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गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

हंसा तो मोती चूने--(लाल नाथ)-प्रवचन--01

हंसा तो मोती चुगैं (संत श्री लाल नाथ)
                    
—ओशो




और है कोई लेने हारापहला प्रवचन

पहला प्रवचन
दिनांक 11मई, 1989;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र :

ध्यानी नहीं शिव सारसा, ग्लानी सा गोरख।
ररै रमै सूं निसतिरया, कोड अठासी रिख।।
हंसा तो मोती चुगैं, बगुला गार तलाई।
हरिजन हरिसू यूं मिल्या, व्यू जल में रस भाई।।
जुरा मरण जग जलम पुनि, अै जुग दुख घणाई। 
चरण सरेवा राजस, राख लेव शरणाई।।
क्यू पकड़ो हो डालिया, नहचै पकड़ो पेड़।
गउवां सेती निसतिरो, के तारैली भेड़।।
साधां में अधवेसरा, व्यू घासी में लीप।
चल बिन जौड़े क्यूं बड़ो, पग। बिलूमै काप।।

हुलक। की। पातला, जमी सूं चौड़ा।
जोगी ऊंचा आभ सु राई सूं ल्होड़ा।।
होफा ल्यो हरनांव की, अमी अमल का दौर।
साफी कर गुरु -ज्ञान की, पियोज आठूं प्‍होर।।


कही से आग मिले
इस बरफीली जगह में
कहीं से आच मिले
इस ठंडे शहर में
कहीं से राग उठे
इस वीराने में
कहीं शहनाई बजे
इस मनहूस मरघटी जमाने में
कहीं आम का पेड़ बौराये
सुनसान को तोड़े कोयल
हवा तेज और तेज चले
गले लगे शरमाये
दोपहरी भन्नाती है
धूप गरम और- और गरमाती है
मैं रुकी हूं अभी भी...
किसी शाम के लिए
ये वक्त ठहरे - ठहर जाये
किसी लिये गये नाम के लिए
कहीं से आग मिले
इस बरफीली जगह में
कहीं से आंच मिले
इस ठंडे शहर में कहीं से रण उठे
इस वीराने में
कहीं शहनाई बजे
इस मनहूस मरघटी जमाने में
शहनाई तो सदा बजती रही है-सुननेवाले चाहिए। और इस भरी दुपहरी में भी शीतल छाया के वृक्ष हैं-खोजी चाहिए। इस उत्तप्त नगर में भी शीतल छा्ंव है, पर शीतल छा्ंव में शरणागत होने की क्षमता चाहिए। शीतल छा्ंव मुफ्त नहीं मिलती। शहनाई बजती रहती है, लेकिन जब तक तुम्हारे पास सुनने को हृदय न हो, सुनाई नहीं पड़ती। कृष्ण के ओंठों से बासुरी कभी उतरी ही नहीं है। बांसुरी बजती ही जाती है। बांसुरी सनातन है। कभी कोई सुन लेता है। तो जग जाता है; जग जाता है तो जी जाता है। जो नहीं सुन पाते, रोते ही रोते मर जाते हैं जीते ही नहीं, बिना जिये मर जाते हैं।
श्री लालनाथ के जीवन में बड़ी अनूठी घटना से शहनाई बजी। संतों के जीवन बड़े रहस्य में शुरू होते हैं। जैसे दूर हिमालय से गंगोत्री से गंगा बहती है! छिपी है घाटियों में, पहाड़ों में, शिखरों में। वैसे ही संतों के जीवन की गंगा भी, बड़ी रहस्यपूर्ण गगोत्रियो से शुरू होती है। आकस्मिक, अकस्मात, अचानक-जैसे अंधेरे में दीया जले, कि तत्क्षण रोशनी हो जाये! धीमी- धीमी नहीं होती संतों के जीवन की यात्रा शुरू। शनै: शनै: नहीं। संत छलाग लेते हैं।
जो छलांग लेते हैं वही जान पाते हैं। जो इंच- इंच सम्हल कर चलते हैं, उनके सम्हलने में ही डूब जाते हैं। मंजिल उन्हें कभी मिलती नहीं। मंजिल दीवानों के लिए है। मंजिल के हकदार दीवाने हैं। मंजिल के दावेदार दीवाने हैं। 
'लाल' दीवानों में दीवाने हैं। उनके जीवन की यात्रा, उनके संतत्व की गंगा बड़े अनूठे ढंग से शुरू हुई। और तो कुछ दूसरा परिचय न है, न देने की कोई जरूरत है; हो तो भी देने की कोई जरूरत नहीं है। कहां पैदा हुए, किस गांव में, किस ठाव में, किस घर -द्वार में, किन मां -बाप सें-वें सब बातें गौण हैं और व्यर्थ है। संतत्व कैसे पैदा हुआ, बुद्धत्व कैसे पैदा हुआ? राजस्थान में जन्मे इस गरीब युवक के जीवन में अचानक दीया कैसे जला; अमावस कैसे एक दिन पूर्णिमा हो गयी-बस वही परिचय है। वही असली परिचय है। न तो संत की जात पूछना न पांत पूछना।
पूछना ही मत व्यर्थ की बातें। पता-ठिकाना मत पूछना। उसका पता तो एक है -राम। उसका ठिकाना तो एक है-राम। उसका जन्म भी वही, उसकी मृत्यु भी वही। उसके जीवन का सारा उदघोष वही है।
लेकिन संतत्व की किरण कैसे उतरी, पहली किरण कैसे उतरी? फिर सूरज तो चला आता है। किरण के पीछे -पीछे चला आता है। मगर पहली किरण का उतरना जरूर समझने योग्य है। क्योंकि उसकी पहली किरण की तुम तलाश में हो। 
और तुम्हारे पास से भी कहीं ऐसा न हो कि किरण आये और गुजर जाये और तुम पकड़ भी न पाओ; किरण आये और नाचती गुजर जाये और तुम्हीं उसके पगों में बंधे घूंघर सुनाई न पड़े; किरण आये और शहनाई बजाये और तुम बहरे रहे आओ; किरण आये और तुम आंख  बंद किये बैठे रहो!       ... और किरण सदा अकस्मात आती है, अनायास आती है। किरण हमेशा अतिथि है, बिना तिथि बताये आती है। न कोई खबर देती है, न कोई पूर्व-आगमन की सूचना देती है। कब द्वार पर दस्तक दे देगा परमात्मा, कोई भी नहीं जानता। उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। सिर्फ इस जगत में एक लीप की भविष्यवाणी नहीं हो सकती, वह है परमात्मा और तुम्हारा मिलन। और सब तो कार्य-कारण में बंधा है, इसलिए उसकी भविष्यवाणी हो सकती है। सिर्फ परमात्मा प्रसाद है, कार्य- कारण के पार है; इसलिए उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती।
किसी ने सोचा भी न होगा कि लाल के जीवन में ऐसे परमात्मा का पदार्पण होगा। लाल बौना कराकर घर लौटते थे। संगी-साथी, बैड -बाजे, रंग -रौनक, उत्सव की घड़ी थी। रास्ते में लिखमादेसर गांव पड़। वहां  पर एक अनूठे संत थे कुभनाथ-परमहंस थे। न कोई धर्म की चिंता, न कोई पंथ की, न कोई परंपरा की। धार्मिक थे, मगर किसी धर्म से बंधे हुए न थे। लुटते थे दानों हाथ, जो दिया था परमात्मा ने। और जो लुटाता है, उसे परमात्मा और - और दिये जाता है। यह संपदा ऐसी है कि चुकती नहीं। रोको तो नष्ट हो जाती है। लुटाते रहो, तो बढ़ती चली जाती है।
लौटते थे गौना कराकर, रास्ते में गांव पड़ा। सोचा कि दर्शन करते चलें। ऐसे संत के गांव से गुजर रहे हैं, जिसकी सुगंध दूर -दूर तक पहुंचने लगी थी। और निश्चित उस सुगंध के साथ लपटें भी थीं। यह सुगंध फूलों की सुगंध नहीं  है-लपटों की सुगंध है, ज्वाला की सुगंध है। संतत्व के साथ ही साथ क्रांति की आग भी जलती है। दूर-दूर तक कुंभनाथ की सुवास भी पहुंच रही थी। जो सुवास पहचान सकते थे, उन्हीं सुवास मिल रही थी। जो सुवास नहीं पहचान सकते थे, परंपरा से अंधे हुए रूढ़िग्रस्त लोग थे, उन्हें बेचैनी हो रही थी। उनके पास आग पहुंच रही थी।
सोचा, दर्शन करते चलें। और ऐसे संत का आशीर्वाद ले लेना उचित है। जीवन का प्रारंभ हो रहा है, विवाह हो रहा है, नयी दुनिया मैं प्रवेश हो रहा है, कौन न संत आशीष लेने चला जाये। पता नहीं था क्या आशीष मिलेगा। जब तुम संत के पास जाते हो तो अपने हिसाब से जाते हो। अपने आकांक्षा, अपने अभिलाषा...। लेकिन संत जब आशीष देता है तो तुम्हारी अभिलाषाओं के हिसाब से नहीं देता, न तुम्हारी आकांक्षाओं की पूर्ति करता है। संत तो वही देता है जो दे सकता है। कूड़ा-करकट नहीं देता, हीरे देता है। कंकड़-पत्थर नहीं देता, जवाहरात देता है।
लाल को अब कि अपने 'लाल' होने को पता ही कहां था! अब तक अपने भीतर के हीरे की कोई पहचान न थी। किसी ने चौंकाया भी न था, किसी ने जगाया भी न था, किसी ने पुकारी भी न था, चुनौती भी न दी थी। सोये -सोये जिंदगी गयी थी, और अब सोने का एक और बड़ा आयोजन हुआ जा रहा था। नींद की पूरी व्यवस्था हुई जा रही थी। मूर्च्छा, जिंदगी की आपाधापी अब पूरी तरह पकड़ने को थी। गये थे आशीष लेने, स्वाभाविक-विवाह हो रहा है, नये जीवन का प्रारंभ है। इससे शुभ क्या होगा और कि किसी संत के आशीष की छाया मिले!
लेकिन वहां  गये तो कुछ और ही हाल पाया। कुंभनाथ जीवित समाधि लेने की तैयारी कर रहे थे। गड्डा खोदा जा चूका था। बस प्रवेश की तैयारी थी। अंतिम विदा-वेला... उन्होंने प्रसाद बाटा। सबको प्रसाद वांट चुके। लाल को भी प्रसाद मिला। और फिर समाधि में उतरने के पहले, बड़ी अनूठी बात कुंभनाथ ने कही। जोर से पुकारा, चारों तरफ देखा और जोर से पुकारा और कहा- ' और है कोई लेनेहारा'?
प्रसाद तो बांट चुके थे। सभी ने ले लिया था। लाल भी ले चमके थे प्रसाद। अब यह किसी और ही प्रसाद की बात थी जो दिखाई नहीं पड़ता। जो लेने-देने में नहीं आता; जो हस्तातरित नहीं होता। मगर फिर भी छलागें लेता है, एक हृदय से दूसरे हृदय में उतर जाता है। हाथों -हाथ तो नहीं जाता, आत्माओं से आत्माओं में जाता है। खड़े होकर उस गड्डे पर, जिसमें जल्दी ही वे डुब जाने को हैं सदा को, उस मिट्टी में जिसमें मिल जाने को हैं-पुकारा जोर से : ' और है कोई लेनेहारा'? लोग तो इधर -उधर देखने लगे। सबको प्रसाद मिल चुका था। कोई बचा भी न था। और प्रसाद भी न बचा था। न तो कोई लेनेवाला बचा था। न प्रसाद बचा था। यह किस प्रसाद की बात हो रही है?
हो गये होंगे विक्षिप्त, सोचा होगा लोगों ने। होंगे ही विक्षिप्त, नहीं तो कोई जीवित समाधि लेता है? आदमी जीने के लिए कितने आयोजन करता है! मरता रहे तो भी जीता है। सड़ता रहे तो भी जीता है। कीड़े पड़ जायें शरीर में तो भी जीता है। कैंसर पकड़े, क्षयरोग हो, लूला हो, लंगड़ा हो, कोढ़ी हो, नालियों में पड़ रहे- तो भी जीता है, तो भी जीना चाहता है, ऐसी जीवेषणा है! यह होगा ही आदमी विक्षिप्त। अपने हाथ से अपने कब्र खोदी है, अपनी कब्र खोदी है, अपनी कब्र समाने को जा रहा है। जरूर अब इसका मस्तिष्क बिलकुल खराब हो गया है।
प्रसाद बंट चुका, सभी को प्रसाद मिल चुका। न प्रसाद है पास, न कोई लेने वाला है और अब। और तब यह आदमी चिल्ला रहा है कि ' और है कोई लेनेहारा '!
लोग तो एक -दूसरे की तरफ देखने लगे, लेकिन लाल पहुंच गये। हाथ भिखारी की तरह फैलाकर बैठ गये सामने। आखों से आंसुओ की धार...। कुछ घटा! कुछ वैसा घटा, जैसा बुद्ध और महाकाश्यप के बीच घटा था, कि बुद्ध लेकर फूल आये थे सुबह और बैठ गये थे फूल को देखते, देखते, देखते, देखते...। लोग थक गये। लोग प्रवचन सुनने आये थे। और ऐसा बुद्ध ने कभी भी न किया था कि हाथ में फूल लेकर बैठ गये और उसी को देखते रहे और लोगों को भूल ही गये। खैर दो -चार मिनट बीते तो ठीक था, घड़ी बीतने लगी, घंटा बीतने लगा। लोग बेचैन होने लगे, उद्विग्न होने लगे। यह कब तक चलेगी बात? यह समय बहुत लंबा मालूम होने लगा। यह बुद्ध को आज क्या हो गया है!   और तब महाकाश्यप हंसा था। जोर से हंसा था। खिलखिला कर हंसा था। और बुद्ध ने आखें उठाई थीं और महाकाश्यप को कहा था कि आ, मेरे पास आ। तेरी मुझे तलाश थी। जिसकी मुझे तलाश थी, वह मिल गया। यह फूल ले। जो मैं शब्दों से दे सकता था वह मैंने दूसरों को दे दिया है; जो शब्दों से नहीं दिया जा सकता वह मैं तुझे देता हूं।  
जैसा महाकाश्यप और बुद्ध के बीच कुछ घटा था... जो देखनेवालों को दिखाई नहीं पड़ा था कि क्या बुद्ध ने दिया, क्या महाकाश्यप ने लिया? सदियां बीत गयी हैं अब, पच्चीस सौ वर्ष बीत गये हैं, बुद्ध को प्रेम करनेवाले अब भी पूछते हैं, अब भी विचार करते हैं कि कौन-सा हस्तांतरण हुआ था? फूल दिया था, वह तो दिखाई पड़ा था। मगर बुद्ध ने कहा : जो मैं नहीं दे सकता शब्दों से, वह तुझे देता हूं। वह क्या है? शब्दों के पार, शास्त्रों के पार, न कहा जा सके जा, अनिर्वचनीय है जो, अव्याख्य है जों-वह क्या है? बुद्ध ने क्या दिया था महाकाश्यप को?
लेकिन कम-से-कम? बुद्ध ने फूल तो दिया था। कुभनाथ और लाल के बीच तो फूल भी नहीं दिया- लिया गया। कुछ दिया ही लिया नहीं गया। लेकिन प्रसाद बरसा। शहनाई बजी। धूप खो गयी, प्राण शीतल हुए। संगीत जन्मा। लाल तो रूपातरित हो गये-उस झुकने में ही रूपातरित हो गये। लाल को पहली दफा अपने भीतर का लाल दिखाई पड़ा। पहली बार अपने भीतर के खजाने का अनुभव हुआ। जैसे इस सत पुरुष की मौजूदगी में, इसकी रोशनी में अंधेरा टूटा, अपनी पहचान हुई, आत्म-परिचय हुआ! झुक गये चरणों में। मरते -मरते कुंभनाथ एक दिया जला गये, एक ज्योति जला गये-एक मशाल! जाते - जाते पूछते हैं : ' और है कोई लेनेहारा? ' मिल गया एक लेनेहारा। थे बहुत लोग। सैकड़ों लोग मौजूद थे। मगर एक ने पुकार सुनी। एक ने हाथ फैलाये। एक ने झोली फैलायी। एक झुकने को राजी हुआ। तो जो झुका, वह भर गया। एक मिटने को राजी हुआ; तो जो मिटा, वह जनम गया।
लाल की जिंदगी बदल गयी। या यूं कहो, लाल का पहली दफा जन्म हुआ, जिंदगी मिली। अब तक जैसे एक नींद थी; नींद भी क्या, दुःस्वप्न! फूल खिले। कोयल बोली। अमावस मिटी, पूर्णिमा आयी। अमृत बरसा। मृत्यु गयी। गया वह सब, जिसे कल तक महत्वपूर्ण समझा था। और कल तक जिसकी खोज ही खबर न ली थी, उस तरफ आंख  गयी। उसकी पहचान हुई। अमृत से संबंध जुड़ा। एकदम जैसे भभक उठे। ज्योतिर्मय हो गये! हजारों लोगों ने यह चमत्कार देखा था। जब उठे तो दूसरा ही व्यक्ति था; जब हाथ फैलाने बैठे थे तो कोई और ही व्यक्ति था। जो बैठा था, एक साधारण-सा युवक था, जो अभी विवाह करवाकर लौट रहा है। संगी-साथी हैं, बैड-बाजा हैं, बारात है...। तब उठे तो उन आखों में कोई गहराई थी, जिसे मापने का कोई उपाय नहीं। उस चेहरे पर कुछ आभा थी, जो इस लोक की नहीं है।
मित्रों को तो बहुत हैरानी हुई। ईर्ष्या भी हुई होगी। चोट भी लगी। मित्रों ने ताने भी कसे। मित्रों ने कहा कि तब फिर विवाह ही क्यों किया? जब यही करना था तो दो दिन पहले कर लेते। जब संन्यस्त होना था, तो दो दिन पहले हो लेते। जब यह गैरिक रंग में रंगना था तो दो दिन पहले क्या बिगड़ा? विवाह क्यों किया?
जवाब था : ' बेहड़। लिखिया न टलै दीया अंट बुलाय। ' लाल ने कहा : विधाता ने जो लिख दिया था, वह कैसे टल सकता था? फेरे लिखना हो चुका था, सो फेरे हुए। फेरे बदे थे, सो फेरे हुए। जो होना था सो हुआ। यह भी होना था। फेरों के बाद ही होना था, सो बाद में हुआ!
लेकिन जब वास्तविक क्रांति घटती है तो उसके दूरगामी परिणाम होते हैं। नववधू लाल में हुए रूपांतरण को देखकर स्वयं भी रूपातरित हो गयी। लाल भी डूब गये ध्यान में, नयी -नयी विवाहित युवती भी डूब गयी ध्यान में। भूल गये दोनों संसार। गुरु जाते -जाते एक अपूर्व व्यक्ति को जन्म दे गये।
लाल के वचन सीधे-सादे हैं। संतों के वचन सदा ही सीधे-सादे होते हैं। जटिलता तो पंडितों के वचनों में होती है। और पंडितों के वचनों में जटिलता इसलिए होती है कि पंडितों के वचनों में सार कुछ भी नहीं होता। असार को छिपाने के लिए जटिलता का आवरण ओढ़ाना जरूरी है। जितनी असार बात हो, उसको उतना ही जटिल और कठिन करके कहना होता है, ताकि कोई देख न पाये कि असार है। जितनी थोथी बात हो उसने बड़े -बड़े शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। शब्दों की बड़ी सजावट में थोथापन छिप जाता है। जितना कुरूप हो वक्तव्य, उसने सुंदर परिधान पहनाने होता हैं। और जितनी गंदगी हो भीतर, उतनी सुगंध छिड़कनी पड़ती है। लेकिन जब भीतर कुछ होता है, तो बात सीधी होती है, साफ होती है, नग्न होती है, निर्वस्त्र होती है।
संतों के वचन सदा सीधे-साफ हैं। वैसा ही कह दिया है जैसा जाना है। जाना है, इसलिए उलझाने की कोई जरूरत ही नहीं है। जिन्होंने नहीं जाना है, वे खूब उलझाते हैं। वे ऐसे गोल-गोल जाते हैं, ऐसे तिरछे -तिरछे चलते हैं कि तुम पहचान ही न पाओगे वे कहना क्या चाहते हैं। और लोग ऐसे मूड हैं कि जिस बात को न समझ सकें, सोचते हैं बड़ी गहरी होगी, गंभीर जोगी। जो समझ में न आये, लोग सोचते हैं जरूर बड़ी ऊंची होगी, पहुंची होगी।
सत्य तो सीधा-साफ है; दो और दो चार, ऐसा साफ है। दार्शनिक लिखते हैं बड़ी जटिल बातें। संत तो बोलते हैं सीधा-साफ। पक्षियों के गीत जैसे उनके गीत हैं। न कुछ जोड़ा है, न कुछ सजाया है, सीधा हृदय खोलकर रख दिया जै। ऐसे ही लाल के वचन हैं। मगर अगर डुबकी मारोगे तो बहुत संपदा पाओगे। निमंत्रण सुनोगे तो एक यात्रा शुरू होगी। ' और है कोई लेनेहारा?'... तो ही... तो ही समझ पाओगे इन सीधे-सादे वचनों को। ये बातें समझने की कम, लेने की ज्यादा हैं; सोचने की कम, पीने की ज्यादा हैं।
अंतिम निमंत्रण आज है!
वरदान पाने के लिए,
निर्माण पाने के लिए,
युग-युग तुम्हारे पास पंछी नीड़ में आता रहा
अंतिम निमंत्रण आज है!
लघु श्वास के दो तार पर,
विश्वास के आधार पर,
जड़ विश्व के चेतन नियम हंस भूल ठुकराता रहा;
अंतिम निमंत्रण आज है!
संतोष पलकों से ढुलक,
बहता रहा था शाम तक,
नीरव निशा के शून्य में दृग-सिंधु यह गाता रहा।
अंतिम निमंत्रण आज है! संतों का निमंत्रण सदा अंतिम निमंत्रण है। जब संसार के सब निमंत्रण चुक जाते हैं, उनकी व्यर्थता देख ली जाती है, उनकी असारता पहचान में आ जाती है-तों संतों का निमंत्रण समझ में आता है।
ये वचन कवियों के वचन नहीं हैं। ये मनोरंजन नहीं हैं, मनोभंजन हैं। ये मन को बहलाने के लिए नहीं, मन को मिटाने के लिए हैं। साहस चाहिए, दुस्साहस चाहिए। क्योंकि यह ऊपर की यात्रा है। उत्तुंग शिखरों का बुलावा है। सीधा-साफ, पर बड़े खतरे से भरा!
आखिर कुंभनाथ ने भी कोई बड़ी कठिन बात तो न कही थी लाल को, इतना ही कहा था- ' और है कोई लेनेहारा? ' कि जग गये कोई तार प्राणों में सोये हुए। जैसे किसी ने वीणा झनझना दी। कि जैसे किसी ने नींद में झकझोर दिया और आखें खुल गयीं और सुबह हो गयी! ऐसे ही ये वचन हैं। ले सके तो धन्यभागी होओगे।
लाल के जीवन में अचानक वैराग्य उत्पन्न हो गया। लेकिन ऐसे समझने चलोगे, तो कुछ सूत्र पकड़ में आ सकते हैं जो काम के हों। राग में डूबने जा रहे थे और वैराग्य उत्पन्न हुआ। फंसता ही था पक्षी, पिंजड़े में उतरने को ही था। द्वार बंद होने को ही था। फिर निकलना मुश्किल हो जाता। ठिठक गया।
एक बात याद रखो : जीवन में बहुत बार ऐसे क्षण होते हैं जब तुम जरा अगर चेत जाओ तो बड़ी झंझटों से बच जाओ। एक कदम और कि फिर झंझटों से बचना मुश्किल हो जाता है। झंझट पैदा हो जाये तो उसके बाहर आना कठिन है। झंझट में न जाना आसान है।
क्रोध में चले गये तो फिर निकलना मुश्किल है। क्रोध के द्वार पर ही जाग गये, चेत गये, तो वही क्रोध करुणा गन जाता है। वासना की दौड़ में चल पड़े, तो हर कदम और - और उलझनें खड़ी करता जाता है। फिर इतनी उलझनें हो जाती हैं कि निकलना मुश्किल होने लगता है। एक झूठ बोले, तो फिर दस झूठ बोलने पड़ेंगे। क्योंकि एक झूठ को बचाने के लिए दस झूठ जरूरी होते हैं। फिर दस झूठ बोले तो सौ झूठ बोलने पड़ेंगे, क्योंकि हर -एक झूठ के लिए दस झूठ चाहिए। फिर यह फैलाव फैलता ही चला जाता है। इसका कोई अंत नहीं है। फिर लौटना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उतने झूठ जो बोले, उतने झूठ प्रगट करने होंगे। फिर मन कंपता है। फिर छाती बैठती है।
वैराग्य का अर्थ है : राग की व्यर्थता का बोध। राग का अर्थ होता है : यहां सुख मिल सकेगा, इसकी आशा। वैराग्य का अर्थ होता है : न कभी यहां किसी को सुख मिला, न यहां सुख मिल सकता है। यहां सुख है ही नहीं। सुख बाहर नहीं है, भीतर है। सुख संबंधों में नहीं है, अंतस्तल में है। सुख धन में, पद में, प्रतिष्ठा में नहीं है- ध्यान में है। सुख बहिर्यात्रा नहीं है, अंतर्यात्रा है।
वैराग्य का अर्थ होता है : बाहर की दौड़, दौड़ ही है। चलते बहुत हो, पहुंचना कभी नहीं होता, मंजिल कभी नहीं आती। मार्ग बहुत लंबा और बहुत जटिल है, मंजिल कभी नहीं आती। मंजिल तो नहीं आती, मौत आती है। बाहर की दौड़ पर मंजिल का धोखा बना रहता है। और मंजिल के नाम से मंजिल के पीछे छिपी एक दिन मौत आती है। और भीतर की यात्रा में मौत पहले ही घट जाती है। क्योंकि जो मरने को राजी जै, वही आत्मा में प्रवेश करता है।
अंतर्यात्रा में मृत्यु पहले घट जाती है; उसी मृत्यु का नाम संन्यास है। संन्यास मृत्यु की कला है; जीते जी मर जाने का राज। और जो भीतर चलता है, मंजिल के पीछे छिपी अमृत की धार है। मंजिल के पीछे छिपा अमृत है। बाहर मंजिल से मौत धोखा दे रही है।
वो दिन होगा जहां के गम न होंगे
वो दिन जब इस जहां में हम न होंगे
ये नूर-ओ-नार-ओ नग्मा सब रहेंगे
तेरी दुनिया में लेकिन हम न होंगे।
झुके होंगे जो उनके आस्तां पर,
वो कोई और होंगे हम न होंगे। 
फकत यह जानने में उस गुजरी,
वो कैसे और कब बरहम न होंगे।
बहुत होंगे मेरे अरमान पूरे,
मेरे अरमान फिर भी कम न होंगे।
चले हैं ' अश्क' इक्याल-ए-गूनह को
गुनाह उनके मगर यूं कम न होंगे।
यहां चले चलो, दौड़े चलो...। एक वासना पूरी नहीं हो पाती, और दस को जन्म दे जाती है। यहां आदमी भिखमंगे ही रहते हैं और भिखमंगे ही मरते हैं। शाली हाथ आते हैं, खाली हाथ जाते हैं। एक और मजा- आते हैं तब कम-से-कम मुट्ठी बंधी होती है; जाते हैं तब मुट्ठी भी खुल जाती है! यहां जो पास होता है, वह भी लुटाकर लोग जाते हैं। यहां लाल पत्थर' होकर जाते हैं, जब कि यहां पत्थरों को 'लाल' होकर जाना चाहिए।
इन वचनों को पीना; ये वचन रसायन हैं!
ध्यानी नहीं शिव सारसा, ग्लानी सा गोरख।
ररे रमे सूं निसतिरया, कोड अठासी रिख,
लाल कहते हैं : दो सूत्र समझ लेने चाहिए। एक तो ध्यान और एक ज्ञान। ध्यानी नहीं शिव सारसा! शिव जैसा ध्यानी नहीं है। ध्यानी हो तो शिव जैसा हो। क्या अर्थ है? ध्यान का अर्थ होता है : न विचार, वासना, न स्मृति, न कल्पना। ध्यान का अर्थ होता है : भीतर सिर्फ होना मात्र। इसीलिए शिव को मृत्यु का, विध्वंस का, विनाश का देवता कहा है। क्योंकि ध्यान विध्वंस है-विध्वंस है मन का। मन ही संसार है। मन ही सृजन है। मन ही सृष्टि है। मन गया कि प्रलय हो गयी। ऐसा मत सोचो कि किसी दिन प्रलय होती है। ऐसा मत सोचो कि एक दिन आयेगा जब प्रलय हो जायेगी और सब विध्वंस हो जायेगा। नहीं, जो भी ध्यान में उतरता है, उसकी प्रलय हो जाती है। जो भी ध्यान में उतरता है, उसके भीतर शिव का पदार्पण हो जाता है।
ध्यान है मृत्यु- मन की मृत्यु, 'मैं' की मृत्यु, विचार का अंत। शुद्ध चैतन्य रह जाये-दर्पण जैसा खाली! कोई प्रतिबिम्ब न बने।
तो एक तो यात्रा है ध्यान की। और फिर ध्यान से ही ज्ञान का जन्म होता है। जो ज्ञान ध्यान के बिना तुम इकट्ठा करते हो, वह ज्ञान नहीं है, ज्ञान का धोखा है। मिथ्या ज्ञान है। शास्त्रों से, सिद्धातों से, दूसरों से, अन्यों से तुम जो इकट्ठा कर लेते हो, वह ज्ञान नहीं है। ज्ञान तो ध्यान में जन्मता है। ध्यान है शुद्ध बोध। उस बोध में तुम्हें दिखाई पड़ना शुरू होता है। जीवन का अर्थ, जीवन का रहस्य। ध्यान तो है कुंजी, खोल देती है अनंत के द्वार।
ध्यानी नहीं शिव सारसा ग्लानी सा गोरख।
और लाल कहते है :
न तो आज दिखाई पड़ते हैं ध्यानी, जिन्होंने शिव को निमंत्रण किया हो, जो शिव जैसे हो गये हों। है।, शिव की प्रतिमाएं पूजी जा रही हैं। गांव -गांव घर -घर शिव के आराधन, पूजन के आयोजन चल रहे हैं। जितनी शिव की प्रतिमाएं हैं, उसनी तो किसी और की नहीं।
सरल भी है, कहीं से भी गोल पत्थर ढूंढ कर रख दो किसी भी झाडू के नीचे और शिव की प्रतिमा हो गयी। शिवलिंग कहीं से भी ढूंढ लाओ और किसी भी पेड़ के नीचे बिठा दो। छप्पर की भी कोई जरूरत नहीं है।
शिव की जगह-जगह पूजा हो रही है, लेकिन पूजा की वात नहीं है। शिवत्व उपलब्धि की बात है। वह जो शिवलिंग तुमने देखा है बाहर मंदिरों में, वृक्षों के नीचे, तुमने कभी ख्याल नहीं किया, उसका आकार ज्योति का आकार है। जैसे दीये की ज्योति का आकार होता है। शिवलिंग अंतर्ज्योति का प्रतीक है। जब तुम्हारे भीतर का दीया जलेगा तो ऐसी ही ज्योति प्रगट होती है, ऐसी ही शुभ्र! यही रूप होता है उसका। और ज्योति बढ़ती जाती है, बढ़ती जाती है। और धीरे - धीरे ज्योतिर्मय व्यक्ति के चारों तरफ एक आभामंडल होता है; उस आभामंडल की आकृति भी अंडाकार होती है। 
रहस्यवादियों ने तो इस सत्य को सदियों पहले जान लिया था। लेकिन इसके लिए कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं थे। लेकिन अभी रूस में एक बड़ा वैज्ञानिक प्रयाग ची नहा है-किरलियान फोटोग्राफी। मनुष्य के आसपास जो ऊर्जा का मंडल होता है, अब उसके चित्र लिये जा सकते हैं। इतनी सूक्ष्म फिल्में बनाई जा चुकी हैं, जिनसे न केवल तुम्हारी देह का चित्र बन जाता है, बल्कि देह के आसपास जो विद्युत प्रगट होती है, उसका भी चित्र बन जाता है। और किरलियान चकित हुआ है, क्योंकि जैसे -जैसे व्यक्ति शांत होकर बैठता है, वैसे - वैसे उसके आसपास का जो विद्युत मंडल है, उसकी आकृति अंडाकार हो जाती है। उसको तो शिवलिंग का कोई पता नहीं है, लेकिन उसकी आकृति अंडाकार हो जाती है। शांत व्यक्ति जब बैठता है ध्यान तो उसके आसपास की ऊर्जा अंडाकार हो जाता है। अशांत व्यक्ति के आसपास की ऊर्जा अंडाकार नहीं होती, खंडित होती है, टुकड़े -टुकड़े होती है। उसमें कोई संतुलन नहीं होता। एक हिस्सा छोटा- कुरूप होती है।
शिवलिंग ध्यान का प्रतीक है। वह ध्यान की आखिरी गहरी अवस्था का प्रतीक है।
और जिसने ध्यान जाना हो, उसके ही भीतर गोरख जैसा ज्ञान पैदा होता है। संतों की परंपरा में गोरख का बड़ा मूल्य है। क्योंकि गोरख ने जितनी ध्यान को पाने की विधिया हद हैं, उतनी किसी ने नहीं दी हैं। गोरख ने जितने द्वार ध्यान के खोले, किसी ने नहीं खोले। गोरख ने इतने द्वार खोले ध्यान के कि गोरख के नाम से एक शब्द भीतर चल पड़ा है-गोरखधंधा! गोरख ने इतने द्वार खोले कि लोगों को लगा कि यह तो उलझन की बात हो गयी। गोरख ने एक- आध द्वार नहीं खोला, अनंत द्वार खोल दिये! गोरख ने इतनी बातें कह दीं, जितनी किसी ने कभी नहीं कही थीं।
बुद्ध ने ध्यान की एक प्रक्रिया दी है, विपस्सना; बस पर्याप्त। महावीर ने ध्यान की एक प्रक्रिया दी है, शुक्ल ध्यान; बस पर्याप्त। पतंजलि ने ध्यान की एक प्रक्रिया दी है, निर्विकल्प समाधि। बस पर्याप्त। गोरख ने परमात्मा के मंदिर के जितने संभव द्वार हो सकते हैं, सब द्वारों की चाबिया दी हैं।
लोग तो उलझन में पड़ गये, बिगूचन में पड़ गये, इसलिए गोरखधंधा शब्द बना लिया। जब भी कोई बिगूचन में पड़ जाता है तो वह कहता है बड़े गोरखधंधे में पड़ा हूं। तुम्हें भूल ही गया है कि गोरख शब्द कहां से आता है; गोरखनाथ से आता है। गोरखनाथ अद्भुत व्यक्ति हैं। उनकी गणना उन थोड़े -से लप्तेगे में होनी चाहिए-कृष्ण, बुद्ध, महावीर, पतंजलि, गोरख... बस। इन थोड़े - से लोगों में ही उनकी गिनती हो सकती है। वे उन परम शिखरों में से एक हैं।
लाल कहते है : गोरख सा ज्ञानी नहीं हुआ। क्योंकि गोरख ने जिस भांति अपने को मिटाया...।    गोरख कहते हैं :
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरख दीठ।।।
कहते हैं : योगियो, मरो; क्योंकि मरने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। अहंकार को गलाओ, जलाओ, भस्मीभूत कर दो। मरौ हे जोगी मरौ... क्योंकि मृत्यु से ही तुम अमृत पा सकोगे। 
 ... रौ मरण है मीठा। गोरख कहते हैं : इससे बड़ी कोई मीठी अनुभूति नहीं है दुनिया में। अहंकार के जाने पर मिठास ही मिठास छुट जाती है। अहंकार कडुवा है नीम -सा कडुवा हैं। अहंकार जहर है और हम उसी जहर से भरे जीते हैं। उसी को हम जिंदगी कहते हैं। फिर स्वभावत: हमारी जिंदगी मैं अगर सिवाय दुख, पीड़ा और कांटो के कुछ भी नहीं होता तो आश्चर्य नहीं है। फिर अगर हमारा जीवन एक नर्क की कथा ही होती है तो कुछ आश्चर्य नहीं है।
गोरख कहते हैं : मरौ मरण है मीठा! काश, तुम मर सको तो तुम इस जग के अपूर्व मिठास को उपलब्ध हो जाओ! मगर मरने की कला है... तिस मरणी मरो... उस मरण को सीखो... जिस मरणी परि गोरख दीठ।। गोरख भी मरी और मर कर उसने देखा। परपर पाया। मिटकर पाया।
बूंद जब कूप जाती जै तो सागर हो जाती है और बीज जब मिट जाता है तो वृक्ष जो जाता है। फिर आता है वसंत। और खिलते हैं फूल! और पक्षी गीत गाते हैं। और सूरज की किरणें नाचती हैं। और वृक्ष बदलियों से गुफ्तगू करता है। और फिर बहुत कुछ होता है। फिर रास रचता है जीवन का। उत्सव होता है। लेकिन पहले मरना होता है बीज को। 
गोरख मरे। ध्यान में डूबे। गोरख ने पहले शिव को निमंत्रित कर लिया-विध्वंस के देवता को। ध्यान में जाना अर्थात शिव को निमंत्रण देना है कि आओ और मुझे मिटाओ। और जो मिट गया उसके भीतर ज्ञान को जन्म होता है। जो मिट गया, उसके भीतर ज्ञान की धारा उठती है। मुहम्मद मिटे तो कुरान जन्मा। वेद के ऋषि मिटे तो वेद जन्मे। उपनिषद किनसे गाये गये? उनसे गाये गये जो मिट गये थे। ऐसे ही गीता, ऐसे ही बाइबिल, ऐसे ही धम्मपद।
इस जगत में जो भी अनूठे गीत उतरे हैं, वे उनसे उतरे हैं जो बांस की पोली पोंगरी हो गये थे। जिन्होंने अपने को बीच से बिलकुल हटा लिया था। और जिन्होंने कहा परमात्मा को कि तुझे जो गाना होगा, हम बाधा न देंगे। अगर कुछ भूल-चूक होगी तो हमारी होगी, अगर कुछ ठीक होगा तो बस तेरा। सब ठीक तेरा, सब भूलें हमारी।
जो बिलकुल हट गये, उनसे ज्ञान जन्मा। ज्ञान किताबों से नहीं मिलता। ज्ञान अध्ययन से नहीं मिलता। मनन से नहीं मिलता, चिंतन से नहीं मिलता। पाडित्य मिलता है अध्ययन, मनन, चिंतन से। ज्ञान तो ध्यान से मिलता है। इसलिए मौलिक अर्थों में तो ध्यान ही ज्ञान है।
ररे रमे सूं निसितिरया! राम में जो रम जाये, पूरा- का-पूरा,
ऐसा रम जाये कि अलग बचे ही नहीं, न दिन न रात को भेद रह जाये, चौबीस घंटे रमा रहे राम में, क्षण भर की दरी न हो, कण- भर की दूरी न हो- वही साधु है।
कोड़ अठासी रिख...। ऐसे तो करोड़ों साधु -संन्यासी हैं, उनका कोई मूल्य नहीं है। दो कौड़ी भी उनका मूल्य नहीं है। मूल्य है जो ध्यान में उतर जाये और ज्ञान के मोतियों को ले आये। मूल्य उसका है, जो डुबकी मारे ध्यान के सागर में और ले आये मोतियों को भरके। जो शिव में डूबे और गोरख बनकर निकले, मूल्य उसका है।
ररे रमे सूं निसतिरया! राम ही राम रह जाये जिसके जीवन में, दिन और रात एक ही धुन बजे, एक ही गीत उठे-वही साधु है। कोड अठासी रिख...। ऐसे वो फिर करोड़ों साधु हैं। हंसा तो मोती चुगैं, बगुला गार तलाई। और अगर तुम हंस हो तो ऐसे साधु को खोज ही लोगे।
हंसा तो पाती चुगैं!
हंस तो मोती ही चुगते हैं। इसलिए बुद्धों के पास केवल हंस इकट्ठे होते हैं। हर कोई बुद्धों के पास इकट्ठा नहीं जोता। भीड़- भाड़ वो साधु -संतों तथाकथित पंडित-पुजारियों के पास जाती है। भीड़ - भाड़ तो परंपरावादी होती है, रूढ़िवादी जोती है, अंध विश्वासी होती है। भीड़भाड़ तो अंधों के साथ चलती है; क्योंकि खुद अंधे हैं, अंधों से उनका तालमेल बैठता है। अंधों की बातें उन्हें रुचती है, क्यों कि अंधों की बातें उनकी ही भाषा होती है, उनका ही अनुभव होती है। भीड़ - भाड़ तो भेड़ -चाल चलती है। बुद्धों के पास नहीं फटकती।
बुद्धों के पास तो सिर्फ साहसी, जीवन को दाव पर लगानेवाले लोग...'और है कोई लेनेहारा'? ऐसी आवाज की चुनौती को स्वीकार करने वाले लोग... बस थोड़े लोग ही बुद्धों के पास इकट्ठे होते हैं। थोड़े-से ही हंस हैं इस जगत में; बगुलों की भीड़ है।
हंसा तो मोती चुगैं, बगुला गार तलाई। बगुले तो कीचड़ में बैठे रहते हैं। कहीं भी गंदे तालाबों की कीचड़ के पास बैठे रहते हैं। लगते है हंसों जैसे ही हैं। और बड़े भगत भी मालूम होते हैं।
बगुले को देखा? हमारे पास एक शब्द ही बन गया है बगुला भगत। सदियों-सदियों में बगुले को हमने देखा है, बड़े भक्तिभाव से खड़ा होता है। क्या कोई योगी खड़ा होगा! एक ही पैर से खड़ा होना; उसका नाम बगुलासन। बड़ी कठिनाई से खड़े हो पाते हैं। बगुला तो बड़ी सरलता से एक पैर से खड़ा रहता है। योगस्थ! बिलकुल हिलता नहीं डुलता नहीं। थिर, कूटस्थ! मगर इरादे क्या हैं? इरादे हैं कि काई मछली फंसे। इतना जो खड़ा है बिलकुल निस्पंद होकर, वह इसीलिए ताकि जल न हिले। क्योंकि जल हिले तो मछलिया भाग जाती हैं। इतना जो निस्पंद खड़ा है तो इसीलिए कि उसकी छाया जो जल मैं पड़ती है, वह भी न हिले। क्योंकि उसकी छाया हिलती है तो मछलियां भाग जाती हैं; समझ जाती हैं कि भगत जब पास ही हैं।
और देखते हैं, कैसी शुद्ध खादी पहनता है बगुला! बिलकुल सौ प्रतिशत शुद्ध खादी पहनता है! कोई मिश्रित खादी भी नहीं, कि मानव-निर्मित किन्हीं रासायनिक धागों को उसमें जोड़ दिया गया हो। बिलकुल हंस जैसा मालूम होता है। बस हंस जैसा मालूम ही होता है; हंस जैसा कुछ भी नहीं है।
हंस की खूबी क्या है? हंस मानसरोवर की खाज करता है। देखते हो, हमने हंसों की उस नरम झील को, जो दूर हिमालय के पवित्र शांत, अक्षइषत वातावरण में है - 'मानसरोवर' कहा है। सोचकर कहा है, क्योंकि ऐसे ही जो हंस हैं, वे भीतर के मानसरोवर को खोजते हैं - जहां मन समाप्त हो जाता है और चेतना का सागर ही लहराता हर जाता है। जहां मन के सारे दूषण, गंदी हवाएं विदा हो गयी हों और जहां अछूती क्यारी झील रह जाये -मानसरोवर उसी का नाक है। वह तुम्हारे भीतर है।
हिमालय के पहाड़ तुम्हें भी अपने भीतर चढ़ने होंगे, तो ही तुम उस मानसरोवर को खोज पाओगे। और वहां मोतियों से ही, मोतियों से भरी है झील। मोती ही हंस के योग्य हैं। इस संसार से जो तृप्त हो जाता है, समझ लेना कि बगुला है। कीचड़ से तृप्त हो गया, कमल से पहचान ही न हुई।
हंसा तो मोती चुगैं बगुला गार तलाई। 
हरिजन हरिसू यूं मिल्या, व्यू जल में रस भाई।।
और जैसे जल में जाता है, ऐसे ही हरिजन वही है जो हरि से मिल गया।
महात्मा गांधी  ने शूद्रों को हरिजन कहकर शूद्रों की प्रतिष्ठा बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन एक बात भूल गये कि  'हरिजन' शब्द की प्रतिष्ठा खो गयी। शूद्रों की बढ़ी कि नहीं प्रतिष्ठा, कहना मुश्किल है। क्योंकि क्या फर्क पड़ता है, तुम चाहे शूद्र कहो, अछूत कहो, चाहे हरिजन कहो, बात वही की वही है। पहल लोग शूद्रों को मार रहे थे, अब हरिजनों को मार रहे हैं। पहले लोग शूद्रों के विरोध में थे, अब हरिजनों के विरोध मैं हैं। उससे क्या फर्क पड़ता है? नाम बदलने से कहीं कुछ फर्क पड़ता है? लेकिन अक्सर हम ऐसे ही ऊपर के रूपांतरण को बड़ी क्रांतिया समझ लेते हैं, कि गांधी ने गलत किया कि शूद्रों को हरिजन कह दिया!
लेकिन हरिजन बड़ा कीमती शब्द है। यह तो बुद्धों के लिए उपयोग किया जाता है-जों हरि में रम रहे। इसको राजनीति में घसीटकर, इसको समाज की क्षुद्र समस्याओं में घसीटकर इस बहुमूल्य शब्द को नष्ट कर दिया। अब अगर कहो कि बुद्ध हरिजन हैं, तो लोगों को शक होगा कि क्या शूद्र हैं? कहो कि कबीर हरिजन हैं, कृष्ण हरिजन हैं, तो लोग नाराज हो जायेंगे, मुकदमे चलाने कि मैंने कृष्ण को हरिजन कहा। क्योंकि हरिजन का अर्थ ही खराब कर दिया! एक परम पावन शब्द को आकाश से उतार कर धूल में गिरा दिया! ले आये मानसरोवर का शब्द और डाल दिया गांव की कीचड़ में, किसी गंदे तालाब के किनारे। हरिजनों का तो कुछ लाभ नहीं हो गया। हरिजन तो वही के वही हैं। हरिजन कहो या कुछ कहो, नामों से कहीं फर्क पड़े हैं?
लेकिन नामों से धोखे पैदा हो जाते हैं। हम गलत चीजों को ठीक -ठीक नाम दे देते हैं और धोखा खा लेते हैं। कोई मर जाता है तो हम कहते हैं 'महायात्रा'। अब महायात्रा कहने से कुछ फर्क पड़ता है? कोई फर्क नहीं पड़ता। मृत्यु तो है, तुम चाहे महायात्रा कहो। दिल्ली में जो मरते हैं, उनको भी हम कहते है 'स्वर्गीय '। अगर दिल्ली में करने मृत्यु वाले लोग भी स्वर्गीय होते हैं तो नर्क खाली पड़ा होगा! फिर नर्क का क्या होगा? नर्क में बड़ी बेकारी होगी; शैतान और उसके शिष्य, सब बैठे ठाले होंगे, बेकार बैठे होंगे। कुछ काम नहीं कुछ धाम नहीं। स्वर्ग का मजा ले रहे होंगे क्योंकि विश्राम कर रहे होंगे, और काम ही क्या है? जो मरा, उसको हम स्वर्गीय कहते हैं। स्वर्गीय कहते हैं। स्वर्गीय कहकर हम ढांक लेते हैं। हम शब्दों में बड़े जादूगर हैं।
और हम शब्दों से किसको धोखा दे रहे हैं? काटे को गुलाब कहोगे तो कांटा गुलाब हो जायेगा? काटा तो कांटा ही रहेगा। गुलाब कह देने से सिर्फ तुम धोखा खाओगे। और आज नहीं कल तुम्हारे ही हाथ में काटा चुभेगा। तड़फोगे तब। और गुलाब कहोगे तो तो चुभेगा ही। क्योंकि गुलाब को तोड़ने जाओगे और काटा तोड़ लोगे। लेकिन हम अच्छे शब्द उपयोग करने की कोशिश करते हैं। सत्य तो वैसे के ही वैसे बने रहते हैं।
महात्मा गांधी ने 'हरिजन' जैसे शब्द को बिलकुल विकृत कर दिया। इससे दोहरे धोखे पैदा हुए। अछूत को लगा कि वह हरिजन है, अछूत नहीं। है वह वही का वही। न मंदिर में प्रवेश है। न कुएं पर पानी भर सकता है। न ब्राह्मण की बेटी से विवाह कर सकता है। न बनिये की दुकान पर बैठकर चिलम पी सकता है। वही का वही है, मगर हरिजन की अकड़ आ गयी। वह सोचता है : मैं हरिजन हूं! कहां हम उनको हरिजन कहते थे जो पा गये राम को; जो पहुंच गये राम को। बहुत थोड़े -से लोगों को हम हरिजन कहते थे।
गांधी ने शब्द को विकृत कर दिया। हरिजनों का धोखा हो गया और हिंदुओं को धोखा हो गया कि अच्छा शब्द दे दिया, अब और क्या चाहिए! लगा दिया लेबल अच्छा, अब और क्या चाहिए! अब इतने से तृप्त हो जाओ। दशा वही, दीनता ही, दुख वही, पीड़ा वही...। शब्दों से जरा सावधान रहना चाहिए!
हरिजन हरिसू यूं मिल्या...। हरिजन तो वह है, जो हरि से इस भांति मिल गया, जैसे जल में जल को डाल दो और दानों जल एक हो जायें; जैसे नदी सागर में उतरे और एक हो जाये। जो राम से ऐसा मिल गया। जो हरि के साथ एक हो गया। सिर्फ बुद्ध पुरुषों को ही हरिजन कहा जा सकता है। ब्राह्मण भी हरिजन नहीं हैं, शूद्र तो होते। ब्रह्म को जानते तो हरिजन होते। ब्राह्मण भी ब्राह्मण नहीं है, न हरिजन है। तो शूद्र तो क्या हरिजन होंगे! कभी- कभी कोई विरला व्यक्ति हरिजन हो पाता है।
हमको दुश्नाम की खू है, तू मगर देख कहीं
शहद होंठों का तेरे जहरे -हलाहिल न बने।
तुन्दी-ए -शौक में तुफान से लड़ने वाले,
मसलहतकोशी-ए -साहिल तेरी मंजिल न बने।
जिस सफीने के मुकद्दर में तलातुम ही नहीं
वो शनासा-ए -रमूज -ए -लब -ए -साहिल न बने।
चारा-ए -दर्द -ए-जिगर, मरहम -ए - आजार बने
जो नजर तेरी खूदा-रा सम्म-ए- कातिल न बने।
हाय क्या दौर है, पहलू में धड़कती हुई शै
संग या खार बने दर्द - भरा दिल न बने।
अपनी किस्मत को सराहे या गिला करते रहे
जो कभी तीर -ए -नजर का तेरे घायल न बने।
जो परमात्मा की आंख  से घायल होता है, जो कभी उसके तीर से घायल होता है, वह हरिजन है। जो कभी तीर -ए-नजर का तेरे घायल का न बने! जो खोल देता है अपने हृदय को परमात्मा के लिए। कठिन है, बात तो कठिन है। बात आसान नहीं है। तूफानों से लड़ना होगा। और साहिल से, किनारों से समझौता करना छोड़ना होगा।
तुन्दी-ए -शौक में तूफान से लड़ने वाले
मसलहतकोशी-ए -साहिल तेरी मंजिल न बने।
कहीं ऐसा न हो कि आज जो तू तूफान से लड़ने निकला है, जो तेरे भीतर शौक पैदा हुआ तूफान से लड़ने का। जो एक पुकार उठी है, चुनौती ली है तूफान से लड़ने की-कहीं ऐसा न हो कि जल्दी तू भी किनारे से समझौता कर ले! किनारे की सुविधाएं हैं। किनारे की सुरक्षाएं हैं। किनारे की राहतें हैं। और इसीलिए तो अधिक लोग किनारों के साथ समझौता कर लिए हैं। धर्मों के साथ, मंदिरों और मस्जिदों के साथ, पंडित -पुरोहितों के साथ तुम्हारे समझौते, तूफान से बचने की तरकीबें हैं। तुमने अपनी नाव किनारों से बांध दी है, खूब जंजीरों से बौध दी है।
निश्चित ही किनारों से बंधे रहोगे तो नाव डूबेगी नहीं। लेकिन नाव का डूबना न, अपने - आप में कोई मूल्य तो नहीं। नाव डूबे न, इतने के लिए ही तो नाव नहीं। नाव तो तिरने के लिए है; तिसे तो कुछ अर्थ है। और जिसे तिरना है, उसे तूफानों से टक्कर लेना सीखना ही होगा। और बिना तूफानों के कोई नाव नाव है? और बिना तूफानों की टक्कर लिए कोई नाव कभी मजबूत होती है? कोई प्राण कभी मजबूत होते हैं?
जिस सफीने के मुकद्दर में तलातुम ही नहीं
तो शनासा-ए -रमूज-ए -लब -ए -साहिल न बने।
जिस नाव की जिंदगी में तूफान नहीं है, जिस नाव के भाग्य में तूफान नहीं है, वह अभागी है। और स्वभावत: जो किनारों से बंधकर बैठ गये हैं, उनसे ज्यादा अभागे लोग और नहीं हैं, क्योंकि दूसरा किनारा तो उन्हें मिलेगा ही नहीं। दूसरा किनारा, जो कि परमात्मा है। और जो किनारों से बंधकर बैठ गये हैं, वे डूबेंगे ही नहीं। जल से जल कभी मिलेगा ही नहीं। हरिजन का उनके भीतर जन्म नहीं होगा।
जुरा मरण जग जलभ पूनि, अएए जग द्य घणाई।
चरण सरेवा राजस, राख लेव शरणाई।।
लाल कहते हैं अपने गुरु से, जब गुरु ने पुकार दी- 'और है कोई लेनेहारा? '-तो लाल कहते हैं कि जुलू मरण... दिखाई पड़ गया मुझे कि बुढ़ापा है, फिर मौत है, फिर - फिर आना है। यही चक्कर है जन्म का और मरण का। और यह जीवन सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं है। उसे एक पुकार में दिख गया! यह देख कर ही कि गुरु अपने हाथ से कब्र में उतर रहा है-बुद्धि जिसके पास भी होती, उसको भी दिखाई पड़ जाता कि इस जगत में पाने योग्य कुछ भी नहीं है। इस जगत में अगर मरने की कला आ
गयी तो सब आ गया।
जुरा मरण जग जलभ पुनि! यहां है ही क्या? बुढ़ापा है, बीमारी है, दुख हैं, चिंताएं हैं, संताप हैं। फिर मौत है, फिर जन्म; और फिर वही सिलसिला है। बड़ा दुख है इस जीवन में। चरण सरेवा राजस! कहते हैं गुरु को : मुझे चरण छू लेने दो! इसके पहले कि तुम विदा हो जाओ, मुझे चरण छू लेने दो। चरण सरेवा राजस, राख लेव शरणाई।
जाने के पहले मुझे शरण दे दो। मिटने के पहले मुझे भी मिटा दो। तुम्हारी समाधि मेरी समाधि भी बन जाये। तुम्हारी मौत मेरी मौत भी बन जाये। बस एक ही आकांक्षा तुमने जगा दी कि तुम्हारे चरण छू लूं।
सदगुरु के चरण छूना ही पर्याप्त है। मगर हमारे मुल्क में तो चरण छूना औपचारिकता हो गयी है। तुम तो जहां जाओ वहीं हर किसी के चरण छूते हो। चरण छूना एक शिष्टाचार हो गया है। शिष्टाचार के कारण चरण छूने का जो राज था वह खो गया। चरण छूने का जो अपूर्व अर्थ था, वह खो गया। जैसे हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हैं, ऐसे ही बड़ा बुजुर्ग कोई मिला, उसके चरण छूकर नमस्कार कर लेते हो : चरण छू लेते हो, मगर सिर झुकता नहीं। चरण छू लेते हो, मगर अहंकार झुकता नहीं। इसलिए लाल कहते हैं कि मुझे अपने पर भरोसा नहीं है। तुम्हारी ही कृपा हो तो मैं तुम्हारे चरण छू पाऊं। मैं तो छू रहा हूं मगर दो आशीर्वाद कि यह छूना सार्थक जो पाये। दो आशीर्वाद कि सच में छू पाऊं। कहीं हाथ ही चरण न छुए, मेरे प्राण भी छू लें।
चरण सरेवां राजस राख लेव शरणाई।
इतनी ही विनती है कि अपनी शरण में मुझे ले लो। बुद्धं शरणं गच्छामि! संघं शरणं गच्छामि! धम्मं शरणं गच्छामि!
लाल कहते हैं : ले लो मुझे अपनी शरण में। तुम हो बुद्ध, तुम्हारा एक घूंट पी लूं तो बस काफी। तुम्हीं हो मेरे संघ! तुम्हीं हो मेरे धर्म! तुमने मेरे भीतर एक पुकार उठा दी है। तुमने मुझे जगा दिया। अब मुझे छोड़ मत देना!
क्यूं पकड़ो हो डालिया, नहचै पकड़ो पेड़।
'गउवां सेती निसतिरो, के तारैली भेड़।।
कहते हैं : लोगों को मैं देखता हूं तो डालिया पकड़ने से क्या हो? क्यों नहीं जड़ पकड़ी जाये? क्यों नहीं पेड़ का प्राण पकड़ा जाये? अब तुम मिल गये मुझे-पेड़ के प्राण; मिल गये तुम जड़- अब तुम्हें छोडूंगा नहीं।
लोग सिद्धातों को पकड़ रहे हैं-कोई हिंदू कोई मुसलमान, कोई ईसाई। अरे पागलो! किसी जीसस को पकड़ो। किसी कृष्ण को पकड़ो! हिंदू होने से क्या खाक होगा? मुसलमान होने से क्या होगा? किसी मुहम्मद को पकड़ो। कहीं जहां ज्योति जलती हो, जहां अलख जगा हो, उन चरणों का पकड़ो।
और यह भी खयाल रखना, तुम नहीं पकड़ पाओगे। तुमने अब तक गलत ही गलत किया है। इसलिए यह भी प्रार्थना कर लेना कि मैं तुम्हारे पैर पकडूं? मुझे पकड़ लेने दो। मुझे पकड़ा दो। हाथ लेकर मुझे पकड़ा दो।
' गउहां सेती निसतिरो, के तारैली भेड़।।
बड़ा प्यारा वचन है! अगर नदी को तैरना हो तो गऊ की पूंछ पकड़ कर कोई तैर सकता है। लेकिन भेड़ कि पूंछ अगर पकड़ ली, तो डूबोगे। तुम भी डूबोगे, भेड़ तो डूबने ही वाली है। अगर किसी के साथ तिरना हो तो किसी को पकड़ो -किसी बुद्ध को, किसी महावीर को, किसी जरथुस्त्र को, किसी कबीर को, किसी नानक को। क्या भेड़ों को पकड़ रहे हो!
भेड़ प्रतीक है भीड़ का। भीड़ की चाल भेड़ -चाल है। पंडित -पुरोहित तुम्हारे जैसे ही अंधे हैं। उनके पास भी आंख  नहीं है। और उनको तुम पकड़े हो! नानक कहते हैं : अंधा अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़त। अंधे अंधों को ठेल रहे हैं  ! अंधे अंधों का मार्गदर्शन कर रहे हैं। दोनों कुएं में गिर रहे हैं, गिरेंगे ही। कब तक बचेंगे? कहां तक बचेंगे? मगर कतारें हैं। तुम अपने से आगे वाले को पकड़े हो। तुमसे आगे वाला उससे आगे वाले को पकड़े है। अगर मैं तुमसे पूछूं कि तुम हिंदू क्यों हो, तो तुम कहते हो : मेरे पिता हिंदू मेरी मां हिंदू। उनसे पूछो कि वे हिंदू क्यों हैं? वे कहते हैं : हमारे पिता हिंदू थे, हमारी मां हिंदू थी।
ऐसे तुम परंपराग्रस्त, रूढ़िग्रस्त, अंधविश्वास से भरे - सोचते हो किसी दिन परमात्मा को उपलब्ध हो सकोगे, उस पार जा सकोगे? किसी जलते हुए दीये का सहारा लो। ये बुझे दीये काम न आयेंगे। और मंदिर -मस्जिदों में बुझे दीये हैं। किसी सदगुरु को पकड़ो। मगर सदगुरु को पकड़ना हिम्मत का काम है। पंडित -पुरोहितों को, तथाकथित साधु- संन्यासियों को। जिनको लाल कहते हैं कोड अठासी रिख; करोड़ों ऋषि -मुनि घूम-फिर रहे हैं-इनको पकड़ना आसान है। क्यों? क्योंकि वे तुमसे कुछ जीवन का रूपांतरण करने के लिए नहीं कहते। और कहते भी हैं तो ऐसी क्षुद्र बातों का रूपांतरण करवाते हैं कि जिनका कोई मूल्य नहीं।
कोई कहता है पान खाना छोड़ दो। कोई कहता है कि बीड़ी न पियो। कोई कहता है रात भोजन न करो। कोई कहता है पानी छानकर पियो। ये कोई क्रांतिया हैं? पानी छानकर भी पिया तो तुम सोचते हो राम मिल जायेंगे? इतने से, बस पानी छानकर पी लेने से? और मैं नहीं कह रहा हूं कि पानी बिना छाने पीना, ख्याल रखना। छान कर पियो; स्वास्थ्यप्रद है, लेकिन इससे राम के लेने-देने का क्या है? और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि खूब दिल खोलकर बीड़ी-सिगरेट पीने लगना। लेकिन इतना मैं तुमसे कहूंगा कि बीड़ी-सिगरेट न पियो तो यह मत सोचना कि स्वर्ग में तुम्हारे लिए कोई उत्सव मनाया जायेगा, कि स्वर्ग के द्वार पर परमात्मा खड़ा फूल- मालाएं लिए स्वागत करेगा, जब तुम पहुंचोगे, क्योंकि तूमने कभी बिडी नहीं पी। जरा सोचो भी तो, अगर परमात्मा तुमसे पूछेगा, तुमने किया क्या? तो तुम्हारे पास यही होगा बताने को की बीड़ी नहीं पी! बात ही बेहूदी लगेगी। बात ही भद्दी लगेगी।
किस मुंह से कहोगे? और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बीड़ी पियो। मेरी बात को गलत मत समझ लेना। बीड़ी न पीना समझदारी है। बीड़ी पीना नासमझी है। लेकिन धर्म से क्या लेना-देना? बीड़ी पीनेवाला मूड है, पापी नहीं। मूड है क्योंकि नाहक धुएं को बाहर - भीतर करता है। वैसे ही हवाओं में अब काफी धुआ है।
अब तुम्हें बीड़ी इत्यादि पीने के जरूरत नहीं है। अब तुम बीड़ी पी ही रहे हो। धूम्रपान चल ही रहा है। न्यूयॉर्क या बंबई जैसे नगरों में हवा इतने धुएं से भरी है कि तुम श्वास ले रहे हो, यह धूम्रपान हो रहा है! अब न्याउयॉर्क में धूम्रपान किये बिना रहा ही नहीं जा सकता। हरेक आदमी धूम्रपान कर रहा है, अनजाने ही। हवाओं में इतना धुआ है कि वैज्ञानिक कहते हैं कि हमें आशा नहीं थी कि आदमी के फेफड़े इतने धुएं को झेल सकेंगे। तीन गुना ज्यादा है मनुष्य की झेलने की क्षमता से। क्योंकि कारें हैं और फैक्ट्रिया हैं और ट्रेनें हैं, और हवाई जहाज हैं। और सब तरह के उपद्रव हैं। अब तुम सिगरेट-बीड़ी पियो या न पियो...।
मगर, जो नहीं पीता, बुद्धिमान है। मगर बुद्धिमानी...। यह तो ऐसा ही हुआ, तुम पैर के बल चलते हो। यह बुद्धिमानी है। तुम चारों हाथ -पैर से चलने लगो तो यह नालायकी होगी। लेकिन फिर तुम परमात्मा से यह नहीं कह सकते कि मैं दो पैर से चलता था, चार हाथ -पैर से नहीं चलता था, तो मुझे स्वर्ग मिलना चाहिए। दो पैर से चलना कोई पुण्य नहीं है, समझदारी है।
और तुम्हारे साधु -संन्यासी तुमसे छुड़वाते क्या हैं? इस तरह की बेहूदगियो को अणु -व्रत कहा जाता है, छोड़ो कुछ, व्रत ले लो। बड़ा नहीं, कुछ छोटा ले लो। महाव्रत महात्मा लेते हैं, तुम अणु -व्रत ही ले लो, चलो छोटा सही। अणु -व्रत भी खूब मजेदार लोग लेते हैं! कोई कहता है कि सप्ताह में एक दिन नमक नहीं खायेंगे। जैसे परमात्मा नमक का दुश्मन है! मैं तुमसे कहता हूं : परमात्मा मीठा भी बहुत नमकीन भी बहुत।... कि कोई कहता है एक दिन घी नहीं खायेंगे। क्या-क्या उपद्रव तुमने बना रखे हैं! मगर ये बातें सस्ती हैं, सुगम हैं। इनको कोई भी कर सकता है। इनको करने के लिए थोड़ी बुद्धिहीनता चाहिए बस- थोड़ा बुद्धपन! उतनी योग्यता हो तो इस तरह की बातें कोई भी कर सकता है। इस तरह की बातें जो लोग तुमसे करवा लेते हैं, वे अच्छे लगते हैं। सस्ते में निपटा दिया। परमात्मा पक्का हो गया। मोक्ष निश्चित हो गया। अब बस दिल में आशाएं कर रहे हैं कि पान छोड़ दिया, तमाखू भी छोड़ दी, एक दिन नमक भी नहीं खाते, रात भोजन भी नहीं करते। पानी भी छान कर पीते हैं। अब दिल ही दिल में बैठे सोच रहे हैं कि उर्वशी स्वर्ग में मिलेगी या नहीं? अब और क्या चाहिए साधुता के लिए? अब दिल ही दिल में सोच रहे हैं कि अहा, झरने बहते हैं वहां  शराब के! अगर शराब की आदत हो तो ख्याल रखना। जब स्वर्ग के दरवाजे पर पूछा जाये तुमसे कि कौन से स्वर्ग जाना चाहते हो? फौरन कहना : मुसलमानों के स्वर्ग में प्राहिबिशन हो ही नहीं सकता, क्योंकि वहां झरने ही शराब के हैं। वहां  पानी कोई पीता ही नहीं। पानी भी, कहां जमीन की बातें तुम स्वर्ग में उठा रहे हो! पानी भी कोई पीने की चीज है! वहां  पीने वाले पीने वाली चीज पीते हैं। और वहां  कोई ऐसा नहीं है कि कुल्हड़ में पी रहे हैं- नदियों में डुबकी मार रहे हैं! तुम सोच-समझ कर चुनना। हिंदुओं के स्वर्ग के ३अप।ने मजे हैं। मुसलमानों के स्वर्ग के अपने मजे हैं। यहूदियों के स्वर्ग के अपने मजे हैं। ऐसी ही नर्कों की भी हालत है।
मैंने सुना है एक आदमी, था तो भारतीय, लेकिन जीवनभर रहा जर्मनी में। जब मरा तो नर्क के द्वार पर उससे पूछा गया कि तुम किस नर्क में जाना चाहते हो? क्योंकि तुम्हारे संबंध है। पैदा तुम भारत में हुए, रहे तुम जर्मनी में, तो तुम्हारे लिए विकल्प है। तुम चुन सकते हो : या तो जर्मनों का नर्क या भारतीयों का नर्क।
आदमी सोच-विचार वाला था, उसने पूछा कि दोनों में फर्क क्या है? उन्होंने कहा : फर्क... फर्क तो कुछ भी नहीं है। दानों में आग में जलाये जाओगे। दोनों में मार पड़ेगी। दोनों में पीटे -कुटे जाओगे। दोनों में सताये जाओगे। सब एक -सा ही है। कोई फर्क नहीं है।
उसने पूछा : फिर चुनाव के लिए क्यों पूछते हो? उसने कहा : तुम मेरी सलाह अगर लेते हो, तो थोड़े -से फर्क हैं। जैसे भारतीय नर्क में किसी दिन माचिस ही नहीं मिलती। माचिस भी तो लकड़ी नहीं जलती... गीली लकड़ी। मगर जर्मन नर्क में ऐसी भूल-चूक नहीं होती। भारतीय नर्क में मारने वाले सो जाते हैं, झपकी खाते हैं। जर्मन नर्क में ऐसा नहीं होता। भारतीय नर्क में हर आये दिन छुट्टी होती है -कभी रामनवमी, कभी कृष्णाष्टमी, कभी महावीर जयंती, की गांधी  जयंती... कोई अंत ही नहीं है। तीन सौ पैंसठ दिन में करीब -करीब आधे दिन छुट्टियों में निकल जाते हैं। जर्मन नर्क सिर्फ रविवार को बंद रहता है, मगर रविवार को जर्मन नर्क के जो कर्मचारी हैं, वे अभ्यास करते हैं; छोड़ते नहीं। तुम्हारी मर्जी, जो भी चुनना हो।
उसने कहा कि मुझे एकदम भारतीय नर्क में भेजो। तो तुम भी अगर जाओ-कभी-न-कभी जाओगे ही। तो थोड़ा सोच-समझ लेना। हर नर्क हर स्वर्ग की अपनी सुविधाएं - असुविधाएं हैं। और लोग छोटे -छोटे त्याग किये बैठे हैं और सोच रहे हैं बड़ी। बड़ी आशाएं कि उर्वशी थाल सजाये खड़ी होगी। थोड़े दिन की और है मुसीबत, गुजार लो; थोड़े दिन और पानी छानकर पी लो-फिर तो उर्वशी ही उर्वशी। थोड़े दिन और तमाखू न खाओ।
बैकुंठ में तबाखू चलती है। पुराने शास्त्रों में लिखा है ताम्बुल-चर्वण। और पान इत्यादि भी चलते हैं। विष्णु भगवान  बैठे रहते हैं और लक्ष्मी जी पान बनाती हैं।
तुम सोच लेना।
और इसी तरह के लोग हिसाब लगा रहे हैं। इसलिए अंधों के पीछे चलना सुगम हो जाता है, क्योंकि अंधे तुम्हें सब तरह की सुविधाएं देते हैं। किसी सदगुरु के साथ चलोगे तो कठिनाई होगी, क्योंकि वह असली जीवन को बदलने की चेष्टा करता है; ये नकली बाहर की बातों को बदलने की नहीं। तुम्हारी चेतना को बदलने की चेष्टा करता है। तुम्हारे व्यवहार को नहीं, तुम्हारे चरित्र को नहीं छूता; तुम्हारे अंतस्तल को रूपातरित करता है।
क्यूं पकड़ो हो डालिया, नहचै पकड़ो पेड़।
'गउवां सेती निसतिरो, के तारैली भेड़।।
कहीं भेड़ों को पकड़कर कोई पार हुआ है! ऐसे ही डूबोगे, बुरे डूबोगे। समय रहते जाग जाओ। किसी तैराक का साथ करो। किसी उसको, जो उस पार हो आया हो। किसी उसको जो उस पार से जाकर लौटा हो और बुलाने आया हो और पुकार देने आया हो- और है कोई लेनेहारा?
साधां में अधवेसरा, व्यू घासां में लांप।
जल बिन जोड़े क्यूं बड़ो पगां बिलूमै कांप।।
साधुओं में ऐसे बहुत से हैं-अधवेसरा, आधे - आधे, अधूरे, कुनकुने; इनसे बचना। ये न यहां के न वहां  के। न घर के न घाट के। ये धोबी के गधे हैं! ये न संसार के हैं और न परमात्मा के; ये बीच में अटक गये हैं। ये त्रिशंकु हैं। साधां में अधवेसरा, ज्यू घासी में लीप। घास में ऐसी घास भी उगती है, जिसको जानवर भी नहीं खाते। वह कहने भर की घास है। तुम भैंस को छोड़ दो घास में, तुम चकित होओगे : वह कुछ घास खाती है, कुछ छोड़ देती है। वह जो भैंस छोड़ देती है घास, वह भी घास जैसा ही मालूम पड़ता है, लेकिन घास है नहीं। सिर्फ आभास भर है। ऐसे ही कुछ साधु हैं, जो साधु जैसे मालूम पड़ते हैं लेकिन साधु नहीं हैं। अभी भीतर ज्योति नहीं जली है; उसके बिना कैसी साधुता? अभी वे भी तुम्हारी ही तरह अंधेरे में टटोल रहे हैं। तुम दो बार भोजन करते हो, वे एक बार भोजन करते हैं। चलो इतना फर्क माना। तुम सिनेमा देख आते हो, वे सिनेमा नहीं देखते; मगर आंख  बंद करके वे जो देखते हैं वह सिनेमा से बदतर है। तुम जरा साधुओं से पूछो तो कि जब आंख  बंद करके बैठते हो तो क्या देखते हो? अगर वे ईमानदार हों, जरा भी ईमानदार हों, तो वे वही फिल्में देखते हैं जो तुम फिल्मों में बैठ कर देखते हो, कुछ फर्क नहीं है। वही कहानियां!
उनसे पूछो, उनके सपने क्या हैं? और उनके सपने वैसे ही हैं, शायद तुमसे भी ज्यादा भद्दे, बेहूदे। इसलिए साधु सोने तक से डरने लगते हैं, क्योंकि दिन में तो किसी तरह सम्हाले रखते हैं अपने को, मगर रात नींद में कैसे सम्हालेंगे? नींद में दिनभर का सम्हाला हुआ बांध टूट जाता है, सब संयम उखड़ जाता है। दिन - भर ब्रह्मचर्य, रात सपने में कामवासना उभर आती है। दिन- भर त्याग-तपश्चर्या, रात सपने में देखते हैं सम्राट हो गये। दिन से बिलकुल उल्टा होता है रात का सपना। और मैं तुमसे इतना कहता हूं क्योंकि साधुओं ने मुझे निकट से कहा है; साधुओं को मैंने निकट से परखा है, जाना है, अवलोकन किया है। तुम्हारे सपने इतने रंगीन नहीं होते जितने साधुओं के होते हैं। तुम्हारे सपने इतने रंगीन हो ही नहीं सकते।
क्यों? किसी दिन उपवास करके देखो, तब रात में तुम्हें भोजन का मजा आएगा। तब रात में तुम्हें राज- भोज... एकदम राजा का निमंत्रण...। न अब राजा हैं न राजभोज होते हैं, मगर निमंत्रण तुम्हें राजा का मिलेगा। तुम्हारे नासापुट सपने में सुस्वादु भोजन की गंध से भर जाएंगे। तुमने कहानियों में पढ़े हैं छप्पन प्रकार के व्यंजन, वे सब तुम सपने में करोगे। अगर रूखी-सूखी रोटी दिन में खा ली होती तो यह सपना नहीं आता; जरूरत ही न रहती-रूखी-सूखी रोटी भी शरीर की तृप्ति कर जाती है; लेकिन शरीर तडूफ रहा है, बेचैन हो रहा है, प्यास से भरा है तो सपना पैदा होता है।
सपना, तुम जो भी दबाते हो, उसी की अभिव्यक्ति है। और चूंकि तुम्हारे साधु सर्वाधिक दबाते हैं उनके सपने बहुत रंगीन होते हैं। तुम्हारे सपने तो ऐसे समझो कि पुराने किस्म की फिल्में, बस काली और सफेद। और साधुओं के सपने टैष्पीकलर-बडे रंगीन! भी डायमेंशनल। तुमने जो ये कहानिया पढ़ी हैं कि ऋषि -मुनियों को सताने के लिए इंद्र अप्सराएं भेजता है, न कहीं कोई इंद्र है, न कहीं कोई अप्सराएं हैं। और किसी को क्या पड़ी है कि इन बेचारे गरीब ऋषि -मुनियों को जो बैठे अपने झाडू के नीचे, न किसी को सता रहे, न किसी को परेज्ञान कर रहे, जो सूख रहे सिर्फ अपने झाडों के नीचे बैठे, आत्महत्या कर रहे जो झाडों के नीचे बैठे-इनको सताने के लिए अप्सराएं भेजे! किसको पड़ी है? अप्सराएं खोजे-खोजे से नहीं मिलतीं और झाडू के नीचे बैठ गये आंख  बंद करके और अप्सराएं आने लगीं...! ये अप्सराएं आती नहीं है; ये ऋषि -मुनियों की दमित की गयी वासनाएं हैं, जो इतने दमित की गयी हैं कि अब वे खुली आंख  भी सपना देख सकते हैं।
यह मनोविज्ञान का एक बुनियादी सत्य है कि अगर तुम तीन सप्ताह तक एकात में जाकर बैठ जाओ, तो फिर तुम खुली आंख  से सपना देख सकते हो, बंद आंख  करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्योंकि अकेले बैठे -बैठे करोगे क्या? तीन सप्ताह एकात में बैठे -बैठे तुम खुद से ही बात करने लगोगे। कभी-कभी तुम करते भी हो अपने बाथरूम में, खुद से ही बात। और कभी-कभी सड्कों पर लोगों को भी तुम देखोगे कि बात करते जा रहे हैं, हाथ से इशारा कर रहे हैं, कुछ गुफ्तगू चल रही है किसी से, कोई हैं नहीं साथ उनके। और ये कोई पागल नहीं हैं। तुम्हारे जैसे ही लोग हैं। पागल जरा और आगे चले गये कि वे दिल खोलकर बातें कर रहे हैं; खुद भी जवाब देते हैं। खुली आंख  तुम्हें कोई नहीं दिखाई पड़ता, लेकिन उनके पास कोई बैठा है जो उनको दिखाई पड़ता है। वही हालत उनकी हो जाती है जो दमन करते हैं।
दमन अगर करोगे तो धीरे - धीरे तुम हेलूसिनेशेन, एक तरह के विभ्रम में पड़ोगे। नहीं कोई अप्सराएं आकाश से उतरती हैं, नहीं कोई इंद्र का सिंहासन डावाडोल होता है। न कोई इंद्र है। लेकिन तुम्हारा मन... और तन को अगर ठीक से न समझा और भेड़ों के पीछे चले, जिनको खुद भी मन का कोई पता नहीं है -तो तुम तड़फोगे, तुम व्यर्थ तड़फोगे!
साधां में अधवेसरा, व्यू घारां में लांप।
जल बिन जोड़े क्यू बड़ो, पगां बिलूमै कांप।।
जरा सम्हलों। कीचड़ से भरे तालाब में उतरोगे, कीचड़ से सन जाओगे। जिसके चरणों में झुकों, जरा समझो, जरा पहचानो। कोई मानसरोवर खोजो, नहीं तो कीचड़ में पड़ जाओगे। किसी बगुले के साथ दोस्ती कर ली तो कीचड़ में पड़ोगे। और बगुले बहुत हैं और बगुले बड़े अभ्यासी हैं; बड़े चरित्र का आवरण बनाकर रखते हैं! उस आवरण के बिना बगुले जी नहीं सकते। हंसों को चरित्र का आवरण बनाने की जरूरत नहीं होती; वह उनकी सहजता होती है; वह उनका स्वाभाविक, स्वस्फूर्त रूप होता है।
हुलका झीणा पातला, जमीं सू चौड़ा।
सदगुरु कौन? एक विरोधाभास है सदगुरु। हुलक। झीणा पातला! हल्का है, इतना कि पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण उसे खींच नहीं जाता। चलता है जमीन पर और जमीन से उसके पैर नहीं छूते। हुलक। झीणा पातला! इतना महीन है, इतना सूक्ष्म है कि अगर तुम स्थूल हिसाब से नापोगे तो कभी नहीं पहचान पाओगे। स्थूल हिसाब से नापने वाला चूक, जाएगा।
जैसे कोई बुद्ध के पास गया। अब अगर स्थूल हिसाब लेकर गया तो बुद्ध वस्त्र पहने बैठे हैं, उसने अगर स्थूल हिसाब बौध रखा है कि जो जिन हो जाता है उसे नग्न होना चाहिए, दिगंबर होना चाहिए, और बुद्ध दिगंबर नहीं अभी तक, तो जिन नहीं हैं। इसलिए जैन बुद्ध को बुद्ध नहीं मानते, महात्मा मानते हैं,; अच्छे आदमी हैं, मगर अभी पहुंचे नहीं हैं। क्योंकि उनकी एक धारणा है कि उन्हें नग्न होना ही चाहिए, तो ही तीथ कर का पद हो सकता है, तो ही जिन का पद हो सकता है।
कृष्ण के साथ तो उनको बहुत दिक्कत है। बुद्ध कम-से -कम कपड़े पहने हैं ठीक है, चलो चलने दो; थोड़ी-सी बात हैं, कपड़े छुट जाएंगे। ये कृष्ण तो और भी उपद्रव व हैं। ये तो पीताबर और मोर -मुकुट बाधे और बासुरी बजा रहे हैं। और पैर में घुंघरू बांधे हैं और गोपिया नाच रही हैं। अब जो जैन की धारणा लेकर गया है वह तो एकदम आंख  बंद कर लेगा कि यह मैं कहां आ गया, यह कहां उपद्रव में पड़ गया!
अगर तुमने स्थूल धारणाएं बना ली हैं, तुम कठिनाई में पड़ जाओगे। ऐसा ही उसके साथ होगा, जिसने कृष्ण के साथ धारणा बना ली हैं, तुम कठिनाई में पड़ जाओगे। ऐसा ही उसके साथ होगा, जिसने कृष्ण के साथ धारणा बना ली है। वह महावीर के पास जाकर देखेगा नंगधडंग खड़े हैं, दिमाग खराब है? होश में है यह आदमी? बासुरी कहां है? पीताबर कहां है? मोर-मुकुट कहां है? बिना उसके कैसे कोई परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है?
जिन्होंने भी धारणाएं बना ली हैं -स्थूल धारणाएं -वे नहीं पहचान पाएंगे। सदगुरु दो एक जैसे नहीं होते। इसलिए बड़ी सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। जब भी नया सदगुरु पैदा होगा जगत में, तब तुम्हें नयी दृष्टि पैदा करनी होगी। तुम्हारी पुरानी धारणाएं काम न आएंगी।
हुलका झीणा पातला, जमीं सूं चौड़ा।
इतना हल्का, इतना झीना, इतना नाकुछ जैसा कि न उसका बोझ पड़ता, न उसके चलने से आवाज होती; फिर भी पृथ्वी से बड़ा विस्तीर्ण है। ऐसा विरोधाभास! सदगुरु सदा विरोधाभासी होगा, क्योंकि उसके भीतर सारे द्वंद्व समाप्त हो गये हैं और निद्व द्व का जन्म हुआ है। दो मिलकर एक हो गये हैं। वह स्त्री जैसा कोमल, पुरुष जैसा कठोर। वह कमल जैसा कोमल और पत्थर जैसा कठोर; दोनों एक साथ होगा। वह छोटे- से -छोटा और बड़े -से -बड़ा।
जोगी ऊंचा आभ सूं...! आकाश जैसी उसकी ऊंचाई होगी और विस्तार होगा।... राई सूं ल्होड़ा। और राई तैसा छोटा! दोनों एक साथ होंगे। एक तरफ वह कहेगा : मैं हूं ही नहीं! और दूसरी तरफ कहेगा : अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं! एक तरफ कहेगा : मेरा मुझमें कुछ नहीं! और दूसरी तरफ घोषणा करेगा : अनलहक! मैं ही सत्य हूं! मैं ही द्वार हूं परमात्मा का! मैं ही मार्ग हूं! एक तरफ कहेगा : मैं मिट गया हूं। जिसस ने कहा 'मैं नहीं हूं? -एक तरफ; और दूसरी तरफ कहा कि जिनको भी पहुंचना है मुझसे ही पहुंचना होगा।
कृष्ण एक ओर शून्य हैं बिलकुल शून्य। इसलिए ही तो हमने उन्हें पूर्णावतार कहा क्योंकि शून्य में ही पूर्ण का अवतरण हो सकता है। और दूसरी ओर अर्जुन से कहते हैं : सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज! छोड़ -छाड़ सब धर्म इत्यादि, आ मेरी शरण!
होफा ल्यो हरनांव की...। और अगर चिलम ही भरनी हो तो गाजे की मत भरो, हरिनाम की भरो।
होफा ल्यो हरनांव की, अमी अमल का दौर। और अगर चिलम का दौर ही चलाना हो या अगर मधु का दौर ही चलाना हो, तो क्या छोटा -मोटा मधु-अमृत को ही क्यों न पियो! क्यों न अमृत को ही ढालें हम!
फर्क समझना। साधारण अधकचरा साधु तुमसे कहेगा : चिलम मत पियो! पहुंचा हुआ सिद्धपुरुष कहेगा : चिलम ही पीनी है, हरिनाम की पियो! साधारण कुनकुना साधु तुमसे कहेगा ए शराब नहीं पियो-पहुंचा हुआ सिद्धपुरुष तुमसे कहेगा : शराब ही पीनी है, तो आओ तेरी मधुशाला में! यह क्या शराब तुम पी रहे हो जो अंगूरों से ढलती है! हम तुम्हें आत्मा से ढली हुई शराब पिलाए।... अमी अमल का दौर! आओ अमृत को पियें।
फर्क? साधारण साधु नकारात्मक होगा और सच्चा साधु विधायक होगा। कच्चा साधु छोड़ने पर जो देगा-यह छोड़ो, यह छोड़ो, यह छोड़ो। कच्चा साधु त्याग सिखाएगा। पक्का साधु भोग सिखाएगा : कहेगा : 'परमात्मा को भोगो, यह क्या भोग रहे हो! आओ तुम्हें बड़े साम्राज्य की तरफ ले चलें। तुम्हें और बड़ा सम्राट बनाएगा।
होफा ल्यो हरनांव की, अमी अमल का दौर। साफी कर गुरु -ज्ञान की.. चिलम को लपेटने का जो कपड़ा होता है उसको कहते हैं साफी। साफी कर गुरु- ज्ञान की...। और ऐसा क्या कभी एकाध दम मारी, आठों पहर पी! दिल खोलकर पी! पीता ही रह, अहर्निश पी!
इस बात को अंततः फिर दोहरा दूं कि जीवन में जिन्होंने भी सत्य जाना है उन्होंने सदा कहा है : परमात्मा को पाओ, फिर व्यर्थ तो अपने - आप छूट जाता है। और जिन्होंने सत्य नहीं जाना, वे कहते हैं : पहले व्यर्थ को छोड़ो, फिर परमात्मा मिलेगा।
और दूसरी कोटि की जो बात है, मूलत: गलत है। ऐसी ही गलत है जैसे कोई तुमसे कहे : पहले अंधेरे को हटाओ फिर दीया जलेगा। अगर तुम अंधेरे को हटाने में लग गये तो अंधेरा तो हटेगा ही नहीं, दीया तो जलेगा ही क्यों! अंधेरा कोई हटा सकता है?
नहीं; दीया जलाओ, अंधेरा अपने से चला जाता है। ठीक तो नहीं है कहना कि चला जाता है; भाषा की भूल है। क्योंकि अंधेरा था ही नहीं, कहीं जाता - आता नहीं। अंधेरा तो सिर्फ प्रकाश का अभाव है। जैसे ही प्रकाश का भाव होता है, अंधेरा नहीं पाया जाता। कोई अंधेरे को नहीं हटा सकता। कोई पाप को नहीं मिटा सकता। कोई अज्ञान को नहीं जला सकता।
ज्ञान की ज्योति जलाओ! ज्ञान का दिया जलाओ। और ज्ञान के दीये को जलाने का जो उपाय है, वह ध्यान का तुम्हारे भीतर अंतस्तल हो तो उसमें अपने- अपन ज्ञान का दीया जलता है। वह दीया परमात्मा तक पहुंचा देगा।

वह दीया तत्क्षण परमात्मा को प्रगट करवा देगा। वह दीया पर्याप्त है-वेदों का वेद, उपनिषदों का उपनिषद! फिर सब शास्त्र फीके पड़ जाते है।
वेदों का वेद, उपनिषदों को उपनिषद! फिर सब शास्त्र फीके पड़ जाते हैं, जब अपने ही शास्त्र का जन्म होता है।
आज इतना ही।

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