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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

हंसा तो मोती चूने--(लाल नाथ)-प्रवचन-10

अवल गरीबी अंग बसै—दसवां प्रवचन

 दसवा प्रवचन;
दिनाक 20 मई, 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र :

अवल गरीबी अंग बसै, सीतल सदा सुभाव।
पावस बुढ़ा परेम रा, जल सूं सींचो जाव।।

लागू है बोला गा।, घर घर माहीं दोखी।
गुंज कुण। सो किजिए, कुण है थासे सोखी।।

जोबन हा जब जतन हा, काया बड़ी बुढ़ाण।
सुकी लकड़ी न लुलै, किस बिध निकसे काण।।

लाय लगी घर आपणे, घट भीतर होली।
शील सपैद में न्हाइये, जहं हंसा टोली।।


स्वामी शिव साधक गुरु, अब इक बात कहूं।
कूकर हो हम आवणू? बिच में लागी दूं।।

करपी सूं काला भया, दीसो दूं दाध्या।
इक सुमरण सामूं करो, जब पड्सी लाधा।।

अलख पूरी अलगी रही, ओखी घाटी बीच।
आगैं कूकर जाइये, पग पग मागैं रीच।।

प्रेम कटारी तन बहै, ज्ञान सेल का घाव।
सनमुख जूझैं सूरवां, से लोवैं दरियाव।।

यह महलों, यह तख्तों, यह ताजों की दुनिया
यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया 
यह दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया 
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
हर एक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
यह दुनिया है या आलमे-बदहवासी
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती
यह बस्ती है मुर्दा -परस्तों की बस्ती
यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
जवानी भटकती है बदकार बनकर
जवा जिस्म सजते हैं बाजार बनकर
यहां प्यार होता है व्योपार बनकर
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यह दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है
वफा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है
जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
जला दो उसे फूंक डालो यह दुनिया
मेरे सामने से हटा लो यह दुनिया
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो यह दुनिया 
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
मनुष्य के समक्ष जो शाश्वत प्रश्न है वह एक है। वह प्रश्न है कि मैं क्या पाऊं कि तृप्त हो जाऊं? धन मिल जाता है, तृप्ति नहीं मिलती। पद मिल जाता है, तृप्ति नहीं मिलती। यश मिल जाता है, तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलनी तो दूर, जैसे धन, पद और यश बढ़ता है वैसे ही वैसे अतृप्ति बढ़ती है। जैसे - जैसे ढेर लगते हैं धन के वैसे -वैसे भीतर की निर्धनता प्रगट होती है। बाहर तो अंबार लग जाते हैं स्वर्णों के - और भीतर? भीतर की राख और भी प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ने लगती है।
धन के बढ़ने के साथ दुनिया में निर्धनता बढ़ती हैं। इस अनूठे गणित को ठीक से समझ लेना। जितना धनी व्यक्ति होता है उतना ही उसका निर्धनता को बोध गहरा होता है। जितना सम्मानित व्यक्ति होता है, उतना ही उसे अपने भीतर की दीनता प्रतीत होती है। सिर पर ताज होता है तो आत्मा की दरिद्रता पता चलती है। गरीब को, भूखे को तो फुर्सत कहां? भूख और गरीबी ?बी में ही उलझा रहता है। भूख और गरीबी को देखने के लिए भी समय कहां, सुविधा कहां? लेकिन जिसकी भूख मिट गयी, गरीबी मिट गयी, उसके पास समय होता है, सुविधा होती है कि जरा झाककर देखे, कि जरा लौटकर देखे, कि जिंदगी पर एक सरसरी नजर डाले। कहां पहुंचा हूं? क्या पाया है। और दिन चूके जाते हैं और मौत करीब आयी जाती है। और मौत कब दस्तक देगी द्वार पर, कहा नहीं जा सकता। और हाथ से जीवन की संपदा लुट गयी। और जो इकट्ठा किया है वे कौड़िया हैं!
यह महलों यह तख्तों, यह ताजों की दुनिया
यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
यह दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
लेकिन मिल जाने पर ही पता चलता है। जब तक यह मिल न जाए, तब तक पता भी चले तो कैसे चले? हीरे हाथ में आते हैं तो ही पता चलता है कि न इनसे प्यास बुझती है, न भूख मिटती है। हीरे हाथ में आते हैं तो ही पता चलता है कि ये भी कंकड़ ही हैं; हमने प्यारे नाम दे दिये हैं। हमने अपने को धोखा देने के लिए बड़े सुंदर जाल रच लिए हैं।
हर एक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
यह दुनिया है या आलमे-बदहवासी
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यहां लोग सोए हुए हैं, मूर्च्छित हैं। चलें जा रहे हैं नींद में। क्यों जा रहे हैं, कहां जा रहे हैं, किसलिए जा रहे हैं, कौन हैं-कुछ भी पता नहीं। और सब जा रहे हैं इसलिए वे भी जा रहे हैं। भीड़ जहां जा रही है वहां  लोग चले जा रहे हैं-इस आशा में कि भीड़ ठीक ही तरफ जा रही होगी; इतने लोग जाते हैं तो ठीक ही तरफ जाते होंगे। मां -बाप जाते हैं, पीढ़ियां -दर -पीढ़िया इसी राह पर गयी हैं, सदियों -सदियों से लोग इसी पर चलते रहे हैं-तों यह राजपथ ठीक ही होगा।
और कोई भी नहीं देखता कि यह राजपथ सिवाय कब्र के और कहीं नहीं ले जाता। ये सब राजपथ मरघट की तरफ जाते है।
इब्राहीम सूफी फकीर हुआ, सम्राट था। एक रात सोया था। नींद आती नहीं थी। सम्राट होकर नींद आनी मुश्किल ही हो जाती है-इतनी चिंताएं, इतने उलझाव, जिनका कोई सुलझाव नहीं सूझता; इतनी समस्याएं जिनका कोई समाधान दिखाई नहीं पड़ता! सोए तो कैसे सो? और तभी उसे आवाज सुनाई पड़ी कि ऊपर छप्पर कर कोई चल रहा है। चोर होगा कि लुटेरा होगा कि हत्यारा होगा? जिनके पास बहुत कुछ है तो भय भी बहुत हो जाता है। आवाज दी जोर से कि कौन है ऊपर? ऊपर से उत्तर जो आया, उसने जिंदगी बदल दी इब्राहीम की। ऊपर से उत्तर आया, एक बहुत बुलंद और मस्त आवाज ने कहा : कोई नहीं, निश्चित सोए रहे! मेरा ऊंट खो गया है। उसे खोज रहा हूं।
छप्परों पर ऊंट नहीं खोते-मकानों के छप्परों पर! महलों के छप्परों पर ऊंट नहीं खोते। इब्राहीम उठा, सैनिक दौड़ाए कि पकड़ो कौन आदमी है, क्योंकि आवाज में एक मस्ती थी। आवाज में एक गीत था, एक मादकता थी। आवाज जैसे किसी और लोग की थी! जैसे आवाज में एक गहराई थी-जैसी गहराई इब्राहीम ने कभी किसी आवाज में नहीं देखी थी! आवाज इब्राहीम के भीतर कोई तार छेड़ गयी। बेबूझ भी थी। उलटबासी थी। महलों के छप्परों पर ऊंटों की तलाश आधी रात... या तो कोई पागल है या कोई परमहंस है। पागल हो नहीं सकता, क्योंकि आवाज का जादू कुछ और कहता हैं। पागल हो नहीं सकता, क्योंकि आवाज का गणित कुछ और कहता है। पागल हो नहीं सकता। पागल तो इब्राहीम ने बहुत देखे थे। पागलों से ही घिरा था। सारा दरबार पागलों से भरा था। सारी दुनिया पागलों से भरी है। यह आदमी कुछ और ही ढंग का आदमी होगा। लेकिन नहीं पकड़ा जा सका। सिपाही भागे -दौड़े, लेकिन वह आदमी हाथ आया नहीं आया। सुबह इब्राहीम उदास है, चिंतित है कि उस आदमी से मिलना न हो सका। जिसकी आवाज में जादू था, उसकी आंख  में भी झांकने के इरादे थे। उसके पास दो क्षण बैठ लेने की आकांक्षा जगी थी।
और तभी द्वारपाल से कोई आदमी झगडू। करने लगा, द्वारपाल से कोई आदमी उलझने लगा। आवाज पहचानी हुई लगी। है।, वही आवाज है और वह जो कह रहा था फिर उलटबासी थी। द्वारपाल कह रहा था : तुम पागल तो नहीं हो! यह सराय नहीं, सम्राट का निवास -स्थल हैं। और वह आदमी कह रहा था कि मेरी मानो, यह सराय हैं। यहां कौन सम्राट है और किसके निवास -स्थान हैं? यह सारी दुनिया सराय है। ठहर जाने दो चार दिन देखो, कहता हूं ठहर जाने दो -चार दिन। चार दिन के लिए सराय से इनकार न करो।
आवाज पहचानी-सी लगी और फिर बात में भी वही उलझाव था, बात में वही राज और रहस्य था। इब्राहीम भाग।, बाहर आया। था आदमी अदभुत, उसे भीतर ले गया और पूछा : शर्म नहीं आती, राजमहल को सराय कहते हो! यह सिर्फ उकसाने को पूछा, यह भड़काने को पूछा। वह आदमी खिलखिलाकर हंसने लगा। उसने कहा : राजमहल, तुम्हारा निवास - स्थान? तो तुम्हारा ही यह निवास- स्थान है? लेकिन कुछ वर्षों पहले मैं आया था तब एक दूसरा आदमी यही दावा करता था।
इब्राहीम ने कहा : वे मेरे पिता थे, स्वर्गीय हो गये। और उस फकीर ने कहा : उसके पहले भी मैं आया था, तब एक तीसरा आदमी यही दावा करता था। इब्राहीम ने कहा : वे मेरे पिता के पिता थे, मेरे पितामह थे; वे भी स्वर्गीय हो गये। वह फकीर कहने लगा : तो फिर जो मैं कहता हूं ठीक ही कहता हूं कि यह निवास नहीं है, सराय है। तुम कब तक स्वर्गीय होने का इरादा रखते हो? फिर भी मैं आऊंगा, फिर कोई चौथा आदमी कहेगा कि यह मेरा निवास -स्थान है। यहां लोग आते हैं और जाते हैं। मानो मेरी, चार दिन ठहर जाने दो। यह कोई महल नहीं है न कोई निवास -स्थान है।
बात चोट कर गयी। किन्हीं क्षणों में बात चोट कर जाती है। कोई अपूर्व क्षण होते हैं तब छोटी- सी बात भी चोट कर जाती है। बात दिखाई पड़ गयी। जैसे किसी ने झकझोर कर जगा दिया। जैसे किसी ने जबर्दस्ती आंख  खोल दी। इब्राहीम थोड़ी देर तो ठिठका रह गया, जवाब दे तो क्या दे! जवाब देने को कुछ था भी नहीं। और इस आदमी की मौजूदगी और इस आदमी का आह्लाद और इस आदमी की सचाई और इस आदमी की वाणी की गहराई प्राणों के आर -पार हो गयी। उसने कहा कि आप सिंहासन पर विराजे और इस सराय में जब तक ठहरना हो ठहरें। मैं चला।
इब्राहीम बाहर हो गया। महल छोड़ दिया। सराय में क्या रुकना! फिर वह गांव के बाहर रहता था। और अक्सर ऐसा हो जाता था, राहगीर आते... वह एक चौराहे पर रहने लगा था, एक झाडू के नीचे... राहगीर उससे पूछते कि बाबा, बस्ती का रास्ता किस तरफ है? तो कह देता कि बायें चले जाओ। देखो बायें ही जाना, तो बस्ती पहुंच जाओगे। दाएं भूलकर मत जाना, नहीं तो मरघट पहुंच जाओगे।
फकीर की बात मानकर लोग बाएं चले जाते, दो -चार मील चलने के बाद मरघट पहुंच जाते। पह मरघट का रास्ता था। लौटकर बड़े नाराज आते कि यह भी कोई मजाक की बात है। हम थके -मांदे यात्री, दूर से आये यात्री और तुमने कहा, बाएं ही जाना तो बस्ती पहुंचोगे और हम मरघट पहुंच गये!
तो इब्राहीम कहता : तो हमारी भाषाओं में कुछ भेद है, क्योंकि वहां  मरघट जिसको तुम कह रहे हो, जो लोग बसे हैं वे कभी उखड़ते नहीं। इसलिए मैं उसे बस्ती कहता हूं -जो बस गया सो बस गया। बस्ती उसको कहना चाहिए, जहां से लेकिन तुमने बस्ती क्यों कहा? तो मरघट इस तरफ है, दाइ तरफ चले जाओ। जिसको तुम बस्ती कह रहे हो वह मरघट हैं, क्योंकि वहां  सब आदमी मरने को तत्पर हैं। आज कोई मरा, कल कोई मरा, परसों कोई मरा!
यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती
यह बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती
यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
लेकिन दौड़ रहे हैं लोग...। कितनी आपाधापी है इस दुनिया को पा लेने के लिए! और इस पाने में सिर्फ एक बात घटती है-खुद लुट जाते हैं। कंकड़ -पत्थर इकट्ठे हो जाते हैं, आत्मा बिक जाती है। खुद को बरबाद कर लेते हैं। है।, कुछ चीजें छोड़ जाते हैं। कुछ मकान बना जाते हैं। कुछ पत्थरों पर नाम खोद जाते हैं। इससे जो सावधान होता है, वही व्यक्ति धर्म के जगत में प्रवेश करता है। वह वस्तुस्थिति के प्रति जो जागरूक होता है, वही धार्मिक है।
धर्म का मंदिर - मस्जिदों और गिरजों से कुछ लेना नहीं; गीता- कुरान और बाइबिल से कुछ लेना नहीं। धर्म का संबंध है इस बौध सें-यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! तर की तरह यह बात चुभ जाए भीतर, तो जीवन में एक झरना फूटता है। तुम्हारे ही प्राणों में, तुम्हारे ही अंतःकरण में एक संगीत उपगत। है- तुम्हारे भीतर ही एक ज्योति जलनी शुरू होती है-जों शायद जल ही रहीं थी, लेकिन तुम्हारी आखें चूंकि बाहर भटक रही थी, चूंकि तुम दुनिया की तलाश पर निकले थे और तुमने कभी पीछे लौटकर अपने भीतर नहीं देखा था, इसलिए पता न चला था। इसलिए प्रत्यभिज्ञा न हो सकी थी।
जिस दिन दिखाई पड़ जाता है कि यह पूरी दुनिया भी मिल जाए तो कुछ मिलेगा नहीं, उस दिन आदमी आंख  बंद करता है और अपने भीतर देखता है। तब अपना स्वरूप दिखाई पड़ता है -मैं कौन हूं! और जिसने जान लिया मैं कौन हूं, उसने सब जान लिया। जो भी जानने योग्य है सब जान लिया। जो भी पाने योग्य है सब पा लिया।
स्वयं को जानते ही तृप्ति की वर्षा हो जाती है, अमृत के मेघ घिर आते हैं। शाश्वत जीवन का द्वार खुल जाता है। बाहर तो जो कुछ है सब क्षणभंगुर है। पानी के बबूले हैं। इंद्रधनुष हैं। क्षितिज की तरह जो कुछ भी है सब झूठ है; दिखाई पड़ता है और फिर भी नहीं है।
देखते नहीं, थोड़ी ही दूर पर आकाश पृथ्वी से मिलता हुआ दिखाई पड़ता है- और कहीं मिलता नहीं! दौड़ते रहो, दौड़ते रहो, दौड़ते रहो... दौड़ते -दौड़ते गिर जाओगे। दौड़ते -दौड़ते कब्र में पड़ जाओगे। झूले से लेकर कब्र तक दौड़ते ही रहोगे और क्षितिज कभी आयेगा नहीं।
इस दुनिया के मिल जाने से भी कुछ मिलता नहीं है, ऐसी प्रतीति... और एक क्रांति घटती है। कंकड़ -पत्थरों से नजर हट जाती है और आत्मा की तलाश शुरू होती है। धन मूल्यहीन हो जाता है, ध्यान का मूल्य प्रतिष्ठित होता है। उसी ध्यान के मूल्य के ये सूत्र हैं।
हंसा तो मोती चुगैं! हंस बनो! चुगना हो तो मोती चुगो। कब तक कंकड़ -पत्थर का इकट्ठा करते रहोगे? कब तक ठीकरों में उलझे रहोगे? कब तक व्यर्थ को ही सार्थक समझकर दौड़ते रहोगे? कब जागोगे मृग-मरीचिका से? कब स्मरण करोगे कि हंस हो तुम, कि मान-सरोवर तुम्हारा देश है! कि मोती ही तुम्हारा भोजन हो सकते हैं! कि मोती चुगो तो ही तृप्ति है, तो ही तोष है, तो ही मुक्ति है, तो ही मोक्ष है! कि मोती ही चुगो तो निर्वाण है।
चहल -पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं
हम इतने अज्ञानी, निज को हम ही स्वयं अजाने हैं!
इसीलिए हम तुमसे कहते
दोस्त हमारा नाम न पूछो!
हम तो रमते -रमते सदा के
दोस्त हमारा गाम न पूछो! 
एक यंत्र - सा, जो कि नियति के
हाथों से संचालित होता
कुछ ऐसा अस्तित्व हमारा,
दोस्त हमारा काम न पूछो!
यहां सफलता या असफलता, ये तो सिर्फ बहाने हैं।
केवल इतना सत्य कि निज को हम ही स्वयं अजाने हैं।
चरणों में कंपन है, मस्तक पर शत-शत शंकाएं हैं
अंधकार आखों में, उर में चुभती हुई व्यथाएं हैं!
अपनी इन निर्बलताओं का,
हम कहते हैं -हमें ज्ञान है,
इसीलिए हम ढूंढ रहे हैं जो शाश्वत है,
जो महान है! जितने देखे-मिटने वाले।
जीवन औ' निर्माण लिए जो प्रेम अकेला शक्तिवान है!
बुरा न मानो, जनम -जनम के हम तो प्रेम दीवाने हैं
इसीलिए हम तुमसे कहते, हम तो निपट बिराने हैं!
चहल -पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं
हम इतने अज्ञानी, निज को हम ही स्वयं अजाने हैं!
अपने से ही परिचय नहीं है, दूसरे का परिचय हम करने चले हज। अपने से संबंध नहीं है, दूसरों से संबंध हम बनाने चले हैं। इसलिए हमारे सारे संबंध विषाद लाते हैं, संताप लाते हैं।
जिसे हम प्रेम कहते हैं वह सच्चा नहीं हो सकता, क्योंकि जब तक ध्यान से न उमगे तब तक कैसे सच्चा होगा? जो अपने से ही संबंध नहीं बना पाया, वह किस और से संबंध बना सकेगा? पति पत्नी से, भाई बहन से, मित्र मित्र से, मां बेटे से, किससे संबंध बनाओगे? अभी तो प्राथमिक संबंध का पाठ भी पूरा नहीं हुआ। अभी तो तुम पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़े।
ध्यान पहली सीढ़ी है। ध्यान का अर्थ होता है : अपने से संबंध। ध्यान को ठीक से समझो तो ध्यान का अर्थ होता है : अपने से प्रेम। और जो निज के प्रेम में डुबकी मारता है, उसे पता चलता है कि वहां  मैं जैसी कोई इकाई नहीं है। लहर हूं सागर की। जिसने मैं में डुबकी मारी वह पाता है कि मैं तो हूं ही नहीं। तब एक नये अर्थों में, एक नये आयाम में, एक नयी भाव- भंगिमा में प्रेम का उदय होता है। वह प्रेम संबंध नहीं है, वह प्रेम तुम्हारी स्वयं की सहज, स्वस्फूर्त अवस्था है। लाल के सूत्र ध्यान से प्रेम कैसे जन्में, इसके सूत्र हैं।
अवल गरीबी अंग बसै, सीतल सदा सुभाव।
पावस बूढ़ा परेम रा, जल सूं सींचो जाव।।
अवल गरीबी अंग बसै...। सबसे पहले तो यह समझ लो कि तुम हो ही नहीं। इतने गरीब हो कि तुम हो ही नहीं। यह मैं जब तक है तब तक तुम अपने को कुछ-न-कुछ समझे बैठे हो -कुछ -न -कुछ अमीरी का दावा। मैं तुम्हारी सबसे  बड़ी संपदा है, शेष सारी संपदाएं तो मैं का ही विस्तार हैं। मेरा मकान, मेरी दुकान, मेरा मंदिर, मेरा धन, मेरा पद, मेरी प्रतिष्ठा-यह सारा मेरा ' मैं' का ही विस्तार है। और हम मेरे का विस्तार इसीलिए तो करते हैं ताकि मैं मजबूत होता जाए, सघन होता जाए, सुदृढ़ होता जाए। 'मेरा' 'मैं' का रक्षण करता है। 'मेरा' जैसे जल बन जाता है 'मैं' की मछली को जिलाए रखने को। लेकिन 'मेरे' के पीछे छिपा हमेशा ही 'मैं ' है।
और अपने में उतरो तो पाओगे पहली बात कि मैं तो है ही नहीं। इसलिए प्रथम ही भूल हो गयी। इसलिए यात्रा का पहला कदम ही गलत दिशा में पड़ गया। फिर तुम मंजिल तक न पहुंचो तो आश्चर्य क्या!
अवल गरीबी अंग बसै...। सबसे पहले तो अपने अंतर में, अंतरतम में, अपने भीतर से भीतर एक बात को समझ लेना कि मैं नहीं हूं। ऐसे गरीब हो जाना कि मैं नहीं हूं। ऐसे निर्बल हो जाना कि मैं नहीं हूं। और जो इतना निर्बल हो जाता है, उसे बहुत कुछ मिलता है। निर्बल के बल राम! जो इतना भीतर शून्य हो जाता है, अधिकारी हो जाता है। जिसने अपने को मिटा ही दिया, वह मंदिर बन गया। उसके भीतर परमात्मा को उतरना ही होगा, अपरिहार्य रूप से उतरना होंगे। अवल गरीबी अंग बसै...। तो सबसे पहले तो अंग- अंग में यह मैं - भाव मर जाए, यह अहंकार चला जाए कि मैं पृथक हूं कि मैं विशिष्ट हूं कि मैं दूसरों से ऊपर हूं कि मैं कुछ खास हूं। और यह मैं - भाव इतना सूक्ष्म है और चालबाज है कि बड़े बारीक रास्ते खोज लेता है। धन हो तो अकड़ जाता है- कि मैंने पद का त्याग कर दिया! धन छोड़ दे तो अकड़ जाता है-कि मैंने धन का त्याग कर दिया! बाजार में होता है तो अकड़।, बाजार छोड्कर पहाड़ की गुफा में बैठ जाता है तो अकड़ा-कि मैंने लाखों पर लात मार दी! मगर अकड़ अपनी जगी खड़ी रहती है। रस्सी जल भी जाती है तो भी ऐंठन नहीं जाती।
इस मैं के प्रति बड़ी सचेतना चाहिए। इसके एक-एक ढंग को पहचानना होगा। पर्त - पर्त इसको उघाड़ना होगा। इसका साक्षात्कार करना होगा। इसे देखना होंगा-इसकी हर भाव- भंगिमा में, हर मुद्रा में। यह कभी पीछे के दरवाजों से भी आता है, वहां  भी जांच -पड़ताल रखनी होगी। सावचेत रहना होगा।
अवल गरीबी अंग बसै सीतल सदा सुभाव। और जिस दिन तुम पाओगे कि यह मैं मर गया और तुम मैं से गरीब  हो गए, उसी दिन तुम्हारे जीवन में एक शीतलता उतर आयेगी। तुम्हारा स्वभाव एकदम शीतल हो जायेगा। क्योंकि सारी उष्णता और गरमी अहंकार की है। सारा क्रोध, सारा उत्ताप अहंकार का है। तुम जो जले - भुने जाते हो, सारा बुखार अहंकार का है।
अहंकार गया तो रोग गया। तुम ख्याल करो, जितना अहंकार हो उतनी ही जीवन में ज्वालाएं सहनी पड़ती हैं; उतना ही उत्ताप झेलना पड़ता है; उतने ही घाव...। जितना अहंकार कम हो उतने ही घाव नहीं। अहंकार ही नहीं तो घाव लगे कैसे? अहंकार ही नहीं तो कोई गाली भी दे जायेगा तो फूल जैसी पड़ेगी। और अहंकार हो तो फूल भी मार दो किसी को, तो पत्थर जैसा लगेगा। अहंकार के कारण ही तुम्हारा जीवन आग की लपटों में झुलसा जा रहा है। तुम शीतल नहीं हो पा रहे। तुम शांत नहीं हो पा रहे। तुम जीवन का परम आनंद नहीं अनुभव कर पा रहे। तुम अपने ही हाथों नर्क में हो। स्वर्ग तुम्हारा हो सकता है। स्वर्ग तुम्हारा अधिकार है, तुम्हारा स्वरूप -सिद्ध अधिकार है। मगर शर्त पूरी करनी होगी।
मेरी भूलों से मत उलझो,
जनम जनम का मैं अज्ञानी!
कांटो से निज राह सजाकर,
मैंने उस पर चलना सीखा,
श्वासों में निःश्वास बसाकर
मैंने उस पर पलना सीखा
गलना सीखा मैंने निशि-दिन 
निज आखों का पानी बन कर,
अपने घर में आग लगा कर
मैंने उसमें जलना सीखा।
मुझे नियति ने दे रक्खी है
पागलपन से भरी जवानी!
मेरी भूलों से मत उलझो,
जनम -जनम का मैं अज्ञानी!
लगातार मैं जीता जाता,
भरता जाता मेरा प्याला!
मैं क्या जानूं क्या है अमृत?
क्या जानू क्या यहा हलाहल?
खारा- खारा नीर उदधि का,
मीठा-मीठा है गंगा-जल!
सुनने को तो सुन लेता हूं 
कडुवे - मीठे बोल जगत के, 
तड़प-तड़प उठती है बिजली,
बरस -बरस पड़ते हैं बादल!
कौन पिलाने ताला, बोलो,
कौन यहां पर पीने वाला?
लगातार मैं पीता जाता,
भरता जाता मेरा प्याला!
सीधा-सादा ज्ञान तुम्हारा,
बहकी-बहकी मेरी बातें!
एक तड़प उसकी हर धड़कन,
जिसको तुम सब कहते हो दिल
और स्वयं मैं एक लहर हूं
मैं क्या जानूं क्या है साहिल?
मेरे मन में नयी उमंगें मेरे पैरों में चंचलता, पिछली मंजिल छोड़ चुका हूं।
ज्ञात नहीं है अगली मंजिल!
सबके सपने अलग- अलक हैं,
यद्यपि वही हैं सबकी रातें!
सीधा-सादा ज्ञान तुम्हारा,
बहकी-बहकी मेरी बातें!
जरा मनुष्य को देखो।
उसके डावांडोल होते पैरों को देखो। ऐसे चलता है जैसे शराब चल रहा हो। चलता जाता है। गिरता है, उठता है, चलने लगता है। मगर कुछ स्पष्ट नहीं है। न कोई दिखा -बोध है। न कोई जीवन में कम है। अगर किसी को झकझोर कर पूछो कि कहां जा रहे हो, तो किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह जाता है। कंधे बिचकाता है।
इसलिए लोग इस तरह के प्रश्न पूछते भी नहीं एक -दूसरे से। अशिष्टाचार मालूम होगा ऐसे प्रश्न पूछो तो। लोग फिजूल की बातें करते हैं, मौसम की बातें करते है-कि आज बादल घिरे हैं, कि आज सूरज निकला है, कि तबियत कैसी है, कि स्वास्थ्य कैसा है? लोग फिजूल की बातें पूछते हैं। मतलब की कोई बात पूछता नहीं।
रवींद्रनाथ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब गीताजलि, उनकी प्रसिद्ध कृति, प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने ठीक वैसे अमृत- वचन लिखे हैं जैसे उपनिषदों के वचन हैं, तो एक पड़ोस का व्यक्ति, एक बूढ़ा आदमी सुबह-सुबह घूमते उन्हें पकड़ लिया, दोनों कंधे हिलाकर बोला : ईश्वर को देखा है? उसकी आखें बड़ी पैनी थीं कि भेद जाएं भीतर तक। और जिस ढंग से उसने पूछा और जिस बेवक्त पकड़कर पूछा, रवींद्रनाथ न कह सके कि देखा है। चुप खड़े रह गए। वह आदमी खिलखिलाकर हंसने लगा। उसकी खिलखिलाहट छाती में छुरी की तरह चुभ गयी। और फिर वह आदमी जब भी मिलता और अक्सर मिल जाता, पड़ोस में ही था, कहीं भी आते -जाते मिल जाता-तों वह छोड़ता नहीं था मौका, पकड़ लेता : ईश्वर के देखा है? ईमान से बोलो, ईश्वर को देखा है?
रवींद्रनाथ ने एक दिन उससे कहा : भई, यह प्रश्न मुझसे बार -बार क्यों पूछते हो? उसने कहा : गीताजलि क्या लिखी? अगर ईश्वर के देखा नहीं है तो क्यों ये गीत लिखे? कैसे ये गीत लिखे? ये सब गीत झूठे हैं!
रवींद्रनाथ बचते थे। अगर उनको निकलना भी होता तो चक्कर मारकर जाते उसके घर के आसपास से न निकलते। तो वह आदमी उनके घर आने लगा। दरवाजा खटखटाने लगा। सुबह से ही आकर बैठ जाता। जब तक मिल न ले तब तक जाता नहीं। और मिलता तो वही सवाल, वही तीखी आखें, जिनके सामने झूठ न बोला जा सके।
लेकिन एक सुबह रवींद्रनाथ सागर तट पर गए थे। वहां उन्होंने सूरज को सागर पर चमकते देखा; सुबह होती थी और सूरज निकलता था। और सूरज की लालिमा आकाश में भी फैल गयी थी और सागर में भी। रात वर्षा हुई थी। रास्ते के किनारे गड्डों में जल भर गया था। जब झलक रहा था।
विराट सागर में! और रास्ते के किनारे गंदे डबरों में भी चमक रहा था, उतना ही सुंदर! कुछ भेद न था डबरों में और सागर में। सूरज के लिए कोई भला न था। डबरे भी वैसे ही थे जैसे सागर। गंदे थे डबरे और सागर स्वच्छ था। लेकिन सूरज का जो प्रतिबिंब बन रहा था, यह न तो गंदा होता है और न स्वच्छ होता है। गंदगी प्रतिबिंब को कैसे छुएगी? प्रतिबिंब तो अछूता रहता है। प्रतिबिंबों संन्यासी है। उसे कुछ भी नहीं छूता।
यह भाव-बोध और जैसे एक द्वार खुल गया! अब तक जो मन में ख्याल था बुरे आदमी और अच्छे आदमियों का, सज्जन का दुर्जन का, साधु का असाधु का-गिर गया, एक क्षण में गिर गया! और आज पहली बार उस आदमी पर क्रोध नहीं आया। उल्टा रवींद्रनाथ आगे बढ़े और उस आदमी को गले लगा लिया। और वह आदमी हंसने लगा। तो उसने कहा कि फिर, दर्शन हुआ! तो लगता है दर्शन हुआ! तो लगता है झलक मिली! अब बात ठीक हुई। अब तुम गीताजलि के गीत गाने योग्य हुए।
क्या हो गया उस दिन? बुरे - भले का भेद मिट गया। पदार्थ -परमात्मा का भेद मिट गया। संसार-संन्यास का भेद मिट गया। भेद मिट गया!
जिस दिन तुम्हारे भीतर अहंकार गिर जायेगा, उस दिन तुम्हारे भीतर से सारे भेद मिट जायेंगे, क्योंकि सारे भेदों का निर्माता अहंकार है। जिस दिन अहंकार गया, तुलना गयी। फिर तुम तौलोगे नहीं- कौन अच्छा कौन बुरा, कौन ऊपर कौन नीचे।
अवल गरीबी अंग बसै, सीतल सदा सुभाव।
पावस बूढ़ा परेम रा, जी सूं सींचो जाव।।
जैसे खेत, जैसे भूमि। जैसे ग्रीष्म की उत्तप्त भूमि बादलों की प्रतीक्षा करती है, निमंत्रण भेजती है, नेह-निमंत्रण मेघों को कि आओ, बरसों! ऐसे ही जिस दिन तुम्हारे भीतर शून्य होगा, परमात्मा को नेह-निमंत्रण मिलेगा कि आओ, बरसों! जैसे सूखी धरती बादलों को खींच लेती है अपने पास, बरसा करवा लेती है वैसे ही जो भीतर अहंकार से शून्य हो गया, वही गरीब है।
गरीब से तुम यह अर्थ मत ले लेना कि जिसके पास खाने -पीने को नहीं है, झोपड़ा नहीं है, रहने को मकान नहीं है, कपड़े -लत्ते नहीं हैं। अगर ऐसी गरीबी से परमात्मा मिलता होता तो इस देश में सभी को मिल गया होता। ऐसी गरीबी से परमात्मा के मिलने का कोई संबंध नहीं है। और तुम अगर धन को छोड्कर इस तरह गरीब भी हो जाओ तो यह मत सोच लेना कि परमात्मा मिल जायेगा।
एक और तरह की गरीबी है। जीसस ने उसके लिए ठीक शब्दों का उपयोग किया है- 'पुअर इन स्पिट!' अंतरतम में दरिद्र हो जाओ। ब्लेसिड आर द पुअर इन स्पिट। धन्यभागी हैं वे, जो अंतरतम में दरिद्र हैं-जों आध्यात्मिक अर्थों में दरिद्र हैं। और क्यों वे धन्यभागी है?... फॉर देयर्स इज द किंग्डम आफ गॉड। क्योंकि उनका ही है प्रभु का राज्य।
जैसे उत्तप्त गरमी की भूमि एक ही प्यास जानती है और एक ही प्रेम-कि जल बरते! ऐं अहंकार से शून्य व्यक्ति के भीतर एक अपूर्व प्यास उठती है, एक अदम्य प्यास उठती है कि परमात्मा बरसे। फिर प्रार्थना करनी नहीं होती, फिर प्रार्थना होती है-उठते बैठते; चलते, सोते -जागते। उस प्यास का नाम ही प्रार्थना है। और जिसके भीतर वैसी प्यास वाली प्रार्थना पैदा हो गयी, जल बरसता है, निश्चित बरसता है। पक्का आश्वासन है! क्योंकि सदा बरसा है। एक बार भी अपवाद नहीं हुआ। एक बार भी ऐसे नहीं हुआ कि जल न बरसा हो। अगर न बरसे जल तो एक ही बात का सबूत समझना कि तुम्हारे भीतर अभी वह प्यास पैदा नहीं हुई, जो निर - अहकारिता से जन्मती है।
बहुत लोग हैं जो ईश्वर को जाना चाहते हैं, मकर इस पाने में भी अहंकार की ही दौड़ है। तो फिर ईश्वर नहीं मिलेगा। बहुत लोग हैं जो ईश्वर को भी वैसे ही पाना चाहते हैं जैसे बड़ा मकान, धन- दौलत...। जैसे उन्होंने सब चीजें मुट्ठी में कर ली हैं, वे ईश्वर को भी मुट्ठी में कर लेना चाहते हैं। वे चाहते हैं यह दावा भी कर सकें कि हमने ईश्वर को भी पा लिया।
ईश्वर को इस ढंग से नहीं पाया जाता। ईश्वर को पाया जाता है, यह भाषा ही गलत है। ईश्वर तो मिलता है, पाया नहीं जाता। और मिलता तब है जब पानेवाला खो जाता है।
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
बूंद समानी समुद में, सो कत हेरी जाइ।।
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
समुद समान। बुंद में, सो कत हेरी जाइ।।
कबीर कहते हैं कि खोजते -खोजते खोजनेवाला खो गया, तब मिलन हुआ। अटपटी बात है। क्योंकि हम तो चाहेंगे कि मिलन का तो अर्थ ही यह होना चाहिए कि खोजने वाला हो। मिलन तो दो का होना चाहिए। लेकिन यह जो परमात्मा-मिलन है यह दो का मिलन नहीं है; यह एक का मिलन है।
झेन फकीर कहते हैं-ऐसी ताली, जो एक हाथ से बजती है। अब एक हाथ से कोई ताली नहीं बजती। मगर एक ताली है, परम अनुभव की, जो एक हाथ से बजती है। वहां  दो नहीं होते। वहां  एक ही बचता है। वहां  देखनेवाला भी वही और दिखाई पड़ने वाला भी वही। द्रष्टा भी वही, दृश्य भी वही। वहां  द्रष्टा और दृश्य एक हो जाते हैं।
कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं : दि आब्जर्वर इज दि आज्जर्वड। वहां  दोनों के हो गए हैं। वहां  भक्त और भगवान अलग- अलग नहीं हैं। वहां  भक्त ही भगवान है। वहां भगवान स्वयं बस भक्त है।
लागू हे बोला गा।, घर घर माहीं दोखी।
गुज कुण। सो कीजिए, कुण हे थासे सोखी।।
लाल कहते हैं कि यहां लाग- डांट रखनेवाले लोगों से तो संसार भरा है-ईर्ष्या से, जलन से भरे हुए लोगों से। यहां दोष देखनेवाले तो घर - घर हैं। 'लागू हे बोला गा।, घर घर माहीं दोखी'। यहां फूलों को देखने वाले लोग बड़े मुश्किल हैं। और परमात्मा तो परम फूल हैं।
इसलिए जो दोष की आदत में घिरा है, वह परमात्मा से वंचित रह जायेगा। दोष देखना भी अहंकार का ही एक अंग है। हम दोष देखते क्यों हैं? हम दोष देखते इसीलिए हैं ताकि अहंकार रस ले सके कि देखो, मैं तुमसे अच्छा! तुम चोर, मैं ईमानदार! तुम असाधु, मैं साधु! हम दोषों को खूब बढ़ा -चड़ाकर देखते हैं, क्योंकि जितना दोष बढ़ा-चढ़ा कर देखा जाये उतने ही हम अपनी आखों में पवित्र हो जाते हैं।
तुमने कहानी तो सुनी न, अकबर ने एक दिन दरबार में एक लकीर खींच दी आकर दीवाल पर और दरबारियों से कहा : इसे बिना छुए छोटा कर दो। कोई कर न सका। फिर बीरबल उठा और उसने एक और बड़ी लकीर उस लकीर के नीचे खींच दी। उस लकीर को नहीं छुआ। हाथ नहीं लगाया। बिना छुए उसे छोटा कर दिया। एक बड़ी लकीर खींचकर।
यही हमारा गणित है- भीतर अहंकार का गणित। हम हर आदमी में दोष देखते हैं। क्यों? क्योंकि दोष की बड़ी-बड़ी लकीरें खिंच जाएं तो खुद के दोष छोटे दिखाई पड़ने लगते हैं। दूसरे का दोष देखना हो तो हम उसे अनंत गुना बड़ा करके देखते हैं। और अगर दूसरे का गुण देखना ही पड़े मजबूरी में, कोई उपाय ही न हो, तो हम उसे बहुत छोटा करके देखते हैं। जितना छोटा कर सकें उतना छोटा करके देखते हैं। दूसरे का दोष देखना हो तो राई का पर्वत बनाते हैं। और दूसरे का गुण देखना हो तो पर्वत को राई बनाते हैं। यह हमारे अहंकार का ही हिसाब है। इसके भीतर हमारी अस्मिता बैठी है। वह कह रहीं है-मुझसे और अच्छा कोई कैसे हो सकता है!
फ्रेडरिक नीत्से ने लिखा कि ईश्वर नहीं है, क्योंकि मेरे रहते और कोई ईश्वर कैसे जो सकता है? बात उसने पते की कहीं है।   दुनिया में जो नास्तिक हैं, जो कहते हैं कि ईश्वर नहीं है, उन्हें ईश्वर का पता नहीं है ऐसा पता नहीं चल गया है। लेकिन उनके रहते और ईश्वर हो, बर्दाश्त के बाहर है।
दुनिया में जो आस्तिक हैं, वे भी बड़े मजेदार लोग हैं, नास्तिकों से बहुत भिन्न नहीं हैं। वे भी कहते हैं : राम ईश्वर थे, क्योंकि राम अब मौजूद नहीं। परों की प्रशंसा करते हैं।
एक गांव में एक आदमी मरा। बड़ा दुष्ट था। राजनेता था। बड़ा हिंसक था, बड़ा बेईमान, बड़ा चोर, दगाबाज... सब गुण थे जो राजनेता में होने चाहिए। गांव में एक आदमी नहीं था जो उससे परेज्ञान न हुआ हो; एक आदमी नहीं था, जिसको उसने सताया न हो- वह मरा... लेकिन उस गांव का रिवाज था कि जब कोई मर जाये तो उसकी प्रशंसा में दो शब्द कहने चाहिए, तब उसको दफनाया जा सकता है। अब सारा गांव इकट्ठा है और कैसे उसको दफनाए, क्योंकि कोई आदमी उसके संबंध में दो प्रशंसा के शब्द कहने को तैयार नहीं है। और वह रिवाज है, बिना प्रशंसा में बोले उसे दफनाया नहीं जा सकता। फिर गांव के एक पंडित को लोगों ने कहा : अब आप ही कुछ करिए, कुछ सोचिए। कुछ दो शब्द कहिए किसी तरह से।
पंडित खड़ा हुआ और पंडित ने कहा : भाइयो, ये सज्जन चल बसे, ये अपने पीछे पांच भाई छोड़ गये हैं। उनके मुकाबले ये देवता थे। तब उनको दफनाया जा सका।
तुलना... अहंकार का सूत्र है। तुम तौलते रहते हो... अरे पड़ोसी के मुकाबले तो मैं देवता हूं कि फलां के मुकाबले तो मैं देवता हूं। रोज अखबार पढ़कर आत्मा को बड़ी तृप्ति मिलती है कि देखो दंगा-फसाद, गुडागिरी, जोर -जुल्म, व्यभिचार, बलात्कार, आगजनी, हत्या सब हो रहा है। इससे तो मैं ही भला। छोटी- मोटी रिश्वत ले लेता हूं क्या रखा है रिश्वत में? जहां यह सब हो रहा है। अगर नर्क मिलेगा तो इन सबको मिलेगा, मुझको तो जगह भी कहां मिलेगी नर्क में! हमारी तो पूछ ही कहां होगी वहां ! हमको तो बाहर ही निकाल देंगे, भगा ही देंगे- भाग जा! दों-चार-दस रुपये रिश्वत लिए थे, नर्क चले आये। उठाया मुंह और नर्क चले आये! कुछ अपनी हैसियत का भी ख्याल करो, जाओ स्वर्ग में।
रोज अखबार पढ़कर बड़ी तृप्ति मिलती है। जिस दिन अखबार में व्यर्थ की खबरें न हों-लूटपाट, दंगा -फसाद, आगजनी, हिंदू -मुस्लिम दंगे, हरिजनों पर बलात्कार, उनके झोपड़ों का जलाया जाना-जिस दिन इस तरह की बातें न हो, उस दिन तुम्हें बड़ी उदासी होती है कि आज तो कुछ भी खबर नहीं। अखबार को तुम ऐसे पटक देते हो कि आज कुछ भी खबर नहीं। कोई पूछे क्यों भाई, क्या खबर है, तो बड़े उदास, कहते हो कोई खबर नहीं।
जरा एक दिन सोचो तो कि अखबार आए जिसमें अच्छी ही अच्छी खबरें हों, फूलों ही फूलों की चर्चा हो, कांटो का पता ही न चले-तुम अखबार ही लेना बंद कर दोगे! इसीलिए तो अखबार बुरे आदमी के आधार पर जीते हैं। अखबारों को बुरे आदमी चलवाते हैं। अच्छे आदमी की कहानी ही नहीं होती। और अच्छे आदमी की जिंदगी पर कहानी लिखो, कहानी न लिख सकोगे। किसी अच्छे आदमी की जिंदगी पर फिल्म न बन सकेगी। जरा सोचो तो कि राम की जिंदगी में से रावण को हटा दो, फिर रामलीला खत्म। राम की थोड़े ही है रामलीला; राम नहीं हैं उसके नायक, रावण हैं। क्योंकि रावण के बिना खेल खत्म हो जाता है। न चुराको। राम की सीता को रावण... रामलीला खत्म।
एक गांव में ऐसा हो गया था। रामलीला हुई। मैनेजर से कुछ झगडू। हो गया रावण का। रोज रामलीला के बाद जब मिठाई वगैरह बंटनी थी उनको, उसको कुछ कम मिली। कुछ बातचीत हो गयी। उसने कहा : देख लेंगे। मैनेजर ने सोचा भी नहीं था कि यह कहां देखेगा। उसने देखा रामलीला में। जब परदा उठा और स्वयंवर रचा गया तो सारे लोग इकट्ठे हुए हैं, सारे राजा महाराजा, सीता को वरने आए हैं, राम-लक्ष्मण भी आए हैं, रावण भी आया है। और तभी लंका से भाग। हुआ दूत आता है, और वह कहता है कि हे रावण, तू यहां क्या कर रहा है, लंका में आग लग गई, घर चल! तो रावण लंका चला जाता है आग बुझाने और तब तक राम धनुष को तोड़ देते हैं, स्वयंवर हो जाता है। सीता से विवाह हो जाता है।
आया दूत, उसने रावण को कहा कि हे रावण, लंका में आग लगी है। उसने कहा लगी रहने दो। जनता बड़ी हैरान हुई। जनता भी हर साल देखती थी रामलीला, यह कोई... यह क्या कह रहा है कि लगी रहने दो! दूत भी बड़ा चौंका।
दूत ने कहा : सुनते हो? लंका में आग लगी है। आपका आना आवश्यक हैं।
उसने कहां : लंका जाए भाड़ में। इस बार सीता का स्वयंवर करके ही आऊंगा।
अब तो बड़ी घबड़ाहट फैल गयी। अब कहानी आगे कैसे बढ़े? और उसने आव देखा न ताव, उठा और धनुष उठाकर तोड़ कर, टुकड़े - मुकड़े करके फेंक दिया। धनुष तो धनुष ही था, कोई असली, कोई शिवजी का तो धनुष था नहीं। रामलीला रामलीला ही थी। और जनक से कहा : ला, कहां है तेरी सीता? निकालो सीता को! सीता को लेकर ही जाएंगे, फिर आग बुझाके। और एक से दो भले!
जनक बूढ़ा आदमी था। कई दफे रामलीला में जनक का काम कर चुका था। होशियार था। उसको भी एक दफे तो कुछ समझ में नहीं आया। लोग जो सोए थे, जो रोज सोए रहते थे, वे भी जाग गए और खड़े हो गए। उनको लगा कि आज हो रही है रामलीला! ऐसी न देखी न सुनी, न आखों देखी न कानों सुनी! गजब हो रहा है!
जो जनक बूढ़ा आदमी था, उसने कहा : भृत्यो, परदे गिराओ! यह तुम कहां मेरे बच्चों के खेलने का धनुष उठा लाए! शिवजी का धनुष लाओ।
परदा गिरवाया। बामुश्किल किसी तरह रावण को धक्के देकर निकाला बाहर। क्योंकि रावण, जो गांव का सबसे मजबूत आदमी था, उसको ही रावण बनाते थे। वह दों-चार को तो वैसे ही धक्का देकर गिरा दे। रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी और जनक जी और सब लगे, सब बामुश्किल उसको पीछे घसीटकर ले गये कि भई, तू कैसा आदमी! मैनेजर से तेरा झगडू। हुआ तो रामलीला तो खराब मत कर। ज्यादा मिठाई ले लेना। सबकी मिठाई तू ही ले लेना, मगर सीता को तो मत ले जा ऐसे! नहीं तो फिर कल क्या होगा?
तत्क्षण दूसरे आदमी को रावण बनाया, क्योंकि उसका क्या भरोसा, वह फिर गड़बड़ करने लगे!   रावण असली नायक है।... रामलीला के असल में रावण-लीला कहना चाहिए। राम तो बेचारा दर्शक मात्र हैं। अच्छे आदमी की कोई कहानी नहीं होती। और अगर अच्छे आदमी की भी कोई कहानी होती है तो वह बुरे आदमियों के कारण होती है। अच्छे आदमी की जिंदगी में कुछ लिखावट नहीं होती-कोरा कागज होता है। कोरे कागज को पढ़ोगे तो क्या पढ़ोगे?
बुरे आदमी की जिंदगी में बहुत लिखावट होती है, बहुत इरछी-तिरछी, बहुत उलझी, बहुत दाव-पेंच ताली। तुम बुरे आदमी को देखकर खुश होते हो, अच्छे आदमी को देखकर उदास हो जाते हो। इस पर ध्यान करना। अमर कोई तुमसे कहे कि फलां आदमी बड़ा साधु है और तुम फौरन कहोगे : अरे वह क्या साधु होगा! देख लिए सब साधु, वह साधु नहीं है! तुम हजार प्रमाण इकट्ठे करोगे कि क्यों वह साधु नहीं है। अगर कोई तुमसे कहे कि फलां आदमी चोर है तो तुम बिलकुल एकदम राजी हो जाते हो, एक भी प्रमाण नहीं मागते। तुम कहते हो कि होना ही चाहिए। मुझे पहले ही शक था। मुझे संदेह तो था ही, आज तुमने समर्थन कर दिया। अगर कोई खाक बासुरी बजाएगा! जमाने भर का झूठ बोलने वाला, चोर, बेईमान! अनुभव से कह रहे हैं, वह क्या खाक बासुरी बजाएगा!
लेकिन इससे उल्टी बात कहीं तुमने सुनी है कि कोई आदमी कहे कि वह आदमी बड़ा चोर है, बड़ा बेईमान है-तुम कहोगे कि नहीं-नहीं, वह चोर -बेईमान कैसे हो सकता है, इतनी अच्छी बासुरी बजाता है! यह कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता है। इतनी अच्छी बासुरी बजानेवाला कैसे चोर, कैसे बेईमान होगा?
नहीं; ऐसी बात नहीं सुनने में आएगी। कौन कहता है ऐसी बात? जिस दिन लोग ऐसी बात कहने लगेंगे, यह पृथ्वी स्वर्ग होगी। यहां हम बुरी को बढ़ाते हैं, अच्छे को गिराते हैं, क्योंकि इसी में हमारे अहंकार की तृप्ति है।
लागू हे बोला जणा...। यहां जलन-ईर्ष्या से भरे हुए लोग तो जगह- जगह हैं।... घर घर माहीं दोखी। और दोष देखनेवाले लोग घर -घर बैठे हुए हैं, उनकी कोई कमी नहीं है।
आत्माएं गिरवी रख
सुविधाएं ले आये।
लोथड़ा कलेजे का,
वनबिलाव चीलों में
गंगा की गोदी में
या कि ताल-झीलों
में क्यारी मां जैसे
अपना बच्चा दे आये।
देकर के जन्म जन्म
के कर्जे ब्याज सहित
मांग रहे यौवन,
कुछ वय भोरी राज सहित।
यश फल उन्हें दे
हम समिधाएं ले आए।
उजालों भरी आखें,
मुंह पर पट्टी बाधे
अपनों पर अपने ही
आज निशाने साधे।
शांति वनों से लौटे
दुविधाएं ले आये।
आत्माएं गिरवी रख
सुविधाएं ले आये।
लोगों ने आत्माए बेच दी हैं -छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए! जीवन का पाप क्या है? छोटी -छोटी सुविधाओं के लिए आत्माओं को बेच देना। समझौता एकमात्र पाप है। किसी भी कीमत पर आत्मा के बेचना पाप है। और किसी भी कीमत पर आत्मा को न बेचना पुण्य है।
संन्यास की यही मेरी व्याख्या है कि जो आदमी आत्मा को बेचने को राजी नहीं-चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े; चाहे लोग उसे पापी कहें, दुश्चरित्र कहें; चाहे लोग पत्थर मारें और सूली चढ़ा दें-मगर सुविधाओं के लिए जो अपनी आत्मा न बेचे, वह पुण्यात्मा है।
लेकिन इतनी सामर्थ्य तो उसी में हो सकती है जिसने अपने भीतर शून्य देखा हो। शून्य ही इतना सहने की क्षमता रख सकता है। अहंकार की सहने की क्षमता ज्यादा नहीं होती। होती ही नहीं। ज्यादा तो क्या, कम भी नहीं होती।
देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो और जानो!
इसको, उसको संभव हो निज को पहचानो!
लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो!
जीवन की धारा में अपने को बहने दो!
तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो!
वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो!
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो!
लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो!
ऊपर से ठोस दिखो, अंदर से पोले हो!
बन कर मिट जाने की एक तुम कहानी हो!
पल में रो देते हो, पल में हंस पड़ते हो!
अपने में रम कर तुम अपने से लड़ते हो!
पर यह सब तुम करते-इस पर मुझको शक है!
दर्शन, मीमासा-यह फुरसत की बकझक हैं!
जमने की कोशिश में तुम रोज उखड़ते हो!
थोड़ी-सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में
चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में
जिंदगी तुम्हारी सीमित है, इतना सच है
इससे जो कुछ ज्यादा, वह सब तो लालच है
दोस्त उस कटने दो इस तमाशबीनी में! धोखा है
प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानों! कडुवा या मीठा,
रस तो है छक कर छानों चलने का अंत नहीं,
दिशा-ज्ञान कच्चा है!
भ्रमने का मारग ही सीधा है सच्चा है!
जब-जब थक कर उलझो, तब -तब लंबी तानों!
ऐसा समझाने वाले चारों तरफ मौजूद हैं।
चलने का अंत नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है!
भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है!
छोड़ो सत्य की चिंता। जब सारे लोग ही भ्रमित हो रहे तो तुम भी उन्हीं के साथ चलते रहो- भेड़चाल... भीड़ में बने रहो। भीड़ के साथ सुरक्षा है। भीड़ से हटकर चले तो भीड़ नाराज होती है। भीड़ व्यक्तियों को बर्दाश्त नहीं करती, क्योंकि व्यक्तित्व विद्रोह है। भीड़ चाहती है आज्ञा मानो उसकी। भीड़ चाहती है तुम्हारे पास कोई आत्मा न हो।
ख्याल करना, भीड़ अहंकार तो देती है तुम्हें, आत्मा छीन लेती है। भीड़ कहती है : अहा, कितने सच्चरित्र! भीड़ कहती है : कैसे पवित्र! भीड़ कहती है : कैसे ज्ञानवान! अगर भीड़ की मानो तो भीड़ अहंकार को खूब सम्मानित करती है। और अगर भीड़ की न मानो तो भीड़ दुर्जन कहती है, दुश्चरित्र कहती है; अहंकार को अपमानित करती है। वह भी तरकीब है भीड़ की।
भीड़ के पास एक ही तरकीब है अहंकार को फुसलाए, बढ़ाए; या अहंकार को काटे, छेदे, गिराए। जो आदमी अपना अहंकार खंडित होते नहीं देखना चाहता, वह सब तरह के समझौते कर लेता है। और कौन अहंकार का खंडित होना देखना चाहता है? दुर्जन भी नहीं चाहता कि उसका अपमान हो। झूठ बोलने वाला भी लोगों को यही प्रतीति कराये रखता है कि मैं सच बोलता हूं। झूठ के भी पैर नहीं होते, सच के ही पैर उधार लेकर चलता है। झूठ भी सच का मुखौटा ओढ़ता है।
पापी भी पुण्यात्मा बनने की घोषणाएं करते हैं और भोगी साधुओं के आवरण बना लेते हैं। चाहे उनके भोग की आकांक्षा स्वर्ग में ही क्यों न हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? मगर भोग की आकांक्षा ही साधुता का आवरण बन जाती है।
भीड़ एक ही बात चाहती है कि तुम्हारे पास निजता न हो, आत्मा न हो। भीड़ चाहती है तुम सोए रहो। तुम सोए रहो, भीड़ की मानते रहो। भीड़ जैसे जीवी है, उसका छाया की तरह अनुगमन करते रहो-तुम भले आदमी हो, तुम सज्जन हो।
तुम देखते नहीं, जीसस जैसे आदमी को भीड़ ने सूली दे दी! महात्मा नहीं कहा, सूली दी। सुकरात को जहर पिलाया, महात्मा नहीं कहा। बुद्ध को पत्थर मारे। महावीर के कानों में सलाखें ठोक दी, महात्मा नहीं कहा। और महावीर के समय में पंडित थे, पुरोहित थे-जों महात्मा थे। और जीसस को जिन लागों ने सूली दी, बड़े -बड़े रबाई, बड़े पुरोहित, वे सम्मानित थे, वे आदृत थे।
भीड़ दो कौड़ी के लोगों का तो आदर करती है, लेकिन जिनकी आत्मा प्रगट हुई है और जिनको अहंकार विलीन हुआ है, उनको नष्ट करना चाहती है, क्योंकि उनकी मौजूदगी भीड़ के लिए खतरा है। भीड़ के लिए सबसे बड़ा खतरा है आत्मवान व्यक्ति!
इसलिए ख्याल रखो, निंदा करनेवाले बहुत मिलेंगे। तुम्हारा सम्मान नहीं करेगा कोई। अगर तुम सच्चे हो, अगर तुम चले हो सत्य की तलाश, में तो तुम्हें बहुत कष्ट झेलने होंगे। दुर्गम है मार्ग।
गुज कुण। सो कीजिए, कुण हे थासे सोखी।
और जिंदगी इतनी अजीब है, लाल कहते कि यहां अपने हृदय की बात किससे कहो? यहां कोई संगी-साथी भी नहीं है। जिस दिन तुमने अपनी आत्मा की घोषणा की, सब तुम्हारे दुश्मन हैं। कौन तुम्हारी गुप्त बात सुनेगा? कौन तुम्हारे  अंतरतम संवाद सुनेगा? थोड़े -से ही लोग, बहुत चुने हुए लोग, उंगलियों पर गिने जा सकें इतने लते-तुम्हारी बात सुनने को राजी होंगे। खतरा ले सकें जो, जोखिम उठा सकें जो, वे थोड़े -से लोग सत्य की बात सुनेंगे। शेष सब तो असत्य की चादर ओढ़कर ताने सोए रहेंगे।
जीवन हा जद जतन हा, काया पड़ी बुढ़ाण।
सूकी लकड़ी न लुले, किस बिध निकसे काण।।
लाल कहते हैं : और जल्दी करो, क्योंकि जल्दी ही बुढ़ापा आ जायेगा। देह सूख जायेगी जैसे लकड़ी सूख गयी। और सूखी लकड़ी को झुकाना मुश्किल हो जाता है। जल्दी करो! समय बीता जाता है। जब जीवन में लोच है, जब जीवन युवा है और जब चेतना बूढ़ी नहीं हो गयी है, तब क्रांति को घटित कर लो। तब रूपांतरण कर लो।
रूपांतरण का समय युवावस्था है। जितने जल्दी हो सके, उतने जल्दी अहंकार को छोड़ दो और आत्मा को पकड़ लो। भीड़ को छोड़ दो और स्वयं के दीये के पीछे चल पड़ो। अप्प दिपो भव! अपने दीए बन जाओ।
यह जितनी जल्दी हो सके, क्योंकि लोच धीरे - धीरे खो जाती है। बच्चों में सर्वाधिक लोच होती है, बूढ़ों में सबसे कम लोच रह जाती है। मगर वे बूढ़े जो अपनी चेतना को सजग रखते हैं, उनमें उतनी ही लोच रहती है जितनी बच्चों में। जो अपनी चेतना को अतीत से विमुक्त रखते हैं; जो इकट्ठा नहीं करते; जो एक अर्थों में जवान ही बने रहते हैं, एक अर्थ में युवा ही बने रहते हैं; जिनकी चेतना के दर्पण पर धूल नहीं जमती समय की-वे कभी भी मुड़ सकते हैं।
पर साधारणत: लाल ठीक कहते हैं : जोबन हा जद जतन हा, काया पड़ी बुढाण। जैसे -जैसे बुढ़ापा आएगा, सूखी लकड़ी की तरह हो जाओगे, सख्त-झुकना मुश्किल हो जाएगा। जैसे -जैसे बुढ़ापा आएगा वैसे -वैसे पुरुषार्थ भी कम हो जाएगा। वैसे -वैसे संकल्प की क्षमता भी क्षीण हो जाएगी। वैसे-वैसे साहस करना भी मुश्किल हो जाएगा, जोखिम उठानी मुश्किल हो जाएगी।
लोग मुझसे पूछते हैं कि आप जवानों को क्यों संन्यास देते हैं? जवान ही सदा से संन्यासी होता रहा है। फिर जवान चाहे पचहत्तर साल का और चाहे पच्चीस साल का, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जवान ही संन्यासी होता रहा है। बूढ़ा तो संन्यासी हो ही नहीं सकता। फिर बूढ़ा चाहे पच्चीस साल का हो और चाहे पचहत्तर साल का; उस से बुढ़ापे को कोई संबंध नहीं है। कुछ लोग तो पच्चीस साल में ही ऐसे जड़ हो जाते हैं कि उनकी लोच खो जाती है। पच्चीस साल में ही निष्कर्षों पर पहुंच जाते हैं। पच्चीस साल में ही सिद्धातों से जकड़ जाते हैं। कोई हिंदू हो गया, कोई मुसलमान, कोई जैन, कोई ईसाई; इसका अर्थ है, ये सब बूढ़े हो गए। इनकी खोज समाप्त हो गयी। बिना खोजे मानकर बैठ गए। जिसने भी विश्वास किया वह बूढ़ा हो गया।
खोजी विश्वास नहीं करता, जब तक जान न ले। जानने की सतत चेष्टा करता है। और जानने के लिए जिन रास्तों पर चलना हो चलता है और जो जोखिम उठानी हो उठाता है। और जानने के लिए जो कीमत चुकानी हो चुकाता है।
लेकिन यहां तो पैदा होते से ही लोग जैन हो गए, हिंदू हो गए, मुसलमान हो गए। मां - बाप ने किसी के हिंदू बना दिया, किसी को मुसलमान बना दिया। बूढ़े हो गए। पैदा होते से ही बूढ़े हो गए। खोज का समय ही न मिला। अन्वेषण की सुविधा ही न मिली। जिज्ञासा कभी की ही नहीं। जिज्ञासा के पहले ही उत्तर पकड़ लिए। प्रश्न पूछे ही नहीं।
यह हालत वैसी है जैसे स्कूल में बच्चे चोरी करते हैं। उनको सवाल देते हैं, वे गणित की किताब को उल्टा कर पीछे देश लेते हैं। उत्तर तो लिख देंगे वे लेकिन उत्तर तक कैसे पहुंचे, वहां अटक ही जायेगी, वहां मुश्किल हो जायेगी। प्रश्न भी उन्हें मालूम है, उत्तर भी उन्हें मालूम है; लेकिन प्रश्न और उत्तर को जोड़ने वाला सेतु उनके पास नहीं है।
वही हालत है लोगों की। किताब उलट कर उत्तर ले लिया। गीता उलट कर उत्तर देख लिया। कुरान उलट कर उत्तर देख लिया। उत्तर पकड़कर बैठ गए लेकिन तुम जब तक उत्तर तक न पहुंचो तब कि कोई उत्तर तुम्हारा उत्तर नहीं है। और पराए, बासे उत्तर काम नहीं आते। दूसरे का सत्य तुम्हारे लिए असत्य है। तुम्हारा सत्य ही केवल तुम्हारे लिए सत्य होता है।
सुकी लकड़ी न लुले, किस बिध निकसे काण।
और एक दफा लकड़ी सूख गयी, उसने निष्कर्ष ले लिए, नतीजे ले लिए, सिद्धांत  पकड़ लिए, पक्षपाती हो गए-फिर बहुत मुश्किल है। फिर झुकाना असंभव हो जाएगा। और फिर जो तिरछापन रह जाएगा लकड़ी उसको सीधा करना कैसे संभव हो? लकड़े टूट जाए, लेकिन झुके नहीं।
लोच जिंदा रखो!
धार्मिक व्यक्ति में लोच होती है। अधार्मिक व्यक्ति में मताधता होती है। अधार्मिक व्यक्ति सूखा होता है, बिलकुल सूखा होता है। उसमें जलधार होती ही नहीं, क्योंकि उसमें प्रेम की धारा ही नहीं होती। लेकिन यही अधार्मिक लोग धार्मिक समझे जाते हैं। जो मंदिरों को जलाते हैं और मस्जिदों में आग लगाते हज, ये अधार्मिक लोग हैं। इनको धार्मिक मत समझ लेना। जो जेहाद को चले जाते हैं, जो धर्म - युद्ध खड़े करते हैं-यें धार्मिक लोग नहीं हैं। इनसे ज्यादा अधार्मिक और कौन होगा?
तुम्हें अगर अधार्मिक लोग देखने हो तो मंदिरों में मस्जिदों में, गुरुद्वारों में, गिरजों में मिलेंगे। वहां चले जाना। वहां देख लेना, कौन-कौन अधार्मिक आदमी है। जिस गांव के अधार्मिक आदमियों की तुम्हें गणना करनी हो, उस गांव के मंदिर -मस्जिदें में जाकर हिसाब लगा लेना। तुम्हें पक्का पता चल जायेगा कितने लोग अधार्मिक हैं।
धार्मिक व्यक्ति खोज करता है, मानता नहीं। जिज्ञासा करता है। जरूर एक दिन श्रद्धा को उपलब्ध होता है, लेकिन उसकी श्रद्धा संदेह के विपरीत नहीं होती, संदेह से छन -छन कर आती है। उसकी श्रद्धा संदेह को दबाकर नहीं आती, संदेह के निखार से आती है।
संदेह बड़ा शुभ है। संदेह अदभुत कीमिया है। संदेह की क्षमता धन्यभाग है। जो संदेह करना जानता है वह एक दिन श्रद्धा पर पहुंच जायेगा। न तो आस्तिक संदेह करते, न नास्तिक संदेह करते। एक ने मान लिया ईश्वर है, एक ने मान लिया ईश्वर नहीं है। दोनों ने खोजा नहीं। धार्मिक न तो आस्तिक होता है न नास्तिक होता है। धार्मिक तो सिर्फ खोजी होता है, जिज्ञासु होता है, मुमुक्षु होता है। वह कहता है : मैं खोज पर निकला हूं। और पूरे संदेह का उपयोग करूंगा, ताकि कोई गलत चीज पकड़ में न आ जाए।
संदेह तो ऐसे है जैसे सोने को कसने का पत्थर होता है। सोने को कसौटी पर कसते हैं। पक्का पता चल जाता है कि असली है या नकली है। ऐसे ही संदेह पर कसता है खोजी- अपनी हर खोज को, अपनी हर अनुभूति को। और जो संदेह पर खरी उतरती है, जिसको संदेह इनकार नहीं कर पाता, जिसको संदेह को भी स्वीकार करना पड़ता है-वही श्रद्धा है। संदेह भी जिसके समर्थन में खड़ा होता है, वही श्रद्धा है।
श्रद्धा जीवन की परम दशा जै। मगर संदेह की सीढ़ियों से पहुंचा जाता है उस मंदिर तक।
लाय लगी घर आपणे, घट भीतर होली।
शील सपैद में न्हाइये, जहं हंसा टोली।।
होना तो क्या था और हो क्या गया है! होना तो यह था कि तुम्हारे भीतर आनंद का सागर होता; शांति का, शील का सागर होता-कि तुम उसमें नहाते, कि तुम उसमें डुबकी मारते, कि हंसों की टोली में बैठते, कि परमहंसों के साथ उड़ते! होना तो यह था, मगर हो क्या गया? लाय लगी घर आपणे...। आग लगी है घर में। अनुभव ही कुछ और नहीं।
घट भीतर होली। होली जल रही है भीतर! तुम जल रहे हो उस होली में। होना तो क्या था! होना था स्वर्ग! खिलते मोक्ष के फूल!
और हो क्या रहा है? नर्क की आग जल रही है! और कौर जिम्मेवार है? सिवाय तुम्हारे और कोई जिम्मेवार नहीं है। यह तुम्हारा ही चुनाव है। तुमने समझौते कर लिए हैं। तुम सस्ती बातों के लिए महंगी बातें गंवा बैठे। तुमने कचरा इकट्ठा कर लिया और आत्मा बेच दी।
स्वामी शिव साधक गुरु, अब इक बात कहूं। कूकर हो हम आवणू? बिच में लागी दूं।।
लाल कहते हज कि एक प्रश्न पूछूं? एक प्रश्न उठाऊं? कूकर हो हम आवणू...।
इतने आनंद के स्वभाव में, ऐसे सच्चिदानंद रूप में... बीच में लागी दूं... यह आग बीच में कैसे लग गयी? जहां परमानंद होना चाहिए वहां आग कैसे बीच में लग गयी?
किसी और ने नहीं लगा दी है। कोई और लगा भी नहीं सकता। यह तुम्हारा ही दायित्व है। ये तुम्हारा ही निर्णय है। तुमने गलत चुन लिया है। चुनाव की तुम्हें स्वतंत्रता है। 
लेकिन कुछ लोग गलत का चुनने में रस जाते हैं। क्यों? कुछ क्यों, अधिक लोग गलत को चुनने में रस पाते हैं।  क्यों? क्योंकि अहंकार गलत से पुष्ट होता है। राजनीति चुनोगे तुम, नीति न चुनोगे। क्योंकि राजनीति से अहंकार पुष्ट  होगा और नीति तो अहंकार को ले जाएगी बहाकर, जैसे बाढ़ में कूड़ा-करकट बह जाता है। धन की दौड़ नहीं चुनोगे तुम, क्योंकि धन की दौड़ में अहंकार मजबूत होता चलेगा। ध्यान की दौड़ चुनोगे नहीं चुनोगे तुम, क्योंकि ध्यान में तो शून्य हो जाएगा।
कौन मिटना चहता है! सब बचना चाहते हैं। और पता नहीं तुम्हें कि तुम मिटना चाहो तो मिट नहीं सकते। तुम शाश्वत हो! तुम सनातन हो! तुम नित्य हो! मृत्युएं आती रही हैं, होती रही हैं, जाती रही हैं, तुम्हारा कुछ बिगड़ा नहीं। के तैसे होजस के तस! तुम में रत्ती- भर भेद नहीं पड़ा। लेकिन तुम्हें अपने स्वभाव का बोध ही नहीं है।
और बचपन से ही तुम्हें जो शिक्षाएं दी जाती हैं, प्रायमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक, वे सारी शिक्षाएं तुम्हारे अहंकार की दौड़ को ही उकसाया जाता है। तुम्हारी आग में घी डाला जाता है। तुम्हारे मां -बाप भी कहते हैं कि देखो, कुल की लाज रखना। कुलीन हो तुम! अपनी वंश-परंपरा का ख्याल रखना के तुम कौन हो, किसके बेटे हो!
यह सब अहंकार की भाषा है। नहीं तो सब मिट्टी है। कहां की कुलीनता और कहां के कुल! सब मिट्टी में पड़े हैं और मिट्टी में मिल गए हैं। बड़े भी और छोटे भी, प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध भी। जो बहुत उचके -कूदे थे जगत में, वे भी मिट्टी में गिर गए हैं। जो चुपचाप रहे थे वे भी मिट्टी में गिर गए हैं।
नहीं; लेकिन हम चारों तरफ एक हवा पैदा करते हैं-प्रतिष्ठा, सम्मान! हम अच्छे को भी बुरे का सहारा देकर खड़ा करना चाहते हैं। हम कहते हैं झूठ मत बोलना, क्योंकि हमारे कुल में कभी कोई झूठ नहीं बोला। सत्य बुलवाने के लिए भी अहंकार का सहारा ले रहे हो। और अहंकार का सहारा लेकिन जो सत्य बोला जाएगा वह झूठ से बदतर हो जाता है। उससे झूठ ही अच्छा था; कम-से -कम सरल तो होता, सीधा तो होता।
हम कहते हैं कि सादगी से रहना, क्योंकि सादगी को ही समादर मिलता है। अब ये जरा मजे की बातें सुनो। सादगी से रहना, क्योंकि सादगी को समादर मिलता समादर पाने के लिए जो सादगी से रहेगा, यह आदमी सादा है? यह आदमी तो बड़ा तिरछा है। यह आदमी तो बहुत ही उल्टा है।
हम कहते हैं कि विद्वान को वहां भी आदर मिलता है जहां सम्राटों को भी आदर नहीं मिलता। इसलिए विद्या को अर्जित करो। विद्वान की तो सर्वत्र पजू। होगी; राज्य के बाहर गया कि दो कौड़ी का है। लेकिन विद्वान सर्वत्र पूजा जाता है। तो विद्वान बनो!... मगर नजर है पूजा पर।
समझाते हैं हम लोगों को : त्यागी बनो, व्रती को देखो कितना सम्मान मिलता है! हजारों लोग उसके चरणों में झुकते हैं! मगर अगर चरणों में झुकाने के लिए ही कोई त्यागी-व्रती बना है... और अक्सर सौ में निन्यानबे त्यागी- व्रती लोगों को चरणों में झुकाने के लिए ही बने हैं... तो यह त्याग -व्रत क्या हुआ? फिर चाहे ये पहलवान बन जाये, चाहे मुनि बन जाये, कुछ भेद नहीं है। मुहम्मद अली बने कि मुनि बने, एक ही बात है। कोई भेद नहीं है। क्योंकि नजर तो एक है। नजरिया एक है। आधारशिला एक है।
हम लोगों को समझाते हैं कि बना जाओ मंदिर, नाम रह जायेगा। लोग मंदिर भी बना देते हैं ताकि नाम रह जाए। मगर नाम रह जाने के लिए मंदिर बनता है!
अब तुम देखते हो, देख में कितने बिरला मंदिर हैं! अब यह बड़े मजे की बात है। यह पहली दफा हुआ है भारत में। मंदिर तो पहले भी बनते रहे, लेकिन कोई कृष्ण का मंदिर होता था, कोई राम का मंदिर होता था। बिरला मंदिर पहली घटना हैं! तो बिरला ने खूब मंदिर बना दिए। मंदिर ही मंदिर खड़े कर दिए। मंदिर बना जाओ, नाम रह जाएगा! मगर नाम की आकांक्षा है। तो यह सब झूठ हो जाता है।
हमारी पूरी की पूरी शिक्षा, व्यवस्था, हमारी पूरी संस्कृति और संस्कार और हमारी पूरी सभ्यता रुग्ण है। क्योंकि अस सबके केन्द्र में खड़ा हुआ एक ही तत्व है अहंकार का; सब तरह उसके समर्थन देना है।
स्वामी शिव साधक गुरु, अब इक बात कहूं।
कूकर हो हम आवणू? बिच में लागी दूं।।
हम किस लपटें क्यों जल रही हैं, क्या मैं पूछूं?
बस प्रश्न उठाकर ही छोड़ देते हैं लाल, उत्तर नहीं देते। ठीक किया, उत्तर क्या देना! तुम्हीं सोचना। तुम्हीं सोचना कि तुम्हारे जीवन में आग क्यों लगी है।
यह सूत्र अदभुत है। सिर्फ प्रश्न ही उठाया है, उत्तर नहीं दिया। परम ज्ञानी केवल प्रश्न ही उठा देते हज, उत्तर नहीं देते। उत्तर तो तुम्हीं को खोजना होगा। उत्तर तो तुम्हारा होगा तभी उत्तर होगा।
करमां सू काला भया, दीसो दूं दाध्या।
देखो तो तुम्हारे कर्म कैसे काले हो गए हैं! और काले कर्म तुम्हें काला कर गए हैं। दीसो दूं दाध्या... और दावानल की तरह तुम भीतर जी रहे हो।
इक सुमरण सामूं करो, जद पड्सी लाधा। लेकिन अगर तुम एक परमात्मा को याद कर लो तो एकदम जल -वर्षा हो जाए, आग बुझ जाए, कालिख धूल जाए। फिर लाभ ही लाभ है-असली लाभ! फिर तृप्ति ही तृप्ति है!
करमां सूं काला भया, दीसो दूं दाध्या।
इक सुमरण सामूं करो, जद पड्सी लाधा।।
एक स्मरण, सिर्फ एक छोटी- सी घटना! एक छोटी-सी चिनगारी और जीवन और का और हो जाता है। और उस चिनगारी का नाम है सुमिरण! महावीर ने उसे कहा है विवेक। बुद्ध ने उसे कहा है सम्मासति। कबीर और नानक ने उसे कहा है सुरति। उसी का लाल कह रहे हैं सुमरण। एक स्मरण कर लो कि मैं कौन हूं?
रमण महर्षि के पास जो भी जाता था, अनेक - अनेक तरह के लोग अनेक - अनेक तरह के प्रश्न लेकर जाते थे। मगर उनका उत्तर सदा एक था, वे कहते हैं कि शांत बैठ कर एक प्रश्न पूछो अपने से -मैं कौन हूं, मैं कौन हूं, मैं कौन हूं? कई बार लोगों ने कहा भी, कि अलग- अलग हम प्रश्न लाते हज मगर आप उत्तर एक ही देते हैं। सब बीमारों को एक ही दवा! तो वे कहते : यह रामबाण दवा है। यह सब बीमारियों पर लागू होती है।
किसी की बीमारी क्रोध है और किसी की बीमारी लोभ है और किसी की बीमारी काम है और किसी की बीमारी कुछ और है। बीमारिया तो बहुत हैं। बीमारिया तो अनंत हैं। लेकिन इलाज एक है। उसे ध्यान कहो, सुरति कहो, स्मरण कहो... जो शब्द तुम्हें प्रीतिकर लगे। मगर अर्थ तो सभी शब्दों का एक है कि किसी तरह शांत बैठकर स्मरण करो कि मैं कौन हूं।
और ध्यान, रखना स्मरण का यह अर्थ नहीं है कि तुम भीतर बैठकर यंत्रवत दोहराने लगो-मैं कौन हूं मैं कौन हूं, मैं कौन हूं? उससे कुछ भी न होगा। रमण महर्षि के आश्रम में यही चल रहा है अब। लोग यंत्रवत बैठे हुए हैं और दोहरा रहे हज कि मैं कौन हूं मैं कौन हूं मैं कौन हूं। रमण महर्षि ने कहा था : यह भाव होना चाहिए, कि मैं कौन हूं! शब्दों में दोहराने से क्या होगा? शब्द तो खोपड़ी में गूंजते रहेंगे, शोरगुल मचाते रहेंगे। उनसे शांति भी नहीं होगी। उनसे अड़चन ही पड़ेगी। यह तो निःशब्द भाव हो ना चाहिए कि मैं कौन हूं।
मुझे तुमसे कहना पड़ रहा है तो शब्दों का उपयोग कर रहा हूं। लेकिन तुम जब अपने भीतर बैठो तो तुम्हें शब्दों की कोई उपयोग करने की जरूरत नहीं। तुम किसी से कुछ कह थोड़े ही रहे हो। यह तो भाव की दशा है-सघन भाव, कि मैं कौन हूं! यह भाव इतना एकाग्र हो जाए कि और सारी चीजें गौण हो जाएं, सारा अस्तित्व खो जाए। संसार... कहीं दूर छूट जाए पीछे हजारों मील दूर! फिर धीरे - धीरे मन के विचार भी दूर छूट जाएं-हजारों मील दूर! बस यह एक भाव ही रह जाए। सूफी फकीर फरीद से एक आदमी ने पूछा : ईश्वर से कैसे मिलूं? फरीद ने कहा : आ, मौका लगा तो मिला दूं। वह आदमी थोड़ा डरा भी। इतनी तैयारी करके आया भी न था। जिज्ञासा ही करने आया था, दार्शनिक जिज्ञासा थी। और ये सज्जन मिलाने ही चले! मगर अब नहीं भी न कर सका। अब इज्जत का भी सवाल था। थोड़ा झिझकने भी लगा, कहा : कल आऊंगा। फरीद ने कहा : कल का क्या भरोसा? मैं रहूं न रहूं। और कल पर क्यों टालना? जब आप सवाल पूछा है तो आप ही उत्तर होगा। चल मेरे साथ।
इस आदमी ने कहा : कहीं जाने की जरूरत क्या, यहीं बैठकर इसी झाडू के नीचे उत्तर दे दें। 
'यहां मैं उतर देता ही नहीं, मैं तो नदी पर ही उत्तर देता हूं।
'डरते -डरते वह आदमी फरीद के साथ नदी पर गया। फरीद ने कहा : उतार कपड़े। उसने कहा : कपड़े पहने उत्तर नहीं देंगे? कहा कि नहीं, पहले डुबकी मार, स्नान कर, पवित्र हो ले। बस मौका भर मिल जाए मुझे एक। ऐसा उत्तर दूंगा कि सदा के लिए बस फिर कभी नहीं पूछेगा।
आदमी डरा तो बहुत, लेकिन अब भाग नहीं सकता। अब यह आदमी सामने खड़ा है, यह भागने भी नहीं देगा। इतना आसान दिखता भी नहीं। और अब यह इसी में सार है। हुज्जत करने में कोई सार भी नहीं। इसी में सार है। और यह मस्त - तक। फकीर था फरीद, कि अगर भाग।- भूगी की तो पकड़ कर फेंकेगा पानी में और उसमें हाथ-पैर टूट जाएं! चुपचाप कपड़े उतारकर उस आदमी ने डुबकी मारी। जैसे ही डुबकी मारी, फरीद उसके ऊपर सवार हो गया और उसको पानी में दबा दिया। और दबाए जाए... और वह तड़फे मछली की तरह और फरीद दबाए जाए। सोचा होगा उस आदमी नें-गए काम से! चले थे राम की तलाश में, यह अपनी जिंदगी गयी। किस असमय में इस आदमी से सवाल पूछ लिया! ये सब सवाल उठे होंगे, एक क्षण में दौड़ गयी होंगी बातें -कि अब भूलकर किसी से न पूछूंगा, सब सोचा होगा। मगर अभी तो सवाल यह है कि कैसे निकलो बाहर। कैसे इससे पिंड छूटे? और यह आदमी मजबूत है और दबाए जा रहा है, दबाए जा रहा है।
लेकिन जब मौत की घड़ी आ जाए, तो कमजोर आदमी भी बड़ा ताकतवर हो जाता है। सारी शक्ति उठ आती है-चुनौती! उसने भी सारी ताकत लगा दी। था तो दुबला- पतला, पैसे कि दार्शनिक होते हैं आमतौर से। था तो दुबला-पतला लेकिन उसने भी सारी ताकत लगा दी। इतनी ताकत कि उसने इस मस्त -तक। फकीर को फेंक दिया और निकल आया पानी के बाहर। हाफ रहा था। आखें लाल हो गयी थीं। फरीद ने पूछा कि एक बात पूछूं? उसने कहा कि अब बिलकुल न बात हमें पूछनी... आपसे हमें बात ही नहीं करनी है।
नहीं, उसने कहा कि हम कोई उत्तर देंगे नहीं; यह उत्तर था। कहा कि एक सिर्फ सवाल पूछना है कि जब मैंने तुझे दबा लिया पानी में तो क्या हुआ? उसने कहा कि क्या होना था, जान निकलने लगी।
फिर भी विस्तार से बता, फरीद ने कहा।
अब विस्तार से, उसने कहा, क्या बताना! पहले यह कि मारे लिए। बहुत विचार उठे मन में कि कैसे बचूं? कैसे निकलूं? फिर धीरे - धीरे विचार भी खो गए। फिर तो एक ही सवाल रहा कि किसी तरह बाहर निकल जाऊं। फिर तो वह भी खो गया। फिर तो भाव ही रह गया बाहर निकलने का, विचार भी नहीं।
बस, फरीद ने कहा, तू समझ गया। आदमी होशियार है। तू उत्तर पा गया। जिस दिन परमात्मा को पाने का भाव ही रह जाएगा-शब्द नहीं, विचार नहीं-उस दिन मिल जाएगा। और अगर भूल जाए कभी भी, फिर आ जाना। मगर उत्तर मैं हमेशा नदी में देता हूं। ऐसे काम ही लोग आते हज, कभी-कभी आते हैं। जो एक दफा आता है दोबारा नहीं आता। या तो उत्तर मिल ही जाता है उसको या फिर वह उत्तर की तलाश ही छोड़ देता है। तू जब भी चाहे हम हाजिर हैं।
मैं कौन हूं यह नहीं दोहराना है। मैं कौन हूं यह भाव रह जाए। बस भाव! भाव सघन होता जाए। संसार भी छूट जाएगा दूर, मन भी छूट जाएगा दूर। और तब उसी भाव के मध्य में दीया जलेगा। उसी भाव के मध्य में शाश्वत ज्योति जलेगी-बिन बाती बिन तेल! उसे सुमिरण कहते हैं।
इक सुमरण सामूं करो...! बस उस दीए के सामने हो जाओ, आपने -सामने हो जाओ।... जद पड्सी लाधा। फिर लाभ ही लाभ है। फिर संपदा ही संपदा है। फिर साम्राज्य ही साम्राज्य है। फिर तुम सम्राट हो; अभी तुम भिखारी हो। फिर तुम मालिक हो; अभी तुम गुलाम हो।
बोया था आम जो, बबूल हो गया
सोने -सा सपना था, धूल हो गया!
बाग में गुलाब
कांपने लगा
बेला पर काली छाया पड़ी
चंपे की टूट गयीं टहनियां
सूख गयीं
सोनजूही खड़ी-खड़ी
सारा मौसम ही प्रतिकूल हो गया!
दिग्गज आपस में
टकरा गये
सिहर उठा सारा वातावरण
असमय ही विग्रह के ज्वार उठे
मुश्किल है
सागर का संतरण
किश्ती से गायब मस्तूल हो गया!
गांव- गांव जा कर
बांटे गये
आखिर उन वादों का क्या हुआ?
घर - आंगन जगमग करने
वाले निश्चयी इरादों का
क्या हुआ?
हर कोई खुद में मशगूल हो गया!
बस यह खुद, यह खुदी खुदा को अटकाए है।
हर कोई खुद में मशगूल हो गया
किश्ती से गायब मस्तूल हो गया!
सारा मौसम ही प्रतिकुल हो गया!
बोया था आम जो, बबूल हो गया
सोने -सा सपना था, धूल हो गया!
यह जिंदगी स्वर्ण की हो सकती है;
धूल हुई जा रही! फूल हो सकती है;
धूल हुई जा रही है! आम हो सकती है;
बबूल हुई जा रही है! नाव तो डूबेगी,
क्योंकि मस्तूल खो गया है। नाव तो डूबेगी, क्योंकि तुम्हारा स्मरण ही, आत्मस्मरण ही खो गया है। वही मस्तूल है। वही पतवार है। वही उस पार ले जाने का साधन है।
अलख पुरी अलगी रही, ओखी घाटी बीच।
वह जो परमात्मा का नगर है, दूर का दूर रह गया।... ओखी घाटी बीच। और बीच में भयंकर घाटी बन गयी।
आगे ककर जाइये, पग पग मतों रीच।
और आगे कैसे जाएं? एक -एक पग पर प्रमाण -पत्र मांगा जाता है पात्रता का।
अलख पुरी अलगी रही... दूर ही रही उस अलख की नगरी, उस परमात्मा का देश। और बीच में बन गयी एक बड़ी घाटी-जिसका कोई सेतु नहीं बनता; जिसको पार करने जाओ तो पग -पग पर पात्रता का प्रमाण - पत्र माग। जाता है।
कौन -सी पात्रता? एक ही पात्रता है परमात्मा के मार्ग पर-शून्य की, समाधि की, ध्यान की, स्मरण की।
प्रेम कटारी तन बहे, ज्ञान सेल का घाव।
प्रेम की कटारी को छिद जाने दो। प्रार्थना की कटारी को छिद जाने दो। बोध का, ज्ञान का, ध्यान का भाला प्राणों में उतर जाने दो।
सनमुख जूझे सूरवां, से लोपे दरियाव।
अगर हो हिम्मतवर, अगर शूरवीर हो, अगर शूरमा हो, तो जूझों! भागो मत। भगोड़े मत बनो। जीवन की समस्याओं से जूझों। तो यह संसार -सागर को पार करना कठिन नहीं है। यह संसार -सागर पार हुआ जा सकता है। और जूझना जै तो स्मरण को जगाना होगा।
जूझना है तो साहस, जोखम... जीवन को दाव पर लगाना होगा।
मत दुखी हो मुक्ति की आकांक्षाओं 
क्योंकि मेरा धैर्य तो हारा नहीं है।
जी रहे हैं और हम जीना सिखाते
दर्द पी कर दर्द का पीना सिखाते
क्या हमारी राह में रोड़े अडें-गे
जब कि रोड़ों को स्वयं ठोकर लगाते
जो स्वयं के ताप से ऊपर चढ़ेगा
वह अडिग संकल्प है पारा नहीं है।
आज तक हमने उठाया है तीरों को
और अपना कर चले हैं सहचरों को
सामने जब पर्वतें ने राह रोकी
कर दिया तब चूर ऐसे पत्थरों को
शौर्य की उत्तालता क्यों देखते हो
सिंधु है यह सूखती धारा नहीं है।
गीत में जो लय न बाधे छंद कैसा
एकता लाए न वह संबंध कैसा
जन्म से स्वाधीनता पर स्वत्व सब का
व्यक्ति पर संगीन का प्रतिबंध कैसा
कोकिला उन्मुक्त गाती है विपिन में
स्वर -लहरियों को कहीं कार। नहीं है।
लोक में आलोक ही करता रहेगा
युद्ध में तममोम जहां भी मांग सूनी
उस जगह आदर्श को भरता रहेगा
सूर्य तो सन्मुख उदय ले कर चला है
यह अमावस से घिरा तारा नहीं है।
सूर्य बनो-स्मरण के सूर्य, सुरति के सूर्य!
जागरण के दीये बनो।
सूर्य तो सम्मुख उदय ले कर चला है
यह अमावस से घिरा तारा नहीं है
कोकिला उन्मुक्त गाती है विपिन में
स्वर; लहरियों को कहीं कार। नहीं है
शौर्य की उत्तालता क्यों देखते हो सिंधु है
यह सूखती धारा नहीं है
जो स्वयं के ताप से ऊपर चढ़ेगा
वह अडिग संकल्प है पारा नहीं है
मत दुखी हो मुक्ति की आकांक्षाओं 
क्योंकि मेरा धैर्य तो हारा नहीं है
हारो मत! धीरज को छोड़ो मत! अडिग अनंत धैर्य चाहिए, तो ही परमात्मा की परम संपदा उपलब्ध होती है।
लाल के इन वचनों पर खूब ध्यान देना, खूब मनन करना। पर मनन पर ही रुक न जाना। ये वचन साधन बनने चाहिए। ये वचन निदिध्यासन बनने चाहिए। ये वचन जैसा उन्होंने कहा प्रेम-कटारी तन बहे... ये वचन भाले की तरह प्राणों में उतर जाएं। सनमुख जुझें सूरवां, से लोपे दरियाव।
जुझो! यह संसार सागर विलीन हो जाता है। विलीन हुआ है। अगर बुद्ध का या, महावीर का, कृष्ण का, मुहम्मद का, कबीर का, लाल का-तो तुम्हारा भी होगा। तुम्हारी भी उतनी ही क्षमता है जितनी किसी और बुद्ध की। भेद है तो इतना कि तुमने अपनी क्षमता को पुकार नहीं। भेद है तो इतना कि तुम सोए पड़े हो और वे जाग गए हैं। बस इससे ज्यादा भेद नहीं है।
जगाओ अपने को! बहुत हो चुके ये सपने- धन के, दौलत के, व्यर्थ की आपाधापी के। अब छोड़ो इन सपनों को। 
यह महलों, यह तख्तों, यह ताजों की दुनिया
यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
यह दौलत के भूखे रिवाजों कि दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!

आज इतना ही।

 समाप्‍त

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