क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-9) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-19
समाधि योग
सत्य की खोज की दो दिशाएं हैं- एक विचार की, एक दर्शन की। विचार-मार्ग चक्रीय है। उसमें गति तो बहुत होती है, पर गंतव्य कभी भी नहीं आता। वह दिशा भ्रामक और मिथ्या है। जो उसमें पड़ते हैं, वे मतों में ही उलझकर रह जाते हैं। मत और सत्य भिन्न बातें हैं। मत बौद्धिक धारणा है, जबकि सत्य समग्र प्राणों की अनुभूति में बदल जाते हैं। तार्किक हवाओं के रुख पर उनकी स्थिति निर्भर करती है, उनमें कोई थिरता नहीं होती। सत्य परिवर्तित नहीं होता है। उसकी उपलिंध शाश्वत और सनातन में प्रतिष्ठा देती है।विचार का मार्ग उधार है। दूसरों के विचारों को ही उसमें निज की संपत्ति मानकर चलना होता है। उनके ही ऊहापोह और नए-नए संयोगों को मिलाकर मौलिकता की आत्मवंचना पैदा की जाती है, जबकि विचार कभी भी मौलिक नहीं हो सकते हैं। दर्शन ही मौलिक होता है, क्योंकि उसका जन्म स्वयं की अंतर्दृष्टि से होता है।
जो भी ज्ञात है, वह अज्ञात में नहीं ले जाता है। सत्य अज्ञात है तो ज्ञात विचार उस तक पहुंचने की सीढ़ियां नहीं बन सकते हैं। उनके परित्याग से ही सत्य में प्रवेश होता है। निर्विचार चैतन्य के आकाश में ही सत्य के सूर्य के दर्शन होते हैं।
मनुष्य चित्त ऐंद्रिक अनुभवों को संगृहीत कर लेता है। ये सभी अनुभव बाह्य जगत के होते हैं, क्योंकि इंद्रियां केवल उसे ही जानने में समर्थ हैं जो बाहर है। स्वयं के भीतर जो है, वहां तक इंद्रियों की कोई पहुंच नहीं है। इन अनुभवों की सूक्ष्म तरंगें ही विचार की जन्मदात्री हैं। इसलिए विचार, विज्ञान की खोज में तो सहयोगी हो सकता है, किंतु परम सत्य के अनुसंधान में नहीं। स्वयं के आंतरिक केंद्र पर जो चेतना है, विचार के द्वारा उसे स्पर्श नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वह तो इंद्रियों के सदा पार्श्व में ही है।
यह स्मरण रखना आवश्यक है कि विचारों का आगमन बाहर से होता है। वे विजातीय तत्व हैं। उनसे स्वयं की सत्ता उद्घाटित नहीं, वरन और आच्छादित ही होती है। उनकी धुंध और धुआं जितना गहरा होता है, उतना ही स्व-सत्ता में प्रवेश कठिन और दुर्गम हो जाता है। जो स्वयं को नहीं जानता है, वह सत्य को कैसे जान सकता है सत्य को जानने का द्वार स्वयं से होकर ही आता है, और कोई दूसरा द्वार भी नहीं है।
सत्य की बौद्धिक विचार-धारणाओं में पड़े रहना ऐसे ही है, जैसे कोई अंधा व्यक्ति प्रकाश का चिंतन करता रहे। उसका सारा चिंतन व्यर्थ ही होगा, क्योंकि प्रकाश सोचा नहीं, देखा जाता है। उसके लिए विचार नहीं, आंखों का उपचार आवश्यक है। उस दिशा में किसी विचारक की नहीं, चिकित्सक की सलाह ही उपादेय हो सकती है।
विचार चिंतन है, दर्शन चिकित्सा है। प्रश्न प्रकाश का नहीं, सदा ही आंखों का है। यहीं तत्व-चिंतन और योग विभिन्न दिशाओं के यात्री हो जाते हैं। तत्व-चिंतन अंधों द्वारा प्रकाश का विचार और विवेचना है, जबकि योग आंखें देता है और सत्य के दर्शन की सामर्थ्य और पात्रता उत्पन्न करता है।
योग समाधि का विज्ञान है। चित्त की शून्य और पूर्ण जाग्रत अवस्था को मैं समाधि कहता हूं। विष्यों की दृष्टि से चित्त जब शून्य होता है और विषयी की दृष्टि से पूर्ण जाग्रत, तब समाधि उपलींध होती है। समाधि सत्य के लिए चक्षु है।
हमारा चित्त साधारणतः विषयों, विचारों और उनके प्रति सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं से आच्छन्न रहता है। इन अशांत लहरों की क्रमशः एक मोटी दीवार बन जाती है। यही दीवार हमें स्वयं के बाहर रखती है। सूर्य जैसे सागर पर अपनी उत्तप्त किरणें फेंककर ऐसे बादल पैदा कर लेता है, जो उसे ढांकने और आवृत्त करने में समर्थ हो जाते हैं, वैसे ही मनुष्य-चेतना भी विषयों के संसर्ग में से विचार-प्रतिक्रियाओं को उत्पन्न कर लेती है और फिर उन्हीं में भटक जाती है। अपने ही हाथों से अपनी सत्ता तक पहुंचने के द्वार बंद करने के लिए मनुष्य स्वतंत्र है।
किंतु जो अपने पैरों में अपने हाथ से बेड़ियां डालने में समर्थ होता है, वह उन्हें तोड़ने की क्षमता भी अवश्य ही रखता है। स्वतंत्रता हमेशा दोहरी होती है। बनाने की शक्ति में मिटाने की शक्ति भी अवश्य ही अंतर्निहित होती है। इस सच्चाई को ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है।
स्वयं को या सत्य को पाने जो चलता है, उसे विजातीय प्रभावों को दूर करने के लिए उनकी दीवार पर दो बिंदुओं से आक्रमण करना होता है। एक को मैं जागरूकता के लिए आक्रमण कहता हूं, और दूसरे को शून्यता के लिए। इन दोनों की जहां पूर्णता होती है और संगम होता है, वहां समाधि फलित होती है।
जागरूकता के लिए कार्यों या विचारों में अपनी मूर्च्छा और प्रमत्तता को छोड़ना पड़ता है। कोई भी कर्म या कोई भी विचार सोई-सी अवस्था से नहीं, परिपूर्ण सजगता से होना चाहिए। सतत ऐसी धारणा करने पर स्वयं में साक्षी का जन्म होता है। जागरूकता के लिए निरंतर सचेत रहने और अपनी अर्धनिद्रा-सी चित्तदशा पर आघात करने से स्वभावतः ही प्रसुप्त प्रज्ञा में जागरण प्रारंभ हो जाता है, फिर धीरे-धीरे एक बोध-चेतना सहज के साथ रहने लगती है। यहां तक कि निद्रा में भी इसका साथ नहीं छूटता है। यह पहला आक्रमण है।
दूसरा सहयोगी आक्रमण शून्यता के लिए करना होता है। यह स्मरण रखना है कि चित्त जितना कम स्पंदित और आंदोलित हो, उतना ही अच्छा है। ऐसे विचारों और भावों में स्वयं को पड़ने से रोकना पड़ता है, जिनका परिणाम चित्त को अशांत करता है। चित्त की शांति को वैसे ही संभालना पड़ता है, जैसे कोई पथिक रात्रि के अंधकार में आंधियों से अपने दीए को बचाकर चलता हो। ऐसे कर्म, ऐसे विचार या ऐसी वाणी के प्रति सचेत होना होता है, जो चित्त की झील पर लहरें पैदा करें और जिससे विक्षोभ उत्पन्न होता हो।
दोनों आक्रमण सहयोगी आक्रमण हैं और एक के साधने से दूसरे में सहायता मिलती है। जागरूकता साधने से शून्यता आती है और शून्यता साधने से जागरूकता आती है। उन दोनों में कौन महत्वपूर्ण है, यह कहना कठिन है। उनका संबंध मुर्गी-अंडे के संबंध जैसा है।
शून्यता और जागरूकता जब पूर्ण हो जाती है तो चित्त एक ऐसी क्रांति से गुजरता है जिसकी साधारणतः हमें कोई कल्पना भी नहीं हो सकती थी। उस परिवर्तन से बड़ा कोई परिवर्तन मनुष्य-जीवन में नहीं है। वह क्रांति आमूल है और उसके द्वारा सारा ही जीवन रूपांतरित हो जाता है। अंधे को अनायास आंख मिल जाने के प्रतीक से ही उसे समझाया जा सकता है।
इस क्रांति के द्वारा व्यक्ति स्वयं में प्रतिष्ठित होता है और अनिर्वचनीय आलोक का अनुभव करता है। इस आलोक में वह अपने सच्चिदानंद स्वरूप को जानता है। मृत्यु मिट जाती है और अमृत के दर्शन होते हैं। अंधकार विलीन हो जाता है और सत्य से मिलन होता है। वास्तविक जीवन की शुरूआत इस अनुभूति के बाद ही होती है। उसके पूर्व हम मृतकों के ही समान हैं। जीवन-सत्य को जो नहीं जानता है, उसे जीवित कहना बहुत अधूरे अर्थों में ही सत्य होता है।
ओशो
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