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गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-23)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-23) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-33

ब्रह्म के दो रूप

अभी विगत पंद्रह वर्षों की गहन खोज ने विज्ञान को एक नयी धारणा दी है- ‘एक्सपैंडिंग युनिवर्स’ की, फैलते हुए विश्व की। सदा से ऐसा समझा जाता था कि विश्व जैसा है, वैसा है। नया विज्ञान कहता है, विश्व उतना ही नहीं है जितना है- रोज फैल रहा है, जैसे कि कोई गुब्बारे में हवा भरता चला जाए और गुब्बारा बड़ा होता चला जाए! यह जो विस्तार है जगत का, यह उतना नहीं है, जितना कल था। यह निरंतर फैल रहा है।  ये जो तारे रात हमें दिखायी पड़ते हैं, ये एक-दूसरे से प्रतिपल दूर जा रहे हैं- ‘एक्सपैंडिंग युनिवर्स’, फैलता हुआ विश्व! इसके दो अर्थ हुए : कि एक क्षण ऐसा भी रहा होगा, जब यह विश्व इतना सिकुड़ा रहा होगा कि शून्य केंद्र पर रहा होगा- आप पीछे लौटें! समय में जितने पीछे लौटेंगे, विश्व छोटा होता जाएगा, सिकुड़ता जाएगा। एक क्षण ऐसा जरूर रहा होगा, जब यह सारा विश्व बिंदु पर सिकुड़ा रहा होगा- फिर फैलता चला गया, आज भी फैल रहा है परिधि बड़ी होती चली जाती है रोज!

वैज्ञानिक कहते हैं, हम कुछ कह नहीं सकते कि यह कब तक बड़ी हो सकती है! यह अंतहीन विस्तार है। यह बड़ी होती ही चली जाएगी।  एक दूसरी बात भी ख्याल में ले लेनी जरूरी है कि विज्ञान ने तो यह शींद अभी उपयोग करना शुरू किया है, ‘एक्सपैंडिंग युनिवर्स’- लेकिन उपनिषद जिसे ब्रह्म कहते हैं, उस ब्रह्म का मतलब होता है, ‘दी एक्सपैंडिंग’। ब्रह्म का मतलब परमात्मा नहीं होता। ब्रह्म का अर्थ होता है, फैलता हुआ। ब्रह्म का अर्थ होता है, जो फैलता ही चला जाता है। ब्रह्म और विस्तार एक ही मूल धातु से निर्मित होते हैं। एक ही शींद के रूप हैं। ब्रह्म का मतलब है, जो सदा विस्तीर्ण होता चला जाता है। विस्तीर्ण है- ऐसा नहीं, स्थिति में विस्तीर्ण है- ऐसा नहीं, प्रक्रिया में विस्तीर्ण है! जो होता चला जाता है- ‘कांस्टेंटली एक्सपैंडिंग’ निरंतर विस्तीर्ण होता हुआ जो है।  अब ब्रह्म के दो अर्थ हुए - एक तो ब्रह्म का वह अर्थ हुआ जिसको असंभूति कहता है उपनिषद का ऋषि। असंभूति ब्रह्म का अर्थ है : शून्य ब्रह्म। जब वह नहीं फैला था उस क्षण की हम कल्पना करें। फैलाव का बिल्कुल प्राथमिक क्षण, जब बीज टूटा नहीं था। बीज के टूटने के बाद तो अंकुर फैलता ही चला जाएगा- वृक्ष होगा। जरा छोटे-से बीज से इतना बड़ा वृक्ष होगा कि हजार बैलगाड़ियां उसके नीचे विश्राम कर सकेंगी। और फिर उस वृक्ष में अनंत बीज लगेंगे। और अनंत बीज में से एक-एक बीज फिर इतना ही बड़ा हो जाएगा। एक छोटा-सा बीज भी फैलकर अनंत बीज होता चला जा रहा है।
असंभूत ब्रह्म का अर्थ है : बीज रूप ब्रह्म, बिंदु रूप ब्रह्म। कल्पना ही कर सकते हैं हम, क्योंकि बिंदु की कल्पना ही होती है। परिभाषा यह है बिंदु की, जिसमें लंबाई और चौड़ाई न हो। ऐसे बिंदु की सिर्फ व्याख्या हो सकती है, बिंदु को खींचा नहीं जा सकता। क्योंकि बिना लंबाई-चौड़ाई के कागज पर बिंदु बनेगा नहीं। इसलिए जो बिंदु दिखायी नहीं पड़ता वह सिर्फ परिभाषा में है।  असंभूत ब्रह्म का अर्थ है- युक्लीड जिसे बिंदु कहता है, वही असंभूत है- जिसमें अभी होना शुरू नहीं हुआ, जिसमें अभी भूत प्रकट नहीं हुआ- असंभूत अभी ‘एक्जिस्टेंस’ आया नहीं, ‘पोटेंशियल’ है! अभी छिपा है, अभी प्रकट होगा, होने को है- लेकिन अभी बिंदु है।  इस असंभूत ब्रह्म की एक स्थिति हुई, लेकिन इसे हम नहीं जानते। हम तो दूसरे ब्रह्म को जानते हैं, संभूत ब्रह्म- जो हो गया! हम तो वृक्षरूप ब्रह्म को जानते हैं- जो हो गया, और होता ही चला जा रहा है फैलता ही चला जा रहा है! हमारा यह विश्व रोज बड़ा हो रहा है। रोज कहना बहुत कम है, यह प्रतिपल बड़ा हो रहा है। सूर्य की किरणों की जो गति है उसी गति से तारे एक-दूसरे से दूर हट रहे हैं- केंद्र से दूर हट रहे हैं। और सूर्य की किरणों की गति है प्रति सेकेंड एक लाख छियासी हजार मील। इतनी गति से परिधि केंद्र से दूर जा रही है। अनंतकाल से इस तरह दूर जा रही है।
वैज्ञानिक भी तय नहीं कर पाते कि समय के उस क्षण को हम कैसे तय करें, जब यह शुरू हुई होगी यात्रा! जब पहला कदम उठाया होगा बीज ने वृक्ष होने का! और हम यह भी नहीं कह सकते कि क्या होगी अंतिम यात्रा विज्ञान बड़ी कठिनाई में पड़ गया है। क्योंकि ‘एक्सपैंडिंग युनिवर्स’ कंसीवेबल नहीं है कि कहां जाकर रुकेगा और क्यों रुकेगा रुकने का कोई कारण क्या है रुकने के लिए जरूरत है कि कोई और चीज बाधा बन जाए!  जैसे एक पत्थर को मैं फेंकता हूं हाथ से और इस पत्थर को जब तक कोई बाधा न मिले तो यह कहीं भी नहीं रुकेगा। पर बाधा मिल जाती है। वह किसी वृक्ष से टकरा जाता है। वृक्ष से न टकराए तो जमीन की कशिश उसे खींच रही है पूरे वक्त। लेकिन यह जो संभूत ब्रह्म है, यह कहां रुकेगा इसको कोई बाधा आएगी कहां से क्योंकि सभी कुछ इसके भीतर है, इसके बाहर कुछ भी नहीं है। अगर बाहर कुछ है तो उसका मतलब है कि वह भी इसका हिस्सा हो गया, संभूत ब्रह्म का हिस्सा हो गया। इसीलिए बाधा तो कहीं आएगी नहीं, यह रुकेगा कहां यह रुकेगा कैसे यह बढ़ता ही चला जाएगा।  इसलिए आइंसटीन और प्लांक जिन्होंने इस पर काफी काम किया, वे बड़ी उलझन में पड़ गए। उनको आखिर, इसे रहस्य की तरह छोड़ देना पड़ा। इस फैलाव के रुकने को कोई कारण दिखायी नहीं पड़ता, और यह इनकंसीवेबल मालूम पड़ता है कि फैलता ही चला जाए। अगर यही इसी तरह फैलता चला गया तो एक दिन तारे इतने दूर हो जाएंगे कि एक तारे से दूसरा तारा दिखायी नहीं पड़ेगा। लेकिन उपनिषद कुछ और ढंग से सोचते हैं और उस ढंग को समझ लेना चाहिए।  एक दिन, आज नहीं कल, वैज्ञानिक को उस ढंग से सोचना शुरू करना पड़ेगा। लेकिन अब तक पश्चिम के विज्ञान की वह धारणा नहीं है- न होने का कारण है। न होने का कारण है कि पश्चिम का पूरा विज्ञान ग्रीक फिलॉसफी से, यूनानी दर्शन से विकसित हुआ। और यूनानी दर्शन की जो मूल मान्यताएं हैं वह उन पर खड़ा है।
यूनानी दर्शन की एक मूल मान्यता यह है कि समय सदा सीधी रेखा में गति करता है। इससे पश्चिम का विज्ञान बड़ी मुश्किल में पड़ा है। भारतीय दर्शन की धारणा बड़ी भिन्न है, भारतीय दर्शन की धारणा है कि सभी गति वर्तुलाकार है, ‘सर्कुलर’ है। कोई गति सीधी रेखा में नहीं होती।  इसको समझें। जैसे एक बच्चा पैदा हुआ, तो साधारणतः अगर हम यूनानी चिंतक से पूछें तो उसके हिसाब से बच्चे और बूढ़े के बीच में सीधी रेखा खींची जा सकती है- भारतीय दार्शनिक कहेगा, नहीं! बच्चे और बूढ़े के बीच एक वर्तुल बनाया जा सकता है, क्योंकि बूढ़ा वहीं पहुंच जाता है मरते वक्त, जहां से बच्चे ने शुरू किया है- सर्किल है। इसलिए बूढ़े अगर बच्चों जैसा व्यवहार करने लगते हैं तो बहुत हैरानी की बात नहीं है। सीधी रेखा नहीं है। बचपन और बुढ़ापे के बीच वर्तुल है, एक गोल घेरा है। जवानी वर्तुल का बीच का हिस्सा है, उठाव है। फिर जवानी के बाद लौटनी शुरू हो गयी यात्रा।  ऐसा समझें, जैसे कि ऋतुएं घूमती हैं। भारतीय धारणा समय की ऋतुओं के घूमने जैसी है, मंडलाकार। वर्षा आती है, फिर ग्रीष्म आता है, फिर सर्दी आती है, फिर वर्तुल है। सीधी नहीं है, एक वर्तुल है। सुबह होती है, सांझ होती है, फिर सुबह आती है, फिर सांझ होती है- एक वर्तुल है। पूर्वीय मनीषि की धारणा ऐसी है कि समस्त गतियां वर्तुलाकार हैं। पृथ्वी भी गोल घूमती है, ऋतुएं भी गोल घूमती हैं, सूर्य भी गोल घूमता है, चांद-तारे भी गोल घूमते हैं। गति मात्र वर्तुल है। कोई गति सीधी नहीं है। जीवन भी गोल घूमता है।  यह जो ‘एक्सपैंडिंग युनिवर्स’ है वैसे ही है जैसे बच्चा जवान हो रहा है। लेकिन अगर बच्चा जवान ही होता जाए तो बड़ी मुश्किल पड़ेगी। कहां होगा रुकाव लेकिन जब तक बच्चा जवान हो रहा है, थोड़ी ही देर में वर्तुल डूबना शुरू हो जाएगा और जवान बूढ़ा होने लगेगा। अगर जन्म फैलता ही चला जाए और मृत्यु के बिंदु पर वापस लौट न आए तो कहां रुकेगा इसलिए भारत का जो चिंतन है वह कहता है कि यह जो फैलता हुआ ब्रह्म है, यह फैलकर बच्चा रहेगा, जवान होगा, बूढ़ा होगा, वापस असंभूत ब्रह्म में गिर जाएगा। वापस शून्य हो जाएगा।
जहां से आया है वहीं वापस लौट जाएगा। बड़ा लंबा वर्तुल होगा इसका।  हमारे जीवन का वर्तुल सत्तर साल का है। लेकिन छोटे वर्तुल के जीवन भी हैं। एक पतंगा सुबह पैदा होता है, सांझ वर्तुल पूरा हो जाता है। इससे भी छोटे वर्तुल हैं। क्षणभर जीने वाले प्राणी भी हैं। क्षण के शुरू में पैदा होते हैं, क्षण के बाद में डूब जाते हैं। और आप यह मत सोचना कि जो क्षण भर जीता है वह सत्तर साल वाले से कम जीता है। क्योंकि क्षणभर के वर्तुल में, सत्तर साल में जो आप पूरा करते हैं वह पूरा हो जाता है। बचपन आता है, जवानी आती है, प्रेम होता है, बच्चे पैदा होते हैं, बुढ़ापा आ जाता है- मौत हो जाती है। क्षणभर के वर्तुल में भी सत्तर साल पूरे हो जाते हैं। सत्तर साल कोई बड़ा वर्तुल नहीं है।  पृथ्वी हमारी, वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई चार अरब वर्ष पहले पैदा हुई। हमारे पास कोई पता लगाने का उपाय नहीं है कि पृथ्वी अब किस अवस्था में होगी, लेकिन कई हिसाब से लगता है कि बूढ़ी होती है। भोजन कम पड़ता जाता है, आदमी ज्यादा होते चले जाते हैं, मौत निकट मालूम होती है, सब चीजें चुकती जाती हैं। कोयला चुकता जाता है, पेट­ोल चुकता जाता है, भोजन चुकता जाता है, जमीन के सब रासायनिक द्रव्य चुकते जाते हैं।  जमीन बूढ़ी होती है, जल्दी ही मरेगी। जल्दी का मतलब हमारे हिसाब से नहीं, क्योंकि जिसको चार अरब वर्ष लगे हों बूढ़ा होने में, उसको मरने में भी अरब वर्ष लग जाएं, आश्चर्य नहीं! लेकिन हमें जमीन का पता नहीं चलता।
आपके शरीर में, एक आदमी के शरीर में अंदाजन सात करोड़ जीवाणु हैं। उन जीवाणुओं को कोई पता नहीं कि आप भी हैं। वे पैदा होंगे, जवान होंगे, बूढ़े होंगे, बच्चे छोड़ जाएंगे, मर जाएंगे, उनकी कब्र बन जाएगी आपके भीतर, आपको उनका पता नहीं चलेगा। उनको तो आपका बिल्कुल पता नहीं। आप सत्तर साल जिएंगे, इस बीच आपके भीतर करोड़ों जीवन पैदा होंगे और विदा हो जाएंगे।  ठीक ऐसे ही पृथ्वी को हमारा कोई पता नहीं है, हमें पृथ्वी के जीवन का कोई पता नहीं है। अरबों वर्ष का उसका जीवन वर्तुल है। पृथ्वी का चार-पांच अरब वर्ष का जीवन वर्तुल है- पूरे ब्रह्म का, ब्रह्मांड का, संभूत ब्रह्म का, कितने वर्षों का है, कहना कठिन है! लेकिन एक बात तय है कि इस जगत में नियम का कोई भी उल्लंघन नहीं है। देर-अबेर नियम पूरा होता है।  इसलिए उपनिषद के ऋषि कहते हैं, दो हिस्से कर लें ब्रह्म के- संभूत, जो है; असंभूत, जिससे हुआ है और जिसमें लीन हो जाएगा- बिंदु ब्रह्म और विस्तीर्ण ब्रह्म! विस्तीर्ण ब्रह्म को जान लेता है, वह मृत्यु को पार करता है। बिंदु को जान लेता है, वह अमृत को उपलींध होता है। क्योंकि विस्तीर्ण ब्रह्म जो है वह मृत्यु का घेरा है- मृत्यु घटेगी ही। वर्तुल को पूरा होना पड़ेगा। जन्म हुआ है, मृत्यु होगी।  क्यों, ऋषि कहता है कि वह मृत्यु को जीत लेता है मृत्यु को जीतने का क्या अर्थ है क्या ऋषि मरते नहीं सब ऋषि मर जाते हैं, सब ज्ञानी मर जाते हैं! निश्चित ही मृत्यु को जीतने का अर्थ, ‘न मरना’ नहीं है। मृत्यु को जीतने का अर्थ है : जो व्यक्ति यह जान लेता है, गहरे में अनुभव कर लेता है कि जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी ही है, अनिवार्य है; जो यह जान लेता है कि जन्म पहली शुरुआत है वर्तुल की, मृत्यु अंत है; जो इस बात को इतनी प्रगाढ़ता से जान लेता है कि मृत्यु अनिवार्यता है, नियति है- वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है!  अनिवार्य से क्या भय है जिससे निवारण नहीं हो सकता है उसका भय कैसा जो होगा ही, जो होना ही है, उसकी चिंता भी क्या चिंता तो उसकी होती है जिसमें परिवर्तन हो सके। इसलिए मजे की बात है कि पश्चिम में जितनी मृत्यु की चिंता है उतनी पूरब में कभी नहीं थी।
जबकि पश्चिम को ऐसा लगता है कि मृत्यु को जीतने के उपाय उसके पास हैं, और पूरब को कभी नहीं लगा कि ऐसे जीतने के कोई उपाय हैं।  इसके कारण हैं। अगर ऐसा लगे कि मृत्यु को बदला जा सकता है तो चिंता पैदा होगी। जो भी चीज बदली जा सकती है, चिंता आएगी। जो नहीं बदली जा सकती, तो चिंता का कोई उपाय नहीं, चिंता करके करिएगा क्या चिंता किसलिए! अगर मृत्यु सुनिश्चित है, अगर जन्म के साथ ही तय हो गयी तो चिंता का क्या कारण है युद्ध के मैदान पर सिपाही जाते हैं तो जब तक युद्ध के मैदान पर नहीं पहुंचते तब तक भयभीत, पीड़ित और चिंतित होते हैं। जैसे ही युद्ध के मैदान पर पहुंचते हैं, दिन दो दिन के भीतर सब चिंता मिट जाती है। कायर से कायर सैनिक भी युद्ध के मैदान में पहुंचकर बहादुर हो जाता है। क्योंकि बम गिरने लगे सिर के ऊपर, अब कोई उपाय नहीं रहा।  पाणिनी के संबंध में छोटी-सी मीठी कथा है। अपने विद्यार्थियों को बिठाकर पाणिनी व्याकरण पढ़ा रहा है, जंगल है, एक सिंह दहाड़ता हुआ आ जाता है। पाणिनी कहता है, सुनो सिंह की दहाड़ और इस दहाड़ का क्या रूप होगा, वह समझो! बच्चे कंप रहे हैं और पाणिनी सिंह की दहाड़ की क्या व्याकरण व्यवस्था होगी, वह समझा रहा है। कहते हैं, पाणिनी के ऊपर सिंह ने हमला कर दिया तब भी वह व्याकरण समझा रहा है।
पाणिनी को सिंह खा गया, तब भी वह ‘सिंह मनुष्य को खाता है,’ तो इसका भाषागत रूप क्या है इसकी व्याकरण क्या है वह समझा रहा है! नहीं, पाणिनी भी भागकर बचाव तो कर ही सकता था, ऐसा हमें लगता है। कुछ उपाय किया जा सकता था।  लेकिन पाणिनी जैसे लोगों की समझ यह है कि आज मरे कि कल, मरना जब सुनिश्चित है तो आज और कल से क्या फर्क पड़ता है। समय के व्यवधान से कोई फर्क पड़ता है जब मृत्यु होनी ही है तो आज होगी कि कल होगी, परसों होगी, उसकी स्वीकृति है! इस स्वीकृति में विजय है। ‘दिस एक्सेप्टिबिलिटी’- यह स्वीकार, कि हमने जन्म के साथ मृत्यु को स्वीकार कर लिया है; फैलाव के साथ ही सिकुड़ने को स्वीकार कर लिया है- फैले हैं, उसी दिन जाना कि सिकुड़ जाएंगे; जन्मे हैं, उसी दिन जाना कि विदा हो जाएंगे; प्रकट हुए हैं, उसी दिन जाना कि अप्रकट हो जाएंगे- वर्तुल पूरा होकर रहेगा!  ऐसी स्वीकृति मृत्यु से मुक्ति है। फिर मरना कैसा मरनेवाला तो पार हो गया। उसे तो कोई जन्म का मोह न रहा और मृत्यु का कोई भय न रहा। ध्यान रहे, हमारे जीवन में मृत्यु और जीवन दो छोर हैं जो जीवन के बाहर हैं। जन्म हमारा जीवन के बाहर है क्योंकि जन्म के पहले हम नहीं थे।
मृत्यु हमारे जीवन के बाहर है, क्योंकि इस मृत्यु के बाद हम नहीं होंगे। वह बाउंड­ी लाइन है, सीमांत है। लेकिन जो जानता है उसके लिए यह सीमांत नहीं है। मृत्यु और जन्म जीवन के बीच में घटी दो घटनाएं हैं। क्योंकि वह कहता है कि जन्म किसका मैं पहला था, तभी तो मैं जन्म सका, नहीं तो मैं जन्मता कैसे मैं अप्रकट था, तभी तो प्रकट हो सका, अन्यथा मैं प्रकट कैसे होता बीज में अगर वृक्ष नहीं छिपा था तो कोई उपाय नहीं था कि वह पैदा हो जाए!  और मैं मर सकूंगा तभी, क्योंकि मैं हूं, नहीं तो मृत्यु किसकी होगी जन्म के पहले मैं था तो जन्म हो सका, मृत्यु के बाद भी मैं रहूंगा तो ही मृत्यु हो सकती है, नहीं तो मृत्यु होगी किसकी जो जानता है, उसके लिए मृत्यु अंत नहीं है। जीवन के बीच घटी एक घटना है। जन्म भी जीवन के बीच घटी एक घटना है, प्रारंभ नहीं है। जीवन, वर्तुल के बाहर है लेकिन वह जीवन असंभूत है- वह अप्रकट है, अन-अभिव्यक्त है, ‘अनएक्सप्रेस्ड’ है, ‘अनमैनीफेस्ड’ है। वह असंभूत जीवन संभूत बनता है जन्म से, फिर असंभूत बन जाता है मृत्यु से। जो जान लेता है संभूत जगत की इस व्यवस्था को, वह फिर व्यवस्था से पीड़ित नहीं होगा।  एक मकान के भीतर आप हैं, आप जानते हैं कि यह दीवार है, और यह दरवाजा है। तो फिर आप दीवार से सिर नहीं टकराते। फिर आप दीवार से निकलने की कोशिश नहीं करते। निकलना होता है, दरवाजे से निकल जाते हैं। लेकिन फिर इसके लिए बैठकर रोते नहीं कि दीवार दरवाजा क्यों नहीं है!
लेकिन जिसे दरवाजे का पता नहीं है वह बेचारा दीवार से सिर टकराएगा और बहुत बार चिल्लाएगा कि दीवार दरवाजा क्यों नहीं है- दरवाजे का पता न हो तो! दरवाजे का पता हो तो- दीवार-दीवार है, दरवाजा-दरवाजा है! दीवार से निकलने की आप कोशिश नहीं करते, दरवाजे से निकलने की कोशिश करते हैं।  व्यवस्था को पूरा जो जान लेता है वह व्यवस्था से मुक्त हो जाता है। जो व्यवस्था को अधूरा जानता है वह संघर्ष में पड़ा रहता है। हम जानते हैं, जन्म है तो मृत्यु है। यह जानना इतना साफ है, इतना चरम है, इतना ‘अल्टीमेट’ है, इसमें फर्क का कोई उपाय नहीं। इसी का नाम नियति है- संभूत की नियति, संभूत के बीच भाग्य!  लेकिन भाग्य से हमने बड़े गलत अर्थ लिए। असल में हम गलत आदमी हैं इसलिए सब चीजों के गलत अर्थ लेते हैं। अर्थ सही और गलत हो जाते हैं, गलत और सही आदमियों के साथ। भाग्य का अर्थ अगर निराशा बन जाए, तो फिर आप समझे नहीं! हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाए आदमी, भाग्य को समझकर, तो आप समझे नहीं!  भाग्य का अर्थ परम आशावान है। बड़ी मुश्किल मालूम पड़ेगी बात। भाग्य का मतलब ही यह है कि अब दुःख का कोई कारण ही न रहा। अब तो निराशा की कोई जगह ही न रही- मृत्यु है, और है! इसमें दुःख कहां है। इसमें पीड़ा कहां है। दुःख और पीड़ा वहीं थे, जब स्वीकार न था। तो निराशा कहां है बुद्ध कहते हैं कि जो बना है वह बिखरेगा, जो मिला है वह छूटेगा। मिलन के क्षण में जानना कि विदा मौजूद हो गयी है। परंतु हम उदास हो जाएंगे। प्रेमी से मिले, उसी क्षण ख्याल आ गया कि विदा का क्षण उपस्थित होगा, अब थोड़ी देर में विदा होगी, बस हमारा मिलन भी नष्ट हो जाएगा। मिलन में जो थोड़ी बहुत सुख की भ्रांति पैदा होती है वह भी गयी। क्योंकि विदायी दिखायी पड़ने लगी।
जन्म हुआ, बैंड-बाजे बजे, उसी वक्त किसी ने कहा, मौत निश्चित हो गयी- मरेगा यह बच्चा! हम कहेंगे, ऐसे अपशकुन की बातें मत बोलो। इससे बड़ा मनह्लह्लञ्ह्लह्लउदास होता है। इससे चित्त को बड़ा धक्का लगता है। लेकिन बुद्ध जब कहते हैं, मिलन में विदा उपस्थित हो गयी तो वे मिलन के सुख को नहीं काट रहे हैं, केवल विदा के दुःख को काट रहे हैं।  इसमें फर्क समझ लेना। नासमझ मिलन के सुख को काट डालेगा, समझदार विदा के दुःख को काट डालेगा। क्योंकि जब मिलन में ही विदा उपस्थित है, तो विदा का दुःख कैसा वह तो जिस दिन मिलन चाहा था, उसी दिन विदा भी चाह ली थी। जब जन्म में ही मौत उपस्थित है तो मृत्यु का दुःख कैसा वह तो जिस दिन जन्म चाहा था उसी दिन मौत भी मिल गयी। नासमझ जन्म के सुख को काट देगा, समझदार मृत्यु के दुःख को काट देगा।  संभूत ब्रह्म को, विस्तीर्ण ब्रह्म को, प्रकट ब्रह्म को जानकर व्यक्ति मृत्यु के पार हो जाता है। मृत्यु के, पीड़ा के, संताप के, सबके पार हो जाता है। ध्यान रहे, दुःख, पीड़ा, संताप और चिंता सब मृत्यु की छायाएं हैं- ‘शेडो आफ डेथ’। जो व्यक्ति मृत्यु से मुक्त हो गया, उसके लिए न कोई दुःख है, न कोई चिंता है, न ही कोई पीड़ा है।
कभी आपने ठीक से ख्याल नहीं किया होगा कि जब भी चिंतित होते हैं तो किसी न किसी कोने में मौत खड़ी होती है, उस वजह से चिंतित होते हैं। एक आदमी के घर में आग लग गयी, वह चिंतित होता है। एक आदमी का दिवाला निकल गया, वह चिंतित है। क्योंकि दिवाला निकलने से जीवन अब कष्ट में पड़ेगा और मौत आसान हो जाएगी। मकान जल जाने से अब जीवन असुरक्षित हो जाएगा और मौत सुगमता पाएगी। अंधेरे में अकेला खड़ा आदमी चिंतित होता है क्योंकि कुछ दिखायी नहीं पड़ता और मौत अगर आ जाए तो अभी दिखायी भी नहीं पड़ेगी। जहां-जहां आप चिंतित होते हो, फौरन पहचानना आस-पास, कहीं खड़ी हुई मौत को पाएंगे।  मौत की छाया है चिंता। वहां- जहां दुःख और पीड़ा मन को पकड़ते हों वहां समझ लेना कि कहीं संभूत ब्रह्म की समझ में नासमझी हो रही है। अनिवार्य को आप निवार्य मान रहे हैं। बस वहीं से दुःख शुरू हो रहा है। जो होना ही है, उसकी आप आशा किए जा रहे हैं कि शायद न हो। वहीं से चिंता शुरू हो गयी। वहीं संताप और ‘एंग्विश’ पैदा होता है। नहीं, जो होना ही है, वही हो रहा है, वही होता है, अन्यथा और कोई उपाय नहीं है। तब इस स्वीकृति के साथ, इस तथाता के साथ, संभूत ब्रह्म की इस व्यवस्था की स्वीकृति के साथ, भीतर सब शांत हो जाता है। अशांति का उपाय नहीं रह जाता।  इसलिए कहा है ऋषि ने, संभूत ब्रह्म को जानकर मृत्यु से मुक्ति हो जाती है। लेकिन यह आधी बात है, यह आधा सूत्र है। अभी एक और जानने को छूट गया है, जो और गहन है। हम तो इसको ही नहीं जान पाते, इसी से उलझकर परेशान हो जाते हैं। अज्ञान में नाहक दीवारों से सिर फोड़ते रहते हैं। जहां दरवाजा नहीं है, वहां नाहक टकराते रहते हैं। ताश के घर बनाते रहते हैं, पानी पर रेखाएं खींचते रहते हैं। और उनके मिटने को देखकर रोते रहते हैं।  जिस दिन पानी पर रेखा खींचें उसी दिन जान लेना, उसी क्षण जान लेना कि पानी पर खींची गयी रेखा खींचते ही मिटना शुरू हो जाती है।
इधर आपने खींची नहीं, उधर वह मिटने लगी। पानी पर रेखा खींचिएगा और स्थायी करने की कोशिश करिएगा तो इसमें कसूर पानी का है कि रेखा का कि आपका इसमें दोष किसको दीजिए, पानी को, रेखा को जो आदमी पानी को दोष देगा वह दुःखी होगा! जो समझेगा अपनी नासमझी, वह हंसेगा! जान लेगा कि पानी पर खींची गयी रेखा मिटती है- मिटनी ही चाहिए। खिंच जाए तो ही झंझट है।  संभूत ब्रह्म को ही हम नहीं समझ पाते, असंभूत को तो कैसे समझ पाएंगे- प्रकट, जो है, बिल्कुल सामने जो खड़ा है! मौत से ज्यादा प्रकट कोई चीज है धोखा दिए जाते हैं अपने को, डिसेप्शन दिए जाते हैं! कोई दूसरा मरता है तो कहते हैं, बेचारा मर गया। ख्याल ही नहीं आता कि अपनी मरने की खबर आई है।  एक पंक्ति मुझे याद आती है एक आंग्ल कवि की। कोई मर जाता है गांव में तो चर्च की घंटी बजती है। उस पंक्ति में कहा है, किसी को भेजो मत पूछने, कि घंटी किसके लिए बजती है ‘इट टाल्स फार दी’- तुम्हारे लिए ही बजती है! बिना पूछे ही जानो कि तुम्हारे लिए ही बजती है। मौत जैसा प्रकट तत्व ऐसा हम छिपाकर चलते हैं कि अगर कोई मंगल ग्रह का यात्री हमारे बीच उतरे और दो-चार दिन हमारे घर में रहे तो दो चीजों का उसको पता नहीं चलेगा, जो दोनों जुड़ी हैं।  ख्याल में ले लें! उसे पता नहीं चलेगा कि मौत होती है। उसे पता नहीं चलेगा कि सैक्स होता है। सैक्स को भी हम छिपाए हैं, मौत को भी हम छिपाए हैं।
ध्यान रखें : सैक्स जन्म सूत्र है। वह संभूत ब्रह्म का पहला चरण है। और मौत आखिरी सूत्र है, वह आखिरी चरण है। मृत्यु के भय की वजह से सैक्स का दमन शुरू हुआ। वह पहला सूत्र है कि अगर मौत को दबाना है तो जन्म की प्रक्रिया को भी भुला देना होगा। क्योंकि जन्म के साथ मौत जुड़ी हुई है।  इसलिए जन्म हम अंधेरे में छिपा देते हैं। जन्म की प्रक्रिया को पर्दों में डाल देते हैं। और मौत को हम गांव के बाहर निकाल देते हैं। कब्रिस्तान बना देते हैं दूर। कब्र पर फूल बो देते हैं कि कोई निकले भी कब्र के पास भूलचूक से तो फूल दिखाई पड़ें, कब्र दिखाई न पड़े। लाश को ले जाते हैं तो फूलों में ढांक लेते हैं। वह मरा हुआ दिखाई न पड़े, खिला हुआ दिखाई पड़े। कितने ही फूलों में ढांको, लेकिन जो मर गया, वह मर गया- कितनी ही खूबसूरत कब्रें बनाओ और कब्रों पर कितने ही मजबूत पत्थर लगाओ और उन पर नाम लिखो! जब कब्र के भीतर जो पड़ा है आज, वह न बच सका, तो पत्थरों पर लिखे हुए नाम कितनी देर बचेंगे और कब्र को कितना ही गांव के बाहर सरकाओ, मौत गांव में ही घटती रहेगी- कब्रिस्तान में नहीं घटेगी!  इधर हम सैक्स को दबाते हैं, छिपाते हैं, क्योंकि वह जन्म है। उसको भी दबाने और छिपाने के पीछे अचेतन कारण है। कारण यही है कि वह पहला सूत्र है। अगर उसको उघाड़कर रखा तो मौत भी उघड़ जाएगी। वह भी बच नहीं सकती ज्यादा दिन। इसलिए बड़े मजे की बात है कि जिन समाजों में सैक्स सप्रेशन समाप्त हुआ है- जहां-जहां समाज ने सैक्स को मुक्त कर दिया, प्रकट कर दिया, वहां-वहां मौत की चिंता बढ़ गई।
मैंने सुना है, यहूदी बच्चा एक दिन अपने घर लौट आया। स्कूल से समझकर आया है कि बच्चों का जन्म कैसे होता है नए ज्ञान से बहुत आनंदित है, किसी को बताने को उत्सुक है। घर आकर उसने अपनी मां को पूछा कि मेरा जन्म कैसे हुआ उसकी मां ने कहा परमात्मा ने तुझे भेजा। मेरे पिताजी का जन्म कैसे हुआ उनको भी परमात्मा ने भेजा। उनके पिताजी का जन्म कैसे हुआ मां थोड़ी हैरान हुई! उसने कहा, उनको भी परमात्मा ने भेजा। वह पूछते ही चला गया, और उनके पिता सात पीढ़ियां आ गयीं। मां ने कहा, उत्तर एक ही है। तो उस लड़के ने कहा कि इसका क्या मतलब होता है ‘व्हाट डज़ दिस मीन’ सैक्स हैज नाट एक्ज़िस्टेड इन अवर फैमिली फार सेवन जेनरेशंस’ सात पीढ़ियों से सैक्स हमारे घर में है ही नहीं क्योंकि मैं तो स्कूल में पढ़कर आ रहा हूं कि बच्चे ऐसे पैदा होते हैं नहीं, बहुत अचेतन भय है सैक्स को दबाने का। वह जन्म का पहला सूत्र है। जब तक बच्चों को पता नहीं है कि कैसे पैदा होता है आदमी, तब तक वे यही पूछते चले जाते हैं, कैसे पैदा होता है जिस दिन पता चल जाएगा, कैसे पैदा होता है, वे पूछेंगे, मरता कैसे है पैदा होनेवाले सूत्र को ही छिपाए चले जाओगे, उसी के आस-पास घूमते रहेंगे और पूछते रहेंगे, और कभी मौका नहीं आएगा कि पूछें, मरता कैसे है जब तक पता नहीं चला कि पैदा कैसे होता है तो मरने का सवाल नहीं उठता।  ध्यान रहे, पैदा होने का सूत्र साफ है तो दूसरा सवाल मौत के सिवाय अन्य नहीं हो सकता। इसलिए दबा दिया इधर काम को, छिपा दिया उधर कब्र को, उधर मृत्यु को छिपा दिया।
उन दोनों के बीच में हम जीते हैं अंधेरे में। निश्चित ही बहुत भयभीत जीते हैं। न जन्म का पता, न मौत का पता, फिर भय तो होगा ही।  संभूत ब्रह्म जो इतना प्रकट है, साफ है, उसको भी हम झुठलाते हैं। तो असंभूत जो अप्रकट है, अन-अभिव्यक्त है, उसका तो कहना ही क्या वहां तक हम पहुंचेगे कैसे जन्म और मृत्यु को ठीक से जान लें- एक ही चीज के दो छोर हैं। वर्तुल का प्रारंभ है जन्म, उसी वर्तुल का अंत है मृत्यु। मृत्यु उसी जगह पहुंचकर होती है, जहां से जन्म होता है। मृत्यु की घटना और जन्म की घटना एक ही घटना है।  क्या होता है जन्म में शरीर निर्मित होता है। पुरुष और स्त्री के अणुओं से कंपोजिट बॉडी निर्मित होते हैं। आधे-आधे दोनों के पास हैं इसलिए स्त्री-पुरुष का इतना आकर्षण है। इसलिए वह आधे तत्व दोनों खिंचते हैं। पूरा होना चाहते हैं। इसलिए सब विधि-विधान, सब नियम, सब सिद्धांत, सब शिक्षकों को छोड़कर बच्चे पैदा होते चले जाते हैं। सिर्फ ब्रह्मचर्य की शिक्षाएं देनेवाले लोग आते हैं और चले जाते हैं, कोई परिणाम दिखायी नहीं पड़ता।  आकर्षण इतना गहरा है कि सब शिक्षाएं ऊपर ही रह जाती हैं। जैसे हमने एक चीज को दो टुकड़ों में तोड़ दिया हो और वे वापस मिलना चाहती हों। मिलते ही नया शरीर निर्मित हो जाता है। आधे अणु स्त्री देती है, आधे अणु पुरुष देता है। जन्म का मतलब है, पुरुष और स्त्री के आधे अणुओं से मिलकर पूरे शरीर का निर्माण।  जैसे ही यह शरीर निर्मित होता है, एक आत्मा उसमें प्रवेश कर जाती है। जिस आत्मा की आकांक्षाएं उस शरीर से पूरी होती हैं, वह आत्मा प्रवेश कर जाती है। यह प्रवेश वैसा ही सहज, स्वचालित है जैसे कि यहां पानी गिरता है और गड्ढे में प्रवेश कर जाता है। उतना ही नियमित है। आत्मा अपने अनुकूल गर्भ को खोजकर प्रवेश कर जाती है।  मृत्यु में क्या होता है वह जो आधे-आधे तत्व मिले थे, वापस बिखरने लगते और टूटने लगते हैं, कुछ और नहीं होता। भीतर से जोड़ फिर शिथिल होने लगता है।
बुढ़ापे का अर्थ है, जोड़ शिथिल होना। भीतर की जो ‘कंपोजिट बॉडी’ थी वह ‘डिकंपोज’ होने लगी। जो जुड़ा था, वह फिर बिखरने लगा। उसके बिखरने का सूत्र जन्म के दिन ही तय हो गया और किसी ढंग से नहीं, वैज्ञानिक के ढंग से तय हो गया।  हमारा ज्ञान कम है, विज्ञान का है, लेकिन बढ़ता जा रहा है। आज नहीं कल, बच्चे के जन्म के साथ हम कह सकेंगे कि इसकी ‘बिल्ट-इन-प्रोसेस’ कितने दिन चल सकती है बच्चा सत्तर साल चल सकता है कि अस्सी साल चल सकता है कि सौ साल चल सकता है। ठीक वैसे ही जैसे हम एक घड़ी की गारंटी देते हैं कि दस साल चल सकती है। क्योंकि इसके कल-पुर्जों की परख कहती है कि दस साल तक के संघर्ष को झेल लेगी- हवा के, ताप के, गति के। दस साल के संघर्ष को झेलकर बिखर जाएगी।  जिस दिन बच्चा पैदा होता है उस दिन दोनों के अणु मिलकर यह तय कर देते हैं कि यह कितने दिन तक हवा, पानी, गर्मी, बरखा, धूप, दुःख, पीड़ा, संघर्ष, मिलन, विरह, मित्रता, शत्रुता, आशा, निराशा, रात-दिन इन सबको झेल सकेगा। और झेलते-झेलते बिखरने लगेगा। और वह दिन आ जाएगा जब ये मिले थे अणु, वे बिखरकर अलग हो जाएंगे। उनके अलग होते ही आत्मा को, शरीर छोड़ देना पड़ेगा।  मृत्यु और यौन, सैक्स और डैथ एक ही चीज के दो छोर हैं।
यौन जिसे मिलाता है, मृत्यु उसे बिखरा देती है। यौन जिसे संयुक्त करता है, मृत्यु उसे वियुक्त कर देती है। यौन अगर सिंथेटिक है तो मृत्यु एनालिटिक है। यौन संश्लिष्ट करता है, मृत्यु विश्लिष्ट कर देती है। घटना एक ही है। घटना में कोई फर्क नहीं है।  संभूत ब्रह्म को जो ठीक से जान ले वह इसकी स्वीकृति को उपलींध होता है। स्वीकृति विजय है। जिस चीज को आपने स्वीकार कर लिया उसके आप मालिक हो गए।  दूसरी बात भी ख्याल में ले लें। ख्याल के लायक नहीं है दूसरी बात। ख्याल में लेने से आएगी भी नहीं। पहली बात ख्याल में आ जाए तो पर्याप्त है। दूसरी बात तो और गहन अनुभव की है। असंभूत ब्रह्म को जानने के लिए या तो जन्म के पहले जाना पड़े या मृत्यु के बाद जाना पड़े। उसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।  इसलिए झेन फकीर जापान में जब कोई साधक उनके पास जाता है तो उससे वह कहते हैं कि तू जा, ध्यान कर और पता लगा कि जन्म के पहले तेरा चेहरा कैसा था! ‘व्हाट्स यौर ओरीजिनल फेस’- यह नहीं जो अभी है! यह नहीं जो कल था, यह नहीं जो परसों था। ओरीजिनल- जो जन्म के पहले था, क्योंकि यह चेहरा तो तेरे मां-बाप से मिला है, तेरा नहीं है। यह आंख का रंग तेरे मां-बाप से मिला है, तेरा नहीं है। यह नाक तेरे मां-बाप से मिली है, तेरी नहीं है। यह चमड़ी का रंग तेरे मां-बाप से मिला है, तेरा नहीं है।  अगर नीग्रो मां-बाप होते तो यह काला हो जाता। अगर अंग्रेज मां-बाप होते तो ये गोरा हो जाता। यह ‘पिगमेंट’ शरीर के रंग का, यह तो तेरे मां-बाप से मिला है। यह अपना नहीं है। यह खुद का चेहरा नहीं है। खुद का चेहरा तो जन्म के पहले मिल सकता है या मौत के बाद मिल सकता है।
जन्म के पहले लौटना बहुत मुश्किल है। असंभूत ब्रह्म को जन्म के पहले जानना बहुत मुश्किल है। पहले तो मैंने कहा, असंभूत ब्रह्म को संभूत ब्रह्म के मुकाबले जानना बहुत मुश्किल है। अब मैं आपसे कहता हूं, दो उपाय हैं- या तो जन्म के पहले रिग्रेस कर जाएं। ध्यान में इतने पीछे चले जाएं उतरकर कि जन्म के पहले चले जाएं तो असंभूत का अनुभव हो। दूसरा उपाय यह है कि ध्यान में इतने आगे बढ़ जाएं कि मर जाएं और मौत के आगे निकल जाएं, तो असंभूत ब्रह्म का अनुभव हो जाएगा।  इन दोनों में मरने का प्रयोग आसान है, क्योंकि वह भविष्य है। पीछे लौटना असंभव है, आगे ही जाना संभव है। बचपन के वस्त्र पहनने बहुत मुश्किल हैं, गर्भ में वापस लौटना अति कठिन है क्योंकि बहुत संकरा होता जाता है मार्ग। लेकिन ढीले वस्त्र, मौत के ढीले वस्त्र पहनने बहुत आसान हैं। मार्ग विस्तीर्ण होता चला जाता है।  ध्यान रहे, जन्म का द्वार बहुत छोटा है, मृत्यु का द्वार बहुत बड़ा है। दोनों में मृत्यु आसान है। वैसे जन्म के पार भी जाना संभव है।
उसकी भी प्रक्रियाएं हैं, उसके भी मार्ग हैं, लेकिन अति कठिन हैं। मैं जिस ध्यान की बात कर रहा हूं वह मृत्यु का प्रयोग है। वह मृत्यु में छलांग है। अपने हाथ से मरकर देखना है। अगर घटना घट जाए और जानते हुए आप मृत्यु में उतर जाएं और ऐसे हो जाएं जैसे नहीं हैं तो असंभूत का चेहरा दिखायी पड़ेगा। वह चेहरा दिखायी पड़ेगा जो जन्म के पहले है और मृत्यु के बाद है, वह भी चेहरा है। प्रक्रिया भले ही दो हो जाए, पर बिंदु वह एक ही है। आप चाहे पीछे लौटकर उस बिंदु को देखें, चाहे आगे जाकर उस बिंदु को देखें, लेकिन सरल है आगे जाना।  इसलिए मेरा आग्रह मृत्यु पर है। मैं यह नहीं कहता कि आप लौटकर देखें, जन्म के पहले क्या चेहरा था! मैं कहता हूं, जरा आगे बढ़कर, झांककर देखें कि मृत्यु के बाद क्या चेहरा होगा मृत्यु स्वेच्छा से स्वीकृत, ध्यान बन जाती है। और अगर कोई व्यक्ति इस मृत्यु को सिर्फ थोड़े ही क्षणों में न जीना चाहे, बल्कि पूरे जीवन में जीना चाहे तो संन्यास बन जाता है। संन्यास का अर्थ है : जीते जी इस तरह से जीना जैसे मर गए!  एक झेन फकीर हुआ है, बोकोजू- संन्यास लिया उसने। गांव से गुजरता था, किसी आदमी ने गालियां दीं। उसने खड़े होकर सुनीं। पास की दुकान के मालिक ने कहा, खड़े होकर सुन रहे हो वह गालियां दे रहा है। बोकोजू ने कहा, बट नाऊ आई ऐम डेड, लेकिन मैं मरा हुआ आदमी हूं। अब मैं जवाब कैसे दे दूं उस आदमी ने कहा, मरे हुए आदमी पूरी तरह जीते हुए दिखायी पड़ रहे हों!  तो बोकोजू ने कहा, जब मर ही जाऊंगा, तब मरने में मेरा क्या गुण होगा- जीते जी मर रहा हूं!
इसमें कुछ मेरा गुण है। जब मर ही जाऊंगा, तब तो मरूंगा ही। तब तो सभी मरते हैं। मैं तो जीते जी मर गया हूं। उस होटल के मालिक ने कहा, हम कुछ समझे नहीं। तो बोकोजू ने कहा, जन्म तो अनजाने में हो गया। मृत्यु से जानकर गुजरना चाहता हूं। जन्म के वक्त चूक गया एक मौका, जबकि उसे जान सकता था, जो जन्म के पहले था, वह चूक गया- ‘दैट अपरचुनिटी हैज बीन मिस्ड’!  लेकिन ध्यान रहे, अगर मृत्यु अचानक आएगी, जैसा कि जन्म आया था तो उसको भी चूक जाएंगे। लेकिन अगर आपने तैयारी करके मृत्यु को दरवाजा दिया, आप तैयार रहें, तो ठीक है। संन्यासी का मतलब भी यही है- मरना अपनी तरफ से, स्वेच्छा से, ‘वालंटरी डेथ’। मरते जाना ऐसे होते जाना जैसे मर ही गए! जब कोई गाली दे तो जानना कि मैं मर गया हूं। जब आप मर जाएंगे और आपकी कब्र पर कोई खड़े होकर गाली देगा तब आप क्या करेंगे वही करना! जब आप मर जाएंगे और आपकी खोपड़ी कहीं पड़ी होगी और कोई लात मारेगा तो जो उस वक्त करें, वही अभी भी करना- संन्यास का अर्थ यही है!  तो हम असंभूत ब्रह्म में उतर जाएंगे। और नहीं तो मौत का अवसर भी चूक जाएगा। और ऐसा नहीं कि एक दफा कई दफा चूके! जन्म का भी कई बार चूका है, इस बार तो चूका ही है, इसके पहले जन्म का, अनेक बार का चूका, और मृत्यु का अनेक बार चूका। हम कोई नए नहीं हैं मरने और जीने में, पुराने अभ्यासी हैं। बहुत बार जन्म ले चुके, बहुत बार मर चुके, ‘आफेन एडेक्टेड’ हैं। यह ढंग हो गया है हमारा, पर यह ढंग आगे भी चलाना है या नहीं चलाना है, यह निर्णय लेना चाहिए। अभी एक अवसर आगे आ रहा है मौत का। उस अवसर के लिए तैयारी करते जाना चाहिए तो संभूत में प्रवेश हो जाएगा।  जो असंभूत में प्रवेश करता है, ऋषि कहता है, वह अमृत को जान लेता है। जो संभूत को जान लेता है वह मृत्यु को जीत लेता है। जो असंभूत में प्रवेश करता है वह अमृत को जान लेता है। क्योंकि जब हम मृत्यु में पूरी तरह प्रवेश कर जाते हैं, सब भांति मर जाते हैं और फिर भी पाते हैं कि नहीं मरे, तो अमृत की उपलिंध हो गयी। जब कोई गाली देता है और आप मुर्दे की भांति होते हैं और फिर भी जानते हैं कि मैं हूं, और गाली का उत्तर नहीं आता।  जब कोई आपका हाथ काट दे, गर्दन काट दे, और गर्दन कटती हो, तब भी आप जानते हैं कि गर्दन कट रही है, फिर भी मैं हूं, तो अमृत का द्वार खुल गया। मृत्यु से जो बचेगा, अमृत से वंचित रह जाएगा।
मृत्यु में जो उतरेगा, वह अमृत को उपलींध हो जाता है।  असंभूत ब्रह्म को जान लेना अमृत की उपलिंध है क्योंकि असंभूत अमृत है। वह जन्म के पहले और मृत्यु के बाद है, इसलिए अमृत है। न वह कभी जन्मता है इसलिए उसके मरने का कोई उपाय नहीं।

ओशो

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