17
सितंबर, 1976
ओशो
आश्रम
कोरेगांव
पार्क,
पूना।
जनक
उवाच।
अहो
निरंजन: शांतो
बोधोउहं
प्रकृते पर: ।
एतावंतमहं
कालं मोहेनैव
विडंबित: ।।21।।
यथा
प्रकाशाम्मेको
देहमेनं तथा
जगत् ।
अतो
मम
जगत्सर्वमथवा
न ब किंचन ।।22।।
सशरीरमहो
विश्वं
परित्यज्य
मयाउउधुना !
कुतश्चित्
कौशलादेव
परमात्मा
विलोक्यते
।।23।।
यथा
न तोयतो भिन्नस्तरंगा
फेनबुखदा: ।
आत्मनो
न तथा भिन्नं
विश्वमात्मविनिर्गतम्
।।24।।
तंतुमात्रो
भवेदेव पटो
यद्वद्विचारत
।
आत्यतन्मात्रमेवेदं
तद्वद्विश्वं
विचारितम् ।।25।।
यथैवेमुरसे
क्लृप्ता तेन
व्याप्तेव
शर्करा ।
तथा
विश्वं मयि
क्लृप्तं मया
व्याप्तं
निरतरम् ।।26।।
आत्माउउज्ञानाज्जगद्भाति
आत्मज्ञानान्नभासते
।
रज्ज्वज्ञानादहिर्भाति
तज्ज्ञनादभासते
न हि ।।27।।
अंधेरे
में जैसे
अनायास किरण
उतरे, या जैसे अंधे
को अचानक
आंखें मिल
जाएं—ऐसा ही
जनक को हुआ।
जो नहीं देखा
था कभी, वह
दिखाई पड़ा। जो
नहीं सुना था
कभी, वह
सुनाई पड़ा।
हृदय एक नई
तरंग, एक
नई उमंग से भर
गया। प्राणों
ने एक नया
दर्शन किया।
निश्चित ही
जनक सुपात्र
थे!
वर्षा
होती है, पहाड़ों
पर होती है, पहाड़ खाली
रह जाते हैं, क्योंकि
पहले से ही
भरे हैं।
झीलों में
होती है, खाली
झीलें भर जाती
हैं।
जो
खाली है, वही
सुपात्र है; जो भरा है, अपात्र है।
अहंकार
आदमी को पत्थर
जैसा बना देता
है। निरहंकार
आदमी को
शून्यता देता
है।
जनक
शून्य पात्र
रहे होंगे।
तत्क्षण
अहोभाव पैदा
हुआ। सुनते ही
जागे। पुकारा
नहीं था कि
पुकार पहुंच
गई। कोड़े की
छाया काफी मालूम
हुई;
कोड़ा
फटकारने की
जरूरत न पड़ी; मारने का
सवाल ही न था।
अष्टावक्र
भी भाग्यशाली
हैं कि जनक
जैसा सुपात्र
सुनने को
मिला।
मनुष्य—जाति
के इतिहास में
जितने सदगुरु
हुए,
उनमें
अष्टावक्र
जैसा
सौभाग्यशाली
सदगुरु दूसरा
नहीं; क्योंकि
जनक जैसा
शिष्य पाना
अति दुर्लभ
है—जो जरा से
इशारे से जाग
जाए; जैसे
तैयार ही था; जैसे बस हवा
का जरा—सा
झकोरा काफी था
और नींद टूट
जाएगी। नींद गहरी
न थी। किन्हीं
सपनों में दबा
न था। उठा—उठी
की ही हालत
थी।
ब्रह्ममुहूर्त
आ ही गया था। सुबह
होने को थी।
बौद्ध
जातकों में
कथा है कि
बुद्ध जब
ज्ञान को
उपलब्ध हुए तो
सात दिन चुप
रह गए; क्योंकि
सोचा बुद्ध
ने. जो मेरी
बात समझेंगे,
वे मेरे
बिना समझाए भी
समझ ही लेंगे;
जो मेरी बात
नहीं समझेंगे,
वे मेरे
समझाए—समझाए
भी नहीं
समझेंगे। तो
फायदा क्या? क्यों बोलूं?
क्यों
व्यर्थ श्रम
करूं? जो
तैयार हैं
जागने को, उन्हें
'कोई भी
कारण जगाने का
बन जाएगा; उन्हें
पुकारने और
चिल्लाने की
जरूरत नहीं।
कोई पक्षी
गुनगुनाएगा
गीत, हवा का
झोंका
वृक्षों से
गुजरेगा, उतना
काफी होगा! और
ऐसा हुआ है।
लाओत्सु
बैठा था एक
वृक्ष के नीचे, एक
सूखा पत्ता
वृक्ष से गिरा,
और उस सूखे
पत्ते को
वृक्ष से
गिरते देख कर
वह परम बोध को
उपलब्ध हो
गया। सूखा
पत्ता गुरु हो
गया। बस देख
लिया सब! देख लिया
उस सूखे पत्ते
में—अपना जन्म,
अपना मरण!
उस सूखे पत्ते
की मौत में सब
मर गया। आज
नहीं कल मैं
भी सूखे पत्ते
की तरह गिर
जाऊंगा—बात
पूरी हो गई।
खुद
बुद्ध को ऐसा
ही हुआ था।
राह पर देख कर
एक बीमार बूढ़े
आदमी को वे
चौंक गए।
मुर्दे की लाश
को देख कर
उन्होंने
पूछा, इसे
क्या हुआ?
सारथी
ने कहा, यही
आपको भी, सभी
को होगा। एक
दिन मौत आएगी
ही।
फिर
बुद्ध ने कहा, लौटा
लो रथ घर की ओर
वापिस। अब
कहीं जाने को
न रहा। जब मौत
आ रही है, जीवन
व्यर्थ हो
गया!
तुमने
भी राह से
निकलती लाशें
देखी हैं। तुम
भी राह के
किनारे खड़े हो
कर क्षण भर को
सहानुभूति प्रगट
किए हो। तुम
कहते हो, बहुत
बुरा हुआ, बेचारा
मर गया! अभी तो
जवान था। अभी
तो घर—गृहस्थी
कच्ची थी।
बुरा हुआ!
तुमने
दया की है जो
मर गया उस पर।
तुम्हें जरा भी
दया अपने पर
नहीं आई कि उस
मरने वाले में
तुम्हारे
मरने की खबर आ
गई,
कि जैसे आज
यह अर्थी पर
बंधा जा रहा
है, कल, कल
नहीं परसों
तुम भी बंधे
चले जाओगे।
जैसे आज तुम
राह के किनारे
खड़े हो कर इस
पर सहानुभूति प्रगट
कर रहे हो, दूसरे
लोग राह के
किनारे खड़े हो
कर सहानुभूति प्रगट
करेंगे। अवश
तुम इतने
होओगे कि
धन्यवाद भी न
दे सकोगे। यह
जो लाश जा रही
है, यह
तुम्हारी है।
देखने
वाला हो, आंख
हो, गहरी
हो, प्रगाढ़
चैतन्य हो, तो बस एक
आदमी मरा कि
सारी
मनुष्यता मर
गई, कि
जीवन व्यर्थ
हो गया! बुद्ध
चले गए थे छोड़
कर।
तो
जब उन्हें बोध
हुआ,
तो
उन्होंने
सोचा कि जिसको
जागना है वह
बिना किसी के
जगाए भी जग
जाता है। उसे
कोई भी बहाना
काफी हो जाता
है।
कहते
हैं,
एक झेन
साधिका कुएं
से पानी भर कर
लौटती थी कि बांस
टूट गया, घड़े
नीचे गिर गए।
पूर्णिमा की
रात थी, घड़ों
में चांद का
प्रतिबिंब बन
रहा था। कावर
को लिए, घड़ों
को लटकाए वह
लौटती थी
आश्रम की तरफ,
देखती घड़ों
के जल में
चांद के
प्रतिबिंब को
बनते। घड़े
गिरे। चौंक कर
खड़ी हो गई।
घड़ा गिरा, जल
बहा—चांद भी
बह गया! कहते
हैं, बस
बोध को
उत्पन्न हो
गई। सम्यक
समाधि लग गई। नाचती
हुई लौटी; दिखाई
पड़ गया कि यह
जगत प्रतिबिंब
से ज्यादा
नहीं है। यहां
जो हम बनाए
चले जा रहे
हैं, यह
कभी भी टूट
जाएगा। ये सब
चांद खो जाएंगे।
ये सब सुंदर
कविताएं खो
जाएंगी। ये
मनमोहिनी
सूरतें सब खो
जाएंगी। ये सब
पानी में बने
प्रतिबिंब
हैं। ऐसा दिख
गया, बात
खतम हो गई।
तो
बुद्ध ने सोचा, क्या
सार है? किससे
कहूंगा? जिसे
जागना है, वह
मेरे बिना भी
देर—अबेर जाग
ही जाएगा, थोड़े—बहुत
समय का अंतर
पड़ेगा। और
जिसे जागना
नहीं है, चीखो—चिल्लाओ,
वह करवट ले
कर सो जाता
है। आंख भी
खोलता है तो
नाराजगी से
देखता है कि
क्यों नींद
खराब कर रहे
हो? तुम्हें
कोई और काम
नहीं? सोयों
को सोने नहीं
देते! शांति
से नींद चल
रही थी, तुम
जगाने आ गए!
तुम
खुद ही किसी
को कह दो कि
सुबह मुझे जगा
देना, जब वह
जगाता है तो
नाराजगी आती
है। कहा
तुम्हीं ने था
कि ट्रेन
पकड़नी है, सुबह
जरा जल्दी चार
बजे उठा देना।
जगाता है तो
मारने की
तबीयत होती
है।
इमेनुएल
कांट, बड़ा
विचारक हुआ
जर्मनी में।
वह रोज तीन
बजे रात उठता
था। घड़ी के
हिसाब से चलता
था, घड़ी के कांटे
के हिसाब से
चलता था। कहते
हैं, जब वह
यूनिवर्सिटी
जाता था पढ़ाने
तो घरों में लोग
अपनी घड़ियां
मिला लेते थे।
क्योंकि वह नियम
से, वर्षों
से, तीस
वर्ष निरंतर
ठीक
मिनिट—मिनिट
सेकेंड—सेकेंड
के हिसाब से
निकला था।
लेकिन कभी
बहुत सर्दी
होती तो अपने
नौकर को कह देता
कि कुछ भी हो
जाए, तीन
बजे उठाना।
अगर मैं
मारूं—पीटूं
भी तो तू फिकर
मत करना तू भी
मारना—पीटना,
मगर उठाना!
उसके घर नौकर
न टिकते थे, क्योंकि यह
बड़ी झंझट की
बात थी। तीन
बजे उठाएं तो
वह बहुत नाराज
होता था, न
उठाएं तो सुबह
जागकर नाराज
होता था। और
ऐसा नहीं था
कि नाराज ही
होता था, मारपीट
होती। वह भी
मारता। नौकर
को भी कह रखा था,
तू फिक्र मत
करना, उठना
तो तीन बजे है
ही। घसीटना, उठाना, लेकिन
तीन बजे उठा
कर खड़ा कर
देना! तू
चिंता ही मत
करना कि मैं
क्या कर रहा
हूं। उस वक्त
मैं क्या कहता
हूं वह मत
सुनना, क्योंकि
उस वक्त मैं
नींद में होता
हूं। उस समय
जो मैं कहता हूं
वह सुनने की
जरूरत नहीं।
तो
ऐसे लोग भी
हैं!
बुद्ध
ने सोचा, क्या
सार है? जिसे
सोना है, वह
मेरी
चिल्लाहट पर
भी सोता
रहेगा। जिसे
जागना है वह
मेरे बिना
बुलाए भी जाग
ही जाएगा।
सात
दिन वह बैठे
रहे चुप। फिर
देवताओं ने
उनसे
प्रार्थना की
कि आप यह क्या
कर रहे हैं? कभी—कभी
कोई बुद्धत्व
को उपलब्ध
होता है, भू
तरसती है, प्यासे
लोग तरसते हैं,
कि मेघ बना
है अब तो
बरसेगा। आप
चुप हैं, बरसें!
फूल खिला है, गंध को बहने
दें! यह रसधार
बहे! अनेक
प्यासे हैं
जन्मों—जन्मों
से। और आपका तर्क
हमने सुन
लिया। हम आपके
मन को देख रहे
हैं सात दिन
से निरंतर। आप
कहते हैं. कुछ
हैं जो मेरे
बिना बुलाए जग
जाएंगे; और
कुछ हैं जो
मेरे
बुलाए—बुलाए न
जगेंगे। इसलिए
आप चुप हैं? हम सोच—समझ
कर आए हैं।
कुछ ऐसे भी
हैं जो दोनों के
बीच में खड़े
हैं! उनको आप
इनकार न कर
सकेंगे। अगर
कोई जगाएगा तो
जग जाएंगे।
अगर कोई न
जगाएगा तो
जन्मों—जन्मों
तक सोए रह
जाएंगे। उन
कुछ का खयाल
करें। आप जो
कहते हैं, वे
होंगे
निन्यानबे
प्रतिशत; पर
एक प्रतिशत
उनका भी तो
खयाल करें जो
ठीक सीमा पर
खड़े हैं—कोई
जगा देगा तो
जग जाएंगे, और कोई न
जगाएगा तो सोए
रह जाएंगे।
बुद्ध
को इसका उत्तर
न सूझा, इसलिए
बोलना पड़ा।
देवताओं ने
उन्हें राजी
कर लिया।
उन्होंने बात
बेच दी।
बुद्ध
का खयाल तो
ठीक ही था।
देवताओं का
खयाल भी ठीक
था।
तो
तीन तरह के
श्रोता हुए।
एक जो
जगाए—जगाए न जगेंगे।
दुनिया में
अधिक भीड़
उन्हीं लोगों
की है। सुनते
हैं,
फिर भी नहीं
सुनते। देखते
हैं, फिर
भी नहीं
देखते। समझ
में आ जाता है,
फिर भी अपने
को समझा—बुझा
लेते हैं, समझ
को लीपपोत
देते हैं। समझ
में आ जाता है
तो भी नासमझी
को सम्हाले
रखते हैं।
नासमझी के साथ
उनका बड़ा गहरा
स्वार्थ बन
गया है।
पुराना परिचय
छोड़ने में डर लगता
है।
फिर
दूसरे तरह के
श्रोता हैं, जो
बीच में हैं।
कोई थोड़ा श्रम
करे—कोई बुद्ध,
कोई
अष्टावक्र, कोई
कृष्ण—तो जग
जाएंगे।
अर्जुन ऐसे ही
श्रोता थे।
कृष्ण को
मेहनत करनी
पड़ी। कृष्ण को
लंबी मेहनत
करनी पड़ी। उसी
लंबी मेहनत से
गीता निर्मित
हुई। अंत—अंत
में जा कर
अर्जुन को
लगता है कि
मेरे भ्रम दूर
हुए, मेरे
संशय गिरे, मैं
तुम्हारी शरण
आता हूं मुझे
दिखाई पड़ गया! लेकिन
बड़ी जद्दोजहद
हुई, बड़ा
संघर्ष चला।
फिर
और भी श्रेष्ठ
श्रोता
हैं—जनक की
तरह,
जिनसे कहा
नहीं कि
उन्होंने सुन
लिया। इधर अष्टावक्र
ने कहा होगा
कि उधर जनक को
दिखाई पड़ने
लगा।
आज
के सूत्र जनक
के वचन हैं।
इतनी जल्दी, इतनी
शीघ्रता से
जनक को दिखाई
पड़ गया कि
अष्टावक्र जो
कह रहे हैं, बिलकुल ठीक
कह रहे हैं; चोट पड़ गई।
तो
मैंने कहा, वर्षा
होती है, कभी
ऐसी जमीन पर
हो जाती है जो
पथरीली है; तो वर्षा तो
हो जाती है, लेकिन अंकुर
नहीं फूटते।
फिर कभी ऐसी
जमीन पर होती
है जो
थोड़ी—बहुत
कंकरीली है, अंकुर फूटते
हैं; जितने
फूटने थे, उतने
नहीं फूटते।
फिर कभी ऐसी
जमीन पर होती
है, जो
बिलकुल तैयार
थी, जो
उपजाऊ है, जिसमें
कंकड़—पत्थर
नहीं हैं। बड़ी
फसल होती है!
जनक
ऐसी ही भूमि
हैं। इशारा
काफी हो गया।
जनक
की यह स्थिति
समझने के लिए
समझने—योग्य
है,
क्योंकि
तुम भी इन तीन
में से कहीं
होओगे। और यह
तुम पर निर्भर
है कि तुम इन
तीन में से
कहां होने की
जिद करते हो।
तुम साधारण जन
हो सकते हो, जिसने जिद
कर रखी है कि
सुनेगा नहीं;
जिसने सत्य
के खिलाफ लड़ने
की कसम खा ली
है; जो
सुनेगा तो कुछ
और सुन लेगा, सुनते ही
व्याख्या कर
लेगा, सुनते
ही अपने को
उसकी सुनी हुई
बात के ऊपर डाल
देगा, रंग
लेगा, विकृत
कर लेगा, कुछ
का कुछ सुन
लेगा।
तुम
वही नहीं
सुनते, जो
कहा जाता है।
तुम वही सुन
लेते हो, जो
तुम सुनना
चाहते हो।
मैंने
सुना है कि एक
दिन मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी
गुस्से से भरी
हुई घर आई और
उसने मुल्ला
से कहा कि
भिखारी भी बड़े
धोखेबाज होते
हैं।.
'क्यों क्या
हो गया?' नसरुद्दीन
ने पूछा।
'अजी एक
भिखारी की
गर्दन में
तख्ती लगी थी,
जिस पर लिखा
था : जन्म से
अंधा। मैंने
दया करके पर्स
में से दस
पैसे निकाल कर
उसके
दान—पात्र में
डाल लिए। तो
जानते हो. कहने
लगा, हे
सुंदरी, भगवान
तुम्हें खुश
रखे। अब
तुम्हीं बताओ
कि उसे कैसे
मालूम हुआ कि
मैं सुंदरी
हूं? '
मुल्ला
खिलखिला कर
हंसने लगा और
कहने लगा, तब
तो वह वास्तव
में अंधा है
और जन्म से
अंधा है।
तो
मुल्ला कहने
लगा,
मैं ही एक
अंधा नहीं हूं
एक और अंधा भा
है। अन्यथा
पता ही कैसे
चलता उसे कि
तू सुंदरी है,
अगर आंख
होती?
पत्नी
कुछ कह रही है, मुल्ला
कुछ सुन रहा
है। मुल्ला
वही सुन रहा
है जो सुनना
चाहता है।
खयाल करना, चौबीस घंटे
यह घटना घट
रही है। तुम
वही सुन लेते
हो, जो तुम
सुनना चाहते
हो; यद्यपि
तुम सोचते भी
नहीं इस पर कि
जो मैंने सुना
वह मेरा है या
कहा गया था?
मुल्ला
एक जगह काम
करता था।
मालिक ने उससे
कहा कि तुम
अच्छी तरह काम
नहीं करते, नसरुद्दीन!
मजबूरन अब
मुझे दूसरा
नौकर रखना पड़ेगा।
नसरुद्दीन
ने कहा, अवश्य
रखिए हुजूर, यहां काम ही
दो आदमियों का
है।
मालिक
कह रहा है कि
तुमसे अब
छुटकारा पाना
है,
दूसरा आदमी
रखना है।
मुल्ला कह रहा
है, यहां
काम ही दो
आदमियों का है,
जरूर रखिए!
पीछे
खड़े हो कर जो
तुम सुनते हो
उस पर एक बार
पुनर्विचार
करना : यही कहा
गया था? अगर
व्यक्ति
ठीक—ठीक सुनने
में समर्थ हो
जाए तो नंबर
दो का श्रोता
हो जाता है, नंबर तीन से
ऊपर उठ आता
है। नंबर तीन
का श्रोता
अपनी मिलाता
है। नंबर तीन
का श्रोता
अपने को ही
सुनता है, अपनी
प्रतिध्वनियों
को सुनता है।
उसकी दृष्टि
साफ—सुथरी
नहीं है। वह
सब विकृत कर
लेता है।
नबंर
दो का श्रोता
वही सुनता है
जो कहा जा रहा है।
नंबर दो के
श्रोता को
थोड़ी देर तो
लगेगी; क्योंकि
सुन लेने पर
भी—जो कहा गया
है वह सुन लेने
पर भी—उसे
करने के लिए
साहस की जरूरत
होगी। मगर सुन
लिया तो साहस
भी आ जाएगा।
क्योंकि सत्य
को सुन लेने
के बाद ज्यादा
देर तक असत्य
में रहना असंभव
है। जब एक बार
देख लिया कि
सत्य क्या है
तो फिर पुरानी
आदत कितनी ही
पुरानी क्यों
न हो, उसे
छोड़ना ही
पड़ेगा। जब पता
ही चल गया कि
दो और दो चार
होते हैं तो
कितना ही
पुराना
अभ्यास हो दो
और दो पांच
मानने का, उसे
छोड़ना ही
पड़ेगा। जब एक
बार दिखाई पड़
गया कि दरवाजा
कहां है तो
फिर दीवाल से
निकलना असंभव
हो जाएगा। फिर
दीवाल से सिर
टकराना असंभव
हो जाएगा। सत्य
समझ में आ जाए
तो देर—अबेर
इतना साहस भी
आ जाता है कि
आदमी छलांग ले,
अपने को
रूपांतरित कर
दे।
फिर
नंबर एक के
श्रोता हैं। अगर
तुममें समझ और
साहस दोनों
हों तो तुम
नंबर एक के
श्रोता हो
जाओगे। नंबर
एक के श्रोता
का अर्थ है कि
समझ और साहस
युगपत घटित
होते हैं—इधर
समझ,
उधर साहस, समझ और साहस
में अंतराल
नहीं होता।
ऐसा नहीं कि
आज समझता है
और कल साहस; इस जन्म में
समझता है और
अगले जन्म में
साहस। यहां
समझता है और
यहीं साहस।
इसी क्षण
समझता है और
इसी क्षण
साहस। तब
आकस्मिक घटना घटती
है। तब
सूर्योदय
अचानक हो जाता
है।
जनक
पहली कोटि के
श्रोता हैं।
इस
संबंध में एक
बात और खयाल
रख लेनी
चाहिए। जनक
सम्राट हैं।
उनके पास सब
है। जितना
चाहिए उससे
ज्यादा है।
भोग भोगा है।
जो व्यक्ति
भोग को ठीक से
भोग लेता है
उसके जीवन में
योग की क्रांति
घटनी आसान हो
जाती है।
क्योंकि जीवन
का अनुभव ही
उसे कह देता
है कि जिसे
मैं जीवन
जानता हूं वह
तो व्यर्थ है।
आधा काम तो
जीवन ही कर
देता है कि
जिसे मैं जीवन
जानता हूं वह
व्यर्थ है।
उसके मन में
प्रश्न उठने
लगते हैं कि
फिर और जीवन
कहा?
फिर दूसरा
जीवन कहां? फिर सत्य का
जीवन कहा? लेकिन
जिस व्यक्ति
के जीवन में
भोग नहीं है
और सिर्फ भोग
की आकांक्षा
है, मिला
नहीं है कुछ, सिर्फ मिलने
की आकांक्षा
है—उसे बड़ी
कठिनाई होती
है। इसलिए तुम
चकित मत होना
अगर भारत के
सारे
तीर्थंकर, सारे
महाद्रष्टा—जैनों
के हों, बौद्धों
के हों, हिंदुओं
के हों—अगर
सभी राजपुत्र
थे तो आश्चर्यचकित
मत होना।
अकारण नहीं।
इससे केवल
इतनी ही सूचना
मिलती है कि
भोग के द्वारा
ही आदमी भोग
से मुक्त होता
है। सम्राट को
एक बात तो
दिखाई पड़ जाती
है कि धन में
कुछ भी नहीं
है, क्योंकि
धन का अंबार
लगा है और
भीतर शून्य है,
खालीपन है।
सुंदर
स्त्रियों का
ढेर लगा है, और भीतर कुछ
भी नहीं है।
सुंदर महल हैं,
और भीतर
सन्नाटा है, रेगिस्तान
है। जब सब
होता है तो
स्पष्ट दिखाई पड़ने
लगता है कि
कुछ भी नहीं है।
जब कुछ भी
नहीं होता तो
आदमी आशा के
सहारे जीता
है।
आशा
से छूटना बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि आशा को
परखने का कोई
उपाय नहीं है।
गरीब आदमी
सोचता है, कल
धन मिलेगा तो
सुख से
जीऊंगा। अमीर
आदमी को धन
मिल चुका है, अब आशा का
कोई उपाय
नहीं। इसीलिए
जब भी कोई समाज
संपन्न होता
है तो धार्मिक
होता है। तुम
आश्चर्यचकित
मत होना, अगर
अमरीका में
धर्म की हवा
जोर से फैलनी
शुरू हुई है।
यह सदा से हुआ
है। जब भारत
संपन्न था—अष्टावक्र
के दिनों में
संपन्न रहा
होगा, बुद्ध
के दिनों में
संपन्न था, महावीर के
दिनों में
संपन्न था—जब
भारत अपनी
संपन्नता के
शिखर पर था तब
योग ने बड़ी
ऊंचाइयां लीं,
तब
अध्यात्म ने
आखिरी उड़ान
भरी। क्योंकि
तब लोगों को
दिखाई पड़ा कि
कुछ भी सार
नहीं; सब
मिल जाए तो भी
कुछ सार नहीं।
दीन—दरिद्र होता
है देश, तब
बहुत कठिन
होता है।
मैं
यह नहीं कहता
हूं कि गरीब
आदमी मुक्त
नहीं हो सकता।
गरीब आदमी
मुक्त हो सकता
है। गरीब आदमी
धार्मिक हो
सकता है।
लेकिन गरीब
समाज धार्मिक
नहीं हो सकता।
व्यक्ति तो
अपवाद हो सकते
हैं। उसके लिए
बड़ी प्रगाढ़ता
चाहिए।
थोड़ा
तुम सोचो। धन
हो तो देख
लेना कि धन
व्यर्थ है, बहुत
आसान है, धन
न हो तो देख
लेना कि धन व्यर्थ
है, जरा
कठिन है—अति
कठिन है। जो
नहीं है उसकी
व्यर्थता
कैसे परखो? तुम्हारे
हाथ में सोना
हो तो परख
सकते हो कि सही
है कि खोटा
है। हाथ में
सोना न हो, केवल
सपने में हो, सपने का
सोना कसने को
तो कोई कसौटी
बनी नहीं। वास्तविक
सोना हो तो
कसा जा सकता
है।
गरीब
आदमी का धर्म
वास्तविक
धर्म नहीं
होता। इसलिए गरीब
आदमी जब मंदिर
जाता है तो धन
मांगता है, पद
मांगता है, नौकरी
मांगता है।
बीमारी है तो
बीमारी कैसे ठीक
हो जाए, यह
मांगता है।
बेटे को नौकरी
नहीं लगती तो
नौकरी कैसे लग
जाए, यह
मांगता है।
मंदिर भी
एंप्लायमेंट
एक्सचेंज रह
जाता है।
मंदिर में भी
प्रेम की और
प्रार्थना की
सुगंध नहीं
उठती।
अस्पताल जाना
था, मंदिर
आ गया है।
नौकरी दिलाने
वाले दफ्तर
जाना था, मंदिर
आ गया है।
गरीब
आदमी मंदिर
में भी वही
मांगता रहता
है जो संसार
में उसे नहीं
मिल रहा है।
जिसका अभाव संसार
में है, हम वही
मांगते हैं।
लेकिन, अगर
तुम्हारे
जीवन में सब
हो या तुममें
इतनी प्रतिभा
हो, या
तुममें इतनी
मेधा हो कि
तुम केवल
विचार करके
जाग सको और
देख सको कि सब
होगा तो भी
क्या होगा? दूसरों के
पास धन है, उन्हें
क्या हुआ है? स्वयं के
पास न भी हो तो
फिर प्रतिभा
चाहिए कि तुम
देख सको. जो
महलों में रह
रहे हैं, उन्हें
क्या हुआ है? उनकी आंखों
में तरंगें
हैं आनंद की? उनके पैरों
में नृत्य है?
उनके आसपास
गंध है
परमात्मा की?
जब उनको
नहीं हुआ तो
तुम्हें कैसे
हो जाएगा? लेकिन
यह थोड़ा कठिन
है।
अधिक
लोग तो ऐसे
हैं कि उनके
पास खुद ही धन
होता है तो
नहीं दिखाई
पड़ता है कि धन
व्यर्थ है—तो
फिर यह सोचना
कि जब धन न
होगा तब दिखाई
पड़ जाएगा..। पड़
सकता है, संभावना
तो है, पर
बड़ी दूर की
संभावना है।
बुद्ध के लिए
आसान रहा होगा
जाग जाना। जनक
के लिए आसान
रहा होगा जाग
जाना। अर्जुन
के लिए भी
आसान रहा होगा
जाग जाना।
कबीर के लिए
बड़ा कठिन रहा
होगा। दादू के
लिए, सहजी
के लिए बड़ा
कठिन रहा
होगा।
क्राइस्ट के लिए,
मुहम्मद के
लिए बड़ा कठिन
रहा होगा।
क्योंकि इनके
पास नहीं
था—और जागे!
जीवन
में,
जो हमारे
पास नहीं है, उसकी कामना
हमें घेरती है;
उसकी कामना
हमें पकड़े
रहती है। कल
रात मैं एक
गीत पढ़ता था:
मैं
चाहता हूं
इसलिए एक जन्म
और लेना
कि
मुझको उसमें
शायद मिल जाए
ऐसी हमदम
कि
जिसको आता हो
प्यार देना।
जो
सुबह उठ कर
मेरी तरफ
मुस्कूरा के
देखे
दिलोजिगर
में समा के
देखे
जो
दोपहर को
बहुत—से कामों
के दरमियां
हो
उदास मुझ बिन
गुजार
दे इंतजार में
दिन
जो शाम
को यूं करे
स्वागत
तमाम
चाहत तमाम
राहत से राम
कर ले
जन्म
मरण से रिहाई
दे कर
मुझे
रहीने—दवाम कर
ले!
एक ऐसी
हमदम की आरजू
है
जो
मेरे सुख को
वफा की
ज्योति का संग
दे दे
मेरे
दुख को भी
अपने
गर्म आंसुओ के
मोतियों का
रंग दे दे
जो घर
में इफ्तास का
समय हो, न
तिलमिलाए
सफर
कठिन हो तो
उसके माथे पे
बल न आए
एक ऐसी
हमदम मिलेगी
अगले जन्म में
शायद
कि
जिसको आता हो
प्यार देना
मैं
चाहता हूं
इसलिए एक जन्म
और लेना।
जो
नहीं मिला
है—किसी को
प्रेयसी नहीं
मिली है, किसी
को धन नहीं
मिला है, किसी
को पद नहीं
मिला है, किसी
को प्रतिष्ठा
नहीं मिली
है—तों हम और
जन्म लेना
चाहते हैं।
अनंत जन्म हम
ले चुके हैं, लेकिन कुछ न
कुछ कमी रह
जाती है, कुछ
न कुछ खाली रह
जाता है, कुछ
न कुछ ओछा रह
जाता है—उसके
लिए अगला जन्म,
और अगला
जन्म।
वासनाओं
का कोई अंत नहीं
है। जरूरतें
बहुत थोड़ी हैं, कामनाओं
की कोई सीमा
नहीं है।
उन्हीं कामनाओं
के सहारे आदमी
जीता चला जाता
है।
ध्यान
रखना, धन नहीं
बांधता, धन
की आकांक्षा
बांधती है; पद नहीं
बांधता, पद
की आकांक्षा
बांधती है।
प्रतिष्ठा
नहीं बांधती,
प्रतिष्ठा
की आकांक्षा
बांधती है।
जनक
के पास सब था।
देख लिया सब।
तैयार ही खड़े
थे जैसे, कि
कोई जरा—सा
इशारा कर दे, जाग जाएं।
सब सपने
व्यर्थ हो
चुके थे। नींद
टूटी—टूटी
होने को थी।
इसीलिए
मैं कहता हूं
अष्टावक्र को
परम शिष्य मिला।
जनक
ने कहा. 'मैं
निर्दोष हूँ शांत
हूं बोध हूं
प्रकृति से
परे हूं!
आश्चर्य! अहो!
कि मैं इतने
काल तक मोह के
द्वारा बस ठगा
गया हूं!'
उतरने
लगी किरण। अहो
निरंजन:।
आश्चर्य!
सुना
अष्टावक्र को
कि तू निरंजन
है,
निर्दोष है,
सुनते ही
पहुंच गई किरण
प्राणों की
आखिरी गहराई
तक, जैसे
सूई चुभ जाए
सीधी।
अहो
निरंजन: शांतो
बोधोग्हं प्रकृते
पर:।
आश्चर्य, क्या
कहते हैं आप? मैं निर्दोष
हूं! शांत हूं!
बोध हूं!
प्रकृति से
परे हूं!
आश्चर्य कि
इतने काल तक
मैं मोह के द्वारा
बस ठगा गया
हूं।
एतावतमहं
काल मोहेनैव
विडंबित:
चौंक
गए जनक। जो
सुना, वह कभी
सुना नहीं था।
अष्टावक्र
में जो देखा, वह कभी देखा
नहीं था। न
कानों सुना, न आंखों
देखा—ऐसा
अपूर्व प्रगट
हुआ।
अष्टावक्र
ज्योतिर्मय
हो उठे! उनकी
आभा, उनकी
आभा के मंडल
में जनक चकित
हो गए. 'अहो,
बोध हुआ कि
मैं निरंजन
हूं!' एकदम
भरोसा नहीं
आता, विश्वास
नहीं आता।
सत्य
इतना
अविश्वसनीय
है,
क्योंकि
हमने असत्य पर
इतने लंबे
जन्मों तक
विश्वास किया
है। सोचो, अंधे
की अचानक आंख
खुल जाए तो
क्या अंधा
विश्वास कर
सकेगा कि प्रकाश
है, रंग
हैं, ये
हजार—हजार रंग,
ये
इंद्रधनुष, ये फूल, ये
वृक्ष, ये
चांद—तारे? एकदम से
अंधे की आंख
खुल जाए तो वह
कहेगा, अहो,
आश्चर्य है!
मैं तो सोच भी
न सकता था कि
यह है। और यह
है। और मैंने
तो इसका कभी
सपना भी न
देखा था।
प्रकाश
तो दूर, अंधे
आदमी को
अंधेरे का भी
पता नहीं
होता। तुम
साधारणत:
सोचते होओगे
कि अंधा आदमी
अंधेरे में
रहता है, तो
तुम गलत सोचते
हो। अंधेरा
देखने के लिए
भी आंख चाहिए।
तुम आंख बंद
करते हो तो
तुम्हें
अंधेरा दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
आंख खोल कर
तुम प्रकाश को
जानते हो।
लेकिन जिसकी कभी
आंख ही नहीं
खुली, वह
अंधेरा भी
नहीं जानता; प्रकाश तो
दूर, अंधेरे
से भी पहचान
नहीं है। कोई
उपाय नहीं अंधे
के पास कि
सपना देख सके
इंद्रधनुषों
का। लेकिन जब आंख
खोल कर देखेगा,
तो यह सारा
जगत
अविश्वसनीय
मालूम होगा, भरोसा न
आएगा।
जनक
को भी एक
धक्का लगा है, एक
चौंक पैदा
हुई! अचंभे से
भर गए हैं!
कहने लगे, 'अहो,
मैं
निर्दोष!'
सदा
से अपने को
दोषी जाना और
सदा से
धर्मगुरुओं
ने यही कहा कि
तुम पापी हो!
और सदा से
पंडित—पुरोहितों
ने यही समझाया
कि धोओ अपने
कर्मों के
पाप। किसी ने
भी यह न कहा कि
तुम निर्दोष
हो,
कि
तुम्हारी
निर्दोषता
ऐसी है कि
उसके खंडित होने
का कोई उपाय
नहीं, कि
तुम लाख पाप
करो तो भी
पापी तुम नहीं
हो सकते हो।
तुम्हारे
सब किए गए पाप, देखे
गए सपने
हैं—जागते ही
खो जाते हैं।
न पुण्य
तुम्हारा है,
न पाप
तुम्हारा है;
क्योंकि
कर्म
तुम्हारा
नहीं, कृत्य
तुम्हारे
नहीं; क्योंकि
कर्ता तुम
नहीं हों—तुम
केवल द्रष्टा,
साक्षी हो।
'मैं निर्दोष
हूं!' चौंक
कर जनक ने कहा : 'मैं शांत
हूं!' क्योंकि
जानी तो है
केवल अशांति।
तुमने
कभी शांति जानी
है?
साधारणत:
तुम कहते हो
कि ही। लेकिन
बहुत गौर करोगे
तो तुम पाओगे :
जिसे तुम शांति
कहते हो वह
केवल दो अशांतियों
के बीच का
थोड़ा—सा समय
है। अंग्रेजी
में शब्द है 'कोल्ड वार'। वह शब्द
बड़ा अच्छा है.
ठंडा युद्ध।
दो युद्धों के
बीच में ठंडा
युद्ध चलता
है। दो गर्म
युद्ध, बीच
में ठंडा
युद्ध, मगर
युद्ध तो जारी
रहता है। पहला
महायुद्ध खतम
हुआ, दूसरा
महायुद्ध शुरू
हुआ। कई वर्ष
बीते, कोई बीस
वर्ष बीते;
लेकिन वे बीस वर्ष
ठंडे युद्ध के
थे। लड़ाई तो जारी
रहतीहै, युद्ध
की तैयारी जारी
रहती है। हां लड़ाई
अब प्रकट नहीं
होती। भीतर—भीतर
होती है, अंडरग्राउंड
होती है, जमीन
के भीतर दबी
होती है।
अभी
ठंडा युद्ध चल
रहा है दुनियां
में,
लड़ाई की
तैयारियां चल
रही हैं।
सैनिक कवायदें
कर रहे हैं।
बम बनाए जा
रहे हैं।
बंदूकों पर पालिश
चढ़ाया जा रहा
है। तलवारों
पर धार रखी जा
रही है। यह
ठंडी लड़ाई है।
युद्ध जारी
है। यह किसी
भी दिन
भड़केगा। किसी
भी दिन युद्ध
खड़ा हो जाएगा।
जिसको तुम शांति
कहते हो, वह
ठंडी अशांति
है। कभी
उत्तप्त हो
जाते हो तो
गर्म अशांति।
दो गर्म अशांतियों
के बीच में जो
थोड़े—से समय
बीतते हैं, जिनको तुम
शांति के कहते
हो, वह शांति
के नहीं हैं, वह केवल
ठंडी अशांति
के हैं। पारा
बहुत ऊपर नहीं
चढ़ा है, ताप
बहुत ज्यादा
नहीं है—
सम्हाल पाते
हो, इतना
है। लेकिन शांति
तुमने जानी
नहीं। दो अशांतियों
के बीच में
कहीं शांति हो
सकती है? और
दो युद्धों के
बीच में कहीं शांति
हो सकती है 2:
शांति
जिसने जानी है, उसकी
अशांति सदा के
लिए समाप्त हो
जाती है। तुमने
शांति जानी
नहीं, शब्द
सुना है। अशांति
तुम्हारा
अनुभव है; शांति
तुम्हारी
आकांक्षा है,
आशा है।
तो
जनक कहने लगे 'मैं
शांत हूं बोध
हूं।'' क्योंकि
जाना तो सिर्फ
मूर्च्छा को
है। तुम इतने
काम कर रहे हो
वे सब मूर्च्छित
है। तुम अगर कोई
ठीक ठाक पूछे तो
तुम एक बात का भी
उत्तर ने दे
पाओगे। कोई पूछे
कि इस स्त्री
प्रेम में
क्यों पड़ गए, तो तुम
कहोगे. पता
नहीं, पड़
गए, ऐसा हो
गया। यह कोई
उत्तर हुआ? प्रेम जैसी
बात के लिए यह
उत्तर हुआ कि
हो गया! बस
घटना घट गई!
पहली दृष्टि
में ही प्रेम
हो गया! देखते
ही प्रेम गया! तुम्हें
पता है, यह
प्रेम तुम्हारे
भीतर कहां से
उठा? कैसे
आया? कुछ
भी पता नहीं
है। फिर इस
प्रेम तुम
चाहते हो कि
जीवन सुख आए।
इस प्रेम का हंसी
तुम्हें पता
नहीं, कहा
से आता है? किस
अचेतन के तल
से उठता है? कहां इसका
बीज है? कहा
अंकुरित होता
है? फिर
तुम कहते हो
इस प्रेम से
जीवन में सुख
मिले! सुख
नहीं मिलता; दुख मिलता
है, कलह
मिलती है, वैमनस्य
मिलता है, ईर्ष्या,
जलन मिलती
है। तो तुम
तड़पते हो। तुम
कहते हो, यह
क्या हुआ? यह
प्रेम सब धोखा
निकला!
पहले
ही से
मूर्च्छा थी।
तुम
दौड़े जा रहे
हों—धन कमाना
है! तुमसे कोई
पूछे, किसलिए?
शायद तुम
कुछ छोटे—मोटे
उत्तर दे सको।
तुम कहो कि
बिना धन के
कैसे जीएंगे?
लेकिन ऐसे
लोग हैं, जिनके
पास जीने के
लिए काफी है, वे भी दौड़े
जा रहे हैं।
और तुम भी
पक्का मानना,
जिस दिन
इतना कमा लोगे
कि रुक सकते
हो, फिर भी
रुक न सकोगे।
फिर भी तुम
दौड़े जाओगे।
एंड्रू
कार्नेगी मरा
तो दस अरब
रुपये छोड़कर
मरा,
लेकिन मरते
वक्त भी कमा
रहा था। मरने
के दो दिन
पहले उसके
सेक्रेटरी ने
पूछा कि 'आप
तो तृप्त
होंगे? दस
अरब रुपये!' उसने कहा, 'तृप्त! मैं
बहुत अशांति
में मर रहा
हूं क्योंकि
मेरी योजना सौ
अरब रुपये
कमाने की थी। '
अब
जिसकी सौ अरब
रुपए कमाने की
योजना थी, दस
अरब—नब्बे अरब
का घाटा है।
उसका घाटा तो
देखो! तुम दस
अरब देख रहे
हो। दस अरब तो
दस पैसे हो गये।
दस अरब का कोई
मूल्य ही न
रहा।
न
तो खा सकते हो
दस अरब रुपयों
को,
न पी सकते
हो। कोई उनका
उपयोग नहीं
है। मगर एक दफा
दौड़ शुरू हो
जाती है तो
चलती जाती है।
तुम
पूछो अपने से, किसलिए
दौड़ रहे हो? तुम्हारे
पास उत्तर
नहीं।
मूर्च्छा है!
पता नहीं
क्यों दौड़ रहे
हैं! पता नहीं
कहां जा रहे हैं,
किसलिए जा
रहे हैं! न
जाएं तो क्या
करें? रुके
तो कैसे रुके?
रुके तो
किसलिए रुके?
उसका भी कुछ
पता नहीं है।
आदमी
ऐसे चल रहा है
जैसे नशे में
चल रहा हो।
हमारे जीवन के
छोर हमारे हाथ
में नहीं हैं।
हम बोधहीन
हैं।
गुरजिएफ
कहता था. हम
करीब—करीब
नींद में चल
रहे हैं। आंख
खुली हैं, माना;
मगर नींद
नहीं टूटी है।
आंखें नींद से
भरी हैं। कुछ
होता है, कुछ
करते रहते हैं,
कुछ चलता
जाता है।
क्यों?
'क्यों' पूछने से हम
डरते हैं, क्योंकि
उत्तर तो नहीं
है। ऐसे
प्रश्न उठाने से
बेचैनी आती
है।
जनक
ने कहा : 'मैं
बोध हूं। अहो
निरंजन: शांतो
बोधोऽहं। और
इतना ही नहीं,
आप कहते हैं
: प्रकृति से
परे हो!
प्रकृते पर:!
शरीर नहीं हो,
मन नहीं हो।
यह जो दिखाई
पड़ता है, यह
नहीं हो। यह
जो दृश्य है, यह नहीं हो।
द्रष्टा हो।
सदा पार हो।
प्रकृति के
पार, सदा
अतिक्रमण
करने वाले हो।
' इसे
समझना। यह
अष्टावक्र का
मौलिक उपाय है,
मौलिक विधि
है—अगर विधि
कह
सकें—प्रकृति
के पार हो
जाना! जो भी
दिखाई पड़ता है,
वह मैं नहीं
हूं। जो भी
अनुभव में आता
है, वह मैं
नहीं हूं।
क्योंकि जो भी
मुझे दिखाई पड़ता
है, मैं
उससे पार हो
गया; मैं
देखने वाला
हूं। दिखाई
पड़ने वाला मैं
नहीं हूं। जो
भी मेरे अनुभव
में आ गया है, मैं उसके
पार हो गया; क्योंकि मैं
अनुभव का
द्रष्टा हूं
अनुभव कैसे हो
सकता हूं? तो
न मैं देह हूं
न मन हूं न भाव
हूं; न
हिंदू न
मुसलमान, न
ईसाई, न
ब्राह्मण, न
शूद्र; न
बच्चा, न
जवान, न
बूढ़ा; न
सुंदर, न
असुंदर; न
बुद्धिमान, न बुद्ध—मैं
कोई भी नहीं
हूं। सारी
प्रकृति के
परे हूं!
यह
किरण उतरी जनक
के हृदय में।
आश्चर्य से भर
गई,
चकित कर गई,
चौंका गई।
आंखें खुलीं
आश्चर्य
कि मैं इतने
काल तक मोह के
द्वारा बस ठगा
गया हूं!'
कि
अब तक जो भी
मैंने बसाया
था,
जो भी मैंने
चाहा था, जो
भी सुंदर सपने
मैंने देखे, वह सब मोह—निद्रा
थी! वे सब सपने
ही थे! नींद
में उठे हुए
खयाल थे, उनका
कोई भी
अस्तित्व
नहीं है!
अहो
अहं
एतावंतमहं
काल मोहेनैव
विडंबित:।
आप
मुझे चौंकाते
हैं! आपने
मुझे हिला
दिया। तो ये
गिर गए सारे
भवन जो मैंने
बनाए थे! और ये
सारे
साम्राज्य जो
मैंने फैलाए
थे,
सब मोह की
विडंबना थी!
समझने
की कोशिश
करना। अगर तुम
भी सुनोगे तो
ऐसा ही होगा।
अगर तुम भी
सुन सकोगे तो
ठीक ऐसा ही
होगा।
तुम्हारा
किया—कराया सब
व्यर्थ हो जाएगा।
पाया नहीं
पाया, सब
व्यर्थ हो
जाएगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
रात नींद में
बड़बड़ा रहा था।
आंख खोल कर
अपनी पत्नी से
बोला, जल्दी चश्मा
लो।
पत्नी
ने कहा, चश्मा
क्या करोगे
आधी रात में
बिस्तर पर?
उसने
कहा,
देर मत कर, जल्दी चश्मा
ला। एक सुंदर
स्त्री दिखाई
पड़ रही है, सपने
में! तो ठीक से
देखना चाहता
हूं चश्मा लगा
कर। थोड़ा
धुंधला—धुंधला
है सपना।
सपने
को भी तुम
सत्य बनाने की
चेष्टा में
लगे रहते हो.
किसी तरह सपना
सत्य हो जाए!
तुम चाहते नहीं
कि कोई
तुम्हारे
सपने को सपना
कहे,
तुम नाराज
होते हो।
संतों को हमने
ऐसे ही थोड़ी
जहर दिया, ऐसे
ही थोड़ी पत्थर
मारे।
उन्होंने
हमें खूब नाराज
किया। हम सपना
देखते थे, वे
हमें हिलाने
लगे। हम गहरी
नींद में थे, वे हमें
जगाने लगे।
हमसे बिना
पूछे हमारी
नींद तोड़ने
लगे, अलार्म
बजाने लगे।
नाराजगी
स्वाभाविक
थी।
लेकिन
अगर सुनोगे तो
तुम कृतज्ञ हो
जाओगे, तुम
सदा के लिए
कृतज्ञता का
अनुभव करोगे।
खयाल करो, कृष्ण
की गीता में, जब कृष्ण
बोलते हैं तो
अर्जुन
प्रश्न उठाता
है।
अष्टावक्र की
गीता में
अष्टावक्र
बोले, जनक
ने कोई प्रश्न
नहीं उठाया।
जनक ने सिर्फ
अहोभाव प्रगट
किया। जनक ने सिर्फ
स्वीकृति दी।
जनक ने सिर्फ
इतना कहा कि चौंका
दिया प्रभु
मुझे, जगा
दिया मुझे!
पूछने को कुछ
नहीं है। जनक
को प्रतीति
होने लगी कि
मैं निर्दोष
हूं कि मैं शांत
हूं कि मैं
बोध हूं
प्रकृति से
परे हूं। यह
हमें कठिन
लगता है, इतनी
जल्दी हो गया!
हमें लगता है,
थोड़ा समय
लगना चाहिए।
हमें बड़ी
हैरानी होती
है : इतनी
शीघ्रता से, इतनी त्वरा
से घटना घटी!
झेन
फकीरों के
जीवन में
बहुत—से
उल्लेख हैं। अब
झेन पर
किताबें
पूर्व में, पश्चिम
में सब तरफ
फैलनी शुरू
हुई हैं, तो
लोग पढ़ कर बड़े
हैरान होते
हैं। क्योंकि
उनमें ऐसे
हजारों उल्लेख
हैं जब कि बस
क्षण भर में
फकीर जाग गया
और बोध को
उपलब्ध हो
गया। हमें
भरोसा नहीं
आता, क्योंकि
हम तो बड़े
उपाय करते हैं,
फिर भी बोध
को उपलब्ध
नहीं होते; श्रम करते
हैं, फिर
भी ध्यान नहीं
लगता, जप
करने बैठते
हैं, तप
करने बैठते
हैं, मन
उचाट रहता है।
और यह जनक एक
क्षण में जाग
ही गए! कभी—कभी
ऐसा होता है।
तुम्हारी
पात्रता पर
निर्भर है।
तुम्हारी पात्रता
में जितनी कमी
होगी उतनी देर
लग जाएगी। देरी
घटना के कारण
नहीं है। घटना
तो अभी घट सकती
है; जैसा
बार—बार
अष्टावक्र
कहते हैं, 'सुखी
भव! अभी हो जा
सुखी! मुक्त
हो! अभी हो जा
मुक्त! इसी
क्षण!'
घटना
तो अभी घटती
है,
देर लगती है
हमारी
पात्रता के
कारण। हमारी
पात्रता ही
नहीं है। तो
जो समय लगता
है वह बीच में
जो पत्थर पड़े
हैं, उन्हें
हटाने में
लगता है। झरना
तो अभी फूट
सकता है, झरना
तो तैयार है, झरना तो
तरंगित है, झरना तो प्रतीक्षा
कर रहा है कि
हटाओ पत्थर, मैं दौड़
पडूं सागर की
तरफ! लेकिन
कितने पत्थर बीच
में पड़े हैं, और कितनी
बड़ी चट्टानें
पड़ी हैं—इस पर
निर्भर करेगा।
झरने के
निकलने में
देर नहीं
है—झरने की
राह खुली है, बंद तो नहीं
है। कहीं से
झरना अभी फूट
जाएगा, कहीं
थोड़ा खोदना
पड़ेगा। कहीं
बड़ी चट्टान हो
सकती है, डॉयनामाइट
लगाना पड़े। पर
तीनों ही
स्थितियों
में, चाहे
अभी झरना फूटे,
चाहे घड़ी भर
बाद फूटे, चाहे
जन्मों बाद
फूटे—झरना तो
सदा मौजूद था।
बाधा झरने के
फूटने में न
थी, बाधा
झरने के प्रगट
होने के बीच
पड़े पत्थर के कारण
थी। जनक की
चेतना पर कोई
भी पत्थर न
रहा
होगा—अहोभाव
प्रगट हो गया,
कृतज्ञता
का ज्ञापन हो
गया! नाच उठे!
मगन हो गए!
'जैसे इस देह
को मैं अकेला
ही प्रकाशित
करता हूं ' जनक
ने कहा, 'वैसे
ही संसार को
भी प्रकाशित
करता हूं।
इसलिए तो मेरा
संपूर्ण
संसार है अथवा
मेरा कुछ भी नहीं।
'
यह
आस्तिकता है।
अर्जुन तो
नास्तिक है।
अर्जुन तो
इंकार करता
है। अर्जुन तो
बार—बार सवाल उठाता
है। अर्जुन तो
हजार संदेह
करता है। अर्जुन
तो इस तरफ से
पूछता है, उस
तरफ से पूछता
है। जनक ने
कुछ पूछा ही
नहीं।
इसलिए
मैंने इस गीता
को महागीता
कहा है। अर्जुन
की नास्तिकता
अंत में मिटती
है,
वह घर आता
है। जनक में
नास्तिकता है
ही नहीं। वे
जैसे घर के
द्वार पर ही
खड़े थे और
किसी ने झकझोर
दिया और कहा
कि जनक, तुम
घर पर ही खड़े
हो, कहीं
जाना नहीं। और
वे कहने लगे, 'अहो! जैसे इस
देह को मैं
अकेला ही
प्रकाशित करता
हूं वैसे ही
संसार को भी
प्रकाशित
करता हूं। '
अष्टावक्र
ने कहा कि
तुम्हारा वह
जो आत्यंतिक
साक्षी— भाव
रूप है, वह
तुम्हारा ही
नहीं है, वह
तुम्हारा ही
केंद्र नहीं
है, वह
समस्त सृष्टि
का केंद्र है।
ऊपर—ऊपर हम
अलग—अलग, भीतर
हम बिलकुल एक
हैं।
बाहर—बाहर हम
अलग—अलग, जैसे—जैसे
भीतर चले, हम
एक हैं। जैसे
लहरें अलग—अलग
हैं सागर की
छाती पर, लेकिन
सागर के गहनतम
में तो सारी
लहरें एक हैं।
ऊपर एक लहर
छोटी, एक
लहर बड़ी; एक
लहर सुंदर, एक लहर
कुरूप, एक
लहर गंदी, एक
लहर स्वच्छ—
ऊपर बड़े भेद
हैं। लेकिन
सागर में सब
जुड़ी हैं।
जिसको केंद्र
का स्मरण आया,
उसका
व्यक्तित्व
गया, फिर
वह व्यक्ति
नहीं रह जाता।
तो
जनक कहते हैं, जैसे
इस देह को मैं
अकेला
प्रकाशित
करता हूं वैसे
ही सारे संसार
को भी
प्रकाशित
करता हूं। क्या
कह रहे हैं आप?
भरोसा नहीं
आता!
कल
एक युवक ने
रात्रि मुझे आ
कर कहा कि जो
हुआ है ध्यान
में,
उस पर भरोसा
नहीं आता।
ठीक! जब कुछ
होता है तो ऐसा
ही होता है, भरोसा नहीं
आता। हमारा
भरोसा ही छोटी
चीजों पर है, क्षुद्र पर
है। जब विराट
घटता है तो
भरोसा आएगा
कैसे?
जब
परमात्मा
तुम्हारे
सामने खड़ा
होगा तो तुम
आश्चर्यचकित
और अवाक रह
जाओगे।
पश्चिम
में एक बहुत बड़ा
संत हुआ.
तरतूलियन।
उसका वचन
है—किसी ने पूछा
कि तरतूलियन, ईश्वर
के लिए कोई
प्रमाण है? उसने कहा, एक ही
प्रमाण है.
ईश्वर है, क्योंकि
वह
भरोसे—योग्य
नहीं है।
ईश्वर है, क्योंकि
उस पर विश्वास
नहीं आता।
ईश्वर है, क्योंकि
वह असंभव है।
यह
बड़ी अनूठी बात
तरतूलियन ने
कही : ईश्वर है, क्योंकि
असंभव है!
संभव तो संसार
है, ईश्वर
असंभव है।
संभव तो
क्षुद्र है, विराट तो
असंभव है।
लेकिन असंभव
भी घटता है, तरतूलियन
बोला। तुम
राजी हो जाओ
असंभव को, तो'
असंभव भी
घटता है। जब
घटता है तो
बिलकुल भरोसा
नहीं आता।
तुम्हारी
सारी जड़ें उखड़
जाती हैं, भरोसा
कहां आएगा? तुम मिट
जाते हो जब
घटता है, तो
भरोसा किसको
आएगा। तुम
बिखर जाते हो
जब घटता है।
तुम
अब तक अंधेरे
जैसे हो। जब
उसका सूरज
निकलेगा तो
तुम विसर्जित
हो जाओगे।
जनक
कहने लगे, 'इसलिए
तो या तो
संपूर्ण
संसार मेरा है
या मेरा कुछ
भी नहीं है। '
ये
दो ही बातें
संभव हैं।
इसके बीच में
कोई भी दृष्टि
हो तो भ्रांत
है। या तो
संपूर्ण
संसार मेरा है, क्योंकि
मैं परमात्मा
का हिस्सा हूं
चूंकि मैं
परमात्मा हूं;
चूंकि मैं
सारे संसार का
केंद्र हूं; चूंकि मेरा
साक्षी सारे
संसार का
साक्षी है। तो
या तो सारा
संसार मेरा
है—एक संभावना,
या फिर मेरा
कुछ भी नहीं
है, क्योंकि
मैं हूं ही
कहां! साक्षी
में मैं तो नहीं
बचता, सिर्फ
साक्षी— भाव
बचता है। वहा
दावेदार तो बचता
नहीं, कौन
दावा करेगा कि
सब मेरा है?
तो
जनक कहते हैं, दो
संभावनाएं
हैं। ये दो
अभिव्यक्तियां
हैं धर्म की—या
तो पूर्ण या
शून्य। कृष्ण
ने चुना पूर्ण।
उपनिषदों ने
चुना पूर्ण।
उस पूर्ण से
ही सब निकलता,
फिर भी पीछे
पूर्ण शेष रह
जाता है। उस
पूर्ण में ही
सब लीन होता, फिर भी
पूर्ण न घटता
न बढ़ता।
उपनिषदों
ने,
कृष्ण ने, हिंदुओं ने,
सूफियों ने
चुना पूर्ण।
बुद्ध ने चुना
शून्य। यह जो
जनक ने वचन
कहा कि इसलिए
या तो सब मेरा
है, मैं
पूर्ण हूं
पूर्ण
परात्पर
ब्रह्म हूं; और या फिर
कुछ भी मेरा
नहीं, मैं
परम शून्य
हूं! ये दोनों
बातें ही सच
हैं।
बुद्ध
का वक्तव्य
अधूरा है।
कृष्ण का
वक्तव्य भी
अधूरा है। जनक
के इस वक्तव्य
में पूरी बात
हो जाती है।
जनक कहते हैं, दोनों
बातें कही जा
सकती हैं।
क्यों? क्योंकि
अगर मैं ही
सारे जगत का
केंद्र हूं तो
सारा जगत
मेरा। लेकिन
जब मैं सारे
जगत का केंद्र
होता हूं तो
मैं मैं ही
नहीं होता, मेरा मैं—पन
तो बहुत पीछे
छूट जाता है, धूल की तरह
उड़ता रह जाता
है पीछे।
यात्री आगे
निकल जाता, धूल पड़ी रह
जाती है। तो
फिर मेरा क्या?
या फिर मेरा
कुछ भी नहीं
है।
अत:
मम सर्वम्
जगत्......
--या
तो सब जगत
मेरा है।
अथवा
मम किंचन न,
या
फिर मेरा कुछ
भी नहीं।
'आश्चर्य है
कि शरीर सहित
विश्व को
त्याग कर किसी
कुशलता से ही
अर्थात उपदेश
से ही अब मैं
परमात्मा को
देखता हूं। '
अहो
सशरीरम्
विश्वं
परित्यज्य..।
आश्चर्य
है कि मेरा
शरीर गया, शरीर
के साथ सारा
जगत गया!
त्याग घट गया!
त्याग
किया नहीं
जाता। त्याग
तो बोध की एक
दशा है। त्याग
कृत्य नहीं
है। अगर कोई
कहे,
मैंने
त्याग किया, तो त्याग
हुआ ही नहीं।
उसने त्याग
में भी भोग को
बना लिया। अगर
कोई कहे, मैं
त्यागी हूं तो
उसे त्याग का
कोई भी पता नहीं।
क्योंकि जब तक
'मैं' है,
तब तक त्याग
कैसा?
त्याग
का अर्थ छोड़ना
नहीं है।
त्याग का अर्थ
जाग कर देखना
है कि मेरा
कुछ है ही
नहीं, छोडूं कैसे?
छोडूं क्या?
पकड़ा हो तो
छोडूं। हो तो
छोडूं।
तुम
सुबह उठ कर यह
तो नहीं कहते
कि चलो अब
सपने का त्याग
करें। तुम यह
तो नहीं कहते
सुबह उठ कर कि
रात सपने में
सम्राट बन गया
था,
बड़े
स्वर्ण—महल थे,
रत्न—जटित
आभूषण थे, बड़े
दूर—दूर तक
मेरा राज्य था,
सुंदर
पुत्र थे, पत्नी
थी—सुबह उठ कर तुम
यह तो नहीं
कहते कि चलो
अब सब छोड़ता
हूं। कहो तो
तुम पागल
मालूम पड़ोगे।
अगर तुम सुबह
उठ कर गाव में
ढिंढोरा
पीटने लगो कि
मैंने सब त्याग
कर दिया
है—राज्य का, धन का, वैभव
का, पत्नी—बच्चे,
सब छोड़
दिएलोग
चौकेंगे। वे
कहेंगे, 'कौन—सा
राज्य? हमें
तो पता ही
नहीं कि
तुम्हारे पास
कोई राज्य भी
था। ' तुम
कहोगे, रात
सपने में! तो
लोग हंसेंगे
कि तुम पागल
हो गए हो।
सपने का राज्य
छोड़ा तो नहीं
जा सकता।
इसलिए
परमज्ञान का
सूत्र यही है
कि जब तुम्हें
दिखाई पड़ता है
कि यह संसार
कुछ भी नहीं
है,
तो छोड़ने की
क्या बात है? लेकिन लोग
हैं जो हिसाब
रखते हैं कि
कितना छोड़ा।
एक
मित्र मुझे
मिलने आए थे।
उनकी पत्नी भी
साथ थी। मित्र
का नाम है बड़े
दानियों में।
तो मित्र की
पत्नी कहने
लगी कि शायद
आपको मेरे पति
से परिचय नहीं, ये
बड़े दानी हैं!
कोई लाख रुपया
दान कर दिया!
पति
ने जल्दी से
पत्नी के हाथ
पर हाथ रखा कि
लाख नहीं, एक
लाख दस हजार!
यह
दान न हुआ, यह
हिसाब हुआ। यह
सौदा हुआ। यह
कौड़ी—कौड़ी का
हिसाब चल रहा
है। अगर कहीं
इनको
परमात्मा मिल
गया तो उसकी
गर्दन पकड़
लेंगे, कि
एक लाख दस
हजार दिया था,
बदले में
क्या देते हो
बोलो? दिया
भी इसीलिए है
कि शास्त्र
कहते हैं कि
यहां एक दो, वहा करोड़
गुना मिलता
है। ऐसा धंधा
कौन छोड़ेगा!
करोड़ गुना!
सुना है ब्याज?
कोई धंधा
देखा? जुआरी
भी इतने बड़े
जुआरी नहीं।
करोड़ गुना तो
वहां भी नहीं
मिलता है। यह
तो जुआरीपन
हुआ। इस आशा
में छोड़ा है
कि लाख
छोड़ेंगे तो
करोड़ गुना मिलेगा।
यह लोभ का ही
विस्तार हुआ।
और
लाख का हिसाब? तो
रुपए का मूल्य
अभी समाप्त
नहीं हुआ है!
पहले तिजोड़ी
में रुपये
रखते थे; अब
तिजोड़ी में
रुपये की जगह,
क्या—क्या
त्याग किया है,
उसका हिसाब
रख लिया है।
मगर सपना टूटा
नहीं।
चीन
में एक बड़ी
प्राचीन कथा
है कि एक
सम्राट का एक
ही बेटा था।
वह बेटा
मरण—शय्या पर
पड़ा था।
चिकित्सकों
ने कह दिया
हार कर कि हम
कुछ कर न
सकेंगे, बचेगा
नहीं, बचना
असंभव है।
बीमारी ऐसी थी
कि कोई इलाज
नहीं था। दिन
दो दिन की बात
थी, कभी भी
मर जाएगा। तो
बाप रात भर
जाग कर बैठा
रहा। विदा
देने की बात
ही थी। आंख से आंसू
बहते रहे, बैठा
रहा। कोई तीन
बजे करीब रात
को झपकी लग गई बाप
को बैठे—बैठे
ही। झपकी लगी
तो एक सपना
देखा कि एक
बहुत बड़ा
साम्राज्य है,
जिसका वह
मालिक है।
उसके बारह
बेटे हैं—बड़े
सुंदर, युवा,
कुशल, बुद्धिमान,
महारथी, योद्धा!
उन जैसा कोई
व्यक्ति नहीं
संसार में। खूब
धन का अंबार
है! कोई सीमा
नहीं! वह
चक्रवर्ती है।
सारे जगत पर
उसका
साम्राज्य है!
ऐसा सपना देखता
था, तभी
बेटा मर गया।
पत्नी दहाड़
मार कर रो
उठी। उसकी आंख
खुली। चौंका
एकदम।
किंकर्तव्यविमूढ़
हो गया।
क्योंकि
अभी—अभी एक
दूसरा राज्य
था, बारह
बेटे थे, बड़ा
धन था—वह सब चला
गया; और
इधर यह बेटा
मर गया! लेकिन
वह ठगा—सा रह
गया। उसकी पत्नी
ने समझा कि
कहीं दिमाग तो
खराब नहीं हो
गया, क्योंकि
बेटे से उसका
बड़ा लगाव था।
एक आंसू नहीं
आ रहा आंख
में। बेटा
जिंदा था तो
रोता था उसके
लिए, अब
बेटा मर गया
तो रो नहीं
रहा बाप।
पत्नी ने उसे
हिलाया और कहा,
तुम्हें
कुछ हो तो
नहीं गया? रोते
क्यों नहीं?
उसने
कहा,
'किस—किस के
लिए रोओ? बारह
अभी थे, वे
मर गए। बड़ा
साम्राज्य था,
वह चला गया।
उनके लिए रोऊं
कि इसके लिए रोऊं?
अब मैं सोच
रहा हूं कि
किस—किस के
लिए रोऊं। जैसे
बारह गए, वैसे
तेरह गए। '
बात
समाप्त हो गई, उसने
कहा। वह भी एक
सपना था, यह
भी एक सपना
है। क्योंकि
जब उस सपने को
देख रहा था तो
इस बेटे को
बिलकुल भूल
गया था। ये
राज्य, तू
सब भूल गए थे।
अब वह सपना
टूट गया तो
तुम याद आ गए
हो। आज रात फिर
सो जाऊंगा, फिर तुम भूल
जाओगे। तो जो
आता—जाता है, अभी है अभी
नहीं, अब
दोनों ही गए।
अब मैं सपने
से जागा। अब
किसी सपने में
न रक्त। हो
गया बहुत, समय
आ गया। फल पक
गया, गिरने
का वक्त है!
जनक
कहते हैं, ' आश्चर्य
कि शरीर सहित
विश्व को
त्याग कर.। '
त्याग
घट गया! अभी
इंच भर भी हिल
नहीं, जहां
हैं वहीं हैं,
उसी राजमहल में।
जहा
अष्टावक्र को
ले आए थे
निमंत्रण दे कर,
बिठाया था
सिंहासन
पर—वहीं बैठे
हैं अष्टावक्र
के सामने।
कहीं कुछ गए
नहीं, राज्य
चल रहा है, धन—वैभव
है, द्वार
रार द्वारपाल
खड़े हैं, नौकर—सेवक
पंखा झलते
होंगे। सब कुछ
ठीक वैसा का
वैसा है, तिजोड़ी
अपनी जगह है।
धन अपनी जगह
है। लेकिन जनक
कहते हैं, 'आश्चर्य,
त्याग घट
गया!'
त्याग
अंतर का है।
त्याग भीतर का
है। त्याग बोध
का है।
'आश्चर्य कि
इस शरीर सहित
विश्व को
त्याग कर किस
कुशलता से......।'
और
किस कुशलता से
यह बात घट गई
कि पत्ता न
हिला और क्रांति
हो गई; कि
जरा—सा घाव न
बना और सर्जरी
पूरी हो गई!
किस कुशलता
से! कैसा तुम्हारा
उपदेश! अब मैं
परमात्मा को
देखता हूं? संसार दिखाई
ही नहीं पड़
रहा है। सारी
दृष्टि रूपांतरित
हो गई।
यह
अत्यंत
मूल्यवान
सूत्र है तुम
जहां हो वहीं
रहते, तुम
जैसे हो वैसे
ही रहते—क्रांति
घट सकती है।
कोई हिमालय भाग
जाने की जरूरत
नहीं है।
संन्यास
पलायन नहीं है,
भगोड़ापन
नहीं है।
पत्नी है, बच्चे
हैं, घर—द्वार
है——सब वैसा ही
रहेगा। किसी
को कानों —कान
खबर भी न
होगी—और क्रांति
घट जाएगीं। यह
भीतर की बात
है। तुम्हीं
चकित हो जाओगे
कि यह हुआ
क्या? अब
पत्नी अपनी
नहीं मालूम होगी,
अब बेटा
अपना नहीं
मालूम होगा, मकान अपना
नहीं मालूम
होगा। अब भी
तुम रहोगे, अब अतिथि की
तरह रहोगे।
सराय हो गई; घर वही है।
सब वही है।
करोगे काम, उठोगे, बैठोगे,
दुकान—दफ्तर
जाओगे, श्रम
करोगे—पर अब
कोई चिंता
नहीं पकड़ती।
एक बार यह बात
दिखाई पड़ जाए
कि यहां सब खेल
है, बड़ा
नाटक है, तो
क्रांति घट
जाती है।
मुझसे
एक अभिनेता
पूछते थे कि
कहें कि मैं
अभिनय में और
कैसे कुशल हो
जाऊं? तो
मैंने कहा : एक
ही सूत्र है।
जो लोग जीवन
में कुशल होना
चाहते हों तो
उनके लिए
सूत्र है कि जीवन
को अभिनय
समझें। और जो
लोग अभिनय में
कुशल होना
चाहते हैं, उनके लिए
सूत्र है कि
अभिनय को जीवन
समझें। और तो
कोई सूत्र
नहीं है। अगर
अभिनेता
अभिनय को जीवन
समझ ले तो
कुशल हो जाता
है। तब नाटक
को वह असली
मान लेता है।
तुम
उसी अभिनेता
से प्रभावित
होओगे जिसके
लिए कुशलता
इतनी गहरी हो
गई है कि वह
झूठ को सच मान
लेता है। अगर
अभिनेता झूठ
को सच न मान
पाए तो अभिनय
में कुशल नहीं
हो सकता। तो
वह बाहर—बाहर
रहेगा, भीतर
न हो पाएगा।
तो खड़ा—खड़ा, दूर—दूर कर
लेगा काम; लेकिन
तुम पाओगे, उसके प्राण
उसमें रमे
नहीं। गए नहीं
भीतर।
अभिनेता
बिलकुल भूल
जाता है अभिनय
में। जब कोई
राम का अभिनय
करता है तो वह
बिलकुल भूल
जाता है, वह
राम हो जाता
है। जब उसकी
सीता चुराई
जाती है तो वह
ऐसा नहीं
सोचता कि अपना
क्या लेना—देना
है; अभी
घड़ी भर बाद सब
खेल खतम, अपने
घर चले जाएंगे,
क्यों नाहक
रोओ! क्यों
पूछो वृक्षों
से कि मेरी
सीता कहां है?
क्यों
चीखो—चिल्लाओ?
क्या सार है?
अपनी कोई
सीता है कि
कुछ......? और
सीता वहा है
भी नहीं, कोई
दूसरा आदमी
सीता बना है।
कुछ लेना—देना
नहीं है। अगर
वह अभिनय में
खोए न, तो
अभिनय—कुशल
नहीं हो पाता।
अभिनय की
कुशलता यही है
कि वह अभिनय
को जीवन मान
लेता है, वह
बिलकुल
यथार्थ मान
लेता है। उसकी
ही सीता खो गई
है। वे आंसू
झूठ नहीं हैं।
वे आंसू सच
हैं। वह ऐसे
ही रोता है
जैसे उसकी
प्रेयसी खो गई
हो। वह ऐसे ही
लड़ता है।
अभिनय को सच
कर लेता है।
जीवन
में अगर
कुशलता लानी
हो तो जीवन को
अभिनय समझ
लेना। यह भी
नाटक है।
देर—अबेर
पर्दा उठेगा।
देर—अबेर सब विदा
हो जाएंगे।
मंच बड़ी है
माना, पर मंच
ही है, कितनी
ही बड़ी हो। यहां
घर मत बनाना। यहां
सराय में ही
ठहरना। यह
प्रतीक्षालय
है। यह क्यू
लगा है। मौत
आती—जाती, लोग
विदा होते चले
जाते।
तुम्हें विदा
हो जाना है।
यहां जड़ें जमा
कर खड़े हो
जाने की कोई
जरूरत नहीं, अन्यथा उतना
ही दुख होगा।
तो
जो व्यक्ति इस
ससार में जड़ें
नहीं जमाता, वही
व्यक्ति
संन्यासी। जो यहां
जम कर खड़ा
नहीं हो जाता,
जिसका पैर
अंगद का पैर
नहीं है, वही
संन्यासी है।
जो तत्पर है
सदा जाने को।
इस जगत में
वही व्यक्ति
संन्यासी है
जो बंजारा है,
खानाबदोश
है।
शब्द
'खानाबदोश' बहुत अच्छा
है। इसका अर्थ
होता है.
जिसका घर अपने
कंधे पर है।
खाना अर्थात
घर, बदोश
यानी कंधे
पर—जिसका घर
अपने कंधे पर
है। जो
खानाबदोश है,
वही
संन्यासी है।
तंबू लगा लेना
ज्यादा से ज्यादा,
घर मत बनाना
यहां। तंबू कि
कभी भी उखाड़
लो, क्षण
भर भी देर न
लगे। सराय!
कहते
हैं,
सूफी फकीर
हुआ
इब्राहीम।
पहले वह बल्क
का सम्राट था।
एक रात उसने
देखा कि सोया
अपने महल में,
कोई छप्पर
पर चल रहा है।
उसने पूछा, 'कौन बदतमीज
आधी रात को
छप्पर पर चल
रहा है? कौन
है तू?'
उसने
कहा,
बदतमीज
नहीं हूं,मेरा
ऊंट खो गया
है। उसे खोज
रहा हूं।
इब्राहीम
को भी हंसी आ
गई। उसने कहा, पागल!
तू पागल है!
ऊंट कहीं
छप्परों पर
मिलते हैं अगर
खो जाएं? यह
भी तो सोच कि
ऊंट छप्पर पर
पहुंचेगा
कैसे?
ऊपर
से आवाज आई.
इसके पहले कि
दूसरों को
बदतमीज और
पागल कह, अपने
बाबत सोच।
धन
में,
वैभव में, सुरा—संगीत
में सुख मिलता
है? अगर धन
में, वैभव
में, सुरा—संगीत
में सुख मिल
सकता है तो
ऊंट भी छप्परों
पर मिल सकते
हैं।
इब्राहीम
चौंका। आधी
रात— थी, वह
उठा, भागा।
उसने आदमी
दौड़ाए कि पकड़ो
इस आदमी को, यह कुछ
जानकार आदमी
मालूम होता
है। लेकिन तब
तक वह आदमी
निकल गया।
इब्राहीम ने
आदमी छुड़वा
रखे राजधानी
में कि पता
लगाओ कौन आदमी
था। कोई
पहुंचा हुआ
फकीर मालूम
होता है। क्या
बात कही? किस
प्रयोजन से
कही है?
लेकिन
रात भर
इब्राहीम फिर
सो न सका।
दूसरे दिन
सुबह जब वह
दरबार में
बैठा था, तो वह
उदास था, मलिनचित्त
था, क्योंकि
बात तो उसको
चोट कर गई।
जनक जैसा आदमी
रहा होगा।, चोट कर गई कि
बात तो ठीक ही
कहता है। अगर
यह आदमी पागल
है तो मैं
कौन—सा बुद्धिमान
हूं? किसको
मिला है सुख
संसार में? यहीं तो मैं
भी खोज रहा हूं।
सुख संसार में
मिलता नहीं और
अगर
मिल सकता है
तो फिर ऊंट भी
मिल सकता है।
फिर असंभव
घटता है। फिर
कोई अड़चन नहीं
है। पर यह आदमी
कौन है? कैसे
पहुंच गया
छप्पर पर?—
फिर कैसे भाग
गया, कहा
गया?
वह
चिंता में
बैठा है। बैठा
है दरबार में।
दरबार चल रहा
है,
काम की
बातें चल रही
हैं, लेकिन
आज उसका मन यहां
नहीं। मन कहीं
उड़ गया।
मन—पक्षी किसी
दूसरे लोक में
जा चुका है।
जैसे त्याग घट
गया! एक छोटी—सी
बात, जैसे
खुद
अष्टावक्र
छप्पर पर चढ़
कर बोल गए।
तभी
उसने देखा कि
दरवाजे पर कुछ
झंझट चल रही है।
एक आदमी भीतर
आना चाहता है
और दरबार से
कह रहा है कि
मैं इस सराय
में रुकना
चाहता हूं। और
दरबान कह रहा
है कि 'पागल हो,
यह सराय
नहीं है, सम्राट
का महल है!
सराय बस्ती
में बहुत हैं,
जाओ वहीं
ठहरो। ' पर
वह आदमी कह
रहा है, मैं
यहीं
ठहरूंगा। मैं
पहले भी यहां
ठहरता रहा हूं
और यह सराय ही
है। तुम किसी
और को बनाना।
तुम किसी और
को चराना।
अचानक
उसकी आवाज सुन
कर इब्राहीम
को लगा कि यह आवाज
वही है और यह
फिर वही आदमी
है। उसने कहा, उसे
भीतर लाओ, उसे
हटाओ मत।
वह
भीतर लाया
गया।
इब्राहीम ने
पूछा कि तुम
क्या कह रहे
हौ?
यह किस तरह
की जिंद कर
रहे हो? यह
मेरा महल है।
इसको तुम सराय
कहते हो? यह
अपमान है!
उसने
कहा,
अपमान हो या
सम्मान हो, एक बात पूछता
हूं कि मैं
पहले भी यहां
आया था, लेकिन
तब इस सिंहासन
पर कोई और
बैठा था।
इब्राहीम
ने कहा, वे
मेरे पिता श्री
थे, मेरे
पिता थे।
और
उस फकीर ने
कहा,
इसके भी
पहले मैं आया
था, तब कोई
दूसरा ही आदमी
बैठा था। तो
उसने कहा, वे
मेरे पिता के
पिता थे।
तो
उसने कहा, इसलिए
तो मैं इसको
सराय कहता हू।
यहां लोग
बैठते हैं, चले जाते
हैं, आते
हैं चले जाते
हैं। तुम
कितनी देर
बैठोगे? मै
फिर आऊंगा, फिर कोई
दूसरा बैठा
हुआ मिलेगा।
इसलिए तो सराय
कहता हूं। यह
घर नहीं है।
घर तो वह है
जहा बस गए तो
बस गए; जहा
से कोई हटा न
सके, जहा
से हटना संभव
ही नहीं।
इब्राहीम, कहते
हैं, सिंहासन
से उतर गया और
उसने उस फकीर
से कहा कि प्रणाम
करता हू,।
यह
सराय है। आप यहां
रुके, मैं
जाता हूं।
क्योंकि अब
सराय में
रुकने से क्या
सार है?
इब्राहीम
ने महल छोड़
दिया। पात्र
रहा होगा, सुपात्र
रहा होगा।
जनक
कहते हैं कि एक
क्षण में मुझे
दिखाई पड़ गया
कि शरीर—सहित
विश्व को
त्याग कर, मैं
संन्यस्त हो
गया हूं। यह
किस कुशलता से
कर दिया! यह
कैसा उपदेश
दिया! यह कैसी
कुशलता आपकी!
यह कैसी कला
आपकी!
अहो
शरीरम्
विश्वम्
परित्यज्य
कुतश्चित् कौशलात्,
—कैसी
कुशलता! कैसे
गुरु से मिलना
हो गया!
एव
मया मधुना
परमात्मा
विलोक्यते
—अब मुझे
सिर्फ
परमात्मा
दिखाई पड़ रहा
है। मुझे कुछ
और दिखाई नहीं
पड़ता। अब यह
सब परमात्मा का
ही रूप मालूम
होता है, उसकी
ही तरंगें
हैं।
'जैसे जल से
तरंग, फेन
और बुलबुला
भिन्न नहीं, वैसे ही
आत्म—विशिष्ट
विश्व आत्मा
से भिन्न
नहीं। '
यथा
न तोयतो
भिन्नस्तरंगा
फेन
बुद्बुदा।
आत्मनो
न तथा भिने
विश्वमात्मविनिर्गतम्।
जैसे
पानी में
लहरें उठती
हैं,
बुदबुदे
उठते हैं, फेन
उठता। और जल
से अलग नहीं।
उठता उसी में
है, उसी
में खो जाता
है। ऐसा ही
परमात्मा से
भिन्न यहां
कुछ भी नहीं
है। सब उसके बुदबुदे।
सब उसका फेन।
सब उसकी
तरंगें। उसी
में उठते, उसी
में लीन हो
जाते।
यथा
तोयत तरंग:
फेन बुद्बुदा
भिन्ना: न।
ऐसे
ही हम हैं।
ऐसा मुझे
दिखाई पड़ने
लगा,
प्रभु!
जनक
कहने लगे
अष्टावक्र से
कि ऐसा मैं
देख रहा हू
प्रत्यक्ष।
यह कोई
दार्शनिक का
वक्तव्य नहीं
है। यह एक
अनुभव, गहन
अनुभव से उठा
हुआ वक्तव्य
है कि ऐसा मैं
देख रहा हूं।
तुम
भी देखो! यह
सिर्फ जरा—सी
दृष्टि के
फर्क की बात
है,
जिसको
पश्चिम में
गैस्टॉल्ट
कहते हैं, गैस्टॉल्ट
की बात है।
गैस्टॉल्ट
शब्द बड़ा महत्वपूर्ण
है। तुमने कभी
देखा होगा
बच्चों की किताबों
में तस्वीरें
बनी होती हैं।
एक तस्वीर ऐसी
होती है कि
उसमें अगर गौर
से देखो तो
कभी बुढ़िया
दिखाई पड़ती है,
कभी जवान
औरत दिखाई
पड़ती है। अगर
तुम देखते रहा
तो बदलाहट
होने लगती है।
कभी फिर
बुढ़िया दिखाई
पड़ती है, कभी
फिर जवान औरत
दिखाई पड़ने
लगती है। वही
लकीरें दोनों
को बनाती हैं।
लेकिन एक
बात—तुम हैरान
हो जाओगे, वह
तुमने शायद
खयाल न की हो
—दोनों को तुम
साथ—साथ न देख
सकोगे, हालाकि
तुमने दोनों
देख लीं। उसी
चित्र में तुमने
बुढ़िया देख ली,
उसी चित्र
में तुमने
जवान औरत देख
ली। अब तुमको
पता है कि
दौनों उस
चित्र में
हैं। फिर भी तुम
दोनों को
साथ—साथ न देख
पाओगे। जब तुम
जवान को
देखोगे, बुढ़िया
खो जाएगी। जब
तुम बुढ़िया को
देखोगे, जवान
खो जाएगी।
क्योंकि वही
लकीरें दोनों
के काम आ रही
हैं। इसको
जर्मन भाषा
में गैस्टॉल्ट
कहते हैं।
गैस्टॉल्ट
का मतलब होता
है. देखने के
एक ढंग से चीज
एक तरह की दिखाई
पड़ती है; दूसरे
ढंग से दूसरे
तरह की दिखाई
पड़ती है। चीज
तो वही है, लेकिन
तुम्हारा
देखने का ढंग
सारा अर्थ बदल
देता है।
संसार
तो यही है।
अज्ञानी भी
देखता है इसको
तो अनंत वस्तुएं
दिखाई पड़ती
हैं। एक
गैस्टॉल्ट, एक
ढंग हुआ। फिर
ज्ञानी देखता
इसी को तो
अनंत खो जाता,
अनेक—अनेक
रूप खो जाते।
फिर एक विराट
दिखाई पड़ता।
जनक
कहने लगे. एव
मया अधुना
परमात्मा
विलोक्यते—एक
परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगा!
ये
हरे वृक्ष उसी
की हरियाली
है। इन फूलों
मैं वही रंगीन
हो कर खिला।
फूलों की गंध
में वही हवा
के साथ खिलवाड़
कर रहा है।
आकाश में घिरे
मेघों में वही
घिरा है।
तुम्हारे
भीतर वही सोया
है। बुद्ध और
अष्टावक्र के
भीतर वही जागा
है। पत्थर में
वही सघनीभूत
पड़ा है गहन
तंद्रा में।
मनुष्य में
वही थोड़ा
चौंका है।
थोड़ा जागरण
शुरू हुआ है।
लेकिन है वही!
उसी के सब रूप
हैं। कहीं
उलटा खड़ा है, कहीं
सीधा खड़ा है।
वृक्ष आदमी के
हिसाब से उलटे
खड़े है।
कुछ
दिन पहले मैं
वनस्पति—शास्त्र
की एक किताब
पढ़ रहा था। तो
चकित हुआ। बात
ठीक मालूम
पड़ी। उस
वैज्ञानिक ने
लिखा है कि
वृक्षों का
सिर जमीन में
गड़ा है।
क्योंकि
वृक्ष जमीन
में से भोजन
करते हैं तो
मुंह उनका
जमीन में है।
जमीन में ही
से वे भोजन
करते, पानी
लेते, तो
उनका मुंह
जमीन में है, और पैर आकाश
में खड़े
हैं—शीर्षासन
कर रहे हैं वृक्ष।
बड़े प्राचीन
योगी मालूम
होते हैं।
उस
वैज्ञानिक ने
सिद्ध करने की
कोशिश की है
कि धीरे—धीरे
हम पूरे
मनुष्य के
विकास को इसी
आधार पर समझ
सकते हैं। फिर
केंचुए हैं, मछलियां
हैं—वे समतल
हैं। वह
समानांतर
जमीन के हैं।
उनकी पूंछ और
उनका मुंह एक
सीधी रेखा में
जमीन के साथ
समानांतर
रेखा बनाता
है। वह वृक्ष
से थोड़ा
रूपांतर हुआ।
फिर कुत्ते
हैं, बिल्लियां
हैं, शेर
हैं, चीते
हैं—इनका सिर
थोड़ा उठा हुआ
है। समानांतर से
थोड़ी बदलाहट
हुई, सिर
थोड़ा ऊपर उठा।
कोण बदला। फिर
बंदर हैं वे बैठ
सकते हैं, वे
करीब—करीब
जमीन से नब्बे
का कोण बनाने
लगे, लेकिन
खड़े नहीं हो
सकते। वे बैठे
हुए आदमी हैं।
वृक्ष
शीर्षासन
करते हुए आदमी
हैं। फिर आदमी
है, वह
सीधा खड़ा हो
गया, नब्बे
का कोण बनाता।
वृक्ष से ठीक
उलटा हो गया
है। सिर ऊपर
हो गया, पैर
नीचे हो गए
हैं।
बात
मुझे
प्रीतिकर
लगी। सभी एक
का ही खेल है। कहीं
उलटा खड़ा, कहीं
सीधा खड़ा, कहीं
लेटा, कहीं
सोया, कहीं
जागा; कहीं
दुख में डूबा,
कहीं सुख
में; कहीं
अशांत, कहीं
शांत—मगर
तरंगें सब एक
की हैं।
यथा
तोयत तरंगा:
फेन बुद्बुदा
भिन्ना: न।
—जैसे जल से
तरंग, फेन,
बुदबुदा
भिन्न नहीं, वैसे ही
आत्मा से कुछ
भी भिन्न नहीं
है। सब अभिन्न
है।
इसे
तुम देखो, सुनो
मत! यह
गैस्टॉल्ट के
परिवर्तन की
बात है। इसमें
एक झलक में
दिखाई पड़ सकता
है। एक झलक! गौर
से देखो, तो
धीरे से तुम
पाओगे —कि सब
एक में
तिरोहित हो
गया, और खो
गया। एक विराट
सागर लहरें
मार रहा है। यह
ज्यादा देर न
टिकेगा, क्योंकि
इसको टिकाने
के लिए
तुम्हारी
क्षमता
विकसित होनी
चाहिए। लेकिन
यह क्षण भर को
भी दिखाई पड़े
कि एक विराट
लहरें मार रहा
है, हम सब
उसी की तरंगें
हैं; एक ही
सूरज
प्रकाशित है,
हम सब उसी
की किरणें हैं,
यहां एक ही
संगीत बज रहा
है, हम सब
उसी के स्वर
है—तो जीवन
में क्रांति
घट जाएगी। वह
एक क्षण
धीरे—धीरे
तुम्हारा
शाश्वत
स्वरूप बन जाएगा।
इसे
तुम चाहो तो
पकड़ लो, चाहो
तो चूक जाओ।
जनक ने पकड़
लिया।
रात
मैं जागा
अंधकार
की सिरकी के
पीछे से मुझे
लगा
मैं
सहसा सुन पाया
सन्नाटे की
कनबतिया
धीमी
रहस्य—सुरीली, परम
गीत में
और गीत
वह मुझसे बोला
दुर्निवार!
अरे तुम अभी
तक नहीं जागे?
और यह
मुक्त
स्रोत—सा
सभी ओर
बह चला उजाला
अरे, अभागे
कितनी बार भरा
अनदेखे, छलक—छलक
बह गया तुम्हारा
प्याला!
तुम
पहली दफे नहीं
सुन रहे हो इन
वचनों को; बहुत
बार सुन चुके
हो। तुम अति
प्राचीन हो।
हो सकता है, अष्टावक्र
से भी तुमने
सुना हो। तुम
में से कुछ ने
तो निश्चित
सुना होगा।
कुछ ने बुद्ध
से सुना हो, कुछ ने
कृष्ण से, कुछ
ने क्राइस्ट
से, कुछ ने
मुहम्मद से, किसी ने
लाओत्सु से, जरथुस्त्र
से। पृथ्वी पर
इतने अनंत
पुरुष हुए हैं,
उन सबको तुम
पार करके आते
गए हो। इतने
दीये जले हैं,
असंभव है कि
किसी दीये की
रोशनी
तुम्हारी आंखों
में न पड़ी हो।
तुम्हारा
प्याला बहुत
बार भरा गया
है।
अरे
अभागे! कितनी
बार भरा
अनदेखे, छलक—छलक
बह गया
तुम्हारा
प्याला!
तुम्हारा
प्याला भर भी
दिया जाता है
तो भी खाली रह
जाता है। तुम
उसे संभाल
नहीं पाते। और
गीत वह मुझसे
बोला
दुर्निवार!
अरे,
तुम अभी तक
नहीं जागे?
और यह
मुका स्रोत—सा
सभी ओर
बह चला उजाला।
सुबह
होने लगी। और
बहुत बार सुबह
हुई है, और
बहुत बार सूरज
निकला, पर
तुम हो कि
अपने अंधेरे
को पकड़े बैठे
हो। यह अभागापन
तुम छोड़ोगे तो
छूटेगा।
जनक
कहने लगे, एक
ही दिखाई पड़ता
है। मैं उसी
एक में लीन हो
गया हूं। वह
एक मुझमें लीन
हो गया है।
वेद यह
कहते हैं
जो
इन्सां
त्यागी, यानी
संन्यासी है
वेदों
से भी है
बलातर
उसकी
जगमग जग से
बढ़कर
वह
बसता है
जगदीश्वर में
उसमें
बसता है
जगदीश्वर!
वेद यह
कहते हैं
जो
इन्सां
त्यागी, यानी
संन्यासी है
वेदों
से भी है
बलातर
—वेदों से भी
श्रेष्ठ है।
क्योंकि :
उसमें
बसता है
जगदीश्वर
वह
बसता है
जगदीश्वर में!
उस
घड़ी जनक की
चेतना अलग न
रही,
एक होने
लगी। चौंक गए
हैं स्वयं।
'जैसे विचार
करने से
वस्त्र
तंतुमात्र ही
होता है, वैसे
ही विचार करने
से यह संसार
आत्म—सत्ता मात्र
ही है। '
जाग
कर देखने से, विवेक
करने से, बोधपूर्वक
देखने से..।
जैसे गौर से
तुम वस्त्र को
देखो तो पाओगे
क्या? तंतुओं
का जाल ही
पाओगे। एक
धागा आड़ा, एक
धागा सीधा—ऐसे
ही रख—रख कर
वस्त्र बन
जाता है।
तंतुओं का जाल
है वस्त्र।
फिर भी देखो
मजा, तंतुओं
को पहन न
सकोगे, वस्त्र
को पहन लेते
हो! अगर धागे
का ढेर रख दिया
जाए तो उसे
पहन न सकोगे।
यद्यपि
वस्त्र भी धागे
का ढेर ही है, सिर्फ आयोजन
का अंतर है, आड़ा—तिरछा, धागे की
बुनावट है, तो वस्त्र
बन गया। तो
वस्त्र से तुम
ढाक लेते हो
अपने को।
लेकिन इससे
क्या फर्क पड़ा?
धागे ही
रहे। कैसे
तुमने रखे, इससे क्या
फर्क पड़ता है?
जनक
कह रहे हैं कि
परमात्मा
कहीं हरा हो
कर वृक्ष है, कहीं
लाल सुर्ख हो कर
गुलाब का फूल
है; कहीं
जल है, कहीं
पहाड़—पर्वत है,
कहीं
चांद—तारा है।
ये सब उसी के
चैतन्य की अलग—अलग
संघटनाएं
हैं। जैसे
वस्त्र को
धागे से बुना
जाता, फिर
उससे ही तुम
अनेक तरह के
वस्त्र बुन
लेते हो :
गर्मी में
पहनने के लिए
झीने—पतले; सर्दी में
पहनने के लिए मोटे।
फिर उससे ही
तुम
सुंदर—असुंदर,
गरीब के
अमीर के, सब
तरह के वस्त्र
बुन लेते हो।
उससे ही तुम
हजार—हजार रूप
के निर्माण कर
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
सारा
अस्तित्व एक
ही ऊर्जा से
बना है। उनका
नाम है ऊर्जा
के लिए 'विद्युत'। नाम से
क्या फर्क
पड़ता है? लेकिन
एक बात से
वैज्ञानिक
राजी हैं कि
सारा अस्तित्व
एक ही चीज से
बना है। उसी
एक चीज के
अलग—अलग ढांचे
हैं। जैसे
सोने के
बहुत—से आभूषण,
सभी सोने के
बने हैं—गला
दो तो सोना
बचे। आकार बड़े
भिन्न, लेकिन
आकार जिस पर
खड़ा है वह
यद्वत्
पट: तंतुमात्र
—जैसे वस्त्र
केवल तंतुमात्र
हैं।
इदं
विवम्
आत्मतन्मात्रम्
—ऐसा ही यह
सारा
अस्तित्व भी
आत्मा—रूपी
तत्व से बुना
गया है।
और
निश्चित ही
विद्युत कहने
से आत्मा कहना
बेहतर है।
क्योंकि
विद्युत जड़
है। और
विद्युत से
चैतन्य के
उत्पन्न होने
की कोई
संभावना नहीं
है। और अगर
विद्युत से
चैतन्य होने
की संभावना है
तो फिर
विद्युत को
विद्युत कहना
व्यर्थ है।
क्योंकि जो
पैदा हो सकता है, वह
छिपा होना
चाहिए।
चैतन्य दिखाई
पड़ रहा है।
चैतन्य प्रगट
हुआ है। तो जो प्रगट
हुआ है वह मूल
में भी होना
ही चाहिए, अन्यथा
प्रगट कैसे
होगा? तुमने
आम का बीज
बोया, आम
का वृक्ष
प्रगट हुआ; उसमें आम लग
गए। तुमने नीम
का बीज बोया, नीम प्रगट
हुई; उसमें
निमोलिया लग
गईं।
जो
बीज में है, वही
प्रगट होता है,
वही लगता
है। इतना
चैतन्य दिखाई
पड़ता है दुनिया
में, इतनी
चेतना दिखाई
पड़ती है, विभिन्न
चेतना के रूप
दिखाई पड़ते
है—तो जो मूल
संघट है इस
अस्तित्व का,
उसमें
चैतन्य छुपा
होना चाहिए।
इसलिए विद्युत
कहना उचित
नहीं, आत्मा
कहना ज्यादा
उचित है।
आत्म—विद्युत
कहो, मगर
चैतन्य को
वहां डालना ही
होगा। जो
दिखाई पड़ने
लगा है, वह
आया है तो मूल
में छिपा रहा
होगा।
'जैसे विचार
करने से
वस्त्र
तंतुमात्र ही
होता है, वैसे
ही विचार करने
से यह संसार
आत्म—मात्र है।
'
'जैसे ईख के
रस से बनी हुई
शक्कर ईख के
रस से व्याप्त
है, वैसे
ही मुझसे बना
हुआ संसार
मुझसे भी
व्याप्त है। '
जैसे
तुमने ईख से
शक्कर निकाल
ली तो शक्कर
में ईख का रस
व्याप्त है, ऐसे
ही चैतन्य में
परमात्मा
व्याप्त है, मुझमें
परमात्मा
व्याप्त है, तुममें
परमात्मा
व्याप्त है, और तुम
परमात्मा में
व्याप्त हो।
'आत्मा के अज्ञान
से संसार
भासता है......!
इसे
समझना। यह
बहुत
महत्वपूर्ण
है।
'आत्मा के
अज्ञान से
संसार भासता
है और आत्मा के
ज्ञान से नहीं
भासता..। '
गैस्टॉल्ट
बदल जाता है, देखने
का ढंग बदल
जाता है।
'…..
जैसे कि
रस्सी के
अज्ञान से
सांप भासता है
और उसके ज्ञान
से वह नहीं
भासता है। '
रात
के अंधेरे में
देख ली रस्सी, घबड़ा
गए, समझा
कि सांप है।
भागने लगे, लकड़ियां ले
कर मारने लगे।
फिर कोई दीया
ले आया, तो
लकड़ियां हाथ
से गिर जाएंगी,
भय
विसर्जित हो
जाएगा।
प्रकाश में
दिखाई पड़ गया
सांप नहीं है,
रस्सी है।
रस्सी को
रस्सी की तरह
न देख पाने के
कारण सांप था।
सांप था
नहीं—सिर्फ
आभास था।
आत्मा
को आत्मा की
तरह न देख
पाने के कारण
संसार है।
जिसने स्वयं
को जाना, उसका
संसार मिट
गया। इसका यह
अर्थ नहीं कि
द्वार—दरवाजे,
दीवाल, पहाड़—पत्थर
खो जाएंगे। न,
ये सब होंगे,
लेकिन ये सब
एक में ही लीन
हो जाएंगे। ये
एक की ही
विभिन्न
तरंगें होंगी,
फेन, बुदबुदे!
जिसने
स्वयं को जाना, उसका
संसार समाप्त
हुआ। और जिसने
स्वयं को नहीं
जाना, उसका
संसार कभी समाप्त
नहीं होता।
संसार छोड़ने
से तुम स्वयं
को न जान
सकोगे। लेकिन
स्वयं को जान
लो तो संसार छूट
गया।
त्याग
की दो धाराएं
हैं। एक धारा
है जो कहती है
कि संसार को
छोड़ो तो तुम
स्वयं को जान
सकोगे। दूसरी
धारा है, जो
कहती है.
स्वयं को जान
लो, संसार
छूटा ही है।
पहली धारा
भ्रांत है।
संसार को
छोड़ने से नहीं
तुम स्वयं को
जान सकोगे।
क्योंकि
संसार के
छोड़ने में भी
संसार के होने
का भ्रम बना
रहता है।
समझो
थोड़ा। रस्सी
पड़ी है, सांप
दिखाई पड़ा।
कोई तुमसे
मिलता है, वह
कहता है : तुम
सांप का भाव
छोड़ दो तो
तुम्हें रस्सी
दिखाई पड
जाएगी। तुम
कहोगे 'सांप
का भाव छोड़
कैसे दें? सांप
दिखाई पड़ रहा
है, रस्सी
तो दिखाई पड़ती
नहीं। ' तो
तुम अगर
हिम्मत करके,
राम—राम जप
कर किसी तरह
अकड़ कर खड़े हो
जाओ कि चलो
नहीं सांप है,
रस्सी है, रस्सी है, रस्सी है, तो भी
तुम्हारे
भीतर तो तुम
जानोगे सांप
ही है, किसको
झुठला रहे हो?
पास मत चले
जाना, कोई
झंझट न हो जाए!
भागते तो तुम
चले ही जाओगे।
तुम कहोगे, रस्सी है।
माना कि रस्सी
है, मगर
पास क्यों
जाएं?
अब
जो आदमी संसार
छोड़ कर भागता
है—वह कहता है, संसार
माया है, फिर
भा भागता है। थोड़ा
उससे पूछो कि
अगर माया है
तो भाग क्यों
रहे हो? अगर
है ही नहीं तो
भाग कहा रहे
हो? किसको
छोड़ कर जा रहे
हो? वह
कहता है, धन
तो मिट्टी है।
तो फिर धन से
इतने घबड़ाए
क्यों हो? फिर
इतने भयभीत
क्यों हो रहे
हो? अगर धन
मिट्टी है तो
मिट्टी से तो
तुम भयभीत नहीं
होते! तो धन से
क्यों भयभीत
हो रहे हो? मिट्टी
है, अगर
दिखाई ही पड
गयी, तो
बात ठीक है; धन पड़ा रहे
तो ठीक, न
पड़ा रहे तो
ठीक। कभी
मिट्टी की
जरूरत होती है
तो आदमी
मिट्टी का भी
उपयोग करता है,
धन की जरूरत
हुई, धन का
उपयोग कर लेता
है। लेकिन अब
यह सब स्वम्नवत
है, खेल
जैसा है।
दूसरी धारा
ज्यादा गहरी
और सत्य के
करीब है कि
तुम दीया जलाओ
और रस्सी को
रस्सी की
भांति देख लो,
तो संसार
गया, सांप
गया।
'
आत्मा के
अज्ञान से
संसार भासता
है और आत्मा के
शान से नहीं
भासता है। '
आत्मा
को देख लो, संसार
नहीं दिखाई
पड़ता। संसार
को देखो, आत्मा
नहीं दिखाई
पड़ती। दो में
से एक ही दिखाई
पड़ता है, दोनों
साथ—साथ दिखाई
नहीं पड़ते।
अगर तुम्हें
संसार दिखाई
पड़ रहा है तो
आत्मा दिखाई
नहीं पड़ेगी।
आत्मा दिखाई
पड़ने लगे, संसार
दिखाई नहीं
पड़ेगा। इन
दोनों को
साथ—साथ देखने
का कोई भी
उपाय नहीं है।
यह
तो ऐसे ही है
कि जैसे तुम
कमरे में बैठे
हो,
अंधेरा अंधेरा
दिखाई पड़ रहा
है। फिर तुम
रोशनी ले आओ
कि जरा अंधेरे
को गौर से
देखें, रोशनी
में देखें तो
और साफ दिखाई
पड़ेगा। फिर कुछ
भी दिखाई न
पड़ेगा। रोशनी
ले आए तो
अंधेरा दिखाई
ही न पड़ेगा।
अगर अंधेरा
देखना हो तो
रोशनी भूल कर
मत लाना। अगर
अंधेरा न
देखना हो तो
रोशनी लाना।
क्योंकि
अंधेरा और
रोशनी साथ—साथ
दिखाई नहीं पड़
सकते। क्यों
नहीं दिखाई
पड़ते साथ—साथ?
क्योंकि
अंधेरा रोशनी
का अभाव है।
जब रोशनी का
भाव हो जाता
है तो अभाव
साथ—साथ कैसे
होगा?
संसार
आत्मज्ञान का
अभाव है। जब
आत्मज्ञान का
उदय होगा तो
संसार गया। सब
जहा का तहां रहता
है और फिर भी
कुछ वैसा का
वैसा नहीं रह
जाता। सब जहां
का तहां—और सब
रूपांतरित हो
जाता है।
मुझसे
लोग पूछते हैं
कि आप संन्यास
देते हैं, लेकिन
लोगों को कहते
नहीं कि घर
छोड़े, पत्नी
छोड़े, बच्चे
छोड़े। मैं
कहता हूं कि
मैं उनको यह
नहीं कहता कि
छोड़े, मैं
उनको इतना ही
कहता कि
आत्मवत हों, आत्मवान हों,
ताकि दिखाई
पड़ने लगे कि
जो है वह है।
जो है, उसे
छोड़ा नहीं जा
सकता। जो नहीं
है, उसे
छोड़ने की कोई
जरूरत नहीं
है। हम जो
देखना चाहें
देख लेते हैं।
अदालत
में एक मुकदमा
था।
मजिस्ट्रेट
ने पूछा, मुल्ला
नसरुद्दीन को,
इन एक जैसी सैकड़ों
भैंसों में से,
तुमने अपनी
ही भैंस को
किस तरह पहचान
लिया?
नसरुद्दीन
बोला, यह
कौन—सी बड़ी
बात है मालिक!
आपकी कचहरी
में काले कोट
पहने सैकड़ों
वकील खड़े हैं,
फिर भी मैं
अपने वकील को
पहचान ही रहा
हूं कि नहीं?
कहने
लगा,
जिसको हम
पहचानना
चाहते हैं, पहचान ही
लेते हैं।
अपनी भैंस भी
पहचान लेता है
आदमी, क्योंकि
एक ही जैसी
भैंसें
हैँ—वकीलों
जैसी।
जो
हम जानना
चाहते हैं, उसे
हम जान ही
लेते हैं। जो
हम पहचानना
चाहते हैं उसे
हम पहचान ही
लेते हैं।
हमारा
अभिप्राय ही
हमारे जीवन की
सार्थकता बन
जाता है। इस संसार
से जागना हो
तो संसार से
जूझना मत। इस
संसार से
जागना हो तो
सिर्फ भीतर
जागने की
कोशिश करना।
मुल्ला
नसरुद्दीन और
उसकी पत्नी
अपनी गोद में
एक खेलते हुए
बच्चे को ले
कर नृत्य का
एक कार्यक्रम
देखने गए।
दरबान ने
उन्हें
चेतावनी दी कि
नसरुद्दीन, यदि
नृत्य के
दौरान बच्चा
रोया तो
तुम्हें हाल
से उठ जाना
पड़ेगा। और यदि
चाहोगे तो
तुम्हारी
टिकटों के दाम
भी हम लौटा
देंगे, मगर
फिर बैठने न
देंगे, तो
खयाल रखना।
लगभग आधा
कार्यक्रम
पूरा हो जाने
के बाद
नसरुद्दीन ने
पत्नी से पूछा,
नृत्य कैसा
लग रहा है?
एकदम
बेकार है!
श्रीमती ने
उत्तर दिया।
तो
उसने कहा, फिर
देर क्या कर
रही हो, काटो
एक चुटकी बेबी
को।
जब
तुम संसार को
बिलकुल बेकार
जान लो तो देर
मत करना।
काटना एक
चुटकी। भीतर
झकझोरना अपने
को,
जगाना अपने
को। अपनी जाग
से सब हो जाता
है। जागरण
महामंत्र है—
एकमात्र
मंत्र!
हरि
ओंम तत्सत्!
साधुवाद साधुवाद साधुवाद
जवाब देंहटाएंSuper
जवाब देंहटाएंThank u sir