19 सितंबर, 1976
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क,
पूना।जनक
उवाज।
प्रकाशो
में निज रूपं
नातिरिक्तोऽस्थ्यहं
ततः।
यदा
प्रकाशते
विश्व
तदाउउहंभास
एव हि।।28।।
अहो
विकल्पितं
विश्वमज्ञानान्ययि
भासते ।
रूप्यं
शुक्तौ फणी
रज्जौ वारि
सर्यकरे यथा ।।29।।
मत्तो
विनिर्गतं
विश्वं
मय्येव
लयमेष्यति।
मृदि
कुम्भो जले
वीचि: कनके
कटकं यथा।।30।।
अहो
अहं नमो मझं
विनाशो यस्य
नास्ति में ।
ब्रह्मादिस्तम्बयर्यन्तं
जगन्नाशेउपि
तिष्ठत:।।31।।
अहो
अहं नमो
मह्यमेकोऽहं
देहवानयि ।
क्वचिन्नगन्ता
नागन्ता
व्याप्त
विश्वम्वास्थित:।।32।।
अहो
अहं नमो मखं
दक्षो
नास्तीह
मत्सम:।
असंस्थृश्य
शरीरेण येन
विश्व चिर
धृतम्।।33।।
अहो
अहं नमो मखं
यस्य मे
नास्ति
किंचन।
धर्म
अनुभूति है, विचार
नहीं। विचार
धर्म की छाया
भी नहीं बन पाता।
और जो विचार में
ही उलझ जाते
हैं, वे
धर्म से सदा
के लिए दूर रह
जाते हैं।
विचारक जितना
धर्म से दूर
होता है उतना
कोई और नहीं!
जैसे
प्रेम एक
अनुभव है, ऐसे
ही परमात्मा
भी एक अनुभव
है। और अनुभव
करना हो, तो
समग्रता से ही
संभव है।
विचार
की प्रक्रिया
मनुष्य का
छोटा—सा अंश
है—और अंश भी
बहुत सतही, बहुत
गहरा नहीं।
अंश भी
अंतस्तल का
नहीं, केंद्र
का नहीं, परिधि
का; न हो तो
भी आदमी जी
सकता है। और
अब तो विचार
करने वाले
यंत्र
निर्मित हुए
हैं, उन्होंने
तो बात बहुत
साफ कर दी कि
विचार तो यंत्र
भी कर सकता है,
मनुष्य की
कुछ गरिमा
नहीं!
अरिस्टोटल
या उस जैसे
विचारकों ने
मनुष्य को
विचारवान
प्राणी कहा
है। अब उस
परिभाषा को
बदल देना
चाहिए, क्योंकि
अब तो
कंप्यूटर
विचार कर लेता
है—और मनुष्य
से ज्यादा
दक्षता से, ज्यादा
निपुणता से; मनुष्य से
तो भूल भी
होती है, कंप्यूटर
से भूल की
संभावना
नहीं।
मनुष्य
की गरिमा उसके
विचार में
नहीं है। मनुष्य
की गरिमा उसके
अनुभव में है।
जैसे
तुम स्वाद
लेते हो किसी
वस्तु का, तो
स्वाद केवल नहीं
है। घटा!
तुम्हारे
रोएं—रोएं में
घटा। तुम
स्वाद से मगन
हुए।
जैसे
तुम शराब पी
लेते हो, तो
पीने का
परिणाम
तुम्हारे
विचार में ही
नहीं होता, तुम्हारे
हाथ —पैर भी
डावांडोल
होने लगते हैं।
शराबी को चलते
देखा? शराब
रोएं—रोएं तक
पहुंच गयी!
चाल में भी
झलकती है, आंख
में भी झलकती
है, उसके
उठने—बैठने
में भी झलकती
है, उसके
विचार में भी
झलकती है; लेकिन
उसके समग्र को
घेर लेती है।
धर्म
तो शराब जैसा
है—जो पीयेगा, वही
जानेगा; जो
पी कर मस्त
होगा, वही
अनुभव करेगा। जनक के
ये वचन उसी
मदिरा के क्षण
में कहे गये हैं।
इन्हें अगर
तुम बिना
स्वाद के
समझोगे, तो
भूल हो जाने
की संभावना
है। तब इनका
अर्थ तुम्हें
कुछ और ही
मालूम पड़ेगा।
तब इनमें तुम
ऐसे अर्थ जोड़
लोगे जो तुम्हारे
हैं।
जैसे
कि कृष्ण कहते
हैं गीता में :
सर्व धर्मान्
परित्यज्य, मामेकं
शरणं व्रज।
—सब छोड़—छाड़
अर्जुन, तू
मेरी शरण आ!
जब
तुम पढ़ोगे तो
ऐसा लगेगा यह
घोषणा तो बड़े
अहंकार की हो
गयी;
'सब छोड़—छाड़,
मेरी शरण
में आ! मेरी
शरण में!'
तो
इस 'मेरे' का
जो अर्थ तुम करोगे,
वह
तुम्हारा
होगा, कृष्ण
का नहीं होगा।
कृष्ण में तो
कोई 'मैं' बचा
नहीं है। यह
तो सिर्फ कहने
की बात है। यह
तो प्रतीक की
बात है। तुमने
प्रतीक को
बहुत ज्यादा
समझ रखा है।
तुम्हारी
भ्रांति के
कारण प्रतीक
तुम्हें सत्य
हो गया है।
कृष्ण के लिए
केवल
व्यवहारिक है,
पारमार्थिक
नहीं।
तुमने
देखा, अगर कोई
आदमी
राष्ट्रीय
झंडे पर यूक
दे, तो
मार—काट हो
जाये, झगड़ा
हो जाये, युद्ध
हो जाये 'राष्ट्रीय
झंडे पर यूक
दिया!' लेकिन
तुमने कभी
सोचा कि
राष्ट्रीय
झंडा राष्ट्र
का प्रतीक है,
और राष्ट्र
पर तुम रोज
थूकते हो, कोई
झगड़ा खड़ा नहीं
करता! पृथ्वी
पर तुम यूक दो,
कोई झगड़ा
खड़ा नहीं
होता। जब भी
तुम यूक रहे
हो, तुम
राष्ट्र पर ही
यूक रहे
हों—कहीं भी
थूको।
राष्ट्र पर थूकने
से कोई झगड़ा
खड़ा नहीं
होता।
राष्ट्र का जो
प्रतीक है, संकेत—मात्र,
ऐसे तो कपड़े
का टुकड़ा
है—लेकिन उस
पर अगर कोई यूक
दे तो युद्ध
भी हो सकते
हैं।
मनुष्य
प्रतीकों को
बहुत मूल्य दे
देता है—इतना
मूल्य, जितना
उनमें नहीं
है। मनुष्य
अपने अंधेपन
में प्रतीकों
में जीने लगता
है।
कृष्ण
जब 'मैं' शब्द
का प्रयोग
करते हैं, तो
केवल
व्यावहारिक
है; बोलना
है, इसलिए
करते हैं; कहना
है, इसलिए करते
हैं। लेकिन
कहने और बोलने
के बाद वहा
कोई 'मैं' नहीं है।
अगर तुम आंख
में आंख डाल
कर कृष्ण की
देखोगे तो
वहां तुम किसी
'मैं' को
न पाओगे। वहा
परम सन्नाटा
है, शून्य
है। वहा मैं
विसर्जित हुआ
है। इसलिए तो इतनी
सरलता से
कृष्ण कह पाते
हैं कि आ, मेरी
शरण आ जा! जब वे
कहते हैं कि आ,
मेरी शरण आ
जा, तो
हमें लगेगा
बड़े अहंकार की
घोषणा हो गयी।
क्योंकि हम 'मैं' का
जो अर्थ जानते
हैं वही अर्थ
तो करेंगे।
जनक
के ये वचन तो
तुम्हें और भी
चकित कर देंगे।
ऐसे वचन
पृथ्वी पर
दूसरे हैं ही
नहीं। कृष्ण
ने तो कम—से—कम
कहा था, 'आ, मेरी
शरण आ'; जनक
के ये वचन तो
कुछ ऐसे हैं
कि तुम भरोसा
न करोगे। इन
वचनों में जनक
कहते हैं कि ' अहो! अहो, मेरा
स्वभाव! अहो, मेरा
प्रकाश!
आश्चर्य! यह
मैं कौन हूं!
मैं अपनी ही
शरण जाता हूं!
नमस्कार मुझे!'
यह तुम
हैरान हो
जाओगे।
इन
वचनों में जनक
अपने को
नमस्कार करते
हैं। यहां तो
दूसरा भी नहीं
बचा। बार—बार
कहते हैं, 'मैं
आश्चर्यमय
हूं! मुझको
नमस्कार है!'
अहो
अहं नमो मखं
विनाशो यस्य
नास्ति मे।
मैं
इतने आश्चर्य
से भर गया हूं,मैं
स्वयं
आश्चर्य हूं।
मैं अपने को
नमस्कार करता
हूं। क्योंकि
सभी नष्ट हो
जायेगा, तब
भी मैं बचत।
ब्रह्मा से ले
कर कण तक सब
नष्ट हो
जायेगा, फिर
भी मैं बचूंगा।
मुझे नमस्कार
है! मुझ जैसा
दक्ष कौन!
संसार में
हूं—और
अलिप्त! जल
में कमलवत!
मुझे नमस्कार है!
मनुष्य—जाति
ने ऐसी
उदघोषणा कभी
सुनी नहीं : 'अपने
को ही
नमस्कार!' तुम
कहोगे, यह
तो अहंकार की
हद हो गयी।
दूसरे से कहते,
तब भी ठीक
था, यह
अपने ही पैर
छू लेना..!
ऐसा
उल्लेख है
रामकृष्ण के
जीवन में कि
एक चित्रकार
ने रामकृष्ण
का चित्र
उतारा। वह जब
चित्र लेकर
आया,
तो
रामकृष्ण के
भक्त बड़े
संकोच में पड़
गये, क्योंकि
रामकृष्ण उस
चित्र को
देख—देख कर
उसके चरण छूने
लगे। वह
उन्हीं का
चित्र था। उसे
सिर से लगाने
लगे। किसी
भक्त ने कहा, परमहंसदेव,
आप पागल तो
नहीं हो गए
हैं? यह
चित्र आपका
है।
रामकृष्ण
ने कहा, खूब
याद दिलायी, मुझे तो
चित्र समाधि
का दिखा। जब
मैं समाधि की
अवस्था में
रहा होऊंगा, तब उतारा
गया। खूब याद
दिलायी, अन्यथा
लोग मुझे पागल
कहते। मैं तो
समाधि को
नमस्कार करने
लगा। यह चित्र
समाधि का है, मेरा नहीं।
लेकिन
जिन्होंने
देखा था, उन्होंने
तो यही समझा
होगा न कि हुआ
पागल आदमी।
अपने ही चित्र
के पैर छूने
लगा! अपने
चित्र को सिर
से लगाने लगा!
अब और क्या
पागलपन होगा?
अहंकार की
यह तो आखिरी
बात हो गयी, इसके आगे तो
अहंकार का कोई
शिखर नहीं हो
सकता।
जनक
इन वचनों में
मस्ती में बोल
रहे हैं। एक स्वाद
उत्पन्न हुआ
है! मगन हो गये
हैं! नाच सकते होते
मीरा जैसे, तो
नाचे होते। गा
सकते होते
चैतन्य जैसे,
तो गाते।
बांसुरी बजा
सकते कृष्ण
जैसी, तो
बांसुरी
बजाते।
हर
व्यक्ति की
अलग—अलग
संभावना है
अभिव्यक्ति
की। जनक
सम्राट थे, सुसंस्कृत
पुरुष थे, सुशिक्षित
पुरुष थे, प्रतिभावान
थे, नवनीत
थे प्रतिभा
के—तो
उन्होंने जो
वचन कहे वे
मनुष्य—जाति
के इतिहास में
स्वर्ण—अक्षरों
में लिखे जाने
योग्य हैं। इन
वचनों को
समझने के लिए
तुम अपने अर्थ
बीच से हटा
देना।
करना
है हमें कुछ
दिन
संसार
का नजारा
इंसान
का जीवन तो
दर्शन
का झरोखा है
ये
अक्ल भी क्या
शै है
जिसने
दिले—रंगी को
हर काम
से रोका है
हर बात
पे टीका है
आरास्ता
ए मानी
तखईल
है शायर की
लफ्तों
में उलझ जाना
फन
काफिया—गो का
है
ये
अक्ल भी क्या
शै है
जिसने
दिले—रंगी को
हर काम
से रोका है
हर बात
पे टोका है!
जब
भी हृदय में
कोई तरंग उठती
है,
तो बुद्धि
तत्क्षण
रोकती है। जब
भी कोई भाव
गहन होता है, बुद्धि
तत्क्षण
दखलंदाजी
करती है।
ये
अक्ल भी क्या
शै है
जिसने
दिले—रंगी को
हर काम
से रोका है,
हर बात
पे टोका है!
तुम
इस अक्ल को
थोड़ा किनारे
रख देना—थोड़ी
देर को ही सही, क्षण
भर को ही सही।
उन क्षणों में
ही बादल हट जाएंगे,
सूरज का
दर्शन होगा।
अगर इस अक्ल
को तुम हटा कर
न रख पाओ, तो
यह टोकती ही
चली जाती है।
टोकना इसकी
आदत है। टोकना
इसका स्वभाव
है। दखलंदाजी
इसका रस है।
और
धर्म का संबंध
है हृदय से, वह
तरंग खराब हो
जायेगी। उस
तरंग पर
बुद्धि का रंग
चढ़ जायेगा, और बात खो
जायेगी। तुम
कुछ का कुछ
समझ लोगे।
आरास्ता
ए मानी,
तखईल
है शायर की!
जो
वास्तविक कवि
है,
मनीषी है, ऋषि है, वह
तो अर्थ पर
ध्यान देता
है।
आरास्ता
ए मानी,
तखईल
है शायर की!
उसकी
कल्पना में तो
अर्थ के फूल
खिलते हैं, अर्थ
की सुगंध उठती
है।
लफ्जों
में उलझ जाना
फन
काफिया—गो का
है।
लेकिन
जो तुकबंद है, काफिया—गो,
वह शब्दों
में ही उलझ
जाता है। वह
कवि नहीं है।
तुकबंद तो
शब्दों के साथ
शब्दों को
मिलाए चला
जाता है।
तुकबंद को
अर्थ का कोई
प्रयोजन नहीं
होता, शब्द
से शब्द मेल
खा जाएं, बस
काफी है।
बुद्धि
तुकबंद है, काफिया—गो
है। अर्थ का
रहस्य, अर्थ
का राज, तो
हृदय में छिपा
है। तो बुद्धि
को हटा कर सुनना,
तो ही तुम
सुन पाओगे।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन एक
कपड़े वाले की
दुकान पर गये,
और एक कपड़े
की ओर इशारा
करके पूछने
लगे, भाई, इस कपड़े का
क्या भाव है?
दुकानदार
बोला, मुल्ला,
पाच रुपये
मीटर! मुल्ला
ने कहा, साढ़े
चार रुपये में
देना है?
दुकानदार
बोला, बड़े
मियां, साढ़े
चार में तो घर
में पड़ता है।
तो मुल्ला ने
कहा, ठीक, फिर ठीक। तो
ठीक है, घर
से ही ले
लेंगे।
आदमी
अपना अर्थ
डाले चला जाता
है।
एक
रोगी ने एक दांत
के डाक्टर से
पूछा, कि क्या
आप बिना कष्ट
के दांत निकाल
सकते हैं?
डाक्टर
ने कहा, हमेशा
नहीं। अभी कल
की ही बात है।
एक व्यक्ति का
दांत मरोड़ कर
निकालते समय
मेरी कलाई उतर
गयी!
डाक्टर
का दर्द अपना
है। दांत
निकलवाने जो
आया है, उसकी
फिक्र दूसरी
है; उसका
दर्द अपना है।
मुल्ला
नसरुद्दीन को
एक जगह नौकरी
पर रखा गया।
मालिक ने कहा, जब
तुम्हें
नौकरी पर रखा
गया था, तब
तुमने कहा था
कि तुम कभी
थकते नहीं, और अभी—अभी
तुम मेज पर टांग
पसार कर सो
रहे थे।
मुल्ला
ने कहा, मालिक,
मेरे न थकने
का यही तो राज
है।
हम
अपने अर्थ
डाले चले जाते
हैं। और जब तक
हम अपने अर्थ
डालने बंद न
करें, तब तक
शास्त्रों के
अर्थ प्रगट
नहीं होते!
शास्त्र को
पढ़ने के लिए
एक विशेष कला
चाहिए, शास्त्र
को पढ़ने के
लिए
धारणा—रहित, धारणा—शून्य
चित्त चाहिए।
शास्त्र को
पढ्ने के लिए
व्याख्या
करने की जल्दी
नहीं, श्रवण
का, स्वाद
का, संतोष—पूर्वक,
धैर्यपूर्वक
आस्वादन करने
की क्षमता
चाहिए।
सुनो
इन सूत्रों
को—
'प्रकाश मेरा
स्वरूप है।
मैं उससे अलग
नहीं हूं जब
संसार
प्रकाशित
होता है, तब
वह मेरे
प्रकाश से ही
प्रकाशित
होता है।
प्रकाशो
मे निजं रूपं
नातिरिक्तोउस्थ्यहं
तत:।
यह
सारा जगत मेरे
ही प्रकाश से
प्रकाशित है, कहते
हैं जनक।
निश्चित
ही यह प्रकाश 'मैं'
का प्रकाश
नहीं हो सकता,
जिसकी जनक
बात कर रहे
हैं। यह
प्रकाश तो 'मैं—शून्यता'
का ही
प्रकाश हो
सकता है।
इसलिए भाषा पर
मत जाना, काफिया—गों
मत बनना, बुद्धि
की दखलंदाजी
मत करना।
सीधा—सादा
अर्थ है, इसे
इरछा—तिरछा मत
कर लेना।
प्रकाश मेरा
स्वरूप है।
कहने
को तो ऐसा ही
कहना पड़ेगा, क्योंकि
भाषा तो
अज्ञानियों
की है।
ज्ञानियों की
तो कोई भाषा
नहीं। इसलिए
कभी अगर दो
ज्ञानी मिल
जायें तो चुप
रह जाते हैं, बोलें भी
क्या? न तो
भाषा है कुछ, न बोलने को
है कुछ। न
विषय है बोलने
के लिए कुछ, न जिस भाषा
में बोल सकें
वह है।
कहते
हैं,
फरीद और
कबीर का मिलना
हुआ था, दो
दिन चुप बैठे
रहे। एक दूसरे
का हाथ हाथ
में ले लेते, गले भी लग
जाते, आंसुओ
की धार भी
बहती, खूब
मगन होकर
डोलने भी
लगते!
शिष्य
तो घबड़ा गये।
शिष्यों की
बड़ी आकांक्षा थी
कि दोनों
बोलेंगे, तो
हम पर वर्षा
हो जायेगी।
कुछ कहेंगे, तो हम सुन
लेंगे। एक
शब्द भी पकड़
लेंगे तो सार्थक
हो जायेगा
जीवन।
लेकिन
बोले ही नहीं।
दो दिन बीत
गए। वे दो दिन बड़े
लंबे हो गये।
शिष्य
प्रतीक्षा कर
रहे हैं, और
कबीर और फरीद
चुप बैठे हैं।
अंततः जब विदा
हो गये, कबीर
विदा कर आये
फरीद को, तो
फरीद के
शिष्यो ने पूछा,
क्या हुआ? बोले नहीं
आप? ऐसे तो
आप सदा बोलते
हैं। हम कुछ
भी पूछते हैं
तो बोलते हैं।
और हम इसी आशा
में तो आपको
मिलाए कबीर से
कि कुछ आप
दोनों के बीच
होगी बात, कुछ
रस बहेगा, तो
हम अभागे भी
थोड़ा—बहुत
उसमें से पी
लेंगे। दोनों
किनारों को
पास कर दिया
था—गंगा बहेगी,
हम भी स्नान
कर लेंगे, लेकिन
गंगा बही ही
नहीं। मामला
क्या हुआ?
फरीद
ने कहा, कबीर
और मेरे बीच
बोलने को कुछ
न था, न
बोलने की कोई
भाषा थी। न
पूछने को कुछ
था, न कहने
को कुछ था। था
बहुत कुछ, धारा
बही भी, गंगा
बही भी; लेकिन
शब्द की न थी, मौन की थी।
यही
कबीर से उनके
शिष्यों ने
पूछा कि क्या
हुआ?
आप चुप
क्यों हो गये?
आप तो ऐसे
हो गये जैसे
सदा से गूंगे
हों!
कबीर
ने कहा, पागलों!
अगर फरीद के
सामने बोलता,
तो अज्ञानी
सिद्ध होता।
जो बोलता वही
अज्ञानी
सिद्ध होता। न
बोले ही जहां
काम चलता हो, वहा बोलने
की बात ही
कहां? जहां
सूई से काम
चलता हो वहां
तलवार पागल
उठाते हैं।
यहां बिना
बोले चल गया।
खूब धारा बही!
देखा नहीं, कैसे आंसू
बहे, कैसी
मस्ती रही!
शब्द
की कोई जरूरत
नहीं दो
ज्ञानियों के
बीच। दो
अज्ञानियों
के बीच शब्द
ही शब्द होते
हैं,
अर्थ
बिलकुल नहीं
होता। दो
ज्ञानियों के
बीच अर्थ ही
अर्थ होता है,
शब्द
बिलकुल नहीं
होते। अज्ञानी
और ज्ञानी के
बीच शब्द भी
होते हैं, अर्थ
भी होते हैं।
संभाषण के लिए
एक ज्ञानी चाहिए,
एक अज्ञानी
चाहिए। दो
अज्ञानी हों
तो विवाद होता
है। संभाषण तो
हो नहीं सकता,
संवाद हो
नहीं सकता, सिर— फुटौवल
हो सकती है।
दो ज्ञानी हों,
शब्द से
संवाद नहीं
होता, किसी
और गहन लोक
में केंद्रों
का मिलन होता
है। सम्मिलन
हो जाता है, संवाद की
जरूरत क्या? बिन कहे बात
पहुँच जाती है,
बिन बताये
दर्शन हो जाता
है। एक
अज्ञानी और एक
ज्ञानी के बीच
संवाद की
संभावना है।
ज्ञानी बोलने
को राजी हो, अज्ञानी
सुनने को राजी
हो, तो
संवाद हो सकता
है।
शास्त्रों
के वचन एक
अर्थ में सदा विरोधाभासी
हैं;
पैराडाक्सिकल
हैं। क्योंकि
शास्त्र जो
कहते हैं, वह
कहा नहीं जा
सकता, और
जो नहीं कहा
जा सकता, उसको
कहने की
चेष्टा करते
हैं। अनुकंपा
है कि किन्हीं
बुद्धपुरुषों
ने कहने की
चेष्टा की है—उसको—जो
नहीं कहा जा
सकता। आंखें
हमारी उठाने
की आकांक्षा
की है उस तरफ, जहां हम
आंखें उठाना
भूल ही गये।
हमें आकाश के
थोड़े दर्शन
कराये। हम तो
जमीन पर सरकते,
रेंगते, हमने
सिर उठाना बंद
कर दिया है।
कहते
हैं,
मंसूर को जब
फांसी लगी, और जब वह
सूली पर लटका
हुआ हंसने
लगा। तो कोई एक
लाख लोगों की
भीड़ थी, उनमें
से किसी ने
पूछा, मैसूर,
तुम हंस
क्यों रहे हो?
मैसूर
ने कहा, मैं
इसलिए हंस रहा
हूं कि चलो यह
अच्छा ही हुआ कि
फांसी लगी, तुमने कम से
कम थोड़ा आंख
तो ऊपर उठाकर
देखा!
सूली
पर लटका था तो
लोगों को सिर
ऊपर करके देखना
पड़ रहा था। तो
मंसूर ने कहा, तुमने
कम से कम—चलो
इस बहाने
सही—थोड़ा आकाश
की तरफ तो
आंखें उठाईं।
इसलिए
प्रसन्न हूं
कि यह सूली
ठीक ही हुई।
शायद मुझे
देखते—देखते
तुम्हें वह
दिख जाये, जो
मेरे भीतर
छिपा है। शायद
इस मृत्यु की
घड़ी में, मृत्यु
के आघात में, तुम्हारे
विचार की
प्रक्रिया
बंद हो जाये, और क्षण भर
को आकाश खुल
जाये! और
तुम्हें उसके दर्शन
हो जायें, जो
मैं हूं!
प्रकाशो
मे निज रूपं
—प्रकाश
मेरा स्वरूप
है।
नातिरिक्तोऽस्मग्हं
तत:
—मैं उससे
अलग नहीं, प्रकाश
से अलग नहीं।
यह
जो प्रकाश का
अंत:स्रोत है, यह
तभी उपलब्ध
होता है, जब
'मैं' चला
जाता है।
लेकिन कहो, तो कैसे कहो?
जब कहना
होता है तो 'मै' को
फिर ले आना
होता है।
'जब संसार
प्रकाशित
होता है, तब
वह मेरे
प्रकाश से ही
प्रकाशित
होता है।'
निश्चित
ही जनक यहां
जनक नाम के
व्यक्ति के संबंध
में नहीं बोल
रहे हैं।
व्यक्ति तो खो
गया,
व्यक्ति की
लहर तो गई—यह
तो सागर बचा!
यह सागर हम
सबका है। यह
घोषणा जनक की,
उनके ही
संबंध में
नहीं, तुम्हारे
संबंध में भी
है, जो कभी
हुए, उनके
संबंध में; जो कभी
होंगे, उनके
संबंध में! यह
समस्त
अस्तित्व के
संबंध में
घोषणा है।
तुम
जरा मिटना
सीखो, तो इसका
स्वाद लगने
लगे। और स्वाद
लगेगा, तो
ऐसी घोषणाएं
तुमसे भी
उठेंगी।
इन्हें रोकना
मुश्किल है।
मंसूर
को पता था कि
अगर उसने इस
तरह की बात
कही. 'अनलहक', 'अहं
ब्रह्मास्मि',
कि 'मैं
ही परमात्मा
हूं ' तो
सूली लगेगी; मुसलमानों
की भीड़ उसे
बर्दाश्त न कर
सकेगी; अंधों
की भीड़ उसे
देख न पायेगी।
फिर भी उसने
घोषणा की।
उसके मित्रों
ने उसे कहा भी
ऐसी घोषणा न
करो, ऐसी
घोषणा खतरनाक
होगी। मैसूर
भी जानता है
कि ऐसी घोषणा
खतरनाक हो
सकती है, लेकिन
यह घोषणा रुक
न सकी। जब फूल
खिलता है तो सुगंध
बिखरेगी ही।
जब दीया जलेगा
तो प्रकाश फैलेगा
ही। फिर जो हो,
हो। रहीम का
एक वचन है.
खैर, खून,
खांसी, खुशी,
वैर, प्रीत,
मधुपान,
रहिमन
दाबे न दबे, जानत
सकल जहांन।
कुछ
बातें हैं, जो
दबाये नहीं
दबती। साधारण
मदिरा पी लो, तो कैसे
दबाओगे? अक्सर
ऐसा होता है
कि शराब पीने
वाला जितना दबाने
की कोशिश करता
है उतना ही
प्रगट होता
है। खयाल किया
तुमने? शराबी
बड़ी चेष्टा
करता है कि
किसी को पता न
चले! सम्हल कर
बोलता है। उसी
में पता चलता
है। सम्हल कर
चलता है, उसी
में
डांवांडोल हो
जाता है।
होशियारी दिखाना
चाहता है कि
किसी को पता न
चले।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
रात पी कर घर
लौटा। तो बहुत
विचार करके
लौटा कि आज
पत्नी को पता
न चलने देगा।
क्या करना
चाहिए? सोचा
कि चल कर
कुरान पढूं।
कभी सुना कि
शराबी और
कुरान पढ़ता
हो! जब कुरान
पढूंगा तो साफ
हो जायेगा कि
शराब पी कर
नहीं आया हूं।
कभी शराबियों
ने कुरान पढ़े!
घर
पहुंचा, प्रकाश
जला कर बैठ
गया, कुरान
पढ्ने लगा।
आखिर पत्नी आई,
और उसने उसे
झकझोरा और कहा
कि बंद करो यह
बकवास! यह
सूटकेस खोले
किसलिए बैठे
हो?
कुरान
शराबी खोजे
कैसे? सूटकेस
मिल गया उनको,
उसे खोल कर
पढ़ रहे थे!
ऐसे
छिपाना संभव
नहीं है। और
जब साधारण
मदिरा नहीं
छिपती तो
प्रभु—मदिरा
कैसे छिपेगी? आंखों
से मस्ती
झलकने लगती
है। आंखें
मदहोश हो जाती
हैं। वचनों
में किसी और
लोक का रंग छा
जाता है। वचन
सतरंगे हो जाते
हैँ। वचनों
में
इंद्रधनुष
फैल जाते हैं।
साधारण गद्य
भी बोलो तो
पद्य
हो
जाता है। बात
करो तो गीत
जैसी मालूम
होने लगती है।
चलो तो नृत्य
जैसा लगता है।
नहीं, छिपता
नहीं!
खैर, खून,
खांसी, खुशी,
वैर, प्रीत,
मधुपान,
रहिमन
दाबे न दबे, जानत
सकल जहांन।
उदघोषणा
होकर रहती है।
सत्य
स्वभावत:
उदघोषक है।
जैसे ही सत्य
की घटना भीतर
घटती, तुम्हारे
अनजाने
उदघोषणा होने
लगती है।
जनक
ने ये शब्द
सोच—सोच कर
नहीं कहे हैं; सोच—सोच
कर कहते तो संकोच
खा जाते।
अभी—अभी
अष्टावक्र को
लाये हैं, अभी—
अभी
अष्टावक्र ने
थोड़ी—सी बातें
कही हैं—और
जनक को घटना
घट गई! संकोच
करते, अगर
बुद्धि से
हिसाब लगाते,
कहते, 'क्या
सोचेंगे
अष्टावक्र कि
मैं अज्ञानी,
और ऐसी
बातें कह रहा
हूं! ये तो परम
ज्ञानियों के
योग्य हैं। इतने
जल्दी कहीं
घटना घटती है!
अभी सुना और
घट गई, ऐसा
कहीं हुआ है!
समय लगता है, जनम—जनम
लगते हैं, बड़ी
दूभर यात्रा
है; खड्ग
की धार पर
चलना होता है।
'सब बातें
याद आई होतीं,
और सोच कर
कहा होता कि
इतने दूर तक
ऐसी घोषणा मत
करो।
लेकिन
यह घोषणा अपने
से हो रही है, यह
मैं तुम्हें
याद दिलाना
चाहता हूं।
जनक कह रहे
हैं, ऐसा
कहना ठीक नहीं;
जनक से कहा
जा रहा है, ऐसा
कहना ठीक है।
'आश्चर्य है
कि कल्पित
संसार अज्ञान
से मुझमें ऐसा
भासता है, जैसे
सीपी में चांदी,
रस्सी में
सांप, सूर्य
की किरणों में
जल भासता है। '
अहो
विकल्पित विश्वमज्ञानान्मयि
भासते।
रूप्यं
शुक्तौ फणी
रज्जौ वारि
सूर्यकरे यथा।।
जैसे
सीपी में चांदी
का भ्रम हो
जाता, रस्सी
में कभी
अंधेरे में
सांप की
भ्रांति हो जाती
है और मरुस्थल
में सूर्य की
किरणों के कारण
कभी—कभी
मरूद्यान का
भ्रम हो जाता
है, मृग—मरीचिका
पैदा हो जाती
है।
आश्चर्य
है! यह घटना
इतनी आकस्मिक
घटी है, यह
घटना इतनी
तीव्रता से
घटी है, यह 'जनक को बोध
इतना त्वरित
हुआ है कि जनक
सम्हल नहीं
पाये! आश्चर्य
से भरे हैं।
जैसे एक
छोटा—सा बच्चा
परियों के लोक
में आ गया हो, और हर चीज
लुभावनी हो, और हर चीज
भरोसे के बाहर
हो। तरतूलियन
ने कहा है. जब
तक परमात्मा
का दर्शन नहीं
हुआ, तब तक
अविश्वास
रहता है; और
जब परमात्मा
का दर्शन हो
जाता है, तब
भी अविश्वास
रहता है।
उसके
शिष्यों ने
पूछा. हम समझे
नहीं। हमने तो
सुना है कि जब
परमात्मा का
दर्शन हो जाता
है,
तो विश्वास
आ जाता है।
तरतूलियन
ने कहा. जब तक
दर्शन नहीं
हुआ,
अविश्वास
रहता है कि
परमात्मा हो
कैसे सकता है?
असंभव!
अनुभव के बिना
कैसे विश्वास!
और जब परमात्मा
का अनुभव होता
है, तो
भरोसा नहीं
आता कि इतना
आनंद हो सकता
है! इतना
प्रकाश! इतना
अमृत! तब भी
असंभव लगता
है। जब तक
नहीं हुआ, तब
तक असंभव लगता
है; जब हो
जाता है, तब
और भी असंभव
लगता है।
ठीक
उसी दशा में
हैं जनक।
आश्चर्य!
सिर्फ कल्पित
है सब कुछ।
मैं ही केवल
सत्य हूं
साक्षी—मात्र
सत्य है और सब
भासमान, और सब
माया!
'मुझसे
उत्पन्न हुआ
यह संसार
मुझमें वैसे
ही लय को
प्राप्त होगा,
जैसे
मिट्टी में
घड़ा, जल
में लहर, सोने
में आभूषण लय
होते हैं। '
फर्क
देख रहे हैं? जनक
का मनुष्य—रूप
खो रहा है, परमात्म—रूप
प्रगट हो रहा
है।
स्वामी
रामतीर्थ
अमरीका गये।
वे मस्त आदमी
थे। किसी ने
पूछा, दुनिया
को किसने
बनाया? वे
मस्ती में
होंगे, समाधि
का क्षण
होगा—कहा, 'मैंने!'
अमरीका में
ऐसी बात, कोई
भरोसा नहीं
करेगा। चलती
है, भारत
में चलती है।
इस तरह के
वक्तव्य भी चल
जाते हैं। बड़ी
सनसनी फैल
गई—लोगों ने
पूछा, ' आप
होश में तो
हैं? चांद—तारे
आपने बनाये?' कहा—'मैंने
बनाये, मैंने
ही चलाये, तब
से चल रहे
हैं।'
इस
वक्तव्य को
समझना कठिन
है। और अगर
उनके अमरीकी
श्रोता न समझ
सके,
तो आश्चर्य
नहीं करना
चाहिए।
स्वाभाविक
है। यह
वक्तव्य राम
का नहीं है; या अगर है, तो असली राम
का
है—रामतीर्थ
का तो नहीं
है। इस घड़ी
में रामतीर्थ
लहर की तरह
नहीं बोल रहे
हैं, सागर
की तरह बोल
रहे हैं; सनातन,
शाश्वत की
तरह बोल रहे
हैं, सामयिक
की तरह नहीं
बोल रहे; शरीर
और मन में
सीमित—परिभाषित
मनुष्य की तरह
नहीं बोल
रहे—शरीर और
मन के पार, अपरिभाषित,
अज्ञेय की
भांति बोल रहे
हैं। राम से
राम ही बोले, रामतीर्थ
नहीं। यह
उदघोषणा
परमात्मा की
है!
मगर
बड़ा कठिन है, बड़ा
मुश्किल है तय
करना।
फिर
राम भारत
लौटे. तो
गंगोत्री की
यात्रा पर जाते
थे। गंगा में
स्नान कर रहे
थे। छलांग लगा
दी पहाड़ से।
लिख गए एक
छोटा—सा पत्र, रख
गये कि ' अब
राम जाता है
अपने असली
स्वरूप से
मिलने। पुकार
आ गई है, अब
इस देह में न
रह सकूंगा।
विराट ने
बुलाया!'
अखबारों
ने खबर छापी
की आत्महत्या
कर ली। ठीक है, अखबार
भी ठीक कहते
हैं। नदी में
कूद गये, आत्महत्या
हो गई। राम से
पूछे कोई, तो
राम कहेंगे, 'तुम
आत्महत्या
किये बैठे हो,
मुझको कहते
हो मैंने
आत्महत्या कर
ली? मैंने
तो सिर्फ सीमा
तोड़ कर विराट
के साथ संबंध
जोड़ लिया। मैंने
तो बाधा हटा
दी बीच से।
मैं मरा थोड़ी।
मरा—मरा था, अब जीवंत
हुआ, अब
विराट के साथ
जुड़ा। वह जो
छोटी—सी जीवन
की धार थी, अब
सागर बनी।
मैंने सीमा
छोड़ी, आत्मा
थोड़ी! आत्मा
तो मैंने अब
पाई, सीमा
छोड़ कर पाई। '
इसलिए
इसे सदा याद
रखना जरूरी है, कि
जब कभी
तुम्हारे भीतर
समाधि सघन
होती है, जब
समाधि के मेघ
तुम्हारे
भीतर घिरते
हैं, तो जो
वर्षा होती है,
वह
तुम्हारे
अहंकार, अस्मिता
की नहीं है।
वह वर्षा
तुमसे पार से
आती है, तुमसे
अतीत है।
इस
घड़ी में जनक
का
व्यक्तित्व
तो जा रहा है।
'मुझसे
उत्पन्न हुआ
यह संसार
मुझमें वैसे
ही लय को
प्राप्त होगा,
जैसे
मिट्टी में
घड़ा, जल
में लहर, सोने
में आभूषण लय
होते हैं। '
न था
कुछ तो खुदा
था
कुछ न
होता तो खुदा
होता।
डुबोया
मुझको होने ने
न
होता
मैं तो क्या
होता?
डुबोया
मुझको होने
ने! हम कहेंगे
रामतीर्थ ने आत्महत्या
कर ली।
रामतीर्थ
कहेंगे, डुबोया
मुझको होने
ने! यह तो डूब
कर गंगा में मैं
पहली दफे हुआ।
जब तक था, तब
तक डूबा था।
न था
कुछ तो खुदा
था,
कुछ न
होता तो खुदा
होता।
डुबोया
मुझको होने ने
न होता
मैं तो क्या
होता?
खुदा
होते!
परमात्मा
होते!
यह
जो होने की
सीमा है, इस
सीमा को जब
वस्त्र की भांति
कोई उतारकर रख
देता है, तो
सत्य के दर्शन
होते हैं।
जैसे सांप
अपनी केंचुली
से निकल जाता
है सरक कर, ऐसी
ही घटना जनक
को घटी।
अष्टावक्र ने
कैटेलिटिक की
तरह काम किया
होगा।
वैज्ञानिक
कैटेलिटिक
एजेंट की बात
करते हैं। वे
कहते हैं कि
कुछ तत्व
किन्हीं
घटनाओं में सक्रिय
रूप से भाग
नहीं लेते, लेकिन
उनकी मौजूदगी
के बिना घटना
नहीं घटती।
तुमने
देखा, वर्षा
में बिजली
चमकती है!
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
आक्सीजन और
हाइड्रोजन के
मिलने से पानी
बनता है, लेकिन
हाइड्रोजन और
आक्सीजन का
मिलन तभी होता
है जब बिजली
मौजूद हो। अगर
बिजली मौजूद न
हो तो मिलन
नहीं होता।
यद्यपि बिजली
कोई भी हिस्सा
नहीं लेती, हाइड्रोजन
और आक्सीजन के
मिलने में
बिजली कोई भी
हाथ नहीं
बटाती—सिर्फ
मौजूदगी! इस
तरह की मौजूदगी
को
वैज्ञानिकों
ने नाम दिया
है. कैटेलिटिक
एजेंट।
गुरु
कैटेलिटिक
एजेंट है। वह
कुछ करता नहीं, पर
उसकी बिना
मौजूदगी के
कुछ होता भी
नहीं। उसकी मौजूदगी
में कुछ हो
जाता है।
यद्यपि करता
वह कुछ भी
नहीं, लेकिन
सिर्फ उसकी
मौजूदगी! इसे
समझना। सिर्फ उसकी
ऊर्जा
तुम्हें घेरे
रहती है। उस
ऊर्जा के
घिराव में
तुममें बल
उत्पन्न हो
जाता है—बल तुम्हारा
है। गीत फूटने
लगते हैं—गीत
तुम्हारे
हैं। घोषणाएं
घटने लगती हैं—घोषणाएं
तुम्हारी हैं!
लेकिन गुरु की
मौजूदगी के
बिना शायद
घटतीं भी
नहीं।
अष्टावक्र
की मौजूदगी ने
कैटेलिटिक
एजेंट का काम
किया। देखकर
उस सौम्य, शांत,
परम अवस्था
को, जनक को
अपना भूला घर
याद आ गया
होगा, झांक
कर उन आंखों
में, देखकर
अपरंपार
विस्तार, अपनी
भूली—बिसरी
संभावना
स्मरण में आ
गई होगी।
सुनकर
अष्टावक्र के
वचन—सत्य में
पगे, अनुभव
में पगे—स्वाद
जग गया होगा।
कहते
हैं,
एक व्यक्ति
ने सिंह पाल
रखा था।
छोटा—सा बच्चा
था, आंखें
भी न खुली
थीं—तब उसे घर
ले आया था। उस
सिंह ने कभी
मांसाहार न
किया था, खून
का उसे कोई
स्वाद भी न
था। वह
शाकाहारी सिंह
था। शाक—सब्जी
खाता, रोटी
खाता। उसे पता
ही न था। पता
का कोई कारण भी
न था। लेकिन
एक दिन यह
आदमी बैठा था
अपनी कुरसी पर,
इसके पैर
में चोट लगी
थी, और खून
थोड़ा—सा झलका
था। सिंह भी
पास में बैठा
था। बैठे—बैठे
उसने जीभ से
वह खून चाट
लिया। बस! एक
क्षण में
रूपांतरण हो
गया। सिंह
गुर्राया। उस
गुर्राहट में
हिंसा थी। अभी
तक वह जैनी था,
अचानक सिंह
हो गया। अभी
तक शाकाहारी
था। तो शुद्ध
साक—सज्जी
खाकर जैसी
आवाज निकल
सकती थी, निकलती
थी। हालांकि
अभी कोई
मांसाहार कर
नहीं लिया था,
जरा—सा खून
चखा था, लेकिन
याद आ गई।
रोएं—रोएं में
सोई हुई सिंह
की विस्मृत
क्षमता जाग
गई! कोई जग उठा!
किसी ने अंगड़ाई
ले ली! जो सोया
था उसने आंख
खोली। वह
गुर्रा कर उठ
खड़ा हुआ। फिर
उसने हमले
शुरू कर दिये।
फिर उसे घर
में रखना
मुश्किल हो
गया। फिर उसे
जंगल में छोड़
देना पड़ा। इतने
दिन तक वह
सोया—सोया था,
आज पहली दफा
उसे याद आई कि
मैं कौन हूं!
अष्टावक्र
की छाया में
जनक को याद आई
कि मैं कौन
हूं। और ये
वचन,
अगर जनक ने
सोच कर कहे
होते तो कह ही
न सकते थे, संकोच
पकड़ लेता। यह
कोई आसान है
कहना?
'मुझसे
उत्पन्न हुआ
यह संसार
मुझमें वैसे
ही लय को
प्राप्त होगा,
जैसे
मिट्टी में
घड़ा, जल
में लहर, और
सोने में
आभूषण लय होते
हैं। '
अष्टावक्र
की छाया, अष्टावक्र
की मौजूदगी, जगा गई।
सोया था जो
जन्मों—जन्मों
से सिंह, गर्जना
करने लगा!
अपने स्वरूप
की याद आ गई, आत्म—स्मृति
हुई! यही तो
सत्संग का
अर्थ है। सत्संग
को पूरब में
बहुत मूल्य
दिया गया है, पश्चिम की
भाषाओं में
सत्संग के लिए
कोई ठीक—ठीक
शब्द ही नहीं
है। क्योंकि
सत्संग का कोई
मूल्य पश्चिम
में समझा नहीं
गया।
सत्संग
का अर्थ इतना
ही है. जिसने
जान लिया हो, उसके
पास बैठकर
स्वाद
संक्रामक हो
जाता है।
जिसने जान
लिया हो, उसकी
तरंगों में
डूबकर, तुम्हारे
भीतर की सोई
हुई विस्मृत
तरंगें सक्रिय
होने लगती हैं,
कंपन आने
लगता है।
सत्संग का
इतना ही अर्थ
है कि जो
तुमसे आगे जा
चुका हो, उसे
जाया हुआ
देखकर
तुम्हारे
भीतर चुनौती
उठती है.
तुम्हें भी
जाना है।
रुकना फिर
मुश्किल हो
जाता है।
सत्संग का
अर्थ गुरु के
वचन सुनने से
उतना नहीं, जितनी गुरु
की मौजूदगी
पीने से है, जितना गुरु
को अपने भीतर
आने देने, जितना
गुरु के साथ
एक लय में
बद्ध हो जाने
से है।
गुरु
एक विशिष्ट
तरंग में जी
रहा है। तुम
जब गुरु के
पास होते हो, तब
उसकी तरंगें,
तुम्हारे
भीतर भी वैसी
ही तरंगों को
पैदा करती
हैं। तुम भी
थोड़ी देर को
ही सही, किसी
और लोक में
प्रवेश कर
जाते हो, गेस्टाल्ट
बदलता है।
तुम्हारे
देखने का ढांचा
बदलता है।
थोड़ी देर को
तुम गुरु की आंखों
से देखने लगते
हो, गुरु
के कान से
सुनने लगते
हो।
मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं कि
जब जनक ने ये वचन
बोले, तो ये
वचन भी
अष्टावक्र के
ही वचन हैं।
कहते तो हैं—'जनक उवाच', लेकिन मैं
तुम्हें याद
दिलाना चाहता
हूं यह 'अष्टावक्र
उवाच' ही
है। वह जो
अष्टावक्र ने
कहा था, और
वह जो
अष्टावक्र की
मौजूदगी थी, वही इतनी
सघन हो गई है
कि जनक तो गए, जनक तो बह गए
बाढ़ में, उनका
तो कोई
पता—ठिकाना
नहीं है, वह
घर तो गिर
गया। यह तो
कोई और ही
बोलने लगा!
'मुझसे
उत्पन्न हुआ
यह संसार, मुझमें
वैसे ही लय को
प्राप्त होगा,
जैसे
मिट्टी में
घड़ा, जल
में लहर, सोने
में आभूषण लय
होते हैं। '
मैं वो
गुम—गुस्ता
मुसाफिर हूं
कि आप अपनी
मंजिल हूं
मुझे
हस्ती से क्या
हासिल, मैं
खुद हस्ती का
हासिल हूं।
वो
गुम—गुस्ता
मुसाफिर
हूं—मैं एक
ऐसा भटका यात्री
हूं भूला—
भटका यात्री, बटोही।
कि आप अपनी
मंजिल हूं—कि
मुझे पता नहीं,
लेकिन हूं
मैं अपनी
मंजिल।
मंजिल
कहीं बाहर
नहीं है। भटका
हूं इसलिए कि
भीतर झांक कर
नहीं देखा है; अन्यथा
भटकने का कोई
कारण नहीं है।
भटका हूं इसलिए
कि आंख बंद
करके नहीं
देखा है। भटका
हूं इसलिए कि
अपने को
पहचानने की
कोई कोशिश
नहीं की। और
वहां खोज रहा
हूं मंजिल, जहां मंजिल
हो नहीं सकती।
वो
गुम—गुस्ता
मुसाफिर हूं,कि
आप अपनी मंजिल
हूं।
यही
तो भटकाव का
कारण है, कि
मंजिल भीतर है,
हम बाहर खोज
रहे हैं।
रोशनी भीतर जल
रही है। प्रकाश
बाहर पड़ रहा
है। बाहर
प्रकाश को
पड़ते देखकर हम
दौड़े जा रहे
हैं कि प्रकाश
का स्रोत भी बाहर
ही होगा। बाहर
जो प्रकाश पड़
रहा है वह
हमारा है। बाहर
से जो गंध आ
रही है, वह
हमारी दी हुई
गंध है; वह
प्रतिफलन है,
प्रतिध्वनि
है। हम उस
प्रतिध्वनि
के पीछे भाग
रहे हैं।
यूनानी
कथा है
नार्सीसस की।
एक युवक—बहुत
सुंदर! बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया है। वह
बैठा है एक झील
के किनारे—शांत, सुंदर
झील; तरंग
भी नहीं!
उसमें अपनी
छाया देखी। वह
मोहित हो गया
अपनी छाया पर।
वह अपनी छाया
से प्रेम करने
लगा। वह इतना
पागल हो गया
कि वहां से
हटे ही न। उसे
भूख—प्यास भूल
गई। वह मजनू
हो गया, और
अपनी ही छाया
को लैला समझ
लिया। छाया
सुंदर थी, बार—बार
वह झील में
उतरे उसे
पकड़ने को, लेकिन
जब उतरे तो
झील कैप जाये,
लहरें उठ
आयें, छाया
खो जाये। फिर
किनारे पर बैठ
जाये। जब झील शांत
हो तब फिर
दिखाई पड़े।
कहते हैं, वह
पागल हो गया।
ऐसे ही वह मर
गया।
तुमने
नार्सीसस नाम
का पौधा देखा
होगा। पश्चिमी
पौधा है। वह
नदी के किनारे
होता है, नार्सीसस
की याद में ही
उसको नाम दिया
गया। वह नदी
के किनारे ही
होता है, और
झांककर अपनी
छाया, अपने
फूलों को पानी
में देखता
रहता है।
लेकिन
हर आदमी
नार्सीसस है।
जिसे हम खोज
रहे वह भीतर
है। जहां हम
खोज रहे, वहा
केवल
प्रतिबिंब है,
वहा केवल
प्रतिध्वनिया
हैं। निश्चित
ही
प्रतिध्वनियों
को खोजने का
कोई उपाय नहीं,
जब तक हम
मूलस्रोत की
तरफ न आयें।
मैं वो
गुम—गुस्ता
मुसाफिर हूं
कि आप अपनी
मंजिल हूं
मुझे
हस्ती से क्या
हासिल......
—जीवन
से मुझे क्या
लेना देना है?
मैं
खुद हस्ती का
हासिल हूं।
—मैं
खुद जीवन का
निष्कर्ष
हूं।
जीवन
से मुझे कुछ
लेना—देना
नहीं है। जीवन
के माध्यम से
मुझे कुछ अर्थ
नहीं खोजना
है—मैं खुद
जीवन का अर्थ
हूं;
मैं खुद
जीवन की
निष्पत्ति
हूं निष्कर्ष
हूं; उसका
आखिरी फूल हूं?
अंतिम चरण
हूं,उच्चतम
शिखर हूं। '
लेकिन
जो व्यक्ति
जीवन में अर्थ
खोज रहा है, वह
निरंतर
अर्थहीनता को
अनुभव करता
है। यही तो
हुआ आधुनिक
युग में अर्थ
खो गया है! लोग
कहते हैं, जीवन
में अर्थ कहां?
ऐसी
दुर्घटना
पहले कभी न
घटी थी। ऐसा
नहीं कि पहले
बुद्धिमान
आदमी न
थे—बहुत
बुद्धिमान
लोग हुए हैं, उनके साथ
तुलना भी करनी
कठिन है।
बुद्ध भी हुए
हैं; जरथुस्त्र
भी हुए हैं; लाओत्सु भी
हुए हैं, अष्टावक्र
भी हुए हैं।
बुद्धि के और
क्या शिखर हो
सकते हैं? इससे
बड़ी और क्या
मेधा होगी? लेकिन कभी
किसी ने नहीं
कहा कि जीवन
में अर्थ नहीं
है।
आधुनिक
युग के जो
बुद्धिमान
लोग
हैं—सार्त्र हों, कामू
हों, काफका
हों—वे सब
कहते हैं कि
जीवन में कोई
अर्थ नहीं है,
अर्थहीन, वितण्डा, मूर्ख के
द्वारा कही गई
कथा—ए टेल
टोल्ड बाइ एन
ईडियट! एक
मूर्ख के
द्वारा कहा
गया अर्थहीन वक्तव्य!
अनर्गल
प्रलाप! 'ए
टेल टोल्ड बाइ
एन ईडियट फूल
आफ क्यूरी एंड
न्वाएज
सिग्नीफाइंग
नथिंग!' नहीं
कुछ अर्थ, नहीं
कुछ मूल्य, व्यर्थ की
बकवास है—ऐसा
है जीवन!
क्या
हुआ?
जीवन अचानक
अर्थहीन
क्यों मालूम
होने लगा? कहीं
ऐसा तो नहीं
कि अर्थ हम
गलत दिशा में
खोज रहे हैं? क्योंकि
कृष्ण तो कहते
हैं, जीवन
महासार्थक
है। क्योंकि
कृष्ण तो कहते
हैं कि जीवन
तो परम अर्थ
और विभा से
भरा हुआ है।
और बुद्ध तो
कहते हैं, परम
शांति, परम
आनंद, जीवन
में छिपा है।
अष्टावक्र तो
कहते हैं, जीवन
स्वयं
परमात्मा है।
कहीं भूल हो
रही है, कहीं
चूक हो रही
है। हम कहीं
गलत दिशा में
खोज रहे हैं।
मुझे
हस्ती से क्या
हासिल, मैं
खुद हस्ती का
हासिल हूं।
जब
हम बाहर खोजते
हैं,
जीवन
अर्थहीन
मालूम होता
है। जब हम
भीतर खोजते
हैं, जीवन
अर्थपूर्ण
मालूम होता है,
क्योंकि हम
ही जीवन के
अर्थ हैं।
'मैं
आश्चर्यमय
हूं! मुझको
नमस्कार है।
ब्रह्मा से
लेकर तृण
पर्यंत जगत के
नाश होने पर
भी मेरा नाश
नहीं। मैं
नित्य हूं। '
ऐसा
अदभुत वचन न
तो पहले कभी
कहा गया, न फिर
पीछे कभी कहा
गया। इस वचन
की अदभुतता देखते
हो : मुझको
नमस्कार है!
निश्चित ही यह
जनक का
वक्तव्य नहीं
है। यह परम
घटना घट गई, उस घटना का
ही वक्तव्य
है। यह
समाधिस्थ
स्वर है। यह
संगीत समाधि
का है!
अहो
अहं नमो मह्यं
विनाशो यस्य
नास्ति मे।
सब
मिटेगा, मैं
नहीं मिला! सब
जन्मता है, मरता है—मैं
न जन्मता हूं
न मरता हूं!
आश्चर्यमय
हूं! मैं
स्वयं
आश्चर्य हूं!
मुझे मेरा नमस्कार!
छोटे से छोटे
तृण से लेकर
ब्रह्मा तक बनते
हैं और मिटते
हैं; उनका
समय आता और
जाता। वे सब
समय में घटी
हुई घटनाएं
हैं, तरंगें
हैं। मैं
साक्षी हूं!
मैं उन्हें
बनते और मिटते
देखता हूं। वे
मेरी ही आंखों
के सामने चल
रहे अभिनय, खेल और नाटक
हैं। मेरी ही आंखों
के प्रकाश में
वे प्रकाशित
होते और लीन
हो जाते हैं।
ब्रह्मा
भी! जिनकी तुम
मंदिरों में
पूजा करते हो—ब्रह्मा, विष्णु,
महेश—वे आते
हैं और जाते
हैं। सिर्फ एक
तत्व इस जगत
में न आता न
जाता—वह
तुम्हीं हो।
तुम से मुक्त—तुम्हीं!
और जब तुम से
मुक्त हो, तब
तुम पाओगे कि
चरणों में
अपने ही झुक
गये! तब तुम
पाओगे, भीतर
विराजमान है
परम प्रभु! तब
तुम पाओगे, जिसे तुम
खोजते थे, वह
तुम्हारे
भीतर सदा से
मौजूद
प्रतीक्षा
करता था! मैं
आश्चर्यमय
हूं! मुझको
नमस्कार है।
'मैं
आश्चर्यमय
हूं। मैं
देहधारी होता
हुआ भी अद्वैत
हूं। '
दो
दिखाई पड़ता
हूं,फिर भी
अद्वैत हूं।
वह दो दिखाई
पड़ना सिर्फ ऊपर—ऊपर
है। जैसे एक
वृक्ष में
बहुत —सी
शाखाएं दिखाई
पड़ती हैं। अगर
तुम शाखायें
गिनो, तो
अनेक हैं, अगर
तुम वृक्ष के
नीचे उतरने
लगो तो पीड़
में आकर एक हो
जाती हैं। ऐसे
ही ये जो
अनेक—रूप दिखता
है संसार, वह
भी अपने मूल
में आकर एक हो
जाता है। यह
एक का ही
फैलाव है।
'मैं
आश्चर्यमय
हूं। मुझको
नमस्कार है।
मैं देहधारी होता
हुआ भी अद्वैत
हूं। न कहीं
जाता हूं न
कहीं आता हूं
और संसार को
घेर कर स्थित
हूं। '
सुनो!
जनक कह रहे
हैं कि संसार
को घेर कर
स्थित हूं,संसार
को मैंने घेरा
है! मैं संसार
की परिभाषा
हूं! मैं असीम
हूं! संसार
मेरे भीतर है!
साधारणत:
हम देखते हैं, हम
संसार के भीतर
हैं। यह तो
अपूर्व क्रांति
हुई। यह तो
गेस्टाल्ट
पूरा बदला।
जनक कहते हैं,
संसार मेरे
भीतर है! जैसे
आकाश में बादल
उठते हैं, और
खो जाते हैं, ऐसे ही युग
मुझमें आते और
विलीन हो जाते
हैं। मैं
निराकार, साक्षी—रूप,
द्रष्टा—मात्र,
सब को घेर
कर खड़ा हूं!
इसे
तुम समझो।
बच्चे थे तुम
कभी,
तब एक आकार
घिरा था
तुम्हारे
आकाश में—बचपन
का। फिर तुम
जवान हो गए, वह रूप खो
गया। फिर
दूसरा बादल
घिरा। नया
आकार तुमने
लिया, तुम
जवान हो गए!
बच्चे थे, तब
तुम्हें
कामवासना का
कोई भी पता न
था। कोई समझाता
तो भी तुम समझ
न पाते। फिर
तुम जवान हुए,
नई वासना
उठी, वासना
ने नये वस्त्र
पहने, नया
रंग खिला, तुम्हारे
जीवन ने नया
ढांचा पकड़ा।
फिर तुम के होने
लगे। जवानी भी
गई! जवानी का
शोरगुल भी गया!
वह वासना भी
बह गई! अब
तुम्हें
हैरानी होती है
कि कैसे तुम
उन वासनाओं
में उतर सके!
अब तुम चकित
होकर सोचते हो
कि मैं ऐसा फू
था, कि मैं
ऐसा अज्ञानी
था!
हर
बूढ़े को एक न
एक दिन, अगर
वह सच में
जीवन को जरा
भी देखने में
सफल हो पाया
है—तो यह बात
आश्चर्य से
भरती है, कि
मैं कैसी—कैसी
चीजों के पीछे
भागा—धन, पद,
मोह, स्त्री—पुरुष,
कैसी—कैसी
चीजों के पीछे
भागा!
क्या—क्या खोजता
फिरा! मैं खुद
खोजता फिरा!
भरोसा नहीं आता
कि मैं और ऐसे
सपने में हो
सकता था!
अरब
में एक कहावत
है कि अगर
जवान आदमी रो
न सके तो जवान
नहीं, और अगर
का आदमी हंस न
सके तो का
नहीं। जवान
आदमी अगर रो न
सके, तो
जवान नहीं; क्योंकि जो
रो नहीं सकता,
जो अभी आंसू
नहीं बहा सकता,
उसका भाव
कुंठित है, उसके जीवन
में तरंग नहीं
है, मौज
नहीं है। जो
पीड़ित नहीं हो
सकता, वह
जवान नहीं है,
पथरीला है,
उसका हृदय
खिला नहीं, अनखिला रह
गया है। और का,
जो हंस न
सके—पूरे जीवन
पर और अपने पर,
कि कैसी
मूढ़ता है!
कैसा मजाक है!
—तो का नहीं।
का वही है, जो
हंस सके सारी
मूढ़ता पर, अपनी
और सबकी, और
कहे खूब मजाक
चल रहा है! लोग
पागल हुए भागे
जा रहे हैं—उन
चीजों के पीछे,
जिनका कोई
भी मूल्य
नहीं। उसे अब
दिखाई पड़ता है,
कोई भी
मूल्य नहीं
है!
कभी
तुम जवान, कभी
तुम बूढ़े! कभी
बादल एक रूप
लेता, कभी
दूसरा, कभी
तीसरा! लेकिन
तुमने खयाल
किया कि भीतर
तुम एक ही हो? जिसने देखा
था बचपन, उसी
ने जवानी
देखी। जिसने
देखी जवानी, उसी ने
बुढ़ापा देखा।
तुम द्रष्टा
हो! वह जो देखने
वाला पीछे खड़ा
है, वह वही
का वही है।
रात तुम सोते
हो, तब
तुम्हारा
द्रष्टा सपने
देखता है। जब
सपने भी नहीं
रह जाते, सिर्फ
गहरी तंद्रा
होती है, सुषुप्ति
होती है—तब
तुम्हारा
द्रष्टा सुषुप्ति
देखता है कि
खूब गहरी
नींद! इसीलिए
तो सुबह उठकर
तुम कभी कहते
हो कि रात खूब
गहरी नींद लगी।
किसने देखी!
अगर तुम पूरे
के पूरे सो गए
थे, और
तुम्हारे
भीतर कोई
देखने वाला न
बचा था, तो
किसने देखी? किसने जानी?
किसको यह
खबर मिली? कौन
यह कह रहा है? सुबह उठकर
कौन कहता है
कि रात मैं
गहरी नींद सोया?
अगर तुम सो
ही गये थे तो
जानने वाला
कौन था? जरूर
तुम्हारे
भीतर कोई
जागता रहा, कोई एक कोने
में दीया जलता
रहा, और
देखता रहा कि
गहरी नींद, बड़ी विश्रांतिमयी,
बड़ी
आह्लादकारी, बड़ी शांत, स्वप्न की
भी कोई तरंग
नहीं, कोई
तनाव नहीं, कोई विचार
नहीं! कोई
देखता रहा है।
सुबह उसी देखने
वाले ने कहा
है कि रात बड़ी
गहरी नींद रही।
रात सपने भरे
रहे तो सुबह
तुम कहते हो, रात सपनों
में गई, न
मालूम
कैसे—कैसे
दुख—स्वप्न
देखे! जरूर, देखने वाला
सपनों में खो
नहीं गया था।
जरूर देखने
वाला सपना हो
नहीं गया था।
देखने वाला
अलग ही खड़ा
रहा!
फिर
दिन में तुम
खुली आंख की
दुनिया देखते
हो। दुकान पर
तुम दुकानदार
हो,
मित्र के
साथ तुम मित्र
हो, शत्रु
के साथ तुम
शत्रु हो। घर
आते हो—पत्नी
के साथ पति हो,
बेटे के साथ
पिता हो, पिता
के साथ बेटे
हो। फिर
हजार—हजार
रूप! यह भी तुम
देखते हो।
लेकिन तुम इन
सबके पार
देखने वाले
हो। कभी सफलता
देखते हो कभी
विफलता, कभी
बीमारी कभी
स्वास्थ्य, कभी सौभाग्य
के दिन कभी
दुर्भाग्य के
दिन, लेकिन
एक बात तय है, कि ये सब आते
और जाते; तुम
न आते, तुम
न जाते।
'मैं
आश्चर्यमय
हूं। मुझको
नमस्कार है।
मैं देहधारी
होता हुआ
अद्वैत! न
कहीं जाता न
कहीं आता। '
न
क्यचित गता न
क्यचित आगंता
न
जाता न आता।
बस हूं। यह
होना मात्र ही
स्वरूप है।
'.
और संसार को
घेर कर स्थित
हूं। '
और
संसार को
मैंने घेरा!
यही तो
तुम्हारा
संसार है। यह संसार
तुम्हारे
भीतर है, तुम
इस संसार के
भीतर नहीं।
तुम इसके
मालिक हो, तुम
इसके गुलाम
नहीं। तुम जिस
क्षण चाहो, पंख फैला दो
और उड़ जाओ! अगर
तुम इसके भीतर
हो तो अपनी
मर्जी से हो, किसी की
जबर्दस्ती से
नहीं।
इतना
तुम्हें खयाल
रहे,
फिर कुछ
अड़चन नहीं है।
फिर अगर तुम
बंधन में पड़े
हो अपनी मर्जी
से, तो
बंधन भी बंधन
नहीं है। फिर
तुम्हारी जो
मर्जी, फिर
तुम्हें जो
करना हो करो।
लेकिन एक बात
भर मत भूलना
कि तुम कर्ता
नहीं हो, कर्ता
फिर एक रूप है,
भोक्ता
नहीं हो, भोक्ता
एक रूप है।
तुम साक्षी
हो! वही
तुम्हारी
शाश्वतता है।
पूरब
में,
हमारा सबसे
बड़ा खोज का जो
लक्ष्य रहा है,
वह उसे खोज
लेना है, जो
समयातीत है, कालातीत है।
जो समय की
धारा में
बनता—बिगड़ता है,
वह
प्रतिबिंब
है। जो समय के
पार खड़ा है—
साक्षीवत—वही
सत्य है।
'मैं
आश्चर्यमय
हूं। मुझको
नमस्कार है।
मेरे समान
निपुण कोई
नहीं!'
सुनते
हो?
जनक कहते
हैं, मेरे
समान निपुण
कोई भी नहीं!
'क्योंकि
शरीर से
स्पर्श किये
बिना ही, मैं
इस विश्व को
सदा—सदा धारण
किये रहा हूं।
'
यही
तो कला, कुशलता!
अहो
अहं नमो मह्यं
दक्षो
नास्तीह
मत्सम:
'मुझ जैसा
कौन दक्ष, मुझ
जैसा कौन
कुशल! छुआ भी
नहीं शरीर को!'
कभी
नहीं छुआ है।
छूने का कोई
उपाय नहीं, क्योंकि
तुम्हारा
स्वभाव और
शरीर का
स्वभाव इतना
भिन्न है कि
छूना हो नहीं
सकता, छूने
की घटना घट
नहीं सकती।
तुम सिर्फ
साक्षी हो!
तुम सिर्फ देख
ही सकते हो।
शरीर दृश्य है,
वह सिर्फ
दिखाई पड़ सकता
है। तुम्हारा
और शरीर का
मिलना हो नहीं
सकता। तुम
शरीर में खड़े
रहो, शरीर
तुम में खड़ा
रहे—लेकिन
अस्पर्शित, जैसे अनंत
दूरी पर!
दोनों का
स्वभाव इतना
भिन्न है कि
तुम मिला न
सकोगे।
तुम
दूध में पानी
मिला सकते हो, लेकिन
पानी को तेल
में न मिला सकोगे,
उनका
स्वभाव अलग
है। दूध में
पानी मिल जाता
है, क्योंकि
दूध पहले से
ही पानी है, नब्बे
प्रतिशत से भी
ज्यादा पानी
है। इसलिए दूध
में पानी मिल
जाता है।
लेकिन तेल में
तुम पानी न
मिला सकोगे, वे मिलेंगे
ही नहीं, वे
मिल ही नहीं
सकते; उनका
स्वभाव अलग
है।
फिर
भी ध्यान रखना, शायद
वैज्ञानिक
कोई विधि
निकाल लें तेल
और पानी को
मिलाने की; क्योंकि
कितना ही
स्वभाव भिन्न
हो, दोनों
ही पदार्थ
हैं। लेकिन
चेतना और जड़
को मिलाने का
कोई उपाय नहीं;
क्योंकि जड़
पदार्थ है, और चेतना
पदार्थ नहीं
है। दृश्य और
द्रष्टा को
मिलाने का कोई
उपाय नहीं।
द्रष्टा, द्रष्टा
रहेगा, दृश्य,
दृश्य
रहेगा।
इसलिए
जनक कहते हैं
कि आश्चर्य से
भर गया हूं मैं।
आश्चर्य ही हो
गया हूं! कैसी
मेरी निपुणता
कि इतने—इतने
कर्म किये, और
फिर भी अलिप्त
हूं!
इतना—इतना
भोगा, फिर
भी भोग की कोई
भी रेखा मुझ
पर नहीं पड़ी
है!
जैसे
पानी पर तुम
लिखते रहो, लिखते
रहो और कुछ
लिखा नहीं
जाता—ऐसे ही
तुम साक्षी के
साथ कर्म करते
रहो, भोग
करते रहो, कुछ
लिखा नहीं
जाता, सब
पानी की
लकीरों की
भांति मिट
जाता है! तुम लिख
नहीं पाये, और मिट जाता
है।
'मेरे समान
निपुण कोई
नहीं, क्योंकि
शरीर से
स्पर्श किये
बिना ही मैं
इस विश्व को
सदा—सर्वदा
धारण किये
हूं।
दिल
में वो तेरे
है मकीं
दिल से
तेरे अलग नहीं,
तुझसे
जुदा वो लाख
हो
तू न
उसे जुदा समझ।
हम
लाख समझें
अपने को कि
शरीर से जुड़े
हैं,
हम जुड़ नहीं
सकते। और हम
लाख समझें
अपने को कि हम
परमात्मा से
अलग हैं, हम
अलग नहीं हो
सकते। और ये
दोनों बातें
एक साथ समझ में
आती हैं, जब
भी समझ में
आती हैं। जब
तक तुम सोचते
हो कि तुम
शरीर से जुड़
सकते हो, तब
तक इसका एक
दूसरा पहलू भी
है कि तुम
सोचोगे तुम
परमात्मा से
टूट गए। जिस
दिन तुम
जानोगे परमात्मा
से जुड़े हो, उस दिन तुम
जानोगे : अरे!
आश्चर्यों का
आश्चर्य कि
मैं शरीर से
कभी भी जुड़ा न
था!
दिल
में वो तेरे
है मकीं
दिल से
तेरे अलग
नहीं।
—वह परम सत्य
तेरे दिल में
बसा है।
दिल
में वो तेरे
है मकीं
—उसने
वहीं मकान
बनाया है।
दिल से
तेरे अलग
नहीं।
तुझसे
जुदा वो लाख
हो
तू न
उसे जुदा समझ।
भला
कितना ही तुझे
प्रतीत होता
रहे कि जुदा
है,
जुदा है, तो जुदा मत
समझना, क्योंकि
जुदा होने का
कोई उपाय
नहीं। परमात्मा
से अलग होने
की कोई
व्यवस्था
नहीं है और संसार
के साथ एक
होने का कोई
उपाय नहीं है।
यद्यपि जो
नहीं हो सकता,
उसी को करने
में हम
जन्मों—जन्मों
से लगे रहे।
जिस दिन तुम
भी जागोगे—और
निश्चित किसी
दिन जागोगे; क्योंकि जो
सोया है, वह
कब तक सोयेगा?
क्योंकि जो
सोया है, जागना
उसका स्वभाव
है—तभी तो सो
गया है। जो सोया
है, सोने
में ही खबर दे
रहा है कि जाग
भी सकता है, जागना उसकी
संभावना है।
जो जाग नहीं
सकता, वह
सोयेगा कैसे?
जो जाग सकता
है, वही सो
सकता है।
किसी
न किसी दिन
तुम जागोगे।
जब जागोगे, तब
तुम्हें भी
लगेगा.
'मेरे समान
निपुण कोई भी
नहीं! शरीर से
स्पर्श किये
बिना मैं इस
विश्व को
सदा—सदा धारण
किये हुए हूं।
'
और
मैं ही इस
विश्व को धारण
किये हूं कोई
और इसे नहीं
सम्हाले है।
छुआ भी नहीं
है इसे, और
मैं सम्हाले
हूं।
झेन
फकीर कहते हैं
कि गुजरना नदी
से,
लेकिन
ध्यान रखना, पानी
तुम्हें छूने
न पाये। वे
इसी बात की
खबर दे रहे
हैं कि अगर
तुम्हें समझ आ
जाये साक्षी की,
तो तुम गुजर
जाओगे नदी से।
पानी शरीर को
छुएगा, तुम्हें
नहीं छू
सकेगा। तुम
साक्षी ही बने
रहोगे।
इस
संसार में
साक्षी बनना
सीखो। थोड़ा—
थोड़ा कोशिश
करो। राह पर
चलते कभी इस
भांति चलो कि
तुम नहीं चल
रहे,
सिर्फ शरीर
चल रहा है।
तुम तो वही
हो—न क्यचित गता,
न क्यचित आगंता—न
कभी जाता कहीं,
न कभी आता
कहीं। राह पर
अपने को चलता
हुआ देखो और
तुम द्रष्टा
बनो। भोजन की
टेबल पर भोजन
करते हुए देखो
अपने को कि
शरीर भोजन कर
रहा है, हाथ
कौर बनाता, मुंह तक
लाता, तुम
चुपचाप
खड़े—खड़े देखते
रहो! प्रेम
करते हुए देखो
अपने को, क्रोध
करते हुए देखो
अपने को। सुख
में देखो, दुख
में देखो।
धीरे— धीरे साक्षी
को सम्हालते
जाओ। एक दिन
तुम्हारे भीतर
भी उदघोष होगा,
परम वर्षा
होगी, अमृत
झरेगा!
तुम्हारा हक
है, स्वरूप—सिद्ध
अधिकार है!
तुम जिस दिन
चाहो, उस
दिन उसकी
घोषणा कर सकते
हो।
'मैं
आश्चर्यमय
हूं। मुझको
नमस्कार है।
मेरा कुछ भी
नहीं है, अथवा
मेरा सब कुछ
है—जो वाणी और
मन का विषय
है। '
कहते
हैं जनक कि एक
अर्थ में मेरा
कुछ भी नहीं है, क्योंकि
मैं ही नहीं
हूं। मैं ही
नहीं बचा, तो
मेरा कैसा? तो एक अर्थ
में मेरा कुछ
भी नहीं है, और एक अर्थ
में सभी कुछ
मेरा है।
क्योंकि जैसे
ही मैं नहीं
बचा, परमात्मा
बचता है—और उसी
का सब कुछ है।
यह
विरोधाभासी
घटना घटती है,
जब तुम्हें
लगता है मेरा
कुछ भी नहीं
और सब कुछ
मेरा है।
अहो
अहं नमो मलं
यस्य मे
नास्ति किंचन
।
अथवा
यस्य में
सर्वं
यब्दाङमनसगोचरम्
।।
जो
भी दिखाई पड़ता
है आंख से, इंद्रियों
से अनुभव में
आता है, कुछ
भी मेरा नहीं
है, क्योंकि
मैं द्रष्टा
हूं। लेकिन
जैसे ही मैं द्रष्टा
हुआ, वैसे
ही पता चलता
है, सभी
कुछ मेरा है, क्योंकि मैं
इस सारे
अस्तित्व का
केंद्र हूं।
द्रष्टा
तुम्हारा
व्यक्तिगत
रूप नहीं है।
द्रष्टा
तुम्हारा
समष्टिगत रूप
है। भोक्ता की
तरह हम अलग—
अलग हैं, कर्ता
की तरह हम अलग—
अलग
हैं—द्रष्टा
की तरह हम सब
एक हैं। मेरा
द्रष्टा और
तुम्हारा
द्रष्टा अलग—
अलग नहीं।
मेरा द्रष्टा
और तुम्हारा
द्रष्टा एक ही
है। तुम्हारा
द्रष्टा और
अष्टावक्र का
द्रष्टा अलग—
अलग नहीं।
तुम्हारा और
अष्टावक्र का द्रष्टा
एक ही है।
तुम्हारा
द्रष्टा और बुद्ध
का द्रष्टा
अलग—अलग नहीं।
तो
जिस दिन तुम
द्रष्टा बने
उस दिन तुम
बुद्ध बने, अष्टावक्र
बने, कृष्ण
बने, सब
बने। जिस दिन
तुम द्रष्टा
बने, उस
दिन तुम विश्व
का केंद्र
बने। इधर मिटे,
उधर पूरे
हुए। खोया यह
छोटा—सा मैं, यह बूंद
छोटी—सी—और
पाया सागर
अनंत का!
ये
सूत्र
आत्म—पूजा के
सूत्र हैं। ये
सूत्र कह रहे
हैं कि
तुम्हीं हो
भक्त, तुम्हीं
हो भगवान। ये
सूत्र कह रहे
हैं, तुम्हीं
हो आराध्य, तुम्हीं हो
आराधक। ये
सूत्र कह रहे
हैं कि तुम्हारे
भीतर दोनों
मौजूद हैं, मिलन हो
जाने दो दोनों
का! ये सूत्र
बड़ी अनूठी बात
कह रहे हैं, झुक जाओ
अपने ही चरणों
में, मिट
जाओ अपने ही
भीतर, डूब
जाओ अपने ही
भीतर!
तुम्हारा
भक्त और तुम्हारा
भगवान
तुम्हारे
भीतर है। हो
जाने दो मिलन वहां,
हो जाने दो
सम्मिलन, वहीं
घटेगी क्रांति
जब भीतर
तुम्हारा
भक्त और भगवान
मिल कर एक हो जायेगा।
न भगवान बचेगा
न भक्त; कोई
बचेगा—अरूप, निर्गुण, सीमातीत, कालातीत, समयातीत, क्षेत्रातीत!
द्वैत नहीं
बचेगा, अद्वैत
बचेगा!
इन
अद्वैत के
क्षणों की जो
पहली झलकें
हैं,
उन्हीं को
हम ध्यान कहते
हैं। इसी
अद्वैत की झलकें
जब थिर होने
लगती हैं तो
हम सविकल्प
समाधि कहते
हैं। और जब इस
अद्वैत की झलक
शाश्वत हो
जाती है, ऐसी
थिर हो जाती
है कि फिर
छूटने का उपाय
नहीं रह
जाता—तब इसी
को हम
निर्विकल्प
समाधि कहते हैं।
यह
दो तरह से घट
सकता है। या
तो मात्र
बोधपूर्वक—जैसा
जनक को घटा; सिर्फ
समझ लेने
मात्र से! पर
बड़ी प्रज्ञा
चाहिए, बड़ी
प्रखरता
चाहिए, बड़ी
त्वरा चाहिए!
बड़ी धार चाहिए
तुम्हारे
भीतर फिर
चैतन्य की तो
यह घटना तल्ला
घट सकती है।
अगर तुम पाओ, ऐसा घटता है,
तो ठीक। अगर
तुम पाओ ऐसा
नहीं घटता, तो इन
सूत्रों को
बैठ कर
दोहराते मत
रहना, इन
सूत्रों को
दोहराने से न
घटेगा। ये
सूत्र ऐसे हैं
कि अगर सुन कर
घट गया, तो
घट गया; चूक
गए सुनते वक्त,
तो फिर इनको
तुम लाख
दोहराओ, न
घटेगा, क्योंकि
पुनरुक्ति से
नहीं घटने
वाला है। पुनरुक्ति
से तुम्हारे
मस्तिष्क में
धार नहीं आती,
धार मरती
है।
तो
एक तो उपाय है
कि इन सूत्रों
को सुनते ही
घट जाये। घट
जाये तो घट
जाये, तुम कुछ
कर नहीं सकते
उसमें; अगर
न घटे, तो
फिर तुम्हें
धीरे— धीरे
ध्यान, ध्यान
से फिर
सविकल्प
समाधि, सविकल्प
समाधि से फिर
निर्विकल्प
समाधि—उसकी
यात्रा करनी
पड़े। छलांग लग
जाये तो ठीक
नहीं तो फिर
सीढियों से
उतरना पड़े।
छलांग लग जाये
तो लग जाये।
किसी को लग
सकती है। सभी
आश्चर्य संभव
हैं, क्योंकि
तुम
आश्चर्यों के
आश्चर्य हो!
इसलिए
इसमें असंभव
कुछ भी नहीं
है। यहां मुझे
सुनते —सुनते
किसी को छलांग
लग सकती है।
अगर तुम बीच
में न आओ, अगर
तुम अपने को
अलग रख दो, अगर
तुम अपनी
बुद्धि को
उतार कर रख दो
जैसे जूते और
कपड़े उतार कर
रख देते हो, अगर तुम
शुद्ध, नग्न
चैतन्य से
मेरे सामने हो
जाओ—तो यह
छलांग लग सकती
है। जैसी जनक
को लगी, वैसी
तुम्हें लग
सकती है। लग
जाये, ठीक,
उपाय नहीं
है इसमें फिर।
तुम यह नहीं
पूछ सकते कि
हम कैसे
इंतजाम करें
इसके लगाने का?
अगर इंतजाम
पूछा तो यह
नहीं लगती।
फिर दूसरा
उपाय है। फिर
पतंजलि
तुम्हारा
मार्ग हैं, फिर महावीर,
फिर बुद्ध।
फिर
अष्टावक्र
तुम्हारे
मार्ग नहीं
हैं।
इसीलिए
तो अष्टावक्र
की गीता
अंधेरे में
पड़ी रही है।
इतनी त्वरा, इतनी
तीव्रता, इतनी
मेधा, मुश्किल
से मिलती है।
जन्मों—जन्मों
तक कोई निखार
कर आया होता
है, तो यह
घटना घटती है।
मगर घटती है!
कभी सौ में एकाध
को, मगर
घटती है! ऐसे
मनुष्य—जाति
के इतिहास में
बहुत—से
उल्लेख हैं, जब कोई
छोटी—मोटी
घटना ने क्रांति
कर दी।
मैंने
सुना है, बंगाल
में एक साधु
हुए, अदालत
में क्लर्क थे,
हेड—क्लर्क
थे। रिटायर हो
गए। राजा बाबू
नाम था।
बंगाली थे, सो बाबू।
साठ के ऊपर
उम्र हो गई थी,
एक दिन सुबह
घूमने निकले
थे।
ब्रह्ममुहूर्त,
सूरज अभी
उगा नहीं। कोई
स्त्री अपने
घर में, दरवाजा
बंद है, किसी
को जगाती थी।
होगी उसका
बेटा, होगा
उसका
देवर—किसी को
जगाती थी।
कहती थी, 'राजा
बाबू उठो, बहुत
देर हो गई!' राजा
बाबू बाहर से
निकल रहे थे
अपनी छड़ी लिए,
सुबह घूमने
निकले थे।
अचानक सुबह उस
ब्रह्ममुहूर्त
के क्षण में, सूरज अभी
उगने —उगने को
है, आकाश
पर लाली फैली
है, पक्षी
गीत
गुनगुनाने
लगे, सारी
प्रकृति
जागरण से
भरी—घट गई बात!
स्त्री तो
किसी और को
जगाती थी, इन
राजा बाबू से
तो कुछ कहा ही
न था। उसे तो
पता भी न था कि
ये राजा बाबू
बाहर से निकल
रहे हैं। ये
तो अपने घूमने
निकले थे, वह
किसी को भीतर
कहती थी कि 'राजा बाबू
उठो, सुबह
हो गई, बहुत
देर हो गई! अब
उठो भी, कब
तक सोये रहोगे?'
सुनाई
पड़ा—घट गई
घटना। घर नहीं
लौटे। चलते ही
गए। जंगल
पहुंच गए। घर
के लोगों को
पता चला। घर
के लोग खोजने
गए, मिले
जंगल में।
पूछा, 'क्या
हो गया?' हंसने
लगे! कहा, 'बस
हो गया! राजा
बाबू जग गए, अब जाओ!' उन्होंने
कहा, 'क्या
मतलब? क्या
कहते हैं आप?' उन्होंने
कहा, 'अब
कहने—सुनने को
कुछ भी नहीं। बहुत
देर वैसे ही
हो गई थी। बात
समझ में आ गई।
सुबह का वक्त
था, सारी
प्रकृति जाग
रही थी—उसी
जागरण में मैं
भी जाग गया!
कोई स्त्री
कहती थी. उठो
बहुत देर हो गई!
पड़ गई चोट। '
अब
स्त्री तो
अष्टावक्र भी
न थी,
खुद भी जागी
न थी! तो
कभी—कभी ऐसा
भी हुआ है, अगर
तुम्हारी
मेधा प्रगाढ़
हो, तुम्हारा
फल पक गया हो, तो हवा का
झोंका—या न
चले हवा, तो
भी कभी पका फल
बिना झोंके के
भी गिर जाता
है। हो जाये
तो हो जाये!
लेकिन अगर न
हो, तो
निराश मत हो
जाना, उदास
मत हो जाना।
अगर आकस्मिक न
हो तो क्रमिक हो
सकता है।
आकस्मिक
कभी—कभी होता
है, अपवाद—स्वरूप
है। इसलिए
अष्टावक्र की
गीता अपवाद—स्वरूप
है। इसमें कोई
विधि नहीं है।
कोई मार्ग
नहीं है।
जापान
में झेन
परंपरा के दो
स्कूल हैं। दो
परपरायें
हैं। एक
परंपरा है.
सडन
एनलाइटेनमेंट; तत्क्षण
संबोधि। वे जो
कह रहे हैं, वह वही जो
अष्टावक्र
कहते हैं। उनका
गुरु कुछ नहीं
सिखाता। आकर
बैठ जाता है, कुछ मौज हुई
तो बोल देता
है। हो जाये, हो जाये।
ऐसे
एक गुरु को एक
सम्राट ने
अपने महल में
आमंत्रित
किया। वह गुरु
आया,
वह मंच पर
चढ़ा। सम्राट
बड़ी उत्सुकता
से प्रतीक्षा
करता था; वह
बैठा है
शिष्य— भाव
से। उस गुरु
ने मंच पर बैठ
कर थोड़ी देर
इधर—उधर देखा,
जोर से
टेबिल पर
मुक्के मारे,
उठा और चला
गया!
वह
सम्राट चौंक
कर रह गया कि
यह क्या हुआ!
उसने अपने
वजीर से पूछा।
वजीर ने कहा, 'उन्हें
मैं जानता
हूं। इससे
ज्यादा
महत्वपूर्ण
व्याख्यान
उन्होंने कभी
दिया ही नहीं।
मगर समझे तो
समझे, नहीं
समझे तो नहीं
समझे। '
सम्राट
ने कहा, 'यह
व्याख्यान! ये
टेबिल पर तीन
दफे घूंसे
मारना और चले
जाना—बस हो गई
बात?'
उस
वजीर ने कहा
कि वह जगाने
की कोशिश करके
चले गये। जगो
तो जग जाओ।
राजा बाबू उठो, सुबह
हो गई। वह
अलार्म बजा कर
चल दिये!
उस
वजीर ने कहा, 'मैंने
इन गुरु के और
भी व्याख्यान
सुने हैं, मगर
इससे ज्यादा
प्रगाढ़ और
इससे ज्यादा
सचेतन करने
वाला
व्याख्यान
उन्होंने कभी
दिया ही नहीं।
मगर आप चिंतित
न हों, क्योंकि
मैंने बहुत
सुने, मैं
भी अभी जागा
नहीं। आपने तो
पहला ही
व्याख्यान
सुना है।
सुनते रहें, हो जाये
शायद!' यह
आकस्मिक घटना
है, इसमें
कार्य—कारण का
कोई संबंध
नहीं। अभूतपूर्व!
जिससे
तुम्हारे
अतीत का कोई
लेना—देना नहीं
है—हो जाये तो
हो जाये! यह
कोई
वैज्ञानिक घटना
नहीं है कि सौ
डिग्री तक
पानी गर्म
करेंगे तो भाप
बनेगा। यह
मामला कुछ ऐसा
है कि कभी बिना
गर्म किये भाप
बन जाता है।
इसकी
वैज्ञानिक
कोई व्याख्या
नहीं है।
अष्टावक्र
विज्ञान के
बाहर हैं। अगर
तुम्हारी
बुद्धि
वैज्ञानिक हो
और तुम कहो, 'ऐसे
कैसे होगा? कुछ करेंगे
तब होगा। 'तो
फिर तुम
वैज्ञानिक
बुद्धि से
चलो। फिर तुम बुद्ध
को पूछो तो
आष्टांगिक
योग है। फिर
तुम पतंजलि को
पूछो तो उनका
भी योग है।
फिर
प्रक्रियाएं हैं।
यह योग नहीं
है; यह
सांख्य का
शुद्ध
वक्तव्य है।
इसलिए
अष्टावक्र
बहुतों को जगा
सके होंगे, ऐसा
भी नहीं! कोई
एकाध जनक जग
गया होगा, बस!
जनक जग गया, यह भी बहुत
है; जरूरी
न था। और तो
कुछ खबर भी
नहीं कि
अष्टावक्र से
कोई और भी
जगा।
बुद्ध
ने बहुतों को
जगाया, पतंजलि
अब भी जगाये
चले जाते हैं।
अष्टावक्र ने
तो केवल एक
व्यक्ति को
जगाया। वह भी
अष्टावक्र ने
जगाया, कहना
कठिन है। जनक
जागने की
क्षमता में थे,
अष्टावक्र
तो केवल
निमित्त बन
गए। कारण
नहीं—निमित्त।
तो
जो सडल
एनलाइटेनमेंट, तत्क्षण
बोधि—संबोधि
के उपाय हैं, उनमें तो
गुरु केवल
निमित्त है। वह
कोशिश
करेगा—हों
जाये, हो
जाये। कोई
विज्ञान नहीं
है। न हो तो
निराश मत
होना।
तुम्हें हो ही
जायेगा, ऐसा
गुरु मान कर
भी नहीं चलता
है। किसी को
हो जायेगा!
जिनको न हो
जायेगा, उनमें
कम से कम होने
की प्यास
जगेगी; वे
विधि की तलाश
करेंगे, उन्हें
विधि से होगा।
नियम
तो विधि से ही
होने का है।
बिना विधि के
होना तो
अपवाद—स्वरूप
है,
वह नियम के
बाहर है। तो
यहां सुनना
ध्यानपूर्वक!
हो जाये, शुभ,
न हो जाये
तो निराश मत
होना!
हरि
ओंम तत्सत्!
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