क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-17) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-27
मैं मृत्यु सिखाता हूं
मैं प्रकाश की बात नहीं करता हूं, वह कोई प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न वस्तुतः आंख का है। वह है, तो प्रकाश है। वह नहीं है, तो प्रकाश नहीं है। क्या है वह, हम नहीं जानते हैं। जो हम जान सकते हैं, वही हम जानते हैं। इसलिए विचारणीय सत्ता नहीं, विचारणीय ज्ञान की क्षमता है। सत्ता उतनी ही ज्ञात होती है, जितना ज्ञान जाग्रत होता है। कोई पूछता था- आत्मा है या नहीं है मैंने कहा- आपके पास उसे देखने की आंख है, तो है, अन्यथा नहीं ही है। साधारणतः हम केवल पदार्थ को ही देखते हैं। इंद्रियों से केवल वही ग्रहण होता है। देह के माध्यम से जो भी जाना जाता है वह देह से अन्य हो भी कैसे सकता है देह, देह को ही देखती है औैर देख सकती है। अदेही उससे अस्पर्शित रह जाता है। आत्मा उसकी ग्रहण-सीमा में नहीं आती है। वह पदार्थ से अन्य है। इसलिए उसे जानने का मार्ग भी पदार्थ से अन्य ही हो सकता है। आत्मा को जानने का मार्ग धर्म है। धर्म उपदेश नहीं, वह उपचार है। वह उस आंतरिक चक्षु की चिकित्सा है जिससे जो पदार्थ के अतिरेक है और पदार्थ का अतिक्रमण करता है, उसे जाना जाता है। वह कोई विचारणा नहीं, साधना है। विचारणा ऐंद्रिक है।क्योंकि सब विचार इंद्रियों से ही ग्रहण होते हैं और इसलिए विचारणा कभी ऐंद्रिक का अतिक्रमण नहीं कर पाती है। विचार अंतस में जागते नहीं, बाहर से आते हैं। वे अंतस नहीं, अतिथि हैं। वे स्वयं नहीं, पर हैं। इसलिए विचार अपनी चरम परिणति में विज्ञान बनकर अनिवार्यतः पदार्थ-केंद्रित हो जाता है और जो विचार का उसके तार्किक अंत तक अनुगमन करेगा वह पाएगा कि पदार्थ के अतिरिक्त जगत में और कुछ भी नहीं है। विचार स्वरूपतः आत्मा के निषेध के लिए आबद्ध है, क्योंकि उसका जन्म और ग्रहण इंद्रियों से होता है और जो इंद्रियों के अतीत है, वह उसकी सीमा नहीं। इसलिए आत्मा को प्रकट करनेवाले सब विचार असंगत और तर्कशून्य मालूम होते हैं। यह स्वाभाविक ही है। धर्म अतर्क्य है, क्योंकि धर्म कोई विचार नहीं है। वह असंगत भी है। क्योंकि इंद्रिय-ज्ञान से उसकी कोई संगति संभव नहीं है, और वह इंद्रियों से नहीं वरन किसी बहुत ही अन्य और भिन्न मार्ग से उपलींध होता है। धर्म विचार की अनुभूति नहीं, निर्विचार चैतन्य में हुआ बोध है। विचार इंद्रियजन्य है। निर्विचार चैतन्य अतींद्रिय है। विचार की चरम निष्पत्ति पदार्थ है। निर्विचार चैतन्य का चरम साक्षात आत्मा है। इसलिए जो विचारणा आत्मा के संबंध में है, वह व्यर्थ है। वह साधना सार्थक है जो निर्विचारणा की ओर है। विचार के पीछे भी कोई है, वही बोध है, विवेक है, बुद्धि है। विचार में ग्रस्त और व्यस्त उसे नहीं जान पाता है। विचार धुएं की भांति उस अग्नि को ढांके रहते हैं। उनमें होकर सारा जीवन ही धुआं हो जाता है और व्यक्ति उस ज्ञानाग्नि से अपरिचित ही रह जाता है, जो उसका वास्तविक होना है। विचार पराए हैं। वह अग्नि ही अपनी है। विचार ज्ञान नहीं है। वही चक्षु है, जिससे सत्य जाना जाता है। वह नहीं है, तो हम अंधे हैं, और अंधेपन में प्रकाश तो क्या, अंधेरा भी नहीं जाना जा सकता। एक बार एक साधु के पास कुछ लोग अपने अंधे मित्र को लाए थे। उन्होंने उसे बहुत समझाया था कि प्रकाश है, पर वह मानने को राजी नहीं हुआ था। उसका न मानना ठीक भी था। मानना ही गलत हुआ होता, यही विचारसंगत था। जो नहीं दीख रहा था, वह नहीं था। हममें से अधिक का तर्क भी यही है। वह अंधा भी विचारक था और विचार के नियमों के अनुकूल ही उसका वह व्यवहार था। उसके मित्र ही गलत थे। साधु ने यही कहा था। उसने कहा था- मेरे पास क्यों लाए हो किसी वैद्य के पास ले जाओ। तुम्हारे मित्र को प्रकाश समझाने की नहीं, चिकित्सा की आवश्यकता है। मैं भी यही कहता हूं, आंख है तो प्रकाश है और जो प्रकाश के लिए सच है वही आत्मा के लिए भी सच है। सत्य वही है जो प्रत्यक्ष हो। यद्यपि जो प्रत्यक्ष है, केवल वही सत्य नहीं है। सत्य अनंत है। अनंत प्रत्यक्ष भी हो सकता है। विचार हमारी सीमा है, इंद्रियां हमारी सीमा हैं। इसलिए उनसे जो जाना जाता है, वह वही है जिसकी सीमा है। असीम को, अनंत को, उनसे ऊपर उठकर जाना होता है। इंद्रियों के पीछे विचारशून्य चित्त की स्थिति में जिसका साक्षात होता है, वही अनंत, असीम, अनादि आत्मा है।
आत्मा को जानने की आंख शून्य है। उसे ही समाधि कहा है। यह योग है। चित्त की वृत्तियों के विसर्जन से बंद आंखें खुलती हैं और सारा जीवन अमृत-प्रकाश से आलोकित और रूपांतरित हो जाता है। वहां पुनः पूछना नहीं होता कि आत्मा है या नहीं है। वहां जाना जाता है। वहां दर्शन है। विचार, वृत्तियां, चित्त जहां नहीं हैं- वहां दर्शन है। शून्य से पूर्ण का दर्शन होता है और शून्य आता है विचार-प्रक्रिया के तटस्थ चुनाव-रहित साक्षीभाव से। विचार में शुभाशुभ का निर्णय नहीं करना है। वह निर्णय राग या विराग लाता है। किसी को रोक रखना और किसी को परित्याग करने का भाव उससे पैदा होता है। वह भाव ही विचार-बंधन है। वह भाव ही चित्त का जीवन और प्राण है। उस भाव के आधार पर ही विचार की श्रृंखला अनवरत चलती चली जाती है। विचार के प्रति कोई भी भाव हमें विचार से बांध देता है। उसके तटस्थ साक्षी का अर्थ है निर्भाव। विचार को निर्भाव के बिंदु से देखना ध्यान है। बस देखना है, और चुनाव नहीं करना है, और निर्णय नहीं लेना है। यह देखना बहुत श्रमसाध्य है। यद्यपि कुछ करना नहीं है, पर कुछ न कुछ करते रहने की हमारी इतनी आदत बनी है कि कुछ न करने जैसा सरल और सहज कार्य भी बहुत कठिन हो गया है। बस, देखने-मात्र के बिंदु पर थिर होने से क्रमशः विचार विलीन होने लगते हैं, वैसे ही जैसे प्रभात में सूर्य के उत्ताप में दूब पर जमे ओसकण वाष्पीभूत हो जाते हैं। बस, देखने का उत्ताप विचारों के वाष्पीभूत हो जाने के लिए पर्याप्त है। वह राह है जहां से शून्य उद्घाटित होता है और मनुष्य को आंख मिलती है और आत्मा मिलती है। मैं एक अंधेरी रात में अकेला बैठा था। बाहर भी अकेला था, भीतर भी अकेला था। बाहर किसी की उपस्थिति नहीं थी और भीतर किसी का विचार नहीं था। कोई क्रिया भी नहीं थी। वह देखता था- कुछ देखता था, ऐसा नहीं, बस देखता ही था! उस देखने का कोई विषय नहीं था। वह देखना निर्विषय और आधार-शून्य था। वह किसी का देखना नहीं, बस मात्र देखना ही था। किसी ने आकर पूछा था कि क्या कर रहे हैं- अब मैं क्या कहता कुछ कर तो रहा ही नहीं था। मैंने कहा- मैं कुछ नहीं कर रहा हूं। मैं बस हूं- यह मात्र होना ही शून्य है! यही वह बिंदु है जहां पदार्थ का अतिक्रमण और परमात्मा का आरंभ होता है। मैं शून्य सिखाता हूं। मैं यह मिटना ही सिखाता हूं।
मैं यह मृत्यु ही सिखाता हूं और यह इसलिए सिखाता हूं कि तुम पूर्ण हो सको, तुम अमृत हो सको! कैसा आश्चर्य है कि मिटकर जीवन मिलता है और जो जीवन से चिपटते हैं वे उसे खो देते हैं। पूर्ण होने को जो चिंता में है, वह रिक्त और शून्य हो जाता है और जो शून्य होकर निश्चिंत है, वह पूर्ण को पा लेता है। बूंद, बूंद रहकर सागर नहीं हो सकती। वह अहंकार निष्फल है। उस दिशा से बूंद तो मिट सकती है, पर सागर नहीं हो सकती है। बूंद बने रहने का आग्रह ही तो सागर होने में बाधा है। वही तो आडंबर और रुकावट है। सागर की ओर से द्वार कभी भी बंद नहीं है, क्योंकि जिसके द्वार पर बूंद अपने ही हाथों अपने में बंद होती है- उसकी दीवारें और सीमाएं उसकी अपनी ही हैं। सागर तो वह होना चाहती है पर अपने बूंद होने को नहीं तोड़ना चाहती है। यही उसकी दुविधा है। यही दुविधा मनुष्य की है। यह असंभव है कि बूंद, बूंद भी रहे, और सागर हो जाए; और व्यक्ति, व्यक्ति भी रहे और ब्रह्म को जान ले, ब्रह्म हो जाए! ‘मैं’ की बूंद मिटती है तो आत्मा का सागर उपलींध होता है। आत्मा का सागर बहुत निकट है और हम व्यर्थ ही बूंद को पकड़कर रुके हुए हैं। आत्मा का अमृत निकट है और हम व्यर्थ ही मृत्यु को ओढ़कर बैठे हुए हैं। बूंद को मिटाना पड़ेगा और हमें अपने ही हाथों से ओढ़े हुए वस्त्रों को दूर करना पड़ेगा और अपनी सीमाएं छोड़नी ही होंगी। तभी हम अनंत और असीम सत्य के अंग हो सकते हैं। यह साहस जिनमें नहीं है वे धार्मिक नहीं हो सकते हैं। धर्म मनुष्य-जीवन का चरम साहस है, क्योंकि वह स्वयं को शून्य करने और विसर्जित करने का मार्ग है। धर्म भयभीतों की दिशा नहीं है। स्वर्ग के लोभ से पीड़ित और नरक के भय से कंपितों के लिए वह पुरुषार्थ नहीं है। वे सारे प्रलोभन और भय बूंद के हैं। उन भयों और प्रलोभनों से ही तो बूंद ने अपने को बनाया और बांधा है। बूंद को मिटाना है और व्यक्ति को मृत्यु देना है। जिसमें इतना अभय और साहस है वही सागर के निमंत्रण को स्वीकार कर सकता है। सागर का निमंत्रण ही सत्य का निमंत्रण है!
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