इक गीत उठा जब प्राणों में,
फिर क्यों उसको
मैं गा न सका।
कोई टीस उठी इस ह्रदय में,
क्यों मैं तुम्हें दिखला न सका।।
1-- कोई समिीर मधुर जीवन में चली,
फिर नाच
उठा आँगन सारा?
देखो जीवन का बोझ
लिए,
नित चल-चल कर अब मैं हारा।
जो झूम रहा जीवत स्पंदन,
2-- रिसता प्राणों से जो क्षण-क्षण
जीवन सांसों का है बंधन।।
करता ह्रदय में जो क्रंदन,
आंखों से नित बहता अंजन।।
छलता जीवन, निति झूठी हंसी,
क्यों आकर मुझे बहला न सका।
3-- ये छाया की यादें धुँधली,
इन नयनों में बिसरे-सपने
हम अनछुई यादें के परे
उलझ गये दिल के
द्वारे।
सपने
हम को सच लगते है,
सत्य
से हम सब क्यो दूर हुए।।
आना
मद के इस यौवन का
फिर क्यों मुझको उलझा न सका।
4-- क्यों
आकर मेरे जीवन में,
एक
मादकता सी भर जाते हो।
मैं
ढूंढ रहा भव सागर में,
न
पाते मुझे रुलाते हो।
जीवन
की बिखरी कड़ियों को
ना जोड़ सके तुम पल-पल कल
अंधकार भरे सूने पथ पर
फिर
कोई दीप जला न सका।।
--स्वामी
आनंद प्रसाद ‘मनसा’
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जवाब देंहटाएंमाफ करना दोस्त 🙏🙏 क्या अदभुद काव्य लिखी गयी है। नमन् है आपके हृदय को। आपकी रचना आपके प्रेम आत्मा को 🙏🙏🙏🙏 नमन् वंदन
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