है।
पहले
ध्यान
तुम्हें
प्रकृतिस्थ
करेगा और फिर
परमात्मा तक
ले जायेगा।
क्योंकि जो
अभी नैसर्गिक
नहीं है, उसका
स्वाभाविक
होना असंभव
है। जो अभी
प्रकृति के
साथ भी नहीं
है, वह
परमात्मा के
साथ नहीं हो
सकता। तो
ध्यान पहले
तुम्हें
प्रकृति के
साथ ले जाएगा,
फिर
तुम्हें
परमात्मा के
साथ ले जाएगा।
प्रकृति, परमात्मा
का बाह्य आवरण
है। अगर उससे
भी तुम्हारा
मेल नहीं है, तो अंतरतम
के परमात्मा
से कैसे मेल
होगा? प्रकृति
तो परमात्मा
के मंदिर की
सीढ़ियां हैं।
अगर तुम
सीढ़ियां ही न
चढ़े, तो
मंदिर के
अंतर्गृह में
कैसे प्रवेश
होगा?
अगर
तुम मेरी बात
समझ पाओ, तो अब
और दमन मत करो!
अब चुपचाप उसे
भी स्वीकार कर
लो। परमात्मा
जो दृश्य
दिखाता है, शुभं ही
होगा।
परमात्मा
दिखाता है, तो शुभ ही
होगा। तुम
नियंत्रण मत
करो, और न
तुम निर्णायक
बनी, और न
तुम पीछे से
खड़े होकर यह
कहो कि यह ठीक
और यह गलत; मैं
ऐसा करना
चाहता और ऐसा
नहीं करना
चाहता। तुम
सिर्फ देखो!
उम्र
ढलती जा रही
है
शमा—ए—अरमां
भी पिघलती जा
रही है,
रफ्त—रफ्ता
आग बुझती जा
रही है,
शौक
रमते जा रहे
हैं
सैल
थमते जा रहे
हैं
राग
थमता जा रहा
है
खामोशी
का रंग जमता
जा रहा है,
आग
बुझती जा रही
है।
ठीक
हो रहा है।
लेकिन इसके
पहले कि आग
बुझे, आखिरी
लपट उठेगी।
तुम
चिकित्सकों
से पूछो, मरने
के पहले आदमी
थोड़ी देर को
बिलकुल
स्वस्थ हो जाता
है; सब
बीमारियां खो
जाती हैं। जो
मुर्दे की तरह
बिस्तर पर पड़ा
था, उठ कर
बैठ जाता है, आंख खोल
देता है, ताजा
मालूम पड़ता
है। मरने के
थोड़ी देर पहले
सब बीमारियां
खो जाती हैं, क्योंकि
जीवन आखिरी
छलांग लेता है,
ऊर्जा जीवन
की फिर से
उठती है।
तुमने
देखा, दीया
बुझने के पहले
आखिरी भभक से
जलता है! इसके
पहले कि आखिरी
तेल चुक जाये,
आखिरी बूंद
तेल की पी कर
भभक उठता है।
वह आखिरी भभक
है। सुबह होने
के पहले रात
देखा, कैसी
अंधेरी हो
जाती है! वह
आखिरी भभक है।
ऐसे ही ध्यान
में भी जब तुम
गहरे उतरोगे,
तो तुम
पाओगो, आग
जब बुझने के
करीब आने लगती
है, तो
आखिरी भभक।
काम—ऊर्जा भी
उठेगी।
उम्र
ढलती जा रही
है
शमा—ए—
अरमां भी
पिघलती जा रही
है
—कामना का
दीया पिघल रहा
है, उम्र
ढल रही है।
रफ्ता—रफ्ता
आग बुझती जा
रही है।
शौक
रमते जा रहे
हैं
सैल
थमते जा रहे
हैं
—प्रवाह रुक
रहा है जीवन
का।
राग
थमता जा रहा
है
खामोशी
का रंग जमता
जा रहा है।
—ध्यान का
रंग जम रहा है,
मौन का रंग
जम रहा है।
खामोशी
का रंग जमता
जा रहा है।
आग
बुझती जा रही
है।
इसमें
किसी भी घड़ी
भभक उठेगी।
ऐसी भभक ही उठ
रही है। उसे
देख लो। उसे
दबा मत देना, अन्यथा
फिर तुम्हारे
भीतर सरक
जायेगी। छुटकारा
होने के करीब
है, तुम
उसे दबा मत
लेना, अन्यथा
फिर बंधन शुरू
हो जायगा। जो
दबाया गया है,
वह फिर—फिर
निकलेगा।
जिसके साथ
तुमने जबर्दस्ती
की है, वह
फिर—फिर
आयेगा। जाने
ही दो, निकल
ही जाने दो, बह जाने दो।
होने दो भभक
कितनी ही बड़ी,
तुम शांत
भाव से देखते
रहो।
तुम्हारे
ध्यान में कुछ
बाधा नहीं
पड़ती इससे।
तुम साक्षी
बने रहो!
पांचवां
प्रश्न :
आपने
कहा कि किसी
भी बंधन में
मत पड़ो, शांत
और सुखी हो
जाओ। तो क्या
संन्यास भी एक
बंधन नहीं है?
और क्या विधि,
उपाय व
प्रक्रिया भी
बंधन नहीं हैं? कृपया
समझाएं!
अगर
बात समझ में आ
गई तो पूछो ही
मत। अगर पूछते
हो तो बात समझ
में आई नहीं।
अगर बात समझ
में आ गई मेरी
कि किसी बंधन
में मत पड़ो, शांत
और सुखी हो
जाओ, तो
समझते से ही
तुम सुखी और शांत
हो जाओगे; फिर
यह प्रश्न
कहां? सुखी
और शांत आदमी
प्रश्न पूछता
है? सब
प्रश्न अशांति
से उठते, दुख
से उठते, पीड़ा
से उठते।
अगर
तुम अभी भी
प्रश्न पूछ
रहे हो, तो
तुम शांत अभी
भी हुए नहीं; संन्यास की
जरूरत पड़ेगी।
अगर शांत तुम
हो जाओ, तो
क्या जरूरत
संन्यास की? संन्यास हो
गया!
लेकिन
अपने को धोखा
मत दे लेना! संन्यास
लेने की
हिम्मत न हो, अष्टावक्र
का सहारा मत
ले लेना। ही, अगर शांत हो
गए हो तो कोई
संन्यास की
जरूरत नहीं
है। शांति की
खोज में ही तो
आदमी संन्यास
लेता है।
अगर
तुम सुखी हो
गए,
समझते ही
सुखी हो गये, अगर जनक
जैसे पात्र हो,
तो बात खतम
हो गई। मगर तब
यह प्रश्न न
उठता। जनक ने
प्रश्न नहीं
पूछा; जनक
ने कहा, 'अहो
प्रभु! तो मैं
मुका हूं? आश्चर्य
कि अब तक कैसे
माया—मोह में
पड़ा रहा!'
तुम
अगर जनक जैसे
पात्र होते, तो
तुम कहते, 'धन्य!
तो मैं मुक्त
हूं! तो अब तक
कैसे माया—मोह
में पड़ा रहा!' तुम यह
प्रश्न पूछते
ही नहीं।
मामला
ऐसा है कि
संन्यास लेने
की कामना मन
में है, हिम्मत
नहीं है।
अष्टावक्र को
सुन कर तुमने
सोचा, यह
अच्छा हुआ कि
संन्यास में
बंधन है, कोई
पड़ने की जरूरत
नहीं! और
दूसरे बंधन
छोड़ोगे कि
सिर्फ
संन्यास का ही
बंधन छोड़ोगे?
और
संन्यासी तुम
अभी हो ही
नहीं, तो
उसे छोड़ने का
कोई उपाय नहीं
है, जो
तुम्हारे पास
ही नहीं है।
और बंधन
क्या—क्या
छोड़ोगे? पत्नी
छोड़ोगे? घर
छोड़ोगे? धन
छोड़ोगे? पद
छोड़ोगे? मन
छोड़ोगे? कर्ता
छोड़ोगे? अहंकार—
भाव छोड़ोगे? और
क्या—क्या
छोड़ोगे जो
तुम्हारे पास
है? निश्चित
जो तुम्हारे
पास है वही
तुम छोड़ सकते हो।
यह तो
संन्यासियों
को पूछने दो, जो संन्यासी
हो गये हैं।
तुम तो अभी
संन्यासी हुए
नहीं। यह तो
संन्यासी
पूछे कि क्या
अब छोड़ दें
संन्यास, तो
समझ में आता
है। उसके पास
संन्यास है; तुम्हारे
पास है ही
नहीं। जो
तुम्हारे पास
नहीं, उसे
तुम छोड़ोगे
कैसे? जो
तुम्हारे पास
है, वही
पूछो।
गृहस्थी छोड़
दें, यह
पूछो।
अष्टावक्र
की पूरी बात
सुन कर तुमको
इतना ही समझ
में आया कि
संन्यास बंधन
है! और कोई चीज
बंधन है?
आदमी
चालाक है। मन
बेईमान है। मन
बड़े हिसाब में
रहता है। वह
देखता है, अपने
मतलब की बात
निकाल लो कि
चलो यह तो
बहुत ही अच्छा
हुआ, झंझट
से बचे!
डरे—डरे लेने
की सोच रहे थे,
ये
अष्टावक्र
अच्छे मिल गये
रास्ते पर; इन्होंने
खूब समझा दिया,
ठीक समझा
दिया, अब
कभी भूल कर
संन्यास न
लेंगे!
अष्टावक्र
से कुछ और
सीखोगे?
लोग
मेरे पास आ
जाते हैं। वे
कहते हैं, 'अब
ध्यान छोड़ दें?
क्योंकि
अष्टावक्र
कहते हैं, ध्यान
में बंधन है। '
धन छोड़ोगे?
पद छोड़ोगे?
सिर्फ
ध्यान.! और
ध्यान अभी लगा
ही नहीं; छोड़ोगे
खाक? ध्यान
होता और तुम
कहते छोड़ दें,
तो मैं कहता,
छोड़ दो! मगर
जिसका ध्यान
लग गया, वह
कहेगा ही नहीं
छोड़ने की बात;
वह छोड़ने
—पकड़ने के
बाहर गया। वह
अष्टावक्र को
समझ लेगा, आनंदित
होगा, गदगद
होगा। वह
कहेगा, ठीक,
बिलकुल बात
यही तो है।
ध्यान में
ध्यान ही तो छूटता
है। संन्यास
में बंधन ही
तो छूटते हैं।
संन्यास कोई
बंधन नहीं है।
यह तो केवल और
सारे बंधनों
को छोड़ने का
एक उपाय है।
अंततः तो यह भी
छूट जायेगा।
ऐसा
ही समझो कि
पैर में काटा
लगा,
तो तुम
दूसरा कांटा
उठा कर पहले
कांटे को निकाल
लेते हो।
दूसरा कांटा
भी कांटा है; लेकिन पहले
कांटे को
निकालने के
काम आ जाता है।
फिर तो तुम
दोनों को फेंक
देते हो। फिर
दूसरे काटे को
संभाल कर थोड़े
ही रखते, कि
इसने बड़ी कृपा
की कि पहले
कांटे को
निकाल दिया!
फिर ऐसा थोड़े
ही करते कि अब
पहला काटा जहां
लगा था, वहां
दूसरा लगा लो,
यह बड़ा
प्रिय है!
संन्यास
तो काटा है।
संसार का
कांटा लगा है, उसे
निकालने का एक
उपाय है। अगर
तुम बिना काटे
के निकाल सको,
तो बड़ा शुभ।
अष्टावक्र की
बात समझ में आ
जाये, तो
इससे शुभ और
क्या हो सकता
है! फिर किसी
संन्यास की
कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन जरा सोच
लेना, कहीं
यह बेईमानी न
हो! अगर
बेईमानी हो, तो हिम्मत
करो और
संन्यास में
उतरो। कभी ऐसी
घड़ी आयेगी, जब संन्यास
को भी छोड़ने
के तुम योग्य
हो .—जाओगे।
लेकिन
छोड़ना क्या है? जब
समझ आती है, तो छोड़ने को
कुछ भी
नहीं—सब छूट
जाता है। यही
तो जनक ने कहा
कि प्रभु, यह
शरीर भी छूट
गया! अभी जनक
शरीर में हैं,
शरीर छूट
नहीं गया; लेकिन
जनक कहते हैं,
यह शरीर भी
छूट गया! यह
सारा संसार भी
छूट गया! यह सब
छूट गया! मैं
बिलकुल
अलिप्त, भावातीत
हो गया! कैसी
कुशलता आपके
उपदेश की! यह
कैसी कला! कुछ
भी हुआ नहीं, न महल छूटा, न संसार
छूटा, न
शरीर छूटा—और
सब छूट गया!
जिस
दिन तुम
समझोगे तो फिर
कुछ छोड़ने को
नहीं है —न
संसार और न
संन्यास!
छोड़ने की बात
ही उस आदमी की
है,
जो सोचता है
कुछ पकड़ने को
है।
त्याग
भी भोग की
छाया है।
त्यागी भी
भोगी का ही
शीर्षासन करता
हुआ रूप है।
जब भोग जाता
है,
त्याग भी
जाता है। वे
दोनों साथ
रहते हैं, साथ
जाते हैं।
इसलिए तो तुम
देखते हो, भोगियों
को त्यागियों
के पैर पड़ते!
वे साथ—साथ
हैं। आधा काम
त्यागी कर रहे,
आधा भोगी कर
रहे—दोनों
एक—दूसरे के
साथ जुड़े हैं।
न भोगी जी
सकते त्यागी
के बिना, न
त्यागी जी
सकते भोगी के
बिना। तुमने
देखा यह
षड्यंत्र!
एक
आदमी मेरे पास
आया,
कहा कि
ध्यान सीखना
है। वे
संन्यासी
थे—पुराने ढब
के संन्यासी!
तो मैंने कहा
कि ठीक है, कल
सुबह ध्यान
में आ जाओ।
उन्होंने कहा,
वह तो जरा
मुश्किल है।
मैंने कहा, 'क्यों, इसमें
क्या मुश्किल
है?' उन्होंने
कहा कि
मुश्किल यह है
कि ये मेरे
साथ जो हैं, जब तक ये
मेरे साथ न
आएं, मैं
नहीं आ सकता; क्योंकि
पैसा ये रखते
हैं, पैसा
मैं नहीं
छूता। इनको
सुबह कहीं और
जाना है, तो
मैं कल सुबह
तो न आ सकूंगा।
यह
भी खूब मजा
हुआ! पैसे की
जरूरत तो
तुम्हें है ही, फिर
तुम अपनी जेब
में रखो कि
दूसरे की जेब
में, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? और
यह तो और बंधन
हो गया। इससे
तो वे ही ठीक
जो अपनी जेब
में रखते हैं;
कम—से—कम
जहां जाना है,
जा तो सकते
हैं! अब यह एक
अजीब मामला हो
गया कि यह
आदमी जब तक
साथ न हो, तब
तक तुम आ नहीं
सकते, क्योंकि
टैक्सी में
पैसे देने
पड़ेंगे—पैसा हम
छूते नहीं
हैं! तो तुम
अपना पाप इस
आदमी से करवा
रहे हो? अपना
पाप खुद करो।
यह बड़े मजे की
बात है कि टैक्सी
में तुम
बैठोगे, नरक
यह जायेगा! इस
पर कुछ दया
करो। यह
भोगी—योगी का
खूब जोड़ है!
तुम्हारे
सारे त्यागी
भोगियों से
बंधे जी रहे
हैं। और
तुम्हारा
भोगी भी
त्यागियों से
बंधा जी रहा
है,
क्योंकि वह
त्यागी के चरण
छू कर सोचता
है, 'आज
त्यागी नहीं
तो कम—सें—कम
त्यागी के चरण
तो छूता हूं? चलो कुछ तो
तृप्ति, कुछ
तो किया! आज नहीं
कल, मैं भी
त्यागी हो
जाऊंगा।
लेकिन अभी
त्यागी की
पूजा—अर्चना
तो करता हूं!'
जैन
कहते हैं, कहां
जा रहे हो? —साधु
जी की सेवा
करने जा रहे
हैं! सेवा
करके सोचते
हैं कि चलो, कुछ तो
लाभ—अर्जन कर
रहे हैं। उधर
साधु बैठे हैं,
वे राह देख
रहे हैं, कि
भोगी जी कब आयें!
इधर भोगी जी
हैं, वे
देखते हैं कि
साधु जी कब
गाव में
पधारे! तो भोगी
जी और साधु जी,
दोनों एक ही
सिक्के के
पहलू हैं।
तुम
जरा सोचो, अगर
भोगी साधुओं
के पास जाना
बंद कर दें, कितने साधु
वहां बैठे
रहेंगे! वे सब
भाग खड़े होंगे।
कौन इंतजाम
करेगा, कौन
व्यवस्था करेगा!
वे सब जा चुके
होंगे। लेकिन
भोगी साधु को
सम्हालता है,
साधु भोगी
को सम्हाले
रखता है। यह
पारस्परिक है।
वास्तविक
ज्ञानी न तो
त्यागी होता, न
भोगी होता। वह
इतना ही जान
लेता है कि
मैं सिर्फ
साक्षी हूं।
अब पैसे दूसरे
की जेब में
रखो कि अपनी
जेब में रखो, क्या फर्क
पड़ता है? वह
साक्षी है। हो,
तो साक्षी
है; न हो, तो साक्षी
है। गरीब हो, तो साक्षी
है; अमीर
हो, तो
साक्षी है।
साक्षी में
थोड़े ही
गरीबी—अमीरी
से फर्क पड़ता
है! क्या तुम
सोचते हो
भिखमंगा साक्षी
होगा तो उसका
साक्षीपन
थोड़ा कम होगा,
और सम्राट
साक्षी होगा
तो उसका
साक्षीपन
थोड़ा ज्यादा
होगा? साक्षीपन
कहीं
कम—ज्यादा
होता है? गरीब
हो कि अमीर, स्वस्थ हो
कि अस्वस्थ, पढ़ा—लिखा हो
कि बेपढा—लिखा,
सुंदर हो कि
कुरूप, ख्यातिनाम
हो कि
बदनाम—इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। साक्षी
कुछ ऐसी संपदा
है, जो सभी
के भीतर बराबर
है, उसमें
कुछ कम—ज्यादा
नहीं होता।
हर
स्थिति के हम
साक्षी हो
सकते
हैं—सफलता के, विफलता
के; सम्मान
के, अपमान
के। साक्षी
बनो, इतना
ही अष्टावक्र
का कहना है।
लेकिन अगर पाओ
कि कठिन है
साक्षी बनना
और अभी तो
विधि का उपयोग
करना होगा, तो विधि का
उपयोग करो, घबड़ाओ मत।
विधि का उपयोग
कर—करके तुम
इस योग्य
बनोगे कि विधि
के भी साक्षी
हो जाओगे।
इसलिए तो मैं
कहता हूं
ध्यान करो, कोई फिक्र
नहीं।
क्योंकि मैं
जानता हूं
ध्यान न करने
से तुम्हें
साक्षी—भाव
नहीं आने वाला,
ध्यान न
करने से केवल
तुम्हारे
विचार चलेंगे।
तो विकल्प 'ध्यान और
साक्षी' में
थोड़े ही है; विकल्प 'विचार
और ध्यान' में
है।
समझे
मेरी बात? तुम
जब नहीं ध्यान
करोगे—सुन
लिया
अष्टावक्र को—अष्टावक्र
ने कहा ध्यान
इत्यादि सब
बंधन है—और
बिलकुल ठीक
कहा, सौ
प्रतिशत ठीक
कहा—तो तुमने
ध्यान छोड़
दिया तो तुम
क्या करोगे? साक्षी हो
जाओगे उस समय?
तुम वही
कूड़ा—कर्कट
विचार
दोहराओगे। तो
यह तो बड़े मजे
की बात हुई।
यह तो
अष्टावक्र के
कारण तुम और
भी संसार में
गिरे। यह तो
सीढ़ी, जिससे
चढ़ना था, तुमने
नर्क में
उतरने के लिए
लगा ली। सीढ़ी
वही है।
मैं
तुमसे कहता
हूं ध्यान
करो। क्योंकि
अभी तुम्हारे
सामने विकल्प
ध्यान और
विचार, इसका
है; अभी
साक्षी का तो
तुम्हारे
सामने विकल्प
नहीं है। हा, जब ध्यान
कर—करके विचार
समाप्त हो
जायेगा, तब
एक नया विकल्प
आयेगा, कि
अब चुनना है :
साक्षी या
ध्यान? तब
साक्षी चुनना,
और ध्यान को
भी छोड़ देना।
अभी
अगर तुमने तय
किया कि
संन्यास नहीं
लेना है, तो
तुम संसारी
रहोगे। अभी
विकल्प
संन्यास और संसार
में है। अभी
मैं कहता हूं :
लो संन्यास! फिर
एक दिन ऐसी
घड़ी आयेगी कि
विकल्प संसार
और संन्यास का
नहीं रह
जाएगा। संसार
तो गया, संन्यास
रह गया। तब
परम संन्यास
और संन्यास का
विकल्प होगा।
तब मैं तुमसे
कहूंगा : जाने
दो संन्यास!
अब डूबो परम
संन्यास में।
हौ, अगर
तुम क्षण भर
में जनक जैसे
जा सकते हो, तो मैं बाधा
देने वाला
नहीं! तुम
सुखी हो जाओ! सुखी
भव! न हो पाओ, तो इसमें
कोई और निर्णय
करेगा नहीं, तुम्हीं
निर्णय करना
कि अगर सुखी
नहीं हो पा रहे,
तो फिर कुछ
करना जरूरी
है।
सत्य
भी तुम असत्य
कर ले सकते हो, और
फूल भी
तुम्हारे लिए
काटे बन सकते
हैं—तुम पर
निर्भर है।
उजियारे
में नैन मूंद
कर भाग नहीं
मेरे भोले
मन।
डगरें
सब अनजानी हैं,
पथ में
मिलते
शूल—शिला
भीनी—भीनी
गंध देख कर,
सुमनों
का विश्वास न
कर!
तुम
जरा खयाल करना, जाग
कर कदम उठाना!
क्योंकि तुम
जो कदम उठाओगे,
वह कहीं
भीनी—भीनी गंध
को देख कर ही
मत उठा लेना।
पथ में
मिलते
शूल—शिला
भीनी—
भीनी गंध देख
कर
सुमनों
का विश्वास न
कर।
वह
जो तुम्हें
भीनी गंध
मिलती है, खयाल
कर लेना, वह
कहीं
तुम्हारी
आरोपित ही न
हो! वह कहीं
तुम्हारा लोभ
ही न हो! वह
तुम्हारा
कहीं भय ही न
हो! वह कहीं
तुम्हारी
कमजोरी ही न
हो, जो तुम
आरोपित कर
लेते हो। और
उस भीनी गंध
में तुम भटक
मत जाना।
बड़ा
सुगम है कुछ न
करना, सुन कर
ऐसा लगता है।
लेकिन जब करने
चलोगे 'कुछ
न करना', तो
इससे ज्यादा
कठिन और कोई
बात नहीं। सुन
कर तो साक्षी
की बात कितनी
सरल लगती है
कि कुछ नहीं
करना, सिर्फ
देखना है, जब
करने चलोगे तब
पाओगे, अरे,
यह तो बड़ी
दुस्तर है!
ऐसा
करना कि अपनी
घड़ी को ले कर
बैठ जाना।
सेकेंड का
कांटा एक
मिनिट में
चक्कर लगा
लेता है। तुम
उस सेकेंड के
काटे पर नजर
रखना और कोशिश
करना, कि मैं
साक्षी हूं इस
सेकेंड के
कांटे का, और
साक्षी
रहूंगा। तुम
पाओगे दो चार
सेकेंड चले—गया
साक्षी! कोई
दूसरा विचार आ
गया! भूल ही गये!
फिर झटका
लगेगा कि अरे,
यह काटा तो
आगे सरक गया!
फिर दो—चार
सेकेंड साक्षी
रहे, फिर
भूल गये। एक
मिनिट पूरे
होने में तुम
दों—चार—दस
डुबकियां
खाओगे। एक
मिनिट भी
साक्षी नहीं
रह सकते हो! तो
अभी साक्षी का
तो सवाल ही नहीं
है। अभी तो
तुम विचार और
ध्यान में
चुनो, फिर
धीरे—धीरे
ध्यान और
साक्षी में
चुनाव करना
संभव हो
जायेगा।
संन्यास
का पूछते हो
तो संन्यास तो
सिर्फ मेरे
साथ होने की
एक भावभंगिमा
है। यह बंधन
नहीं है। तुम
मुझसे बंध नहीं
रहे हो। मैं
तुम्हें कोई
अनुशासन नहीं
दे रहा हूं
कोई मर्यादा
नहीं दे रहा
हूं। मैं तुमसे
कह नहीं
रहा—कब उठो; क्या
खाओ, क्या
पीयो, क्या
करो, क्या
न करो। मैं
तुमसे इतना ही
कह रहा हूं कि
साक्षी रहो।
मैं तुमसे
इतना ही कह
रहा हूं कि
मेरा हाथ
मौजूद है, मेरे
हाथ में हाथ
गहो; शायद
दो कदम मेरे
साथ चल लो, तो
मेरी बीमारी
तुम्हें भी लग
जाये।
संक्रामक है
यह बीमारी।
बुद्ध के साथ
थोड़ी देर चल
लो, तो तुम
उनके रंग में
थोड़े रंग
जाओगे; एकदम
बच नहीं सकते।
थोड़ी गंध उनकी
तुममें से भी आने
लगेगी। बगीचे
से ही अगर
गुजर जाओ, तो
तुम्हारे
कपड़ों में भी
फूलों की गंध
आ जाती है—फूल
छुए भी नहीं, तो भी!
संन्यास
तो मेरे साथ
चलने की थोड़ी
हिम्मत है, थोड़ी
भावभंगिमा
है। यह तो
मेरे प्रेम
में पड़ना है।
इस प्रेम की
पूरी
प्रक्रिया
यही है कि तुम्हें
मुक्त करने के
लिए मैं आयोजन
कर रहा हूं।
तुम मेरे साथ
चलो तो मुक्ति
की गंध
तुम्हें देना
चाहता हूं।
सांस
का पुतला हूं
मैं
जरा से
बंधा हूं
और मरण
को दे दिया
गया हूं
पर एक
जो प्यार है न
उसी के
द्वारा,
जीवन—मुक्त
मैं किया गया
हूं!
काल की
दुर्वह गदा को
एक
कौतुक— भरा
बाल क्षण
तौलता है।
हो
क्या तुम?
सांस
का पुतला हूं
मैं
जरा से
बंधा हूं?
और मरण
को दे दिया
गया हूं!
जन्म
और मृत्यु, बस
यही तो हो
तुम। सांस आई
और गई, इसके
बीच की
थोड़ी—सी कथा
है, थोड़ा—सा
नाटक है।
इसमें अगर कुछ
भी है, जो
तुम्हें पार
ले जा सकता है
मृत्यु के और
जन्म के........
पर एक
जो प्यार है न
उसी के
द्वारा,
जीवन—मुक्त
मैं किया गया
हूं!
अगर
जन्म और मरण
के बीच प्यार
घट जाये…….।
संन्यास
तो मेरे साथ
प्रेम में
पड़ना है; इससे
ज्यादा कुछ भी
नहीं। बस इतना
ही, इतनी
ही परिभाषा।
अगर तुम मेरे
साथ प्रेम में
हो और थोड़ी
दूर चलने को
राजी हो, तो
वह थोड़ी दूर
चलना, तुम्हें
बहुत दूर ले
जाने वाला
सिद्ध होगा।
और
बाकी तो सब
ऊपर की बातें
हैं,
कि तुमने
कपड़े बदल लिये,
कि माला डाल
ली। वह तो
केवल तुम्हें
साहस जगे और
तुम्हें
आत्म—स्मरण
रहे, इसलिए।
वह तो केवल
बाहर की
शुरुआत है; फिर भीतर
बहुत कुछ घटता
है। तुम जिनको
देख रहे हो
गैरिक वस्त्रों
में रंगे हुए
उनके सिर्फ
गैरिक वस्त्र
हो मत देखना, थोड़ा उनके
हृदय में
झांकना—तो तुम
वहां पाओगे प्रेम
की एक नई धारा
का आविर्भाव
हो रहा है।
पर एक
जो प्यार है न,
उसी के
द्वारा
जीवन—मुक्त
मैं किया गया
हूं!
मुझे
गिरने दो
तुम्हारे ऊपर!
अभी तुम अगर
पाषाण भी हो
तो फिक्र मत
करो : यह जलधार
तुम्हारे
पाषाण को काट
डालेगी।
किरण
जब मुझ पर झरी
मैंने
कहा—
'मैं
वज्र कठोर हूं,
पत्थर
सनातन!'
किरण
बोली—' भला ऐसा?
तुम्हीं
को खोजती थी
मैं
तुम्हीं
से मंदिर गढूंगी
तुम्हारे
अंतकरण से तेज
की प्रतिमा
उकेरूंगी। '
स्तब्ध
मुझको, किरण
ने अनुराग से
दुलरा लिया।
किरण
जब मुझ पर झरी
मैंने कहा—
'मैं
वज्र कठोर हूं
पत्थर
सनातन!'
तुम
भी यही मुझसे
कहते हो कि
नहीं, आप हमें
बदल न पायेंगे,
कि हम पत्थर
हैं, बहुत
प्राचीन, कि
न बदलने की
हमने कसम खा
ली है। लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं :
किरण
बोली—' भला ऐसा?
तुम्हीं
को खोजती थी
मैं
तुम्हीं
से मंदिर
गढूगी
तुम्हारे
अंतःकरण से
तेज की
प्रतिमा
उकेरूंगी। '
स्तब्ध
मुझको किरण ने
अनुराग से
दुलरा लिया।
ये
गैरिक वस्त्र
तो केवल मेरे
प्रेम की
सूचना हैं—तुम्हारे
प्रेम की मेरी
तरफ;
मेरे प्रेम
की तुम्हारी
तरफ। यह तो एक
गठबंधन है।
आखिरी
प्रश्न :
हे
प्रिय, प्यारे!
प्रणाम ले लो, इन आंसुओं
को मकाम दे दो,
तुमने तो भर
दी है झोली,
फिर
भी मैं कोरी
की कोरी। है प्रिय
प्यारे! मीत
हमारे! शीश श्रीफल
चरण तुम्हारे!
जया
ने पूछा है। '
जया
मेरे करीब है
बहुत वर्षों
से। ठीक मीरा
जैसा हृदय है
उसके पास; वैसा
ही गीत है दबा
उसके हृदय में;
वैसा ही
नृत्य है उसके
हृदय में दबा।
जब प्रगट होगा,
जब वह अपनी
महिमा में
प्रगट होगी, तो एक दूसरी
मीरा प्रगट
होगी। ठीक समय
की प्रतीक्षा
है; कभी भी
किरण उतरेगी
और अंधकार
कटेगा। और
हिम्मतवर
है—इसलिए
भविष्यवाणी
की जा सकती है
कि होगा।
किंतु
नहीं क्या यही
धुंध है
सदावर्त
जिसमें
नीरंध्र
तुम्हारी
करुणा
बंटती
रहती है
दिन—याम
कभी
झांक जाने
वाली छाया ही
अंतिम
भाषा, संभव
नाम
करुणाधाम
बीजमंत्र
यह
सारसूत्र
यह
गहराई
का एक यही
परिमाण
हमारा
यही प्रणाम
धुंध ढकी,
कितनी
गहरी वापिका
तुम्हारी,
लघु
अंजुली हमारी!
प्रभु
के सामने तो
हमारे हाथ सदा
छोटे ही पड़ जाते
हैं! हमारी
अंजुली छोटी
है!
धुंध
ढंकी
कितनी
गहरी वापिका
तुम्हारी
लघु
अंजुली हमारी!
जिनके
हृदय में भी
प्रेम है, उन्हें
सदा ही लगेगा
हमारी अंजुली
बड़ी छोटी है।
पूछा
है जया ने—
'हे प्रिय
प्यारे, प्रणाम
ले लो
इन
आंसुओं को
मुकाम दे दो
तुमने
तो भर दी है
झोली
फिर
भी मैं कोरी
की कोरी।'
यह
कुछ ऐसा भराव
है,
कि इसमें
आदमी और—और शून्य
होता चला जाता
है। यह शून्य
काही भराव है।
यह शून्य से' ही भराव है।
तुम्हें कोरे
करने का ही
मेरा प्रयास
है। अगर तुम
कोरे हो गये
तो मैं सफल हो गया।
अगर तुम भरे
रह गये तो मैं
असफल हो गया।
तुम जब बिलकुल
कोरे हो जाओगे
और तुम्हारे
भीतर कुछ भी न
रह जायेगा—कोई
रेखा, कोई
शब्द, कोई
कूड़ा—कचरा—तुम्हारी
उस शून्यता
में ही परमात्मा
प्रगट होगा।
जया
से कहूंगा :
जा, आत्मा
जा
कन्या
वधु का,
उसकी
अनुगा
वह
महाशून्य ही
अब तेरा पथ
वह
महाशून्य ही
अब तेरा पथ
लक्ष्य
अन्य जल पालक
पति
आलोक धर्म
तुझको
वह एकमात्र
सरसायेगा
ओ
आत्मा री!
तू गई
वरी
ओ
संपृक्ता
आ
परिणीता,
महाशून्य
के साथ भांवरें
तेरी रची गईं।
महाशून्य
के साथ भांवरें
तेरी रची गईं!
यह रिक्त होना, यह
कोरा होते
जाना—महाशून्य
के साथ भांवरों
का रच जाना है।
नाचते, उस शून्य
के महाभाव को प्रगट
करते, गुनगुनाते,
मस्त, खोते
जाना है!
होते
जाने का एक ही
उपाय है—खोते
जाना है। यहां
तुम पूरे
शून्य हुए कि
वहां
परमात्मा
पूरी तरह
उतरा। तुम ही
बाधा हो।
इसलिए घबड़ाओ
मत! कोरे हो
गये,
तो सब हो
गया।'
महाराष्ट्र
में कथा है कि
एकनाथ ने
निवृत्तिनाथ
को पत्र
लिखा—कोरा
कागज! कुछ
लिखा नहीं।
निवृत्तिनाथ
ने बड़े गौर
से पढ़ा—कोरा
कागज! पढने को
वहा कुछ था भी
नहीं। खूब—खूब
पढ़ा! बार—बार
पढ़ा! फिर—फिर
पढ़ा! पास मुक्ताबाई
बैठी थी, फिर
उसे दिया, फिर
उसने पढ़ा।
उसके तो आंसू
बहने लगे! वह
तो गदगद हो गई!
और लोग मौजूद
थे, वे
कहने लगे, यह
बड़ा पागलपन
हुआ! पहले तो
एकनाथ पागल कि
कोरा कागज
भेजा। चिट्ठी,
कुछ लिखा तो
हो! फिर वह
निवृत्तिनाथ
पागल, कि
पढ़ रहा है; एक
बार ही नहीं, बार—बार पढ़ रहा
है। फिर हद
मजा कि यह
मुक्ताबाई, ये गदगद हो
कर आंसू बहने
लगे!
सब
शास्त्र कोरे
कागज हैं! और
अगर कोरा कागज
पढ़ना आ जाये, तो
सब शास्त्र
पढ्ने आ
गये—वेद, कुरान,
गुरुग्रंथ,
गीता, उपनिषद,
बाइबिल, धम्मपद।
जिसने कोरा
कागज पढ़ लिया,
सब आ गया!
तुम
कोरे कागज
जैसे हो जाओ, इसी
चेष्टा मैं
संलग्न हूं।
तुम्हें
मिटाने में
लगा हूं
क्योंकि तुम
ही बाधा हो।
अरी
ओ आत्मा री,
कन्या
भोली क्यारी
महाशून्य
के साथ भांवरें
तेरी रची गईं।
हरि
ओंम तत्सत्!
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