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सोमवार, 29 अप्रैल 2019

नये समाज की खोज-(प्रवचन-01)

नये समाज की खोज-(प्रवचन-पहला)

का आधार : नया मनुष्य

मेरे प्रिय आत्मन्!
"नये समाज की खोज' नयी खोज नहीं है, शायद इससे ज्यादा कोई पुरानी खोज न होगी। जब से आदमी है तब से नये की खोज कर रहा है। लेकिन हर बार खोजा जाता है नया, और जो मिलता है वह पुराना ही सिद्ध होता है। क्रांति होती है, परिवर्तन होता है, लेकिन फिर जो निकलता है वह पुराना ही निकलता है। शायद इससे बड़ा कोई आश्चर्यजनक, इससे बड़ी कोई अदभुत घटना नहीं है कि मनुष्य की अब तक की सारी क्रांतियां असफल हो गई हैं। समाज पुराना का पुराना है। सब तरह के उपाय किए गए हैं, और समाज नया नहीं हो पाता। समाज क्यों पुराना का पुराना रह जाता है? नये समाज की खोज पूरी क्यों नहीं हो पाती?
इस संबंध में पहली बात मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि एक बहुत गहरी भूल होती रही है इसलिए नया समाज नहीं जन्म सका। और वह भूल यह होती रही है कि समाज को बदलने की कोशिश चलती है, आदमी को बिना बदले हुए। और समाज सिर्फ एक झूठ है; समाज सिर्फ एक शब्द है। समाज को कहीं ढूंढने जाइएगा तो मिलेगा नहीं। जहां भी मिलता है आदमी मिलता है, समाज कहीं नहीं मिलता! जहां भी जाइए व्यक्ति मिलता है, समाज कहीं नहीं मिलता!

समाज को खोजा ही नहीं जा सकता, नया करना तो बहुत मुश्किल है। मिल जाता तो नया भी कर सकते थे। समाज मिलता ही नहीं; जब मिलता है तब व्यक्ति मिलता है। और परिवर्तन के लिए जो चेष्टा चलती है वह समाज के परिवर्तन के लिए चेष्टा चलती है। इसलिए समाज नहीं बदल पाता है। और फिर समाज मिल भी जाए तो बदलेगा कौन? यदि व्यक्ति बिना बदला हुआ है तो समाज को बदलेगा कौन?
बहुत बार क्रांति होती है। फिर क्रांति के बाद पुराने आदमी के हाथ में समाज चला जाता है। गुलामी को तोड़ने की हजारों साल से कोशिश चल रही है। पुरानी गुलामी टूटती मालूम पड़ती है, टूट भी नहीं पाती कि फिर नयी शक्ल में पुरानी गुलामी खड़ी हो जाती है। गुलाम बनाने वाले बदल जाते हैं और गुलाम बनाने वालों के चेहरों के रंग बदल जाते हैं, गुलाम बनाने वालों के कपड़े और झंडे बदल जाते हैं--गुलामी अपनी जगह कायम रहती है। क्योंकि आदमी का दिमाग गुलाम है, उसे बिना बदले दुनिया में कभी गुलामी नहीं टूट सकती।
अंग्रेज की गुलामी टूट सकती है, मुसलमान की गुलामी टूट सकती है, हिंदू की गुलामी टूट सकती है, लेकिन गुलामी नहीं टूट सकती; गुलामी नयी शक्लों में फिर खड़ी हो जाती है। पुरानी की पुरानी गुलामी फिर सिंहासन पर बैठ जाती है।
हां, इतना फर्क पड़ता है कि पुरानी गुलामी से हम ऊब गए होते हैं, नयी गुलामी से ऊबने में फिर थोड़ा वक्त लगता है। फिर इसको भी बदलने की इच्छा होने लगती है। जैसे कोई आदमी मरघट ले जाता है लाश को, अरथी को। एक कंधा दुखने लगता है तो अरथी को दूसरे कंधे पर रख लेता है। थोड़ी देर राहत मिलती है। फिर दूसरा कंधा दुखने लगता है। अरथी वही है, बोझ वही है, कंधे बदलने से कुछ भी नहीं हो सकता।
गुलामियां बदलती रही हैं, गुलामी नहीं मिटी; क्योंकि आदमी का दिमाग गुलाम है। और हम समाज की गुलामी मिटाने की कोशिश करते हैं और आदमी का गुलाम दिमाग नयी गुलामियां पैदा कर लेता है। एक मंदिर गिराओ, और दूसरा मंदिर उठना शुरू हो जाता है। एक मूर्ति मिटाओ, और दूसरी मूर्ति बननी शुरू हो जाती है। एक गुरु से छुटकारा लो, दूसरा गुरु मौजूद हो जाता है। आदमी का दिमाग गुलाम है, वह नयी-नयी गुलामियां खोज लेता है। वे पुरानी गुलामियां ही हैं जो नये फैशन में और नये लेबल लगा कर उपस्थित हो जाती हैं।
सब तरह की कोशिश की जा चुकी है, लेकिन सब तरह की कोशिश असफल हो जाती है। क्योंकि बदलेगा कौन? कोशिश कौन करेगा?
फ्रांस में क्रांति हुई, बड़ी क्रांति थी, लेकिन क्रांति के बाद पता चला कि कुछ भी नहीं हुआ। रूस में क्रांति हुई, बड़ी क्रांति थी, लेकिन क्रांति के बाद पता चला कि ज़ार फिर नयी शक्ल में स्टैलिन के नाम से सिंहासन पर बैठ गया है। फिर वही सब पुराना शुरू हो गया। इधर हिंदुस्तान में क्रांति हुई, लेकिन फिर कुछ भी नहीं हुआ। फिर हमें समझ में आया कि सफेद चमड़ी बदल गई, काली चमड़ी बैठ गई, लेकिन गुलामी जारी है। अभी हम सोच रहे हैं कि समाजवाद आ जाए, अब हम बड़े शोरगुल में लग गए हैं कि समाजवाद आ जाए।
नहीं आएगा। क्योंकि जो आदमी समाजवाद लाने वाले हैं वे आदमी वही हैं। उन आदमियों में कोई फर्क नहीं है। फिर एक धोखा होगा, फिर कुछ दिन के लिए हम अरथी का कंधा बदल लेंगे। फिर थोड़े दिन सोचेंगे कि अब सब ठीक हो जाएगा, अब सब ठीक हो जाएगा। फिर ऊब जाएंगे और फिर कहेंगे कि फिर कुछ बदलाहट चाहिए। कुछ भी ठीक नहीं हो रहा है।
आदमी नहीं बदलता है तो समाज नहीं बदल सकता है। समाज को बदलने की बात इसीलिए असफल हो जाती है कि मनुष्य को, व्यक्ति को बदलने की कीमिया, केमिस्ट्री नहीं खोजी जा सकी है। मैं व्यक्ति को बदलने से शुरू करना चाहता हूं। नये समाज की खोज में नये मनुष्य की खोज पहला सूत्र है। समाज नहीं, महत्वपूर्ण है मनुष्य।
लेकिन समाज शब्द से बड़ा धोखा पैदा होता है, ऐसा लगता है कि समाज भी कोई है।
यहां हम इतने लोग बैठे हैं, एक समाज बैठा है। एक-एक आदमी इस समाज से निकल कर चला जाए। दरवाजे पर हम पहरेदारों को खड़ा कर दें कि जब समाज निकले तो तुम पकड़ लेना। और जब एक-एक व्यक्ति निकलेगा तो पहरेदार सोचेंगे: एक-एक आदमी जा रहा है, समाज निकलेगा तो पकड़ लेंगे। फिर यह स्थान खाली हो जाएगा और पहरेदार खड़े रहेंगे, समाज कभी पकड़ में नहीं आएगा।
समाज है नहीं सिवाय एक शब्द के। समाज एक जोड़ है, एक शब्द है; असलियत नहीं है। असलियत व्यक्ति है, सच्चाई व्यक्ति की है। विज्ञान तो इस बात को समझ गया, लेकिन अभी समाज-शास्त्री नहीं समझ पाए हैं।
विज्ञान कहता है कि पत्थर का कोई अस्तित्व नहीं है, एटम का अस्तित्व है, अणु का अस्तित्व है। वे कहते हैं, मैटर, पदार्थ झूठी चीज है; असली में तो भीतर जो अणु है वह सत्य है। अणुओं के जोड़ का नाम पदार्थ है। पदार्थ कुछ भी नहीं है; अणुओं को हटा लो, पदार्थ विदा हो जाएगा। पदार्थ एक समाज है, अणुओं की एक भीड़ है; सच्चाई अणु की है।
समाज भी व्यक्तियों की एक भीड़ है, समूह है; सच्चाई व्यक्ति की है। और क्रांति सदा समाज की चाही जाती है, और समाज कहीं भी नहीं है, व्यक्ति है। व्यक्ति की क्रांति चाहनी होगी। व्यक्ति, नये व्यक्ति की तलाश करनी होगी।
नये व्यक्ति की तलाश करनी हो तो पुराने व्यक्ति को ठीक से पहचान लेना जरूरी है। क्योंकि पुराने को मिटाना पड़ेगा; तो ही नये का जन्म हो सकता है। पुराने व्यक्ति की क्या खूबियां हैं, वे हमें पहचान लेनी चाहिए। तो शायद हम नये व्यक्ति को जन्म देने में समर्थ हो जाएं। और सच्चाई तो यह है कि अगर कोई भी व्यक्ति ठीक से पहचान ले कि पुराना आदमी क्या है, तो वह एक क्षण को भी पुराना आदमी रहने को राजी नहीं रहेगा। यह स्मरण भर आ जाए कि पुराना आदमी यह हूं मैं, तो नये आदमी का प्रारंभ हो जाए। यह प्रारंभ ऐसे ही हो जाता है जैसे सपने में याद आ जाए कि मैं सपना देख रहा हूं, बात खत्म हो गई; सपना खत्म हो गया, जागना शुरू हो गया।
सपने में कभी याद नहीं आती कि मैं सपना देख रहा हूं। और अगर याद आ जाए तो समझना कि सपना टूट चुका है। अगर मेरी समझ में आ जाए कि मेरे भीतर पुराना आदमी कौन है, तो नये आदमी की शुरुआत हो गई। क्योंकि जिसे यह समझ में आएगा कि पुराना आदमी यह रहा--वह नया आदमी है। पुराने आदमी को तो समझ में ही नहीं आ सकता कि नया-पुराना क्या है।
एक-एक व्यक्ति को अपने भीतर खोज करनी जरूरी है कि पुराना आदमी क्या है? पुराने आदमी की ईंटें क्या हैं? उसका भवन कैसे निर्मित हुआ?
कुछ थोड़े से सूत्र आज कहना चाहूंगा, फिर रोज हम उनकी बात करेंगे।
पुराने आदमी के बुनियादी आधारों में एक आधार है और वह यह है कि आज तक आदमी जीया नहीं है, आदर्शों में जीने की उसने कोशिश की है। पुराना आदमी आदर्श की बुनियाद पर खड़ा है। और जब तक आदमी को आदर्श पकड़े रहेगा तब तक आदमी नया नहीं हो सकता।
आदर्श का मतलब है कि "आदमी जो है' उसे जानने की उसे चिंता नहीं है, "आदमी को जो होना चाहिए' उसे जानने की उसे बहुत चिंता है। यह जानने की चिंता नहीं है कि जिस पृथ्वी पर हम रह रहे हैं वहां रहने का क्या अर्थ है। इस बात की चिंता ज्यादा है कि स्वर्ग में जब हम रहेंगे तो वहां रहने का क्या अर्थ है। जिस पत्नी को मैं प्रेम कर रहा हूं उसे प्रेम करना क्या है, इसे जानने की कोई जरूरत नहीं; परमात्मा को प्रेम कैसे करना चाहिए, इसे जानने की जरूरत है। आदर्शवादी आकाश में जीता है, पृथ्वी पर नहीं। और जिंदगी पृथ्वी पर है, आकाश में नहीं।
अगर किसी वृक्ष को यह भ्रम पैदा हो जाए कि अपनी जड़ों को आकाश में फैलाना चाहिए, जमीन से हट जाना चाहिए...बड़ का वृक्ष कुछ इस तरह की कोशिश करता है, लेकिन फिर भी जमीन से जड़ों को अलग नहीं कर लेता। और वे जो जड़ें लटकती हैं, वे फाल्स, झूठी होती हैं, दिखाऊ होती हैं। असली जड़ें तो जमीन में ही होती हैं। अगर किसी वृक्ष को यह भ्रम पैदा हो जाए कि जड़ें आकाश में फैलानी चाहिए, तो वह वृक्ष मर जाएगा। जड़ें जमीन में ही फैलती हैं।
आदमी एक ऐसा वृक्ष है जिसने आदर्श के आकाश में जड़ें फैलाने की कोशिश की है। पुराना आदमी इसीलिए मरा हुआ आदमी है। उसमें फूल नहीं खिलते, उसमें पत्ते नहीं आते। आदर्श में नहीं जीया जा सकता, जीया जा सकता है यथार्थ में, वह जो है, तथ्य में।
जैसे उदाहरण के लिए--मेरे भीतर हिंसा है, तो मैं अहिंसा में जीने की कोशिश में लग सकता हूं। मैं हिंसक रहूंगा और अहिंसा में जीने की कोशिश चलेगी। और मेरी पूरी जिंदगी हिंसा से भरी रहेगी, क्योंकि यथार्थ मेरा हिंसा है। और अहिंसा मेरी कल्पना रहेगी, मेरी आंखें अहिंसा में अटकी रहेंगी और मेरी जिंदगी हिंसा में अटकी रहेगी। बल्कि हिंसक होने में मुझे सुविधा मिल जाएगी। क्योंकि मैं अपने मन को कहता रहूंगा: घबराओ मत, जल्दी ही अहिंसक हो जाएंगे। जब तक नहीं हो गए हैं तब तक कोई बात नहीं, लेकिन जल्दी ही अहिंसक हो जाएंगे। कल अहिंसक हो जाएंगे। कल अहिंसक होने की आशा आज हिंसक होने की सुविधा बनेगी। कल की आशा आज की सुविधा बन जाएगी। आज जो मैं हूं, वह मुझे होने की सुविधा मिल जाएगी। मैं कहूंगा, घबराओ मत--अपने से कहूंगा, घबराओ मत--कल अहिंसक हो जाएंगे।
कल कभी नहीं आता, जब आता है आज आता है, और आज मैं हिंसा में जीऊंगा। मेरी जड़ें हिंसा में फैली रहेंगी और मेरी कामना की जड़ें आकाश में फैली रहेंगी--अहिंसा के आकाश में।
हमारा देश अहिंसक कहा जाता है। और एक-एक आदमी को अगर हम थोड़ा सा, जरा सा चमड़ी उघाड़ कर देखें तो भीतर हिंसक आदमी मिल जाएगा। अहिंसक वस्त्रों के भीतर बड़ा पुराना हिंसक छिपा हुआ बैठा है--स्किन डीप। वह स्किन डीप भी नहीं है, चमड़ी भी बहुत मोटी है, जरा सा ऊपर से खरोंच दो, भीतर से हिंसा बाहर निकलने लगेगी। और हजारों साल से हम अहिंसा की बातें कर रहे हैं। एक-दो दिन की बात नहीं है यह, हजारों साल से हम "अहिंसा परम धर्म है,' इसकी बात कर रहे हैं। और अहिंसा, हजारों साल से जो अहिंसा के आदर्श को लेकर चल रहे हैं वे अहिंसक हो पाए हैं?
नहीं; वे जी रहे हैं हिंसा में। उनके जीने में हिंसा में कोई फर्क नहीं पड़ता।
हजारों साल से हम प्रेम की बातें कर रहे हैं। सारी दुनिया के धर्म प्रेम सिखाते हैं, और सारी दुनिया के धर्म मिल कर प्रेम की हत्या करते हैं। सारी दुनिया के धर्म कहते हैं: प्रेम करो, प्रेम करो। और इस पर भी झगड़ा हो जाता है कि कौन ज्यादा प्रेम करता है! और इस पर ही तलवारें चल जाती हैं कि किसका प्रेम असली है!
आश्चर्यजनक है बात! जब सारे धर्म दुनिया के कहते हैं कि प्रेम करो तो फिर धर्म लड़ते क्यों हैं?
नहीं; प्रेम करो, यह आदर्श है; और लड़ना यथार्थ है। लड़ेंगे आज, कल प्रेम करेंगे। फिर प्रेम की रक्षा के लिए भी लड़ना पड़ता है, अहिंसा की रक्षा के लिए भी तलवार उठानी पड़ती है। अहिंसा की रक्षा भी तलवार से ही करनी पड़ती है।
आदर्श में आदमी सिर्फ अपने को डिसीव कर रहा है, सिर्फ अपने को धोखा दे रहा है, सच्चाई से बचने का और सच्चाई को झुठलाने का उपाय खोज रहा है। सच्चाई को देखना नहीं चाहता तो आदर्श में आंखें गड़ा लेता है, आकाश की तरफ देखने लगता है। जमीन बहुत गंदी है, आकाश बहुत साफ-सुथरा है, वह आकाश को देख कर चलने लगता है। वह कहता है, जमीन को हम देखेंगे ही नहीं। जमीन बुरी है, देखें क्यों? लेकिन चलना जमीन पर पड़ता है। और अगर जमीन में कांटे हैं और गंदगी है, तो पैरों में कांटे भी छिदेंगे और गंदगी श्वासों में जाएगी और प्राणों में भीतर घुसेगी। आकाश की तरफ देखने से आदमी स्वच्छ नहीं हो सकता। पृथ्वी की तरफ देखना पड़ेगा।
हजारों साल से आदर्शों ने आदमी को भटकाया हुआ है। और आदर्शों से बड़ी सुविधा मिल जाती है। आदर्श कहते हैं: हर आदमी के भीतर भगवान है। और हर आदमी बड़ा प्रसन्न हो जाता है कि हम सबके भीतर भगवान है। और वह यह भूल ही जाता है कि थोड़ा अपनी शक्ल को आईने में तो देखें--वहां भगवान है? वह रोज सुबह किताब खोल कर पढ़ लेता है कि हर आदमी के भीतर भगवान है। जब वह यह पढ़ता है तब वह यह पक्का मान लेता है कि दूसरे के भीतर चाहे हो या न हो, मेरे भीतर तो है ही।
मैं एक गांव में था। वहां कानजी स्वामी आए हुए थे। उस गांव के जितने पापी थे, सब मुझे वहां उनके सामने बैठे हुए दिखाई पड़े। और वे बड़े प्रसन्न हो रहे थे।
वे किस बात से प्रसन्न हो रहे थे? मैंने पता लगवाया कि बात क्या है? गांव भर के पापी एक तरफ क्यों भागे चले जाते हैं? बात क्या है? और वे सब बैठ कर कानजी को इतने आनंद से क्यों सुनते हैं?
कानजी उन्हें समझा रहे हैं कि आत्मा पाप करती ही नहीं। वे पापी बड़े प्रसन्न हो रहे हैं। स्वामी जी ठीक कह रहे हैं आप, वे सिर हिला रहे हैं। कानजी उनसे पूछ रहे हैं, समझ में आया? वे सब पापी कह रहे हैं, बिलकुल समझ में आया, गुरुजी।
वे उठ कर फिर पाप करेंगे। वे अभी जहां से आए हैं, पाप करके आ रहे हैं। लेकिन अब उन्हें एक आदर्श बड़ी राहत दे रहा है कि आत्मा तो पाप करती ही नहीं। इस सिद्धांत को वे मान लेंगे। यह आदर्श बड़ा प्रीतिकर है। पापी के लिए इससे सुंदर आदर्श कुछ भी नहीं हो सकता। क्योंकि पापी का जो बोझ था, उसके प्राणों पर जो भार था, वह अलग हो गया। उसे पापी होने में सुविधा मिल गई। अब वह ठीक से पापी हो सकता है। क्योंकि आत्मा पाप करती ही नहीं है। जब आत्मा पाप ही नहीं करती है तो फिर पाप करने में हर्ज क्या है?
दस हजार वर्षों में हमने आदमी को आदर्श दिए, आदमियत नहीं। और आदर्श धोखा सिद्ध हुए। कोई भी आदर्श आदमी को उसकी असलियत बताने में सहयोगी नहीं हुआ, उसकी असलियत छुपाने में सहयोगी हुआ। जब कि जरूरत है यह कि आदमी अपनी असलियत को पूरी तरह देख पाए--अगर वह नंगा है तो नंगा, अगर गंदा है तो गंदा, और अगर पापी है तो पापी। मैं जैसा हूं, मुझे अपने को पूरी तरह जान लेना जरूरी है। क्योंकि मजे की बात यह है कि अगर मैं पूरी तरह यह जान लूं कि मैं कैसा हूं, तो मैं एक दिन भी फिर वैसा नहीं रह सकता, मुझे बदलना ही पड़ेगा।
अगर मुझे दिखाई पड़ जाए कि मेरे घर में आग लगी है, तो मैं आपसे पूछने आऊंगा कि मैं बाहर निकलूं या न निकलूं? मुझे अगर दिखाई पड़ जाए कि मेरे घर में चारों तरफ आग लगी है, तो मैं किसी शास्त्र में खोजने जाऊंगा कि जब मकान में आग लग जाए तो निकलने की विधि क्या है?
नहीं; जब मुझे दिखाई पड़ जाएगा कि मेरे घर में चारों तरफ आग लगी है, तो दिखाई पड़ने के बाद मुझे पता भी नहीं चलेगा कि मैं बाहर कब हो गया हूं। मैं बाहर हो जाऊंगा। लेकिन मेरे घर में आग लगी है और मैं कह रहा हूं कि चारों तरफ फूल खिले हैं, आदर्शों के फूल। और साधु-संत समझा रहे हैं कि अमृत की वर्षा हो रही है। ये लपटें नहीं हैं, यह भगवान का प्रसाद बरस रहा है। तो फिर मैं अपने घर में बिलकुल आराम से बैठा हूं।
हम सब नहीं बदल पाते हैं, क्योंकि हम अपनी असलियत को ही नहीं पहचान पाते हैं, हम कभी अपने भीतर ही नहीं झांक पाते हैं कि मैं हूं कौन! लेकिन जब भी हम सवाल पूछते हैं कि मैं हूं कौन? तो हमें पुराने उत्तर याद आ जाते हैं कि अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं, मैं आत्मा हूं, मैं शुद्ध-बुद्ध परमात्मा हूं। ये सब आदर्श हमें सुनाई पड़ते हैं, हमारे कानों में गूंजने लगते हैं। और तब जो मैं हूं वह भूल जाता है और जो मैं नहीं हूं वह हमें मालूम पड़ने लगता है। आदर्शों ने मनुष्य को नहीं बदलने दिया।
और मजे की बात यह है कि सब आदर्श यह कहते हैं कि हम मनुष्य को बदलने के लिए ही आए हैं, हम मनुष्य को बदलना चाहते हैं। सब आदर्शों का दावा यही है कि हम मनुष्य को बदलना चाहते हैं। और मैं आपसे कहना चाहता हूं, कोई आदर्श मनुष्य को बदल नहीं सका। यथार्थ बदलेगा, आदर्श नहीं।
नहीं; मैं जो हूं, मुझे जानना पड़ेगा। दुखद, पीड़ा से भरा हुआ नरक हूं, तो जानना पड़ेगा। पहचानना पड़ेगा कि मैं कौन हूं। और अगर मैं ठीक से पहचान लूं कि मैं कौन हूं और बीच में आदर्शों की बातें मुझे भटकावा न दें, तो मैं एक भी दिन वही नहीं रह सकता हूं जो मैं था। मैं वैसे ही छलांग लगा जाऊंगा जैसे आग लग जाए तो आदमी मकान के बाहर हो जाता है और सांप सामने आ जाए तो हम छलांग लगा कर रास्ते से नीचे उतर जाते हैं। कौन अपनी जिंदगी को गंवाना चाहता है!
लेकिन हम आदर्शों के कारण अपने सत्य को नहीं जान पाते हैं। मनुष्य का सत्य बहुत दुखद है। न मालूम कौन लोग थे जिन्होंने कहा कि नरक जमीन के नीचे है। उतनी दूर नरक नहीं है। जरा गर्दन मुड़ाइए और अपने भीतर देखिए--नरक वहां मौजूद है। नरक इतने दूर नहीं है जितना बताया गया है। नरक बिलकुल पास है, हम सब नरक में खड़े हैं।
पहली बात आपसे मैं यह कहना चाहता हूं, नये समाज की खोज करनी हो तो नये मनुष्य को खोजना पड़े। और पुराने मनुष्य की क्या बुनियादी भूल थी? पुराने मनुष्य की बुनियादी भूल थी: वह जीता था यथार्थ में, आंखें गड़ाता था आदर्श में; होता था कल्पनाओं में। लेकिन कल्पनाओं में सिर्फ मन हो सकता है, होना तो पड़ता है हमें यथार्थ में। और जिंदगी के यथार्थ कुछ और हैं; और जिंदगी के सत्य बहुत कुरूप हैं, बहुत अग्ली हैं, और बहुत विष भरे हैं, और बहुत नारकीय हैं। इन्हें जानने के लिए जरूरी है कि आदर्श से हमारा मन छुटकारा पा जाए।
नहीं, कोई आदर्श नहीं है; यथार्थ है। और यथार्थ को जो जानता है उसकी जिंदगी में एक परिवर्तन होना शुरू होता है। अगर मैं अपनी हिंसा को पूरी तरह पहचान लूं तो मैं हिंसक नहीं हो सकता हूं, असंभव हो जाएगा। और अगर मैं हिंसा न पहचानूं तो मैं अहिंसक होने की कोशिश कर सकता हूं, रहूंगा हिंसक। और यह भी हो सकता है कि मैं अहिंसक हो भी जाऊं, तो मेरी अहिंसा भी बहुत गहरे में हिंसा ही होगी और मैं अहिंसा से भी हिंसा का काम लेने लगूंगा।
अहिंसक आदमी भी हिंसा का काम कर सकता है। वह भी दूसरे को सता सकता है, दबा सकता है, परेशान कर सकता है। वह भी दूसरे की गर्दन पर मुट्ठियां बांध सकता है। और सच तो यह है कि हिंसक आदमी को थोड़ा डर भी लगता है दूसरे की गर्दन दबाने में कि कहीं हिंसा न हो जाए। अहिंसक को बिलकुल डर नहीं लगता। उसे डर लगने का कोई कारण ही नहीं है।
इसलिए अगर बुरा काम करना हो तो हमेशा अच्छे लेबल लगा कर करना चाहिए। बुरा काम करने में अच्छा लेबल बहुत सहयोगी होता है। बुरा लेबल थोड़ी तकलीफ देता है। अगर मुझे यह पक्का हो कि मैं आपकी गर्दन दबा रहा हूं यह हिंसा है, तो मेरा मन भी कचोटेगा, मेरे प्राण भी कहेंगे कि मैं यह क्या कर रहा हूं! लेकिन अगर मैं आपके भले के लिए आपकी गर्दन दबा रहा हूं, तब फिर कोई सवाल नहीं है। आपके मंगल के लिए दबा रहा हूं, आपके कल्याण के लिए दबा रहा हूं, आपकी आत्मा को ऊंचा उठाने के लिए दबा रहा हूं, तब फिर कोई सवाल नहीं है।
दुनिया के सारे गुरु आदमी की गर्दन दबा रहे हैं, लेकिन उसके ही कल्याण के लिए दबा रहे हैं। तब फिर दबाने का जो दंश है वह विदा हो जाता है।
अगर हिंसक आदमी अहिंसक होने को किसी तरह अपने ऊपर थोप ले, तो वह नये ढंग से हिंसा करने लगेगा, अहिंसक ढंग से हिंसा करने लगेगा। और सबसे बड़ा खतरा यह है कि अगर वह दूसरों के साथ हिंसा करने से अपने को रोक ही ले, तो अपने साथ हिंसा शुरू कर देगा। और अपने साथ जब कोई हिंसा करता है तो हमें कोई एतराज नहीं होता, बल्कि हमें बड़ी खुशी होती है, हम बड़े प्रसन्न होते हैं। हम कहते हैं--बड़ी तपश्चर्या है, बड़ा त्याग है।
एक आदमी अगर सिर के बल धूप में खड़ा हो जाए तो फिर हमें नमस्कार करनी ही पड़ती है। और अगर एक आदमी उपवास करने लगे तो हमें उसके पैर छूने पड़ते हैं। और एक आदमी अगर कांटों की शय्या पर लेट जाए तो हमें फिर तो उसके लिए मंदिर बनाना पड़ता है, उसकी पूजा का इंतजाम करना पड़ता है। अगर आदमी अपने को सताने लगे तो हम सब उसे आदर देने के लिए तैयार हैं।
लेकिन हमें पता नहीं, सताना बराबर है--चाहे किसी और को सताओ, चाहे अपने को सताओ। और ध्यान रहे, दूसरे को सताओ तो दूसरा बचने का उपाय भी कर सकता है, अपने को सताओ तो बचाने का उपाय भी करने वाला कोई नहीं है। बचने वाला भी कोई नहीं बचता, भाग भी नहीं सकता कोई, सुरक्षा भी नहीं कर सकता।
जो आदमी भीतर से हिंसक है और ऊपर से अहिंसा ओढ़ लेगा, वह सेल्फ-टार्चर में, आत्म-हिंसा में संलग्न हो जाएगा। उसे हम तपश्चर्या कहते रहे हैं, त्याग कहते रहे हैं। हमें भी मजा आता है। दूसरे को सताने में हमें मजा आता है। और जब कोई आदमी खुद ही, हमें भी मेहनत नहीं देता, खुद अपने को सताने लगता है तो हमें और मजा आता है। इसलिए त्यागी की पूजा होती है। त्यागी की पूजा हमारे सताने की प्रवृत्ति का हिस्सा है। हम टार्चर करना चाहते हैं। हम किसी आदमी को परेशान करने में रस लेना चाहते हैं। फिर वह आदमी तो बहुत ही कृपालु है जो खुद ही, हमें भी मेहनत नहीं देता, और अपने को सताने का इंतजाम करता है। वह बड़ा दर्शनीय हो जाता है, उसके हमें दर्शन करने पड़ते हैं।
समाज दो तरह के हिंसकों से भरा हुआ है। एक तो वे लोग हैं जो दूसरे को सताने में रस लेते हैं, वे भी बीमार हैं। और एक वे लोग हैं जो खुद को सताने में रस लेते हैं, वे भी बीमार हैं। परपीड़क भी हैं और स्वपीड़क भी हैं। मैसोचिस्ट भी हैं और सैडिस्ट भी। जो दूसरे को सता रहे हैं उन्हें तो कानून भी पकड़ लेता है, लेकिन जो अपने को सता रहे हैं उन्हें पकड़ने वाला कोई कानून भी नहीं है।
हिंसा अगर भीतर है तो अहिंसा के आदर्श इतना ही कर सकते हैं कि हिंसा को अहिंसक शक्लें दे सकते हैं। लेकिन आदमी बदलता नहीं, आदमी वही का वही रह जाता है। बदलने का ढोंग हो जाता है।
अगर नये मनुष्य को पैदा करना है तो पुराने मनुष्य की आदर्शवादिता को चीर-फाड़ कर फेंक देना पड़ेगा और नंगे आदमी को देखना पड़ेगा जैसा वह है।
नहीं, कोई आदर्श नहीं थोपना है, मनुष्य को कुछ भी होने की कोशिश नहीं करनी है, मनुष्य जो है उसी को जान लेना है। अगर वह क्रोध है तो क्रोध, अगर वह घृणा है तो घृणा, हिंसा है तो हिंसा, वह जो भी है, काम है, वासना है, जो भी है, लोभ है, मोह है, जो भी है, उसे जान लेना है, उसे पहचान लेना है।
मैं एक नगर में था और एक संन्यासी वहां लोगों को समझा रहे थे। वे लोगों को समझा रहे थे कि तुम लोभ छोड़ दो तो तुम्हें स्वर्ग भी मिल सकता है।
मैंने उन संन्यासी से कहा कि आप बड़े आश्चर्य की बात कह रहे हैं! आप लोगों को लोभ दे रहे हैं कि अगर स्वर्ग चाहिए हो तो लोभ छोड़ दो। आप उनको लोभ ही सिखा रहे हैं। उनसे कह रहे हैं कि लोभ छोड़ दो अगर स्वर्ग चाहिए हो। लोभ का मतलब क्या होता है? लोभ सदा कुछ छोड़ने को तैयार रहता है--कुछ मिलना चाहिए छोड़ने के लिए सदा तैयार रहता है।
एक आदमी दिन भर सब तरह के दुख झेल रहा है। सो नहीं रहा है, चिंताएं झेल रहा है, क्योंकि उसे धन चाहिए। उसे हम कहते हैं लोभी।
एक दूसरा आदमी धन छोड़ रहा है, क्योंकि उसे स्वर्ग चाहिए। उसे हम कहते हैं त्यागी।
दोनों में कोई फर्क नहीं है। सब लोभी कुछ न कुछ छोड़ने को तैयार हैं, उन्हें कुछ मिलना चाहिए। लेकिन जो स्वर्ग के लिए धन छोड़ रहा है उसे अगर आज पता चल जाए कि अब कानून बदल गया, अब धन छोड़ने से स्वर्ग नहीं मिलता, फिर वह धन छोड़ेगा?
हिंदुस्तान से एक फकीर चीन गया था, कोई अठारह सौ वर्ष होते हैं। बोधिधर्म नाम का एक फकीर चीन गया था। उसके पहले बहुत से बौद्ध भिक्षु चीन गए थे। उन्होंने जाकर चीन के सम्राटों को, बड़े धनपतियों को सिखाया था कि अगर मोक्ष चाहिए, स्वर्ग चाहिए, इतना दान करो, इतना दान करो।
संन्यासी सदा से दान की बात समझाता रहा है, क्योंकि उसके बिना संन्यासी जिंदा नहीं रह सकता। संन्यासी सुबह से शाम तक दान के गुणगान करता है, क्योंकि दान उसकी जिंदगी का आधार है। और पुण्य के लोभी दान करने के लिए तैयार हो जाते हैं, क्योंकि लोभियों के लिए और बड़े लोभ की आकांक्षा बड़ी प्रेरक हो जाती है।
जो भिक्षु गए थे उन्होंने लोगों को समझाया था कि दान करो, दान करो।
सम्राट था वू चीन का, तो उसने भी करोड़ों रुपये दान किए। फिर यह बोधिधर्म आया तो खबर फैली कि एक बहुत बड़ा संन्यासी आता है, तो सम्राट वू उसका स्वागत करने गया। उसने चरण छुए। तो बोधिधर्म ने पूछा, पैर क्यों छूते हो?
ऐसा साधारणतः कोई संन्यासी पूछता नहीं, पैर आगे बढ़ा देता है। पैर क्यों छूते हो, यह पूछने की जरूरत ही नहीं होती। हम न छुएं तो जरूर संन्यासी की आंखें कहती हैं--पैर क्यों नहीं छूते हो? शायद ऊपर से न कहता हो, लेकिन आंखें कह देंगी, गेस्चर कह देगा, चेहरा कह देगा--अभी तक पैर नहीं छुए!
बोधिधर्म ने कहा कि पैर क्यों छूते हो?
उस सम्राट ने कहा, मैंने सुना है कि पैर छूने से बड़ा पुण्य होता है।
वह बोधिधर्म खूब हंसने लगा और उसने कहा, पैर भी छूने में लोभ न छोड़ोगे! बड़ी कृपा की मेरे ऊपर कि तुमने मेरे पैर छुए। और तुम्हें पुण्य मिल जाएगा, तो मेरा क्या होगा--बोधिधर्म ने कहा--जब पैर छूने वाले को पुण्य हो गया तो जिसने छुलाया उसको पाप लग जाएगा। मैं नाहक नरक जाने को तैयार नहीं हूं। अपना पैर छूना वापस लो!
सम्राट वू बहुत हैरान हो गया। उसने कहा, आप आदमी कैसे हैं! मैंने बहुत भिक्षु देखे, सभी पैर छुलाने में बड़े प्रसन्न होते हैं। वे भी प्रसन्न होते हैं, हम भी प्रसन्न होते हैं।
फिर उस सम्राट वू ने सोचा: इससे पूछ लेना चाहिए। उसने कहा, मैंने करोड़ों रुपये दान किए हैं, विहार बनवाए, मंदिर बनवाए, लाखों भिक्षुओं को भोजन देता हूं, शास्त्र छपवाए, इस सबसे क्या होगा? उस बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं होगा। सम्राट वू ने कहा, आप आदमी ठीक नहीं मालूम पड़ते। सभी भिक्षु कहते हैं--बहुत कुछ होगा। बोधिधर्म ने कहा, अगर भिक्षु न कहें, तो मूढ़मति, तुझसे वे यह सब करवा भी न पाएंगे। वे तुझसे करवा लेते हैं। तू लोभी है। अब तुझे संसार छूटने के करीब आने लगा, बूढ़ा होने लगा, तो अब तू स्वर्ग में भी सम्राट बनने की इच्छा से भरा हुआ है। इधर के महल छूट रहे हैं, तू वहां भी महल बना लेना चाहता है। तेरे लोभ का शोषण चल रहा है। ये भिक्षु तेरे लोभ का शोषण कर रहे हैं। कुछ भी नहीं होगा तेरे मंदिर बनवाने से और तेरे ग्रंथ छपवाने से और तेरे भिक्षुओं को दान करने से। उसने कहा, लेकिन मैं इतना लोभ छोड़ रहा हूं, इतना धन छोड़ रहा हूं। कुछ भी न होगा?
कौन उसे समझाए कि तू लोभ भी लोभ के लिए ही छोड़ रहा है। तब छोड़ना कुछ भी नहीं है, छूट कुछ भी नहीं रहा है।
जो मनुष्य हमने आज तक निर्मित किया था, वह हिंसक है, अहिंसक होने की कोशिश कर रहा है। लोभी है, निर्लोभी होने की कोशिश कर रहा है। कामी है, अकामी होने की कोशिश कर रहा है।
लेकिन सोचें थोड़ा, हिंसक अहिंसक कैसे हो सकता है? और अगर हिंसक, हिंसक रहते हुए अहिंसक होने की कोशिश करेगा, तो हिंसा ही तो कोशिश करेगी! और हिंसा और मजबूत होगी और अहिंसा की शक्ल में खड़ी हो जाएगी। और लोभी अगर अलोभी होने की कोशिश करेगा, तो लोभी ही तो कोशिश करेगा। और लोभी बिना लोभ के कोशिश ही नहीं कर सकता। और लोभ छोड़ेगा भी तो भी लोभ के लिए ही! वह नये लोभ निर्मित करेगा।
इसका मतलब क्या है? इसका क्या यह मतलब है कि कोई रास्ता नहीं, हिंसक अहिंसक नहीं हो सकता? मैं यह नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि हिंसक अहिंसक होने की कोशिश से अहिंसक नहीं हो सकता। हिंसक अगर अपनी हिंसा को पूरी तरह जान ले और पहचान ले और अपनी हिंसा के साथ जीने लगे, तो शायद हिंसा से छलांग लगा जाए और बाहर निकल जाए। क्योंकि ध्यान रहे, हिंसा दूसरे को बाद में दुख देती है, पहले अपने को दुख दे जाती है। क्रोध दूसरे को तो बाद में सताता है, पहले अपने को सता जाता है।
अगर मैं आप पर क्रोध करूं तो पहले तो मुझे क्रोध तैयार करना पड़े। पहले तो मुझे क्रोध के फीवर में, बुखार में घुलना पड़े। क्रोध आसमान से एकदम नहीं उतरता, भीतर फैक्ट्री पूरी जब तैयार करती है क्रोध को तब मैं आप पर कर पाता हूं। आप पर क्रोध करने के लिए घंटों पहले मुझे मेहनत करनी पड़ती है, मुझे तैयारी करनी पड़ती है, तब मैं आप पर क्रोध कर पाता हूं। और फिर भी हो सकता है कि अगर आप बुद्धिमान हों तो मेरा क्रोध आपको जरा भी दुख न पहुंचा पाए, लेकिन मैं तो दुखी हो ही जाऊंगा।
दूसरे के क्रोध से हम बच सकते हैं, लेकिन वह खुद कैसे बचेगा? दूसरे की हिंसा, हो सकता है हमें बिलकुल न छू पाए, लेकिन वह खुद कैसे बचेगा? असल में जो दूसरे को जहर देने जाता है, उसे पहले जहर पी लेना पड़ता है। इसके बिना जहर दिया नहीं जा सकता।
तो अगर हम अपनी हिंसा को पूरी तरह पहचान पाएं...और वह हम तभी पहचान पाएंगे जब अहिंसा परमो धर्मः का सिद्धांत और आदर्श हमारी खोपड़ी में न घूमता हो। नहीं तो वह हमें बचा लेगा, वह हमें हिंसा से बचा लेगा, वह हमसे कहेगा--कहां की बातों में पड़े हो, अहिंसक होने की कोशिश करो! पानी छान कर पीयो!
और ध्यान रहे, कोई आदमी अगर पानी छान कर पीए तो उससे जरा सावधान हो जाना, क्योंकि वह आदमी को बिना छाने पी सकता है। उससे थोड़ा बच कर रहना! क्योंकि वह आदमी बड़ी सस्ती अहिंसा की खोज कर रहा है, पानी छान कर पीने से अहिंसक हो रहा है। और अपने भीतर की सारी हिंसा से सोच रहा कि बच गया मैं; पानी छान कर पीने लगा हूं।
मेरे पास अहिंसक आते हैं। वे कहते हैं, हम पानी छान कर पीते हैं, हम रात भोजन नहीं करते, हम अहिंसक हैं।
इतनी सस्ती अहिंसा अगर होती तब तो बहुत दुनिया बदल गई होती, हमने नये समाज को जन्म दे दिया होता। अहिंसा इतनी सस्ती नहीं है। क्योंकि हिंसा बहुत गहरी है, पानी छान कर पीने से नहीं मिटने वाली है; रात भोजन करने न करने से नहीं मिटने वाली है। ये धोखे हैं जो हम अपनी हिंसा को छिपाने के लिए कर रहे हैं। और फिर हमको खयाल हो जाएगा कि हम अहिंसक हो गए हैं, फिर तो बात ही खत्म हो गई। घर में आग लगी रहेगी और हम समझेंगे कि फूल बरस रहे हैं; नहीं, ये आग की लपटें नहीं, टेसू के फूल खिले हैं।
अहिंसा के आदर्श से छुटकारा चाहिए। अगर कभी जिंदगी में अहिंसा का फूल खिलाना हो तो अहिंसा के आदर्श की बिलकुल जरूरत नहीं है। ध्यान रहे, अहिंसा हिंसा के विरोध में नहीं है, अहिंसा हिंसा का अभाव है, एब्सेंस है, विरोधी नहीं है। ऐसा नहीं है कि हिंसा के खिलाफ आप अहिंसक हो जाएंगे। ऐसा है कि जिस दिन आप हिंसा से छलांग लगा कर बाहर हो जाएंगे, उस दिन जो शेष रह जाएगा वह अहिंसा होगी। अहिंसा आदर्श की तरह नहीं पाई जा सकती; अहिंसा तो हिंसा से छलांग लगा कर पाई जाती है।
नहीं, ऐसा नहीं है कि मेरे घर के बाहर फूल खिले हैं, उनको पाने के लिए मैं घर के बाहर निकल जाऊंगा। नहीं निकल सकता! मेरे घर में सोना है, चांदी है, हीरे-जवाहरात हैं। उनको पकड़े बैठा हूं तो बाहर कैसे जाऊं? मैं बाहर जाऊंगा तो हीरे-जवाहरात का क्या होगा? मेरे पत्थरों का क्या होगा?
नहीं, जिस दिन मुझे ये हीरे-जवाहरात जहर मालूम पड़ेंगे और मैं घर से छलांग लगा कर बाहर कूद पडूंगा और कहूंगा कि अब इस घर के भीतर जीना एक क्षण भी संभव नहीं रहा, उस क्षण मैं बाहर देखूंगा कि सूरज खिला है, फूल खिले हैं। वे मुझे मिल जाएंगे।
अहिंसा प्रतीक्षा कर रही है आपकी, आप हिंसा के घर से छलांग लगाएं।
लेकिन आप कहते हैं: रहेंगे इसी घर में, अहिंसा साध लेंगे। कौन जाए बाहर! यहीं साध लेंगे, इसी घर में साध लेंगे, हिंसक रहते-रहते अहिंसा भी साध लेंगे--ग्रेजुअल। सब आदर्श मनुष्य को यह भ्रम देते हैं कि जिंदगी में क्रमिक परिवर्तन हो सकता है।
क्रमिक परिवर्तन जिंदगी में कभी भी नहीं होता। सब आदर्श यह कहते हैं कि धीरे-धीरे हिंसा को छोड़ो, धीरे-धीरे अहिंसक हो जाओ। मैं आपसे कहना चाहता हूं: इस क्रमिक विकास के खयाल ने ही नये मनुष्य को पैदा नहीं होने दिया। नया मनुष्य एक छलांग है, जंप। नया मनुष्य पुराने मनुष्य का धीरे-धीरे नया होना नहीं है। नया मनुष्य पुराने मनुष्य की खोल के बाहर छलांग है। वह पुराने मनुष्य का रूपांतरण नहीं है, कि पुराना मनुष्य धीरे-धीरे कोशिश करके नया हो गया। अगर पुराना मनुष्य कोशिश करके नया होगा तो पुराना ही रहेगा--मॉडीफाइड, थोड़ा-बहुत बदल जाएगा, रंग-रोगन कर लेगा, कपड़े बदल लेगा, मकान को ठोंक टीम-टाम कर लेगा--रहेगा पुराना ही।
नया मनुष्य एक छलांग है। और छलांग ग्रेजुअल नहीं होती, क्रमिक नहीं होती। कोई हिंसक धीरे-धीरे अहिंसक नहीं हो सकता; और कोई लोभी धीरे-धीरे अलोभी नहीं हो सकता; और कोई क्रोधी धीरे-धीरे अक्रोधी नहीं हो सकता; कोई अशांत व्यक्ति धीरे-धीरे शांत नहीं हो सकता।
असल में करना कुछ और है और हम कुछ और करते रहे हैं। करना यह नहीं है कि मैं शांत होने की तलाश करूं, करना यह है कि मैं अपनी अशांति को खोजूं कि मैं कितना अशांत हूं। हम छिपाए हुए हैं, हम अपनी अशांति खुद से भी छिपाए हुए हैं। डर लगता है कि अपनी ही अशांति कहीं पूरी पता चल जाए तो भी बड़ी मुश्किल हो जाए। हम उसे छिपाए हुए हैं। हम दूसरों के सामने ही झूठे चेहरे नहीं बनाए हैं, अपने सामने भी हमने झूठे चेहरे बना लिए हैं। हम अपने भीतर देखते ही नहीं कि वहां कितनी आग है, कितना जहर है। हम डरते भी हैं कि कहीं वह दिखाई पड़ जाए तो और मुश्किल न हो जाए। हमारी हालत ऐसी ही है जैसे किसी बड़े खाई-खंदक के ऊपर आपको खड़ा कर दिया जाए और आप डर के मारे आंखें बंद कर लें कि कहीं खंदक दिखाई न पड़ जाए। लेकिन ध्यान रहे, बंद आंखों में गिरने की संभावना ज्यादा है, खुली आंखों में बचने की संभावना ज्यादा है।
आंख खोल कर देखना ही पड़ेगा कि भीतर मेरे क्या है? हिंसा है?
है! झूठ कहते हैं लोग कि भीतर ब्रह्म बैठा हुआ है। झूठ कहते हैं लोग कि भीतर मोक्ष बैठा हुआ है। भीतर पूरा नरक है। हां, उस नरक से छलांग लग जाए तो जहां आप पहुंच जाएंगे वहां मोक्ष है। उस नरक से छलांग लग जाए तो जहां आप पहुंच जाएंगे वहां अमृत है। लेकिन वहां से छलांग तब लगेगी जब दिखाई पड़ जाए कि चारों तरफ जहर है, इसमें खड़े होने की जगह नहीं है, यह जगह खड़े होने के योग्य नहीं है, यहां एक क्षण नहीं जीया जा सकता--जिस दिन इतनी इंटेनसिटी से, इतनी तीव्रता से लगता है, उसी दिन छलांग लग जाती है।
आदर्श छलांग नहीं लगने देते, क्रमिक विकास का खयाल छलांग नहीं लगने देता। इसलिए पुराना आदमी पुराना ही बना रहता है। मॉडीफाइड होता चला जाता है। उसी को हम थोड़े हेर-फेर कर लेते हैं। कुछ फर्क नहीं हुआ है, आदमी वहीं के वहीं है जहां दस हजार साल पहले था। सड़कें बदल गई हैं, मकान बदल गए हैं, कपड़े बदल गए हैं, लेकिन और कुछ भी नहीं बदला है, आदमी वही का वही है। महावीर हार गए, बुद्ध हार गए, जीसस, कृष्ण, सब हार गए, कुछ फर्क नहीं हुआ है, आदमी वहीं के वहीं है। एक बुनियादी भूल हुई जा रही है इसलिए उन सबको हारना पड़ा। और आगे भी कृष्ण हारेंगे, आगे भी जीसस हारेंगे, आगे भी बुद्ध और महावीर की हार निश्चित है, अगर वह भूल हमारे खयाल में नहीं आ जाती।
और वह भूल, पहला सूत्र--आदर्श।
उस भूल का दूसरा सूत्र--आदमी जिंदगी को बड़ी गंभीरता से लेता रहा है, बहुत सीरियसली।
कृष्णमूर्ति लोगों से कहते हैं बहुत गंभीर होने के लिए, टु बी सीरियस; एकदम गंभीर होना चाहिए; तो ही सत्य मिल सकता है। जितने ज्यादा गंभीर होओगे उतने ही जल्दी सत्य मिल सकता है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं: गंभीरता रोग है। जो गंभीर होगा उसकी छाती पर पत्थर भर रख जाएंगे, सत्य नहीं मिलेगा। और जो गंभीर होगा उसके सिर पर बोझ रख जाएगा, सत्य नहीं मिलेगा। असल में गंभीर होना मरने की तरकीब हो सकती है, जिंदगी को जानने की नहीं। जिंदगी को तो वे जान पाते हैं जो जिंदगी को खेल की तरह लेते हैं, गंभीर नहीं। जस्ट ए प्ले, एक खेल, इससे ज्यादा नहीं। लेकिन हम तो बहुत अजीब लोग हैं! हम तो खेल तक को गंभीरता से लेते हैं।
मैं एक घर में अभी मेहमान था। रात लौटा तो घर के बच्चे मोनोपॉली खेल रहे थे, व्यापार खेल रहे थे। बच्चे हैं, बूढ़े भी व्यापार खेलते हैं, तो बच्चे खेलते हों तो हर्ज क्या है। मैं जब पहुंचा तो बड़ा तेज तनाव था वहां, किसी ने किसी का स्टेशन चालबाजी से ले लिया था।
अब बड़े-बड़े ले रहे हैं स्टेशन चालबाजियों से तो छोटों की क्या! बड़ा तनाव था, बड़ा झगड़ा था, एक-दूसरे पर लांछन लगाया जा रहा था, बच्चे बड़े नाराज थे।
मैं जब वहां पहुंचा तो मुझे देख कर वे थोड़े सहम गए, फिर कोई हंसा, फिर दूसरा हंसने लगा। मैंने कहा, बात क्या है? तुम बड़े क्रोध में थे, तुम बड़े नाराज थे, तुम हंसने क्यों लगे? उन्होंने कहा कि आप आए तो हमें खयाल आया कि अरे, खेल में और इतने परेशान हुए जा रहे हैं! फिर उन्होंने वे सब स्टेशनें उलटा दीं और वह सब हिसाब-किताब, मकान और वह सब गिर गए और उन्होंने सब बंद करके जल्दी से डब्बा बंद कर दिया। मैंने उनसे कहा, इतनी जल्दी? तुम इतने नाराज थे, इतने परेशान थे, इतना धोखाधड़ी का इल्जाम लगा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि कोई भारी झगड़ा हो गया है। उन्होंने कहा, नहीं, कुछ भी नहीं, हम बस खेल रहे थे।
बुद्ध ने कहा है: एक सांझ कुछ बच्चे नदी की रेत पर खेल रहे हैं और घर बना रहे हैं। फिर किसी का--रेत का घर है, गिरने में देर कितनी लगती है--किसी का पैर लग जाता है तो किसी का घर गिर जाता है। फिर वे एक-दूसरे की गर्दन दबाते हैं, लड़ते हैं, चिल्लाते हैं, मारते हैं। और हर अपने घर की रक्षा करता है और कहता है--जरा सावधान निकलना! मेरे घर को मत गिरा देना! और वे सब अपना घर बना रहे हैं और बड़े गंभीर हैं। और एक-दूसरे से बड़ा घर बना रहे हैं, क्योंकि दूसरे से छोटा घर रह जाए तो दिल को बड़ा दुख होता है। हालांकि रेत के घर बना रहे हैं। सभी घर रेत के हैं, चाहे कितनी ही सीमेंट मिलाओ तब भी रेत के हैं, और सीमेंट भी रेत ही है। पर वे रेत के घर बना रहे हैं, खेल रहे हैं, झगड़ रहे हैं।
फिर सांझ हो गई। और बुद्ध कहते थे कि मैं उस रास्ते से निकल रहा था। फिर उनकी मां ने आवाज लगाई कि बेटो, अब घर लौट आओ, सूरज ढलने के करीब हो गया। फिर वे सब हंसते हुए लौटने लगे। बुद्ध उनके पास खड़े थे। फिर वे बच्चे जिन्होंने घर बनाए थे, अपने ही घरों को लात मार कर गिरा दिए, कूदे-फांदे और लौटने लगे।
बुद्ध ने उनसे पूछा, यह क्या करते हो? जिन घरों के लिए लड़ते थे उनको ही लात मार कर चल देते हो! तो उन बच्चों ने कहा, मां की आवाज आ गई, और सांझ हो गई, और खेल खत्म हुआ।
सांझ तो हमारी भी आती है, खेल हमारा भी खत्म होता है, मां की आवाज हमें भी सुनाई पड़ती है। लेकिन नहीं, गंभीरता नहीं जाती; गंभीरता अटकी रह जाती है। खेल नहीं मालूम होता, मरते-मरते दम तक खेल नहीं मालूम पड़ता है।
जिंदगी एक खेल है। और अब तक मनुष्यता के ऊपर एक पत्थर बैठ गया है छाती पर जो कह रहा है: जिंदगी एक गंभीरता है। बड़ी गंभीरता से जीना। एक-एक कदम सम्हाल कर रखना। यह कोई खेल नहीं है। यह जिंदगी है, तलवार की धार है, बड़े सम्हल कर चलना। नहीं तो भटक जाओगे, नहीं तो गिर जाओगे। इन सारे उपदेशकों ने मिल कर मनुष्य को इतना गंभीर कर दिया है, इतना उदास, इतना भारी कि उसकी उड़ने की क्षमता ही खो गई, उसके पंख ही कट गए। और जिंदगी में अगर पंख कट जाएं, उड़ने की क्षमता कट जाए और अगर जिंदगी को खेल की तरह लेने की हिम्मत छूट जाए, तो फिर नये आदमी का जन्म नहीं हो सकता।
क्या आपको पता है बूढ़े और बच्चे में फर्क क्या होता है?
बच्चा नया होता है, बूढ़ा पुराना हो गया होता है। और बूढ़ा इसलिए पुराना हो गया होता है कि जितना गंभीर होता जाता है, खेल को जितनी गंभीरता से लेने लगता है, उतना बूढ़ा होता चला जाता है। बच्चे जिंदगी को भी खेल लेते हैं और बूढ़े खेल को भी जिंदगी लेने लगते हैं। छोटे बच्चों में जो ताजगी है, जो नयापन है, वह खो क्यों जाता है? वह ताजगी कहां चली जाती है?
कभी आपने खयाल किया--पता नहीं किया हो, न किया हो--बच्चे कोई भी कुरूप नहीं होते। छोटे सभी बच्चे सुंदर क्यों मालूम पड़ते हैं? फिर बड़े होकर इतने सुंदर लोग दिखाई नहीं पड़ते। क्या हो जाता है? बच्चे सभी सुंदर मालूम पड़ते हैं, फिर सभी ये बच्चे बड़े होतेऱ्होते फिर सभी सुंदर क्यों नहीं रह जाते? फिर ये सब कहां खो जाते हैं? इतने सुंदर बच्चे पैदा होते हैं, इतने सुंदर बूढ़े क्यों नहीं दिखाई पड़ते? क्या हो जाता है?
गंभीरता सौंदर्य को नष्ट कर देती है। गंभीरता पत्थर की खरोंचें डाल देती है चेहरे पर। गंभीरता घाव बना देती है। जिंदगी फिर एक फूल नहीं रह जाती, एक कांटा हो जाती है।
नये आदमी को पैदा करना हो तो आदमी की गंभीरता छीन लेनी पड़ेगी। और अगर बुद्ध की मूर्ति न हंसती हो, तो नयी मूर्ति ढालनी पड़ेगी जिसमें बुद्ध हंसते हुए हों। और अगर जीसस उदास मालूम पड़ते हों, तो नये चित्रकार खोजने पड़ेंगे और कहना पड़ेगा, बदलो ये चित्र! हंसता हुआ जीसस चाहिए।
आदमी को अब तक हंसता हुआ धर्म नहीं मिल सका। हंसता हुआ, नाचता हुआ धर्म नहीं मिल सका। उदास, गंभीर, बूढ़ा। उसने आदमी को बूढ़ा कर दिया, उदास कर दिया, गंभीर कर दिया। आदमी एक कब्र बन गया--उदासी की कब्र, जिसमें सब बंद है। जिसमें कभी बांसुरी नहीं बजती और कभी गीत नहीं फूटता। और हम बचपन से जो बूढ़े, उदास, जो पहले से कब्रों में बंद हो गए हैं, वे छोटे बच्चों पर बड़े नाराज होते हैं। वे उनको जल्दी से कहते हैं, जल्दी-जल्दी अपनी-अपनी कब्रें खोज लो और उसमें बंद हो जाओ। शोरगुल मत करो, हंसो मत, जोर से मत बोलो, नाचो मत, कूदो मत--बंद हो जाओ, अपनी-अपनी कब्रें खोज लो। जैसे जिंदगी सिर्फ कब्र खोजने का एक लंबा उपक्रम है, जिसने कब्र पा ली वह धन्य है। हम बच्चों को डांट रहे हैं। हम बच्चों को, इसके पहले कि उनकी जिंदगी की किरण फूटे, उनको मार डालेंगे।
अगर नये आदमी को पैदा होना है तो हमें ध्यान रखना पड़ेगा कि आदमी से उदासी छीन लेने की जरूरत है। गंभीरता की कोई भी जरूरत नहीं है।
लेकिन हमारे सब महात्मा गंभीर होते हैं। असल में रोती हुई शक्ल लेकर पैदा होना महात्मा होने के लिए बिलकुल जरूरी क्वालीफिकेशन है। वह योग्यता है। अगर वह न हो, तो आप और कुछ भी हो जाएं, आप महात्मा नहीं हो सकते।
हंसता हुआ महात्मा हो सकता है आदमी? प्रसन्न, आनंदित, नाचता हुआ?
नहीं-नहीं, ऐसा आदमी महात्मा नहीं हो सकता। ऐसे आदमी का महात्मा होना बहुत मुश्किल है। क्योंकि हम सब जो दुखी लोग हैं, हम उदासी की पूजा करते हैं, सफरिंग की पूजा करते हैं। जितना उदास चेहरा हो उतना हमें गंभीर और गहरा मालूम पड़ता है।
ध्यान रहे, उदास चेहरा गंभीर नहीं होता, सिर्फ उथला होता है। मरा हुआ होता है, बासा होता है, जिंदा नहीं होता। जिंदगी के संबंध में सूत्र बड़े अदभुत हैं। जिंदगी जितनी गहरी होती है उतने ताजे झरने उसमें फूटते रहते हैं। जिंदगी जितनी गहरी होती है उतनी दूर से जड़ें नयी सुवास ले आती हैं। जिंदगी जितनी गहरी और आनंदित और प्रसन्न होती है, वह उतनी ही चारों तरफ, उतनी ही सब ओर कृतार्थता को, धन्यता को अनुभव करने लगती है।
धार्मिक आदमी का एक ही लक्षण है कि वह इतना आनंदित हो कि अपने आनंद के कारण परमात्मा को धन्यवाद दे सके।
उदास आदमी परमात्मा को धन्यवाद नहीं दे सकता, सिर्फ शिकायत कर सकता है। और अगर हमारे महात्माओं को कभी परमात्मा मिल जाता हो--जैसा कि होता नहीं, हो भी नहीं सकता, क्योंकि ऐसे उदास महात्माओं से परमात्मा भी भागता रहता होगा, बचता रहता होगा--अगर कहीं इनको मिल जाता होगा तो ये पकड़ कर फौरन अपनी शिकायतों की पूरी कहानी उससे कहते होंगे। और परमात्मा अगर इन्हें हंसता मालूम होता होगा तो इन्हें बड़ी पीड़ा होती होगी कि कैसा यह परमात्मा है जो हंस रहा है!
मैं छोटा था तो मेरे गांव में रामलीला होती थी। उस रामलीला में राम बड़े गंभीर होकर बड़े काम करते थे। उसमें रावण होता था, और उसमें सारी कहानी चलती थी। मैं पहली दफा जब रामलीला देखता था तो मुझे सबसे ज्यादा खयाल यह आता था कि ये सब पीछे से आते हैं स्टेज पर, फिर पीछे चले जाते हैं, पता नहीं पीछे क्या करते हैं? पीछे क्या होता है? स्टेज के पीछे क्या होता है?
तो मैंने दो-चार बार अपने बड़े लोगों से पूछा, स्टेज के पीछे क्या होता है?
उन्होंने कहा, स्टेज के पीछे की फिकर छोड़ो, तुम सामने देखो। तुम्हें स्टेज के पीछे से क्या मतलब है? हम रामलीला देखने आए, हमें स्टेज के पीछे से क्या मतलब है?
फिर मैंने देखा कि वे जवाब न देंगे। असल में उन्हें भी स्टेज के पीछे का पता न होगा। स्टेज के पीछे का किसको पता है? स्टेज के पीछे का किसी को पता नहीं कि पीछे क्या होता है। राम जहां से आते हैं, रावण जहां से आते हैं, वहां का किसको पता है? पीछे क्या होता है, किसी को पता नहीं। तो फिर मैंने सोचा--इनकी फिकर छोड़ो। बड़े-बूढ़ों की कब तक फिकर करेंगे! नहीं तो हम भी बड़े-बूढ़े हो जाएंगे और छोटे बच्चों को समझाने लगेंगे कि तुम्हें क्या मतलब है स्टेज के पीछे से! तुम स्टेज के सामने देखो, जहां हम देखने आए हैं।
मैंने उनका साथ छोड़ा और भाग कर मैं पीछे गया और मैंने जाकर पर्दा उठा कर अंदर झांक कर देखा। मैं दंग रह गया! फिर उस दिन से मैंने रामलीला नहीं देखी। उस दिन से बात ही खत्म हो गई। मैंने वहां देखा कि रामचंद्र जी सिगरेट पी रहे हैं और रावण जो हैं वह सिगरेट जला रहे हैं। तो फिर मैं घर लौट आया और मैंने सोचा कि जब इस रामलीला के पर्दे के पीछे ऐसा हो रहा है तो असली रामलीला के पर्दे के पीछे भी कौन जानता है!
यह सब गंभीरता, यह सब पर्दे के बाहर है। जिंदगी पीछे कुछ और है। अगर परमात्मा कहीं भी है तो मैं सोच भी नहीं पाता कि वह उदास होगा। और अगर परमात्मा भी उदास होगा तो फिर हंसेगा कौन? मैं सोच भी नहीं पाता कि परमात्मा भी गंभीर होगा। अगर वह गंभीर होता तो इस संसार का कभी का उसने अंत कर दिया होता। क्योंकि सब महात्मा इसका अंत करने के लिए बड़े आतुर हैं। वे कहते हैं, आवागमन से छुटकारा मांगो। सारे महात्माओं की एक ही शिकायत है कि संसार क्यों बनाया भगवान! बहुत मुसीबत तुमने की। किसी तरह इसको मिटाओ, किसी तरह हमको वापस बुलाओ, हम नहीं चाहते यह। सारे महात्मा एक ही खोज में लगे हैं कि यह संसार कैसे मिट जाए!
तो निश्चित ही परमात्मा उदास नहीं हो सकता। वह अभी खेल से थका भी नहीं है। वह खेल को जारी रखे है। वह रोज नया खेल बनाए चला जा रहा है। वह खेलने में बड़ा रसलीन मालूम होता है। और ऊबता भी नहीं है; ऊबता भी नहीं है।
एक बूढ़े चित्रकार से मैं मिलने गया था। वे बूढ़े हो गए हैं। और मैंने उनसे कहा, अब आप चित्र नहीं बना रहे हैं? उन्होंने कहा, अब मैं ऊब गया। बहुत चित्र मैंने बनाए, थक गया, अब क्या बनाऊं बार-बार! आदमी बनाए, वृक्ष बनाए, नदी-पहाड़ बनाए, अब मैं थक गया। मैंने कहा कि तुम बड़े जल्दी थक गए। और भगवान कितने दिन से वृक्ष बना रहा है, आदमी बना रहा है, नदी-पहाड़ बना रहा है, अभी तक नहीं थका! अदभुत है उसकी क्षमता! थकता ही नहीं। उदास होता तो कभी का थक गया होता, बोरडम हो गई होती, ऊब गया होता। कहता--बंद करो सब अब, अब नहीं चलाना इसे। लेकिन जिंदगी में उसे रस है और जिंदगी को सृजन करने की उसकी क्षमता अनंत है।
नहीं, परमात्मा उदास नहीं है, आदमी उदास है। और आदमी उदास है गंभीरता के कारण। जिंदगी को उसने एक काम बना लिया है, एक खेल नहीं। हम हर चीज को काम में बदलने में इतने कुशल हैं कि हम खेल को भी काम में बदल लेते हैं।
अभी मैं एक घर में मेहमान था। शाम को पांच बजे तो वे अपना बल्ला उठा कर खेलने जा रहे थे। तो उनकी पत्नी ने कहा, अब आज न जाइए। मैं तो बाथरूम में था, मैंने सुना। उनकी पत्नी ने कहा, आज न जाइए। उन्होंने कहा कि यह कैसे हो सकता है! मेरा रोज खेलने जाने का समय हो गया!
खेलने जा रहे हैं, उसमें भी रोज का समय हो गया। वह भी एक रूटीन है।
उन्होंने कहा, घबरा मत, मैं अभी जल्दी आता हूं। लेकिन जाना तो पड़ेगा ही।
आदमी पूजा को भी काम बना लेता है। अगर उसे जल्दी अदालत जाना है, तो घंटी जरा जोर से हिला कर जल्दी हिला देगा। वह भी एक काम है। जिंदगी में हमने सब काम बना लिए हैं। प्रेम भी एक काम है। पति रोज अपनी पत्नी से प्रेम की कुछ बातें कह लेता है, जो कहनी चाहिए वह कह देता है। पत्नी भी सुन लेती है जो सुननी चाहिए। और दोनों जानते हैं कि सिर्फ काम पूरा हो रहा है, यहां कहीं कुछ और नहीं हो रहा। बाप बेटे का सिर सहला देता है और बेटा भी अच्छे से जानता है कि यह सिर्फ काम है जो सुबह बाप रोज करता है। लेकिन यह दफ्तर से जाने के पहले की रूटीन है।
हमने पूरी जिंदगी को काम बना लिया है। जिंदगी में कहीं भी कोई खेल नहीं है। अगर बेटा अपनी मां के पैर दबा रहा है तो भी वह कहता है कि यह मेरा उत्तरदायित्व है, मेरी रिस्पांसबिलिटी है। मेरी मां है इसलिए मैं पैर दबा रहा हूं। मां के पैर दबाना भी एक काम है। पूरी जिंदगी काम है। आदमी ने सारी जिंदगी को गंभीरता से लिया है। गंभीरता ने खेल को काम बना दिया। और अगर हम इससे उलटा ले सकें तो फिर काम भी खेल हो जाता है।
कबीर कपड़ा बुनते ही रहे। जिंदगी बदल गई; क्रांति हो गई; कपड़ा बुनते ही रहे। लोगों ने कहा, अब कपड़ा बुनना बंद कर दें, अब आपको काम की कोई जरूरत नहीं। कबीर ने कहा, अब मैं काम कर ही नहीं रहा; अब मैं खेल खेल रहा हूं। उन्होंने कहा, लेकिन कपड़ा तो आप बुन ही रहे हैं! उन्होंने कहा, सब बदल गया। पहले काम था--कपड़ा बुनना काम था--अब खेल है।
और लोगों ने देखा कि वे ठीक ही कहते थे। पहले भी वे कपड़ा बुनते थे, तो उदास इस कोने से उस कोने तक कपड़ा बुनते रहते थे। अब भी कपड़ा बुनते थे, लेकिन अब नाचते थे। पहले वे कपड़ा बना कर बाजार में बेचने जाते थे--उदास, पत्थर के बोझ से दबे हुए, भारी। अब भी वे जाते थे, लेकिन बगल में कपड़े दबाए हैं और भागते चले जा रहे हैं। और कोई पूछता कि कहां जा रहे हो? तो वे कहते कि राम आ गए होंगे बाजार में, उनका कपड़ा मैंने तैयार किया, उनको देने जाता हूं। और बाजार में खड़े होकर...अब ग्राहक नहीं रहे थे, अब सब राम हो गए थे। अब वे लोगों से, ग्राहक से मोलत्तोल होता, तो वे कहते, राम, ज्यादा मत ठहरा। तुझे पता नहीं कि कितना नाच कर इसको बुना, कितनी मुश्किल पड़ी! ग्राहक चौंक कर देखता कि यह आदमी क्या कह रहा है? तो वे हंसने लगते। वे कहते कि ठीक ही कह रहा हूं राम! अब मेरे लिए कोई ग्राहक नहीं सिवाय उसके, वही ग्राहक है। हम हैं बेचने वाले और वह है खरीदने वाला। और अब हम अपने को भी बेचने के लिए तैयार हैं, जब उसकी मर्जी हो खरीद ले। तब...तब वह भी खेल हो गया।
जिंदगी खेल हो जानी चाहिए। धार्मिक आदमी के लिए जिंदगी एक खेल है और अधार्मिक आदमी के लिए खेल भी एक काम है। जिन्होंने यह सोचा कि जिंदगी को हम जितना गंभीर कर देंगे उतना आदमी अच्छा हो जाएगा, उन्होंने बड़ी बुनियादी भूल की है। गंभीर आदमी अच्छा आदमी नहीं हो सकता। अच्छा आदमी गंभीर नहीं हो सकता। गंभीरता रोग है, बीमारी है।
तो दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं नये मनुष्य के जन्म के लिए और वह यह है कि जिंदगी को एक लीला, एक खेल--जिंदगी को एक गंभीरता मत बना लेना। कितना ही बड़ा मकान बनाना, लेकिन जानना कि यह रेत का ही मकान है; सांझ हो जाएगी, गिरा कर चले जाएंगे। और कितना ही बड़ा काम करना, जानना कि सब रेत का खेल है और गिर जाएगा। और ऐसा मैं कहूं इसलिए नहीं, ऐसा जिंदगी को ठीक से देखेंगे तो आपको दिखाई पड़ जाएगा। कौन से मकान टिकते हैं? और क्या बचता है?
मैं अभी एक गांव में मेहमान था। उस गांव में आज से नौ सौ साल पहले सत्रह लाख की आबादी थी। आज उसकी आबादी केवल नौ सौ है। गांव के मोटर स्टैंड पर जो तख्ती लगी है उस पर कुछ नौ सौ तीस या नौ सौ तैंतीस आबादी लिखी है। उस गांव की आज से नौ सौ साल पहले सत्रह लाख की आबादी थी। आज भी उस गांव में इतने-इतने बड़े खंडहर हैं धर्मशालाओं के जिनमें दस हजार आदमी इकट्ठे ठहर सकें। इतनी-इतनी बड़ी मस्जिदें हैं जिनमें दस हजार लोग इकट्ठी नमाज पढ़ सकें। इतने-इतने बड़े मंदिर हैं, मीलों तक फैले हुए खंडहर हैं।
मेरे साथ कुछ मित्र मेहमान थे। मैं तीन दिन तक वहां था। मैंने सोचा कि जरूर उनमें से कोई मुझसे कुछ कहेगा। लेकिन उनमें से किसी ने कुछ न कहा। उनमें से एक को भी यह खयाल न आया कि ये सत्रह लाख लोग जहां रहते थे वहां आज सिर्फ मरघट है। और जिन लोगों ने बड़े-बड़े मकान बनाए थे वे सिर्फ अब खंडहर हैं।
नहीं, उन्होंने यह नहीं कहा। बल्कि उनमें से मेरे एक मित्र थे जो मुझसे कहने लगे कि मैंने मकान का एक नक्शा बनाया है, वह जरा आप देख लें, आप पसंद कर लें, एक मकान बनाना है। वह बगल में सत्रह लाख लोगों के मकान गिरे हैं! मैंने उनसे कहा, चलो जरा बाहर बैठ कर देखें, बाहर खुली हवा है। मैं उन्हें बाहर ले आया। लेकिन आदमी कैसा अंधा है! वे नक्शा फैला कर बैठ गए हैं। चारों तरफ खंडहर थे और वे कहने लगे, कैसा बनाना है, कैसा बनाएं, मजबूत कैसा बने! मैंने उनसे कहा, थोड़ा चारों तरफ तो देखो! उन्होंने कहा कि बहुत अच्छी सांझ है, आप जल्दी से नक्शा तो देख लें! नहीं तो रात उतरी जाती है, अंधेरा हुआ जाता है।
आदमी का अंधापन अदभुत है। खंडहर नहीं दिखाई पड़ते; मरघट नहीं दिखाई पड़ते; चारों तरफ बिछी हुई लाशें नहीं दिखाई पड़तीं। जिस जमीन पर भी हम बैठे हैं, वहीं कोई मरा है। ऐसा जमीन का हिस्सा नहीं जहां कोई मरा न हो, ऐसा जमीन का कोई हिस्सा नहीं जहां कोई दफनाया न गया हो। जहां आप सोते हैं, नीचे कोई और भी सोता है। वह बिलकुल सदा के लिए सो गया है। लेकिन आप उसकी तरफ ध्यान नहीं देते।
जिंदगी को अगर हम गौर से देखेंगे तो खेल से ज्यादा क्या है? हां, यह हो सकता है कि बच्चों का खेल सुबह से शाम तक चला, हमारा खेल जन्म से मरने तक चलेगा। यह हो सकता है कि उनका खेल चार-छह घंटे में पूरा हो गया, हमारा खेल पचास-साठ-सत्तर साल लेगा।
एक छोटी सी कहानी, और आज की बात मैं पूरी करूंगा। और सूत्रों पर कल आपसे बात करनी है। मैंने सुना है कि एक जिज्ञासु एक प्रश्न बहुत से लोगों से पूछता फिरा कि इस जिंदगी का राज क्या है? लेकिन कोई बता न सका। वह पूछता रहा, पूछता रहा, पूछता रहा, कोई न बता सका। उसने शास्त्र पढ़े, वह गुरुओं को खोजा, लेकिन कहीं उत्तर न मिला और उसने अपना भी कोई उत्तर न बनाया। तब भगवान को उस पर दया आ गई और एक दिन वे उसके सामने खड़े हो गए और उन्होंने कहा, तू पूछ! तुझे पूछना क्या है?
अगर वह किसी गुरु की मान लेता तो फिर भगवान को आने की जरूरत न पड़ती। अगर वह किसी शास्त्र की मान लेता तो फिर भगवान की क्या जरूरत थी। अगर वह अपना ही कोई ईजाद कर लेता उत्तर तो भी भगवान की कोई जरूरत न थी। लेकिन वह आदमी अदभुत था! उसने किसी का न माना, उसे कुछ भी न जंचा, वह पूछता ही चला गया, पूछता ही चला गया। फिर पूछने को भी कोई न बचा, तब आखिर भगवान खड़ा हो गया। उसने कहा, तुझे पूछना था, तू पूछ ले!
उस आदमी ने कहा, मुझे ज्यादा कुछ नहीं पूछना, मुझे यह पूछना है--जिंदगी का राज क्या है?
दोपहर की तेज और धूप बरसती थी। भगवान ने उससे कहा कि जिंदगी का राज थोड़ी देर से बता दूंगा, अभी तो मुझे बहुत प्यास लगी। देखता नहीं, कितनी जोर की धूप है। तू जरा एक गिलास पानी कहीं से ले आ।
वह युवा खोजी पानी लेने गया। वह गांव के भीतर गया। उसने जाकर एक द्वार पर दस्तक दी। दोपहर थी, सन्नाटा था, सारे लोग सोए थे। एक सुंदर युवती ने द्वार खोला, उसका पिता बाहर था। वह युवक आया था कि पानी ले लेना है, लेकिन एक नयी प्यास जग गई। और दूसरे की प्यास से अपने को क्या मतलब! वह जो सामने सुंदर युवती खड़ी थी उसने एक नयी प्यास जगा दी। उस युवती ने पूछा, आप कैसे आए? उसने कहा, तुम्हारे लिए आया हूं। तुम्हारे लिए भटक रहा हूं। तुम्हें खोजता था। उसने कहा, आप मेरे लिए आए हैं? मुझे तो आप पहचानते भी नहीं! उसने कहा, पहचानता तो नहीं था, लेकिन किसी अनजाने कोने में मन में तुम्हारी ही तलाश थी। बस अब तुम मिल जाओ तो सब मिल जाए, अन्यथा सब खो गया। तब तक पिता लौट आया, युवक तो सुंदर था, युवा था, उसने शादी कर दी। वे दोनों रहने लगे।
वह भगवान प्यासा खड़ा होगा धूप में, उसकी खबर भूल गई। जब अपनी प्यास जग जाए तो दूसरे की प्यास की खबर किसको रह जाती है!
फिर उनके बच्चे हो गए। फिर बच्चे बड़े हो गए। फिर शादी-विवाह हो गया बच्चों का। फिर बच्चों के भी बच्चे हो गए। फिर वह आदमी बिलकुल बूढ़ा हो गया, वह मरने के करीब हो गया। तब गांव में जोर की बाढ़ आ गई। वर्षा आई और गांव की नदी पर पूर चढ़ा और चढ़ता ही चला गया और पूर नीचे न उतरा, सारा गांव डूबने लगा। वह अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को, अपने बेटों को, अपनी बहुओं को, सबको--किस-किस को बचाए; बड़ी जोर का बहाव है, घर डूबा जाता है--वह सबको पकड़ कर बचा कर चलता है। बूढ़ा आदमी है, ताकत भी कम हो गई है। एक को बचाता है, दूसरा छूट जाता है। एक बच्चे को पकड़ता है तो लड़की छूट जाती है, लड़की को बचाने जाता है तो पत्नी छूट जाती है। आखिर में सब छूट जाते हैं, सबको बचाने की कोशिश में सब छूट जाते हैं। सबको बचाने की कोशिश में सिर्फ एक बच रहता है जिसको उसे बचाने का खयाल ही न था। वह खुद ही बच रहता है। रोता है, चिल्लाता है, छाती पीटता है, बेहोश होकर जाकर किनारे पर गिर पड़ता है।
फिर उसे खयाल आता है--कोई उसके सिर पर हाथ रख कर हिला रहा है और कह रहा है, उठो! आंख खोली है, वह भगवान खड़ा है, कहता है, कितनी देर लगा दी! हम प्यासे ही बैठे हुए हैं, पानी नहीं लाए? वह आदमी कहता है, पानी! अभी इतनी बाढ़ थी, इतना पानी ही पानी था, वह कहां है? वह कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। वह आदमी कहता है, यह हुआ क्या? कितने जमाने बीत गए! सत्तर साल होते होंगे जब मैं गया था छोड़ कर आपको। बूढ़ा हो गया, मरने के करीब हूं। मेरे बच्चे थे, पत्नी थी, बेटे थे, वे सब कहां हैं? बाढ़ थी, वह सब कहां है? वह भगवान कहता है, मुझे क्या पता? मैं प्यासा बैठा हूं। देखते नहीं सूरज, दोपहरी तेज है। पानी कहां है? पानी नहीं लाए!
वह जिज्ञासु पैरों पर सिर रख देता है और कहता है, राज मैं समझ गया, जिंदगी का राज मैं समझ गया, अब बताने की और कोशिश न करें।
जिंदगी एक खेल है और एक खेल जो सपने में खेला गया है। इसमें इतने गंभीर होने की जरूरत नहीं।
इस संबंध में जो भी प्रश्न हों वे सांझ। सुबह के जो प्रश्न हों वे सुबह।
आदमी नया चाहिए, तो नये समाज का जन्म हो सकता है। सारी क्रांतियां असफल गईं, क्योंकि क्रांतियों ने समाज पर ध्यान दिया, मनुष्य पर नहीं। वही क्रांति सफल हो सकती है जो मनुष्य को केंद्र में ले और मनुष्य के पुराने मन को तोड़ कर नया कर सके।
नया मनुष्य नये समाज की खोज का आधार है।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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