कुछ खाली
सा लगता है,
मन आँगन
के कोने में,
जीवन के इस रमणीक मय में,
धूप छिटकती देखा डाल
पर,
कुछ सीतल सी लगता है!
जब टीस उठी कोई प्राणों में,
और विरह वेदना फेल गई
मन मयूर मेरा मधुमास बना।
कोई विरह राग जब गाता है।
पूर्व चाप
सी लगती है,
छूटते सांसों के बंधन में।
हे फैल रहा कुछ जीवन में,
जो रह-रह कर छू जाता है,
तेरे आने की आहट से
कोई व्योम राग क्यों गाता है,
कुछ कहने को नहीं होठ हीले,
न नयनों को कुछ भान मिला।
सीतलता बन कर के तन-मन में,
जीवंतता कुछ में एहसास हुआ।
बहते पल-पल के इस कलरव में,
मधुरस का थोड़ा भास हुआ।।
फिर श्याम हुई भारी-भारी,
जब धूप सरकती परे कहीं ,
गुंजन-गीत गूँजे खग लब,
लिये नीरवता का वो मौन मधुर,
है लगता मुझ ऐसा कुछ,
तमस बना अब है हमदम
तू फेल रहा जीवन तल पर
नित रहा सरकता जाता है,
एक श्वास छलक कुछ कानों में
यूं चुपके से कह जाती है।
क्यों ठहर गया चलते-चलते
वो जीवन चक्र रूक जाता है।
इस बहते अविरल के छण का
मैं पी जाऊँ पल-पल,
क्षण-क्षण,
जो छटक रहा है अब! जीवन
में,
न बाँधू उसको मूठी में,
फिर दूर कहीं संध्या उतरी
अब जीवन का मधुमास गया
क्यों डोल रहा मन है मेरा
सब छिटक रही साँसे अब तो
जो घुटन भरी बाँहें तेरी
नहीं बाँध सकेगी अब मुझको
अब मिटना पूर्णता सा है
ये सांसें भी अब लगती बंधन
बस छूटने की तैयारी है,
कोई विलीन लहर छलक रही
तूफ़ानों का है जौर कही।
जीवन के उन अद्भुत पलों में
पूर्णता सी एक भभक उठी
उन्माद भर वातायन क्षण,
ये नहीं गवाना किसी भय में
नहीं चूकना है मुझको
जो बार-बार होत आया
मधुरता की इस बेला में
आंखों को जो कोई धो ले
फिर मन अमरत्व में जो होले
जीवन पंखों पर है ड़ोले?
स्वामी आनंद प्रसाद ‘मनसा’
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