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मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

नये समाज का जन्म-(प्रवचन-02)

नये समाज की खोज-(प्रवचन-दूसरा)

सुख की नींव पर

मेरे प्रिय आत्मन्!
"नये समाज की खोज,' इस संबंध में तीसरे सूत्र के बाबत पहले कुछ कहूंगा। पीछे आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा।
आज तक मनुष्य-जाति क्षणिक का विरोध करती रही है और शाश्वत को आमंत्रण देती रही है, क्षुद्र का विरोध करती रही है और विराट को पुकारती रही है। और जीवन का आश्चर्य यह है कि जो विराट है वह क्षुद्र में मौजूद है और जो शाश्वत है वह क्षणिक में निवास करता है। क्षणिक के विरोध ने क्षणिक को भी नष्ट कर दिया है और शाश्वत को भी निकट नहीं आने दिया है।
अमेजान नदी का नाम आपने सुना होगा, दुनिया की सबसे बड़ी नदी है, सबसे ज्यादा जलराशि है। लेकिन जहां से अमेजान निकलती है अगर वहां आप खड़े हो जाएं तो विश्वास न आएगा कि इस जगह से अमेजान निकलती होगी! जहां से अमेजान निकलती है वहां एक-एक बूंद पानी टपकता है पहाड़ी से। और एक-एक बूंद भी सतत नहीं टपकता। एक बूंद गिरती है, फिर बीस सेकेंड लगते हैं दूसरी बूंद के गिरने में। बीस सेकेंड के फासले पर फिर दूसरी बूंद गिरती है।
इस जरा सी खंदक में टपकते इस पानी को देख कर कोई सोच भी नहीं सकता कि विराट अमेजान का यह मूल स्रोत है। और कोई बुद्धिमान पहुंच जाए तो कहेगा--बंद करो यह पानी का टपकना! इससे कहीं सागर बना है! लेकिन सब सागर बूंद-बूंद से बनते हैं।
लेकिन पुराने आदमी ने एक धारणा बना ली थी--और धारणा तर्कयुक्त मालूम पड़ती थी--कि अगर शाश्वत को, स्थायी को खोजना है, तो क्षणिक को छोड़ दो। क्षणिक सुख की दुश्मनी, ताकि हमें वह मिल सके जो शाश्वत है। क्षणिक खो गया, शाश्वत मिला नहीं, और मनुष्य की जिंदगी निरंतर दुख बन गई।
नये मनुष्य का सुख क्षणिक, क्षुद्रतम में भी विराट के, शाश्वत के दर्शन से शुरू हो सकता है। शाश्वत सुख नहीं है, सुख तो सब क्षणिक है। लेकिन जो क्षणिक सुख को जीने की कला सीख जाता है वह शाश्वत सुख में प्रवेश पा जाता है। जो प्रतिपल सुख में जीने की कला सीख जाता है वह धीरे-धीरे सुख की धारा और संगीत में बहने लगता है।
लेकिन हमने जो तर्क ईजाद किया था उसने हमें दुख में डुबा दिया है। एक-एक चीज की निंदा कर डाली। सब इंद्रियों की निंदा कर दी। शरीर की निंदा की, भोजन की, वस्त्रों की, प्रेम की, मित्रता की, परिवार की, सबकी निंदा की। उस सबकी निंदा के बाद रूखा-सूखा आदमी शेष रह गया, जिसकी जिंदगी में कभी भी आनंद की कोई वर्षा नहीं होती। और इस आदमी को हमने नींव बनाया था समाज की। इस समाज और यह नींव एक ऐसी दुनिया बना दिए जो दुख से भरी है, जिसमें सुख की कोई खबर नहीं है।
आज तक का समाज दुख से भरा हुआ समाज है, उसकी ईंट ही दुख की है, उसकी बुनियाद ही दुख की है। और जब दुखी समाज होगा तो समाज में हिंसा होगी, क्योंकि दुखी आदमी हिंसा करेगा। और जब समाज दुखी होगा और जीवन दुखी होगा तो आदमी क्रोधी होगा, दुखी आदमी क्रोध करेगा। और जब जिंदगी उदास होगी, दुखी होगी, तो युद्ध होंगे, संघर्ष होंगे, घृणा होगी। दुख सब चीज का मूल उदगम है।
यदि नये समाज को जन्म देना हो तो दुख की ईंटों को हटा कर सुख की ईंटें रखनी जरूरी हैं। और वे ईंटें तभी रखी जा सकती हैं जब हम जीवन के सब सुखों को सहज स्वीकार कर लें और सब सुखों को सहज निमंत्रण दे सकें।
निश्चित ही, बूंद-बूंद सुख आते हैं; इकट्ठा सुख नहीं बरसता है। इकट्ठा पानी भी नहीं बरसता है; बूंद-बूंद सब बरस रहा है। उस बूंद-बूंद को स्वीकार कर लेना पड़ेगा। क्षण ही हमारे हाथ में आता है। एक क्षण से ज्यादा किसी के हाथ में नहीं है। उस क्षण में ही जीना है, उस क्षण में ही सुख को पूरा का पूरा पी लेना है। उस क्षण को खाली रिक्त जो छोड़ देगा और प्रतीक्षा करेगा कि शाश्वत को पाएंगे हम--क्षण भी छूट जाएगा, शाश्वत भी नहीं मिलेगा। क्षण को पीने की कला, सुख-सृजन की कला है।
और हम सब क्षण-विरोधी हैं।
मैं एक संन्यासी के साथ एक बगीचे से गुजरता था। सुबह थी, और गुलाब के फूल खिल गए थे, और अभी उनकी पंखुड़ियों पर ओस की बूंदें चमकती थीं। मैंने उन संन्यासी को कहा, देखते हैं, फूल बहुत सुंदर हैं। उन्होंने कहा, क्या सौंदर्य है! अभी देर नहीं, थोड़ी देर में सब कुम्हला जाएंगी पंखुड़ियां और गिर जाएंगी। हम तो उस सौंदर्य के खोजी हैं जो कभी न मुरझाए।
उनकी लालसा तो बड़ी है। कभी न मुरझाने वाले फूल मिल सकते हैं--पत्थर के बनाने पड़ें! वैसे पत्थर के भी मुरझा जाएंगे। कभी न मुरझाने वाला सौंदर्य कहां है? कभी न मुरझाने वाला सुख कहां है? कभी न मुरझाने वाला प्रेम कहां है?
इस जगत में तो जो भी खिलता है सुबह वह शाम मुरझा जाता है। लेकिन हमने इसे इनकार कर दिया, हम इस फूल को न देखेंगे, हम उस फूल की तलाश में हैं जो कभी न मुरझाता हो। वह फूल कहीं भी नहीं है और इस फूल से हमने पीठ फेर ली। हमारी जिंदगी से फूल विदा हो गए, खुशी विदा हो गई, सौंदर्य विदा हो गया। और जब जिंदगी से खुशी और सौंदर्य और फूल विदा हो जाएं, तो ध्यान रखें, कांटे ही शेष रह जाते हैं, दुख ही शेष रह जाते हैं, आंसू ही शेष रह जाते हैं।
आदमी सुखी हो सकता है अगर वह प्रतिपल, जो उसे मिल रहा है, उसे पूरे अनुग्रह से और पूरे आनंद से आलिंगन कर ले। सांझ फूल मुरझाएगा, अभी तो फूल जिंदा है! सांझ की चिंता अभी से क्या? जब तक फूल जिंदा है तब तक उसके सौंदर्य को जीया जा सकता है। और जिस व्यक्ति ने जिंदा फूल के सौंदर्य को जी लिया, वह जब फूल मुरझाता है और गिरता है, तब वह दिन भर के सौंदर्य से इतना भर जाता है कि फूल की संध्या और गिरती हुई पंखुड़ियां भी फिर उसे सुंदर मालूम पड़ती हैं। आंख में सौंदर्य भर जाए तो पंखुड़ियों का गिरना पंखुड़ियों के खिलने से कम सुंदर नहीं है। और आंख में सौंदर्य भर जाए तो बचपन से ज्यादा सौंदर्य बुढ़ापे का है।
रवींद्रनाथ कहते थे कि जैसे पर्वत के शिखरों पर शुद्ध बर्फ जम जाती है, हिमालय पर हिम-शिखर जम जाते हैं, ऐसे ही जब कोई व्यक्ति सच में ही जीवन के सारे आनंदों को आत्मसात करके बूढ़ा होता है तो उसके शुभ्र बालों में भी जीवन भर का सौंदर्य हिम-शिखर की भांति दिखाई पड़ने लगता है।
लेकिन जीवन भर दुख से गुजरता हो तो सांझ भी कुरूप हो जाती है। सांझ कुरूप हो ही जाएगी, वह जिंदगी भर का जोड़ है।
मैं समझ पाता हूं कि अगर एक नया मनुष्य पैदा करना है--जो कि नये समाज के लिए जरूरी है--तो हमें क्षण में सुख लेने की क्षमता और क्षण में सुख लेने का आदर और अनुग्रह और ग्रेटीटयूड पैदा करना पड़ेगा। हमें यह कहना बंद कर देना पड़ेगा कि सांझ फूल मुरझा जाएगा। सांझ तो सब मुरझा जाएंगे। सांझ तो आएगी, लेकिन सांझ का अपना सौंदर्य है, सुबह का अपना सौंदर्य है और सुबह के सौंदर्य को सांझ के सौंदर्य से तुलना करने की भी कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी का अपना सौंदर्य है, मृत्यु का अपना सौंदर्य है। दीये के जलने का अपना सौंदर्य है, दीये के बुझ जाने का अपना सौंदर्य है। चांद की रात ही सुंदर नहीं होती, अंधेरी अमावस की रात का भी अपना सौंदर्य है। और जो देखने में समर्थ हो जाता है वह सब चीजों से सौंदर्य और सब चीजों से सुख पाना शुरू कर देता है।
लेकिन यह क्यों भूल हो गई कि आदमी इतना उदास और दुखी क्यों हमने निर्मित किया?
यह भूल इसलिए हो गई कि हम शरीर के शत्रु हैं। सारी मनुष्यता अब तक शरीर की दुश्मन रही है। इंद्रियों के दुश्मन हैं। और इंद्रियां द्वार हैं जीवन के। इंद्रियों की दुश्मनी की जरूरत नहीं है। इंद्रियों की गुलामी न हो, इतना ही काफी है। इंद्रियों की मालकियत बहुत है। लेकिन इंद्रियों की मालकियत के लिए इंद्रियों से दुश्मनी करने की कोई जरूरत नहीं है।
सच तो यह है कि जिसके हम दुश्मन हो जाएं उसके हम मालिक कभी भी नहीं हो पाते। मालिक तो हम सिर्फ उसी के हो पाते हैं जिसे हम प्रेम करते हैं।
इंद्रियों और शरीर की दुश्मनी के कारण एक द्वैत आदमी में हमने पैदा किया है। हमने बताया है कि शरीर कुछ और, इंद्रियां कुछ और, तुम कुछ और; और तुम्हारे और शरीर के बीच सतत दुश्मनी है, लड़ाई है। अब हम अपने ही द्वार-दरवाजों से लड़ रहे हैं। जैसे कोई आदमी एक घर में रहता हो, और अपनी खिड़कियों का दुश्मन हो जाए, अपने दरवाजों का दुश्मन हो जाए, और खिड़कियों और अपने बीच दुश्मनी मान ले। तो जो खिड़कियां खुलती हैं आकाश की तरफ, वह उनसे फिर कभी झांकेगा नहीं।
उन्हीं खिड़कियों में सूरज भी उगेगा, उन्हें खिड़कियों में कभी कोई पक्षी बैठ कर गीत गाएगा, उन्हीं खिड़कियों में कभी सांझ होगी, उन्हीं खिड़कियों में कभी चांद आकर झांकेगा। लेकिन वह आदमी जो अपनी खिड़कियों का दुश्मन हो गया, वह कैसे उन खिड़कियों से झांकेगा? वह द्वार बंद कर देगा। वे ही द्वार बंद कर देगा जिनसे ताजी हवाएं भीतर आएंगी, गंदी हवाएं बाहर जाएंगी, वह उन द्वारों को बंद कर देगा, खिड़कियों का दुश्मन हो जाएगा। उसका घर उसकी कब्र हो जाएगी।
हमने अपने शरीर को अपनी कब्र बना दिया है। हमारा शरीर हमारा घर नहीं रह गया। पिछले पांच-सात हजार वर्षों के ज्ञात इतिहास में आदमी ने अपने ही शरीर से लड़ने के सिवाय कुछ भी नहीं किया है।
शरीर को द्वार बनाना है। आंख अदभुत खिड़की है, कान भी अदभुत खिड़कियां हैं, उनसे दुश्मनी लेने, इंद्रियों से दुश्मनी लेने की बात ही नासमझी की बात है। इससे ज्यादा आत्मघाती, सुसाइडल कोई बात नहीं हो सकती कि हम अपनी इंद्रियों के दुश्मन हो जाएं। लेकिन हमें इतनी बार यह बात कही गई है कि हम धीरे-धीरे, धीरे-धीरे इस बात को स्वीकार ही कर लिए हैं। अगर कोई कहे एंद्रिक-सुख, तो हम कहेंगे: गया-गुजरा आदमी है, इंद्रियों के सुख ले रहा है!
इंद्रियां तो सिर्फ खिड़कियां हैं। सुख तो सब परमात्मा का है--चाहे एक फूल से आता हो, चाहे हवा के झोंके से आता हो, चाहे चांद से आता हो, चाहे समुद्र की लहर से आता हो, चाहे किन्हीं दो सुंदर आंखों से आता हो, चाहे किसी सुंदर शरीर से आता हो--जहां से भी आता है, सुख तो सब परमात्मा का है। लेकिन हमारे पास द्वार तो इंद्रियों के हैं। इन द्वारों का उपयोग या इन द्वारों की दुश्मनी?
अगर इनकी दुश्मनी की तो हम बंद हो जाएंगे अपने भीतर, मर जाएंगे भीतर, सड़ जाएंगे भीतर। आदमी मर गया और सड़ गया, वह सब तरफ से डरा हुआ है, उसने सब खिड़की-द्वार बंद कर लिए हैं।
सूरदास ने आंखें फोड़ ली थीं अपनी। वे बड़े प्रतिनिधि आदमी थे, जिसको रिप्रेजेंटेटिव माइंड कहें। उन्होंने अपनी आंखें इसलिए फोड़ ली थीं कि आंखों से सुंदर स्त्रियां दिखाई पड़ जाती थीं। कहीं सुंदर स्त्रियां आकर्षित न कर लें, तो उन्होंने अपनी आंखें फोड़ ली थीं। सूरदास हमारे प्रतिनिधि हैं। हम सबने भी आंखें फोड़ ली हैं, कान फोड़ लिए हैं, सब इंद्रियां तोड़ ली हैं। हमने नहीं तोड़ ली हैं, लेकिन हमने सब झुका लिए हैं, सब इंद्रियों के दरवाजे बंद कर लिए हैं। सब तरफ से हम डर गए हैं, भयभीत हो गए हैं कि इंद्रियां कहीं वहां न ले जाएं जहां...कहीं गङ्ढे में न गिरा दें।
आंखें गङ्ढे में नहीं गिरातीं, अंधा भर गिर सकता है गङ्ढे में। आंखें तो बताती हैं कि यह गङ्ढा है और यह रास्ता है। और आंखें अगर कहती हैं कि सुंदर है चेहरा, तो आंखें यह नहीं कहती हैं कि जाकर इस चेहरे को अपने घर में बंद कर लो। आंखें तो सिर्फ खबर देती हैं कि यह रहा फूल, यह रहा कांटा।
आंखें फोड़ने से क्या होगा? और अगर कोई आंखें फोड़ ले तो क्या आप सोचते हैं कि उसके मन में वासनाएं नहीं उठेंगी?
वासनाएं बहुत अलग बात हैं। इंद्रियों से वासनाओं का क्या लेना-देना है! वासनाएं मन की हैं, इंद्रियां तो सिर्फ खबरें देती हैं। इंद्रियां तो सिर्फ रिसेप्टिव हैं, वे तो ग्राहक हैं, वे तो चारों तरफ जो है उसकी खबर ले आती हैं। इंद्रियां कुछ भी नहीं कहतीं कि क्या करो, करने की बात तो मन की है। मन को बदलना है, वह तो बात दूसरी है। इंद्रियों को तोड़ने में आदमी लगा है। इंद्रियों को तोड़ने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। आंखें फोड़ लें तो सुंदर स्त्रियां भीतर अंधी आंखों में भी मौजूद हो जाएंगी। रात सपने में मौजूद हो जाती हैं, आंखें खुली होने की कोई बहुत जरूरत नहीं है।
मैंने सुना है, एक फकीर एक नदी के किनारे से पार होता था। एक बूढ़ा फकीर उसके साथ था, वे दोनों नदी पार करने के करीब थे। बूढ़ा फकीर आगे था। एक युवती ने उस बूढ़े फकीर से कहा कि मैं बहुत डर गई हूं, नदी बहुत गहरी है, मुझे उस पार जाना है, मुझे उस पार पहुंचा दो। उस बूढ़े फकीर को एक दफे खयाल आया कि अच्छा! लेकिन जैसे ही उसे खयाल आया अच्छा--यह मन में ही उसने कहा था--जैसे ही उसे खयाल आया कि लड़की का हाथ पकड़ कर नदी पार करा दूं, उसके सारे मन में विष घुल गया। बीस साल से उसने स्त्री को नहीं छुआ था। जैसे ही खयाल आया कि हाथ पकड़ कर नदी पार करवा दूं, वैसे ही उसके मन में सारी वासना जग गई। उसने अपने को झिड़का कि मैंने कैसे पाप की बात सोची! उसने सिर नीचे झुका लिया। उस लड़की ने बहुत कहा, आप उत्तर नहीं देते हैं? फिर उसने उत्तर भी नहीं दिया। क्योंकि बोलना भी खतरनाक है, वाणी भी कान में चली जाए उसके और मन में रस घुल जाए! तो फिर वह आंख बंद करके, आंख झुका कर नदी पार हो गया तेजी से।
नदी तो पार हो रहा है, लेकिन मन उसका इसी पार रह गया। तभी उसे खयाल आया कि उसका एक युवा साथी भी पीछे आ रहा है, कहीं वह भी इसी गलती में न पड़ जाए। उस पार पहुंच कर उसने लौट कर देखा। हालांकि वह अपने साथी को देख रहा था, लेकिन बहुत गहरे में उसका मन उस लड़की को ही देख रहा था। वह लड़की को देखने का बहाना खोज रहा था।
लेकिन जब उसने पीछे लौट कर देखा तो बहुत घबरा गया। वह युवा साथी उस लड़की को कंधे पर बिठा कर नदी पार करवा रहा था। तब तो आग लग गई। आग दोहरी थी। बहुत गहरे में तो यह आग लगी कि मैं चूक गया; मैं भी कंधे पर बिठा सकता था--बहुत गहरे में।
सभी संन्यासियों के बहुत गहरे में वैसी आग पकड़ती है। इसलिए तो वे गृहस्थों पर बहुत नाराज रहते हैं कि जिनको तुम कंधों पर बिठाए हो, हम नहीं बिठा पाए। इसलिए तो वे गृहस्थों को नरक भेजने के लिए दिन-रात घोषणाएं करते रहते हैं। वे बदला ले रहे हैं कि तुम यहां स्वर्ग में हो, तो हमको कम से कम मरने के बाद स्वर्ग में होने दो।
वह उसकी प्रतिक्रिया है। भीतर तो उसके मन में यह हुआ है, लेकिन तत्काल--आदमी कितना डिसेप्टिव, कितना वंचक है--भीतर तो मन में यह हुआ कि यह उसे कंधे पर बिठाए है, मैं भी बिठा सकता था; पता नहीं कौन सा आनंद इसे उपलब्ध हो रहा होगा! लेकिन तत्काल बात बदल गई और जैसे ही वह युवक करीब आया, क्रोध भर गया उसकी आंखों में और उपदेश आ गया। युवक ने लड़की को उतार दिया। फिर वे दोनों चल पड़े आश्रम की तरफ।
दो मील चलने के बाद, सीढ़ियां जब चढ़ते थे आश्रम की, तब उस बूढ़े ने लौट कर कहा कि यह ठीक नहीं हुआ, यह पाप है! तुमने उस लड़की को कंधे पर क्यों बिठाया? मैं, गुरु से जाकर मुझे कहना पड़ेगा, संन्यासी के जीवन का उल्लंघन हुआ है, स्त्री को छूने की मनाही है। छूने की मनाही है और तुमने कंधे पर बिठाया? उस युवक ने चौंक कर सुना! उसने कहा, क्या कह रहे हैं आप! मैं उस लड़की को पीछे उतार भी आया, आप अभी भी कंधे पर लिए हुए हैं? बड़ी देर हो गई, काफी समय बीत गया, दो मील का रास्ता पार हो गया!
उस युवक ने ठीक कहा। मन इंद्रियां नहीं है और मन बड़ी और बात है। आंखें तो सिर्फ खबर देती हैं, मन उपयोग कर रहा है। शरीर तो केवल खबर लाता है, मन उपयोग कर रहा है। फिर मन कैसा उपयोग करता है, यह सवाल है। हम खबरें नहीं रोकना चाहते। हम खबरें रोक दें, इससे कोई फर्क न पड़ेगा। मन भीतर ही जाल बुनने लगेगा। मन भीतर ही कथाएं गढ़ने लगेगा। कितनी कहानियां मन गढ़ता है, कितने रूप बनाता है, कितनी वासनाओं को जगाता है, कितने सपने देखता है!
नहीं, इंद्रियों से लड़ाई करके भूल हो गई है। और ध्यान रहे, इंद्रियों से जो लड़ेगा उसकी सब इंद्रियां कमजोर हो जाएंगी। और जितनी इंद्रियां कमजोर हो जाएंगी उतना ही मन रोगग्रस्त हो जाएगा।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जितना स्वस्थ आदमी हो उतनी कम वासना होती है, जितना अस्वस्थ आदमी हो उतनी ही वासना बढ़ जाती है। खयाल शायद उलटा हो, खयाल उलटा रहा है। साधु-संन्यासी सोचते हैं कि शरीर को भोजन मत दो, कपड़े मत दो, शरीर को गलाओ, शरीर स्वस्थ न रहे, तो शायद वासना पर विजय हो जाएगी।
वासना पर विजय न होगी। जितना शरीर कमजोर होगा, जितनी शक्ति क्षीण होगी, मन उतना प्रबल हो जाएगा। कभी आपने खयाल किया है कि बीमारी के दिनों में वासना तीव्र हो जाती है। बुखार में, कभी कुछ दिन बुखार में भूखे पड़े रहे हों, खाना न खाया हो, वासना तीव्र हो जाती है। कभी आपने खयाल किया है कि जितना शरीर थकता है उतनी वासना तीव्र हो जाती है।
दुनिया भर में अमीर लोगों को बच्चे गोद लेना पड़ते हैं, मजदूरों को बच्चे गोद नहीं लेने पड़ते हैं। दिन भर थक जाते हैं, थक कर वासना तीव्र हो जाती है। गरीब आदमी ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं, अमीर आदमी बच्चा पैदा करने में मुश्किल में पड़ जाता है।
शरीर जितना थक जाता है उतनी वासना तीव्र हो जाती है, शरीर जितना कमजोर हो जाता है उतनी वासना तीव्र हो जाती है। जितना स्वस्थ आदमी होगा उतनी वासना कम होगी। और जितना स्वस्थ आदमी होगा उतना उसके पास बल होगा। जितना बल होगा, उतना मन को दिशाएं दी जा सकती हैं, रूपांतरण किया जा सकता है, ट्रांसफार्मेशन किया जा सकता है।
लेकिन क्षीणता और कमजोरी से कई बार धोखा पैदा हो जाता है। अत्यंत कमजोरी, इतनी कमजोरी हो कि हम कुछ भी न कर सकते हों, तो ऐसा लगता है कि जिंदगी बदल गई है।
तो इंद्रियों को कमजोर करने की एक लंबी यात्रा चल रही है हजारों साल से। उसके परिणाम बहुत घातक हुए हैं, उसके परिणाम इतने घातक हुए हैं कि हिसाब लगाना आज बहुत मुश्किल है, किसको जिम्मेवार ठहराएं? उसमें सब हमारे साधु-संत और महात्मा जिम्मेवार ठहरते हैं। आदमी की सारी इंद्रियां कमजोर हो गई हैं। और जब इंद्रियां कमजोर हो गई हैं तो जीवन से इंद्रियों के द्वार से जो रस आते थे वे भी सब कमजोर हो गए हैं। जीवन से जो रस उसे मिलते थे, जो खबरें मिलती थीं, वे भी कमजोर हो गईं।
क्या आपको पता है, जब आप देखते हैं एक सड़क पर वृक्षों को, तो आपको सिर्फ हरे वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। एक चित्रकार भी देखता है, आपके ही जैसी आंखें हैं, लेकिन उसकी आंखें हरे रंग में भी हजार शेड देखती हैं। हरा रंग भी हजार प्रकार का हरा रंग होता है। आप भी सुनते हैं कानों से, लेकिन जब एक वीणावादक सुनता है तो बात कुछ और होती है। बहुत बारीक और बहुत सूक्ष्म स्वरों के भेद भी उसकी पकड़ में आते हैं, वे हमारे कान की पकड़ में नहीं आते। और जब कोई व्यक्ति जो प्रेम करना जानता है किसी का हाथ हाथ में लेता है तो उसका हाथ भी कुछ कहता है। हमारे हाथ कुछ भी नहीं कहते। हम अगर किसी का हाथ भी हाथ में लें तो कुछ भी हाथ में नहीं आता, थोड़ी देर में पता चलता है कि पसीना आ गया। हाथ कोई खबर नहीं लाते हैं, न ले जाते हैं। हाथ बदतर हो गए हैं, वे बोथले हो गए हैं, उनकी संवेदनशीलता, सेंसिटिविटी मर गई है।
हमारा शरीर भी बहुत कम कुछ अनुभव कर पाता है। हजारों साल का विरोध है, हजारों साल का सप्रेशन है। सब इंद्रियां क्षीण हो गई हैं, सब शरीर क्षीण हो गया है, सब अनुभव करने की हमारी संवेदनशीलता कम हो गई है। न हम पूरा सुनते हैं, न हम पूरा स्वाद लेते हैं, न हम पूरी तरह देखते हैं, न हम पूरी तरह श्वास लेते हैं, न हम पूरी तरह जीते हैं, सब अधूरा हो गया है। अधूरा आदमी जैसे फांसी पर लटका हो; चारों तरफ से सब अधूरा है। और समझाने वाले हमें कहते हैं, भोजन करते समय स्वाद मत लेना, अस्वाद व्रत का पालन करना। वे कहते हैं, अस्वाद व्रत से भोजन करना।
अस्वाद व्रत से जो भोजन करेगा--स्वाद से जो परमात्मा आता था वह उसके पास फिर कभी नहीं आएगा। अगर अस्वाद व्रत से भोजन करना है तो फिर असौंदर्य व्रत से आंखों से देखना भी पड़ेगा। हालांकि अभी तक महात्माओं ने उसको विकसित नहीं किया है--असौंदर्य व्रत! आंख से ऐसे देखना कि सुंदर न दिखाई पड़े! क्योंकि जैसे स्वाद जीभ का रस है वैसे ही सौंदर्य आंख का रस है। फिर सुगंध मत लेना, फूल के पास जाओ--असुगंध व्रत का पालन करना। किसी को गले लगाओ तो अप्रेम व्रत का पालन करना। हड्डियां ही लगें, और कुछ न लग पाए, भीतर का कुछ भी न छू सके।
ये इन सारे व्रतों ने, इन सारे नियमों ने आदमी को सब तरफ से सिकोड़ दिया। उसके फैलाव बंद हो गए। आदमी एक फैलाव न रहा, एक संकोच हो गया। यह संकोच बहुत दुखदायी है, यह संकोच बहुत ही उदास करने वाला है, यह संकोच बहुत ही घातक है।
इस घातक व्यक्तित्व को तोड़ना पड़ेगा, इस घातक व्यक्तित्व को विदा करना पड़ेगा। जिंदगी को उसके सारे रूपों में स्वीकार करना पड़ेगा और जिंदगी के सारे रसों को, और सारे सौंदर्यों को, और सारे संगीत को, और सारी सुगंधों को, और सारे स्वादों को लेना पड़ेगा। तब व्यक्तित्व में नृत्य का और संगीत का जन्म होता है। और तब सब चीजें परमात्मा की खबर लाती हैं।
बड़े मजे की बात यह है, इंद्रियां सिर्फ पदार्थ की ही खबर नहीं लातीं; वह तो इंद्रियां कमजोर हैं इसलिए पदार्थ की खबर लाती हैं; अगर इंद्रियां बहुत गहरे से देख सकें तो परमात्मा की खबर ले आती हैं। अगर मेरी आंखें सच में देख सकें सौंदर्य को तो सौंदर्य फिर चमड़ी का और शरीर का नहीं रह जाता, आंखें जितना गहरा देखती हैं उतना ही सौंदर्य आत्मा का होने लगता है। और जब आंखें पूरी तरह गहरा देखती हैं तो पत्थर नहीं रह जाता, भीतर से परमात्मा झांकने लगता है।
लेकिन हम इंद्रिय-विरोधी हैं, तो हमें पत्थर ही दिखाई पड़ता है, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। अगर परमात्मा को देखना है तो इतना गहरा देखना पड़ेगा, गहरे से गहरा, कि कुछ देखने को पीछे शेष न रह जाए। कभी हमने सोचा ही नहीं। आपने कभी रास्ते के किनारे पड़े हुए पत्थर को हाथ में उठा कर स्पर्श किया है? कभी नदी के किनारे बैठ कर रेत को हाथ में लेकर दो क्षण विश्राम से उसको स्पर्श किया है? नहीं किया है। कभी नदी के पानी को चुल्लू में भर कर दो क्षण आंख बंद करके उसे समझने की कोशिश की है? कभी किसी वृक्ष की पीड़ को छाती से लगा कर थोड़ी देर विश्राम किया है? वृक्ष भी कुछ कहता है? नहीं कहता है। चारों तरफ इतना विराट फैला हुआ है, यह चारों तरफ सब तरफ मौजूद है वही!
लेकिन हम तो आदमी का हाथ भी हाथ में लेने से भयभीत हो गए हैं। वृक्ष का हाथ कोई लेगा तो हम उसे पागल कहेंगे। अगर कोई वृक्ष को गले से लगाए हुए मिल जाएगा तो हम कहेंगे--दिमाग खराब हो गया। लेकिन वही आदमी अगर एक मंदिर में थाली लेकर घुमा रहा होगा, पूजा कर रहा होगा, तो हम कहेंगे--धार्मिक हो गया। और जिंदा परमात्मा चारों तरफ मौजूद है उससे वह कभी नहीं मिलता। उसने अपने परमात्मा बनाए हुए हैं। अपने ही हाथ से गढ़ कर बना लिए हैं। अपने ही गढ़े हुए परमात्माओं के सामने वह हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ है। और उसकी सारी इंद्रियां असमर्थ हो गई हैं, वह कुछ भी अनुभव करने में समर्थ नहीं रह गया है, उसने सारी ग्राहकता खो दी है, संवेदनशीलता खो दी है।
धार्मिक जीवन की बुनियाद है--संवेदनशीलता, सेंसिटिविटी। कौन कितना संवेदनशील है!
मैंने सुना है, एक फकीर के द्वार पर एक विचारक मिलने गया था। उसने जोर से दरवाजा खोला। किसी क्रोध में होगा। जब हम भी क्रोध में होते हैं तो जोर से दरवाजा खोलते हैं। जूते जोर से पटके। किसी नाराजगी में होगा। लोग अपनी कलम तक को गाली दे देते हैं। उसने जूते को भी गाली दे दी होगी। पटका जोर से जूता। भीतर गया और उस फकीर को नमस्कार किया। उस फकीर ने कहा, मैं तुम्हारा नमस्कार स्वीकार न करूंगा। पहले जाकर दरवाजे से क्षमा मांग आओ। और जूते से माफी मांगो। उस आदमी ने कहा, आप क्या कह रहे हैं? मैं और जूते से माफी मांगूं! क्या मुझे आपने पागल समझा है?
उस फकीर ने कहा, मैं तो नहीं समझा था, लेकिन तुमने जो किया है उससे समझ में आया कि तुम पागल हो। अगर जूते पर क्रोध कर सकते हो तो क्षमा क्यों नहीं मांग सकते? और अगर जूते पर क्रोध करते वक्त पागल नहीं थे तो क्षमा मांगते वक्त पागल कैसे हो जाओगे? दरवाजा तुमने कैसे खोला था, जैसे किसी दुश्मन को धक्का दे रहे होओ। माफी मांगो, अन्यथा मकान के बाहर हो जाओ!
वह आदमी उससे कुछ पूछने आया था। उसने कहा कि बड़ी दूर से आया हूं!
उसने कहा, कितने ही दूर से आए होओ, दरवाजा बहुत दूर नहीं है, चार कदम और चल लो, माफी मांग आओ! उस आदमी को बड़ी बेचैनी अनुभव हुई। आप होते तो आपको भी होती बेचैनी अनुभव। लेकिन वापस लौटना पड़ा। वह फकीर जिद्दी था। उसने कहा, हम कुछ कहेंगे ही नहीं! क्योंकि हम ऐसे मरे हुए आदमी से कुछ भी न कहेंगे, जिसको समझ में नहीं आता कि वह जूते और दरवाजे के साथ दर्ुव्यवहार करके आया है। हम बात ही न करेंगे तुमसे। जाना पड़ा, बहुत दूर से चल कर आया था। तो गया, जाकर दरवाजे से माफी मांगी।
फिर उस आदमी ने लिखा है कि पहले तो मैंने माफी मांगी तो मुझे लगा कि यह मैं क्या कर रहा हूं? लेकिन जिंदगी में यह मैंने कभी नहीं किया था, मैंने किसी आदमी से भी माफी नहीं मांगी थी; मैं माफी मांगना जानता ही नहीं था, मुझे पता ही नहीं था कि माफी भी इतनी शांति ला सकती है। और मैंने जब जूते की तरफ हाथ जोड़ कर सिर झुकाया--मैंने कभी किसी के पैर में सिर नहीं झुकाया था; और अपने ही जूते के सामने सिर झुकाएंगे, यह तो कभी सोचा भी न था--लेकिन जब मैंने सिर झुकाया तो मेरे सिर से जैसे कोई बड़ा बोझ उतर गया। बहुत बड़े आश्चर्य की बात यह हुई कि या तो वह फकीर पागल था या मैं पागल था, या पता नहीं उस दिन क्या हुआ, जब मैंने जूते से माफी मांगी तो मैंने पाया कि जूता और हो गया, बदल गया। और जब मैंने दरवाजे से हाथ से छूकर क्षमा मांगी कि माफ कर दो, भूल हो गई, नाराजगी में था, तो मुझे लगा कि दरवाजा कुछ और हो गया है, दरवाजा वही नहीं है।
हो भी नहीं सकता! हम क्या हैं, वही हमारे चारों तरफ का जीवन हो जाता है।
लेकिन हमने सब तरफ से अपने को सिकोड़ लिया है, तो हमारे चारों तरफ की संवेदनशीलता नष्ट हो गई है। क्षणिक-क्षणिक सुख लेना पड़ेगा इंद्रिय का भी। इंद्रिय से कोई दुश्मनी का कारण नहीं है। और जो इंद्रिय का सुख न ले पाएगा वह आत्मा का सुख तो लेगा ही कैसे? इंद्रिय तो बड़ा छोटा सा प्रारंभ है सुख का। जो उतना सा छोटा सुख नहीं ले सकता वह आत्मा का सुख लेगा? जिसे अभी भोजन का स्वाद नहीं आता, जिसे अभी फूल में सुगंध नहीं आती, उसे आत्मा का स्वाद और आत्मा की सुगंध आएगी? नहीं आ सकती है!
उमर खय्याम एक दिन सुबह बैठ कर शराब पी रहा था। उमर खय्याम दुनिया के बहुत थोड़े से उन लोगों में से है जिसने हमारी जिंदगी पर बड़े व्यंग्य कसे हैं। सब कहानियां हैं, पता नहीं वह पी रहा था कि नहीं पी रहा था। तो कहानी यह है कि वह अपने दरवाजे पर बैठ कर सुबह-सुबह शराब पी रहा था। गांव का मौलवी निकला, और जैसे कि मौलवी होते हैं, जैसे कि पंडित होते हैं, मौलवी ने बहुत घृणा और क्रोध से उमर खय्याम को देखा, निंदा के भाव से, और कहा कि नरक जाएगा!
उमर खय्याम ने कहा, जब जाऊंगा तब देख लूंगा; लेकिन आप अभी भी नरक में हैं। आएं, काफी है पीने के लिए, थोड़ा पी लें, थोड़ा शांति से बैठें।
उस आदमी ने कहा, क्या कहते हो मुझसे? तुम मौलवी से पीने को कहते हो?
उसने चारों तरफ देखा कि कोई यह न देख ले कि वह उमर खय्याम से बात कर रहा है। नहीं तो पता चल जाए कि उमर खय्याम से बात कर रहा है तो पता नहीं क्या बात कर रहा है।
उसने कहा, तुझे पागल मालूम नहीं है, खय्याम, छोड़ दे शराब! इस जिंदगी में कोई सुख न ले! शराब तो प्रतीक है इस जिंदगी में सुख का। कुछ सुख न ले इस जिंदगी में! तुझे पता नहीं है कि जो इस जिंदगी में सब सुख छोड़ देंगे, परमात्मा ने उन्हें स्वर्ग में सब सुख देने का इंतजाम किया हुआ है। वहां, वहां शराब के चश्मे बह रहे हैं बहिश्त में।
बहिश्त में शराब के चश्मे से मौलवी की जीभ में लार आ गई हो तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि जो यहां छोड़ता है वह वहां पाने के लिए बड़ा आतुर रहता है।
उमर खय्याम ने कहा, तुम्हारा परमात्मा बड़ा अजीब है! कहता है, यहां सुख मत लो और वहां हम ज्यादा सुख देंगे अगर यहां सुख छोड़ते हो। कैसा परमात्मा है! कैसा तर्क!
फिर उसने कहा कि होगा, मुझे पता नहीं तुम्हारे झरनों का। मुझे तो यह जो कुल्हड़ में सुख मिल रहा है, मैं इसको लेता हूं, जब झरना होगा तब देखेंगे।
फिर उसने चलते वक्त कहा, मौलवी, एक बात खयाल रखना--हमारी तो आदत रहेगी कुल्हड़ से सुख लेने की तो हम शायद झरने में भी थोड़ा-बहुत सुख ले लेंगे, अगर कभी कोई झरना हुआ। लेकिन तुम्हारी तो कोई आदत ही न होगी, कुल्हड़ से भी तुमने कभी न लिया, झरने से तुम कैसे लोगे? और तुम कुल्हड़ को इतनी निंदा से देख रहे हो, झरने के तो तुम बिलकुल दुश्मन हो जाओगे।
उमर ठीक कहता है। जिंदगी में क्षण-क्षण के कुल्हड़ में सुख आता है। जिंदगी में सब इंद्रियों के द्वार से सुख आपको खटखटाता है। लेकिन उसे इनकार कर देते हैं हम। हम उसे अस्वीकार कर देते हैं। हम अकड़ कर भीतर बैठ जाते हैं कि नहीं, हम यह सुख न लेंगे। इंद्रियों का सुख तो बुरा है, पाप है।
कोई सुख बुरा नहीं है, कोई सुख पाप नहीं है, सिर्फ दुख पाप है। क्यों मैं यह कहता हूं कि दुख पाप है? यह इसलिए कहता हूं कि जो दुख को अंगीकार कर लेता है वह दूसरों को दुख देने का आधार बन जाता है। अगर मैं दुखी हूं तो मैं दुख दूंगा, क्योंकि मैं वही दे सकता हूं जो मेरे पास है। और मैं अगर सुखी हूं तो मैं सुख दूंगा, क्योंकि मैं वही दे सकता हूं जो मेरे पास है। हम उसी को तो बांटते हैं जो हमारे पास है।
आदमी एक-दूसरे को दुख दे रहा है, क्योंकि हर आदमी दुखी है। दुखी आदमी दुख ही दे सकता है। समझाना फिजूल है दुखी आदमी को कि तुम दुख मत दो, वह दुख देगा ही! उसके पास दुख ही है! वह करेगा भी क्या, वह जब भी बांटेगा दुख बांटेगा। हो सकता है वह भी सोचता हो कि मैं सुख बांट रहा हूं, हो सकता है वह यह मानता भी हो कि मैं सुख दे रहा हूं। हो सकता है बेटा सोचता हो, मैं अपनी मां को सुख दे रहा हूं। लेकिन मां को दुख मिल रहा है। हो सकता है पति सोचता हो, मैं अपनी पत्नी को सुख दे रहा हूं। लेकिन पत्नी को दुख मिल रहा है। पत्नी सोचती है, मैं अपने पति की कितनी सेवा कर रही हूं, कितना सुख दे रही हूं। और पति की जान संकट में पड़ी हुई है। हम देते हुए मालूम पड़ते हैं सुख, लेकिन पहुंचता है दुख। क्योंकि दुख के सिवाय हमारे पास कुछ भी नहीं है।
दुखी होने के अतिरिक्त और कोई पाप नहीं है। क्योंकि फिर दुखी होने से और सारे पाप निकलेंगे, और सब तरफ दुख फैलता चला जाएगा। सुखी होने से बड़ा कोई पुण्य नहीं है। क्योंकि जो सुखी है उससे सुख की किरणें चारों तरफ बहनी शुरू हो जाती हैं। उसकी जिंदगी में चारों तरफ सुख के स्वर फैलने शुरू हो जाते हैं। अगर समाज को कभी भी दुख के जाल से मुक्त करना है तो हमें एक-एक व्यक्ति को वे आधार देने पड़ेंगे जो उसे भीतर से सुखी कर सकें, जो उसे भीतर से आनंदित कर सकें।
लेकिन हमने सिखाया है कि आनंद, आनंद इस पृथ्वी पर नहीं है। आनंद है मोक्ष में, आनंद है मरने के बाद। आनंद सदा मरने के बाद है। और दुख? दुख जीने के इस तरफ है और आनंद मरने के बाद है। तो जिंदगी में तो सिर्फ दुखी होना है। हमारी पुरानी सारी बातें यह समझा रही हैं लोगों को। वे उनसे कह रही हैं कि जिंदगी के साथ ऐसे व्यवहार करो जैसे किसी मुसाफिरखाने में, रेलवे के वेटिंगरूम में ठहरे हो। रेलवे का वेटिंगरूम देखा है हमारा? उसी में लोग बैठे हैं, थूक रहे हैं, वहीं वे नाक साफ कर रहे हैं, वहीं वे पान गिरा रहे हैं, वहीं वे मूंगफली के छिलके फेंक रहे हैं। और अगर उनसे कहो कि यह क्या कर रहे हो? तो वे कहते हैं, यह वेटिंगरूम है, यह विश्रामालय है। यहां कोई जिंदगी भर बैठे रहना है? अभी हमारी गाड़ी आएगी और हम चले जाएंगे। दूसरा भी यही कर रहा है, तीसरा भी यही कर रहा है। हजारों साल से जिंदगी को लोग सराय बता रहे हैं कि यह सराय है। इसके साथ सराय का व्यवहार करो, यहां कोई रहना थोड़े ही है। अभी गाड़ी आएगी और हम चले जाएंगे। तो फिर जब सराय के साथ हजारों साल ऐसा दर्ुव्यवहार होगा, तो वहां जिंदगी गंदी हो जाएगी, कुरूप हो जाएगी।
नहीं, चाहे एक दिन के लिए भी हम ठहरे हैं, तो भी जहां हम ठहरे हैं वह घर हो गया; चाहे एक क्षण के लिए हम ठहरे हों, तो भी जहां हम ठहरे हैं वह घर हो गया। सवाल उसके घर होने में नहीं है, सवाल हमारे ठहरने की वृत्ति में है। सवाल हमारे उस जगह एक क्षण भी हम रहे तो क्या फर्क है?
ब्लावट्स्की थी, वह हिंदुस्तान आई थी, तो वह गाड़ियों में सफर करती तो हमेशा खिड़की के पास बैठती। कई बार ऐसा हुआ कि खिड़की के पास जगह न मिलती तो वह यात्रियों से कहती, मुझे खिड़की के पास बैठ जाने दें। तो वे कहते कि क्या बात है? तो वह कहती, मुझे खिड़की से कुछ बाहर फेंकते रहना है। लोग हैरान होकर बैठ जाने देते। और वह एक झोला रखे रहती और कुछ बाहर फेंकती रहती। लोग उससे पूछते, यह क्या फेंक रही हो? तो वह कहती, मौसमी फूल के बीज हैं।
ट्रेन से, चलती हुई ट्रेन से मौसमी फूल के बीज फेंक रही है तो वह पागल औरत होनी चाहिए। लोग कहते, दिमाग खराब हो गया! यह कोई अपना घर है! चलती हुई ट्रेन से फूल के बीज किसलिए फेंक रही हो? और फिर तुम्हें दुबारा इस रास्ते से गुजरना है? तो वह कहती, शायद दुबारा इस रास्ते से गुजरना न हो। क्योंकि जिंदगी में एक ही रास्ते से दुबारा गुजरना कब होगा! शायद गुजरना न हो। तो लोग कहते, तुम पागल हो? फिर किसलिए फूल के बीज फेंक रही हो? वह कहती, वर्षा आने के करीब है, फूल खिल जाएंगे। पर वे लोग कहते, तुम तो देखने को न रहोगी! वह कहती, इससे क्या फर्क पड़ता है, कोई इस रास्ते से ट्रेन पर गुजरता रहेगा और फूल खिलता हुआ देखता रहेगा। मैं यह सोच कर भी बहुत आनंद से भर जाती हूं कि जब दुबारा इस रास्ते से कोई गुजरेगा तो फूल होंगे, सुगंध होगी। मैं शायद न भी गुजरूं। लेकिन जिस जगह से मैं थोड़ी देर को भी गुजरी वह मेरा घर हो गया। क्षण भर को, ट्रेन से! वह मेरा घर हो गया, वहां मैंने थोड़े से फूल गिरा दिए।
यह जिंदगी सुंदर हो सकती है, लेकिन इस जिंदगी के साथ घर का व्यवहार करना पड़ेगा। एक क्षण को ही सही, जहां हम हैं, वहां सुख, वहां संगीत, वहां आनंद की धुन बज जानी चाहिए। तो शायद मरने के बाद भी हम जहां होंगे तो हम इतना सुख साथ ले जाएंगे, वही सुख तो हमारा स्वर्ग बन सकेगा। लेकिन जिस आदमी ने इस पृथ्वी को नरक बनाने में सहयोग दिया है, ध्यान रहे, उसके लिए कोई स्वर्ग नहीं हो सकता। अगर कहीं हो, तो भी नहीं हो सकता। और यह भी ध्यान रहे कि अगर वह स्वर्ग में भी पहुंच जाएगा, तो बहुत जल्दी नरक बना लेगा, वह वहां स्वर्ग बचने नहीं देगा। कैसे बचने देगा!
मैंने सुना है कि एक बहुत अदभुत आदमी था--बर्क। वह स्वर्ग नहीं मानता था, नरक नहीं मानता था, परमात्मा नहीं मानता था, आत्मा नहीं मानता था। वह कहता था, और कोई जिंदगी नहीं, बस इतना ही काफी है। लेकिन बर्क बहुत अच्छा आदमी था।
एक पादरी लंदन में भाषण कर रहा था। और भाषण में उसने कहा कि जो लोग परमात्मा को मानते हैं और अच्छी जिंदगी जीते हैं, वे स्वर्ग जाएंगे। एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि आप बर्क के संबंध में जानते होंगे। बर्क अच्छा आदमी है, लेकिन परमात्मा को नहीं मानता। वह कहां जाएगा? वह पादरी मुश्किल में पड़ गया। क्योंकि उस पादरी ने कहा कि अगर वह यह--वह जानता है कि बर्क बहुत ही अच्छा आदमी है--अगर वह यह कहता है कि बर्क जैसा अच्छा आदमी भी नरक जाएगा, तो लोग क्या कहेंगे, इतना अच्छा आदमी और नरक! तब तो अच्छे होने का कोई मतलब न रहा। और अगर वह यह कहे कि बर्क स्वर्ग जाएगा, तो लोग कहेंगे, वह परमात्मा को नहीं मानता, आत्मा को नहीं मानता। तो परमात्मा-आत्मा को बिना माने भी कोई स्वर्ग जा सकता है!
तो उस पादरी ने कहा, माफ करो, तुमने मुझे झंझट में डाल दिया। मैं सात दिन बाद उत्तर दूंगा, सात दिन मुझे सोचने का समय चाहिए। उन लोगों ने कहा, आप इतने समझदार आदमी, आपको सात दिन चाहिए? उस पादरी ने कहा, अगर बर्क जैसा आदमी भगवान के सामने भी होगा तो उसको भी सात दिन लग जाएंगे सोचने-समझने में। यह आदमी तो इतना प्यारा है कि इसको होना तो चाहिए स्वर्ग में, लेकिन यह ईश्वर वगैरह को तो मानता नहीं, आत्मा को तो मानता नहीं, धर्म को मानता नहीं, स्वर्ग को भी मानता नहीं, इसको भेजना कहां है? मुझे सात दिन का वक्त दो, मैं कमजोर आदमी हूं।
सात दिन उसने बहुत सोचा, बहुत किताबें पलटीं, लेकिन कहीं उत्तर न मिला। क्या उत्तर मिले! वह घबरा गया। वह सातवें दिन चर्च का वक्त आ गया। वह चर्च पहुंच गया घंटा भर पहले कि वहीं हाथ जोड़ कर भगवान के सामने प्रार्थना करके और पूछ लूं कि क्या इरादे हैं, तुम्हीं बोल दो कि बर्क को कहां भेजें? हमने कभी सोचा भी न था कि हम पर यह जिम्मा आएगा, बर्क को भेजने का। बर्क को भेजना कहां है? यह जाएगा कहां?
जल्दी आ गया था घंटे भर, जाकर छत पर बैठ कर आंख बंद करके सोचने लगा, भगवान से पूछने लगा, पूछने लगा...। कोई उत्तर तो नहीं आया, लेकिन नींद लग गई। नींद में उसने एक सपना देखा। और सपने में उसने देखा कि वह ट्रेन में बैठा है। उसने पूछा कि यह ट्रेन कहां जा रही है? तो लोगों ने कहा, यह ट्रेन स्वर्ग की तरफ जा रही है। उसने कहा, यह भला हुआ। हम जरा पता लगा लें। क्योंकि पहले बर्क जैसे कुछ लोग और मर चुके हैं। सॉक्रेटीज मर चुका, वह ईश्वर को नहीं मानता। बुद्ध मर चुके, वे ईश्वर और आत्मा को नहीं मानते। महावीर मर चुके, वे ईश्वर को नहीं मानते। ये लोग कहां हैं? तो उसने कहा, बहुत ही अच्छा हुआ। यह ट्रेन बड़ी ठीक जगह जा रही है। हम वहीं पता लगा लें।
स्वर्ग जाकर देखा तो बड़ा हैरान हो गया। सोचा था स्वर्ग बहुत सुंदर होगा। लेकिन स्वर्ग बड़ा उजाड़ था। रास्ते ऊबड़-खाबड़ थे, जैसे कभी उनकी मरम्मत न हुई हो। वृक्षों पर फूल न थे। सब तरफ उदासी थी। कोई मिलता भी था तो ऐसा मरा-मराया दिखाई पड़ता था। उसने पूछा, यह स्वर्ग है? उन्होंने कहा, हां, यह स्वर्ग है। तो उसने पूछा, सुकरात है यहां? बुद्ध हैं यहां? महावीर हैं यहां? उन्होंने कहा कि नहीं भई, इनके नाम कभी यहां नहीं सुने गए। ये लोग यहां नहीं हैं। पर उसने कहा कि इतना उदास लग रहा है यह--इतना उदास, मरा हुआ!
वह भागा हुआ स्टेशन आया और उसने कहा कि नरक जाने की कोई गाड़ी मिल सकेगी? गाड़ी तैयार थी, वह नरक की गाड़ी में बैठ गया। उसने कहा, नरक में और पता लगा लें, क्योंकि दो ही तो जगह हैं। जैसे-जैसे नरक के पास पहुंचने लगा, तो बड़ी सुगंध की हवाएं बहने लगीं। वह बड़ा हैरान हुआ कि यह तो उलटा हुआ जा रहा है। कोई तख्ती तो नहीं बदल गई! कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गई! कहीं गलत ट्रेन में तो नहीं बैठ गए! कोई टिकट तो गड़बड़ नहीं ले ली! यह हो क्या रहा है? जब वह नरक के पास पहुंचा तो वहां तो लहलहाते हुए बगीचे थे और बहुत फूल खिले थे, और बहुत सुगंध थी, और कहीं वीणा बज रही थी, कहीं लोग नाच रहे थे। उसने कहा, सब गड़बड़ हुआ जा रहा है, यह मामला क्या है!
वह उतर कर नीचे गया। उसने पूछा, यह बात क्या है? यह नरक है? यह तो आंखों पर भरोसा नहीं आता। अभी हम स्वर्ग देख कर आ रहे हैं, वह नरक जैसा मालूम पड़ता था। यह नरक, यह स्वर्ग जैसा मालूम पड़ रहा है। तो जिस आदमी से उसने पूछा था उसने कहा कि हां, यह पहले नरक ही था।
उसने कहा, अब क्या हो गया? अब नहीं है नरक?
उन्होंने कहा, तख्ती तो अब भी नरक की लगी है। लेकिन जब से वे बुद्ध, महावीर और सुकरात इधर आ गए हैं, तब से सब स्वर्ग हो गया है। और जब से वे तुम्हारे पादरी, पुरोहित और पंडित मर-मर कर स्वर्ग पहुंच रहे हैं, उन्होंने सब गड़बड़ कर दिया है। तख्ती पुरानी लगी हैं, लेकिन सब मामला बदल गया है। क्योंकि, उस आदमी ने कहा कि अब नियम बदल गया है। पहले यह नियम था कि अच्छा आदमी स्वर्ग जाता है। अब यह नियम नहीं है। अब नियम यह है कि अच्छा आदमी जहां जाता है वहां स्वर्ग हो जाता है। पहले नियम था कि बुरा आदमी नरक जाता है। अब नियम यह है कि बुरा आदमी जहां जाता है वहीं नरक हो जाता है। अब नियम बदल गए हैं। तुम, दिखता है, पुरानी किताबें पढ़ते थे।
उस पादरी की घबराहट में नींद खुल गई। घंटा बज रहा था नीचे, वक्त हो गया है। अब वह बहुत घबरा गया। और वह नीचे आया और उसने कहा कि भाई, मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। अब मैं कुछ भी नहीं कहना चाहता। अब मैं इसके संबंध में कुछ कहना ही नहीं चाहता हूं। लोगों ने कहा, वह पिछले उत्तर का क्या हुआ? उसने कहा, उसी उत्तर ने मुझे दिक्कत में डाल दिया है। अब मैं भी सोच रहा हूं कि स्वर्ग जाना कि नरक? जाना कहां है?
हम यहां जिस तरह की जिंदगी जीते हैं, आगे जो जिंदगी है हम उसके आधार यहीं रखते हैं, इसी पृथ्वी पर, इस पृथ्वी के विरोध में नहीं। अगर आत्मा की कोई जिंदगी है तो उसके आधार हम रखते हैं शरीर की जिंदगी में, शरीर के विरोध में नहीं। अगर अतींद्रिय कोई आनंद हैं तो उनके भी आधार हम रखते हैं इंद्रियों के आनंदों में, उसके विपरीत नहीं। जिंदगी विरोध नहीं, जिंदगी एक हार्मनी है। यहां किसी चीज में कोई विरोध नहीं है। न शरीर और आत्मा में विरोध है, न पदार्थ और परमात्मा में विरोध है। यहां किसी चीज में विरोध नहीं है, जिंदगी एक इकट्ठी चीज है।
लेकिन मनुष्य ने अब तक विरोध मान रखा था।
तीसरे सूत्र में मैं आपसे कहना चाहता हूं: क्षण, इंद्रिय, जीवन के सहज-सरल सुखों का विरोध नहीं। उन्हें सहज स्वीकार कर लेना। ताकि जीवन में इतना सुख भर जाए कि दुख देने की क्षमता नष्ट हो जाए। वह अपने से हो जाती है, वह अपने से समाप्त हो जाती है।
और अगर एक बात हो जाए इस पृथ्वी पर कि आदमी दूसरे को दुख देने में उत्सुक न रह जाए तो नये समाज के जन्म होने में देर लग सकती है?
नये समाज का मतलब क्या है? नये समाज की खोज का अर्थ क्या है?
नये समाज की खोज का अर्थ है: ऐसा समाज जहां कोई किसी के दुख के लिए उत्सुक नहीं है; जहां प्रत्येक प्रत्येक के सुख के लिए आतुर है। यह हो सकता है।
और सूत्रों के संबंध में कल बात करूंगा। एक-दो छोटे प्रश्नों के उत्तर दे देने उचित हैं।

एक मित्र ने पूछा है--कल मैंने कहा, कोई आदर्श स्वीकार न करें, तो उन्होंने पूछा है--हिंसा, पाप या झूठ, किसी भी चीज की खोज करना भी तो एक आदर्श हो सकता है।

नहीं, तथ्य को जानना आदर्श नहीं है। तथ्य को जानना तथ्य है।
मेरे पैर में कांटा गड़ा है। इस बात को जानना कि मेरे पैर में कांटा गड़ा है सिर्फ एक तथ्य की खोज है, एक सत्य का बोध है। लेकिन पैर में कांटा गड़ा है और मैं एक किताब पढ़ रहा हूं कि ऐसे रास्ते पर चलना चाहिए जहां कभी पैर में कांटा न गड़े--यह आदर्शों की दुनिया में जीना है। और पैर में कांटा गड़ा है इसीलिए यह किताब पढ़ रहा हूं, ताकि यह पैर का कांटा भूल जाए। हम ऐसे रास्ते का सपना देखें जिस पर कांटे नहीं होते हैं।
आदर्श का अर्थ है: जो नहीं है और होना चाहिए--दैट व्हिच शुड बी--जो होना चाहिए।
तथ्य का अर्थ है: जो है--दैट व्हिच इज़--जो है।
घृणा है, क्रोध है, दुख है, हिंसा है। अहिंसा आदर्श है, अक्रोध आदर्श है। वे हैं नहीं। वे अगर होते तो कोई जरूरत ही न थी उनके संबंध में बात करने की। हिंसा तो तथ्य है, अहिंसा आदर्श है। और मैं यही कल आपसे कहा कि अगर हिंसा को भुलाना हो तो अहिंसा का आदर्श बहुत अच्छा है। फिर भूल सकती है हिंसा; लेकिन मिटेगी नहीं। और अगर हिंसा मिटानी हो तो अहिंसा की बात ही करने की जरूरत नहीं, हिंसा को पूरा पहचानना पड़ेगा।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि हिंसा को पहचानें कैसे?

उलटी ही बात पूछ रहे हैं। क्या हिंसा को पहचानते नहीं हैं? क्या जब नौकर की तरफ आप देखते हैं तो आपकी आंख वही होती है? जब आप मालिक की तरफ देखते हैं तब आंख वही होती है?
जब आप मालिक की तरफ देखते हैं तब आपकी जो पूंछ है ही नहीं वह हिलती रहती है, जो है ही नहीं वह हिलती है पूंछ। जब आप नौकर की तरफ देखते हैं तो आपकी उसकी पूंछ पर नजर लगी रहती है--जो है ही नहीं--कि हिल रही है कि नहीं हिल रही। हिंसा है, दोनों हिंसाएं हैं। एक में आप दूसरे पर हिंसा कर रहे हैं, एक में आप दूसरे की हिंसा सह रहे हैं। दोनों हिंसाएं हैं।
जब एक पति पत्नी से कहता है कि पति परमात्मा है, तब उसे देखना चाहिए--हिंसा हो रही है कि नहीं हो रही है। हिंसा हो गई है। प्रेम में भी, प्रेम में भी डॉमिनेशन और प्रेम में भी मालकियत? तो फिर जिंदगी में कोई बचेगा ऐसा जहां मालकियत न हो! जहां सिर्फ मित्रता काफी हो!
लेकिन पति समझा रहे हैं हजारों साल से कि पति परमात्मा है। पति ही समझा रहे हैं! हिंसा है वहां।
ब्राह्मण शूद्र से कह रहा है--पैर छुओ! हिंसा है वहां।
गुरु शिष्य से कह रहा है--आदर करो! हिंसा है वहां।
आदर अपने आप हो जाए, बात अलग। लेकिन जब कोई कह रहा है--करो! करना पड़ेगा! तब हिंसा शुरू हो गई। जब बाप अपने बेटे को कह रहा है कि मेरी मान, क्योंकि मैं तेरा बाप हूं! हिंसा शुरू हो गई। हिंसा कुछ किसी की छाती में छुरा भोंकने की बात नहीं है। हम बहुत तरह के छुरे भोंक रहे हैं जो दिखाई नहीं पड़ते। और असली छुरे उतने खतरनाक नहीं हैं, क्योंकि असली छुरे निकाले जा सकते हैं, बचाव किया जा सकता है। अदृश्य छुरे, जो दिखाई नहीं पड़ते, वे गपे रह जाते हैं, खपे रह जाते हैं, निकल भी नहीं सकते, किसी पुलिस थाने में रिपोर्ट भी नहीं करा सकते, कोई आपरेशन भी नहीं कर सकता, कोई सर्जरी भी नहीं हो सकती, किसी अदालत में मुकदमा भी नहीं चल सकता। किस बाप पर कौन बेटा मुकदमा चलाए?
लेकिन फिर हिंसा के फल आते हैं। जब तक बेटा कमजोर है तब तक बाप दबा लेता है। फिर नाव बदल जाती है। बेटा जवान होता है, ताकतवर हो जाता है, बाप बूढ़ा हो जाता है, कमजोर होता है, फिर बेटा दबाने लगता है। जब बेटा बुढ़ापे में दबाता है तब बाप कहता है कि बहुत बुरी बात हो रही है। लेकिन उसे पता नहीं कि दबाए का बदला लिया जा रहा है, हिंसा लौट रही है। सब बूढ़े बाप दबाए जाएंगे, क्योंकि सब छोटे बच्चे दबाए जा रहे हैं।
पत्नी को पति एक तरह से हिंसा करेगा, पत्नी दूसरी तरह से हिंसा करेगी। हिंसाओं के ढंग बदलेंगे, लेकिन हिंसा हिंसा ही पैदा करती है। अगर पति कहेगा परमात्मा मानो, तो वह कहेगी मानते हैं परमात्मा, लेकिन तुम बगल की पड़ोस में स्त्री की तरफ देख कैसे रहे थे, कैसे परमात्मा हो? तुम्हारे परमात्मा होने पर शक होता है। सिगरेट कैसे पी रहे थे? और आज शिवरात्रि है, तुम मंदिर क्यों नहीं गए हो? तो पत्नी के अपने दबाने के ढंग होंगे। वह उस ढंग से दबाएगी। वह तुमको बताएगी कि परमात्मा हो नहीं। शास्त्र में लिखा है, हो नहीं।
हमारी हिंसा सूक्ष्म है। वह हमारे सारे अंतर्संबंधों में छिपी है।
आप मुझसे पूछते हैं, जानें कैसे?
अपने सारे व्यवहार के प्रति सजग होना पड़ेगा। सुबह उठने से लेकर सांझ सोने तक अपने एक-एक गेस्चर, अपनी एक-एक मुद्रा पर भी ध्यान रखना पड़ेगा कि कहां-कहां हिंसा है। जब रास्ते पर आप चलते हो, कोई भी नहीं है रास्ते पर तब आप दूसरे आदमी होते हो--खाली रास्ते पर। और रास्ते पर दो आदमी निकल आए, आप फौरन बदल जाते हो। उस वक्त पहचानना जरूरी है कि मेरे भीतर कौन सी चीज बदल गई? आप अकड़ गए, टाई ठीक कर ली, टोपी दुरुस्त कर ली।
आप बाथरूम में एक तरह के आदमी होते हो, बैठकखाने में दूसरी तरह के आदमी होते हो। बैठकखाने में अकड़ कर बैठ गए हैं, बाथरूम में ढीले, रिलैक्स थे। बाथरूम में आदमी भला आदमी होता है, बैठकखाने में खराब हो जाता है। बाथरूम में ही छोड़ आते हैं उस आदमी को आप। कपड़े-वपड़े पहन कर आते हैं, बिलकुल दूसरे आदमी हो जाते हैं।
अपने जीवन की प्रत्येक स्थिति में जांच जारी रखनी पड़ेगी, होश रखना पड़ेगा, अलर्ट रहना पड़ेगा--मैं क्या कर रहा हूं? क्या कह रहा हूं? कैसे देख रहा हूं? कैसे उठ रहा हूं? मेरे उठने में, मेरे देखने में, मेरे कहने में कहीं मेरी हिंसा तो नहीं है? कोई दूसरे का सवाल नहीं है, मुझे अपनी ही देखनी पड़ेगी। और अगर मुझे दिखाई पड़नी शुरू हो जाए तो बहुत आश्चर्य होगा कि चौबीस घंटे हिंसा चल रही है। ऐसा नहीं है कि आप कभी-कभी हिंसा कर रहे हैं, चौबीस घंटे हिंसा चल रही है। और जब यह पूरी तरफ से दिखाई पड़ने लगेगी, उठते-बैठते, सोते-जागते, जूता पहनते, दरवाजा खोलते, बात करते, चुप रहते, जब चारों तरफ आपको दिखाई पड़ेगी--हिंसा है, हिंसा है, हिंसा है! तो जैसे घर में आग की लपटें लग जाएं ऐसा आपको चारों तरफ दिखाई पड़ने लगेगा। और आपको दिखाई पड़ेगा--ये लपटें दूसरे को तो कभी-कभी छूती हैं, मैं तो चौबीस घंटे इनके भीतर जल रहा हूं।
आप अचानक छलांग लगा कर बाहर हो जाएंगे। पूछने नहीं जाएंगे किसी से कि हिंसा के बाहर कैसे होना? किसी से पूछने नहीं जाएंगे कि अहिंसा का आदर्श कैसे साधूं? सिर्फ हिंसक, जो अपनी हिंसा बचाना चाहते हैं, अहिंसा के आदर्श साधते हैं। लेकिन जो अपनी हिंसा को देख लेते हैं, तत्काल बाहर हो जाते हैं। फिर देर नहीं लगती, देर का कोई कारण नहीं है। क्योंकि हिंसा इतनी दुखदायी है कि उतने दुख में कोई भी नहीं जीना चाहेगा। वह तो हमें पता ही नहीं है इसलिए। हमें पता ही नहीं है। और कई बार ऐसा होता है कि हमें पता ही नहीं चलता।
मैंने सुना है, एक बार अमेरिका में एक आदमी के साथ ऐसा हुआ कि उस आदमी को चक्कर आने लगे, उसका सिर घूमने लगा। उसे जमीन में सब चीजें चक्कर-चक्कर खाती दिखाई पड़ें, खड़ा हो तो पैर कंपें। उसने बड़े-बड़े चिकित्सकों से सलाह ली, बड़े डाक्टरों से मिला। अमेरिका में डाक्टरों की क्या कमी! चिकित्सकों की क्या कमी! हजारों तरह की दवाइयां लगीं, हजारों तरह के इंजेक्शन दिए गए। खून, हड्डी, सबके एक्सरे और सब जांचें हो गईं। लेकिन उस आदमी को कोई बीमारी न थी, बीमारी होती तो ठीक हो जाता। अब बीमारी न थी तो दवाइयों ने और मुश्किल खड़ी कर दी।
आखिर चिकित्सक घबरा गए और चिकित्सक उससे बचने लगे। पहले तो चिकित्सक मरीजों को खोजते हैं, असली मरीज मिल जाए तो फिर चिकित्सक बचते हैं कि कहीं यह मरीज रास्ते में न पड़ जाए। चिकित्सक हाथ जोड़ने लगे, वे कहते कि और बड़ा एक्सपर्ट है, तुम उसके पास चले जाओ। पर वह आदमी ठीक होता न दिखाई पड़ा। जो सबसे बड़ा एक्सपर्ट था, विशेषज्ञ था, उसके पास गया।
उसने कहा कि भई, जहां तक मैं समझता हूं, तुम्हारी बीमारी का अभी कोई इलाज नहीं, क्योंकि तुम्हारी बीमारी ही नहीं पहचानी जा सकी है। जो बीमारी पहचानी जाए उसका इलाज हो सकता है, लेकिन तुम्हारी बीमारी ही नहीं पकड़ में आई। तो मैं समझता हूं कि इस बीमारी में तुम ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहोगे, छह महीने से ज्यादा तुम जिंदा नहीं रह सकते, छह महीने में मर जाओगे। और यह भी पक्का है कि छह महीने में तुम्हारी बीमारी का इलाज अभी खोजा नहीं जा सकता, क्योंकि अभी तो यह बीमारी ही नहीं खोजी गई। तो तुम मरने की तैयारी कर लो। छह महीने बाद तुम मर जाओगे। और अब हम पर कृपा करो, हमें दूसरा काम करने दो। तुम बच नहीं सकते।
उस आदमी ने रास्ते में सोचा कि जब बच ही नहीं सकते तो झंझट छोड़ो। उसने सोचा: छह महीने कुल बचना है तो अब मौज से रह लो, अब क्या फायदा! तो फौरन दर्जी के पास गया और उसने कहा कि छह महीने जिंदा रहना है, दो सौ ड्रेस चाहिए, रोज नयी ड्रेस पहनूंगा। अब क्या फायदा है बार-बार बासी ड्रेस पहनने का! वह तो बहुत दिन जिंदा रहने का खयाल था इसलिए। तो जितना कीमती से कीमती कपड़ा हो, खरीद लिया जाए। और जितनी अच्छी से अच्छी ड्रेस बनती हो, बना ली जाए।
उस दर्जी ने कहा, बड़ी कृपा, आपका नाप ले लूं। उसने नाप लिया, उसने गला नापा। उसने अपने असिस्टेंट को कहा कि लिखो सोलह। उस आदमी ने कहा, गलत! मैं हमेशा चौदह का गला पहनता हूं। उस दर्जी ने कहा, अगर चौदह का गला पहनोगे तो सिर में चक्कर आएगा, दुनिया घूमती हुई मालूम पड़ेगी। उस आदमी ने कहा, क्या कहते हो! उसने उसका गला देखा, वह चौदह का कालर पहने हुए था, गर्दन कसी थी। उस दर्जी ने कहा कि चक्कर आएगा, मैं कहे देता हूं। उसने कहा, तुम कहे क्या देते हो, चक्कर आ ही रहा है। तो कुल मामला इतना ही है! उसने पहला काम किया कि वह कालर फाड़ कर कपड़ा नीचे फेंक दिया। उसने कहा, मरे जा रहे हैं, इलाज करवा-करवा कर मरे जा रहे हैं।
लेकिन अब गले का कालर, कोई एक्सपर्ट बीमारी का पकड़े भी तो कैसे पकड़े! वह आदमी जिंदा रहा बहुत वर्षों तक, लेकिन चक्कर अब खतम हो गए उसके। क्योंकि गला कसा था जिस चीज से उसका एक दफा खयाल आ गया तो वह टूट गया।
हमारा गला कहां कसा है, गुरुओं से पूछ रहे हैं। और जिन गुरुओं से पूछ रहे हैं वे खुद ही चौदह नंबर का कालर पहने हुए हैं, उनके खुद के गले फंसे हुए हैं।
अब मैं इधर बहुत हैरान हूं। मेरे पास बड़े साधु-संन्यासी कभी मिलने आते हैं, तो एकांत में उनका गला फंसा हुआ है। वे एकांत में मुझसे पूछते हैं, शांति का उपाय बताइए। और वे सबको शांति का उपाय जिंदगी भर से बता रहे हैं। मैं पूछता हूं कि फिर तुम लोगों को क्या बता रहे हो? तुम खुद ही कहते हो शांति का उपाय बताइए।
बड़े से बड़ा मुनि मिलता है, वह कहता है, ध्यान कैसे करें?
तो तुम क्या कर रहे हो इतने दिन से? तुम मुनि कैसे हो गए? मुनि का मतलब होता है जो मौन को उपलब्ध हो गया। अब ये मुनि हो गए, वे पूछते हैं कि ध्यान कैसे करें? मौन कैसे सधे? शांति कैसे मिले?
साधु पूछता है कि मन बड़ा बेचैन है! और वह सबको समझा रहा है। उसे भी पता नहीं है कि बेचैनी साधु होने से ठीक नहीं होगी। बेचैनी बेचैनी को पहचानने से ठीक होगी कि कहां है बेचैनी, किस जगह है, कहां गला फंसा है?
हिंसा में गला फंसा है तो हिंसा को पहचानो, उसकी फिक्र करो। क्रोध में गला फंसा है तो क्रोध की फिक्र करो। चिंता है तो चिंता को खोजो। और खोजने के लिए क्या करना पड़ेगा?
सिवाय इसके कुछ भी करने की जरूरत नहीं है कि आप थोड़ा होशपूर्वक जीने लगें। कल सुबह उठें, थोड़ा होशपूर्वक उठें। और देखें कल सुबह से कि कब क्या होता है मन में, कैसे हिंसा पकड़ती है, कैसे घृणा पकड़ती है, कैसे क्रोध पकड़ता है। एक आदमी सामने दिखाई पड़ता है और आप फौरन--कि यह आदमी ने कल मुझे गाली दी थी--और भीतर जहर हिंसा का खड़ा हो गया।
अब जिस आदमी ने कल गाली दी थी वह आदमी कल जा चुका, यह आदमी वह थोड़े ही है। चौबीस घंटे में गंगा का बहुत पानी बह जाता है। यह आदमी भी चौबीस घंटे में बह चुका बहुत। अब आप तैयार हो गए कि कहीं यह गाली न दे। और उस आदमी ने देखा कि यह आदमी फिर अकड़ कर बैठा है, शायद कल की तैयारी कर रहा है। क्योंकि वह भी तो कल में ही जी रहा है, वह भी अकड़ कर आ गया। अब तैयारी शुरू हो गई, अब हिंसा शुरू होती है।
वह रूस और अमेरिका की हिंसा इस तरह की ही है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान की हिंसा इस तरह की ही है। इधर दिखा कि कुछ मिलिट्री के जवान कवायद कर रहे हैं, तो उधर घबराहट हो गई। इधर दिखा कि बंदूक तैयार हो रही है, तो उधर उन्होंने बंदूक तैयारी की। उन्होंने बंदूक तैयार की, तो हम और बड़ी बंदूक ले आए। फिर भय फैलता चला जाता है।
एक-एक आदमी अपनी हिंसा को नहीं देख पाता। अपनी हिंसा को न देखने की वजह से हिंसक व्यवहार करता है। पड़ोस का आदमी डर कर हिंसक व्यवहार करता है। चारों तरफ हिंसक व्यवहार होता चला जाता है। और हम सब हिंसा में डूबे खड़े रह जाते हैं।
नहीं, किसी पड़ोसी की तरफ देखने की जरूरत नहीं है। मेरी हिंसा मुझे देखने की जरूरत है कि उसे मैं पहचान लूं। और यह मेरी समझ है कि अगर आप पहचान गए तो आप हिंसा में एक क्षण नहीं जी सकते, आप बाहर हो जाएंगे। कोई मनुष्य नहीं जी सकता। जी सकता है, सिर्फ एक ही शर्त है कि वह पहचाने न, देखे न, कहीं और लगा रहे। लगे रहने की तरकीबें हैं हमारी। हमने बहुत तरकीबें ईजाद की हैं। उनमें सबसे बड़ी तरकीब आदर्श की है।
आदर्श हमारी बड़ी ही कनिंग और चालाकी की तरकीब है। आदर्श हमको यह मजा दे देता है कि हम कहते हैं कि थोड़ी-बहुत हिंसा है, ठीक है, लेकिन कल ठीक कर लेंगे। हम अभी किताब पढ़ेंगे, अहिंसा-दर्शन पढ़ेंगे, अहिंसा का शास्त्र पढ़ेंगे। उसमें हम पढ़ कर देखेंगे कि अहिंसक कैसे हुआ जाए। पानी छान कर पीएंगे, रात खाना नहीं खाएंगे, मंदिर रोज जाएंगे नियमित--अहिंसा को हम ले आएंगे। तो अभी आज हिंसा है, कोई हर्जा नहीं, आज सह लेंगे, कल तो अहिंसा आ जाएगी।
लेकिन चौबीस घंटे हिंसा सहेंगे, चौबीस घंटे में हिंसा और मजबूत होगी; क्योंकि चौबीस घंटे में हिंसा ने और भी यात्रा कर ली। कल फिर आज की तरह आएगा, आदर्श फिर कल चला जाएगा। आदर्श सदा कल में होते हैं और तथ्य सदा आज होते हैं। इसलिए जिसे जिंदगी को बदलना है उसे तथ्य का दर्शन करना पड़ेगा और जिसे जिंदगी को नहीं बदलना है, बदलने से बचना है, वह आदर्श बना कर बैठे, इससे ज्यादा रामबाण औषधि नहीं है। आदर्श बना लें और बैठ जाएं। आदर्श कल पर छूटता चला जाता है, छूटता चला जाता है।
मैंने सुना है, एक आदमी को यह खयाल आ गया कि मैं सारी दुनिया में जो भी श्रेष्ठतम ग्रंथ हैं वे इकट्ठे कर लूं। किसी गुरु ने उसको बताया कि जब तक तुम्हें ज्ञान न हो तब तक परमात्मा न मिलेगा। उसने कहा, ज्ञान कैसे हो? उसने कहा, शास्त्र से होगा।
तो उसने कहा कि पहले शास्त्र इकट्ठे कर लें। उसने सारे शास्त्र इकट्ठे कर लिए। लेकिन शास्त्र इकट्ठे करने में जिंदगी बीत गई। सारी दुनिया में, उसने कहा, एकाध शास्त्र भी रह जाए और कुछ ज्ञान वंचित रह जाए, इसलिए पहले सब शास्त्र इकट्ठे कर लूं। ज्ञान कल कर लेंगे, पहले शास्त्र इकट्ठे कर लूं। उसने सारे शास्त्र इकट्ठे कर लिए। इकट्ठे करते-करते उसकी जिंदगी तो अज्ञान में बीत गई।
शास्त्र इकट्ठे करने वालों की जिंदगी अज्ञान में ही बीतती है। क्योंकि ज्ञान तो अभी हो सकता है और शास्त्र तो कल पढ़ेंगे, परसों पढ़ेंगे, फिर समझेंगे, फिर साधेंगे, तब होगा।
सत्तर साल का हो गया। शास्त्र तो इकट्ठे हो गए, लेकिन जिंदगी हाथ से निकल गई, बिस्तर पर लग गया। चिकित्सकों ने कहा, बचने की ज्यादा उम्मीद नहीं। उसने कहा, मुश्किल हो गई, मैंने शास्त्र इकट्ठे किए, पढूंगा कब? तो उसने कहा, कुछ ऐसा करो कि मेरे शास्त्र इकट्ठे करने की मेहनत बेकार न चली जाए। कुछ पंडितों को बुलाओ जो संक्षिप्त कर दें, क्योंकि इतने शास्त्र अब तो पढ़े नहीं जा सकते; वक्त जा चुका है।
दस बड़े पंडित बुलाए गए। फिर वही भूल। पहले शास्त्र इकट्ठे करने की भूल की, अब पंडित इकट्ठे करने की भूल की। और उसको खयाल नहीं आया कि पंडित इकट्ठे हुए। दस पंडित! एक पंडित हो तो कुछ काम भी हो जाए; दस पंडित हों तो काम हो ही न सके कुछ। क्योंकि दस पंडित दस बातें करें, शास्त्र का संक्षिप्त करें तो दस प्रकार से करें और उनमें विवाद भारी हो जाए। वह आदमी कहे कि मैं मरने के करीब हूं, तुम जल्दी संक्षिप्त करो! लेकिन वहां दस पंडित, वहां जल्दी कैसे हो, वहां तो और देर होने लगी। वह आदमी बहुत घबरा गया। उसने कहा कि और पंडित बुलाओ, इन दस से काम नहीं होता। क्योंकि मैं मरने के करीब हूं।
और पचास पंडित बुला लिए, सौ पंडित बुला लिए। जितने पंडित बढ़ते गए उतना ही उस आदमी को लोग भूलते गए, वह अपनी खाट पर पड़ा रहा और पंडित अपने विवाद में पड़े रहे। वह बार-बार चिल्ला कर कहता था कि भाइयो, मैं बिलकुल मरने के करीब हूं, तुम जल्दी संक्षिप्त करो! लेकिन उसकी आवाज ही नहीं सुनाई पड़ती थी। जहां सौ पंडित हों वहां किसी की आवाज कैसे सुनाई पड़ सकती है! कुछ आवाज नहीं सुनाई पड़ती थी।
आखिर उसने अपने चिकित्सकों को कहा कि क्या मैं मर जाऊंगा? ये पंडित तो विवाद में लगे हैं, शास्त्र संक्षिप्त होते ही नहीं!
किसी तरह उन्होंने संक्षिप्त किया। जब वे संक्षिप्त करके लाए तब भी कोई पचास ग्रंथ थे, संक्षिप्त जब उन्होंने किया। उस आदमी ने कहा, तुम पागल हो! लेकिन तब वह कोई अस्सी साल का हो चुका था, उसकी आंखें जवाब दे गई थीं। उसने कहा, अब मैं पढ़ भी नहीं सकता, अब तो तुम मुझे पढ़ कर सुना दो। उन्होंने कहा, पचास ग्रंथ हैं। पूरे हो पाएं न हो पाएं। तो उसने कहा, और संक्षिप्त करो, इतना संक्षिप्त करो कि तुम मुझे पढ़ कर सुना दो।
उन्होंने फिर संक्षिप्त किया, फिर पांच साल लग गए। जब वे गए तब वे एक छोटी सी किताब में सब संक्षिप्त करके ले गए, लेकिन उस आदमी का होश चला गया, सांस तो चल रही थी। चिकित्सकों ने कहा, भई, बहुत देर करके आए। अब वह सुन भी नहीं सकता, उसका होश भी नहीं है। अब तो तुम ऐसा करो कि एक ही नाम उसके कान में जोर से कह दो, शायद सुन ले।
पंडित विवाद करने लगे कि कौन सा नाम कहा जाए--राम कहें, कि अल्लाह कहें, कि बुद्ध कहें, कि महावीर कहें, कि जय जिनेंद्र कहें, कि क्या कहें क्या न कहें! ओम कहें कि आमीन कहें! वे बहुत विवाद में पड़ गए। चिकित्सकों ने कहा, वह मर रहा है, जल्दी कहो! उन्होंने कहा, पहले तय हो जाए तभी हम कुछ कह सकते हैं।
वे तय करते रहे, वह आदमी मर गया। जब वे तय कर पाए तब तक वह मर चुका था। उन्होंने कहा, हमने तय तो कर लिया, वह आदमी कहां है? उन्होंने कहा, उसकी अरथी जा चुकी है।
आदर्शों में, कल में जीने वाला आदमी ऐसे ही नष्ट होता है।
नहीं, जो करना है वह अभी और आज और यहीं। कल पर छोड़ना खतरनाक है, क्योंकि कल है नहीं, जो है वह आज है, अभी है और यहीं है। जो भी करना है। अगर हिंसा को पहचानना है तो अभी पहचान लें, कल के लिए छोड़ना खतरनाक है। क्योंकि हो सकता है कल आप न हों। कल आप होंगे, यह पक्का है? कल का कुछ भी पक्का नहीं है। तो कल के लिए सोचना कि कल अहिंसक हो जाएंगे--गलत है, खतरनाक है। अभी!
लेकिन अभी अहिंसक कैसे होंगे? अभी तो हिंसा ही जानी जा सकती है। यद्यपि जो हिंसा को जान ले वह इसी क्षण अहिंसक हो सकता है। जिसने भी हिंसा को जान लिया वह अहिंसक हो गया। और जिसने क्रोध को जान लिया, घृणा को जान लिया, वह प्रेम को उपलब्ध हुआ। और जिसने अपने अज्ञान को पहचान लिया वह तत्काल ज्ञान के मंदिर में प्रविष्ट हो जाता है।

अंतिम प्रश्न, एक मित्र ने पूछा है कि आपकी बातें तो ऐसी हैं कि इससे कहीं अनीति न फैल जाए!

जैसे कि अनीति कुछ कम फैली हुई है और मेरी बातों से फैल जाएगी। हालतें तो ये हैं कि अब फैलाने की कितनी ही कोशिश करो, तो भी जितनी फैली है उससे ज्यादा करना बहुत मुश्किल है। अनीति, वे कह रहे हैं, कहीं फैल न जाए। शायद वे सोचते होंगे कि नीति फैली हुई है। तो उन्होंने पूछा है कि आपकी बात से कहीं अनीति न फैल जाए!
यह डर हमें सदा सताता है। और यह बड़ा मजेदार है, मजेदार डर है। क्योंकि अनीति फैली हुई है। अगर नीति ही फैली हुई होती तब तो कोई जरूरत न थी। वह तो दस हजार साल की मेहनत से भी नीति नहीं फैली है, अनीति ही फैली हुई है। और अब हम डरते भी हैं कि कहीं अनीति न फैल जाए। यह हमारा डर ऐसा ही है जैसे भिखमंगा डर कर बैठा हो पुलिस थाने के पास कि हमारी कहीं चोरी न हो जाए।
आपकी चोरी काहे की हो जाएगी? आप मजे से घूमिए! आपको पुलिस थाने की कोई जरूरत नहीं है। आप बिलकुल सुरक्षित हैं, आपकी असुरक्षा ही नहीं है।
अनीति इतनी है मनुष्य के पास और अनीति क्या सोचते हैं आप? कोई नयी अनीति सोच सकते हैं? क्या नयी अनीति सोच सकते हैं? दस हजार साल में सिर्फ अनीति के सिवाय क्या फैला है? और ऐसा नहीं है कि आज ही अनीति फैल रही है। अगर आप थोड़े हिम्मतवर हों तो बहुत घबरा जाएंगे...। लेकिन हम घबराहट की वजह से देखते भी नहीं, तो हम मन में ही सोचते रहते हैं कि बड़ी नीति है, सब ठीक है। जब कि सब गलत है।
अगर आप अपने पुराने ऋषि-मुनियों की कथाएं पढ़ें तो बड़ा मुश्किल हो जाए कि इनको ऋषि-मुनि कहें कि न कहें। क्योंकि शायद एकाध ऋषि-मुनि हो जो किसी की स्त्री न ले भागे, जो कहीं व्यभिचार न करे, मुश्किल है खोजना। अगर आप अपने पुराने देवताओं को देखें तो बहुत घबरा जाएं। ब्रह्मा ने अपनी लड़की को पैदा किया और उसी पर मोहित हो गए और उसी से संसार पैदा हुआ।
अब इन ब्रह्मा की पूजा चल रही है। अब अनीति मैं फैला रहा हूं कि ब्रह्मा जी फैला रहे हैं! वे अभी भी पूजे जा रहे हैं। और अब तक किसी ने नहीं कहा कि इस बात को तो इनकार करो! इस बात को तो बिलकुल बरदाश्त नहीं करना चाहिए। इसने अपनी लड़की के साथ बलात्कार किया है!
इंद्र देवता के हाथ जोड़े जा रहे हैं। उनका कुल काम इतना रहा जिंदगी में कि कहीं कोई सुंदर स्त्री हो तो उसको भ्रष्ट करो। उनके हाथ जोड़े जा रहे हैं। अब भी यज्ञ-हवन हो रहे हैं। उनमें इंद्र देवता से प्रार्थना की जा रही है कि हे वर्षा करो!
वे वर्षा करेंगे? इन सब देवी-देवताओं की अगर पूरी कहानियां पढ़ें...जिनको आप प्रातः-स्मरणीय पांच कन्याएं कहते हैं, उनमें एक भी कन्या नहीं है। एक भी कन्या नहीं है उनमें। और सब विवाह होने के पहले बच्चे सबको पैदा हुए। लेकिन वे देवी-देवताओं से पैदा हुए हैं। आश्चर्यजनक है!
युधिष्ठिर को धर्मराज कहते हैं। जुआ खेल रहे हैं धर्मराज! और अभी जो जुआ खेल रहे हैं उनको सजा दे रहे हैं और पुराने धर्मराज जुआ खेल रहे हैं। और अनीति फैल जाएगी मेरी बातों से! और जुआरियों को धर्मराज कह रहे हैं! अपनी औरत को दांव पर लगा रहे हैं। औरत को भी दांव पर लगाने में कोई शर्म नहीं है और धर्मराज भी हैं, उसमें कोई कठिनाई भी नहीं है, दोनों बातें एक साथ चल सकती हैं।
क्या? किस-किस बात को आप कह रहे हैं कि...नीति है कहां? दस हजार साल से--जब से मनुष्य का इतिहास ज्ञात है--आदमी अनीति में ही जी रहा है। सब तरह की अनीति चल रही है। अब इसको बदलने का सवाल है। और यह बदलेगी तब जब कि हमारी नीति की दृष्टि ही बदले, जब हमारा नैतिक दृष्टिकोण ही बदले। वह नैतिक दृष्टिकोण बदलने के लिए ही मैं कह रहा हूं। जो मैं कह रहा हूं वह इसीलिए कह रहा हूं कि यह अगर हमें समझ में आ जाए कि हमने जो मनुष्य का ढांचा तैयार किया था, जो पैटर्न बनाया था, वह गलत सिद्ध हुआ। हमने मनुष्य को जिस तरह से नैतिक बनाने की कोशिश की थी वह भ्रांत सिद्ध हुई। वह सफल नहीं हुई, वह असफल हो गई। अब हमें कुछ मनुष्य के लिए और तरह से सोचना पड़ेगा। और ध्यान रहे, नीति थोपी नहीं जा सकती, नीति विकसित होती है। नीति थोपी नहीं जा सकती, नीति विकसित होती है।
हम नीति को थोपते रहे हैं। झूठ बोलने वाले आदमी को समझा रहे हैं--सच बोलो! हिंसक को समझा रहे हैं--अहिंसक हो जाओ! वही जो मैंने अभी कहा, हम आदर्श थोप-थोप कर आदमी को ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं। आदमी ठीक नहीं होता।
हमें आदर्श हटा देना पड़े, आदमी जैसा है उसे जानना पड़े, पहचानना पड़े। और उस पहचान, उस ज्ञान से जो क्रांति आए, वह क्रांति शायद जगत में नीति का विस्फोट, एक्सप्लोजन हो जाए।
अब तक नीति नहीं रही है। कभी-कभी कोई एकाध आदमी नैतिक पैदा हो जाता है। अरबों-खरबों लोगों में कभी कोई एकाध आदमी नैतिक हो जाता है। इससे कुछ हल है? करोड़ पौधे हम लगाएं, एक पौधे पर फूल आ जाएं, तो यह कोई माली की प्रशंसा है? कभी कोई एक बुद्ध पैदा हो जाए, कभी कोई एक कृष्ण पैदा हो जाए, कभी कोई एक क्राइस्ट पैदा हो जाए, इससे क्या फर्क पड़ता है! जिनको अंगुलियों पर गिना जा सके, उनसे क्या फर्क पड़ने वाला है!
नहीं, आदमी के साथ कहीं कोई बुनियादी भूल हो रही है। हमने जो व्यवस्था दी है, वह व्यवस्था ही शायद आदमी को नैतिक नहीं होने दे रही है। और एक छोटी सी बात आपके खयाल में दे दूं--हमारी समस्त नैतिक धारणाएं सप्रेसिव हैं, दमन करने वाली हैं। इसलिए जिसका हम दमन करते हैं उसका ही विस्फोट होता रहता है। और जीवन दमन से नहीं बदलता, जीवन ज्ञान से बदलता है।
इस संबंध में कल आपसे बात करूंगा।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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