प्यारे
ओशो
खोजे
जाने के लिए
मनुष्य दुष्कर
है, सबसे बढ़कर
स्वयं के लिए; मन प्राय:
आत्मा के
संबंध से झूठ
बोलता है
सच
में, मैं उनको भी
नापसंद करता
हूं जो हर चीज
को अच्छा कहते
हैं और इस
दुनिया को
सर्वोत्तम।
मैं ऐसे लोगों
को सर्व—
तुष्ट कहता
हूं।
सर्व—तुष्टता
जो हर चीज का
स्वाद लेना
जानती है : वह सर्वोत्तम
रुचि नहीं है।
मैं हठीली और तुईनुकमिजाज
जीभों और
पेटों का
सम्मान करता
हूं जिन्होंने
'मैं' और 'हां' और 'ना' कहना
सीखा यह
बहरहाल मेरी
शिक्षा है : वह
व्यक्ति जो एक
दिन ल्टना
सीखना चाहता
है पहले उसे
खड़ा होना और
चलना और दद्वैना
और चढ़ना और
नाचना सीखना
जरूरी है — तुम उड़कर ही
उड़ना नहीं सीख
सकते!
मैं
अपने सत्य तक
विविध
मार्गों से और
विविध तरीकों
में पहुंचा :
यह अकेली एक
सीढ़ी न थी जिस
पर मैं उस
ऊंचाई तक चढ़ा
जहां मेरी आखें
मेरे
विस्तारों का
सर्वेक्षण
करती हैं।
और
मैने
अनिच्छापूर्वक
ही मार्ग पूछा
है — उसने सदैव मेरी
रूचि को ठेस पहुंचायी।
उसके बजाय
मैने स्वयं
मार्गों से ही
प्रश्न पूछा
है और उन पर
प्रयास किया
है।
मेरी
सारी प्रगति
एक प्रयास और
एक प्रश्नात्मकता
रही है —और सच
में, व्यक्ति को
सीखना ही पड़ता
है कि कैसे इस प्रश्नात्मकता
का समाधान
करना। वह
बहरहाल—मेरी
रुचि के
अनुकूल है :
अच्छी
रुचि नहीं
बुरी रुचि
नहीं बस मेरी
रुचि जिसे न
अब मैं और
अधिक छिपाता
हूं और जिसके
प्रति न अब
मैं और अधिक शर्मिंदा
हूं।
'यह — है अब
मेरा मार्ग
: तुम्हारा
कहां है?' इस
प्रकार मैने उन्हें
जवाब दिया जिन्होने
मुझसे
'मार्ग' पूछा।
क्योकि
मार्ग — है ही
नहीं!
ऐसा
जरथुस्त्र ने
कहा।........
समस्त
धर्म और समस्त
दर्शन इस
मान्यता पर
आधारित हैं कि
परम सत्य के
लिए मार्ग है।
जरथुस्त्र
इसे सर्वथा
अस्वीकार
करते हैं। वह
कहते हैं कि
मार्ग जैसी
कोई चीज नहीं
है। और यदि
मार्ग जैसी
कोई चीज नहीं
है,
तो इस बात
के विशाल निहितार्थ
हैं।
पहली
बात,
यदि वे लोग
जो मार्ग में
यकीन करते हैं
सही थे, तो
मार्ग पहले से
ही है —
तुम्हें केवल
अनुसरण करना
है, तुम्हें
केवल मार्ग पर
आगे बढ़ना है।
यही है जिस
प्रकार
संगठित
धर्मों का
जन्म होता है।
उनके पास
राजमार्ग और
महा राजमार्ग
होते हैं, और
करोड़ों लोग
साथ—साथ परम
सत्य की तरफ
चलते हैं। कोई
भी कभी फिक्र
नहीं करता कि
क्या कोई व्यक्ति
कभी भी कहीं
पहुंचता है।
पच्चीस
शताब्दिया
बीत गयी हैं, और
करोड़ों लोग उस
मार्ग पर चले
हैं जिसे
उन्होंने
सोचा कि गौतम
बुद्ध का
मार्ग है।
लेकिन किसी ने
भी पलट कर
नहीं कहा है, कि मैं
पहुंच गया हूं
मार्ग ने मुझे
वायदा किये
गये देश में
पहुंचा दिया
है। और यही
हालत शेष सारे
धर्मों की है।
हिंदू दूसरा
कृष्ण नहीं
पैदा कर पाए
हैं न ही ईसाइयों
ने दूसरा
क्राइस्ट
पैदा किया है।
यह
अजीब है.... तो भी
करोड़ों लोग क्रियाकाडो
विशेष, प्रार्थनाओं
विशेष, ग्रंथों
विशेष का
अनुसरण कर रहे
हैं; वे
उनके ''मार्ग''
के अंग हैं।
और समस्त
मार्ग असफल
रहे हैं —
क्योंकि यदि
ये मार्ग सफल
हुए होते तो
दुनिया पूरी
तरह भिन्न
होती। यह सतत
युद्धों, हिंसाओं, अपराधों, हत्याओं, आत्मघातों,
पागलपनों और सब
प्रकार की विकृतियो
की दुनिया न
होती। और
मनुष्य ऐसी
दुर्दशा में न
होता जैसा वह
है। वह अन्य
कुछ नहीं क्येल
एक गहरा घाव
है जो अच्छा
होना जानता ही
नहीं।
हर
व्यक्ति अपना
घाव छिपा रहा
है। तुम केवल
अपने आसुओ
को छिपाने के
लिए हंसते हो, और
तुम एक दूसरे
को दिखाते हो
कि सब कुछ
एकदम ठीक है; और हर
व्यक्ति
जानता है कि
कुछ भी जरा भी
ठीक नहीं है।
हर
व्यक्ति एक
ऐसा चेहरा
दिखा रहा है
जो उसका है ही
नहीं। कोई भी
स्वयं को और
अपनी पीड़ाओं
को प्रगट नहीं
करना चाहता।
हजारों
वर्षों से लोग
महान धर्मों
का पालन करते
रहे हैं महान
धार्मिक
नेताओं का
अनुसरण करते रहे
हैं,
और यह है
उसका फल। यदि
वृक्ष की
पहचान उसके फल
द्वारा होती
है, तो
तुम्हारे
समस्त धर्मों
के संबंध में
निर्णय
तुम्हारी
पीड़ा और
दुर्दशा की
दशा से किया जाना
चाहिए। तुम
अपने समूचे
अतीत के फल हो।
जरथुस्त्र
बिलकुल सही
हैं : कोई
मार्ग नहीं है।
उनका ठीक—ठीक
मतलब क्या है
जब वह कहते
हैं कि मार्ग
नहीं है?
वह
बहुत सी बातें
कह रहे हैं।
एक बात :
तुम्हें चलना
होगा, और अपने
चलने के
द्वारा मार्ग
निर्मित करना
होगा; तुम्हें
बना—बनाया
मार्ग नहीं
मिलेगा। यह
इतना सस्ता
नहीं है, सत्य
के परम
साक्षात्कार
तक पहुंचना।
तुम्हें
स्वयं चलकर ही
मार्ग बनाना
होगा; मार्ग
बना—बनाया हुआ
नहीं है, पडा,
तुम्हारा
इंतजार करता।
वह ठीक आकाश
के जैसा है :
पक्षी उड़ते
हैं, लेकिन
वे कोई
पदचिह्न नहीं
छोडते। तुम
उनका अनुसरण नलईं कर
सकते; पीछे
कोई पदचिह्न
नहीं छूटे हैं।
यही
कारण है कि
सत्य का अनुभव
सदा कुआरा
है। तुमसे
पहले वहा कोई
भी नहीं गया
है। तुमसे
पहले वहा कोई
हो ही नहीं
सकता। वे सब
के सब अपने ही अंतर्केंद्र
में गये; तुम्हारा
अंतर्केंद्र
अभी भी फ्लुंारा
है और कुआरा
रहेगा जब तक
तुम वहां
पहुंचते नहीं।
सत्य
की खोज स्वयं
के साथ प्रेम
में पड़ना है।
सत्य
का पाया जाना
कोई वस्तुगत
बात नहीं है; यह
बस स्वयं का
उद्घाटन है, बस अपने ही
होने के
सौंदर्य और आनदमयता, शाति और
शाश्वतता का
पता चल जाना
है।
आत्मखोज की
राह में
मनुष्य का मन
ही उसकी सबसे
बड़ी बाधा है, क्योंकि
मन तुम से
तुम्हारे ही
बारे में झूठ
बोले चला जाता
है : तुम यह हो, तुम वह हो।
वह सुंदर—सुंदर
झूठ बोलता है :
तुम अमर्त्य
आत्मा हो, तुम
स्वयं ब्रह्म
हो, तुम
शाश्वत चेतना
हो, तुम
सत्य हो, तुम
सौंदर्य हो, तुम शिव हो।
लेकिन ये सब
केवल रिक्त
शब्द हैं।
तुमने उन्हें
सीख लिया है, भिन्न—भिन्न
स्रोतों से
उधार ले लिया
है। वे सब के
सब बस कचरा
हैं। लेकिन वे
तुम्हें अटका
ले सकते हैं, क्योंकि वे
तुम्हें
मिथ्या बोध दे
सकते हैं कि
तुम स्वयं को
जानते ही हो।
और यदि तुम
स्वयं को
जानते ही हो, तो अन्वेषण
पर निकलने में
कोई तुक नहीं
है।
यह
है तुम्हारे
मन के संबंध
में छलपूर्ण
सर्वाधिक
कुरूप तथ्य, कि
वह बहुत सुंदर
ढंग से झूठ
बोलता है। वह
धर्मग्रंथों
से उद्धरण
देता है, वह
तुम्हें
आश्वस्त करता
है कि तुम्हें
कहीं जाने की
जरूरत नहीं है
— बस पवित्र
बाइबिल पढ़ो, अथवा पवित्र
गीता, अथवा
पवित्र कुरान
और तुम्हें सब
कुछ मिल जाएगा।
खोज में जाने
की जरूरत नहीं
है; लोग
आत्मा के
संबंध में सब
कुछ पहले ही
खोज चुके हैं।
यह सच है, लोगों
ने आत्मा के
संबंध में सब
कुछ पहले ही पता
कर लिया है, ठीक जैसे कि
लोगों ने
प्रेम के
संबंध में सब
कुछ पहले ही
जान लिया है, लेकिन क्या
इसका मतलब यह
है कि प्रेम
के संबंध में
उनके
निष्कर्ष
तुम्हें
प्रेम का
स्वाद दे देंगे?
उनके
निष्कर्ष
तुम्हारे लिए
केवल शब्द ही
रहेंगे; वे
अनुभव नहीं बन
सकते।
हर व्यक्ति
को एक ऐसे
अद्वितीय
स्थान पर आना
होगा — जिसकी
पहले कभी किसी
ने छानबीन
नहीं की है; वह
उसका अपना है।
यह है गरिमा, यह है
विशेषाधिकार
मनुष्य होने
का।
सच
में, मैं उन सबको
नापसंद करता
हूं जो हर चीज
को अच्छा कहते
हैं और इस
दुनिया को
सर्वोत्तम!
मैं ऐसे लोगों
को सर्व—
तुष्ट कहता
हूं।
जरथुस्त्र
की भाषा में
सर्व—तुष्ट
लोग मनुष्य भी
नहीं हैं; वे
भैंसें हैं।
भैंसें सर्व—तुष्ट
होती हैं।
क्या तुमने
कोई अ—तुष्ट
भैंस देखी है,
दुखी, उदास,
निराश? नहीं,
भैंसें
सर्व—तुष्ट
हैं — वे
तुम्हारे सब
संत हैं जो
भैंसों के रूप
में पैदा हो
गये हैं।
प्रामाणिक
मनुष्य विशाल
असंतोष में
होता है — हर
चीज से असंतोष।
उस असंतोष के
बिना कोई
प्रगति नहीं
है;
उस असंतोष
के बिना कोई
विकास नहीं है;
उस असंतोष
के बिना
सितारों तक
पहुंच जाने की
कोई कशमकश
नहीं है।
तुम्हारे
पास एक महान
असंतोष की
जरूरत है —
आध्यात्मिक
होने के लिए।
संतोष निम्नतमों
के लिए है।
जरथुस्त्र के
लिए सर्व—तुष्ट
महत अपमान का
शब्द है।
वह
कह रहे हैं : सच
में मैं उन
सबको नापसंद
करता हूं जो
हर चीज को
अच्छा कहते
हैं और इस
दुनिया को
सर्वोत्तम।
और यही है जो
तुम्हारे
धर्म तुम्हें
सिखाते रहे
हैं : सब कुछ
अच्छा है, अपने
जीवन के साथ
संतुष्ट बनो।
यदि कहीं कोई
दुख भी है, वह
बस तुम्हारी
श्रद्धा की
परीक्षा है।
उससे गुजरो, लेकिन
असंतुष्ट मत
बनो और सब कुछ
अच्छा है।
इन
शिक्षाओं के
कारण मनुष्य कुठितमति
रह गया है — कुठितमति
जहा तक
आध्यात्मिक उत्काति
का संबंध है; कुठितमति जहा तक परममानव
के रूप में
उसके विकास का
संबंध है।
तुम्हें एक दिव्य
असंतोष की
जरूरत है।
केवल तब
तुम्हारे
भीतर एक गहन
अभीप्सा
जगेगी स्वयं
के पारु
जाने की, अपने
तथाकथित
ज्ञान के पार
जाने की, अपनी
तथाकथित
नैतिकता के
पार जाने की, अपने
तथाकथित समाज
के पार जाने
की।
यह
पार—गमन एक
सतत
प्रक्रिया है; यह
कभी रुकता
नहीं।
जीवन
का मूलभूत
नियम है :
स्वयं पर विजय
पाना, फिर—फिर
से। यही
जरथुस्त्र
सिखाते हैं और
मैं उनके साथ
अपनी निपट
समग्रता से
राजी हूं।
मनुष्य
को दिव्य
असंतोष की
जरूरत है — एक
अभीप्सा
सुदूर के लिए
एक अभीप्सा
असंभव के लिए।
जब तक
तुम्हारे पास
असंभव के लिए
अभीप्सा न हो
तुम्हारे पास
महान आत्मा न
होगी। छुद्र
आत्मा सर्व—तुष्ट
है — एक पत्नी
हो,
दो—तीन
बच्चे हों, एक घर हो, एक
पंसारी की
दुकान हो, हर
रविवार
सिनेमा देखने
मिलता हो। यह
जीवन और तुम
सर्व—तुष्ट हो;
सब कुछ
बिलकुल ठीक चल
रहा
जैसे
तुम हो ऐसे ही
रहकर तुम
स्वयं को नहीं
जान सकते।
तुम्हें
स्वयं को
परिष्कृत
करना होगा, तुम्हें
और अधिक मौन
सीखना होगा, तुम्हें और
अधिक काव्यमय
होना होगा, तुम्हें और
अधिक
संवेदनशील
होना होगा, तुम्हें और
अधिक सचेत
होना होगा, तुम्हें और
अधिक
ध्यानपूर्ण
होना होगा, तुम्हें और
अधिक अनुग्रहपूर्ण
होना होगा। और
तुम्हें सब
प्रकार की घिसी—पिटी
बातों के
प्रति विशाल
रूप से
असंतुष्ट होना
होगा; लोग
तो संतुष्ट
हैं....
कितना
आसान है
मिथ्या पहचान
निर्मित कर
लेना।
यह
बहरहाल मेरी
शिक्षा है : वह
व्यक्ति जो एक
दिन उडूना
चाहता है पहले
उसे खड़ा होना
और चलना और
दौडना और चढना
और नाचना
सीखना जरूरी
है — तुम उड़कर
ही उड़ना नहीं
सीख सकते।
तुम्हें
कदम—कदम ही
जाना होगा।
यदि तुम एक
दिन सितारों
तक उडूना
चाहते हो, तो
धीरे—धीरे बढ़ो,
कदम—कदम।
भरपूर नृत्य
करो। इतनी
गहनता से
नृत्य करो कि
नर्तक खो जाए
और केवल नृत्य
बचे, और
शायद तुम्हें
पंख ऊग आएंगे।
ऐसा नर्तक उड़
सकता है; ऐसा
नर्तक
निश्चित ही
सितारों तक
उड़ान भरता है।
यह —
है अब मेरा
मार्ग :
तुम्हारा
कहां है?' इस
प्रकार मैने
उन्हें जवाब
दिया
जिन्होंने मुझसे
'मार्ग'
पूछा। क्योकि
मार्ग — है ही
नहीं!
यह
उन महानतम
वक्तव्यों
में से एक है
जो किसी द्वारा
कभी भी दिये
गये हों : क्योकि
मार्ग — है ही
नहीं! उसे
चलने में ही
निर्मित किया
जाना है, उसे
नृत्य करने
में ही
निर्मित किया
जाना है, उसे
खोजने में ही
निर्मित किया
जाना है।
तुम्हें
दोनों बातें
करनी होंगी.
मार्ग पर चलना,
जैसे—जैसे
तुम उसे
निर्मित करते
जाते हो; राह
बनाए जाना और
उस पर चलते
जाना।
कभी
तुमने गौर
किया. है कि नदियां
कैसे महासागर
में पहुंचती
हैं?
उनके पास
कोई बना—बनाया
मार्ग नहीं
होता; उनके
पास दिशा के
संबंध में कोई
मार्गदर्शन नहीं
होता। वे
पटरियों पर
दौड़ती
रेलगाड़ी की
भांति नहीं चलतीं।
सुदूर हिमालय
में निकलने
वाली गंगा, अपनी यात्रा
यह न जानते
हुए प्रारंभ
करती है कि
मार्ग कहां है
— किसी से फती
तक नहीं।
लेकिन वह
पहाड़ों में, घाटियों में,
मैदानों
में अपना
मार्ग पाने का
प्रयास किये चली
जाती है। और
हजारों मीलों
के बाद, अंतत:
वह महासागर को
पा लेती है।
यह
एक चमत्कार है
कि सारी नदियां
अंततः
महासागर को पा
लेती हैं। तो
मनुष्य के साथ
इससे अन्यथा
क्यों होगा? क्यों
मनुष्य की
चेतना परम
सत्य को, महासागरीय
सत्य को नहीं
पा सकती?
व्यक्ति
के पास केवल
साहस की जरूरत
है।
निश्चित
ही,
एक तालाब
होना बहुत
सुरक्षित व
सुविधाजनक है —
किसी
रेगिस्तान
में खो जाने
का खतरा नहीं,
रास्ता भटक
जाने की आशंका
नहीं, सर्व—तुष्ट
— लेकिन तालाब
मृत है, नदी
जीवंत है।
तालाब गंदा व
कीचड़ होता चला
जाता है, और
नदी स्वच्छ
बनी रहती है।
गत्यात्मकता
उसे युवा व
स्वच्छ रखती
है। मनुष्य को
एक नदी होना
होगा।
ऐसा
जरमुस्त्र
ने कहा।..........
thank you guruji
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