चौथा
प्रवचन;
दिनाक 14
मई,
1976;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र
:
करसूं
तो बांटे नहीं, बीजं।
सेती आड।
वै नर
जासीं नाली, चौरासी
की खाड।।
काया
में कवलास, न्हाय
नर हर की पैडी।
वह
जमना भरपूर, नितोपती
गंगा नैड़ी।।
हरख
जपो हरदुवार, सुरत
की सैंसरधारा।
माहे
मन्न महेश
अलिल का अंत
फुवारा।।
टोपी
धर्म दया, शील
का सुरंग का
चोला।
जत का
जोग लंगोट, भजन
का भसमी गोला।।
खमां
खड़ाऊ राख, रहते
का डंड कमंडल।
रैणी
रह सतबोल, लोपज्या
ओखा मंडल।।
खेलो
नौखंड मांय, ध्यान
की तापों धूणी।
सोखो
सरब सुवाद, जोग
की सिला अलुणी।।
बांटों
बिसवत भाग, देव
थानै दसवंत
छोड़ी।
अवस
जोव जा हार, टेकसी
नहचै गोडी।।
पीछे
सूं जम घेरसी, टेकरै
काल किरोई।
कुण
ओरोगै घीव, जीमसी
कूण रसोई।।
नहीं
कहीं मिलती है
छांव!
नहीं
कहीं रुकते
हैं पांव!
राह
अजानी, लोग
अजाने,
जितने
भी संयोग
अजाने,
अनजाने
से मिली मुझे
जो
भूख
अजानी, भोग
अजाने!
एक
भुलावा कडुवा
-मीठा,
एक
छलावा ठांव-कुठांव,
जिसको
समझूं अपनी
मंजिल
नहीं
कहीं दिखता वह
गांव,
नहीं
कहीं रुकते है
पांव!
किसे
कहूं मैं अपना
मीत?
किसे
कहूं मैं अपनी
जीत?
नित्य
टूटते रहते
सपने,
नित्य
बिछडते रहते
अपने,
एक जलन
लेकर प्राणों
में
मैं
आया हूं केवल
तपने!
वर्तमान
हो या भविष्य
हो
बन
जाता है विवश
अतीत।
और
शून्य में लय
हो जाते
सुख-दुख
के ये जितने
गीत!
किसे
कहूं मैं अपना
मीत?
किसे
कहूं मैं अपनी
जीत!
एक सांस
है सस्मित चाह।
एक सांस
है आह-कराह!
बडी
प्रबल है गति
की धारा।
मैं
पथभूला, मैं
पथहारा।
जिसको
देखा वही विवश
है-
किसको
किसका कौन
सहारा?
रंग-बिरंगे
स्वप्न संजोए
मेरे
उर का तमस
अथाह-
ज्यों-
ज्यों घटती
जाती दूरी
त्यों -त्यों
बढ़ती जाती
राह!
एक
सांस है
सस्मित चाह,
एक
सांस है
आह-कराह!
कब बुझ
पाई किसकी
प्यास?
और
सत्य कब हास
-विलास?
नहीं यहां
पर ठौर-ठिकाना।
सुख
अनजाना, दुख
अनजाना
पग-पग
पर बुनता जाता
है
काल-नियति
का ताना-बाना!
मेरे
आगे है
मरीचिका।
मेरे
अंदर है
विश्वास,
जो कि
मृत्यु पर
चिरविजयी है
वह
जीवन है मेरे
पास!
मेरा
जीवन केवल
प्यास।
यही
प्यास है हास
-विलास!
नहीं
कहीं मिलती है
छांव।
नहीं
कहीं रुकते
हैं पांव!
राह
अजानी, लोग
अजाने,
जितने
भी संयोग
अजाने,
अनजाने
से मिली मुझे
जो
भूख
अजानी, भोग
अजाने!
एक भुलावा
कडुवा -मीठा,
एक
छलावा
ठांव-कुठांव,
किसको
समझूं अपनी
मंजिल
नहीं
कहीं दिखता वह
गांव,
नहीं
कहीं मिलती है
छांव,
नहीं
कहीं रुकते
हैं पांव!
प्रत्येक
मनुष्य का यही
अनुभव
है-सदियों-सदियों
से,
सदा से।
पहले भी यही
अनुभव था, आज
भी वही अनुभव
है, कल भी
यही अनुभव
होगा।
क्योंकि जहां
हम खोज रहे
हैं मंजिल, वहां मंजिल
नहीं है।
मंजिल तो जरूर
है, हमारी
खोज की दिशा
भ्रांत है।
मंजिल नहीं है
ऐसा नहीं; छा्ंव
नहीं है ऐसा
नहीं; गांव
नहीं है ऐसा
नहीं-गांव भी
है, छा्ंव
भी है, और
हमारे पास
पहूंचाने
वाले पांव भी
हैं। पर अगर
तुम गांव की
तरफ पीठ करके
चलो, तो
चलोगे तो बहुत,
पहुंचोगे
नहीं। और अगर
छाह से उलटी
ही तुम्हारी
जीवनधारा हा,
तो तपोगे, जलोगे, मगर
विश्राम न पा
सकोगे।
मंजिल
है भीतर और
मार्ग हम
खोजते हैं
बाहर। खोया है
जिसे, वह है
भीतर; खोजते
हैं बाहर।
राबिया, सूफी
फकीर, अदभुत
सूफी फकीर
स्त्री हुई।
एक सांझ खोजती
है अपने द्वार
पर कुछ।
पास-पड़ोस के
लागों ने पूछा
: क्या खोजती
है? उसने
कहा : मेरी सुई
खो गई है। वे
भी खोजने लगे।
बूढ़ी स्त्री
है, भली
स्त्री है; सांझ भी
होने लगी, सूरज
ढलने को है।
और तभी किसी
खोजने वाले ने
पूछा कि ठीक -
ठीक बता, किस
जगह तेरी सुई
गिरी है? रास्ता
बड़ा है, सांझ
होने लगी है, सूरज अब ढन।
तब ढला। अगर
ठीक जगह का
पता हो कि सुई
कहां गिरी है
तो शायद मिल
भी जाए। इतनी
छोटी चीज, इतना
बड़ा रास्ता!
राबिया
हंसने लगी, खिलखिलाकर
हंसने लगी, पशर की तरह
हंसने लगी। उसने
कहा : यह न पूछो
तो अच्छा, सुई
तो घर के भीतर
गिरी है। तब
उन लोगों ने
कहा : पागल, तो
फिर बाहर
क्यों खोज रही
है? हमें
शक तो सदा से
था कि तू पागल
है। तेरी यह
मस्ती बस
पागलों की हो
सकती है। इस
दुनिय में
समझदार तो
दुखी दिखाई
पड़ते हैं।
बुद्धिमान तो
रहो रहे हैं।
और तू सदा
मस्त! हमें शक
तो पहले ही था
कि तू पागल है,
आज पक्का हो
गया। सुई भीतर
गिरी है, बाहर
क्यों खोजती
है?
राबिया
कहने लगी :
संसार के नियम
का पालन कर रही
हूं। सुई तो
भीतर गिरी है
लेकिन भीतर
अंधेरा है। और
मैं गरीब, एक
दीया भी जलाने
को मेरे पास
सुविधा नहीं।
सो मैंने सोचा,
जहां रोशनी
हो वहां खोजना
चाहिए, अंधेरे
में कैसे
मिलेगी! इसलिए
बाहर खोजती हूं
बाहर अभी थोड़ी
रोशनी है। और
मेरे गांव के
लोगो, तुम
मुझे पागल
कहते हो! तो एक
बार अपने पर
विचार करना, तुम जिसे
खोज रहे हो
उसे कहां खोया
है? आनतद
को खोज रहे हो;
खोया कहां,
पहले यह पूछ
लेना! आत्मा
को खोज रहे, परमात्मा का
खोज रहे, अमरत्व
खोज रहे, शाश्वतता
खोज रहे, स्वर्ग
खोज रहे, मोक्ष
खोज रहे; पहले
पूछ लेना, मौलिक
प्रश्न पहले
उठा लेना कि
खोज रहे हो
उसे खोया कहां
है? और मैं
तुमसे कहती
हूं कि भीतर
खोया है और
बाहर खोज रहे
हो। लाख करो
उपाय, मिलन
होगा नहीं। नहीं
कहीं मिलती है
छा्ंव।
नहीं
कहीं रुकते
हैं पांव!
कैसे
रुके! छांव ही
नहीं मिलती, गांव
ही नहीं मिलता,
तो पांव
रुके तो कैसे
रुके! और
मिलेगा भी
नहीं। तुम
सारी पृथ्वी
खोजो, चाद
-तारे खोजो, खोजते ही
रहो। जिसे तुम
खोज रहे हो वह
खोजने वाले
में छिपा बैठा
है। जो खोज
रहा है वही है
वह, जिसे
तुम खोजने
निकल पड़े हो।
तुम्हारा
अंतस चैतन्य
ही तुम्हारे
जीवन का अंतिम
गंतव्य है।
तुम्हीं हो
अपनी मंजिल।
तुम्हीं हो वह
गांव जहां
तुम्हारे
पावों को पहुंचना
है।
और एक
बार यह बात
समझ में आ जाए
तो चलने की
बात ही खत्म
हुई। अपने तक
पहुंचने के
लिए चलना होगा
क्या? अपने से
दूर जाना हो
तो चलना होता
है, अपने
तक आना हो तो
चलने का सवाल कहां!
तुम तो वहां
हो ही, तुम
तो वहां सदा से
हो। इतने चल
चुके हो, फिर
भी तुम वहीं
हो। क्योंकि
तुम्हारा स्वरूप
तो तुम्हारे
साथ है। तुम
उसे चाहो तो
भी छोड़ सकते
और तुम चाहो
तो भी उसे
गंवा नहीं
सकते।
मुझसे
लोग पूछते हैं
: ईश्वर को
खोजना है, कहां
खोजें? मैं
उनसे पूछता
हूं : तुमने
खोया कहां है,
पहले यह
पक्का कर लो।
और अगर खोया
ही नहीं है तो
खोज व्यर्थ है।
खोज भटकन में
ले जाएगी।
बहुत भटकन में
ले जाएगी। और
फिर जीवन
संताप और
विषाद के
अतिरिक्त कुछ भी
नहीं होगा, क्योंकि
खोजोगे और हर
बार पाओगे कि
नहीं पाया।
खोजोगे और हर
बार हारोगे।
खोजोगे और हर
बार पराजय हाथ
लगेगी। तो
जीवन आंसुओ से
ही भर जाएगा।
ऐसा ही जीवन आंसुओ
से भर गया है।
नहीं
कहीं मिलती है
छा्ंव,
नहीं
कहीं रुकते
हैं पांव!
राह
अजानी, लोग
अजाने,
जितने
भी संयोग
अजाने,
अनजाने
से मिली मुझे
जो
भूख
अजानी भोग
अजाने!
एक
भुलावा कडुवा
-मीठा,
एक
छलावा
ठांव-कुठाव,
जिसको
समझूं अपनी
मंजिल
नहीं
कहीं दिखता वह
गांव,
नहीं
कहीं मिलती है
छा्ंव,
नहीं
कहीं रुकते
हैं पांव!
और जब
तुम पअने से
ही अपरिचित हो
तो किससे परिचित
हो पाओगे? जिसने
स्वयं को नहीं
जाना वह किसी
और को न जान पाएगा।
उसे जानने की
कला ही न आई।
उसके भीतर
जानने वाला
दीया ही न जला।
'राह
अजानी लोग
अजाने!' क्यों?
क्योंकि
तुम अपने से
अजाने हो। 'जितने भी
संयोग अजाने!'
क्योंकि? क्योंकि तुम
अपने से अजाने
हो। अनजाने से
मिली मुझे जो,
भूख अजानी
भोग अजाने!' क्यों? क्योंकि
तुम अपने से
अजाने हो।
सारा
ज्ञान दो कौड़ी
का है, अगर
आत्मज्ञान न
हो। सारी
पहचान व्यर्थ
है अगर अपनी पहचान
न हो। अपनी तो
पहचान नहीं है
और हम न मालूम
कितना कूड़ा-करकट
ज्ञान के नाम
पर इकट्ठा
करते चले जाते
हैं! अपने घर में
तो प्रवेश
नहीं मिलता और
चाद -तारों पर
प्रवेश की
चेष्टा चलती
है। क्या
करोगे
चाद-तारों पर?
चांद -तारों
पर पहुंच कर
भी तुम तुम ही
रहोगे! स्वर्ग
में भी पहुंच
जाओ तो क्या
करोगे?
मैंने
सुना है, एक
आदमी बोरीबंदल
पर कुली का
काम करता था।
मस्त था। कमा
लेता था काफी।
रात खूब डटकर
पी लेता था।
खाना-पीना, कभी
वेश्यालय हो
आना, मित्र
संगी-साथी- और
चाहिए क्या
था! वह मरा।
वैसे आदमी
सीधा-सादा था,
जीवन में
कोई जाल-उलझाव
न थे। समझ
लेना इस बात
को।
कभी-
कभी जुआरी, शराबी,
वेश्यागामी
सीधे -सरल
होते हैं।
साधु, संन्यासी,
महात्मा
बड़े जटिल, बड़े
उलझे हुए होते
हैं।
अपराधियों
में तुम्हें
सरलचित्त लोग
मिल जाएंगे, लेकिन
महात्माओं
में सरलचित्त
मिलना जरा कठिन
बात है।
महात्मा होना
ही जटिलता का
धंधा है।
बड़ा
आदमी मरा, सीधा
स्वर्ग ले
जाया गया। मगर
उसका दिल न
लेग। कहां
बोरीबदर और
कहां स्वर्ग!
उसका दिल न
लगे। न
रेलगाड़ियों
की भकभक झकझक,
न
यात्रियों का
शोरगुल।
यात्री, गाड़ियों
की तो दूर, मालगाड़ियों
तक का आना
-जाना नहीं।
और जिंदगी- भर
रहा वह
बोरीबदर।
उसकी तो
जिंदगी वही थी,
रस वही था।
वह तो संगीत
एक ही जानता
था-गाड़ी का
आना-जाना, शोरगुल
मचना, खोमचों
की आवाज, लोगों
की आवाज, सामान
ढोना; फिर
सांझ पी लेना,
पिलाना
मित्रों को; कभी जुआ
खेलने बैठ
जाना; कभी
रात देर तक
ताश! जिंदगी
बड़ी मस्ती में
थी। स्वर्ग
पहुंचा तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। पूछा
उसने कि यहां
क्या करना
होगा? रेलगाडिया
कहां हैं? इंजन
कहां हैं? बोरीबदर
कहां है?
देवताओं
ने कहा : यहां
कहां का
बोरीबदर! यहां
कहां की
रेलगाडिया!
यहां कोई
रेलगाड़ियां
नहीं चलतीं। यहां
किसी को कहीं
जाना ही नहीं
है। जो जहां
है मस्त है।
'मालगाड़ी?'
उन्होंने
कहा : माल का
यहां कोई सवाल
ही नहीं! यहां
तो आत्मधन ही
एकमात्र धन है।
तो
करना क्या
होगा, उसने
पूछा। तो
देवताओं ने
कहा : यहां कुछ
नहीं करना
होता। राम-राम
जपो-जयराम
जयराम जयराम...!
चुन लो अपना एक
बादल, बैठ
जाओ पद्यासन
लगाकर, राम-राम
जपो।
कहां
बोरीबदर, कहां
बैठना एक बादल
पर! बड़ी
मजबूरी। बैठ
तो गया।
राम-राम जपे
भी और बीच- बीच
में कहे : ऐसी
की तैसी! आखिर
राम को खबर
लगी कि यह किस
प्रकार का
मंत्र जपा जा
रहा है! फिर
कहने लगे :
राम-राम
राम-राम जयराम
-जयराम, ऐसी
की तैसी! भाड़
में जाए! ऐसी
की तैसी!
बुलाया
उसे। कहा कि
तुझे मंत्र
जपना नहीं आता? यह
बीच -बीच में 'ऐसी की तैसी'
' भाड़ में
जाए ', यह
कभी किसी
मंत्र में
देखा है?
उसने
कहा : अब आपसे
क्या छिपाना, बोरीबंदर
चाहिए मुझे!
रेलगाड़ी के
बिना मैं सो
ही नहीं सकता।
जब तक आवाज न
हो, शोरगुल
न हो, यात्री
न आएं, खोंमचों
की आवाज न उठे,
बिलकुल
खाली-खाली
लगता है। बैठे
हैं बदली पर, हम आदमी हैं
कि कोई बादल
हैं? और
मुझे हैरानी
होती है कि ये
बाकी लोग
अपनी- अपनी
बदलियों पर
बैठे दिन-रात
जयराम-जयरात
कर रहे हैं।
आखिर कब तक यह
करना है?
कहते
हैं,
राम ने कहा
कि भाई इसे
सताओ मत, इसे
वापिस
बोरीबदर भेजो।
यह वहीं ठीक
था। कभी-कभी वहां
मुझे
याद भी कर
लेता था, यहां
तो यह मुझे गालियां
दे रहा है।
तुम
स्वर्ग भी चले
जाओगे तो क्या
करोगे? तुम कहीं
भी चले जाओगे
तो क्या करोगे?
तुम तुम ही
रहोगे।
इसलिए सवाल
कहीं जाने का
नहीं है-सवाल रूपांतरण
का है; तुम
जहां हो वहीं
जागने का है।
मनुष्य
ने कितना
ज्ञान अर्जित
कर लिया है।
शास्त्रों पर
शास्त्र
संगृहीत होते
चले गए हैं।
ब्रिटिशें
म्यूजियम की
लाइब्रेरी
में अब इतनी
किताबें हैं
कि अगर पृथ्वी
पर अलमारियों
के साथ लगाकर
अलमारियां
रखी जाएं तो
तीन चक्कर पूरी
पृथ्वी के लग
जाएंगे। रोज
किताबें बढ़ती
जाती हैं। रोज
आदमी का ज्ञान
बढ़ता जाता है।
और रोज आदमी
की पीड़ा भी
बढ़ती जाती है।
रोज आदमी की
छाती पर दुख
का पहाड़ भी
बड़ा होता जाता
है।
नहीं; कहीं
कोई चूक हो
रही है। कहीं
कोई मौलिक भूल
हो रही है।
कहीं कोई जड़
में ही भूल हो
रही है। स्वयं
को नहीं जाना
और चले जान
पड़ने सब कुछ!
जिसने स्वयं
का नहीं जाना
उसका सब ज्ञान
अज्ञान हो
जाता है। और
जिसने स्वयं
को जाना उसका
अज्ञान भी
ज्योतिर्मय
है। उसका कुछ
न जानना भी
अपूर्व है।
बुद्ध
को इतना तो
पता नहीं था
जिसका तुमको
पता है। न
महावीर को
इतना पता था
जितना तुमको
पता है।
बच्चों को
ज्यादा पता है
आज स्कूल के, जितना
मुहम्मद को
पता था। बुद्ध
से भी पूछते
कि टिंबकटू कहां
है, तो अटक
कर रह जाते।
ध्यान समाधि
इत्यादि ठीक,
मगर
टिंबकटू! छोटे
बच्चे जवाब दे
देंगे। अगर
तुम बाहर के ज्ञान
का हिसाब
-किताब रखो तो
बुद्ध की
जानकारी बहुत
ज्यादा नहीं
है, लेकिन
फिर भी एक
भीतर जलता हुआ
दीया है। बुद्ध।
ज्योतिर्मय
हैं। शाश्वत
है वह ज्योति।
जानने का सवाल
नहीं है, जानने
वाला जाग गया,
'जानने ' वाले
का सवाल है।
और
खयाल रखना, मनुष्य
के मन की एक
अनिवार्य
प्रक्रिया है
: दोष को दूसरे
पर डाल देना।
अगर तुम सुखी
नहीं हो तो
तुम तत्थण
कहने लगते हो
कि संसार में
सुख कहां! तुम
अगर आनति नहीं
हो तो तुम
तत्क्षण कोई
रास्ता खोजने
लगते हो कि
आनंद हो ही
कहां सकता
है-संसार माया
है! यहां तो
दुख ही दुख है!
यह तो दुख का
सागर है! यह तो
भवसागर है!
इससे तो तरना
होता है!
तुमने संसार
पर टाल दी बात;
अपने कंधे
पर न ली
जिम्मेवारी।
तुमने
यह न कहा कि
मैं अज्ञानी
हूं;
आत्म-
अज्ञानी हूं
इसलिए दुख है।
तुमने कहा
संसार माया है।
जरा भेद को
समझ लेना।
संसार को माया
कहकर तुमने
अपने को बचा
लिया, आड़े
में हो गए।
यही तर्क चलता
रहा है सदियों
-सदियों से और
इसलिए आदमी
अंधेरे में
है- और अंधेरे
में ही रहेगा,
जब तक यह
तर्क टूटे
नहीं, यह
तर्क खंडित न
हो। इस तर्क
के बहुत -बहुत
रूप हैं।
पहले
लोग कहते थे
कि ईश्वर ने
जैसा बनाया है
वैसा है। सब
उसके हाथ में
है,
मालिक के
हाथ में है।
हम क्या करें?
हमारे बस
में क्या है? होइहै सोइ
जा राम रचि
राखा! तब उनकी
मर्जी। दुख
देंगे तो दुख
झेलेंगे। हम
क्या कर सकते
हैं?
ऐसे
टाल दिया राम
पर। बन गए भगत
जी राम पर
टालकर। न
इन्हें राम का
पता है; अपना
ही पता नहीं
तो राम का
क्या खाक पता
होगा! मगर यह
एक बहाना मिल
गया। एक खूंटी
मिल गई, इस
पर टन दिया
सारा दुख। मगर
दुख खूंटियों
पर टन देने से
कटता नहीं। यह
काटने का
रास्ता नहीं
है।
फिर
ऐसे लोग हुए
जिन्होंने
कहा कि नहीं, न
कोई ईश्वर है,
न कोई
नियंता है; यह तो
मनुष्य के
कर्मों का
कारण है।
पिछले जन्मों
में तुमने जो
कर्म किए थे
उनके दुख भोग
रहे हो। यह भी
वही बात है।
कुछ फर्क न
हुआ।
सिर्फ शब्द
बदल गए। पहले
ईश्वर के कारण
- 'उसने जैसा
रचा' -हम
दुख भोग रहे
थे; अब
पिछले जन्मों
के कार्में के
कारण दुख भोग
रहे हैं। इस
जन्म का पता
नहब है, इस
जीवन का पता
नहीं है; पिछले
जन्मों की बात
कर रहे हैं!
और
पिछले जन्मों
में तुम क्यो
दुख भोग रहे
थे?
और भी पिछले
जन्मों के
कारण! और
पिछले जन्मों
में? - और
पिछले जन्मों
के कारण! तो
कभी प्राथमिक
तुम्हारा
जन्म हुआ था, उस दिन
तुमने क्यों
दुख भोगा था? नहीं;
कोई प्रश्न
को इतने दूर
तक ले जाना भी
नहीं चाहता।
और जो ले जाए
हम उससे नाराज
होतेहैं। हम
कहते हैं बात
से बतंगड़ न
बनाओ, क्योंकि
हमारे बहाने
छीनो मत हमसे।
मगर यह
बात भी पुरानी
पड़ गई। फिर
कार्ल
मार्क्स जैसे
लोग हुए, जिन्होंने
कहा : यह समाज
की व्यवस्था
के कारण है।
अब बड़ा फर्क
लगता है। कहां
ईश्वर, कहां
कर्म का सिद्धांत
, कहां
समाज की
व्यवस्था!
लेकिन कोई
फर्क नहीं है।
मौलिक आधार एक
है। हम
जिम्मेवार
नहीं हैं!
हमारी सारी
सैद्धातिक
चर्चा का एक
ही सूत्र है :
किसी भाति
मेरे कंधे पर
जिम्मेवार न
पड़े। समाज की
व्यवस्था, अर्थव्यवस्था,
वर्ग
-कलह-इसके
कारण दुख है।
जब तक वर्ग न
मिटेंगे तब तक
सुख नहीं होगा।
जब तक सारी
दुनिया से
वर्ग और
वर्गों के
द्धारा होता
शोषण न मिटेगा,
जब तक वर्ग
-विहीन समाज न
बनेगा, तब
तक सुख न होगा।
और
वर्ग -विहीन
समाज कभी
बनेगा नहीं।
बन ही नहीं
सकता। रूस में
भी नहीं बना
है,
चीन में भी
नहीं बना है, कहीं बनने
वाला नहीं है।
यह भी बहाना है
टालने का-न
होगा बांस न
बजेगी बासुरी!
और आदमी दुख
में जीने के
लिए बहाने खोज
लेगा, सांत्वनाएं
खोज लेगा।
सिग्मंड
फ्रायड ने कहा
कि नहीं, समाज
की व्यवस्था
का सवाल नहीं
है, यह
मनुष्य की
अंतरवृतियों
का सवाल है, अचेतन
वृतियों का
सवाल है; उनके
कारण मनुष्य
दुखी है। और
उनसे छूटने का
कोई उपाय।
नहीं।
सिग्मंड
फ्रायड ने कहा
है : मनुष्य
कभी सुखी नहीं
हो सकता।
ज्यादा-से
-ज्यादा
मनोविज्ञान
इतना ही कर
सकता है। कि
आदमी को
ज्यादा दुखी न
होने दो; कम-से
- कम दुखी होने
दे, बस।
आदमी
ज्यादा-से
-ज्यादा
सामान्य रूप
में दुखी
रहेगा, यह
अच्छी- से -
अच्छी अवस्था
है। असाधारण
रूप से दुखी न
होगा, साधारण
रूप से दुखी
होगा। बस
मनोविज्ञान
का ३का।म इतना
है : जो
असाधारण रूप
से दुखी होने
लगे, उसको
खींच कर
समझा-बुझाकर
साधारण रूप से
दुखी करना है।
यह भी
कोई लक्ष्य
हुआ?
मगर यह सारी
मनुष्य- जाति
की अब तक की
चिंतन। है।
मौलिक भूल हो
रही है एक।
कुछ लोगों ने
नहीं की भूल
और वे परम
आनंद को उपलब्ध
हो गए। कोई
बुद्ध, कोई
कबीर, कोई
कृष्ण, कोई
क्राइस्ट, कोई
लाल परम आनंद
को उपलब्ध हो
गए! उन्होंने
यह भूल नहीं
की, यह
तर्क -जाल
नहीं किया। उन्होंने
कहा कि अगर
दुखी हूं तो
मैं जिम्मेवार
हूं। अगर दुखी
हूं तो अपने
भीतर मुझे
झांकना होगा।
अगर दुखी हूं
तो मेरे भीतर
का दीय बुझा
हुआ है, इसलिए
अंधकार है।
सारी दुनिया
को... और न मालूम
नए-नए कारणों
को खोजकर अपने
दुख को छिपा
लेने से कोई
सार नहीं है।
नजर तुम्हारी
जाली है,
सिक्का
तो टकसाली है!
इस
सिक्के को गढ़ा
प्रकृति ने है
धरती की माटी से।
इस
सिक्के को गढ़ा
पुरुष ने अपनी
ही परिपाटी से।
इस
सिक्के पर अंक
पड़े हैं स्वयम
नियति के हाथों
से,
यह
सिक्का तो
चलता आया जनम-
मरण की घाटी
से!
इसे
बजाओ, यह गाता
है
गीत
खुशी के, मातम
के
इस
सिक्के में
दोष देखना
केवल
खाम- ख्याली
है!
सिक्का
तो टकसाली है!
माल
तुम्हारा
खोटा है
यह
ग्राहक तो
बहुत खरा
यह
ग्राहक पीठ
बोलों पर
मिसरी-सा घुल
जाता है!
थोड़ी-सी
ममता पाने को
निज सर्वस्व
लुटाता है!
जो
छल-कपट देखते
हो तुम वह तो
सभी तुम्हारे
हैं-
इस
गाहक की
सच्चाई से
जनम-जनम का
नाता है!
अपने
अंदर की करुणा
को
लो कर
के तो परखो
तुम!
इस
गाहक का हाथ
खुला है
इस
गाहक का हृदय
भरा!
तुम आए
हो नए-नए।
यह तो
हाट पुरानी
है!
सोना
-चादी, हीरा-मोती,
कितने
इसमें छले गए।
जीवन
भर बटोरने
वाले खाली
हाथों चले गए!
सुख-दुख
की यह हाट
अनोखी, इसमें
बिकता यश-
अपयश
पाने
वाले सदा
पुराने, देने
वाले नित्य
नए!
तुम तो अपने
में ही उलझे,
आंख खोल
के देखो तो!
जो निज
को जितना दे
सकता
वह
उतना ही
ज्ञानी है!
यह तो
हाट पुरानी
है!
कितने
चालाक
तुम
बनो,
दुनिया
भोली- भाली है!
पल में
रोना, पल में
हंसना,
यह
दुनिया तो
सहज-सरल,
उत्सुकता
अस्तित्व
यहां पर,
जीवन
तो है कौतूहल!
सत्य
स्वप्न है, स्वप्न
सत्य है-इन
दोनों में
अंतर क्या?
इने
-गिने
विश्वासों पर
ही इस दुनिया
की चहल-पहल!
जो
मिलता है लेना
होगा राजी से, नाराजी
से!
अरे
व्यर्थ की
तीन- पाच यह और
व्यर्थ की
गाली है।
दुनिया
भोली- भाली है!
नजर
तुम्हारी
जाली है
सिक्का
तो टकसाली है!
नजर
बदलनी है। जो
तुम्हरे भीतर
है,
परम धन है।
जरा भूल-चूक
नहीं है। यह
अस्तित्व
जैसा होना
चाहिए वैसा ही
है; इसमें
जरा भी
विसंगति
नहीं। यह
अस्तित्व तो अपूर्व
उत्सव है। तुम
अंधे, तुम
लंगड़े, तुम
लूले। नाच न
आवै आँगन टेढ़ा!
नजर
तुम्हारी
जाली है,
सिक्का
तो टकसाली है!
इस
सिक्के को गढ़ा
प्रकृति ने है
धरती की माटी से।
इस
सिक्के को गढ़ा
पुरुष ने अपनी
ही परिपाटी से।
इस
सिक्के पर अंक
पसे हैं स्वयम
नियति के हाथों
से
यह
सिक्का तो
चलता आया जनम-
मरण की घाटी
से!
इस
बजाओ, यह गाता
है
गीत
खुशी के, मातम
के
इस
सिक्के में
दोष देखना
केवल
खाम- ख्याली
है!
सिक्का
तो टकसाली है!
नजर
तुम्हारी
जाली है।
नजर...
नजरिया बदलने
की बात है। इस
बात को तुम
बहुत मौलिक
रूप से अपने
हृदय में संजो
लो। दोष न दो।
कोई और
जिम्मेवार
हूं। मन करता
है कोई और
होगा
जिम्मेवार।
कष्ट कितना ही
हो,
सतय को
स्वीकार किए
बिना जीवन में
क्रांति नहीं
होती। अच्छा
लगता है यह
मानना कि कोई
और तुम्हें कष्ट
दे रहा है। यह
बात तो बड़ी
बेहूदी मालूम
पड़ती है कि
मैं खुद ही अपने
को कष्ट दे
रहा हूं। फिर
तो कोई बहाना
भी नहीं रह
जाता। फिर तो
कोई भी कहेगा :
अगर तुम ही
अपने को कष्ट
दे रहे हो तो
तुम्हारी मौज;
देना हो तो
दो, न देना
हो तो न दो।
दूसरा दे रहा
है तो कम- से -कम
इतना तो सहारा
रहता है कि हम
अपने को बचा
लें। हम इतना
तो कह सकते
हैं कि हम
क्या करें, करना भी
चाहें तो क्या
करें! विवशता
है, असहाय।
अवस्था है।
रोने के लिए
दुविधा तो
रहती है, आंसू
टपकाने का
उपाय तो रहता
है।
लेकिन
जिसने भी यह
सुविधा खोजी
उसके जीवन में
धर्म का
पदार्पण नहीं होता।
और जिसने अपने
दुख के लिए
निमित बनाए
बाहर। वह कभी
परमात्मा को
उपलब्ध नहीं
होता है।
लाल के
आज के सूत्र
इस अंतर -खोज
की दिशा में
इाई इशारे हैं।
करसूं
तो बाटै नहीं, बीजं।
सेती आड।
वै नर
जासीं नाली, चौरासी
की खाड।।
जिंदगी
उनकी है जो
बांटना जानते
हैं। जिंदगी
उनकी है जो
लुटाना जानते
हैं। जिंदगी
उनकी है जो
दोनों हाथ
उलीचते हैं।
कंजूसों की
नहीं है
जिंदगी।
लेकिन
कंजूसी क्यों
है?
कंजूसी
इसलिए कि हमें
भीतर के धन का
कुछ पता नहीं
है। कंजूसी
इसीलिए है।
इसीलिए जोर से
पकड़ते हैं हर
चीज को कि
कहीं हाथ से
छूट न जाए, आई
हुई चीज छूट न
जाए!
बामुश्किल तो
आई है, आते -
आते तो आई है!
कितनी यात्रा
और कितनी दौड़ -
धूप, आपाधापी
के बाद आई है!
हाथ से छूट न
जाएं।
हमें
भीतर के
साम्राज्य का
पता नहीं है, इसीलिए
कौड़ियों को
इकट्ठा किए
बैठे हैं।
तिजोरियों को
पकड़े बैठे हैं,
तिजोरियों
में कौड़िया
भरी हैं।
क्योंकि जो
मौत छीन लेगी
उसका कोई
मूल्य नहीं है।
लेकिन
तुम्हारे पास
एक ऐसा
सर्वस्व है, एक ऐसा धन है,
जिसे मौत भी
नहीं छीन सकती,
जिसे चिता
की लपटें भी
जला नहीं
सकतीं।
जिसे
उस धन का पता
चल गया, उसे
एक बात औ पतचा
चलता है कि वह
धन अपार है।
उसे तुम कितना
ही बाटो, चुकता
नहीं। चुक जाए
ऐसा नहीं है।
जो चुक जाए वह
भी कोई धन है? जिसकी सीमा
हो वह भी कोई
धन है? उस
लंगड़े -लूले
को धन मत
समझना। असीम
हों-तों धन।
अनंत हों-तों
धन।
तुम
सोचते हो, हमने
परमात्मा का
नाम दिया है- 'ईश्वर '! 'ईश्वर
' शब्द
बनता है
ऐश्वर्य से।
ऐश्वर्य का
अर्थ होता है :
संपदा, धन।
तुम्हारे
भीतर इतना
ऐश्वर्य है!
काश तुम जरा लौटो
और जरा आंख भीतर
मोड़ो, तो
फिर तुम
लुटाने लगोगे।
तुम बांटने
लगोगे।
क्योंकि तुम
देखोगे एक
अनुभव, एक
नया अनुभव, कि तुम
जितना बांटते
हो उतने नए -नए
झरने तुम्हारे
भीतर फूटने
लगते हैं। तुम
हौज नहीं हो, कुएं हो।
हौज तो डरती
है कि कोई
पानी न भर ले, क्योंकि
जितना पानी
गया उतनी हौज
खाली हुई। कुआ
बुलाता है।
कुआ निमंत्रण
भेजता है; स्नेहपातियां
खिलता है कि
आओ, भरो!
क्योंकि कुआ
जानता है कि
कोई नहीं
भरेगा तो सड़
जाऊंगा। कुआ
जानता है कि
कोई नहीं
भरेगा तो मर
जाऊंगा। कुआ
जानता है कि
कोई भरता
रहेगा तो नए
झरने फूटते
रहेंगे, नई
जलधार आती
रहेगी।
नितनूतन बना
रहूंगा। युवा
रहूंगा। ताजा
रहूंगा।
स्वच्छ
रहूंगा।
जीवंत रहूंगा!
तुम
हौज नहीं हो, कुएं
हो। मगर भीतर
देखो तो कुए
का पता चले, कि कुआ सागर
से जुड़ा है! कि
पीये पीने
वाले जितना
पीना हो!
लुटाओ
दोनों हाथों
से जितना
लुटाना हो।
तुम्हारे पास
ऐसा अमृत है
जिसे तुम लुटा
नहीं सकते। करसूं
तो बाटै नहीं...।
अपने हाथ से
तो बाटते ही
नहीं लोग।...
बीजं। सेती आड।
और अगर कोई
दूसरा बांटता
हो तो उसको भी
रोकते हैं, उसको
भी अड़चन डालते
हैं। खुद तो
बांटते नहीं,
दूसरे बांटने
वाले के बीच
भी बाधा डालते
हैं, क्योंकि
बांटने वाला
अगर दूसरा है
तो भी उनके अहंकार
को चोट लगती
है। इसलिए तो
जीसस को सूली
लगा दी। चुद
तो बांटते
नहीं, लेकिन
यह आदमी बांट
रहा था। यह
आदमी
परमात्मा को
बांट रहा था।
सुकरात को जहर
पिला दिया।
खुद तो बांटते
नहीं! यह आदमी
सत्य की
उदघोषणा कर
रहा था। मैसूर
का गला काट
दिया। खुद तो
बाटते नहीं! मगर
यह आदमी
उदघोषणा कर
रहा था : अनलहक!
अहं ब्रह्मास्मि!
मैं ब्रह्म
हूं! यह बांटे
जा रहा था।
हमने बांटने
वालों के साथ
दुर्व्यवहार
किया है। हम
कंजूसों को
कष्ट होता है
यह देखकर कि
कोई बांटने
वाला! हम
कंजूसों के
अहंकार को चोट
लगती है बांटने
वाले को देखकर।
करसूं
तो बाटै नहीं, बीजं।
सेती आड।
वै नर
जासीं नाली, चौरासी
की खाड।।
ऐसे
व्यक्ति नर्क
में गिरेंगे; गिरे
ही हैं -जो न
बांटते हैं न
बांटने देते
हैं। और
चौरासी करोड़
योनियों में
भटकते रहेंगे,
बार -बार
गड्डे में
गिरेंगे गर्भ
के और कभी भी उनको
उस शाश्वत का
दर्शन नहीं
होगा।
बुझ गई
न जो बन एक आह
अधरों पर
ऐसी तो
कोई चाह नहीं
जीवन में!
मेरे
पैरों को मिली
थकन की सीमा
मेरे
मस्तक को
गुरुता की
नादानी!
दिल
में घिर आया
करता एक धुआं-सा
आंखों
में घिर आता
है अकसर पानी!
अनजानी
दुनिया का
अनजाना कम है
अनजाना
-सा ही सकल ज्ञान
औ भ्रम है
अनजान
दिशा का मैं
अनजाना पंथी
केवल
असफलता ही
जानी-पहचानी!
खो गई न
हो जो अंधकार
में सहसा
ऐसी तो
कोई राह नहीं
जीवन में!
उल्लास-तरगों
से जो अधर
विचुबित
वे लिए
हुए हैं चुभती
जलन तृषा की
आंसू
में उमड़ा जो
अभाव का सागर
उसमें
ही लहरें हैं
छवि की, सुषमा
की!
मेरे
पीछ अगनित
खंडहर के
क्रंदन मेरे
आगे बस
धुधला -सा
सूनापन
यह राग-रंग, यह
चहल-पहल सब
कुछ है
पर
अपने अंदर मैं
कितना एकाकी!
पल- भर
का जो अवलंब
मुझे दे सकती
ऐसी तो
कोई थाह नहब
जीवन में!
जिसको
देखा वह खोया
अपनेपन में
जिसको
पाया वह बेसुध
यहां जलन में
पागल-सा
मैंने दर -दर
अलख जगाया
जिससे
पूछा है वही
एक उलझन में।
प्रत्येक
मौन में कुछ
घुटता-सा भय
है
प्रति
स्वर में कुछ
कापता हुआ
संशय है
कितने
निःश्वासों
से बोझिल है
धरती
हैं
डूब चुके
कितने
उच्छवास गगन
में।
विचलित
कर सकती जो कि
नियति के कम
को
ऐसी तो
कोई आह नहीं
जीवन में
इस
जीवन में
बचाने योग्य
क्या है?
बुझ गई
न जो बन एक अधरों
पर
ऐसी तो
कोई चाह नहीं
जीवन में!
खो गई न
हो जो अंधकार
में सहसा
ऐसी
ततो कोई राह
नहीं जीवन
में!
पल भर
जो अवलंब मुझे
दे सकती
ऐसी तो
कोई थाह नहीं
जीवन में!
विचलित
कर सकती जो
नियति के कम
को
ऐसी तो
कोई आह नहीं
जीवन में
इस
जीवन में है
क्या? जरा आंख खोला
और गौर से
देखो
तुम्हारे हाथ
खाली हैं।
कितने ही भरे
हों तो खाली
हैं। सिकंदर
के हाथ भी
खाली हैं।
इस
दुनिया में
लोग चाहे
कितने ही धन
से सजे हों, भीतर
का मालिक जब
तक जागा नहीं,
भीतर के
स्वामी से जब
तक पहचान न
हुई, तब तक
सब धोखा है।
रोओग एक दिन, पछलाओगे एक
दिन। मौत जब
द्वार पर आकर
खड़ी होगी और
सब छीन लेगी जिसे
तुमने कमाया
था; जिसे
तुमने इतनी आकांक्षा
से पकड़ा थज्ञ,
इतनी
आतुरता से
पकड़ा था। जब
सब छिन जाएगा
तो तड़फोगे। मेरे
देख, लोग
मौत से नहीं
डरते -डरते
हैं, मौत
जो छीन लगी
उससे। मौत से
तो डरोगी भी
कैसे? पौ से
तो पहचान ही
नहीं है।
अपरिचित से
क्या डर? कौन
जाने मौत
अच्छी ही हो, मीठी हो! कौन
जाने मौत और
नए जीवन का
द्वार हो! मौत
से तो कोई
पहचान नहीं है
तो मौत से
क्या डरोगे? फिर डर क्या
है? असली
डर यह है कि
तुम्हें पता
है, कितने
ही अज्ञानी
होओ, लेकिन
इतनी प्रतीति तो
तुम्हें है कि
तुम्हारा धन,
तुम्हारा
पद, तुम्हारी
प्रतिष्ठा, यह सब मौत
छीन लेगी।
इतना पक्का है।
मौत क्या देगी
उसका तो कुछ
पता नहीं; लेकिन
क्या छीन लेगी,
यह बिलकुल साफ
है। तुम जो हो
सब छीन लेगी।
तुमने जिस-जिस
से तादात्म्य
कर लिय वह सब
छिन जाएगा।
इससे घबड़ाहट
होती है। मौत
की घबड़ाहट
नहीं है। यह
मौत से भय
नहीं है। यह
तुम्हारी पकड़
से, तुम्हारे
परिग्रह से, तुम कृपणता
से भय पैदा हो
रहा है। काश, तुम अपने ही
हाथ मुट्ठी
खोल दो, मौत
का भय उसी
क्षण तिरोहित
हो जाता है।
तुम पकड़ो नहीं,
जिओ! गुजरो
जिंदगी से! मगर
पकड़ो मत।
पांपेई
के नगर में
ज्वालामुखी
फूटा, आज से
हजारों साल
पहले। सारा गांव
भाग।। आधी रात,
ज्वालामुखी
का फूटना, भयंकर
लपटें, आग
की वर्षा गांव
पर! लोग अपना-
अपना सामान जो
बचा सकते थे
बचाने की
कोशिश की। कोई
अपनी तिजोड़ी
लिए है। जिसके
पास जो था... लोग
अपना- अपना
सामान ढो रहे
हैं। गरीब हैं,
उनके पास भी
बहुत कुछ है; नहीं है कुछ,
तो कोई अपनी
खाट, अपना
बिस्तर...
जिसके पास जो
है। सिर्फ एक
आदमी अपने
घूमने की छड़ी
ले कर मस्ती से
चल रहा है। जो
भी उसे देखता
है हैरान होता
है। वह था उस
गांव का
दार्शनिक-एक
फकीर। यह समय
था उसका रोज
सुबह घूमने
जाने का, तीन
बजे रात। वह
आज भी घूमने
जा रहा है। जो
उसे देखता वही
कहता है : अरे, कुछ बचा न
पाए! दया के
भाव से देखता
है- 'कुछ
बचा न पाए!'
और वह
फकीर हंसता है।
वह कहता है :
अपने को बचा
लिया, और
बचाने को क्या
है? जो भी
देखता वह
पूछता है कि
बड़ी ज्ञान से
चल रहे हो, यह
कोई वक्त ज्ञान
से चलने का है!
रही होगी
लखनवी चाल-हाथ
में छड़ी, मस्ती!
शायद गीत
गुनगुना रहा
हो। यह कोई
वक्त छड़ी लेकर
घूमने निकलने
का है!
और
फकीर कहात है :
यह मेरे रोज
का समय है।
ज्वालामुखियों
से क्या अंतर
पड़ता है।? जिस
दिन से अपने
को जाना है, मौत से अंतर
ही नहीं पड़ता।
जिस दिन से
अपने को जाना
हैख, मौत
झूठ हो गई।
और
अपने को जानने
के रास्ते पर
बांटना साधन
भी है, साध्यश
भी। बाटोगे तो
जान सकोगे, जानोगे तो
बांट सकोगे।
करसूं
तो बाटै नहीं, बीजं।
सेती आड।
वै नीर
जासीं नाली, चौरासी
की खाड।।
काया
में कवलास, न्हाय
नर हर की पैड़ी।
वह
जमना भरपूर, नितोपती
गंगा नैड़ी।।
लाल
कहते हैं :
काया
में कवलास!
कैलाश तो
तुम्हारी
काया में है, जा
कहां रहे हो? किधर चले? कोई काशी, कोई काबा, कोई कैलाश, कोई गिरनार,
कोई
जेरूसलम।
कहां जा रहे
हो?
काया
में कवलास, न्हाय
नर रह की पैड़ी।
वहीं
नहा लो! और हर
की पैड़ी वहीं
है,
मगर तुम जा
रहे हो
हरिद्वार! हरि
का द्वार
तुम्हारे
भीतर है।
लेकिन तुमने
कटा ली टिकिट,
तुम चले
हरिद्वार।
तुम कहते हो
कि जार रहे
हैं, हर की
पैड़ी पर नहाके।
कैसी मूढ़ता
है! तीर्थ को
खोजने बाहर
जाते हो, तीर्थों
का तीर्थ
तुम्हारे
भीतर है!
काया
में कवलास, न्हाय
नर हर की पैड़ी।
लाल
कहते हैं :
बड़ी
हैरानी की बात
है,
तुम जा-जाकर
नदियों में
नहाते हो!
अपने में डुबकी
मारो! वह जमना
भरपूर... वहां तुम
पाओगे जमना भरपूर!
बाहर की जमना
तो कभी बाढ़
आती अग़र कभी
सूख भी जाती
है। गर्मी में
दीन- क्षीण हो
जाती है। बाहर
की जमना तो
बदलती है, रूपांतरित
होती है। भीतर
की जमना हमेशा
भरपूर है-सदा
एक जैसी, एक
रस!
वह
जमना भरपूर, नितोपती
गंगा नैड़ी।।
और
तुम्हरे पास
ही,
तुम्हारे
भीतर ही
प्रतिदिन बर
रही है गंगा, तुम कहां जा
रहे हो? हाजी
होने चले? हज
करने चले? तीर्थयात्री
बन गए? मूढ़ता
कर रहे हो!
रामकृष्ण
के पास एक
आदमी आया।
उसने कहा :
गंगा जा रहा
हूं, काशी जा रहा
हूं स्नान
करने। परमहंस
देव, आपका
आशीर्वाद है न?
रामक्रष्ण
तो भोले - भाले, सीधे
-सादे आदमी थे।
कहते भी थे तो
बात बड़ी मीठी
कहते थे। कबीर
जैसे नहीं थे
कि उठाया एक
टेंड्पा और मार
दिया सिर पर!
कबीर की अपनी
रौनक है, अपनी
शान है!
कबीर
खड़ा बाजार में
लिए लुकाठी
हाथ।
जो घर
बारै अपना चले
हमारे साथ।।
कहते
हैं : लट्ठ लिए
खड़ा हूं, है कोई
हिम्मतवार जो
घर में आग लगा
दे अपनी? लगा
दे कोई घर में
आग तो हमारे
साथ चले! यह
शर्त है।
रामकृष्ण
तो और ढंग के
व्यक्ति थे।
बुद्धों में
भी ढंग- ढंग के
लोग हैं!...
रामकृष्ण ने
कहा कि ठीक है
जाते हो तो
जरूर जाओ, मगर
एक बात
तुम्हें बता
दूं...। यह मीठी
चोट है और
कभी-कभी मीठी
चोट कड्वी चोट
से भी गहरी
होती है, खयाल
रखना।
मुदिमार! कोई
लट्ठ से नहीं
मारी जाती। उसने
कहा : जरूर
कहें
परमहंसदेव, क्या कहना
है!
कहा :
जरा पास आ, तेरे
कान में कहूं।
तू जा रहा है
सो तो ठीक, लेकिन
तूने देखा
गंगा के
किनारे बड़े
-बड़े वृक्ष
खड़े हैं!
उसने
कहा : ही।
'तुझे
पता है वृक्ष
क्यों खड़े हैं?'
'मुझे
कुछ पता नहीं।
किसी शास्त्र
में इसका
उल्लेख भी
नहीं है कि क्यों
वृक्ष खड़े हैं।
नदियों के
किनारे वृक्ष
होते हैं, सो
वृक्ष हैं।
रामकृष्ण
ने कहा : तुझे
फिर पता नहीं।
तू जब डुबकी
मारेगा गंगा
में तो गंगा
की पवित्रता
के कारण तेरे
पाप धुल
जाएंगे। मगर
पाप इतनी
आसानी से
छोड़ने वाले
नहीं। वे
झाडों पर बैठ
जाते हैं। फिर
तू निकलेगा
गंगा से, जब तू
वापिस घर की
तरफ चलेगा, उचक कर फिर
सवार हो
जाएंगे। तो
अगर तू डुबकी
मारे तो
निकलना मत फिर,
मार ही जाना
डुबकी। नहीं
तो बेकार हो
गया सब। तेरी
डुबकी वैसी
होगी जैसे
हाथी नहाने
जाता है; खूब
नहाता है, मल-मल
कर नहाता है
और फिर बाहर आ
कर धूल फेंकता
है। सब नहाया-
धोया खराब कर
लेता है। तो
तू डुबकी मारे,
अगर मेरी
मान तो फिर
मार ही जाना
डुबकी, फिर
निकलना मत।
उसने
कहा :
परमहंसदेव, आप
क्या कह रहे
हैं! क्या
आत्महत्या
करनी है, कि
डुबकी मारी
फिर निकलूं
नहीं?
कहा :
फिर जाना
बेकार फिर आना
-जाना ही होगा।
वे झाडू पर
बैठ जाएंगे चढ़
कर और रास्ता
देखेंगे कि
बच्चू? आओ...
फिर सवार हो
जाएंगे। इससे
कुछ लाभ न
होगा।
रामकृष्ण
सीधे -सादे
हैं। लट्ठ
जैसा नहीं
मारते। मगर
मार दिया, मार
दी कटार-ऐसी
कि जो दिखाई
भी नहीं पड़ती!
यह आदमी गया
नहीं फिर काशी,
अब क्या खाक
जाना है! अब
पहले जाओ और
काशी के सब झाडू
कांटो और फिर
पता नहीं झाडू
कांटो तो वे
कोई जमीन पर
ही खड़े रहें।
पाप ही हैं, जो झाडू पर
चढ़ते हैं, तो
जमीन पर ही
खड़े रहें!
मकानों पर बैठ
जाएं। और
पापों का क्या,
बड़े
सूक्ष्म हैं,
हवा में पर
मारें! वहीं
ऊपर फड़फड़ करते
रहें, तुम
निकलो बाहर, फिर सवार हो
जाएं। एक
और गंगा है, जो तुम्हारे
भीतर बह रही
है। उस गंगा
का नाम ध्यान
है।
हरख
जपो हरदुवार...।
ईश्वर
का स्मरण करो, हरि
का द्वार खुले।
हरिद्वार बने!
हरख जपो...! ऐसा
जपो कि जपने
वाला खो जाए।...
सूरत की
सैंसरधारा।
ऐसा लयबद्ध हो
जाए तुम्हारा
स्मरण
परमात्मा का,
वहीं से
सहस्रधार
फूटेगी। माहे
मन्न महेश... और
जब ध्यान की
प्रक्रिया से,
प्रभु -स्मरण
से मन का
विसर्जन हो
जाता है तो
महेश से मिलन
हो गया, तो
मिल गया देवों
का देव!... अलिल
का अंत
फुवारा! और तब
वर्षा होती है
भीतर आनंद की।
मेह बरसते
अमृत के! अलिल
का अंत
फुहारा!
एक और
रास्ता है, जिस
पर चलना नहीं
होता। एक और
मार्ग है, जिस
पर बैठना होता
है रुकना होता
है। न ऊंची
-नीची राहें
हैं, न
कटरीले मार्ग
हैं-चुपचाप
सन्नाटा है, न शोरगुल है।
न कम है, न
विधि है। उस
क्रम-विधि-हीन
शांत बैठ जाने
का नाम ध्यान
है।
मन तो
गति है; ध्यान
गति- मुक्ति
है। मन तो
चलता ही रहता
है। मन का तो
चलना ही जीवन
है। जिस क्षण
तुम्हारे
भीतर मन नहीं
चलता उस क्षण
ध्यान है।
कैसे वह
अपूर्व घड़ी आए
जब मन न चले? साक्षी की
कुंजी है।
बैठो! बैठकर
देखते रहो।
चलने दो मन को;
न रोकना, न झगड़ना, न
निंदा करना, न संग-साथ हो
लेना।
निरपेक्ष, तपस्थ!
जैसे कुछ लेना
-देना नहीं
है-असंलग्न, दूर! जैसे मन कोई
और है। जैसे
राह पर चलते
हुए लोग हैं।
ऐसी दूरी अपने
मन से कर के जो
बैठ गया, धीरे
- धीरे एक दिन
पता है कि मन
कभी-कभी रुक
जाना है।
क्षणभर को
अंतरालों में
आ जाते हैं।
उन्हीं
अंतरालों में
गंगा फूटती है।
उन्हीं
अंतरालों में
हरि का द्वार
खुलता है।
उन्हीं अंतरालों
में कैलाश के
दर्शन होते
हैं। फिर
अंतराल बड़े
होने लगते हैं।
फिर धीरे -
धीरे वह अंतिम
परम अवसर भी आ
जाता है, जब
मन सदा के लिए
विदा हो जाता
है।
हरख
जपो हरदुवार, सुरत
की सैंसरधारा।
माहे
मन्न महेश, अलिल
का अंत
कुंवारा।।
टोपी
धर्म दया, शील
का सुरंग।
चोला।
जत का
जोग लंगोट, भजन
का भसमी गोला।।
लाल तो
सीधे -सादे
गांव के आदमी
हैं,
गांव की
भाषा बोल रहे
हैं। कहते हैं
: टोपी, सिर
पर रखने योग्य
अगर कोई चीज
है तो धर्म, दया, करुणा,
प्रेम। अगर
कोई चोले को
रंगने के
योग्य रंग है
तो शील का
सुरंग। चोला।
तो शील...। शील
का अर्थ होता
है : जिसके
भीतर ध्यान
जगा, उसके
बाहर फूटती
हुई किरणों का
नाम शील है।
जैसे घर में
दीया जले तो
खिड़की से, द्वार
-दरवाजे से
रोशनी दिखाई
पड़ने लग। राह
से चलते हुए
आदमी को भी
पता चलता है
घर का दीया
जला है। घर का
दीया बुझा हो
तो खिड़की, द्वार
-दरवाजे से
अंधेरा झंकता
है।
ध्यान
की आभा है शील।
जब तुम भीतर शांत
होते हो, तुम्हारे
बाहर शील की
शीतलता होती
है। जो भी पास
आता है
तुम्हारी
शीतलता से
आह्लादित
होगा। ठंडा हो
जाएगा। आया
होगा उत्तप्त,
आर्द्र हो
जाएगा।
टोपी
धर्म दया, शील
का सुरंग।
चोला...। जत का जोग
लंगोटा। और
अगर संयम ही
कोई बाधना है
तो अंतर -योग, अंतर मिलना।...
भजन का भसमी
गोला। भस्म ही
कोई लगानी है
तो भजन की।
खपा खड़ाऊ राख...।
अगर खड़ाऊ ही
कोई पहननी हो
तो खपा... क्षमा
की।... रहत का
डंड कमंडल। और
अगर कोई आचरण
जीवन में लाना
हो तो जो
ध्यान में
उपलब्ध हो
उसको जीओ। जो
ध्यान में
उमगे उसे आचरण
में प्रगट
होने दो। बाहर
और भीतर को एक
होने दो। बाहर
और भीतर में
भेद न रहे, द्वैत
न रहे, द्वंद्व
न रहे।
...
रहत का डंड
कमंडल! रैणी
रह सतबोल...। और
अगर कोई रहने
योग्य बात है, आचरण
-योग्य बात है
तो वह है कि
तुम्हरी वाणी
में सत्य
प्रगटे, सत्य
का गीत उठे।...
लोपज्या ओखा
मंडल। अगर
इतना तुम कर
सको तो यह
विराट
ब्रह्मांड है,
इसको भी तुम
पार कर जाओगे,
इसके उस पार
निकल जाओगे।
इतना सा तुम
कर सको कि
ध्यान की
छोटी-सी नौका,
यह शील की
पतवार, बस
काफी है। तुम
इस पूरी
भवसागर को पार
कर जाओगे।
खेलौ
नौखड पीय...। और
फिर तुम खेल
अनंत में-खेलू
अनंत का! फिर
सब लीला है।
नौ का औकड।
अनंत का सबूत
है,
क्योंकि नौ
पर सारी
संख्या
समाप्त हो
जाती है। फिर
नौ के बाद तो
पुनरुक्ति
होती है। दस
का मतलब है, फिर लौट गए, ग्यारह-बारह,
फिर वही
लौटने लगा। नौ
पर संख्या
समाप्त हो
जाती है। नौ
अनंत का प्रती
है; सारी
संख्या का अंत
आ गया। नौ के
बाद असंख्य है।
खेलो
नौखड पीय...।
फिर तो यह जो
अनंत जगत है, इसमें
खेलो, दिल
खोल कर खेला!
फिर सब लीला
है। फिर कुछ
बोझ नहीं। फिर
कोई चिंता
नहीं। फिर
छाती पर कोई
पत्थर नहीं।
फिर कोई विषाद
नहीं।
खेलो
नौखड माय, ध्यान
की तापों धूणी।
मगर एक
बात खयाल कर
लेना : ध्यान
की धूनि तापों
तो ही पक
जाओगे, तो ही
फिर यह जगत
लीला रह जाएगा।
परम संन्यास
इस जगत को
लीला की भाति
लेना है।
शुरुआत ध्यान
से, अंत
लीला में।
सोखौ
सरब सुवाद, जोग
की सिला अलूणी।।
और तुम
अगर इतना कर
सको कि ध्यान
की धूनी को जला
सको... लोग आग
जलनाकर बैठे
हैं और साख
रहे हैं कि
धूनी लगाए हुए
हैं! अरे, आग
लगानी हो तो
ध्यान को
लगाओ! लपटें
उठानी हों तो
ध्यान की उठाओ;
क्योंकि
ध्यान में ही
जलेगा
तुम्हारा
अंहकार, जलेगी
विषय- वासना।
सोखो सरब
सुवाद! उसी
में तुम्हारे
सारे राग-रंग
की जो आकांक्षा
है, जो
स्वाद की
इच्छा है, जो
विषय- भोग की
वासना है, सब
जल जाएगी। मगर
लकड़िया जलाकर,
धूनी लगाकर
बैठोगे, इससे
कुछ भी नहीं
होगा। तुम
किसको धोखा दे
रहे हो? औरों
को तो ठीक, मगर
खुद को भी
धोखा दे रहे
हो। क्योंकि
जीवन का एक-एक
पल जाता है, वह बहुमूल्य
है, फिर
लौट कर आने का
नहीं है। बैठ
जाओगे योग की
सिद्ध-शिला
पर! बस ध्यान
की धूनी!
पीने
दे! पीने दे ओ!
यौवन
मदिरा का
प्याला!
मत याद
दिलाना कल की;
कल है
कल आने वाला।
है आज
उमंगों का
युग-
तेरी
मादक मधुशाला!
पीने
दे जी भर
रूपसि
अपने
पराग की हाला!
ले कर
अतृप्त
तृष्णा को
आया
हूं मैं
दीवाना,
सीखा
ही नहीं यहां
है
थक
जाना या छक
जाना,
यह
प्यास नहीं
बूझने की
पी
लेने दे मन
माना,
बस मत
कर देना रूपसि
'बस
करना' है
पर जाना।
हम तो
जीवन को सिर्फ
भोग -विलास
समझे हैं और
सोचते हैं :
अगर भोग-विलास
का अंत आ गया
तो जीवन का अंत
आ गया। सचाई
ठीक इसके
विपरीत है।
जहां भोग
-विलास का अंत
आता है वहीं
से वास्तिविक
जीवन का
प्रारंभ है।
और भोग-विलास
के अंत का यह
अर्थ नहीं है
कि छोड़ो
पत्नी-बच्चों
को,
कि
दुकान-बाजार
को। भोग-विलास
के वास्तविक
अंत का अर्थ
है कि ध्यान
जगे और शेष
सारा जीवन, सारा जीवन, उसके समस्त
आयामों में एक
लीला-मात्र हो
जाए, एक
अभिनय-मात्र
हो जाए! खेलो
फिर जम कर!
राम
बने हो तुम
रामलीला में, सीता
चोरी चली जाती
है। तुम रोते
भी हो, तुम
वृक्षों से
पूछते भी हो
कि हे वृक्ष, मेरी सीता
कहां? लेकिन
भीतर! भीतर
तुम जानते हो
कि कौन सीता, क्या
लेना-देना! मगर
बाहर आंसू
टपकाते हो।
युद्ध हो जाता
है, रावण
से जमकर युद्ध
होता है। जीवन
दाव पर लग
जाता है। फिर
भी भीतर तुम
जानते
हों-किससे
दुश्मनी, किससे
मैत्री! पर्दा
गिरा...।
कभी-कभी पीछे
जाकर देखा
करें, रामलीला
का जब पर्दा
गिर जाए, तो
राम, रावण,
हनुमान सब
साथ बैठे चाय
पी रहे हैंख, गपशप कर रहे
हैं। सीता
मैया चाय डाल
रही है; राम
को भी पिला
रही है, रावण
को भी पिला
रही हैं।
हनुमान जी ने
भी पूंछ -मूंछ
निकाल कर एक
तरफ रख दी है।
भीतर
तो एक बोध बना
रहे कि सब
अभिनय है। फिर
कोई चिंता
नहीं। फिर इस
संसार में रहो।
और रहने को
जाओगे भी कहां? सब
जगह संसार है।
भोग का
अंत जीवन का
अंत नहीं है।
लेकिन भोग से
जाग जाना, भोग
बाहर रह जाये
और तुम्हारे
भीतर एक जागरण
हो, तुम
साक्षी हो जाओ
और भोग एक
अभिनय हो जाए।
भोजन भी करोगे,
फिर रात
सोओगे भी; सोओगे
और सोओगे भी
नहीं, भोजन
करोगे और भोजन
नहीं भी करोगे।
जैन
शास्त्रों
में कथा है :
नेमीनाथ का
आगमन हुआ। वे
कृष्ण के
चचेरे भाई थे
जैनों कि तीथ
कर। नेमीनाथ
आये हैं, यमुना
के उस पार
ठहरे हैं।
कृष्ण ने
रुक्मणि को
कहा है कि जाओ,
सुस्वादु
भोजन बनाओ और
नेमीनाथ की
सेवा में उपस्थित
होओ। पर
उन्होंने कहा
कि नदी बहुत
गहरी है, नदी
बाढ़ पर है, पैदल
पार करना संभव
नहीं है। नदी
इतनी बाढ़ पर
है कि नाविक
भी खतरा लेना
चाहते नहीं।
तो हम क्या
करें? हम
कैसे पार
जायें?
तो
कृष्ण ने एक
बड़ी अच्छी बात
कही। कृष्ण ने
कहा कि तुम
नदी से कहना
कि अगर नेमीनाथ
उपवासे हों तो
नदी,
राह दे दे।
भरोसा तो न
आया रुक्मणि
को। मगर कृष्ण
कहते हैं तो
करके देख लेना
ठीक है। आजकल
की पत्नी होती
तो कहती चलो
जाओ भाड़ में! किसको
बनाने चले हो!
पुराने जमाने
की कहानी है, रुक्मणि पति
को ऐसा तो कह
नहीं सकती।
कहते होंगे तो
कुछ ठीक ही
कहते होंगे।
कहते होंगे तो
कुछ सार होगा।
बिना किये तो
कुछ कहा नहीं
जा सकता।
भोजन
बनाया, चली।
शक है भीतर, संदेह बड़ा
है-नदी कहीं
रास्ता देती
है! संदिग्ध
मन से, लेकिन
पूछा है कि
अगर नेमीनाथ
सदा के ही
उपवासी हों... 'सदा के
उपवासी'! इस
पर भी भरोसा
नहीं आता! सदा
के उपवासी तो
कैसे हो सकते
हैं! कम- से -कम
बचपन में मां
का दूध तो पिया
ही होगा! और
अगर सदा के ही
उपवासी हैं तो
आज भोजन इनको
कौन-सी जरूरत
पढ़ रही है! ये सब
बातें बेबूझ
मालूम पड़ती
हैं, मगर
अब कृष्ण कहते
हैं तो ठीक ही
कहते होंगे।
और जब
नदी ने रास्ता
दे दिया तब तो
रुक्मणि को अपनी
आखों पर भी
भरोसा नहीं
आया। रुक्मणि
और उसकी
साथिनें नदी
पार कर गई।
नेमीनाथ को
भोजन कराया।
भोजन कराया तो
बहुत हैरान
हुई,
बहुत भोजन
बनाकर लाई थी,
कि एक नहीं
पचास आदमियों
का पेट भर
जाता। शाही
स्वागत था।
लेकिन
नेमीनाथ तो सब
अकेले ही उड़ा
गये। तब तो और
भी शक होने
लगा कि ये
जीवन- भर के
उपवासी कैसे!
और तब याद आया
कि बड़ी झंझट
हो गई, जल्दी
में हमने
कृष्ण से यह
तो पूछा ही
नहीं कि लौटते
वक्त क्या
करेंगे! जाते
वक्त चलो कि नेमीनाथ
जीवन- भर के
उपवासी हैं...
लौटते वक्त भोजन,
करो लौट रहे
हैं, अब
किस मुंह से
गंगा से या
यमुना से कि
अब राह दे दो!
अब क्या करें?
किकर्तव्यतिमूढ
वे नदी के तट
पर खड़ी हैं।
नेमीनाथ
हंसने लगे।
उन्होंने
पूछा : क्या
अड़चन है? उन्होंने
कहा : अड़चन यह
है कि हम
पूछकर आये थे।
कृष्ण ने जो
उत्तर दिया था,
वह काम कर
गया मगर अब
कैसे काम
करेगा?
नेमीनाथ
ने कहा : फिक्र
छोड़ो! तुम तो
वही कहो कि अगर
नेमीनाथ जीवन
भर के, जन्म भर
के उपवासी हों
तो नदी राह दे
दे। उन्होंने
कहा : महाराज, कृष्ण की
बात पर भरोसा
नहीं आ रहा था,
आपकी बात पर
तो अब बिलकुल
भी नहीं आ
सकता।
नेमीनाथ
ने कहा : भरोसे
या न भरोसे का
सवाल नहीं। जो
मैं कहता हूं
वह करो। नदी
भलीभांति
जानती है कि
नेमीनाथ
उपवासे हैं।
और
रुक्मणि को
कोई राह नहीं
थी तो कहना
पड़ा। झिझकते -
झिझकते कहा कि
हे नदी, राह
दे दे, यदि
नेमीनाथ जीवन
भर के उपवासी
हों।
और नदी
ने राह दे दी।
कहानी बड़ी
प्रीतिकर है, कोई
ऐतिहासिक
नहीं हो सकती।
आदमियों को
नहीं दिखाई
पड़ता, नदियों
को क्या खाक
दिखाई पड़ेगा!
पर बात प्रतीक
की है, बात
मूल्य की है।
नेमीनाथ
के जीवन भर के
उपवास का अर्थ
केवल इतना ही
है कि सब
अभिनय है, भीतर
साक्षी है।
भोजन किया तो,
भूखे रहे तो,
दोनों हालत
में भीतर
साक्षी है।
साक्षी क्षण
भर को नहीं
छूटता है।
शाश्वत, सतत
साक्षी में
थिरता हो गई
है। यह ध्यान
की धूनी है।
फिर खेलो!
खेलौ
नौखड माय, ध्यान
की तापों धूणी।
सोखौ
सरब सुवाद, जोग
की सिला अलूणी।।
फिर उस
सिद्ध-शिला पर
विराजमान हो
जाओ। वही
सिंहासन पाने
योग्य है। फिर
समाधि के परम
सिंहासन पर
विराजो।
बांटौ
बिसवत भाग, देव
थानै दसवन्त
छोड़ी।
अवस
जोव जा हार, टेकसी
नहचै गोडी।।
जल्दी
ही आती है मौत, कहते
है लाल। फिर
घुटने टेकने
पड़ेंगे। मौत
आये उसके पहले
जिसने घुटने
टेक दिये ध्यान
में, उसकी
मौत फिर आती
ही नहीं। मौत
के सामने
घुटने
टेकोगे!...
टेकसी नहचै
गोडी! फिर कुछ
उपाय काम नहीं
पड़ेगा। तो अभी
झुक जाओ! तो
अभी मिट जाओ!
मौत मिटाये, उसके पहले
मिट जाओ। तो
फिर तुम्हें
कोई मिटा न
सकेगा। मौत
झुकाये उससे
पहले झुक जाओ,
तो
तुम्हारी
विजय शाश्वत।
बांटौ
बिसवत भाग, देव
थानै दसवंत
छोड़ी।
बड़ा
प्यारा वचन है।
कहते है।
कम-से-कम
परमात्मा के
लिए अपने जीवन
का दसवां
हिस्सा तो दे
दो। चौबीस
घंटे में
कम-से-कम दो
घंटे तो दे दो!
बस इतना भी
अगर तुम ध्यान
की धूनी रमाने
लगो,
चौबीस घंटे
में अगर
दों-ढाई घंटे
भी, दसवां
हिस्सा, तो
आज नहीं कल क्रांति
की वह अपूर्व
घड़ी आ जाएगी, वह अभिनव
क्षण आ जायेगा।
अगर इतना भी न
कर सको तो
कम-से-कम
बीसवां भाग दे
दो परमात्मा को।
घंटा सवा
घंटा! उतने से
भी क्रांति हो
जाएगी। मगर
उतने से कम से क्रांति
नहीं होती।
लाल बात पते
की कह रहे हैं।
जो लोग
भी ध्यान की
प्रक्रिया
में उतरते हैं
उन्हें धीरे-धीरे
अनुभव होना
शुरू हो जाता
है : कोई चालीस
मिनट तो मन को
विदा करने में
लग जाते हैं।
चालीस मिनट
कम-से-कम।
चालीस मिनट मन
की पकड़ है।
इसीलिए
स्कूलों में, कालेजों
में, यूनिवर्सिटीज
में हम चालीस
मिनट का
पीरियड रखते
हैं। अगर
चालीस मिनट से
ज्यादा का
पीरियड हो तो
मन भाग- भाग।
हो जाता है।
सारी दुनिया
में चालीस
मिनट के
पीरियड की स्वीकृति
हो गई है-किसी
खास कारण से।
यह कोई
आकस्मिक नहीं
है, यह मन
के नियम का
हिस्सा है।
चालीस मिनट तक
तो मन किसी
चीज में रमता
है। फिर कहता
है अब बस। बस
चालीस मिनट
उसकी क्षमता
है।
अगर
तुमने कम
ध्यान किया
चालीस मिनट से
तो तुम मन के
बाहर न हो
पाओगे। चालीस
के बाद ही काम
शुरू होता है।
चालीस मिनट और
साठ मिनट के
बीच में झलकें
आती हैं। और
साठ मिनट और
पचहत्तर मिनट
के बीच में
थिरता आती है।
इसलिए सवा
घंटा ठीक समय
है। लाल
बिलकुल पते की
बात कह रहे
हैं।
लेकिन
अगर यह तुम दो
बार कर सको, सवा-सवा
घंटा, तब
तो कहना क्या!
और अगर यह तुम
ढाई घंटा एक
ही साथ कर सको
तब तो डुबकी
बहुत गहरी लगे
और बड़ी जल्दी
लगे। और ऐसी
डुबकी लग जाये
तुम्हारी, तो
फिर मौत भी
आएगी, तुम्हें
घुटने न टेकने
पड़ेंगे, मौत
तुम्हारे
सामने घुटने
टेकेगी।
पीछै
सूं जम घेरसी, टेकरै
काल किरोई।
ख्याल
रखो,
देर नहीं है,
मौत आती ही
है! यम के दूत
तुम्हारे
पीछे ही चल
रहे हैं छाया
की तरह। किसी
भी दिन घेरा
डाल देंगे।
किसी भी दिन
फंदा कस
जायेगा।
पीछै
सूं जम घेरसी, टेकौ
काल किरोई।
और
ख्याल रखो, मौत
हमेशा पुकार
दे रही
है-सावधान, सावधान!
सुनो या न
सुनो, मगर
मौत रोज
सावधान कर रही
है। कुण आरोगै
घीव...। और जब
मौत आ जाएगी
तो कौन
भोगेगा-यह सब
जो तुम सोच
रहे हो, योजनायें
बना रहे हो, भविष्य की
कल्पनायें
बना रहे हो।...
जीमसी कुण
रसोई! इन सारी
योजनाओं में,
इस सारी कल्पनाओं
में तुम जो
समय गंवा रहे
हो, इस
सारे भोजन को
जीपने वाला
बचेगा नहीं।...
जीमसी फ्लू।
रसाई! मौत
आएगी और ले
जाएगी- और
क्षण में ले
जाएगी।
उसके
पहले ध्यान
साध ही लेना
है। जिसने
उसके पहले
ध्यान न साधा, वह
मूड है। इस
जगत में
बुद्धिमान
केवल वे ही है
जो मृत्यु के
पहले ध्यान को
साध लेते हैं।
मानापमान
हो इष्ट
तुम्हें
मैं तो
जीवन को देख
रहा!
मैं
देख रहा
दानवता के
दुःसाहस
के विकराल
कृत्य,
मैं
देख रहा
बर्बरता का
भू की
छाती पर नग्न
नृत्य,
मैं
देख रहा उठने
वाली
अम्बर
पर संसृति की
उसांस,
मैं
देख रहा यह
मानवता
कितनी
निर्बल कितनी
अनित्य!
जमघट
है रोने वालों
का,
जमघट
है गाने वालों
का,
सब
देने को लाए
थे पर
जमघट
है पाने वालों
का,
कुछ
बने लुटेरे
लूट रहे
कुछ
बने भिखारी
लूट रहे है
जमा
मिटाने को ही
यह
जमघट
मिट जाने
वालों का
मैं जग
को सुख देने
वाले
जग के
क्रन्दन को
देख रहा
मानापमान
हो इष्ट
तुम्हें मैं
तो
जीवन को देख
रहा!
तुम
साक्षी बनो।
मानापमान
होने दो
दूसरों को
इष्ट।
सफलतायें-असफलतायें, यशअपयश-
छोड़ो नासमझों
को, बच्चों
को! तुम तो
जीवन को देखो,
तुम तो
द्रष्टा बनो-तुम
तो साक्षी में
डूबो।
साक्षी
हरिद्वार है!
साक्षी गंगा
है। साक्षी
कैलाश है। और
इतने पास, इतने
पास है कि कदम
भी नहीं उठाना
पड़े और पहुंच
जाओ, कि आंख
न
खोलनी पड़े और
देख लो! आंख बंद
करके देख लो, इतने पास है।
बिना हिले
-डुले देख लो, इतने पास है।
पास कहना ठीक
नहीं, तुम्हारा
स्वरूप है।
तुम साखी हो!
तुम परमात्मा
के अंश हो।
तुम परमात्मा
हो!
और जब
तक तुम्हें
अपना यह
परमात्मा-बोध
न हो जाये, तब
तक समझना कि
जीवन अकारथ है।
तब तक समझना
कुछ भी पाया
हो तो व्यर्थ
है। तब तक
इतना करो
जितना लाल
कहते हैं। बन
सके तो दसवां
हिस्सा
परमात्मा को
दे दो। न तन
सके, कठिनाइयां
हों...। हैं तो
नहीं
कठिनाइया
लेकिन लोग खड़ी
कर लेते हैं।
मेरे
पास लोग आते हैं।
कहते हैं : मन अशांत
है,
शांति
चाहिए। अगर
मैं उन्हें
कहूं ध्यान
करो, वे
कहते हैं : समय
कहां! अशांत
होने को समय
है, अशांत
होने में
चौबीस घंटे
लगाते हैं-शांत
होने को समय कहां!
मैं उनसे
पूछता हूं : 'कभी फिल्म
देखते है?'
'हां
-हां, कभी
जाना पड़ता है।
बच्चे हैं, पत्नी है, मित्र हैं। '
'रोटरी
क्लब जाते हैं?'
'जाना
ही पड़ता है; सदस्य हूं। '
रोटरी क्लब
भी जा सकते
हैं, फिल्म
भी देख सकते
हैं, क्रिकेट
मैच भी देखते
हैं, रेडियो
भी सुनते हैं,
टेलीविजन
भी देखते हैं,
अखबार भी
पढ़ते हैं-कचरा
अखबार! जिसमें
सिवाय कचरे के
और कुछ भी
नहीं होता। और
वही कचरा
दोहरता रहता
है रोज। सबके
लिए समय है और
ध्यान की बत
उठती है तो बस
एकदम से समय
कहां है! और ये
वे ही लोग हैं
जिनको तुम ताश
खेलते देखोगे
और अगर पूछो
कि क्या कर रहे
हो, तो
कहते हैं : समय
नहीं कटता, समय काट रहे
हैं! एक तरफ
समय नहीं कटता,
ताश के
पत्ते खेलते
हैं, ताश
के राजा-रानी
उनसे ३उलझते
हैं। समय नहीं
कटता, शतरंज
बिछाते हैं।
लकड़ी के हाथी-
घोड़े, उनको
दौड़ाते हैं।
कहो ध्यान; समय कहां
है।
और जब
वे कहते हैं
समय कहां है, तो
ऐसा मत सोचना
कि वे जानकर
धोखा दे रहे
हैं। वे मानते
हैं कि समय
कहां है। उनकी
आखों से
बिलकुल
ईमानदारी
मालूम पड़ती है।
वे कोई ऐसा
नहीं कह रहे
कि आपको धोखा
दे रहे हैं।
नहीं, उनको
पक्का भरोसा
है कि समय है
ही कहां। सोने
को समय है। सब
कामों के लिए
समय है। लड़ने
-झगडूने को
समय है। गपशप
करने को समय
है। सिर्फ
ध्यान के लिए
सम नहीं है!
तुम
परमात्मा के
लिए एक घंटा
भी नहीं देना
चाहते, तो
चूकोगे, बहुत
बुरी तरह
चूकोगे, बहुत
पछताओगे! और
फिर पछताये
होत का जब
चिड़िया चुग गई
खेत! मौत ने
अगर द्वार पर
दस्तक दे दी, तब बहुत
पछताओगे।
क्योंकि उस
क्षण में
जितना समय
ध्यान के लिए दिया
था वही बचा
हुआ सिद्ध
होता है और जो
और तरह गया वह
गया। वह गया, नाली मैं बह
गया! जो ध्यान
में लगाया था
वही बच जाता
है। परमात्मा
के सामने
तुमने जो
ध्यान में समय
बिताया था, बस उसका ही
लेखा है, बाकी
कुछ नहीं लिखा
जाता। बाकी तो
सब दो कौड़ी का
है, उसका
कोई मूल्य
नहीं है।
तुम
परमात्मा के
सामने खड़े हो
कर यह नहीं कह
सकोगे कि रोज
टेनिस खेलने
जाता था, कि
इतनी फिल्में
देखीं, कि
एक फिल्म नहीं
छोड़ी।
एक
सज्जन को तो
मैं जानता हूं, मेरे
छोटे गांव में,
वहां एक ही
सनेमागृह है,
एक फिल्म
आती है तो चार
-पांच दिन
चलती है, वे
एक ही फिल्म
चार -पांच दिन
देखते हैं।
उनसे मैंने
पूछा : एक ही
फिल्म चार
-पांच दि देखना
बड़ी हिम्मत की
बात है! आदमी
एकाध ही बार
देखने से...
हिंदी
फिल्में और
करीब-करीब
दूसरी फिल्मों
से ही, उनकी
ही चोरी और
उन्हीं का
पुरुक्तिकरण
होता है। तुम
एक ही फिल्म
पाच बार देखते
हो!
उन्होंने
कहा। देखता
कौन है! मगर न
जायें तो करें
क्या? न जायें
तो जायें कहां?
समय कट जाता
है। कभी-कभी
सो भी लेते
हैं वहां , कभी
देख भी लेते
हैं। और मालूम
भी है कि अब यह
फिल्म तो दो
दफे देख ली तो
इसका पता है, क्या-क्या
होने वाला है।
लेकिन फिर भी
जायें तो कहां
जायें? तुम
देखते हो जीवन
कैसा रिक्त है,
कैसा खाली
है! और हंसना
मत उन पर, क्योंकि
तुम भी यही कर
रहे हो अलग-
अलग ढंग से।
वही जो तुमने
कल किया था, आज भी करोगे।
और वही तुमने
परसों भी किया
था, वही
तुमने नरसों
भी किया था।
पुनरुक्ति ही
तो तुम्हारा
जीवन है। तुम
दोहराते ही तो
रहते हो। सुबह
से सांझ तक एक
कोस्कू के बैल
की तरह घूमते
रहते हो। वही
झगड़े वही
प्रेम, वही
मनाना, वही
बुझाना! वही
हार, वही
जीत, वही
अकड़! बस वही है!
वही क्रोध, वही संबंध।
अंतर क्या है?
अगर
तुम अपनी
जिंदगी को जरा
गौर से देखो
तो तुम पाओगे
एक पुनरुक्ति
है। लेकिन तुम
देखते भी नहीं, क्योंकि
देखोगे तो
बहुत ऊब पैदा
होगी, बहुत
घबड़ाहट होगी।
तुम देखते ही
नहीं, भागे
चले जाते हो-
इस आशा में के
कोल्ह के बैल
नहीं हो, कहीं
पहुंच रहे हो,
अब पहुंचे
तब पहुंचे।
जीवन
की अंतिम घड़ी
में बहुत
रोओगे। मौत के
कारण नहीं; वह
जो जीवन
गंवाया, उसके
कारण। अभी समय
है। अभी थोड़े
से क्षण
परमात्मा को
देना शुरू कर
दो। अभी एक
घंटे - भर बस
बैठ ही रहो।
और बहुत
बाधायें
आयेंगी। अगर
अखबार पढ़ो तो
पत्नी बच्चों
से कहती है : शांत,
डैडी अखबार
पढ़ रहे हैं!
अगर ध्यान
करोगे तो बच्चे
आ कर कान में
अंगुली
डालेंगे और
पत्नी कहेगी
कि है। ठीक है,
फिजूल समय
गंवाना!
पत्निया
जितना ध्यान
से डरती हैं
उतना किसी और
चीज से नहीं।
क्योंकि
ध्यान, फिर
आखिरी कदम
संन्यास। पति
भी ध्यान से
बहुत डरते हैं।
अगर पत्नी
ध्यान करने
लगे तो बेचैन।
यहां मुझे रोज
इस तरह के
अनुभव होते
हैं। अगर पति
ध्यान करे तो
पत्नी आ जाती
है कि आप क्यों
हमारी
गृहस्थी
बरबाद करना
चाहते हैं? जैसे ध्यान
से गृहस्थी
बरबाद होना
कोई अनिवार्यता
है! ही, पहले
होती रही है
बरबाद, वह
मुझे पता है।
वह संन्यास
गलत था। वह
संन्यास
भ्रांत था।
मैं उस
संन्यास का
पक्षपाती
नहीं हूं।
किसी ने उसका
लेखा-जोखा
नहीं किया कि
बुद्ध और
महावीर कि
पीछे जो लोग
घर-द्वार
छोड्कर चले गये, उनके
घर -द्वारों
का क्या हुआ? पत्नियों ने
भीख मणी, बच्चे
बीमारियों
में मरे, कि
स्त्रिया
वेश्याएं हो
गइ, कि
बूढ़ों को
सड्कों पर
घिसट- घिसट कर
भिख मतानी पड़ी,
कि मरने को
उनको कफन भी न
मिला। इसका
किसी ने कोई
हिसाब नहीं
लगाया है।
लेकिन जिस दिन
भी यह हिसाब
लगाया जायेगा,
उस दिन बड़ी
हैरानी होगी।
महावीर एक तरह
तो पैर फूंक
-फूंक कर रखते
रहे कि चींटी
न मरे, लेकिन
उनके पीछे जो
संन्यास खड़ा
हुआ उसमें आदमी
दबे और मरे, उसमें घर
बरबाद हुए, उसमें
गृहस्थिया
टूटी।
हजारों
साल से
संन्यास एक
रुग्ण अवस्था
से पीड़ित रहा
है,
जीवन-निषेधक
रहा है। इसलिए
डर भी ठीक है, पत्नी अगर
कहती है घबड़ाकर
कि आप बचायें
मेरी गृहस्थी
को तो मैं
उसकी बात को
समझता हूं।
क्षम्य है।
पुराना
संन्यास ही
उसकी धारणा
में है।
मैं एक
नये संन्यास
की धारणा दे
रहा हूं- संन्यास
का एक नया
अर्थ, एक नयी
भावभंगिमा, एक नयी
मुद्रा! ध्यान
करो और जीवन
को अभिनय समझो।
न कहीं भागना
है, न कुछ
छोड़ना है।
पत्नी है, बच्चे
बच्चे हैं।
अभी तुम सोचते
हो मेरे हैं, तब तुम
समझोगे मेरा
कौन! एक पात्र
हूं मैं भी, एक अभिनय है;
पूरा करना
है, ठीक से
करना है! और जब
अभिनय ही है
तो फिर क्या कंजूसी-ठीक
से पूरा करना
है! जब अभिनय
है तो पूरी कला
से पूरा करना
है। न कोई
चिंता है न
कोई बोझ है। निर्भार
हो जाओगे, निर्बोझ
हो जाओगे-जैसे
ही अभिनय का
भाव समझ मैं आ
जायेगा। फिर
खेलो सब रंग, फिर खेलो
होली। फिर
मनाओ दिवाली। मगर
एक काम न चूके,
एक बात न
चूके-एक घंटा
कम-से -कम
परमात्मा को
दे दो। एक
घंटा चुपचाप
बैठ जाओ
साक्षी होकर,
मन की सारी
गतिविधियों
को देखते रहो।
देखते -देखते
तीन महीने से
नौ महीने के
बीच में
साक्षी का भाव
उफान। शुरू
हो जाता है।
और जिस दिन
पहली बार को
भी तुम्हारे
भीतर'क्षी'
की अनुभूति
होगी, उठोगे,
उठोगे! पहली
दफे बासुरी
सुनाई क्षण भर
सा शब्द नाच
गुनगुना पड़ी!
पहली दफा नाद
का अनुभव होगा!
और पहली दफे
स्वाद
मिलेगा-वास्तविक
जीवन का, शाश्वत
जीवन का! उस
जीवन का ही
दूसरा नाम
परमात्मा है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें