क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-14) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-24
प्रेम ही प्रभु है
मैं मनुष्य को रोज विकृति से विकृति की ओर जाते देख रहा हूं, उसके भीतर कोई आधार टूट गया है। कोई बहुत अनिवार्य जीवन-स्नायु जैसे नष्ट हो गए हैं और हम संस्कृति में नहीं, विकृति में जी रहे हैं। इस विकृति और विघटन के परिणाम व्यक्ति से समष्टि तक फैल गए हैं, परिवार से लेकर पृथ्वी की समग्र परिधि तक उसकी बेसुरी प्रतिध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं। जिसे हम संस्कृति कहें, वह संगीत कहीं भी सुनाई नहीं पड़ता है। मनुष्य के अंतस के तार सुव्यवस्थित हों तो वह संगीत भी हो सकता है। अन्यथा उससे बेसुरा कोई वाद्य नहीं है। फिर जैसे झील में एक जगह पत्थर के गिरने से लहर-वृत्त दूर कूल-किनारों तक फैल जाते हैं, वैसे ही मनुष्य के चित्त में उठी हुई संस्कृति या विकृति की लहरें भी सारी मनुष्यता के अंतस्थल में आंदोलन उत्पन्न करती हैं।मनुष्य, जो व्यक्ति मालूम होता है, एकदम व्यक्ति ही नहीं है, उसकी जड़ें समष्टि तक फैली हुई हैं और इसलिए उसका रोग या स्वास्थ्य बहुत संक्रामक होता है। हमारी सदी किस रोग से पीड़ित है बहुत-से रोग गिनाए जाते हैं। मैं भी एक रोग की ओर इशारा करना चाहता हूं, और मेरी दृष्टि में शेष सारे रोगों की जड़ में वही रोग है। शेष रोग उस एक मूल रोग के ही परिणाम हैं। मनुष्य जब भी इस मूल रोग से ग्रसित होता है, तभी वह आत्मघात और विनाश में लग जाता है। उस मूल रोग को मैं क्या नाम दूं उसे नाम देना आसान नहीं है। फिर भी मैं कहना चाहूंगा कि वह रोग है- मनुष्य के हृदय में प्रेम-स्त्रोत का सूख जाना। हम प्रेम के अभाव से पीड़ित हैं। हमारे हृदय की धड़कनों में हृदय नहीं है और केवल फेफड़े ही धड़क रहे हैं। प्रेम के अभाव से बड़ी दुर्घटना और दुर्भाग्य मनुष्य के जीवन में दूसरा नहीं है, क्योंकि वह जीता है किंतु जीवन से उसके संबंध विच्छिन्न हो जाते हैं। प्रेम हमें समग्र से जोड़ता है, प्रेम के अभाव में हम सत्ता से प्रथम और अकेले हो जाते हैं। आज का मनुष्य अपने को अकेला और अजनबी अनुभव करता है। वह प्रेम के बिना निश्चय ही अकेला है। प्रेम के अभाव में प्रत्येक स्वयं में बंद अणु है, जिससे दूसरे तक न कोई द्वार है, न सेतु है। आज ऐसा ही हुआ है। हम सब अपने में बंद हैं। यह अपने में बंद होना अपनी कब्रों में होने से भिन्न नहीं है और हम जीते-जी मुर्दे हो गए हैं। क्या जो मैं कह रहा हूं, उसका सत्य आपको दिखाई नहीं पड़ता है क्या आप जीवित हैं और अपने भीतर प्रेम की शक्ति का प्रवाह आपको अनुभव होता है यदि वह प्रवाह आपके रक्त में नहीं है और उसकी धड़कनें हृदय में शून्य हो गई हैं, तो समझें कि आप जीवित नहीं हैं। प्रेम ही जीवन है और प्रेम के अतिरिक्त और कोई जीवन नहीं है। मैं एक यात्रा में था। वहां किसी ने पूछा था- मनुष्य की भाषा में सबसे मूल्यवान शींद कौन-सा है। मैंने कहा था- ‘प्रेम’! तो पूछनेवाले मित्र चौंके थे। उन्होंने सोचा होगा कि मैं कहूंगा- ‘आत्मा या परमात्मा’। उनकी अपेक्षा भी स्वाभाविक ही थी किंतु उनकी उलझन को देखकर मुझे बहुत हंसी आ गई थी और मैंने कहा था- ‘प्रेम ही प्रभु’ है! निश्चय ही इस पृथ्वी पर जो किरण शरीर और मन के पार से आती है, वह किरण प्रेम की है। प्रेम संसार में अकेली ही अपार्थिव घटना है। वह अद्वितीय है। मनुष्य का सारा दर्शन, सारा काव्य, सारा धर्म उससे ही अनुप्रेरित है। मानवीय जीवन में जो श्रेष्ठ और सुंदर है, वह सब प्रेम से ही जन्म और जीवन पाता है। इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम ही प्रभु है। प्रेम की आशा-किरण के सहारे ही प्रभु के आलोकित लोक तक पहुंचा जाता है। प्रभु को सत्य कहने से भी ज्यादा प्रीतिकर उसे प्रेम कहना है। प्रेम में जो रस, जो जीवंतता, संगीत और सौंदर्य है, वह सत्य में नहीं है। सत्य में वह निकटता नहीं है, जो प्रेम में है। सत्य जानने की ही बात है, प्रेम होने की भी। प्रेम का विकास और पूर्णता ही अंततः प्रभु-प्रवेश में परिणत हो जाता है। मैंने सुना है कि आचार्य रामानुज से किसी व्यक्ति ने धर्म-जीवन में दीक्षित किए जाने की प्रार्थना की थी। उन्होंने उससे पूछा था, ‘मित्र, क्या तुम किसी को प्रेम करते हो’ वह बोला था- ‘नहीं, मेरा तो किसी से प्रेम नहीं है। मैं तो प्रभु को पाना चाहता हूं।’ यह सुनकर रामानुज ने दुःखी हो उससे कहा था- ‘फिर मैं असमर्थ हूं। मैं तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर सकता हूं। प्रेम तुम्हारे भीतर होता तो उसे परिशुद्ध कर प्रभु की ओर ले जाया जा सकता था। लेकिन तुम तो कहते हो कि वह तुममें है ही नहीं!’ प्रेम का अभाव सबसे बड़ी दरिद्रता है। जिसके भीतर प्रेम नहीं है, वह दीन है। वैसा व्यक्ति अपने हाथों नरक में है। श्वास-श्वास का, प्रेम से परिपूरित हो जाना ही मैंने स्वर्ग जाना है। वैसा व्यक्ति जहां होता है, वह स्वर्ग होता है। मनुष्य अद्भुत पौधा है। उसमें विष और अमृत दोनों के फूल लगने की संभावना है। वह स्वयं के चित्त को यदि घृणा और अप्रेम से परिपोषित करे तो विष के फूलों को उपलींध हो जाता है और वह चाहे तो प्रेम को स्वयं में जगाकर अमृत के फूलों को पा सकता है। मैं सबकी सत्ता में स्वयं को पृथक और विरोधी मानकर अपने जीवन को ढालूं तो परिणाम में अप्रेम फलित होगा। ऐसा जीवन ही अधार्मिक जीवन है। वह असत्य भी है। क्योंकि वस्तुतः हमारा होना सागर पर लहरों के होने से भिन्न नहीं है। विश्व-सत्ता से कोई सत्तावान पृथक नहीं है। सबके प्राणों का आदिस्रोत उसी केंद्र में है। उसे चाहें तो हम किसी नाम से पुकारें। नामों से कोई भेद नहीं पड़ता। सत्ता एक और अद्वय है। और यदि मैं अपने जीवन को सर्व के विरोध में नहीं, वरन सर्व के स्वीकार और सहयोग में ढालूं तो परिणाम में प्रेम फलित होता है। प्रेम इस बोध का परिणाम है कि मैं सर्वसत्ता से पृथक और अन्य नहीं हूं। मैं उसमें हूं और वह मुझ में है। ऐसा जीवन धार्मिक जीवन है। एक प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के द्वार को खटखटाया। भीतर से पूछा गया, ‘कौन है’ उसने कहा ‘मैं हूं तुम्हारा प्रेमी’। प्रत्युत्तर में उसे सुनाई पड़ा- ‘इस घर में दो के लायक स्थान नहीं है।’ बहुत दिनों बाद वह पुनः उसी द्वार पर लौटा। उसने फिर द्वार खटखटाया। फिर वही प्रश्न कि कौन इस बार उसने कहा- ‘तू ही है!’ और वे बंद द्वार उसके लिए खुल गए थे। प्रेम के द्वार केवल उसके लिए ही खुलते हैं जो अपने ‘मैं’ को छोड़ने को तैयार हो जाता है। किसी एक व्यक्ति के प्रति यदि कोई अपने ‘मैं’ को छोड़ देता है तो लोक में उसे ‘प्रेम’ कहते हैं और जब कोई सर्व के प्रति अपने ‘मैं’ को छोड़ देता है, तो ‘वही’ प्रेम बन जाता है। वैसा प्रेम ही भक्ति है। प्रेम काम नहीं है। जो काम को ही प्रेम समझ लेते हैं, वे प्रेम से वंचित रह जाते हैं। काम प्रेम का आभास और भ्रम है। वह प्रकृति का सम्मोहन है। उस सम्मोहन के यांत्रिक माध्यम से प्रकृति संतति-उत्पादन का अपना व्यापार चलाती है। प्रेम का आयाम उससे बहुत भिन्न और बहुत ऊपर है। वस्तुतः प्रेम जितना विकसित होता है, काम उतना ही विलीन होता है। वह ऊर्जा जो काम में प्रकट होती है, उसका संपरिवर्तन प्रेम में हो जाता है। प्रेम उस शक्ति का ही सृजनात्मक ऊर्ध्वीकरण है, और इसलिए जब प्रेम पूर्ण होता है, तो कामशून्यता अनायास ही फलित हो जाती है। प्रेम के ऐसे जीवन का नाम ही ब्रह्मचर्य है। काम से जिसे मुक्त होना है, उसे प्रेम को विकसित करना चाहिए। काम के दमन से कभी कोई काम से मुक्त नहीं होता। उससे मुक्ति तो केवल प्रेम में ही है। मैंने कहा- ‘प्रेम ही प्रभु है’। यह अंतिम सत्य है। अब यह भी कहने दें कि प्रेम परिवार है। यह प्रथम सीढ़ी है। और स्मरण रहे कि प्रथम के अभाव में अंतिम का कोई आधार नहीं है। प्रेम से परिवार बनता है और प्रेम के विकास से परिवार बड़ा होता जाता है। फिर जब उस परिवार के बाहर कुछ भी नहीं रह जाता है, तो वही प्रभु हो जाता है। प्रेम के अभाव में मनुष्य निपट निजता में रह जाता है। उसका कोई परिवार नहीं होता है। वह ‘स्व’ रह जाता है और ‘पर’ से उसका कोई सेतु नहीं रह जाता। यह क्रमिक मृत्यु है, क्योंकि जीवन तो पारस्परिकता में है, जीवन तो संबंधों में है। प्रेम में ‘स्व’ और ‘पर’ का अतिक्रमण है और जहां न ‘स्व’ है, न ‘पर’ है, वहीं सत्य है। सत्य के लिए जो प्यासे हैं उन्हें प्रेम साधना होगा- उस क्षण तक जब तक कि प्रेमी और प्रिय न मिट जाएं और केवल प्रेम ही शेष न रह जाए। प्रेम की ज्योति जब विषय और विषयी के धुएं मुक्त हो निर्धूम जलती है, तभी मोक्ष है- तभी निर्वाण है। मैं उस परम मुक्ति के लिए सभी को आमंत्रित करता हूं!
ओशो
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