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गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-21)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-21) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-31

भगवत-प्रेम

जगत में तीन प्रकार के प्रेम हैं- एक : वस्तुओं का प्रेम, जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर हम वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं। दूसरा : व्यक्तियों का प्रेम। कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं, सिर्फ इसलिए कि आपको अपने बचाने की सुविधा रहे कि मैं तो लाख में एक हूं ही। नहीं, इस तरह बचाना मत!  एक ह्लह्ल17प्रतिशतह्लह्लोंच चित्रकार सींजां एक गांव में ठहरा। उस गांव के होटल के मैनेजर ने कहा, यह गांव स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अच्छा है। यह पूरी पहाड़ी अद्भुत है। सींजां ने पूछा, इसके अद्भुत होने का राज, रहस्य, प्रमाण उस मैनेजर ने कहा, राज और रहस्य तुम रहोगे यहां तो पता चल जाएगा। प्रमाण यह है कि इस पूरी पहाड़ी पर रोज एक आदमी से ज्यादा नहीं मरता। सींजां ने जल्दी से पूछा, आज मरनेवाला आदमी मर गया या नहीं नहीं, तो मैं भागूं।  आदमी अपने को बचाने के लिए बहुत आतुर है। अगर मैं हूं, लाख में एक, तो आप कहेंगे बिल्कुल ठीक- छोड़ा अपने को! आपको भर नहीं छोड़ रहा हूं, ख्याल रखना। लाख में एक आदमी व्यक्ति के प्रेम को उपलींध होता है।

शेष आदमी वस्तुओं के प्रेम में ही जीते हैं। आप कहेंगे- हम व्यक्तियों को प्रेम करते हैं, लेकिन मैं आपसे कहूंगा- वस्तुओं की भांति, व्यक्तियों की भांति नहीं!  आज एक मित्र आए संन्यास लेने, पत्नी को साथ लेकर आए। पत्नी को समझाया कि वे घर छोड़कर नहीं जाएंगे, पति ही रहेंगे- पिता ही रहेंगे। संन्यास उनकी आंतरिक घटना है, चिंतित होओ मत, घबराओ मत! लेकिन उस पत्नी ने कहा, नहीं, मैं संन्यास नहीं लेने दूंगी।  मैंने कहा, कैसा प्रेम है यह अगर प्रेम गुलामी बन जाए तो प्रेम है प्रेम अगर स्वतंत्रता न दे तो प्रेम है प्रेम अगर जंजीरें बन जाए तो प्रेम है फिर यह पति व्यक्ति न रहा, वस्तु हो गया- युटिलिटेरियन, यह व्यक्ति नहीं रहा! पत्नी कहती है, मैं आज्ञा नहीं दूंगी तो नहीं लेंगे संन्यास! व्यक्ति का सम्मान न रहा, उसकी स्वतंत्रता का सम्मान न रहा, उसका कोई अर्थ न रहा, वह वस्तु हो गया।  हम व्यक्तियों को प्रेम भी करते हैं तो ‘पजेस’ करते हैं, मालिक हो जाते हैं। मालिक व्यक्तियों का कोई नहीं हो सकता, सिर्फ वस्तुओं की मालकियत होती है। पत्नी, पति को पजेस करती है और कहती है मालकियत है। कोई पति कहता है पत्नी को कि मेरी हो, तो फर्नीचर में और पत्नी में कोई भेद नहीं रह जाता। यह उपयोग हो गया, व्यक्ति का सम्मान न हुआ। दूसरे व्यक्ति की निजता का, आत्मा का कोई आदर न हुआ! इसलिए मैं कहता हूं वस्तुओं को ही हम प्रेम करते हैं। यदि व्यक्तियों को भी प्रेम करते हैं तो उनको भी वस्तु बना लेते हैं।  व्यक्तियों का प्रेम, मैंने कहा- लाख में एक आदमी को उपलींध होता है। व्यक्ति के प्रेम का अर्थ है, दूसरे का अपना मूल्य है। मेरी उपयोगिता-भर ही मूल्य नहीं है उसका- ‘युटिलिटेरियन’- इतना ही उसका मूल्य नहीं है, उसका अपना निजी मूल्य है। वह मेरा साधन नहीं है, वह स्वयं अपना साध्य है।
एमेनुअल कांट ने कहा है, नीति के परम सूत्रों में एक सूत्र : कि अनीति का एक ही अर्थ है, दूसरे व्यत्ति का साधन की तरह उपयोग करना अनैतिक है। और दूसरे व्यक्ति को साध्य मानना नैतिक है। गहरे से गहरा सूत्र है यह कि दूसरा व्यक्ति अपना साध्य है स्वयं। मैं उससे प्रेम करता हूं, एक व्यक्ति की भांति- एक वस्तु की भांति नहीं। इसलिए मैं उसका मालिक कभी नहीं हो सकता हूं। इसलिए व्यक्ति के प्रेम को ही हम उपलींध नहीं होते।  फिर तीसरा प्रेम है : भगवत-प्रेम- वह अस्तित्व का प्रेम है! यों तीन प्रकार के प्रेम हुए- ‘लव टुवर्ड्स द एक्जिस्टेंस’, ‘लव टूवर्ड्स दी पर्सन’ एंड ‘लव टुवर्ड्स दी आंबजैक्ट्स’। वस्तुओं के प्रति प्रेम- जैसे मकान, धन-दौलत, पद, पदवी! व्यक्तियों के प्रति प्रेम- मनुष्य! अस्तित्व के प्रति प्रेम- भगवत-प्रेम, समग्र अस्तित्व को प्रेम।  इसको थोड़ा ठीक से देख लेना जरूरी है। जब हम वस्तुओं को प्रेम करते हैं तब हमें सारे जगत में वस्तुएं ही दिखायी पड़ती हैं, कोई परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता है। क्योंकि जिसे हम प्रेम करते हैं उसे ही हम जानते हैं। प्रेम जानने की आंख है। प्रेम के अपने ढंग हैं जानने के। सच तो यह है कि प्रेम ही ‘इंटीमेट नोइंग’ है- आंतरिक! आत्मीय जानना ही प्रेम है!  इसलिए जब हम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हैं तभी हम जानते हैं। क्योंकि जब हम प्रेम करते हैं तभी वह व्यक्ति हमारी तरफ खुलता है। जब हम प्रेम करते हैं तब हम उसमें प्रवेश करते हैं। जब हम प्रेम करते हैं तब वह निर्भय होता है।
जब हम प्रेम करते हैं तब वह छिपाता नहीं। जब हम प्रेम करते हैं तब वह उघड़ता है, खुलता है, भीतर बुलाता है- आओ, अतिथि बनो! ठहराता है हृदय के घर में! जब कोई व्यक्ति प्रेम करता है किसी को, तभी जान पाता है।  अगर अस्तित्व को कोई प्रेम करता है, तभी जान पाता है परमात्मा को। भगवत-प्रेम का अर्थ है : जो भी है उसके होने के कारण प्रेम है। कुर्सी को हम प्रेम करते हैं क्योंकि उस पर हम बैठते हैं, आराम करते हैं। टूट जाएगी टांग उसकी, कचरे घर में फेंक देंगे। उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है, उसे हटा देंगे। जो लोग मनुष्यों को भी इसी भांति प्रेम करते हैं उनका भी यही हाल है। पति को कोढ़ हो जाएगा तो पत्नी डायवोर्स दे देगी, अदालत में तलाक कर देगी- टूट गयी टांग कुर्सी की, हटाओ! पत्नी कुरूप हो जाएगी, रुग्ण हो जाएगी, अस्वस्थ हो जाएगी, अंधी हो जाएगी, पति तलाक कर देगा- हटाओ! - तब तो वस्तु हो गए लोग!  जो व्यक्ति सिर्फ वस्तुओं को प्रेम करता है उसके लिए सारा जगत मैटीरियल हो जाता है- वस्तु-मात्र हो जाता है! व्यक्ति में भी वस्तु दिखायी पड़ती है, फिर भागवत्-चैतन्य तो कहीं दिखायी नहीं पड़ सकता।  भागवत-चैतन्य को अनुभव करने के लिए पहले वस्तुओं के प्रेम से व्यक्तियों के प्रेम तक उठना पड़ता है, फिर व्यक्तियों के प्रेम से अस्तित्व के प्रेम तक उठना पड़ता है। जो व्यक्ति व्यक्तियों को प्रेम करता है वह मध्य में आ जाता है। एक तरफ वस्तुओं का जगत होता है, दूसरी तरफ भगवान का अस्तित्व होता है। इन दोनों के बीच खड़ा हो जाता है। उसे दोनों तरफ दिखायी पड़ने लगता है- वस्तुओं का संसार और अस्तित्व का लोक! फिर वह आगे बढ़ सकता है।  सुना है मैंने, रामानुज एक गांव से गुजरते हैं। एक आदमी आया और उसने कहा कि मुझे भगवान से मिला दें।
मुझे भगवान से प्रेम करा दें। मैं भगवत-प्रेम का प्यासा हूं। रामानुज ने कहा, ठहरो, इतनी जल्दी मत करो। तुमसे मैं कुछ पूछूं तुमने कभी किसी को प्रेम किया है उसने कहा, कभी नहीं, कभी नहीं! मुझे तो सिर्फ भगवान से प्रेम है।  रामानुज ने कहा, कभी किसी को किया हो भूल-चूक से उस आदमी ने कहा, बेकार की बातों में समय क्यों जाया करवा रहे हैं प्रेम इत्यादि से मैं सदा दूर रहा हूं। मैंने कभी किसी को प्रेम किया ही नहीं। रामानुज ने कहा, फिर तुमसे कहता हूं, एकबार सोचो, किसी को किया हो, किसी पौधे को किया हो, किसी आदमी को किया हो, किसी स्त्री को किया हो, किसी बच्चे को किया हो, किसी को भी किया हो स्वभावतः उस आदमी ने सोचा कि अगर मैं कहूं कि मैंने किसी को प्रेम किया है तो रामानुज कहेंगे कि अयोग्य है तू। इसलिए उसने कहा, मैंने किया ही नहीं। उसने कहा कि मैं साफ कहता हूं, प्रेम से मैं सदा दूर रहा, मुझे तो भगवत-प्रेम की आकांक्षा है। रामानुज ने कहा, फिर मैं बड़ी मुश्किल में हूं। फिर मैं कुछ भी न कर पाऊंगा क्योंकि अगर तूने किसी को थोड़ा भी प्रेम किया होता, तो उसी प्रेम की किरण के सहारे मैं तुझे भगवत-प्रेम के सूरज तक पहुंचा देता। थोड़ा-सा भी तूने किसी में झांका होता प्रेम से तो मैं तुझे पूरे अस्तित्व के द्वार में धक्का दे देता।
लेकिन तू कहता है कि तूने प्रेम किया ही नहीं, यह तो ऐसे हुआ कि मैं किसी आदमी से पूछूं कि तूने कभी रोशनी देखी मिट्टी का दीया जलता हुआ देखा वह कहे- नहीं, मुझे तो सूरज दिखा दें, दीया मैंने कभी देखा ही नहीं! पूछता हूं कि कभी तुझे एकाध किरण छप्पर में से फूटती हुई दिखायी पड़ी होगी! वह कहे- कहां की बातें कर रहे हैं किरण वगैरह से अपना कोई संबंध ही नहीं, हम तो सूरज के प्रेमी हैं।  तो रामानुज ने कहा, जैसे उस आदमी से मुझे कहना पड़े कि क्षमा कर, तू किरण भी नहीं खोज पाया, सूरज अब तुझे कैसे समझाऊं क्योंकि हर किरण सूरज का रास्ता है। व्यक्ति का प्रेम भी भगवत-प्रेम की शुरूआत है। व्यक्ति का प्रेम एक छोटी-सी खिड़की है, झरोखा है, जिसमें से हम किसी एक व्यक्ति में से परमात्मा को देखते हैं। वह खिड़की है। तो, रामानुज ने कहा, तू एक में भी झांक सका हो तो मैं तुझे सबमें झांकने की कला बता दूं। लेकिन तू कहता है, तूने कभी झांका ही नहीं।  हम वस्तुओं में जीते हैं, हम व्यक्तियों में झांकते नहीं। क्यों क्या बात है वस्तुओं के साथ बड़ी सुविधा है, व्यक्तियों के साथ झंझट है! छोटे-से व्यक्ति के साथ भी घर में एक बच्चा पैदा हो जाए, अभी दो साल का बच्चा है, लेकिन वह भी उपद्रव है। व्यक्ति है, वह भी स्वतंत्रता मांगता है। उससे कहो, इस कोने में बैठो तो फिर उस कोने में बिल्कुल नहीं बैठता है। उससे कहो, बाहर मत जाओ तो बाहर जाता है।
उससे कहो, फलां चीज मत छुओ तो छूकर दिखलाता है। मेरी भी आत्मा है, मैं भी हूं, आप ही नहीं हैं!   इसलिए आज अमरीका या फ्रांस या इंग्लैंड में लोग कहते हैं, एक बच्चे की बजाय एक टेलीविजन सेट खरीद लेना बेहतर है। टेलीविजन सेट का जब चाहो, बटन दबाओ कि चले- बंद करो, बंद हो जाए- ‘आन-आफ’ होता है। व्यक्ति ‘आन-आफ’ नहीं होता। उसको आप नहीं कर सकते ‘आन-आफ’!  एक छोटे-से बच्चे को मां दबा-दबाकर सुला रही है, ‘आफ’ करना चाह रही है, वह ‘आन’ हो-हो जा रहा है। वह कह रहा है नहीं, अभी नहीं सोना है। छोटा-सा बच्चा है। इनकार करता है कि उसके साथ वस्तु जैसा व्यवहार न किया जाए। उसके भीतर परमात्मा है। व्यक्ति से करने में डर लगता है, क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्रता मांगेगा।  वस्तुओं से प्रेम करना बड़ा सुविधापूर्ण है, वे स्वतंत्रता नहीं मांगतीं- तिजोरी में बंद किया, ताला डाला, आराम से सो रहे हैं। रुपए तिजोरी में बंद हैं- न भागते, न निकलते, न विद्रोह करते, न बगावत करते, न कहते कि आज इरादा नहीं है चलने का हमारा। आज नहीं चलेंगे! नहीं, जब चाहो तब हाजिर होते हैं, जैसे चाहा वैसे हाजिर होते हैं। वस्तुएं गुलाम हो जाती हैं इसलिए हम वस्तुओं को चाहते हैं।  जो आदमी दूसरे की स्वतंत्रता नहीं चाहता वह आदमी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा। और जो व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा वह भगवत-प्रेम के झरोखे पर ही नहीं पहुंचा, तो भगवत-प्रेम के आकाश में तो उतरने का उपाय नहीं है।
भगवत-प्रेम का अर्थ है : सारा जगत एक व्यक्तित्व है- ‘द होल एक्जिसटेंस इज पर्सनल’। भगवत-प्रेम का अर्थ है : जगत नहीं है, भगवान है! इसका मतलब समझते हैं अस्तित्व नहीं है, भगवान है। क्या मतलब हुआ इसका मतलब हुआ कि हम पूरे अस्तित्व को व्यक्तित्व दे रहे हैं। हम पूरे अस्तित्व को कह रहे हैं कि तू भी है। हम तुझसे बात भी कर सकते हैं।  इसलिए- भक्त भक्त का अर्थ है : जगत को जिसने व्यक्तित्व दिया! भक्त का अर्थ है : जगत को जिसने भगवान कहा! भक्त का अर्थ है : ऐसा प्रेम से भरा हुआ हृदय जो इस पूरे अस्तित्व से एक व्यक्ति की तरह व्यवहार करता है। सुबह उठता है तो सूरज को हाथ जोड़कर नमस्कार करता है- सूरज को! नासमझ नहीं कर रहे हैं हालांकि बहुत से नासमझ नमस्कार कर रहे हैं! लेकिन जिन्होंने शुरू किया था वे नासमझ नहीं थे। सूरज को नमस्कार उस आदमी ने किया था जिसने सारे अस्तित्व को व्यक्तित्व दे दिया था। फिर सूरज का भी व्यक्तित्व था।  तो हमने कहा, सूर्य देवता है- रथ पर सवार है, घोड़ों पर जुता हुआ है, दौड़ता आकाश में है। सुबह होती जागता, सांझ होती अस्त होता है। ये बातें वैज्ञानिक नहीं हैं। ये बातें धार्मिक हैं। ये बातें पदार्थगत नहीं हैं, ये बातें आत्मगत हैं।
नदियों को नमस्कार किया, व्यक्तित्व दे दिया! वृक्षों को नमस्कार किया, व्यक्तित्व दे दिया! सारे जगत को व्यक्तित्व दे दिया, कहा कि तुममें भी व्यक्तित्व है।  आज भी आप कभी किसी पीपल के पास नमस्कार करके गुजर जाते हैं, लेकिन आपने ख्याल नहीं किया होगा कि जो आदमी आदमियों से वस्तु-जैसा व्यवहार करता है उसका पीपल को नमस्कार करना एकदम सरासर झूठ है। पीपल को तो वही नमस्कार कर सकता है जो जानता है कि पीपल भी व्यक्ति है। वह भी परमात्मा का हिस्सा है। उसके पत्ते-पत्ते में भी उसी की छाप है। कंकड़-कंकड़ में भी उसी की पहचान है। जगह-जगह वही है, अनेक-अनेक रूपों में- चेहरे होंगे भिन्न! वह जो भीतर छिपा है वह भिन्न नहीं है। आंखें होंगी अनेक, लेकिन जो झांकता है उससे वह एक है। हाथ होंगे अनंत, लेकिन जो स्पर्श करता है उनसे, वह वही है।  गदर के समय, अठारह सौ सत्तावन में एक संन्यासी, जो पंद्रह वर्ष से मौन था, नग्न रात में गुजर रहा था। चांदनी रात थी, चांद था आकाश में, वह नाच रहा था, गीत गा रहा था। धन्यवाद दे रहा था चांद को। उसे पता नहीं था कि उसकी मौत करीब है। नाचते हुए वह निकल गया नदी की तरफ। बीच में अंग्रेज फौज का पड़ाव था।
फौजियों ने समझा कि यह कोई जासूस मालूम पड़ता है। तरकीब निकाली है इसने कि नग्न होकर फौजी पड़ाव से गुजर रहा है। उन्होंने पकड़ लिया।  और जब उससे पूछताछ की और वह नहीं बोला तब शक और भी पक्का हो गया कि वह जासूस है। बोलता क्यों नहीं हंसता है, मुस्कुराता है, नाचता है- बोलता नहीं मैंने इसलिए कहा गीत गाता हुआ कि वाणी से नहीं, ऐसे भी गीत हैं जो प्राणों से गाए जाते हैं- ऐसे भी गीत हैं जो शून्य में उठते और शून्य में ही खो जाते हैं। वह तो मौन था, शींद से तो चुप था, पर गीत गाता हुआ, नाचता हुआ, अपने समग्र अस्तित्व से, पूर्णिमा के चांद को धन्यवाद दे रहा था।  सिपाहियों ने कहा, बोलता क्यों नहीं मुस्कुराता है, बेईमान है, जासूस है। उन्होंने भाला उसकी छाती में भोंक दिया। उस संन्यासी ने संकल्प लिया था कि एक ही शींद बोलूंगा, आखिरी, अंतिम और मृत्यु के द्वार पर। इस जगत से पार होते हुए धन्यवाद का एक शींद बोलूंगा इस पार- बोलकर विदा हो जाऊंगा। कठिन पड़ा होगा उसको कि क्या शींद बोले!  छाती में घुस गया भाला, खून के फव्वारे बरसने लगे। वह जो नाचता था, मरने के करीब पहुंच गया। उस संन्यासी ने कहा ‘तत्वमसि श्वेतकेतु’! - उपनिषद का महावाक्य! उसने कहा, श्वेतकेतु, तू भी वही है- ‘दैट आर्ट दाऊ’- तू भी वही है! नहीं समझे होंगे वे अंग्रेज सिपाही, लेकिन उस अंग्रेज सिपाही से जिसने उसकी छाती में भाला भोंका, उसने कहा, तू भी वही है!  इस खिड़की में से भी वह उसी को देख पाया।
इस भाला भोंकती हुई खिड़की में से भी उसी का दर्शन हुआ। भगवत-प्रेम को उपलींध हुआ होगा तभी ऐसा हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता।  भगवत-प्रेम का अर्थ है : सारा जगत व्यक्ति है। व्यक्तित्व है जगत के पास अपना, उससे बात की जा सकती है। इसलिए भक्त बोल लेता है उससे। मीरा पागल मालूम पड़ती है दूसरों को, क्योंकि वह बातें कर रही है कृष्ण से। हमें पागल मालूम पड़ेगी क्योंकि हमारे लिए तो वस्तुओं के अतिरिक्त जगत में और कुछ भी नहीं है। व्यक्ति भी नहीं है तो परम व्यक्ति कैसे होगा लेकिन मीरा बातें कर रही है उससे। सूरदास उसका हाथ पकड़कर चल रहे हैं- आदान-प्रदान हो रहा है, ‘डायलॉग’ है, चर्चा होती है, प्रश्न-उत्तर हो जाते हैं। पूछा जाता है और प्रतिसंवाद हो जाता है।  जब जीसस सूली पर लटके और उन्होंने ऊपर आंख उठाकर कहा- ‘हे प्रभु, माफ कर देना इन सबको क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं!’ तब यह आकाश से नहीं कहा होगा। आकाश से कोई बोलता है यह आकाश में उड़ते पक्षियों से नहीं कहा होगा! पक्षियों से कोई बोलता है भीड़ खड़ी थी नीचे, उसने भी आकाश की तरफ देखा होगा लेकिन आकाश में चलती हुई सफेद बदलियों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा होगा। नीला आकाश खाली और शून्य- लोग हंसे होंगे मन में कि पागल है! लेकिन जीसस के लिए सारा जगत प्रभु है। कह दिया कि क्षमा कर देना इन्हें क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं!  भगवत-प्रेम हो तो व्यक्ति और परम व्यक्ति के बीच चर्चा हो पाती है, संवाद हो पाता है। आदान-प्रदान हो पाता है और उससे मधुर संवाद, उससे मीठा लेन-देन, उससे प्रेमपूर्ण व्यवहार और कोई भी नहीं है- प्रार्थना उसका नाम है, भगवत-प्रेम में वह घटित होती है।  भगवत-प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति इस लोक में भी आनंद को उपलींध होता है, उस लोक में भी। लेकिन संशय से भरा हुआ, भगवत-प्रेम से रिक्त, इस लोक में भी दुःख पाता है, उस लोक में भी। दुःख हमारा अपना अर्जन है- हमारी अपनी ‘आह्लह्लनग’ है।
दुःख पाना हमारी नियति नहीं, हमारी भूल है।  दुःख पाने के लिए हमारे अतिरिक्त और कोई उत्तरदायी नहीं, और कोई रिस्पोंसिबल नहीं है। दुःखी हैं तो कारण है कि संशय को जगह दे दी, दुःख हैं तो कारण है कि व्यक्ति को खोजा नहीं, परम व्यक्ति की तरफ गए नहीं। आनंदित जो होता है उसके ऊपर परमात्मा कोई विशेष कृपा नहीं करता है, वह केवल उपयोग कर लेता है जीवन के अवसर का, और प्रभु के प्रसाद से भर जाता है।  गड्ढे हैं, वर्षा होती है तो गड्ढों में पानी भर जाता है और झीलें बन जाती हैं। पर्वत शिखरों पर भी वर्षा होती है लेकिन पर्वत के शिखरों पर झील नहीं बनती, पानी नीचे बहकर गड्ढों में पहुंचकर झील बन जाता है। पर्वत शिखरों पर वर्षा होती है, लेकिन वे पहले से ही भरे हुए हैं। उनमें जगह नहीं है कि पानी भर जाए। झीलें खाली हैं इसलिए पानी भर जाता है।  जो व्यक्ति संशय से भरा है, भगवत-प्रेम से खाली है, उसके पास संशय का पहाड़ होता है। ध्यान रखें, बीमारियां अकेली नहीं आतीं, बीमारियां सदा समूह में आती हैं। बीमारियां भीड़ में आती हैं। ऐसा नहीं होता है कि किसी आदमी में एक संशय मिल जाए, जब संशय होता है तो अनेक संशय होते हैं।  संशय भीड़ में आते हैं। स्वास्थ्य अकेला आता है, बीमारियां भीड़ में आती हैं। श्रद्धा अकेली आती है, संशय बहुवचन में आते हैं। संशय से भरा हुआ आदमी पहाड़ बन जाता है। उस पर भी प्रभु का प्रसाद बरसता है लेकिन भर नहीं पाता। संशय-मुक्त झील बन जाता है- गड्ढा, खाली, शून्य! प्रभु के प्रसाद को ग्रहण करने के लिए गर्भ बन जाता है, स्वीकार कर लेता है।
इसलिए ध्यान रखें, निरंतर भक्तों ने अगर भगवान को प्रेमी की तरह माना तो उसका कारण है। अगर भक्त इस सीमा तक चले गए कि अपने को स्त्रैण भी मान लिया और प्रभु को पति भी मान लिया तो उसका भी कारण है। और वह कारण है, गड्ढा बनना है, ग्राहक बनना है, रिसेप्टिव बनना है। स्त्री ग्राहक है, रिसेप्टिव है, गर्भ बनती है, स्वीकार करती है। नए को अपने भीतर जन्म देती है, बढ़ाती है।  अगर भक्तों को ऐसा लगा कि वे प्रेमिकाएं बन जाएं प्रभु की तो उसका कारण है कि वे गड्ढे बन जाए, प्रभु उनमें भर जाए! जो अहंकार के शिखर हैं वे खाली रह जाते हैं और जो विनम्रता के गड्ढे हैं वे भर जाते हैं। प्रभु का प्रसाद प्रतिपल बरस रहा है। उसके प्रसाद की उपलिंध आनंद है! उसके प्रसाद से वंचित रह जाना संताप है, दुःख है!

ओशो

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुंदर चयन किया है मगर ये प्रवचन कहा से लिया गया है वह भी बताने की जरूरत थी
    धन्यवाद ओशो नमन

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