क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-16) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-26
अहिंसा का अर्थ
मैं उन दिनों का स्मरण करता हूं जब चित्त पर घना अंधकार था और स्वयं के भीतर कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ता था। तब की एक बात ख्याल में है। वह यह कि उन दिनों किसी के प्रति कोई प्रेम प्रतीत नहीं होता था। दूसरे तो दूर, स्वयं के प्रति भी कोई प्रेम नहीं था। फिर, जब समाधि को जाना तो साथ ही यह भी जाना कि जैसे भीतर सोए हुए प्रेम से अनंत झरने अनायास ही सहज और सक्रिय हो गए हैं। यह प्रेम विशेष रूप से किसी के प्रति नहीं था। यह तो बस था, और सहज ही प्रवाहित हो रहा था। जैसे दीए से प्रकाश बहता है और फूलों से सुगंध, ऐसे ही वह भी बह रहा था। बोध के उस अद्भुत क्षण में जाना था कि वह तो स्वभाव का प्रकाश है। वह किसी के प्रति नहीं होता है। वह तो स्वयं की स्फुरणा है। इस अनुभूति के पूर्व प्रेम को मैं राग मानता था। अब जाना कि प्रेम और राग तो भिन्न हैं। राग तो प्रेम का अभाव है।वह घृणा के विपरीत है, इसीलिए ही राग कभी भी घृणा में परिणत हो सकता है। राग और घृणा का जोड़ा है। वे एक-दूसरे में परिवर्तनीय हैं। प्रेम घृणा से विपरीत नहीं, भिन्न है। प्रेम घृणा और राग से अन्य है। वह आयाम ही दूसरा है। वह तो दोनों का अभाव है। किंतु वह उपेक्षा भी नहीं है। उपेक्षा मात्र अभाव है। प्रेम किसी अत्यंत ही अभिनव ऊर्जा का सद्भाव भी है। यह ऊर्जा स्वयं से सर्व के प्रति बहती है, लेकिन सर्व से आकर्षित होकर नहीं, वरन स्वयं से स्फुरित होकर! प्रेम को जानकर मैंने अहिंसा का अर्थ जाना। यह अर्थ शास्त्र से नहीं, स्वयं से आया। स्वानुभव ने सब सुलझा दिया। प्रेम संबंध हो, तो राग है; प्रेम असंबंध, असंग और स्वस्फूर्त प्रवाह हो, तो अहिंसा है। इसीलिए मैं कहने लगा कि वीतराग प्रेम अहिंसा है। एक संन्यासी पूछता था कि जिस प्रेम की आप बात करते हैं, उसे कैसे पाएं मैंने कहा- प्रेम सीधा नहीं पाया जाता है। वह तो परिणाम है। प्रज्ञा को उपलींध करो, तो प्रेम पारिश्रमिक में मिल जाता है। असली बात है प्रज्ञा। उसका दीया जलेगा, तो प्रेम का प्रकाश मिलेगा ही। प्रज्ञा हो और प्रेम न हो, यह असंभव है। ज्ञान हो और अहिंसा न हो, यह कैसे हो सकता है इसलिए ही अहिंसा को सत्य-ज्ञान की परीक्षा माना गया है। वह परम धर्म है, क्योंकि वह आत्यंतिक कसौटी है। उसके निष्कर्ष पर खरा उतरकर ही धर्म खरा साबित होता है। प्रज्ञा कैसे उपलींध हो, यह विचारणीय है! धर्म की मूल जिज्ञासा भी यही है। हममें जो ज्ञानशक्ति है, वह विषय-मुक्त हो तो प्रज्ञा बन जाती है। विषय के अभाव में ज्ञान स्वयं को ही जानता है। स्वयं के द्वारा स्वयं का ज्ञान ही प्रज्ञा है। उस बोध में न कोई ज्ञाता होता है, न कोई ज्ञेय, मात्र ज्ञान की शुद्ध शक्ति ही शोष रह जाती है। उसका स्वयं से स्वयं का प्रकाशित होना प्रज्ञा है- ज्ञान का यह स्वयं पर लौट आना! मनुष्य-चेतना की सबसे बड़ी क्रांति से ही मनुष्य स्वयं से संबंधित होता है और जीवन के प्रयोजन और अर्थवत्ता का उसके समक्ष उद्घाटन होता है। ऐसी क्रांति समाधि से उपलींध होती है। प्रज्ञा का साधन समाधि है। समाधि साधन है; प्रज्ञा साध्य है, प्रेम उस सिद्धि का परिणाम है। मनुष्य-चित्त सतत विषय-प्रवाह से भरा है। कोई न कोई ज्ञेय हमारे ज्ञान को घेरे हुए है। ज्ञेय से ज्ञान को मुक्त करना है। उस खूंटी से मुक्त होकर ही उसकी स्वयं में स्थिरता और प्रतिष्ठा होगी। समाधि इस मुक्ति का उपाय है। सुषुप्ति भी मुक्ति होती है लेकिन वह अवस्था मूर्च्छित है। सुषुप्ति में मन स्वयं में लीन हो जाता है। यह स्थिति उसका अपना स्वरूप है। इसे ही कहते हैं- ‘स्वप्ति’ .सोता है! स्व का अर्थ है अपने आप, और अप्ति का अर्थ है ‘प्रवेश कर जाना’। अपने आप में प्रवेश कर जाना ही सुषुप्ति है। समाधि और सुषुप्ति केवल एक बात को छोड़कर बिल्कुल समान हैं। सुषुप्ति अचेतन और मूर्च्छित अवस्था है- समाधि पूर्ण चेतन और अप्रकट। इसीलिए सुषुप्ति में हम जगत के साथ एक हो गए मालूम होते हैं- और समाधि में परम चेतना के साथ। इसीलिए स्मरण रहे कि समाधि सुषुप्ति नहीं है। अनेक मनस्तत्ववेत्ताओं का ख्याल है कि चेतना जब निर्विषय होगी, तो निद्रा आ जाएगी। यह भ्रांति बिना प्रयोग किए सोचने से पैदा हुई है। चेतना सो जाए तो निर्विषय हो जाती है। लेकिन इससे यह फलित नहीं होता है कि वह निर्विषय होगी तो सो जाएगी। उसे निर्विषय बनाना ही इतने श्रम और सचेष्ट जागरूगता से होता है कि उसकी उपलिंध पर सो जाना असंभव है। उसकी उपलिंध पर तो शुद्धबुद्धता ही शेष रह जाती है। समाधि-साधना के तीन अंग हैं- एक : चित्त-विषयों के प्रति अनासक्ति; दो : चित्त-वृत्तियों के प्रति जागरूकता और तीनः चित्त-साक्षी की स्मृति! चित्त-विषयों के प्रति अनासक्ति से उनके संस्कार बनने बंद होते हैं, और चित्त-वृत्तियों के प्रति जागरूकता से उन वृत्तियों का क्रमशः विसर्जन प्रारंभ होता है, और चित्त-साक्षी की स्मृति से स्वयं प्रवेश का द्वार खुलता है। जो वस्तु जहां उद्गम पाती है उससे ही अंततः लीन भी होती है। उद्गम बिंदु ही लय बिंदु भी होता है। और जो उद्गम है, जो लय है, वही स्व-स्वरूप भी है। समाधि चित्त की लयावस्था है, जैसे सागर की लहरें सागर में ही अंततः लय को प्राप्त हो जाती हैं, वैसे ही चित्त भी, समाधि अवस्था में अपनी समस्त वृत्तितरंगों को शून्य कर परम चेतना में लय होता है। चित्त और चित्त-वृत्तियों के समग्र संस्थान का केंद्र अहंकार है। उनके विलीन होने से वह भी विसर्जित हो जाता है। तब जो शेष रहता है, और जिसकी अनुभूति होती है, वही आत्मा है। अहिंसा क्या है यह तो रोज ही मुझसे पूछा जाता है। मैं कहता हूं, आत्मा को जान लेना अहिंसा है। मैं यदि स्वयं को जानने में समर्थ हो जाऊं, तो साथ ही सबके भीतर जिसका वास है, उसे भी जान लूंगा। इस बोध से प्रेम उत्पन्न होता है, और प्रेम के लिए किसी को भी दुःख देना असंभव है। किसी को दुःख देने की यह असंभावना ही अहिंसा है। आत्म-अज्ञान का केंद्रीय लक्षण अहं है। उससे ही समस्त हिंसा उत्पन्न होती है। ‘मैं’ सब कुछ हूं और शेष जगत मेरे लिए है। ‘मैं’ समस्त सत्ता का केंद्र और लक्ष्य हूं- इस ‘मैं’ भाव से पैदा हुआ शोषण ही हिंसा है। आत्मज्ञान का केंद्रीय लक्षण प्रेम है। जहां अहं शून्य होता है, वहीं प्रेम पूर्ण होता है। जगत में दो ही प्रकार की चेतना-स्थितियां हैं- अहं की और प्रेम की। अहं संकीर्ण और अणुस्थिति है- प्रेम विराट और ब्रह्म। अहं का केंद्र ‘मैं’ है, प्रेम का कोई केंद्र नहीं है, या ‘सर्व’ ही उसका केंद्र है। अहं अपने लिए जीता है, प्रेम सबके लिए जीता है। अहं शोषण है, प्रेम सेवा है। प्रेम से सहज प्रवाहित सेवा ही अहिंसा है। समाधि को साधो, ताकि तुम्हारा जीवन प्रज्ञा के प्रकाश से भर जाए। जब भीतर प्रकाश होगा, तभी बाहर प्रेम बहेगा। प्रेम आत्मिक उत्कर्ष और उपलिंध का श्रेष्ठतम फल है। जो उसे पाए बिना समाप्त हो जाते हैं, वे जीवन को बिना जाने ही समाप्त हो जाते हैं। प्रेम को नहीं जाना तो कुछ भी नहीं जाना, क्योंकि प्रेम ही प्रभु है!
ओशो
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